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सोमवार, 24 अप्रैल 2023

सोनेट, दोहा, षटपदी, मंजुतिलका छंद, नवगीत, हरिगीतिका, मुक्तिका, बांस, हलाला, लघुकथा

सोनेट 
प्रीत
प्रीत करे राधा मनचाही। 
'प्रीत न करिए' मीरा कहती।
प्रीत न जाने ऊधो ज्ञानी।।  
प्रीत द्रौपदी मन में बहती।। 

अविनाशी है रीत प्रीत की। 
पूछो तप-रत पार्वती से। 
कूद यज्ञ-ज्वाला में झुलसे। 
नृत्य कराए बैरागी से।। 

बहुआयामी प्रीत गीत बन।
फाग-रास हो विपिन विराजे। 
प्रीत-अमृत पी सजनी साजन।। 
नयन मिलाएँ बाजे बाजे।। 

प्रीत मर रही है 'लिव इन' बन। 
प्रीत जिए बन फागुन-सावन।। 
२७-४-२०२३
•••
सॉनेट
तपन
अनगिन रंग तपन के देखे।
कभी हँसाए, कभी रुलाए।
कितने तन ने, मन ने लेखे।।
किसे तहाए, किसे भुलाए।।

श्वास सुनीता, आस पुनीता।
लक्ष्य टेरता कदम बढ़ाओ।
पढ़ ले गीता बुद्धि विनीता।।
काम करो निष्काम न जाओ।।

जपो-तपो मत भीत कँपो रे!
जो बोया सो काटो हँसकर।
जीवन की है रीत डटो रे!
कमल बनो कीचड़ में धँसकर।।

तप की तपिश नहीं बेमानी।
यह दुनिया है आनी-जानी।।
२७-४-२०२३
•••
सॉनेट
सावित्री
सकल सृष्टि सर्जक सावित्री।
शक्तिवान तनया अवतारी।
संजीवित शाश्वत सावित्री।।
परम चेतना नित अविकारी।
सत्यवान रक्षक सावित्री।
असत कालिमा यम-भयहारी।
मुक्त मुक्ति से हो सावित्री।।
लौटे भू पर हो साकारी।।
सत्य राज्य लाती सावित्री।
दैवी ज्योति उजासविहारी।।
समय सनातन सत् सावित्री।
आप निहारक; आप निहारी।।
भोग-भोक्ता शिव सावित्री।
योग-योक्ता चित सावित्री।।
२४-४-२०२२
•••
चिंतन सलिला ५
कहाँ?
कहाँ?
'कहाँ' का ज्ञान न हो तो 'कहीं भी, कुछ भी' करते रहकर कुछ हासिल नहीं होता और तब करनेवाला शिकायत पुस्तक (कंप्लेंट बुक) बनकर अपने अलावा सब को दोषी मान लेता है।
कहाँ का भान और मान तो उस कबीर को भी था जो कहता था 'जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ'। घर फूँकने के पहले 'कहाँ' जाना है, यह जान लेना जरूरी है।
'कहाँ' जाने बिना घर फूँकने पर 'घर का न घाट का' की हालत और 'माया मिली न राम' का परिणाम ही हाथ लगेगा।
'कहाँ' का ज्ञान लिया भी जा सकता है, किया भी जा सकता है।
'कहाँ' का ज्ञान किसी दूकान, किसी बाजार में नहीं मिलता। गुरु और जीवनानुभव ही 'कहाँ' का उत्तर दे सकते हैं।
'कहाँ' से आए, कहाँ हैं और कहाँ जाना है? यह जाने बिना 'पग की किस्मत सिर्फ भटकना' ही हो सकती है।
'कहाँ तय होने पर ही सामान बाँधकर यात्रा के लिए संसाधन जुटाए और पैर बढ़ाए जाते हैं।
'कहाँ' का ज्ञान कुदरतन (अपने आप) हर पक्षी को हो जाता है, तभी वह बिना पूछे-बताए सुबह-शाम दो विपरीत दिशाओं में उड़ान भरता है।
'कहाँ' का ज्ञान मनुष्य को कुदरतन नहीं होता क्योंकि वह कुदरत से दूर हो चुका है, स्वार्थ में फँसकर सर्वार्थ और परमार्थ की रह पर चलना छोड़ चुका है।
'कहाँ' पाना है?, कहाँ देना है?, कहाँ मिलना है?, कहाँ बिछुड़ना है?, कहाँ बोना है?, कहाँ काटना है? कहाँ पीठ ठोंकना है?, कहाँ डाँटना है? यह तय करते समय याद रखें-
'आदमी मुसाफ़िर है आता है जाता है।
आते-जाते रस्ते में यादें छोड़ जाता है'
'कहाँ-कैसी' यादें छोड़ रहे हैं हम?
'कहाँ' की चूक संस्थाओं, कार्यक्रमों और व्यक्तियों की राह में बाधक है, सफल साधक बनने के लिए 'कहाँ' की समझ विकसित करना ही एकमात्र उपाय है।
२४-४-२०२२
संजीव, ९४२५१८३२४४
•••
मुक्तिका
*
हम नहिं गुरु, ना पाले चेले।
गुपचुप बैठे देख झमेले।।
*
चेले गुरु के गुरु बन जाते।
छिलके दे, खुद खाते केले।।
*
यह दुनिया है आनी-जानी।
माया-तृष्णा-मोह झमेले।।
*
काया-माया की क्यों चिंता?
जिसकी है जब चाहे ले ले।।
*
नारायण की छाया में रह
हो संजीव जीव हँस खेले।।


२४-४-२०२१
***
मुक्तक
हम जाएँगे, फिर आएँगे, वसुधा को रहना होगा
गगन पवन से, अगन सलिल से, सब सुख-दुःख कहना होगा
ॐ प्रकाश सनातन, राहें बना-दिखाता सदा-सदा
काहे को रोना कोरोना-दर्द विहँस सहना होगा
२४-४-२०२१
***
लघु कथा:
मैया
*
प्रसाद वितरण कर पुजारी ने थाली रखी ही थी कि उसने लाड़ से कहा: 'काए? हमाये पैले आरती कर लई? मैया तनकऊ खुस न हुईहैं। हमाये हींसा का परसाद किते गओ?'
'हओ मैया! पधारो, कउनौ की सामत आई है जो तुमाए परसाद खों हात लगाए? बिराजो और भोग लगाओ। हम अब्बइ आउत हैं, तब लौं देखत रहियो परसाद की थाली; कूकुर न जुठार दे.'
'अइसे कइसे जुठार दैहे? हम बाको मूँड न फोर देबी, जा तो धरो है लट्ठ।' कोने में रखी डंडी को इंगित करते हुए बालिका बोली।
पुजारी गया तो बालिका मुस्तैद हो गयी. कुछ देर बाद भिखारियों का झुण्ड निकला।'काए? दरसन नई किए? चलो, इतै आओ.… परसाद छोड़ खें कहूँ गए तो लापता हो जैहो जैसे लीलावती-कलावती के घरवारे हो गए हते. पंडत जी सें कथा नई सुनी का?'
भिखारियों को दरवाजे पर ठिठकता देख उसने फिर पुकार लगाई: 'दरवज्जे पे काए ठांड़े हो? इते लौ आउत मां गोड़ पिरात हैं का?' जा गरू थाल हमसें नई उठात बनें। लेओ' कहते हुए प्रसाद की पुड़िया उठाकर उसने हाथ बढ़ा दिया तो भिखारी ने हिम्मतकर पुड़िया ली और पुजारी को आते देख दहशत में जाने को उद्यत हुए तो बालिका फिर बोल पड़ी: 'इनखें सींग उगे हैं का जो बाग़ रए हो? परसाद लए बिना कउनौ नें जाए. ठीक है ना पंडज्जी?'
'हओ मैया!' अनदेखी करते हुए पुजारी ने कहा।
***
मुक्तक
जो मुश्किलों में हँसी-खुशी गीत गाते हैं
वो हारते नहीं; हमेशा जीत जाते हैं
मैं 'सलिल' हूँ; ठहरा नहीं बहता रहा सदा
जो अंजुरी में रहे, लोग रीत जाते हैं.
२४-४-२०२०
***
लघुकथा
बर्दाश्तगी
*
एक शायर मित्र ने आग्रह किया कि मैं उनके द्वारा संपादित किये जा रहे हम्द (उर्दू काव्य-विधा जिसमें परमेश्वर की प्रशंसा में की गयी कवितायेँ) संकलन के लिये कुछ रचनाएँ लिख दूँ, साथ ही जिज्ञासा भी की कि इसमें मुझे, मेरे धर्म या मेरे धर्मगुरु को आपत्ति तो न होगी? मैंने तत्काल सहमति देते हुए कहा कि यह तो मेरे लिए ख़ुशी का वायस (कारण) है।
कुछ दिन बाद मित्र आये तो मैंने लिखे हुए हम्द सुनाये, उन्होंने प्रशंसा की और ले गये।
कई दिन यूँ ही बीत गये, कोई सूचना न मिली तो मैंने समाचार पूछा, उत्तर मिला वे सकुशल हैं पर किताब के बारे में मिलने पर बताएँगे। एक दिन वे आये कुछ सँकुचाते हुए। मैंने कारण पूछा तो बताया कि उन्हें मना कर दिया गया है कि अल्लाह के अलावा किसी और की तारीफ में हम्द नहीं कहा जा सकता जबकि मैंने अल्लाह के साथ- साथ चित्रगुप्त जी, शिव जी, विष्णु जी, ईसा मसीह, गुरु नानक, दुर्गा जी, सरस्वती जी, लक्ष्मी जी, गणेश जी व भारत माता पर भी हम्द लिख दिये थे। कोई बात नहीं, आप केवल अल्लाह पर लिख हम्द ले लें। उन्होंने बताया कि किसी गैरमुस्लिम द्वारा अल्लाह पर लिख गया हम्द भी क़ुबूल नहीं किया गया।
किताब तो आप अपने पैसों से छपा रहे हैं फिर औरों का मश्वरा मानें या न मानें यह तो आपके इख़्तियार में है -मैंने पूछा।
नहीं, अगर उनकी बात नहीं मानूँगा तो मेरे खिलाफ फतवा जारी कर हुक्का-पानी बंद दिया जाएगा। कोई मेरे बच्चों से शादी नहीं करेगा -वे चिंताग्रस्त थे।
अरे भाई! फ़िक्र मत करें, मेरे लिखे हुए हम्द लौटा दें, मैं कहीं और उपयोग कर लूँगा। मैंने उन्हें राहत देने के लिए कहा।
उन्हें तो कुफ्र कहते हुए ज़ब्त कर लिया गया। आपकी वज़ह से मैं भी मुश्किल में पड़ गया -वे बोले।
कैसी बात करते हैं? मैं आप के घर तो गया नहीं था, आपकी गुजारिश पर ही मैंने लिखे, आपको ठीक न लगते तो तुरंत वापिस कर देते। आपके यहां के अंदरूनी हालात से मुझे क्या लेना-देना? मुझे थोड़ा गरम होते देख वे जाते-जाते फिकरा कस गये 'आप लोगों के साथ यही मुश्किल है, बर्दाश्तगी का माद्दा ही नहीं है।'
***
नवगीत
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
दरक रे मैदान-खेत सब
मुरझा रए खलिहान।
माँगे सीतल पेय भिखारी
ले न रुपया दान।
संझा ने अधरों पे बहिना
लगा रखो है खून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
धोंय, निचोरें सूखें कपरा
पहने गीले होंय।
चलत-चलत कूलर हीटर भओ
पंखें चल-थक रोंय।
आँख मिचौरी खेरे बिजुरी
मलमल लग रओ ऊन।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
गरमा गरम नें कोऊ चाहे
रोएँ चूल्हा-भट्टी।
सब खों लगे तरावट नीकी
पनहा, अमिया खट्टी।
धारें झरें नई नैनन सें
बहें बदन सें दून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
लिखो तजुरबा, पढ़ तरबूजा
चक्कर खांय दिमाग।
मृगनैनी खों लू खें झोंकें
लगे लगा रए आग।
अब नें सरक पे घूमें रसिया
चौक परे रे! सून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
*
अंधड़ रेत-बगूले घेरे
लगी सहर में आग।
कितै गए पनघट अमराई
कोयल गाए नें राग।
आँखों मिर्ची झौंके मौसम
लगा र ओ रे चून।
धरती की छाती पै होरा
रओ रे सूरज भून।
***
नवगीत
*
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
जीवन-पथ में
मिले चले संग
हुआ रंग में भंग.
मन-मुटाव या
गलत फहमियों
ने, कर डाला तंग.
लहर-लहर के बीच
आ गयी शिला.
लहर बढ़ आगे,
एक साथ फिर
बहना चाहें
बोल न इन्हें अभागे.
भंग हुआ तो
कहो न क्यों फिर
हो अभंग हर छंद?
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
रोक-टोंक क्यों?
कहो तीसरा
अड़ा रहा क्यों टाँग?
कहे 'हलाला'
बहुत जरूरी
पिए मजहबी भाँग.
अनचाहा सम्बन्ध
सहे क्यों?
कोई यह बतलाओ.
सेज गैर की सजा
अलग हो, तब
निज साजन पाओ.
बैठे खोल
'हलाला सेंटर'
करे मौज-आनंद
दाल-भात में
मूसर चंद.
*
हलाला- एक रस्म जिसके अनुसार तलाक पा चुकी स्त्री अपने पति से पुनर्विवाह करना चाहे तो उसे किसी अन्य से विवाह कर दुबारा तलाक लेना अनिवार्य है.
२४-४-२०१७
***
मुक्तिका

