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गुरुवार, 4 मार्च 2021

अक्षरवाणी छंद सलिला

 अक्षरवाणी छंद सलिला 

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मुक्तक:

मुक्तक:
फूल फूला तो तभी जब सलिल ने दी है नमी
न तो माटी ने, न हवाओं ने ही रखी है कमी
सारे गुलशन ने महककर सुबह अगवानी की
सदा मुस्कान मिले, पास नहीं आए गमी.
४-३-२०१८

होली की कुण्डलियाँ

होली की कुण्डलियाँ:
मनायें जमकर होली
संजीव 'सलिल'
*
होली हो ली हो रही होगी फिर-फिर यार
मोदी राहुल ममता माया जयललिता तैयार
जयललिता तैयार न जीवनसाथी-बच्चे
इसीलिये तो दाँव न चलते कोई कच्चे
कहे 'सलिल' कवि बच्चेवालों की जो टोली
बचकर रहे न गीतका दें ये भंग की गोली
*
होली अनहोली न हो, खायें अधिक न ताव.
छेड़-छाड़ सीमित करें, अधिक न पालें चाव..
अधिक न पालें चाव, भाव बेभाव बढ़े हैं.
बचें करेले सभी, नीम पर साथ चढ़े हैं..
कहे 'सलिल' कविराय, न भोली है अब भोली.
बचकर रहिये आप, मनायें जम भी होली..
*
होली जो खेले नहीं, वह कहलाये बुद्ध.
माया को भाये सदा, सत्ता खातिर युद्ध..
सत्ता खातिर युद्ध, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, सुषमा का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल.
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रमित है जनता भोली.
एक साथ मिल खर्चे बढ़वा खेलें होली..
*
४-३-२०१५

समीक्षा नवगीत राधेश्याम बंधु

कृति चर्चा:
एक गुमसुम धूप : समय की साक्षी देते नवगीत
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: एक गुमसुम धूप, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी जेकेटयुक्त, पृष्ठ ९६, मूल्य १५०/-, प्रकाशक कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, नवगीतकार संपर्क ९८६८४४४६६६, rsbandhu2@gmail.com]
नवगीत को ‘स्व’ से ‘सर्व’ तक पहुँचाकर समाज कल्याण का औजार बनाने के पक्षधर हस्ताक्षरों में से एक राधेश्याम बंधु की यह कृति सिर्फ पढ़ने नहीं, पढ़कर सोचने और सोचकर करनेवालों के लिये बहुत काम की है. बाबा की / अनपढ़ बखरी में / शब्दों का सूरज ला देंगे, जो अभी / तक मौन थे / वे शब्द बोलेंगे, जीवन केवल / गीत नहीं है / गीता की है प्रत्याशा, चाहे / थके पर्वतारोही / धूप शिखर पर चढ़ती रहती जैसे नवाशा से भरपूर नवगीतों से मुदों में भी प्राण फूँकने का सतत प्रयास करते बंधु जी के लिये लेखन शगल नहीं धर्म है. वे कहते हैं: ‘जो काम कबीर अपनी धारदार और मार्मिक छान्दस कविताओं से कर सके, वह जनजागरण का काम गद्य कवि कभी नहीं कर सकते..... जागे और रोवे की त्रासदी सिर्फ कबीर की नहीं है बल्कि हर युग में हर संवेदनशील ईमानदार कवि की रही है... गीत सदैव जनजीवन और जनमानस को यदि आल्हादित करने का सशक्त माध्यम रहा है तो तो वह जन जागरण के लिए आम आदमी को आंदोलित करनेवाला भी रहा है.’
‘कोलाहल हो / या सन्नाटा / कविता सदा सृजन करती है’ कहनेवाला गीतकार शब्द की शक्ति के प्रति पूरी तरह आश्वस्त है: ‘जो अभी / तक मौन थे / वे शब्द बोलेंगे’. नवगीत के बदलते कलेवर पर प्रश्नचिन्ह उपस्थित करनेवालों को उनका उत्तर है: ‘शब्दों का / कद नाप रहे जो/ वक्ता ही बौने होते हैं’.
शहर का नकली परिवेश उन्हें नहीं सुहाता: ‘शहरी शाहों / से ऊबे तो / गीतों के गाँव चले आये’ किन्तु विडम्बना यह कि गाँव भी अब गाँव से न रहे ‘ गाँवों की / चौपालों में भी / होरीवाला गाँव कहाँ?’ वातावरण बदल गया है: ‘पल-पल / सपनों को महकाती / फूलों की सेज कसौली है’, कवि चेतावनी देता है: ‘हरियाली मत / हरो गंध की / कविता रुक जाएगी.’, कवि को भरोसा है कल पर: ‘अभी परिंदों / में धड़कन है / पेड़ हरे हैं जिंदा धरती / मत उदास / हो छाले लखकर / ओ माझी! नदिया कब थकती?.’ डॉ. गंगाप्रसाद विमल ठीक ही आकलन करते हैं :’राधेश्याम बंधु ऐसे जागरूक कवि हैं जो अपने साहित्यिक सृजन द्वारा बराबर उस अँधेरे से लड़ते रहे हैं जो कवित्वहीन कूड़े को बढ़ाने में निरत रहा है.’
नवगीतों में छ्न्दमुक्ति के नाम पर छंदहीनता का जयघोष कर कहन को तराशने का श्रम करने से बचने की प्रवृत्तिवाले कलमकारों के लिये बंधु जी के छांदस अनुशासन से चुस्त-दुरुस्त नवगीत एक चुनौती की तरह हैं. बंधु जी के सृजन-कौशल का उदहारण है नवगीत ‘वेश बदल आतंक आ रहा’. सभी स्थाई तथा पहला व तीसरा अंतरा संस्कारी तथा आदित्य छंदों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं जबकि दूसरा अंतरा संस्कारी छंद में है.
‘जो रहबर
खुद ही सवाल हैं,
वे क्या उत्तर देंगे?
पल-पल चुभन बढ़ानेवाले
कैसे पीर हरेंगे?
गलियों में पसरा सन्नाटा
दहशत है स्वच्छंद,
सरेशाम ही हो जाते हैं
दरवाजे अब बंद.
वेश बदल
आतंक आ रहा
कैसे गाँव जियेंगे?
बस्ती में कुहराम मचा है
चमरौटी की लुटी चाँदनी
मुखिया के बेटे ने लूटी
अम्मा की मुँहलगी रौशनी
जब प्रधान
ही बने लुटेरे
वे क्या न्याय करेंगे?
जब डिग्री ने लाखों देकर
नहीं नौकरी पायी
छोटू कैसे कर्ज़ भरेगा
सोच रही है माई?
जब थाने
ही खुद दलाल हैं
वे क्या रपट लिखेंगे?
.
यह कैसी सिरफिरी हवाएँ शीर्षक नवगीत के स्थाई व अंतरे संस्कारी तथा मानव छंदों की पंक्तियों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं. ‘उनकी खातिर कौन लड़े?’ नवगीत में संस्कारी तथा दैशिक छन्दों का क्रमिक प्रयोग कर रचे गये स्थायी और अंतरे हैं:
उनकी खातिर
कौन लड़े जो
खुद से डरे-डरे?
बचपन को
बँधुआ कर डाला
कर्जा कौन भरे?
जिनका दिन गुजरे भट्टी में
झुग्गी में रातें,
कचरा से पलनेवालों की
कौन सुने बातें?
बिन ब्याही
माँ, बहन बन गयी
किस पर दोष धरे?
परमानन्द श्रीवास्तव के अनुसार: ‘राधेश्याम बंधु प्रगीतात्मक संवेदना के प्रगतिशील कवि हैं, जो संघर्ष का आख्यान भी लिखते हैं और राग का वृत्तान्त भी बनाते हैं. एक अर्थ में राधेश्याम बंधु ऐसे मानववादी कवि हैं कि उन्होंने अभी तक छंद का अनुशासन नहीं छोड़ा है.’
इस संग्रह के नवगीत सामयिकता, सनातनता, सार्थकता, सम्प्रेषणीयता, संक्षिप्तता, सहजता तथा सटीकता के सप्त सोपानों पर खरे हैं. बंधु जी दैनंदिन उपयोग में आने वाले आम शब्दों का प्रयोग करते हैं. वे अपना वैशिष्ट्य या विद्वता प्रदर्शन के लिये क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ अथवा न्यूनज्ञात उर्दू या ग्राम्य शब्दों को खोजकर नहीं ठूँसते... उनका हर नवगीत पढ़ते ही मन को छूता है, आम पाठक को भी न तो शब्दकोष देखना होता है, न किसी से अर्थ पूछना होता है. ‘एक गुमसुम धूप’ का कवि युगीन विसंगतियों, और विद्रूपताओं जनित विडंबनाओं से शब्द-शस्त्र साधकर निरंतर संघर्षरत है. उसकी अभिव्यक्ति जमीन से जुड़े सामान्य जन के मन की बात कहती है, इसलिए ये नवगीत समय की साक्षी देते हैं.
***

