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शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

बुंदेली गीत, अठपदी, कोरोना, खुसरो, श्री, गीत गोविंद, जयदेव, चोका, गीत, मुक्तिका, नवगीत, दोहा,

विमर्श : भोजन करिये बाँटकर
ऋग्वेद निम्नानुसार बाँटकर भोजन करने को कहता है-
१. जमीन से चार अंगुल भूमि का
२. गेहूँ के बाली के नीचे का पशुओं का
३. पहले पेड़ की पहली बाली अग्नि की
४. बाली से गेहूं अलग करने पर मूठ्ठी भर दाना पंछियो का
५. गेहूं का आटा बनाने पर मुट्ठी भर आटा चीटियो का
६. फिर आटा गूथने के बाद चुटकी भर गुथा आटा मछलियो का
७. फिर उस आटे की पहली रोटी गौमाता की
८. पहली थाली घर के बुज़ुर्ग़ो की और फिर हमारी
९. आखिरी रोटी कुत्ते की
२८-४-२०२२
***
बुंदेली गीत
मैया! लै लो अपनी कइंया
रेवा! दुनिया भाती नइंया
संग न सजनी, साथ न सइंया
निज आँचल की दे दो छइंया
*
जग में आया ले कुछ साँसें
भरमाया पालीं कुछ आसें
रिश्ते-नाते पाले, टूटे
जिसको अपना समझा लूटे
कोऊ नहीं है भला करइंयां
मैया! ले लो अपनी कइंया
*
साथ रही कब जोड़ी माया
तम में छूटी अपनी छाया
आखिर खाली हाथ रह गया
कोई अपना साथ कब गया?
हूँ शरणागत थामो बइंया
मैया! ले लो अपनी कइंया
*
जला दिया रिश्ते-नातों ने
भ्रम तोड़ा झूठी बातों ने
अस्थि-भस्म हो तुमको पाया
कुछ-कुछ डूबा, कुछ उतराया
मत ठुकरा माँ! पकड़ूँ पइंयां
मैया! ले लो अपनी कइंया
*
मुझको सिकता-कंकर कर दो
कंकर से शिव शंकर कर दो।
बिगड़ी गति ले अंक सुधारो
भव सागर के पार उतारो
तुमईं सहारा हो इक ठइंया
मैया! ले लो अपनी कइंया
२७-४-२०२१
***
दोहा अठपदी :
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजाकर, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत माँ का ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
भारत माँ को सुहाती, लालित्यमय बिंदी
जनगण जिव्हा विराजती, विश्ववाणी हिंदी
२८-४-२०२१
***
कोरोना विमर्श : ४
को विद? पूछे कोरोना
*
को अर्थात कौन और विद अर्थात विद्वान। कोविद आज यही परख रहा है कि विद्वान कौन है? विद्वान वह जिसके पास विद्या हो किन्तु केवल विद्या ही पर्याप्त नहीं होती। पंचतंत्र की एक कथा है जिसमें चार मित्र अपने गुरु से विद्या प्राप्त कर जीवन यापन हेतु संसार सागर में प्रवेश करते हैं। रास्ते में उनके मन में संशय होता है कि अपने ज्ञान को परख लें। उन्हें एक शेर का अस्थि पंजर मिलता है। पहला मित्र उसे अस्थियों को जोड़ देता है, दूसरा उस पर मांस-चर्मादि चढ़ा देता है, तीसरा उसमें प्राण डालने लगता है तो चौथा रोकता है पर वह नहीं मानता। तब वह वृक्ष पर चढ़ जाता है। प्राण पड़ते ही शेर तीनों को मार डालता है। इस बोधपरक लघुकथा का संदेश यही है कि केवल किताबी ज्ञान पर्याप्त नहीं होता, व्यावहारिक ज्ञान भी आवश्यक है।
कोविद ने यही पूछा को विद? अमेरिका, इटली, जर्मनी आदि तथाकथित देशों ने पहले तीन मित्रों की तरह आचरण किया और दुष्परिणाम भुगता। भारत ने चौथे मित्र की तरह सजगता और सतर्कता को महत्व दिया और अपने आप को अधिकतम जनसँख्या, अधिकतम सघनता और न्यूनतम चिकित्सा सुविधा और संसाधनों के बावजूद सबसे कम हानि उठाई। इसका यह आशय कतई नहीं है कि निश्चिन्त हो जाएँ कि हम सुरक्षित हो गए। चौथा मित्र गफलत में नीचे आया तो शेर उसे भी नहीं छोड़ेगा। चौथे मित्र को शेर के जाने, उजाला होने और अन्य लोगों के आने तक सजगता बरतनी ही पड़ेगी।
को विद? इस प्रश्न का उत्तर भारतवासी मुसलमानों को भी देना है। दुर्भाग्य से भारत में तब्लीगी, मजलिसी, जिहादी आदि एक तबका ऐसा है जो धर्मांध मुल्लाओं, मौलवियों आदि को मसीहा मानकर उनका अंधानुकरण करता है। यह तबका हर सुधारवादी कदम का विरोध करना ही अपना मजहब समझता है। संकीर्ण दृष्टि और स्वार्थपरकता इन तथाकथित धर्माचार्यों को बाध्य करती है वे अपने अनुयायियों को अशिक्षा और जहालत में रखकर अन्धविश्वास और अंधानुकरण को बढ़ावा देते रहें। सुशिक्षित, समझदार, प्रगतिवादी मुसलमान संख्या में कम और भीरु प्रवृत्ति का है। इसलिए वह चाहकर भी शेष समाज के साथ नहीं चल पाता। उन्हें अपने आप से सवाल करने होंगे और उनके उत्तर भी खोजने होंगे। क्या अच्छा मुसलमान अच्छा इंसान या अच्छा नागरिक नहीं हो सकता? यदि नहीं, तो उसे पूरी दुनिया में लांछित और दंडित किया जाना सही है। तब उसे नष्ट होने से कोई बचा नहीं सकता। यदि हाँ, तो उन्हें अपनी पहचान तथाकथित धर्मांध लोगों और अतवादी आतंवादियों से अलग बनाई होगी और बहुसंख्यक मध्य धारा के साथ नीर-क्षीर की तरह मिलना होगा।
को विद? इस सवाल से बहुसंख्यक सनातनधर्मी हिन्दू भी बच नहीं सकते। वसुधैव कुटुम्बकम, विश्वैक नीड़म् आदि की उदात्त परंपरा की विरासत के बावजूद जाति-पाँति, छुआछूत, वर्ण विभाजन, अन्य धर्मावलंबियों को हीन समझने की मानसिकता को छोड़ना ही होगा। आरक्षण विरोध की दुंदुभी बजानेवाले क्या आरक्षित वर्ग के डॉक्टर से इलाज नहीं कराएँगे? खुद को श्रेष्ठ समझनेवाला ब्राह्मण क्या अनुसूचित जनजाति के पुलिसवाले की मदद नहीं लेगा? बाहुबल के आधार पर गाँवों में मनमानी करनेवाला क्षत्रिय वर्ग क्या खुद अपने आपकी रक्षा कर सकता है? हम सबको समझना होगा कि हाथ की अँगुलियाँ यदि मुट्ठी बनकर नहीं रहीं तो एक-एक कर सब का विनाश हो जाएगा।
को विद? से बच तो शासन और प्रशासन भी नहीं सकता। उसे आज नहीं तो कल यह समझना ही होगा कि पुलिस का काम 'तथा कथित महत्वपूर्णों की रक्षा' नहीं जन सामान्य की सेवा और सहायता करना है। जिस दिन भारत ,में 'पुलिस' को केवल और केवल 'पुलिसिंग' करने दी जाएगी उस दिन देश में सच्चे लोकतंत्र का आरंभ हो जायेगा। लोकतंत्र में लोक ही सर्वशक्तिमान होता है जो अपनी शक्ति अपने प्रतिनिधियों में आरोपित करता है। कोविद काल में चिकित्सकों और पुलिस कर्मियों द्वारा अहर्निश सेवा हेतु उनका वंदन-अभिनन्दन होना ही चाहिए किन्तु अबाधित विद्युत् प्रदाय, जल प्रदाय, सैनिटेशन व्यवस्था, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, यातायात आदि को सुचारु रखने में प्राण-प्राण से समर्पित अभियंता वर्ग की सेवा को भी स्मरण किया जाना चाहिए। यह ठीक है कि अभियंता का कार्य भोजन में जल या भवन में नींव की तरह अदृश्य होता है पर यह भी उतना ही सत्य है कि उसके बिना शेष कार्यों पर गंभीर दुष्प्रभाव होता है। इसलिए 'देर आयद दुरुस्त आयद' अभियंता वर्ग के प्रति देश और समाज को सद्भावना व्यक्त करनी ही चाहिए।
इस कोविद काल में जन प्रतिनिधियों ने निकम्मेपन, अदूरदर्शिता, संवेदनहीनता और जन सामान्य से दूरी की मिसाल हर दिन पेश की है। शाहीन बाग़, तब्लीगी जमात, दिल्ली में मजदूरों का पलायन, मुम्बई में आप्रवासियों की भीड़ के इन और इन जैसे अन्य प्रसंगों में वहाँ के पार्षद, जनपद सदस्य, विधायक, सांसद अपने मतदाता के साथ थे? यदि नहीं तो क्या यह उनका संवैधानिक कर्तव्य नहीं था। कर्तव्य निर्वाण न करने के कारन क्यों न उनका निर्वाचन निरस्त हो। क्या राष्ट्रीय आपदा का सामना करना केवल सत्ताधारी दल को कारण है। क्या हर स्तर पर सर्वदलीय सेवा समितियां बनाकर जन जागरण, जन शिक्षण और जन सहायता का कार्य बेहतर और जल्दी नहीं किया जा सकता ? सत्ता दल की विशेष जिम्मेदारी है कि दलीय हित साधने में अन्य दलों से इतनी दूरी न बना ली जाए की संकट के समय भी हाथ न मिल सकें। लोकतंत्र में सत्ता पर दाल बदलते रहते हैं इसलिए देशहित को दलहित के ऊपर रखना ही चाहिए। सत्ता दल के अंधभक्त, विशेषकर बड़बोले और अनुशासनहीन हुल्लड़बाजों को नियंत्रण में रखा जाना परमावश्यक है। घंटी बजने के समय सड़कों पर भीड़ लगानेवाले, ज्योति जलने के समय बम फोड़ने, मोब लॉन्चिंग करने, असहमति होने पर गाली-गुफ़्तार करनेवाले किसी भी दल के लिए हितकर नहीं हो सकते और देशभक्त तो हो ही नहीं सकते।
