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मंगलवार, 22 सितंबर 2020

लेख : हिंदी की प्रासंगिकता और हम. संजीव वर्मा 'सलिल'

 लेख :

हिंदी की प्रासंगिकता और हम.

संजीव वर्मा 'सलिल'

हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जैसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं। हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू, अन्य देशज भाषाओँ / बोलिओं या विदेशी अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके। 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा समृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को 'फ्रीडमता' बनाने से नहीं। दैनिक जीवन में व्याकरण सम्मत भाषा हमेशा प्रयोग में नहीं लाई जा सकती पर वह समीक्षा, शोध या गंभीर अभिव्यक्ति हेतु अनुपयुक्त होती है। हमें भाषा के प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च तथा शोधपरक रूपों में भेद को समझना तथा स्वीकारना होगा। तत्सम तथा तद्भव शब्द हिंदी की जान हैं किन्तु इनका अनुपात तो प्रयोग करनेवाले की समझ पर ही निर्भर है। हिन्दी में अहिन्दी शब्दों का मिश्रण दाल में नमक की तरह हो किन्तु खीर में कंकर की तरह नहीं। 

 

हिंदी में शब्दों की कमी को दूर करने की ओर भी लगातार काम करना होगा। इस सिलसिले में सबसे अधिक प्रभावी भूमिका चिट्ठाकार निभा सकते हैं। वे विविध प्रदेशों, क्षेत्रों, व्यवसायों, रुचियों, शिक्षा, विषयों, विचारधाराओं, धर्मों तथा सर्जनात्मक प्रतिभा से संपन्न ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रायः बिना किसी राग-द्वेष या स्वार्थ के सामाजिक साहचर्य के प्रति समर्पित हैं। उनमें से हर एक का शब्द भण्डार अलग-अलग है।  उनमें से हर एक को अलग-अलग शब्द भंडार की आवश्यकता है। कभी शब्द मिलते हैं कभी नहीं। यदि वे न मिलनेवाला 'शब्द' अन्य चिट्ठाकारों से पूछें तो अन्य अंचलों या बोलियों के शब्द भंडार में से अनेक शब्द मिल सकेंगे।  उपयुक्त न मिल पर आवश्यकतानुसार शब्द गढ़ने का काम भी चिट्ठा कर सकता है। इससे हिंदी का सतत विकास होगा। 

 

सिविल इन्जीनियरिंग को हिंदी में नागरिकी अभियंत्रण या स्थापत्य यांत्रिकी क्या कहना चाहेंगे? इसके लिये अन्य उपयुक्त शब्द क्या हो? 'सिविल' की हिंदी में न तो स्वीकार्यता है न सार्थकता...फिर क्या करें? सॉइल, सिल्ट, सैंड, के लिये मिट्टी/मृदा, धूल तथा रेत का प्रयोग मैं करता हूँ पर उसे लोग ग्रहण नहीं कर पाते। सामान्यतः धूल-मिट्टी को एक मान लिया जाता है. रॉक, स्टोन, बोल्डर, पैबल्स, एग्रीगेट को हिंदी में क्या कहें? मैं इन्हें चट्टान, पत्थर, गिट्टा, रोड़ा, तथा गिट्टी लिखता हूँ। 

रेत या मिट्टी के परीक्षण में 'मटेरिअल रिटेंड ऑन सीव' तथा 'मटेरिअल पास्ड फ्रॉम सीव' को हिंदी में क्या कहें? मुझे एक शब्द याद आया 'छानन' यह किसी शब्दकोष में नहीं मिला। छानन का अर्थ किसी ने छन्नी से निकला पदार्थ बताया, किसी ने छन्नी पर रुका पदार्थ तथा कुछ ने इसे छानने पर मिला उपयोगी या निरुपयोगी पदार्थ कहा। काम करते समय आपके हाथ में न तो शब्द कोष होता है, न समय। कार्य विभागों में प्राक्कलन बनाने, माप लिखने तथा मूल्यांकन करने का काम अंगरेजी में ही किया जाता है जबकि अधिकतर अभियंता, ठेकेदार और सभी मजदूर अंगरेजी से अपरिचित हैं। सामान्यतः लोग गलत-सलत अंगरेजी लिखकर काम चला रहे हैं। लोक निर्माण विभाग की दर अनुसूची आज भी सिर्फ अंगरेजी मैं है। निविदा हिन्दी में है किन्तु उस हिन्दी को कोई नहीं समझ पाता, अंगरेजी अंश पढ़कर ही काम करना होता है। किताबी या संस्कृतनिष्ठ अनुवाद अधिक घातक है जो अर्थ का अनर्थ कर देता है। न्यायालय में मानक भी अंगरेजी पाठ को ही माना जाता है। हर विषय और विधा में यह उलझन है। मैं मानता हूँ कि इसका सामना करना ही एकमात्र रास्ता है किन्तु चिट्ठाजगत ही एक मंच ऐसा है जहाँ ऐसे प्रश्न उठाकर समाधान पाया जा सकता है। 

 