समीक्षा नवगीत जगदीश पंकज



कृति चर्चा :
‘सुनो मुझे भी’ नवगीत की सामयिक टेर
चर्चाकार: संजीव
[कृति विववरण: सुनो मुझे भी, नवगीत संग्रह, जगदीश पंकज, आकार डिमाई, पृष्ठ ११२, मूल्य १२०/-, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, वर्ष २०१५, निहितार्थ प्रकाशन, एम् आई जी भूतल १, ए १२९ शालीमार गार्डन एक्सटेंशन II, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, ०९८१०८३७८१४, ०९८१०८३८८३२ गीतकार संपर्क:सोम सदन ५/४१ राजेन्द्र नगर, सेक्टर २ साहिबाबाद jpjend@hyahoo.co.in]
.
बहता पानी निर्मला... सतत प्रवाहित सलिल-धार के तल में पंक होने पर भी उसकी विमलता नहीं घटती अपितु निरंतर अधिकाधिक होती हुई पंकज के प्रगटन का माध्यम बनती है. जगदीश वही जो जग के सुख-दुःख से परिचित ही नहीं उसके प्रति चिंतित भी हो. भाई जगदीश पंकज अपने अंत:करण में सतत प्रवाहित नेह नर्मदा के आलोड़न-विलोड़न में बाधक बाधाओं के पंक को साफल्य के पंकज में परिवर्तित कर उनकी नवगीत सुरभि जन गण को ‘तेरा तुझको अर्पित क्या लागे मेरा’ के मनोभाव से सौंप सके हैं.
नवगीत के शिखर हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार: ‘ जगदीश पंकज के पास भी ऐसी बहुत कुछ कथ्य सम्पदा है जिसे वे अपने पाठकों तक संप्रेषित करना चाहते हैं. ऐसा आग्रह वह व्यक्ति ही कर सकता है जिसके पास कहने के लिए कुछ विशेष हो, जो अभी तक किसी ने कहा नहीं हो- ‘अस्ति कश्चित वाग्विशेष:’ की भांति. यहाँ मुझे महाभारत की एक और उक्ति सहज ही याद आ रही है 'ऊर्ध्वबाहु: विरौम्यहम् न कश्चित्छ्रिणोतिमाम् ' मैं बाँह उठा-उठाकर चीख रहा हूँ किन्तु मुझे कोई सुन नहीं रहा.’ मुझे प्रतीत होता है कि इन नवगीतों में सर्वत्र रचनात्मक सद्भाव की परिव्याप्ति इसलिए है कि कवि अपनी बात समय और समाज को सामर्थ्य के साथ सुना ही नहीं मनवा भी सका है. शून्य से आरंभ कर निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने का संतोष जगदीश जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों में बिम्बित है. इंद्र जी ने ठीक ही कहा है: ‘प्रस्तुत संग्रह एक ऐसे गीतकार की रचना है जो आत्मसम्मोहन की भावना से ग्रस्त न होकर बृहत्तर सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध संघर्षरत है, जो मानवीय आचरण की समरसता के प्रति आस्थावान है, जो हर किस्म की गैरबराबरी के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है और जो अपने शब्दों में प्रगति की आग्नेयता छिपाए हुए है, क्रांतिधर्म होकर भी जो लोकमंगल का आकांक्षी है.’
जगदीश जी वर्तमान को समझने, बूझने और अबूझे से जूझने में विश्वास करते हैं और नवगीत उनके मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है:
गीत है वह
जो सदा आँखें उठाकर
हो जहाँ पर भी,
समय से जूझता है
अर्ध सत्यों के
निकलकर दायरों से
जिंदगी की जो
व्यथा को छू रहा है
पद्य की जिस
खुरदुरी झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस
निचुड़कर चू रहा है
गीत है वह
जो कड़ी अनुभूतियों की
आँच से टेढ़ी
पहेली बूझता है.
त्रैलोक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कथ्य की प्रवहमानता, कवि का मंतव्य, भाषा और बिम्ब सहजग्राह्य है. इसी छंद का प्रयोग निम्न नवगीत में देखिए:
चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज़
तुम तक आ रही है?
जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर-बहिष्कृत हम रहें
प्रतियोगिता से
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है
क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है
साधनसंपन्नों द्वारा साधनहीनों की राह में बाधा बनने की सामाजिक विसंगतियाँ महाभारत काल से अब तक ज्यों की त्यों हैं. कवि को यथार्थ को यथावत कहने में कोई संकोच या डर नहीं है:
जैसा सहा, वैसा कहा
कुछ भी कभी
अतिशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
आकाश के परिदृश्य में
निर्जल उगी है बादली
मेरी अधूरी कामना भी
अर्धसत्यों ने छली
सच्चा कहा, अच्छा कहा
इसमें मुझे
संशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
स्थाई में त्रैलोक और अन्तर में यौगिक छंद का सरस समायोजन करता यह संदेशवाही नवगीत सामायिक परिस्थितियों और परिदृश्य में कम शब्दों में अधिक बात कहता है.
जगदीश जी की भाषिक पकड़ की बानगी जगह-जगह मिलती है. मुखपृष्ठ पर अंकित गौरैया और यह नवगीत एक-दूसरे के लिये बने प्रतीत होते हैं. कवि की शब्द-सामर्थ्य की जय बोलता यह नवगीत अपनी मिसाल आप है:
डाल पर बैठी चिरैया
कूकती है
चंद दानों पर
नज़र है पेट की
पर गुलेलों में बहस
आखेट की
देखकर आसन्न खतरे
हूकती है
जब शिकारी कर रहे हों
दंत-नख पैने
वह समर सन्नद्ध अपने
तानकर डैने
बाज की बेशर्मियों पर
थूकती है
यहाँ कवि ने स्थाई में त्रैलोक, प्रथम अंतरे में महापौराणिक तथा दुसरे अंतरे में रौद्राक छंदों का सरस-सहज सम्मिलन किया है. नवगीतों में ऐसे छांदस प्रयोग कथ्य की कहन को स्वाभाविकता और सम्प्रेषणीयता से संपन्न करते हैं.
समाज में मरती संवेदना और बढ़ती प्रदर्शनप्रियता कवि को विचलित करती है, दो शब्दांकन देखें:
चीख चौंकाती नहीं, मुँह फेर चलते
देखकर अब बेबसों को लोग
.
घाव पर मरहम लगाना भूलकर अब
घिर रहे क्यों ढाढ़सों में लोग
नूतन प्रतिमान खोजते हुए / जीवन अनुमान में निकल गया, छोड़कर विशेषण सब / ढूँढिए विशेष को / रोने या हँसने में / खोजें क्यों श्लेष को?, आग में कुछ चिन्दियाँ जलकर / रच रहीं हैं शब्द हरकारे, मत भुनाओ / तप्त आँसू, आँख में ठहरे, कैसा मौसम है / मुट्ठी भर आँच नहीं मिलती / मिले, विकल्प मिले तो / सीली दियासलाई से, आहटें, / संदिग्ध होती जा रहीं / यह धुआँ है, / या तिमिर का आक्रमण, ओढ़ता मैं शील औ’ शालीनता / लग रहा हूँ आज / जैसे बदचलन जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक / श्रोता के मन को छूती ही नहीं बेधती भी हैं.
इन नवगीतों में आत्मालोकन, आत्मालोचन और आत्मोन्नयन के धागे-सुई-सुमनों से माला बनायी गयी है. कवि न तो अतीत के प्रति अंध श्रृद्धा रखता है न अंध विरोध, न वर्त्तमान को त्याज्य मनाता है न वरेण्य, न भविष्य के प्रति निराश है न अति आशान्वित, उसका संतुलित दृष्टिकोण अतीत की नीव पर निरर्थक के मलबे में सार्थक परिवर्तन कर वर्तमान की दीवारें बनाने का है ताकि भविष्य के ज्योतिकलश तिमिर का हरण कर सकें. वह कहता है:
बचा है जो
चलो, उसको सहेजें
मिटा है जो उसे फिर से बनाएँ
गए हैं जो
उन्हें फिर ध्यान में ले
तलाशें फिर नयी संभावनाएँ.
***
४-३-२०१५

मार्च २०२१ कब क्या ?

मार्च २०२१ 
कब क्या ?
२ - सरोजनी नायडू दिवस, ब्योहार राजेंद्र सिंह निधन १९८८। 
३ - फ़िराक़ गोरखपुरी निधन। 
४ - सुरक्षा दिवस, रेणु जयंती। 
७ - गोविन्द वल्लभ पंत दिवस, अज्ञेय जयंती। 
८ - अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस।
१०. सावित्रीबाई फुले पुण्यतिथि।   
११ - वैद्यनाथ जयंती, लोधेश्वर दिवस। 
१२- क्रांतिकारी भगवानदास माहौर निधन। 
१४ - स्वामी भारती कृष्णतीर्थ जयंती। 
१५ - विश्व उपभोक्ता संरक्षण दिवस, विश्व विकलांग दिवस, रामकृष्ण परमहंस जयंती, कवि इंद्रमणि उपाध्याय निधन। 
२० - रानी अवंती बाई बलिदान दिवस। 
२१ - विश्व वानिकी दिवस, विश्व आनंद दिवस,  विश्व गौरैया दिवस, ओशो संबोधि दिवस, दादूदयाल जयंती, बिस्मिल्लाखाँ जन्म, शिवानी निधन। 
२२ - विश्व जल दिवस, राष्ट्रीय शक संवत १९४३ आरंभ। । 
२३ - भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव शहादत दिवस, शहीद हेम कालाणी जन्म, राममनोहर लोहिया जयंती। 
२४ - विश्व क्षय रोग दिवस, नवल पंथ योगेश्वर दयाल जयंती। 
२५ - गणेश शंकर विद्यार्थी बलिदान दिवस। 
२६ -  महीयसी महादेवी  जयंती। 
२७ - सम्राट अशोक जयंती।  
२८ होलिका दहन, चैतन्य महाप्रभु जयंती, मैक्सिम गोर्की जन्म। 
२९ - धुरेड़ी। 
३० - चित्रगुप्त दूज पूजन, तुकाराम जयंती। 
*
 


द्विपदी

इश्क है तो जुबां से कुछ न कहें
बोले बिन भी निगाह बोलेगी।

साक्षात्कार प्रश्नों के घेरे में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा विभा तिवारी

साक्षात्कार 
प्रश्नों के घेरे में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
द्वारा विभा तिवारी
*
प्र.१_ छंदमुक्त काव्य तथा मुक्त छंद काव्य में मुख्य रूप से आप क्या अंतर देखते हैं ?

