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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

सवैया छन्द, दोहा, मुक्तक, समानिका छंद, ग़ज़ल, लघुकथा, गीत

कार्य शाला : लघुकथा

इन्हें पढ़ें, मन में कोई प्रश्न हो तो पूछें या इन पर अपनी राय दें।
लघुकथाएँ
१. झूठी औरत : विष्णु नागर
"मैं तंग आ गयी हूँ इन बच्चों से। जान ले लूँगी इनकी।"
यह कहनेवाली माँ अभी-अभी अपने पति से झगड़ रही थी, "बिना बच्चों के अकेली कहीं नहीं जाऊँगी।" ३० शब्द
*
२.
क़ाज़ी का घर :
एक गरीब भूखा काज़ी के यहाँ गया, कहने लगा - 'मैं भूखा हूँ, कुछ मुझे दो तो मैं खाऊँ।'
काज़ी ने कहा - "यह काज़ी का घर है - कसम खा और चला जा।" ३१ शब्द
*
३.
कहूँ कहानी : रमेश बतरा
ऐ रफ़ीक़ भाई! सुनो। उत्पादन के सुख से भरपूर नींद की खुमारी लिए जब मैं घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही - "एक लाजा था, वो बौत गलीब है।" ३१ शब्द
*
४.
एकलव्य : संजीव वर्मा 'सलिल'
दूरदर्शन पर नेताओं की बहस सुन पोता बोला - 'बब्बा! क्या एकलव्य भौंकते हुए कुत्ते का मुँह तीर चलाकर बंद कर देता था?'
"हाँ बेटा।"
'काश, वह आज भी होता।' पोते ने कहा। ३३ शब्द
*
५.
आज़ादी : खलील जिब्रान
वह मुझसे बोले - "किसी गुलाम को सोते देखो तो जगाओ मत; हो सकता है वह आज़ादी का सपना देख रहा हो।"
'अगर किसी गुलाम को सोते देखो तो उसे जगाओ और आज़ादी के बारे में बताओ। मैंने कहा।" ३८ शब्द
*
६.
मुँहतोड़ जवाब : भारतेन्दु हरिश्चंद्र
एक ने कहा - 'न जाने इसमें इतनी बुरी आदतें कहाँ से आईं? हमें यकीन है कि हमसे इसने कोई बुरी बातें नहीं सीखीं।'
लड़का सच से बोल उठा - "बहुत ठीक है क्योंकि हमने आपसे बुरी आदतें पाई होती तो आपमें बहुत सी कम हो जातीं।" ४५ शब्द
*
गीत
*
आओ! कुछ काम करें
वाम से इतर
लोक से जुड़े रहें
न मीत दूर हों
हाजमोला खा न भूख
लिखें सू़र हों
रेहड़ीवाले से करें
मोलभाव औ'
बारबालाओं पे लुटा
रुपै क्रूर क्यों?
मेहनत पैगाम करें
नाम से इतर
सार्थक भू धाम करें
वाम से इतर
खेतों में नहीं; जिम में
पसीना बहा रहे
पनहा न पिएँ कोक-
फैंटा; घर में ला रहे
चाट ठेले हँस रहे
रोती है अँगीठी
खेतों को राजमार्ग
निगलते ही जा रहे
जलजीरा पान करें
जाम से इतर
पनघटों का नाम करें
वाम से इतर
शहर में न लाज बिके
किसी गाँव की
क्रूज से रोटी न छिने
किसी नाव की
झोपड़ी उजाड़ दे न
सेठ की हवस
हो सके हत्या न नीम
तले छाँव की
सत्य का सम्मान करें
दाम से इतर
छोड़ खास, आम वरें
वाम से इतर
*
१४-४-२०२०
मुक्तिका
*
जब बसंत हो, मुदित रहें राधे माधव
सुनें सभी की, कहें कभी राधे माधव
हीरा-लाल सदृश जोड़ी मनबसिया की
नारीभूषण पुरुषोत्तम राधे माधव
अमर स्नेह अमरेंद्र मिले हैं वसुधा पर
अमरावति बृज बना रहे राधे माधव
प्रभा किशोरी की; आलोक कन्हैया का
श्री श्रीधर द्वय मुकुलित मन राधे माधव
नत नारीश पगों में नरपति मुस्काते
अद्भुत मनोविनोद करें राधे माधव
***
विनय
हम भक्तों की पीर हरें राधे माधव
हम निज मन में धीर धरें राधे माधव
तबलीगी मजलिस जमात से दूर रहें
मुस्लिम भाई यही करें राधे माधव
समझदार मिल मुख्य धार में आ जाएँ
समय कहे सद्भाव वरें राधे माधव
बने रहे धर्मांध अगर वे तो तय है
बिन मारे खुद मार मरें राधे माधव
मरने का मकसद हो पाक जरूरी है
परहित कर मर; क्यों न तरें राधे माधव
लगा अकल पर ताला अल्ला ताला क्यों?
गलती मान खुदी सुधरें राधे माधव
***
***
मानवता पर दोहे
*
मानवता के नाम पर, मजलिस बनी कलंक
शहर शहर को चुभ रहा, यह तबलीगी डंक
*
मानवता कह रही है, आज पुकार पुकार
एकाकी रहकर करो, कोरोना पर वार
*
मानवता लड़ रही है, अजब-अनूठी जंग
साधनहीनों की मदद, मानवता का रंग
*
मानवता के घाट पर, बैठे राम-रसूल
एक दूसरे की मदद, करें न लड़ते भूल
*
मानवता के बन गए, तबलीगी गद्दार
रहम न कर सख्ती करे, जेल भेज सरकार
*
मानवता लिख रही है, एक नया अध्याय
कोरोना से जीतकर, बनें ईश पर्याय
*
मानवता को बचाते, डॉक्टर पुलिस शहीद
मिल श्रद्धांजलि दें करें, अर्पित होली ईद
१४-४-२०२०