हँस इबादत करो .
मत अदावत करो
मौन बैठो न तुम
कुछ शरारत करो
सो लिये हो बहुत
जग बगावत करो
अब न फेरो नजर
मिल इनायत करो
आज शिकवे सुनो
कल शिकायत करो
छोड चलभाष दो
खत किताबत करो
बेहतरी का कदम
हर रवायत करो
२४-४-२०१६
***
नवगीत:
.
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
सबके अपने-अपने कारण
कोई करता नहीं निवारण
चोर-चोर मौसेरे भाई
राजा आप आप ही चारण
सचमुच अच्छे दिन आये हैं
पहले पल में तोला
दूजे पल में माशा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
करो भरोसा तनिक न इस पर
इन्हें लोक से प्यारे अफसर
धनपतियों के हित प्यारे हैं
पद-मद बोल रहा इनके सर
धृतराष्ट्री दरबार न रखना
तनिक न्याय की आशा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
.
चौपड़ इनकी पाँसे इनके
छल-फरेबमय झाँसे इनके
जनास्था की की नीलामी
लोक-कंठ में फाँसे इनके
सत्य-धर्म जो स्वारथ साधे
यह इनकी परिभाषा
इंसां गया जान से
देखें लोग तमाशा
***
कविता:
अपनी बात:
.
पल दो पल का दर्द यहाँ है
पल दो पल की खुशियाँ है
आभासी जीवन जीते हम
नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया
वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता पीता सोता है जग
हाथ अंत में मलता है
खता हमारी इतनी ही है
हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर
गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना
श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी
साथ रास कब आता है
नोक-झोक, खींचा-तानी ही
मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी
जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा
सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें
न रोएँ हमको तो मुस्काना है
*
मुक्तक:
आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
*
मुक्तिका:
.
चल रहे पर अचल हम हैं
गीत भी हैं, गजल हम है
आप चाहें कहें मुक्तक
नकल हम हैं, असल हम हैं.
हैं सनातन, चिर पुरातन
सत्य कहते नवल हम हैं
कभी हैं बंजर अहल्या
कभी बढ़ती फसल हम हैं
मन-मलिनता दूर करती
काव्य सलिला धवल हम हैं
जो न सुधरी आज तक वो
आदमी की नसल हम हैं
गिर पड़े तो यह न सोचो
उठ न सकते निबल हम हैं
ठान लें तो नियति बदलें
धरा के सुत सबल हम हैं
कह रही संजीव दुनिया
जानती है सलिल हम हैं.
२४-४-२०१५
***
नवगीत
.
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
.
फाँसी लगा किसान ने
खबर बनाई खूब.
पत्रकार-नेता गये
चर्चाओं में डूब.
जानेवाला गया है
उनको तनिक न रंज
क्षुद्र स्वार्थ हित कर रहे
जो औरों पर तंज.
ले किसान से सेठ को
दे जमीन सरकार
क्यों नादिर सा कर रही
जन पर अत्याचार?
बिना शुबह बाँस तना
जन का हथियार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
.
भूमि गँवाकर डूब में
गाँव हुआ असहाय.
चिंता तनिक न शहर को
टंसुए श्रमिक बहाय.
वनवासी से वन छिना
विवश उठे हथियार
आतंकी कह भूनतीं
बंदूकें हर बार.
'ससुरों की ठठरी बँधे'
कोसे बाँस उदास
पछुआ चुप पछता रही
कोयल चुप है खाँस
करता पर कहता नहीं
बाँस कभी उपकार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
२३-४-२०१५
***
नवगीत:
.
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
साये से भय खाते लोग
दूर न होता शक का रोग
बलिदानी को युग भूले
अवसरवादी करता भोग
सत्य न सुन
सह पाते
झूठी होती वाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
उसने पाया था बहुमत
साथ उसी के था जनमत
सिद्धांतों की लेकर आड़
हुआ स्वार्थियों का जमघट
बलिदानी
कब करते
औरों की परवाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
सत्य, झूठ को बतलाते
सत्ता छिने न, भय खाते
छिपते नहीं कारनामे
जन-सम्मुख आ ही जाते
जननायक
का स्वांग
पाल रहे डाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
वह हलाहल रहा पीता
बिना बाजी लड़े जीता
हो विरागी की तपस्या
घट भरा वह, शेष रीता
जन के मध्य
रहा वह
चाही नहीं पनाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
कोई टोंक न पाया
खुद को झोंक न पाया
उठा हुआ उसका पग
कोई रोक न पाया
सबको सत्य
बताओ, जन की
सुनो सलाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
***
मुक्तक:
*
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके!
नित प्रात हो हम साथ हों नत माथ हो जगवन्दिते !!
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोइ भी दुखी
*
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों जिन्दा रहें
कुछ काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें
*
तज दे सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें-
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों
*
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें
तव आरती माँ भारती! हम एक होक गा सकें
*
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]
२२-४-२०१५
***
नवगीत:
.
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
कृष्णार्जुन
रणनीति बदल नित
करते हक्का-बक्का.
दुर्योधन-राधेय
मचलकर
लगा रहे हैं छक्का.
शकुनी की
घातक गुगली पर
उड़े तीन स्टंप.
अम्पायर धृतराष्ट्र
कहे 'नो बाल'
लगाकर जंप.
गांधारी ने
स्लिप पर लपका
अपनों का ही कैच.
कर्ण
सूर्य से आँख फेरकर
खोज रहा है छाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
द्रोणाचार्य
पितामह के सँग
कृष्ण कर रहे फिक्सिंग.
अर्जुन -एकलव्य
आरक्षण
माँग रहे कर मिक्सिंग.
कुंती
द्रुपदसुता लगवातीं
निज घर में ही आग.
राधा-रुक्मिणी
को मन भाये
खूब कालिया नाग.
हलधर को
आरक्षण देकर
कंस सराहे भाग.
गूँज रही है
यमुना तट पर
अब कौओं की काँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
मठ, मस्जिद,
गिरिजा में होता
श्रृद्धा-शोषण खूब.
लंगड़ा चढ़े
हिमालय कैसे
रूप-रंग में डूब.
बोतल नयी
पुरानी मदिरा
गंगाजल का नाम.
करो आचमन
अम्पायर को
मिला गुप्त पैगाम.
घुली कूप में
भाँग रहे फिर
कैसे किसको होश.
शहर
छिप रहा आकर
खुद से हार-हार कर गाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
नवगीत:
.
बदलावों से क्यों भय खाते?
क्यों न
हाथ, दिल, नजर मिलाते??
.
पल-पल रही बदलती दुनिया
दादी हो जाती है मुनिया
सात दशक पहले का तेवर
हो न प्राण से प्यारा जेवर
जैसा भी है सैंया प्यारा
अधिक दुलारा क्यों हो देवर?
दे वर शारद! नित्य नया रच
भले अप्रिय हो लेकिन कह सच
तव चरणों पर पुष्प चढ़ाऊँ
बात सरलतम कर कह जाऊँ
अलगावों के राग न भाते
क्यों न
साथ मिल फाग सुनाते?
.
भाषा-गीत न जड़ हो सकता
दस्तरखान न फड़ हो सकता
नद-प्रवाह में नयी लहरिया
आती-जाती सास-बहुरिया
दिखें एक से चंदा-तारे
रहें बदलते सूरज-धरती
धरती कब गठरी में बाँधे
धूप-चाँदनी, धरकर काँधे?
ठहरा पवन कभी क्या बोलो?
तुम ठहरावों को क्यों तोलो?
भटकावों को क्यों दुलराते?
क्यों न
कलेवर नव दे जाते?
.
जितने मुँह हैं उतनी बातें
जितने दिन हैं, उतनी रातें
एक रंग में रँगी सृष्टि कब?
सिर्फ तिमिर ही लखे दृष्टि जब
तब जलते दीपक बुझ जाते
ढाई आखर मन भरमाते
भर माते कैसे दे झोली
दिल छूती जब रहे न बोली
सिर्फ दिमागों की बातें कब
जन को भाती हैं घातें कब?
अटकावों को क्यों अपनाते?
क्यों न
पथिक नव पथ अपनाते?
२१.४.२०१५
***
छंद सलिला:
मंजुतिलका छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत लघु गुरु लघु (जगण)।
लक्षण छंद:
मंजुतिलका छंद रचिए हों न भ्रांत
बीस मात्री हर चरण हो दिव्यकांत
जगण से चरणान्त कर रच 'सलिल' छंद
सत्य ही द्युतिमान होता है न मंद
लक्ष्य पाता विराट
उदाहरण:
१. कण-कण से विराट बनी है यह सृष्टि
हरि की हर एक के प्रति है सम दृष्टि
जो बोया सो काटो है सत्य धर्म
जो लाए सो ले जाओ समझ मर्म
२. गरल पी है शांत, पार्वती संग कांत
अधर पर मुस्कान, सुनें कलरव गान
शीश सोहे गंग, विनत हुए अनंग
धन्य करें शशीश, विनत हैं जगदीश
आम आये बौर, हुए हर्षित गौर
फले कदली घौर, मिला शुभ को ठौर
अमियधर को चूम, रहा विषधर झूम
नर्मदा तट ठाँव, अमरकंटी छाँव
उमाघाट प्रवास, गुप्त ईश्वर हास
पूर्ण करते आस, न हो मंद प्रयास
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
एक षटपदी :
*
भारत के गुण गाइए, ध्वजा तिरंगी थाम.
सब जग पर छा जाइये, सब जन एक समान..
सब जन एक समान प्रगति का चक्र चलायें.
दंड थाम उद्दंड शत्रु को पथ पढ़ायें..
बलिदानी केसरिया की जयकार करें शत.
हरियाली सुख, शांति श्वेत, मुस्काए भारत..
२४-४-२०११
***
दोहा सलिला
माँ गौ भाषा मातृभू, नियति नटी आभार.
श्वास-श्वास मेरी ऋणी, नमन करूँ शत बार..
*
भूल-मार-तज जननि को, मनुज कर रहा पाप.
शाप बना जीवन 'सलिल', दोषी है सुत आप..
*
दो माओं के पूत से, पाया गीता-ज्ञान.
पाँच जननियाँ कह रहीं, सुत पा-दे वरदान..
*
रग-रग में जो रक्त है, मैया का उपहार.
है कृतघ्न जो भूलता, अपनी माँ का प्यार..
*
माँ से, का, के लिए है, 'सलिल' समूचा लोक.
मातृ-चरण बिन पायेगा, कैसे तू आलोक?
२४-४-२०१०
***

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गिरिजेश सक्सेना, लघुकथा, समीक्षा