उ. १ - पहले यह समझें कि छंद क्या है? छंद शब्द का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद के पुरुष सुक्त के १० वें मंत्र में मिलता हैं। 'तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छंदांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥१०॥ '
यहाँ छंद की उत्पत्ति "विराट यज्ञ पुरुष " से बताई गई है। पिंगल ग्रंथों के अनुसार ब्रह्मा ने छंद-ज्ञान बृहस्पति को, बृहस्पति ने च्वयन को, च्यवन ने माडव्य को, मांडव्य ने सैतव को, सैतव ने यास्क को और यास्क ने पिंगल जी को यह ज्ञान दिया। पिंगल कृत "छंद सूत्र" (७०० ई. पू.) छंद शास्त्र" का प्रथम ग्रंथ मान्य है। छंद' वेदांग' है जिसके उपवेद-वेदांग गार्ग्यप्रोक्त उपनिदान सूत्र,छन्द मंजरी, छन्दसूत्र, छन्दोविचित छन्द सूत्र, छन्दोऽनुक्रमणी, छलापुध वृत्ति, जयदेव छन्द, जानाश्रमां छन्दोविचित, वृत्तरत्नाकर,वेंकटमाधव छन्दोऽनुक्रमणी, श्रुतवेक आदि हैं।
संस्कृत वाङ्मय में छन्दःशास्त्र के लिए (१) छन्दोविचिति, (२) छन्दोमान, (३) छन्दोभाषा, (४) छन्दोविजिनी (५) छन्दोविजिति, (छन्दोविजित), (६) छन्दोनाम, (७) छन्दोव्याख्यान, (८) छन्दसांविच्य, (९.) छन्दसांलक्षण, (१०) छन्दःशास्त्र, (११) छन्दोऽनुशासन, (१२) छन्दोविवृति, (१३) वृत्त, (१४) पिङ्गल अदि नामों का व्यवहार किया गया है।
'छन्दस्' शब्द वेद का पर्यायवाची है। ध्वनि विज्ञान तथा गणित पर आधारित होने के कारण छंद को 'पुष्ट' अर्थात विज्ञान सम्मत शास्त्र कहा गया है। छन्दशास्त्र की रचना का उद्देश्य भविष्य में इसके नियमों के आधार पर छन्दरचना के सनातन परंपरा का विकास है। छंद शास्त्री 'प्रस्तार' आदि के द्वारा आचार्य नए छंद विकसित करते रहे। कविगण कथ्यानुरूप छंद चयन कर विधान में यत्किंचित परिवर्तन की छूट लेते हुए अपनी बात इस प्रकार कहते रहे कि छंद का मूल विधान नष्ट न हो। परिवर्तित विधान में निरंतर कई कवियों द्वारा रचना किये जाने पर नए छंद उत्पन्न हुए और अब भी हो रहे हैं। माँ शारदा ने मुझे ५०० से अधिक नए छंदों के प्रागट्य का माध्यम बनाकर कृतार्थ किया है।
'चद्' धातु से बने छंद शब्द का अर्थ है 'आह्लादित करना', 'आनंदित करना'। यह आह्लाद ध्वन्यात्मक उच्चार (सामान्यत: वर्ण के माध्यम से लिखा तथा मात्रा के माध्यम से उच्चारकाल को गिना जाता है) की आवृत्ति तथा संख्या के विन्यास से उत्पन्न होता है। 'वर्णों या मात्राओं की आह्लादकारी नियमित संख्या के विन्यास को छंद कहते हैं'। सामान्यतः वर्णों और मात्राओं की गेय-व्यवस्था को छन्द कहा जाता है। इसी अर्थ में पद्य शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। भाषा में शब्द और शब्दों में वर्ण तथा स्वर रहते हैं। इन्हीं को एक निश्चित विधान से सुव्यवस्थित करने पर 'छन्द' का नाम दिया जाता है। जिस रचना में मात्राओं और वर्णों की विशेष व्यवस्था तथा संगीतात्मक लय और गति की योजना रहती है, उसे ‘छन्द’ कहते हैं।
छंद 'वाक्' से निर्मित हैं। वास्तव में छंद वाचिक होते है। लोक (जान सामान्य) लघु-गुरु उच्चारों का समायोजन कर अनुभूत की अभिव्यक्ति कर 'लौकिक छंदों' को जन्म देता है।वाचिक छंद निश्चित नियम पर नहीं, विशेष ताल और लय पर ही आधारित रहते हैं। इनकी रचना सामान्य  अपठित जन भी कर लेते हैं। लोक द्वारा प्रयुक्त लौकिक छंदों का ध्यायन कर उनमें अन्तर्निहित लघु-गुरु उच्चार क्रम को नियमबद्ध कर वैदिक संस्कृत में रचे गए छंदों को 'वैदिक छंद' कहा गया है जिनका जन्मदाता वाल्मीकि को माना गया है। छंद को वेदों का चरण (पैर) कहा गया है। अपौरुषेय कहे गए वैदिक छंदों में ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत और स्वरित, इन चार प्रकार के स्वरों का विचार किया जाता है, यथा "अनुष्टुप" इत्यादि। लौकिक  छंद वे वाचिक छंद हैं जिनकी रचना निश्चित नियमों के आधार पर होती है और जिनका प्रयोग सुपठित कवि काव्यादि रचना में करते हैं। इन लौकिक छंदों के रचना-विधि-संबंधी नियम सुव्यवस्थित रूप से जिस शास्त्र में रखे गए हैं उसे छंदशास्त्र कहते हैं। आचार्य पिंगल ने ‘छन्दसूत्र’ में छंदों का सुव्यवस्थित वर्णन किया है, अत: इसे छन्दशास्त्र का आदि ग्रन्थ माना जाता है। छन्दशास्त्र को ‘पिंगलशास्त्र’ भी कहा जाता है।
लौकिक और वैदिक छंदों पर लोक भाषाओँ ,प्राकृत पैशाची, छंदों की रचना चिरकाल से की जाती रही है। इस विरासत को आत्मसात करते हुए हिंदी में छंद शास्त्र का विकास होना स्वाभाविक है। हिन्दी छन्दशास्त्र की दृष्टि से प्रथम कृति ‘छन्दमाला’ है। हिंदी में लघु-गुरु उच्चार के लिप्यांकित रूप वर्ण (अक्षर) गणना पर आधारित छंद 'वर्णिक' तथा वर्ण के उच्चारकाल पर आधारित छंद 'मात्रिक' कहे जाते हैं। लघु उच्चार की एक तथा गुरु उच्चार की २ मात्रा गिनी जाती है। ध्वनि की मूल इकाई ‘वर्ण’ हैं। वर्णों का व्यवस्थित समूह ‘वर्णमाला’ है। उच्चारकाल के आधार पर वर्ण के दो प्रकार ‘लघु’ और ‘गुरु’ हैं।
अब आपके प्रश्न पर आते हैं। गद्य या पद्य दोनों ही उच्चारों से निर्मित वर्णों के संयुक्त होने से बने सार्थक शब्दों से रचे जाते हैं। पद्य लय प्रधान है। गद्य में व्याकरणिक नियम मुख्य हैं। छांदस काव्य वह है जो किसी निश्चित विधान के आधार पर रचा गया हो। हर छन्दस विधान कभी न कभी पहली बार रचा गया होगा। इसलिए छांदस काव्य के दो उपप्रकार ज्ञात विधान के अनुसार तथा अज्ञात विधान के अनुसार अर्थात नए छंद का निर्माण कर रचा काव्य हैं। अछांदस काव्य किसी छंद विशेष के विधानानुसार  काव्य है अर्थात उसकी विविध पंक्तियाँ विविध ज्ञात-अज्ञात छंदों पर आधारित होती हैं। इनमें से कुछ अछन्द अगेय भी हो सकते हैं। 
प्र.२_ आपके अनुसार छंद के तत्त्व क्या हैं ?
उ. २    छन्द के निम्न संघटक तत्त्व हैं-
पाद / पंक्ति - छन्द कुछ पंक्तियों का समूह होता है और प्रत्येक पंक्ति में समान वर्ण या मात्राएँ होती हैं। इन्हीं पंक्तियों को ‘चरण’ या ‘पाद’ कहते हैं।
चरण - कुछ छड़ों की पंक्तियाँ निश्चित यति स्थान द्वारा उन्हें एकाधिक भागों में विभक्त की जाती हैं। इन भागों को 'चरण' कहा जाता है।
दोहा दोपादिक (दो पंक्तियों का) छंद है। दोहा के प्रत्येक 'पाद' में दो चरण होते हैं। पहले तथा तीसरे चरण को 'विषम' तथा दूसरे और चौथे चरण को 'सम' कहा जाता है।
कल बाँट/क्रम - वर्ण या मात्रा की लघु-गुरु व्यवस्था को ‘बाँट/क्रम’ कहते हैं।
यति - छन्दों को पढ़ते समय बीच-बीच में कुछ रुकना पड़ता है। इन विराम स्थलों को ‘यति’ कहते हैं।छन्द के प्रत्येक चरण के अन्त में ‘यति’ होती है।
गति / लय - ‘गति’ का अर्थ ‘लय’ है। छन्दों को पढ़ते समय मात्राओं के लघु अथवा दीर्घ होने के कारण जो विशेष स्वर लहरी उत्पन्न होती है, उसे ही ‘गति’ या ‘लय’ कहते हैं।
तुकांत और पदांत - छन्द के प्रत्येक पाद के अन्त में स्वर-व्यंजन की समानता को ‘तुक’ कहते हैं। जिस छन्द में तुक नहीं मिलता है, उसे ‘अतुकान्त’ और जिसमें तुक मिलता है, उसे ‘तुकान्त’ छन्द कहते हैं। पाद के अंत में प्रयुक्त सामान भार के शब्द समूह को पदांत तथा उसके बिलकुल पहले प्रयुक्त उच्चार को तुकांत कहा जाता है।
गण - तीन उच्चारों के समूह को ‘गण’ कहते हैं। गणों  की संख्या आठ है-यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण। इन गणों के नाम रूप का सूत्र ‘यमातराजभानसलगा’ है।   
विषय -  छंद में जिसका वर्णन हो वह छंद का विषय है। 
कथ्य - विषय के संबंध  जो कहा जाए वह छंद का कथ्य है। 
रस - रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। छंद सुनकर मन में जिस प्रकार की भावना हो वह रस है। रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य का रस है। पदार्थ की दृष्टि से रस का प्रयोग षडरस के रूप में, आयुर्वेद में धातु के अर्थ में, भक्ति में ब्रह्मानंद के लिए तथा साहित्य के क्षेत्र में काव्य स्वाद या काव्य आनंद के लिए रस का प्रयोग होता है। रस मूलतः आलोकिक स्थिति है, यह केवल काव्य की आत्मा ही नहीं बल्कि यह काव्य का जीवन भी है इसकी अनुभूति से सहृदय पाठक का हृदय आनंद से परिपूर्ण हो जाता है। नाट्यशास्त्रकार भरत मुनि के अनुसार 'विभावानुभाव संचार संयोगाद्रस निष्पत्ति' अर्थात विभाव अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
