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मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

लघुकथा

विमर्श 
कैसी हो लघुकथा?
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
यह यक्षप्रश्न ऐसा है जिसका हर पांडव अलग-अलग उत्तर देता है और यक्ष का उत्तर सबसे अलग होना ही है। 
अर्थशास्त्र में कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। 
लघुकथा के सन्दर्भ में दो लघुकथाकारों के चार मत होते हैं, इसलिए एक ही लघुकथाकार अलग-अलग समय पर अलग-अलग बातें कहता है। 
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी.... संपादक जी के कहे अनुसार 'कम में अधिक' कहना है तो मेरे मत में 'लघु' को 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर' की तरह 'कम से कम में अधिक से अधिक कहने' में समर्थ होना चाहिए। 
कितना लघु हो?
यह कथ्य की माँग और कथाकार की सामर्थ्य पर निर्भर है। एक-दो वाक्यों से लेकर लगभग एक पृष्ठ तक। 
पश्चात्वर्ती पर अधिक महत्वपूर्ण तत्व है 'कथा', कथा वह जो कही जाए, कही वह जाए जो कहने योग्य हो, कहने योग्य वह जिसे कहने का कुछ उद्देश्य हो, निरुद्देश्य कथा कही जाए या न कही जाए, क्या फर्क पड़ता है? 
सोद्देश्य कथा तो उपन्यास, आख्यायिका, और कहानी में भी कही जाती है। लघुकथा सबसे भिन्न इसलिए है कि इसमें 'पिन पॉइंटेड' कहना है। चरित्र चित्रण, कथोकथन आदि का स्थान नहीं है। 
लघु कथा में अ. लघुता, आ. कथात्मकता, इ. मर्मस्पर्शिता/मर्मबेधकता तथा ई. उद्देश्य परकता ये चार तत्व अनिवार्य हैं। शीर्षक, मारक वाक्य, अंत, भाषा शैली, शब्द चयन वाक्य संरचना आदि विधा के तत्व नहीं लेखक की शैली के अंग हैं। 
लघुकथा के कई प्रकार हैं। भारत में सनातन साहित्यिक-सामाजिक विरासत का अभिन्न हिस्सा लघुकथा कई प्रकार से लोककथा, पर्व कथा, बाल कथा, बोध कथा, दृष्टांत कथा, उपदेश कथा, नुक्क्ड़ कथा, यात्रा कथा, शिकार कथा, गल्प, गप्प, आख्यान आदिके रूप में कहीं गयी है। ये विधा के तत्व नहीं प्रकार है। 
लक्षणात्मकता, व्यञजनात्मकता, सरसता, सरलता, प्रासंगिकता, समसामयिकता आदि लघुकथाकर की भाषा शैली की विशेषताएँ हैं लघुकथा के तत्व नहीं हैं। 
लघुकथा की सुदीर्घ विरासत, प्रकार और प्रभाव जितना भारत में है, अन्यत्र कहीं नहीं है।
*
संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
ओवरटाइम कर रहे, दिवस-रात यमदूत
शाबासी यमराज दें, भत्ते बाँट अकूत
*
आहुति पाकर चंडिका, कंकाली के साथ
भ्रमण करें भयभीत जग, झुका नवाये माथ
*
जनसंख्या यमलोक में, बढ़ी नहीं भूखंड
रेट हाई हैं आजकल, बढ़ी डिमांड प्रचंड
*
हैं रसूल एकांत में, सब बंदों से दूर
कह सोशल डिस्टेंसिंग, बंदे करें जरूर
*
गुरु कहते रख स्वच्छता, बाँटो कड़ा प्रसाद
कोई भूखा ना रहे, तभी सुनूँ अरदास
*
ईसा मूसा नमस्ते करें, जोड़कर हाथ
गले क्यों मिलें दिल मिले, जनम जनम का साथ
*
आज सुरेंद्र नरेंद्र का, है समान संदेश
सुर नर व्यर्थ न घूमिए, मानें परमादेश
*
भोले भंडारी कहें, खुले रखो भंडार
जितना दो उतना बढ़े, सच मानो व्यापार
*
मौन लक्ष्मी दे रहीं, भक्तों को संदेश
दान दिया धन दस गुना, हो दे लाभ अशेष
*
शारद के भंडार को, जो बाँटे ले जोड़
इसीलिए तो लगी है, नवलेखन की होड़
*
चित्र गुप्त हो रहे हैं, उद्घाटित नित आज
नादां कहते दुर्वचन, रहा न दूजा काज
*

छत्तीसगढ़ी नवगीत

छत्तीसगढ़ी नवगीत:
संजीव
.
भोर भई दूँ बुहार देहरी अँगना
बाँस बहरी टेर रही रुक जा सजना
बाँसगुला केश सजा हेरूँ ऐना
बाँसपिया देख-देख फैले नैना
बाँसपूर लुगरी ना पहिरब बाबा
लज्जा से मर जाउब, कर मत सैना
बाँस पुटु खूब रुचे, जीमे ललना
बाँस बजें तैं न जा मोरी सौगंध
बाँस बराबर लबार बरठा बरबंड
बाँस चढ़े मूँड़ झुके बाँसा कट जाए
बाँसी ले, बाँसलिया बजा देख चंद
बाँस-गीत गुनगुना, भोले भजना
बगदई मैया पूजूँ, बगियाना भूल
बतिया बड़का लइका, चल बखरी झूल
झिन बद्दी दे मोको, बटर-बटर हेर
कर ले बमरी-दतौन, डलने दे धूल
बेंस खोल, बासी खा, झल दे बिजना
***
शब्दार्थ : बाँस बहरी = बाँस की झाड़ू, बाँस पुटु = बाँस का मशरूम, जीमना = खाना, बाँसपान = धान के बाल का सिरा जिसके पकने से धान के पकाने का अनुमान किया जाता है, बाँसगुला = गहरे गुलाबी रंग का फूल, ऐना = आईना, बाँसपिया = सुनहरे कँसरइया पुष्प की काँटेदार झाड़ी, बाँसपूर = बारीक कपड़ा, लुगरी = छोटी धोती, सैना = संकेत, बाँस बजें = मारपीट होना, लट्ठ चलना, बाँस बराबर = बहुत लंबा, लबार = झूठा, बरठा = दुश्मन, बरबंड - उपद्रवी, बाँस चढ़े = बदनाम हुए, बाँसा = नाक की उभरी हुई अस्थि, बाँसी = बारीक-सुगन्धित चावल, बाँसलिया = बाँसुरी, बाँस-गीत = बाँस निर्मित वाद्य के साथ अहीरों द्वारा गाये जानेवाले लोकगीत, बगदई = एक लोक देवी, बगियाना = आग बबूला होना, बतिया = बात कर, बड़का लइका = बड़ा लड़का, बखरी = चौकोर परछी युक्त आवास, झिन = मत, बद्दी = दोष, मोको = मुझे, बटर-बटर हेर = एकटक देख, बमरी-दतौन = बबूल की डंडी जिससे दन्त साफ़ किये जाते हैं, धूल डालना = दबाना, भुलाना, बेंस = दरवाजे का पल्ला, कपाट, बासी = रात को पकाकर पानी डालकर रखा गया भात, बिजना = बाँस का पंखा.
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डी १०५ शैलेन्द्र नगर रायपुर. ९४२५१ ८३२४४