को विद? इस कोविद काल में यह प्रश्न हम सबको और हममें से हर एक को खुद से पूछना ही होगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
हम कौन हैं?, क्या हो गए हैं?
और क्या होंगे अभी?
आओ! विचारें आज मिलकर
ये समस्याएँ कभी।
***
विरासत : आमिर खुसरो
ग़ज़ल : फ़ारसी + हिंदुस्तानी
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, दुराये नैना बनाये बतियां ।
किताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान, न लेहो काहे लगाये छतियां ।।
शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़ वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ।।
यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियां ।।
चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान हमेशा गिरयान, बे इश्क़ आं मेह ।
न नींद नैना, ना अंग चैना ना आप आवें, न भेजें पतियां ।।
बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर कि दाद मारा, फरेब खुसरौ ।
सपेत मन के, दराये राखूं जो जाये पांव, पिया के खटियां ।
(स्रोत : ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल -अमीर ख़ुसरो)
*
अर्थ :
मुझ गरीब की बदहाली को नज़रंदाज़ न करो - नयना चुरा के और बातें बना के अब जुदा रहने की सहन शक्ति नहीं है ( नदारम ) मेरी जान , मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते हो?
जुदाई की रातें लम्बी जुल्फों की तरह लम्बी हैं और मिलन का दिन उम्र की तरह छोटी सखी , प्रियतम को न देखूं तो कैसे अँधेरी रातें काटूं (मेरी जिंदगी उसी से रोशन है)
यकायक , दो जादू भरी आँखें सैकड़ों ( ब सद ) तिलिस्म ( फरेबम ) करके दिल से (अज ) सुख चैन ( तस्कीं ) ले उड़ीं ( बाबुर्द ) किसे इस बात की फ़िक्र पड़ी है कि प्यारे पिया को हमारी ये बातें ( चैन उड़ा लेने वाली ) जा के सुनाए ( ताकि उन्हें पता तो चले )
जैसे शमा जलती है जैसे हर ज़र्रा विस्मित है वैसे ही मैं भी इस चाँद (मह ) का सूरज (मेहर) आखिर बन ही गया (बगश्तम) अर्थात जैसे शमा जलती है हर जर्रा विस्मित व बेचैन है वैसी ही खुद को जला देने वाली अत्यंत तेज़ आग मुझे भी आखिर ( प्यार की ) लग ही गयी न आँखों में नींद है न अंगों को चैन , न आप आते हैं न ही आप के पत्र आते हैं
उसे ही हक है कि मिलन ( विसाल ) का दिन तय करे या फरेब करे , तब तक तक मन के भेद अन्दर ही रखूँ ( दो तरफ़ा -प्यार का या नहीं ) जब तक की दिलबर का पता नहीं मिल जाता ( खतियाँ ) .
नुसरत फ़तेह अली खान ने गाया है :
सपीत मन के, दराये राखूं, जो जाये पांव, पिया के खतियां
मन के सफ़ेद मोती , बचा के रखूं ,जब तक कि दिलबर का पता नहीं मिल जाता ( खतियाँ ) .
गुलज़ार ने चलचित्र गुलामी में लिखा है -
जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बरंजिश , बेहाल-ए -हिजरा बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है
जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बरंजिश = गरीब की बदहाली पर रंजिश न करो
*
कोरोना की जयकार करो
*
कोरोना की जयकार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
*
घरवाले हो घर से बाहर
तुम रहे भटकते सदा सखे!
घरवाली का कब्ज़ा घर पर
तुम रहे अटकते सदा सखे!
जीवन में पहली बार मिला
अवसर घर में तुम रह पाओ
घरवाली की तारीफ़ करो
अवसर पाकर सत्कार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
जैसी है अपनी किस्मत है
गुणगान करो यह मान सदा
झगड़े झंझट बहसें छोडो
पाई जो उस पर रहो फ़िदा
हीरोइन से ज्यादा दिलकश
बोलो उसकी हर एक अदा
हँस नखरे नाज़ उठाओ तुक
चरणों कर झुककर शीश धरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
झाड़ू मारो, बर्तन धोलो
फिर चाय-नाश्ता दे बोलो
'भोजन में क्या तैयार करूँ'
जो कहें बना षडरस घोलो
भोग लगाकर ग्रहण करो
परसाद' दया निश्चय होगी
झट दबा कमर पग-सेवा कर
उनके मन की हर पीर हरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
विमर्श : 'श्री'
*
'श्री' पूरे ब्रह्मांड की प्राण-शक्ति है। श्री = शोभा, लक्ष्मी और कांति।
श्रीयुत का मतलब प्राणयुक्त है। 'श्री' का शब्द का सबसे पहले उपयोग ऋग्वेद में हुआ है। जो 'श्री' युक्त है उसका निरंतर विकास होगा, वह समृद्ध और सुखी होगा। ईश्वर श्री से ओतप्रोत है। परमात्मा को वेद में अनंत श्री वाला कहा गया है।
मनुष्य अनंत-धर्मा नहीं है, वह असंख्य श्री वाला तो नहीं हो सकता है, लेकिन पुरुषार्थ से ऐश्वर्य हासिल करके वह श्रीमान बन सकता है। जो पुरुषार्थ नहीं करता, वह श्रीमान कहलाने का अधिकारी नहीं है।
वर्तमान में सम्मानित या बड़े के नाम के पूर्व श्री लगाया जाता है। यह शिष्टाचार मात्र है।
स्वर्गीय यानी जो दिवंगत हो गए, जिनकी देह नहीं है, जिनका ईश्वर में लय हो गया हो उन्हें स्वर्गीय या स्मरणीय कह सकते हैं पर उनके नाम के आगे 'श्री' लगाया जाना अनुपयुक्त है। दिवंगत का न तो विकास संभव है न वह समृद्ध या सुखी हो सकता है। इसलिए दिवंगतों के नाम के पूर्व श्री या श्रीमती नहीं लगाना चाहिए।
***
गीत गोविंद : जयदेव
*
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ग्रहं प्रापय।
इत्थं नंदनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुंजद्रुमं राधमाधवयोर्जयंति यमुनाकूले रह: केलय:।।
*
नील गगन पर श्यामल बादल, वन्य भूमि पर तिमिर घना है।
संध्या समय भीति भव; राधा एकाकी; घर दूर बना है।।
नंद कहें 'घर पहुँचाओ' सुन, राधा-माधव गये कुंज में-
यमुना तट पर केलि करें, जग माया-ब्रह्म सुस्नेह सना है।।
*
वाग्देवताचरितचित्रितचित्तसद्मापद्मावतीचरणचारण चक्रवर्ती।
श्रीवासुदेवरतिकेलिकथासमेतंमेतं करोति जयदेवकवि: प्रबंधम्।।
यदिहरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
मधुरकोमलकांतपदावलीं श्रणु तदा जयदेवसरस्वतीम्।।
*
वाग्देव चित्रित करें चित लगा, कमलावती पद-दास चक्रधारी।
श्री वासुदेव की सुरति केलि कथा, जयदेव कवि प्रबंध रच बखानी।।
यदि मन में हरि सुमिरन की है चाह, यदि कौतूहल जानें कला विलास।
सुनें सुमधुरा कोमलकांत पदावलि, जयदेव सरस्वती संग लिये हुलास।।
*
भावानुवाद : संजीव
२८-४-२०२०
***
जापानी वार्णिक छंद चोका :
*
चोका एक अपेक्षाकृत लम्बा जापानी छंद है।
जापान में पहली से तेरहवीं सदी में महाकाव्य की कथा-कथन की शैली को चोका कहा जाता था।
जापान के सबसे पहले कविता-संकलन 'मान्योशू' में २६२ चोका कविताएँ संकलित हैं, जिनमें सबसे छोटी कविता ९ पंक्तियों की है। चोका कविताओं में ५ और ७ वर्णों की आवृत्ति मिलती है। अन्तिम पंक्तियों में प्रायः ५, ७, ५, ७, ७ वर्ण होते हैं
बुन्देलखण्ड के 'आल्हा' की तरह चोका का गायन या वाचन उच्च स्वर में किया जाता रहा है। यह वर्णन प्रधान छंद है।
जापानी महाकवियों ने चोका का बहुत प्रयोग किया है।
हाइकु की तरह चोका भी वार्णिक छंद है।
