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शनिवार, 8 अगस्त 2020

शब्द सलिला : तमाशा

शब्द सलिला : तमाशा
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हिंदी तमाशा - संस्कृत, पुल्लिंग, संज्ञा, मन को प्रसन्न करने वाला दृश्य; मनोरंजक दृश्य, वह खेल जिससे मनोरंजन होता है, अद्भुत व्यापार या कार्य; अनोखी बात, खेलकूद, हँसी आदि की कोई घटना, ।
मराठी तमाशा -
महाराष्ट्र की एक लोककला, लोक नाट्य, निर्लज्जता भरा काम या व्यवहार या उलटी-पुलटी हरकत, खेल का प्रदर्शन, वह दृश्य जिसके देखने से मनोरंजन हो, मन को प्रसन्न करने वाला दृश्य।
तमाश: تماشا. फ़ारसी, पुल्लिंग , तमाशा अरबी पुलिंग
सैर, तफ़रीह, दीदार, लुत्फ़, वाज़ीगरों या मदारियों का खेल, नाटक, अजूबापन, हँसी-मज़ाक, भाँड़ों या बहुरूपियों की नक़ल या स्वाँग।
तमाशाई - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = तमाशा देखनेवाला।
तमाशाकुनां - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = सैर से दिल बहलाता हुआ।
तमाशाखानम - अरबी, तुर्की, स्त्रीलिंग, = हँसने-हँसानेवाली महिला।
तमाशागर - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = तमाशा करनेवाला, कौतुकी।
तमाशागाह - अरबी, फ़ारसी, स्त्रीलिंग = वहजगह जहाँ तमाशा होता है, लीलागृह, कौतुकागार, क्रीड़ास्थल।
तमाशाबीं - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = तमाशा देखनेवाला, कौतुकदर्शी।
तमाश गीर / बीन हिंदी पुल्लिंग = तमाशा देखनेवाला, कौतुकदर्शी, अय्याश।
तमाशबीनी हिंदी पुल्लिंग = अय्याशी।
English Tamasha - noun, spectacle, pageant, show, entertainment, exhibition, amusement.
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काव्य पंक्तियाँ / अशआर
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दोहे - संजीव वर्मा 'सलिल'

कौन तमाशा कर रहा, देख रहा है कौन
पूछ आईने से लिया, उत्तर पाया मौन
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आप तमाशागर करे, यहाँ तमाशा रोज
किसे तमाशाई कहें, करिये आकर खोज
*
मंदिर-मस्जिद हो गए, हाय! तमाशागाह
हैरत में भगवान है, मुश्किल में अल्लाह
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आप तमाशागर यहाँ, आप तमाशागीर
करें तमाशा; बाप की, संसद है जागीर
***
तमाशा देख रहे थे जो डूबने का मिरे
मिरी तलाश में निकले हैं कश्तियाँ ले कर - अज्ञात
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चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
जा तमाशा देख उस रुख़्सार का - वली मोहम्मद वली
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इश्क़ और अक़्ल में हुई है शर्त
जीत और हार का तमाशा है - सिराज औरंगाबादी
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है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी
इक तुर्फ़ा तमाशा है 'हसरत' की तबीअत भी - हसरत मोहानी
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कभी उनका नहीं आना ख़बर के ज़ैल में था
मगर अब उनका आना ही तमाशा हो गया है -अरशद कमाल
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शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है -बशीर बद्र
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जो कुछ निगाह में है हक़ीक़त में वो नहीं
जो तेरे सामने है तमाशा कुछ और है - आफ़ताब हुसैन
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ये मोहब्बत है इसे देख तमाशा न बना
मुझ से मिलना है तो मिल हद्द-ए-अदब से आगे - ज़करिय़ा शाज़
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ज़िंदगी टूट के बिखरी है सर-ए-राह अभी
हादिसा कहिए इसे या कि तमाशा कहिए - दाऊद मोहसिन
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हमारे इश्क़ में रुस्वा हुए तुम
मगर हम तो तमाशा हो गए हैं - अतहर नफ़ीस
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तब्अ तेरी अजब तमाशा है
गाह तोला है गाह माशा है - शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो
जुदा हो दीं सियासत से तो रह जाती है चंगेज़ी - अल्लामा इक़बाल
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ये मेरे गिर्द तमाशा है आँख खुलने तक
मैं ख़्वाब में तो हूँ लेकिन ख़याल भी है मुझे - मुनीर नियाज़ी
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वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते
कुछ लोग बिखर कर भी तमाशा नहीं होते - ज़ेहरा निगाह
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हक़ीक़त को तमाशे से जुदा करने की ख़ातिर
उठा कर बारहा पर्दा गिराना पड़ गया है - मुस्तफ़ा शहाब
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ग़म अपने ही अश्कों का ख़रीदा हुआ है
दिल अपनी ही हालत का तमाशाई है देखो - ज़ेहरा निगाह
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रोती हुई एक भीड़ मिरे गिर्द खड़ी थी
शायद ये तमाशा मिरे हँसने के लिए था - मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
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चिकित्सा सलिला : गैंग्रीन, तलुओं की जलन, दस्त - डायरिया

चिकित्सा सलिला 
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नुस्खे 
गैंग्रीन (अंग का सड़ जाना) Osteomyelitis, कटे-पके घाव का इलाज 
मधुमेह रोगी (डाईबेटिक पेशेंट) की चोट जल्दी ठीक ही नही हो तो धीरे धीरे गैंग्रीन (अंग का सड़ जाना) में बदल जाती है अंत में वह अंग काटना पड़ता है। गैंग्रीन माने अंग का सड़ जाना, जहाँ पे नए कोशिका विकसित नही होते। न तो मांस में और न ही हड्डी में और सब पुराने कोशिका मरते चले जाते हैं।  Osteomyelitis में भी कोशिका कभी पुनर्जीवित नही होती, जिस हिस्से में हो वहाँ बहुत बड़ा घाव हो जाता है और वो ऐसा सड़ता है कि काटने केअलावा और कोई दूसरा उपाय नही रहता।