भाषा और साहित्य से सरकार जितना दूर हो बेहतर... जनतंत्र में जन, लोकतंत्र में लोक, प्रजातंत्र में प्रजा हर विषय में सरकार का रोना क्यों रोती है? सरकार का हाथ होगा तो चंद अंगरेजीदां अफसर पाँच सितारेवाले होटलों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसे हवाई शब्द गढ़ेगे जिन्हें जनगण जान या समझ ही नहीं सकेगा। राजनीति विज्ञान में 'लेसीज फेयर' का सिद्धांत है जिसका आशय यह है कि वह सरकार सबसे अधिक अच्छी है जो सबसे कम शासन करती है। भाषा और साहित्य के सन्दर्भ में यही होना चाहिए।  लोकशक्ति बिना किसी भय और स्वार्थ के भाषा का विकास देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप करती है। कबीर, तुलसी सरकार नहीं जन से जुड़े और जन में मान्य थे। भाषा का जितना विस्तार इन दोनों ने किया अन्यों ने नहीं। शब्दों को वापरना, गढ़ना, अप्रचलित अर्थ में प्रयोग करना और एक ही शब्द को अलग-अलग प्रसंगों में अलग-अलग अर्थ देने में इनका सानी नहीं। 

 

चिट्ठा जगत ही हिंदी को विश्व भाषा बना सकता है? अगले पाँच सालों के अन्दर विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में हिंदी के चिट्ठे अधिक होंगे। क्या उनकी सामग्री भी अन्य भाषाओँ के चिट्ठों की सामग्री से अधिक प्रासंगिक, उपयोगी व् प्रामाणिक होगी? इस प्रश्न का उत्तर यदि 'हाँ' है तो सरकारी मदद या अड़चन से अप्रभावित हिन्दी सर्व स्वीकार्य होगी, इस प्रश्न का उत्तर यदि 'नहीं" है तो हिंदी को 'हाँ' के लिये जूझना होगा...अन्य विकल्प नहीं है। शायद कम ही लोग यह जानते हैं कि विश्व के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने हमारे सौर मंडल और आकाशगंगा के परे संभावित सभ्यताओं से संपर्क के लिये विश्व की सभी भाषाओँ का ध्वनि और लिपि को लेकर वैज्ञानिक परीक्षण कर संस्कृत तथा हिन्दी को सर्वाधिक उपयुक्त पाया है तथा इन दोनों और कुछ अन्य भाषाओँ में अंतरिक्ष में संकेत प्रसारित किए जा रहे हैं ताकि अन्य सभ्यताएँ यदि हैं तो धरती से संपर्क कर सकें। अमरीकी राष्ट्रपति अमरीकनों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिये चेता रहे हैं किन्तु कभी अंग्रेजों के गुलाम भारतीयों में अभी भी अपने आकाओं की भाषा सीखकर शेष देशवासियों पर प्रभुत्व ज़माने की भावना है। यही हिन्दी के लिये हानिप्रद है। 

 

भारत विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है तो भारतीयों की भाषा सीखना विदेशियों की विवशता है। विदेशों में लगातार हिन्दी शिक्षण और शोध का कार्य बढ़ रहा है। हर वर्ष कई विद्यालयों और कुछ विश्व विद्यालयों में हिंदी विभाग खुल रहे हैं। हिन्दी निरंतर विकसित हो रहे है जबकि उर्दू समेत अन्य अनेक भाषाएँ और बोलियाँ मरने की कगार पर हैं। इस सत्य को पचा न पानेवाले अपनी मातृभाषा हिन्दी के स्थान पर राजस्थानी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, अवधी, ब्रज, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बुन्देली या बघेली लिखाकर अपनी बोली को राष्ट्र भाषा या विश्व भाषा तो नहीं बना सकते पर हिंदी भाषियों की संख्या कुछ कम जरूर दर्ज करा सकते हैं। इससे भी हिन्दी का कुछ बनना-बिगड़ना नहीं है। आगत की आहट को पहचाननेवाला सहज ही समझ सकता है कि हिंदी ही भावी विश्व भाषा है। आज की आवश्यकता हिंदी को इस भूमिका के लिये तैयार करने के लिये शब्द-निर्माण, शब्द-ग्रहण, शब्द-अर्थ का निर्धारण, अनुवाद कार्य तथा मौलिक सृजन करते रहना है जिसे विश्व विद्यालयों की तुलना में अधिक प्रभावी तरीके से चिट्ठाकर कर रहे हैं। 

 

नए रचनाकारों के लिये आवश्यक है कि भाषा के व्याकरण और विधा की सीमाओं तथा परम्पराओं को ठीक से समझते हुए लिखें। नया प्रयोग अब तक लिखे को जानने के बाद ही हो सकता है। काव्य के क्षेत्र में हाथ आजमानेवालों को 'पिंगल' (काव्य-शास्त्र) में वर्णित नियम जानने ही चाहिए। इसमें किसी कठिन और उच्च कक्षा की पुस्तक की जरूरत नहीं है। १० वीं कक्षा तक की हिन्दी की किताबों में जो जानकारी है वह लेखन प्रारंभ करने के लिये पर्याप्त है। लिंग, वाचन, क्रिया, कारक, शब्द-भेद, उच्चारण के अनुसार हिज्जे कर शब्द को शुद्ध रूप में लिखना आ जाए तो गद्य-पद्य दोनों लिखा जा सकता है। बोलते समय हम प्रायः असावधान होते हैं। शब्दों के देशज (ग्रामीण या भदेसी) रूप बोलने में भले ही प्रचलित हैं पर साहित्य में दोष कहे गए हैं। कविता लिखते समय पिंगल (काव्य-शास्त्र) के नियमों और मान्यताओं का पालन आवश्यक है। कोई बदलाव या परिवर्तन विशेषज्ञता के बाद ही सुझाई जाना चाहिए। 

