कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 17 मई 2019

दोहा

एक दोहा 
होता रूप अरूप जब, आत्म बने विश्वात्म.
कर शब्दाक्षर वन्दना, देख सकें परमात्म..
*

मुक्तक भारत

मुक्तक भारत 
भारत नहीं झुका है, भारत नहीं झुकेगा.
भारत नहीं रुका है, भारत नहीं रुकेगा..
हम-आप मेहनती हों, हम-आप एक-नेक हों तो-
भारत नहीं पिटा है, भारत नहीं पिटेगा..

कार्यशाला कुण्डलिया

कार्यशाला
दोहा से कुण्डलिया
*
दोहा- आभा सक्सेना दूनवी
पपड़ी सी पपड़ा गयी, नदी किनारे छांव।
जेठ दुपहरी ढूंढती, पीपल नीचे ठांव।।
रोला- संजीव वर्मा 'सलिल'
पीपल नीचे ठाँव, न है इंची भर बाकी
छप्पन इंची खोज, रही है जुमले काकी
साइकल पर हाथी, शक्ल दीदी की बिगड़ी
पप्पू ठोंके ताल, सलिल बिन नदिया पपड़ी

कार्यशाला कुण्डलिया

कार्यशाला
कुण्डलिया
दोहा- आभा सक्सेना
रदीफ़ क़ाफ़िया ढूंढ लो, मन माफ़िक़ सरकार|
ग़ज़ल बने चुटकी बजा, हों सुंदर अशआर||

रोला- संजीव वर्मा 'सलिल'
हों सुंदर अशआर, सजें ब्यूटीपार्लर में।
मोबाइल सम बसें, प्राण लाइक-चार्जर में
दिखें हैंडसम खूब, सुना सुन भगे माफिया
जुमलों की बरसात, करेगा रदीफ-काफिया

बुधवार, 15 मई 2019

वस्तुवदनक छंद


छंद सलिला:
वस्तुवदनक छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल
लक्षण छंद:
वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
पदांत चौकल-द्विकल हो तो शांत हो मन-छवि
उदाहरण:
१. प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर
रविदर्शन कर उड़े परिंदे, चहक-चहक/कर नभ / पर
कलकल-कलकल उतर नर्मदा, शिव-मस्तक / से भू/पर
पाप-शाप से मुक्त कर रही, हर्षित ऋषि / मुनि सुर / नर
२. मोदक लाईं मैया, पानी सुत / के मुख / में
आया- बोला: 'भूखा हूँ, मैया! सचमुच में'
''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
मुझे ज्ञात है पेटू, राज छिपा मोदक में''
३. 'तुम रोओगे कंधे पर रखकर सिर?
सोचो सुत धृतराष्ट्र!, गिरेंगे सुत-सिर कटकर''
बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर *********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सुखदा, सुगति, सुजान, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

सारस छंद


छंद सलिला:
सारस छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति १२-१२, चरणादि विषमक़ल तथा गुरु, चरणांत लघु लघु गुरु (सगण) सूत्र- 'शांति रखो शांति रखो शांति रखो शांति रखो'
विशेष: साम्य- उर्दू बहर 'मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन'
लक्षण छंद:
सारस मात्रा गुरु हो, आदि विषम ध्यान रखें
बारह-बारह यति गति, अन्त सगण जान रखें
उदाहरण:
१. सूर्य कहे शीघ्र उठें, भोर हुई सेज तजें
दीप जला दान करें, राम-सिया नित्य भजें
शीश झुका आन बचा, मौन रहें राह चलें
साँझ हुई काल कहे, शोक भुला आओ ढलें
२. पाँव उठा गाँव चलें, छाँव मिले ठाँव करें
आँख मुँदे स्वप्न पलें, बैर भुला मेल करें
धूप कड़ी झेल सकें, मेह मिले खेल करें
ढोल बजा नाच सकें, बाँध भुजा पीर हरें
३. क्रोध न हो द्वेष न हो, बैर न हो भ्रान्ति तजें
चाह करें वाह करें, आह भरें शांति भजें
नेह रखें प्रेम करें, भीत न हो कांति वरें
आन रखें मान रखें, शोर न हो क्रांति करें
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सुखदा, सुगति, सुजान, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

लघुकथा: प्यार ही प्यार

लघुकथा:
प्यार ही प्यार 
*
'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।' 
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
***

मंगलवार, 14 मई 2019

गीत करो सामना

एक गीति रचना: 
करो सामना
संजीव 
*
जब-जब कंपित भू हुई 
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
***
१३-५-२०१५

नवगीत कुदरत का हिसाब

नवगीत: 
संजीव
*
कुदरत का 
अपना हिसाब है 
.
कब, क्या, कहाँ,
किस तरह होता?
किसको कौन बताये?
नहीं किसी से
कोई पूछे
और न टांग अड़ाये
नफरत का
गायब नकाब है
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
जब जो जहाँ
घटे या जुड़ता
क्रम नित नया बनाये
अटके-भटके,
गिरे-उठे-बढ़
मंजिल पग पा जाए
मेहनत का
उड़ता उकाब है
.
भोजन जीव
जीव का होता
भोज्य न शिकवा करता
मारे-खाये
नहीं जोड़ या
रिश्वत लेकर धरता
पाप न कुछ
सब कुछ
सबाब है.
.*
१४-५-२०१५

गीत देव बचाओ

सामयिक गीति रचना 
देव बचाओ 
संजीव
*
जीवन रक्षक 
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
पाला-पोसा, लिखा-पढ़ाया
जिसने वह समाज पछताये
दूध पिलाकर जिनको पाला
उनसे विषधर भी शर्माये
रुपया इनकी जान हो गया
मोह जान का इन्हें न व्यापे
करना इनका न्याय विधाता
वर्षों रोगी हो पछताये
रिश्ते-नाते
इन्हें न भाते
इनकी अकल ठिकाने लाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
बैद-हकीम न शेष रहे अब
नीम-हकीम डिगरियांधारी
नब्ज़ देखना सीख न पाये
यंत्र-परीक्षण आफत भारी
बीमारी पहचान न पायें
मँहगी औषधि खूब खिलाएं
कैंची-पट्टी छोड़ पेट में
सर्जन जी ठेंगा दिखलायें
हुआ कमीशन
ज्यादा प्यारा
हे हरि! इनका लोभ घटाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
इसके बदले उसे बिठाया
पर्चे कराया कर, नकल करी है
झूठी डिग्री ले मरीज को
मारें, विपदा बहुत बड़ी है
मरने पर भी कर इलाज
पैसे मांगे, ये लाश न देते
निष्ठुर निर्मम निर्मोही हैं
नाव पाप की खून में खेते
देख आइना
खुद शर्मायें
पीर हारें वह राह दिखाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
***
१४-५-२०१५

मुक्तक

मुक्तक सलिला :
संजीव
.
हमसे छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं 
दूर जाते भी नहीं, पास बुलाते भी नहीं 
इन हसीनों के फरेबों से खुदा भी हारा-
गले लगते भी नहीं और लगाते भी नहीं
*
पीठ फेरेंगे मगर मुड़ के फिर निहारेंगे
फेर नजरें यें हसीं दिल पे दिल को वारेंगे
जीत लेने को किला दिल का हौसला देखो-
ये न हिचकेंगे 'सलिल' तुमपे दिल भी हारेंगे
*
उड़ती जुल्फों में गिरफ्तार कभी मत होना
बहकी अलकों को पुरस्कार कभी मत होना
थाह पाओगे नहीं अश्क की गहराई की-
हुस्न कातिल है, गुनाहगार कभी मत होना
*
१४-५-२०१५
*