***

सामयिक गीत,
*
दूर रहो नोटा से प्यारे!
*
इस-उस दल के यदि प्यादे हो
जिस-तिस नेता के वादे हो
पंडे की हो लिए पालकी
या झंडे सिर पर लादे हो
जाति-धर्म के दीवाने हो
या दल पर हो निज दिल हारे
दूर रहो नोटा से प्यारे!
*
आम आदमी से क्या लेना?
जी लेगा खा चना-चबेना
तुम अरबों के करो घोटाले
स्वार्थ नदी में नैया खेना
मंदिर-मस्जिद पर लड़वाकर
क्षेत्रवाद पर लड़ा-भिड़ा रे!
दूर रहो नोटा से प्यारे!
*
जा विपक्ष में रोको संसद
सत्ता पा बन जाओ अंगद०
भाषा की मर्यादा भूलो
निज हित हेतु तोड़ दो हर हद
जोड़-तोड़ बढ़ाकर भत्ते
बढ़ा टैक्स फिर गला दबा रे!
दूर रहो नोटा से प्यारे!
***
१४-४-२०१९

***

मुक्तक सलिला:
बोल जब भी जबान से निकले,
पान ज्यों पानदान से निकले।
कान में घोल दे गुलकंद 'सलिल-
ज्यों उजाला विहान से निकले।।
*
जो मिला उससे है संतोष नहीं,
छोड़ता है कुबेर कोष नहीं।
नाग पी दूध ज़हर देता है-
यही फितरत है, कहीं दोष नहीं।।
*
बाग़ पुष्पा है, महकती क्यारी,
गंध में गंध घुल रही न्यारी।
मन्त्र पढ़ते हैं भ्रमर पंडित जी-
तितलियाँ ला रही हैं अग्यारी।।
*
आज प्रियदर्शी बना है अम्बर,
शिव लपेटे हैं नाग- बाघम्बर।
नेह की भेंट आप लाई हैं-
चुप उमा छोड़ सकल आडम्बर।।
*
ये प्रभाकर ही योगराज रहा,
स्नेह-सलिला के साथ मौन बहा।
ऊषा-संध्या के साथ रास रचा-
हाथ रजनी का खुले-आम गहा।।
*
करी कल्पना सत्य हो रही,
कालिख कपड़े श्वेत धो रही।
कांति न कांता के चहरे पर-
कलिका पथ में शूल बो रही।।
*
१८-४-२०१४
***
सामयिक गीत :
तुमने स्वर दे दिया
*
१.
तुमने स्वर दे दिया
चीखें, रोएँ, सिसकी भर ये,
वे गुर्राते हैं दहाड़कर।
चिंघाड़े कोई इस बाजू
फुफकारे कोई गुहारकर।
हाय रे! अमन-चैन ले लिया
तुमने स्वर दे दिया
*
२.
तुमने स्वर दे दिया
यह नेता बेहद धाँसू है
ठठा रहा देकर आँसू है
हँसता पीड़ित को लताड़कर।
तृप्त न होता फिर भी दानव
चाकर पुलिस लुकाती है शव
जाँच रपट देती सुधारकर।
न योगी को हो दर्द मिया
तुमने स्वर दे दिया
*
३.
तुमने स्वर दे दिया
वादा कह जुमला बतलाया
हो विपक्ष यह तनिक न भाया
रख देंगे सबको उजाड़कर।
सरहद पर सर हद से ज्यादा
कटें, न नेता-अफसर-सुत हैं
हम बैठे हैं चुप निहारकर।
छप्पन इंची छाती है, न हिया
तुमने स्वर दे दिया
*
४.
तुमने स्वर दे दिया
खाला का घर है, घुस आओ
खूब पलीता यहाँ लगाओ
जनता को कूटो उभाड़कर।
अरबों-खरबों के घपले कर
मौज करो जाकर विदेश में
लड़ चुनाव लें, सच बिसारकर।
तीन-पाँच दो दूनी सदा किया
तुमने स्वर दे दिया
*
तुमने स्वर दे दिया
तोड़ तानपूरा फेंकेंगे
तबले पर रोटी सेकेंगे
संविधान बाँचें प्रहारकर।
सूरत नहीं सुधारेंगे हम
मूरत तोड़ बिगाड़ेंगे हम
मार-पीट, रोएँ गुहारकर
फर्जी हो प्यादे ने शोर किया
तुमने स्वर दे दिया
१४.४.२०१८
टीप: इस रचना का भारत से कुछ लेना-देना नहीं है।
***
नवलेखन कार्यशाला
*
आ गुरूजी
एक प्रयास किया है । कृपया मार्गदर्शन दें । सादर ।
शारदे माँ ( मधुमालती छंद)
माँ शारदे वरदान दो
सद्बुद्धि दो संग ज्ञान दो
मन में नहीं अभिमान हों
अच्छे बुरे की पहचान दो ।
वाणी मधुर रसवान दो
मैं मैं का न गुणगान हों
बच्चे अभी नादान हम
निर्मल एक मुस्कान दो
न जाने कि हम कौन हैं
हमें अपनी पहचान दो
अल्प ज्ञानी मानो हमें
बस चरण में तुम स्थान दो ।।
कल्पना भट्ट
*
प्रिय कल्पना!
सदा खुश रहें।
मधुमालती १४-१४ के दो चरण, ७-७ पर यति, पदांत २१२ ।
शारदे माँ ( मधुमालती छंद)
माँ शारदे! वरदान दो
सदबुद्धि दो, सँग ज्ञान दो
मन में नहीं अभिमान हो
शुभ-अशुभ की पहचान दो।
वाणी मधुर रसवान दो
'मैं' का नहीं गुण गान हो
बच्चे अभी नादान हैं
निर्मल मधुर मुस्कान दो
किसको पता हम कौन हैं
अपनी हमें पहचान दो
हम अल्प ज्ञानी माँ! हमें
निज चरण में तुम स्थान दो ।।
१४-४-२०१७
***
छंद बहर का मूल है: २
*
छंद परिचय:
ग्यारह मात्रिक रौद्र जातीय छंद।
सप्तवार्णिक उष्णिक जातीय समानिका छंद।
संरचना: SIS ISI S
सूत्र: रगण जगण गुरु / रजग।
बहर: फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं ।
*
सूर्य आप भी बने
*
सत्य को न मारना
झूठ से न हारना
गैर को न पूजना
दीन से न भागना
बात आत्म की सुनें
सूर्य आप भी बने
*
काम काम से रखें
राम-राम भी भजें
डूब राग-रंग में
धर्म-कर्म ना तजें
शुभ विचार कर गुनें
सूर्य आप भी बने
*
देव दैत्य आप हैं
पुण्य-पाप आप हैं
आप ही बुरे-भले
आप ही उगे-ढले
साक्ष्य भाव से जियें
सूर्य आप भी बने
१४.४.२०१७
***
रसानंद दे छंद नर्मदा २५ : १४-०४-२०१६
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला, गीतिका, घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात तथा कुण्डलिनी छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए सवैया छन्द से.
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला, गीतिका, घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात तथा कुण्डलिनी छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए सवैया छन्द से.
