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शनिवार, 12 सितंबर 2020

लेख - हिंदी में तकनीकी लेखन

 आलेख:

तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्रीय भाषा में
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
राष्ट्र गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा:
किसी राष्ट्र की संप्रभुता के प्रतीक संविधान, ध्वज, राष्ट्रगान, राज भाषा, तथा राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह (पशु, पक्षी आदि) होते हैं. संविधान के अनुसार भारत लोक कल्याणकारी गणराज्य है, तिरंगा झंडा राष्ट्रीय ध्वज है, 'जन गण मन' राष्ट्रीय गान है, हिंदी राज भाषा है, सिंह राष्ट्रीय पशु तथा मयूर राष्ट्रीय पक्षी है. राज भाषा में सकल रज-काज किया जाना राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है. दुर्भाग्य से भारत से अंग्रेजी राज्य समाप्त होने के बाद भी अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व समाप्त न हो सका. दलीय चुनावों पर आधारित राजनीति ने भाषाई विवादों को बढ़ावा दिया और अंग्रेजी को सीमित समय के लिये शिक्षा माध्यम के रूप में स्वीकारा गया. यह अवधि कभी समाप्त न हो सकी.
हिंदी का महत्त्व:
आज भारत-भाषा हिन्दी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है. विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा एकाधिक अवसरों पर अमरीकियों को हिंदी सीखने के लिये सचेत करते हुए कह चुके हैं कि हिंदी सीखे बिना भविष्य में काम नहीं चलेगा. यह सलाह अकारण नहीं है. भारत को उभरती हुई विश्व-शक्ति के रूप में सकल विश्व में जाना जा रहा है. संस्कृत तथा उस पर आधारित हिंदी को ध्वनि-विज्ञान और दूर संचारी तरंगों के माध्यम से अंतरिक्ष में अन्य सभ्यताओं को सन्देश भेजे जाने की दृष्टि से सर्वाधिक उपयुक्त पाया गया है.
भारत में हिंदी सर्वाधिक उपयुक्त भाषा:
भारत में भले ही अंग्रेजी बोलना सम्मान की बात हो पर विश्व के बहुसंख्यक देशों में अंग्रेजी का इतना महत्त्व नहीं है. हिंदी बोलने में हिचक का एकमात्र कारण पूर्व प्राथमिक शिक्षा के समय अंग्रेजी माध्यम का चयन किया जाना है. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु सर्वाधिक आसानी से अपनी मात्र-भाषा को ग्रहण करता है. अंग्रेजी भारतीयों की मातृभाषा नहीं है. अतः भारत में बच्चों की शिक्षा का सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम हिंदी ही है.
प्रत्येक भाषा के विकास के कई सोपान होते हैं. कोई भाषा शैशवावस्था से शनैः- शनैः विकसित होती हुई, हर पल प्रौढता और परिपक्वता की ओर अग्रसर होती है. पूर्ण विकसित और परिपक्व भाषा की जीवन्तता और प्राणवत्ता उसके दैनंदिन व्यवहार या प्रयोग पर निर्भर होती है. भाषा की व्यवहारिकता का मानदण्ड जनता होती है क्योंकि आम जन ही किसी भाषा का प्रयोग करते हैं. जो भाषा लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में समा जाती है, वह चिरायु हो जाती है. जिस भाषा में समयानुसार अपने को ढालने, विचारों व भावों को सरलता और सहजता से अभिव्यक्त करने, आम लोगों की भावनाओं तथा ज्ञान-विज्ञानं की समस्त शाखाओं व विभागों की विषय वस्तु को अभिव्यक्त करने की क्षमता होती है, वह जन-व्यवहार का अभिन्न अंग बन जाती है. इस दृष्टि से हिन्दी सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में सदा से छाई रही है.
आज से ६४ वर्ष पूर्व, १४ सितम्बर, सन् १९४७ को जब हमारे तत्कालीन नेताओं, बुध्दिजीवियों ने जब बहुत सोच-विचार के बाद सबकी सहमति से हिन्दी को आज़ाद हिन्दुस्तान की राजकाज और राष्ट्रभाषा बनाने का निर्णय लिया तो उस निर्णय के ठोस आधार थे –
१) हिंदी भारत के बहुसंख्यक वर्ग की भाषा है, जो विन्ध्याचल के उत्तर में बसे सात राज्यों में बोली जाती है
२) अन्य प्रान्तों की भाषाओं और हिन्दी के शब्द भण्डार में इतनी अधिक समानता है कि वह सरलता से सीखी जा सकती है,
३) वह विज्ञान और तकनीकी जगत की भी एक सशक्त और समर्थ भाषा बनने की क्षमता रखती है, (आज तकनीकि सूचना व संचार तंत्र की समर्थ भाषा है)
४) यह अन्य भाषाओं की अपेक्षा सर्वाधिक व्यवहार में प्रयुक्त होने के कारण जीवंत भाषा है,
५) व्याकरण भी जटिल नहीं है,
६) लिपि भी सुगम व वैज्ञानिक है,
७) लिपि मुद्रण सुलभ है,
८) सबसे महत्वपूर्ण बात - भारतीय संस्कृति, विचारों और भावनाओं की संवाहक है.
हिंदी भाषा उपेक्षित होने का कारण:
भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में शिशु को पूर्व प्राथमिक से ही अंग्रेजी के शिशु गीत रटाये जाते हैं. वह बिना अर्थ जाने अतिथियों को सुना दे तो माँ-बाप का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता है. हिन्दी की कविता केवल २ दिन १५ अगस्त और २६ जनवरी पर पढ़ी जाती है, बाद में हिन्दी बोलना कोई नहीं चाहता. अंग्रेजी भाषी विद्यालयों में तो हिन्दी बोलने पर 'मैं गधा हूँ' की तख्ती लगाना पड़ती है. अतः बच्चों को समझने के स्थान पर रटना होता है जो अवैज्ञानिक है. ऐसे अधिकांश बच्चे उच्च शिक्षा में माध्यम बदलते हैं तथा भाषिक कमजोरी के कारण खुद को समुचित तरीके अभिव्यक्त नहीं कर पाते और पिछड़ जाते हैं. इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उच्च्तर माध्यमिक में मजबूरी में हिन्दी यत्किंचित पढ़ता है... फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिन्दी छुटा ही देता है.