काव्यांजलि: अमर शहीद कुंवर सिंह

काव्यांजलि:
अमर शहीद कुंवर सिंह
संजीव
*
भारत माता पराधीन लख,दुःख था जिनको भारी
वीर कुंवर सिंह नृपति कर रहे थे गुप-चुप तैयारी
अंग्रेजों को धूल चटायी जब-जब वे टकराये
जगदीशपुर की प्रजा धन्य थी परमवीर नृप पाये
समय न रहता कभी एक सा काले बादल छाये
अंग्रेजी सैनिक की गोली लगी घाव कई खाये
धार रक्त की बही न लेकिन वे पीड़ा से हारे
तुरत उठा करवाल हाथ को काट हँसे मतवारे
हाथ बहा गंगा मैया में 'सलिल' हो गया लाल
शुभाशीष दे मैया खद ही ज्यों हो गयी निहाल
वीर शिवा सम दुश्मन को वे जमकर रहे छकाते
छापामार युद्ध कर दुश्मन का दिल थे दहलाते
नहीं चिकित्सा हुई घाव की जमकर चढ़ा बुखार
भागमभाग कर रहे अनथक तनिक न हिम्मत हार
छब्बीस अप्रैल अट्ठारह सौ अट्ठावन दिन काला
महाकाल ने चुपके-चुपके अपना डेरा डाला
महावीर की अगवानी कर ले जाने यम आये
नील गगन से देवों ने बन बूंद पुष्प बरसाये
हाहाकार मचा जनता में दुश्मन हर्षाया था
अग्निदेव ने लीली काया पर मन भर आया था
लाल-लाल लपटें ज्वाला की कहती अमर रवानी
युग-युग पीढ़ी दर पीढ़ी दुहराकर अमर कहानी
सिमट जायेंगे निज सीमा में आंग्ल सैन्य दल भक्षक
देश विश्व का नायक होगा मानवता का रक्षक
शीश झुककर कुंवर सिंह की कीर्ति कथा गाएगी
भारत माता सुने-हँसेगी, आँखें भर आएँगी
***
१४-५-२०१५

लघुकथा सुधार हरिशंकर परसाई

लघुकथा
सुधार हरिशंकर परसाई * एक जनहित की संस्‍था में कुछ सदस्यों ने आवाज उठाई, 'संस्था का काम असंतोषजनक चल रहा है। इसमें बहुत सुधार होना चाहिए। संस्था बरबाद हो रही है। इसे डूबने से बचाना चाहिए। इसको या तो सुधारना चाहिए या भंग कर देना चाहिए। संस्था के अध्‍यक्ष ने पूछा कि किन-किन सदस्यों को असंतोष है। दस सदस्यों ने असंतोष व्यक्त किया। अध्यक्ष ने कहा, 'हमें सब लोगों का सहयोग चाहिए। सबको संतोष हो, इसी तरह हम काम करना चाहते हैं। आप दस सज्जन क्या सुधार चाहते हैं, कृपा कर बतलावें।' और उन दस सदस्यों ने आपस में विचार कर जो सुधार सुझाए, वे ये थे - 'संस्था में चार सभापति, तीन उप-सभापति और तीन मंत्री और होने चाहिए...' *

लघुकथा कानून के रखवाले

लघुकथा
कानून के रखवाले 
*
'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।'
वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है?"
अन्य श्रोता ने पूछा 'क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा?'
"यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?" चौथा व्यक्ति बोल पड़ा।
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।

१४.५.२०१६
***

गीत वात्सल्य का कंबल

अभिनव प्रयोग:
गीत
वात्सल्य का कंबल
संजीव
*
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
अब मिले सरदार सा सरदार भारत को
अ-सरदारों से नहीं अब देश गारत हो
असरदारों की जरूरत आज ज़्यादा है
करे फुलफिल किया वोटर से जो वादा है
एनिमी को पटकनी दे, फ्रेंड को फ्लॉवर
समर में भी यूँ लगे, चल रहा है शॉवर
हग करें क़ृष्णा से गंगा नर्मदा चंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
मनी फॉरेन में जमा यू टर्न ले आये
लाहौर से ढाका ये कंट्री एक हो जाए
दहशतों को जीत ले इस्लाम, हो इस्लाह
हेट के मन में भरो लव, शाह के भी शाह
कमाई से खर्च कम हो, हो न सिर पर कर्ज
यूथ-प्रायरटी न हो मस्ती, मिटे यह मर्ज
एबिलिटी ही हो हमारा,ओनली संबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
कलरफुल लाइफ हो, वाइफ पीसफुल हे नाथ!
राजमार्गों से मिलाये हाथ हँस फुटपाथ
रिच-पुअर को क्लोद्स पूरे गॉड! पहनाना
चर्च-मस्जिद को गले, मंदिर के लगवाना
फ़िक्र नेचर की बने नेचर, न भूलें अर्थ
भूल मंगल अर्थ का जाएँ न मंगल व्यर्थ
करें लेबर पर भरोसा, छोड़ दें गैंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
(इस्लाम = शांति की चाह, इस्लाह = सुधार)

नवगीत: सूरदास पथदर्शक

नवगीत:
सूरदास पथदर्शक
*
सूरदास 
पथदर्शक हों तो 
आँख खुली रखना
.
कौन किसी का
कभी हुआ है?
किसको फलता
सदा जुआ है?
वही गिरा
आखिर में भीतर
जिसने खोदा
अंध कुआ है
बिन देखे जो
कूद रहा निश्चित
है गिर पड़ना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
चोर-चोर
मौसेरे भाई
व्यापारी
अधिकारी
जनप्रतिनिधि
करते जनगण से
छिप-मिलकर
गद्दारी
लोकतंत्र को
लूट रहे जो
माफ़ नहीं करना.
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
नाग-साँप
जिसको भी
चुनिए चट
डंस लेता है
सहसबाहु
लूटे बिचौलिया
न्याय न
देता है
ज़िंदा रहने
खातिर हँसकर
सीखो मर मरना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
*
१४-५-२०१५

गुरुवार, 9 मई 2019

गार्गीशरण मिश्र 'मराल

डॉ. गार्गी शरण मिश्र मराल के लिए इमेज परिणामस्मृति लेख

हिंदी के बहुमुखी रचनाकार डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल' की सृजन यात्रा : एक झलक 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्ववाणी हिंदी के सृजन संसार को सारस्वत पुस्तक मणियों से समृद्ध करने में सनातन सलिला नर्मदा तट पर  बसे जबलपुर का महत्वपूर्ण योगदान है। आचार्य नंदिकेश्वर, महर्षि जाबाली, महर्षि अगस्त्य, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, महादेव प्रसाद 'सामी', ठाकुर जगमोहन सिंह, कामता प्रसाद गुरु, जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', माखन लाल चतुर्वेदी, महीयसी महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, केशव पाठक, रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी; सेठ गोविन्द दास, ब्योहार राजेंद्र सिंह, ऊषा देवी मित्रा, द्वारिका प्रसाद मिश्र, डॉ. राजबली पांडेय, कलिलाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर', भावनि प्रसाद मिश्र, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', हरिशंकर परसाई, गजानन माधव मुक्तिबोध आदि के प्रतिभा विकास, सृजन सामर्थ्य वृद्धि आदि में जबलपुर और नर्मदा का उल्लेखनीय अवदान रहा है। इसीलिए नर्मदा तट को साधना भूमि तथा गगन तट को सिद्धि क्षेत्र कहा गया है। वर्तमान समय में संस्कारधानी में आखिरी समय तह सारस्वत साधना में निमग्न रहनेवाले व्यक्तित्वों में डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल' का स्थान उल्लेखनीय है। 