एक औषधि है जो गैंग्रीन को भी ठीक करती है और Osteomyelitis (अस्थिमज्जा का प्रदाह) को भी ठीक करती है।इसे आप अपने घर में तैयार कर सकते हैं। औषधि है देशी गाय का मूत्र (आठ परत सूती कपड़े में छानकर) , हल्दी और गेंदे का फूल। पीले या नारंगी गेंदे के फुल की पंखुरियाँ निकालकर उसमें हल्दी मिला दें फिर गाय मूत्र में डालकर उसकी चटनी बना लें। यह चटनी घाव पर दिन में दो बार लगा कर उसके ऊपर रुई रखकर पट्टी बाँधिए। चटनी लगाने के पहले घाव को छाने हुए जो मूत्र से ही धो लें। डेटोल आदि का प्रयोग मत करिए।
यह बहुत  प्रभावशाली है। इस औषधि को हमेशा ताजा बनाकर लगाना है। किसी भी प्रकार का ज़ख्म जो किसी भी औषधि से ठीक नही हो रहा है तो यह औषधि आजमाइए। गीला सोराइसिस जिसमेँ खून भी निकलता है, पस भी निकलता है उसको यह औषधि पूर्णरूप से ठीक कर देती है। दुर्घटनाजनित घाव पर इसे अलगते ही रक्त स्राव  रुक जाता है। ऑपरेशन के घाव के लिए भी यह उत्तम औषधि है। गीले एक्जीमा में यह औषधि बहुत काम करती है, जले हुए जखम में भी लाभप्रद है।
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हाथ, पैर और तलुओं की जलन  
हाथ-पैर, तलुओं और शरीर में जलन की शिकायत  हो तो ५ कच्चे बेल के फलों के गूदे को २५० मिली लीटर नारियल तेल में एक सप्ताह तक डुबाये रखने के बाद में छानकर जलन देने वाले शारीरिक हिस्सों पर मालिश करनी चाहिए, अतिशीघ्र जलन की शिकायत दूर हो जाएगी।
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दस्त - डायरिया 
नींबू का रस निकालने के बाद छिलके छाँव में रखकर सुखा लें। कच्चे हरे केले का छिल्का उतारकर बारीक-बारीक टुकड़े करें और इसे भी छाँव में सुखा लें। केले में स्टार्च और नीबू के छिल्कों मे सबसे ज्यादा मात्रा में पेक्टिन होता है। दोनों अच्छी तरह सूख जाएँ तो समान मात्रा लेकर बारीक पीस लें या मिक्सर में एक साथ ग्राइंड कर लें। यह चूर्ण दस्त और डायरिया का अचूक इलाज है। दो-दो घंटे के अंतराल से १ चम्मच चूर्ण खाइये। शीघ्र आराम मिलता है। 
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शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

संस्मरण अमरेंद्र नारायण

संस्मरण के अंतर्गत अभियान के परामर्शदाता इंजी अमरेंद्र नारायणजी की फीजी यात्रा का अनमोल संस्मरण प्रस्तुत है जिसे उनहोंने विशेषकर अभियान के लिए शब्दबद्ध किया है। 

यात्रा संस्मरण : 
भारतवर्षियों के अध्यवसाय से विकसित फिजी 
इंजी. अमरेंद्र नारायण, परामर्शदाता, अभियान 
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दक्षिणी प्रशांत महासागर के मनोरम नीले विस्तार के बीच न्यूजीलैंड से लगभग दो हजार किलोमीटर की दूरी पर
फीजी द्वीप का सौंदर्य बार-बार आने का मौननिमंत्रण देता है। भारतीयों के लिए तो फीजी की यात्रा 

सुदूर प्रशांत महासागर की गोद में बसे इस देश के निवासी भारतवंशियों के प्रति एक कृतज्ञता यात्रा है और उनके
स्वेद अश्रुओं से सिंचित उनकी कर्मठता को एक विनम्र प्रणाम है। 
दुःख की बात है कि भारतवंशियों के अनवरत संघर्ष के साक्षी इस देश की मिटटी में उनके खून-पसीने के साथ रक्त की बूँदें भी सनी हैं। फीजी की अपनी पहली यात्रा के बाद जब मैं के बाद जब मैं बैंगकौक वापस आया तो वहाँ के फोटो देख कर मेरी पत्नी ने कहा-'यह तो बिलकुल अपना बिहार लगता है!'
पत्नी का यह कथन आंशिक रूप से सत्य है क्योंकि वहां के भारतीय मूल के निवासियों ने अपनी परंपरा बनाये रखी है, पर फीजी में बिहार और उतर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों की लोक परंपरा के भी दर्शन होते हैं। नांडी का आकर्षक हिंदी मंदिर दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला का एक आकर्षक उदाहरण है। फीजी दक्षिणी प्रशांत महासागर का एक समृद्ध द्वीप है ।लगभग १८.४ हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वालेइस देश की जनसंख्या  ९ लाख है। इस उच्च-माध्यम आय वर्गवाले देश की प्रति व्यक्ति औसत आय लगभग ६००० डौलर है। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत से लगभग ५०० श्रमिकों को लेकर लियोनिदास नामक जहाज कलकत्ते से चला था।पर, १४ मई १८७९ को जब लियोनिदास फीजी पहुँचा तब उसमें  ४६७ श्रमिक बचे थे।दूसरा श्रमिक जहाज १८८२ में फीजी आया। इसके बाद सन् १९१६ तक ८७ जहाजों से श्रमिक फीजीआये। उनके जी तोड़ परिश्रम की बदौलत ही फीजी में ईख की खेती विकसित हुई और चीनी बनाने का उद्योग पनपा।लगभग ६० ५५३ भारतीय श्रमिक फीजी आये थे। फिर कुछ डॉक्टर और अन्य प्रोफेशनल भी वहाँ आ गये।
भारतवर्षियों का संघर्ष लंबा तथा कठिन था और कई रूपों में आज भी है। उन कर्मजीवियों के वंशज निरंतर संघर्षरत हैं। राजनीतिक कारणों से अब फीजी में भारतवंवंशियों का प्रतिशत घटता जा रहा है। शिक्षित लोग अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और अन्य देशों में जा रहे हैं। अभी फीजी में लगभग ३ लाख १३ हजार भारतीय मूल के लोग हैं। यह फीजी की जनसंख्या का लगभग ३३ % है।उनकी कठिनाइयों और उनके कठिन परिश्रम का वर्णन मैंने अपने उपन्यास संघर्ष में किया है, उसे यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं है। फीजी जाने पर उन श्रमजीवियों की कर्मठता के प्रति मन श्रद्धा से भर उठता है। गन्ने के सघन खेतों के बीच बने छोटे मकान सहज आकर्षण उत्पन्न करते हैं।
भारतवंशियों की वर्तमान पीढ़ी के अधिकांश लोग शहररों में रहते हैं। फीजी का अंतर्राष्ट्रीय का हवाई अड्डा नांडी में है। वहाँ से राजधानी सूवा की सड़क मार्ग से दूरी लगभग १९० किलोमीटर है।नांडी और सूवा के बीच विमान सेवा उपलब्ध है पर मैंने इन दो स्थानों के बीच अपनी अपनी अधिकांश यात्रायें कारद्वारा ही की हैं ताकि वहाँ के जन-जीवन से परिचित हो सकूँ। प्रे: टैक्सी में भारतीय मूल के टैक्सी चालक मिलते थे जिनसे भोजपुरी में बात
होती थी। उनकी भोजपुरी बिहार या पूर्व उत्तर प्रदेश की भोजपुरी से थोड़ी भिन्न है।
फीजी के द्वीप बहुत खूबसूरत हैं। प्रशांत महासागर के शांत महासागर की नीलिमा मानो दूर क्षितिज के पार अंबर की नीलिमा को मिलन संदेश देती है। क्रूज द्वारा लैगून और समुद्र तट का आनंद लेने बड़ी संख्या में पर्यटक फीजी आते हैं। वहाँ कईहिंदी मंदिर हैं। नांडी का शिव सुब्रमण्यन मंदिर आकर्षण का प्रमुख केंद्र है।फीजी में रहनेवाले अधिकांश भारतवंशी अपनी संंस्कृति और परंपरा का आदर करते हैं।
एक बार न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर में मेरी पत्नी को बाजार में खरीददारी करते देखकर एक लड़की उनके पास आई। उसने बताया कि वह फीजी वासी है पर इनदिनों न्यूजीलैंड में रहती है। वह मेरी पत्नी को अपने घर ले गयी और उसने उन्हें अपनी शादी का कैसेट दिखाया। दखलाया। मेरी पत्नी  ने मुझेबताया कि उसकी  शादी 
के रीत-रिवाज बिहार में होनेवाली शादियों सेबिलकुल मिलते हैं। मैंने भी भी पूजा-पाठ, हवन आदि में भारतीय परंपरा का पालन ही देखा है।
इतने वर्ष बाद भी कठिन परिस्थितियों से निरंतर संघर्ष करते हुए भी वहाँ के लोग अपनी परंपरा का आदर पूर्वक निर्वाह करते हैं।
फीजी हिंदी के प्रचार में युवा और खेल विभाग के पूर्व मंत्री तथा सूवा स्थित यूनिवर्सिटी औफ साऊथ पैसेफिक के
हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ. विवेकानंद शर्मा  जी का महत्वपूण योगदान रहा है। उनके प्रयास से ही विश्व विद्यालय में हिंदी की पढ़ाईप्रारंभ हुई। रेडियो फीजी द्वारा हिंदी में कार्यक्रम प्रसारित होने लगे। डाॅ. विवेकानंद शर्मा जी के प्रति वहाँ के छात्र-छात्राओं का आदर भाव देख कर मन प्रफुल्लित हो गया। एक बार बंधुवर डाॅ.शर्मा और मैं विश्वविद्यालय की कैंटीन में चाय पी रहे थे। जो भी छात्र-छात्रा वहाँ आते थे,वे शर्मा जी  के चरण स्पर्श करते थे। विवेकानंद भाई ने मुझे बताया कि जब वेक्लास में जाते हैं तब उनके विद्यार्थी 'प्रणाम गुरूजी' कहकर 
उनका अभिभवादन करते हैं। यह किसी गुरुकुल की बात नहीं, एक आधुनिक विश्वविद्यालय में पढ़नेवाले छात्र-छात्रों के संस्कार की बात है। 
डाॅ.विवेकानंद शर्मा  जी 'संस्कृति' नामक एक त्रैमासिक पत्रिका भी प्रकाशित  करते थे। वे फीजी में विश्व हिंदी सम्मलेन का आयोजन भी करना चाहतेथे। आज डाॅ. शर्मा हमारे बीच नहीं हैं पर उन्होंने हिंदी के प्रचार के लिए जो महत्वपूर्ण कार्य किये हैं उनके लिए फीजीवासी उनके ऋणी रहेंगे। इसका अनुभव मुझे भोपाल में २०१५ में 
विश्व हिंदी सम्मलेन में देखने को मिला। फीजी से एक बड़ा प्रतिनिधिमंडल सम्मलेन में भाग लेने के लिए भोपाल आया था और उसके सभी सदस्य एक ही प्रकार की नीले रंग की वेशभूषा में थे। उनसे बात करने पर पता चला की फीजी में हिंदी के विकास का काम अभी भी अच्छी तरह चल रहा है।निरामिष भोजियों को सूवा या नांडी
में कोई असुविधा नहीं है। निरामष भारतीय भोजन आसानी से मिल जाता है, फिर गोविन्द रेस्त्रां जो है। 
फीजी में प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा हुआ है। जगह जगह आधुनिक सुख -सुविधा संपन्न रिसोर्ट बने हुए हैं वहाँ जाने वाले भारतीयोन की यात्रा उनके मन पर फीजी निवासी भारतवंशियों के  अध्यवसाय और संघर्ष की एक अमित छाप  छोड़ जाती है और पुनः आने का मौन निमंत्रण देकर ही विदा करती है!

