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रविवार, 22 नवंबर 2020

कार्यशाला कुण्डलिया

कार्यशाला- 
विधा - कुण्डलिया छंद 
कवि- भाऊ राव महंत 
०१
सड़कों पर हो हादसे, जितने वाहन तेज 
उन सबको तब शीघ्र ही, मिले मौत की सेज। 
मिले मौत की सेज, बुलावा यम का आता 
जीवन का तब वेग, हमेशा थम ही जाता। 
कह महंत कविराय, आजकल के लड़कों पर 
चढ़ा हुआ है भूत, तेज चलते सड़कों पर।।
१. जितने वाहन तेज होते हैं सबके हादसे नहीं होते, यह तथ्य दोष है. 'हो' एक वचन, हादसे बहुवचन, वचन दोष. 'हों' का उपयोग कर वचन दोष दूर किया जा सकता है। 
२. तब के साथ जब का प्रयोग उपयुक्त होता है, सड़कों पर हों हादसे, जब हों वाहन तेज। 
३. सबको मौत की सेज नहीं मिलती, यह भी तथ्य दोष है। हाथ-पैर टूटें कभी, मिले मौत की सेज 
४. मौत की सेज मिलने के बाद यम का बुलावा या यम का बुलावा आने पर मौत की सेज? क्रम दोष  
५. जीवन का वेग थमता है या जीवन (साँसों की गति) थमती है?
६. आजकल के लड़कों पर अर्थात पहले के लड़कों पर नहीं था, 
७. चढ़ा हुआ है भूत... किसका भूत चढ़ा है? 
सुझाव
सड़कों पर हों हादसे, जब हों वाहन तेज 
हाथ-पैर टूटें कभी, मिले मौत की सेज। 
मिले मौत की सेज, बुलावा यम का आता 
जीवन का रथचक्र, अचानक थम सा जाता। 
कह महंत कविराय, चढ़ा करता लड़कों पर 
जब भी गति का भूत, भागते तब सड़कों पर।। 
०२ 
बन जाता है हादसा, थोड़ी-सी भी चूक 
जीवन की गाड़ी सदा, हो जाती है मूक। 
हो जाती है मूक, मौत आती है उनको 
सड़कों पर जो मीत, चलें इतराकर जिनको। 
कह महंत कविराय, सुरक्षित रखिए जीवन 
चलकर चाल कुचाल, मौत का भागी मत बन।। 
१. हादसा होता है, बनता नहीं। चूक पहले होती है, हादसा बाद में क्रम दोष 
२. सड़कों पर जो मीत, चलें इतराकर जिनको- अभिव्यक्ति दोष 
३. रखिए, मत बन संबोधन में एकरूपता नहीं 
हो जाता है हादसा, यदि हो थोड़ी चूक 
जीवन की गाड़ी कभी, हो जाती है मूक। 
हो जाती है मूक, मौत आती है उनको 
सड़कों पर देखा चलते इतराकर जिनको। 
कह महंत कवि धीरे चल जीवन रक्षित हो 
चलकर चाल कुचाल, मौत का भागी मत हो।
*

मुक्तिका

मुक्तिका
.
लोहा हो तो सदा तपाना पड़ता है
हीरा हो तो उसे सजाना पड़ता है
.
गजल मुक्तिका तेवरी या गीतिका कहें
लय को ही औज़ार बनाना पड़ता है
.
कथन-कहन का हो अलहदा तरीका कुछ
अपने सुर में खुद को गाना पड़ता है
.
बस आने से बात नहीं बनती लोगों
वक्त हुआ जब भी चुप जाना पड़ता है
.
चूक जरा भी गए न बख्शे जाते हैं
शीश झुकाकर सुनना ताना पड़ता है
***

गीत कहाँ छिपे तुम?