अपनी माता चंद्रवती देवी व  पिता डॉ. हरिहरशरण मिश्र 'श्रीहरि' की प्रेरणा से बालक गार्गी शरण को आरम्भ से अपने नाम के अनुरूप भाषा तथा
शिक्षा के परतु अनुराग विरासत में मिला। ४ नवंबर १९३६ को जबलपुर में जन्मे मराल जी ने हिंदी व् अंगरेजी में स्नातकोत्तर, एम्. एड. तथा पीएच. डी. की शिक्षा प्राप्त कर प्राचार्य ुछत्तर माध्यमिक शाला,  जिला शिक्षा अधिकारी, प्राचार्य बी.टी, आई., उपसंचालक शिक्षा, अपर सचिव शालेय शिक्षा, संयुक्त संचालक शिक्षा, प्राचार्य शिक्षा महाविद्यालय जबलपुर, प्राचार्य मनोविज्ञान एवं संदर्शन महाविद्यालय जबलपुर आदि पदों पर सफलतापूर्वक कार्य कर यशार्जन किया।  वे रानी दुर्गावती विश्व विद्यालय जबलपुर में अधिष्ठाता शिक्षा संकाय तथा संचालक शारीरिक शिक्षा तथा सदस्य कार्यकारिणी परिषद जैसे पदों पर भी रहे।  मेरी जानकारी के अनुसार मराल जी ने ८३ वर्षीय जीवन यात्रा में ३१ किया है।  १.परिवर्तन एकांकी संग्रह,  २. उत्सर्ग  नाटक संग्रह, ३. रीति काव्य के शाश्वत तत्व (शोध), ४. पंखुड़ियाँ गीत संग्रह, ५, शिक्षा के विविध आयाम निबंध संग्रह, ६. हमारा देश नाटक, ७. रीतिकाव्य में रहस्यवाद (शोध), ८. जैसे को तैसा (पंचतंत्र की कहानियों का नाट्यांतरण), ९. परिस्थितियों का शीर्षासन निबंध संग्रह, १०. मानव महाकाव्य, ११. संपूर्ण साक्षरता प्रायोजन, १२. पर्यावरण और हमारा दायित्व, १३. छाती का पीपल कवितायेँ, १४. हमारे पथप्रदर्शक (महापुरुषों की जीवनियाँ), १५. शिक्षा की समस्याएं और समाधान निबंध संग्रह, १६. रावण मारा नहीं है निबंध संग्रह, १७. अष्टदल कहानी संग्रह, १८. इंद्रधनुष एकांकी संग्रह, १९. माया खंड काव्य, २०. सर्व धर्म समभाव, २१. पाँचवा पुरुषार्थ निबंध, २२. विश्व के प्रमुख शिक्षा शास्त्री, २३. आधुनिक विज्ञानं और आध्यात्मिकता निबंध संग्रह, २४. इंद्रधनुष एकांकी, २५. यमी प्रबंध काव्य, २६. सर्वधर्म समभाव से सर्वधर्म समन्वय तक निबंध संग्रह, २७. गरीब जनता के आमिर सेवक निबंध संग्रह, २८. टुडे'ज एजुकेशन टुमोरो'ज नेशन (अंग्रजी निबंध संग्रह), २९. मानस मकरंद, ३०. कंस्ट्रक्टिविज़्म इन एजुकेशन तथा ३१.आखिर कब तक हावी रहेगा मैकाले? निबंध संग्रह आदि। 
 'मराल' जी को याद करते समय उनके साहित्य पर चर्चा न हो तो यह अन्याय होगा। इस आलेख में मराल जी  से मुझे स्नेहोपहारवत प्राप्त पुस्तकों की संक्षिप्त चर्चा मुझे आवश्यक प्रतीत होती है। उन पर या इन पुस्तकों के विषयों पर शोधार्थियों के यह जानकारी उपयोगी होगी। मेरे व्यक्तिगत पुस्तकालय में संकलित ७००० पुस्तकों में इनका अपना महत्व है। मराल जी निरंतर लिखते रहे थे, उनका विपुल साहित्य अप्रकाशित है। संभव है कि उक्त के अतिरिक्त भी उनकी कुछ अन्य कृतियाँ हों। पुस्तकों का प्रकाशन क्रम भी भिन्न हो सकता है। दृष्टव्य है की उनकी बहुमुखी प्रतिभा निबंध, नाटक, विवेचनात्मक शोध, कहानी व काव्य के क्षेत्र में एक साथ सृजनरत रही। वे साहित्यिक पत्रकारिता में भी रूचि रखते थे। लगभग ४ वर्षों तक नर्मदा शीर्षक साहित्यिक पत्रिका के संपादन-प्रकाशन में हमने साथ काम किया। मेरी तीसरी कृति काव्य संग्रह 'मीत मैरे की भूमिका मराल जी ने साग्रह लिखी। इस भूमिका में उन्होंने मेरी पूर्व प्रकाशित कृतियों से साम्य और भिन्नता, मेरी तकनीकी, सामाजिक, साहित्यिक, पर्यावरणीय गतिविधियों की चर्चा करते हुए व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रशंसात्मक टिप्पणियां करने के साथ-साथ काव्य की विविध विशेषताओं का सोदाहरण वर्णन किया। इससे उनकी औदार्य वृत्ति, गहन अध्ययन और मूल्यांकन, निष्पक्षता तथा अपने से छोटों को प्रोत्साहित करने की जीवन कला का परिचय मिलता है।  मराल जी' ने अपने शालीन और प्रखर स्वभाव से छोटों ही नहीं अपने से बड़ों से भी प्रशंसा पायी। स्व, हरिकृष्ण त्रिपाठी ने जबलपुर की काव्यधारा तथा स्व. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' ने साहित्यिक गजेटियर जिला जबलपुर में उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर सम्यक प्रकाश डाला है। अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं ने उन पर विशेषांकों का प्रकाशन किया।

१. पंखुड़ियां, मुक्तक गीत संग्रह, वर्ष १९९०, प्रकाशक मदन महल जनरल स्टोर्स, जबलपुर-

छाया नाटक (शैडो प्ले) संग्रह 'उत्सर्ग' (१९८८) के पश्चात् प्रकाशित इस कृति में ६५ गीत संकलित हैं। गीतकार के नाम के साथ 'मराल' उपनाम नहीं जुड़ा है। ये गीत १९७५ से १९८५ के मध्य रचे गए हैं ऐसा संकेत गीतकार ने किया है। तब उनकी आयु ४० वर्ष से ५० वर्ष एक मध्य रही होगी। सभी गीत गेय हैं।

मौन जिसकी साधना है, मैं विजन का एक तृण हूँ
प्राण के इस अश्रु निधि का
कब मिलेगा वह किनारा
डूबते को मिल सके
मुझसे जहाँ कोई सहारा
शून्य है जिस भिन्न का फल, मैं उसी का एक ऋण हूँ

इस काल में गीतकार अध्ययन-अध्यापन से जुड़ा रहा है जिसका संकेत 'भिन्न' से मिलता है। बच्चों के लिए उपयोगी 'आज फिर आया दिवस संदेश दे स्वाधीनता का', 'है आराम हराम साथी', 'कहीं भी देश भारत सा भुवन में हो नहीं सकता', 'हैं पथिक हम सत्य-पथ के, लक्ष्य है ईश्वर हमारा, 'धर्म सभी विकसित हों जिसमें, वह जग है उद्यान हमारा, 'माता का ही प्यार एक दिन, मातृभूमि का प्यार बन गया', 'आओ अपना देश जगाएँ', 'यह भारत देश हमारा है, हम इसको स्वर्ग बनाऐंगे', ''भारत माता के चरणों में हम सब शीश झुकाते हैं ' आदि रचनाओं में राष्ट्रीयता, समाज सुधार तथा सदा जीवन उच्च विचार के आदर्श गांठे गए हैं ताकि इन्हें आत्मसात कर विद्यार्थी अपना जीवन सँवार सकें। गीतों का दूसरा वर्ग स्वतंत्रता पश्चात् स्वप्न भंग होने से जुड़ा है जिनमें  निरंतर समाज और सरकार को सचेत कर कवि ने युग धर्म का निर्वहन किया है। तीसरी भाव भूमि छायावाद से प्रभावित है।  इसगेटों में कवी ने ईश्वर और प्रकृति की चर्चा की है। इस संग्रह के गीतों की भाषा प्रांजल, छंद  निर्दोष तथा शब्द चयन विद्यार्थियों के अनुकूल है। मराल जी स्वयं इन गीतों सस्वर पाठ पूरी तन्मयता से करते थे। विश्व वाणी हिंदी संसथान, समर्पण और अभियान संस्थाओं के पर्यावरणीय कार्क्रमों में विद्यार्थियों के बीच वे इन गीतों को अंत तक सुनाते रहे थे। उनके मन में बैठा शिक्षक नयी पीढ़ी के साथ अपने अनुभव बाँटकर आत्मानन्दित होता था।