अलंकार - अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – अलं + कार। यहाँ पर अलं का अर्थ है 'आभूषण'। काव्य को भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया जाता है।  
बिंब - बिंब संवेदात्मक शब्द-चित्र है जो अपने संदर्भ में मानवीय संवेदनाओ से संबंध रखता है। वह कविता की भावना या उसके आशय को पाठक तक पहुँचाता है। बिंब चित्रमयता या चित्रात्मक स्थितियों द्वारा पाठक को वर्ण्य का चाक्षुष अनुभव करा पाता है। बिंब के मुख्य प्रकार चाक्षुष बिंब, नाद बिंब, गन्ध बिम्ब, स्वाद बिंब, स्पर्श बिंब, मानसिक बिंब आदि हैं।
प्रतीक - प्रतीक का शाब्दिक अर्थ अवयव या चिह्न है । कविता में प्रतीक हमारी भाव सत्ता को प्रकट अथवा गोपन करने का माध्यम है। प्रत्येक भाव व्यंजना की विशिष्ट प्रणाली है। इससे सूक्ष्म अर्थ व्यंजित होता है । डॉक्टर भगीरथ मिश्र कहते हैं कि ” सादृश्य के अभेदत्व का घनीभूत रूप ही प्रतीक है”। उनके मंतव्य में प्रतीक की सृष्टि अप्रस्तुत बिंब द्वारा ही संभव है। प्रतीक के मौलिक गुण धर्म सांकेतिकता, संक्षिप्तता, रहस्यात्मकता,बौद्धिकता, भावप्रकाशयत्ता एवं प्रत्यक्षतः प्रतिज्ञा प्रगटीकरण से बचाव आदि हैं। प्रतीक सामान्य लक्षण को अपने अंदर समाहित कर पाठक को विषय को समझने अनुभव करने और अर्थ में संबोधन का व्यापक विकल्प प्रस्तुत करता है।
मिथक - 'मिथक' परंपरागत या अनुश्रुत कथा है जो किसी अतिमानवीय प्राणी या घटना से संबंध रखती है। विशेषतः इसका संबंध देवताओं, विश्व की उत्पत्ति तथा विश्ववासियों से है, यह एक ऐसा विश्वास है जो बिना किसी तर्क के स्वीकार कर लिया जाता है। सामान्यतः मिथक  एक मिथ्या कथा है जिसकी सच्चाई की परीक्षा नहीं की जाती है।
प्र.३_ आज की पीढ़ी प्रकाशित पुस्तकों के स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक पुस्तकों के प्रति अधिक आकर्षित है इसके चलते आप कविता के भविष्य को किस प्रकार देखते हैं ?
उ. ३  पुस्तक चिरकाल से मनुष्य का अभिन्न अंग थी, है और रहेगी। प्रगैतिगासिक मानव द्वारा निर्मित शैल चित्र लेखन विधा के मूल हैं। तब से अब तक माध्यम बदलते रहे शिलापट, ताड़पत्र, भोजपत्र, वस्त्र, धातु, कागज और अब अंतर्जाल का आभासी पटल। इन सबकी उपादेयता और प्रासंगिकता है। ये एक दूसरे के पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं। युवा पीढ़ी सभी माध्यमों का यथावश्यक प्रयोग कर रही है।        
प्र ४ _ क्या आपको लगता है कि आज का साहित्य राजनीति से प्रेरित है ? यदि है तो इसमें कविता की क्या भूमिका है ?
उ. ४ साहित्य मानवीय गतिविधियों, चिंतन और परिवेश  उत्पन्न अनुभूतियों को अभिव्यक्त करता है। राजनीति आज नहीं, आदि काल से साहित्य  का विषय रही है। देवासुर संग्राम संबंधी साहित्य विविध संस्कृतियों के टकराव और सामंजस्य का लेखा-जोखा ही तो है। सत्ता पर आधिपत्य के लिए राजनीति हमेशा की गयी। कविता वेद पूर्व, वेद काल और पश्चात् भी राजनितिक घटनाओं को वर्णित करती है। विश्व की  प्रथम काव्य कृति महर्षि बाल्मीकि रचित रामायण भी राजनीति को समेटे हुए है। कविता राजनीति को प्रभावित करती भी है और राजनीति से प्रभावित होती भी है। यह केवल हिंदी या भारत नहीं, अपितु विश्व की हर भाषा और देश के संदर्भ में सत्य है।  
प्र. ५ _आपके अनुसार छायावादोत्तर काल में हिन्दी कविता के स्तर में क्या परिवर्तन हुआ है ?
उ. ५ छायावादोत्तरी हिन्दी कविता के स्तर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। तब भी श्रेष्ठ, सामान्य और कमजोर रचनाएँ की गईं और अब भी की जा रही हैं। आपका आशय संभवत: कविता के कलेवर, कथ्य या वर्ण्य विषय से है। छायावादोत्तरी कविता अमूर्तता से मूर्तता की ओर काव्य यात्रा है। इसे भावनात्मकता से मांसलता की यात्रा या आदर्श से यथार्थ की यात्रा भी कह सकते हैं। वास्तव में अमूर्त में मूर्त तथा मूर्त में अमूर्त सदैव होता है। एक के बिना दूसरा हो ही नहीं सकता। कविता के संदर्भ में कलेवर में आनुपातिक उपस्थिति के आधार पर 'इस' या 'उस' में वर्गीकृत किया जाता है। रचनाकार और पाठक रचना को समग्रता में ग्रहण करता है, वर्गीकरण और विश्लेषण समीक्षकों और प्राध्यापकों का बौद्धिक व्यायाम मात्र है।
प्र.६_ आजकल अतुकांत कविता के नाम पर कुछ भी लिख कर उसे कविता मान लेने का आग्रह किया जाता है, आप इस बात से कितना सहमत और संतुष्ट हैं ?
उ. ६ 'अतुकांत कविता के नाम पर कुछ भी लिख कर उसे कविता मान लेने का आग्रह' कौन कब और किससे करता है? मेरे लगभग ५ दशक के रचनाकाल में आज तक किसी ने मुझसे ऐसा आग्रह नहीं किया, न मैंने किसी से किया। कवि आत्म अनुभूत अथवा स्व विचारित सत्य की अभिव्यक्ति कविता में करता है। कथ्य के प्रस्तुतीकरण के दो महत्वपूर्ण उपादान भाषा शैली और शिल्प हैं। रचनाकार सिद्धहस्त हो तो अभिव्यक्ति प्रभावकारी होती है अन्यथा न्यून प्रभावकारी या अप्रभावकारी होती है। संतान कैसी भी हो माँ को उससे मोह तो होता ही है और इसके लिए कोई माँ को दोष नहीं देता। आरंभिक दिनों में  हर रचनाकार को अपनी रचना से मोह होना स्वभाविक है। रचनायात्रा में परिपक्वता के साथ यह मोह घटकर नीर-क्षीर विवेक बुद्धि का विकास हो तो कमजोर रचनाएँ रचनाकार ही प्रस्तुत नहीं करता। जिन रचनाकारों में यह बोध नहीं होता, वे और उनकी रचनाएँ समझदार पाठकों और विद्वानों के मध्य समादृत नहीं होतीं। 
प्र.७_ हिन्दी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में आप क्या अन्तर मानते हैं?
उ. ७ हिन्दी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में वही अंतर् है जो दो भाषाओं की काव्य रचनाओं में होता है। वस्तुत: ग़ज़ल अरबी-फ़ारसी की काव्य विधा है जो भारत से ही गयी है। ग़ज़ल के शिल्प के लोकगीत भारत की लोक भाषाओँ में गए जाते रहे हैं। समान पदांत-तुकांत के संस्कृत श्लोक भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। उर्दू स्वतंत्र भाषा है भी नहीं। उर्दू शब्द-कोष के समस्त शब्द अन्य भाषाओँ से लिए गए हैं। इतिहास साक्षी है कि मुग़ल आक्रमणों में विजयी मुग़ल सैनिकों (विद्वान या साहित्यकार नहीं) की छावनियों (लश्करों) में पराजित भारतीय सैनिकों को गुलामों की तरह की तरह सेवा करनी पड़ी। इस बीच अरबी-फ़ारसी और सीमांत भारतीय भाषाओँ के सम्मिश्रण से लश्करी का जन्म हुआ जो कालांतर में रेख़्ता कही गई। मुग़ल सत्ता के स्थायित्व के साथ उर्दू (तुर्की शब्द, अर्थ छावनी का बाज़ार)  जो सैन्य शिविरों और बाज़ारों में प्रयुक्त होती बाजारू भाषा थी, वह शासन-प्रशासन की भाषा हो गई। 
अब उर्दू को यदि हिंदी से अलग स्वतंत्र भाषा मानें तो तो जो अंतर अंग्रेजी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में है, जो अंतर तमिल ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में है वही हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल में होगा अर्थात हिंदी ग़ज़ल हिंदी भाषा के छंद शास्त्र से संस्कारित होकर लिखी जाए, उसका अरबी-फ़ारसी के छंद शास्त्र के साथ कोई अंतरसंबंध न हो। समान तुकांत-पदांत की सब रचनाएँ हिंदी ग़ज़ल हों। इससे उर्दू साहित्यकार को ऐतराज क्यों हो? 
उर्दू को बुंदेली, मालवी, राजस्थानी, बृज, अवधि, भोजपुरी की तरह हिंदी की सहयोगी आंचलिक भाषा मानें तो उसे हिंदी व्याकरण को अपनाना होगा, उर्दू भाषी इसके लिए भी तैयार नहीं हैं। उर्दू के साहित्यकारों को रोटी हिंदी के पाठकों-श्रोताओं से ही मिलती है। तथापि हिंदीभाषियों की कमजोर मानसिकता और उर्दू भाषियों के पूर्वाग्रह के कारण हिंदी ग़ज़ल को विवाद का सामना करना पड़ रहा है। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदी में विविध खेमे सामान शिल्प की रचनाओं को मुक्तिका (चतुष्पदी मुकतक का विस्तार), गीतिका (इस नाम के मात्रिक व् वर्णिक छंद हिंदी में हैं), तेवरी (व्यवस्था विरोध की ग़ज़ल), सजल, अनुगीत आदि अनेक नामों से लिख रहे हैं। 