हिंदी की सामर्थ्य:
हिन्दी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव में प्रश्न चिन्ह लगाये जाते हैं. वैज्ञानिक विषयों, प्रक्रियाओं, नियमों तथा घटनाओं की अभिव्यक्ति हिंदी में करना कठिन माना जाता है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है. हिंदी की शब्द सम्पदा अपार है. हिंदी सदानीरा सलिला की तरह सतत प्रवाहिनी है. उसमें से लगातार कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं. हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक/स्थानीय भाषाओँ और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं. इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है किन्तु हिन्दी को वैज्ञानिक विषयों की अभिव्यक्ति में सक्षम विश्व भाषा बनने के लिये इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना होगा. अनेक क्षेत्रों में हिन्दी की मानक शब्दावली है, जहाँ नहीं है वहाँ क्रमशः आकार ले रही है.
सामान्य तथा तकनीकी भाषा:
जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है वह कही गयी बात का आशय संप्रेषित करता है किन्तु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता. ज्ञान-विज्ञान में भाषा का उपयोग तभी संभव है जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ की प्रतीति हो. इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छाशक्ति की कमी तथा भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है. आज तकनीकि विकास के युग में, कुछ भी दायरों में नहीं बंधा हुआ है. जो भी जानदार है, शानदार है, अनूठापन लिये है, जिसमें जनसमाज को अपनी ओर खींचने का दम है वह सहज ही और शीघ्र ही भूमंडलीकृत और वैश्विक हो जाता है. इस प्रक्रिया के तहत आज हिन्दी वैश्विक भाषा है. कोई भी सक्रिय भाषा, रचनात्मक प्रक्रिया – चाहे वह लेखन हो, चित्रकला हो,संगीत हो, नृत्यकला हो या चित्रपट हो – सभी युग-परिवेश से प्रभावित होते हैं. भूमंडलीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें दुनिया तेज़ी से सिमटती जा रही है. विश्व के देश परस्पर निकट आते जा रहे हैं. इसलिए ही आज दुनिया को ‘विश्वग्राम’ कहा जा रहा है. इस सबके पीछे ‘सूचना और संचार’ क्रान्ति की शक्ति है, जिसमें ‘इंटरनेट’ की भूमिका बड़ी अहम है. इसमे कोई दो राय नहीं कि इस जगत में हिन्दी अपना सिक्का जमा चुकी है.
हिंदी संबंधी मूल अवधारणाएं:
इस विमर्श का श्री गणेश करते हुए हम कुछ मूल बातों भाषा, लिपि, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, लिपि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन, शब्द-भेद, बिम्ब, प्रतीक, मुहावरे जैसी मूल अवधारणाओं को जानें.
भाषा(लैंग्वेज) :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ. आदि मानव को प्राकृतिक घटनाओं (वर्षा, तूफ़ान, जल या वायु का प्रवाह), पशु-पक्षियों की बोली आदि को सुनकर हर्ष, भय, शांति आदि की अनुभूति हुई. इन ध्वनियों की नकलकर उसने बोलना, एक-दूसरे को पुकारना, भगाना, स्नेह-क्रोध आदि की अभिव्यक्ति करना सदियों में सीखा.
लिपि (स्क्रिप्ट):
कहे हुए को अंकित कर स्मरण रखने अथवा अनुपस्थित साथी को बताने के लिये हर ध्वनि हेतु अलग-अलग संकेत निश्चित कर अंकित करने की कला सीखकर मनुष्य शेष सभी जीवों से अधिक उन्नत हो सका. इन संकेतों की संख्या बढ़ने व व्यवस्थित रूप ग्रहण करने ने लिपि को जन्म दिया. एक ही अनुभूति के लिये अलग- अलग मानव समूहों में अलग-अलग ध्वनि तथा संकेत बनने तथा आपस में संपर्क न होने से विविध भाषाओँ और लिपियों का जन्म हुआ.
चित्रगुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
भाषा-सलिला निरंतर, करे अनाहद जाप.
भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक), तूलिका के माध्यम से अंकित, लेखनी के द्वारा लिखित तथा आजकल टंकण यंत्र या संगणक द्वारा टंकित होता है. हिंदी लेखन हेतु प्रयुक्त देवनागरी लिपि में संयुक्त अक्षरों व मात्राओं का संतुलित प्रयोग कर कम से कम स्थान में अंकित किया जा सकता है जबकि मात्रा न होने पर रोमन लिपि में वही शब्द लिखते समय मात्रा के स्थान पर वर्ण का प्रयोग करने पर अधिक स्थान, समय व श्रम लगता है. अरबी मूल की लिपियों में अनेक ध्वनियों के लेकहं हेतु अक्षर नहीं हैं.
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.
व्याकरण (ग्रामर ):
व्याकरण (वि+आ+करण) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है.
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.
वर्ण / अक्षर(वर्ड) :
हिंदी में वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं. स्वरों तथा व्यंजनों का निर्धारण ध्वनि विज्ञान के अनुकूल उनके उच्चारण के स्थान से किया जाना हिंदी का वैशिष्ट्य है जो अन्य भाषाओँ में नहीं है.