२. परिवर्तन, एकांकी संकलन, वर्ष १९९०, प्रकाशक मदन महल जनरल स्टोर्स, जबलपुर-

सात एकांकियों के इस संग्रह का वैशिष्ट्य पात्रों का प्रतीकात्मक होना है। नाटककार ने इन्हें दृश्य काव्य कहा है। पतकात्मक पात्र सामान्य मनुंष्य न होकर किसी भाव या विचार के प्रतिनिधि होते हैं। संकलन का प्रथम एकांकी  बलिदान में समाधिस्थ शिव सोयी हुई जनता के प्रतीक हैं जिसे जगाने के लिए कामदेव रूपी सदाचार अपना बलिदान देता है।  फलत: जनशक्ति 'गौरी' सक्रिय होकर कार्तिकेय के रूप में प्रगट होती है और भ्रष्टाचार रूपी तारकासुर का वध करती है। दूसरे एकांकी 'कूटनीति' कृष्ण-रुक्मिणी जनता और जन-शक्ति के प्रतीक हैं जो अपने में मगन रहते हैं। फलत: सदाचार रूपी सुदामा मृतप्राय हो जाता है। वह कृष्ण के समक्ष उपस्थित होता है तो उन्हें अपना दायित्व याद आता है, वे भरष्टाचार के प्रतीक सुदामा से उसकी रक्षा करते हैं। तीसरे एकांकी 'परिवर्तन' में संयासु बुद्ध का प्रतिक है और अंगुलिमाल भ्रष्टाचार का। चौथे एकांकी 'विश्वसघात राजकुमार उदयसिंह अबोध जनता, बनवीर भ्रष्टाचार और पन्ना दाई सदाचार की प्रतीक है। 'प्रतिहिंसा' शीर्षक  पांचवे एकांके में शिवजी राष्ट्रीयता और आबाजी हिन्दू साम्प्रदायिकता के प्रतीक हैं। \अहिंसा' नाटक में गांधी जी सत्य-अहिंसा के आदर्श और वल्लभ भाई पटेल राष्ट्र के यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं। अंतिम सातवें एकांकी 'सपना' में पूंजीवाद और साम्यवाद के प्रतीक पात्र एक दूसरे को नष्ट करने की चाह रखते हुए  भी समाजवाद के प्रभाव में सहयोगी बन जाते हैं।

मराल जी का सामाजिक चिंतक इस कृति के हर पात्र के रूप में सामने आया है। देश में बढ़ता भ्रष्टाचार उन्हें चिंतित करता है। सामाजिक और राष्ट्रीय फलक पर लुप्त होते आदर्श कैसे पुनर्जीवित होकर नयी पीढ़ी में पुष्पित-पल्लवित हों, यह चिंता हर एकांकी में अन्तर्निहित है। वे 'न दैन्यम न पलायनम' के नीति के समर्थक हैं और 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते  मा फलेषु कदाचन' के ध्येय वाक्य के लिए विविध साधनों को अपनाते मिलते हैं। इन आरंभिक कृतियों में गार्गीशरण जी के व्यक्तित्व में जो तत्व अंकुरित होते दीखते हैं वे उनकी आगामी परिपक्व चिंतनपरक लेखन में पल्लवित-पुष्पित होते मिलते हैं। शोध छात्रों के लिए आरंभिक  कृतियाँ इस दृष्टी से महत्व पूर्ण हैं।

३. हमारा देश, नाटक, वर्ष १९९३, प्रकाशक मदन महल जनरल स्टोर्स, जबलपुर-

ऐतिहासिक सत्यता (हिस्टोरिकल ऑथेंटिसिटी) तथा कल्पनिक सृजन (इमेजिनेटिव क्रिएशन) का संतुलित मिश्रण इस नाटक में है। नाटक का कथ्य  ख्यात हिंदी प्रेमी, नाटककार और सर्वाधिक समय तक एक संसदीय क्षेत्र से सांसद रहने का विश्व रिकॉर्ड बनानेवाले सेठ गोविंददास के जीवन में घटी घटनाओं से प्रेरित हैं। इस नाटक में मनोरंजन के माध्यम से आदर्श की स्थापना पर बल दिया गया है। प्रमाणिकता यह की इसका मंचन स्वयं सेठ गोविंददास और उनके परिवारजनों की उपस्थिति में शालेय छात्रों द्वारा किया गया और नाटककार मराल जी ने स्वयं भी एक  पात्र का अभिनय किया था।

४. रीतिकाव्य में रहस्यवाद, शोध ग्रंथ, वर्ष १९९४, प्रकाशक पूनम प्रकाशन सतना-

यह मिश्र जी का शोध ग्रन्थ है जिसमें नव स्थापना की गयी है। इसके पूर्व आपका प्रथम शोध ग्रन्थ 'रीति काव्य के शाश्वत तत्व' वर्ष १९८९ में  प्रकाशित हुआ किन्तु अनुपलब्ध है। सामान्यत: रीतिकालीन काव्य पर श्रृंगार और विलासिता तक सीमित रहने का रूप लगाया जाता है। इस ग्रन्थ में यह उद्घाटित किया गया है कि रीतिकाव्य में भक्ति और रहस्य अभिन्न अंग हैं।  इस रहस्य भाव अलौकिक तत्व के साथ संबंध स्थापना, लौकिक व्यक्तित्व में अलौकिक अलौकिकता का आरोपण तथा अचेतन में अलौकिक तत्व की उपस्थिति सहज दृष्टव्य है। इस तीनों का भक्ति काल के निर्गुण पंथ में अलौकिक-लौकिक संबंध तथा सगुण पंथ के देवों-देवियों के  साथ विविध प्रसंगों में संगुफन रीतिकाव्य का प्राण है। लेखन ने सफलतापूर्वक स्थापित किया कि रीतिकाव्य केवल लौकिक श्रृंगार काव्य नहीं है, वह भक्तिभाव में ही अपने उत्कृष्ट रूप को प्राप्त करता है। अंतर मात्र यह है की भक्तिकालीन कवि खुद को भक्त पहले कहता है कवि बाद में जबकि रीतिकालीन कवि खुद को कवि पहले कहता है भक्त बाद में।

रीतिकाव्य में रहस्य भावना, रीतिकाव्य में रहस्य भावना का उद्भव और विकास, रीतिकाव्य में रस और रहस्य का संगम, रीतिकाव्य की प्रतीक योजना, रीतिकाव्य की अभिव्यंजना शैली तथा रीतिकाव्य पर किए गए आक्षेप और उनके उत्तर शीर्षक छह अध्यायों में वर्गीकृत २८८ प्रोष्ठीय यह ग्रन्थ मिश्र जी की शोधपरक दृष्टि और नव मूल्य स्थापन सामर्थ्य की मिसाल है। डॉ. मिश्र को इस ग्रन्थ की रचना के लिए विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान द्वारा शान्तिराज हिंदी भूषण सम्मान से सम्मानित किया गया।

५. जैसे को तैसा, नाटक संकलन, वर्ष १९९६

मिश्र की की यह कृति बाल शिक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण पंचतंत्र की कहानियों का नाट्य रूपांतरण है। सकल कृति में बालोचित भाषा तथा संवाद कथानक को  बच्चों के लिए सहज ग्राह्य बना सके हैं। सभी नाटक शालेय स्तर पर सहज मंचनीय हैं।

६. परिस्थितियों का शीर्षासन, संस्मरण-निबंध संकलन, १९९७, विकास प्रकाशन कानपुर-

शिक्षा जगत से ४ दशकों तक विविध पदों पर जुड़े रहने, हर स्तर पर समस्याओं के जूझने और समाधान खोजने की प्रवृत्ति से संपन्न मिश्र जी के २४ निबंध इस संकलन में सम्मिलित हैं। इसके पूर्व  निबंध संग्रह 'शिक्षा के विविध आयाम' चर्चित व् प्रशंसित हुए किन्तु उनकी प्रति उपलब्ध न होने के कारन उन पर चर्चा नहीं कर पा रहा हूँ। 'परिस्थितियों का शीर्षासन' में  सम्मिलित निबंधों के शीर्षों परिस्थितियों का शीर्षासन, विकलांग प्रजातंत्र, चनाव प्रणाली में सुधार, शाला संगम योजना की उपादेयता, खेलकूद के स्तरोन्नयन की समस्या और समाधान, परीक्षा की तैयारी, साक्षरता अभियान, विश्व शांति के लिए शिक्षा, पर्यवेक्षण, पढ़ाई के साथ कमाई, छायावादी काव्य में राष्ट्रीय चेतना, कबीर और बिहारी, वाणी का संयम, अश्पृश्यता का अभिशाप, संगीत, मनोरंजन, मेघदूत, मृत्यु संस्कार एक प्राचीन परंपरा, बचिए अनावश्यक गुस्से से, सुलझ दाम्पत्य और परिवार, महाकवि केशव के व्यक्तित्व और कृतित्व का पुनर्मूल्यांकन, नए वर्ष की चुनौतियां, वाकिंग सेमीनार तथा तुलसी का समन्वयवाद से ही डॉ. मिश्र के बहुआयामी चिंतन तथा लेखन काआभास होता है। वे विषय के मूल में जाकर उसे अच्छी तरह समझकर सोचने-विचारने के बाद ही कलम उठाते थे। पहले विचारों को बिंदुवार लिखते, फिर उनका विस्तार करते और अंत में कुछ दिन बाद फिर पढ़कर संशोधन करते, तब वह सामग्री टंकण या मुद्रण हेतु जाती थी।

