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मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019

नवगीत थोड़ा है

नवगीत:
थोड़ा है
.
बहुत समझ लो
सच, बतलाया
थोड़ा है
.
मार-मार
मनचाहा बुलावा लेते हो.
अजब-गजब
मनचाहा सच कह देते हो.
काम करो,
मत करो, तुम्हारी मर्जी है-
नजराना
हक, छीन-झपट ले लेते हो.
पीर बहुत है
दर्द दिखाया
थोड़ा है
.
सार-सार
गह लेते, थोथा देते हो.
स्वार्थ-सियासत में
हँस नैया खेते हो.
चोर-चोर
मौसेरे भाई संसद में-
खाई पटकनी
लेकिन तनिक न चेते हो.
धैर्य बहुत है
वैर्य दिखाया
थोड़ा है
.
भूमि छीन
तुम इसे सुधार बताते हो.
काला धन
लाने से अब कतराते हो.
आपस में
संतानों के तुम ब्याह करो-
जन-हित को
मिलकर ठेंगा दिखलाते हो.
धक्का तुमको
अभी लगाया
थोड़ा है
*

लेख शिव-शक्ति

चिंतन 
शिव, शक्ति और सृष्टि 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में वर्णित एक दृष्टान्त के अनुसार शिव निद्रालीन थे. शिव के साथ क्रीड़ा (नृत्य) करने की इच्छा लिये शक्ति ने उन्हें जाग्रत किया. आरंभ में शिव नहीं जागे किन्तु शक्ति के सतत प्रयास करने पर उग्र रूप में गरजते हुए क्रोध में जाग्रत हुए. इस कारण उन्हें रूद्र (अनंत, क्रोधी, महाकाल, उग्ररेता, भयंकर, क्रंदन करने वाला) नाम मिला। शिव ने शक्ति को देखा, वह शक्ति पर मोहित हो उठ खड़े हुए. शक्ति के प्रेम के कारण वे शांत होते गये. उन्होंने दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) का रूप लिया जिसे लिंग (स्वगुण, स्वभाव, विशेषता, रूप) कहा गया.

शिव कोई सशरीर मानव या प्राणी नहीं हैं. शिव का अर्थ है निर्गुण, गुणातीत, अक्षर, अजर, अमर, अजन्मा, अचल, अज्ञेय, अथाह, अव्यक्त, महाकाल, अकर्ता आदि. शिव सृष्टि-कर्ता भी हैं. शक्ति सामान्य ताकत या बल नहीं हैं. शक्ति का अर्थ आवेग, ऊर्जा, ओज, प्राण, प्रणोदन, फ़ोर्स, एनर्जी, थ्रस्ट, त्रिगुणा, माया, प्रकृति, कारण आदि है. शिव अर्थात “वह जो है ही नहीं”। जो सुप्त है वह होकर भी नहीं होता। शिव को हमेशा श्याम बताया गया है. निद्रावस्था को श्याम तथा जागरण को श्वेत या उजला कहकर व्यक्त किया जाता है.
शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. इस मत में ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में कर उसे शक्ति कहा गया है. शक्ति के आनंदभैरवी, महाभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि नाम भी हैं.
विज्ञान सृष्टि निर्माण के कारक को बिग-बैंग कहता है और भारतीय दर्शन शिव-शक्ति का मिलन. विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे डार्क मैटर और डार्क इनर्जी की भूमिका है. योग और दर्शन के अनुसार डार्क मैटर (शिव) और डार्क एनर्जी (महाकाली) का मिलन ही सृष्टि-उत्पत्ति का कारण है. स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच संबंध (लिंक) है. पहले वे इन्हें भिन्न मानते थे अब अभिन्न कहते हैं. विज्ञान के अनुसार डार्क मैटर और डार्क इनर्जी के मिलन से एक विस्फोट नहीं विस्फोटों की श्रृंखला उत्पन्न होती है. क्या यह विस्फोट श्रंखला जागकर क्रुद्ध हुए शिव के हुंकारों की ध्वनि है?
वैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में समूची सृष्टि दीर्घवृत्ताभ आकार के विशाल गैस पिंड के रूप में गर्जना कर रही थी. धीरे-धीरे वह गैसीय पिंड ठंडा होता गया. शीतल होने की प्रक्रिया के कारण इस जगत की रचना हुई. योग कहता है कि जब शक्ति ने शिव को जगा दिया तो वह गुस्से में दहाड़ते हुए उठे। वह कुछ समय के लिये रूद्र बन गये थे. शक्ति को देखकर उनका गुस्सा ठंडा हुआ. शक्ति पर मोहित होकर वह दीर्घवृत्ताभ बन गये, जिसे लिंग कहा गया.
वैज्ञानिक बड़ा धमाकों के बाद की स्थिति एक खंभे की तरह बताते हैं, जिसमें ऊपर के सिरे पर छोटे-छोटे मशरूम लगे हैं. यह ठीक वैसा है जैसा योग-विद्या में बताया गया है. सृष्टि दीर्घवृत्त के आकार में है, जो ऊष्मा, गैसों के फैलाव और संकुचन तथा उनके द्रव्यमान की सघनता पर निर्भर है. इसका ज्यादातर हिस्सा खाली है जिसमें द्रव्य कण, तारे, ग्रह और आकाशीय पिंड बिखरे हुए हैं। सम्भवत:ज्यादातर चीजें अब तक आकार नहीं ले सकी हैं।
विज्ञान जो बात अब समझा है, उसे दर्शन बहुत पहले समझा चुका था। यह शरीर भी वैसे ही है, जैसे कि यह संपूर्ण सृष्टि। पेड़ के तने में बने छल्लों से पेड़ के जीवन-काल में धरती पर घटित हर घटना का ज्ञान हो सकता है. मानव शरीर में अन्तर्निहित ऊर्जा से साक्षात हो सके तो ब्रह्मांड के जन्म और विकास की झाँकी अपने भीतर ही मिल सकती है।
संदर्भ: 
१. 
२. बृहत् हिंदी कोष सं. कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव 
३. समान्तर कोष, अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार
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हाइकु शिव

हाइकु:
संजीव 
*
हर-सिंगार 
शशि भभूत नाग 
रूप अपार
*
रूप को देख
धूप ठिठक गयी
छवि है नयी
*
झूम नाचता
कंठ लिपटा सर्प
फुंफकारता
*
अर्धोन्मीलित
बाँके तीन नयन
करें मोहित
*
भंग-भवानी
जटा-जूट श्रृंगार
शोभा अपार
*

शिव भजन

नवगीत:
संजीव
.
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.