 

विश्व वाणी हिन्दी के उन्नयन और उत्थान में हमारी भूमिका शून्य हो तो भी हिन्दी की प्रगति नहीं रुकेगी किन्तु यदि हम प्रभावी भूमिका निभाएँ तो यह जीवन की बड़ी उपलब्धि होगी। आइए, हम सब इस दिशा में चिंतन कर अपने-अपने विचारों को बाँटें। 

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सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

सोमवार, 21 सितंबर 2020

पुरोवाक् : 'भाग ने बाँचे कोय' राम रचे सो होय

पुरोवाक् :
'भाग ने बाँचे कोय' राम रचे सो होय
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल
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मुतके दिना की बात आय, जब मानुस सुनी आवाज की नकल करबे में सफल भओ। जा कदम मनुस्य को बाकी जीवों से भौत आगे लै गओ। सुनने-गुननें -कहनें की आदत नें आपस में मिल-जुल कें रहबे की सुरुआत कर दई। तबई घर-परिबार की नींव परी। बे औरें फालतू समय में गप्प मारत हते। एई सें 'गल्प' का बिकास भओ। कहबे की आदत, 'कहानी' बन के आज लौ चली आ रई। देखी-सुनी का दिलचस्प बरनन 'किस्सा' बन गओ। हमनें-आपनें लड़कपन में दादी-नानी सें कहानी सुनकें कित्तो आनंद पाओ, को कह सकत आय। सखा-सहेलन के संगे गप्पे मारन को मजा आज लौ सुमिरत आँय। 'गप्प' बेपर की उड़ान घाईं होत है, जीको उद्देश्य मन बहलाव आय। 'किस्सा' में तन्नक सचाई होत मनो गंभीर बात नईं कई जात। कहानी कहबे को उद्देस्य कछु गंभीर बात सामने राखबो होत आय। कथा में 'सीख' छिपी रैत। सामाजिक कथा, जातक कथा सें नीति-अनीति की समझ मिलत आय। आप औरन ने पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियाँ पढ़ी हुइहैं। अलीबाबा और चालीस चोर, सिंदबाद की कहानी को बिसर सकत आय? बुद्ध भगवान ने भौत से जीवों में अवतार लओ और दया का संदेस फैलाओ। 'जातक कथा' में जे सब बरनन करो गओ है। 'किस्सा-ए-लैला मजनू' आज लौ कहो-सुनो जात है।
हिंदी साहित्य के सयाने जनों में से एक आचार्य रामचंद्र शुक्ल कैत हैं- ''कहानियों का चलन सभ्य-असभ्य सभी जातियों में चला आ रहा है सब जगह उनका समावेश शिष्ट साहित्य के भीतर भी हुआ है। घटना प्रधान और मार्मिक उनके ये दो स्थूल भेद भी बहुत पुराने हैं और इनका मिश्रण भी।"१
महान कहानीकार प्रेमचंद कहानी कैत कि "कहानी में जीवन के किसी अंग या किसी मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है।
बाबू श्याम सुन्दर दास के अनुसार कहानी "एक निश्चित लक्ष्य या प्रभाव को लेकर लिखा गया नाटकीय आख्यान है।"
अंग्रेज कहानीकार एडगर एलिन पो कैत कि कहानी "इतनी छोटी हो कि एक बैठक में पढ़ी जा सके और पाठक पर एक ही प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए लिखी गई हो।"२ "कहानी साहित्य की विकास यात्रा में समय के साथ इसके स्वरूप, सिद्धांत, उद्देश्य एवं कलेवर में आया बदलाव ही जीवंतता का द्योतक है।"३
मशहूर कहानीकार मेहरुन्निसा परवेज़ के शब्दों में "कहानी मनुष्य के अंतर्मन की अभिव्यक्ति है, मनुष्य के जीवित रहने का सबूत है, उसके गूँगे दुःख, व्यथा, वेदना का दस्तावेज है।"४
स्वाति तिवारी के अनुसार "कहानी गपबाजी नहीं होती, वे विशुद्ध कला भी नहीं होतीं। वे किसी मन का वचन होती हैं, वे मनोविज्ञान होती हैं। जीवन है, उसकी जिजीविषा है, उसके बनते-बिगड़ते सपने हैं, संघर्ष हैं, कहानी इसी जीवन की शब्द यात्रा ही तो है, होनी भी चाहिए, क्योंकि जीवन सर्वोपरि है। जीवन में बदलाव है, विविधता है, अत: फार्मूलाबद्ध लेखन कहानी नहीं हो सकता।"५
बुंदेली में कओ जात 'जित्ते मूँ उत्ती बातें'। कहानी के बारे में जा कहाउत सौ टंच खरी आय। समय बदलत है तो, लोग, बिचार, भासा और सिल्प सोई नई सकल धर लेत हैं। सयाने लोग जो बात कहन चाउत ते, ओई के मुताबिक ताना-बाना बुनत जात ते। ऐंसी कहानी 'कथ्यप्रधान' कहानी कई जात। आजकल के कहानीकार सीधे-सीधे बात नईं कैते, बे औरें इतै-उतै की घटना जोड़ खें, पाठक को मन रमा खें आखर में कहानी को सार बतात हैं। इनें 'भावप्रधान कहानी' कओ जात। गए ज़माने के कहानीकार कछू सिखाबे-बताबे के लाने कहानी कैत रए, नए ज़माने के कहानीकार समाज में ब्याप्त बुराई, बिसंगति, दुःख-दर्द को सामने ला रए हैं।
बुंदेली में कहानी कहबे में कुसल डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव ने कहानी संग्रह 'सरे राह' में औटो में इतै -उतै आत-जात समै जो देखो-सुनो, ओई के आधार पे मनभावन कहानी कै दई हैं।