७. मानव, महाकाव्य, वर्ष २०००, विकास प्रकाशन कानपुर-

मानव डॉ. मिश्र द्वारा महात्मा गाँधी पर रचित महाकाव्य है। इस कृति में पहली बार 'मराल' उपनाम का प्रयोग किया गया है। इसके पूर्व निबंध संग्रह 'पर्यावरण एवं हमारा दायित्व' प्रकाशित हुआ पर वह मुझे नही मिल नहीं सका। इस कृति में मराल जी ने चरितनायक के जीवन का वर्णन करने के स्थान पर उसके जीवन के उन मोड़ों और चरित्र के उन विशिष्ट बिंदुओं को शब्दित करना रहा है जो एक अतिसामान्य काले, कुरूप मनुष्य को 'महात्मा और 'राष्ट्रपिता' के उच्चतम सोपानों पर प्रतिष्ठित करा सका।  कवी ने गाँधीयुगीन समस्याओं, संघर्षों, प्रमुख घटनाओं, पात्रों आदि का उपयोग गांधी जी के सिद्धांतों, विचारों, प्रयोगों, आचरण, जीवन मूल्यों, आस्थाओं और अडिगताओं को उकेरने के लिए किया है। पूज्य बापू के प्रति, मानव का जन्म, सत्याग्रह, सबातमाती आश्रम, सर्वोदय, असहयोग आंदोलन, फुट की राजनीती, पुण्य स्मरण, मतभेद, विबाद, परीक्षा, संताप, अनशन तथा बलिदान शीर्षकों के अंतर्गत अपने इस एकमात्र महाकाव्य में मराल जी ने दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी के सत्याग्रह संघर्ष, काम से ब्रम्हचर्य की ओर यात्रा, भारत आकर अहिंसा आंदोलन के सूत्रपात, नारी जागरण, सर्वोदय, साबरमती आश्रम का निर्माण और गतिविधियां, विश्वयुद्ध, जलियांवाला बाग़ काण्ड, खिलाफत आंदोलन, चौरीचौरा काण्ड, लाहौर अधिवेशन, डांडी यात्रा, गाँधी- इरविन वार्ता, जिन्ना व अम्बेडकर के विघटनकारी प्रस्तावों पर त्वरित कार्यवाही, जिन्ना का हठ, बा का निधन, हिन्दू-मुस्लिम मतभेद, दो कौम दो राष्ट्र सिद्धांत, मुस्लिम लीग का डायरेक्ट एक्शन, विभाजन, स्वतंत्रता, नोआखाली प्रवास, दिल्ली में अनशन तथा गाँधी जी की हत्या आदि घटना क्रम को अपनी दृष्टि से देखते हुए सर्वथा मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया है। मिश्र जी की गागर में सागर भरने की सामर्थ्य तथा सरल-सहज शब्दावली का प्रयोग करने की प्रवृत्ति का परिचय देती कुछ काव्य पंक्तियों से साक्षात करें-

- विदेशी शोषण से मुक्ति
बापू बोले: लड़ लेगी लंका शायर से खादी
असहयोग सत्याग्रह से तब आएगी आजादी
- नारी जागरण
बोले बापू नवयुग का नेतृत्व करेगी अब नारी
सत्य अहिंसा के प्रयोग की शक्ति उसी में है सारी
- सत्य प्रेम
हम पथिक हैं सत्य पथ के, लक्ष्य है ईश्वर हमारा
क्षणिक भी है, सतत भी है, प्रेम का संसार सारा
- समानता
आत्म एक अनेक होकर कर रहा लीला जगत में
क्यों न फिर पाए अहिंसा मान्यता प्रत्येक मत में
- सत्य प्रेम
सत्य निष्ठां ने जगा दी शक्ति वह सत्याग्रही में
स्वर्ग का आनंद मिलता था उसे बीएस जेल ही में
- बलिदान भाव
देवियाँ झंडे लिए, बलिदान होने को चलीं जब
लग रहा था आगयी हों, इंद्रधनु लें बिजलियाँ तब
- बा की दिव्य छवि
वस्त्र खड़ी के सजे, बा भाल पर बिंदी समेत
वल्लरी थी एक विद्युत् की, सजे परिधान श्वेत
सांप्रदायिक एकता
हिन्दू-मुस्लिम गंगा-जमुना, बापू सरस्वती का संगम
हुई त्रिवेणी नोआखाली, मुक्त पाप से थे जड़-जंगम
- संकल्प
बापू बोले: अनशन का व्रत, आज लिया है मैंने आप
हिन्दू-मुस्लिम मित्र बनें या, मरने दें मुझको चुपचाप
- नव संकल्पना
सत्य-अहिंसा का आधार, लेकर बने विश्व सरकार
सभ्य नागरिक मानव मात्र, नित्य शांति पाए संसार

इस कृति में यथावसर शांत, श्रृंगार, रौद्र, करूँ आदि रसों का संतुलित समन्वय दृष्टव्य है। भूमिकाकार प्रो. जवाहर लाल चौरसिया 'तरूण' के शब्दों में- 'यह वैचारिक आख्यानक प्रबंध काव्य महात्मा गाँधी के विरत्य व्यक्तित्व एवं बहुआयामी कृतित्व के साथ-साथ उस विचार-तत्व तथा भाव-सत्व का मनोरम प्रसादपूर्ण आख्यान-गान है जो मानव-मात्र के कल्याण और मुक्ति के पुरातन ऋषि-चिंतन जनित सत्य-अहिंसा-प्रेम प्रेरित जीवन-आचरण के पुनीत पथ से विश्व को उज्जवल, निर्वैर अमृत भविष्य की मंज़िल तक पहुँचाने का एकमात्र साधन है।'

८. छाती का पीपल, कविता संग्रह, २००२, पाथेय प्रकाशन जबलपुर

वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार डॉ. राजकुमार 'सुमित्र' के शब्दों में- 'काव्य संकलन 'छाती का पीपल' डॉ. मिश्र के मानस का इंद्र धनुष है। उत्तराधिकार में प्राप्त साहित्य, शिक्षा, अध्यात्म, राष्ट्रीयता और सेवा संस्कारों को डॉ. मराल ने पल्लवित-पुष्पित किया है। संकलन की छंद-गंध में रची-बसी अथवा छंद मुक्त कवितायेँ सुकवि मराल जी के दर्शन, ज्ञान और चारित्र का प्रतिफलन है।'

६२ विचार प्रधान कविताओं के इस संकलन में कवि ने सरस्वती वंदना कर सनातन परम्परा का निर्वहन किया है। देश-प्रदेश का गरिमा-गान, गुरुजनों का स्तवन, राष्ट्र पुरुषों का गौरव गान, ईश-भक्ति आदि पर केंद्रित रचनाएँ इस संकलन को पठनीय बनाती हैं। जन संख्या वृद्धि, पर्यावरण प्रदूषण, वन सम्पदा का विनाश व पौधारोपण, अशिक्षा व साक्षरता, हिंदी प्रसार आदि वर्तमान व भावी समस्याओं पर कवि की सजग दृष्टि वैश्विक हिट साधन की ओर उन्मुख रही है। विविध रसों का परिपाक कृति का आकर्षण है। राग-संतोष, आशा-आकाँक्षा, हास्य-विनोद आदि पाठक को बाँधने में समर्थ है। द्विवेदी कालीन चिंतनधारा और आधुनिक समस्याओं के समाधानपरक विचारों का आलोड़न-विलोड़न सुरुचिपूर्ण है। भाव एवं शिल्प की दृष्टि से आस्तिकता, संकल्प, गुलदस्ता, छोटों के बड़े काम, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, मुक्ति का मंत्र, आस्तीन के साँप, एकता की माला, जनभाषा, बाल-साक्षरता, गीतों का उपहार, मानवता की मूर्ती, छाती का पीपल, अथ से इति तक  आदि उल्लेखनीय है। कृति का वैशिष्ट्य दो शिक्षाविदों डॉ. गुलाब चौरसिया तथा देवराज विज के प्रति रची गयी कवितायें हैं।