सरस सवैया रच पढ़ें
गण की आवृत्ति सात हों, दो गुरु रहें पदांत।
सरस सवैया नित पढो, 'सलिल' न तनिक रसांत।।
बाइस से छब्बीस वर्णों के (सामान्य वृत्तो से बड़े और दंडक छंदों से छोटे) छंदों को सवैया कहा जाता है। सवैया वार्णिक छंद हैं। विविध गणों में से किसी एक गण की सात बार आवृत्तियाँ तथा अंत में दो दीर्घ अक्षरों का प्रयोग कर सवैये की रचना की जाती है। यह एक वर्णिक छन्द है। सवैया को वार्णिक मुक्तक अर्थात वर्ण संख्या के आधार पर रचित मुक्तक भी कहा जाता है। इसका कारन यह है की सवैया में गुरु को लघु पढ़ने की छूट है। जानकी नाथ सिंह ने अपने शोध निबन्ध 'द कंट्रीब्युशन ऑफ़ हिंदी पोयेट्स टु प्राजोडी के चौथे अध्याय में सवैया को वार्णिक सम वृत्त मानने का कारण हिंदी में लय में गाते समय 'गुरु' का 'लघु' की तरह उच्चारण किये जाने की प्रवृत्ति को बताया है। हिंदी में 'ए' के लघु उच्चारण हेतु कोई वर्ण या संकेत चिन्ह नहीं है। रीति काल और भक्ति काल में कवित्त और सवैया बहुत लोकप्रिय रहे हैं. कवितावलि में तुलसी ने इन्हीं दो छंदों का अधिक प्रयोग किया है। कवित्त की ही तरह सवैया भी लय-आधारित छंद है।
विविध गणों के प्रयोग के आधार पर इस छन्द के कई प्रकार (भेद) हैं। यगण, तगण तथा रगण पर आधारित सवैये की गति धीमी होती है जबकि भगण, जगण तथा सगण पर आधारित सवैया तेज गति युक्त होता है। ले के साथ कथ्य के भावपूर्ण शब्द-चित्र अंकित होते हैं। श्रृंगार तथा भक्ति परक वर्ण में विभव, अनुभव, आलंबन, उद्दीपन, संचारी भाव, नायक-नायिका भेद आदि के शब्द-चित्रण में तुलसी, रसखान, घनानंद, आलम आदि ने भावोद्वेग की उत्तम अभिव्यक्ति के लिए सवैया को ही उपयुक्त पाया। भूषण ने वीर रस के लिए सवैये का प्रयोग किया किन्तु वह अपेक्षाकृत फीका रहा।
प्रकार-
सवैया के मुख्य १४ प्रकार हैं।
१. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सुमुखि, ४. दुर्मिल, ५. किरीट, ६. गंगोदक, ७. मुक्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सुन्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३. महाभुजंगप्रयात, १४. सुखी सवैया।
मत्तगयंद (मालती) सवैया
इस वर्णिक छंद के चार चरण होते हैं। हर चरण में सात भगण (S I I) के पश्चात् अंत में दो गुरु (SS) वर्ण होते हैं।
उदाहरण:
१.
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैंसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत-खात फिरें अँगना, पग पैंजनिया, कटी पीरि कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों ली गयो माखन-रोटी।।
२.
यौवन रूप त्रिया तन गोधन, भोग विनश्वर है जग भाई।
ज्यों चपला चमके नभ में, जिमि मंदर देखत जात बिलाई।।
देव खगादि नरेन्द्र हरी मरते न बचावत कोई सहाई।
ज्यों मृग को हरि दौड़ दले, वन-रक्षक ताहि न कोई लखाई।।
३.
मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गले पहिरौंगी।
ओढ़ी पीताम्बर लै लकुटी, वन गोधन गजधन संग फिरौंगी।।
भाव तो याहि कहो रसखान जो, तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।
दुर्मिल (चन्द्रकला) सवैया
इस वर्णिक छंद के चार चरणों में से प्रत्येक में आठ सगण (I I S) और अंत में दो गुरु मिलाकर कुल २५ वर्ण होते हैं.
उदाहरण:
बरसा-बरसा कर प्रेम सुधा, वसुधा न सँवार सकी जिनको।
तरसा-तरसा कर वारि पिता, सु-रसा न सुधार सकी जिनको।।
सविता-कर सी कविता छवि ले, जनता न पुकार सकी जिनको।
नव तार सितार बजा करके, नरता न दुलार सकी जिनको।।
उपजाति सवैया (जिसमें दो भिन्न सवैया एक साथ प्रयुक्त हुए हों) तुलसी की देन है। सर्वप्रथम तुलसी ने 'कवितावली' में तथा बाद में रसखान व केशवदास ने इसका प्रयोग किया।
मत्तगयन्द - सुन्दरी
प्रथम पद मत्तगयन्द (७ भगण + २ गुरु) - "या लटुकी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुरको तजि डारौ"। तीसरा पद सुन्दरी (७ सगन + १ गुरु) - "रसखानि कबों इन आँखिनते, ब्रजके बन बाग़ तड़ाग निहारौ"।
मदिरा - दुर्मिल
तुलसी ने एक पद मदिरा का रखकर शेष दुर्मिल के पद रखे हैं। केशव ने भी इसका अनुसरण किया है। पहला मदिरा का पद (७ भगण + एक गुरु) - "ठाढ़े हैं नौ द्रम डार गहे, धनु काँधे धरे कर सायक लै"। दूसरा दुर्मिल का पद (८ सगण) - "बिकटी भृकुटी बड़री अँखियाँ, अनमोल कपोलन की छवि है"।
मत्तगयन्द-वाम और वाम-सुन्दरी की उपजातियाँ तुलसी (कवितावली) में तथा केशव (रसिकप्रिया) में सुप्राप्य है। कवियों ने भाव-चित्रण में अधिक सौन्दर्य तथा चमत्कार उत्पन्न करने हेतु ऐसे प्रयोग किये हैं।
आधुनिक कवियों में भारतेंदु हरिश्चन्द्र, लक्ष्मण सिंह, नाथूराम शंकर आदि ने इनका सुन्दर प्रयोग किया है। जगदीश गुप्त ने इस छन्द में आधुनिक लक्षणा शक्ति का समावेश किया है।
१४-४-२०१६
***
दोहा:
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक शुभ उपहार