एक अंग्रेज कहानीकार डब्ल्यू. एच. हडसन कैत कि 'कहानी में केवल एक केंद्रीय विचार होना चाहिए जिसे तार्किक परिणति तक पहुँचाया जाए।'६ हमें ऐसो लगत है कि कहानीकार कहानी में जीवन की एक या कुछ झलकियाँ दिखाबे की कोसिस करत हैं, जैसे फोटू खींचबेबारो 'स्नैपशॉट' लेत है और कहानी में कथा वस्तु, पात्र, संवाद, वातावरण, शैली और उद्देश्य जरूर रहो चाही।
सनातन सलिला नरमदा के किनारे संस्कारधानी जबलपुर में कहानी कहबेबारे दिग्गजों में एक नाम श्रीमती लक्ष्मी शर्मा है। लक्ष्मी जू कहानियों में आम आदमी का दुःख-दर्द ऐंसी सचाई से बतात हैं कि पाठक के मूँ से आह और आँखन सें आँसू निकल परें। बे एक कें बाद एक घटना को मकड़जाल ऐंसे बुनत चलत हैं कि पढ़बेवारो बिना रुके आखिर तक पढ़त जात है।
स्टीवेंसन कैत कि "कहानी के प्रारम्भ का वातावरण कुछ ऐसा होना चाहिए कि किसी सुनसान सड़क के किनारे सराय के कमरे में मोमबत्ती के धुंधले प्रकाश में कुछ लोग धीरे-धीरे बात कर रहे हों।" मतलब ये कि कहानीकार को शुरू में कहानी की घटनाओं के मुताबिक माहौल का बरनन करना चाहिए। लक्ष्मी शर्मा जू कहानियों में आम लोगों के दुःख-दर्द को ऐंसे कहती हैं मनो बे खुदई झेल रई होंय।
'भाग ने बाँचे कोय' में ग्यारा कहानियाँ सामिल हैं। 'विश्वासघात' में ठेकेदार मंगल सिंग, मजूर रामलखन को इलाज करबे का झाँसा देके ओकी किडनी निकरबा लेत है। 'बब्बा की बंडी' में पुराने ज़माने के सयाने बब्बा जी की हुसियारी के चटपटे किस्सों का बरनन है। 'पन्नाबारी भौजी' के बारे में इत्तोइ कहो जा सकत आय कि बे अपने अनाथ देवरन की अम्मा हतीं, जिननें देवरन की सब मुसीबतें अपने मूँड़ पे ले लीं, मनो देवरन को बालउ बाँका नें होन दौ। उनें पढ़ा-लिखा कें, अफसर बना कें ब्याव दौ मनो खुद पुरखों की ड्योढ़ी छोड़ कें आखर लौं नई गईं। कहानी 'गुरूदच्छना' में नायिका शोभा घरफोड़ू बहू आय जो सब जनों खों तितर-बितर कर अपनो स्वार्थ साधो चात। 'रामगढ़ की राजकुमारी' में जे संदेस छिपो है की मोंड़ी कौनउ बिध मोड़ों से कम नईं होत। राजकुमारी अपने पिता को बेटे की कमी अनुभव नईं होन देत और खुद आगे हो के सब काम-काज सम्हाल लेत हैं। 'भाग नें बाँचे कोय' एक दर्दभरी दास्तान है। कहाउत है कि ऊपरवाले का काम भी बिचित्र है जब दाँत देत है तो रोटी नई देत और जब रोटी देत है तो दाँत छीन लेत है। रिक्सा चला के पेट भरबेबारो लक्खू और ओकी घरबारी सुगना जिनगी भर खटत रए मनो पेट भर भोजन नई जुरो, धीरे-धीरे बाल-बच्चे और लक्खू चल बसे। अकेली सुगना खों दुकानबारे ने चिल्लर के बदले लाटरी को टिकिट जबरन पकड़ा दओ हतो, ओई पे बीस लाख रुपैया को ईनाम निकर आओ, जिननें दुःख के समै परछाईं ने दाबी, बेई जनें गुड़ सें चीटे जैसें चिपट परे और सबरे रुपैया तीन तेरा कर दए। 'बिट्टी' सबसे ज्यादा नोँनी कहानी है। बिट्टी गरीबी में पली हती मनो भौतई मेहनती हती। सबको काम-काज दौड़-दौड़ के करे, मनो पढ़ाई सोई करत रई। ओकी मेहनत और लगन रंग लाई। जैसे-जैसे मौका मिलो बा दौड़ने में मेहनत करत गई और पैले स्कूल फिर पंचायत, जिला, प्रदेस और आखिर में देस की दौड़ प्रतियोगिता में बिजय पाकें नाम कमाओ। 'बँटवारो' कहानी में दो कमरा के घर में बाल-बच्चों संगे रै रए तीन भैयन के मनमुटाव की कहानी है। सयाने प्रधान जी ऐंसी सूझ देत हैं कि साँप मरे मनो लाठी ने टूटे। 'मजूरों को देवता' जालसाज गाँव प्रधान के कुकर्मों का चिट्ठा है। ओका काम करत समय ट्रैक्टर पलट जाए से, मजूरन की मौत हो जात मनो बो पुलिस सें साँठ-गाँठ करके मजूरों को ठेंगा बता देत है। एक मजूर की बिधवा बिन्दो सहर में काम-काज करकें पेट भरत है। ओको एक बकील के घर में उनकी बूढ़ी माँ की सेवा-टहल को काम मिल जात है। उतै कुठरिया में रैके बो अपने मोंड़ा किसान को पढ़ात जात। बकील साब की मदद सें किसान सोई पढ़-लिख कें बकील बन जात है और फिर पुराना केस खुलबा के प्रधान को सजा और सब मजूरों को कोर्ट से मुआवजा दिलाउत है। 'देस खों समर्पित' सोई भौत अच्छी कहानी आय। रामरतन जू बेंच कें, मुतकी तकलीफें सहकेँ मोंडा रघुनंदन की पढ़ाई-लिखाई करात हैं। रघुनंदन सैना में भरती होके मेजर तक बन जात हैं। बो घर सुधरवाउत है, अपनी बहनों के ब्याव में मदद करत है, ब्याव के बाद एक मोंडा का पिता बनत है। नौकरी और परिबार दोनों को खूब खयाल राखत है मनो आतंकी हमले में सहीद हो जात है, ओकी मेहरारू सीमा पति आग देत समै संकल्प लेत है कि अपने मोंडा को सैना में भेज के पिता जैसो बनाहे। आखिरी कहानी 'बसेरे की ओर' कोरोना महामारी के मारे, रोजगार गँवा चुके मजूरों की करुण कथा है। घर लौटते समै केऊ मजूर रस्ते में मर-खाप गए, जो घर लौट पाए उनने 'जान बची तो लाखों पाए'।