पुस्तक सलिला :
चाणक्य के दाँत : हवा के ताजा झोंके सी लघुकथाएँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण : चाणक्य के दाँत, लघुकथा संग्रह, कनल डॉ. गिरिजेश सक्सेना 'गिरीश', प्रथम संस्करण २०१९, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १३६, मूल्य २०० रु., अपना प्रकाशन भोपाल ]
मानव सभ्यता के विकास के आरंभ से 'कहने' की प्रवृत्ति ने विविध रूप धारण करने आरंभ कर दिए। लोक ने भाषा के विकास के साथ 'किस्से', 'कहानी', 'गल्प', 'गप्प' आदि के रूप में इन्हें पहचाना। लोक जीवन में चौपाल, पनघट, नुक्कड़ आदि ने 'लोक कथा' कहने की लोक परंपरा को सतत पुष्ट किया। मंदिरों ने 'कथा' को जन्म देकर विकसित किया। उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने पर्व-त्योहारों के अवसर पर जीवन पूलों और परंपराओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए 'पर्व कथाओं' का उपयोग किया। लिपि के विकास ने वाचिक कथा साहित्य को किताबी रूप दिया। नादान बालन को जीवन दृष्टि देने के लिए पंचतंत्र और हितोपदेश, गूढ़ सिद्धांतों को सहजता से समझाने के लिए 'जातक कथाएँ' और 'बेताल कथाएँ' , पर्यटन को प्रत्साहित करने के लिए घुमक्कड़ी वृत्ति संपन्न 'पर्यटन कथाएँ' (सिंदबाद की कहानियाँ आदि), मनोरंजन के लिए अलीबाबा के किस्से अदि अनेक रूपों में कहने-सुनने की परंपरा विकसित होती गयी। आधुनिक हिंदी (खड़ी बोली) के विकास और स्वतंत्रता के बाद साहित्य को वर्गीकृत करने की प्रक्रिया में आंग्ल भाषा में शिक्षित वर्ग ने अंग्रेजी साहित्य को मानक मानकर उसका अनुकरण आरंभ किया। तदनुसार सुदीर्घ भारतीय लोक परंपरा की उपेक्षा कर अंग्रेजी की 'शार्ट स्टोरी' के पर्याय रूप में 'लघुकथा' को प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ। वैचारिक प्रतिबद्धतता के नाम पर लघुकथा में सामाजिक विसंगतियों को उभरने को तरजीह दी जाने लगी। लघुकथा, व्यंग्य लेख और नवगीत में नकारात्मकता को उभरना ही श्रेष्ठता का पर्याय मन जाने लगा। गत दशक में स्त्री विमर्श के नाम पर पुरुष-निंदा और सास-बहू प्रसंग के मिलते-जुलते कथ्य वाली लघुकथाओं की बाढ़ आ गयी। इसके साथ ही लघुकथा में खेमेबाजी भी बढ़ती गयी। अर्थशास्त्र में कहावत है कि दो अर्थशास्त्रियों के ३ मत होते हैं, लघुकथा में स्थिति और बदतर है। हर मठाधीश के अपने-अपने मानक हैं, एक-दूसरे को ख़ारिज करने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। इस परिदृश्य का उल्लेख इसलिए कि बहुत दिनों बाद बंद कमरे में हवा के ताजे झोंके की तरह 'चाणक्य के दाँत' लघुकथा संकलन मिला, एक ही बैठक में आद्योपांत पढ़ जाना ही प्रमाण है कि इन लघुकथाओं में दम है।
गिरिजेश जी कनल रहे हैं और डॉक्टर भी, अपने दायित्व निर्वहन हेतु उन्हें न्यायालयों में बार-बार उपस्थित होना पड़ा है। कुछ रोचक प्रसंगों को उन्होंने लघुकथा में ढालकर सफलता पूर्वक प्रस्तुत किया है। ''दस्तूर'' लघुकथा न्यायालय व्यवस्था में घर कर चके भ्रष्टाचार की झलक इतने संयत, प्रामाणिक और रोचक तरीके से प्रस्तुत करती है कि पाठक मुस्कुरा पड़ता है। लघुकथा ''जहाँ चाह'' में न्यायालय का उजला पक्ष सामने आया है। लघुकथाकार कथांत में "जज साहब ने एक मिसाल कायम की और सिद्ध कर दिया जहाँ चाह वहाँ राह'' के माध्यम से न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज़्म) को सराहा है। एक अन्य लघुकथा ''ऐसा भी होता है'' में भी गिरिजेश जी ने न्यायाधीश के दबंग और सुलझे रूप को प्रस्तित किया है। इस लघुकथा में यह भी उभर कर आया है कि जिन वकीलों की आजीविका ही न्याय कराने की है, वे ही न्याय संपादन में बाधक हैं और उनके साथ सख्ती किये बिना अन्य चारा नहीं है। ''जलवे'' शीर्षक लघुकथा न्यायाधीशों द्वारा गलत परंपरा को प्रोत्साहित किये जाने को इंगित करती है। 'पेशी' लघुकथा में न्यायाधीश का अहंकार उभर कर सामने आया है।
"हम क्यों जीते वो क्यों हारे" लघु कथा भारत-पाकिस्तान युद्ध १९७१ में पाकिस्तान की पराजय के बाद बंदी पाकिस्तानी सिपाही द्वारा अपने अफसरों के कदाचरण और भारतीय सैन्य बल की श्रेष्ठता को स्वीकारे जाने पर केंद्रित है। यह सत्य सुविदित होने के बाद भी इसे लघुकथा के रूप देखना सुखद है। "घडी से लटका आदमी" सैन्य जीवन में समय की पाबंदी पर चुटकी है। पाठक के अधरों पर मंद स्मित लाती यह लघुकथा सामान्यता में असामान्यता का उदाहरण है। सामान्यत: सुंदर युवतियों को देखकर रोमानी सोच रखना और बातें करना भारतीय समाज का दस्तूर सा बन गया है। एक अनजान सुंदरी को देखकर अपनी बेटी की याद करना, एक सहज किंतु अप्रचलित बिम्ब है जिसे ''जे की रही भावना जैसी '' शीर्षक लघुकथा में प्रस्तुत किया गया है। यह लघुकथा भी सैन्य पृष्ठ भूमि में रची गयी है। 'मेरी मिट्टी' में सैन्य कर्मी की अदम्य जिजीविषा उद्घाटित हुई है।
कोरोना से लड़ाई में सरकारी सेवा के चिकित्सकों का उजला पक्ष सामने आया है जबकि इसके पूर्व सरकारी चिकित्सकों के गैरजिम्मेदार व्यवहार की ही खबरें सामने आती रहे हैं। आज सरकारी चिकित्सक वर्ग का पूरा देश और समाज अभिनन्दन कर रहा है किन्तु अग्रसोची गिरिजेश जी ने ''डॉक्टर ऑन ड्यूटी'' में यह पक्ष पहले ही उद्घाटित कर दिया है।
''प्रस्तुत लघुकथाएँ क्षणिक प्रतिक्रियाएँ हैं, जो मेरे जीवन या मेरे आसपास के वातावरण में प्रस्फुटित हुई।'' मेरी बात में लघुकथाकार का यह ईमानदार कथन लघुकथा विधा के स्वरूप और मानकों के नीम और संख्या को लेकर विविध मठाधीशों में मचे द्वन्द को निरर्थक सिद्ध कर देता है। लघुकथा 'चेहरे पर लिखे दाम' में ठेले पर फल बेचनेवाले में ग्राहक की सामर्थ्य के अनुसार भाव बताने की संवेदनशीलता सामान्यत: अदेखे रह जाने वाले पहलू को सामने लाती है। 'नकल में अकल' का कथ्य कम विस्तार में अधिक प्रभावी होता। 'उमर का तकाज़ा' में लघुकथा से गायब होता जा रहा सहज हास्य का रंग मोहक है। 'बाज़ी' लघुकथा को पढ़कर बरबस सत्यजीत राय की 'शतरंज के खिलाड़ी' की याद हो आई।
'पेट की आग', 'कूकुर सभा', 'माँ के लिए रोटी', 'इस्तीफा' जैसी लघुकथाओं की व्यंजनात्मकता काबिले-तारीफ है तो नन्हीं का थैंक्यू', पुल आदि लघुकथाओं की सहज सह्रदयता सीधे दिल को छूती है।
'जो नहीं होता वो होता है' शीर्षक लघुकथा की संदेशपरकता हर पाठक के लिए उपयोगी है। 'भस्मासुर' लघुकथा एक अभिनव प्रयोग है। यह सुपरिचित पौराणिक आख्यान को वर्तमान संदर्भों में व्याख्यायित कर लोकतंत्र में जिम्मेदार लोक को कर्तव्योन्मुखी होने की सीख देती है। ऐसी लघुकथाएँ उन समालोचकों को सटीक जवाब देती हैं जो यह कहते नहीं थकते की लघुकथा का काम रास्ता दिखाना नहीं है।
सारत:, स्वाभाविक सहज-सरल शब्दावली का प्रयोग करते हुए गिरिजेश जी ने इन लघुकथाओं के माध्यम से समाज को उसका चेहरा दिखाने की निरर्थक कसरत तक सीमित न रहते हुए उससे आगे जाकर मर्म को छूते हुए , वैचारिक जड़ता को झिंझोड़ने का सफल प्रयास किया है। ऐसी ही लघुकथाएँ इस विधा को आगे बढ़ाने में महती भूमिका निभाएँगी। अपनी शैली आप बनाने, अपने मुहावरे आप गढ़ने की यह कोशिश देखने हुए ''अल्लाह करे जोरे-करम और जियादा'' के स्थान पर कहना होगा अगले संग्रह में ''अल्लाह करे जोरे-कलम और जियादा।
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रविवार, 23 अप्रैल 2023

विलियम शेक्सपियर

जन्म दिवस पर स्मरण- 

विलियम शेक्सपियर

इंग्लैंड के राष्ट्रीय कवि विलियम शेक्सपियर, १६ वीं शताब्दी के कालजयी अंग्रेजी कवि, नाटककार और अभिनेता थे। वे अंग्रेजी भाषा के सबसे महान लेखक और प्रख्यात नाटककार के रूप में व्यापक हैं। इनका उपनाम “बार्ड ऑफ़ एवन” था। उन्होंने ३८ नाटकों, १५४ सोनेट, २ लंबी कथाकाव्य और कुछ अन्य छंद जिनमें से कुछ की औथोर्शिप अनिश्चित है की रचना की। इनके नाटकों का विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद व अभिनीत किया गया है। शेक्सपियर ने लगभग अंग्रेजी के लगभग १७०० शब्दों की रचना की।

इंग्लैंड के वारविकशायर में स्ट्रेटफोर्ड – अपॉन – एवन शहर में विलियम शेक्सपियर का जन्म २६ अप्रैल सन १५६४ को हुआ था। इनके पिता जॉन शेक्सपियर एक सफल स्थानीय व्यापारी तथा स्ट्रेटफोर्ड की सरकार में जिम्मेदार अधिकारी एवं वर्ष १५६९ में मेयर थे। शेक्सपियर की माता मर्री शेक्सपियर एक पड़ोसी गाँव के धनी जमींदार की बेटी थीं। अपने माता-पिता की ८ संतानों में से विलियम शेक्सपियर तीसरे तथा सबसे बड़े पुत्र थे।

१८ वर्षीय विलियम शेक्सपियर और २६ वर्षीय ऐनी की शादी के ६ महीने बाद इन्हें एक बेटी हुई तथा इसके बाद इनके २ जुड़वाँ बच्चे हम्नेट और जूडिथ हुए। हेम्नेट की११ साल की उम्र में मृत्यु हो गई। सुसंना का विवाह जॉन हाल से तथा जूडिथ की शादी थॉमस क़ुइनी से हुई। विलियम ने अपने नाट्य कैरियर की शुरुआत सन १५८५ में की। सन १५९२ में उन्होंने लन्दन मंच पर अपने कैरियर की शुरुआत की तथा शीघ्र ही बहुत प्रसिद्ध हो गए। रोबर्ट ग्रीने, शेक्सपियर के प्रखर आलोचक थे। सन १५९३-९४ में ‘वीनस एंड एडोनिस’ कविता जिसमें वीनस की यौन उन्नति तथा एडोनिस के एवेंचुअल रिजेक्शन को दर्शाया गया है, हेनरी रिओथेस्ले (साउथएम्प्टन के एर्ल) को समर्पित की। ‘दी रेप ऑफ़ लूक्रेस’ कविता में लूक्रेस के भावनात्मक उबाल (टर्मोइल) को प्रस्तुत किया है जिसका तर्क़ुइन ने रेप किया था। दोनों कविताएँ बहुत लोकप्रिय हुईं। शेक्सपियर ने ‘अ लवर्स कंप्लेंट’ कविता में एक महिला की संक्षिप्त कहानी बताई जो अपने प्रेमी द्वारा प्रलोभन के कारण पीड़ित थी। और‘दी फोनिक्स एंड दी टर्टल’ कविता में फोनिक्स एवं प्रेमी की मौत के शोक को व्यक्त किया।