मुक्तक :
आपने आपको साथ में लेकर आपके साथ ही घात किया है
एक बनेंगे नेक बनेंगे वादा भुला अपराध किया है
मौक़ा न चूकें, न फिर पायेंगे, काम करें मिल-बाँट सभी जन
अन्ना के सँग बैठ मिटा मतभेद न क्यों मन एक किया है? 
***
हिंदू देवी-देवता : 33 कोटि (प्रकार)
१२ आदित्य(धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अंश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था, विष्णु)
८ वसु (धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभाष)
११ रूद्र (हर, बहुरूप, त्रयंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शंभु, कपार्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्वा, कपाली)
२ अश्विनी-कुमार।
१४-४-२०१५
***

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

सॉनेट, दोहा, लघुकथा, छत्तीसगढ़ी, कांति शुक्ला, भव छंद, सोमराजी छंद

सॉनेट
कौन?
पूछ रहा मन मैं हूँ कौन?
हुआ कहाँ से मेरा आना?
उत्तर में छाया है मौन।।
जाना कहा? न कोई ठिकाना।।


रचनाकार कौन है मेरा?
कहो किसलिए मुझे बनाया?
पलट कभी क्या मुझे न हेरा?
भू पर काहे मुझे पठाया?


प्रश्न कई गायब हैं उत्तर।
छोड़ो चिंता, मौज मनाओ।
मुस्कान नव सॉनेट रचकर।।
खुद को रचनाकार बनाओ।।


जिसका अंश उसी के सम हो।
राई-नौन उतारो यम हो।।
१३-४-२०२३
●●●
सॉनेट
आशा
पल में तोला, पल में माशा।
आशा और निराशा जीवन।
कर्म करो नित बिन प्रत्याशा।।
तभी बनेगी दुनिया मधुबन।।

सुख-दुःख दोनों साथी सच्चे।
धूप-छाँव आती-जाती है।
विहँस उतरते-चढ़ते बच्चे।।
मंज़िल छिनती-मिल जाती है।।

चुग्गा चुगती है गौरैया।
लेकिन खुद कम ही खाती है।
चूजे नाचें ता ता थैया।।
जब मैया चुग्गा लाती है।।

मन में आने दो न निराशा।
सच्ची जीवन साथ आशा।।
१३-४-२०२३
•••
मुक्तिका 
सपनों की लहरों
*
सपनों की लहरों मत रुकना।
टूट-बिखर, मत थक, फिर बढ़ना।।