इन कहानियन में बुंदेली भासा के मुहावरों गुड़ भरो हँसिया हो गओ, उगलत बने न लीलत बने, साँप मर जावे और लाठी ने टूटे, देहरी खूँदे खा रए, ठनठन गोपाल, दाँत काटी रोटी, पूत भये स्याने दरिद्दर गओ भ्याने, कोंड़ी ,के दाम, मूँड़ पटके, माटी के माधो, छाती पीटना आदि नें ने चार चाँद लगा दै हैं।
भासा और साहित्य समय के संगे न बदलें तो पाठक दूर होन लगत है। लक्ष्मी जू जे बात जानखें सब्द चुनने में उदार आँय। आपने कई एक अंग्रेजी शब्द अपार्टमेंट, किडनी, डॉक्टर, नर्स, फॉर्म, एक्सरे, सिस्टर, सिक्युरिटी, ट्रांसप्लांट, बटन, स्कूल, पार्टी, कैंसर, प्रेक्टिस,कलेक्टर, नंबर, सर्टिफिकेट, पाउच, मैट्रिक, फ्री, फुटबाल, हॉकी, एक्सीडेंट, लॉ, कॉलेज, लेफ्टिनेंट, ट्रेक्टर, इंटरनेट, मिलिट्री, ग्रेनेड, बॉर्डर, वार्ड बॉय, मास्क, कोरोना, फैक्ट्री, होटल, माल, कंपनी, पेट्रोल वगैरह को जथा-जोग्य प्रयोग करो है। इनखें संगे फ़ारसी से ख़ुशी, दस्तखत, शान, बुखार, अंदेशा वगैरह और अरबी से ख़ास, इन्तिजाम, खलीता, ख़तम, सिरफिरा वगैरह मिलबे में लक्ष्मी जो कौन कौनउ संकोच नई भओ।
लक्ष्मी जू नें कई एक सब्दों को रूप बुंदेली भासा के अनुसार बदल लौ है। ऐंसे कछू एक सब्द हैं - अपरेशन (ऑपरेशन), टेम (टाइम), फिकर (फ़िक्र), सिरकारी (सरकारी), जेबर (जेवर), डिजान (डिजाइन), हुशयार (होशियार), निस्फिकिर (निष्फिक्र), बोतल (बॉटल), परसिद्ध (प्रसिद्ध), फोटू (फोटो), मुस्कल (मुश्किल), खुदई (खुद ही), तारे-कुची (ताले-कुंजी), सुभाव (स्वभाव), पुलस (पोलिस), अफसर (ऑफिसर), बिंजन (व्यंजन), प्रिक्रिति (प्रकृति) आदि। सब्दन को ऐसो रूपांतरण सब के बस की बात नईंआ। एके काजे कइएक भासाओं के सब्दन कें मतलब समज के अपनी भासा में बदलने पड़त है।
लक्ष्मी जू नें अपनी भासा सैली बनात समै प्रबाह लाबे के काजे जोरी बारे सब्दन को खूब परयोग करो है। जैसें चीज-बखत, गाजे-बाजे, जोर-शोर, नियम कायदे, मान-सम्मान, नाचत-गाउत, चिंता-फिकिर, किरिया-करम, शिक्षा-दीक्षा, राज- काज,जानते-समझते, लड़ाई-झगड़ा, माता- पिता, राजा-रानी, देखत-समझत, ठीक-ठाक, साँठ-गाँठ, गरीब-गुरबा, लग्गा-तग्गा, खाबे-पियाबे, दवा-दारू, रोवा-पीटी, पढ़-लिख, तारो-कुची, तड़क-भड़क, ,हँसी-ठिठोली, हँसी-मजाक, समझौअल-बुझौअल, दादी-बब्बा, साफ़- सफाई,काम-काज, दौड़-धूप, हक्के-बक्के, रूप-सरूप, हाल-चाल, रीत-रिवाज, हँसी-खुसी, मोड़ा-मोंड़ी, खेलत-खात, देख-रेख, घर-द्वार, काम-काज, पुरा-परोस, खाबो-पीबो, नाचबो-गाबो, छोटी-मोटी, गुजर-बसर, पालबो-पोसबो, फरें-फूरें, हाथ-पाँव, आउत-जात, पालने-पोसने, पोता-पोती, पढ़ाबो-लिखाबो, जूता-चप्पल, यार-दोस्त, सोच-समझ, देख-परख, गाँव-गँवई, पढ़ी-लिखी, खुर-फुसुर, नास्ता-पानी, चाय-पानी, खोज-खबर, छोटी-मोटी, देख-रेख, पुरा-परोस, साज-सज्जा, लाड-प्यार, पूजा-पाठ वगैरह।
बुंदेली में केई बेर एकई सब्द को दो बेर प्रयोग होत है। इन कहानियन में सब्दन दुहराव के सोई मुतके उदाहरण सकत हैं। कछु एक जे आंय- कहूँ-कहूँ, अच्छे-अच्छे, कँभउँ-कँभउँ, बैठे-बैठे, बातें- बातें,चालत-चालत, जुग-जुग, जगा-जगा, बीच-बीच, पाई-पाई, ढूँढत-ढूँढत, धीरे-धीरे, सूनो-सूनो, पाई-पाई, फर्र-फर्र, ,बकर-बकर वगैरह।
लक्ष्मी शर्मा जू ने इन कहानियन में सरल-सहज, रोजमर्रा की भासा का प्रयोग करो है। बुंदेली लोग तो इनको मजा ले सकहें, मनो बुंदेली नें जाननेबारे सोई इनकों आसानी सें समझ सकत हैं। बुंदेली को रूप जगै-जगै बदलत जात है। ऐइसें सुद्ध भासा के नाम पे नासमझ भलई नाक-भौं सिकोरें आम पाठक जिनके काजे जे कहानियाँ लिखी गईं हैं, इनखों पसंद करहे।
*
संदर्भ: १. हिंदी साहित्य का इतिहास- रामचंद्र शुक्ल, २. आलोचना शास्त्र मोहन वल्लभ पंत, ३. समाधान डॉ. सुशीला कपूर, ४. अंतर संवाद रजनी सक्सेना, ५.मेरी प्रिय कथाएँ स्वाति तिवारी, ६. एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ़ लिटरेचर, ७. कहानी का रचना विधान जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, ८ समकालीन हिंदी कहानी संपादक डॉ. प्रकाश आतुर में कृष्ण कुमार ।
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संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संचालक विश्ववाणी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१।
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com ।