ग़ज़ल को ग़ज़ल मानकर हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल माननेवालों को देखना होगा की उर्दू ग़ज़ल अरबी व्याकरण-छंदशास्त्र पर आधारित है जबकि हिंदी ग़ज़ल हिंदी व्याकरण और छंदशास्त्र पर, वे एक नहीं हो सकतीं। हिंदी के रचनाकार को अन्य भाषा का व्याकरण क्यों जानना चाहिए? उर्दू में हिंदी की पञ्चम वर्ण की ध्वनि है ही नहीं, इसी तरह उर्दू की नुक्ते वाली और अन्य ध्वनियाँ हिंदी में नहीं हैं। 
एक तथ्य यह भी है कि उर्दू छंद शास्त्र में प्रयुक्त सभी लयखण्ड (बह्र) संस्कृत के छंदों से ली गयी हैं जो हिंदी आधार हैं। उदाहरण के लिए 'हरिगीतिका' छंद का लयखण्ड ११२१२ ही उर्दू बह्र 'मुतफाइलुं' में प्रयुक्त हुआ है। इसलिए स्पष्ट है कि हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल एक समान नहीं हैं और हिंदी ग़ज़ल का अरबी-फ़ारसी या उर्दू का व्याकरणिक या छन्दशास्त्रीय अनुशासन से कोई सरोकार नहीं है। 
प्र. ८ _उर्दू के शायर हिन्दी ग़ज़लकारों को खारिज कर देते हैं। इस बारे में आपकुछ कहना चाहेंगे..?
उ.८ उक्त उत्तर के प्रकाश में उर्दू शायर को किसी भी अन्य भाषा (हिंदी सहित) की ग़ज़ल के संबंध में निर्णय करने का कोई अधिकार नहीं है।तथापि वे तो हिंदी ग़ज़ल को खारिज करने की मूर्खता करें तो हिंदी गज़लकार भी उर्दू ग़ज़ल को खारिज कर इसका उत्तर दें। ऐसी स्थिति में हिंदी गज़लकार को कोई फर्क नहीं पड़ेगा पर उर्दू ग़ज़लकार के लिए श्रोताओं और आजीविका के लाले पड़ जाएँगे।
प्र.९_ गीत/ नवगीत को आप पाठकों को किस तरह समझाऐंगे?
उ.९  हिंदी गीति काव्य के वृक्ष की गीत शाखा पर ऊगा नव पल्लव नवगीत है। शैल्पिक दृष्टि से दोनों में कोई अंतर नहीं है। दोनों की रचना मुखड़ा अंतरा मुखड़ा अंतरा मुखड़ा के शिल्प में की जाती है। दोनों के कथ्य या विषय किसी प्रतिबंध के कैदी नहीं हैं। नवगीत का वैशिष्ट्य टटकापन (देशज शब्दों का प्रयोग) है तो वह लोकगीतों में भी है। नवगीत को पृथक विधा माननेवाले 'कहन' के अंतर को भिन्नता का आधार मानते हैं किन्तु कहाँ गीतकार की भाषा शैली का वैशिष्ट्य है जो हर नवगीतकार का भिन्न होता है। नवगीत में पारंपरिक बिंब , प्रतीकादि के प्रतिबंध संबंधी धारणा भ्रामक है। हर गीतकार गीत के कथ्य और विषय के अनुरूप बिंब, प्रतीक आदि का चयन करता है। ऐसा कोई नवगीत नहीं हो सकता जो गीत न हो किन्तु गणित गीत ऐसे हैं जिन्हें नवगीत मानने में तथाकथित कुछ नवगीतकारों को कठिनाई होती है। इससे स्पष्ट है की गीत महासागर है जिसकी एक खाड़ी (तटीय हिस्सा) नवगीत है।
प्र.१० _हिन्दी ग़ज़ल को गीतिका/सजल जैसे नाम देकर लिखा जा रहा है।आप इसे किस रूप में लेते हैं।?
उ.१० उर्दू के साहित्यकारों द्वारा हिंदी ग़ज़ल को बिना अधिकार व् कारण के खारिज करने के कारण उपजी निराशा व कुंठा के कारण इससे बचने के लिए हिंदी ग़ज़लकारों ने विविध नामों से हिंदी ग़ज़ल लिखना आरंभ कर दिया। मुक्तिका, गीतिका, सजल, तेवरी, अनुगीत और अन्य कई नाम प्रयोग में लाए जा रहे हैं। वास्तव में ये सब हिंदी ग़ज़ल ही हैं। 
प्र.११_आप स्वयं एक वरिष्ठ कवि हैं, क्या आपको लगता है कि निज जीवन में ईमानदार आज का कवि कविता के प्रति भी ईमानदार है ?
उ.११  ईमानदार व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में ईमानदार होता है। यहाँ ईमानदार, वहाँ बेईमान कैसे होगा? यथार्थत: शाट-प्रतिशत ईमानदार तो वर्तमान काल में कहीं-कोई नहीं है। हम कवि होने से पहले मानव हैं। वर्तमान देश-काल-समाज में जीना है तो 'जैसा देस वैसा भेस' कहावत का अनुकरण करना होगा। कवि भी समाज ही अंग है, वह समाज से भिन्न नहीं हो सकता। ईमानदारी का कम या ज्यादा होना कवि के  व्यक्तित्व का हिस्सा है जो समाज और परिस्थितियों से प्रभावित होता है। 
प्र.१२_छायावाद के कवियों में से तथा आज के कवियों में से अपनी पसंद के एक-एक कवि के बारे में बताएं, यह भी कि वे आपको क्यों पसंद हैं ?
उ.१२ किसी भी एक कवि की सब रचनाएँ पसंद होना अथवा किसी अन्य कवि की एक भी रचना पसंद न होना, संभव नहीं होता। तथापि छायावादी कवियों में महीयसी महादेवी वर्मा जी तथा समसामयिक कवियों में नीरज मुझे सर्वाधिक पसंद हैं।                                                          महादेवी जी की रचनाओं में भावों की ऐन्द्रजालिक सघनता, भाषिक प्राञ्जलता, सटीक शब्द प्रयोग, करुण रस की बाँकी छटा मन मोहती है। उनकी रचनाएँ अपनी साथ पाठक को बहा ले जाती हैं। उनकी रचनाओं का सम्मोहन क्रमिक विस्तार पाता है, जैसे-जैसे समय बीतता है उनकी पंक्तियाँ पाठक के मानस पट पर उभरती जाती हैं। महादेवी की मंचीय प्रस्तुति बहुत प्रभावी नहीं होती थी, तथापि उनका काव्य विस्मृत नहीं होता, यही उनका वैशिष्ट्य है। महादेवी जी के दीप-गीत उज्ज्वल भविष्य के प्रति उनकी अगाध आस्था से प्रेरित हैं। मुझे 'मधुर-मधुर मेरे दीपक जल' और 'मैं नीर भरी दुःख की बदली' सर्वाधिक पसंद हैं।                                                                                                                    महादेवी जी के पूरक रूप में नीरज जी की रचनाएँ लोक में व्याप्त व्यावहारिक हिंदवी या हिंदुस्तानी को वरीयता देती हैं। नीरज जी की मंचीय प्रस्तुति अपनी मिसाल आप है। नीरज जी के विषय और भाषा समसामयिक पीड़ा को केंद्र में रखकर आम आदमी के मनोभावों को शब्दित करते हैं। नीरज जी की 'कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे' और 'इसीलिये तो नगर नगर बदनाम हो गए मेरे आँसू, मैं उनका हो गया कि जिनका कोई पहरेदार नहीं था' मैं शालेय जीवन से गुनगुनाता रहा हूँ।
प्र.१३ _छंदबद्ध कविता कि किस विधा से आप प्रभावित हैं और क्यों ?
उ.१३ मुझे छांदस और अछांदस दोनों तरह की काव्य विधा पसंद है। मेरे दो अछांदस काव्य संग्रह और ३ छांदस काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। दोनों तरह की काव्य रचनाओं का अपना-अपना महत्व है। मुझे गीत-नवगीत सर्वाधिक पसंद हैं। गीत मन की श्रेष्ठ मनोदशाओं को शब्दांकित करता है तो नवगीत समसामयिक यथार्थ को। मूलत: नवगीत भी गीत ही है।
प्र.१४_ नवोदित कवियों के लिए आप क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उ.१४ नवोदित कवि नाम का कोई पृथक वर्ग नहीं होता। कवि केवल कवि होता है। कोई एक रचना कर अमर हो जाता है कोई सहस्त्रों रचनाएँ करने के बाद भी छाप नहीं छोड़ पाता। सामान्यत: हर कवि रचनारंभ करते समय नवोदित और क्रमशः वरिष्ठ कहा जाता है किन्तु ज्येष्ठता ही श्रेष्ठता नहीं होती। जो रचनाकार लेखन कर्म आरम्भ करना चाहते हैं उन्हें यह परामर्श देना चाहता हूँ कि जो भी लिखें अपनी आत्मा की संतुष्टि के लिए लिखें, लोगों की सराहना, संस्थाओं से अभिनन्दन या धनार्जन को लक्ष्य बनाकर न लिखें। लेखन दो तरह से होता है प्रथम मन में उठे विचारों के अनुसार दूसरा किसी पूर्व निर्धारित विषय पर। प्रथम तरह का लेखन ह्रदय प्रधान और दूसरा मस्तिष्क प्रधान होता है। जिस विधा में लिखना चाहते हैं उस विधा की श्रेष्ठ रचनाएँ पढ़ लें, मानक और विधान जान लें, तब लिखें। अपने विचारों को क्रम बद्ध, सटीक शब्द-चयन करते हुए प्रस्तुत करें। भाषिक शुद्धता का ध्यान रखें। काव्य दोषों की जानकारी कर उनसे मुक्त रहने का प्रयास करें। अपनी शैली आप विकसित करें, किसी की नकल न करें। कथ्य, कहन और कथन तीनों में मौलिकता आवश्यक है।
प्र.१५_ आप अभी क्या लिख रहे हैं और भविष्य में क्या लिखना चाहते हैं? 
उ.१५ मैं ३ दशकों से छंद कोष पर काम कर रहा हूँ। ५०० से अधिक नए छंद बन चुके हैं। इसे पूर्ण करना है। 'नीर-क्षीर दोहा यमक' शीर्षक से यमकमय दोहों की सतसई को अंतिम रूप देना है। ३ लघुकथा संकलन प्रकाशन की राह देख रहे हैं। शिशु गीत संग्रह, बाल गीत संग्रह, श्रुंगात गीत संग्रह, नवगीत संग्रह, हाइकु संग्रह, कुण्डलिया संग्रह, हिंदी ग़ज़ल संग्रह, क्षणिका संग्रह, व्यंग्य लेख संग्रह, तकनीकी लेख संग्रह, समीक्षा संग्रह, पुरोवाक संग्रह की सामग्री अंतरजाल पर बिखरी है उसे एकत्र कर पुस्तकाकार देना है। किसी सहृदय प्रकाशक की तलाश है। 