बिंदु सिंधु में, सिंधु बिंदु में।
अपनी किस्मत खुद ही लिखना।।

बाँहों में हो, चाहों में जो।
छल कर खुद को खुद मत ठगना।।

मंज़िल तुम तक खुद आएगी।
चलना गिरना उठना चढ़ना।।

बाधाओं को चित्र मानकर।
फ्रेम कोशिशों का ले मढ़ना।।
१३-४-२०२३
•••
सॉनेट
आलोक
लोक में आलोक हो प्रभु!
तोम-तम भी साथ में हो।
हृदय में हो प्रेम हे विभु!
हाथ कोई हाथ में हो।
मुस्कुराएँ हम उषा में।
दोपहर में मेहनत कर।
साँझ झूमे मन खुशी से।।
रात में हो बात जी भर।।
नवाशा दीपक जलाएँ।
गीत गाएँ प्रयासों के।
तुझे सबमें देख पाएँ।।
रंग देखें उजासों के।।
तू बुलाए, दौड़ आएँ।
तुझे तुझसे ही मिलाएँ।।
१३-४-२०२२
•••
सामयिक दोहे
*
शिशु भी बात समझ रहे, घर में है सुख-चैन
नादां बाहर घूमते, दिन हो चाहे रैन
*
तब्लीगी की फ़िक्र में, बच्चे हैं बेचैन
मजलिस में अब्बू गुमे, गीले सबके नैन
*
बुला रहा जो उसे हो, सबसे भारी दंड
देव लात के बात से, कब मानें उद्द्ण्ड
*
नेताजी की चाह है, हर दिन कहीं चुनाव
कोरोना की फ़िक्र तज, सरकारों का चाव
*
मंत्री जी पहिनें नहीं, मास्क न कोई बात
किंतु नागरिक खा रहे, रोज पुलिसिया लात
*
दवा-ओषजन है नहीं, जनगण है लाचार
शासन झूठ परोसता, हर दिन सौ सौ बार
*
दवा ब्लैक में बेचना, निज आत्मा को मार
लानत है व्यापारियों, पड़े काल की मार
*
अँधा शासन प्रशासन, बहरा गूँगे लोग
लाजवाब जनतंत्र यह, ' सलिल' कीजिए सोग
*
भाँग विष नहीं घोल दें, मुफ्त न पीता कौन?
आश्वासन रूपी सुरा, नेता फिर हों मौन
*
देश लाश का ढेर है, फिर भी हैं हम मस्त
शेष न कहीं विपक्ष हो, सोच हो रहे त्रस्त
*
लोकतंत्र में 'तंत्र' का, अब है 'लोक' गुलाम
आजादी हैं नाम की, लेकिन देश गुलाम
१३-४-२०२१
***
***
दोहे
शिशु भी बात समझ रहे, घर में है सुख-चैन
नादां बाहर घूमते, दिन हो चाहे रैन
तब्लीगी की फ़िक्र में बच्चे हैं बेचैन
मजलिस में अब्बू गुमे, गीले सबके नैन
बुला रहा जो उसे हो सबसे भारी दंड
देव लात के बात से कब मानें उद्द्ण्ड
***
कैसी हो लघुकथा?
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
यह यक्षप्रश्न ऐसा है जिसका हर पांडव अलग-अलग उत्तर देता है और यक्ष का उत्तर सबसे अलग होना ही है। अर्थशास्त्र में कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। लघुकथा के सन्दर्भ में दो लघुकथाकारों के चार मत होते हैं, इसलिए एक ही लघुकथाकार अलग-अलग समय पर अलग-अलग बातें कहता है। बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी.... संपादक जी के कहे अनुसार 'कम में अधिक' कहना है तो मेरे मत में 'लघु' को 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर' की तरह 'कम से कम में अधिक से अधिक कहने' में समर्थ होना चाहिए। कितना लघु? हो यह कथ्य की माँग और कथाकार की सामर्थ्य पर निर्भर है।एक-दो वाक्यों से लेकर लगभग एक पृष्ठ तक। पश्चात्वर्ती पर अधिक महत्वपूर्ण तत्व है 'कथा', कथा वह जो कही जाए, कही वह जाए जो कहने योग्य हो, कहने योग्य वह जिसे कहने का कुछ उद्देश्य हो, निरुद्देश्य कथा कही जाए या न कही जाए, क्या फर्क पड़ता है? सोद्देश्य कथा तो उपन्यास, आख्यायिका, और कहानी में भी कही जाती है। लघुकथा सबसे भिन्न इसलिए है कि इसमें 'पिन पॉइंटेड' कहना है। चरित्र चित्रण, कथोकथन आदि का स्थान नहीं है। लघु कथा में अ. लघुता, आ. कथात्मकता, इ. मर्मस्पर्शिता/मर्मबेधकता तथा ई. उद्देश्य परकता ये चार तत्व अनिवार्य हैं। शीर्षक, मारक वाक्य, अंत, भाषा शैली, शब्द चयन वाक्य संरचना आदि विधा के तत्व नहीं लेखक की शैली के अंग हैं। लघुकथा के कई प्रकार हैं। भारत में सनातन साहित्यिक-सामाजिक विरासत का अभिन्न हिस्सा लघुकथा कई प्रकार से लोककथा, पर्व कथा, बाल कथा, बोध कथा, दृष्टांत कथा, उपदेश कथा, नुक्क्ड़ कथा, यात्रा कथा, शिकार कथा, गल्प, गप्प, आख्यान आदिके रूप में कहीं गयी है। ये विधा के तत्व नहीं प्रकार है। लक्षणात्मकता, व्यञजनात्मकता, सरसता, सरलता, प्रासंगिकता, समसामयिकता आदि लघुकथा विशेष की विशेषता है तत्व नहीं। लघुकथा की सुदीर्घ विरासत, प्रकार और प्रभाव जितना भारत में है, अन्यत्र कहीं नहीं है।
***
दोहा सलिला
*
ओवरटाइम कर रहे, दिवस-रात यमदूत
शाबासी यमराज दें, भत्ते बाँट अकूत
*
आहुति पाकर चंडिका, कंकाली के साथ
भ्रमण करें भयभीत जग, झुका नवाये माथ
*
जनसंख्या यमलोक में, बढ़ी नहीं भूखंड
रेट हाई हैं आजकल, बढ़ी डिमांड प्रचंड
*
हैं रसूल एकांत में, सब बंदों से दूर
कह सोशल डिस्टेंसिंग, बंदे करें जरूर
*
गुरु कहते रख स्वच्छता, बाँटो कड़ा प्रसाद
कोई भूखा ना रहे, तभी सुनूँ अरदास
*
ईसा मूसा नमस्ते करें, जोड़कर हाथ
गले क्यों मिलें दिल मिले, जनम जनम का साथ
*
आज सुरेंद्र नरेंद्र का, है समान संदेश
सुर नर व्यर्थ न घूमिए, मानें परमादेश
*
भोले भंडारी कहें, खुले रखो भंडार
जितना दो उतना बढ़े, सच मानो व्यापार
*
मौन लक्ष्मी दे रहीं, भक्तों को संदेश
दान दिया धन दस गुना, हो दे लाभ अशेष
*
शारद के भंडार को, जो बाँटे ले जोड़
इसीलिए तो लगी है, नवलेखन की होड़
*
चित्र गुप्त हो रहे हैं, उद्घाटित नित आज
नादां कहते दुर्वचन, रहा न दूजा काज
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नवगीत:
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भोर भई दूँ बुहार देहरी अँगना
बाँस बहरी टेर रही रुक जा सजना
बाँसगुला केश सजा हेरूँ ऐना
बाँसपिया देख-देख फैले नैना
बाँसपूर लुगरी ना पहिरब बाबा
लज्जा से मर जाउब, कर मत सैना
बाँस पुटु खूब रुचे, जीमे ललना
बाँस बजें तैं न जा मोरी सौगंध
बाँस बराबर लबार बरठा बरबंड
बाँस चढ़े मूँड़ झुके बाँसा कट जाए
बाँसी ले, बाँसलिया बजा देख चंद
बाँस-गीत गुनगुना, भोले भजना
बगदई मैया पूजूँ, बगियाना भूल
बतिया बड़का लइका, चल बखरी झूल
झिन बद्दी दे मोको, बटर-बटर हेर
कर ले बमरी-दतौन, डलने दे धूल
बेंस खोल, बासी खा, झल दे बिजना
***
शब्दार्थ : बाँस बहरी = बाँस की झाड़ू, बाँस पुटु = बाँस का मशरूम, जीमना = खाना, बाँसपान = धान के बाल का सिरा जिसके पकने से धान के पकाने का अनुमान किया जाता है, बाँसगुला = गहरे गुलाबी रंग का फूल, ऐना = आईना, बाँसपिया = सुनहरे कँसरइया पुष्प की काँटेदार झाड़ी, बाँसपूर = बारीक कपड़ा, लुगरी = छोटी धोती, सैना = संकेत, बाँस बजें = मारपीट होना, लट्ठ चलना, बाँस बराबर = बहुत लंबा, लबार = झूठा, बरठा = दुश्मन, बरबंड - उपद्रवी, बाँस चढ़े = बदनाम हुए, बाँसा = नाक की उभरी हुई अस्थि, बाँसी = बारीक-सुगन्धित चावल, बाँसलिया = बाँसुरी, बाँस-गीत = बाँस निर्मित वाद्य के साथ अहीरों द्वारा गाये जानेवाले लोकगीत, बगदई = एक लोक देवी, बगियाना = आग बबूला होना, बतिया = बात कर, बड़का लइका = बड़ा लड़का, बखरी = चौकोर परछी युक्त आवास, झिन = मत, बद्दी = दोष, मोको = मुझे, बटर-बटर हेर = एकटक देख, बमरी-दतौन = बबूल की डंडी जिससे दन्त साफ़ किये जाते हैं, धूल डालना = दबाना, भुलाना, बेंस = दरवाजे का पल्ला, कपाट, बासी = रात को पकाकर पानी डालकर रखा गया भात, बिजना = बाँस का पंखा.
१३-४-२०२०
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सामयिक दोहे
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सामयिक दोहे
*
लोकतंत्र की हो गई, आज हार्ट-गति तेज?
राजनीति को हार्ट ने, दिया सँदेसा भेज?
*
वादा कर जुमला बता, करते मन की बात
मनमानी को रोक दे, नोटा झटपट तात
*
मत करिए मत-दान पर, करिए जग मतदान
राज-नीति जन-हित करे, समय पूर्व अनुमान
*
लोकतंत्र में लोकमत, ठुकराएँ मत भूल
दल-हित साध न झोंकिए, निज आँखों में धूल
*
सत्ता साध्य न हो सखे, हो जन-हित आराध्य
खो न तंत्र विश्वास दे, जनहित से हो बाध्य
*
नोटा का उपयोग कर, दें उन सबको रोक
स्वार्थ साधते जो रहे, उनको ठीकरा लोक
*
'वृद्ध-रत्न' सम्मान दें, बच्चों को यदि आप।
कहें न क्या अपमान यह, रहे किस तरह माप?
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'उत्तम कोंग्रेसी' दिया, अलंकरण हो हर्ष।
भाजपाई किस तरह ले, उसे लगा अपकर्ष।।
*
'श्रेष्ठ यवन' क्यों दे रहे पंडित जी को मित्र।
'मर्द रत्न' महिला गहे, बहुत अजूबा चित्र।।
*
'फूल मित्र' ले रहे हैं, हँसकर शूल खिताब।
'उत्तम पत्थर'विरुद पा, पीटे शीश गुलाब।।
*
देने-लेने ने किया, सचमुच बंटाढार।
लेन-देन की सत्य ही महिमा सलिल अपार।।
***
१३.४.२०१९
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पुरोवाक :
कहने-पढ़ने योग्य जीवन प्रसंगों से समृद्ध कांति शुक्ल की कहानियाँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि मानव ने अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए कंठजनित ध्वनि का उपयोग सीखने के बाद ध्वनियों को अर्थ देकर भाषा का विकास किया। कालान्तर में ध्वनि संकेतों की प्रचुरता के बाद उन्हें स्मरण रखने में कठिनाई अनुभव कर विविध माध्यमों पर संकेतों के माध्यम से अंकित किया। सहस्त्रों वर्षों में इन संकेतों के साथ विशिष्ट ध्वनियाँ संश्लिष्ट कर लिपि का विकास किया गया। भूमण्डल के विविध क्षेत्रों में विचरण करते विविध मानव समूहों में अलग-अलग भाषाओँ और लिपियों का विकास हुआ। लिपि के विकास के साथ ज्ञान राशि के संचयन का जो क्रम आरम्भ हुआ वह आज तक जारी है और सृष्टि के अंत तक जारी रहेगा। मौखिक या वाचिक और लिखित दोनों माध्यमों में देखे-सुने को सुनाने या किसी अन्य से कहने की उत्कंठा ने कहानी को जान दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ''कहानियों का चलन सभ्य-असभ्य सभी जातियों में चला आ रहा है सब जगह उनका समाविश शिष्ट साहित्य के भीतर भी हुआ है। घटना प्रधान और मार्मिक उनके ये दो स्थूल भेद भी बहुत पुराने हैं और इनका मिश्रण भी।"१ प्राचीन कहानियों में कथ्यगत घटनाक्रम सिलसिलेवार तथा भाव प्रधान रहा जबकि आधुनिक कहानी में घटना-श्रृंखला सीधी एक दिशा में न जाकर, इधर-उधर की घटनाओं से जुड़ती चलती है जिनका समाहार अंत में होता है।