नवगीत

नवगीत: 
संजीव
.
उम्र भर 
अक्सर रुलातीं 
हसरतें.
.
इल्म की
लाठी सहारा
हो अगर
राह से
भटका न पातीं
गफलतें.
.
कम नहीं
होतीं कभी
दुश्वारियाँ.
हौसलों
की कम न होतीं
हरकतें.
नेकनियती
हो सुबह से
सुबह तक.
अता करता
है तभी वह
बरकतें
२५.२.२०१५
*

फागुन की फागें

लेख:
भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
.
भारत विविधवर्णी लोक संस्कृति से संपन्न- समृद्ध परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों की है। ऋतु परिवर्तन पर उत्सवधर्मी भारतीय जन गायन-वादन और नर्तन की त्रिवेणी प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों के पकने के समय के सूचक भी हैं। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायणी होते हैं इस महाद्वीप में दिन की लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता है। सूर्य पूजन, गुड़-तिल से निर्मित पक्वान्नों का सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकांनंद की अभिव्यक्ति सर्वत्र देख जा सकती है।मकर संक्रांति, खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व सकल देश में मनाया जाता है।
पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकाकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास नर्मदांचली बुन्देल भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा, शिवात्मजा, शिवसुता, शिवप्रिया, शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों के साथ-साथ शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गयी जाना स्वाभाविक है।
बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केशराशि पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं:
ईसुरी राधा जी के कानों में झूल रहे तरकुला को उन दो तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के सौंदर्य के आगे फीके फड़ गए हैं:
कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके
ईसुरी की आराध्या राधिका जी सुंदरी होने के साथ-साथ दीनों-दुखियों के दुखहर्ता भी हैं:
मुय बल रात राधिका जी को, करें आसरा की कौ
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ
पटियाँ कौन सुगर ने पारी, लगी देहतन प्यारी
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसे कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी
कवि पूछता है कि नायिका की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने बनायी हैं? चोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हैं और आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका के शीश के ऊपर श्यामल मेघों की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुनदरता को देखा है उनकी जान निकली जा रही है।
ईसुर की नायिका नैनों से तलवार चलाती है:
दोई नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूंघट की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे
तलवार का वार तो निकट से ही किया जा सकता है नायक दूर हो तो क्या किया जाए? क्या नायिका उसे यूँ ही जाने देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका निगाहों को बरछी से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है:
छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी भौंह मरोरन
नोंकदार बरछी से पैंने, चलत करेजे फोरन
नायक बेचारा बचता फिर रहा है पर नायिका उसे जाने देने के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी कातिल निगाहों को पिस्तौल बना लेती है:
अँखियाँ पिस्तौलें सी करके, मारन चात समर के
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के
इतने पर भी ईसुरी जान हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का गुबखान करते नहीं अघाते:
जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला कैसी कलियाँ
ना हम देखें जमत जमीं में, ना माली की बगियाँ
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ
लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई नहीं रह सकता।
जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो
ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और कौन कर सकता है?
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी
ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ की सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं:
जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने
ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है।
रचना विधान:
ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, ३, ५, ७ ) में १६ तथा सम चरण (२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी मिलती हैं। ये फागें छंद प्रभाकर के अनुसार महाभागवत जातीय नरेंद्र छंद में निबद्ध हैं। इस छंद में खड़ी हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए:
किस चतुरा ने छोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं सांस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी
नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए:
बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे
*

नवगीत

नवगीत:
संजीव
.
हमने 
बोये थे गुलाब 
क्यों
नागफनी उग आयी?
.
दूध पिलाकर
जिनको पाला
बन विषधर
डँसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था
वे पत्त्थर
धँसते हैं.
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं.
जिनको
जनसेवा
करना था,
वे मेवा
फँकते हैं.
सपने
बोने थे जनाब
पर
नींद कहो कब आयी?
.
सूत कातकर
हमने पायी
आज़ादी
दावा है.
जनगण
का हित मिल
साधेंगे
झूठा हर
वादा है.
वीर शहीदों
को भूले
धन-सत्ता नित
भजते हैं.
जिनको
देश नया
गढ़ना था,
वे निज घर
भरते हैं.
जनता
ने पूछा हिसाब
क्यों
तुमने आँख चुरायी?
.
हैं बलिदानों
के वारिस ये
जमी जमीं
पर नजरें.
गिरवी
रखें छीन
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें.
कमल कर रहा
चीर हरण
खेती कुररी
सी बिलखे.
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं.
गढ़ ही
दे इतिहास नया
अब
‘आप’ न हो रुसवाई.
२६.२.२०१५
*