बुधवार, 3 मार्च 2021

लेख: सतत स्थाई विकास

लेख:
सतत स्थाई विकास : मानव सभ्यता की प्राथमिक आवश्यकता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
स्थायी-निरंतर विकास : हमारी विरासत
मानव सभ्यता का विकास सतत स्थाई विकास की कहानी है। निस्संदेह इस अंतराल में बहुत सा अस्थायी विकास भी हुआ है किन्तु अंतत: वह सब भी स्थाई विकास की पृष्ठ भूमि या नींव ही सिद्ध हुआ। विकास एक दिन में नहीं होता, एक व्यक्ति द्वारा भी नहीं हो सकता, किसी एक के लिए भी नहीं किया जाता। 'सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:, सर्वे भद्राणु पश्यन्ति, माँ कश्चिद दुःखभाग्भवेद" अर्थात ''सभी सुखी हों, सभी स्वस्थ्य हों, शुभ देखें सब, दुःख न कहीं हो"का वैदिक आदर्श तभी प्राप्त हो सकता है जब विकास, निरंतर विकास, सबकी आवश्यकता पूर्ति हित विकास, स्थाई विकास होता रहे। ऐसा सतत और स्थाई विकास जो मानव की भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं और उनके समक्ष उपस्थित होने वाले संकटों और अभावों का पूर्वानुमान कर किया जाए, ही हमारा लक्ष्य हो सकता है। सनातन वैदिक चिंतन धारा द्वारा प्रदत्त वसुधैव कुटुम्बकम" तथा 'विश्वैक नीडं' के मन्त्र ही वर्तमान में 'ग्लोबलाइज विलेज' की अवधारणा का आधार हैं।
'सस्टेनेबल डेवलपमेंट अर्थ स्थायी या टिकाऊ विकास से हमारा अभिप्राय विकास ऐसे कार्यों की निरन्तरता से है जो मानव ही नहीं, सकल जीव जंतुओं की भावी पीढ़ियों का आकलन कर, उनकी प्राप्ति सुनिश्चित करते हुए, वर्तमान समय की आवश्यकताएँ पूरी करे। दुर्गा सप्तशतीकार कहता है 'या देवी सर्व भूतेषु प्रकृतिरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:'। पौर्वात्य चिन्तन प्रकृति को 'माँ' और सभी प्राणियों को उसकी संतान मानता है। इसका आशय यही है कि जैसे शिशु माँ का स्तन पान इस तरह करता है की माँ को कोई नहीं होती, अपितु उसका जीवन पूर्णता पता है, वैसे ही मनुष्य प्रकृति संसाधनों का उपयोग इस कि प्रकृति अधिक समृद्ध हो। भारतीय परंपरा में प्रकृति के अनुकूल विकास की मानता है, प्रकृति के प्रतिकूल विकास की नहीं।'सस्टेनेबल डवलेपमेन्ट कैन ओनली बी इन एकॉर्डेंस विथ नेचर एन्ड नॉट, अगेंस्ट और एक्सप्लोयटिंग द नेचर।'
प्रकृति माता - मनुष्य पुत्र
स्वयं को प्रकृति पुत्र मानने की अवधारणा ही पृथ्वी, नदी, गौ और भाषा को माता मानने की परंपरा बनकर भारत के जान-जन के मन में बसी है। गाँवों में गरीब से गरीब परिवार भी गाय और कुत्ते के लिए रोटी बनाकर उन्हें खिलाते हैं। देहरी से भिक्षुक को खाली हाथ नहीं लौटाते। आंवला, नीम, पीपल, बेल, तुलसी, कमल, दूब, महुआ, धान, जौ, लाई, आदि पूज्यनीय हैं। नर्मदा ,गंगा, यमुना, क्षिप्रा आदि नदियाँ पूज्य हैं। नर्मदा कुम्भ, गंगा दशहरा, यमुना जयंती आदि पर्व मनाये जाते हैं। पोला लोक पर्व पोला पर पशुधन का पूजन किया जाता है। आँवला नवमी, तुलसी जयंती आदि लोक पर्व मनाये जाते हैं। नीम व जासौन को देवी, बेल व धतूरा को शिव, कदंब व करील को कृष्ण, कमल व धान को लक्ष्मी, हरसिंगार को विष्णु से जोड़कर पूज्यनीय कहा गया है। यही नहीं पशुओं और पक्षियों को भी देवी-देवताओं से संयुक्त किया गया ताकि उनका शोषण न कर, उनका ध्यान रखा जाए। बैल, सर्प व नीलकंठ को शिव, शेर व बाघ को देवी, राजहंस व मोर को सरस्वती, हाथी को लक्ष्मी, मोर को कृष्ण आदि देवताओं के साथ संबद्ध बताया गया ताकि उनका संरक्षण किया जाता रहे। यही नहीं हनुमान जी को वायु, लक्ष्मी जी को जल, पार्वती जी को पर्वत, सीता जी भूमि की संतान कहा गया ताकि जन सामान्य इन प्राकृतिक तत्वों तत्वों की शुद्धता और सीमित सदुपयोग के प्रति सचेष्ट हो।
विश्व रूपांतरण : युग की महती आवश्यकता
हम पृथ्वी को माता मानते है और सतत विकास सदैव हमारे दर्शन और विचारधारा का मूल सिद्धांत रहा है। सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनेक मोर्चों पर कार्य करते हुए हमें महात्मा गांधी की याद आती है, जिन्होंने हमें चेतावनी दी थी कि धरती प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकती है, पर प्रत्येक व्यक्ति के लालच को नहीं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित 'ट्रांस्फॉर्मिंग आवर वर्ल्ड : द 2030 एजेंडा फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट' के संकल्प कोभारत सहित १९३ देशों ने सितंबर, २०१५ में संयुक्त राष्ट्र महासभा की उच्च स्तरीय पूर्ण बैठक में स्वीकार और इसे एक जनवरी, २०१६ से लागू किया। इसे सतत विकास लक्ष्यों के घोषणापत्र के नाम से भी जाना जाता है। सतत विकास का उद्देश्य सबके लिए समान, न्यायसंगत, सुरक्षित, शांतिपूर्ण, समृद्ध और रहने योग्य विश्व का निर्माण हेतु विकास में सामाजिक परिवेश, आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण को व्यापक रूप से समाविष्ट करना है। २००० से २०१५ तक के लिए निर्धारित नए लक्ष्यों का उद्देश्य विकास के अधूरे कार्य को पूरा करना और ऐसे विश्व की संकल्पना को मूर्त रूप देना है, जिसमें चुनौतियाँ कम और आशाएँ अधिक हों। भारत विश्व कल्याणपरक विकास के मूलभूत सिद्धांतों को अपनी विभिन्न विकास नीतियों में आराम से ही सम्मिलित करता रहा है। वर्तमान विश्वव्यापी अर्थ संकट के संक्रमण काल में भी विकास की अच्छी दर बनाए रखने में भारत सफल है। गाँधी जी ने 'आखिरी आदमी के भले', विनोबा जी ने सर्वोदय और दीनदयाल उपाध्याय ने अंत्योदय के माध्यम से निर्धनों को को गरीबी रेखा से ऊपर लाने और निर्बल को सबल बनाने की संकल्पना का विकास किया। वर्ष २०३० तक निर्धनता को समाप्त करने का लक्ष्य हमारा नैतिक दायित्व ही नहीं, शांतिपूर्ण, न्यायप्रिय और चिरस्थायी भारत और विश्व को सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य प्राथमिकता भी है।
सतत विकास कार्यक्रम : लक्ष्य
वित्तीय लक्ष्य:
विकसित देश सरकारी विकास सहायत का अपना लक्ष्य प्राप्त कर, अपनी सकल राष्ट्रीय आय का ०.७%० विकासशील देशों को तथा ०.१५% से ०.२०% सबसे कम विकसित राष्ट्रों को दें। विकासशील देश एकाधिक स्रोत से साधन जुटाएँ तथा समन्वित नीतियों द्वारा दीर्घिकालिक ऋण संवहनीयता प्राप्त कर अत्यधिक ऋणग्रस्त निर्धन देशों पर ऋण बोझ कम कर निवेश संवर्धन को करें।
तकनीकी लक्ष्य:
विकसित, विकासशील व् अविकसित देशों के मध्य विज्ञान, प्रौद्योगिकी, तकनालोजी व नवाचार सुलभ कर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाना। वैश्विक तकनॉलॉजी तंत्र का विकास करना। परस्पर सहमति पर रियायती और वरीयता देते हुए हितकारी शर्तों पर पर्यावरण अनुकूल तकनोलॉजी का विकास, हस्तांतरण, प्रसार व् समन्वय करना। तकनोलॉजी बैंक बनाकर सामर्थ्यवान तकनोलॉजी का प्रयोग बढ़ाना।
क्षमता निर्माण तथा व्यापार :
विकाशील देशों में लक्ष्य क्षमता निर्माण कर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाना। राष्ट्रीय योजनाओं को समर्थन दिलाना। विश्व व्यापार संगठन के अन्तर्गत सार्वभौम, नियमाधारित, भेदभावहीन, खुली और समान बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली को प्रोत्साहित करना। विकासशील देशों के निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि कर, सबसे कम देशों की भागीदारी दोगुनी करना। सबसे कम विकसित देशों को शुल्क और कोटा मुक्त बाजार प्रवेश सुविधा देना, पारदर्शी व् सरल व्यापार नियम बनाकर बाजार में प्रवेश सरल बनाना।
नीतिगत-संस्थागत सामंजस्य:
सतत विकास हेतु वैश्विक वृहद आर्थिक स्थिरता वृद्धि हेतु नीतिगत-संस्थागत सामंजस्य बनाना। गरीबी मिटाने हेतु पारस्परिक नीतिगय क्षमता और नेतृत्व का सम्मान करना। सभी देशों के साथ सतत विकास लक्ष्य पाने में सहायक बहुहितकारी भागीदारियाँ कर विशेषज्ञता, तकनोलॉजी, तहा संसाधन जुटाना। प्रभावी सार्वजनिक व् निजी संसाधन जुटाना। सबसे कम विकसित, द्वीपीय व विकासशील देशों के लिए क्षमता निर्माण समर्थन बढ़ाना। २०३० तक सकल घेरलू उत्पाद के पूरक प्रगति के पैमाने विकसित करना।
स्थायी विकास लक्ष्य : केंद्र के प्रयास
सतत् विकास लक्ष्‍यों को हासिल करने के लिए खरबों डॉलर के निजी संसाधनों की काया पलट ताकत जुटाने, पुनःनिर्देशित करने और बंधन मुक्‍त करने हेतु तत्‍काल कार्रवाई करने, विकासशील देशों में संवहनीय ऊर्जा, बुनियादी सुविधाओं, परिवहन - सूचना - संचार प्रौद्योगिकी आदि महत्‍वपूर्ण क्षेत्रों में प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश सहित दीर्घकालिक निवेश जुटाने के साथ सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के लिए एक स्‍पष्‍ट दिशा निर्धारित करनी है। इस हेतु सहायक समीक्षा व निगरानी तंत्रों के विनियमन और प्रोत्‍साहक संरचनाओं हेतु नए साधन जुटाकर निवेश आकर्षित कर सतत विकास को पुष्‍ट करना प्राथमिक आवश्यकता है। सर्वोच्‍च ऑडिट संस्‍थाओं, राष्‍ट्रीय निगरानी तंत्र और विधायिका द्वारा निगरानी के कामकाज को अविलंब पुष्‍ट किया जाना है। हमारे मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत अभियान, बेटी बचाओ-बेटी पढाओ, राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, प्रधानमंत्री ग्रामीण और शहरी आवास योजना, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, डिजिटल इंडिया, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, स्किल इंडिया और प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना शामिल हैं। इसके अलावा अधिक बजट आवंटनों से बुनियादी सुविधाओं के विकास और गरीबी समाप्त करने से जुड़े कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जा रहा है। केंद्र सरकार ने सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन पर निगरानी रखने तथा इसके समन्वय की जिम्मेदारी नीति आयोग को, संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद द्वारा प्रस्तावित संकेतकों की वैश्विक सूची से उपयोगी संकेतकों की पहचान कर राष्ट्रीय संकेतक तैयार करने का कार्य सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय को सौंपा है।न्यूयार्क में जुलाई, २०१७ में आयोजित होने वाले उच्च स्तरीय राजनीतिक मंच (एचएलपीएफ) पर अपनी पहली स्वैच्छिक राष्ट्रीय समीक्षा (वीएनआर) प्रस्तुत कर भारत सरकार ने सतत विकास लक्ष्यों के सफल कार्यान्वयन को सर्वोच्च महत्व दिया है।
राज्यों की भूमिका :
भारत के संविधान केंद्रों और राज्यों के मध्य राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक शक्ति संतुलन के अनुरूप राज्यों में विभिन्न राज्य स्तरीय विकास योजनायें कार्यान्वित की जा रही हैं। इन योजनाओं का सतत विकास लक्ष्यों के साथ तालमेल है। केंद्र और राज्य सरकारों को सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन में आनेवाली विभिन्न चुनौतियों का मुकाबला मिलकर करना है। भारतीय संसद विभिन्न हितधारकों के साथ सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन को सुविधाजनक बनाने के लिए सक्रिय है। अध्यक्षीय शोध कदम (एसआरआई) सतत विकास लक्ष्यों से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर सांसदों और विशेषज्ञों के मध्य विमर्श हेतु है। नीति आयोग सतत विकास लक्ष्यों पर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर परामर्श शृंखलाएं आयोजित कर विशेषज्ञों, विद्वानों, संस्थाओं, सिविल सोसाइटियों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों और केंद्रीय मंत्रालयों राज्य सरकारों व हितधारकों के साथ गहन विचार-विमर्श कर रहा है। पर्यावरण संरक्षण व संपूर्ण विकास हेतु जन आकांक्षा पूर्ण करने हेतु राष्ट्रीय, राज्यीय, स्थानीय प्रशासन तथा जन सामान्य द्वारा सतत समन्वयकर कार्य किये जा रहे हैं।
जन सामान्य की भूमिका :
भारत के संदर्भ में दृष्टव्य है कि सतत स्थाई कार्यक्रमों की प्रगति में जान सामान्य की भूमिका नगण्य है। इसका कारण उनका समन्वयहीन धार्मिक-राजनैतिक संगठनों से जुड़ाव, प्रशासन तंत्र में जनमत और जनहित के प्रति उपेक्षा, व्यापारी वर्ग में येन-केन-प्रकारेण अधिकतम लाभार्जन की प्रवृत्ति तथा संपन्न वर्ग में विपन्न वर्ग के शोषण की प्रवृत्ति का होना है। किसी लोकतंत्र में सब कुछ तंत्र के हाथों में केंद्रित हो तो लोक निराशा होना स्वाभाविक है। सतत विकास नीतियाँ गाँधी के 'आखिरी आदमी' अर्थात सबसे कमजोर को उसकी योग्यता और सामर्थ्य के अनुरूप आजीविका साधन उपलब्ध करा सकें तभी उनकी सार्थकता है। सरकारी अनुदान आश्रित जनगण कमजोर और तंत्र द्वारा शोषित होता है। भारत के राजनीतिक नेतृत्व को दलीय हितों पर राष्ट्रीय हितों को वरीयता देकर राष्ट्रोन्नयनपरक सतत विकास कार्यों में परस्पर सहायक होना होगा तभी संविधान की मंशा के अनुरूप लोकहितकारी नीतियों का क्रियान्वय कर मानव ही नहीं, समस्त प्राणियों और प्रकृति की सुरक्षा और विकास का पथ प्रशस्त सकेगा।
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४,
ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com