चोका में वर्ण (अक्षर) गिने जाते हैं, मात्राएँ नहीं।
आधे वर्ण को नहीं गिना जाता।
चोका में कुल पंक्तियों का योग सदा विषम संख्या में होता है ।
रस लीजिए कुछ चोका कविताओं का-
*
उर्वी का छौना
डॉ. सुधा गुप्ता
*
चाँद सलोना
रुपहला खिलौना
माखन लोना
माँ का बड़ा लाडला
सब का प्यारा
गोरा-गोरा मुखड़ा
बड़ा सजीला
किसी की न माने वो
पूरा हठीला
‘बुरी नज़र दूर’
करने हेतु
ममता से लगाया
काला ‘दिठौना’
माँ सँग खेल रहा
खेल पुराना
पेड़ों छिप जाता
निकल आता
किलकता, हँसता
माँ से करे ‘झा’
रूप देख परियाँ
हुईं दीवानी
आगे-पीछे डोलतीं
करे शैतानी
चाँदनी का दरिया
बहा के लाता
सबको डुबा जाता
गोल-मटोल
उजला, गदबदा
रूप सलोना
नभ का शहज़ादा
वह उर्वी का छौना
***
ये दु:ख की फ़सलें
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
*
खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे ।
***
पड़ोसी मोना
मनोज सोनकर
*
आँखें तो बड़ी
रंग बहुत गोरा
विदेशी घड़ी
कुत्ते बहुत पाले
पड़ोसी मोना
खुराक अच्छी डालें
आजादी प्यारी
शादी तो बंधन
कहें कुंवारी
अंग्रेज़ी फ़िल्में लाएं
हिन्दी कचरा
खूब भुनभुनाएं
ब्रिटेन भाए
बातचीत उनकी
घसीट उसे लाए
***
पेड़ निपाती
सरस्वती माथुर
*
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पत्ते फिर फूटेंगे ।
***
विछोह घडी
भावना कुँवर
*
बिछोह -घड़ी
सँजोती जाऊँ आँसू
मन भीतर
भरी मन -गागर।
प्रतीक्षारत
निहारती हूँ पथ
सँभालूँ कैसे
उमड़ता सागर।
मिलन -घड़ी
रोके न रुक पाए
कँपकपाती
सुबकियों की छड़ी।
छलक उठा
छल-छल करके
बिन बोले ही
सदियों से जमा वो
अँखियों का सागर।
२८-४-२०१७
-0-
मुक्तिका
चाँदनी फसल..
*
इस पूर्णिमा को आसमान में खिला कमल.
संभावना की ला रही है चाँदनी फसल..
*
वो ब्यूटी पार्लर से आयी है, मैं क्या कहूँ?
है रूप छटा रूपसी की असल या नक़ल?
*
दिल में न दी जगह तो कोई बात नहीं है.
मिलने दो गले, लोगी खुदी फैसला बदल..
*
तुम 'ना' कहो मैं 'हाँ' सुनूँ तो क्यों मलाल है?
जो बात की धनी थी, है बाकी कहाँ नसल?
*
नेता औ' संत कुछ कहें न तू यकीन कर.
उपदेश रोज़ देते न करते कभी अमल..
*
मन की न कोई भी करे है फ़िक्र तनिक भी.
हर शख्स की है चाह संवारे रहे शकल..
*
ली फेर उसने आँख है क्यों ताज्जुब तुझे.?
होते हैं विदा आँख फेरकर कहे अज़ल..
*
माया न किसी की सगी थी, है, नहीं होगी.
क्यों 'सलिल' चाहता है, संग हो सके अचल?
*
द्विपदी 
शूल देकर साथ क्यों बदनाम हैं?
फूल छोड़ें साथ सुर्खरू क्यों हैं?
***
नवगीत:
.
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
विलग हुए भूखंड तपिश साँसों की
सही न जाती
भुज भेंटे कंपित हो भूतल
भू की फटती छाती
कहाँ भू-सुता मातृ-गोद में
जा जो पीर मिटा दे
नहीं रहे नृप जो निज पीड़ा
सहकर धीर धरा दें
योगिनियाँ बनकर
इमारतें करें
चेतना-कर्तन
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
पवन व्यथित नभ आर्तनाद कर
आँसू धार बहायें
देख मौत का तांडव चुप
पशु-पक्षी धैर्य धरायें
ध्वंस पीठिका निर्माणों की,
बना जयी होना है
ममता, संता, सक्षमता के
बीज अगिन बोना है
श्वास-आस-विश्वास ले बढ़े
हास, न बचे विखंडन
२८-४-२०१५
***
दोहा दुनिया
बात से बात
*
बात बात से निकलती, करती अर्थ-अनर्थ
अपनी-अपनी दृष्टि है, क्या सार्थक क्या व्यर्थ?
*
'सर! हद सरहद की कहाँ?, कैसे सकते जान?
सर! गम है किस बात का, सरगम से अनजान
*
'रमा रहा मन रमा में, बिसरे राम-रमेश.
सब चाहें गौरी मिले, हों सँग नहीं महेश.
*
राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..
*
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख.
चाह कहाँ कितनी रही?, करले इसका लेख..
*
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल.
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
*
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब.
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.
*
'डूबेगा तो उगेगा, भास्कर ले नव भोर.
पंछी कलरव करेंगे, मनुज मचाए शोर..'
*
'एक-एक कर बढ़ चलें, पग लें मंजिल जीत.
बाधा माने हार जग, गाये जय के गीत.'.
*
'कौन कहाँ प्रस्तुत हुआ?, और अप्रस्तुत कौन?
जब भी पूछे प्रश्न मन, उत्तर पाया मौन.'.
*
तनखा ही तन खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम.
*
२८-४-२०१४
गीत:
यह कैसा जनतंत्र...
*
यह कैसा जनतंत्र कि सहमत होना, हुआ गुनाह ?
आह भरें वे जो न और क़ी सह सकते हैं वाह...
*
सत्ता और विपक्षी दल में नेता हुए विभाजित
एक जयी तो कहे दूसरा, मैं हो गया पराजित
नूरा कुश्ती खेल-खेलकर जनगण-मन को ठगते-
स्वार्थ और सत्ता हित पल मेँ हाथ मिलाये मिलते
मेरी भी जय, तेरी भी जय, करते देश तबाह...
*
अहंकार के गुब्बारे मेँ बैठ गगन मेँ उड़ते
जड़ न जानते, चेतन जड़ के बल जमीन से जुड़ते
खुद को सही, गलत औरों को कहना- पाला शौक
आक्रामक भाषा ज्यों दौड़े सारमेय मिल-भौंक
दूर पंक से निर्मल चादर रखिए सही सलाह...
*
दुर्योधन पर विदुर नियंत्रण कर पायेगा कैसे?
शकुनी बिन सद्भाव मिटाये जी पाएगा कैसे??
धर्मराज की अनदेखी लख, पार्थ-भीम भी मौन
कृष्ण नहीं तो पीर सखा की न्यून करेगा कौन?
टल पाए विनाश, सज्जन ही सदा करें परवाह...
*
वेश भक्त का किंतु कुदृष्टि उमा पर रखे दशानन
दबे अँगूठे के नीचे तब स्तोत्र रचे मनभावन
सच जानें महेश लेकिन वे नहीं छोड़ते लीला
राम मिटाते मार, रहे फिर भी सिय-आँचल गीला
सत को क्यों वनवास? असत वाग्मी क्यों गहे पनाह?...
*
कुसुम न काँटों से उलझे, तब देव-शीश पर चढ़ता
सलिल न पत्थर से लडता तब बनकर पूजता
ढाँक हँसे घन श्याम, किन्तु राकेश न देता ध्यान
घट-बढ़कर भी बाँट चंद्रिका, जग को दे वरदान
जो गहरे वे शांत, मिले कब किसको मन की थाह...
२८-४-२०१४
***
नवगीत 
झुलस रहा गाँव
*
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा माल में नक़ल..
गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..
'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
***
नवगीत:
मत हो राम अधीर.........
*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, अभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिलन, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल वसुधा नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.
अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.
सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निर्मल नीर.....
***
कार्यशाला
काव्य प्रश्नोत्तर
संजय:
'आप तो गुरु हो.'
मैं:
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख
चाह कहाँ कितनी रही, करले इसका लेख..'
Sanjay:
'बढ़िया'
मैं:
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल।
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
Sanjay:
'क्या बात है लाजवाब।'
मैं:
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब।
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.
दोहा
*
तनखा तन को खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम..
***
कुण्डलिनी:
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजा दे, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत मान ता ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
२८-४-२०१०
***

