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बुधवार, 2 जून 2021

हाइकु सलिला चयनित

हाइकु गीत
*
आया वसंत
इन्द्रधनुषी हुए
दिशा-दिगंत..
शोभा अनंत
हुए मोहित,
सुर-मानव संत..
*
प्रीत के गीत
गुनगुनाती धूप
बनालो मीत.
जलाते दिए
एक-दूजे के लिए
कामिनी-कंत..
*
पीताभी पर्ण
संभावित जननी
जैसे विवर्ण..
हो हरियाली
मिलेगी खुशहाली
होगे श्रीमंत..
*
चूमता कली
मधुकर गुंजार
लजाती लली..
सूरज हुआ
उषा पर निसार
लाली अनंत..
*
प्रीत की रीत
जानकर न जाने
नीत-अनीत.
क्यों कन्यादान?
'सलिल' वरदान
दें एकदंत..
२१.३.२०१७
***
हाइकु गीत
*
लोकतंत्र में
मनमानी की छूट
सभी ने पाई।
*
*
सबको प्यारा
अपना दल-दल
कहते न्यारा।
बुरा शेष का
तुरत ख़तम हो
फिर पौबारा।
लाज लूटते
मिल जनगण की
कह भौजाई।
*
जिसने लूटा
वह कहता: 'तुम
सबने लूटा।
अवसर पा
लूटता देश, हर
नेता झूठा।
वादा करते
जुमला कहकर
जीभ चिढ़ाई।
*
खुद अपनी
मूरत बनवाते
शर्म बेच दी।
संसद ठप
भत्ते लें, लाज न
शेष है रही।
कर बढ़वा
मँहगाई सबने
खूब बढ़ाई।
***
मतदाता विवेकाधिकार मंच
*
त्रिपदिक छंद हाइकु
विषय: पलाश
विधा: गीत
*
लोकतंत्र का / निकट महापर्व / हावी है तंत्र
*
मूक है लोक / मुखर राजनीति / यही है शोक
पूछे पलाश / जनता क्यों हताश / कहाँ आलोक?
सत्ता की चाह / पाले हरेक नेता / दलों का यंत्र
*
योगी बेहाल / साइकिल है पंचर / हाथी बेकार
होता बबाल / बुझी है लालटेन / हँसिया फरार
रहता साथ / गरीबों के न हाथ / कैसा षड़्यंत्र?
*
दलों को भूलो / अपराधी हराओ / न हो निराश
जनसेवी ही / जनप्रतिनिधि हो / छुए आकाश
ईमानदारी/ श्रम सफलता का / असली मंत्र
***
हाइकु गीत:
आँखों का पानी
संजीव 'सलिल'
*
निगहबानी 
न भूलो कहता है  
आँखों का पानी 
*
रोक न पाए 
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँखों का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँखों में पानी
देखकर रो पड़ा
आँखों का पानी...
*
२६-६-२०१०
हाइकु गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
*
हाइकु गीत
बात बेबात
संजीव 'सलिल'
*
बात बेबात
कहते कटी रात
हुआ प्रभात।
*
सूर्य रश्मियाँ
अलस सवेरे आ
नर्तित हुईं।
*
हो गया कक्ष
आलोकित ज्यों तुम
प्रगट हुईं।
*
कुसुम कली
परिमल बिखेरे
दस दिशा में -
*
मन अवाक
सृष्टि मोहती
छबीली मुई।
*
परदा हटा
बज उठी पायल
यादों की बारात।
*
दे निमंत्रण 
आँखें, आँखों में झाँक
कुछ शर्माईं ?
*
गाल गुलाबी
अकहा सुनकर
आप लजाईं।
*
अघट घटा
अखबार नीरस
लगने लगा-
*
हौले से लिया
हथेली को पकड़
छुड़ा मुस्काईं।
*
चितवन में
बही नेह नर्मदा
सिहरा गात
*
चहक रही
गौरैया मुंडेर पर
कुछ गा रही।
*
फुदक रही
चंचल गिलहरी
मन भा रही।
*
झोंका हवा का
उड़ा रहा आँचल
नाचतीं लटें-
*
खनकी चूड़ी
हाथ न आ, ललचा
इठला रही।
*
फ़िज़ा महकी
घटा घिटी-बरसी
गुँजा नग़मात
*

हाइकु गीत :
संजीव
.
टूटा विश्वास
शेष रह गया है
विष का वास
.
कलरव है
कलकल से दूर
टूटा सन्तूर
जीवन हुआ
किलकिल-पर्याय
मात्र संत्रास
.
जनता मौन
संसद दिशाहीन
नियंता कौन?
प्रशासन ने
कस लिया शिकंजा
थाम ली रास
.
अनुशासन
एकमात्र है राह
लोक सत्ता की.
जनांदोलन
शांत रह कीजिए
बढ़े उजास
.
१३-२-२०१५
***

हाइकु
*
माँ सरस्वती!
अमल-विमल मति
दे वरदान।
*
हंसवाहिनी!
कर भव से पार
वीणावादिनी।
*
श्वेत वसना !
मन मराल कर
कालिमा हर।
*
ध्वनि विधात्री!
स्वर-सरगम दे
गम हर ले।
*
हे मनोरमा!
रह सदय सदा
अभयप्रदा।
*
मैया! अंकित
छवि मन पर हो
दैवी वंदित।
*
शब्द-साधना
सत-शिव-सुंदर
पा अर्चित हो।
*
नित्य विराजें
मन-मंदिर संग
रमा-उमा के।
*
चित्र गुप्त है
सुर-सरगम का
नाद सुना दे।
*
दो वरदानी
अक्षर शिल्प कला
मातु भवानी!
*
सत-चित रूपा!
विहँस दिखला दे
रम्य रूप छवि।
**
१८-९-२०१९

कुछ हाइकु
*
रात की बात
किसी को मिली जीत
किसी को मात..
*
फूल सा प्यारा
धरती पर तारा
राजदुलारा..
*
करेँ वंदन
लगाकर चन्दन
हँसे नंदन..
*
आता है याद
दूर जाते ही देश
यादें अशेष..
*
कुसुम-गंध
फैलती सब ओर.
देती आनंद..
*
देना या पाना
प्रभु की मर्जी
पा मुस्कुराना..
*
आंधी-तूफ़ान
देता है झकझोर
चले न जोर..
*
उखाड़े वृक्ष
पल में ही अनेक
आँधी है दक्ष..
*
बूँदें बरसें
सौधी गंध ले सँग
मन हरषे..
*
करे ऊधम
आँधी-तूफ़ान, लिए
हाथ में हाथ..
*
बादल छाये
सूरज खिसियाये
भू मुस्कुराये.
*
नापते नभ
आवारा की तरह
नाच बादल..
*
२४-६-२०१०
हाइकु
*
शेरपा शिखर
सफलता पखेरू
आकर गया
*
शेरपा हौसला
जिंदगी है चढ़ाई
कोशिश जयी
*
सिर हो ऊँचा
हमेशा पहाड़ सा
आकाश छुए
*
नदी बनिए
औरों की प्यास बुझा
खुश रहिए
*
आशा-विश्वास
खुद पर भरोसा
शेरपा धनी
***
संजीव
८-१०-१९
हाइकु लिखा
मन में झाँककर
अदेखा दिखा।
*
पानी बरसा
तपिश शांत हुई
मन विहँसा।
*
दादुर कूदा
पोखर में झट से
छप - छपाक।
*
पतंग उड़ी
पवन बहकर
लगा डराने
*
हाथ ले डोर
नचा रहा पतंग
दूसरी ओर
*
२१-७-२०१९
रेशमी बूटी
घास चादर पर
वीर बहूटी
*
मेंहदी रची
घास हथेली पर
मखमली सी.
*
घास दुलहन
माथे पर बिंदिया
बीरबहूटी
*
हाइकु पर
लगा है जी एस टी
कविता पर.
*
कहें नाकाफी
लगाए नए कर
पूछें: 'है कोफी?'
*
भाजपाई हैं
बड़े जुमलेबाज
तमाशाई हैं.
*
जीत न हार
दोनों की जय-जय
हुआ है निर्णय ..
*
कजरी नहीं
स्वच्छ करो दीवाल
केजरीवाल.
*
ज्योतिर्मयी है
मानव की चेतना
हो ऊर्ध्वमुखी
*
ज्योति है ऊष्म
सलिल है शीतल
मेल जीवन
*
ज्योति जलती
पवन है बहता
जग दहता
*
ज्योति धरती
बाँटती उजियारा
तम पीकर
*
ज्योति जागती
जगत को सुलाती
आप जलकर
*
३-७-२०१७
हाइकु सलिला:
*
कमल खिला
संसद मंदिर में
पंजे को गिला
*
हट गयी है
संसद से कैक्टस
तुलसी लगी
*
नरेंद्र नाम
गूँजा था, गूँज रहा
अमरीका में
*
मिटा कहानी
माँ और बेटे लिखें
नयी कहानी
*
नहीं हैं साथ
वर्षों से पति-पत्नी
फिर भी साथ
*
हाइकु करे
शब्द-शब्द जीवंत
छवि भी दिखे।
*
सलिल धार
निर्मल निनादित
हरे थकान।
*
मेघ गरजा
टप टप मृदंग
बजने लगा।
*
किया प्रयास
शाबाशी इसरो को
न हो हताश
*
जब भी लिखो
हमेशा अपना हो
अलग दिखो।
*२९-५-२०१४
हाइकु का रंग पलाश के संग
*
करे तलाश
अरमानों की लाश
लाल पलाश
*
है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
*
दीन न हीन
हमेशा रहे तीन
ढाक के पात
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप
टेसू निष्पाप
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
*
उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
*
पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
*
मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित
करे पलाश
*
होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
*
पहरेदार
विरागी तपस्वी या
प्रेमी उदास
*
३०-५-२०१५ 
*
बहा पसीना
चमक उठी देह
जैसे नगीना।
*
करूँ वंदन
हे कलम के देव!
श्रद्धा सहित
*
वृष देव को
नमन मनुज का
सदा छाँव दो
*
'सलिल' सुमिर
प्रभु पद पद्मों को
बन भ्रमर
*
सब में रब
कभी न भूलना
रब के सब
*
ईंट-रेट का
मंदिर मनहर
ईश लापता
*
मितवा दूँ क्य?
क्षण भंगुर जग
भौतिक सारा
*
है उद्गाता
मनुज धरम की
भारत माता
*
हिंदी का फूल
मैंने दिया, उसने
अंग्रेजी फूल।
*
रचना काल १९९८
दर्द की धूप
जो सहे बिना झुलसे
वही है भूप
.
चाँदनी रात
चाँद को सुनाते हैं
तारे नग्मात
.
शोर करता
बहुत जो दरिया
काम न आता
.
गरजते हैं
जो बादल वे नहीं
बरसते हैं
.
बैर भुलाओ
वैलेंटाइन मना
हाथ मिलाओ
.
मौन तपस्वी
मलिनता मिटाये
नदी का पानी
.
नहीं बिगड़ा
नदी का कुछ कभी
घाट के कोसे
.
गाँव-गली के
दिल हैं पत्थर से
पर हैं मेरे
.
गले लगाते
हँस-मुस्काते पेड़
धूप को भाते
*
१४-२-२०१५

हाइकु मुक्तिका-
संजीव
नव दुर्गा का, हर नव दिन हो, मंगलकारी
नेह नर्मदा, जन-मन रंजक, संकटहारी
मैं-तू रहें न, दो मिल-जुलक,र एक हो सकें
सुविचारों के, सुमन सुवासित, जीवन-क्यारी
गले लगाये, दिल को दिल खिल, गीत सुनाये
हों शरारतें, नटखटपन मन,-रञ्जनकारी
भारतवासी, सकल विश्व पर, प्यार लुटाते
संत-विरागी, सत-शिव-सुंदर, छटा निहारी
भाग्य-विधाता, लगन-परिश्रम, साथ हमारे
स्वेद बहाया, लगन लगाकर, दशा सुधारी
पंचतत्व का, तन मन-मंदिर, कर्म धर्म है
सत्य साधना, 'सलिल' करे बन, मौन पुजारी
(वार्णिक हाइकु छन्द ५-७-५)
६-४-२०१६
***


हाइकु मुक्तिका
संजीव
*
आया वसंत, / इन्द्रधनुषी हुए / दिशा-दिगंत..
शोभा अनंत / हुए मोहित, सुर / मानव संत..
*
प्रीत के गीत / गुनगुनाती धूप / बनालो मीत.
जलाते दिए / एक-दूजे के लिए / कामिनी-कंत..
*
पीताभी पर्ण / संभावित जननी / जैसे विवर्ण..
हो हरियाली / मिलेगी खुशहाली / होगे श्रीमंत..
*
चूमता कली / मधुकर गुंजार / लजाती लली..
सूरज हुआ / उषा पर निसार / लाली अनंत..
*
प्रीत की रीत / जानकार न जाने / नीत-अनीत.
क्यों कन्यादान? / 'सलिल' वरदान / दें एकदंत..
***