गीत 
कहाँ छिपे तुम?
*
कहाँ छिपे तुम?
कहो अनाम!
*
जग कहता तुम कण-कण में हो
सच यह है तुम क्षण-क्षण में हो
हे अनिवासी!, घट-घटवासी!!
पर्वत में तुम, तृण-तृण में हो
सम्मुख आओ
कभी हमारे
बिगड़े काम
बनाओ अकाम!
*
इसमें, उसमें, तुमको देखा
छिपे कहाँ हो, मिले न लेखा
तनिक बताओ कहाँ बनाई
तुमने कौन लक्ष्मण रेखा?
बिन मजदूरी
श्रम करते क्यों?
किंचित कर लो
कभी विराम.
*
कब तुम माँगा करते वोट?
बदला करते कैसे नोट?
खूब चढ़ोत्री चढ़ा रहे वे
जिनके धंधे-मन में खोट
मुझको निज
एजेंट बना लो
अधिक न लूँगा
तुमसे दाम.
***

गीता छंद

रसानंद दे छंद नर्मदा ​ ​५६ : 
​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन / सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रव​​ज्रा, इंद्रव​​ज्रा, सखी​, विधाता / शुद्धगा, वासव​, ​अचल धृति​, अचल​​, अनुगीत, अहीर, अरुण, अवतार, ​​उपमान / दृढ़पद, एकावली, अमृतध्वनि, नित, आर्द्रा, ककुभ/कुकभ, कज्जल, कमंद, कामरूप, कामिनी मोहन (मदनावतार), काव्य, वार्णिक कीर्ति, कुंडल छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए​ गीता छंद ​से
गीता छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद - मात्रा २६ मात्रा, यति १४ - १२, पदांत गुरु लघु.
लक्षण छंद:
चौदह भुवन विख्यात है, कुरु क्षेत्र गीता-ज्ञान
आदित्य बारह मास नित, निष्काम करे विहान 
अर्जुन सदृश जो करेगा, हरि पर अटल विश्वास 
गुरु-लघु न व्यापे अंत हो, हरि-हस्त का आभास 
संकेत: आदित्य = बारह 
उदाहरण:
१. जीवन भवन की नीव है , विश्वास- श्रम दीवार
दृढ़ छत लगन की डालिये , रख हौसलों का द्वार 
ख्वाबों की रखें खिड़कियाँ , नव कोशिशों का फर्श 
सहयोग की हो छपाई , चिर उमंगों का अर्श 
२. अपने वतन में हो रहा , परदेश का आभास 
अपनी विरासत खो रहे , किंचित नहीं अहसास
होटल अधिक क्यों भा रहा? , घर से हुई क्यों ऊब?
सोचिए! बदलाव करिए , सुहाये घर फिर खूब 
३. है क्या नियति के गर्भ में , यह कौन सकता बोल?
काल पृष्ठों पर लिखा क्या , कब कौन सकता तौल?
भाग्य में किसके बदा क्या , पढ़ कौन पाया खोल?
कर नियति की अवमानना , चुप झेल अब भूडोल।
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध 
*********

शुभ कामनाएँ लावण्या शर्मा शाह

जन्म दिन पर अनंत शुभ कामनाएँ 
आदरणीया लावण्य शर्मा शाह को
*
उमर बढ़े बढ़ते रहे ओज, रूप, लावण्य
हर दिन दिनकर दे नए सपने चिर तारुण्य
सपने चिर तारुण्य विरासत चिरजीवी हो
पा नरेंद्र-आशीष अमर मन मसिजीवी हो
नमन 'सलिल' का स्वीकारें पा करती-यश अमर
चिरतरुणी हों आप असर दिखाए ना उमर
***

शुभ कामनाएँ

जन्म दिन पर अनंत शुभ कामनाएँ 
अप्रतिम तेवरीकार अभियंता दर्शन कुलश्रेष्ठ 'बेजार' को
*
दर्शन हों बेज़ार के, कब मन है बेजार
दो हजार के नोट पर, छापे यदि सरकार
छापे यदि सरकार, देखिएगा तब तेवर
कवि धारेगे नोट मानकर स्वर्णिम जेवर
सुने तेवरी जो उसको ही नोट मिलेगा
और कहे जो वह कतार से 'सलिल' बचेगा
***