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.
स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है जिसका अधिक क्षरण, विभाजन या ह्रास नहीं हो सकता. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ऋ.
स्वर के दो प्रकार:
१. हृस्व : लघु या छोटा ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा
२. दीर्घ : गुरु या बड़ा ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार हैं.
१. स्पर्श व्यंजन (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म).
२. अन्तस्थ व्यंजन (य वर्ग - य, र, ल, व्, श).
३. ऊष्म व्यंजन ( श, ष, स ह) तथा
४. संयुक्त व्यंजन ( क्ष, त्र, ज्ञ) हैं.
अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.
अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. शब्द भाषा का मूल तत्व है. जिस भाषा में जितने अधिक शब्द हों वह उतनी ही अधिक समृद्ध कहलाती है तथा वह मानवीय अनुभूतियों और ज्ञान-विज्ञानं के तथ्यों का वर्णन इस तरह करने में समर्थ होती है कि कहने-लिखनेवाले की बात का बिलकुल वही अर्थ सुनने-पढ़नेवाला ग्रहण करे. ऐसा न हो तो अर्थ का अनर्थ होने की पूरी-पूरी संभावना है. किसी भाषा में शब्दों का भण्डारण कई तरीकों से होता है.
१. मूल शब्द:
भाषा के लगातार प्रयोग में आने से समय के विकसित होते गए ऐसे शब्दों का निर्माण जन जीवन, लोक संस्कृति, परिस्थितियों, परिवेश और प्रकृति के अनुसार होता है. विश्व के विविध अंचलों में उपलब्ध भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन शैलियों, खान-पान की विविधताओं, लोकाचारों,धर्मों तथा विज्ञानं के विकास के साथ अपने आप होता जाता है.
२. विकसित शब्द:
आवश्यकता आविष्कार की जननी है. लगातार बदलती परिस्थितियों, परिवेश, सामाजिक वातावरण, वैज्ञानिक प्रगति आदि के कारण जन सामान्य अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिये नये-नये शब्दों का प्रयोग करता है. इस तरह विकसित शब्द भाषा को संपन्न बनाते हैं. व्यापार-व्यवसाय में उपभोक्ता के साथ धोखा होने पर उन्हें विधि सम्मत संरक्षण देने के लिये कानून बना तो अनेक नये शब्द सामने आये.संगणक के अविष्कार के बाद संबंधित तकनालाजी को अभिव्यक्त करने के नये शब्द बनाये गये.
३. आयातित शब्द:
किन्हीं भौगोलिक, राजनैतिक या सामाजिक कारणों से जब किसी एक भाषा बोलनेवाले समुदाय को अन्य भाषा बोलने वाले समुदाय से घुलना-मिलना पड़ता है तो एक भाषा में दूसरी भाषा के शब्द भी मिलते जाते हैं. ऐसी स्थिति में कुछ शब्द आपने मूल रूप में प्रचलित रहे आते हैं तथा मूल भाषा में अन्य भाषा के शब्द यथावत (जैसे के तैसे) अपना लिये जाते हैं. हिन्दी ने पूर्व प्रचलित भाषाओँ संस्कृत, अपभ्रंश, पाली, प्राकृत तथा नया भाषाओं-बोलिओं से बहुत से शब्द ग्रहण किये हैं. भारत पर यवनों के हमलों के समय फारस तथा अरब से आये सिपाहियों तथा भारतीय जन समुदायों के बीच शब्दों के आदान-प्रदान से उर्दू का जन्म हुआ. आज हम इन शब्दों को हिन्दी का ही मानते हैं, वे किस भाषा से आये नहीं जानते.
हिन्दी में आयातित शब्दों का उपयोग ४ तरह से हुआ है.
१.यथावत:
मूल भाषा में प्रयुक्त शब्द के उच्चारण को जैसे का तैसा उसी अर्थ में देवनागरी लिपि में लिखा जाए ताकि पढ़ते/बोले जाते समय हिन्दी भाषी तथा अन्य भाषा भाषी उस शब्द को समान अर्थ में समझ सकें. जैसे अंग्रेजी का शब्द स्टेशन, यहाँ अंगरेजी में स्टेशन (station) लिखते समय उपयोग हुए अंगरेजी अक्षरों को पूरी तरह भुला दिया गया है.
२.परिवर्तित:
मूल शब्द के उच्चारण में प्रयुक्त ध्वनि हिन्दी में न हो अथवा अत्यंत क्लिष्ट या सुविधाजनक हो तो उसे हिन्दी की प्रकृति के अनुसार परिवर्तित कर लिया जाए. जैसे अंगरेजी के शब्द हॉस्पिटल को सुविधानुसार बदलकर अस्पताल कर लिया गया है. .
३. पर्यायवाची:
जिन शब्दों के अर्थ को व्यक्त करने के लिये हिंदी में हिन्दी में समुचित पर्यायवाची शब्द हैं या बनाये जा सकते हैं वहाँ ऐसे नये शब्द ही लिये जाएँ. जैसे: बस स्टैंड के स्थान पर बस अड्डा, रोड के स्थान पर सड़क या मार्ग. यह भी कि जिन शब्दों को गलत अर्थों में प्रयोग किया जा रहा है उनके सही अर्थ स्पष्ट कर सम्मिलित किये जाएँ ताकि भ्रम का निवारण हो. जैसे: प्लान्टेशन के लिये वृक्षारोपण के स्थान पर पौधारोपण, ट्रेन के लिये रेलगाड़ी, रेल के लिये पटरी.
४. नये शब्द:
ज्ञान-विज्ञान की प्रगति, अन्य भाषा-भाषियों से मेल-जोल, परिस्थितियों में बदलाव आदि के कारण हिन्दी में कुछ सर्वथा नये शब्दों का प्रयोग होना अनिवार्य है. इन्हें बिना हिचक अपनाया जाना चाहिए. जैसे सैटेलाईट, मिसाइल, सीमेंट आदि.
हिन्दी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओँ के साहित्य को आत्मसात कर हिन्दी में अभिव्यक्त करने की तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषय-वस्तु को हिन्दी में अभिव्यक्त करने की है. हिन्दी के शब्द कोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है. इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओँ, विदेशी भाषाओँ, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों को जोड़ा जाना जरूरी है.