हाइकु मुक्तक:
*
चंचला निशा, चाँदनी को चिढ़ाती, तारे हैं दंग.
पूर्णिमा भौजी, अमावस ननद, होनी है जंग.
चन्द्रमा भैया, चक्की-पाटों के बीच, बेबस पिसा
सूर्य ससुर, सास धूप नाराज, उतरा रंग
*
रवि फेंकता, मोहपाश गुलाबी, सैकड़ों कर
उषा भागती, मन-मन मुस्काती, बेताबी पर
नभ ठगा सा, दिशाएँ बतियातीं, वसुधा मौन-
चूं चूं गौरैया, शहनाई बजाती, हँसता घर
*
श्री वास्तव में, महिमामय कर, कीर्ति बढ़ाती.
करे अर्चना, ऋता सतत यश, सुषमा गाती.
मीनाक्षी सवि, करे लहर सँग, शत क्रीड़ाएँ
वर सुनीति, पथ बाधा से झट, जा टकराती..
 **
नेपाल में भूकंपजनित महाविनाश के पश्चात रचित
हाइकु सलिला:
संजीव
.
सागर माथा
नत हुआ आज फिर
देख विनाश.
.
झुक गया है
गर्वित एवरेस्ट
खोखली नीव
.
मनमानी से
मानव पराजित
मिटे निर्माण
.
अब भी चेतो
न करो छेड़छाड़
प्रकृति संग
.
न काटो वृक्ष
मत खोदो पहाड़
कम हो नाश
.
न हो हताश
करें नव निर्माण
हाथ मिलाएं.
.
पोंछने अश्रु
पीड़ितों के चलिए
न छोड़ें कमी
.
२६.४.२०१५
बघेली हाइकु
*
जिनखें हाथें
किस्मत के चाभी
बड़े दलाल
*
आम के आम
नेता करै कमाल
गोई के दाम
*
सुशांत-रिया
खबरचियन के
बाप औ' माई
*
लागत हय
लिपा पुता चिकन
बाहेर घर
*
बाँचै किताब
आँसू के अनुबाद
आम जनता
*
मालवी हाइकु
संजीव
*
मात सरसती!
हात जोड़ी ने थारा
करूँआरती।
*
नींद में सोयो
जागी ने घणो रोयो
फसल खोयो।
*
मालवी बोली
नरमदा का पाणी
मिसरी घोली।
*
नींद में सोयो
टूट गयो सपनो
पायो ने खोयो।
*
कदी नी चावां
बड़ा बंगला, चावां
रेवा-किनारा
*
बिना टेका के
राम भरोसे कोई
छत ने टिकी।
*
लिखणेवाळा!
बोठी न होने दीजे
कलमहुण।
*
भोजपुरी हाइकु: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
पावन भूमि / भारत देसवा के / प्रेरण-स्रोत.
भुला दिहिल / बटोहिया गीत के / हम कृतघ्न.
देश-उत्थान? / आपन अवदान? / खुद से पूछ.
अंगरेजी के / गुलामी के जंजीर / साँच साबित.
सुख के धूप / सँग-सँग मिलल / दुःख के छाँव.
नेह अबीर / जे के मस्तक पर / वही अमीर.
अँखिया खोली / हो गइल अंजोर / माथे बिंदिया.
भोर चिरैया / कानन में मिसरी / घोल गइल.
काहे उदास? / हिम्मत मत हार / करल प्रयास.
*
११-७-२०१० भोजपुरी हाइकु:
आपन त्रुटि
दोसरा माथे मढ़
जीव ना छूटी..
*
बिना बात के
माथा गरमाइल
केतना फीका?.
*
फनफनात
मेहरारू, मरद
हिनहिनात..
*
बांझो स्त्री के
दिल में ममता के
अमृत-धार..
*
धूप-छाँव बा
नजर के असर
छाँव-धूप बा..
*
तन एहर
प्यार-तकरार में
मन ओहर..
*
झूठ न होला
कवनो अनुभव
बोल अबोला..
*
सबुर दाढे
मेवा फरेला पर
कउनो हद?.
*
घर फूँक के
तमाशा देखल
समझदार?.
*
२-४-२०१० *
आपन बोली
आ ओकर सुभाव
मैया क लोरी.
*
खूबी-खामी के
कवनो लोकभासा
पहचानल.
*
तिरिया जन्म
दमन आ शोषण
चक्की पिसात.
*
बामनवाद
कुक्कुरन के राज
खोखलापन.
*
छटपटात
अउरत-दलित
सदियन से.
*
राग अलापे
हरियल दूब प
मन-माफिक.
*
गहरी जड़
देहात के जीवन
मोह-ममता.
*

२६-५-२०१३

मैथिली हाइकु
(त्रुटियों हेतु क्षमा प्रार्थना सहित)
१.
ई दुनिया छै
प्रभुक बनाओल
प्रेम स रहू
२.
लिट्टी-चोखा
मधुबनी पेंटिंग
मिथिला केर
३.
सभ सs प्यार
घृणा ककरो सय
नैई करब
४.
संपूर्ण क्रांति
जयप्रकाश बाबू
बिसरि गेल
५.
बिहारी जन
भगायल जैतई
दोसर राज?
६.
चलि पड़ल
विकासक राह प'
बिहारी बाबू
७.
चलै लागल
विकासक बयार
नीक धारणा
८.
हम्मर गाम
भगवाने के नाम
लSक चलब
९.
हाल-बेहाल
जनता परेशान
मँहगाई से
१०.
लोकतंत्र में
चुनावक तैयारी
बड़का बात
***
२२-२-२०१७

सरायकी हाइकु
*
लिखीज वेंदे
तकदीर दा लेख
मिसीज वेंदे
*
चीक-पुकार
दिल पत्थर दा
पसीज वेंदे
*
रूप सलोना
मेडा होश-हवास
वजीज वेंदे
*
दिल तो दिल
दिल आख़िरकार
बसीज वेंदे
*
कहीं बी जाते
बस वेंदे कहीं बी
लड़ीज वेंदे
*
दिल दी माड़ी
जे ढे अपणै आप
उसारी वेसूं
*
सिर दा बोझ
तमाम धंधे धोके
उसारी वेसूं
*
साड़ी चादर
जितनी उतने पैर
पसारी वेसूं
*
तेरे रस्ते दे
कण्डये पलकें नाल
बुहारी वेसूं
*
रात अँधेरी
बूहे ते दीवा वाल
रखेसी कौन?
*
लिखेसी कौन
रेगिस्तान दे मत्थे
बारिश गीत?
*
खिड़दे हिन्
मौज बहारां फुल्ल
तैडे ख़ुशी दे
*
ज़िंदणी तो हां
पर मौत मिलदी
मंगण नाल
*
मैं सुकरात
कोइ मैं कूं पिलेसी
ज़हर वी न
*
तलवार दे
कत्ल कर दे रहे
नाल आदमी
*
बणेसी कौन
घुँघरू सारंगी तों
लोहे दे तार?
*
कौन करेंसी
नीर-खीर दा फर्क
हंस बगैर?
*
खून चुसेंदी
हे रखसाणी रात
जुल्मी सदियाँ
*
नवी रौशनी
डेखो दे चेहरे तों
घंड लहेसी
*
रब जाण दे
केझीं लाचारी हई?
कुछ न पुच्छो
*
आप छोड़ के
अपणे वतन कूं
रहेसी कौन?
*
खैर-खबर
जिन्हां यार ते पुछ
खुशकिस्मत
*
अलेसी कौन?
कबर दा पत्थर
मैं सुनसान
*
वंडेसी कौन?
वै दा दर्द जित्थां
अपणी पई
*
मरण बाद
याद करेसी कौन
दुनिया बिच?
*
झूठ-सच्च दे
कोइ न जाणे लगे
मुखौटे हिन्
*
संजीव
१८-१२-२०१९

लेख 
हाइकु चर्चा : १.
संजीव
*
हाइकु क्या है?
हाइकु सामान्यतः ३ पंक्तियों की वह लघु काव्य रचना है जिसमें सामान्यतः क्रमश: ५-७-५ ध्वनियों का प्रयोग कर एक अनुभूति या छवि की अभिव्यक्ति की जाती है। हिंदी को त्रिपदिक छंदों की विरासत अपभृंश और संस्कृत से मिली है। वर्तमान में जापानी का हाइकु हिंदी साहित्य में हिंदी के संस्कार और भारतीयता का कलेवर लेकर लोकप्रिय हो रहा है।
हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती हैं। हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से प्रेरित होते हैं। मूलतः जापानी कवियों द्वारा विकसित हाइकु काव्यविधा अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ द्वारा ग्रहण की गयी।
पाश्चात्य काव्य से भिन्न हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्य, छंद बद्धता या काफ़िया नहीं होता।
हाइकु को असमाप्त काव्य चूँकि हर हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा होती है।
हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ (haikai no renga) सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है। 'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम का संकेत करता है। हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा के नैरन्तर्य बनाये रखता है।
समकालिक हाइकुकार कम शब्दों से लघु काव्य रचनाएँ करते हैं. ३-५-३ सिलेबल के लघु हाइकु भी रचे जाते हैं।
हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना:
पारम्परिक जापानी हाइकु १७ ध्वनियों का समुच्चय है जो ५-७-५ ध्वनियों की ३ पदावलियों में विभक्त होते हैं। अंग्रेजी के कवि इन्हें सिलेबल (लघुतम उच्चरित ध्वनि) कहते हैं। समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब इस संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं। अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते हैं जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं। इसलिए 'हाइकु चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारना है' की पारम्परिक धारणा से हटकर, १७ सिलेबल का अंग्रेजी हाइकु १७ सिलेबल के जापानी हाइकु की तुलना में बहुत लंबा होता है। ५-७-५ सिलेबल का बंधन बच्चों को विद्यालयों में पढ़ाए जाने के बावजूद अंग्रेजी हाइकू लेखन में प्रभावशील नहीं है। हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है। अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है। अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें:
Snow in my shoe मेरे जूते में बर्फ
Abandoned परित्यक्त
Sparrow's nest गौरैया-नीड़
२. वैचारिक सन्निकटता:
हाइकु में दो विचार सन्निकट हों: जापानी शब्द 'किरु' अर्थात 'काटना' का आशय है कि हाइकु में दो सन्निकट विचार हों जो व्याकरण की दृष्टि से स्वतंत्र तथा कल्पना प्रवणता की दृष्टि से भिन्न हों। सामान्यतः जापानी हाइकु 'किरेजी' (विभाजक शब्द) द्वारा विभक्त दो सन्निकट विचारों को समाहित कर एक सीधी पंक्ति में रचे जाते हैं। किरेजी एक ध्वनि पदावली (वाक्यांश) के अंत में आती है। अंग्रेजी में किरेजी की अभिव्यक्ति डैश '-' से की जाती है. बाशो के निम्न हाइकु में दो भिन्न विचारों की संलिप्तता देखें:
how cool the feeling of a wall against the feet — siesta
कितनी शीतल दीवार की अनुभूति पैर के विरुद्ध
आम तौर पर अंग्रेजी हाइकु ३ पंक्तियों में रचे जाते हैं। २ सन्निकट विचार (जिनके लिये २ पंक्तियाँ ही आवश्यक हैं) पंक्ति-भंग, विराम चिन्ह अथवा रिक्त स्थान द्वारा विभक्त किये जाते हैं। अमेरिकन कवि ली गर्गा का एक हाइकु देखें-
fresh scent- ताज़ा सुगंध
the lebrador's muzzle लेब्राडोर की थूथन
deepar into snow गहरे बर्फ में.
सारतः दोनों स्थितियों में, विचार- हाइकू का दो भागों में विषयांतर कर अन्तर्निहित तुलना द्वारा रचना के आशय को ऊँचाई देता है। इस द्विभागी संरचना की प्रभावी निर्मिति से दो भागों के अंतर्संबंध तथा उनके मध्य की दूरी का परिहार हाइकु लेखन का कठिनतम भाग है।
३. विषय चयन और मार्मिकता:
पारम्परिक हाइकु मनुष्य के परिवेश, पर्यावरण और प्रकृति पर केंद्रित होता है। हाइकु को ध्यान की एक विधि के रूप में देखें जो स्वानुभूतिमूलक व्यक्तिनिष्ठ विश्लेषण या निर्णय आरोपित किये बिना वास्तविक वस्तुपरक छवि को सम्प्रेषित करती है। जब आप कुछ ऐसा देखें या अनुभव करे जो आपको अन्यों को बताने के लिए प्रेरित करे तो उसे 'ध्यान से देखें', यह अनुभूति हाइकु हेतु उपयुक्त हो सकती है। जापानी कवि क्षणभंगुर प्राकृतिक छवियाँ यथा मेंढक का तालाब में कूदना, पत्ती पर जल वृष्टि होना, हवा से फूल का झुकना आदि को ग्रहण व सम्प्रेषित करने के लिये हाइकु का उपयोग करते हैं। कई कवि 'गिंकगो वाक' (नयी प्रेरणा की तलाश में टहलना) करते हैं आधुनिक हाइकु प्रकृति से परे हटकर शहरी वातावरण, भावनाओं, अनुभूतियों, संबंधों, उद्वेगों, आक्रोश, विरोध, आकांक्षा, हास्य आदि को हाइकु की विषयवस्तु बना रहे हैं।
४. मौसमी संदर्भ:
जापान में 'किगो' (मौसमी बदलाव, ऋतु परिवर्तन आदि) हाइकु का अनिवार्य तत्व है। मौसमी संदर्भ स्पष्ट या प्रत्यक्ष (सावन, फागुन आदि) अथवा सांकेतिक या परोक्ष (ऋतु विशेष में खिलने वाले फूल, मिलनेवाले फल, मनाये जाने वाले पर्व आदि) हो सकते हैं. फुकुडा चियो नी रचित हाइकु देखें:
morning glory! भोर की दमक
the well bucket-entangled, कूप - बाल्टी गठबंधन
I ask for water मैंने पानी माँगा
५. विषयांतर:
हाइकु में दो सन्निकट विचारों की अनिवार्यता को देखते हुए चयनित विषय के परिदृश्य को इस प्रकार बदलें कि रचना में २ भाग हो सकें। जैसे लकड़ी के लट्ठे पर रेंगती दीमक पर केंद्रित होते समय उस छवि को पूरे जंगल या दीमकों के निवास के साथ जोड़ें। सन्निकटता तथा संलिप्तता हाइकु को सपाट वर्णन के स्थान पर गहराई तथा लाक्षणिकता प्रदान करती हैं. रिचर्ड राइट का यह हाइकु देखें:
A broken signboard banging टूटा साइनबोर्ड तड़का
In the April wind. अप्रैल की हवाओं में
Whitecaps on the bay. खाड़ी में झागदार लहरें
६. संवेदी भाषा-सूक्ष्म विवरण:
हाइकु गहन निरीक्षणजनित सूक्ष्म विवरणों से निर्मित और संपन्न होता है। हाइकुकार किसी घटना को साक्षीभाव (तटस्थता) से देखता है और अपनी आत्मानुभूति शब्दों में ढालकर अन्यों तक पहुँचाता है। हाइकु का विषय चयन करने के पश्चात उन विवरणों का विचार करें जिन्हें आप हाइकु में देना चाहते हैं। मस्तिष्क को विषयवस्तु पर केंद्रित कर विशिष्टताओं से जुड़े प्रश्नों का अन्वेषण करें। जैसे: अपने विषय के सम्बन्ध क्या देखा? कौन से रंग, संरचना, अंतर्विरोध, गति, दिशा, प्रवाह, मात्रा, परिमाण, गंध आदि तथा अपनी अनुभूति को आप कैसे सही-सही अभिव्यक्त कर सकते हैं?
७. वर्णनात्मक नहीं दृश्यात्मक
हाइकु-लेखन वस्तुनिष्ठ अनुभव के पलों का अभिव्यक्तिकरण है, न कि उन घटनाओं का आत्मपरक या व्यक्तिपरक विश्लेषण या व्याख्या। हाइकू लेखन के माध्यम से पाठक/श्रोता को घटित का वास्तविक साक्षात कराना अभिप्रेत है न कि यह बताना कि घटना से आपके मन में क्या भावनाएं उत्पन्न हुईं। घटना की छवि से पाठक / श्रोता को उसकी अपनी भावनाएँ अनुभव करने दें। अतिसूक्ष्म, न्यूनोक्ति (घटित को कम कर कहना) छवि का प्रयोग करें। यथा: ग्रीष्म पर केंद्रित होने के स्थान पर सूर्य के झुकाव या वायु के भारीपन पर प्रकाश डालें। घिसे-पिटे शब्दों या पंक्तियों जैसे अँधेरी तूफानी रात आदि का उपयोग न कर पाठक / श्रोता को उसकी अपनी पर्यवेक्षण उपयोग करने दें। वर्ण्य छवि के माध्यम से मौलिक, अन्वेषणात्मक भाषा / शंब्दों की तलाश कर अपना आशय सम्प्रेषित करें। इसका आशय यह नहीं है कि शब्दकोष लेकर अप्रचलित शब्द खोजकर प्रयोग करें अपितु अपने जो देखा और जो आप दिखाना चाहते हैं उसे अपनी वास्तविक भाषा में स्वाभाविकता से व्यक्त करें।
८. प्रेरित हों: महान हाइकुकारों की परंपरा प्रेरणा हेतु भ्रमण करना है। अपने चतुर्दिक पदयात्रा करें और परिवेश से समन्वय स्थापित करें ताकि परिवेश अपनी सीमा से बाहर आकर आपसे बात करता प्रतीत हो ।
आज करे सो अब: कागज़-कलम अपने साथ हमेशा रखें ताकि पंक्तियाँ जैसे ही उतरें, लिख सकें। आप कभी पूर्वानुमान नहीं कर सकते कि कब जलधारा में पाषाण का कोई दृश्य, सुरंग पथ पर फुदकता चूहा या सुदूर पहाड़ी पर बादलों की टोपी आपको हाइकू लिखने के लिये प्रेरित कर देगी।
पढ़िए-बढ़िए: अन्य हाइकुकारों के हाइकू पढ़िए। हाइकु के रूप विधान की स्वाभाविकता, सरलता, सहजता तथा सौंदर्य ने विश्व की अनेक भाषाओँ में सहस्त्रोंको लिखने की प्रेरणा दी है।अन्यों के हाइकू पढ़ने से आपके अंदर छिपी प्रतिभा स्फुरित तथा गतिशील हो सकती है।
९. अभ्यास: किसी भी अन्य कला की तरह ही हाइकू लेखन कला भी आते-आते ही आती है। सर्वकालिक महानतम हाइकुकार बाशो के अनुसार हर हाइकु को हजारों बार जीभ पर दोहराएं, हर हाइकू को कागज लिखें, लिखें, फिर-फिर लिखें जब तक कि उसका निहितार्थ स्पष्ट न हो जाए। स्मरण रहे कि आपको ५-७-५ सिलेबल के बंधन में कैद नहीं होना है। वास्तविक साहित्यिक हाइकु में 'किगो' द्विभागी सन्निकट संरचना और प्राथमिक तौर पर संवादी छवि होती ही है।
१०. संवाद: हाइकू के गंभीर और सच्चे अध्येता हेतु विश्व की विविध भाषाओँ के हाइकुकारों के विविध मंचों, समूहों, संस्थाओं और पत्रिकाओं से जुड़ना आवश्यक है ताकि वे अधुनातन हाइकु शिल्प और शैली के विषय में अद्यतन जानकारी पा सकें।
हाइकु शिल्प का एक महत्त्वपूर्ण अंग है "किरेजि"। "किरेजि" का स्पष्ट अर्थ देना कठिन है, शाब्दिक अर्थ है "काटने (अलग करने) वाला अक्षर"। इसे हिंदी में ''वाचक शब्द'' कहा जा सकता है। "किरेजि" जापानी कविता में शब्द-संयम की आवश्यकता से उत्पन्न रूढ़ि-शब्द है जो अपने आप में किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक न होते हुए भी पद-पूर्ति में सहायक होकर कविता के सम्पूर्णार्थ में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है। सोगि (१४२०-१५०२) के समय में १८ किरेजि निश्चित हो चुके थे। समय के साथ इनकी संख्या बढ़ती रही। महत्त्वपूर्ण किरेजि है- या, केरि, का ना, और जो। "या" कर्ता का अथवा अहा, अरे, अच्छा आदि का बोध कराता है।
यथा-
आरा उमि या / सादो नि योकोतोओ / आमा नो गावा [ "या" किरेजि]
अशांत सागर / सादो तक फैली है / नभ गंगा
***
सहायक पुस्तक: जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता, डा० सत्यभूषण वर्मा, पृष्ठ ५५-५६
*** 
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ई मेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ९४२५१८३२४४ ।
विमर्श :
आइये हाइकू पर बातचीत करें।
हाइकु एक त्रिपदिक छंद है। भारत में संस्कृत, अपभ्रंश और अन्य भाषा-बोलिओं में त्रिपदिक छंदों की सुदीर्घ परंपरा रही है। भारत से बौद्ध धर्म के साथ भाषा और साहित्य जापान गया। जापान में त्रिपदिक छंद हाइकु के रूप में विक्सित हुआ।
हाइकु की रचना करना बहुत सरल और बहुत कठिन है।
हाइकु क्या है?
हाइकु केवल ३ पंक्तियों में लिखी जानेवाली कविता है।
हाइकु का विषय क्या है?
मूलत: हाइकु प्रकृति से संबंधित होता है।
हाइकु कैसे लिखें?
हाइकु लिखने के लिए अपने आसपास की प्रकृति का अवलोकन करें। मन में उठ रहे विचारों को क्रमबद्ध करें। जिस तरह गुलाब की बगिया से टोकने भर फूल हुए उससे कुछ बूँद इत्र निकाला जाता है, वैसे ही विचारों को काम से काम आकर में व्यक्त करना है। हाइकु तीन पंक्तियों में क्रमशः ५-७-५ उच्चार में अपनी बात कही जाती है।
हाइकु लिखें
दूसरों से अलग
देखें औ' दिखें
*
जापानी छंद
पाँच सात औ' पाँच
देता आनंद
*
सलिल धार
कलकल प्रवाह
मौन निहार
*
त्रिपदी छंद
उच्चार है आधार
बागे-बहार
*
श्री वास्तव में
जो धारण करता
श्रीवास्तव है
*
मन का मीत
मन ही मन करे
मन से प्रीत
*
काहे को रोना?
रखें सफाई- दूरी
हारे कोरोना
***
हाइकु
*
माँ सरस्वती!