नवगीत

नवगीत:
*
रस्म की दीवार
करती कैद लेकिन
आस खिड़की
रूह कर आज़ाद देती 
*
सोच का दरिया
भरोसे का किनारा
कोशिशी सूरज
न हिम्मत कभी हारा
उमीदें सूखी नदी में
नाव खेकर
हौसलों को हँस
नयी पतवार देती
*
हाथ पर मत हाथ
रखकर बैठना रे!
रात गहरी हो तो
सूरज लेखना रे!
कालिमा को लालिमा
करती विदा फिर
आस्मां को
परिंदा उपहार देती
*
२२-११-२०१४

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
अहर्निश चुप
लहर सा बहता रहे
*
आदमी क्यों रोकता है धार को?
क्यों न पाता छोड़ वह पतवार को
पला सलिला के किनारे, क्यों रुके?
कूद छप से गव्हर नापे क्यों झुके?
सुबह उगने साँझ हँस
ढलता रहे
हरीतिमा की जयकथा
कहता रहे
अहर्निश चुप
लहर सा बहता रहे
*
दे सके औरों को कुछ, ले कुछ नहीं
सिखाती है यही भू माता मही
कलुष पंकिल से उगाना है कमल
धार तब ही बह सकेगी हो विमल
मलिन वर्षा जल
विकारों सा बहे
शांत हों, मन में
न दावानल दहे
अहर्निश चुप
लहर सा बहता रहे
*ऊर्जा है हर लहर में कर ग्रहण
लग न लेकिन तू लहर में बन ग्रहण
विहंगम रख दृष्टि, लघुता छोड़ दे
स्वार्थ साधन की न नाहक होड़ ले
कहानी कुदरत की सुन,
अपनी कहे
स्वप्न बनकर नयन में
पलता रहे
अहर्निश चुप
लहर सा बहता रहे
****
२२-११-२०१४

नवगीत

सामयिक गीत
*
दूर रहो नोटा से प्यारे!
*
इस-उस दल के यदि प्यादे हो 
जिस-तिस नेता के वादे हो 
पंडे की हो लिए पालकी 
या झंडे सिर पर लादे हो 
जाति-धर्म के दीवाने हो 
या दल पर हो निज दिल हारे 
दूर रहो नोटा से प्यारे! 
आम आदमी से क्या लेना? 
जी लेगा खा चना-चबेना 
तुम अरबों के करो घोटाले
 स्वार्थ नदी में नैया खेना 
मंदिर-मस्जिद पर लड़वाकर 
क्षेत्रवाद पर लड़ा-भिड़ा रे! 
दूर रहो नोटा से प्यारे! 
जा विपक्ष में रोको संसद 
सत्ता पा बन जाओ अंगद
 भाषा की मर्यादा भूलो 
निज हित हेतु तोड़ दो हर हद 
जोड़-तोड़ बढ़ाकर भत्ते 
बढ़ा टैक्स फिर गला दबा रे! 
दूर रहो नोटा से प्यारे! 
१४-४-२०१९

नवगीत

नवगीत:
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
बीड़ी-गुटखा बहुत जरूरी
साग न खा सकता मजबूरी
पौआ पी सकता हूँ, लेकिन
दूध नहीं स्वीकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
कौन पकाये घर में खाना
पिज़्ज़ा-चाट-पकौड़े खाना
चटक-मटक बाजार चलूँ
पढ़ी-लिखी मैं नार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
रहें झींकते बुड्ढा-बुढ़िया
यही मुसीबत की हैं पुड़िया
कहते सादा खाना खाओ
रोके आ सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
हुआ कुपोषण दोष न मेरा
खुद कर दूँ चहुँ और अँधेरा
करे उजाला घर में आकर
दखल न दे सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
***
२२-११-२०१४ 