अंग्रेजी के नये शब्दकोशों में हिन्दी के हजारों शब्द समाहित किये गये हैं किन्तु कई जगह उनके अर्थ/भावार्थ गलत हैं... हिन्दी में अन्यत्र से शब्द ग्रहण करते समय शब्द का लिंग, वचन, क्रियारूप, अर्थ, भावार्थ तथा प्रयोग शब्द कोष में हो तो उपयोगिता में वृद्धि होगी. यह महान कार्य सैंकड़ों हिन्दी प्रेमियों को मिलकर करना होगा. विविध विषयों के निष्णात जन अपने विषयों के शब्द-अर्थ दें जिन्हें हिन्दी शब्द कोष में जोड़ा जा सके.
शब्दों के विशिष्ट अर्थ:
तकनीकी विषयों व गतिविधियों को हिंदी भाषा के माध्यम से संचालित करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उनकी पहुँच असंख्य लोगों तक हो सकेगी. हिंदी में तकनीकी क्षेत्र में शब्दों के विशिष अर्थ सुनिश्चित किये जने की महती आवश्यकता है. उदाहरण के लिये अंग्रेजी के दो शब्दों 'शेप' और 'साइज़' का अर्थ हिंदी में सामन्यतः 'आकार' किया जाता है किन्तु विज्ञान में दोनों मूल शब्द अलग-अलग अर्थों में प्रयोग होते हैं. 'शेप' से आकृति और साइज़ से बड़े-छोटे होने का बोध होता है. हिंदी शब्दकोष में आकार और आकृति समानार्थी हैं. अतः साइज़ के लिये एक विशेष शब्द 'परिमाप' निर्धारित किया गया.
निर्माण सामग्री के छन्नी परीक्षण में अंग्रेजी में 'रिटेंड ऑन सीव' तथा 'पास्ड फ्रॉम सीव' का प्रयोग होता है. हिंदी में इस क्रिया से जुड़ा शब्द 'छानन' उपयोगी पदार्थ के लिये है. अतः उक्त दोनों शब्दों के लिये उपयुक्त शब्द खोजे जाने चाहिए. रसायन शास्त्र में प्रयुक्त 'कंसंट्रेटेड' के लिये हिंदी में गाढ़ा, सान्द्र, तेज, तीव्र आदि तथा 'डाईल्यूट' के लिये तनु, पतला, मंद, हल्का, मृदु आदि शब्दों का प्रयोग विविध लेखकों द्वारा किया जाना भ्रमित करता है.
'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' का दायित्व:
तकनीकी गतिविधियाँ राष्ट्र भाषा में सम्पादित करने के साथ-साथ अर्थ विशेष में प्रयोग किये जानेवाले शब्दों के लिये विशेष पर्याय निर्धारित करने का कार्य उस तकनीक की प्रतिनिधि संस्था को करना चाहिए. अभियांत्रिकी के क्षेत्र में निस्संदेह 'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' अग्रणी संस्था है. इसलिए अभियांत्रकी शब्द कोष तैयार करने का दायित्व इसी का है. सरकार द्वारा शब्द कोष बनाये जाने की प्रक्रिया का हश्र किताबी तथा अव्यवहारिक शब्दों की भरमार के रूप में होता है. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये साहित्यिक समझ, रूचि, ज्ञान और समर्पण के धनी अभियंताओं को विविध शाखाओं / क्षेत्रों से चुना जाये तथा पत्रिका के हर अंक में तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली और शब्द कोष प्रकाशित किया जाना अनिवार्य है. पत्रिका के हर अंक में तकनीकी विषयों पर हिंदी में लेखन की प्रतियोगिता भी होना चाहिए. विविध अभियांत्रिकी शाखाओं के शब्दकोशों तथा हिंदी पुस्तकों का प्रकाशन करने की दिशा में भी 'इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स' को आगे आना होगा.
अभियंताओं का दायित्व:
हम अभियंताओं को हिन्दी का प्रामाणिक शब्द कोष, व्याकरण तथा पिंगल की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब जैसे समय मिले पढ़ने की आदत डालनी होगी. हिन्दी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा/बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं अपितु हिंदी भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है चूँकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती.
भारतीय अंतरजाल उपभोक्ताओं के हाल ही में हुए गए एक सर्वे के अनुसार ४५% लोग हिन्दी वेबसाईट देखते हैं, २५% अन्य भारतीय भाषाओं में वैब सामग्री पढना पसंद करते हैं और मात्र ३०% अंगरेजी की वेबसाईट देखते हैं. यह तथ्य उन लोगों की आँख खोलने के लिए पर्याप्त है जो वर्ल्ड वाइड वेब / डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू को राजसी अंगरेजी का पर्यायवाची माने बैठे हैं. गूगल के प्रमुख कार्यकारी एरिक श्मिडट के अनुसार अब से ५-६ वर्ष के अंदर भारत विश्व का सबसे बड़ा आई. टी. बाज़ार होगा, न कि चीन. यही कारण है कि हिन्दी आज विश्व की तीन प्रथम भाषाओं में से- तीसरे से दूसरे स्थान पर आ गयी है. गूगल ने सर्च इंजिन के लिए हिंदी इंटरफेस जारी किया है. माइक्रो सोफ्ट ने भी हिन्दी और अन्य प्रांतीय भाषाओं की महत्ता को स्वीकारा है. विकीपीडिया के अनुसार चीनी विकीपीडिया यदि २.५० करोड परिणाम देता है तो हिन्दी विकिपीडिया ६ करोड परिणाम देता है.
अतः हिंदी की सामर्थ्य उसे विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करा रही है. प्रश्न यह है की हम एक भारतीय, एक हिंदीभाषी और एक अभियंता के रूप में अपने दायित्व का निर्वहन कितना, कैसे और कब करते हैं.
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हिंदी है