अमल-विमल मति
दे वरदान।
*
हंसवाहिनी!
कर भव से पार
वीणावादिनी।
*
श्वेत वसना !
मन मराल कर
कालिमा हर।
*
ध्वनि विधात्री!
स्वर-सरगम दे
गम हर ले।
*
हे मनोरमा!
रहो सदय सदा
अभयप्रदा।
*
मैया! अंकित
छवि मन पर हो
दैवी वंदित।
*
पत्थर से हर शहर में मिलते ''मकां'' हजारों
मैं ढूँढ - ढूँढ हारा, ''घर'' एक नहीं मिलता।
इस शे'र में 'मकान' और 'घर' का अंतर स्पष्ट है। मकान अर्थात ढाँचा, घर अर्थात उसके साथ जुड़े मनोभाव, इन्हें मनुष्य के तन और मन से भी समझा जा सकता है। जब हाइकु को केवल ५-७-५ वर्ण समझ लिया जाता है तो हाइकु का ''मकान'' बनता है, जब हाइकु में अन्तर्निहित मनोभावों को भी ध्यान में रखा जाता है तो हाइकु का ''घर'' बनता है।
प्रकृति के सान्निध्य में चन्द्रमा और पानी देखकर लिखे गए निम्न दो हाइकु देखें -
चाँद व पानी
हैं कितने सुंदर
पूर्णत: शांत।
*
पानी में चाँद
टूट कर जुड़ता
फिर भी वहीं।
*
एक दृश्य दो कथ्य, हाइकु की आत्मा किसमें है? आप खुद विचार करें।
कोशिश करें
न होगी कभी हार
विजय वरें।
*
नगरवधू
न होकर भी है क्यों
पूछे वैशाली?
****

मुक्त उड़ान: कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु और सम्भावनाओं की आहट
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण: मुक्त उड़ान, हाइकु संग्रह, कुमार गौरव अजितेंदु, आईएसबीएन ९७८-८१-९२५९४६-८-२ प्रथम संस्करण २०१४, पृष्ठ १०८, मूल्य १००रु., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, शुक्तिका प्रकाशन ५०८ मार्किट कॉम्प्लेक्स, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३, हाइकुकार संपर्क शाहपुर, ठाकुरबाड़ी मोड़, दाउदपुर, दानापुर कैंट, पटना ८०१५०२ चलभाष ९६३१६५५१२९]
*
विश्ववाणी हिंदी का छंदकोष इतना समृद्ध और विविधतापूर्ण है कि अन्य कोई भी भाषा उससे होड़ नहीं ले सकती। देवभाषा संस्कृत से प्राप्त छांदस विरासत को हिंदी ने न केवल बचाया-बढ़ाया अपितु अन्य भाषाओँ को छंदों का उपहार (उर्दू को बहरें/रुक्न) दिया और अन्य भाषाओं से छंद ग्रहण कर (पंजाबी से माहिया, अवधी से कजरी, बुंदेली से राई-बम्बुलिया, मराठी से लावणी, अंग्रेजी से आद्याक्षरी छंद, सोनेट, कपलेट, जापानी से हाइकु, बांका, तांका, स्नैर्यू आदि) उन्हें भारतीयता के ढाँचे और हिंदी के साँचे ढालकर अपना लिया।