दोहे अनुप्रास के

 दोहा सलिला:

कुछ दोहे अनुप्रास के
संजीव
*
अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
*
अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
*
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
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नवगीत मेघ बजे

नवगीत

मेघ बजे....

संजीव 'सलिल'

*

मेघ बजे, मेघ बजे,

मेघ बजे रे!

धरती की आँखों में,

स्वप्न सजे रे...

*

सोई थी सलिला.

अंगड़ाई ले जगी.

दादुर की टेर सुनी-

प्रीत में पगी..

मन-मयूर नाचता,

न वर्जना सुने.

मुरझाये पत्तों को,

मिली ज़िंदगी..

झूम-झूम झर झरने,

करें मजे रे.

धरती की आँखों में,

स्वप्न सजे रे...

*

कागज़ की नौका,

पतवार बिन बही.

पनघट-खलिहानों की-

कथा अनकही..

नुक्कड़, अमराई,

खेत, चौपालें तर.

बरखा से विरह-अगन,

तपन मिट रही..

 

सजनी पथ हेर-हेर,

धीर तजे रे!

धरती की आँखों में,

स्वप्न सजे रे...

*

मेंहदी उपवास रखे,

तीजा का मौन.

सातें-संतान व्रत,

बिसरे माँ कौन?

छत्ता-बरसाती से,

मिल रहा गले.

सीतता रसोई में,

शक्कर संग नौन.

खों-खों कर बऊ-दद्दा,

राम भजे रे!

धरती की आँखों में,

स्वप्न सजे रे...

*****************

त्रिपदिक (हाइकु) गीत बात बेबात

त्रिपदिक (हाइकु) गीत    

बात बेबात 

संजीव 'सलिल'

*

बात बेबात 

कहते कटी रात 

हुआ प्रभात। 

*

सूर्य रश्मियाँ 

अलस सवेरे आ

नर्तित हुईं। 

*

हो गया कक्ष

आलोकित ज्यों तुम  

प्रगट हुईं। 

*

कुसुम कली

परिमल बिखेरे 

दस दिशा में -

*

मन अवाक  

सृष्टि  मोहती 

छबीली मुई। 

*

परदा हटा 

बज उठी पायल

यादों की बारात। 

*

दे पकौड़ियाँ 

आँखें, आँखों में झाँक

कुछ शर्माईं ?