 हिंदी दिवस पर विशेष गीत:

सारा का सारा हिंदी है
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
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दोहा सलिला: हिंदी वंदना

 दोहा सलिला:

हिंदी वंदना
संजीव 'सलिल'
*
हिंदी भारत भूमि की आशाओं का द्वार.
कभी पुष्प का हार है, कभी प्रचंड प्रहार..
*
हिन्दीभाषी पालते, भारत माँ से प्रीत.
गले मौसियों से मिलें, गायें माँ के गीत..
हृदय संस्कृत- रुधिर है, हिंदी- उर्दू भाल.
हाथ मराठी-बांग्ला, कन्नड़ आधार रसाल..
*
कश्मीरी है नासिका, तमिल-तेलुगु कान.
असमी-गुजराती भुजा, उडिया भौंह-कमान..
*
सिंधी-पंजाबी नयन, मलयालम है कंठ.
भोजपुरी-अवधी जिव्हा, बृज रसधार अकुंठ..
*
सरस बुंदेली-मालवी, हल्बी-मगधी मीत.
ठुमक बघेली-मैथली, नाच निभातीं प्रीत..
*
मेवाड़ी है वीरता, हाडौती असि-धार,
'सलिल'अंगिका-बज्जिका, प्रेम सहित उच्चार ..
*
बोल डोंगरी-कोंकड़ी, छत्तिसगढ़िया नित्य.
बुला रही हरियाणवी, ले-दे नेह अनित्य..
*
शेखावाटी-निमाड़ी, गोंडी-कैथी सीख.
पाली, प्राकृत, रेख्ता, से भी परिचित दीख..
*
डिंगल अरु अपभ्रंश की, मिली विरासत दिव्य.
भारत का भाषा भावन, सकल सृष्टि में भव्य..
*
हिंदी हर दिल में बसी, है हर दिल की शान.
सबको देती स्नेह यह, सबसे पाती मान..
*

नवगीत

 नवगीत:

हिंदी की जय हो...
संजीव 'सलिल'
*
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
**************

नवगीत:

 नवगीत:

अपना हर पल है हिन्दीमय....
संजीव 'सलिल'
*
अपना हर पल है हिन्दीमय
एक दिवस क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें नित्य अंग्रेजी
जो वे एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को कहते पिछडी.
पर भाषा उन्नत बतलाते.
घरवाली से आँख फेरकर
देख पडोसन को ललचाते.
ऐसों की जमात में बोलो,
हम कैसे शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक की भाषा.
जिसकी ऐसी गलत सोच है,
उससे क्या पालें हम आशा?
इन जयचंदों की खातिर
हिंदीसुत पृथ्वीराज बन जाएँ...
*
ध्वनिविज्ञान-नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में माने जाते.
कुछ लिख, कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि, उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में साम्य बताएँ...
*
अलंकार, रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी भाषा में मिलते,
दावे करलें चाहे झूठे.
देश-विदेशों में हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में संप्रेषण की
भाषा हिंदी सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन में
हिंदी है सर्वाधिक सक्षम.
हिंदी भावी जग-वाणी है
निज आत्मा में 'सलिल' बसाएँ...
*

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

बघेली हाइकु

बघेली हाइकु
*
जिनखें हाथें
किस्मत के चाभी
बड़े दलाल
*
आम के आम
नेता करै कमाल
गोई के दाम
*
सुशांत-रिया
खबरचियन के
बाप औ' माई
*
लागत हय
लिपा पुता चिकन
बाहेर घर
*
बाँचै किताब
आँसू के अनुबाद
आम जनता
*

मालवी झाबुआ राज्य

मालवी के विविध रूप हैं। एक रूप की बानगी प्रस्तुत है ग्रामीण हिंदी डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, जनवरी १९५० से साभार। श्यास अब वहाँ भी बोली में बदलाव हो चुके होंगे।  
मालवी
झाबुआ राज्य
एक सरवण नाम करी ने आदमी थो। वणी रा बाप आंख ऊँ आँदा था। सरवण वणा ने तोक्या फरतो थो। चालताँ आलताँ आँदा आँदी ने रस्ता में तरस लागो।  जदी सरवण ने कीदो के बेटा; पाणी पाव।  म्हाँ ने तरस लागी। जदी ऊ वणा ने बठे बेठाइ ने पाणी भरवा ने तलाब उपर गियो। वणी तलाब उपर राजा दशरथ की चोकी थी। जणी  वखत सरवण पाणी भरवा लागो जदी राजा दशरथे दूरा ऊँ देख्यो। तों जाण्यों के कोई हरण्यो पाणी पीवे हे। एसो जाणी ने राजा ए बाण मार्यो। जो सरवण रे छाती में लागो। जो सरवण वणी बखत राम-राम करवा लागो। जदी राजा ए जाण्यो के ये तो कोई मनख है।  
एसो जाणी ने राजा दशरथ सरवण कने गियो। तो देखो तो आपणो भाणेज। राजा साच करवा मंडपो। जद सरवण बोल्यो, के खेर मारो मोत थारा हात  से ज लखि थी। अवे मारा मा-बाप ने पाणी पावजो। अतरो केह ने सरवण तो मरि गियौ। ने राजा दशरथ पाणी भरी ने बेन बेनोई हावा ने आयो। जदी आँदा आँदी बोल्या के तँ कूँणहे।  दशरथ बोल्यो के थाणे काईं काम हे थें। पाणी पीयो। जदी बेन बोलो में तो सरवण सिवाय दुसरो का हात को पाणी नी पीयाँ। दशरथ बोल्यो के हूँ दशरथ हूँ ने गारा हातं अजाण में सरवण मरि गियो। 
आँदा आँदी सरवण को मरणो हुणी ने हा! हा! करीने राजा दशरथ ने हराप दीदो के जणी बाणू  मारो बेटा मारयो वणा ज वाणू तूँ मरजे। एसो हराप देइ ने आँदा आँदीबी मरि गिया। 
***                                                     