गीत

गीत:
पहले जी भर.....
संजीव 'सलिल'
*
पहले जी भर लूटा उसने,
फिर थोड़ा सा दान कर दिया.
जीवन भर अपमान किया पर
मरने पर सम्मान कर दिया.....
*
भूखे को संयम गाली है,
नंगे को ज्यों दीवाली है.
रानीजी ने फूँक झोपड़ी-
होली पर भूनी बाली है..
तोंदों ने कब क़र्ज़ चुकाया?
भूखों को नीलाम कर दिया??
*
कौन किसी का यहाँ सगा है?
नित नातों ने सदा ठगा है.
वादों की हो रही तिजारत-
हर रिश्ता निज स्वार्थ पगा है..
जिसने यह कटु सच बिसराया
उसका काम तमाम कर दिया...
*
जो जब सत्तासीन हुआ तब
'सलिल' स्वार्थ में लीन हुआ है.
धनी अधिक धन जोड़ रहा है-
निर्धन ज्यादा दीन हुआ है..
लोकतंत्र में लोभतंत्र ने
खोटा सिक्का खरा कर दिया...
**********
२२-११-२०१० 

स्वास्थ्य, आयुर्वेद दालचीनी और दोहा

स्वास्थ्य, आयुर्वेद
दालचीनी और दोहा
आचार्य सलिल   
*
शहद दालचीनी मिला, सम मात्रा में साथ
खाएँ; कोलेस्ट्रॉल घट, होने दे न अनाथ
*
चूर्ण दालचीनी मिला, लगा मलाई संग 
धब्बे-दाग मिटाइए, दमके चहरा-रंग 
*
तेल दालचीनी लगा, दाँत-दर्द में आप 
राहत जल्दी पाइए, मिठे शूल का शाप 
*
चूर्ण दालचीनी सके, मिटा वायु का रोग 
पिएँ कुनकुने जल सहित, चू नहीं सुयोग 
*
२२-११-२०२० 

शनिवार, 21 नवंबर 2020

सरस्वती वंदना भोजपुरी

सरस्वती वंदना
भोजपुरी
संजीव
*
पल-पल सुमिरत माई सुरसती, अउर न पूजी केहू
कलम-काव्य में मन केंद्रित कर, अउर न लेखी केहू
रउआ जनम-जनम के नाता, कइसे ई छुटि जाई
नेह नरमदा नहा-नहा माटी कंचन बन जाई
अलंकार बिन खुश न रहेलू, काव्य-कामिनी मैया
काव्य कलश भर छंद क्षीर से, दे आँचल के छैंया
आखर-आखर साँच कहेलू, झूठ न कबहूँ बोले
हमरा के नव रस, बिम्ब-प्रतीक समो ले
किरपा करि सिखवावलु कविता, शब्द ब्रह्म रस खानी
बरनौं तोकर कीर्ति कहाँ तक, चकराइल मति-बानी
जिनगी भइल व्यर्थ आसिस बिन, दस दिस भयल अन्हरिया
धूप-दीप स्वीकार करेलु, अर्पित दोऊ बिरिया
***
२१-११-२०१९
९४२५१८३२४४

सरस्वती स्तवन: मालवी

सरस्वती स्तवन:
मालवी
संजीव
*
माँ सरसती! की किरपा घणी
लिखणो-पढ़णो जो सिखई री
सब बोली हुण में समई री
राखे मिठास लबालब भरी
मैया! कसी तमारी माया
नाम तमाया रहा भुलाया
सुमिरा तब जब मुस्कल पड़ी
माँ सरसती! दे मीठी बोली
ज्यूँ माखन में मिसरी घोली
सँग अक्कल की पारसमणि
मिहनत का सिखला दे मंतर
सच्चाई का दे दै तंतर
खुशियों की नी टूटै लड़ी
नादां गैरी नींद में सोयो
आँख खुली ते डर के रोयो
मन मंदिर में मूरत जड़ी
***
२०-११-२०१७
९४२५१८३२४४