द्विपदिक (द्विपदी, दोहा, रोला, सोरठा, दोसुखने आदि) तथा त्रिपदिक छंदों (कुकुभ, गायत्री, सलासी, माहिया, टप्पा, बंबुलियाँ आदि) की परंपरा संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाओं में चिरकाल से रही है। एकाधिक भाषाओँ के जानकार कवियों ने संस्कृत के साथ पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोकभाषाओं में भी इन छंदों का प्रयोग किया। विदेशों से लघ्वाकारी काव्य विधाओं में ३ पंक्ति के छंद (हाइकु, वाका, तांका, स्नैर्यू आदि) भारतीय भाषाओँ में विकसित हुए।
हिंदी में हाइकु का विकास स्वतंत्र वर्णिक छंद के साथ हाइकु-गीत, हाइकु-मुक्तिका, हाइकु खंड काव्य के रूप में भी हुआ है। वस्तुतः हाइकु ५-७-५ वर्णों नहीं, ध्वनि-घटकों (सिलेबल) से निर्मित है जिसे हिंदी भाषा में 'वर्ण' कहा जाता है।
कैनेथ यशुदा के अनुसार हाइकु का विकासक्रम 'रेंगा' से 'हाइकाइ' फिर 'होक्कु' और अंत में 'हाइकु' है। भारत में कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी जापान यात्रा के पश्चात् 'जापान यात्री' में चोका, सदोका आदि शीर्षकों से जापानी छंदों के अनुवाद देकर वर्तमान 'हाइकु' के लिये द्वार खोला। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् लौटे अमरीकियों-अंग्रेजों के साथ हाइकु का अंग्रेजीकरण हुआ। छंद-शिल्प की दृष्टि से हाइकु त्रिपदिक, ५-७-५ में १७ अक्षरीय वर्णिक छंद है। उसे जापानी छंद तांका / वाका की प्रथम ३ पंक्तियाँ भी कहा गया है। जापानी समीक्षक कोजी कावामोटो के अनुसार कथ्य की दृष्टि से तांका, वाका या रेंगा से उत्पन्न हाइकु 'वाका' (दरबारी काव्य) के रूढ़, कड़े तथा आम जन-भावनाओं से दूर विषय-चयन (ऋतु परिवर्तन, प्रेम, शोक, यात्रा आदि से उपजा एकाकीपन), शब्द-साम्य को महत्व दिये जाने तथा स्थानीय-देशज शब्दों का करने की प्रवृत्ति के विरोध में 'हाइकाइ' (हास्यपरक पद्य) के रूप में आरंभ हुआ जिसे बाशो ने गहनता, विस्तार व ऊँचाइयाँ हास्य कविता को 'सैंर्यु' नाम से पृथक पहचान दी। बाशो के अनुसार संसार का कोई भी विषय हाइकु का विषय हो सकता है।
शुद्ध हाइकु रच पाना हर कवि के वश की बात नहीं है। यह सूत्र काव्य की तरह कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्त करने की काव्य-साधना है। ३ अन्य जापानी छंदों तांका (५-७-५-७-७), सेदोका (५-७-७-५-७-७) तथा चोका (५-७, ५-७ पंक्तिसंख्या अनिश्चित) में भी ५-७-५ ध्वनिघटकों का संयोजन है किन्तु उनके आकारों में अंतर है।
छंद संवेदनाओं की प्रस्तुति का वाहक / माध्यम होता है। कवि को अपने वस्त्रों की तरह रचना के छंद-चयन की स्वतंत्रता होती है। हिंदी की छांदस विरासत को न केवल ग्रहण अपितु अधिक समृद्ध कर रहे हस्ताक्षरों में से एक कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु इस त्रिपदिक छंद के ५-७-५ वर्णिक रूप की रुक्ष प्रस्तुति मात्र नहीं हैं, वे मूल जापानी छंद का हिंदीकरण भी नहीं हैं, वे अपने परिवेश के प्रति सजग तरुण-कवि मन में उत्पन्न विचार तरंगों के आरोह-अवरोह की छंदानुशासन में बँधी-कसी प्रस्तुति हैं।
अजीतेंदु के हाइकु व्यक्ति, देश, समाज, काल के मध्य विचार-सेतु बनाते हैं। छंद की सीमा और कवि की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का ताल-मेल भावों और कथ्य के प्रस्तुतीकरण को सहज-सरस बनाता है। शिल्प की दृष्टि से अजीतेंदु ने ५-७-५ वर्णों का ढाँचा अपनाया है। जापानी में यह ढाँचा (फ्रेम) सामने तो है किन्तु अनिवार्य नहीं। बाशो ने १९ व २२ तथा उनके शिष्यों किकाकु ने २१, बुशोन ने २४ ध्वनि घटकों के हाइकु रचे हैं। जापानी भाषा पॉलीसिलेबिक है। इसकी दो ध्वनिमूलक लिपियाँ 'हीरागाना' तथा 'काताकाना' हैं। जापानी भाषा में चीनी भावाक्षरों का विशिष्ट अर्थ व महत्व है। हिंदी में हाइकु रचते समय हिंदी की भाषिक प्रकृति तथा शब्दों के भारतीय परिवेश में विशिष्ट अर्थ प्रयुक्त किये जाना सर्वथा उपयुक्त है। सामान्यतः ५-७-५ वर्ण-बंधन को मानने
अजितेन्दु के हाइकु प्राकृतिक सुषमा और मानवीय ममता के मनोरम चित्र प्रस्तुत करते हैं। इनमें सामयिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति है। ये पाठक को तृप्त न कर आगे पढ़ने की प्यास जगाते हैं। आप पायेंगे कि इन हाइकुओं में बहुत कुछ अनकहा है किन्तु जो-जितना कहा गया है वह अनकहे की ओर आपके चिंतन को ले जाता है। इनमें प्राकृतिक सौंदर्य- रात झरोखा / चंद्र खड़ा निहारे / तारों के दीप, पारिस्थितिक वैषम्य- जिम्मेदारियाँ / अपनी आकांक्षाएँ / कशमकश, तरुणोचित आक्रोश- बन चुके हैं / दिल में जमे आँसू / खौलता लावा, कैशोर्य की जिज्ञासा- जीवन-अर्थ / साँस-साँस का प्रश्न / क्या दूँ जवाब, युवकोचित परिवर्तन की आकांक्षा- लगे जो प्यास / माँगो न कहीं पानी / खोद लो कुँआ, गौरैया जैसे निरीह प्राणी के प्रति संवेदना- विषैली हवा / मोबाइल टावर / गौरैया लुप्त, राष्ट्रीय एकता- गाँव अग्रज / शहर छोटे भाई / बेटे देश के, राजनीति के प्रति क्षोभ- गिद्धों ने माँगी / चूहों की स्वतंत्रता / खुद के लिए, आस्था के स्वर- धुंध छँटेगी / मौसम बदलेगा / भरोसा रखो, आत्म-निरीक्षण, आव्हान- उठा लो शस्त्र / धर्मयुद्ध प्रारंभ / है निर्णायक, पर्यावरण प्रदूषण- रोक लेता है / कारखाने का धुँआ / साँसों का रास्ता, विदेशी हस्तक्षेप - देसी चोले में / विदेशी षडयंत्र / घुसे निर्भीक, निर्दोष बचपन- सहेजे हुए / मेरे बचपन को / मेरा ये गाँव, विडम्बना- सूखा जो पेड़ /जड़ों की थी साजिश / पत्तों का दोष, मानवीय निष्ठुरता- कौओं से बचा / इंसानों ने उजाड़ा / मैना का नीड़ अर्थात जीवन के अधिकांश क्षेत्रों से जुड़ी अभिव्यक्तियाँ हैं।

अजितेन्दु के हाइकु भारतीय परिवेश और समाज की समस्याओं, भावनाओं व चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनमें प्रयुक्त बिंब, प्रतीक और शब्द सामान्य जन के लिये सहज ग्रहणीय हैं। इन हाइकुओं के भाषा सटीक-शुद्ध है। अजितेन्दु का यह प्रथम हाइकु संकलन उनके आगामी रचनाकर्म के प्रति आश्वस्त करता है।
३०.३.२०१४
____________________
लेखक: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८


नवगीत

नवगीत :
*
येन-केन 
गद्दी पाली पर 
तुमको नेता,
नहीं सुनाई देता है क्या 
चीत्कार वह,
जिसने जन की 
रातों की है नींद उड़ा दी?
*
जो घटना था 
घटित हो गया,
बुरे स्वप्न सम। 
मरते थे ज्यादा,
बचते थे जीवित नित कम।
आँख फेरकर 
सच्चाई से 
कहे प्रशासन -
चले गए दो-चार 
हमें इसका बेहद गम। 
भक्त करें 
जयकार नित्य पर, 
कहो हाथ धर
अपने हृद पर  
नदी किनारे 
लाशें मिलना 
नहीं दिखाई देता है क्या?
गिद्ध भोज वह 
बेच ओषजन।   
येन-केन 
गद्दी पाली पर 
तुमको नेता,
नहीं सुनाई देता है क्या 
चीत्कार वह,
जिसने जन की 
रातों की है नींद उड़ा दी?
*
जो मिटना था 
नहीं मिट सका,
रोग बढ़ रहा 
भेस बदलकर। 
माल दबाकर,
दाम बढ़ाकर बेच रहे हैं
औषध, बिस्तर 
ऑक्सीजन भी;
नर संहारी।    
करता शासन -
अभिनंदन उस अस्पताल का 
जिसने लूट लिया रोगी को। 
पत्रकार भी  
आँखें मूँदे, 
हाँ में हाँ कर 
लाभ कमाते।   
जगह नहीं है, 
लकड़ी गायब   
शमशानों में  
नहीं दिखाई देता है क्या?    
येन-केन 
गद्दी पाली पर 
तुमको नेता,
नहीं सुनाई देता है क्या 
चीत्कार वह,
जिसने जन की 
रातों की है नींद उड़ा दी?
*
रोजी रही न,  
रोटी गायब,
घर उजड़े हैं। 
अपने खोकर ,
मूक हुआ मन, आँखें हैं नम।
मौत हुई कोरोना से 
सच नहीं मानते,
लेकिन देयक में वसूलते 
दाम दवाई-परामर्श के  
वे डॉक्टर भी 
आए नहीं जी कभी देखने। 
नहीं दिखाई देता है क्या?
बीमावाले बना बहाने  
बीमित धन भी  
नहीं दे रहे। 
नेता-अफसर 
तनिक न चिंतित 
अपनी पीठ ठोंकते है खुद। 
येन-केन 
गद्दी पाली पर 
तुमको नेता,
नहीं सुनाई देता है क्या 
चीत्कार वह,
जिसने जन की 
रातों की है नींद उड़ा दी?
२-६-२०१५ 
*

नवगीत पंकज परिमल

नवगीत
।।सब जीवित जन थे।।
पंकज परिमल
-------------------------------
ओ संजय!
क्यों कहते--
कितने मरे पक्ष के,
कितने प्रतिपक्षी थे,
पर सब जीवित जन थे
कुछ कछुए की ढालों से
सज्जित साधारण
मरे पदातिक होकर
जो अग्रिम पाँतों में
कुछ हाथी के हौदे पर
बैठे ही लुढ़के
कुछ घोड़ों की वल्गाएँ
थामे दाँतों में
रथी मरे
सारथी मरे
कुछ कुचल-पिचलकर
कुछ को मरने का भय था
कुछ शंकित मन थे
कितने शीश कटे
कितने कर
कितनी टाँगें
संजय!
अब तो छोड़ो
इस सब का विश्लेषण
पिघलेंगे कब
धृतराष्ट्रों के मन इस सब से
क्यों कह कथा-कहानी
करते रोम-प्रहर्षण
निज थे
पर थे
या घुन चक्की के पाटों के
अपने कम
निज तिय-बालक के
वे जीवन थे
मुँह से झाग छोड़ते
जो घोड़े लोटे थे
कभी न उठने के निमित्त
प्राणों को तजकर
उनने भी तो
गीता के उपदेश सुने थे
पर मरना था उनको
हर युद्धक क्षण जीकर
कितने बच्चे
अकस्मात् ही बड़े हो गए
कितने असमय बूढ़े-से
होते युवजन थे
धृतराष्टों से कहो
कि कितनी हैं विधवाएँ
जिनकी आँखों के आँसू तक
सूख गए हैं
जो खपच्चियों की कमान पर
तृण साधे थे
उन बच्चों के सभी निशाने
चूक गए हैं
भीमकाय तो
आशीषों की झड़ी लगाते
पर इस माटी के
मारक-घातक
कन-कन थे
यम को पथ दिखलाने को
कितने ही पुरजन
हाथों में अपने
यमदीपक ले फिरते थे
अब अकालमृत्यु से
उन्हें डर लग जाता है
जो जीवन भी
ज़्यादा जीने से डरते थे
रिपु या हितू मित्र की
हर पहचान मिटी है
कितने तपते जेठों की
आँखों सावन थे
01.06.2021
*

गीत

गीत 

*
निर्मल शुक्ल
न रही चाँदनी
श्याम गुप्त है चाँद
*
रोजगार बिन
लौट रहे हैं मेघ
विवश निज गाँव
पवन वेग से
आकर कुचले
देह, छीन ले ठाँव
संध्या सिंह
लॉकडाउन में
भूखा, सिसके माँद
*
छप्पन इंची
छाती ठोंके सूरज
मन की बात
करे - घरों-घर
राशन-रुपया
बँटवाया गत रात
अरथी निकली
सत्य व्रतों की
श्वास वनों को फाँद
*
फिर नीरव को
कर्ज दिलाने
राज कुँवर बेचैन
चारण पत्रकार
हैं नत शिर
भाट वाक् अरु नैन
हुआ असहमत
जो सूरज से
वही भरेगा डाँड
***
२-६-२०२०