पंचम नगर एक वीरान धरोहर

पुरोवाक :
पंचम नगर एक  वीरान धरोहर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                           मानव सभ्यता निर्माण और ध्वंस की कहानी है। इतिहास स्वयं को दुहराता है। माटी मीनार बनती है और मीनार माटी
में मिल जाती है। समय चक्र रुकता नहीं। मिट्टी से निर्माण करने वाला मानव ही निर्माणों को मिट्टी में मिलता है और विधि की विडंबना यह कि मिट्टी में मिल चुके को खोजकर ध्वंसावशेषों से अतीत में झाँककर अजाने को जानने की कोशिश में तन-मन-धन लगाकर मानव को संतुष्टि मिलती है। मिट्टी में मिले हुए जितना अधिक समय बीतता है, उसे जानने की जिज्ञासा उतनी अधिक बढ़ती जाती है। मोहनजोदारो, हड़प्पा, मिस्र के पिरामिड, नालंदा, तक्षशिला आदि के अवशेषों को खोजने में अकूत धन और अन्य साधन मानव खर्च करता है वह भी तब जब धनाभाव और साधनहीनता के कारण असंख्य मानव नियत प्रति दम तोड़ते रहते हैं। राममंदिर के अवशेषों को लेकर सदियों से चलते रहे विवाद का पटाक्षेप होते न होते मथुरा और वाराणसी के अवशेषों को लेकर कानाफूसी आरंभ हो चुकी है। 
                           मानव अपनी भूलों से कुछ सीखता नहीं। मजबूत किले, गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ, मनोहर प्रतिमाएँ मिट्टी में मिली देखने पर भी मानव फिर-फिर इन्हें बनाता जाता है। हर देश में पुरातत्व विभाग, पुरातत्वविद खोये को खोजने में निमग्न रहते हैं। यह बात और है कि जितना खोज पाते हैं उससे अधिक निरंतर खोता जाता है। हम अपने बचपन का परिदृश्य याद करें तो अपने ही शहर में अपने चारों और क्या-कितना नष्ट हो गया यह देख सकते हैं। ऐसे ही विनष्ट स्थानों में एक है पंचम नगर। बहुत पुरानी बात नहीं है जब पंचम नगर बुन्देलखंड  का समृद्ध नगर था जिसकी ख्याति दूर-दूर तक थी। हवा का एक झोंका आया और पंचम नगर वीरान खंडहरों में परिवर्तित हो गया। क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ जैसे प्रश्न मन को उद्वेलित करते हैं। 
                           कुछ वर्ष पूर्व १८५७ की सशस्त्र क्रांति का इतिहास खंगालते समय राजा बखतबली द्वारा पंचमनगर थाने को लूटने का विवरण पढ़ा था। जबलपुर के ख्यात प्रशासक, भाषाविद रायबहादुर हीरालाल राय के साहित्यिकी अवदान की खोज करते समय दमोह दीपिका में पंचम नगर की जानकारी मिले थी। कुछ अन्य सन्दर्भों में भी यह नाम आया। विवाह के पश्चात फुटेरा वार्ड दमोह निवासी मामा ससुर  द्वय स्व. इंद्रभूषण लाल व् स्व. चंद्र्भूषणलाल के विश्वस्त कारिंदे पंचम के नाम पर हुई चर्चा में भी पंचम नगर का उल्लेख हुआ। रनेह  में बौद्ध मठ, तला की देवी आदि के अवशेषों को देखने का अवसर मिला पर पंचम नगर जाने का अवसर नहीं मिला सका। मन में दबी इच्छा को प्रस्फुटित होने का अवसर मिला जब अजित जैन जी पंचम नगर संबंधी चर्चा हेतु आये। पंचम नगर का उद्भव और पतन बहुत पुरानी बात नहीं है। सत्रहवीं सदी में यह क्षेत्र हस्त निर्मित कागज़ हेतु ख्यात हुआ। खनिज, कृषि और वनोपजों  का व्यवसाय तो होता ही था। 
                           मुग़ल शासकों के पतन के बाद बुंदेलखंड की बागडोर मराठा शासकों के हाथ में आयी जो नागपुर में बैठकर सागर में अपना किलेदार रखकर राज कर रहे थे। उनके कारिंदे निर्मम निष्ठुर और क्रूर थे। पिंडारी और ठग लोगों का जीना हराम किये थे। भोंसले शासन में लगन वसूली में मनमानी का आलम यह कि भोंसलेशाही को भर्राशाही कहा जाता था। पिंडारी अपने सूत्रों से समृद्ध लोगों का पता लगाकर दिन दहाड़े लूट लिया करते थे। मेरे श्वसुर जी के पूर्वज भी इसके शिकार होते-होते बचे। एक रात घर के पुरुष बाहर थे। गाँव के आसपास में दस्यु देखे जाने की खुसफुस हुई। महिलाओं के कान में कहीं से भनक पडी और विक्टोरिया सिक्कों को कपड़े में कमर के चारों और करधन की तरह लपेट कर, घोड़े के दाने की बोरी में जेवर छिपाकर साहसी दादी माँ रनेह से रातों-रात घोड़ों पर निकल पड़ीं और दमोह में रिश्तेदारों के पास पहुँच गयीं। अन्य सदस्य भी परिचितों के यहाँ जा छिपे। उसी रात गाँव के अन्य सेठ के परिवार को लूटने के बाद दस्युओं ने हत्याएँ भी कीं। यह अराजकता का वातावरण पंचमहल ही नहीं समूचे बुंदेलखंड की बर्बादी का कारण  बना। 