लेख ईसुरी की फागें

शोध लेख: बुन्देली लोकरंग की साक्षी : ईसुरी की फागें
संजीव वर्मा 'सलिल'
.
बुंदेलखंड के महानतम लोककवि ईसुरी के काव्य में लोकजीवन के सांस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक पक्ष पूरी जीवन्तता और रचनात्मकता के साथ उद्घाटित हुए हैं।  ईसुरी का वैशिष्ट्य यह है कि वे तथाकथित संभ्रांतता या पांडित्य से कथ्य, भाषा, शैली आदि उधार नहीं लेते। वे देशज ग्रामीण लोक मूल्यों और परम्पराओं को इतनी स्वाभाविकता, प्रगाढ़ता और अपनत्व से अंकित करते हैं कि उसके सम्मुख शिष्टता-शालीनता ओढ़ती सृजनधारा विपन्न प्रतीत होने लगती है। उनका साहित्य पुस्तकाकार रूप में नहीं श्रुति परंपरा में सुन-गाकर सदियों तक जीवित रखा गया। बुंदेलखंड के जन-मन सम्राट महान लोककवि ईसुरी की फागें वाचिक (गेय) परंपरा के कारण लोक-स्मृति और लोक-मुख में जीवित रहीं।  संकलनकर्ता कुँवर श्री दुर्ग सिंह ने १९३१ से १९४१ के मध्य इनका संकलन किया। श्री इलाशंकर गुहा ने धौर्रा ग्राम (जहाँ ईसुरी लंबे समय रहे थे) निवासियों से सुनकर फागों का संकलन किया। अपेक्षाकृत कम प्रचलित निम्न फागों में ईसुरी के नैसर्गिक कारयित्री प्रतिभा के साथ-साथ बुंदेली लोक परंपरा हास्य एवं श्रृंगारप्रियता के भी दर्शन होते हैं:
कृष्ण-भक्त ईसुरी वृंदावन की माटी का माहात्म्य वर्णन करते हुए उसे देवताओं के लिए भी दुर्लभ बताते हैं:
अपनी कृस्न जीभ सें चाटी, वृंदावन की माटी
दुरलभ भई मिली ना उनखों, देई देवतन डाटी
मिल ना सकी अनेकन हारे, पावे की परिपाटी
पायो स्वाग काहू ने नइयाँ, मीठी है की खाटी
बाही रज बृजबासिन ‘ईसुर’, हिसदारी में बाटी
कदम कुञ्ज में खड़े कन्हैया राहगीरों को रास्ता भुला देते हैं, इसलिए पथिक जमुना की राह ही भूल गये हैं अर्थात जमुना से नहीं जाते। किसी को भुला कर मजा लेने की लोकरीत को ईसुरी अच्छा नहीं मानते और कृष्ण को सलाह देते हैं कि किसी से अधिक हँसी अच्छी नहीं होती।
आली! मनमोहन के मारें, जमुना गेल बिसारें
जब देखो जब खड़ो  कुञ्ज में, गहें कदम की डारें
जो कोउ भूल जात है रस्ता, बरबस आन बिगारें
जादा हँसी नहीं काऊ सें, जा ना रीत हमारें
‘ईसुर’ कौन चाल अब चलिए, जे तौ पूरी पारें
रात भर घर से बाहर रहे कृष्ण को, अपनी सफाई में कुछ कहने का अवसर मिले बिना ‘छलिया’ का खिताब देना ईसुरी के ही बस की बात है:
ओइ घर जाब मुरलियाबारे!, जहाँ रात रये प्यारे
हेरें बाट मुनइयां बैठीं, करें नैन रतनारे
अब तौ कौनऊँ काम तुमारो, नइयाँ भवन हमारे
‘ईसुर’ कृष्ण नंद के छौना, तुम छलिया बृजबारे
फागुन हो और राधा फगुआ न खेलें, यह कैसे हो सकता है? कृष्ण सेर हैं तो राधा सवा सेर। दोनों की लीलाओं का सजीव-सरस वर्णन करते हैं ईसुरी मानो साक्षात् देख रहे हों। राधा ने कृष्ण की लकुटी-कमरिया छीन ली तो कृष्ण ने राधा के सिर से सारी खींच ली। इतना ही होता तो गनीमत थी... होली की मस्ती चरम पर हुई तो राधा नटनागर बन गयी और कृष्ण को नारी बना दिया:
खेलें फाग राधिका प्यारी, बृज खोरन गिरधारी
इन भर बाहू बाँस को टारो, उन मारो पिचकारी
इननें छीनीं लकुटि मुरलिया, उन छीनी सिर सारी
बे तो आंय नंद के लाला, जे बृषभान दुलारी
अपुन बनी नटनागर ‘ईसुर’, उनें बनाओ नारी
अटारी के सीढ़ी चढ़ते घुँघरू नि:शब्द हो गए। फूलों की सेज पर बनवारी की नींद लग गई, राधा के आते ही यशोदा के अनाड़ी बेटे की बीन (बाँसुरी) चोरी हो गयी। कैसी सहज-सरस कल्पना है:
चोरी गइ बीन बिहारी की, जसुदा के लाल अनारी की
जामिन अमल जुगल के भीतर, आवन भइ राधा प्यारी की
नूपुर सबद सनाके खिंच रये, छिड़िया चड़त अटारी की
बड़ी गुलाम सेज फूलन की लग गइ नींद मुरारी की
कात ‘ईसुरी’ घोरा पै सें, उठा लई बनवारी की
कृष्ण राधा और गोपियों के चंगुल में फँस गये हैं. गोपियों ने अपने मनभावन कृष्ण को पकड़कर स्त्री बनाए का उपक्रम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कृष्ण की बनमाला और मुरली छीनकर सिर पर साड़ी उढ़ा दी गई।  राधा ने उन्हें सभी आभूषणों से सजाकर कमर में लँहगा पहना दिया और सखियों के संग फागुन मनाने में लीन हो गई हैं।  श्रृंगार और हास्य का ऐसा जीवंत शब्द चित्र ईसुरी ही खींच सकते हैं:
पकरे गोपिन के मनभावन, लागी नार बनावन
छीन लई बनमाल मुरलिया, सारी सीस उड़ावन
सकल अभूषन सजे राधिका, कटि  लँहगा   पहरावन
नारी भेस बना के ‘ईसुर’, फगुआ लगी मगावन
ईसुरी प्रेमिका से निवेदन करा रहे हैं कि वह अपने तीखे नयनों का वार न करे, जिरह-बख्तर कुछ न कर सकेंगे और देखे ही देखते नयन-बाण दिल के पार हो जाएगा। किसी गुणी वैद्य की औषधि भी काम नहीं आएगी, ईसुरी के दवाई तो प्रियतमा का दर्शन ही है। प्रणय की ऐसी प्रगाढ़ रससिक्त अभिव्यक्ति अपनी मिसाल आप है:
नैना ना मारो लग जैहें, मरम पार हो जैहें
बखतर झिलम कहा का लैहें, ढाल पार कर जैहें
औषद मूर एक ना लगहै, बैद गुनी का कैहें
कात ‘ईसुरी’ सुन लो प्यारी, दरस दबाई दैहें
निम्न फाग में ईसुरी नयनों की व्यथा-कथा कहते हैं जो परदेशी से लगकर बिगड़ गए, बर्बाद हो गए हैं। ये नयना अंधे सिपाही हैं जो कभी लड़कर नहीं हारे, इनको बहुत नाज़ से काजल की रेखा भर-भरकर पाला है किन्तु ये खो गए और इनसे बहते आँसुओं की धार से नई की नई साड़ी भीग गई है। कैसी मार्मिक अभिव्यक्ति है:
नैना परदेसी सें लग कें, भये बरबाद बिगरकें
नैना मोरे सूर सिपाही, कबऊँ ना हारे लरकें
जे नैना बारे सें पाले, काजर रेखें भरकें
‘ईसुर’ भींज गई नई सारी, खोवन अँसुआ ढरकें
श्रृंगार के विरह पक्ष का प्रतिनिधित्व करती यह फाग ईसुरी और उनकी प्रेमिका रजऊ के बिछड़ने की व्यथा-कथा कहती है:
बिछुरी सारस कैसी जोरी, रजो हमारी तोरी
संगे-संग रहे निसि-बासर, गरें लिपटती सोरी
सो हो गई सपने की बातें, अन हँस बोले कोरी
कछू दिनन को तिया अबादो, हमें बता दो गोरी
जबलो लागी रहै ‘ईसुरी’, आसा जी की मोरी
शैल्पिक विवेचन 
ईसुरी की ये फागें श्रृंगार के मिलन-विरह पक्षों का चित्रण करने के साथ-साथ हास्य के उदात्त पक्ष को भी सामने लाती हैं। इनमें हँसी-मजाक, हँसाना-बोलना सभी कुछ है किन्तु मर्यादित, कहीं भी अश्लीलता का लेश मात्र भी नहीं है। ईसुरी की ये फागें 28 मात्रिक यौगिक जातीय छंदों में रची गई हैं।  इनमें 16-12  पर यति का ईसुरी ने पूरी तरह पालन किया है।  सम चरणान्त में गुरु-गुरु (सार छंद), लघु-गुरु तथा लघु-लघु हैं किंतु गुरु लघु  नहीं है। एक फाग में 4, 5 या 6 तक पंक्तियाँ मिलती हैं।  एक फाग की सभी पंक्तियों में सम चरणान्त समान  है जबकि विषम चरणान्त में लघु-गुरु का कोई बंधन नहीं है। 
अभिनव प्रयोग 
मैंने अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' ईसुरी के फागों में प्रयोग हुए छंद को लेकर कुछ  नवगीत कहे हैं। 16-12  पर यति रखते हुए 28 मात्रिक छंद यौगिक जातीय सार छंद में एक नवगीत का अंश देखिए- 
जब लौं आग न बरिहै तब लौं                                                                                                                                           
ना मिटहै अंधेरा।                                                                                                    
सबऊ करो कोसिस                                                                                                  
मिर-जुर खें                                                                                                              
बन सूरज पग-फेरा।  
.
कौनऊ बारो चूल्हा-सिगरी                                                                                     
कौनऊ ल्याओ पानी                                                                                              
राँध-बेल रोटी हम सेंकें                                                                                               
खा रओ नेता ज्ञानी।                                                                                              
झारू लगा आज लौं काए                                                                                              
मिल खें नईं खदेरा ?                                                                                                    
जब लौं आग न बरिहै तब लौं                                                                                       
ना मिटहै अंधेरा। 
*                                                               