फ्रंटियर मेल, चित्रगुप्त, कायस्थ, केदार, पशुपति, कुंडली छंद, मुक्तिका, नवगीत

विमर्श :
चित्रगुप्त माहात्मय
*
जो भी प्राणी धरती पर जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है, यही विधि का विधान है। चित्रगुप्त जी की जयंती मनाने का रथ है कि उनका जन्म हुआ, तब मृत्यु होना भी अटल है। क्या चित्रगुप्त जी की पुण्य तिथि किसी को ज्ञात है?

चित्रगुप्त जी परात्पर परब्रह्म हैं जो निराकार है। आकार नाहें है तो चित्र नहीं हो सकता, इसलिए चित्र गुप्त है। चित्रगुप्त जी और कायस्थों का उल्लेख ऋग्वेद आदि में है। सदियों तक कायस्थ राजवंशों ने शासन किया, कायस्थ महामंत्री रहे, महान सेनापति रहे, विखयात वैद्य रहे, महान विद्वान रहे, धनपति भी रहे पर चित्रगुप्त जी को केंद्र में रख मंदिर, मूर्ति, चालीसा, आदि नहीं बनाए। वे अशक्त नहीं थे, सत्य जानते थे। कायस्थ निराकार ब्रह्म के उपासक हैं, जबसे कायस्थों ने दूसरों की नकल कार साकार मूर्तिपूजा आरंभ की वे अशक्त होते गए।

पुराण कहता है- ''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनां'' चित्रगुप्त सब देवताओं में सबसे पहले प्रणाम करने के योग्य हैं क्योंकि वे सभी देहधारियों में आत्मा के रूप में स्थित हैं।

क्या आत्मा का आकार या चित्र है? आत्मा परमात्मा का अंश है। इसलिए सृष्टि में हर देहधारी की काया में आत्मा स्थित होने के कारण वह कायस्थ है। इसी कारण कायस्थ किसी एक धर्म, जाति, पंथ, संप्रदाय या देवता तक सीमित कभी नहेने रहे। वे देश-काल-परिस्थिति की आवश्यकतानुसार जनगण का नेत्रत्व कार अग्रगण्य रहे।

वर्तमान में यदि पुन: नेतृत्व पाना है तो अपनी जड़ों को, विरासत को पहचान-समेटकर बढ़ना होगा।
***
इतिहास - फ्रंटियर मेल

बल्लार्ड पियर मोल स्टेशन (बॉम्बे) से प्रस्थान करने वाली बॉम्बे पेशावर फ्रंटियर मेल। आप शेड पर स्टेशन का नाम देख सकते हैं।



यह ट्रेन इंग्लैंड से आने वाले अधिकारियों और सैनिकों को दिल्ली, लाहौर, रावलपिंडी और पेशावर की विभिन्न छावनियों में ले जाती थी।


विक्टोरिया टर्मिनस और चर्चगेट रेलवे स्टेशनों के निर्माण के बाद, बलार्ड पियर टर्मिनस को छोड़ दिया गया था। इसके बाद फ्रंटियर मेल को चर्चगेट (अब मुंबई सेंट्रल पर समाप्त) पर समाप्त किया जाता था।

सबसे प्रतिष्ठित ट्रेन होने के नाते, इसके आगमन पर, चर्चगेट स्टेशन को उज्ज्वल रूप से रोशन किया जाता था और इसकी त्रुटिहीन समयबद्धता के कारण लोग अपनी घड़ियाँ सेट करते थे!
***
अभिनव प्रयोग
गोपी छंदीय सॉनेट
*
घोर कलिकाल कठिन जीना।
हाय! भू पर संकट भारी।
घूँट खूं के पड़ते पीना।।
समर छेड़े अत्याचारी।।
सबल नित करता मनमानी।
पटकता बम नाहक दिन-रात।
निबल के आँसू भी पानी।।
दिख रही सच की होती मात।।
स्वार्थ सब अपना साध रहे।
सियासत केर-बेर का संग।
सत्य का कर परित्याग रहे।।
रंग जीवन के हैं बदरंग।।
धरा का छलनी है सीना।
घोर कलिकाल कठिन जीना।
२७-४-२०२२
***
***
मुक्तिका
*
जनमत मत सुन, अपने मन की बात करो
जन विश्वास भेज ठेंगे पर घात करो
*
बीमारी को हरगिज दूर न होने दो
रैली भाषण सभा नित्य दिन रात करो
*
अन्य दली सरकार न बन या बच पाए
डरा खरीदो, गिरा लोक' की मात करो
*
रोजी-रोटी छीन, भुखमरी फैला दो
मुट्ठी भर गेहूँ जन की औकात करो
*
जो न करे जयकार, उसे गद्दार कहो
जो खुद्दार उन्हीं पर अत्याचार करो
*
मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर को लड़वाओ
लिखा नया इतिहास, सत्य से रार करो
*
हों अपने दामाद यवन तो जायज है
लव जिहाद कहकर औरों पर वार करो
२७-४-२०२१
***
गीत:
मन से मन के तार जोड़ती.....
**
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम् को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..
होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रूकती, बहती है.
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.
हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मन भाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?
करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
***
मुक्तिका
नारी और रंग
*
नारी रंग दिवानी है
खुश तो चूनर धानी है
लजा गुलाबी गाल हुए
शहद सरीखी बानी है
नयन नशीले रतनारे
पर रमणी अभिमानी है
गुस्से से हो लाल गुलाब
तब लगती अनजानी है।
झींगुर से डर हो पीली
वीरांगना भवानी है
लट घुँघराली नागिन सी
श्याम लता परवानी है
दंत पंक्ति या मणि मुक्ता
श्वेत धवल रसखानी है
स्वप्नमयी आँखें नीली
समुद-गगन नूरानी है
ममता का विस्तार अनंत
भगवा सी वरदानी है
२७-४-२०१९
***
नवगीत:
.
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
पर्वत, घाटी या मैदान
सभी जगह मानव हैरान
क्रंदन-रुदन न रुकता है
जागा क्या कोई शैतान?
विधना हमसे क्यों रूठा?
क्या करुणासागर झूठा?
किया भरोसा क्या नाहक
पल भर में ऐसे टूटा?
डँसते सर्पों से सवाल
बार-बार फुँफकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
कभी नहीं मारे भूकंप
कभी नहीं हांरे भूकंप
एक प्राकृतिक घटना है
दोष न स्वीकारे भूकंप
दोषपूर्ण निर्माण किये
मानव ने खुद प्राण दिए
वन काटे, पर्वत खोदे
खुद ही खुद के प्राण लिये
प्रकृति के अनुकूल जिओ
मात्र एक उपचार
.
नींव कूटकर खूब भरो
हर कोना मजबूत करो
अलग न कोई भाग रहे
एकरूपता सदा धरो
जड़ मत हो घबराहट से
बिन सोचे ही मत दौड़ो
द्वार-पलंग नीचे छिपकर
राह काल की भी मोड़ो
फैलाता अफवाह जो
उसको दो फटकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
बिजली-अग्नि बुझाओ तुरत
मिले चिकित्सा करो जुगत
दीवारों से लग मत सो
रहो खुले में, वरो सुगत
तोड़ो हर कमजोर भवन
मलबा तनिक न रहे अगन
बैठो जा मैदानों में
हिम्मत देने करो जतन
दूर करो सब दूरियाँ
गले लगा दो प्यार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
***
नवगीत:
.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
वसुधा मैया भईं कुपित
डोल गईं चट्टानें.
किसमें बूता
धरती कब
काँपेगी अनुमाने?
देख-देख भूडोल
चकित क्यों?
सीखें रहना साथ.
अनसमझा भूकम्प न हो अब
मानवता का काल.
पृथ्वी पर भूचाल
हुए, हो रहे, सदा होएंगे.
हम जीना सीखेंगे या
हो नष्ट बिलख रोएँगे?
जीवन शैली गलत हमारी
करे प्रकृति से बैर.
रहें सुरक्षित पशु-पक्षी, तरु
नहीं हमारी खैर.
जैसी करनी
वैसी भरनी
फूट रहा है माथ.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
टैक्टानिक हलचल को समझें
हटें-मिलें भू-प्लेटें.
ऊर्जा विपुल
मुक्त हो फैले
भवन तोड़, भू मेटें.
रहे लचीला
तरु ना टूटे
अड़ियल भवन चटकता.
नींव न जो
मजबूत रखे
वह जीवन-शैली खोती.
उठी अकेली जो
ऊँची मीनार
भग्न हो रोती.
वन हरिया दें, रुके भूस्खलन
कम हो तभी विनाश।
बंधन हो मजबूत, न ढीले
रहें हमारे पाश.
छूट न पायें
कसकर थामें
'सलिल' हाथ में हाथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
***
हाइकु सलिला:
.
सागर माथा
नत हुआ आज फिर
देख विनाश.
.
झुक गया है
गर्वित एवरेस्ट
खोखली नीव
.
मनमानी से
मानव पराजित
मिटे निर्माण
.
अब भी चेतो
न करो छेड़छाड़
प्रकृति संग
.
न काटो वृक्ष
मत खोदो पहाड़
कम हो नाश
.
न हो हताश
करें नव निर्माण
हाथ मिलाएं.
.
पोंछने अश्रु
पीड़ितों के चलिए
न छोड़ें कमी
***
कल और आज :
कल का दोहा
प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर
चीटी ले शक्कर चली, हाथी के सर धूर
.
आज का दोहा
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता लघु हो हीन
'सलिल' लघुत्तम चाहता, दैव महत्तम छीन
एक षट्पदी:
.
प्रेमपत्र लिखता गगन, जब-तब भू के नाम
आप न आता क्रुद्ध भू, काँपे- सके न थाम
काँपे- सके न थाम, कहर से गिरते हैं घर
नाश देखकर रोता गगन न चुप होता फिर
आँधी-पानी से से बढ़ती है दर्द के अगन
आता तब भूकम्प जब प्रेमपत्र लिखता गगन
***
दोहा सलिला:
.
रूठे थे केदार अब, रूठे पशुपतिनाथ
वसुधा को चूनर हरी, उढ़ा नवाओ माथ
.
कामाख्या मंदिर गिरा, है प्रकृति का कोप
शांत करें अनगिन तरु, हम मिलकर दें रोप
.
भूगर्भीय असंतुलन, करता सदा विनाश
हट संवेदी क्षेत्र से, काटें यम का पाश
.
तोड़ पुरानी इमारतें, जर्जर भवन अनेक
करे नये निर्माण दृढ़, जाग्रत रखें विवेक
.
गिरि-घाटी में सघन वन, जीवन रक्षक जान
नगर बसायें हम विपुल, जिनमें हों मैदान
.
नष्ट न हों भूकम्प में, अपने नव निर्माण
सीखें वह तकनीक सब, भवन रहें संप्राण
.
किस शक्ति के कहाँ पर, आ सकते भूडोल
ज्ञात, न फिर भी सजग हम, रहे किताबें खोल
.
भार वहन क्षमता कहाँ-कितनी लें हम जाँच
तदनसार निर्माण कर, प्रकृति पुस्तिका बाँच
***
नवगीत:
.
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
भूगर्भी चट्टानें सरकेँ,
कांपे धरती.
ऊर्जा निकले, पड़ें दरारें
उखड़े पपड़ी
हिलें इमारत, छोड़ दीवारें
ईंटें गिरतीं
कोने फटते, हिल मीनारें
भू से मिलतीं
आफत बिना बुलाये आये
आँख दिखाये
सावधान हो हर उपाय कर
जान बचायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
द्वार, पलंग तले छिप जाएँ
शीश बचायें
तकिया से सर ढाँकें
घर से बाहर जाएँ
दीवारों से दूर रहें
मैदां अपनाएँ
वाहन में हों तुरत रोक
बाहर हो जाएँ
बिजली बंद करें, मत कोई
यंत्र चलायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
बाद बड़े झटकों के कुछ
छोटे आते हैं
दिवस पाँच से सात
धरा को थर्राते हैं
कम क्षतिग्रस्त भाग जो उनकी
करें मरम्मत
जर्जर हिस्सों को तोड़ें यह
अतिआवश्यक
जो त्रुटिपूर्ण भवन उनको
फिर गिरा बनायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
है अभिशाप इसे वरदान
बना सकते हैं
हटा पुरा निर्माण, नव नगर
गढ़ सकते हैं.
जलस्तर ऊपर उठता है
खनिज निकलते
भू संरचना नवल देख
अरमान मचलते
आँसू पीकर मुस्कानों की
फसल उगायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
२७-४-२०१५
***
छंद सलिला:
कुंडली छंद
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणांत गुरु गुरु (यगण, मगण), यति ११-१०।
लक्षण छंद:
छंद रचें इक्कीस / कला ले कुडंली
दो गुरु से चरणान्त / छंद रचना भली
रखें ग्यारह-दस पर, यति- न चूकें आप
भाव बिम्ब कथ्य रस, लय रहे नित व्याप
उदाहरण:
१. राजनीति कोठरी, काजल की कारी
हर युग हर काल में, आफत की मारी
कहती परमार्थ पर, साधे सदा स्वार्थ
घरवाली से अधिक, लगती है प्यारी
२. बोल-बोल थक गये, बातें बेमानी
कोई सुनता नहीं, जनता है स्यानी
नेता और जनता , नहले पर दहला
बदले तेवर दिखा, देती दिल दहला
३. कली-कली चूमता, भँवरा हरजाई
गली-गली घूमता, झूठा सौदाई
बिसराये वायदे, साध-साध कायदे
तोड़े सब कायदे, घर मिला ना घाट
२७-४-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
।। हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल । 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूरी बने कमाल ।।
तेवरी :
हुए प्यास से सब बेहाल
*
हुए प्यास से सब बेहाल.
सूखे कुएँ नदी सर ताल..
गौ माता को दिया निकाल.
श्वान रहे गोदी में पाल..
चमक-दमक ही हुई वरेण्य.
त्याज्य सादगी की है चाल..
शंकाएँ लीलें विश्वास.
डँसते नित नातों के व्याल..
कमियाँ दूर करेगा कौन?
बने बहाने हैं जब ढाल..
मौन न सुन पाए जो लोग.
वही बजाते देखे गाल..
उत्तर मिलते नहीं 'सलिल'.
अनसुलझे नित नए सवाल..
*
***
मुक्तिका
*
ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..
जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..
वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..
रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..
दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..
२ ७-४-२०१०
*


गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

मुक्तिका

मुक्तिका 

तू ही लिख

*

सीधी-सादी सच्ची बातें, मैं न लिखूँगा, तू ही लिख।

पंडज्जी ने की हैं घातें, मैं न लिखूँगा, तू ही लिख।।

नेता जी की मोंड़ी भागी, प्रेस न छापे, टी.वी. चुप। 

काली थीं हैं काली रातें, मैं न लिखूँगा, तू ही लिख।।

छाती छीली चट्टानों की, लूट रहे हैं रेती मिल।

वृक्षों को काटा दुष्टों ने, मैं न लिखूँगा, तू ही लिख।।

कौए जीतें, हारें सारे हंस, यही होना है कल।

नागों-साँपों की सत्ता है, मैं न लिखूँगा, तू ही लिख।।

मारेंगे रोने भी देंगे, सोच न, गा नेता का जस।

खोई जीतें पाई मातें, मैं न लिखूँगा, तू ही लिख।।






Mahendra Kumar Shrivastava, महेंद्र कुमार श्रीवास्तव

Tribute :
Mahendra Kumar Shrivastava

Date of Birth - 02-06-1937 at Jabalpur (M.P.)

Education - B.Sc. (Science) Robertson College, Jabalpur -1957. B.E. Mining Engineering with1st. Div.in 1962, G.C.E.T. Raipur (C.G.), now N.I.T. Raipur

Better Half - Dr. Sumanlata Shrivatava
107, Indrapuri, Gwarighat Road, Jabalpur (Madhya Pradesh) [482008] Contact : 09770559051.
email ; mkshrivastava2002@gmail.com

Career Growth

. Joined in 1964 as Asstt. Manager at Manoharpur Iron Ore Mines, IISCO (Jharkhand)
. Transfered to Gua Iron Ore Mines, IISCO (Jharkhand) in 1966
. Worked as Production Manager, Manager, Superintendent, Chief Superintendent, Asstt. General Manager, Deputy General Manager (Incharge) at Gua, Singbhum, Jharkhand.
. Headed Chiria and Gua Ore Mines of SAIL, from 1990 to 1995 as DGM I/C.
. Placed at Burnpur Steel Plant (SAIL) for coordination between RMD and IISCO Steel Plant in the year 1995.
. Superannuated from SAIL in the year 1997.
After retirement from SAIL, took up the assignment as Advisor in S N Sunderson & Company for taking care of their five Limestone/ Dolomite Mines, Refractory and Lime Kilns at Katni Kaimore Area of M.P. Sunderson's despatches of Limestone/Dolomite were further resumed to Durgapur, Bokaro and Jindal Steel (Raigarh C.G.) as they were earlier restricted to Tisco Steel Plant only. Finally retired from Sunderson in the year 2004.

Life Time Achievement Award

Indian Bureau of Mines, under Ministry of Mines, Govt. of India and the17th MEMC Week Celebration Committee conferred Life Time Achievement Award for Immense contribution to Mining Industry.


PROFILE

Mahendra Kumar Shrivastava B.E. (Mining Engineering ) 1962 Batch


Govt. College of Engineering and Technology, Raipur (C.G.), Now NIT Raipur


Date of Birth - 02-06-1937 at Jabalpur (M.P.)


Education


B.Sc. (Science) Robertson College, Jabalpur -1957.


B.E. Mining Engineering with1st. Div.in 1962, G.C.E.T. Raipur (C.G.), now N.I.T.


2nd Class and 1st Class Mine Manager's Certificate of Competency from D.G.M.S.


Dhanbad


Career Growth


. Joined in 1964 as Asstt. Manager at Manoharpur Iron Ore Mines, IISCO (Jharkhand)


. Transfered to Gua Iron Ore Mines, IISCO (Jharkhand) in 1966


. Worked as Production Manager, Manager, Superintendent, Chief Superintendent, Asstt.


General Manager, Deputy General Manager (Incharge) at Gua, Singbhum, Jharkhand.


. Headed Chiria and Gua Ore Mines of SAIL, from 1990 to 1995 as DGM I/C.


. Placed at Burnpur Steel Plant (SAIL) for coordination between RMD and IISCO Steel Plant


in the year 1995.


. Superannuated from SAIL in the year 1997.