अग्र सदा रहता सुखी

शोध परक लेख :
अग्र सदा रहता सुखी
आचार्य​ संजीव वर्मा 'सलिल'
​संपर्क​- 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
*​
अग्र सदा रहता सुखी, अगड़ा कहते लोग
पृष्ठ रहे पिछड़ा 'सलिल', सदा मनाता सोग
सब दिन जात न एक समान
मानव संस्कृति का इतिहास अगड़ों और पिछड़ों की संघर्ष कथा है. बाधा और संकट हर मनुष्य के जीवन में आते हैं, जो जूझकर आगे बढ़ गया वह 'अगड़ा' हुआ. इसके विपरीत जो हिम्मत हारकर पीछे रह गया 'पिछड़ा' हुआ. अवर्तमान राजनीति में अगड़ों और पिछड़ों को एक दूसरे का विरोधी बताया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है. वास्तव में वे एक दूसरे के पूरक हैं. आज का 'अगड़ा' कल 'पिछड़ा' और आज का 'पिछड़ा' कल 'अगड़ा' हो सकता है. इसीलिए कहते हैं- 'सब दिन जात न एक समान'.
मन के हारे हार है
जो मनुष्य भाग्य भरोसे बैठा रहता है उसे वह नहीं मिलता जिसका वह पात्र है. संस्कृत का एक श्लोक है-
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथै:
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:
.
उद्यम से ही कार्य सिद्ध हो, नहीं मनोरथ है पर्याप्त
सोते सिंह के मुख न घुसे मृग, सत्य वचन यह मानें आप्त
लोक में दोहा प्रचलित है-
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
अग्रधारा लक्ष्य पाती
जो​ मन से नहीं हारते और निरंतर प्रयास रात होकर आगे आते हैं या नेतृत्व करते हैं वे ही समाज की अग्रधारा में कहे जाते हैं. हममें से हर एक को अग्रधारा में सम्मिलित होने का प्रयास करते रहना चाहिए. किसी धारा में असंख्य लहरें, लहर में असंख्य बिंदु और बिंदु में असंख्य परमाणु होते हैं. यहाँ सब अपने-अपने प्रयास और पुरुषार्थ से अपना स्थान बनाते हैं, कोइ किसी का स्थान नहीं छीनता न किसी को अपना स्थान देता है. इसलिए न तो किसी से द्वेष करें न किसी के अहसान के तले दबकर स्वाभिमान गँवायें.
अग्रधारा लक्ष्य पाती, पराजित होती नहीं
कौन​ आगे कौन पीछे, देख ​पथ खोती नहीं
​बहुउपयोगी अग्र है
जो​ आगे रहेगा वह पीछे वालों का पाठ-प्रदर्शक या मार्गदर्शक अपने आप बन जाता है. उसके संघर्ष, पराक्रम, उपलब्धि, जीवट, और अनुकरण अन्यों के लिए प्रेरक बन जाते हैं. इस तरह वह चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने अन्यों के साथ और अन्य उसके साथ जुड़ जाते हैं.
बहुउपयोगी अग्र है, अन्य सदा दें साथ
बढ़ा उसे खुद भी बढ़ें, रखकर ऊँचा माथ
अग्र साथ दे सभी का
आगे​ जाने के लिए आवश्यक यह है कि पीछे वालों को साथ लिया जाय तथा उनका साथ दिया जाय. कुशल नायक 'काम करो' नहीं कहता, वह 'आइये, काम करें' कहकर सबको साथ लेकर चलता और मंजिल वार्ता है.
अग्र साथ दे सभी का, रखे सभी को संग
वरण​ सफलता का करें, सभी जमे तब रंग
अन्य स्थानों की तरह शब्दकोष में भी अग्रधारा आगरा-स्थान ग्रहण करती है. ​आइये आगरा और अग्र के साथियों से मिलें-
​​अग्र- वि. सं. अगला, पहला, मुख्य, अधिक. अ. आगे. पु. अगला भाग, नोक, शिखर, अपने वर्ग का सबसे अच्छा पदार्थ, बढ़-चढ़कर होना, उत्कर्ष, लक्ष्य आरंभ, एक तौल, आहार की के मात्रा, समूह, नायक.
​​अग्रकर-पु. हाथ का अगला हिस्सा, उँगली, पहली किरण​.
​​अग्र​ग- पु. नेता, नायक, मुखिया.
​​अग्र​गण्य-वि. गिनते समय प्रथम, मुख्य, पहला.
​​अग्र​गामी/मिन-वि. आगे चलनेवाला. पु. नायक, अगुआ, स्त्री. अग्रगामिनी.
​​अग्र​दल-पु. फॉरवर्ड ब्लोक भारत का एक राजनैतिक दल जिसकी स्थापना नेताजी सुभाषचन्द्र बोसने की थी, सेना की अगली टुकड़ी​.
​​अग्र​ज-वि. पहले जन्मा हुआ, श्रेष्ठ. पु. बड़ा भाई, ब्राम्हण, अगुआ.
​​अग्र​जन्मा/जन्मन-पु. बड़ा भाई, ब्राम्हण.
​​अग्र​जा-स्त्री. बड़ी बहिन.
​​अग्र​जात/ जातक -पु. पहले जन्मा, पूर्व जन्म का.
​​अग्र​जाति-स्त्री. ब्राम्हण.
​​अग्र​जिव्हा-स्त्री. जीभ का अगला हिस्सा.
​​अग्र​णी-वि. आगे चलनेवाला, प्रथम, श्रेष्ठ, उत्तम. पु. नेता, अगुआ, एक अग्नि.
​​अग्र​तर-वि. और आगे का, कहे हुए के बाद का, फरदर इ.
​​अग्र​दाय-अग्रिम देय, पहले दिया जानेवाला, बयाना, एडवांस, इम्प्रेस्ट मनी.-दानी/निन- पु. मृतकके निमित्त दिया पदार्थ/शूद्रका दान ग्रहण करनेवाला निम्न/पतित ब्राम्हण,-दूत- पु. पहले से पहुँचकर किसी के आने की सूचना देनेवाला.-निरूपण- पु. भविष्य-कथन, भविष्यवाणी, भावी. -सुनहु भरत भावी प्रबल. राम.,
​​अग्र​पर्णी/परनी-स्त्री. अजलोमा का वृक्ष.
​​अग्र​पा- सबसे पहले पाने/पीनेवाला.-पाद- पाँव का अगला भाग, अँगूठा.
​​अग्र​पूजा- स्त्री. सबसे पहले/सर्वाधिक पूजा/सम्मान.
​​अग्र​पूज्य- वि. सबसे पहले/सर्वाधिक सम्मान.
​​अग्र​प्रेषण-पु. देखें अग्रसारण.
​​अग्र​प्रेषित-वि. पहले से भेजना, उच्चाधिकारी की ओर आगे भेजना, फॉरवर्डेड इ.-बीज- पु. वह वृक्ष जिसकी कलम/डाल काटकर लगाई जाए. वि. इस प्रकार जमनेवाला पौधा.
​​अग्र​भाग-पु. प्रथम/श्रेष्ठ/सर्वाधिक/अगला भाग -अग्र भाग कौसल्याहि दीन्हा. राम., सिरा, नोक, श्राद्ध में पहले दी जानेवाली वस्तु.
​​अग्र​भागी/गिन-वि. प्रथम भाग/सर्व प्रथम पाने का अधिकारी.
​​अग्र​भुक/ज-वि. पहले खानेवाला, देव-पिटर आदि को खिलाये बिना खानेवाला, पेटू.
​​अग्र​भू/भूमि-स्त्री. लक्ष्य, माकन का सबसे ऊपर का भाग, छत.
​​अग्र​महिषी-स्त्री. पटरानी, सबसे बड़ी पत्नि/महिला.-मांस-पु. हृदय/यकृत का रक रोग.
​​अग्र​यान-पु. सेना की अगली टुकड़ी, शत्रु से लड़ने हेतु पहले जानेवाला सैन्यदल. वि. अग्रगामी.​ ​​अग्र​यायी/यिन वि. आगे बढ़नेवाला, नेतृत्व करनेवाला​.
​​अग्र​योधी/धिन-पु. सबसे आगे बढ़कर लड़नेवाला, प्रमुख योद्धा.
​​अग्र​लेख- सबसे पहले/प्रमुखता से छपा लेख, सम्पादकीय, लीडिंग आर्टिकल इ.​
​​अग्र​लोहिता-स्त्री. चिल्ली शाक.
​​अग्र​वक्त्र-पु. चीर-फाड़ का एक औज़ार.
​​अग्र​वर्ती/तिन-वि. आगे रहनेवाला.
​​अग्र​शाला-स्त्री. ओसारा, सामने की परछी/बरामदा, फ्रंट वरांडा इं.
​​अग्र​संधानी-स्त्री. कर्मलेखा, यम की वह पोथी/पुस्तक जिसमें जीवों के कर्मों का लिखे जाते हैं.
​​अग्र​संध्या-स्त्री. प्रातःकाल/भोर.
​​अग्र​सर-वि. पु. आगेजानेवाला, अग्रगामी, अगुआ, प्रमुख, स्त्री. अग्रसरी.​​
अग्रसारण-पु. आगे बढ़ाना, अपनेसे उच्च अधिकारी की ओर भेजना, अग्रप्रेषण.
​​अग्र​सारा-स्त्री. पौधे का फलरहित सिरा.
​​अग्र​सारित-वि. देखें अग्रप्रेषित.
​​अग्र​सूची-स्त्री. सुई की नोक, प्रारंभ में लगी सूची, अनुक्रमाणिका.
​​अग्र​सोची-वि. समय से पहले/पूर्व सोचनेवाला, दूरदर्शी. अग्रसोची सदा सुखी मुहा.
​​अग्र​स्थान-पहला/प्रथम स्थान.
​​अग्र​हर-वि. प्रथम दीजानेवाली/देय वस्तु.
​​अग्र​हस्त-पु. हाथ का अगला भाग, उँगली, हाथी की सूंड़ की नोक.
​​अग्र​हायण-पु. अगहन माह,
​​अग्र​​हार-पु. राजा/राज्य की प्र से ब्राम्हण/विद्वान को निर्वाहनार्थ मिलनेवाला भूमिदान, विप्रदान हेतु खेत की उपज से निकाला हुआ अन्न.
अग्रजाधिकार- पु. देखें ज्येष्ठाधिकार.
अग्रतः/तस- अ. सं. आगे, पहले, आगेसे.
अग्रवाल- पु. वैश्यों का एक वर्गजाति, अगरवाल.
अग्रश/अग्रशस/अग्रशः-अ. सं. आरम्भ से ही.
अग्रह- पु.संस्कृत ग्रहण न करना, गृहहीन, वानप्रस्थ.
अग्र ना होता जन्मना
आगरा होना सौभाग्य की बात है. भाग्य जन्म से मिलता है किन्तु सौभाग्य मनुष्य कर्म से अर्जित करता है. इसलिए अग्र होना या ना होना मनुष्य के पुरुषार्थ, कर्मों और कर्मों के पीछे छिपी नियत तथा दिशा पर निर्भर करता है.
अग्र न होता जन्मना, बने कर्मणा अग्र
धीरज धर मत उग्र हों, और नहीं हों व्यग्र
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यमकीय दो पदी, मुक्तक, दोहा

 यमकीय दो पदी :

रोटियाँ दो जून की दे, खुश हुआ दो जून जब
टैक्स दो दोगुना बोला, आयकर कानून तब
मुक्तक
*
वीणा की तरह गुनगुना के गीत गाइए
चम्पा की तरह ज़िंदगी में मुस्कुराइए
आगम-निगम, पुराण पढ़ें या नहीं पढ़ें
इंसान की तरह से पसीना बहाइये
*
२-६-२०१७
दोहा सलिला:
संजीव
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान
*
धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
३०-५-२०१५

मुक्तिका

मुक्तिका सलिला:
सन्जीव
*
ये पूजा करे, वो लगाता है ठोकर
पत्थर कहे आदमी है या जोकर?
वही काट पाते फसल खेत से जो
गए थे जमीं में कभी आप बोकर
हकीकत है ये आप मानें, न मानें
अधूरे रहेंगे मुझे ख्वाब खोकर
कोशिश हूँ मैं, हाथ मेरा न छोड़ें
चलें मंजिलों तक मुझे मौन ढोकर
मेहनत ही सबसे बड़ी है नियामत
कहता है इंसान रिक्शे में सोकर
केवल कमाया, न किंचित लुटाया
निश्चित वही जाएगा आप रोकर
हूँ 'संजीव' शब्दों से सच्ची सखावत
करी, पूर्णता पा मगर शून्य होकर
२-६-२०१५
***

मंगलवार, 1 जून 2021

अभियान १-६-२०२०

समाचार:
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
२९वां दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान : कला पर्व
हरियाली मानसिक तनाव मिटाकर स्वास्थ्य-सुख देती है - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जबलपुर, १-६-२०२०। संस्कारधानी जबलपुर की प्रतिष्ठित संस्था विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर के २९ वे दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान नव सृजन पर्व के अंतर्गत द्वारबंदी (लोकडाउन) में ढील के बाद उपजी परिस्थितियों पर व्यापक विमर्श किया गया। संस्था तथा कार्यक्रम के संयोजक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने विषय प्रवर्तन करते हुए कोरोना के कारण महाशक्तियों के दंभ भंग होने का संकेत करते हुए परिवर्तित परिस्थितियों में आत्मानुशासन को ही आत्म रक्षा का प्रभावी अस्त्र बताया।
मन कौ मैल बचै नईं नैकऊँ, ऐंसी मति दै माँ शारद!
बिसरे गैल न छंद, छंद में लय-गति-यति दै माँ शारद!
कर वंदन अभिनंदन पूजन, गुन गाकर जैहौं मैया-
बुद्धिदायिनी हंसवाहिनी सद्गति दै दै माँ शारद!
बृज भाषा में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा रचित उक्त शारद वंदना का सस्वर पाठ कर मीनाक्षी शर्मा जी ने वाहवाही पाई। इंजी. अरुण भटनागर ने द्वारबंदी पर प्रतिक्रिया करते हुए प्रतिरोध क्षमता की वृद्धि हेतु योग-प्राणायाम को अनिवार्य बताया। ग्वालियर से पधारी वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. संतोष शुक्ला ने कोरोना के बढ़ते प्रकोप के कारण द्वार बंदी के प्रतिबंधोंको आवश्यक बताया। संस्कारधानी जबलपुर में हिंदी के प्राध्यापक डॉ. अरुण शुक्ल ने द्वारबंदी प्रतिबंध शिथिल किये जाने पर महाविद्यालयों में विद्यार्थियों की उपस्थिति नगण्य होने की संभावना को इंगित करते हुए ऑनलाइन शिक्षण हेतु शिक्षकों और विद्यार्थियों दोनों को तैयार होने की आवश्यकता बताई।
जपला, पलामू झारखण्ड से सहभागी डॉ. आलोकरंजन ने द्वारबंदी के प्रतिबंध आंशिक शिथिल किये जाने पर कोविद के नए मामले लगातार बढ़ने की स्थिति में चिंता व्यक्त की, तथा कम से कम एक माह के लिए द्वारबंदी बढ़ाये जाने की आवश्यकता बताई। डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव 'असीम' दतिया ने काव्य पाठ करते हुए चीन को कोरोना महामारी हेतु जिम्मेदार बताया। इंजी रमन श्रीवास्तव ने संक्रमण से बचाव के लिए द्वारबंदी के प्रतिबंध शिथिल किये जाने पर भी स्वेच्छा से प्रतिबंध अपनाते रहने को आवश्यक बताया। दमोह से सहभगिता कर रही मनोरमा रतले ने 'सावधानी हटी, दुर्घटना घटी' के सूत्र को अपनाने और सावधान रहने की सलाह देते हुए जीवन के पहले से अधिक आनंददाई होने की कामना की।
टीकमगढ़ के ख्यात साहित्यकार राजीव नामदेव राना लिधौरी ने द्वारबंदी के कारण आर्थिक मंदी का उल्लेख करते हुए द्वारबंदी को हटाने को सर्वथा उचित बताते हुए दोहों का वाचन किया-
जनता बेबस क्या करे, वह सचमुच लाचार
खाने को दाना नहीं, लौट रहे घर हार
उद्घोषक डॉ. मुकुल तिवारी ने द्वारबंदी प्रतिबंध शिथिल होने से राजमर्रा कमाने-खानेवालों की ज़िंदगी बचने के लिए लॉकडाउन को आवश्यक बताया किन्तु अर्थोपार्जन हेतु अवसर देने के लिए प्रतिबंधों के शिथिलीकरण को आवश्यक बताया। जपला झारखण्ड से सम्मिलित हो रही रेखा सिंह प्राध्यापक ने काव्य पाठ करते हुए 'पतझड़ में झरते पत्तों की तुलना कोविद से मर रहे रोगियों से करते हुए, लोकडाउन के बाद पेड़ों में फूटते पत्तों के सामान मानव को नव अवसर मिलने से की। सपना सराफ ने द्वारबंदी के कारण पर्यावरणीय सुधारों की चर्चा करते हुए, अब आर्थिक गतिविधियों के उन्नयन हेतु प्रतिबंध शिथिल किये जाने को आवश्यक बताया। मीनाक्षी शर्मा 'तारिका' ने लोकडाउन को आपात व्यवस्था निरूपित करते हुए, कोविद के निरंतर बढ़ने के आंकड़े देते हुए, अधिक सावधानी को आवश्यक बताया तथा इन परिस्थितियों में जीना सीखने को एकमात्र राह बताया। नरेंद्र कुमार शर्मा 'गोपाल' ने षट्पदी में अपने विचार व्यक्त किये-
धैर्य का अनुपालन, सख्ती और सजगता से ,
लोक डाऊन छूट जोड़ें जरूरत की विवशता से।
कोरोना के साथ जीना आदत सी बनानी हैं,
निडरता से नियम बद्ध इस पर जीत पानी है ।
आओ एक बार पुनः मानवता मनानी है।
भारतीय जिजीविषा विश्व को दिखानी है।
दमोह की लघुकथाकार शिक्षिका बबीता चौबे ने कविता प्रस्तुत करते हुए 'सीख गया है अब अभिमन्यु / चक्रव्यूह को भेदना और छेदना' में प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कही। विमर्श का महत्वपूर्ण चिंतन प्रस्तुत करते हुए युवा चिंतक सारांश गौतम ने 'कहाँ छिप गया अब ईश मेरा / जो ध्यान सभी का रखता है?' आदि प्रश्न उठाते हुए समाधान अपने प्रयास को बताया। सिरोही राजस्थान के शिक्षाविद छगनलाल गर्ग 'विज्ञ' ने ग़ज़ल 'और देखो ज़ख्म कोरोना कहानी दे गया' प्रस्तुत कर कोरोना की व्यथा-कथा बयां की। चंदा देवी स्वर्णकार ने लोक डाउन प्रतिबंध शिथिल होते ही भीड़ लगाने की प्रवृत्ति पर हास्यपरक कविता प्रस्तुत कर यथा देव तथा पूजा को उपाय बताया तथा चीन को इस महामारी हेतु लानत दी। गायिका माधुरी मिश्रा ने लंबे लोकडाउन के करम माध्यम और निम्न वर्ग के समक्ष उत्पन्न के कारण प्रतिबंधों को शिथिल करना उचित निरूपित किया। भिंड से आई मनोराना जैन पाखी ने लोकडाउन को जरूरी बताते हुए, इस कारण उत्पन्न मुनाफाखोरी की मनोवृत्ति की निंदा की।
विचार विनिमय को समापन की और ले जाते हुए संयोजक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने हसी-व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से गंभीर वातावरण को हल्का किया -
कोरोना की जयकार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
घरवाले हो घर से बाहर
तुम रहे भटकते सदा सखे!
घरवाली का कब्ज़ा घर पर
तुम रहे अटकते सदा सखे!
जीवन में पहली बार मिला
अवसर घर में तुम रह पाओ
घरवाली की तारीफ़ करो
अवसर पाकर सत्कार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
उन्होने कोरों पर रैप सांग भी प्रस्तुत किया। पाहुना की आसंदी सुशोभित कर रहे भोपालवासी साहित्यकार अरुण श्रीवास्तव 'अर्णव' ने व्यक्तिगत सुरक्षा के प्रावधानों को जीवन शैली के रूप में अपनाने और योग तथा प्राकृतिक आहार को सम्मिलित करना आवश्यक बट्टे हुए दोहे प्रस्तुत किये। विमर्श को पूर्णता की और ले जाते हुए मुखिया इंजी अरुण भटनागर ने विषय की प्रासंगिकता और उपयोगिता को असंदिग्ध बताते हुए संयोजक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के प्रति विशेष आभार व्यक्त किया।
***