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                                                                                ​    ​(संजीव वर्मा 'सलिल')
                      सभापति 
                        विश्ववाणी हिंदी संस्थान ​
                                                                          ​204  विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
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कुंडली पूर्णिमा बर्मन संजीव सलिल

रचना एक : रचनाकार दो
वासंती कुंडली
दोहा: पूर्णिमा बर्मन
रोला: संजीव वर्मा
*
वसंत-१
ऐसी दौड़ी फगुनहट, ढाँणी-चौक फलाँग।
फागुन झूमे खेत में, मानो पी ली भाँग।।
मानो पी ली भाँग, न सरसों कहना माने।
गए पड़ोसी जान, बचपना है जिद ठाने।।
केश लताएँ झूम लगें नागिन के जैसी।
ढाँणी-चौक फलाँग, फगुनहट दौड़ी ऐसी।।
*
वसंत -२
बौर सज गये आँगना, कोयल चढ़ी अटार।
चंग द्वार दे दादरा, मौसम हुआ बहार।।
मौसम हुआ बहार, थाप सुन नाचे पायल।
वाह-वाह कर उठा, हृदय डफली का घायल।।
सपने देखे मूँद नयन, सर मौर बंध गये।
कोयल चढ़ी अटार, आँगना बौर सज गये।
*
वसंत-३
दूब फूल की गुदगुदी, बतरस चढ़ी मिठास।
मुलके दादी भामरी, मौसम को है आस।।
मौसम को है आस, प्यास का त्रास अकथ है।
मधुमाखी हैरान, लली सी कली थकित है।।
कहे 'सलिल' पूर्णिमा, रात हर घड़ी मिलन की।
कथा कही कब जाए, गुदगुदी डूब-फूल की।।
*

दोहा सलिला

दोहा सलिला
ट्रस्टीशिप सिद्धांत लें, पूँजीपति यदि सीख
सबसे आगे सकेगा, देश हमारा दीख
*
लोकतंत्र में जब न हो, आपस में संवाद
तब बरबस आते हमें, गाँधी जी ही याद
*
क्या गाँधी के पूर्व था, क्या गाँधी के बाद?
आओ! हम आकलन करें, समय न कर बर्बाद
*
आम आदमी सम जिए, पर छू पाए व्योम
हम भी गाँधी को समझ, अब हो पाएँ ओम
*
कहें अतिथि की शान में, जब मन से कुछ बात
दोहा बनता तुरत ही, बिना बात हो बात
*
समय नहीं रुकता कभी, चले समय के साथ
दोहा साक्षी समय का, रखे उठाकर माथ
*
दोहा दुनिया का सतत, होता है विस्तार
जितना गहरे उतरते, पाते थाह अपार
*

मुक्तिका

एक व्यंग्य मुक्तिका 
*
छप्पन इंची छाती की जय 
वादा कर, जुमला कह निर्भय
*
आम आदमी पर कर लादो
सेठों को कर्जे दो अक्षय
*
उन्हें सिर्फ सत्ता से मतलब
मौन रहो मत पूछो आशय
*
शाकाहारी बीफ, एग खा
तिलक लगा कह बाकी निर्दय
*
नूराकुश्ती हो संसद में
स्वार्थ करें पहले मिलकर तय
*
न्यायालय बैठे भुजंग भी
गरल पिलाते कहते हैं पय
*
कविता सँग मत रेप करो रे!
सीखो छंद, जान गति-यति, लय
***
२६-२-२०१८