- अमरेंद्र नारायण,जबलपुर २५ जुलाई २०२०


गुरुवार, 6 अगस्त 2020

नवगीत : संसद की दीवार पर

नवगीत :
संसद की दीवार पर
संजीव
*
संसद की दीवार पर
दलबन्दी की धूल
राजनीति की पौध पर
अहंकार के शूल
*
राष्ट्रीय सरकार की
है सचमुच दरकार
स्वार्थ नदी में लोभ की
नाव बिना पतवार
हिचकोले कहती विवश
नाव दूर है कूल
लोकतंत्र की हिलाते
हाय! पहरुए चूल
*
गोली खा, सिर कटाकर
तोड़े थे कानून
क्या सोचा था लोक का
तंत्र करेगा खून?
जनप्रतिनिधि करते रहें
रोज भूल पर भूल
जनगण का हित भुलाकर
दे भेदों को तूल
*
छुरा पीठ में भोंकने
चीन लगाये घात
पाक न सुधरा आज तक
पाकर अनगिन मात
जनहित-फूल कुचल रही
अफसरशाही फूल
न्याय आँख पट्टी, रहे
ज्यों चमगादड़ झूल
*
जनहित के जंगल रहे
जनप्रतिनिधि ही काट
देश लूट उद्योगपति
खड़ी कर रहे खाट
रूल बनाने आये जो
तोड़ रहे खुद रूल
जैसे अपने वक्ष में
शस्त्र रहे निज हूल
*
भारत माता-तिरंगा
हम सबके आराध्य
सेवा-उन्नति देश की
कहें न क्यों है साध्य?
हिंदी का शतदल खिला
फेंकें नोंच बबूल
शत्रु प्रकृति के साथ
मिल कर दें नष्ट समूल
***

६-८-२०१७
[प्रयुक्त छंद: दोहा, १३-११ समतुकांती दो पंक्तियाँ,
पंक्त्यान्त गुरु-लघु, विषम चरणारंभ जगण निषेध]
salil.sanjiv@gmail.com

नवगीत: आओ! तम से लड़ें...

नवगीत:
आओ! तम से लड़ें...
संजीव 'सलिल'
*
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
माटी माता,
कोख दीप है.
मेहनत मुक्ता
कोख सीप है.
गुरु कुम्हार है,
शिष्य कोशिशें-
आशा खून
खौलता रग में.
आओ! रचते रहें
गीत फिर गायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
आखर ढाई
पढ़े न अब तक.
अपना-गैर न
भूला अब तक.
इसीलिये तम
रहा घेरता,
काल-चक्र भी
रहा घेरता.
आओ! खिलते रहें
फूल बन, छायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
६-८-२०१४
salil.sanjiv@gmail.com

रोचक चर्चा : इतमें हम महाराज

रोचक चर्चा :

इतमें हम महाराज
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महाकवि बिहारी के भांजे लोकनाथ चौबे भी जयपुर दरबार के कवि थे। चौबेजी को 'महाराज' कहा ही जाता है। तो हुआ क्या, एक बार चौबेजी गाँव गए हुए थे। वहाँ उन्हें रुपयों की आवश्यकता हुई, तो उन्होंने स्थानीय सेठ को राजा के नाम एक हजार की हुण्डी लिख कर दे दी, साथ में एक प्रशस्ति का छंद भी लिख कर दे दिया। राजा मान सिंह ने हुण्डी तो स्वीकार कर ली, लेकिन जवाब में एक दोहा भी लिख भेजा :
इतमें हम महाराज हैं, उतमें तुम महाराज।
हुण्डी करी हज़ार की, नेक ना आई लाज।।