हरियाणवी-पंजाबी लोकगीतों में छंद-छटा - चंद्रकांता अग्निहोत्री

हरियाणवी-पंजाबी लोकगीतों में छंद-छटा
- चंद्रकांता अग्निहोत्री
*
परिचय: जन्म: पंजाब। आत्मजा: श्रीमती लाजवन्ती जी-श्री सीताराम जी। जीवनसाथी: श्री केवलकृष्ण अग्निहोत्री। काव्य गुरु: डॉ. महाराजकृष्ण जैन, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी, ॐ नीरव जी। लेखन विधा: लेखन, छायांकन. पेंटिंग। प्रकाशित: ओशो दर्पण,वान्या काव्य संग्रह, सच्ची बात लघुकथा संग्रह, गुनगुनी धूप के साये गीत-ग़ज़ल।पत्र-पत्रिकाओं में कहानी , लघुकथा, कविता , गीत, आलोचना आदि। उपलब्धि: लघुकथा संग्रह सच्ची बात पुरस्कृत । संप्रति: से.नि. प्रध्यापक/पूर्वाध्यक्ष हिंदी विभाग, राजकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,सेक्टर 11,चंडीगढ़।संपर्क: ४०४ सेक्टर ६, पंचकूला, १३४१०९ हरियाणा।चलभाष: ०९८७६६५०२४८, ईमेल: agnihotri.chandra@gmail.com।
*
भारतीय संस्कृति और धर्म की शिखर पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता' की रचनास्थली और धर्माधर्म की रणभूमि रहा हरयाणा प्रांत देश के अन्य प्रांतों की तरह लोककला और लोकसंस्कृति से संपन्न और समृद्ध है। हरयाणवी जीवन मूल्य मेल-जोल, सरलता, सादगी, साहस, मेहनत और कर्मण्यता जैसे गुणों पर भी आधारित है। हरियाणा की उच्च सामाजिक और सांस्कृतिक विशेषताएँ होने के कारण विकास और जनकल्याण के संबंध में हरियाणा आज भी अग्रणी राज्यों में से एक है। इस प्रांत के ग्राम्यांचलों में साँझी माई की पूजा की जाती है। साँझी माई की पूजा के लिए सभी लड़कियाँ व महिलायें एकत्र हो साँझी माई की आरती उतारती हैं। उनके मधुर लोक गीतों से पूरा वातावरण गूँज उठता है। सांझा माई का आरता २२१२ २१२ की लय में निबद्ध होता है ( आदित्य जातीय छंद, ७-५ पदांत गुरु -सं.)
आरता हे आरता/साँझी माई! आरता/आरता के फूलां /चमेली की डाहली/नौं नौं न्योरते/नोराते दुर्गा या सांझी माई
हरियाणा के लोक गीतों में लोरी का बहुत महत्व है। लोरी शब्द संस्कृत भाषा से आया है। यह 'लील' शब्द का अपभ्रंश है, इसका अर्थ झूला झुलाते हुए, मधुर गीत गाकर बच्चे को सुलाना है। इन गीतों को सुनकर हृदय ममता से भर जाता है। (निम्न लोरी गीत का २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद है, जिसमें वाचिक परंपरानुसार यति-स्थान बदलता रहता है, अंत में २८-१३ मात्रिक पंक्तियाँ हैं। इसे दो छंदों का मिश्रण कहा जा सकता है -सं.)
लाला लाला लोरी, ढूध की कटोरी २२ /दूध में बताशा, लाला करे तमाशा २२ / चंदा मामा आएगा, दूध-मलाई खाएगा २८ / लाला को खिलाएगा१३
ममता भरे हृदय से नि:सृत मनमोहक स्वर-माधुर्य लोरी शब्द को सार्थक कर देता है। (निम्न लोरी ३० मात्रिक महातैथिक जातीय रुचिरा छंद में निबद्ध है जिसमें १४-१६ पर यति तथा पदांत गुरु का विधान है- सं.)
पाया माsह पैजनियाँ १४, लल्ला छुमक–छुमक डोलेगा १६/ दादा कह के बोलेगा १४, दादी की गोदी खेलेगा १६।
हरयाणवी लोकगीतों का वैशिष्ट्य भावों की सहज अभिव्यक्ति है तो आधुनिक रचनाओं में शासन-प्रशासन के प्रति आक्रोश की भावनाएँ मुखरित हुई हैं। कवि छैला चक्रधर बहुगुणा हरियाणवी (जयसिंह खानक) ने प्रस्तुत गीत में आज की राजनीति पर करारा व्यंग्य किया है। कवि का आक्रोश उसके हृदय की व्यथा पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त है। (३१ मात्रिक छंद में १६-१५ पर यति व पदांत में दो गुरु का विधान रखते हुए अश्वावतारी जातीय छंद में इसे रचा गया है -सं.)
कदे हवाले कदे घुटाले, एक परखा नई चला दी
लूट-लूट के पूंजी सारी, विदेशां मैं जमा करादी
निजीकरण और छंटणी की, एक नइये चाल चला दी
सरकार महकमें बेच रही, या किसनै बुरी सला' दी
या नींव देश की हिला दी, कोण डाटण आळे होगे
हो लिया देश का नाश, आज ये मोटे चाळे होगे
हरियाणवी भाषा अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी ऐसी नहीं है कि अन्य भाषा-भाषियों को समझ में न आए। निम्न रचना में नायिका के मन की सूक्ष्म तरंगों को कवि कृष्ण चन्द ने सुंदर शब्दों में ढाला है। अति सुंदर भाव, शब्द संयोजन तथा व्यंजनात्मक शैली हृदयग्राही है। (विधान ३१ मात्रिक, १७-१४ पर यति, गुरुलघु या लघुगुरु (संभवत:३ लघु या २ गुरु वर्जित, अश्वावतारी जातीय छंद -सं.)
आज सखी म्हारे बाग मैं हे१७ किसी छाई अजब बहार १४
हे ये हंस पखेरू आ रहे | १७
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं,१७ ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै १७ मिलैं कर आपस मैं प्यार १४
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे १७
बड़ी प्यारी सुरत हे इसी, जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे.....
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं, ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै हे मिलैं कर आपस मैं प्यार
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे
बड़ी प्यारी सुरत हे इसी, जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं, ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै हे मिलैं कर आपस मैं प्यार
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे बड़ी प्यारी सुरत हे इसी,
जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे
विवाह-शादी में एक से एक बढ़कर गीत गाये जाते हैं। देखिये एक २६ मात्रिक महाभागवत जातीय छंद की एक झलक:
मैं तो गोरी-गोरी, बालम काला-काला री! १२-१४
मेरे जेठ की बरिये, सासड़ के खाया था री! १३-१४
वा तो बरफियाँ की मार, जिबे धोला-धोला री! १३-१३
जेठ के स्थान पर ससुर, बालम, देवर आदि रखकर बहू अपनी सास से सबके बारे में पूछती है। इन लोकगीतों में हास-परिहास तथा चुहुलबाजी का पुट प्रधान होता है।
देश में हो रही बँटवारा नीति पर कई कवियों की कलम चली है। प्रस्तुत है संस्कारी छंद में एक गीत:
देश में हो रइ बाँटा-बाँट / बनिया बामन अर कोइ जाट १६-१६
सावन के महीने में मैके की याद आना स्वाभाविक है। यौगिक छंद (यति १५-१३) में रचित इस लोकगीत में बाबुल के घर की मौज-मस्ती का सजीव चित्रण हुआ है:
नाना-नानी बूँदिया सा,वण का मेरा झूलणा १५-१३
एक झूला डाला मन्ने, बाबल जी के राज में १५-१३
सँग की सखी-शेली है सा,वण का मेरा झूलना १५-१३
एक झूला डाला मन्ने, भैया जी के राज में १५-१३
गोद-भतीजा है मन्ने सा,वण का मेरा झूलना १५-१३
यौगिक छंद (यति १४-१४) में एक और मधुर गीत का रसामृत पान करें:
कच्चे नीम की निमोली सावण कदकर आवै रे
बाबल दूर मत व्याहियो, दादी नहीं बुलावण की
बाब्बा दूर मत व्याहियो, अम्मा नहीं बुलावण की
मायके का सुख भुलाए नहीं भूलता, इसलिए हरियाणा की लड़की सबसे प्रार्थना करती है की उसका विवाह दूर न किया जाए। ऐसा न हो कि वह सावन के महीने में मायके न आ सके।
हरियाणावी गीतों में लयबद्धता, गीतिमयता, छंदबद्धता व् मधुरता के गुण पंक्ति-पंक्ति में अन्तर्निहित हैं। इस अंचल की सभ्यता व संस्कृति को इन लोकगीतों में पाया जा सकता है। इन गीतों में सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य भी देखा जा सकता है। करतार सिंह कैत रचित निम्न गीत में दलितोद्धार के क्षेत्र में अग्रणी रहे आंबेडकर जी को याद किया गया है:
बाबा भीम को करो प्रणाम रे १८ / बोलो भीम भीम भीम भीम रे...टेक / भारत का संविधान बनाया, १७ / सभी जनों को गले लगाया १६ / पूरा राख्या ध्यान रे... १३ बोलो भीम भीम... / इनका मिशन घणा लाग्या प्यारा १८ / भीम मिशन तै मिल्या सहारा १७ / सब सुणो करकै ध्यान रे १४ बोलो भीम भीम.../ बाबा साहब की ज्योत जगाओ, १८ / इनके मिशन को सफल बनाओ १७ / थारा हो ज्यागा कल्याण रे १७ / बोलो भीम भीम.../ करतार सिंह ने शबद बनाया १७ / सभा बीच मैं आकै गाया १६ / जिसका कोकत गांव रे १३ / बोलो भीम भीम...
पंजाबी काव्य में छंद छटा:
लोकगीत मिट्टी की सौंधी खुशबू की तरह होते हैं, जैसे अभी-अभी बरसात ने धरती को अपनी रिमझिम से सहलाया हो, जैसे हवा के झोंको ने अभी अभी कोई सुंदर गीत गाया हो या पेड़ों से गुजरती मधुर बयार ने हर पत्ते को नींद से जगाया हो तो फिर क्यों न बज उठे पत्तों की पाजेब। ऐसा ही हमारा लोक साहित्य, साहित्य तो साहित्य है लेकिन लोकसाहित्य जनमानस के अति निकट है, उसकी धड़कन जैसा, उसकी हर सांस जैसा, ऐसे कि जैसे हर दर्द, सबका दर्द, हर ख़ुशी, सबकी ख़ुशी। पंजाबी लोककाव्य जैसे माहिया, गिद्दा, टप्पे, बोलियाँ आदि प्रदेश की सीमा लाँघकर देश-विदेश में पहचाने और गाये जाते हैं:
माहिया:
माहिया पंजाब का सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकगीत है। प्रेमी या पति को 'माहिया वे' सम्बोधित किया जाता है। इस छंद में श्रृंगार रस के दोनों पक्ष होते हैं। अब अन्य रस भी सम्मिलित किये जाने लगे हैं। इस छंद में प्रायः प्रेमी-प्रेमिका की नोक-झोंक रहती है। जो अभिव्यक्तियाँ हैं जो कभी न कही जा सकीं, जो दिल के किसी कोने मे पड़ी रह गईं, जिन्हें समाज ने नहीं समझावही व्यथा कई रूपों में प्रकट होती है। पत्नी को ससुराल, अपने माही के साथ ही जाना है, वह अपने आकर्षण-विकर्षण को छिपाती नहीं है:
पैली-पैली वार मैनू नाई लैण आ गया(तीन बार) / नाई दे नाल मेरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए, मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोल्या न जाए। नाई वे... नाई ते बड़ा शुदाई, मैं एहदे नाल नईजाणा ३
दूजी-दूजी बार मैनू सौरा लैण आ गया। सौरे दे नाल मेंरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए, मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोलया न जाए। सौरा वे....सौरा मुहं दा कौड़ा, मैं एहदे नाल नई जाणा ३
तीजी-तीजी वार मैनू जेठ लैण आ गया ३,जेठे दे नाल मेरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए ,मुंहों बोल्या न जाए।, कुंडा खोलया न जाए (घूंघट उठाना )
जेठ वे.... जेठ दा मोटा पेट , मैं अहदे नाल नई जाणा
चौथी-चौथी वार मैनू दयोर लैण आ गया।, दयोर दे नाल मेरी जांदी ए बलां (मुसीबत)
घुंड चकया न जाए ,मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोलया न जाए
दयोर वे ..दयोर दिल दा चोर ....मैं अहदे नाल नई जाणा (देवर)
पंजवी वार मैनू आप लैण आ गया, माहिये दे नाल मैं टुर जाणा
घुंड चकया वि जाय ,मुंहों बोल्या वि जाय ,कुंडा खोल्या वि जाए
माहिया वे.... माहिया ढोल सिपाहिया मैं तेरे नाल टुर जाणा |
माहिया: यह पंजाबी का सर्वाधिक लोकप्रिय छंद है। यह एक मात्रिक छंद है। इसकी पहली और तीसरी पंक्ति में १२-१२ मात्राएं (२२११२२२) तथा दूसरी पंक्ति में १० (२११२२२) मात्राएँ रहती हैं। तीनों पंक्तियों में सभी गुरु भी आ सकते हैं। पहले और तीसरे चरण में तुकांत से चारुत्व वृद्धि होती है। प्रवाह और लय अर्थात माहिया का वैशिष्ट्य है। इस छंद में लय और प्रवाह हेतु अंतिम वर्ण लघु नहीं होना चाहिए। सगाई-विवाह आदि समारोहों में माहिया छंद पर आधारित गीत गाए जाते हैं।
तुम बिन सावन बीते १२ / आना बारिश बन १० / हम हारे तुम जीते १२
कजरा यह मुहब्बत का / तुमने लगाया है / आँखों में कयामत का। -सूबे सिंह चौहान ..
खुद तीर चलाते हो / दोष हमारा क्या / तुम ही तो सिखाते हो। -कृष्णा वर्मा
अहसास हुए गीले / जुगनू सी दमकी / यादों की कंदीलें।
स्व. श्री प्राण शर्मा जी लन्दन के इस माहिए में संसार की नश्वरता का वर्णन है:
कुछ ऐसा लगा झटका / टूट गया पल में / मिट्टी का इक मटका।
पारंपरिक माहिया को नयी जमीन देते हुए संजीव सलिल जी ने सामयिक-सामाजिक माही लिखे हैं:
हर मंच अखाडा है / लड़ने की कला गायब / माहौल बिगाड़ा है.
सपनों की होली में / हैं रंग अनूठे ही / सांसों की झोली में.
पत्तों ने पतझड़ से / बरबस सच बोल दिया / अब जाने की बारी
चुभने वाली यादें / पूँजी हैं जीवन की / ज्यों घर की बुनियादें
है कैसी अनहोनी? / सँग फूल लिये काँटे / ज्यों गूंगे की बोली
भावी जीवन के ख्वाब / बिटिया ने देखे हैं / महके हैं सुर्ख गुलाब
चूनर ओढ़ी है लाल / सपने साकार हुए / फिर गाल गुलाल हुए
मासूम हँसी प्यारी / बिखरी यमुना तट पर / सँग राधा-बनवारी
देखे बिटिया सपने / घर-आँगन छूट रहा / हैं कौन-कहाँअपने?
हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार-छन्दाचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने माहिया का प्रयोग गीत लेखन में करते हुए मुखड़ा और अंतरा दोनों माहिया छंद में रचकर सर्वप्रथम यह प्रयोग किया है:
मौसम के कानों में / कोयलिया बोले / खेतों-खलिहानों में।........मौसम के कानों में वाह !
आओ! अमराई से / आज मिल लो गले, / भाई और माई से।....बहुत खूब
आमों के दानों में / गर्मी रस घोले, बागों-बागानों में--- सुंदर चित्रात्मकता
होरी, गारी, फगुआ / गाता है फागुन, / बच्चा, बब्बा, अगुआ।...अनमोल फागुन
सलिल जी ने एक और आयाम जोड़ा है माहिया ग़ज़ल का:
माहिया ग़ज़ल:
मापनी: ३ x ( १२-१०-१२)
मत लेने मत आना / जुमला, वादों को / कह चाहा बिसराना
अब जनता की बारी / सहे न अय्यारी / जन-मत मत ठुकराना
सरहद पर सर हद से / ज्यादा कटते क्यों? / कारण बतला जाना ​
मत संयम तुम खोओ / मत काँटे बोओ / हो गलत, न क्यों माना?
मंदिर-मस्जिद झगड़े / बढ़ने मत देना / निबटा भी दो लफड़े
भाषाएँ बहिनें हैं / दूरी क्यों इनमें? / खुद सीखो-सिखलाना
जड़ जमी जमीं में हो / शीश रहे ऊँचा / मत गगनबिहारी हो
परिवार न टूटें अब / बच्चे-बूढ़े सँग / रह सकें न अलगाना
अनुशासनखुद मानें / नेता-अफसर भी / धनपति-नायक सारे ​
बह स्नेह-'सलिल' निर्मल / कलकल-कलरव सँग / कलियों खिल हँस-गाना
टप्पे:
कोठे ते आ माइया / मिलना तां मिल आ के / नईं तां खसमां नूं खा माइया। (एक गाली )
की लैणा ए मित्रां तों / मिलन ते आ जांवा / डर लगदा ए छितरां तों। (जूते )
चिट्टा कुकड़ बनेरे ते (मुर्गा ) / बांकिये लाडलिए (सुंदर) / दिल आ गया तेरे ते |
१२-१३ मात्राओं व समान तुकांत की तथा दूसरी पंक्ति २ कम मात्राओं व भिन्न तुकांत की होती है. कुछ महियाकारों ने तीनों पंक्तियों का समान पदभार रखते हुए माहिया रचे हैं. डॉ. आरिफ हसन खां के अनुसार 'माहिया का दुरुस्त वज़्न पहले और तीसरे मिसरे के लिये फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलान्] मुतदारिक मख़बून /मख़बून मज़ाल] और दूसरे मिसरे के लिए फ़ेलु .. फ़ऊल्.. फ़अल्/फ़ऊल् [मुतक़ारिब् असरम् मक़्बूज़् महज़ूफ़् /मक़सूर्] है। इन दोनों औजान [वज़्नों] पर बित्तरतीब [क्रमश:] तकसीन और तख़नीक़ के अमल हैं। मुख़तलिफ़ मुतबादिल औज़ान [वज़न बदल-बदल कर विभिन्न वज़्न के रुक्न] हासिल किये जा सकते हैं. [तफ़सील के लिये मुलाहिज़ा कीजिए राकिम उस्सतूर (इन पंक्तियों के लेखक) की किताब ’मेराज़-उल-अरूज़’ का बाब (अध्याय) माहिए के औज़ान]।'
बोलियाँ:
बारी बरसी खटन गया सी खट के लियांदी लाची |(कमाने,फल )
गिद्दा तां सजदा जे नचे मुंडे दी चाची (लड़का ,दूल्हा )
मेरे जेठ दा मुंडा नी बड़ा पाजी / नाले मारे अखियां नाले आखे चाची
नी इक दिन शहर गया सी / औथों कजल लियाया (वहां से )
फिर कहंदा / की (क्या) कहंदा? / नी कजल पा चाची, / नी अख मिला चाची २
बल्ले-बल्ले नि तोर पंजाबन दी (चाल )/ जुत्ती खल दी मरोड़ा नइयों झलदी / तोर पंजाबन दी। (चाल)
बल्ले- बल्ले कि तेरी मेरी नहीं निभणी।/ तूँ तेलण मैं सुनियारा / तेरी मेरी नईं निभणी
बल्ले-बल्ले तेरी मेरी निभ जाऊगी / सारे तेलियां दी जंज बना दे /के तेरी-मेरी निभ जाऊगी |
एक समय सब अपने रिश्तों के प्रति समर्पित थे। पति कैसा भी हो पत्नी के लिए वही सब कुछ होता था। प्रस्तुत गीत में सास के प्रति उपालम्भ है क्योंकि वह तो अपने सभी बच्चों से प्रेम करती है, जबकि बहू को तो अपना पति ही सबसे प्रिय है |
काला शा काला, / मेरा काला ए सरदार,गौरयाँ नूं दफा करो |
मैं आप तिले दी तार गौरयां नूं दफा करो |(अर्थात काले रंग पर सुनहरी बहुत जचता है )
ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, / दो एबी दो शराबी, / जेहड़ा मेरे हान दा ओह खिड़िया फुल गुलाबी|
काला शा काला / ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, / दो टीन दो कनस्तर / जेहड़ा मेरे हान दा ओह चला गया है दफ्तर |
काला शा काला ओह काला शा काला
ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, /दो कम्बल ते दो खेस | जेहड़ा मेरे हान दा ओह चला गया परदेस |
काला शा काला....ओह काला शा काला / मेरा काला ए सरदार,गौरयाँ नूं दफा करो |
मैं आप तिले दी तार गौरयां नूं दफा करो
पंजाबी लोकगीतों माहिया, टप्पे,बोलियां, गिद्दा, भांगड़ा आदि में मन की हर इच्छा को सहजता-सरलता व ईमानदारी से प्रस्तुत किया जाता है।
========