सामयिक दोहे

सामयिक दोहे
'वृद्ध-रत्न' सम्मान दें, बच्चों को यदि आप।
कहें न क्या अपमान यह, रहे किस तरह माप?
*
'उत्तम कोंग्रेसी' दिया, अलंकरण हो हर्ष।
भाजपाई किस तरह ले, उसे लगा अपकर्ष।।
*
'श्रेष्ठ यवन' क्यों दे रहे पंडित जी को मित्र।
'मर्द रत्न' महिला गहे, बहुत अजूबा चित्र।।
*
'फूल मित्र' ले रहे हैं, हँसकर शूल खिताब।
'उत्तम पत्थर'विरुद पा, पीटे शीश गुलाब।।
*
देने-लेने ने किया, सचमुच बंटाढार।
लेन-देन की सत्य ही महिमा सलिल अपार।।
*
लोकतंत्र की हो गई, आज हार्ट-गति तेज?
राजनीति को हार्ट ने, दिया सँदेसा भेज?
*
वादा कर जुमला बता, करते मन की बात
मनमानी को रोक दे, नोटा झटपट तात
*
मत करिए मत-दान पर, करिए जग मतदान
राज-नीति जन-हित करे, समय पूर्व अनुमान
*
लोकतंत्र में लोकमत, ठुकराएँ मत भूल
दल-हित साध न झोंकिए, निज आँखों में धूल
*
सत्ता साध्य न हो सखे, हो जन-हित आराध्य
खो न तंत्र विश्वास दे, जनहित से हो बाध्य
*
नोटा का उपयोग कर, दें उन सबको रोक
स्वार्थ साधते जो रहे, उनको ठीकरा लोक
**
१३-४-२०१९ 
संवस

१३.४.२०१९

भव छंद सोमराजी छंद

छंद बहर का मूल है: १
छंद परिचय:
दस मात्रिक दैशिक जातीय भव छंद।
षडवार्णिक गायत्री जातीय सोमराजी छंद।
संरचना: ISS ISS,
सूत्र: यगण यगण, यय।
बहर: फ़ऊलुं फ़ऊलुं ।
*
कहेगा-कहेगा
सुनेगा-सुनेगा।
हमारा-तुम्हारा
फ़साना जमाना।
मिलेंगे-खिलेंगे
चलेंगे-बढ़ेंगे।
गिरेंगे-उठेंगे
बनेंगे निशाना।
न रोके रुकेंगे
न टोंके झुकेंगे।
कभी ना चुकेंगे
हमें लक्ष्य पाना।
नदी हो बहेंगे
न पीड़ा तहेंगे।
ख़ुशी से रहेंगे
सुनाएँ तराना।
नहीं हार मानें
नहीं रार ठानें।
नहीं भूल जाएँ
वफायें निभाना।
***

कार्य शाला कुंडलिया- दोहा शशि पुरवार रोला: संजीव

कार्य शाला एक कुंडलिया- दो रचनाकार
दोहा: शशि पुरवार
रोला: संजीव
*
सड़कों के दोनों तरफ, गंधों भरा चिराग
गुलमोहर की छाँव में, फूल रहा अनुराग
फूल रहा अनुराग, लीन घनश्याम-राधिका
दग्ध कंस-उर, हँसें रश्मि-रवि श्वास साधिका
नेह नर्मदा प्रवह, छंद गाती मधुपों के
गंधों भरे चिराग, प्रज्वलित हैं सड़कों के
***

जैनेन्द्र कुमार

 जैनेन्द्र कुमार के कहा था :

1. भाषा के बारे में कोई कुछ भी सुझाव दे, ध्यान मत दो ।
2. जिस लेखक को तिरस्कार मिलता है, वह उससे बेहत्तर लिखता है, जिसे जल्द पुरस्कार मिल जाता है ।

Ratan Tata says

Ratan Tata says- 
रतन टाटा के सुविचार (दोहानुवाद 'सलिल') 
1. None can destroy iron, but its own rust can!
Likewise, none can destroy a person, but his own mindset can.
१. नाश न लोहे का करे, अन्य किन्तु निज जंग
अन्य नहीं मस्तिष्क निज, करें व्यक्ति को तंग
2. Ups and downs in life are very important to keep us going, because a straight line even in an E.C.G. means we are not alive.
२. ऊँच-नीच से ही मिले, जीवन में आनंद
ई.सी.जी. में पंक्ति यदि, सीधी धड़कन बंद
3. F-E-A-R : has two meanings :
1. Forget Everything And Run
2. Face Everything And Rise.
३. भय के दो ही अर्थ हैं, भूल भुलाकर भाग
या डटकर कर सामना, जूझ लगा दे आग
***

हिंदुओं में ममेरे-फुफेरे भाई-बहिनों में विवाह


विमर्श 
क्या द्वापरयुगीन  हिंदुओं में ममेरे-फुफेरे भाई-बहिनों में विवाह स्वीकार्य थे?
*
कुंती कृष्ण की बुआ थीं, इस नाते अर्जुन कृष्ण के फुफेरे भाई थे तथापि कृष्ण ने स्वयं सुभद्रा के मन में अर्जुन के प्रति आकर्षण उत्पन्न किया और अर्जुन को सुभद्रा हरण की प्रेरणा दी। यह फुफेरे भाई और ममेरी बहिन का विवाह था। 
अर्जुन की चार पत्नियों से कुल छह बच्चे थे। द्रौपदी से एक पुत्र श्रुतकर्मा और जुड़वाँ बेटियाँ प्रगति और प्रज्ञा, सुभद्रा से पराक्रमी अभिमन्यु, उलूपी से  पुत्र इरावन, चित्रांगदा से महावीर बभ्रुवाहन। प्रगति और प्रज्ञा के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। प्रगति और सुथानु (युधिष्ठिर और द्रौपदी की बेटी) पांडव निर्वासन काल में जन्मी थीँ। कुरुक्षेत्र के महायुद्ध की समाप्ति के बाद, सुथनु की शादी कृष्ण और सत्यभामा के पुत्र स्वराभानु से हुई थी। यह भी फुफेरे भाई और ममेरी बहिन का विवाह था। 
इन दोनों विवाहों में पिताक्षर (पिता की सात पीढ़ियों)और मिताक्षर (माँ की पाँच पीढ़ियों) में विवाह निषेध संबंधी नियम का पालन किया गया था। 