समीक्षा : पहने हुए धूप के चेहरे, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना

 कृति चर्चा:

'पहने हुए धूप के चेहरे' नवगीत को कैद करते वैचारिक घेरे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

*
[कृति विवरण: पहने हुए धूप के चेहरे, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना, प्रथम संस्करण २०१८, आई.एस.बी.एन. ९८७९३८०७५३४२३, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १६०, मूल्य ३००/-, आवरण सजीओल्ड बहुरंगी जैकेट सहित, गुंजन प्रकाशन,सी १३० हिमगिरि कॉलोनी, कांठ मार्ग, मुरादाबाद, नवगीतकार संपर्क विधायन, एसएस १०८-१०९ सेक्टर ई, एल डी ए कॉलोनी, कानपुर मार्ग लखनऊ २८६०१२, चलभाष ९४५०४७५७९]
*


नवगीत के इतिहास में जनवादी विचारधारा का सशक्त प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रतिनिधि हस्ताक्षर राजेंद्र प्रसाद अष्ठाना जिन्हें साहित्य जगत मधुकर अष्ठाना के नाम से जानता है, अब तक एक-एक भोजपुरी गीत संग्रह, हिंदी गीत संग्रह तथा ग़ज़ल संग्रह के अतिरिक्त ९ नवगीत संग्रहों की रचना कर चर्चित हो चुके हैं। विवेच्य कृति मधुकर जी के ६१ नवगीतों का ताज़ा गुलदस्ता है। मधुकर जी के अनुसार- "संवेदना जब अभिनव प्रतीक-बिम्बों को सहज रखते हुए, सटीक प्रयोग और अपने समय की विविध समस्याओं एवं विषम परिस्थितियों से जूझते साधारण जान के जटिल जीवन संघर्ष को न्यूनतम शब्दों में छांदसिक गेयता के साथ मार्मिक रूप में परिणित होती है तो नवगीत की सृष्टि होती है।"मधुकर के सृजन-कर्म का वैशिष्ट्य नवगीतों में समसामयिक विडंबनाओं, त्रासदियों, विरोधभासों आदि का संकेतन करना है। सटीक बिम्बों के माध्यम से पाठक उनके नवगीतों के कथ्य से सहज ही तादात्म्य स्थापित कर लेता है। आम बोलचाल की भाषा में तत्सम - तद्भव शब्दावली उनके नवगीतों को जन-मन तक पहुँचाती है। ग्राम्यांचलों से नगरों की और पलायन से उपजा सामाजिक असंतुलन और पारिवारिक विघटन उनकी चिंता का विषय है-
बाबा लिए सुमिरनी झंखै
दादी को खटवाँस
जाये सब
परदेस जा बसे
घर में है वनवास
हरसिंगार की
पौध लगाई
निकले किन्तु बबूल
पड़ोसियों की
बात निराली
ताने हैं तिरसूल
'सादा जीवन उच्च विचार' की, पारंपरिक सीख को बिसराकर प्रदर्शन की चकाचौंध में पथ भटकी युवा पीढ़ी को मधुकर जी उचित ही चेतावनी देते हैं-
जिसमें जितनी चमक-दमक है
वह उतना नकली सोना है
आकर्षण के चक्र-व्यूह में
केवल खोना ही
खोना है