बाल गीत: बरसे पानी

बाल गीत:
बरसे पानी
संजीव 'सलिल'
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
*
६-८-२०११ 

बुधवार, 5 अगस्त 2020

पुरोवाक दुल्हन सी सजीली

पुरोवाक
दुल्हन सी सजीली - गीति रचनायेँ नवेली
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
सनातन सत्य 'परिवर्तन ही जीवन है' (चेंज इज लाइफ) का प्रत्यक्ष प्रमाण हिंदी कविता है। हिंदी कविता में पल-पल होते परिवर्तन उसकी जीवंतता, यथार्थता और सरसता के साक्षी हैं। यह परिवर्तन भाषा के स्तर पर शब्द चयन में देखे जा सकते हैं। आनुभूतिक स्तर पर विषय चयन, रसानुभूति और लयात्मक अभिव्यक्ति में सतत परिवर्तन उल्लेखनीय हैं। शैल्पिक स्तर पर  अलंकार, बिम्ब, प्रतीक और छांदस परिवर्तन महत्वपूर्ण हैं। इन परिवर्तनों का असर कविताजनित प्रभाव पर होना ही है। आज की कविता में लिजलिजी भावनात्मकता पर खुरदुरी यथार्थपरकता को वरीयता प्राप्त है। अब कविता सरल-सहज बोधगम्यता के स्थान पर व्यंजनपरकता को अधिक स्थान दे रही है। संदेशवाहक उद्देश्यपरकता अब कविता का अनिवार्य तत्व नहीं है। 'नर हो न निराश करो मन को' जैसी सहज अभिव्यक्ति से दूर जातो कविता ने लोक मांगल्य से दूर होकर जन-मन में स्थान भी खो दिया है। अब कविता किताबी हो रही है जिसमें शैल्पिक कसावट तो है पर आनुभूतिक सघनता अपेक्षाकृत कम है। यथार्थपरकता ने रसात्मकता के साथ-साथ कविता की चारुता और लालित्य को भी घटाया है। 
इस साहित्यिक संक्रमण काल में 'फुसफुसाते वृक्ष कान में' जैसा सरस नवगीत संग्रह देनेवाले हरिहर झा जी की नयी कृति 'दुल्हन सी सजीली' की पाण्डुलिपि मिलना लू से झुलसाते जेठ मास के बाद सावन की शीतल फुहार की तरह है। हरिहर झा जी भाभा अटॉमिक रिसर्च सेंटर में वैज्ञानिक अधिकारी पद से कार्य कर चुके हैं। उनकी अनुभूतियाँ और अभिव्यक्तियाँ आकाश कुसुम की सी कल्पना से दूर रहकर जमीनी सचाइयों से आँख मिलाती हों, यह स्वाभाविक है। विज्ञान और आध्यात्म का संगम 'जीवन में परिवर्तन' गीत में देखें -  
सूरज चंदा घूमे कैसे,
कैसे इनकी चलती गाड़ी
जाँची शरीर की नस नस पर
ना पाई प्रज्ञा की नाड़ी
जड़ तो जड़ है, समझा
कैसे जाना जाये चेतन आयें जीवन में परिवर्तन 
स्थूल और सूक्ष्म का द्वैत इन गीतों को सामान्य गीतकारों की अभिव्यक्ति से भिन्न बनाता है। मनुष्य के अंतर्मन और बाह्य व्यक्तित्व के विरोधाभास को कवि ने 'गाँधी हम सब, भीतर हिटलर' कहकर उजागर किया है। 'इच्छा सब कुछ पा कर नहीं अघाती' कहता कवि 'जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान' की विरासत को आगे बढ़ाता है। 
शीर्षक गीत 'दुल्हन सी सजीली' में गीत कर दर्शन और विज्ञान दोनों को आधा-अधूरा पाता है-   
जीवन मिला, जड़ देह में
इस चेतना संचार की,
बख्शीश आधी अधूरी;
दर्शन अधूरा, अधूरे से मार्ग में
विज्ञान की, कोशिश आधी अधूरी;
घोषणा लो उपनिषद की,
पूर्णमिदम वा..णी से सज
पूर्णतायें, चली दुल्हन सी सजीली।  
'अचंभे में पड़ा हूँ मैं' शीर्षक रचना हरिहर जी की स्वाभाविक और सहज अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी प्रस्तुत करती है-  
निशब्द हो गया
अचंभे में पड़ा हूँ मैं।
छरहरे वृक्ष पर
फुनगी
नई खिलती रहे
उजड़ रही इबारतों पर,
कलम लिखती रहे
मंत्र है भैया,
अचंभे में पड़ा हूँ मैं।   
वैज्ञानिक 'हरिहर' में 'हरि' और 'हर' दोनों का समावेश है। 'हर' उन्हें तथ्यपरक बनाते है तो 'हरि' 'रस अमृत का पान करते हैं। हरि और उनकी माया अभिन्न हैं। बृज के लाला और राधा की लीला से कौन दूर रह सकता है। हरिहरि जी की अनुभूति मन आप भी सहभागी हों -
राधे मोहन
एक रूप हैं, कवि-वचनामृत तिरछे
राधा-वेश में कृष्न आये,
कृष्न किधर हैं पूछे
कान्हा बन कर
राधा आई, ’राधे! राधे!’ रटती
'चोरनी पक्की' नामित गीत में भी आधुनिक वैज्ञानिक पारंपरिक विरासत के सागर में अवगाहन कर रहा है- 
मली बदन पर,
चाकी की धूल केसर
अंग चंदन की सुगंध से महक रहा
अणु भट्टी जले
ताप का ओज छीना
लिजलिजी देह से लावण्य दहक रहा
नखशिख चुरा लिये
मेघदूत-ग्रन्थ से
सोलह शृंगार में कितनी चतुराई।
सामाजिक विसंगतियों से हरिहर जी का कवि अपरिचित नहीं है। वह सृष्टि के आरंभ से पाखण्ड और छल की धारा प्रवाहित होते देखकर ऋषि-मुनियों से हितकर परिणाम की अपेक्षा करता है- 
सृष्टि बनी तब से पाखंडी,
धारा छल की बहे
मनमर्जी को रोक न पाये
कोई कुछ भी कहे
तारे पाप ऋषि-मुनि,
परिणाम कोई हितकर दे। 