नवगीत

।     
   
नवगीत:
संजीव
.
समय न्यायाधीश की
लगती अदालत.
गीत!
हाज़िर हो.
.
लगा है इलज़ाम
तुम पर
गिरगिटों सा
बदलते हो रंग.
श्रुति-ऋचा
या अनुष्टुप बन
छेड़ डी थी
सरसता की जंग.
रूप धरकर
मन्त्र का
या श्लोक का
शून्य करते भंग.
काल की
बनकर कलम तुम
स्वार्थ को
करते रहे हो तंग.
भुलाई ना
क्यों सखावत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
छेड़ते थे
जंग हँस
आक्रामकों
से तुम.
जान जाए
या बचे
करते न सुख
या गम.
जूझते थे
बूझते थे
मनुजता को
पूजते थे.
ढाल बनकर
देश की
दस दिशा में
घूमते थे.
मिटायी क्यों
हर अदावत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
पराजित होकर
न हारे,
दैव को
ले आये द्वारे.
भक्ति सलिला
में नहाये
कर दिये
सब तम उजारे.
बने संबल
भीत जन का-
‘त्राहि’ दनु हर
हर पुकारे.
दलित से
लगकर गले तुम
सत्य का
बनते रहे भुजदंड .
अनय की
क्यों की मलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
एक पल में
जिरह-बखतर
दूसरे पल
पहन चीवर.
योग के सँग
भोग अनुपम
रूप को
वरकर दिया वर.
नव रसों में
निमज्जित हो
हर असुन्दर
किया सुंदर.
हास की
बनकर फसल
कर्तव्य का ही
भुला बैठे संग?
नाश की वर
ली अलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
श्रमित काया
खोज छाया,
लगी कहने-
‘जगत माया’.
मूर्ति में भी
अमूरत को
छिपा- देखा,
पूज पाया.
सँग सुन्दर के
वरा शिव
शिवा को
मस्तक नवाया.
आज का आधार
कल कर,
स्वप्न कल का
नव सजाया.
तंत्र जन का
क्यों नियामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
स्वप्न टूटा,
धैर्य छूटा.
सेवकों ने
देश लूटा.
दीनता का
प्रदर्शन ही -
प्रगतिवादी
बेल-बूटा.
छंद से हो तंग
कर रस-भंग
कविता गढ़ी
श्रोता मिला सोता.
हुआ मरकर
पुनर्जीवित
बोल कैसे
गीत-तोता?
छंद अब भी
क्यों सलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
हो गये इल्जाम
पूरे? तो बतायें
शेष हों कुछ और
तो वे भी सुनायें.
मिले अनुमति अगर
तो मैं अधर खोलूँ.
बात पहले आप तोलूँ
बाद उसके असत्य बोलूँ
मैं न मैं था,
हूँ न होऊँ.
अश्रु पोछूं,
आस बोऊँ.
बात जन की
है न मन की
फ़िक्र की
जग या वतन की.
साथ थी हर-
दम सखावत
प्रीत!
हाज़िर हो.
.
नाम मुझको
मिले कितने,
काम मैंने
किये कितने.
याद हैं मुझको
न उतने-
कह रहा है
समय जितने.
छंद लय रस
बिम्ब साधन
साध्य मेरा
सत सुपावन
चित रखा है
शांत निश-दिन
दिया है आनंद
पल-छिन
इष्ट है परमार्थ
आ कह
नीत!
हाज़िर हो.
.
स्वयंभू जो
गढ़ें मानक,
हो न सकते
वे नियामक.
नर्मदा सा
बह रहा हूँ.
कुछ न खुद का
गह रहा हूँ.
लोक से ले
लोक को ही,
लोक को दे-
लोक का ही.
रहा खाली हाथ
रखा ऊँचा माथ,
सब रहें सानंद
वरें परमानन्द.
विवादों को भूल
रच नव
रीत!
हाज़िर हो.
.
३-३-२०१५
कृति चर्चा :
‘नदियाँ क्यों चुप हैं?’ विसंगतियों पर आस्था का जयघोष
चर्चाकार: संजीव
[कृति विववरण: नदियाँ क्यों चुप हैं?, navgeetनवगीत संग्रह, राधेश्याम बंधु , आकार डिमाई, पृष्ठ ११२, मूल्य १५०/-, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेटयुक्त, वर्ष २०११, कोणार्क प्रकाशन, बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, संपर्क: ९८६८४४४६६६, rsbandhrsbandhu2@gmail.com]
.
दादी सी दुबली, गरीब हैं नदियाँ बहुत उदास
सबकी प्यास बुझातीं, उनकी कौन बुझाये प्यास?
.
जब सारा जल
जहर हो रहा नदियाँ क्यों चुप हैं?
.
उक्त २ उद्धरण श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार राधेश्याम बंधु के चिन्तनपरक नवगीतों में अन्तर्निहित संतुलित, समन्वित, विचारधारा के संकेतक हैं कि उनकी सोच एकांगी नहीं है, वे विसंगति और विडम्बना के दोनों पक्षों का विचार कर नीर-क्षीर प्रवृत्ति परक navgeetनवगीत रचते हैं, उनका आग्रह ‘कला’ को साध्य मानने के प्रति कम तथा ‘कथ्य’ को साध्य मानने के प्रति अधिक है. वे navgeeनवगीत में छंद की अंतर्व्याप्ति के पक्षधर हैं. उनके अपने शब्दों में: ‘मनुष्य ने जब भी अपनी अन्तरंग अनुभूतियों की अनुगूंज अपने मन में सुननी चाही, तो उसे सदैव गीतात्मक प्रतीति की अनुगूंज ही सुनाई पड़ी. वहाँ विचार या विमर्श का कोई अस्तित्व नहीं होता. हम चाहे जितने आधुनिकता या उत्तर आधुनिकता के रंग में रंग जाएँ, हम अपने सांस्कृतिक परिवेश और लोकचेतना के सौन्दर्यबोध से कभी अलग नहीं हो सकते. इतिहास साक्षी है कि जब भी हर्ष, विषद या संघर्ष की अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की आवश्यकता हुई तो लयात्मक छान्दस कविता ही उसके लिये माध्यम बनी. आदि कवि बाल्मीकि से लेकर निराला तक के कविता के इतिहास पर यदि हम दृष्टि डालें तो हम पायेंगे कि इतने लम्बे कालखंड में छन्दस काव्य का ही सातत्य विद्यमान है. वह चाहे ऋचा हो या झूले का गीत हो.’
इस संग्रह के गीत कथ्य की दृष्टि से navgeनवगीत (२७) तथा जनगीत (१५) में वर्गीकृत हैं किन्तु उनमें पर्यावरण के प्रति चिंता सर्वत्र दृष्टव्य है. प्रदूषण प्राकृतिक पर्यावरण में हो अथवा सामाजिक पर्यावरण में वह बंधु जी को क्लेश पहुँचाता है. इस संग्रह का वैशिष्ट्य एक पात्र को विविध रूपकों में ढाल कर उसके माध्यम से विसंगतियों और विडम्बनाओं का इंगित करना है. चाँदनी, नदी, आदि के माध्यम से कवि वह सब कहता है जो सामान्य जन अनुभव करते हैं पर अभिव्यक्त नहीं कर पाते:
यहाँ ‘नदी’ जलधार मात्र नहीं है, वह चेतना की संवाहक प्रतीक है, वह जीवन्तता की पर्याय है:
संसद की
राशन की नदियाँ
किस तहखाने में खो जाती?
.
प्यासी नदी
रेत पर तड़पे
अब तो बादल आ
.
कैसे दिन
आये रिश्तों की
नदिया सूख गयी.
.
पाषाणों
में भी हमने
नदिया की तरज जिया.
मानव जीवन में खुशहाली के लिये हरियाली और छाँव आवश्यक है:
फिर-फिर
जेठ तपेगा आँगन
हरियल पेड़ लगाये रखना
विश्वासों के
हरसिंगार की
शीतल छाँव बचाये रखना
बादल भी विसंगतियों का वाहक है:
राजा बन बादल जुलूस में
हठी पर आते
हाथ हिलाकर प्यासी जनता
को हैं बहलाते
.
फिर-फिर
तस्कर बादल आते
फिर भी प्यास नहीं बुझ पाती
.
जब बादल बदल गए तो चांदनी कैसे अपनी मर्यादा में रहे:
कभी उतर आँगन में
निशिगंधा चूमती
कभी खड़ी खिड़की पर
ननदी सी झाँकती
निराश न हों, कहते हैं आशा पर आकाश थमा है. कालिमा कितनी भी प्रबल क्यों न हो जाए चाँदनी अपनी धवलता से निर्मलता का प्रसार करेगी ही:
उतरेगी
दूधिया चाँदनी
खिड़की जरा खुली रहने दो
.
कठिनाई यह है कि बेचारी चाँदनी के लिये इंसान ने कहीं स्थान ही नहीं छोड़ा है:
पत्थर के
शहरों में अब तो
मिलती नहीं चाँदनी है
बातूनी
चंचल बंगलों में
दिखती नहीं चाँदनी है
.
इस जीवन शैली में किसी को किसी के लिये समय नहीं है और चाँदनी नाउम्मीद हुई जाती है:
लेटी है बेचैन चाँदनी
पर आँखों में नींद कहाँ?
आँखें जब रतजगा करें तो
सपनों की उम्मीद कहाँ?रिश्तों की
उलझी अलकें भी
कोई नहीं सँवार रहा
.
नाउम्मीदी तो किसी समस्या का हल हो नहीं सकती. कोशिश किये बिना कोई समाधान नहीं मिलता. इसलिए चाँदनी लगातार प्रयासरत रहती है:
रिश्तों की
उलझन को
सुलझाती चाँदनी
एकाकी
जीना क्या
समझाती चाँदनी
.
बंधु जी विसंगतियों का संकेतन स्पष्टता से करते हैं:
चाँदनी को
धूप मैं, कैसे कहूँ
वह भले ही तपन का अहसास दे?
.
नारी है
चाँदनी प्यार की
हर घर की मुस्कान
फिर भी
खोयी शकुंतला की
अब भी क्यों पहचान?
.
कम भले हो
तन का आयतन
प्यार का घनत्व कम न हो
.
अपनेपन की कोमल अनुभूति को समेटे कवि प्यार दो या न दो / प्यार से टेर लो, मौन / तुम्हारा इतना मादक / जब बोलोगे तब क्या होगा, धुप बनी / या छाँव बनो / हम तुम्हें खोज लेंगे, शब्दों / के पंख उड़ चले / चलो चलें सपनों के गाँव, चलो बचा लें / महुआवाले / रिश्तों का अहसास आदि में रूमानियत उड़ेलते हुए navgeetनवगीत ओ क्लिष्ट शब्दों और जटिल अनुभूतियों से भरनेवाले कला के पक्षधरों को अपनी सरलता-सहजता से निरुत्तरित करते हैं.
जनगीतों में बन्धु जी मनुष्य की अस्मिता के संरक्षण हेतु कलम चलाते हैं:
आदमी कुछ भी नहीं
फिर भी वतन की आन है
हर अँधेरी झोपड़ी का
वह स्वयं दिनमान है
जब पसीने की कलम से
वक्त खुद गीता लिखे
एक ग्वाला भी कभी
बनता स्वयं भगवान् है.
.
भारत में श्रम की प्रतिष्ठा तथा मूल्यांकन न होना पूँजी के असमान वितरण का कारण है. बंधु जी को श्रम ही अँधेरा मिटाकर उजाला करने में समर्थ प्रतीत होता है:
उगा
सूर्य श्रम का
अँधेरा मिटेगा
गयी धुंध दुःख की
उजाला हँसेगा
.
वे इंसान की प्रतिष्ठा भगवान से भी अधिक मानते हैं:
रहने दो इंसान
ही मुझे, मुझको मत देवता बनाओ.
नवगीतों में छंद को अनावश्यक माननेवाले संकीर्ण दृष्टि संपन्न अथवा छंद का पूर्णरूपेण पालन न कर सकनेवाले मूर्धन्यों को छोड़ दें तो navgeet के प्रेमी इन नवगीतों का स्वागत मात्र नहीं करेंगे अपितु इनसे प्रेरणा भी ग्रहण करेंगे. अवतारी, महाभागवत आदि छंदों का प्रयोग करने में बंधु जी सिद्धहस्त हैं. वे शब्द चयन में प्रांजलता को वरीयता देते हैं, हिंदीतर शब्दों का प्रयोग न्यूनतम करते हैं. विवेच्य संकलन के नवगीत लोकमानस में अपना स्थान बनाने में समर्थ हैं, यही कवि का साध्य है.
समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४,

शिवतांडव स्तोत्र काव्यानुवाद टीका सहित

ॐ 
शिवतांडव स्तोत्र काव्यानुवाद टीका सहित 
*
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शव नंदन-वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धरें कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधन सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विक्राक सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम||२||
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २..
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पा र्लाहरा रहे एहेन, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे- बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
*  
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरेमनोविनोदमेतु वस्तुनि||३||
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे|
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतंबिभर्तुभूतभर्तरि||४||
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रामकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*

ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं|
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकलपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः||५||
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
*
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः 
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः||६||
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
*
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम||७||
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
*
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्-कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः|
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतुकृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरःश्रियंजगद्धुरंधर||८||
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
*
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्|
स्मरच्छिदंपुरच्छिदंभवच्छिदंमखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदंतमंतकच्छिदंभजे||९||
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
*
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुर विजृंभणामधुव्रतम्|
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे||१०||
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले,, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
*
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्|
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवःशिवः||११||
वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दह्काएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
*
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोःसुहृद्विपक्षपक्षयोः|
तृणारविन्दचक्षुषोःप्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकःकदा सदाशिवं भजाम्यहत||१२||
कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
*
कदानिलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरेवसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिंवहन्|
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्||१३||
कुञ्ज-कछारों में गंगा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
मैं कब गंगाजी कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
*
निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः|
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय:||१४||
सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते, 
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
*
प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनों विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
*
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमंस्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम्|
हरेगुरौसुभक्तिमाशुयातिनान्यथागतिं विमोहनंहि देहिनां सुशङ्करस्यचिंतनम्||१६||
शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखेंहरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
*
पूजावसानसमयेदशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरंपठति प्रदोषे|
तस्यस्थिरांरथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः||१७||
करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर. करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
||इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
||रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
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कृष्ण चिंतन ५

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर 
*
कृष्ण-चिंतन 
कृष्ण चिंतन के पाँच सत्रों में आप सबकी बढ़ती रुचि और सहभागिता हेतु हृदय से धन्यवाद। अगले सत्र का विषय है 'कान्हा रूप सुहायो'।
आपको कृष्ण का कौन सा रूप मन भाती है और क्यों?, उसकी उस समय में क्या उपादेयता थी? इस काल में वह रूप कितना अनुकरणीय है? आदि बिंदुओं पर लगभग ग्यारह सौ शब्दों का आलेख यूनीकोड में टंकित कर, रविवार रात तक संयोजक आचार्य संजीव वर्मा सलिल ९४२५१८३२४४ व संचालक सरला वर्मा ९७७०६७७४५४ को भेजिए।
आलेखों की जीवंत प्रस्तुति सोमवार अपराह्न चार बजे से छै बजे के मध्य।
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मंगलवार, 2 मार्च 2021