नयी पौध को दिखाए जा रहे कोरे सपने, रेपिस्टों की कलाई पर बाँधी जा रहे रही राखियां, पंडित-मुल्ला का टकराव,, सवेरे-सवेरे कूड़ा बीनता भविष्य, पत्थरों के नगर में कैद संवेदनाएँ, प्रगति बिना प्रगति का गुणगान, चाक-चौबंद व्यवस्था का दवा किन्तु लगातार बढ़ते अपराध, स्वप्न दिखाकर ठगनेवाले राजनेता, जीवनम में व्याप्त अबूझा मौन, राजपथों पर जगर-मगर घर में अँधेरा, नयी पीढ़ी के लिए नदी की धार का न बचना, पीपल-नीम-हिरन-सोहर-कजली-फाग का लापता होते जाना आदि-आदि अनेक चिंताएँ मधुकर जी के नवगीतों की विषय-वस्तु हैं। कथ्य में जमीनी जुड़ाव और शिल्प में सतर्क-सटीकता मधुकर जी के काव्य कर्म को अन्यों से अलग करता है। सम्यक भाषा, कथ्यानुरूप भाव, सहज कहन, समुचित बिम्ब, लोकश्रुत प्रतीकों और सर्वज्ञात रूपकों ने मधुकर जी की इन गीति रचनाओं को खास और आम की बात कहने में समर्थ बनाया है।
मधुकर जी के नवगीतकार की ताकत और कमजोरी उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता है। उनके गीतों में लयें हैं, छंद हैं, भावनाएँ हैं, आक्रोश है किंतु कामनाएँ नहीं है, हौसले नहीं हैं, अरमान नहीं है, उत्साह नहीं है, उल्लास नहीं है, उमंग नहीं है, संघर्ष नहीं है, सफलता नहीं है। इसलिए इन नवगीतों को कुंठा का, निराशा का, हताशा का वाहक कहा जा सकता है।
यह सर्वमान्य है कि जीवन में केवल विसंगतियाँ, त्रासदियाँ, विडंबनाएँ, दर्द, पीड़ा और हताशा ही नहीं होती। समाज में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों की, मानवीय जिजीविषा की पराजय की जय-जयकार करना मात्र ही साहित्य की किसी भी विधा का साध्य कैसे हो सकता है? क्या नवगीत राजस्थानी की रुदाली परंपरा या शोकगीत में व्याप्त रुदन-क्रंदन मात्र है?
नवगीत के उद्भव-काल में लंबी पराधीनताजनित शोषण, सामाजिक बिखराव और विद्वेष, आर्थिक विषमताजनित दरिद्रता आदि के उद्घोष का आशय शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षित कर पारिस्थितिक सुधार के दिशा प्रशस्त करना उचित था किन्तु स्वतंत्रता के ७ दशकों बाद परिस्थितियों में व्यापक और गहन परिवर्तन हुआ है। दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते हुए क्रमश: अविकसित से विकासशील, अर्ध विकसित होते हुए विकसित देशों के स्पर्धा कर रहा देश विसंगतियों और विडम्बनाओं पर क्रमश: जीत दर्ज करा रहा है।
अब जबकि नवगीत विधा के तौर पर प्रौढ़ हो रहा है, उसे विसंगतियों का अतिरेकी रोना न रोते रहकर सच से आँख मिलाने का साहस दिखते हुए, अपने कथ्य और शिल्प में बदलाव का साहस दिखाना ही होगा अन्यथा उसके काल-बाह्य होने पर विस्मृत कर दिए जाने का खतरा है। नए नवगीतकार निरंतर चुनौतियों से जूझकर उन्नति पथ पर निरंतर बढ़ने के लिए तत्पर हैं। मधुकर अष्ठाना जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार की ओर नयी पीढ़ी बहुत आशा के साथ देख क्या वे आगामी नवगीत संग्रहों में नवगीत को यथास्थिति से जूझकर जयी होनेवाले तेवर से अलंकृत करेंगे?