१५९४ के बाद से शेक्सपियर के लगभग सभी नाटक लन्दन में एक अग्रणी कंपनी में चेम्बर्लेन द्वारा प्रदर्शित किये गए। शेक्सपियर ने सन १५९९ में अपना स्वयं का थिएटर खरीदा और उसका नाम ग्लोब रखा। शेक्सपियर की प्रतिष्ठा एक नाटककार और अभिनेता के रूप में बहुत तेजी से बढ़ी। सन १६०३ में महारानी एलिज़ाबेथ की मौत के बाद, उन्हें एक शाही पेटेंट के साथ एक कम्पनी द्वारा सम्मानित किया गया। शेक्सपियर ने स्वयं के तथा दूसरों के लिखे कई नाटकों (‘एव्री मेन इन हिज हुमौर’, ‘सेजनस हिज फॉल’, ‘दी फर्स्ट फोलियो’, ‘एस यू लाइक इट’, ‘हैमलेट’ और ‘हेनरी 6’ आदि) में अभिनय कार प्रसिद्धि पाई। उन्होंने लगभग ३७ नाटक लिखे तथा स्ट्रेटफोर्ड में एक विशाल हवेली खरीदी जिसका नाम 'न्यू हाउस' रखा। शेक्सपियर ने लेस में रियल अचल संपत्ति खरीदी तथा सफल व्यवसायी रहे।

सन १६०९ में, शेक्सपियर ने १५४ सॉनेट लिखे। सॉनेट उनकी खुद की विशिष्ट काव्य शैली थी जिसमें असामान्य प्यार और जुनून की अभिव्यक्ति थी। शेक्सपियर नवताप्रेमी (इनोवेटिव) भी थे। सॉनेट में मेटाफोर्स और र्हेटोरिकल फ्रेसेस को जोड़कर अपने तरीके की पारंपरिक (कन्वेंशनल)शैली थी। शेक्सपियर के अधिकांश नाटकों में एक छंद पैटर्न की उपस्थिति रहती थी जोकि 'अनराइम्ड आयंबिक पेंटामीटर' (आगे काव्य पंक्तियाँ होती थीं। उनके लेखन के आरंभ में शेक्सपियर ज्यादातर ऐतिहासिक चरित्र जैसे ‘रिचर्ड २’, ‘हेनरी ५’, ‘हेनरी६’ आदि पर लेखन करते थे। केवल एक अपवाद था ‘रोमियो एंड जूलिएट'। शेक्सपियर एक बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्ति थे जिन्होंने अपने व्यापक काम के साथ विभिन्न शैलियों को सफलतापूर्वक अपनाया। शेक्सपियर के नाटकों में रोमांस के साथ – साथ कॉमेडी भी होती थी। शेक्सपियर ने मानव व्यवहार विश्वासघात, प्रतिकार, अनाचार, नैतिक विफलता आदि को उत्कृष्टता के साथ ‘हेमलेट’, ‘किंग लीयर’, ‘ऑथेलो’ और ‘मैकबेथ’ आदि में प्रस्तुत किया। अधिकतर दुखांत लेखन के कारण उन्हें 'डार्क ट्रेजेडीस' शैली के अंतर्गत आ गए. का कहा गया। उनका अंतिम काम था ट्रेजेडी और कॉमेडी दोनों को मिलाकर एक त्रासद हास्यमय (ट्रेजेडिककॉमेडीस) नाटक का लेखन। इसमें एक दुखद कहानी का सुखद अंत था। सन १६१० तक शेक्सपियर ने बहुत से नाटक लिखे. यह अनुमान लगाया जाता है कि उनके लिखित पिछले तीन नाटक जॉन फ्लेचर के साथ सहयोग में थे, जो किंग’स मेन थिएटर ग्रुप के लिए शेक्सपियर के बाद नाटककार के रूप में सफल हो गया। सन १६१३ में शेक्सपियर स्ट्रेटफोर्ड से रिटायर हो गए। विलियम शेक्सपियर की अपने जन्म दिन के दिन पहले २३ अप्रैल सन १६१६ को मृत्यु हो गई। चर्च के रिकॉर्ड के अनुसार, वे ५ अप्रैल सन १६१६को होली ट्रिनिटी चर्च के चांसल में अपनी पत्नी और २ बेटियों के साथ थे।

शेक्सपियर की सूक्तियाँ -

१. सबसे प्यार करो, कुछ पर भरोसा करो, किसी का भी बुरा मत करो।

२. मूर्ख को लगता है कि वह बुद्धिमान है, बुद्धिमान व्यक्ति जानता है कि वह मूर्ख है।

३. महानता का डर नहीं हैं। कुछ महान पैदा ही होते हैं, महानता प्राप्त करने के लिए।

४. प्यार, आँखों के साथ नहीं बल्कि मन के साथ देखा जाता हैं और इसलिए पंखों का लोभ करने वालों को अंधा चित्रित किया गया है।

५. गलतियाँ हमारे सितारों में नहीं, अपने आप में है।

६. मैं दिमागी लड़ाई में आपको चुनौती देता हूँ, लेकिन मैं देख रहा हूँ कि आप निहत्थे हैं।

७. अच्छा या बुरा कुछ नहीं होता, सोच अच्छा या बुरा बनाती है।

८. नियति को पकड़ना सितारों में नहीं, अपने आप में होता है।

१०. नर्क खाली है और सभी शैतान यहाँ हैं।

११. हम जानते है कि हम क्या हैं लेकिन ये नहीं जानते कि क्या हो सकते हैं?

१२. शब्द हवा की तरह आसान है; वफादार दोस्त खोजने में मुश्किल है।

१३. सच्चे प्यार का रास्ता कभी आसान नहीं होता।

१४. अपना प्यार किसी ऐसे पर बर्बाद मत करों, जिसे इसकी कद्र नहीं।

१५. ख़ुशी और हँसी के साथ पुरानी झुर्रियां भी आतीं हैं।

यह सोनेट विलियम शेक्सपियर द्वारा रचित सुंदर सोनेट १ से सोनेट १२९ तक फैले 'फेयर यूथ' (सुंदर यौवन) शीर्षक सबसे बड़े खंड का भाग है। इन कविताओं में कवि एक युवक के प्रति अपने प्रेम और आदर को अभिव्यक्त करता है।

First Category

SONNET 29, Year1609

When, in disgrace with fortune and men’s eyes,
I all alone beweep my outcast state,
And trouble deaf heaven with my bootless cries,
And look upon myself and curse my fate,

Wishing me like to one more rich in hope,
Featured like him, like him with friends possessed,
Desiring this man’s art and that man’s scope,
With what I most enjoy contented least;

Yet in these thoughts myself almost despising,
Haply I think on thee, and then my state,
(Like to the lark at break of day arising
From sullen earth) sings hymns at heaven’s gate;

For thy sweet love remembered such wealth brings
That then I scorn to change my state with kings.

हो निरादर ही बदा जब भाग्य में, हर आँख में,
मैं अकेला रुदन करता हूँ बहिष्कृत राज्य में,
और बहरे स्वर्ग को दो कष्ट, बिन पदत्राण चीख, 
और देखो मुझे, दो अभिशाप मेरे भाग्य को;

दो बधाई मुझे, ज्यों संपन्न ज्यादा आस में, 
प्रदर्शित उसकी तरह, हों मित्र भी उसकी तरह, 
लिए चाहत इस मनुज की कला, उसके क्षेत्र की, 
हुआ आनंदित अधिक जिससे हुआ संतुष्ट कम;

यद्यपि इन विचारों में 'आत्म' मेरा है तिरस्कृत, 
हो मुदित मैं सोचता हूँ आप पर, निज जगह पर,  
जिस तरह हो लार्क उगते दिवस के अवसान में, 
सुनसान भू से भजन गाता स्वर्ग के मुख द्वार पर; 

संपदा लाता मधुर जो याद तेरे प्यार की
मना करता मैं न बदलूँ भाग्य अपना नृपति से। 
***