'झूमता सावन' में कवि का भिन्न रूप सामने आता है। वह समर्थ को श्रृंगार में लीन और असमर्थ को बेहाल देखकर कहता है-  
झूमता सावन, हिलोरे ले रहा,
भीगता यौवन।
बदली चली सजधज अनोखी,
लुट गई
देह के शृंगार पर;
जग भले बेहाल, बिसात क्या,
बेहोशी के कगार पर;
हरिहर जी के गीतों में त्रेता-द्वापर कालीन पौराणिक मिथक प्रचुरता से प्रयोग हुए हैं। 'शोक में डूबा अशोक ' में कवि प्रश्न करता है- 
जड़-प्रकृति का फूल हूँ,
शोभा बना था केश में
जननि चेतन जगत की,
क्यों बंदिनी के वेश में? 
'संघर्ष से जिसको ना लगे डर' में ऐतिहासिक घ्यातनाओं का साक्षी होता गीतकार अंतत: प्रेण के ढाई अक्षरों की जयकार करता है- 
धर्म की ध्वजा उठाये,
पीटते थे ढोल और डंका बजाते
तलवार चमकी कलम पर,
शास्त्र अपना सत्य और शाश्वत बताते
टक्कर चली विवाद की तो मुस्कराते 
प्रेम के ढाई अच्छर। 
वर्तमान राजनैतिक लम्पटता पर शब्दाघात करने से कवि पीछे नहीं हटता। वह कथनी-ाकरनी के अंतर को इंगित करते हुए नेताओं द्वारा लोक को वादों से ठगते देख व्यंजना के स्वर में कहता है-  
हे राम! कहाँ आवश्यक है
कोई वचन निभाना।
ख्याली लड्डू दो वोटर को
काहे जंगल जंगल सड़ना
हर पिशाच से हो समझौता
काहे खुद लफड़े में पड़ना
हाथ मिला कर राजनीति में
मक्खन खूब उड़ाना।
हरिहर जी आतंकवाद के त्रासदी पर भी प्रहार करते हैं -
डाँवाडोल चित्त सँभले ना,
भयंकर उछल कूद
नागों के जत्थे आतंकी
फैंक गये बारूद
मन की गहराई में पनपे,
विकार हुये खिलाफ
यम, आसन ढीले होने की,
शिकायतें ना माफ
संयम मेरा, एक ना चली
'न्यूटन जी' शीर्षक नवगीत में हरिहर जी का वैज्ञानिक फिर आगे आता है और कामचोरी की मनोवृत्ति पर आगत करता है - 
न्यूटन जी
बैठे
फरमाते,
काम के बराबर प्रतिरोध।
नियम तीसरा सच ही है तो
परिश्रम भला क्यों करना
पिछड़े रह कर भी जी लेंगे
ऐयाशी कर के मरना
प्रगति में झंझट है ज्यादा
प्रतिक्रिया में सारा बोध।
जल प्लावन के दृश्य हवाई जहाज से और दूरदर्शन पर देखकर घड़ियाली आँसू बहाने की मानसिकता पर कवी का शब्दाघात मारक है- 
देख टी वी,
बाढ़ से, मदद में डूबोगे?
बचाने तुम,
स्क्रीन से यहाँ क्या कूदोगे?
मग्न हो तुम,
प्रलय सुख में कामायनी के
रचा लो ना,
श्रद्धा, इड़ा के नृत्य हौले।
देस जंगल, राज है
गिद्धों का, साँप का
देश से दूर रहते हुए भी देश को याद कर उस पर गर्व करनेवाला कवि हरिहर झा शब्दार्चन करता नहीं भूलता- 
माटी में
जिसकी महक रहा,
त्याग और बलिदान
नमन उस देश के आयुध को,
तुझ पर है अभिमान।
तेरे सीने में,
भुजबल में
दिखे कईं हिमालय
गंगा बही हृदय से,
संगम, जन सागर में तय
पार हुई
दुर्गम घाटी की ऊँचाई, ढलान। 
हिंदी नवगीत को एक नई देश देने की कोशिश करते हरिहरि जी 'दुल्हन सी सजीली की हर रचना में वैचारिक मौलिकता और विचारात्मक नवीनता दृष्टव्य है। इन नवगीतों को नवगीत के पारम्परिक ढाँचे और घिसे-पिटे छड़ी स्यापे से मुक्त देखना सुखकर है। नवगीत के नाम पर साम्यवादी गुटबाजी कर रहे मठाधीशों के लिए उन्हें स्वीकारना कठिन होना ही कवि की सफलता है। पहिये क्रांति के, राह उल्टी मनुज की, बन बैठा है क्यों मानव-बम, लहू अब खौलता, सुख की तलाशआदि गीतों में कवि की सहृदयता झलकती और छलकती है। 
नवगीत के प्रसाद की बंद खिड़कियों पर असहमति की थपकी देकर, मौलिकता की ताज़ी हवा से नवजीवन का संचार करते ये नवगीत अपनी राह खुद बना रहे हैं। सामान्य जन जीवन से जुड़े हर पहलू को रचना का विषय बनाया है हरिहर जी ने। 
अकल लगा दे मक्कारी में, पत्थर हैं पोगापंथी, लगे हैं तारनहार, डूब गई लुटिया, दुनिया हैरान, क्यों सभी नाराज़, पीड़ा चुभन की, लू में झुलस गये जैसी रचनाएँ कवि हरिहर जी की स्वतंत्र - सकारात्मक सोच की साक्षी हैं। हिंदी गीतों के उद्यान में नयी कलमें रूप कर उसे समृद्ध करनेवाले, लीक तोड़कर अपनी राह खुद बनानेवाले गीतकार के रूप में हरिहर जी का रचनाकर्म उल्लेखनीय है। मुझे भरोसा है पाठक इन गीतों की नवता को सराहेंगे और हरिहर जी की रचनाधर्मिता अगले संकलन में और भी नई और कई भावमुद्राओं के साथ हिंदी के सारस्वत भंडार को समृद्ध करेगी। उनके ऑस्ट्रेलिया प्रवास में ऑस्ट्रलिया के परिवेश और समाज से जुड़े नवगीत प्रकाश में आएं तो हिंदी पाठक विशेषकर वे जो ऑस्ट्रेलिया नहीं जा सके, का लाभ होगा। संकलन की लोकप्रियता के प्रति विश्वस्त मैं, हरिहर झा जी को मंगलकामनाएँ देता हूँ। 
***
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com 