हल्दी घाटी

हल्दी घाटी 

राजस्थान बोर्ड की किताब "राजस्थान का इतिहास और संस्कृति" में महेंद्र भानावत की किताब अजूबा भारत के अनुसार हल्दीघाटी का नाम हल्दी (पीले) रंग की मिट्टी से हल्दीघाटी नहीं पड़ा। लाल, काली, पीली तीनों रंगों की मिट्टी मिलती है यहां। घाटी नाम दिया गया क्योंकि यहां हल्दी चढ़ी नवविवाहित महिला पुरुष रूप में अस्त्र -शस्त्र धारण कर युद्ध में लड़कर वीरगति को प्राप्त हो गई थी। महाराणा की सेना मुगल सेना के मुकाबले बहुत कम थी इसलिए १५० नव वधुएँ महाराणा प्रताप की पत्नी के नेतृत्व में लड़ी । 

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

द्विपदि शे'र

द्विपदि सलिला (अश'आर)
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकान हजारों
मैं ढून्ढ-ढून्ढ हारा, घर एक नहीं मिलता
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी
मर गया तो तेरही में दावतें हुईं
*
परवाने जां निसार कर देंगे
हम चरागे-रौशनी तो बन जाएँ
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम
फूल बन महको, चली आएँगी ये
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बन जाते हैं काम, कोशिश करने से 'सलिल'
भला करेंगे राम, अनथक करो प्रयास नित
*
मुझ बिन न तुझमें जां रहे बोला ये तन से मन
मुझ बिन न तू यहां रहे, तन मन से कह रहा
*
औरों के ऐब देखकर मन खुश बहुत हुआ
खुद पर पड़ी नज़र तो तना सर ही झुक गया
*
तुम पर उठाई एक, उठी तीन अँगुलियाँ
खुद की तरफ, ये देख कर चक्कर ही आ गया
*
हो आईने से दुश्मनी या दोस्ती 'सलिल'
क्या फर्क? जब मिलेगा, कहेगा वो सच सदा
*
देवों को पूजते हैं जो वो भोग दिखाकर
खुद खा रहे, ये सोच 'इससे कोई डर नहीं'
*
आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
*
एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
*
बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
*
आ काश! कि आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
*
जानेवाले लौटकर आ जाएँ तो
आनेवालों को जगह होगी कहाँ?
*
मंच से कुछ पात्र यदि जाएँ नहीं
मंच पर कुछ पात्र कैसे आयेंगे?
*
जो गया तू उनका मातम मत मना
शेष हैं जो उनकी भी कुछ फ़िक्र कर
*
मोह-माया तज गए थे तीर्थ को
मुक्त माया से हुए तो शोक क्यों?
*
है संसार असार तो छुटने का क्यों शोक?
गए सार की खोज में, मिला सार खुश हो
*
बहे आँसू मगर माशूक ने नाता नहीं जोड़ा
जलाया दिल, बनाया तिल और दिल लूट लिया
*
जब तक था दूर कोई मुझे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
ज्योति जलती तो पतंगे लगाते हैं हाजरी
टेरता है जब तिमिर तो पतंगा आता नहीं
.
हों उपस्थित या जहाँ जो वहीं रचता रहे
सृजन-शाला में रखे, चर्चा करें हम-आप मिल
.
हों अगर मतभेद तो मनभेद हम बनने न दें
कार्य सारस्वत करेंगे हम सभी सद्भाव से
.
जब मिलें सीखें-सिखायें शारदा आशीष दें
विश्व भाषा हैं सनातन हमारी हिंदी अमर
.
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
*
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
*
उनका भगवा हाथ है, इनके पंजे में कमल
आम आदमी को ठगें दोनों का व्यवसाय है
*
'राज्य बनाया है' कहो या 'तोडा है राज्य'
साध रही है सियासत केवल अपना स्वार्थ
*
दीनदयालु न साथ दें, न ही गरीब नवाज़
नहीं आम से काम है, हैं खासों के साथ
*
चतुर्वेदी को मिला जब राह में कोई कबीर
व्यर्थ तत्क्षण पंडितों की पंडिताई देख ली
*
सुना रहा गीता पंडित जो खुद माया में फँसा हुआ
लेकिन सारी दुनिया को नित मुक्ति-राह बतलाता है
*
आह न सुनता किसी दीन की बात दीन की खूब करे
रोज टेरता खुदा न सुनता मुल्ला हुआ परेशां है
*
हो चुका अवतार, अब हम याद करते हैं मगर
अनुकरण करते नहीं, क्यों यह विरोधाभास है?
*
कल्पना इतनी मिला दी, सत्य ही दिखता नहीं
पंडितों ने धर्म का, हर दिन किया उपहास है
*
गढ़ दिया राधा-चरित, शत मूर्तियाँ कर दीं खड़ी
हिल गयी जड़ सत्य की, क्या तनिक भी अहसास है?
*
शत विभाजन मिटा, ताकतवर बनाया देश को
कृष्ण ने पर भक्त तोड़ें, रो रहा इतिहास है
*
रूढ़ियों से जूझ गढ़ दें कुछ प्रथाएँ स्वस्थ्य हम
देश हो मजबूत, कहते कृष्ण- 'हर जन खास है'
*
भ्रष्ट शासक आज भी हैं, करें उनका अंत मिल
सत्य जीतेगा न जन को हो सका आभास है
*
फ़र्ज़ पहले बाद में हक़, फल न अपना साध्य हो
चित्र जिसका गुप्त उसका देह यह आवास है.
***