मुक्तक

मुक्तक
*
न मन हो तो नमन मत करना कभी
नम न हो तो भाव मत वरना कभी
अभावों से निभाओ तो बात बने
स्वभावों को मौन मत करना कभी
*
कभी दुआ तो कभी बद्दुआ से लड़ते हुए
जयी जवान सदा सरहदों पे बढ़ते हुए .
उठाये हाथ में पत्थर मिले वतनवाले
शहादतों पे चढ़ा पुष्प, चित्र मढ़ते हुए .
*
चरण छुए आशीष मिल गया, किया प्रणाम खुश रहो बोले
नम न नयन थे, नमन न मन से किया, हँसे हो चुप बम भोले
गले मिल सकूँ हुआ न सहस, हाथ मिलाऊँ भी तो कैसे?
हलो-हलो का मिला न उत्तर, हाय-हाय सुन तनिक न डोले
***
१-६-२०१६ 
*

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
उत्तरायण की
सदा चर्चा रही है
*
तीर शैया पर रही सोती विरासत
समय के शर बिद्ध कर, करते बगावत
विगत लेखन को सनातन मान लेना
किन्तु आगत ने, न की गत से सखावत
राज महलों ने
न सत को जान पाया
लोक-सीता ने
विजन वन-मान पाया
दक्षिणायण की
सतत अर्चा रही है
*
सफल की जय बोलना ही है रवायत
सफलता हित सिया-सत बिन हो सियासत
खुरदुरापन नव सृजन पथ खोलता है
साध्य क्यों संपन्न को ही हो नफासत
छेनियों से, हथौड़ी से
दैव ने आकार पाया
गढ़ा मूरतकार ने पर
लोक ने पल में भुलाया
पूर्वायण की
विकट वर्चा रही है
***
१५-११-२०१४
कालिंदी विला लखनऊ
Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244