गीत करवट ले इतिहास

आज विशेष गीत 
करवट ले इतिहास
*

वंदे भारत-भारती
करवट ले इतिहास
हमसे कहता: 'शांत रह,
कदम उठाओ ख़ास

*

दुनिया चाहे अलग हों, रहो मिलाये हाथ
मतभेदों को सहनकर, मन रख पल-पल साथ
देश सभी का है, सभी भारत की संतान
चुभती बात न बोलिये, हँस बनिए रस-खान
न मन करें फिर भी नमन,
अटल रहे विश्वास
देश-धर्म सर्वोच्च है

करा सकें अहसास

*

'श्यामा' ने बलिदान दे, किया देश को एक
सीख न दीनदयाल की, तज दो सौख्य-विवेक
हिमगिरि-सागर को न दो, अवसर पनपे भेद

सत्ता पाकर नम्र हो, न हो बाद में खेद

जो है तुमसे असहमत
करो नहीं उपहास
सर्वाधिक अपनत्व का
करवाओ आभास
*

ना ना, हाँ हाँ हो सके, इतना रखो लगाव
नहीं किसी से तनिक भी, हो पाए टकराव
भले-बुरे हर जगह हैं, ऊँच-नीच जग-सत्य
ताकत से कमजोर हो आहात करो न कृत्य
हो नरेंद्र नर, तभी जब
अमित शक्ति हो पास
भक्ति शक्ति के साथ मिल
बनती मुक्ति-हुलास
(दोहा गीत: यति १३-११, पदांत गुरु-लघु )
***
५-८-२०१९
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तिका

मुक्तिका
बिन सपनों के सोना क्या
बिन आँसू के रोना क्या
*
वह मुस्काई, मुझे लगा
करती जादू-टोना क्या
*
नहीं वफा जिसमें उसकी
खातिर नयन भिगोना क्या
*
दाने चार न चाँवल के
मूषक तके भगोना क्या
*
सेठ जमीनें हड़प रहे
जानें फसलें बोना क्या
*
गिरती हो जब सर पर छत
सोच न घर का खोना क्या
*
जीव न यदि 'संजीव' रहे
फिर होना-अनहोना क्या
*

मुक्तक

मुक्तक
*
आए थे हम अकेले और अकेले जाएँगे।
बीच राह में यारियाँ कर कुछ उन्हें निभाएँगे।।
वादे-कसमें, प्यार-वफ़ा, नातों का क्या बन-टूटें
गले लगाया है कुछ ने, कुछ को गले लगाएँगे।।
*

लघुकथा - राखी / रक्षा बंधन

राखी / रक्षा बंधन
भारत में मनायाजानेवाला अनूठा पर्व, भी-बहिन के निर्मल-निश्छल प्रेम का साक्षी. लिखिए लघुकथा राखी पर, अपने अनुभव-अपनी भावनाओं को पिरोते हुए अपने अंदाज़ में.
श्री गणेश करता हूँ:
लघुकथा
पहल
*
''आपके देश में हर साल अपनी बहिन की रक्षा करने का संकल्प लेने का त्यौहार मनाया जाता है फिर भी स्त्रियों के अपमान की इतनी ज्यादा घटनाएँ होती हैं। आइये! हम सब अपनी बहिन के समान औरों की बहनों के मान-सम्मान की रक्षा करने का संकल्प इस रक्षाबंधन पर लें।''
विदेशी पर्यटक से यह सुझाव आते ही सांस्कृतिक सम्मिलन के मंच पर छा गया मौन, अपनी-अपनी कलाइयों पर रक्षा सूत्रों का प्रदर्शन करते नेताओं, अफ्सरों और धन्नासेठों में कोई भी नहीं कर सका यह पहल।
***
संपर्क salil.sanjiv@gmail.com

रक्षा बंधन के दोहे

रक्षा बंधन के दोहे:
संजीव 'सलिल'
*
चित-पट दो पर एक है, दोनों का अस्तित्व.
भाई-बहिन अद्वैत का, लिए द्वैत में तत्व..
.
दो तन पर मन एक हैं, सुख-दुःख भी हैं एक.

यह फिसले तो वह 'सलिल', सार्थक हो बन टेक..
.
यह सलिला है वह सलिल, नेह नर्मदा धार.

इसकी नौका पार हो, पा उसकी पतवार..
.
यह उसकी रक्षा करे, वह इस पर दे जान.

'सलिल' स्नेह' को स्नेह दे, कर निसार निज जान ..
.
बहिना नदिया निर्मला, भाई घट सम साथ .

नेह नर्मदा निनादित, गगन झुकाये माथ.
.
कुण्डलिनी ने बांध दी, राखी दोहा-हाथ.

तिलक लगाकर गीत को, हँसी मुक्तिका साथ..
.
राखी की साखी यही, संबंधों का मूल.

'सलिल' स्नेह-विश्वास है, शंका कर निर्मूल..
.
सावन मन भावन लगे, लाये बरखा मीत.

रक्षा बंधन-कजलियाँ, बाँटें सबको प्रीत..
.
मन से मन का मेल ही, राखी का त्यौहार.

मिले स्नेह को स्नेह का, नित स्नेहिल उपहार..
.
आकांक्षा हर भाई की, मिले बहिन का प्यार.

राखी सजे कलाई पर, खुशियाँ मिलें अपार..
.
राखी देती ज्ञान यह, स्वार्थ साधना भूल.

स्वार्थरहित संबंध ही, है हर सुख का मूल..
.
मेघ भाई धरती बहिन, मना रहे त्यौहार.

वर्षा का इसने दिया, है उसको उपहार..
.
हम शिल्पी साहित्य के, रखें स्नेह-संबंध.

हिंदी-हित का हो नहीं, 'सलिल' भंग अनुबंध..
.
राखी पर मत कीजिये, स्वार्थ-सिद्धि व्यापार.

बाँध- बँधाकर बसायें, 'सलिल' स्नेह संसार..
.
भैया-बहिना सूर्य-शशि, होकर भिन्न अभिन्न.

'सलिल' रहें दोनों सुखी, कभी न हों वे खिन्न..
...
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', ०७६१ २४१११३१ / ९४२५१८३२४४
२०४ विजय अपार्टमेन्ट नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१

मुक्तक

मुक्तक सलिला-
*
कौन पराया?, अपना कौन?
टूट न जाए सपना कौन??
कहें आँख से आँख चुरा
बदल न जाए नपना कौन??
*
राह न कोई चाह बिना है।
चाह अधूरी राह बिना है।।
राह-चाह में रहे समन्वय-
पल न सार्थक थाह बिना है।।
*
हुआ सवेरा जतन नया कर।
हरा-भरा कुछ वतन नया कर।।
साफ़-सफाई रहे चतुर्दिक-
स्नेह-प्रेम, सद्भाव नया कर।।
*
श्वास नदी की कलकल धड़कन।
आस किनारे सुन्दर मधुवन।।
नाव कल्पना बैठ शालिनी-
प्रतिभा-सलिल निहारे उन्मन।।
*
मन सावन, तन फागुन प्यारा।
किसने किसको किसपर वारा?
जीत-हार को भुला प्यार कर
कम से जग-जीवन उजियारा।।
*
मन चंचल में ईश अचंचल।
बैठा लीला करे, नहीं कल।।
कल से कल को जोड़े नटखट-
कर प्रमोद छिप जाए पल-पल।।
*
आपको आपसे सुख नित्य मिले।
आपमें आपके ही स्वप्न पले।।
आपने आपकी ही चाह करी-
आप में व्याप गए आप, पुलक वाह करी।।
*
समय से आगे चलो तो जीत है।
उगकर हँस ढल सको तो जीत है।।
कौन रह पाया यहाँ बोलो सदा?
स्वप्न बनकर पल सको तो जीत है।।
*
शालिनी मन-वृत्ति हो, अनुगामिनी हो दृष्टि।
तभी अपनी सी लगेगी तुझे सारी सृष्टि।।
कल्पना की अल्पना दे, काव्य-देहरी डाल-
भाव-बिम्बों-रसों की प्रतिभा करे तब वृष्टि।।
*
स्वाति में जल-बिंदु जाकर सीप में मोती बने।
स्वप्न मधुरिम सृजन के ज्यों आप मृतिका में सने।।
जो झुके वह ही समय के संग चल पाता 'सलिल'-
वाही मिटता जो अकारण हमेशा रहता तने।।
*
सीने ऊपर कंठ, कंठ पर सिर, ऊपरवाला रखता है।
चले मनचला. मिले सफलता या सफलता नित बढ़ता है।।
ख़ामोशी में शोर सुहाता और शोर में ख़ामोशी ही-
माटी की मूरत है लेकिन माटी से मूरत गढ़ता है।।
*
तक रहा तकनीक को यदि आम जन कुछ सोचिए।
ताज रहा निज लीक को यदि ख़ास जन कुछ सोचिए।।
हो रहे संपन्न कुछ तो यह नहीं उन्नति हुई-
आखिरी जन को मिला क्या?, निकष है यह सोचिए।।
*
चेन ने डोमेन की, अब मैन को बंदी किया।
पीया को ऐसा नशा ज्यों जाम साकी से पीया।।
कल बना, कल गँवा, कलकल में घिरा खुद आदमी-
किया जाए किस तरह?, यह ही न जाने है जिया।।
*
किस तरह स्मार्ट हो सिटी?, आर्ट है विज्ञान भी।
यांत्रिकी तकनीक है यह, गणित है, अनुमान भी।।
कल्पना की अल्पना सज्जित प्रगति का द्वार हो-
वास्तविकता बने ऐपन तभी जन-उद्धार हो।।
***
salil.sanjiv@gmail.com