समीक्षा: यादें बनीं लिबास

कृति चर्चा:
दोहों में प्रणय-सुवास: यादें बनी लिबास 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: यादें बनीं लिबास, दोहा संग्रह, डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', प्रथम संकरण, २०१७, आई.एस.बी.एन. ९७८-८१-७६६७-३४६-४, पृष्ठ १०४ मूल्य २००/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, आकर २१ सेमी x  १४ सेमी,भावना प्रकाशन, १०९-ए पटपड़गंज दिल्ली ११००९२, दूरभाष ९३१२८६९९४७, दोहाकार संपर्क ११२ सराफा, मोतीलाल नेहरू वार्ड,  निकट कोतवाली जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २६५२०२७, ९३००१२१७०२] 
*
बाँच सको तो बाँच लो आँखों का अखबार दोहा हिंदी ही नहीं बहुतेरी भारतीय भाषाओँ का कालजयी सर्वाधिक लोकप्रिय ही नहीं लोकोपयोगी छंद भी है। हर काल में दोहा कवियों की काव्याभिव्यक्ति का समर्थ माध्यम रहा है। आदिकाल (१४०० सदी से पूर्व) चंदबरदाई आदि कवियों ने रासो काव्यों में वीर रस प्रधान दोहों की रचना कर योद्धाओं को पराक्रम हेतु प्रेरित किया। भक्तिकाल (१३७५ से ११७०० ई. पू.) में निर्गुण भक्ति धारांतर्गत ज्ञानाश्रयी भाव धारा के कबीरनानकदादूदयालरैदासमलूकदास, सुंदरदासधर्मदास आदि ने तथा प्रेमाश्रयी भाव धारा के  मलिक मोहम्मद जायसीकुतुबनमंझनशेख नबीकासिम शाहनूर मोहम्मद आदि ने आध्यात्मिक भाव संपन्न दोहे प्रभु-अर्पित किए। सगुण भावधारा की रामाश्रयी शाखा में  तुलसीदासरत्नावलीअग्रदासनाभा दासकेशवदासहृदयरामप्राणचंद चौहानमहाराज विश्वनाथ सिंहरघुनाथ सिंह आदि ने  कृष्णाश्रयी शाखा के  सूरदासनंददास,कुम्भनदासछीतस्वामीगोविन्द स्वामीचतुर्भुज दासकृष्णदासमीरारसखानरहीम के साथ मिलकर दोहा को इष्ट के प्रति समर्पण का माध्यम बनाया।  रीतिकाल (१७००-१९०० ई. पू.  मे केशव, बिहारीभूषणमतिरामघनानन्दसेनापति आदि ने मुख्यत: श्रृंगार तथा आलंकारिकता की अभिव्यक्ति करने के लिए दोहा को सर्वाधिक उपयुक्त पाया। आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात) छायावादीप्रगतिवादीप्रयोगवादी और यथार्थवादी युग में पारम्परिक हिंदी छंदों की उपेक्षा का शिकार दोहा भी हुआ। नव्योत्तर काल (१९८० ईस्वी के पश्चात) में तथाकथित प्रगतिवादी कविता से मोह भंग होने के साथ-साथ आंग्ल साहित्य के अनुकरण की प्रवृत्ति भी घटी। अंतरजाल पर हिंदी भाषा और साहित्य को नव प्रतिष्ठा मिली। गीत और दोहा फिर उत्कर्ष की ओर अग्रसर हुए। 

सनातन सलिला नर्मदा के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ कवि डॉ. राजकुमार तिवारी सुमित्र का काव्य प्रवेश लगभग १९५० में हुआ। शिक्षक तथा पत्रकार रहते हुए आपने  कलम को तराशा। पारिवारिक संस्कार, अध्ययन वृत्ति तथा साहित्यकारों की संगति ने उम्र के साथ अध्ययन और सृजन के क्षेत्र में उन्हें गहराई और ऊँचाई की ओर बढ़ते रहने की प्रेरणा दी। दोहा संग्रह ''यादें बनीं लिबास'' में यत्र-तत्र ही नहीं सर्वत्र व्याप्ति है उनकी जिन्होंने कवी के जीवन में प्रवेश कर उसे पूर्णता प्रदान की, जो जाकर भी जा न सकी, जिसकी उपस्थिति की प्रतीति कवि को पल-पल होती है। उसे उपस्थित मानते ही अनुपस्थिति अपना अस्तित्व बताने लगती है और तब उसकी संगति के समय की यादें कवि-मन को उसी तरह आवृत्त कर लेती हैं जैसे लिबास तन को ढाँकता है। शीर्षक की सार्थकता पूरी कृति में उसी तरह अनुभव की जा सकती है जैसे बगिया में सुमन-सुरभि। प्रेम, रूप-सौंदर्य, देह-दर्शन, नयन, स्वप्न, वसंत, सावन, फागुन आदि अनेक शीर्षकों के अंतर्गत सहेजे गए दोहे कहे-अनकहे उन्हीं के लिए कहे गए हैं जो विदेह होकर भी जानना छाती हैं कि उनका स्मरण सायास है या अनायास? उन्हें निश्चय ही संतुष्टि होगी यह जानकर कि जब स्मृतियाँ अभिन्न हों तो लिबास बन जाती हैं, तब याद नहीं करना पड़ता। 
याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास। 
अपना तो ये हाल है, यादें बनीं लिबास।। 

जिसने आजीवन शैया से उठाकर धरा पर पग रखने से आरंभ कर धरा को छोड़ शैया पर जाने तक पल-पल रीति-रिवाजों का पालन मन-प्राण से किया ही उसे स्मृतियों के दोहांजलि समर्पित करने के पूर्व  ईश स्मरण की विरासत की रीति न निभाकर उपालंभ का अवसर नाराज कैसे करें अग्रजवत सुमित्र जी। 'वीणापाणि स्तवन' तथा 'प्रार्थना के स्वर' शीर्षकांतर्गत पाँच-पाँच दोहों से शब्द ब्रम्ह आराधना का श्री गणेश कर बिना कहे कह दिया कि तुम्हारी जीवन पद्धति से ही जीवन जिया जा रहा है।  -
वाणी की वरदायिनी, दात्री विमल विवेक। 
सुमन अश्रु अक्षर करें, दिव्योपम अभिषेक।।

सुमित्र जी 'रस' को 'काव्य' ही नहीं 'जीवन' का भी 'प्राण' मानते हैं। वे जानते-मानते हैं की प्रकृति बिना पुरुष भले ही वह परम् पुरुष हो, सृष्टि की रचना नहीं कर सकता।    
रस ही जीवन-प्राण है, सृष्टि नहीं रसहीन। 
पृथ्वी का मतलब रसा, सृष्टि स्वयं रसलीन।।   

सामान्यत: प्रकृति के समर्पण की गाथा कवी लिखते आये हैं किन्तु सत्य यह भी है समर्पण तो पुरुष भी करता है। इस सत्य की प्रतीति और अभिव्यक्ति सुमित्र ही कर सकता है, स्वामी नहीं-
साँसों में हो तुम बसे, बचे कहाँ हम शेष। 
अहम् समर्पित कर दिया, और करें आदेश।।

कृति में श्रृंगार का इंद्रधनुष विविध रंगों और छटाओं का सौंदर्य बिखरता है। संयोग (रूप ज्योति की दिव्यता) तथा वियोग (तुम बिन दिन पतझर लगें, यादें बनीं लिबास) बिना देखे दिख जाने की तरह सुलभ है।  