समीक्षा युद्धरत हूँ मैं हिमकर श्याम

कृति चर्चा:
युद्धरत हूँ मैं : जिजीविषा गुंजाती कविताएँ
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(कृति विवरण: युद्धरत हूँ मैं, हिंदी गजल-काव्य-दोहा संग्रह, हिमकर श्याम, प्रथम संस्करण, २०१८, आईएसबीएन ९७८८१९३७१९०७७, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ २१२, मूल्य २७५रु., नवजागरण प्रकाशन, नई दिल्ली, कवि संपर्क बीच शांति एंक्लेव, मार्ग ४ ए, कुसुम विहार, मोराबादी, राँची ८३४००८, चलभाष ८६०३१७१७१०)
*
आदिकवि वाल्मीकि द्वारा मिथुनरत क्रौंच युगल के नर का व्याध द्वारा वध किए जाने पर क्रौंच के चीत्कार को सुनकर प्रथम काव्य रचना हो, नवजात शावक शिकारी द्वारा मारे जाने पर हिरणी के क्रंदन को सुनकर लिखी गई गजल हो, शैली की काव्य पंक्ति 'अवर स्वीटैस्ट सौंग्स आर दोस विच टैल अॉफ सैडेस्ट थॉट' या साहिर का गीत 'हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं' यह सुनिश्चित है कि करुणा और कविता का साथ चोली-दामन का सा है। दुनिया की कोई भी भाषा हो, कोई भी भू भाग हो आदमी की अनुभूति और अभिव्यक्ति समान होती है। पीड़ा, पीड़ा से मुक्ति की चेतना, प्रयास, संघर्ष करते मन को जब यह प्रतीति हो कि हर चुनौती, हर लड़ाई, हर कोशिश करते हुए अपने आप से 'युद्धरत हूँ मैं' तब कवि कविता ही नहीं करता, कविता को जीता है। तब उसकी कविता पिंगल और व्याकरण के मानक पर नहीं, जिंदगी के उतार-चढ़ाव पर बहती हुई नदी की उछलती-गिरती लहरों में निहित कलकल ध्वनि पर परखी जाती है।
हिमकर श्याम की कविता दिमाग से नहीं, दिल से निकलती है। जीवन के षट् राग (खटराग) में अंतर्निहित पंचतत्वों की तरह इस कृति की रचनाएँ कहनी हैं कुछ बातें मन की, युद्धरत हूँ मैं, आखिर कब तक?, झड़ता पारिजात तथा सबकी अपनी पीर पाँच अध्यायों में व्यवस्थित की गई हैं। शारदा वंदन की सनातन परंपरा के साथ बहुशिल्पीय गीति रचनाएँ अंतरंग भावनाओं से सराबोर है।
आरंभ में ३ से लेकर ६ पदीय अंतरों के गीत मन को बाँधते हैं-
सुख तो पल भर ही रहा, दुख से लंबी बात
खुशियाँ हैं खैरात सी, अनेकों की सौग़ात
उलझी-उलझी ज़िंदगी, जीना है दुश्वार
साँसों के धन पर चले जीवन का व्यापार
चादर जितनी हो बड़ी, उतनी ही औक़ात
व्यक्तिगत जीवन में कर्क रोग का आगमन और पुनरागमन झेल रहे हिमकर श्याम होते हुए भी शिव की तरह हलाहल का पान करते हुए भी शुभ की जयकार गुँजाते हैं-
दुखिया मन में मधु रस घोलो
शुभ-मंगल सब मिलकर बोलो
छंद नया है, राग नया है
होंठों पर फिर फाग नया है
सरगम के नव सुर पर डोलो
शूलों की सेज पर भी श्याम का कवि-पत्रकार देश और समाज की फ़िक्र जी रहा है।
मँहगा अब एतबार हो गया
घर-घर ही बाजार हो गया
मेरी तो पहचान मिट गई
कल का मैं अखबार हो गया
विरासत में अरबी-फारसी मिश्रित हिंदी की शब्द संपदा मसिजीवी कायस्थ परिवारों की वैशिष्ट्य है। हिमकर ने इस विरासत को बखूबी तराशा-सँभाला है। वे नुक़्तों, विराम चिन्हों और संयोजक चिन्ह का प्रयोग करते हैं।
'युद्धरत हूँ मैं' में उनके जिजीविषाजयी जीवन संघर्ष की झलक है किंतु तब भी कातरता, भय या शिकायत के स्थान पर परिचर्चा में जुटी माँ, पिता और मामा की चिंता कवि के फौलादी मनोबल की परिचायक है। जिद्दी सी धुन, काला सूरज, उपचारिकाएँ, किस्तों की ज़िंदगी, युद्धरत हूँ मैं, विष पुरुष, शेष है स्वप्न, दर्द जब लहराए आदि कविताएँ दर्द से मर्द के संघर्ष की महागाथाएँ हैं। तन-मन के संघर्ष को धनाभाव जितना हो सकता है, बढ़ाता है तथापि हिमकर के संकल्प को डिगा नहीं पाता। हिमकर का लोकहितैषी पत्रकार ईसा की तरह व्यक्तिगत पीड़ा को जीते हुए भी देश की चिंता को जीता है। सत्ता, सुख और समृद्धि के लिए लड़े-मरे जा रहे नेताओं, अफसरों और सेठों के हिमकर की कविताओं के पढ़कर मनुष्य होना सीखना चाहिए।
दम तोड़ती इस लोकतांत्रिक
व्यवस्था के असंख्य
कलियुगी रावणों का हम
दहन करना भी चाहें तो
आखिर कब तक
*
तोड़ेंगे हम चुप्पी
और उठा सकेंगे
आवाज़
सर्वव्यापी अन्याय के ख़िलाफ़
लड़ सकेंगे तमाम
खौफ़नाक वारदातों से
और अपने इस
निरर्थक अस्तित्व को
कोई अर्थ दे सकेंगे हम।
*
खूब शोर है विकास का
जंगल, नदी, पहाड़ की
कौन सुन रहा चीत्कार
अनसुनी आराधना
कैसी विडंबना
बिखरी सामूहिक चेतना
*
यह गाथा है अंतहीन संघर्षों की
घायल उम्मीदों की
अधिकारों की है लड़ाई
वजूद की है जद्दोजहद
समय के सत्य को जीते हुए, जिंदगी का हलाहल पीते हुए हिमकर श्याम की युगीन चिंताओं का साक्षी दोहा बना है।
सरकारें चलती रहीं, मैकाले की चाल
हिंदी अपने देश में, अवहेलित बदहाल
कैसा यह उन्माद है, सर पर चढ़ा जुनून
खुद ही मुंसिफ तोड़ते, बना-बना कानून
चाक घुमाकर हाथ से, गढ़े रूप आकार
समय चक्र धीमा हुआ, है कुम्हार लाचार
मूर्ख बनाकर लोक को, मौज करे ये तंत्र
धोखा झूठ फरेब छल, नेताओं के मंत्र
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा प्रकाशित सहयोगाधारित दोहा शतक मंजूषा के भाग २ 'दोहा सलिला निर्मला' में सम्मिलित होने के लिए मुझसे दोहा लेखन सीखकर श्याम ने मुझे गत ५ दशकों की शब्द साधना का पुरस्कार दिया है। सामान्यतः लोग सुख को एकाकी भोगते और दुख को बाँटते हैं किंतु श्याम अपवाद है। उसने नैकट्य के बावजूद अपने दर्द और संघर्ष को छिपाए रखा।इस कृति को पढ़ने पर ही मुझे विद्यार्थी श्याम में छिपे महामानव के जीवट की अनुभूति हुई।
इस एक संकलन में वस्तुत: तीन संकलनों की सामग्री समाविष्ट है। अशोक प्रियदर्शी ने ठीक ही कहा है कि श्याम की रचनाओं में विचार की एकतानता तथा कसावट है और कथन भंगिमा भी प्रवाही है। कोयलांचल ही नहीं देश के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार हरेराम त्रिपाठी 'चेतन' के अनुसार 'रचनाकार अपनी सशक्त रचनाओं से अपने पूर्व की रचनाओं के मापदंडों को झाड़ता और उससे आगे की यात्रा को अधिक जिग्यासा पूर्ण बनाकर तने हुए सामाजिक तंतुओं में अधिक लचीलापन लाता है। मानव-मन की जटिलताओं के गझिन धागों को एक नया आकार देता है।'
इन रचनाओं से गुजरने हुए बार-बार यह अनुभूति होना कि किसी और को नहीं अपने आपको पढ़ रहा हूँ, अपने ही अनजाने मैं को पहचानने की दिशा में बढ़ रहा हूँ और शब्दों की माटी से समय की इबारत गढ़ रहा हूँ। मैं श्याम की जिजीविषा, जीवट, हिंदी प्रेम और रचनाधर्मिता को नमन करता हूँ।
हर हिंदी प्रेमी और सहृदय इंसान श्याम को जीवन संघर्ष का सहभागी और जीवट का साक्षी बन सकता है इस कृति को खरीद-पढ़कर। मैं श्याम के स्वस्थ्य शतायु जीवन की कामना करता हुए आगामी कृतियों की प्रतीक्षा करता हूँ।
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८ ।
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गीत