After retirement from SAIL, took up the assignment as Advisor in S N Sunderson & Com


pany for taking care of their five Limestone/ Dolomite Mines, Refractory and Lime Kilns at


Katni Kaimore Area of M.P. Sunderson's despatches of Limestone/Dolomite were further


resumed to Durgapur, Bokaro and Jindal Steel (Raigarh C.G.) as they were earlier restricted


to Tisco Steel Plant only. Finally retired from Sunderson in the year 2004.


Other Salient Points


1. Participated in the seminars on Management Development, Managerial Effectiveness, Produc


tivity Development, Human Resource Management, Energy and Cost Control Management


Programmes, conducted by M.T.I. Ranchi (SAIL)and National Productivity Council, Delhi.


Certificate was awarded for Mines Safety by National Councill of Safety in Mines and


National Safety Council in 1974.


2. Was appointed an Examiner for Final Year Min. Engg. students of G.C.E.T.Raipur for two


Consecutive years 1989, 1990


3. Was also as an Examiner of First and Second Class Mine Managers' Certificate of


Competency for 3 consecutive years, 1993, 1994, 1995 appointed by D.G.M.S. Dhanbad.


Before this I was also Examiner for All India Mining Foreman and Mining Mates' Examina


tions.








4. Visited Australia as a leader of the five member SAIL team in the year June-July 1994 and


worked on the Indo-Australian Joint Venture Project of SAIL & BHP Kinhill. I had


submitted a Project Report to SAIL in June-July1994 of the joint work done by SAIL &


BHP Kinhill in Australia for development and mechanisation of Manoharpur Ore Mines to a


capacity of six million tonnes of iron ore, the largest deposit of iron ore of two thousand


million tonnes in Asia.The Joint Venture Team's work was carried out at Adelaide and


Whyalla in South Australia and Perth and Pilbara Region in Western Australia.


5. Was Honourary Secretary of Mining Engineers Association of India for 3 consecutive years


1982, 1983, 1984 and I own Life Membership of MEAI. Organised and conducted various


meetings, seminars of MEAI at Bara Jamda Sector. A Natioanal Seminar on 'Opencast


Mining, Prospecting and Geological Explorations' was succesfully organised at Gua Ore


Mines in April 1983 - the Silver Jubilee Year of MEAI.


6. Contributed couple of articles on Gua Machanised Mines from safety and environment point


of view under the banner of MEAI.


7. Won several Environment & Mine Safety Awards for Gua & Chiria Group of Mines,


specially won Publicity Propoganda Shield successively for about fifteen years.


8. With Gua's Environment Team, organised planting of about four lakhs plants at Gua Mines


specially in the huge fines dump slopes to prevent land slides as well as to take care of


compensatory afforestation in the mines. Also dykes and stop dams were constructed below


the huge iron ore fines heap to prevent pollution to river Karo. Mines Paryavaran Award


1994, was given to Gua Ore Mines by Vice Chairman SAIL at Kolkata.


9. For Mineral Conservation (both iron ore lumps and fines) despatches were innitiated to


other steel plants viz Durgapur and Bokaro Steel Plants besides own despatches to Burnpur


Plant.Also, Gua Iron Ore Fines were despatched to Bokaro Steel Plant @ 5 lakh tonnes


annually. Some quantity of iron ore fines was exported to China also. M'Pur lump ore was


also despatched to Rourkela Steel Plant, SAIL.


10. In 1992-93, under my leadership, Gua Mines operated at 138% of the rated capacity


(highest ever) and produced over three million tonnes of iron ore lumps and fines.


11. For conservation and utilisation of Gua iron ore fines, besides despatches to Bokaro, a Cold


Bonded Pelletisation Plant of the capacity of one lakh tpa, was established in Gua in late


eightees successfully with the help of R&D SAIL, Ranchi. This technology has high


potential in utilisation and conservation of Gua's iron ore fines resources, control of


pollution and preservation of ecology.


12. In 1993, Regional Controller, IBM, Kolkata awarded a Certificate of Recognation as


qualified person to prepare mine plans by virtue of experince and knowledge. This RQP was


initially valid till 1995 which was further renewed till November 1997.


13. Gave employment, in conjunction with RMD SAIL, to about 120 local Adibasi boys in the


year 1993 in Gua Ore Mines. Since this mass empolyment was open after a long gap of many


years, considerable exercise regarding selection was carried out with the help of Gua's


personnel department for months giving proper weightage to the selection criteria. The


whole process of induction was welcomed by the trade unions and the workers.


14. Introduced water sprinkling (jet sprays) at Ore Handling Plant (having dry crushing and


screening) in the primary crusher for the first time for dust suppression in the plant besides


normalworking of water sprinklers on mine haul roads for the proper working environment


and also on Gua township roads.








15. For providing clean drinking water to Gua township and neighbouring villages, a Water


Treatment Plant was started in 1985 at Gua.


16. Had carried out with Gua Team, peripheral development work in the adjoining villages of


Gua , Chiria and Manoharpur for providing medical facilities including ambulance, mobile


dispensary, medicines and visits by doctors. Financial help was regularly rendered to periph


eral villages for primary education of children and women. Sewing classes were organised,


time to time, along with sewing machine distribution to the local women folk. Water hand


pumps (bore wells) were also installed in the peripheral villages for providing drinking


water.


17. Had organised with Gua Engg. Department's help, erection of Television Tower in New


Colony Community Centre at Gua for workers' entertainment.


18. Actively encouraged workers for their performance in sports and atheletics for the Inter


Mines Sports and hosted Intermines Sports Meet successfully twice at Gua. During my


tenure in April 1987 Gua had the priviledge of hosting Eastern India Power Lifting Champi


onship for three days at Gua Club.


19. An atmosphere was created in Gua and Chiria for different cultural activities right from


school children, ladies and workers. Stage shows of National and International artists were


also organised many a times.


Presently, settled down at my hometown Jabalpur (M.P.) with my wife Dr. Sumanlata


Shrivastava and devoting time in social services, having two sons Dr.Arpan Shrivastava (NHS,


UK) and Nipun Shrivastava (Gap International, US). We cherish the sweet memories of


work, work place, work culture and the constant cooperation of my workers, colleagues and


above all, the guidance of my superiors that made our long stay pleasant at Bara Jamda Area of


West Singbhum, Jharkhand.

Mahendra Kumar Shrivastava 107, Indrapuri, Narmada Road, Jabalpur (Madhya Pradesh) [482008]

बुधवार, 26 अप्रैल 2023

सॉनेट, लघुकथा, नवगीत, कुण्डलिया, मुक्तक, मुक्तिका, नेपाल भूकंप, प्लवंगम् छंद

सॉनेट
ओ तू
ओ तू कितना सदय-निठुर है?
बिन माँगे सब कुछ दे देता।
बिना बताए ले भी लेता
अपना-गैर न, कृपा-कहर है।।
मिलकर मिले न, जुदा न होता
सब करते हैं तेरी बातें।
मंदिर-मस्जिद में शह-मातें
फसल काटता, फिर फिर बोता।।
ओ तू क्या है? कभी बता दे?
ओ तू मुझसे मुझे मिला दे।
ओ तू मुझको राह दिखा दे।।
मुझे नचा खुश है क्या ओ तू?
भेज-बुला खुश है क्या ओ तू?
तुझमें मैं, मुझमें क्या ओ तू??
२६-४-२०२२
•••

लघुकथा
सुख-दुःख
*
गुरु जी को उनके शिष्य घेरे हुए थे। हर एक की कोई न कोई शिकायत, कुछ न कुछ चिंता। सब गुरु जी से अपनी समस्याओं का समाधान चाह रहे थे। गुरु जी बहुत देर तक उनकी बातें सुनते रहे। फिर शांत होने का संकेत कर पूछा - 'कितने लोग चिंतित हैं? कितनों को कोई दुःख है? हाथ उठाइये।
सभागार में एक भी ऐसा न था जिसने हाथ न उठाया हो।
'रात में घना अँधेरा न हो तो सूरज ऊग सकेगा क्या?'
''नहीं'' समवेत स्वर गूँजा।
'धूप न हो तो छाया अच्छी लगेगी क्या?'
"नहीं।"
'क्या ऐसा दिया देखा है जिसके नीचे अँधेरा न हो"'
"नहीं।"
'चिंता हुई इसका मतलब उसके पहले तक निश्चिन्त थे, दुःख हुआ इसका मतलब अब तक दुःख नहीं था। जब दुःख नहीं था तब सुख था? नहीं था। इसका मतलब दुःख हो या न हो यह तुम्हारे हाथ में नहीं है पर सुख हो या हो यह तुम्हारे हाथ में है।'
'बेटी की बिदा करते हो तो दुःख और सुख दोनों होता है। दुःख नहीं चाहिए तो बेटी मत ब्याहो। कौन-कौन तैयार है?' एक भी हाथ नहीं उठा।
'बहू को लाते हो तो सुखी होते हो। कुछ साल बाद उसी बहु से दुखी होते हो। दुःख नहीं चाहिए तो बहू मत लाओ। कौन-कौन सहमत है?' फिर कोई हाथ नहीं उठा।
'एक गीत है - रात भर का है मेहमां अँधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा? अब बताओ अँधेरा, दुःख, चिंता ये मेहमान न हो तो उजाला, सुख और बेफिक्री भी न होगी। उजाला, सुख और बेफिक्री चाहिए तो अँधेरा, दुःख और चिंता का स्वागत करो, उसके साथ सहजता से रहो।'
अब शिष्य संतुष्ट दिख रहे थे, उन्हें पराये नहीं अपनों जैसे ही लग रहे थे सुख-दुःख।
****