नवगीत और हिंदी जगत दोनों के लिए यह आल्हादकारी है कि मधुकर जी के नवगीतों की कतिपय पंक्तियाँ इस दिशा का संकेत करती हैं। "आधा भरा गिलास देखिए / जीन है तो / दृष्टि बदलिए" में मधुयर्कार जी नवगीत कर का आव्हान करते हैं कि उन्हें अतीतदर्शी नहीं भविष्यदर्शी होना है। "यह संसद है / जहाँ हमारे सपने / तोड़े गए शिखर के" में एक चुनौती छिपी है जिसे दिनकर जी 'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध' लिखकर व्यक्त करते हैं। निहितार्थ यह कि नए सपने देखो और सपने तोड़ने वाली संसद बदल डालो। दुष्यंत ने 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो' कहकर स्पष्ट संकेत किया था, मधुकर जी अभी उस दिशा में बढ़ने से पहले की हिचकिचाहट के दौर में हैं। अगर वे इस दिशा में बढ़ सके तो नवगीत को नव आयाम देने के लिए उनका नाम और काम चिरस्मरणीय हो सकेगा।
इस पृष्ठभूमि में मधुकर जी की अनुपम सृजन-सामर्थ्य समूचे नवगीत लेखन को नई दिशाओं, नई भूमिकाओं और नई अपेक्षाओं से जोड़कर नवजीवन दे सकती है। गाठ ५ दशकों से सतत सृजनरत और ९ नवगीत संकलन प्रकाशित होने के बाद भी "समय के हाशिये पर / हम अजाने / रह गए भाई" कहते मधुकर जी इस दिशा और पथ पर बढ़े तो उन्हें " अधर पर / कुछ अधूरे / फिर तराने रह गए भाई" कहने का अवसर ही नहीं मिलेगा। "होती नहीं / बंधु! वर्षों तक / खुद से खुद की बात", "छोटी बिटिया! / हुई सयानी / नींद गयी माँ की", "सोच संकुचित / रोबोटों की / अंतर मानव और यंत्र में", "गति है शून्य / पंगु आशाएँ", "अब न पीर के लिए / ह्रदय का कोई कण", "विश्वासों के / नखत न टूटे", "भरे नयन में / कौंध रहे / दो बड़े नयन / मचले मन में / नूपुर बाँधे / युगल चरण / अभी अधखिले चन्द्रकिरण के फूल नए / डोल रही सर-सर / पुरवैया भरमाई" जैसी शब्दावली मधुकर जी के चिंतन और कहन में परिवर्तन की परिचायक है।
"कूद रहा खूँटे पर / बछरू बड़े जोश में / आज सुबह से" यह जोश और कूद बदलाव के लिए ही है। "कभी न बंशी बजी / न पाया हमने / कोई नेह निमंत्रण" लिखनेवाली कलम नवल नेह से सिक्त-तृप्त मन की बात नवगीत में पिरो दे तो समय के सफे पर अपनी छाप अंकित कर सकेगा। "चलो बदल आएँ हम चश्मा / चारों और दिखे हरियाली" का संदेश देते मधुकर जी नवगीत को निरर्थक क्रंदन न बनने देने के प्रति सचेष्ट हैं। "दीप जलाये हैं / द्वारे पर / अच्छे दिन की अगवानी में" जैसी अभिव्यक्ति मधुकर जी के नवगीत संसार में नई-नई है। शुभत्व और समत्व के दीप प्रज्वलित कर नवगीत के अच्छे दिन लाये जा सकें तो नवगीतकार काव्यानंद-रसानंद व् ब्रम्हानंद की त्रिवेणी में अवगाहन कर समाज को नवनिर्माण का संदेश दे सकेंगे।
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com
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गीत: झाँझ बजा रे