गीत 
*
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
ऐसा सोच न नयन मूँदना
खुली आँख सपने देखो
खुद को देखो, कौन कहाँ क्या
करता वह सब कम लेखो
कदम न रोको
लिखो, ठिठककर
सोचो, क्या मन में टिकता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
नहीं चिकित्सक ने बोला है
घिसना कलम जरूरी है
और न यह कानून बना है
लिखना कब मजबूरी है?
निज मन भाया
तभी कर रहीं
सोचो क्या मन को रुचता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
मन खुश है तो जग खुश मानो
अपना सत्य आप पहचानो
व्यर्थ न अपना मन भटकाओ
अनहद नाद झूमकर गाओ
झूठ सदा
बिकता बजार में
सत्य कभी देखा बिकता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
संवस

बुन्देली मुक्तिका

बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
संजीव
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
*

तंत्रोक्त रात्रिसूक्त

हिंदी काव्यानुवाद-
तंत्रोक्त रात्रिसूक्त
*
II यह तंत्रोक्त रात्रिसूक्त है II
I ॐ ईश्वरी! धारक-पालक-नाशक जग की, मातु! नमन I
II हरि की अनुपम तेज स्वरूपा, शक्ति भगवती नींद नमन I१I
*
I ब्रम्हा बोले: 'स्वाहा-स्वधा, वषट्कार-स्वर भी हो तुम I
II तुम्हीं स्वधा-अक्षर-नित्या हो, त्रिधा अर्ध मात्रा हो तुम I२I
*
I तुम ही संध्या-सावित्री हो, देवी! परा जननि हो तुम I
II तुम्हीं विश्व को धारण करतीं, विश्व-सृष्टिकर्त्री हो तुम I३I
*
I तुम ही पालनकर्ता मैया!, जब कल्पांत बनातीं ग्रास I
I सृष्टि-स्थिति-संहार रूप रच-पाल-मिटातीं जग दे त्रास I४I
*
I तुम्हीं महा विद्या-माया हो, तुम्हीं महा मेधास्मृति हो I
II कल्प-अंत में रूप मिटा सब, जगन्मयी जगती तुम हो I५I
*
I महा मोह हो, महान देवी, महा ईश्वरी तुम ही हो I
II सबकी प्रकृति, तीन गुणों की रचनाकर्त्री भी तुम हो I६I
*
I काल रात्रि तुम, महा रात्रि तुम, दारुण मोह रात्रि तुम हो I
II तुम ही श्री हो, तुम ही ह्री हो, बोधस्वरूप बुद्धि तुम हो I७I
*
I तुम्हीं लाज हो, पुष्टि-तुष्टि हो, तुम ही शांति-क्षमा तुम हो I
II खड्ग-शूलधारी भयकारी, गदा-चक्रधारी तुम हो I८I
*
I तुम ही शंख, धनुष-शर धारी, परिघ-भुशुण्ड लिए तुम हो I
II सौम्य, सौम्यतर तुम्हीं सौम्यतम, परम सुंदरी तुम ही हो I९I
*
I अपरा-परा, परे सब से तुम, परम ईश्वरी तुम ही हो I
II किंचित कहीं वस्तु कोई, सत-असत अखिल आत्मा तुम होI१०I
*
I सर्जक-शक्ति सभी की हो तुम, कैसे तेरा वंदन हो ?
II रच-पालें, दे मिटा सृष्टि जो, सुला उन्हें देती तुम हो I११I
*
I हरि-हर,-मुझ को ग्रहण कराया, तन तुमने ही हे माता! I
II कर पाए वन्दना तुम्हारी, किसमें शक्ति बची माता!! I१२I
*
I अपने सत्कर्मों से पूजित, सर्व प्रशंसित हो माता!I
II मधु-कैटभ आसुर प्रवृत्ति को, मोहग्रस्त कर दो माता!!I१३II'
*
I जगदीश्वर हरि को जाग्रत कर, लघुता से अच्युत कर दो I
II बुद्धि सहित बल दे दो मैया!, मार सकें दुष्ट असुरों को I१४I
*
IIइति रात्रिसूक्त पूर्ण हुआII
१२-४-२०१७

आदि शक्ति वंदना

आदि शक्ति वंदना
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....