मुक्तक और मुक्तिका
*
हिंदी काव्य में वे समान पदभार के वे छंद जो अपने आप में पूर्ण हों अर्थात जिनका अर्थ उनके पहले या बाद की पंक्तियों से संबद्ध न हो उन्हें मुक्तक छंद कहा गया है। इस अर्थ में दोहा, रोला, सोरठा, उल्लाला, कुण्डलिया, घनाक्षरी, सवैये आदि मुक्तक छंद हैं।
कालांतर में चौपदी या चतुष्पदी (चार पंक्ति की काव्य रचना) को मुक्तक कहने का चलन हो गया। इनके पदान्तता के आधार पर विविध प्रकार हैं। १. चारों पंक्तियों का समान पदांत -
हर संकट को जीत
विहँस गाइए गीत
कभी न कम हो प्रीत
बनिए सच्चे मीत (ग्यारह मात्रिक पद)
२. पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति का समान तुकांत -
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें (तेरह मात्रिक पद)
३. पहली-दूसरी पंक्ति का एक तुकांत, तीसरी-चौथी पंक्ति का भिन्न तुकांत -
चूं-चूं करती है गौरैया
सबको भाती है गौरैया
चुन-चुनकर दाना खाती है
निकट गए तो उड़ जाती है (सोलह मात्रिक)
४. पहली-तीसरी-चौथी पंक्ति का समान तुकांत -
भारत की जयकार करें
दुश्मन की छाती दहले
देश एक स्वीकार करें
ऐक्य भाव साकार करें (चौदह मात्रिक)
५. पहली-दूसरी-तीसरी पंक्ति का समान तुकांत -
भारत माँ के बच्चे
झूठ न बोलें सच्चे
नहीं अकल के कच्चे
बैरी को मारेंगे (बारह मात्रिक)
६. दूसरी, तीसरी, चौथी पंक्ति की समान तुक -
नेता जी आश्वासन फेंक
हर चुनाव में जाते जीत
धोखा देना इनकी रीत
नहीं किसी के हैं ये मीत (पंद्रह मात्रिक)
७. पहली-चौथी पंक्ति की एक तुक दूसरी-तीसरी पंक्ति की दूसरी तुक -
रात रानी खिली
मोगरा हँस दिया
बाग़ में ले दिया
आ चमेली मिली (दस मात्रिक)
८. पहली-तीसरी पंक्ति की एक तुक, दुसरी-चौथी पंक्ति की अन्य तुक -
होली के रंग
कान्हा पे डाल
राधा के संग
गोपियाँ निहाल (नौ मात्रिक)
*
इनमें से दूसरे प्रकार के मुक्तक अधिक लोकप्रिय हुए हैं ।
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें
यह तेरह मात्रिक मुक्तक है।
इसमें तीसरी-चौथी पंक्ति की तरह पंक्तियाँ जोड़ें -
घर के भीतर ही रहें
खुद ही सुन खुद ही कहें
हाथ बटाएँ काम में
अफवाहों में मत बहें
प्रगति देखकर अन्य की
द्वेष अग्नि में मत दहें
पीर पराई बाँट लें
अपनी चुप होकर सहें
याद प्रीत की ह्रदय में
अपने हरदम ही तहें
यह मुक्तिका हो गयी। इस शिल्प की कुछ रचनाओं को ग़ज़ल, गीतिका, सजल, तेवरी आदि भी कहा जाता है।
*

कार्यशाला : कुंडलिया
दोहा - बसंत, रोला - संजीव
*
सिर के ऊपर बाज है, नीचे तीर कमान |
खतरा है, फिर भी भरे, चिड़िया रोज उड़ान ||
चिड़िया रोज उड़ान, भरे अंडे भी सेती
कभी ना सोचे पाऊँगी, क्या-क्यों मैं देती
काम करे निष्काम, रहे नभ में या भू पर
तनिक न चिंता करे, ताज या आफत सिर पर
******
धरती माता
धरती माता विपदाओं से डरी नहीं
मुस्काती है जीत उन्हें यह मरी नहीं
आसमान ने नीली छत सिर पर तानी
तूफां-बिजली हार गये यह फटी नहीं
अग्नि पचाती भोजन, जला रही अब भी
बुझ-बुझ जलती लेकिन किंचित् थकी नहीं
पवन बह रहा, साँस भले थम जाती हो
प्रात समीरण प्राण फूँकते थमी नहीं
सलिल प्रवाहित कलकल निर्मल तृषा बुझा
नेह नर्मदा प्रवहित किंचित् रुकी नहीं
पंचतत्व निर्मित मानव भयभीत हुआ?
अमृत पुत्र के जीते जी यम जीत गया?
हार गया क्या प्रलयंकर का भक्त कहो?
भीत हुई रणचंडी पुत्री? सत्य न हो
जान हथेली पर लेकर चलनेवाले
आन हेतु हँसकर मस्तक देनेवाले
हाय! तुच्छ कोरोना के आगे हारे
स्यापा करते हाथ हाथ पर धर सारे
धीरज-धर्म परखने का है समय यही
प्राण चेतना ज्योति अगर निष्कंप रही
सच मानो मावस में दीवाली होगी
श्वास आस की रास बिरजवाली होगी
बमभोले जयकार लगाओ, डरो नहीं
हो भयभीत बिना मारे ही मरो नहीं
जीव बनो संजीव, कहो जीवन की जय
गौरैया सँग उषा वंदना कर निर्भय
प्राची पर आलोक लिये है अरुण हँसो
पुष्पा के गालों पर अर्णव लाल लखो
मृत्युंजय बन जीवन की जयकार करो
महाकाल के वंशज, जीवन ज्वाल वरो।
***

मुक्तक
कलियाँ पल पल अनुभव करतीं मकरंदित आभास को
नासापुट तक पहुँचाती हैं किसलय के अहसास को
पवन प्रवह रह आत्मानंदित दिग्दिगंत तक व्याप रहा
नीलगगन दे छाँव सभी को, नहीं चीह्नकर खास को
२६-४-२०२०
***
एक रचना
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
२४-४-२०१७
***
हरदोई में मिल गये, हरि हर दोई संग।
रमा उमा ने कर दिया जब दोनों को तंग।।
जब दोनों को तंग, याद तब विधि की आई।
जान बचायें दैव, हमें दें रक्षा का वर।
विधि बोले शारदा पड़ी हैं पीछे हरिहर।
२६-४-२०१६
***
नवगीत:
.
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
पर्वत, घाटी या मैदान
सभी जगह मानव हैरान
क्रंदन-रुदन न रुकता है
जागा क्या कोई शैतान?
विधना हमसे क्यों रूठा?
क्या करुणासागर झूठा?
किया भरोसा क्या नाहक
पल भर में ऐसे टूटा?
डँसते सर्पों से सवाल
बार-बार फुँफकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
कभी नहीं मारे भूकंप
कबि नहीं हांरे भूकंप
एक प्राकृतिक घटना है
दोष न स्वीकारे भूकंप
दोषपूर्ण निर्माण किये
मानव ने खुद प्राण दिए
वन काटे, पर्वत खोदे
खुद ही खुद के प्राण लिये
प्रकृति अनुकूल जिओ
मात्र एक उपचार
.
नींव कूटकर खूब भरो
हर कोना मजबूत करो
अलग न कोई भाग रहे
एकरूपता सदा धरो
जड़ मत हो घबराहट से
बिन सोचे ही मत दौड़ो
द्वार-पलंग नीचे छिपकर
राह काल की भी मोड़ो
फैलता अफवाह जो
उसको दो फटकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
बिजली-अग्नि बुझाओ तुरत
मिले चिकित्सा करो जुगत
दीवारों से लग मत सो
रहो खुले में, वरो सुगत
तोड़ो हर कमजोर भवन
मलबा तनिक न रहे अगन
बैठो जा मैदानों में
हिम्मत देने करो जतन
दूर करो सब दूरियाँ
गले लगा दो प्यार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
***
नेपाल में भूकंपजनित महाविनाश के पश्चात रचित
हाइकु सलिला:
संजीव
.
सागर माथा
नत हुआ आज फिर
देख विनाश.
.
झुक गया है
गर्वित एवरेस्ट
खोखली नीव
.
मनमानी से
मानव पराजित
मिटे निर्माण
.
अब भी चेतो
न करो छेड़छाड़
प्रकृति संग
.
न काटो वृक्ष
मत खोदो पहाड़
कम हो नाश
.
न हो हताश
करें नव निर्माण
हाथ मिलाएं.
.
पोंछने अश्रु
पीड़ितों के चलिए
न छोड़ें कमी
.
२६.४.२०१५
नवगीत:
.
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
पर्वत, घाटी या मैदान
सभी जगह मानव हैरान
क्रंदन-रुदन न रुकता है
जागा क्या कोई शैतान?
विधना हमसे क्यों रूठा?
क्या करुणासागर झूठा?
किया भरोसा क्या नाहक
पल भर में ऐसे टूटा?
डँसते सर्पों से सवाल
बार-बार फुँफकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
कभी नहीं मारे भूकंप
कबि नहीं हांरे भूकंप
एक प्राकृतिक घटना है
दोष न स्वीकारे भूकंप
दोषपूर्ण निर्माण किये
मानव ने खुद प्राण दिए
वन काटे, पर्वत खोदे
खुद ही खुद के प्राण लिये
प्रकृति अनुकूल जिओ
मात्र एक उपचार
.
नींव कूटकर खूब भरो
हर कोना मजबूत करो
अलग न कोई भाग रहे
एकरूपता सदा धरो
जड़ मत हो घबराहट से
बिन सोचे ही मत दौड़ो
द्वार-पलंग नीचे छिपकर
राह काल की भी मोड़ो
फैलता अफवाह जो
उसको दो फटकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
बिजली-अग्नि बुझाओ तुरत
मिले चिकित्सा करो जुगत
दीवारों से लग मत सो
रहो खुले में, वरो सुगत
तोड़ो हर कमजोर भवन
मलबा तनिक न रहे अगन
बैठो जा मैदानों में
हिम्मत देने करो जतन
दूर करो सब दूरियाँ
गले लगा दो प्यार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
*
२६-४-२०२१५
नवगीत:
.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
वसुधा मैया भईं कुपित
डोल गईं चट्टानें.
किसमें बूता
धरती कब
काँपेगी अनुमाने?
देख-देख भूडोल
चकित क्यों?
सीखें रहना साथ.
अनसमझा भूकम्प न हो अब
मानवता का काल.
पृथ्वी पर भूचाल
हुए, हो रहे, सदा होएंगे.
हम जीना सीखेंगे या
हो नष्ट बिलख रोएँगे?
जीवन शैली गलत हमारी
करे प्रकृति से बैर.
रहें सुरक्षित पशु-पक्षी, तरु
नहीं हमारी खैर.
जैसी करनी
वैसी भरनी
फूट रहा है माथ.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
टैक्टानिक हलचल को समझें
हटें-मिलें भू-प्लेटें.
ऊर्जा विपुल
मुक्त हो फैले
भवन तोड़, भू मेटें.
रहे लचीला
तरु ना टूटे
अड़ियल भवन चटकता.
नींव न जो
मजबूत रखे
वह जीवन-शैली खोती.
उठी अकेली जो
ऊँची मीनार
भग्न हो रोती.
वन हरिया दें, रुके भूस्खलन
कम हो तभी विनाश।
बंधन हो मजबूत, न ढीले
रहें हमारे पाश.
छूट न पायें
कसकर थामें
'सलिल' हाथ में हाथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
२६-४-२०१५
***