मुक्तक, मुक्तिका, नवगीत, लोरी, गंग छंद, सॉनेट, पृथ्वी, पुस्तक, लघुकथा

मुक्तक
उमर गँवाई, जाग न पाए।
प्रभु से कर अनुराग न पाए।।
कोशिश कर कर हार गए हैं-
सच से लेकिन भाग न पाए।।
२३-४-२०२३
•••
सॉनेट
पृथ्वी दिवस
पृथ्वी दनुजों से थर्रायी
ऐसा हमें अतीत बताता
पृथ्वी अब भी है घबरायी
ऐसा वर्तमान बतलाता
क्या भविष्य बस यही कहेगा
धरती पर रहते थे इन्सां
या भविष्य ही नहीं रहेगा?
होगा एक न करे जो बयां
मात्र 'मैं' सही, शेष गलत हैं
मेरा कहा सभी जन मानें
अहंकार भय क्रोध द्वेष हैं
मूल नाश के कारण जानें
विश्व एक परिवार, एक घर
माने हँसे साध सब मिलकर
२३-४-२०२२
•••
चिंतन सलिला ५
कब?
'कब' का महत्व क्या, क्यों, कैसे के क्रम में अन्य किसी से कम नहीं है।
'कब' क्या करना है यह ज्ञात हो तो किये गये का परिणाम मनोनुकूल होता है।
'कब' का महत्व कैकेयनंदिनी कैकशी भली-भाँति जानती थीं। यदि उन्होंने कोप कर वरदान राम राज्याभिषेक के
ठीक पहले न माँगकर किसी अन्य मय माँगे होते तो राम का चरित्र निखर ही न पाता, न ही दनुज राज का अंत नहीं होता।
'कब' न जानने के कारण ही हमारी संस्थाओं के कार्य, कार्यक्रम और निर्णय फलदायी नहीं हैं।
'कब' करना या न करना कैसे जानें?
याद रखें 'अग्रसोची सदा सुखी'। समय से पहले सोच-विचारकर यथासमय किया गया काम ही सुलझाया होता है।
'कब' का सही अनुमान कर वर्षा के पूर्व छत और छाते की मरम्मत, शीत के पहले गर्म कपड़ों की धुलाई और गर्मी के पहले कूलर-पंखों की देखभाल न हो तो परेशानी होगी ही।
'कब' क्या करना या न करना, यह जानना संस्था पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं के लिए बहुत जरूरी है।
यह न जानने के कारण ही संस्थाएँ अप्रासंगिक हो गई हैं और समाज उनसे दूर हो गया है।
संस्थाओं का गठन समाज के मगल और कमजोरों की सहायता के लिए किया जाता है। संस्था से इस उद्देश्य की पूर्ति न हो, वह केवल संपन्न वर्ग के मिलने, मौज करने का माध्यम बन जाए तो समाज उससे दूर हो जाता है।
कब किसके लिए क्या किस प्रकार करना है? यह न सोचा जाए तो संस्था वैयक्तिक यश, लाभ और स्वार्थ का जरिया बनकर मर जाती है।
'कब' की कसौटी पर खुद को और संस्था को कसकर देखिए।
२३-४-२०२२
संजीव, ९४२५१८३२४४
•••
पुस्तक दिवस (२३ अप्रैल) पर
मुक्तिका
*
मीत मेरी पुस्तकें हैं
प्रीत मेरी पुस्तकें हैं
हार ले ले आ जमाना
जीत मेरी पुस्तकें हैं
साँस लय है; आस रस है
गीत मेरी पुस्तकें हैं
जमातें लाईं मशालें
भीत मेरी पुस्तकें हैं
जग अनीत-कुरीत ले ले
रीत मेरी पुस्तकें हैं
२३-४-२०२०
***
विमर्श : चाहिए या चाहिये?
हिन्दी लेखन में हमेशा स्वरात्मक शब्दों को प्रधानता दी जाती है मतलब हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं।
चाहिए या चाहिये दोनों शब्दों के अर्थ एक ही हैं। लेखन की दृष्टि से कब क्या लिखना चाहिए उसका वर्णन निम्नलिखित है।
चाहिए - स्वरात्मक शब्द है अर्थात बोलने में 'ए' स्वर का प्रयोग हो रहा है। इसलिए लेखन की दृष्टि से चाहिए सही है।
चाहिये - यह श्रुतिमूलक है अर्थात सुनने में ए जैसा ही प्रतीत होता है इसलिए चाहिये लिखना सही नहीं है। क्योंकि हिन्दी भाषा में स्वर आधारित शब्द जिसमें आते हैं, लिखने में वही सही माने जाते हैं।
आए, गए, करिए, सुनिए, ऐसे कई शब्द हैं जिसमें ए का प्रयोग ही सही है।
मुक्तक
*
इस दुनिया में जान लुटाता किस पर कौन?
जान अगर बेजान साथ में जाता कौन?
जान जान की जान मुसीबत में डाले
जान जान की जान न जान बताता कौन?
*
लघुकथा
जाति
*
_ बाबा! जाति क्या होती है?
= क्यों पूछ रही हो?
_ अखबारों और दूरदर्शन पर दलों द्वारा जाति के आधार चुनाव में प्रत्याशी खड़े किए जाने और नेताओं द्वारा जातिवाद को बुरा बताए जाने से भ्रमित पोती ने पूछा।
= बिटिया! तुम्हारे मित्र तुम्हारी तरह पढ़-लिख रहे बच्चे हैं या अनपढ़ और बूढ़े?
_ मैं क्यों अनपढ़ को मित्र बनाऊँगी? पोती तुनककर बोली।
= इसमें क्या बुराई है? किसी अनपढ़ की मित्र बनकर उसे पढ़ने-बढ़ने में मदद करो तो अच्छा ही है लेकिन अभी यह समझ लो कि तुम्हारे मित्रों में एक ही शाला में पढ़ रहे मित्र एक जाति के हुए, तुम्हारे बालमित्र जो अन्यत्र पढ़ रहे हैं अन्य जाति के हुए, तुम्हारे साथ नृत्य सीख रहे मित्र भिन्न जाति के हुए।
_ अरे! यह तो किसी समानता के आधार पर चयनित संवर्ग हुआ। जाति तो जन्म से होती है न?
= एक ही बात है। संस्कृत की 'जा' धातु का अर्थ होता है एक स्थान से अन्य स्थान पर जाना। जो नवजात गर्भ से संसार में जाता है वह जातक, जन्म देनेवाली जच्चा, जन्म देने की क्रिया जातकर्म, जन्म दिया अर्थात जाया....
_ तभी जगजननी दुर्गा का एक नाम जाया है।
= शाबाश! तुम सही समझीं। बुद्ध द्वारा विविध योनियों में जन्म या अवतार लेने की कहानियाँ जातक कथाएँ हैं।
_ यह तो ठीक है लेकिन मैं...
= तुम समान आचार-विचार का पालन कर रहे परिवारों के समूह और उनमें जन्म लेनेवाले बच्चों को जाति कह रही हो। यह भी एक अर्थ है।
_ लेकिन चुनाव के समय ही जाति की बात अधिक क्यों होती है?
= इसलिए कि समान सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों में जुड़ाव होता है तथा वे किसी परिस्थिति में समान व्यवहार करते हैं। चुनाव जीतने के लिए मत संख्या अधिक होना जरूरी है। इसलिए दल अधिक मतदाताओं वाली जाति का उम्मीदवार खड़ा करते हैं।
_ तब तो गुण और योग्यता के कोई अर्थ ही नहीं रहा?
= गुण और योग्यता को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुने जाएँ तो?
_ समझ गई, दल धनबल, बाहुबल और संख्याबल को स्थान पर शिक्षा, योग्यता, सच्चरित्रता और सेवा भावना को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुनें तो ही अच्छे जनप्रतिनिधि, अच्छी सरकार और अच्छी नीतियाँ बनेंगी।
= तुम तो सयानी हो गईं हो बिटिया! अब यह भी देखना कि तुम्हारे मित्रों की भी हो यही जाति।
***
लघुकथा
नोटा
*
वे नोटा के कटु आलोचक हैं। कोई नोटा का चर्चा करे तो वे लड़ने लगते। एकांगी सोच के कारण उन्हें और अन्य राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं के केवल अपनी बात कहने से मतलब था, आते भाषण देते और आगे बढ़ जाते।
मतदाताओं की परेशानी और राय से किसी को कोई मतलब नहीं था। चुनाव के पूर्व ग्रामवासी एकत्र हुए और मतदान के बहिष्कार का निर्णय लिया और एक भी मतदाता घर से नहीं निकला।
दूरदर्शन पर यह समाचार सुन काश, ग्रामवासी नोटा का संवैधानिक अधिकार जानकर प्रयोग करते तो व्यवस्था के प्रति विरोध व्यक्त करने के साथ ही संवैधानिक दायित्व का पालन कर सकते थे।
दलों के वैचारिक बँधुआ मजदूर संवैधानिक प्रतिबद्धता के बाद भी अपने अयोग्य ठहराए जाने के भय से मतदाताओं को नहीं बताना चाहते कि उनका अधिकार है नोटा।
२३-४-२०१९
***
देहरी बैठे दीप लिए दो
तन-मन अकुलाए.
संदेहों की बिजली चमकी,
नैना भर आए.
*
मस्तक तिलक लगाकर भेजा, सीमा पर तुमको.
गए न जाकर भी, साँसों में बसे हुए तुम तो.
प्यासों का क्या, सिसक-सिसककर चुप रह, रो लेंगी.
आसों ने हठ ठाना देहरी-द्वार न छोड़ेंगी.
दीपशिखा स्थिर आलापों सी,
मुखड़ा चमकाए.
मुखड़ा बिना अन्तरा कैसे
कौन गुनगुनाए?
*
मौन व्रती हैं पायल-चूड़ी, ऋषि श्रृंगारी सी.
चित्त वृत्तियाँ आहुति देती, हो अग्यारी सी.
रमा हुआ मन उसी एक में जिस बिन सार नहीं.
दुर्वासा ले आ, शकुंतला का झट प्यार यहीं.
माथे की बिंदी रवि सी
नथ शशि पर बलि जाए.
*
नीरव में आहट की चाहत, मौन अधर पाले.
गजरा ले आ जा निर्मोही, कजरा यश गा ले.
अधर अधर पर धर, न अधर में आशाएँ झूलें.
प्रणय पखेरू भर उड़ान, झट नील गगन छू लें.
ओ मनबसिया! वीर सिपहिया!!
याद बहुत आए.
घर-सरहद पर वामा
यामा कुलदीपक लाए.
२३-४-२०१८
***
एक षट्पदी
*
'बुक डे'
राह रोक कर हैं खड़े, 'बुक' ले पुलिस जवान
वाहन रोकें 'बुक' करें, छोड़ें ले चालान
छोड़ें ले चालान, कहें 'बुक' पूरी भरना
छूट न पाए एक, न नरमी तनिक बरतना
कारण पूछा- कहें, आज 'बुक डे' है भैया
अगर हो सके रोज, नचें कर ता-ता थैया
***
छंद बहर का मूल है: १०
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SSI SS / SISS SISS
सूत्र: रतगग।
आठ वार्णिक अनुष्टुप जातीय छंद।
चौदह मात्रिक मानव जातीय सखी छंद।
बहर: फ़ाइलातुं फ़ाइलातुं ।
*
आप बोलें या न बोलें
सत्य खोलें या न खोलें
*
फैसला है आपका ही
प्यार के हो लें, न हो लें
*
कीजिए भी काम थोड़ा
नौकरी पा के, न डोलें
*
दूर हो विद्वेष सारा
स्नेह थोड़ा आप घोलें
*
तोड़ दें बंदूक-फेंकें
नैं आँसू से भिगो लें
*
बंद हो रस्मे-हलाला
औरतें भी सांस ले लें
*
काट डाले वृक्ष लाखों
हाथ पौधा एक ले लें
२३.४.२०१७
***
छंद बहर का मूल है: ११
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SS
सूत्र: रगग।
पाँच वार्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय छंद।
नौ मात्रिक आंक जातीय गंग छंद।
बहर: फ़ाइलातुं फ़े ।
*
भावनाएँ हैं
कामनाएँ हैं
*
आदमी है तो
वासनाएँ हैं
*
हों हरे वीरां
योजनाएँ हैं
*
त्याग की बेला
दाएँ-बाएँ हैं
*
आप ही पालीं
आपदाएँ हैं
*
आदमी जिंदा
वज्ह माएँ हैं
*
औरतें ही तो
वंदिताएँ हैं
***

द्विपदी
*
सबको एक नजर से कैसे देखूँ ?
आँख भगवान् ने दो-दो दी हैं।
*
उनको एक नजर से ज्योंही देखा
आँख मारी? कहा और पीट दिया।
*
२३-४-२०१७
***
लोरी
*
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
सपनों में आएँगे कान्हा दुआरे
'चल खेल खेलें' तुझको पुकारें
माखन चटा, तुझको मिसरी खिलाएं
जसुदा बलैयाँ लें तेरी गुड़िया
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
साथी बनेंगे तेरे ये तारे
छिप-छिप शरारत करते हैं सारे
कोयल सुनाएगी मीठी सी लोरी
सुंदर मिलेगी सपनों की दुनिया
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
२०-१०-२०१६
***
कविता:
अपनी बात:
.
पल दो पल का दर्द यहाँ है
पल दो पल की खुशियाँ है
आभासी जीवन जीते हम
नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया
वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता पीता सोता है जग
हाथ अंत में मलता है
खता हमारी इतनी ही है
हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर
गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना
श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी
साथ रास कब आता है
नोक-झोक, खींचा-तानी ही
मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी
जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा
सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें
न रोएँ हमको तो मुस्काना है
*
***
मुक्तक:
.
आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
*
***
मुक्तिका:
.
चल रहे पर अचल हम हैं
गीत भी हैं, गजल हम है
आप चाहें कहें मुक्तक
नकल हम हैं, असल हम हैं.
हैं सनातन, चिर पुरातन
सत्य कहते नवल हम हैं
कभी हैं बंजर अहल्या
कभी बढ़ती फसल हम हैं
मन-मलिनता दूर करती
काव्य सलिला धवल हम हैं
जो न सुधरी आज तक वो
आदमी की नसल हम हैं
गिर पड़े तो यह न सोचो
उठ न सकते निबल हम हैं
ठान लें तो नियति बदलें
धरा के सुत सबल हम हैं
कह रही संजीव दुनिया
जानती है सलिल हम हैं.
***
नवगीत
.
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
.
फाँसी लगा किसान ने
खबर बनाई खूब.
पत्रकार-नेता गये
चर्चाओं में डूब.
जानेवाला गया है
उनको तनिक न रंज
क्षुद्र स्वार्थ हित कर रहे
जो औरों पर तंज.
ले किसान से सेठ को
दे जमीन सरकार
क्यों नादिर सा कर रही
जन पर अत्याचार?
बिना शुबह बाँस तना
जन का हथियार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
.
भूमि गँवाकर डूब में
गाँव हुआ असहाय.
चिंता तनिक न शहर को
टंसुए श्रमिक बहाय.
वनवासी से वन छिना
विवश उठे हथियार
आतंकी कह भूनतीं
बंदूकें हर बार.
'ससुरों की ठठरी बँधे'
कोसे बाँस उदास
पछुआ चुप पछता रही
कोयल चुप है खाँस
करता पर कहता नहीं
बाँस कभी उपकार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
२३-४-२०१५
***
कहावत सलिला:
भोजपुरी कहावतें:
*
कहावत सलिला: १
कहावतें किसी भाषा की जान होती हैं.
कहावतें कम शब्दों में अधिक भाव व्यक्त करती हैं.
कहावतों के गूढार्थ तथा निहितार्थ भी होते हैं.
आप अपने अंचल में प्रचलित कहावतें अर्थ सहित प्रस्तुत करें.
भोजपुरी कहावतें:
*
१. अबरा के मेहर गाँव के भौजी.
२. अबरा के भईंस बिआले कs टोला.
३. अपने मुँह मियाँ मीठू बा.
४. अपने दिल से जानी पराया दिल के हाल.
५. मुर्गा न बोली त बिहाने न होई.
६. पोखरा खनाचे जिन मगर के डेरा.
७. कोढ़िया डरावे थूक से.
८. ढेर जोगी मठ के इजार होले.
९. गरीब के मेहरारू सभ के भौजाई.
१०. अँखिया पथरा गइल.
***
मुक्तिका :
*
राजनीति धैर्य निज खोती नहीं.
भावनाओं की फसल बोती नहीं..
*
स्वार्थ के सौदे नगद होते यहाँ.
दोस्ती या दुश्मनी होती नहीं..
*
रुलाती है विरोधी को सियासत
हारकर भी खुद कभी रोती नहीं..
*
सुन्दरी सत्ता की है सबकी प्रिया.
त्याग-सेवा-श्रम का सगोती नहीं..
*
दाग-धब्बों की नहीं है फ़िक्र कुछ.
यह मलिन चादर 'सलिल' धोती नहीं..
२३-४-२०१०
*