समीक्षा इसी आकाश में हरभगवान चावला

पुस्तक सलिला-
इसी आकाश में- कविता की तलाश
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय- इसी आकाश में, कविता संग्रह, हरभगवान चावला, ISBN ९७८-९३-८५९४२-२२-८, वर्ष २०१५, आकार २०.५ x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ १७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर, ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, चलभाष ९८२९०१८०८७, ई मेल bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क- ४०६ सेक़्टर २०, हुडा सिरसा, हरयाणा चलभाष: ०९३५४५४४०]
*
'इसी आकाश में' सिरसा निवासी हरभगवान सिंह का नव प्रकाशित काव्य संग्रह है। इसके पूर्व उनके २ काव्य संग्रह 'कोेे अच्छी खबर लिखना' व 'कुम्भ में छूटी हुई औरतें' तथा एक कहानी संग्रह ' हमकूं मिल्या जियावनहारा' प्रकाशित हो चुके हैं। कविता मेरी आत्मा का सूरज है, कविता हलुआ नहीं हो सकती, कविता को कम से कम / रोटी जैसा तो होना ही चाहिए, जब कविता नहीं थी / क्या तब भी किसी के / छू देने भर से दिल धड़कता था / होंठ कांपते थे, क्या कोई ऐसा असमय था/ जब कविता नहीं थी?, मैंने अपनी कविता को हमेश / धूप, धूल और धुएँ से बचाया...कि कहीं सिद्धार्थ की तरह विरक्त न हो जाए मेरी कविता, मेरी कविता ने नहीं धरे / किसी कँटीली पगडंडी पर पाँव..... पर इतने लाड-प्यार और ऐश्वर्य के होते हुए भी / निरन्तर पीली पड़ती जा रही है, ईंधन की मानिंद भट्टियों में/ झोंक दिए जाते हैं ज़िंदा इंसान / तुम्हारी कविता को गंध नहीं आती.... कहाँ से लाते हो तुम अपनी कविता की ज्ञानेन्द्रियाँ कवि? आदि पंक्तियाँ कवि और कविता के अंतरसंबंधों को तलाशते हुए पाठक को भी इस अभियान में सम्मिलित कर लेती हैं। कविता का आकारित होना 'कविता दो' शीर्षक कविता सामने लाती है-
'प्यास से आकुल कोई चिड़िया
चिकनी चट्टानों की ढलानों पर से फिसलते
पानियों में चोंच मार देती है
कविता यूँ भी आकार लेती है।
अर्थात कविता के लिये 'प्यास' और प्यास से 'मुक्ति का प्रयास' का प्रयास आवश्यक है। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या 'तृप्ति' और 'हताशाजनित निष्प्रयासता' की स्थिति में कविता नहीं हो सकती? 'प्रयास-जनित कविता प्रयास के परिणाम "तृप्ति" से दूर कैसे रह सकती है? विसंगति, विडम्बना, दर्द, पीड़ा और अभाव को ही साहित्य का जनक मानने और स्थापित को नष्ट करना साहित्य का उद्देश्य मानने की एकांगी दृष्टि ने अश्रित्य को विश्व में सर्वत्र ठुकराए जा चुके साम्यवाद को साँसें भले दे दी हों, समाज का भला नहीं किया। टकराव और विघटन से समनस्य और सृजन कैसे पाया जा सकता है? 'तर्क' शीर्षक कविता स्थिति का सटीक विश्लेषण ३ चरणों में करती है- १. सपनों के परिंदे को निर्मम तर्क-तीर ने धरती पर पटक दिया, २. तुम (प्रेयसी) पल भर में छलछलाती नदी से जलती रेत हो जाती है, ३. परिणाम यह की प्यार गेंद की तरह लुढ़काये जाकर लुप्त हो जाता है और शेष रह जाते हैं दो अजनबी जो एक दूसरे को लहूलुहान करने में ही साँसों को जाया कर देते हैं।
'पत्थर हुए गीत' एक अन्य मानसिकता को सामने लाती है। प्यार को अछूत की तरह ठुकराने परिणाम प्यार का पथराना ही हो सकता है। प्रेम से उपजी लगाव की बाँसुरी, बाधाओं की नदी को सौंप दी जाए तो प्रेमियों की नियति लहूलुहान होना ही रह जाती है। कवी ने सरल. सशक्त, सटीक बिम्बों के माध्यम से काम शब्दों में अधिक कहने में सफलता पायी है। वाह पाठक को विचार की अंगुली पकड़ाकर चिंतन के पगडण्डी पर खड़ा कर जाता है, आगे कितनी दूर जाना है यह पाठक पर निर्भर है -
'आँखों की नदी में / सपनों की नाव
हर समय / बारह की आशंका से
डगमगाती।
माँ की ममता समय और उम्र को चुनौती देकर भी तनिक नहीं घटती। इस अनुभूति की अभिव्यक्ति देखें-
मैं पैदा हुआ / तब माँ पच्चीस की थी
आज मैं सत्तावन का हो चला हूँ
माँ, आज भी पच्चीस की है।
व्यष्टि में समष्टि की प्रतीति का आभिनव अंदाज़ 'चूल्हा और नदी' कविता में देखिये-
चूल्हा घर का जीवन है / नदी गाँव का
अलग कहाँ हैं घर और गाँव?
गाँव से घर है / घर से गाँव
चूल्हे को पानी की दरकार है / नदी को आग की
चूल्हा नदी के पास / हर रोज पानी लेने आता है
नदी आती है / चूल्हे के पास आग लेने।
हरभगवान जी की इन ७९ कविताओं की ताकत सच को देखना और बिना पूर्वाग्रह के कह देना है। भाषा की सादगी और बयान में साफगोई उनकी ताकत है। चिट्ठियाँ, मुल्तान की औरतें, गाँव से लौटते हुए, रानियाँ आदि कवितायेँ उनकी संवेदनशील दृष्टि की परिचायक हैं। शिक्षा जगत से जुड़ा कवि समस्या के मूल तक जाने और जड़ को तलाशकर समाधान पाने में समर्थ है। वह उपदेश नहीं देता किन्तु सोचने के दिशा दिखाता है- 'पाप' और 'पाप का घड़ा' शीर्षक दो रचनाओं कवि का शिक्षक प्रश्न उठता है, उसका उत्तर नहीं देता किन्तु वह तर्क प्रस्तुत कर देता है जिससे पाठकरूपी विद्यार्थ उठता देने की मनस्थिति में आ सके-
पाप
अपने पापों को
आटे में गूँथकर पेड़ा बनाइये
अपने हाथों पेड़ा गाय को खिलाइये
और फिर पाप करने में जुट जाइये।
पाप का घड़ा
अंजुरी भर-भर / घड़े में उड़ेल दो
अपने सारे पाप
पाप का घड़ा / अभी बहुत खाली है
घड़ा जब तक भरेगा नहीं
ईश्वर कुछ करेगा नहीं।
इसी आकाश में की कवितायें मन की जड़ता को तोड़कर स्वस्थ चिंतन की और प्रेरित करती हैं। कवि साधुवाद का पात्र है। ज़िंदगी में हताशा के लिये कोई जगह नहीं है, मिट्टी है तो अंकुर निकलेंगे ही-
युगों से तपते रेगिस्तान में / कभी फूट आती है घास
दुखों से भरे मन के होठों पर / अनायास फूट पड़ती है हँसी
धरती है तो बाँझ कैसे रहेगी सदा
ज़िंदगी है तो दुखों की कोख में से भी
पैदा होती रहेगी हँसी।
समाज में विघटनहनित आँसू का सैलाब लाती सियासत के खिलाफ कविता हँसी लाने का अभियान चलती रहे यही कामना है।
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-समन्वयम् २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४