छंद सलिला:
प्लवंगम् छंद
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणारंभ गुरु, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), यति ८-१३।
लक्षण छंद:
प्लवंगम् में / रगण हो सदा अन्त में
आठ - तेरह न / भूलें यति हो अन्त में
आरम्भ करे / गुरु- लय न कभी छोड़िये
जीत लें सभी / मुश्किलें मुँह न मोड़िए
उदाहरण:
१. मुग्ध उषा का / सूरज करे सिंगार है
भाल सिंदूरी / हुआ लाल अंगार है
माँ वसुधा नभ / पिता-ह्रदय बलिहार है
बंधु नाचता / पवन लुटाता प्यार है
२. राधा-राधा / जपते प्रति पल श्याम ज़ू
सीता को उर / धरते प्रति पल राम ज़ू
शंकरजी के / उर में उमा विराजतीं
ब्रम्ह - शारदा / भव सागर से तारतीं
३. दादी -नानी / कथा-कहानी गुमे कहाँ?
नाती-पोतों / बिन बूढ़ा मन रमें कहाँ?
चंदा मामा / गुमा- शेष अब मून है
चैट-ऐप में फँसा बाल-मन सून है
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)***
गीत
हे समय के देवता!
*
हे समय के देवता!
गर दे सको वरदान दो तुम...
*
श्वास जब तक चल रही है,आस जब तक पल रही है,
अमावस का चीरकर तम-प्राण-बाती जल रही है.
तब तलक रवि-शशि सदृश हम रौशनी दें तनिक जग को-
ठोकरों से पग न हारें-करें ज्योतित नित्य मग को.
दे सको हारे मनुज को, विजय का अरमान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
नयन में आँसू न आये,हुलसकर हर कंठ गाए.
कंटकों से भरे पथ पर-चरण पग धर भेंट आए.
समर्पण विश्वास निष्ठांसिर उठाकर जी सके अब.
मनुज हँसकर गरल लेकर-शम्भु-शिववत पी सकें अब.
दे सको हर अधर को मुस्कान दो, मधुगान दो तुम..
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
सत्य-शिव को पा सकें हम' गीत सुन्दर गा सकें हम.
सत-चित-आनंद घन बन-दर्द-दुःख पर छा सकें हम.
काल का कुछ भय न व्यापे,अभय दो प्रभु!, सब वयों को.
प्रलय में भी जयी हों-संकल्प दो हम मृण्मयों को.
दे सको पुरुषार्थ को परमार्थ की पहचान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
२६-४-२०१०
***

मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

गोपाल प्रसाद व्यास

विरासत
स्मृतिशेष गोपाल प्रसाद व्यास
*
यदि ईश्वर में विश्वास न हो,
उससे कुछ फल की आस न हो,
तो अरे नास्तिको! घर बैठे,
साकार ब्रह्‌म को पहचानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो!

वे अन्नपूर्णा जग-जननी,
माया हैं, उनको अपनाओ।
वे शिवा, भवानी, चंडी हैं,
तुम भक्ति करो, कुछ भय खाओ।
सीखो पत्नी-पूजन पद्धति,
पत्नी-अर्चन, पत्नीचर्या
पत्नी-व्रत पालन करो और
पत्नीवत्‌ शास्त्र पढ़े जाओ।
अब कृष्णचंद्र के दिन बीते,
राधा के दिन बढ़ती के हैं।
यह सदी बीसवीं है, भाई !
नारी के ग्रह चढ़ती के हैं।
तुम उनका छाता, कोट, बैग,
ले पीछे-पीछे चला करो,
संध्या को उनकी शय्‌या पर
नियमित मच्छरदानी तानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो।

तुम उनसे पहले उठा करो,
उठते ही चाय तयार करो।
उनके कमरे के कभी अचानक,
खोला नहीं किवाड़ करो।
उनकी पसंद के कार्य करो,
उनकी रुचियों को पहचानो,
तुम उनके प्यारे कुत्ते को,
बस चूमो-चाटो, प्यार करो।
तुम उनको नाविल पढ़ने दो
आओ कुछ घर का काम करो।
वे अगर इधर आ जाएं कहीं ,
तो कहो-प्रिये, आराम करो!
उनकी भौंहें सिगनल समझो,
वे चढ़ीं कहीं तो खैर नहीं,
तुम उन्हें नहीं डिस्टर्ब करो,
ए हटो, बजाने दो प्यानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो!

तुम दफ्तर से आ गए, बैठिए!
उनको क्लब में जाने दो।
वे अगर देर से आती हैं,
तो मत शंका को आने दो।
तुम समझो वह हैं फूल,
कहीं मुरझा न जाएं घर में रहकर!
तुम उन्हें हवा खा आने दो,
तुम उन्हें रोशनी पाने दो,
तुम समझो 'ऐटीकेट' सदा,
उनके मित्रों से प्रेम करो।
वे कहाँ, किसलिए जाती हैं-
कुछ मत पूछो, ऐ 'शेम' करो !
यदि जग में सुख से जीना है,
कुछ रस की बूँदें पीना है,
तो ऐ विवाहितो, आँख मूँद,
मेरे कहने को सच मानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो।

मित्रों से जब वह बात करें,
बेहतर है तब मत सुना करो।
तुम दूर अकेले खड़े-खड़े,
बिजली के खंबे गिना करो।
तुम उनकी किसी सहेली को
मत देखो, कभी न बात करो।
उनके पीछे उनके दराज से
कभी नहीं उत्पात करो।
तुम समझ उन्हें स्टीम गैस,
अपने डिब्बे को जोड़ चलो।
जो छोटे स्टेशन आएं तुम,
उन सबको पीछे छोड़ चलो।
जो सँभल कदम तुम चले-चले,
तो हिन्दू-सदगति पाओगे,
मरते ही हूरें घेरेंगी,
तुम चूको नहीं, मुसलमानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो!

तुम उनके फौजी शासन में,
चुपके राशन ले लिया करो।
उनके चेकों पर सही-सही
अपने हस्ताक्षर किया करो।
तुम समझो उन्हें 'डिफेंस एक्ट',
कब पता नहीं क्या कर बैठें ?
वे भारत की सरकार, नहीं
उनसे सत्याग्रह किया करो।
छह बजने के पहले से ही,
उनका करफ्यू लग जाता है।
बस हुई जरा-सी चूक कि
झट ही 'आर्डिनेंस' बन जाता है।
वे 'अल्टीमेटम' दिए बिना ही
युद्ध शुरू कर देती हैं,
उनको अपनी हिटलर समझो,
चर्चिल-सा डिक्टेटर जानो!
पत्नी को परमेश्वर मानो।
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