निर्गुण श्रृंगार को कबीरी फकीरी के बिना जीना दुष्कर है किंतु सुमित्र जी सांसारिकता का निर्वाह करते हुए भी निर्गुण को सगुण में पा सके हैं- 
निराकार की साधना, कठिन योग पर्याय। 
योग शून्य का शून्य में, शून्य प्रेम संकाय।।

सगुण श्रृंगार को लिखना तलवार पर धार की तरह है। भाव जरा डगमगाया कि मांसलता की राह से होते हुए नश्वरता और क्षण भंगुरता की नियति का शिकार हो जाता है जबकि कोई 'चाहक' अपनी 'चाह' को  अकाल काल कवलित होते नहीं देखना चाहता। सुमित्र का तन की बात करते हुए भी मन को रंगारंग रखकर 'नट-कौशल' का परिचय देते हुए बच निकलते हैं- 
अनुभव होता प्रेम का जैसे जलधि तरंग। 
नस नस में लावा बहे, मन में रंगारंग।।  

शिक्षक (टीचर नहीं) रहकर बरसों सिखाने के पूर्व सीखने की नर्मदा में बार-बार डुबकी लगा चुके कवि का शब्द-भंडार समृद्ध होना स्वाभाविक है। वह संस्कृत निष्ठ शब्दों( उच्चार, विन्यास, मकरंद, कुंतल, सुफलित, ऊर्ध्वमुख, तन्मयता, अध्यादेश, जलजात, मनसिज, अवदान, उत्पात, मुक्माताल,  शैयाशायी, कल्याणिका, द्युतिमान, विन्यास,  तिष्यरक्षिता, निर्झरी, उत्कटता आदि) के साथ  देशज शब्दों (गैल, अरगनी, कथरी, मजूर, उजास, दहलान, कुलाँच, कातिक, दरस-परस, तिरती, सँझवाती, अँकवार आदि) का प्रयोग पूरी सहजता के साथ करता है। यही नहीं आंग्ल शब्दों (वैलेंटाइन, स्वेटर, सीट, कूलर, कोर्स, मोबाइल, टाइमपास, इंटरनेटी आदि) यथा स्थान सही अर्थों में प्रयोग करते हुए भी उससे चूक नहीं होती। कवि  का पत्रकार समाज में प्रचलित अन्य भाषाओँ के शब्द संपदा से सुपरचित होने के नाते उन्हें पूरी उदारता के साथ यथावसर प्रयोग करता है।अरबी (मतलब, इबादत, तासीर, तकदीर, सवाल, गायब, किताब, कंदील, मियाद,  ख़याल, इत्र, फरोश, गलतफहमी, उम्र, करीब, सलीब, नज़ीर, सफर, शरीर, जिला आदि), फ़ारसी (आवाज़, ज़िंदगी, ख्वाब, जागीर, बदर) शब्दों को प्रयोग करने में भी कवि को कोई हिचक नहीं है। अरबी 'जिला' और फ़ारसी 'बदर' को मिलाकर 'जिलाबदर', उम्र (अरबी) और दराज (फारसी) का प्रयोग करने में भी कवि कोताही नहीं करता। स्पष्ट है कि कवि खैरात की उस भाषा का उपयोग कर रहा है जिसे आधुनिक हिंदी कहा जाता है, वह भाषिक शुद्धता के नाम पर  भाषिक साम्प्रदायिकता का पक्षधर नहीं है।  यहाँ उल्लेखनीय है कि आंग्ल शब्द 'लेन्टर्न' का हिंदीकृत रूप   'लालटेन' भी कवि को स्वीकार है।

अलंकार संपन्नता इस दोहा संग्रह का वैशिष्ट्य है। अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, श्लेष, संदेह  आदि अलंकार यत्र-तत्र पूरी स्वाभाविकता सहित प्रयुक्त हुए हैं।  कुछ अलंकारों के एक-एक उदाहरण देखें। दोहा छंद में अन्त्यानुप्रास आवश्यक होता है, अत: वह सर्वत्र है ही। छेकानुप्रास अधरों पर रख बाँसुरी, और बाँध भुजपाश / नदी आग की पी गया, फिर भी बुझी न प्यास, वृत्यानुप्रास (चंचल चितवन चंद्रमुख, चारु चंपई चीर / चौंक चकित चपला चले, चले चाप चौतीर), श्रुत्यानुप्रास ( नींद निगोड़ी बस गई, जाकर उनके पास / धीरे-धीरे कह गई, निर्वासन इतिहास) , लाटानुप्रास (संजीवन की शक्ति है, प्यार प्यार बस प्यार)  तथा पुनरुक्ति प्रकाश (आँखों आँखों दे दिया / मन का चाहा दान) की छटा मोहक है।

वृत्नुयाप्रास  काबू का प्रिय अलंकार है-
मुख मयंक, मंजुल मुखर, मधुर मदिर मुस्कान। 
मन-मरल मोहित मुदित, मनसिज मुक्त मान।।
सुमुखि सलौनी सांवरी, सुखदा सुषमा सार।
सुरभित सुमन सनेह सर, सपन सरोज संवार।।
चंचल चितवन चन्द्रमुख, चारु चंपई चीर। 
चौंक चकित चपला चले, चले चाप चौतीर।।

सभंग मुख यमक (कहनी अनकहनी सुनी, भरते रहे हुंकार ) तथा अभंग गर्भ यमक (बालों में हैं अंगुलियाँ, अधर अधर के पास) दृष्टव्य हैं।

उपमा के १६ प्रकारों में से कुछ की झलक देखें- धर्म लुप्तोपमा (नयन तुम्हारे वेद सम),  उपमेय लुप्तोपमा (हिरन सरीखी याद है, चौपाई सी चारुता), धर्मोपमेय लुप्तोपमा (अनुप्रास सी नासिका, उत्प्रेक्षा सी छवि-छटा, अक्षर से लगते अधर, मन महुआ सा हो गया)।

यमक अलंकार दोहा दरबार में हाजिरी बजा रहा है-वेणु वेणुधर की बजी,  रेशम रेशम तो कहा, हुई रेशमी शाम। /  रेशम रेशम सुन कहा, रेशम किसका नाम।। आदि। 

श्लेष भी छूटा नहीं है, यहाँ खेत द्विअर्थी है -
सपने बोये खेत में, दी आँसू की खाद।
जब लहराती है फसल, तुम आते हो याद।।