समीक्षा वैशाख प्रिय वैशाख दिनकर कुमार

पुस्तक चर्चा:
'वैशाख प्रिय वैशाख' कविताओं के पल्लव प्रेम की शाख
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- वैशाख प्रिय वैशाख, बिहू गीत आधृत कवितायेँ, दिनकर कुमार, प्रथम संस्करण जनवरी २०१६, आकार २०.५ सेंटीमीटर x १३.५ सेंटीमीटर, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ ११६, मूल्य ८०/-, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाइस गोदाम जयपुर ३०२००६ दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, ९८२९० १८०८७, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क- गृह क्रमांक ६६, मुख्या पथ, तरुण नगर, एबीसी गुवाहाटी ७८१००५ असम, चलभाष ०९४३५१०३७५५, ईमेल dinkar.mail@gmail.com ] 
*
आचार्य रामचंद्र शुक्ल कविता के शब्दों में - 'मनुष्य अपने भावों, विचारों और व्यापारों को लिये 'दूसरे के भावों', विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलाता और कहीं लड़ाता हुआ अंत तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जिस अनंत-रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत। जब तक कोई अपनी पृथक सत्ता की भावना को ऊपर किये इस क्षेत्र के नाना रूपों और व्यापारों को अपने योग-क्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि से सम्बद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपनी पृथक सत्ता की धारणा से छुटकर, अपने आप को बिल्कुल भूलकर विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त-हृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। यहाँ शुक्ल जी का कविता से आशय गीति रचना से हैं।
प्रतिमाह १५-२० पुस्तकें पढ़ने पर भी एक लम्बे अरसे बाद कविता की ऐसी पुस्तक से साक्षात् हुआ जो शुक्ल जी उक्त अवधारणा को मूर्त करती है। यह कृति है श्री दिनकर कुमार रचित काव्य संग्रह 'वैशाख प्रिय वैशाख'। कृति की सभी ७९ कवितायेँ असम के लोकपर्व 'बिहू' पर आधारित हैं। अधिकांश रचनाओं में कवि 'स्व' में 'सर्व' को तथा 'सर्व' में 'स्व' को विलीन करता प्रतीत होता है. 'मैं' और 'प्रेमिका' के दो पात्रों के इर्द-गिर्द कही गयी कविताओं में प्रकृति सम्पर्क सेतु की भूमिका में है। प्रकृति और जीवन की हर भाव-भंगिमा में 'प्रिया' को देखना-पाना 'द्वैत में अद्वैत' का संधान कर 'स्व' में 'सर्व' के साक्षात् की प्रक्रिया है। भावप्रवणता से संपन्न कवितायेँ गीति रचनाओं के सन्निकट हैं। मुखड़ा-अन्तर के विधान का पालन न करने पर भी भाव, रस, बिम्ब, प्रतीक, कोमल-कान्त पदावली और यत्र-तत्र बिखरे लय-खंड मन को आनंदानुभूति से रस प्लावित कर पाते हैं।
सात कविता संग्रह, दो उपन्यास, दो जीवनियाँ, ५० से अधिक असमिया पुस्तकों के अनुवाद का कार्य कर चुके और सोमदत्त सम्मान, भाषा सेतु सम्मान, पत्रकारिता सम्मान, अनुवाद श्री सम्मान से सम्मानित कवि का रचनाविधान परिपक्व होना स्वाभाविक है। उल्लेख्य यह है कि दीर्घ और निरंतर सृजन यात्रा में वह नगरवासी होते हुए भी नगरीय आकर्षण से मुक्त रहकर प्रकृति से अभिन्न होकर रचनाओं में प्रकृति को उसकी अम्लानता में देख और दिखा सका है। विडंबना, विद्वेष, विसंगति और विखंडन के अतिरेकी-एकांगी चित्रण से समाज और देश को नारकीय रूप में चित्रित करते तथाकथित प्रगतिवादी साहित्य की अलोकप्रियता और क्षणभंगुरता की प्रतिक्रिया सनातन शुभत्वपरक साहित्य के सृजन के रूप में प्रतिफलित हुआ है। वैशाख प्रिय वैशाख उसी श्रंखला की एक कड़ी है।
यह कृति पूरी तरह प्रकृति से जुडी है। कपौ, केतकी, तगर, भाटौ, गेजेंट, जूति, मालती, मन्दार, इन्द्रमालती, चंपा, हरसिंगार, अशोक, नागेश्वर, शिरीष, पलाश, गुलमोहर, बांस, सेमल, पीपल, लक, सरसों, बरगद, थुपूकी, गूलर, केला आदि पेड़ पौधों के संग पान-सुपारी, तांबूल, कास, घास, धान, कद्दू, तरोई, गन्ना, कमल, तुलसी अर्थात परिवेश की सकल वनस्पतियाँ ऋतु परिवर्तन की साक्षी होकर नाचती-गाति-झूमती आनंद पा और लुटा रही हैं।आत्मानंद पाने में सहभागी हैं कोयल, पिपहरी, दहिकतरा, सखियती, मैना, कबूतर, हेतुलूका, बगुले, तेलोया, सारंग, बुलबुल, गौरैया और तितलियाँ ही नहीं, झींगुर, काबै मछली, पूठी मछली, शाल मछली, हिरसी, घडियाल. मकड़ी, चीटी, मक्खी,हिरन, कुत्ता, हाथी और घोड़ा भी। ताल-तलैया, नद, नदी, झरना, दरिया, धरती, पृथ्वी और आसमान के साथ-साथ उत्सवधर्मिता को आशीषित करती देवशक्तियों कलीमती, रहिमला, बिसंदे, हेरेपी आदि की उपस्थिति की अनुभूति ही करते ढोल, मृदंग, टोका, ढोलक आदि वाद्य पाठक को भाव विभोर कर देते है। प्रकृति और देवों की शोभावृद्धि करने सोना, मोती, मूँगा आदि भी तत्पर हैं।
दिनकर जी की गीति कवितायें साहित्य के नाम पर नकारात्मकता परोस रहे कृत्रिम भाव, झूठे वैषम्य, मिथ्या विसंगतियों और अतिरेकी टकराव के अँधेरे में साहचर्य, सद्भाव, सहकार, सहयोग, सहानुभूति और सहस्तित्व का दीप प्रज्वलित करती दीपशिखा की तरह स्वागतेय हैं। सुदूर पूर्वांचल की सभ्यता-संस्कृति, जनजीवन, लोक भावनाएँ प्रेमी-प्रेमिका के रूप में लगभग हर रचना में पूरे उल्लास के साथ शब्दित हुआ है। पृष्ठ-पृष्ठ पर पंक्ति-पंक्ति में सात्विक श्रृंगार रस में अवगाहन कराती यह कृति कहीं अतिरेकी वर्णन नहीं करती।
प्रकृति की यह समृद्धि मन में जिस उत्साह और आनंद का संचार करती है वह जन-जीवन के क्रिया-कलापों में बिम्बित होता है-
वैशाख तुम जगाते हो युवक-युवती
बच्चे-बूढ़े-स्त्रियों के मन-प्राण में
स्नेह-प्रेम, आनंद-उत्साह और यौवन की अनुभूतियाँ
आम आदमी का तन-मन झूम उठता है
मातृभूमि की प्रकृति की समृद्धि को देखकर।
आबादी अपने लोकाचारों में, खेल-कूद और नृत्य-गीत के जरिए
व्यक्त करती है पुलक, श्रुद्ध, प्रेम, यौवन का आवेदन
वस्त्र बुनती बहू-बेटी के कदम
अनजाने में ही थिरकने लगते हैं
वे रोमांचित होकर वस्त्र पर रचती है फूलों को
बुनती हैं 'फूलाम बिहूवान'-सेलिंग चादर-महीन पोशाक
जब मौसम का नशा चढ़ता है
प्रेमी जोड़े पेड़ों की छाँव में जाकर
बिहू नृत्य करने लगते हैं
टका-गगना वाद्यों को बजाकर
धरती-आकाश को मुखरित करते है
जमीन से जुड़े जन बुन्देलखंड में हों या बस्तर में, मालवा में हों या बिहार में, बृज में हों या बंगाल में उल्लास-उत्साह, प्रकृति और ऋतुओं के साथ सहजीवन, अह्बवों को जीतकर जिजीविषा की जय गुंजाता हौसला सर्वत्र समान है। यहाँ निर्भया, कन्हैया और प्रत्यूषा नहीं हैं। प्रेम की विविध भाव-भंगिमाएँ मोहक और चित्ताकर्षक हैं। प्रेमिका को न पा सके प्रेमी की उदात भावनाएँ अपनी मिसाल आप हैं-
तुम रमी रहती हो अपनी दुनिया में
कभी मुस्कुराती हो और
कभी उदास ही जाती हो
कभी छलछला उठते हैं तुम्हारे नयन
किसी ख़याल में तुम डूबी रहती हो
सूनापन मुझे बर्धष्ट नहीं होता
तुम्हें देखे बगैर कैसे रह सकता हूँ
तुम अपनी मूरत बनाकर क्यों नहीं दे देतीं?
कम से कम उसमें तुम्हें देखकर
तसल्ली तो मिल सकती है
न तो भूख लगती है, न प्यास
न तो नींद आती है, न करार
अपने आपका आजकल नहीं रहता है ख़याल
मेरा चाहे कुछ हो
तुम सदा खुश रहो, आबाद रहो
प्रेम कभी चुकता नहीं, वह आदिम काल से अनंत तक प्रतीक्षा से भी थकता नहीं
हम मिले थे घास वन में
तब हम आदम संगीत को सुन रहे थे
उत्सव का ढोल बज रहा था
प्रेम की यह उदात्तता उन युवाओं को जानना आवश्यक है जो 'लिव इन' के नाम पर संबंधों को वस्त्रों की तरह बदलते और टूटकर बिखर जाते हैं। प्रेम को पाने का पर्याय माननेवाले उसके उत्कट-व्यापक रूप को जानें-
गगन में चंद्रमा जब तक रहेगा
पृथ्वी पर पड़ेगी उसकी छाया
तुम्हारा प्यार पाने की हसरत रहेगी
मौसम की मदिरा, नींद की सुरंग, वैशाख की पगडंडी, लाल गूलर का पान है प्रियतमा जैसी अभिव्यक्तियाँ मन मोहती हैं। अंग्रेजी शब्दों के मोहजाल से मुक्त दिनकर जी ने दोनों ओर लगी प्रेमाग्नि से साक्षात् कराया है। प्रेमिका की व्यथा देखें-
तुम्हेरे और मेरे बीच है समाज की नदी
जिसे तैर कर पार करती हूँ
तुम्हें पाने के लिए
क्या तुम समाज के डर से
नहीं आओगे / मेरे जुड़े में कपौ फूल खोंसने के लिए
.
तुम्हारे संग-संग जान भले ही दे दूं
प्रेम को मैं नहीं छोड़ पाऊँगी
प्रेमी की पीर और समर्पण भी कम नहीं है-
चलो उड़ चलें बगुलों के संग
बिना खाए ही कई दिनों तक गुजार सकता हूँ
अगर तुम रहोगी मेरे संग
.
अगर ईश्वर दक्षिणा देने से संतुष्ट होते
मैं उनसे कहता
मेरी किस्मत में लिख देते तुम्हारा ही नाम
.
प्रेमिका साथ न दे तो भग्नह्रदय प्रेमी के दिल पर बिजली गिरना स्वाभाविक है-
तुमने रंगीन पोशाक पहनी है
पिता के पास है दौलत
मेरे सामने बार-बार आकार
बना रही हो दीवाना
.
मैंने तुमसे एक ताम्बूल माँगा
और तुमने मेरी तरफ कटारी उछाल दी
.
हम दोनों में इतना गहरा प्यार था
किसने घोला है अविश्वास का ज़हर?
.
रंगपुर में मैंने ख़रीदा लौंग-दालचीनी
लखीमपुर में खरीदा पान
खेत में भटककर ढूँढता रहा तुम्हें
कहाँ काट रही हो धान?
.
कभी कालिदास ने मेघदूत को प्रेमी-प्रेमिका के मध्य सेतु बनाया था, अब दिनकर ने वैशाख-पर्व बिहू से प्रेम-पुल का काम लिया है, यह सनातन परंपरा बनी रहे और भावनाओं-कामनाओं-संभावनाओं को पल्लवित-पुष्पित करती रहे।
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समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४