९. अष्टदल, कहानी संग्रह, २००४, पाथेय प्रकाशन जबलपुर

अष्टदल डॉ. मराल का प्रथम कहानी संग्रह है। इसमें सीमा, गृहणी, घुँघरू, आकाशदीप, दरबारे ख्वाजा, चंद्रलोक, राखी तथा राजनीति का चक्कर शीर्षक ८ कहानियाँ संकलित हैं। मराल जी का सर्जनात्मक साहित्य बहुआयामी है। अष्टदल की कहानियों में कथ्यानुकूल भाषा, देश-काल-परिस्थिति अनुसार पूर्णता तक पहुँचाने की कला, पात्रानुकूल परिवेश का सन्तुलित सम्मिश्रण है। ये कहानियां पूरी तरह सामान्य भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं।

संकलन की पहले कहानी 'सीमा' में शारीरिक सौंदर्य पर मानसिक सौंदर्य की विजय को स्थापित किया गया है। गौरी और कली की तरह एक ही लड़की के दो रूपों सृष्टि कर दहेज़ दानव पर प्रहार किया गया है। दूसरी कहानी 'गृहणी' में विवाह पूर्व कुल, गोत्र, वंश परिचय आदि का महत्त्व प्रतिपादित करने के लिए भाई-बहिन के विवाह की सम्भावना उत्पन्न कर कुशलतापूर्वक मर्यादा की रक्षा की है। 'घुँघरू' शीर्षक कहानी समाज में साक्षरता वृद्धि के बावजूद वैचारिक कूप मण्डूकता न हटने पर केंद्रित है। कहानीकार ने समयानुकूल परिवर्तन की आवश्यकता प्रतिपादित की है। 'पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे' पर खुमने वाले अपनी बेटी को घुँघरू बाँधते भी नहीं देख पाते। इस मानसिक जड़ता पर लेखक शब्द-प्रहार करता है।  'आकाशदीप' कहानी बाल मन को समझते हुए उसे विज्ञान सम्मत जीवन मूल्यों की और उन्मुख करती है। कहानी 'दरबारे-ख्वाज़ा' में मानव मन के दो रूप सामने आते हैं। कहानीकार अहसान फरामोशी तथा निर्मलता दोनों को सामने ला सका है। 'चंद्रलोक' कहानी में शीर्षक के अनुसार रहस्य, रोमांच तथा आश्चर्य के तत्व प्रमुखता से उभारे गए हैं। 'राखी' कहानी  के मूलमें मानव मन में अन्तर्निहित प्रेम के दो रूप हैं। अंतिम कहानी 'राजनीति का चक्कर' में देश में निरंतर बढ़ते प्रदूषित राजनैतिक परिदृष्य को संकेतित किया गया है।

स्त्री विमर्श तथा सामाजिक शोषक के अतिरेकी चित्रण से प्रदूषित कहानी जगत में मराल जी की कहानियाँ अँधेरे में उजाले की तरह हैं। इनके मूल में कहानीकार की अध्यापकीय आदर्शपरक जीवन दृष्टि है। मराल जी ने विशंभर नाथ शर्मा 'कौशिक', सुदर्शन आदि का अनुसरण करते हुए कहानियों में सामान्य भारतीय जीवन को केंद्र में रखा है। कहानीकार ने संकेत किया है कि कुछ कहानियों को फिल्मांकन की दृष्टि से लिखा गया है। मराल जी ने कहानी लेखन में मन-रंजन के साथ शिक्षा को ध्यान में रखा है।

१०. माया, खंड काव्य, २००५, अनुभव प्रकाशन गाज़ियाबाद

माया डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल' का सर्वथा मौलिक खंड काव्य है। आदि शंकराचार्य ने मायावाद (एकमात्र ब्रम्ह ही सत्य और जगत मिथ्या है) को प्रतिपादित करने के लिए 'शंकर दिग्विजय' नाम से महत्वपूर्ण अभियान छेड़ा था। 'प्रथम ग्रासे मक्षिकापाते' के अनुसार मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ में उनकी विदुषी पत्नी शारदा (भारती) को पराजित न कर पाने पर उन्होंने 'प्रेम तत्व' का रहस्य समझा और मिथ्या जगत को 'व्यावहारिक सत्य' के रूप में प्रतिष्ठा दी। माया इसी  प्रेम तत्व कर आधृत खंड काव्य है। सामान्यत: माया का अर्थ धोखा, दाँव, अभिचार, अंर्तजाल, अवास्तविक, मानलीला, भ्रान्ति आदि  से लिया जाता है। मायावाद के प्रवर्तक आचार्य शंकर ने 'ब्रम्ह सत्यं जगन्मिथ्या' का उद्घोष किया। इस सिलसिले में उपजे विवादों और उनके पटाक्षेप पर आधारित है माया अखंड काव्य। शंकर ने भक्ति को नाकारा नहीं, उसके माध्यम से जाना कि व्यक्ति ही ब्रम्ह है। शस्त्रार्थ, परकाया प्रवेश, निष्कर्ष तथा मोक्ष शीर्षक पञ्च सर्गों में लिखित यह कृति अपनी मिसाल आप है।

शिल्प की दृष्टि से माया प्रबंधात्मक शैली में लिखी गई गद्य कविता का अभिनव प्रयोग है। कवी ने विवाद में पड़ने का जोखिम उठाते हुए भी अपने नव शिल्प को काव्य-क्षेत्र में स्थापित करने का साहसिक कदम उठाया है। मराल जी ने इस कथा के जटिलतम प्रसंग परकाया प्रवेश को पूरी कुशलता के साथ इस प्रकारसभदित किया है की वह न तो मन-गढंत लगे, न अश्लील अपितु शालीनता और प्रमाणिकता का संगम हो। शकर-मंडन शास्त्रार्थ में मंडन की पत्नी शारदा ने मध्यस्थता करते हुए शंकर को विजयी घोषित किता तथापि  मंडन की अर्धांगिनी होने के नाते शंकर को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। शंकर ने स्त्री से शास्त्रार्थ न करने की दुहाई दी तो शारदा ने अद्वैत वादी शंकर से पूछ लिया कि क्या यह द्वैत को स्वीकारना नहीं है? शारदा ने प्रेमानंद को अद्वैतानन्द से बढ़कर बताया तो ब्रम्हचारी शंकर ने एक माह का समय लिया और अचेत होते राजा अमरुक की काया में प्रवेश कर उसकी रानी सोम के साथ प्रेम का अनुभव प्राप्त किया हुए फिर अपनी काया में वापिस आ गए। इस प्रसंग की कुछ पंक्तियाँ देखें-
आचार्य शंकर का शरीर
पूर्ववत गुफा के सामने
निश्चेष्ट पड़ा था।
क्रमश: उसमें
ब्रम्हरन्ध्र से पैर के अँगूठे तक
प्राणों का संचार हो गया।
अपने गुरु के शरीर को
पुनः प्राणवान होते देखकर
शिष्य मंडली हर्ष से नाच उठी।
आचार्य शंकर ने सबसे पहले
राजा अमरुक के शरीर को मुक्त किया।
फिर भगवान् यमराज की स्तुति कर उ
से लंबी आयु दिलवाई।
रानी सोमा
इस प्रकार
अपने प्राणप्रिय प्रियतम को प्राप्तकर
पुनः सौभाग्यवती हो गई।

मराल जी ने आद्य शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत प्रसूत मायावाद को कथा के आलम्बन से सर्वग्राह्य बनाते हुए आत्मानंद की पीठिका पर प्रेमानंद को स्थापित करने में सफलता पाई। 'स्वरूपानुसन्धान' को जीवन का एकमेव लक्ष्य घोषित करने वाले आचार्य शंकर ने 'भक्तिरेव गरीयसी' का प्रतिपादन  भी किया। यह मराल जी की कालजयी कृति है।