रूपक की छवि मत्तगयंदी चाल लख, काया रस-आगार आदि में है।
कुंतल मानो काव्य घन में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
संदेह अलंकार जाग रही है आँख या जाग रही है पीर, मुख सरोज या चन्द्रमा में है।  

कवि अपनी प्रेयसी में सर्वत्र अलंकारों का सादृश्य देखता है- 
यमक सरीखी दृष्टि है, वाणी श्लेष समान। 
अतिशयोक्ति सी मधुरता, रूपक सी मुस्कान।। 
 
विरोधाभास अलंकार 'शब्दों का है मौन व्रत', 'एकाकी संवाद' आदि में है। 

दोहे जैसी देह, अनुभव होता प्रेम का, जैसे जलधि तरंग, कोलाहल का कोर्स, यादों के स्तूप, फूल तुम्हारी याद के, कोलाहल का कोर्स, आँखों के आकाश, आँखों का अखबार, पलक पुराण आदि सरस् अभिव्यक्तियाँ पाठक को बाँधती हैं।

कवि ने शब्द युग्मों (रंग-बिरंग, भाषा-भूषा, नदी-नाव, ऊंचे-नीचे, दरस-परस, तन-मन, हर्ष-विषाद, रात-दिन, किसने-कब-कैसे आदि) का प्रयोग कुशलता से लिया है।

इन दोहों में शब्दावृत्ति (धीरे-धीरे कह गई, प्यार प्यार बस प्यार,  देख-देखकर विकलता, आँखों-आँखों दे दिया, अभी-अभी जो था यहाँ, अभी-अभी है दूर, सच्ची-सच्ची बताओ, महक-महक मेंहदी कहे, मह-मह करता प्यार, खन-खन करती चूड़ियाँ,  उखड़ी-उखड़ी साँस, सुंदर-सुंदर दृश्य हैं, सुंदर-सुंदर लोग,  सर-सर चलती पवनिया, फर-फर उड़ते केश, घाटी-घाटी गूँजती, उजली-उजली धूप, रात-रात भर जागता, कभी-कभी ऐसा लगे, सूना-सूना घर मगर, मन-ही-मन, युगों-युगों की प्यास, अश्रु-अश्रु में फर्क है आदि) माधुर्य और लालित्य वृद्धि करती है।    

ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोहों की रचना भिन्न काल तथा मन:स्थितियों में हुई तथा मुद्रण के पूर्व पाठ्य शुद्धि में सजगता नहीं रखे जा सकी। इससे उपजी त्रुटियाँ खीर में कंकर की तरह बदमजगी उत्पन्न करती हैं। अनुनासिक तथा अनुस्वार सम्बन्धी त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ अन्य दोष भी हैं। 

दोहे के विषम चरण में १४ मात्रा होने का या अधिकत्व दोष पर्वत हो जाएंगे, प्रेम रंग में जो रंगी, डूब गए मंझधार में, बहुरूपिया बन आ गया आदि में है। सम चरण में १२ मात्रा का मात्राधिक्य दोष  जीवन का एहसास, पी गई कविता प्यास आदि में है। सम चरण में न्यूनत्व दोष रूपराशि अमीतिया  १२ मात्रा में है।

आँखों के आकाश में, घूमें सोच-विचार में तथ्य दोष है चूँकि सोच-विचार आँख नहीं मन की क्रिया है। 

अपवाद स्वरुप पदांत दोष भी है। ऐसा लगता नवोदितों के लिए काव्य दोषों के उदाहरण रखे गए हैं। इन्हें काव्य दोष शीर्षक के अंतर्गत रखा जाता तो उपयोगी होता।
ओर-छोर मन का नहीं, छोटा है आकाश।
लघुतम निर्मल रूप है, जैसे किरन उजास।।
संशय प्रिय करना नहीं, अर्पित जीवन पुण्य।
जनम-जनम तक प्रीती यह, बनी रहे अक्षुण्य।।
मन का विद्यापीठ में लिंग दोष, अक्षुण्य (अक्षुण्ण), रूचता (रुचता) अदि में  टंकण दोष है।

औगुनधर्मी, मधुवंती, मधुता, पवनिया आदि नव प्रयोग मोहक हैं। 
  
पत्रकार रहा कवि अख़बार, खबर (बाँच सको तो बाँच लो आँखों का अखबार, शरणार्थी फागुन हुआ, यही ख़बर है आज)  और चर्चा (फागुन की चर्चा करो) की अर्चा न करे, यह कैसे संभव है?
 
कवि  स्मरण  वैशिष्ट्य-
सुमित्रजी ने कई दोहों में कवियों का स्मरण स्थान-स्थान पर इस तरह किया है कि वह मूल कथ्य के साथ संगुफित होकर समरस हो गया है, आरोपित नहीं प्रतीत होता- 
कालिदास का कथाक्रम, तेरा ही संकेत। 
पृथ्वी का मतलब रसा, सृष्टि स्वयं रसलीन।।
पारिजात विद्योत्तमा, कालिदास वनगन्ध।
हो दोनों का मिलन जब मिटे द्वैत की धुंध।। 
मन मोती यों चुन लिया,  जैसे चुने मराल।
मान सरोवर जिंदगी मन हो गया मराल। 
रूप-धूप है सिरजती, घनानंद रसखान।। 
ले वसंत से मधुरिमा, मन होता रसखान।। 
मन के हाथों बिक गए, कितने ग़ालिब-मीर।।
पलक पुलिन अश्रुज तुहिन, पुतली पंकज भान।
नयन सरोवर में बसें, साधें सलिल समान।।
खुसरो ने दोहे कहे, कहे कबीर कमाल।
फिर तुलसी ने खोल दी, दोहों की टकसाल।।
गंग वृन्द दादू वली, या रहीम मतिमान।
दोहों के रसलीन से कितने हुए इमाम।।
किन्तु बिहारी की छटा, घटा न  पाया एक।।
तुलसी सूर कबीर के, अश्रु बने  इतिहास।
कौन कहे मीरा कथा, आँसू का उपवास।।
घनानंद का अश्रुधान, अर्पित कृष्ण सुजान।
उसी अहज़रु की धार में, डूबे थे रसखान।।
आँसू डूबी साँस से, रचित ईसुरी फाग।
रजऊ ब्रम्ह थी जीव थी, ऐसा था अनुराग।।
आंसू थे जयदेव के, ढले गीत गोविन्द।
विद्यापति का अश्रुदल, खिला गीत अरविन्द।।