गीत सलिला:
झाँझ बजा रे...
संजीव 'सलिल'
*
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
निज कर में करताल थाम ले,
उस अनाम का नित्य नाम ले.
चित्र गुप्त हो, लुप्त न हो-यदि
हो अनाम-निष्काम काम ले..
ताज फेंककर उठा मँजीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
झूम-झूम मस्ती में गा रे!,
पस्ती में निज हस्ती पा रे!
शेष अशेष विशेष सकल बन-
दुनियादारी अकल भुला रे!!
हरि-हर पर मल लाल अबीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
गद्दा-गद्दी को ठुकरा रे!
माया-तृष्णा-मोह भुला रे!
कदम जहाँ ठोकर खाते हों-
आत्म-दीप निज 'सलिल' जला रे!!
'अनल हक' नित गुँजा फकीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*

गीत: मत ठुकराओ

एक गीत:
मत ठुकराओ
संजीव 'सलिल'
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.
ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
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मेंहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.
स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
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खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.
दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-ज्योत्सना बन झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
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दोहा

दोहा द्विपदी ही नहीं-
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दोहा द्विपदी ही नहीं, चरण न केवल चार
गौ-भाषा दुह अर्थ दे सम्यक, विविध प्रकार
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तेरह-ग्यारह विषम-सम, चरण पदी हो एक
दो पद मिल दोहा बने, रचते कवि सविवेक
*
गुरु-लघु रखें पदांत में, जगण पदादि न मीत
लय रस भाव प्रतीक मिल, गढ़ते दोहा रीत
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कहे बात संक्षेप में, दोहा तज विस्तार
गागर में सागर भरे, ज्यों असार में सार
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तनिक नहीं अस्पष्टता, दोहे को स्वीकार्य
एक शब्द बहु अर्थ दे, दोहे का औदार्य
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मर्म बेध दोहा कहे, दिल को छूती बात
पाठक-श्रोता सराहे, दोहा-कवि विख्यात
*
अमिधा मन भाती इसे, रुचे लक्षणा खूब
शक्ति व्यंजना सहेली, मुक्ता गहती डूब
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आधा सम मात्रिक बना, है दोहे का रूप
छंदों के दरबार में, दोहा भूप अनूप
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गति-यति दोहा-श्वास है, रस बिन तन बेजान
अलंकार सज्जित करें, पड़े जान में जान
*
बिंब प्रतीक मिथक हुए, दोहा का गणवेश
रहें कथ्य-अनुकूल तो, हों जीवंत हमेश
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कहन-कथन का मेल हो, शब्द-भाव अनुकूल
तो दोहा हो फूल सम, अगर नहीं हो शूल
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२१-११-२०१७ 

क्षणिका, दोहा

क्षणिका
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मैं हूं
तो ही
हम भी होंगे
इसीलिए
मैं की भी सुन.
*
जो न मौन को सुन पाता
वह
शब्दों को कैसे समझे?
*
दोहा 
मैं बोला: आदाब पर, वे समझे आ दाब.
लपक-भागने में गए, रौंदे रक्त गुलाब.
*
समय सूचिका का करें, जो निर्माण-सुधार.
समय न अपना वे सके, किंचित कभी सुधार.
*
जो जगमग-जगमग करे, उसे न सोना जान.
जो जग कर कुछ तम हरे, छिड़क उसी पर जान.
*
बिल्ली जाती राह निज, वह न काटती राह
भरमाता खुद को मनुज, छोड़ तर्क की थाह
*
हास्य दोहा 
किस मिस किस मिस को किया, किस बतलाए कौन?
तिल-तिल कर तिल जल रहा, बैठ अधर पर मौन
*

एक रचना

एक रचना
*
भ्रमरवत करो सभी गुंजार,
बाग में हो मलयजी बयार.
अजय वास्तव में श्रीे के साथ
लिए चिंतामणि बाँटे प्यार.
बसन्ती कांति लुटा मिथलेश
करें माया की हँस मनुहार.
कल्पना कांता सत्या संग
छंद रच करें शब्द- श्रन्गार.
अदब की पकड़े लीक अजीम
हुमा दे दस दिश नवल निखार.
देख विश्वंभर छिप रति-काम
मौन हो गए प्रशांत, न धार.
सुमन ले सु-मन, विनीता कली
चंचला तितली बाग-बहार.
प्रेरणा गिरिधारी दें आज
बिना दर्शन मेघा बेज़ार.
विनोदी पुष्पा हो संजीव,
सरस रस वर्षा करे निहार.
रहे जर्रार तेज-तर्रार,
विसंगति पर हो शब्द-प्रहार.
अनिल भू नभ जल अग्नि अमंद
काव्यदंगल पर जग बलिहार.
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२१-११-२०१७