                           पंचमहल पशु मंडी, अनाज मंडी, कागज़ उत्पादन का केंद्र, प्राकृत्रिक सौंदर्य, पानी की सर्वकालिक सुविधा संपन्न नगर था। इसलिए संपन्न और निपुण जान आते-बसते रहे।  मराठा शासन का अंत कर अंग्रेजों ने शासन सम्हाला तो आरंभ में जनता ने चैन की सांस ली किन्तु क्रमश: अंग्रेजों ने भी मनमानी आरंभ कर दी। फलत:, राजाओं और मालगुजारों ने कुछ देशभक्त क्रांतिकारियों से प्रोत्साहित होकर देश से विदेशियों को भागने का अभियान छेड़ दिया। पंचम नगर का पुलिस थाना  हटा के राजा बखतबली ने लूट लिया। स्वातंत्र्य विद्रोह असफल होने पर बख्तबली को अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। 
                           स्वाभाविक है कि अंग्रेजों ने बखतबली के प्रभावशाली सहायकों को खोज-खोज कर प्रताड़ित किया। दस्युओं, बीमारियों, प्रशासनिक प्रताड़ना, व्यापार-व्यवसाय नष्ट होने के कारण क्रमश: समृद्ध जन सुरक्षा की तलाश में और आम कृषक-मजदूर आजीविका की तलाश में यत्र-तत्र विस्थापित हो गए। रह गयी इमारतें तो तूफ़ान, बरसात, गर्मी झेलते हुई धीरे-धीरे उसी मिट्टी में मिलती गयीं जिनसे बनी थीं। धरती मन ने उन्हें अपने अंचल में स्थान दे दिया। शेष रह गए हैं खँडहर जो पंचम नगर के वैभवशाली अतीत की कहानियाँ कहते हैं।
                           लोकोक्तियाँ, लोकापवाद और  जनश्रुतियाँ अनेक हैं। पंचमनगर कब, किसके शासनकाल में बना यह शोध का विषय है।
                           पंचम नगर के जिला मुख्यालय दमोह का इतिहास बहुत प्राचीन है। सिंग्रामपुर में मिले पौराणिक काल के पाषाण हथियार इस बात का साक्ष्य है कि यह स्थान करोड़ो वर्ष पूर्व मानव सभ्यता का पालना रहा है। ५ वीं शताब्दी मे यह पाटिलीपुत्र के भव्य एवं शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य का हिस्सा था। इसका प्रमाण जिले के विभिन्न स्थानों पर मिले शिलालेख, सिक्के, (दुर्गा मंदिर) व अन्य वस्तुए हैंजिनका संबंध समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, और स्कंन्दगुप्त के शासन काल से था। ८ वीं शाताब्दी से १२ वीं शताब्दी के मध्य दमोह जिले का कुछ भाग चेदी साम्राज्य के अंतर्गत आता था। जिसमें कलचुरी राजाओं का शासन था और उनकी राजधानी त्रिपुरी थी। दसवीं शताब्दी के कलचुरी शासकों के स्थापत्य कला और शासन का जीता जागता उदाहरण है नोहटा का नोहलेश्वर मंदिर। दमोह जिले पर चंदेलों का शासन था जिसे जेजाक मुक्ति कहा जाता था। १४ वीं शताब्दी में दमोह में मुगलो का अधिपत्य शासन रहा और ग्राम सलैया तथा बटियागढ़ में पाए जाने वाले पाषाण शिलालेखो में खिलजी और तुगलक वंश के शासन का उल्लेख है। बाद में मालवा के सुल्तान ने यहाँ शासन किया। १५ वीं शताब्दी के आखिरी दशक में गौड़ वंश के शासक संग्राम सिंह ने इसे अपने शक्तिशाली एंव बहुआयामी साम्राज्य में शामिल किया जिसमें ५२ किले थे। यह समय क्षेत्र के लिए शांति और समृद्धि का था। सिंग्रामपुर में रानी दुर्गावती मुगल साम्राज्य के सेनापति आसफ खान, की सेना से साहस पूर्ण युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुई।  गोंड़ वंश के राजा तेजीसिंह  के काल में निर्मित तेजगढ़  का किला अभी भी खड़ा है। 
                           क्षेत्र में बुंदेलो ने कुछ समय के लिए यहाँ राज्य किया इसके बाद मराठों ने राज्य किया। सन् १८८८ में पेशवा की मृत्यु के बाद अंगे्रजो ने मराठों को उखाड फेंका। अंगे्रजो से भारत के स्वतंत्र कराने के लिए दमोह ने देश की स्वतंत्रता के लिए हो रहे संघर्ष में बराबरी से भाग लिया। हिडोरिया के ठाकुर किशोर सिंह सिग्रामंपुर के राजा देवी सिंह, करीजोग के पंचम सिंह गंगाधर राव, रघुनाथ राव, मेजवान सिंह, गोविंद राव, इत्यादि के कुशल नेतृत्व में अंगे्रजों के खिलाफ 1857 के विद्रोह में भाग लिया। पौराणिक कक्षा के अनुसार दमोह शहर का नाम नरवर की रानी दमयंती के नाम पर पड़ा, जबकि रनेह  ग्राम (मूल नाम नलेह) राजा नल के नाम पर बसा बताया जाता है।