व्यंग्य लेख : ब्रह्मर्षि घोंचूमल तोताराम

व्यंग्य लेख :
ब्रह्मर्षि घोंचूमल तोताराम
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
घोर कलिकाल में पावन भारत भूमि को पाप के ताप से मुक्त करने हेतु परंपिता परमेश्वर अनेकानि देवतानि का स्वरूप धारण कर यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रगट होते भये। कोई देश में, कोई परदेश में, कोई विदेश में, कोई दाढ़ी बढ़ाकर, कोई मूँछ मुँड़ाकर, कोइ चाँद घुटाकर, कोई भगवा वसन पहन कर, कोई अगवा नारी को ग्रहणकर, कोई आत्म कल्याण स्वहित व स्वसन्तुष्टि के माध्यम से 'आत्मा सो परमात्मा' के सिद्धांतानुसार स्व सेवा को प्रभु सेवा मानकर, द्वैत मिटाकर अद्वैत साधना के पथ पर प्रवीण होते भये। कतिपय अन्य त्यागी, वैरागी, आत्मानुरागी परदे के पीछे रहकर कठपुतली संचालन के दिव्य ईश्वरीय कृत्य को विविध कथा प्रसंगों में भिन्न-भिन्न रूप धारणकर परकीया को स्वकीया बनाकर होने की निमग्न होते भये। 'महाजनो येन गत: स पंथा: की परंपरा का निर्वहनकर दैहिक ताप को मिटाने की इंद्रदेवीय परंपरा के नव अध्याय लिखते हुए रस भोग और रास योग करने की दिव्य कला साधना में निमग्न सिद्ध पुरुषों में हमारे लेख नायक ब्रह्मर्षि श्री श्री ४२० घोंचूमल तोताराम जी महाराज अग्रगण्य हैं।
घोंचूमल तोताराम जी की दिव्य लीलावतरण कथा ब्लैक होल के घुप्प अन्धकार में प्रकाश कण के अस्तित्व की भाँति अप्राप्य है। 'मुर्गी पहले हुई या अंडा' के हल की तरह की तरह कोई नहीं जानता कि उन्होंने कहाँ-कब-किस महिमामयी के दामन को पल-पुसकर धन्य किया तथापि यह सभी जानते हैं कि अगणित लावण्यमयी ललनाओं को हास-परिहास, वाग-विलास व खिलास-पिलास के सोपानों पर सहारा देकर अँगुली पकड़ते ही पहुँचा पकड़ने में उन्होंने निमिष मात्र भी विलम्ब नहीं किया और असूर्यम्पश्याओं, लाजवंतियों तथा आधुनिकाओं में कोई भेद न कर सबको समभाव से पर्यंकशायिनी ही नहीं, दूध-पूतवती बनाकर उनके इहलोक व परलोक का बंटाढार करने की महती अनुकंपा करते समय 'बार बार देखो, हजार बार देखो' का अनुकरण कर अपरिमेय पौरुष को प्रमाणित किया है।
घोंचूमल जी का 'घों' घपलों-घोटालों संबंधी दक्षता तथा पुरा-पड़ोस में ताँक-झाँककर उनकी घरवालियों को अपनी समझने की वैश्विकता में प्रवीण होने का प्रतीक है। इस दुष्प्रवृत्ति को सुसंस्कारिता का चोला उढ़ाकर घोंचूमल ने नाम के आगे 'ब्रह्मर्षि' और पीछे 'महाराज' जोड़कर चेलों से प्रचारित कराने में फ़ौरन से पेश्तर कदम उठाया। बसे बसाये घरों में सेंध लगाने के लिए दीवारों से कान लगाकर और वातायनों से झाँककर घरवाले के बाहर होते ही द्वार खटखटाकर किसी न किसी बहाने घरवालियों से संपर्क बढ़ाकर नवग्रहों और दैवीय विपदा का भय दिखाकर संकट निवारण के बहाने सामीप्य बढ़ाने की कला में कुशल, निपुण और प्रवीण घोंचूमल का जवाब नहीं है।
अपनी सुकुमार कंचन काया को श्रम करने के कष्ट से बचाकर, संबंधों के चैक को स्वार्थ की बैंक में भुनाने तथा नाज़नीनों को अपने मोहपाश में फाँसकर नचाने का पुनीत लक्ष्य निर्धारण कर घोंचूमल जी नयन मूँदकर देहाकारों के बिंदुओं-रेखाओं, वृत्तों-वर्तुलों, ऊँचाइयों-गहराइयों का अनुमान, निरीक्षण - परीक्षण करने की कला को विज्ञान बनाकर आजमाने का कोई अवसर नहीं गँवाते। अपनी इज्जत बचाने के चक्कर में अच्छे-अच्छे 'चूं' तक नहीं कर पाते और भयादोहन के शिकार हो, मुँह छिपाते हैं। इस तरह उनहोंने अपने नाम के 'चूँ को सार्थक कर लिया है।
'मेरा नाम हाऊ, मैं ना दैहौं काऊ' की लोकोक्ति का अनुकरण कर मन भानेवाले पराये माल को अपना बनाने की कला के प्रति प्राण प्राण से समर्पण को 'मन की मौज' मानने - मनवाने में महारथ हासिल कर चुके घोंचूमल ने अपने नाम में 'म' की सार्थकता स्वघोषित 'ब्रह्मर्षि' विरुद जोड़ कर सिद्ध कर दी है। अपने नाम के साथ हर दिन एक नया विरुद जोड़कर उसकी लंबाई बढ़ाने को सफलता का सूत्र मन बैठे घोंचूमल प्राप्त सम्मानों की जानकारी 'अंकों' नहीं 'शतकों में देते हैं।
ब्रह्मर्षि के नाम के अंत में संलग्न 'ल' निरर्थक नहीं है। यह 'ल' उपेक्षित नहीं अपितु लंबे समय तक निस्संतान रही सौभाग्यवती के प्रौढ़ावस्था में उत्पन्न इकलौते लाल की तरह लाडला-लड़ैता है। यह अलग बात है कि यह 'ल' पांडवों जैसा लड़ाकू नहीं कौरवों जैसा लालची है। यह 'ल' ललनाओं के लावण्य को निरखने-पढ़ने की अहैतुकी सामर्थ्य का परिचायक है। ब्रह्मर्षि की उदात्त दृष्टि में अपने-पराये का भेद नहीं है। ब्रह्मर्षि 'शासकीय संपत्ति आपकी अपनी है' के सरकारी नारे को सम्मान देते हुए रेलगाड़ी के वातानुकूलित डब्बे में चादर-तौलिया ही नहीं और भी बहुत कुछ लाने में संकोच नहीं करते। 'जिसने की शर्म, उसके फूटे करम / जिसने की बेहयाई, उसने पाई दूध-मलाई' के सुभाषित को जीनेवाले ब्रह्मर्षि किस 'लायक ' हैं यह भले ही कोई न बता सके पर वे अपने सामने बाकी सबको नालायक मानते हैं।
अपने से कमजोर 'लड़इयों' से सामना होते ही ललकारने से न चूकनेवाले ब्रह्मर्षि खुद से शहजोर 'शेर' से सामना होते ही दम दबाकर लल्लो-चप्पो करने में नहीं चूकते। हर ईमानदार, स्वाभिमानी और परिश्रमी को हानि पहुँचाना परम धर्म मानकर, गुटबंदी के सहारे मठाधीशी को दिन-ब-दिन अधिकाधिक प्रोत्साहित करते ब्रह्मर्षि खुशामदी नौसिखियों को शिरोमणि घोषित करने का कोई गँवाते। बदले में खुशामदी उन्हें युग पुरुष घोषित कर धन्य होता है। 'अँधा बाँटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय' की कहावत को सत्य सिद्ध करते हुए ब्रह्मर्षि असहमतियों के प्रति दुर्वासा और सहमतियों के प्रति धृतराष्ट्र नहीं करते।
इकलौते वालिद तोतराम के एकमात्र ज्ञात कैलेंडर घोन्चूराम को 'तोताचश्म' तो होना ही था। सच्ची तातभक्ति प्रदर्शित घोंचूमल ने मौका पाते ही 'बाप का बाप" बनने में देर न की। उनकी टें-टें सुनकर तोते भी मौन हो गए पर वाह रे मिटटी के माधो, कागज़ के शेर टें-टें बंद नहीं की, तो नहीं की। बंद तो उन्होंने अंग्रेजी बोलना भी नहीं किया। हुआ यूँ कि 'अंधेर नगरी चौपट राजा' की तर्ज पर एक जिला हुक्काम अंग्रेजी प्रेमी आ गया। हुक्कामों को नवाबों के हुक्के की तरह खुश रखकर काम निकलवाने में माहिर घोंचूमल ने चकाचक चमकने के लिए चमचागिरी करते हुए बात-बेबात अंग्रेजी में जुमलेबाजी आरंभ कर दी। 'पेट में हैडेक' होने, 'लेडियों को फ्रीडमता' न देने और पनहा-लस्सी आदि को 'कंट्री लिकर' बताने जैसी अंग्रेजी सुनकर हँसते-हँसते हाकिन के पेट में दर्द होने लगा तो घोंचूमल का ब्रह्मर्षि जाग गया। उन्होंने तत्क्षण दादी माँ के नुस्खों का पिटारा खोलकर ज्ञान बघारना शुरू किया ही था की हाकिम के सब्र का बाँध टूट गया। फिर तो दे तेरे की होना ही थी। तब से 'ब्रह्मर्षि' पश्चिमदिशा में सूर्य नमस्कार करते हैं क्यों कि हाकिम का बंगला पूर्व दिशा में ही पड़ता है। शायद नमस्कार उन तक पहुँच जाए।
इस घटना से सबक लेकर ब्रह्मर्षि ने संस्कृत और हिंदी का दामन थाम लिया। काम पड़े पर पर गधे को बाप बताने और काम निकल जाने पर बाप को गधा बताने से परहेज न करनेवाले ब्रह्मर्षि जिस दिन अख़बार में अपना नाम न देखें उन्हें खाना हजम नहीं होता। येन केन प्रकारेण चित्र छप जाए तो उनकी क्षुधा ही नहीं, खून भी बढ़ जाता है। जिस तरह दादी अम्मा की सुनाई कहानियों में राक्षस की जान तोते में बसा करती थी वैसे ही ब्रह्मर्षि की जान अभिनंदन पत्रों और स्मृति चिह्नों में बसती है। वे मिलने जुलने वालों को हर दिन अभिनन्दन पत्रों और स्मृति चिन्हों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताते हुए परमवीर चक्र पाने जैसा गौरव अनुभव करते हैं। इन कार्यक्रमों में सहभागिता करता खींसें निपोरता, दीदे नटेरता उनका चौखटा विविध भाव मुद्राओं में कक्ष की हर दीवार पर है। कोई अन्य हो न हो वे स्वयं इन तस्वीरों और अभिनन्दन पत्रों को देख देखकर निहाल होते रहते हैं। परमज्ञानी घोंचूमल सकल संसार को माया निरूपित करते हुए हर आगंतुक से धन का मोह त्यागकर खुद का वंदन-अभिनन्दन मुक्त हस्त से करने का ज्ञान बिना फीस देने से नहीं चूकते। विराग में अनुराग की जीती जागती मिसाल घोंचूमल जैसी कालजयी प्रतिभाओं का यशगान करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में ठीक ही लिखा है -
टका धर्मष्टका कर्मष्टकाहि परमं पदं
यस्य गृहे टका नास्ति हा टका टकटकायते
===========
संपर्क : विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४।

नवगीत सुनो शहरियों

नवगीत
सुनो शहरियों!
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सुनो शहरियों!
पिघल ग्लेशियर
सागर का जल उठा रहे हैं
जल्दी भागो।
माया नगरी नहीं टिकेगी
विनाश लीला नहीं रुकेगी
कोशिश पार्थ पराजित होगा
श्वास गोपिका पुन: लुटेगी
बुनो शहरियों !
अब मत सपने
खुद से खुद ही ठगा रहे हो
मत अनुरागो
संबंधों के लाक्षागृह में
कब तक खैर मनाओगे रे!
प्रतिबंधों का, अनुबंधों का
कैसे क़र्ज़ चुकाओगे रे!
उठो शहरियों !
बेढब नपने
बना-बना निज श्वास घोंटते
यह लत त्यागो
साँपिन छिप निज बच्चे सेती
झाड़ी हो या पत्थर-रेती
खेत हो रहे खेत सिसकते
इमारतों की होती खेती
धुनो शहरियों !
खुद अपना सिर
निज ख्वाबों का खून करो
सोओ, मत जागो
***
संजीव
१५-११-२०१९
दोहा सलिला
माँ
*
माता के दरबार में, आत्म ज्योति तन दीप।
मुक्ता मणि माँ की कृपा, सफल साधना सीप।।
*
मैया कर इतनी कृपा, रहे सत्य का बोध।
लोभ-मोह से दूर रख, बालक भाँति अबोध।।
*
जो पाया पूरा नहीं, कम कुबेर का कोष।
मातु-कृपा बिन किस तरह, हो मन को संतोष।।
*
रचना कर संसार की, माँ लेती है पाल।
माई कब कुछ दे सका, हर शिशु है कंगाल।।
*
जननी ने जाया जिन्हें, जातक सभी समान।
जाति देश या धर्म की, जय बोलें नादान।।
*
अंब! तुम्हीं जगदंब हो, तुमसे सकल जहान।
तुम ही लय गति यति तुम्हीं, तुम ही हो रस-खान।।
*
बेबे आई ई अनो, तल्ली जीजी प्लार।
अमो अमा प्यो मोज मुम, म्ये बा इमा दुलार।।
*
बीजी ब्वे माई इया, मागो पुई युम मम।
अनो मम्ज बीबी इजू, मैडी मुम पुरनम।।
*
आमा मागो मुमा माँ, मामा उम्मा स्नेह।
थाई, माई, नु, अम्मे, अम्मी, भाभी गेह।।
*
मम्मी मदर इमा ममी, अम्मा आय सुशांत।
एमा वाहू चईजी, बाऊ मामा कांत ।।
(माँ के ६० पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त)
*
२-३-२०२० 

गीत

एक गीत
*
जीवन की बगिया में
महकाये मोगरा
पल-पल दिन आज का।
*
श्वास-श्वास महक उठे
आस-आस चहक उठे
नयनों से नयन मिलें
कर में कर बहक उठे
प्यासों की अँजुरी में
मुस्काये हरसिंगार
छिन-छिन दिन आज का।
*
रूप देख गमक उठे
चेहरा चुप चमक उठे
वाक् हो अवाक 'सलिल'
शब्द-शब्द गमक उठे
गीतों की मंजरी में
खिलखलाये पारिजात
गिन -गिन दिन आज का।
*
चुप पलाश दहक उठे
महुआ सम बहक उठे
गौरैया मन संझा
कलरव कर चहक उठे
मादक मुस्कानों में
प्रमुदित हो अमलतास
खिल-खिल दिन आज का।
***
२-३-२०२०