नवगीत: नागफनी उग आयी

नवगीत:
नागफनी उग आयी
संजीव
.
हमने
बोये थे गुलाब
क्यों
नागफनी उग आयी?
.
दूध पिलाकर
जिनको पाला
बन विषधर
डँसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था
वे पत्त्थर
धँसते हैं.
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं.
जिनको
जनसेवा
करना था,
वे मेवा
फँकते हैं.
सपने
बोने थे जनाब
पर
नींद कहो कब आयी?
.
सूत कातकर
हमने पायी
आज़ादी
दावा है.
जनगण
का हित मिल
साधेंगे
झूठा हर
वादा है.
वीर शहीदों
को भूले
धन-सत्ता नित
भजते हैं.
जिनको
देश नया
गढ़ना था,
वे निज घर
भरते हैं.
जनता
ने पूछा हिसाब
क्यों
तुमने आँख चुरायी?
.
हैं बलिदानों
के वारिस ये
जमी जमीं
पर नजरें.
गिरवी
रखें छीन
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें.
कमल कर रहा
चीर हरण
खेती कुररी
सी बिलखे.
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं.
गढ़ ही
दे इतिहास नया
अब
‘आप’ न हो रुसवाई.
*
salil.sanjiv@gmail.com
हास्य सलिला:
लाल गुलाब
संजीव
*
लालू जब घर में घुसे, लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया, पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन, नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊँगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
फूल न चौका सम्हालो, मैं जाऊँ बाज़ार
सैंडल लाकर पोंछ दो जल्दी मैली कार.'
****
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कृति विवेचन-
संजीव वर्मा ‘सलिल’ की काव्य रचना और सामाजिक विमर्श
- डॉ. सुरेश कुमार वर्मा
*
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हिंदी जगत् मे साहित्यकार के रूप में संजीव 'सलिल' की पहचान बन चुकी है। यह उनके बहुआयामी स्तरीय लेखन के कारण संभव हो सका है। उन्होंने न केवल कविता, अपितु गद्य लेखन की राह में भी लम्बा रास्ता पार किया है। इधर साहित्यशास्त्र की पेचीदी गलियों में भी वे प्रवेश कर चुके हैं, जिनमें क़दम डालना जोखिम का काम है। यह कार्य आचार्यत्व की श्रेणी का है और 'सलिल' उससे विभूषित हो चुके हैं।
‘काल है संक्रान्ति का’ शीर्षक संकलन में उनकी जिन कविताओं का समावेश है, विषय की दृष्टि से उनका रेंज बहुत व्यापक है। उन्हें पढ़ने से ऐसा लगता है, जैसे एक जागरूक पहरुए के रूप में 'सलिल' ने समाज के पूरे ओर-छोर का मूल्यांकन कर डाला है। उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह सब व्यक्ति की मनोवृत्तियों एवं प्रवृत्तियों के साक्ष्य पर लिखा है और जो कुछ कहा है, वह समाज के विघटनकारी घटकों का साक्षात अवलोकन कर कहा है। वे सब आँखिन देखी बातें हैं। इसीलिए उनकी अभिव्यंजाओं में विश्वास की गमक है। और जब कोई रचनाकार विश्वास के साथ कहता है, तो लोगों को सुनना पड़ता है। यही कारण है कि 'सलिल' की रचनाएँ पाठकों की समझ की गहराई तक पहुँचती है और पाठक उन्हें यों ही नहीं ख़ारिज कर सकता।
'सलिल' संवेदनशील रचनाकार हैं। वे जिस समाज में उठते-बैठते हैं, उसकी समस्त वस्तुस्थितियों से वाक़िफ़ हैं। वहीं से अपनी रचनाओं के लिए सामग्री का संचयन करते हैं। उन्हें शिद्दत से एहसास है कि यहाँ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। पूरे कुँए ही में भाँग पड़ी है। जिससे जो अपेक्षा है, वह उससे ठीक विपरीत चल रहा है। आम आदमी बुनियादी जरूरतों से महरूम हो गया है -
‘रोजी रोटी रहे खोजते / बीत गया
जीवन का घट भरते-भरते/रीत गया।’
-कविता ‘कब आया, कब गया’