*

गाल गुलाबी

अकहा सुनकर  

आप लजाईं। 

*

अघट घटा

अखबार नीरस 

लगने लगा- 

*

हौले से लिया    

हथेली को पकड़  

छुड़ा मुस्काईं। 

*

चितवन में  

बही नेह नर्मदा 

सिहरा गात 

*

चहक रही

गौरैया मुंडेर पर 

कुछ गा रही। 

फुदक रही 

चंचल गिलहरी  

मन भा रही। 

*

झोंका हवा का

उड़ा रहा आँचल 

नाचतीं लटें-

*

खनकी चूड़ी  

हाथ न आ, ललचा 

इठला रही। 

*

फ़िज़ा महकी 

घटा घिटी-बरसी 

गुँजा नग़मात 

*

 

रविवार, 20 सितंबर 2020

सरस्वती वंदना : देवकीनंदन शांत

 माँ शारदे वंदना

देवकीनंदन शांत लखनऊ
*
माँ! माँ!!
माँ! मुझे गुनगुनाने का वर दे
मेरी साँसों में संगीत भर दे
छंद को भाव रसखान का दे
प्रीत को साथ इंसान का दे
मेरी गज़लें मुहब्बत भरी हों
दे मुझे ध्यान भगवान का दे
मुझे इतनी कृपा और कर दे
मेरी साँसों में संगीत भर दे
सत्य बोलूँ-लिखूँ शब्द-स्वर दे
झूठ बोलें न एेसे अधर दे
झूठ कैसा भी हो झूठ ही है
झूठ के पंख सच से कतर दे
हौसले से भरी हो डगर दे
मेरी साँसों में संगीत भर दे
राष्ट्र-हित से जुड़ी भावना दे
विश्व कल्याण की कामना दे
धर्म-मजहब समा जाएँ जिसमें
योग जप-तप पगी साधना दे
जग को सुख शांति आठों पहर दे
मेरी साँसों में संगीत भर दे
'शांत' शब्दों को चिंगारियाँ दे
जग की पीड़ा को अमराइयाँ दे
कल्पना दे गरुड़ पंख जैसी
मेरे अनुभव को गहराइयाँ दे
मुझ पे इतनी कृपा और कर दे
मेरी साँसों में संगीत भर दे
***

सरस्वती वन्दना : अवधी - डॉ. कैलाश नाथ मिश्र

 डॉ.कैलाशनाथ मिश्र

माता - स्व. तुलसी देवी

पिता - स्व.यज्ञनारायण मिश्र
पत्नी - स्व.गीता देवी
स्थान - फतनपुर
जन्ततिथि - 30 अक्टूबर 1954
शिक्षा - चिकित्सा स्नातक
छन्दकार - विभिन्न छन्दों में रचनाएँ
कई साझा सङ्कलनों ( *विहग प्रीति के* , *अधूरा मुक्तक* ) व *पत्रिकाओं* में रचनाएँ प्रकाशित हैं ।
विभिन्न ई समूहों से अनेकों सम्मान प्राप्त यथा *अधूरा मुक्तक से* *मुक्तक सम्राट* , *काव्य गौरव , दोहा सम्राट* आदि । *नवोदित साहित्य कार मञ्च से साहित्य सृजक*, *कविता लोक से कविता लोक भारती* , *काव्य गंगोत्री सारस्वत सम्मान* , *काव्य रत्न* , *काव्य श्री*, *छन्द शिल्पी*, *कवितालोक आदित्य*, *गीतिकादित्य* । *मुक्तक लोक से गीतिका श्री* , *मुक्तक लोक भूषण* , *मुक्तकलोक श्रेयस*, *चित्र मंथन सृजन सम्मान* व *युवा उत्कर्ष साहित्यिक मञ्च ( न्यास ) द्वारा श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान व और भी कई सम्मानों से सम्मानित* ।
पता - निवास फतनपुर, पोस्ट आफिस - गौरा (आर.एस.) जनपद. प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल नं. 9452702797
मेल dr.knnishra1789@gmail.com
*सरस्वती वन्दना* *अवधी हिंदी*
सूरसती मैया मोरी सुनिल्या पुकार तू ।
तो'हरी शरण में आये कइल्या स्वी'कार तू ।
चित में विकार भरा जिउ घबरात बा ,
दिन अरु रात मन दुख उधिरात बा ,
चैन नाहीं छिन भर हो'इजा मददगार तू।
तो'हरी शरण में आये कइल्या स्वी'कार तू ।
जन-जन में रोष बढ़ा झगड़ा लड़ाई,
प्रेम क बिसार दै द्या फसल उगाई ,
आगे बढ़े देश आपन कै द्या उपचार तू ।
तोहरी शरण में आये कइल्या स्वीकार तू ।
दुनिया में ताप बढ़ा ग्ले'शियर गलावै ,
बहुतै प्रयोग परदूषणइ बढ़ावै ।
जुगुत नयी खोजि लेतियु कइके दिदार तू ।
तोहरी शरण में आये कइल्या स्वीकार तू ।
लेखनी में जोश भरा रचना बनाई ,
ज्ञान क प्रचार चहुँ दिशा में कराई,
भारत के शीश देतियु मुकट सँवार तू।
तोहरी शरण में आये कइल्या स्वीकार तू ।।
डॉ.कैलाशनाथ मिश्र