दमोह जिले में ज्योतिर्लिंग की तरह प्रतिष्ठा प्राप्त जागेश्वर धाम बांदकपुर है जिसे मराठा दीवान चांदुरकर ने बनवाया था। कहते हैं कि दीवान चांदुरकर शिकार पर निकले। एक स्थान पर उनका घोडा बारंबार उछल रहा था। वहीं विश्राम में उनको स्वप्न में भगवान शिव की प्रतिमा दिखी। वहाँ खुदाई करायी तो स्वयंभू शिवलिंग दिखा। दीवान चादुंरकर ने इसे दमोह लाकर समीप सिविल वार्ड में स्थापित करने हेतु एक मंदिर बनवाया। एक बडी चटटान से जुडा शिवलिंग खुदाई के बाद भी अलग नहीं हुआ। तब वहीं जागेश्वर मंदिर बनाया गया।  दमोह में बने मंदिर में मराठों के कुलदैवत श्री राम की मूर्ति बिठाकर राममंदिर बनाया गया।  वहाँ आज भी मराठी पदधति से ही श्री राम की पूजा होती है।                                                                                                                            इस काल क्रम में पंचम नगर कब बसा? कब समृद्ध हुआ? कौन-कौन से उद्योग-व्यवसाय विकसित हुए? पंचम नगर का देश-प्रदेश के क्या योगदान रहा और किन कारणों से नष्ट हुआ? यह खोजा जाना आवश्यक है। वर्तमान में पंचम नगर का समीपस्थ क्षेत्र विकास की राह पर है। वर्ष २०१४ में जिला दमोह के अन्तग्रत पंचम नगर परियोजना के पगरा बांध हेतु ग्राम निहानी से भीकमपुर रैयतवारी एवं भीकमपुर रैयतवारी से भीकमपुर मुस्तजरी तक ग्राम सड़क का निर्माण कार्य हो चुका है । बाँध ने क्षेत्रीय विकास के द्वार खोले हैं। भारत सरकार तथा प्रदेश सरकार के पुरातत्व विभाग पंचम नगर के खंडहरों का संरक्षण कर, इसे पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करना चाहिए। यहाँ प्रचुर शासकीय भूमि उपलब्ध है। मात्र डेढ़-दो किलोमीटर  कर सड़क निर्माण कर पंचमनगर में नयानगर बसाया जा सकता है। एक मेडिकल कॉलेज का निर्माण कर इस अंचल का कायाकल्प किया जा सकता है।                                                              श्री अजित जैन ने अपना अध्ययन पंचम नगर में जैन समाज और जैन मंदिरों तक सीमित रखा है। उनके द्वारा संकलित सामग्री में कतिपय विरोधाभास भी हैं। उन्होंने जो जैसा पाया सहेज कर पाठक पंचायत में प्रस्तुत कर दिया है। यह महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि पंचम नगर की गाथा के अन्वेषण में यह सामग्री कच्ची मिट्टी का काम करेगी। अजित जी को उनकी सुरुचि के लिए साधुवाद, पुरातात्विक अन्वेषण में संकुचित दृष्टि और मतों की परिधि से परे जाकर निष्पक्ष भाव से स्थापनाएँ करनी होती हैं, वह कार्य इस आधारशिला पर किया जा सकेगा। श्री जैन के श्रम और सुरुचि के प्रति अनंत मंगल कामनाएँ। 
परिचय : संजीव वर्मा 'सलिल',
जन्म: २०-८-१९५२, मंडला मध्य प्रदेश। माता-पिता: स्व. शांति देवी - स्व. राज बहादुर वर्मा। प्रेरणास्रोत: बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा।शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम. आई. ई., विशारद, एम. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.। संप्रति: पूर्व कार्यपालन यंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र., अधिवक्ता म. प्र. उच्च न्यायालय, संयोजक विश्ववाणी हिंदी परिषद - अभियान जबलपुर, पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष / महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, संरक्षक राजकुमारी बाई बाल निकेतन, संयोजक समन्वय संस्था प्रौद्योगिकी विश्व विद्यालय भोपाल, संचालक समन्वय प्रकाशन जबलपुर। प्रकाशित कृतियाँ: १. कलम के देव, २. भूकंप के साथ जीना सीखें, ३. लोकतंत्र का मक़बरा, ४. मीत मेरे ५. काल है संक्रांति का ६. कुरुक्षेत्र गाथा प्रबंध काव्य ७. सड़क पर। संपादन: १२ पुस्तकें, १६ स्मारिकाएँ, ८ पत्रिकाएँ। भूमिका लेखन: ६५ पुस्तकें, तकनीकी लेख: १५, समीक्षा ३०० से अधिक पुस्तकें। ट्रू मीडिया मासिकी दिल्ली द्वारा अगस्त २०१९ में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' विशेषांक प्रकाशित। जीवन परिचय प्रकाशित ७ कोश। ७ संस्कृत-हिंदी काव्यानुवाद। साझा संकलन २०। अप्रकाशित पुस्तकें १२। अंतरजाल पर- १९९८ से सक्रिय, हिन्द युग्म पर छंद-शिक्षण २ वर्ष तक, साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचनाशास्त्र' ८० अलंकारों पर लेखमाला, छंदों पर लेखमाला जारी ८० छंद हो चुके हैं। गूगल पर २,५१,००० प्रविष्टियाँ। दिव्य नर्मदा अंतर्जाल पत्रिका ३१,४८,३०८ पाठक संख्या। उपलब्धि ५०० नए छंदों का आविष्कार। सम्मान- १० राज्यों संस्थाओं द्वारा शताधिक सम्मान तथा अलंकरण।