‘मत हिचक’ कविता में देश की सियासती हालात की ख़बर लेते हुये नक्लसवादी हिंसक आंदोलन की विकरालता को दर्शाया गया है -
‘काशी, मथुरा, अवध / विवाद मिटेंगे क्या?
नक्सलवादी / तज विद्रोह / हटेंगे क्या?’
‘सच की अरथी’ एवं ‘वेश संत का’ रचनाओं में तथाकथित साधुओं एवं महन्तों की दिखावटी धर्मिकता पर तंज कसा गया है।
'सलिल' की रचनाओं के व्यापक आकलन से यह बात सामने आयी है कि उनकी खोजी और संवेदनशाील दृष्टि की पहुँच से भारतीय समाज और देश का कोई तबका नहीं बचा है और अफसोस कि दुष्यन्त कुमार के ‘इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं ’ की तर्ज पर उन्हें भी कमोबेश इसी भयावह परिदृश्य का सामना करना पड़ा। इस विभाषिका को ही 'सलिल' ने कभी सरल और सलीस ढंग से, कभी बिम्ब-प्रतिबिम्ब शैली में और कभी व्यंजना की आड़ी-टेढ़ी प्रणालियों से पाठकों के सामने रखा, किन्तु चाहे जिस रूप में रखा, वह पाठकों तक यथातथ्य सम्प्रेषित हुआ। यह 'सलिल' की कविता की वैशिष्ट्य है, कि जो वे सोचते हैं, वैसा पाठकों को भी सोचने को विवश कर देते हैं।
अँधेरों से दोस्ती नहीं की जाती, किन्तु आज का आदमी उसी से बावस्ता है। उजालों की राह उसे रास नहीं आती। तब 'सलिल' की कठिनाई और बढ़ जाती है। वे हज़रत ख़िज्र की भाँति रास्ता दिखाने का यत्न करते तो हैं, किन्तु कोई उधर देखना नहीं चाहता-
‘मनुज न किंचित् चेतते / श्वान थके हैं भौंक’।
इतना ही नहीं, आदमी अपने हिसाब से सच-झूठ की व्याख्या करता है और अपनी रची दुनिया में जीना चाहता है - ‘मन ही मन मनमाफ़िक / गढ़ लेते हैं सच की मूरत’। ऐसे आत्मभ्रमित लोगों की जमात है सब तरफ।
'सलिल' की सूक्ष्मग्राहिका दृष्टि ने ३६० डिग्री की परिधि से भारतीय समाज के स्याह फलक को परखा है, जहाँ नेता हों या अभिनेता, जहाँ अफसर हो या बाबू, पूंजीपति हों या चिकित्सक, व्यापारी हों या दिहाड़ी -- सबके सब असत्य, बेईमानी, प्रमाद और आडंबर की पाठशाला से निकले विद्यार्थी हैं, जिन्हें सिर्फ अपने स्वार्थ को सहलाने की विद्या आती है। इन्हें न मानव-मूल्यों की परवाह है और न अभिजात जीवन की चाह। ‘दरक न पाएँ दीवारें’, ‘जिम्मेदार नहीं है नेता’, ‘ग्रंथि श्रेष्ठता की’, ‘दिशा न दर्शन’ आदि रचनाएँ इस बात की प्रमाण हैं।
यह ज़रूर है कि सभ्यता और संस्कृति के प्रतिमानों पर आज के व्यक्ति और समाज की दशा भारी अवमूल्यन का बोध कराती है, किन्तु 'सलिल' पूरी तरह निराश नहीं हैं। वे आस्था और सम्भावना के कवि हैं। वे लम्बी, अँधेरी सुरंग के दूसरे छोर पर रोशनी देखने के अभ्यासी हैं। वे जानते हैं कि मुचकुन्द की तरफ शताब्दियों से सोये हुये लोगों को जगाने के लिए शंखनाद की आवश्यकता होती है। 'सलिल' की कविता इसी शंखनाद की प्रतिध्वनि है।
‘काल है संक्रान्ति का’ कविता संग्रह ‘जाग उठो, जाग उठो’ के निनाद से प्रमाद में सुप्त लोगों के कर्णकुहरों को मथ देने का सामर्थ्य रखती है। अँधेरा इतना है कि उसे मिटाने के लिए एक सूर्य काफी नहीं है और न सूर्य पर लिखी एक कविता। इसीलिए संजीव 'सलिल' ने अनेक कविताएँ लिखकर बार-बार सूर्य का आह्नान किया है। ‘उठो सूरज’, ‘जगो! सूर्य आता है’, ‘आओ भी सूरज’, ‘उग रहे या ढल रहे’, ‘छुएँ सूरज’ जैसी कविताओं के द्वारा जागरण के मंत्रों से उन्होंने सामाजिक जीवन को निनादित कर दिया है।
सामाजिक सरोकारों को लेकर 'सलिल' सदैव सतर्क रहते हैं। वे व्यवस्था की त्रुटियों, कमियों और कमज़ोरियों को दिखाने में क़तई गुरेज नहीं करतेे। उनकी भूमिका विपक्ष की भूमिका हुआ करती है। अपनी कविता के दायरे में वे ऐसे तिलिस्म की रचना करते हैं, जिससे व्यवस्था के आर-पार जो कुछ हो रहा है, साफ-साफ दिखाई दे। वे कहीं रंग-बदलती राजनीति का तज़किरा उठाते हैं -
‘सत्ता पाते / ही रंग बदले / यकीं न करना किंचित् पगले / काम पड़े पीठ कर देता / रंग बदलता है पल-पल में ’।
राजनीति का रंग बदलना कोई नयी बात नहीं, किंतु कुछ ज़्यादा ही बदलना 'सलिल' को नागवार गुजरता है। यदि साधुओं में कोई असाधु कृत्य करता दिखाई देगा, तो 'सलिल' की कविता उसका पीछा करते दिखाई देगी ‘वेश संत का / मन शैतान’।
‘राम बचाये’ कविता व्यापक संदर्भों में अनेक परिदृश्यों को सामने रखती है। नगर से गाँव तक, सड़क से कूचे तक, समाज के विविध वर्णों, वर्गों और जातियों और जमातों की विसंगतियों को उजागर करती करती उनकी कविता ‘राम बचाये’ पाठकों के हृदय को पूरी तरह मथने में समर्थ है। यह उनके सामर्थ्य की पहचान कराती कविता ही है, जो बहुत बेलाग तरीक़े से, क्या कहना चाहिये और क्या नहीं कहना चाहिये, इसका भेद मिटाकर अपनी अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना की बाढ़ में सबको बहाकर ले जाती है।
................................
समीक्षक संपर्क- डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, ८१० विजय नगर, जबलपुर, चलभाष ९४२५३२५०७२।

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

दोहा सलिला

प्रसंग - 
कजलिया, कजलैंया, भुजरिया पर्व  
दोहा सलिला
*
मनोरमा है कजलिया, सलिलज हरित नवास
धरा पुनीता दे फसल, हँसे बबीता श्वास
*
सलिल स्नेह को स्नेह ही, स्नेह सहित उपहार
दें-लें नित बढ़ता रहे, करें विहँस सत्कार
*
धरती माँ धरती सदा, हँस धीरज संतोष 
क्या पाया सोचे नहीं, चुप दे घटे न कोष
*
उगा कजलिया फसल का, करिए खुद अनुमान 
श्रम का फल क्या मिलेगा, जान कीजिए दान
*
हरित-पीत शुभ कजलियाँ, धूप-छाँव ज्यों संग
सुख-दुख सम स्वीकारिए, नित्य नहाएँ गंग
*
तरुण स्वप्न देखे पथिक, कर कर मधुर प्रयास
स्नेह सलिल सिंचन सतत, करे पूर्ण शुभ आस
*
रक्षाबंधन कजलियाँ, संगी भैया दूज
सामाजिक सद्भाव के, पर्व मना प्रभु पूज
*
कृषि मौसम पर्यावरण, सामाजिक सहकार
त्यौहारों का मूल है, मना करें साकार 
*
भेदभाव तज वर सकें, समरसता हम साथ
यही सार त्यौहार का, साथ रखें पग-हाथ
*
शब्द कजलियाँ लीजिए, दें हँस प्यार-दुलार 
बड़े प्रणति आशीष लघु, ग्रहण करें साभार 
*
हिलमिल कर हम मनाएँ, कजलैंया हर साल 
संजीवित हों स्नेह से, साँसें मालामाल
***
संजीव 
4-8-2020