स्तुति : शारदे माता - निरुपमा श्रीवास्तव

 स्तुति 

शारदे माता मुझको वर दे,

हे करूणामयि वीणावादिनी
ज्योतिर्मय जग कर दे.......
हे ब्रम्हाणी, हे कल्याणी,
तू है सकल मनोरथ दानी।
मन-मालिन्य दूर कर दे माँ,
उर में ममता भर दे।।
इन्द्रधनुष सा स्वर लहरा दे,
जगमग ज्योति लहर बिखरा दे।
सन्मति भर दे जन मानस में,
ओंकार सा स्वर भर दे।।
अखिल विश्व में ज्ञान बिखेरा,
काटो भव-सागर का फेरा।
तेरे चरणों पर नत-मस्तक,
वरद-हस्त माँ घर दे।।
श्री मती निरुपमा श्रीवास्तव,अयोध्या

ग़ज़ल : माँ शारदे - आभा सक्सेना

 2122 212 2 212

ग़ज़ल
माँ शारदे
दीप मन में इक जला माँ शारदे!
ज्ञान की गंगा बहा माँ शारदे.!!
मोर वाहन है तुझी पर सज रहा!
हस्त वीणा लेकर आ माँ शारदे!!
भावनाओं की उंचाई है बहुत!
करदे मुझको सब अता माँ शारदे!!
कर मधुर झंकार वीणा की तू अब!
नेह का दीपक जला माँ शारदे!!
जिन्दगी के दिन तो बस दो चार हैं!
हूँ मैं केवल बुलबुला माँ शारदे!!
छत्र छाया माँ तेरी मुझ पर रहे!
प्यार दे अब दो गुना माँ शारदे!!
देश की खातिर कभी तो कुछ लिखूं!
ऐसी मेरी मति बना माँ शारदे!!
सांस ‘आभा’ चल रहीं है आखिरी!
कर सफ़र छोटा मेरा माँ शारदे!!
...आभा सक्सेना दूनवी

मुक्तिका

 मुक्तिका

निराला हो
*
जैसे हुए, न वैसा ही हो, अब यह साल निराला हो
मेंहनतकश ही हाथों में, अब लिये सफलता प्याला हो
*
उजले वसन और तन जिनके, उनकी अग्निपरीक्षा है
सावधान हों सत्ता-धन-बल, मन न तनिक भी काला हो
*
चित्र गुप्त जिस परम शक्ति का, उसके पुतले खड़े न कर
मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में, देव न अल्लाताला हो
*
कल को देख कलम कल का निर्माण आज ही करती है
किलकिल तज कलकल वरता मन-मंदिर शांत शिवाला हो
*
माटी तन माटी का दीपक बनकर तिमिर पिये हर पल
आए-रहे-जाए जब भी तब चारों ओर उजाला हो
*
क्षर हो अक्षर को आराधें, शब्द-ब्रम्ह की जय बोलें
काव्य-कामिनी रसगगरी, कवि-आत्म छंद का प्याला हो
*
हाथ हथौड़ा कन्नी करछुल कलम थाम, आराम तजे
जब जैसा हो जहाँ 'सलिल' कुछ नया रचे, मतवाला हो
*
२०-९-२०१७

भक्ति गीत

 भक्ति गीत:

संजीव
*
हे प्रभु दीनानाथ दयानिधि
कृपा करो, हर विघ्न हमारे.
जब-जब पथ में छायें अँधेरे
तब-तब आशा दीप जला रे….
*
हममें तुम हो, तुममें हम हों
अधर हँसें, नैन ना नम हों.
पीर अधीर करे जब देवा!
धीरज-संबल कहबी न कम हों.
आपद-विपदा, संकट में प्रभु!
दे विवेक जो हमें उबारे….
*
अहंकार तज सकें ज्ञान का
हो निशांत, उद्गम विहान का.
हम बेपर पर दिए तुम्हीं ने
साहस दो हरि! नव उड़ान का.
सत-शिव-सुंदर राह दिखाकर
सत-चित-आनंद दर्श दिखा रे ….
*
शब्द ब्रम्ह आराध्य हमारा
अक्षर, क्षर का बना सहारा.
चित्र गुप्त है जो अविनाशी
उसने हो साकार निहारा.
गुप्त चित्र तव अगम, गम्य हो
हो प्रतीत जो जन्म सँवारे ….
*
२०-९-२०१३

षड्पदी नर्मदा

षड्पदी नर्मदा

भक्ति-भाव की विमल नर्मदा में अवगाहन कर तर जाएँ. प्रभु ऐसे रीझें, भू पर आ, भक्तों के संग नाचें-गाएँ.. हम आरती उतारें प्रभु की, उनके चरणों पर गिर जाएँ. जय महेश! जय बम-बम भोले, सुन प्रभु हमको कंठ लगाएँ.. स्वप्न देख ले 'सलिल' सुनहरे, पूर्व जन्म के पुण्य भुनाएँ.. प्रभु को मन-मंदिर में पाकर, तन को हँसकर भेंट चढ़ाएँ..

शनिवार, 19 सितंबर 2020

बंगाली गीत कान्ता राय

 बंगाली गीत

कान्ता राय

*

कोरियो ना मोन मोलिन, साथी
कोरियो ना मोन मोलिन
सोनार आलो निए
फिरिए आशबे दिन
कोरियो ना मोन मोलिन, साथी
कोरियो ना मोन मोलिन
मध्यम मध्यम दिन फुरिए जाच्चे
गहन नीरीब रात्रि काचे आशचे
सोबार जत्नो कोरियो ना साथी
जेगे रात काटियो, रोइयो जोतिन
कोरियो ना मोन मोलिन, साथी
कोरियो ना मोन मोलिन