शनिवार, 22 अप्रैल 2023

विशेषिका छंद, मुक्तक, नवगीत, फतवा, सीता छंद, गीतिका छंद,

मुक्तक
नर पर दो दो मात्रा भारी।
खुश हो चलवा नर पर आरी।।
कभी न बोले 'हाँ', नित ना री!
कमजोरी ताकत भी नारी।।

सॉनेट
मुसाफ़िर

हम सब सिर्फ मुसाफिर यारो!
दुनिया प्लेटफार्म पर आए।
छीनो-झपटो व्यर्थ न प्यारो!
श्वास ट्रेन की टिकिट कटाए।।

सफर जिंदगी का हसीन हो।
हँस-बोलो तो कट जाएगा।
बजती मन में आस बीन हो।
संग न तू कुछ ले पाएगा।।

नाहक नहीं झमेला करना।
सबसे भाईचारा पालो।
नहीं टिकिटचैकर से डरना।।
जो चढ़-उतरे उसे सम्हालो।।

सफर न सफरिंग होने देना।
सर्फिंग कर भव नैया खेना।।
२२-४-२०२३●●●
मुसाफ़िरी सोरठे
*
ट्रेन कर रही ट्रेन, मुसाफिरों को सफर में।
सफर करे हमसफ़र, अगर मदद उसकी करें।।
*
जबलपूर आ गया, क्यों कहता है मुसाफिर।
आता-जाता आप, शहर जहाँ था है वहीं।।
*
करे मुसाफिर भूल, रेल रिजर्वेशन कहे।
बिछी जमीं पर रेल, बर्थ ट्रेन में सुरक्षित।।
*
बिना टिकिट चल रहे, रवि-शशि दोनों मुसाफिर।
समय ट्रेन पर रोज, टी सी नभ क्यों चुप रहे।।
*
नहीं मुसाफिर कौन, सब आते-जाते यहाँ।
प्लेटफ़ॉर्म का संग, नहीं सुहाता किसी को।।
*
देख मुसाफिर मौन, सिग्नल लाल हरा हुआ।
जा ले मंजिल खोज, प्रभु से है मेरी दुआ।।
*
सोरठा गीत
नाहक छोड़ न ठाँव।
*
रहे सुवासित श्वास,
श्रम सीकर सिंचित अगर।
मिले तृप्ति मिट प्यास,
हुई भोर उठ कर समर।।
कोयल कूके नित्य,
कागा करे न काँव
नाहक छोड़ न ठाँव।
*
टेर रही है साँझ,
नभ सिंदूरी हो रहा।
पंछी लौटे नीड़,
मानव लालच बो रहा।
थकी दुपहरी मौन
रोक कहीं तो पाँव,
नाहक छोड़ न ठाँव।
*
रात रुपहली जाग,
खनखन बजती चूड़ियाँ।
हेरे तेरी राह,
जयी न हों मजबूरियाँ।
पथिक भटक मत और
बुला रहा है गाँव।
नाहक छोड़ न ठाँव।
२२-४-२०२३
*
सॉनेट
मौसम

मौसम करवट बदल रहा है
इसका साथ निभाएँ कैसे?
इसको गले लगाएँ कैसे?
दहक रहा है, पिघल रहा है
बेगाना मन बहल रहा है
रोज आग बरसाता सूरज
धरती को धमकाता सूरज
वीरानापन टहल रहा है
संयम बेबस फिसल रहा है
है मुगालता सम्हल रहा है
यह मलबा भी महल रहा है
व्यर्थ न अपना शीश धुनो
कोरे सपने नहीं बुनो
मौसम की सिसकियाँ सुनो
२२-४-२०२२
•••
सॉनेट
महाशक्ति

महाशक्ति हूँ; दुनिया माने
जिससे रूठूँ; उसे मिटा दूँ
शत्रु शांति का; दुनिया जाने
चाहे जिसको मार उठा दूँ
मौतों का सौदागर निर्मम
गोरी चमड़ी; मन है काला
फैलाता डर दहशत मातम
लज्जित यम; मरघट की ज्वाला
नर पिशाच खूनी हत्यारा
मिटा जिंदगी खुश होता हूँ
बारूदी विष खाद मिलाकर
बीज मिसाइल के बोता हूँ
सुना नाश के रहा तराने
महाशक्ति हूँ दुनिया माने
२२-४-२०२२
•••
चिंतन ४
कैसे?

'कैसे' का विचार तभी होता है इससे पहले 'क्यों' और 'क्या' का निर्णय ले लिया गया हो।
'क्यों' करना है?
इस सवाल का जवाब कार्य का औचित्य प्रतिपादित करता है। अपनी गतिविधि से हम पाना क्या चाहते हैं?
'क्या' करना है?
इस प्रश्न का उत्तर परिवर्तन लाने की योजनाओं और प्रयासों की दिशा, गति, मंज़िल, संसाधन और सहयोगी निर्धारित करता है।
'कैसे'
सब तालों की चाबी यही है।
चमन में अमन कैसे हो?
अविनय (अहंकार) के काल में विनय (सहिष्णुता) से सहयोग कैसे मिले?
दुर्बोध हो रहे सामाजिक समीकरण सुबोध कैसे हों?
अंतर्राष्ट्रीय, वैश्विक और ब्रह्मांडीय संस्थाओं और बरसों से पदों को पकड़े पुराने चेहरों से बदलाव और बेहतरी की उम्मीद कैसे हो?
नई पीढ़ी की समस्याओं के आकलन और उनके समाधान की दिशा में सामाजिक संस्थाओं की भूमिका कितनी और कैसे हो?
नई पीढ़ी सामाजिक संस्थाओं, कार्यक्रमों और नीतियों से कैसे जुड़े?
कैसे? कैसे? कैसे?
इस यक्ष प्रश्न का उत्तर तलाशने का श्रीगणेश कैसे हो?
२२•४•२०२२
प्रात नमन
*
मन में लिये उमंग पधारें राधे माधव
रचना सुमन विहँस स्वीकारें राधे माधव
राह दिखाएँ मातु शारदा सीख सकें कुछ
सीखें जिससे नहीं बिसारें राधे माधव
हों बसंत मंजरी सदृश पाठक रचनाएँ
दिन-दिन लेखन अधिक सुधारें राधे-माधव
तम घिर जाए तो न तनिक भी हैरां हों हम
दीपक बन दुनिया उजियारें राधे-माधव
जीतेंगे कोविंद न कोविद जीत सकेगा
जीवन की जय-जय उच्चारें राधे-माधव
***

प्राची ऊषा सूर्य मुदित राधे माधव
मलय समीरण अमल विमल राधे माधव
पंछी कलरव करते; कोयल कूक रही
गौरैया फिर फुदक रही राधे माधव
बैठ मुँडेरे कागा टेर रहा पाहुन
बनकर तुम ही आ जाओ राधे माधव
सुना बजाते बाँसुरिया; सुन पायें हम
सँग-सँग रास रचा जाओ राधे माधव
मन मंदिर में मौन न मूरत बन रहना
माखन मिसरी लुटा जाओ राधे माधव
*
संजीव
२१-४-२०२०
दोहा सलिला
नियति रखे क्या; क्या पता, बनें नहीं अवरोध
जो दे देने दें उसे, रहिए आप अबोध
*
माँगे तो आते नहीं , होकर बाध्य विचार
मन को रखिए मुक्त तो, आते पा आधार
*
सोशल माध्यम में रहें, नहीं हमेशा व्यस्त
आते नहीं विचार यदि, आप रहें संत्रस्त
*
एक भूमिका ख़त्म कर, साफ़ कीजिए स्लेट
तभी दूसरी लिख सकें,समय न करता वेट
*
रूचि है लोगों में मगर, प्रोत्साहन दें नित्य
आप करें खुद तो नहीं, मिटे कला के कृत्य
*
विश्व संस्कृति के लगें, मेले हो आनंद
जीवन को हम कला से, समझें गाकर छंद
*
भ्रमर करे गुंजार मिल, करें रश्मि में स्नान
मन में खिलते सुमन शत, सलिल प्रवाहित भान
*
हैं विराट हम अनुभूति से, हुए ईश में लीन
अचल रहें सुन सकेंगे, प्रभु की चुप रह बीन
*
२०-४-२०२०
कुंडलिया
*
नारी को नर पूजते, नारी नर की भक्त
एक दूसरे के बिना दोनों रहें अशक्त
दोनों रहें अशक्त, मिलें तो रचना करते
उनसा बनने भू पर, ईश्वर आप उतरते
यह दीपक वह ज्योत, पुजारिन और पुजारी
मन मंदिर में मौन, विराजे नर अरु नारी
२२-४-२०२०
***
दोहा-दोहा राम
*
भीतर-बाहर राम हैं, सोच न तू परिणाम
भला करे तू और का, भला करेंगे राम
*
विश्व मित्र के मित्र भी, होते परम विशिष्ट
युगों-युगों तक मनुज कुल, सीख मूल्य हो शिष्ट
*
राम-नाम है मरा में, जिया राम का नाम
सिया राम का नाम है, राम सिया का नाम
*
उलटा-सीधा कम-अधिक, नीचा-ऊँच विकार
कम न अधिक हैं राम-सिय, पूर्णकाम अविकार
*
मन मारुतसुत हो सके, सुमिर-सुमिर सिय-राम
तन हनुमत जैसा बने, हो न सके विधि वाम
*
मुनि सुतीक्ष्ण मति सुमति हो, तन हो जनक विदेह
धन सेवक हनुमंत सा, सिया-राम का गेह
*
शबरी श्रम निष्ठा लगन, सत्प्रयास अविराम
पग पखर कर कवि सलिल, चल पथ पर पा राम
*
हो मतंग तेरी कलम, स्याही बन प्रभु राम
श्वास शब्द में समाहित, गुंजित हो निष्काम
*
अत्रि व्यक्ति की उच्चता, अनुसुइया तारल्य
ज्ञान किताबी भंग शर, कर्मठ राम प्रणम्य
*
निबल सरलता अहल्या, सिया सबल निष्पाप
गौतम संयम-नियम हैं, इंद्र शक्तिमय पाप
*
नियम समर्थन लोक का, पा बन जाते शक्ति
सत्ता दण्डित हो झुके, हो सत-प्रति अनुरक्ति
*
जनगण से मिल जूझते, अगर नहीं मतिमान.
आत्मदाह करते मनुज, दनुज करें अभिमान.
*
भंग करें धनु शर-रहित, संकुच-विहँस रघुनाथ.
भंग न धनु-शर-संग हो, सलिल उठे तब माथ.
२२-४-२०१९
***
श्री श्री चिंतन दोहा मंथन
इंद्रियाग्नि:
24.7.1995, माँट्रियल आश्रम, कनाडा
*
जीवन-इंद्रिय अग्नि हैं, जो डालें हो दग्ध।
दूषित करती शुद्ध भी, अग्नि मुक्ति-निर्बंध।।
*
अग्नि जले; उत्सव मने, अग्नि जले हो शोक।
अग्नि तुम्हीं जल-जलाते, या देते आलोक।।
*
खुद जल; जग रौशन करें, होते संत कपूर।
प्रेमिल ऊष्मा बिखेरें, जीव-मित्र भरपूर।।
*
निम्न अग्नि तम-धूम्र दे, मध्यम धुआँ-उजास।
उच्च अग्नि में ऊष्णता, सह प्रकाश का वास।।
*
करें इंद्रियाँ बुराई, तिमिर-धुआँ हो खूब।
संयम दे प्रकृति बदल, जा सुख में तू डूब।।
*
करें इंद्रियाँ भलाई, फैला कीर्ति-सुवास।
जहाँ रहें सत्-जन वहाँ, सब दिश रहे उजास।।
***
12.4.2018