चितà¥�र में ये शामिल हो सकता है: 1 वà¥�यकà¥�ति, चशà¥�मे और कà¥�लोज़अप कल्पना-सापेक्ष गद्यकाव्य का अन्य नाम कहानी है... प्रेमचंद कहानी को ऐसी रचना मानते हैं "जिसमें जीवन के किसी अंग या किसी मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है। बाबू श्याम सुन्दर दस के अनुसार कहानी "एक निश्चित लक्ष्य या प्रभाव को लेकर लिखा गया नाटकीय आख्यान है।" पश्चिमी कहानीकार एडगर एलिन पो के अनुसार कहानी "इतनी छोटी हो कि एक बैठक में पढ़ी जा सके और पाठक पर एक ही प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए लिखी गई हो।" २ "कहानी साहित्य की विकास यात्रा में समय के साथ इसके स्वरुप, सिद्धांत, उद्देश्य एवं कलेवर में आया बदलाव ही जीवंतता का द्योतक है।"३ मेहरुन्निसा परवेज़ के शब्दों में "कहानी मनुष्य के अंतर्मन की अभिव्यक्ति है, मनुष्य के जीवित रहने का सबूत है, उसके गूँगे दुःख, व्यथा, वेदना का दस्तावेज है।"४ स्वाति तिवारी के अनुसार "कहानी गपबाजी नहीं होती, वे विशुद्ध कला भी नहीं होतीं। वे किसी मन का वचन होती हैं, वे मनोविज्ञान होती हैं। जीवन है, उसकी जिजीविषा है, उसके बनते-बिगड़ते सपने हैं, संघर्ष हैं, कहानी इसी जीवन की शब्द यात्रा ही तो है, होनी भी चाहिए, क्योंकि जीवन सर्वोपरि है। जीवन में बदलाव है, विविधता है, अत: फार्मूलाबद्ध लेखन कहानी नहीं हो सकता।"५
सारत: कहानी जीवन की एक झलक (स्नैपशॉट) है। डब्ल्यू. एच. हडसन के अनुसार कहानी में एक हुए केवल एक केंद्रीय विचार होना चाहिए जिसे तार्किक परिणति तक पहुँचाया जाए।६ कांति जी की लगभग सभी कहानियों में यह केंद्रीय एकोन्मुखता देखी जा सकती है। 'बदलता सन्दर्भ' की धोखा तेलिन हो या 'मुकाबला ऐसा भी' की भौजी उनके चरित्र में यह एकोन्मुखता ही उन कहांनियों का प्राण तत्व है।
कहानी के प्रमुख तत्व कथा वस्तु, पात्र, संवाद, वातावरण, शैली और उद्देश्य हैं। इस पृष्ठ भूमि पर श्रीमती कांति शुक्ल की कहानियाँ संवेदना प्रधान, प्रवाहपूर्ण घटनाक्रम युक्त कथानक से समृद्ध हैं। वे कहानियों के कथानक का क्रमिक विकास कर पाठक में कौतूहलमय उत्सुकता जगाते हुए चार्म तक पहुंचाती हैं। स्टीवेंसन के अनुसार "कहानी के प्रारम्भ का वातावरण कुछ ऐसा होना चाहिए कि किसी सुनसान सड़क के किनारे सराय के कमरे में मोमबत्ती के धुंधले प्रकाश में कुछ लोग धीरे-धीरे बात कर रहे हों" आशय यह कि कहानी के आरम्भ में मूल संवेदना के अवतरण हेतु वातावरण की रचना की जानी चाहिए। कांति जी इस कला में निपुण हैं। 'संभावना शेष' के आरम्भ में नायक का मोहभंग, 'आखिर कब तक' और 'आशा-तृष्णा ना मरे' में केंद्रीय चरित का स्वप्न टूटना, 'करमन की गति न्यारी' में नायिका के बचपन की समृद्धि, 'ना माया ना राम' में बिटियों पर पहरेदारी, 'मुकाबला ऐसा भी' के नायक का सुदर्शन रूप आदि मूल कथा के प्रागट्य पूर्व का वातावरण ऐसा उपस्थित करते हैं कि पाठक के मन में आगे के घटनाक्रम के प्रति उत्सुकता जागने लगती है।
कांति जी रचित कहानियों में पात्रों और घटनाओं का विकास इस तरह होता है कि कथानक द्रुत गति से विकसित होकर आतंरिक कुतूहल अथवा संघर्ष के माध्यम से परिणति की ओर अग्रसर होता है। वे पाठक को वैचारिक ऊहापोह में उलझने-भटकने का अवकाश ही नहीं देतीं। 'समरथ का नहीं दोष गुसाई' में ठाकुर-पुत्र के दुर्व्यवहार के प्रत्युत्तर में पारबती की प्रतिक्रिया, उसकी अम्मा की समझाइश, ईंधन की कमी, पारबती का अकेले जाना, न लौटना और अंतत: मृत शरीर मिलना, यह सब इतने शीघ्र और सिलसिलेवार घटता है कि इसके अतिरिक्त किसी अन्य घटनाक्रम की सम्भावना भी पाठक के मस्तिष्क में नहीं उपजती। कांति जी कहानी के कथानक के अनुरूप शब्द-जाल बुनने में दक्ष हैं। 'तेरे कितने रूप' में वैधव्य का वर्णन संतान के प्रति मोह में परिणित होता है तो 'संकल्प और विकल्प' में नवोढ़ा नायिका को मिली उपेक्षा उसके विद्रोह में। संघर्ष, द्वन्द, कुतूहल, आशंका, अनिश्चितता आदि मनोभावों से कहानी विकसित होती है। '५ क' (क्या, कब, कैसे, कहाँ और क्यों?) का यथावश्यक-यथास्थान प्रयोग कर कांति जी कथानक का विकास करती हैं।
इन कहानियों में आशा और आशंका, उत्सुकता और विमुखता, संघर्ष और समर्पण, सहयोग और द्वेष जैसे परस्पर विरोधी मनोभावों के गिरि-शिखरों के मध्य कथा-सलिला की अटूट धार प्रवाहित होकर बनते-बिगड़ते लहर-वर्तुलों की शब्दाभा से पाठक को मोहे रखती है। वेगमयी जलधार के किसी प्रपात से कूद पड़ने या किसी सागर में अचानक विलीन होने की तरह कहानियों का चरम आकस्मिक रूप से उपस्थित होकर पाठक को अतृप्त ही छोड़ देता है। ऐसा नहीं होता, यह कहानीकार की निपुणता का परिचायक है। कांति जी की कहानियों की परिणिति (क्लाइमेक्स) में ही उसका सौंदर्य है, इनमें निर्गति (एंटी क्लाईमेक्स) के लिए स्थान ही नहीं है। सीमित किन्तु जीवंत पात्र, अत्यल्प, आवश्यक और सार्थक संवाद, विश्लेषणात्मक चरित्र चित्रण, वातावरण का जीवंत शब्दांकन, इन कहानियों में यत्र-तत्र दृष्टव्य है।
कहानी के सकल रचना प्रसार में तीन स्थल आदि, मध्य और अंत बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। आरम्भ पूर्वपीठिका है तो अंत प्रतिपाद्य, मध्य इन दोनों के मध्य समन्वय सेतु का कार्य करता है। यदि अंत का निश्चय किए बिना कहानी कही जाए तो वह मध्य में भटक सकती है जबकि अंत को ही सब कुछ मान लिया जाए तो कहानी नद्य में प्रचारात्मक लग सकती है। इन तीनों तत्वों के मध्य संतुलन-समन्वय आवश्यक है। कांति जी इस निकष पर प्राय: सफल रही हैं। डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा के अनुसार 'आड़ी और 'आंत के तारतम्य में 'आंत को अधिक महत्त्व देना चाहिए क्योंकि मूल परिपाक का वही केंद्र बिंदु है।७ कांति जी की कहांनियों में अंत अधिकतर मर्मस्पर्शी हुआ है। 'अनुरक्त विरक्त' और 'चाह गयी चिंता मिटी' के अंत अपवाद स्वरूप हैं।