राम भजन स्व. शांति देवी वर्मा

राम भजन 
स्व. शांति देवी वर्मा 
अवध में जन्में हैं श्री राम, दरश को आए शंकरजी...
*
कौन गा रहे?, कौन नाचते?, कौन बजाएं करताल?
दरश को आए शंकरजी...
*
ऋषि-मुनि गाते, देव नाचते, भक्त बजाएं करताल.
दरश को आए शंकरजी...
*
अंगना मोतियन चौक है, द्वारे हीरक बन्दनवार.
दरश को आए शंकरजी...
*
मलिन-ग्वालिन सोहर गायें, नाचें डे-डे ताल.
दरश को आए शंकरजी...
*
मैया लाईं थाल भर मोहरें, लो दे दो आशीष.
दरश को आए शंकरजी...
*
नाग त्रिशूल भभूत जाता लाख, डरे न मेरो लाल
दरश को आए शंकरजी...
*
बिन दर्शन हम कहूं न जैहें, बैठे धुनी रमाय.
दरश को आए शंकरजी...
*
अलख जगाये द्वार पर भोला, डमरू रहे बजाय.
दरश को आए शंकरजी...
*
रघुवर गोदी लिए कौशल्या, माथ डिठौना लगाय.
दरश को आए शंकरजी...
जग-जग जिए लाल माँ तेरो, शम्भू करें जयकार.
दरश को आए शंकरजी...
***********
बाजे अवध बधैया
बाजे अवध बधैया, हाँ हाँ बाजे अवध बधैया...
मोद मगन नर-नारी नाचें, नाचें तीनों मैया.
हाँ-हाँ नाचें तीनों मैया, बाजे अवध बधैया..
मातु कौशल्या जनें रामजी, दानव मार भगैया
हाँ हाँ दानव मार भगैया बाजे अवध बधैया...
मातु कैकेई जाए भरत जी, भारत भार हरैया
हाँ हाँ भारत भार हरैया, बाजे अवध बधैया...
जाए सुमित्रा लखन-शत्रुघन, राम-भारत की छैयां
हाँ हाँ राम-भारत की छैयां, बाजे अवध बधैया...
नृप दशरथ ने गाय दान दी, सोना सींग मढ़ईया
हाँ हाँ सोना सींग मढ़ईया, बाजे अवध बधैया...
रानी कौशल्या मोहर लुटाती, कैकेई हार-मुंदरिया
हाँ हाँ कैकेई हार-मुंदरिया, बाजे अवध बधैया...
रानी सुमित्रा वस्त्र लुटाएं, साडी कोट रजैया
हाँ हाँ साडी कोट रजैया, बाजे अवध बधैया...
विधि-हर हरि-दर्शन को आए, दान मिले कुछ मैया
हाँ हाँ दान मिले कुछ मैया, बाजे अवध बधैया...
'शान्ति'-सखी मिल सोहर गावें, प्रभु की लेनी बलैंयाँ
हाँ हाँ प्रभु की लेनी बलैंयाँ, बाजे अवध बधैया...

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