मुक्तक
अर्थ डे है, अर्थ दें तो अर्थ का कुछ अर्थ हो.
जेब खाली ही रहे तो काटना भी व्यर्थ हो
जेब काटे अगर दर्जी तो न मर्जी पूछता
जेबकतरा जेब काटे बिन सजा न अनर्थ हो
***

अभिनव प्रयोग
त्रिपदियाँ
(सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय छंद, पदांत गुरु)
*
तन्मय जिसमें रहें आप वो
मूरत मन-मंदिर में भी हो
तीन तलाक न दे पाएंगे।
*
नहीं एक के अगर हुए तो
दूजी-तीजी के क्या होंगे?
खाली हाथ सदा पाएंगे।
*
बीत गए हैं दिन फतवों के
साथ समय के नहीं चले तो
आप अकेले पड़ जाएंगे।
२२-४-२०१७
*
छन्द बहर का मूल है ९
मुक्तिका:
संजीव
*
पंद्रह वार्णिक, अति शर्करी जातीय सीता छंद.
छब्बीस मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद
मात्रा क्रम -२१२.२/२१.२२/२.१२२./२१२
गण सूत्र-रतमयर
बहर- फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
*
कामना है रौशनी की भीख दें संसार को
मनुजता को जीत का उपहार दें, हर हार को
सर्प बाधा, जिलहरी है परीक्षा सामर्थ्य की
नर्मदा सा ढार दें शिवलिंग पर जलधार को
कौन चाहे मुश्किलों से हो कभी भी सामना
नाव को दे छोड़ जब हो जूझना मँझधार को
भरोसा किस पर करें जब साथ साया छोड़ दे
नाव से खतरा हुआ है हाय रे पतवार को
आ रहे हैं दिन कहीं अच्छे सुना क्या आपने?
सूर्य ही ठगता रहा जुमले कहा उद्गार को
२३-०७-२०१५
***

नवगीत
*
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*
जनमत के लोथड़े बटोरें
पद के भूखे चंद चटोरे.
दर-दर घूम समर्थन माँगें
ले हाथों में स्वार्थ-कटोरे.
मिलीभगत
फैला अफवाहें
खड़ा करो हऊआ.
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*
बाँट रहे अनगिन आश्वासन,
जुमला कहते पाकर शासन.
टैक्स और मँहगाई बढ़ाते
माल उड़ाते, देते भाषण.
त्याग-परिश्रम
हैं अवमूल्यित
साध्य खेल-चऊआ.
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*
निर्धन हैं बेबस अधनंगे
धनी-करें फैशन अधनंगे.
लाज न ढँक पाता है मध्यम
भद्र परेशां, लुच्चे चंगे.
खाली हाथ
सभी को जाना
सुने न क्यों खऊआ?
सत्ता-लाश
नोचने आतुर
गिद्ध, बाज, कऊआ.
*

नवगीत
फतवा
*
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
ठेकेदार
हमीं मजहब के।
खासमखास
हमई हैं रब के।
जब चाहें
कर लें निकाह फिर
दें तलाक.
क्यों रायशुमारी?
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
सही-गलत क्या
हमें न मतलब।
मनमानी ही
अपना मजहब।
खुद्दारी से
जिए न औरत
हो जूती ही
अपनी चाहत।
ख्वाब न उसके
बनें हकीकत
है तैयारी।
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
हमें नहीं
कानून मानना।
हठधर्मी कर
रार ठानना।
मनगढ़ंत
हम करें व्याख्या
लाइलाज है
अकल अजीरण
की बीमारी।
तुमने छींका
हमें न भाया
फतवा जारी।
*
नवगीत: बिंदु-बिंदु परिचय
संजीव
*
१. नवगीत के २ हिस्से होते हैं १. मुखड़ा २. अंतरा।
२. मुखड़ा की पंक्तिसंख्या या पंक्ति में वर्ण या मात्रा संख्याका कोई बंधन नहीं होता पर मुखड़े की प्रथम या अंतिम एक पंक्ति के समान पदभार की पंक्ति अंतरे के अंत में आवश्यक है ताकि उसके बाद मुखड़े को दोहराया जा सके तो निरंतरता की प्रतीति हो।
३. सामान्यतः २ या ३ अंतरे होते हैं। अन्तरा सामान्यतः स्वतंत्र होता है पर पूर्व या पश्चात्वर्ती अंतरे से सम्बद्ध नहीं होता। अँतरे में पंक्ति या पंक्तियों में वर्ण या मात्रा का कोई बंधन नहीं होता किन्तु अंतरे की पंक्तियों में एक लय का होना तथा वही लय हर अन्तरे में दोहराई जाना आवश्यक है।
४. नवगीत में विषय, रस, भाव आदि का कोई बंधन नहीं होता।
५. संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, मार्मिकता, बेधकता, स्पष्टता, सामयिकता, सहजता-सरलता नवगीत के गुण या विशेषतायें हैं।
६. नवगीत की भाषा में देशज शब्दों के प्रयोग से उपज टटकापन या अन्य भाषिक शब्द विशिष्टता मान्य है, जबकि लेख, निबंध में इसे दोष कहा जाता है।
७. नवगीत की भाषा सांकेतिक होती है, गीत में विस्तार होता है।
८. नवगीत में आम आदमी की या सार्वजनिक भावनाओं को अभिव्यक्ति दी जाती है जबकि गीत में गीतकार अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को शब्दित करता है।
९. नवगीत में अप्रचलित छंद या नए छंद को विशेषता कहा जाता है। छंद मुक्तता भी स्वीकार्य है पर छंदहीनता नहीं।
१०. नवगीत में अलंकारों की वहीं तक स्वीकार्यता है जहाँ तक वे कथ्य की स्पष्ट-सहज अभिव्यक्ति में बाधक न हों।
११. नवगीत में प्रतीक, बिम्ब तथा रूपक भी कथ्य के सहायक के रूप में ही होते हैं।
सारत: हर नवगीत अपने आप में पूर्ण तथा गीत होता है पर हर गीत नवगीत नहीं होता। नवगीत का अपरिहार्य गुण उसका गेय होना है।
+++++++


नवगीत:
.
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
साये से भय खाते लोग
दूर न होता शक का रोग
बलिदानी को युग भूले
अवसरवादी करता भोग
सत्य न सुन
सह पाते
झूठी होती वाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
उसने पाया था बहुमत
साथ उसी के था जनमत
सिद्धांतों की लेकर आड़
हुआ स्वार्थियों का जमघट
बलिदानी
कब करते
औरों की परवाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
सत्य, झूठ को बतलाते
सत्ता छिने न, भय खाते
छिपते नहीं कारनामे
जन-सम्मुख आ ही जाते
जननायक
का स्वांग
पाल रहे डाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
वह हलाहल रहा पीता
बिना बाजी लड़े जीता
हो विरागी की तपस्या
घट भरा वह, शेष रीता
जन के मध्य
रहा वह
चाही नहीं पनाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
कोई टोंक न पाया
खुद को झोंक न पाया
उठा हुआ उसका पग
कोई रोक न पाया
सबको सत्य
बताओ, जन की
सुनो सलाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
***
२२-४-२०१५

नवगीत:


.
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
साये से भय खाते लोग
दूर न होता शक का रोग
बलिदानी को युग भूले
अवसरवादी करता भोग
सत्य न सुन
सह पाते
झूठी होती वाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
उसने पाया था बहुमत
साथ उसी के था जनमत
सिद्धांतों की लेकर आड़
हुआ स्वार्थियों का जमघट
बलिदानी
कब करते
औरों की परवाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
सत्य, झूठ को बतलाते
सत्ता छिने न, भय खाते
छिपते नहीं कारनामे
जन-सम्मुख आ ही जाते
जननायक
का स्वांग
पाल रहे डाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
वह हलाहल रहा पीता
बिना बाजी लड़े जीता
हो विरागी की तपस्या
घट भरा वह, शेष रीता
जन के मध्य
रहा वह
चाही नहीं पनाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
कोई टोंक न पाया
खुद को झोंक न पाया
उठा हुआ उसका पग
कोई रोक न पाया
सबको सत्य
बताओ, जन की
सुनो सलाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
***
मुक्तक:
*
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके!
नित प्रात हो हम साथ हों नत माथ हो जगवन्दिते !!
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोइ भी दुखी
*
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों जिन्दा रहें
कुछ काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें
*
तज दे सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें-
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों
*
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें
तव आरती माँ भारती! हम एक होक गा सकें
*
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]
२२-४-२०१५
***
षट्पदी :
*'
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप्त..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजा दे, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत मान ता ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
*
२२-४-२०१०
छंद सलिला:
विशेषिका छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत तीन लघु लघु गुरु (सगण)।
लक्षण छंद:
'विशेषिका' कलाएँ बीस संग रहे
विशेष भावनाएँ कह दे बिन कहे
कमल ज्यों नर्मदा में हँस भ्रमण करे
'सलिल' चरण के अंत में सगण रहे
उदाहरण:
१. नेता जी! सीखो जनसेवा, सुधरो
रिश्वत लेना छोडो अब तो ससुरों!
जनगण ने देखे मत तोड़ो सपने
मानो कानून सभी मानक अपने
२. कान्हा रणछोड़ न जा बज मुरलिया
राधा का काँप रहा धड़कता जिया
निष्ठुर शुक मैना को छोड़ उड़ रहा
यमुना की लहरों का रंग उड़ रहा
नीलाम्बर मौन है, कदम्ब सिसकता
पीताम्बर अनकहनी कहे ठिठकता
समय महाबली नाच नचा हँस रहा
नटवर हो विवश काल-जाल फँस रहा
३. बंदर मामा पहन पजामा सजते
मामी जी पर रोब ज़माने लगते
चूहा देखा उठकर भागे घबरा
मामी मन ही मन मुस्काईं इतरा
२२-४-२०१४
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
मुक्तक:
नव संवत्सर मंगलमय हो.
हर दिन सूरज नया उदय हो.
सदा आप पर ईश सदय हों-
जग-जीवन में 'सलिल' विजय हो.
*

दिल चुराकर आप दिलवर बन गए.
दिल गँवाकर हम दीवाने हो गए.
दिल कुचलनेवाले दिल की क्यों सुनें?
थामकर दिल वे सयाने बन गए.
*
पीर पराई हो सगी, निज सुख भी हो गैर.
जिसको उसकी हमेशा, 'सलिल' रहेगी खैर..
सबसे करले मित्रता, बाँट सभी को स्नेह.
'सलिल' कभी मत किसी के, प्रति हो मन में बैर..
*
मन मंदिर में जो बसा, उसको भी पहचान.
जग कहता भगवान पर वह भी है इंसान..
जो खुद सब में देखता है ईश्वर का अंश-
दाना है वह ही 'सलिल' शेष सभी नादान..
*
'संबंधों के अनुबंधों में ही जीवन का सार है.
राधा से,मीरां से पूछो, सार भाव-व्यापार है..
साया छोडे साथ,गिला क्यों?,उसका यही स्वभाव है.
मानव वह जो हर रिश्ते से करता'सलिल'निभाव है.'
२२-४-२०१०
***