११. सर्व धर्म समभाव, निबंध संग्रह, वर्ष २००५, पाथेय प्रकाशन जबलपुर

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कवियों की कसौटी गद्य को माना है। गद्य लेखकों की कसौटी निबंध है। निबंध मराल जी की प्रिय विधा है। इसके पूर्व शिक्षा के विविध आयाम, परिस्थितियों का शीर्षासन, रावण मरा नहीं तथा पांचवा पुरुषार्थ चार निबंध संग्रह प्रस्तुत कर चुके मराल जी ने सर्व धर्म समभाव में  १४ निबंध सर्व धर्म समभाव, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, सिक्ख धर्म, प्रश्नोत्तरी, व्यास, महावीर, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद, कबीर व् नानक प्रस्तुत किये हैं। इस कृति की प्रस्तुति का कारण स्वयं लेखन के शब्दों में 'शताब्दियों से साथ रहने के बाद भी भारतवर्ष में विभिन्न धर्मावलम्बी केवल अपने धर्म तक सीमित रहते आए हैं। दूसरे धर्मों की जानकारी प्राप्त करने और उन्हें स्वधर्म के समान ही आदर प्रदान करने की भावना का उन्मेष उनके अंदर नहीं हो पाया। उलटे स्वधर्म को श्रेष्ठ और अन्य धर्मों को हेय समझने का भाव यदा-कदा विभिन्न धर्मावलम्बियों में घर करता गया। इसने कई बार देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र को बिगाड़ा और खूनी संघर्ष की स्थितीत पैदा की।  धर्म परिवर्तन के प्रयास भी जारी रहे। यह स्थिति देश के हे में नहीं है। '

स्पष्ट है कि इस पुस्तक के सभी निबन्ध सब धर्मों के मध्य स्नेह सेतु स्तापनार्थ ही लिखे गए हैं। मानवता, वैश्विकता, राष्ट्रीयता तथा वैयिक्तिकता चारों निकष पर यह कृति उपयोगी है। वास्तव में इसे हर घर और विद्यालय में होना चाहिए।

१२. मानस मकरंद, निबंध संग्रह, वर्ष २०११, पाथेय प्रकाशन, जबलपुर

राम चरित मानस विषयक विविध विषयों पर लिखे गए इस निबंध संकलन के पूर्व मराल जी की संपूर्ण साक्षरता प्रायोजना, पर्यावरण और हमारा दायित्व, हमारे पथ प्रदर्शक, शिक्षा की समस्याएँ और समाधान, इंद्र धनुष आदि कृतियाँ प्रकाश में आ चुकी हैं। विवेच्य कृति मानस मकरंद इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसके ३१  निबंध युगानुकूल सामायिक चिंतन से ओतप्रोत हैं। किसी किशोर या युवा से किसी कृति को पढ़ने के लिए कहा जाए तो वह यही प्रश्न करता है की क्यों पढ़ूं?, क्या लाभ है। इस निबंध संग्रह में निजी, पारिवारिक, समाज, राष्ट्र और विश्व हर दृष्टिकोण से गोसवामी जी और मानस के पात्रों के माध्यम से हर समस्या पर सम्यक विचार किया गया है। मराल जी ने तुलसी साहित्य रूपी उद्यान से विभिन्न रूप-रस-गंध के काव्य कुसुमों का चयन कर सौंदर्य, माधुर्य, रसयुक्त लावण्यरूपी पराग का संचय कर इन निबंधों को मानस मकरंद में संग्रहीत किया है। यह कृति पठनीय ही नहीं मननीय  भी है।

१३. हमारी शिक्षा: दशा और दिशा, वर्ष २००१५, वैभव प्रकाशन, रायपुर

इस कृति के पूर्व हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार मराल जी की विश्व के प्रमुख शिक्षा शास्त्री जीवनी संग्रह, आधुनिक विज्ञानं की आध्यात्मिकता निबंध संग्रह, इंद्रा धनुष एकांकी संग्रह, यमी प्रबंध काव्य, गरीब जनता के अमीर सेवक निबंध संग्रह, कंस्ट्रक्टिविज्म इन एडुकेशन निबंध संग्रह, आखिर कब तक हावी रहेगा मैकाले निबंध संग्रह सहित ३० कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।  शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह पुस्तक  एक वरष्ठ शिक्षाविद की जीवन भर की तपस्या और अनुभवों का सार है। शिक्षा से जुड़े विविध  समस्याओं और उनके व्यावहारिक समाधान पर लिखे गए ये ३६ निबंध शिक्षा जगत के लिए अचार संहिता का कार्य कर सकते हैं। मराल जी ने जीवन के ४ दशक शिक्षा विभाग के विविध पदों पर कार्य करते हुए और सेवानिवृत्ति के पश्चात् २ दशक शिक्षा, साहित्य और समाज से जुड़े विषयों पर चिंतन-मनन और लेखन में लगाए हैं। वास्तव में उन्हें साहित्य अकादमी का अध्यक्ष, कुलपति जैसे किसी पद पर होना चाहिए था किन्तु सर्वभक्षी राजनीति ने मारक जी को समाज को एक-दूसरे से लाभनावित होने का अवसर नहीं दिया। इससे मराल जो को अपने अनुभवों को मूर्त रूप देने का अवसर नहीं मिला तो देश और समाज उनके ज्ञान का लाभ पाने से वंचित हो गया।

प्रस्तुत कृति शिक्षा की दशा और दिशा में मराल जी ने वर्तमान शिक्षा पद्धति के दोषों का दिग्दर्शन कराया है। उनहोंने उसके विकास और सुधर के लिए बहुमूल्य व्यावहारिक सुझाव भी दिए हैं। मराल जी के अनुसार 'आजादी के ६७ साल बाद भी हिंदी को राजभाषा का दर्जा न दिया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। उलटे अंगरेजी माध्यम के विद्यालयों को महत्व देकर देश के छात्र-छात्रों को भारतीय संस्कृति से काटकर पश्चिमी सभ्यता का गुलाम बनाने की साजिश रची जा रही है।  हमारी शिक्षा व्यवस्था में अतिशय विज्ञानप्रियता ने हमारे छात्रों को देश की आत्मा ाधत्यात्मिक्ता से दूर कर दिया है।' वे आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता के संतुलित समन्वय के पक्षधर रहे। मुझे अनेक मंचों पर मराल जी के साथ कई बार विविध विषयों पर बोलने और उन्हें सुनने का सौभाग्य मिला है। मैं अभियंता और वे शिक्षाविद, अनुभव और आयु में बहुत अंतर किन्तु हमारे विचार आश्चर्यजनक रूप से मिलते थे। कई बार आयोजनों के बाद अनौपचारिक चर्चा में वे कहते तुमने यही कैसे सोचा यह तो मैंने अमुक निबद्ध में लिखा है और वह जल्दी ही छपनेवाला है।

१४. उत्तर आधुनिकता और भारत, वर्ष २०१७, पराग प्रकाशन, कानपुर

यह कृति डॉ. मिश्र का बारहवां निबंध संग्रह और बत्तीसवीं कृति है। इस संग्रह में १८ निबंध सम्मिलित हैं जिन्हें पांच वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। १८ साहित्यिक निबंध मैथिली शरण गुप्त का रामकाव्य, हिंदी गीत की विकास यात्रा, हिंदी के आला साहित्यकार निराला, अग्निधर्मी दिनकर, पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र की साहित्य साधना, सेठ गोविंददास एक सफल नाटककार, श्री गिरि मोहन गुरु का काव्य शिल्प, उमाशंकर मिश्र एक अभुआयामि साहित्यकार, हिंदी साहित्याकाश के उज्जवल नक्षत्र डॉ. मुनुवां सिंह चौहान, व्यब्ग्य शिल्पी डॉ. मूलाराम जोशी, व्यंग्य मध्यप्रदेश से, माँ मैं तेरी सोन चिरैया, उतरो ज्योतिर्मय एक समीक्षा, श्यामली एक समीक्षा, आजा का श्रवण कुमार एक समीक्षा, कुछ लोहा कुछ माँ एक समीक्षा, हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की शतकीय विकास यात्रा हैं। आठ सामाजिक निबंध उत्तर आधुनिकता और भारत, रामचरित मानस में दलितोत्थान के आदर्श प्रसंग, अरे इन दोउन राह न पाई, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुखी परिवार की अवधारणा, दलितों के मसीहा बाबा साहेब आंबेडकर, एकता की माला, जनसँख्या विस्फोट जीवन का बोझ, घर सत्संग हैं। पांच राजनैतिक निबंध हिन्द स्वराज एवं गांधी जी की वैचारिक दृष्टि, म. गाँधी का अस्त्र अहिंसा, महेश दत्त मिश्र की दृष्टि में गांधी और विनोबा, प्रो, महेश दत्त मिश्र एक समर्पित गांधीवादी तथा प्रखर पत्रकार डॉ. दवारिका प्रसाद मिश्र हैं। दो धार्मिक निबंध पवनसुत के लंका प्रवास की एकादश उपलब्धियां व् भारतीय संस्कृति की जीवन रेखा गंगा तथा एक भाषायी निबंध हिंदी तथा प्रादेशिक भाषाओँ की वर्तमान स्थिति हैं। इस निबंध संग्रह में मराल जी की चिंतन धारा गतागत के मध्य समन्वय सेतु स्थापित करते हुए भविष्योन्मुखी है।