कहानी में कहानीकार का व्यक्तित्व हर तत्व में अन्तर्निहित होता है। शैली के माध्यम से कहानीकार की अभिव्यक्ति सामर्थ्य (पॉवर ऑफ़ एक्सप्रेशन) की परीक्षा होती है। कहानी में कविता की तुलना में अधिक और उपन्यास की तुलना में अल्प विवरण और वर्णन होते हैं। अत: वर्णन-सामर्थ्य (पॉवर ऑफ़ नरेशन) की परीक्षा भी शैली के माध्यम से होती है। भाषा, भाव और कल्पना अर्थात तन, मन और मस्तिष्क... इन कहानियों में इन तत्वों की प्रतीति भली प्रकार की जा सकती है। कांति जी की कहानियों का वैशिष्ट्य घटना क्रम का सहज विकास है। कहीं भी घटनाएँ थोपी हुई या आरोपित नहीं हैं। चरित्र चित्रण स्वाभाविक रूप से हुआ है। कहानीकार ने बलात किसी चरित्र को आदर्शवाद, या विद्रोह या विमर्श के पक्ष में खड़ा नहीं किया है, न किसी की जय-पराजय को ठूँसने की कोशिश की है।
कहानी के भाषिक विधान के सन्दर्भ में निम्न बिंदु विचारणीय होते हैं- भाषा पात्र को कितना जीवन करती है, भाषा कहानी की संवेदना को कितना उभारती है, भाषा कहानी के केन्द्रीय विचार को कितना सशक्त तरीके के व्यक्त करती है, भाषा कहानी के घटना क्रम के समय के साथ कितना न्याय करती है तथा भाषा वर्तमान युग सन्दर्भ में कितनी ग्राह्य और सहज है।८ ये कहानियाँ वतमान समय से ही हैं अत: समय के परिप्रेक्ष्य की तुलना में पात्र, घटनाक्रम और केन्द्रीय विचार के सन्दर्भ में इन कहानियों की भाषा का आकलन हो तो कांति जी अपनी छाप छोड़ने में सफल हैं। प्राय: सभी कहानियों की भाषा देश-काल. पात्र और परिस्थिति अनुकूल है।
कहानी का उद्देश्य न तो मनरंजन मात्र होता है, न उपदेश या परिष्करण, इससे हटकर कहानी का उद्देश्य कहानी लेखन का उद्देश्य मानव मन में सुप्त भावनाओं को उद्दीप्त कर उसे रस अर्थात उल्लास, उदात्तता और सार्थकता की प्रतीति कराना है। क्षुद्रता, संकीर्णता, स्वार्थपरकता और अहं से मुक्त होकर उदारता, उदात्तता, सर्वहित और नम्रता जनित आनंद की प्रतीति साहित्य सृजन का उद्देश्य होता है। कहानी भी एतदअनुसार कल्पना के माध्यम से यथार्थ का अन्वेषण कर जीवन को परिष्कृत करने का उपक्रम करती है। कांति जी की कहानियाँ इस निकष पर खरी उतरने के साथ-साथ किसी वाद विशेष, विचार विशेष, विमर्श विशेष के पक्ष-विपक्ष में नहीं हैं। उनकी प्रतिबद्धताविहीनता ही निष्पक्षता और प्रमाणिकता का प्रमाण है। प्रथम कहानी संकलन के माध्यम से कांति जी भावी संकलनों के प्रति उत्सुकता जगाने में सफल हुई हैं। कहानी कला में शैली और शिल्पगत हो रहे अधुनातन प्रयोगों से दूर इन कहानियों में ब्यूटी पार्लर का सौंदर्य भले ही न हो किन्तु सलज्ज ग्राम्य बधूटी का सात्विक नैसर्गिक सौंदर्य है। यही इनका वैशिष्ट्य और शक्ति है।
*********
संदर्भ: १. हिंदी साहित्य का इतिहास- रामचंद्र शुक्ल, २. आलोचना शास्त्र मोहन वल्लभ पंत, ३. समाधान डॉ. सुशीला कपूर, ४. अंतर संवाद रजनी सक्सेना, ५.मेरी प्रिय कथाएँ स्वाति तिवारी, ६. एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ़ लिटरेचर, ७. कहानी का रचना विधान जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, ८समकालीन हिंदी कहानी संपादक डॉ. प्रकाश आतुर में कृष्ण कुमार ।
***
छंद बहर का मूल है: १
छंद परिचय:
दस मात्रिक दैशिक जातीय भव छंद।
षडवार्णिक गायत्री जातीय सोमराजी छंद।
संरचना: ISS ISS,
सूत्र: यगण यगण, यय।
बहर: फ़ऊलुं फ़ऊलुं ।
*
कहेगा-कहेगा
सुनेगा-सुनेगा।
हमारा-तुम्हारा
फ़साना जमाना।
मिलेंगे-खिलेंगे
चलेंगे-बढ़ेंगे।
गिरेंगे-उठेंगे
बनेंगे निशाना।
न रोके रुकेंगे
न टोंके झुकेंगे।
कभी ना चुकेंगे
हमें लक्ष्य पाना।
नदी हो बहेंगे
न पीड़ा तहेंगे।
ख़ुशी से रहेंगे
सुनाएँ तराना।
नहीं हार मानें
नहीं रार ठानें।
नहीं भूल जाएँ
वफायें निभाना।
***
एक कुंडली- दो रचनाकार
दोहा: शशि पुरवार
रोला: संजीव
*
सड़कों के दोनों तरफ, गंधों भरा चिराग
गुलमोहर की छाँव में, फूल रहा अनुराग
फूल रहा अनुराग, लीन घनश्याम-राधिका
दग्ध कंस-उर, हँसें रश्मि-रवि श्वास साधिका
नेह नर्मदा प्रवह, छंद गाती मधुपों के
गंधों भरे चिराग, प्रज्वलित हैं सड़कों के
१३-४-२०१७
***
जैनेन्द्र कुमार ने कहा था :
1. भाषा के बारे में कोई कुछ भी सुझाव दे, ध्यान मत दो ।
2. जिस लेखक को तिरस्कार मिलता है, वह उससे बेहत्तर लिखता है, जिसे जल्द पुरस्कार मिल जाता है
***
रतन टाटा के सुविचार दोहानुवाद सहित
१. नाश न लोहे का करे, अन्य किन्तु निज जंग
अन्य नहीं मस्तिष्क निज, करें व्यक्ति को तंग
1. None can destroy iron, but its own rust can!
Likewise, none can destroy a person, but his own mindset can.
२. ऊँच-नीच से ही मिले, जीवन में आनंद
ई.सी.जी. में पंक्ति यदि, सीधी धड़कन बंद
2. Ups and downs in life are very important to keep us going, because a straight line even in an E.C.G. means we are not alive.
३. भय के दो ही अर्थ हैं, भूल भुलाकर भाग
या डटकर कर सामना, जूझ लगा दे आग
3. F-E-A-R : has two meanings :
1. Forget Everything And Run
2. Face Everything And Rise.
***