आर्य भट्ट, शून्य

 मनरंजन -

आर्य भट्ट ने शून्य की खोज ६ वीं सदी में की तो लगभग ५००० वर्ष पूर्व रामायण में रावण के दस सर की गणना और त्रेता में सौ कौरवों की गिनती कैसे की गयी जबकि उस समय लोग शून्य (जीरो) को जानते ही नही थे।
*
आर्यभट्ट ने ही (शून्य / जीरो) की खोज ६ वीं सदी में की, यह एक सत्य है। आर्यभट्ट ने 0(शून्य, जीरो )की खोज *अंकों मे* की थी, *शब्दों* नहीं। उससे पहले 0 (अंक को) शब्दों में शून्य कहा जाता था। हिन्दू धर्म ग्रंथों जैसे शिव पुराण,स्कन्द पुराण आदि में आकाश को *शून्य* कहा गया है। यहाँ शून्य का अर्थ अनंत है । *रामायण व महाभारत* काल में गिनती अंकों में नहीं शब्दो में होती थी, वह भी *संस्कृत* में।
१ = प्रथम, २ = द्वितीय, ३ = तृतीय, ४ = चतुर्थ, ५ = पंचम, ६ = षष्ठं, ७ = सप्तम, ८ = अष्टम, ९= नवंम, १० = दशम आदि।
दशम में *दस* तो आ गया, लेकिन अंक का ० नहीं।
आया, ‍‍रावण को दशानन, दसकंधर, दसशीश, दसग्रीव, दशभुज कहा जाता है !!
*दशानन मतलव दश+आनन =दश सिरवाला।
त्रेता में *संस्कृत* में *कौरवो* की संख्या सौ *शत* शब्दों में बतायी गयी, अंकों में नहीं।
*शत्* संस्कृत शब्द है जिसका हिन्दी में अर्थ सौ (१००) है। *शत = सौ*
रोमन में १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ०, के स्थान पर i, ii, iii, iv, v, vi, vii, viii, ix, x आदि लिखा-पढ़ा जाता है किंतु शून्य नहीं आता।आप भी रोमन में एक से लेकर सौ की गिनती पढ़ लिख सकते है !!
आपको 0 या 00 लिखने की जरूरत भी नहीं पड़ती है।
तब गिनती को *शब्दो में* लिखा जाता था !!
उस समय अंकों का ज्ञान नहीं, था। जैसे गीता,रामायण में अध्याय १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, को प्रथम अध्याय, द्वितीय अध्याय, पंचम अध्याय,दशम अध्याय... आदि लिखा-पढ़ा जाका था।
दशम अध्याय ' मतलब दशवाँ पाठ (10th lesson) होता है !!
इसमे *दश* शब्द तो आ गया !! लेकिन इस दश मे *अंको का 0* (शून्य, जीरो)" का प्रयोग नही हुआ !!
आर्यभट्ट ने शून्य के लिये आंकिक प्रतीक "०" का अन्वेषण किया जो हमारे आभामंड, पृथ्वी के परिपथ या सूर्य के आभामंडल का लघ्वाकार है।
*

बुंदेली कहानी

बुंदेली कहानी
मस्त रओ मस्ती में
*
मुतके दिना की बात है। कहूँ दूर-दराज एक गाँव में एक ठो धुनका हतो।
का कई ? धुनका का होत है, नई मालुम?
कैंसें मालूम हुउहै? तुम औरें तो बजार सें बनें-बनायें गद्दा, तकिया ले लेत हो।
मनो पुराने समै में जे गद्दा-तकिया कारखानों में नें बनत हते।
किसान खेत में कपास के पौधे लगात ते।
बे बड़े होंय तो बिनमें बोंड़ी निकरत हतीं।
फेर बोंड़ी खिलत तीं तो फूल बनत तीं।
बिनमें सें बगुला के पर घाईं सुफेद-सुफेद कपास झाँकत ती।
तब खेतान की सोभा बहुतई नीकी हो जात ती।
का बताएँ, जैसे आसमान मा तारे बगर जात हैं अमावास की रात में, बिलकुल ऊंसई।
घरवाली मुतियन को हार पैंने हो और हार टूट जाए तो बगरते भए मोती जैसें लगत हैं, ऊंसई।
जा बी कै सकत हों जब घरवाली खुस हो खें खिलखिला देय तो मोतिन कैसें दांत झिलमिलात हैं, ऊंसई।
नें मानो तो कबू कौनऊ समै हमरे लिंगे चलियो जब खेत मा कपास हो।
देख खें खुदई मान जैहो के हम गलत नईं कहत हते।
तो जा कपास खेत सें चुन लई जात ती।
मेहरारू इकट्ठी होखें रुई चुनत जाबें और गीत सोई गात जात तीं।
बे पुरानी धुतिया फाड़ खें एक छोर कान्धा के ऊपर सें और दूसर छोर कान्धा के नीचें से निकार कर गठिया लेत तीं।
ऐंसे में पीठ पे थैलिया घाईं बन जात ती।
बे दोऊ हातन सें रुई चुनत जात तीं और पीठ पे थैलिया में रखत जात तीं।
हरे-हरे खेतन में लाल-पीरी धुतियाँ में मेहरारुओं के संगे सुफेद-सुफेद कपास बहुतई सुहात ती।
बाड़ी में रंग-बिरंगे फूलन घाईं नीकी-नीकी।
बिन खों हेर खें तबियत सोई खिल जात ती।
तुम पूछत ते धुनका को कहात ते?
जे रुई इकट्ठी कर खें जुलाहे खों दै दई जात ती।
जुलाहा धुनक-धुनक खें रुई से बिनौला निकार देत तो।
अब तुम औरें पूछिहो जा बिनौला का होत है?
जाई तो मुसकिल है तुम औरों के सँग।
कैत हो अंग्रेजी इस्कूल जात हो।
जातई भरे हो, कें कच्छू लिखत-पढ़त हो।
ऐंसी कैंसी पढ़ाई के तुमें कछू पतई नईया।
चलो, बता देत हैं, बिनौला कैत हैं रुई के बीजा खों।
बिनौला करिया-करिया, गोल-गोल होत है।
बिनौला ढोर-बछेरन खों खबाओ जात है।
गैया-भैंसिया बिनोरा खा खें मुताको दूद देत हैं, सो बी एकदम्म गाढ़ा-गाढ़ा।
हाँ तो का कहत हते?... हाँ याद आ गओ धुनका
रुई सें बिनौला निकार खें धुनका ओ खें धुनक-धुनक खें एक सार करत तो।
फेर दरजी सें पलंगा खे नाप को खोल सिला खें, जमीन पे बिछा देत तो।
जे खोल के ऊपर रुई बिछाई जात ती।
पीछे सें धीरे-धीरे एक कोंने से खोल पलटा दौ जात तो।
आखर में रुई पूरे खोल कें अंदर बिछ जात ती।
फिर बड़े-बड़े सूजा में मोटा तागा पिरो खें थोड़ी-थोड़ी दूर पै टाँके लगाए जात ते।
टंकाई खें बाद गद्दा भौत गुलगुला हो जात तो।
तुम सहरबारे का जानो ऐंसें गद्दा पे लोट-पॉपोट होबे में कित्तो मजा आउत है?
हाँ तो, हम कैत हते कि गाँव में धुनका रैत तो।
बा धुनका बहुतई ज्यादा मिहनती और खुसमिजाज हतो।
काम सें काम, नईं तो राम-राम।
ना तीन में, ना तेरा में। ना लगाबे में, ना बुझाबे में।
गाँव के लोग बाकी खूब प्रसंसा करत ते।
मनो कछू निठल्ले, मुस्टंडे बासे खूबई खिझात ते।
काय के बिन्खे बऊ - दद्दा धुनिया ना नांव लै-लै के ठुबैना देत ते।
कछू सीखो बा धुनिया सें, कैसो सुबे सें संझा लौ जुतो रैत है अपनें काम में।
जे मुस्टंडे कोसिस कर-कर हार गए मनो धुनिया खों ओ के काम सें नई डिंगा पाए।
आखिर में बे सब धुनिया खों 'चिट्टा कुक्कड़' कह खें चिढ़ान लगे।
का भओ? धुनिया अपने काम में भिड़ो रैत तो।
रुई धुनकत-धुनकत, रुई के रेसे ओके पूरे बदन पे जमत जात ते।
संझा लौ बा धुनिया भूत घाईं चित्तो सुफेद दिखन लगत तो।
रुई निकारत समाई ओखे तांत से मुर्गे की कुकड़ कूँ घाईं आवाज निकारत हती।
कछू दिना तो धुनिया नेब चिढ़ाबेबारों को हडकाबे की कोसिस करी।
मनो बा समज गओ के जे सब ऑखों ध्यान काम सें हटाबें की जुगत है।
सो ओनें इन औरन पे ध्यान देना बंद कर दौ।
ओ हे हमेसा खुस देख कें लोग-बाग़ पूछत हते के बाकी कुसी को राज का आय?
पैले तो बो सुन खें भी अनसुना कर देत तो।
कौनऊ भौत पीछे पारो तो कए तुमई कओ मैं काए काजे दुःख करों?
राम की सौं मो खों कछू कमी नईया।
दो टैम रोटी, पहनबे-रहबे खों कपरा और छत।
करबे को काम और लेबे को को राम नाम।
एक दिना कोऊ परदेसी उतई सें निकरो।
बा कपड़ा-लत्ता सें अमीर दिखत तो मनो खूबी दुखी हतो।
कौनऊ नें उसें धुनिया के बारे में कै दई।
बा नें आव देखो नें ताव धुनिया कें पास डेरा जमा दओ।
भैया! आज तो अपनी खुसी का राज बाताये का परी।
मरता का न करता? दुनिया कैन लगो एक दिना मोरी तांत का धनुस टूट गओ।
मैं जंगल में एक झाड खों काटन लगो के लडकिया सें तांत बना लैहों।
तबई कछू आवाज सुनाई दई 'मतई काटो'।
इतै-उतै देखो कौनऊ नें हतो।
सोची भरम हो गाओ, फिर कुल्हाड़ी हाथ में लै लई।
जैसेई कुल्हाड़ी चलाई फिर आवाज़ आई।
तब समझ परी के जे तो वृच्छ देवता कछू कै रए हैं।
ध्यान सें सुनी बे कैत ते मोए मत काट, मोए मात काट।
मैंने कई महाराज नै काटों तो घर भर खों पेट कैसें भरहों।
बे बोले मो सें कछू बरदान ले लेओ।
मोए तो कछू ने सूझी के का ले लेऊँ?
तुरतई बता दई के मोहे कछू नें सुझात।
बिननें कई कौनऊ बात नैया, घरबारी सें पूछ आ।
मैं चल परो, रस्ते में एक परोसी मिल गओ।
काए, का हो गओ? ऐंसी हदबद में किते भागो जा रओ।
मो सें झूठ कैत नें बनी सो सच्ची बात बता दई।
बाने मो सें कई जा राज-पाट माँग ले।
मनो घरवारी नें राज-पाट काजे मनाही कर दई।
बा बोली राज-पाट मिल जैहे तो तैं चला लेहे का?
तोहे तो रुई धुननें के सिवाय कछू काम नई आत।
ऐसो कर दुगानो काम हो खें दुगनो धन आये ऐसो बर माँग।
मोखों घरवारी की बात जाँच गई।
मैंने वृच्छ देवता सें कई तो बिनने मेरे चार हात कर दए।
मैं खुस होखें घर आओ तो बाल-बच्चन नें मोहे भूत समज लओ।
पुरा-परोसी सबी देख खें डरान लगे।
मोहे जो देखे बई किवार लगा ले।
मैं भौतई दुखी हतो, इतै-उतै बागत रओ, मनो कोई नें पानी को नई पूछो।
तब मोखों समज परी के जिनगानी में खुसी सबसे बरी चीज है।
खुसी नें हो तो धन-दौलत को कोनऊ मानें नईयाँ।
बस मैनें तुरतई वृच्छ देवता की सरन लई। १०१
बिनखें हाथ जोरे देवता किरपा करो, चार हात बापस कर लेओ।
मोए कछू ने चाईए, मैं पुराणी तांत के मरम्मत कर लेंहों।
आसिरबाद दो राजी-खुसी से जिनगानी बीत जाए।
वृच्छ देबता ने मोसें दो हात बापस ले लए।
कई जा तोहे कौनऊ चीज की कमी न हुईहै।
कौनऊ सें ईर्ष्या नें करियो, अपनें काम सें काम रखियो।
तबई सें महाराज मैं जित्तो कमात हूँ, उत्तई में खुस रहत हूँ।
कौनऊ सें कबऊ कछू नई मांगू।
कौऊ खें कछू तकलीफ नई देऊँ।
कौनऊ खें ज्यादा मिल जाए तो ऊ तरफी से आँख फेर लेत हूँ।
आप जी चाहो सो समझ लेओ, मैं वृच्छ देवता से मिले मन्त्र को कबऊँ नई भूलो।
आप भी समज लेओ और अपना लेओ 'मस्त रओ मस्ती में '
***