समीक्षा सर्वमंगल शकुन्तला खरे

समीक्षा 
सर्वमंगल: संग्रहणीय सचित्र पर्व-कथा संग्रह
आचार्य संजीव

*
[कृति विवरण: सर्वमंगल, सचित्र पर्व-कथा संग्रह, श्रीमती शकुन्तला खरे, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १८६, मूल्य १५० रु., लेखिका संपर्क: योजना क्रमांक ११४/१, माकन क्रमांक ८७३ विजय नगर, इंदौर. म. प्र. भारत]
*
विश्व की प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का विकास सदियों की समयावधि में असंख्य ग्राम्यांचलों में हुआ है. लोकजीवन में शुभाशुभ की आवृत्ति, ऋतु परिवर्तन, कृषि संबंधी क्रिया-कलापों (बुआई, कटाई आदि), महापुरुषों की जन्म-निधन तिथियों आदि को स्मरणीय बनाकर उनसे प्रेरणा लेने हेतु लोक पर्वों का प्रावधान किया गया है. इन लोक-पर्वों की जन-मन में व्यापक स्वीकृति के कारण इन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है. वास्तव में इन पर्वों के माध्यम से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य-संतुलन स्थापित कर, सार्वजनिक अनुशासन, सहिष्णुता, स्नेह-सौख्य वर्धन, आर्थिक संतुलन, नैतिक मूल्य पालन, पर्यावरण सुधार आदि को मूर्त रूप देकर समग्र जीवन को सुखी बनाने का उपाय किया गया है. उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने इन लोक-पर्वों के माध्यम से दुर्दिनों में अभूतपूर्व संघर्ष क्षमता और सामर्थ्य भी अर्जित की है.
आधुनिक जीवन में आर्थिक गतिविधियों को प्रमुखता मिलने के फलस्वरूप पैतृक स्थान व् व्यवसाय छोड़कर अन्यत्र जाने की विवशता, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के कारण तर्क-बुद्धि का परम्पराओं के प्रति अविश्वासी होने की मनोवृत्ति, नगरों में स्थान, धन, साधन तथा सामग्री की अनुपलब्धता ने इन लोक पर्वों के आयोजन पर परोक्षत: कुठाराघात किया है. फलत:, नयी पीढ़ी अपनी सहस्त्रों वर्षों की परंपरा, जीवन शैली, सनातन जीवन-मूल्यों से अपरिचित हो दिग्भ्रमित हो रही है. संयुक्त परिवारों के विघटन ने दादी-नानी के कध्यम से कही-सुनी जाती कहानियों के माध्यम से समझ बढ़ाती, जीवन मूल्यों और जानकारियों से परिपूर्ण कहानियों का क्रम समाप्त प्राय कर दिया है. फलत: नयी पीढ़ी में पारिवारिक स्नेह-सद्भाव का अभाव, अनुशासनहीनता, उच्छंखलता, संयमहीनता, नैतिक मूल्य ह्रास, भटकाव और कुंठा लक्षित हो रही है.
मूलतः बुंदेलखंड में जन्मी और अब मालवा निवासी विदुषी श्रीमती शकुंतला खरे ने इस सामाजिक वैषम्य की खाई पर संस्कार सेतु का निर्माण कर नव पीढ़ी का पथ-प्रदर्शन करने की दृष्टि से ४ कृतियों मधुरला, नमामि, मिठास तथा सुहानो लागो अँगना के पश्चात विवेच्य कृति ' सर्वमंगल' का प्रकाशन कर पंच कलशों की स्थापना की है. शकुंतला जी इस हेतु साधुवाद की पात्र हैं. सर्वमंगल में चैत्र माह से प्रारंभ कर फागुन तह सकल वर्ष में मनाये जानेवाले लोक-पर्वों तथा त्योहारों से सम्बन्धी जानकारी (कथा, पूजन सामग्री सूचि, चित्र, आरती, भजन, चौक, अल्पना, रंगोली आदि ) सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा में प्रकाशित कर लोकोपकारी कार्य किया है.
संभ्रांत-सुशिक्षित कायस्थ परिवार की बेटी, बहु, गृहणी, माँ, और दादी-नानी होने के कारण शकुन्तला जी शैशव से ही इन लोक प्रवों के आयोजन की साक्षी रही हैं, उनके संवेदनशील मन ने प्रस्तुत कृति में समस्त सामग्री को बहुरंगी चित्रों के साथ सुबोध भाषा में प्रकाशित कर स्तुत्य प्रयास किया है. यह कृति भारत के हर घर-परिवार में न केवल रखे जाने अपितु पढ़ कर अनुकरण किये जाने योग्य है. यहाँ प्रस्तुत कथाएं तथा गीत आदि पारंपरिक हैं जिन्हें आम जन के ग्रहण करने की दृष्टि से रचा गया है अत: इनमें साहित्यिकता पर समाजीकर और पारम्परिकता का प्राधान्य होना स्वाभाविक है. संलग्न चित्र शकुंतला जी ने स्वयं बनाये हैं. चित्रों का चटख रंग आकर्षक, आकृतियाँ सुगढ़, जीवंत तथा अगढ़ता के समीप हैं. इस कारण इन्हें बनाना किसी गैर कलाकार के लिए भी सहज-संभव है.
भारत अनेकता में एकता का देश है. यहाँ अगणित बोलियाँ, लोक भाषाएँ, धर्म-संप्रदाय तथा रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं. स्वाभाविक है कि पुस्तक में सहेजी गयी सामग्री उन परिवारों के कुलाचारों से जुडी हैं जहाँ लेखिका पली-बढ़ी-रही है. अन्य परिवारों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ ये पर्व मनाये जाना अथवा इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्व मनाये जाना स्वाभाविक है. ऐसे पाठक अपने से जुडी सामग्री मुझे या लेखिका को भेजें तो वह अगले संस्करण में जोड़ी जा सकेगी. सारत: यह पुस्तक हर घर, विद्यालय और पुस्तकालय में होना चाहिए ताकि इसके मध्याम से समाज में सामाजिक मूल्य स्थापन और सद्भावना सेतु निर्माण का कार्य होता रह सके.
संदेश में फोटो देखें
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१
चलभाष: ९४२५१ ८३२४४

मुक्तक

मुक्तक
खुद पर हो विश्वास, बहुत है
पूरी हो कुछ आस, बहुत है
चिर अतृप्ति या तृप्ति न चाहूँ
लगे-बुझे नित प्यास, बहुत है
*
राजीव बिन शोभा न सलिल-धार की
वास्तव में श्री अमर है प्यार की
सृजन पथ पर अक्षरी आराधना
राह है संसार से उद्धार की
*
बिंदु-सिन्धु सा खुद में और खुदा में अंतर
कंकर-शंकर किये समाहित सच का मंतर
आप आत्म, परमात्म आप है, द्वैत नहीं कुछ
जो देखे अद्वैत मलिन हो कभी न अंतर
*
इंसानी फितरत समान है, रहो देश या बसों विदेश
ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ मलिनता मिले न लेश
जैसा देश वेश हो वैसा पुरखे सच ही कहते थे-
स्वीकारें सच किन्तु क्षुब्ध हो नोचें कभी न अपने केश
*
बाधाएँ अनगिन आयेंगीं, करना तनिक उजास बहुत है
तपिश झेलने को मन में मधुबन का हो आभास बहुत है
तिमिर अमावस का लाया है खबर जल्द राकेश आ रहा
फिर पूनम-चंदा चमकेगा बस इतना विश्वास बहुत है
*
ममता-समता पाने खातिर जी भर करें प्रयास बहुत है
प्रभु सुमिरन से बने एकता किंचित हो आभास बहुत है
करें प्रार्थना पर न याचना, पौरुष-कोशिश कभी न त्यागें-
कर्मयोग ही फलदायक है, करिए कुछ विश्वास बहुत है. *

*
'जैसी करनी वैसी भरनी' अगर नहीं तो न्याय कहाँ?
लेख-जोखा अगर नहीं तो असत-सत्य का दाय कहाँ?
छाँह न दे तो बेमानी छाता हो जाता क्यों रखिए-
कुछ न करे तो शक्तिमान का किंचित भी अभिप्राय कहाँ?
*
१-६-२०१५ 

नर्मदाष्टक


भगवत्पादश्रीमदाद्य शंकराचार्य स्वामी विरचितं नर्मदाष्टकं
हिन्दी काव्यानुवाद - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सविंदुसिंधु-सुस्खलत्तरंगभंगरंजितं, 
द्विषत्सुपापजात-जातकारि-वारिसंयुतं
कृतांतदूत कालभूत-भीतिहारि वर्मदे, 
त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .१.

उठती-गिरती उदधि-लहर की, जलबूंदों सी मोहक-रंजक
निर्मल सलिल प्रवाहितकर, अरि-पापकर्म की नाशक-भंजक
अरि के कालरूप यमदूतों, को वरदायक मातु वर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.१.
*
त्वदंबु लीन दीन मीन दिव्य संप्रदायकं, 
कलौमलौघभारहारि सर्वतीर्थनायकं
सुमत्स्य, कच्छ, तक्र, चक्र, चक्रवाक् शर्मदे, 
त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .२.

दीन-हीन थे, मीन दिव्य हैं, लीन तुम्हारे जल में होकर.
सकल तीर्थ-नायक हैं तव तट, पाप-ताप कलियुग का धोकर.
कच्छप, मक्र, चक्र, चक्री को, सुखदायक हे मातु शर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.२.
*
महागभीर नीरपूर - पापधूत भूतलं, 
ध्वनत समस्त पातकारि दारितापदाचलं.
जगल्लये महाभये मृकंडुसूनु - हर्म्यदे, 
त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .३.

अरिपातक को ललकार रहा, थिर-गंभीर प्रवाह नीर का.
आपद पर्वत चूर कर रहा, अन्तक भू पर पाप-पीर का.
महाप्रलय के भय से निर्भय, मारकंडे' मुनि हुए हर्म्यदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.३.
*
गतं तदैव मे भयं त्वदंबुवीक्षितं यदा, 
मृकंडुसूनु शौनकासुरारिसेवितं सदा.
पुनर्भवाब्धिजन्मजं भवाब्धि दु:खवर्मदे, 
त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .४.

मार्कंडे'-शौनक ऋषि-मुनिगण, निशिचर-अरि, देवों से सेवित.
विमल सलिल-दर्शन से भागे, भय-डर सारे देवि सुपूजित.
बारम्बार जन्म के दु:ख से, रक्षा करतीं मातु वर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.४.
*
अलक्ष्य-लक्ष किन्नरामरासुरादि पूजितं, 
सुलक्ष नीरतीर - धीरपक्षि लक्षकूजितं.
वशिष्ठ शिष्ट पिप्पलादि कर्ममादिशर्मदे, 
त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .५.

दृश्य-अदृश्य अनगिनत किन्नर, नर-सुर तुमको पूज रहे हैं.
नीर-तीर जो बसे धीर धर, पक्षी अगणित कूज रहे हैं.
ऋषि वशिष्ठ, पिप्पल, कर्दम को, सुखदायक हे मातु शर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.५.
*
सनत्कुमार नाचिकेत कश्यपादि षट्पदै, 
घृतंस्वकीय मानसेषु नारदादि षट्पदै:,
रवींदु रन्तिदेव देवराज कर्म शर्मदे, 
त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .६.

सनत्कुमार अत्रि नचिकेता, कश्यप आदि संत बन मधुकर.
चरणकमल ध्याते तव निशि-दिन, मनस मंदिर में धारणकर.
शशि-रवि, रन्तिदेव इन्द्रादिक, पाते कर्म-निदेश सर्वदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.६.
*
अलक्ष्यलक्ष्य लक्ष पाप लक्ष सार सायुधं, 
ततस्तु जीव जंतु-तंतु भुक्ति मुक्तिदायकं.
विरंचि विष्णु शंकर स्वकीयधाम वर्मदे, 
त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .७.
दृष्ट-अदृष्ट लाख पापों के, लक्ष्य-भेद का अचूक आयुध.
तटवासी चर-अचर देखकर, भुक्ति-मुक्ति पाते खो सुध-बुध.
ब्रम्हा-विष्णु-सदा शिव को, निज धाम प्रदायक मातु वर्मदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.७.
*
अहोsमृतं स्वनं श्रुतं महेशकेशजातटे, 
किरात-सूत वाडवेशु पण्डिते शठे-नटे.
दुरंत पाप-तापहारि सर्वजंतु शर्मदे, 
त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .८.

महेश-केश से निर्गत निर्मल, 'सलिल' करे यश-गान तुम्हारा.
सूत-किरात, विप्र, शठ-नट को,भेद-भाव बिन तुमने तारा.
पाप-ताप सब दुरंत हरकर, सकल जंतु भाव-पार शर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.८.
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इदन्तु नर्मदाष्टकं त्रिकालमेव ये यदा, 
पठंति ते निरंतरं न यांति दुर्गतिं कदा.
सुलक्ष्य देह दुर्लभं महेशधाम गौरवं, 
पुनर्भवा नरा न वै विलोकयंति रौरवं. ९.

श्रद्धासहित निरंतर पढ़ते, तीन समय जो नर्मद-अष्टक.
कभी न होती दुर्गति उनकी, होती सुलभ देह दुर्लभ तक.
रौरव नर्क-पुनः जीवन से, बच-पाते शिव-धाम सर्वदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.९
*
इति श्रीमदशंकराचार्य स्वामी विरचितं नर्मदाष्टकं सम्पूर्णं
श्रीमदआदिशंकराचार्य रचित, संजीव 'सलिल' अनुवादित नर्मदाष्टक पूर्ण.

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त
... झटपट करिए
संजीव 'सलिल'
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,
काम जो भी करना हो, झटपट करिए.
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,
मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,
खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,
'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.
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छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,
८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.
१-६-२०११ 
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गीत

गीत
माँ जी हैं बीमार...
संजीव 'सलिल'
*
माँ जी हैं बीमार...
*
प्रभु! तुमने संसार बनाया.
संबंधों की है यह माया..
आज हुआ है वह हमको प्रिय
जो था कल तक दूर-पराया..
पायी उससे ममता हमने-
प्रति पल नेह दुलार..
बोलो कैसे हमें चैन हो?
माँ जी हैं बीमार...
*
लायीं बहू पर बेटी माना.
दिल में, घर में दिया ठिकाना..
सौंप दिया अपना सुत हमको-
छिपा न रक्खा कोई खज़ाना.
अब तो उनमें हमें हो रहे-
निज माँ के दीदार..
करूँ मनौती, कृपा करो प्रभु!
माँ जी हैं बीमार...
*
हाथ जोड़ कर करूँ वन्दना.
अब तक मुझको दिया रंज ना.
अब क्यों सुनते बात न मेरी?
पूछ रही है विकल रंजना..
चैन न लेने दूँगी, तुमको
जग के तारणहार.
स्वास्थ्य लाभ दो मैया को हरि!
हों न कभी बीमार..
१-६-२०१० 
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मुक्तिका

मुक्तिका
जंगल काटे, पर्वत खोदे, बिना नदी के घाट रहे हैं। 
अंतर में अंतर पाले वे अंतर्मन-सम्राट रहे हैं?
जननायक जनगण के शोषक, लोकतंत्र के भाग्य-विधाता
निज वेतन-भत्ता बढ़वाकर अर्थ-व्यवस्था चाट रहे हैं
सत्य-सनातन मूल्य, पुरातन संस्कृति की अब बात मत करो
नव विकास के प्रस्तोता मिल इसे बताते हाट रहे हैं
मखमल के कालीन मिले या मलमल के कुरते दोनों में
अधुनातनता के अनुयायी बस पैबन्दी टाट रहे हैं
पट्टी बाँधे गांधारी सी, न्याय-व्यवस्था निज आँखों पर
धृतराष्ट्री हैं न्यायमूर्तियाँ, अधिवक्तागण भाट रहे हैं
राजमार्ग निज-हित के चौड़े, जन-हित की पगडंडी सँकरी
जात-पाँत के ढाबे-सम्मुख ऊँच-नीच के खाट रहे हैं
'सेवा से मेवा' ठुकराकर 'मेवा हित सेवा' के पथ पर
पग रखनेवाले सेवक ही नेता-साहिब लाट रहे हैं
'मन की बात' करें मनमानी, जन की बात न तंत्र सुन रहा। 
लोकतंत्र के शव से धनपति लोभ खाई को पाट रहे हैं।। 
मिथ्या मान-प्रतिष्ठा की दे रहे दुहाई बैठ खाप में
'सलिल' अत्त के सभी सयाने मिल अपनी जड़ काट रहे हैं
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हाट = बाज़ार, भारत की न्याय व्यवस्था की प्रतीक मूर्ति की आँखों पर पट्टी चढ़ी है, लाट साहिब = बड़े अफसर, खाप = पंचायत, जन न्यायालय, अत्त के सयाने = हद से अधिक होशियार = व्यंगार्थ वास्तव में मूर्ख।
१-६-२०१० 
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