डॉ.गार्गीशरण मिश्र 'मराल' एक व्यक्ति मात्र  नहीं थे। वे एक संस्था थे। उनका बहुमुखी व्यक्तित्व ऊर्जा का भंडार गृह था। उनका महाप्रस्थान हिंदी के सत्साहित्य की अपूरणीय क्षति है। उनकी ३२ कृतियाँ प्रकाशित हुईं हैं। अनेक कृतियाँ अधलिखी हैं। वे निरंतर साहित्यिक यात्रएं करते रहते थे। यात्रा संसमरण को वे स्पर्श ही नहीं कर पाए। उनके पास एक समृद्ध पुस्तकालय भी था। यह देश, हिंदी और समाज का दुर्भाग्य है कि मेधावी रचनाकार सुविधाओं के अभाव में  वार्धक्य में कांपते हाथों और धुँधुआती दृष्टि के सहारे साहित्य सृजन हेतु विवश होता है। उसे अपनी निजी पूंजी से पुस्तकें प्रकाशित करना होती हैं. दूसरी ओर राजनैतिक विचारधाराओं के प्रतिबद्ध रचनाकार अनेक लाभ प्राप्त करते हैं। उनकी पुस्तकें हाथों हाथ सरकारी प्रतिष्ठानों द्वारा खरीदी जाते हैं।

मराल जी ने कभी समझौते नहीं किये इसलिए वे शासन तंत्र द्वारा समादृत नहीं हो सके। उनका जाना वास्तव में शोचनीय है। यदि उन्हें एक टंकण और प्रकाशन की सुविधा मिल सकी होते तो उनकी कृतियों की संख्या शतक को पार कर सकती थी। वे सिद्धांतों पर दृढ़ रहते थे। उच्च पदों पर रहने के कारण आदेशित करते रहना उनकी सहज वृत्ति थी किन्तु वे श्री फल की तरह ऊपर से कठोर और मन से नरम थे। उनके अवसान से मैंने व्यक्तिगत रूप से अपना अग्रज खो दिया। हम दोनों में अदभूर विचार साम्य और विचार भिन्नता थी। दोनों बहुत लम्बे समय तक साथ करने का अवसर नहीं पा सके किंतु उनका स्नेह वट वृक्ष की छाँह की तरह था। जब मिलते अपनी प्रकाशित पुस्तक की चर्चा करते, आगामी पुस्तक की विषय वस्तु बताते, मिलने का आभास होता तो मेरे लिए पुस्तक की प्रति लाते-देते। उनकी कुछ अन्य पुस्तकें मेरे संकलन में हैं। उनके व्यक्तिगत संकलन की पुस्तकें कही सुरक्षित की जा सकें तो भावी शोधार्थियों के लिए उपयोगी होंगी। उनकी प्रेरणा से ही मैंने छंद कोष का काम आरम्भ किया अब तक ५०० से अधिक नए छंद लिखे जा चुके हैं। वे जब मिलते इसकी प्रगति पूछते। अगले माह सवैया कोष जिसमें २०० से अधिक प्रकार के सवैये हैं, प्रेस में जाना है। इसकी भूमिका उन्हें ही लिखनी थी किन्तु वे लिख पाते इसके पूर्व ही उनका बुलावा आ गया। मारल जी के सृजन संसार की झलक ही उनके स्रूअज के वैविध्य, मौलिकता और उर्वरता की प्रमाण है। उन्हें, उनके सृजन को, उनकी स्मृतियों को नमन।
*********
संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८  


























  

बांगला हिंदी सेतु

एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएं और बरसे जिससे तन - मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इन्द्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना तो आईये आज एक ऐसा ही सुन्दर गीत सुनकर आनन्द लीजिए।
यह सुन्दर बांग्ला गीत लिखा है भानु सिंह ने.. गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्‍म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है - देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं - हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बांसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।

लघुकथा धुँधला विवेक

लघुकथा 
धुँधला विवेक 
संसार में अन्याय, अत्याचार और पीड़ा देखकर संदेह होता है कि ईश्वर नहीं है. जरा से बच्चे को इतनी बीमारियाँ, बेईमानों को सफलता, मेहनती की फाकाकशी देखकर जगता है या तो ईश्वर है ही नहीं या अविवेकी है? - एक ने कहा. 
संसार में आनेवाले और संसार से जानेवाले हर जीव के कर्मों का खाता होता है. ठीक वैसे ही जैसे बैंक में घुसने और बैंक से निकलनेवाले का होता है. कोई खाली हाथ जाकर गड्डियाँ लाता है तो कोई गड्डी ले जाकर खाली हाथ निकलता है. हम इसे अंधेरगर्दी नहीं कहते क्योंकि हम जानते हैं कि कोई पहले जमा किया धन निकाल रहा है, कोई आगे के लिए जमा कर रहा है या कर्ज़ चुका रहा है. किसी जीव की कर्म पुस्तक हम नहीं जानते, इसलिए उसे मिल रहा फल हमें अनुचित प्रतीत होता है.
ईश्वर परम न्यायी और निष्पक्ष है तो वह करुणासागर नहीं हो सकता. कोई व्यक्ति कितना ही प्रसाद चढ़ाए या प्रार्थना करे, अपने कर्म फल से बच नहीं सकता. दूसरे ने समझाया.
ऐसा है तो हर धर्म में पुजारी वर्ग कर्मकांड और पूजा-पाठ क्यों करता है?
पेट पालने के लिए और यजमान को गलत राह पर ले जाता है किसी भी प्रकार राहत पाने की इच्छा और उसका धुंधला विवेक.
***

लघुकथा

लघुकथा
मीठा-मीठा गप्प
*
आपको गंभीर बीमारी है. इसकी चिकित्सा लंबी और खर्चीली है. हम पूरा प्रयास करेंगे पर सफलता आपके शरीर द्वारा इलाज के प्रति की जाने वाली प्रतिक्रिया पर निर्भर है. तत्काल इलाज न प्रारंभ करने पर यह बीमारी बहुत तेजी से फैलती है. तब इसका कोई उपचार संभव नहीं होता. आप निराश न हों, अभिशाप में वरदान यह है की आरम्भ में ही चिकित्सा हो तो यह पूरी तरह ठीक हो जाती है. चिकित्सक अपनी तरफ से मेरा मनोबल बढ़ाने का पूरा - पूरा प्रयास कर रहा था.
मरता क्या न करता? किसी तरह धन की व्यवस्था की और चिकित्सा आरम्भ हुई. मझे ईश्वर से बहुत शिकायत थी कि मैंने कभी किसी का कुछ बुरा नहीं किया. फिर साथ ऐसा क्यों हुआ? अस्पताल में देखा मेरी अपेक्षा बहुत कम आर्थिक संसाधन वाले, बहुत कम आयु के बच्चे, कठिन चिकित्सा प्रक्रिया से गुजर रहे थे. मुझे उनके आगे अपनी पीड़ा बिसर जाती. उनके दुःख से अपना दुःख बहुत कम प्रतीत होता.
अस्पताल प्रांगण में स्थापित भगवान् की मूर्ति पर दृष्टि पड़ी तो लगा भगवान् पूछ रहे हैं मैं निर्मम हूँ या करूँ इसकी जाँच हर व्यक्ति अपने-अपने कष्ट के समय ही क्यों करता है, आनंद के समय क्यों नहीं करता? खुशियाँ तुम्हारे कर्म का परिणाम है तो कष्ट के लिए भी तुम्हारे कर्म ही कारण हैं न?. मैं कुछ पाती इसके पहले ही अपना पल्लू खिंचते देख पीछे मुड़कर देखा. कीमोथिरेपी कराकर बाहर आया वही छोटा सा बच्चा था जिसे मैंने वादा किया था कि बीमारी के कारण उसकी पढ़ाई की हानि नहीं हो इसलिए मुझसे पूछ लिया करे. एक हाथ में किताब लिए पूछ रहा था- इस मुहावरे का अर्थ बताइए 'मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू.'
***