सारत: 'यादें बनी लिबास' सुमित्र जी के मानस पटल पर विचरते विचार-परिंदों के कलरव का गुंजन है जो दोहा की लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, नव्यता, माधुर्य तथा संप्रेषणीयता के पंचतत्वों का  सम्यक सम्मिश्रण कर काव्यानंद की प्रतीति कराती है। पठनीय, मननीय तथा संग्रहणीय कृति से हिंदी के सारस्वत कोष की अभिवृद्धि हुई है।
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संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेन्ट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४, अणुडाक: salil.sanjiv@gmail.com  
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नवगीत: गुरु जी हैं लघुकथा

नवगीत
*
गुरु जी हैं लघुकथा
चेले जी उपन्यास
*
काया लघु
छाया का शतगुण विस्तार
कौन कहे
कल्पना का क्या आकार
सच से बच
गढ़ रहे कैसा संसार?
रास रचा
बोल रहे यह है सन्यास
गुरु जी हैं लघुकथा
चेले जी उपन्यास
*
पाने की
आशा में; खोते हैं प्राप्त
झूठे दुख
ओढ़ लिखें; रचनाएँ शाप्त
आलोचक
आपन मुँह; कहे हमीं आप्त
कांता से कांत भीत
भोगें संत्रास
गुरूजी हैं लघुकथा
चेले जी उपन्यास
*
स्यापा कर
झूठमूठ; कहते युग-सत्य
कथ्य गौड़
कहन मुख्य; करते दुष्कृत्य
पैसे द्
माँग-माँग मानित हों नित्य
शूर्पणखा
गर्वित कर; मोहक विन्यास
गुरु जी हैं लघुकथा
चेले जी उपन्यास
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संवस
२६-२-२०१९

सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

रचना आमंत्रण

रचनाएँ आमंत्रित।
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समय सीमा: प्रथम अंक हेतु अपनी रचनाएँ 28 फरवरी, 2019 तक भेज दीजिए। इसके बाद आप दूसरे अंक हेतु भी रचनाएँ भेज सकते हैं।

प्रथम अंक का लोकार्पण अप्रैल, 2019 में किया जाएगा। यह पत्रिका प्रिंट और ईबुक दोनों रूपों में प्रकाशित होगी।

यह पत्रिका अमेज़न और गूगल के अतिरिक्त विभिन्न महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय डिजिटल लाईब्रेरियों में भी उपलब्ध रहेगी।

त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका सरस्वती मञ्जूषा के प्रथम अंक हेतु निम्नलिखित विधाओं में रचनाएँ आमंत्रित हैं:

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12 साहित्यिक गतिविधियाँ

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विश्वेश्वरैया

क्या यह संभव है?


भारत रत्न सर विश्वेश्वरैया मैसूर राज्य के दीवान थे। अपने दौरे के बीच किसी गाँव में कैम्प कर अपना काम निबटा रहे थे। कुछ दे बात उन्होंने उठकर अपने सामान में से मोमबत्ती निकाल कर जलाई और पहले से जल रही माँ बत्ती बुझाकर कुछ लिखने लगे। लेखन समाप्त होने पर किसी ने पूछा मोमबत्ती तो पहले से जल रही थी, अपने दूसरी मोमबत्ती जलाकर पहली क्यों बुझाई? पहली मोमबत्ती में ही लिख लेते।

एम्.वी. ने उत्तर दिया पहली मोमबत्ती सरकारी है, उसे जलाकर सरकारी काम कर रहा था। वह ख़तम होने पर घर पर समाचार देने के लिए पत्र लिखना था, वह निजी काम करने में सरकारी मोमबत्ती कैसे जलाता? दूसरी मोमबत्ती मेरी व्यक्तिगत है इसलिए उसे जलाकर व्यक्तिगत कार्य किया। 

आज के समय में क्या यह संभव है?
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संवस 

शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

नवगीत- सुनो राम जी स्व. कुमार रवींद्र

थाती: 
ये रचना कुमार रवींद्र की अन्तिम दो रचनाओं में से एक है जिसे मैं उनके मित्रों के अवलोकनार्थ डाल रही हूँ। यह रचना २२ दिसम्बर को लिखी गई है। - सरला रवीन्द्र
गुनो नये संतों की बानी
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सुनो राम जी
गुनो नये संतों की बानी
विश्वहाट वे बड़के राजा के सँग जाते
और लौटकर उसके गुन वे घर-घर गाते
कहते-
बदलेंगे हर घर की छप्पर-छानी
उनके लेखे बड़के राजा में गुण सारे
नये वेद रच उनके मंतर ख़ूब प्रचारे
रोती परजा
सुन-सुन उनकी गलतबयानी
रामराज लाने का ठेका उन्हें मिला है
कुछ दिन पहले बना घाट पर सोनकिला है
हुआ तभी से है
निर्मल गंगा का पानी

निबंध - सात लोक और लौकिक छंद

निबंध:
सात लोक और लौकिक छन्द 
अध्यात्म शास्त्र में वर्णित सात लोक भू-लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, तपः लोक, महः लोक, जनः लोक और सत्य लोक हैं। ये किसी ग्रह, नक्षत्र में स्थित अथवा अधर में लटके हुए स्थान नहीं, स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की स्थिति मात्र हैं। पिंगल शास्त्र में सप्त लोकों के आधार पर सात मात्राओं के छंदों को 'लौकिक छंद' कहा गया है। 

सामान्य दृष्टि से भूलोक में रेत, पत्थर, वृक्ष, वनस्पति, खनिज, प्राणी, जल आदि पदार्थ हैं। इसके भीतर की स्थिति है आँखों से नहीं, सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखी-समझी जा सकती है। हवा में मिली गैसें, जीवाणु आदि इस श्रेणी में हैं। इससे गहरी अणु सत्ता के विश्लेषण में उतरने पर विभिन्न अणुओं-परमाणुओं के उड़ते हुए अन्धड़ और अदलते-बदलते गुच्छक हैं। अणु सत्ता का विश्लेषण करने पर उसके सूक्ष्म घटक पदार्थ नहीं,विद्युत स्फुल्लिंग मात्र दृष्टिगोचर होते हैं। तदनुसार ऊर्जा प्रवाह ही संसार में एकमात्र विद्यमान सत्ता प्रतीत होती है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हुए हम कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं किंतु स्थान परिवर्तन नहीं होता। अपने इसी स्थान में यह स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से अति सूक्ष्म, अति सूक्ष्म से महा सूक्ष्म की स्थिति बनती जाती है।

सात लोकों का स्थान कहीं बाहर या अलग-अलग नहीं है। वे एक शरीर के भीतर अवयव, अवयवों के भीतर माँस-पेशियाँ, माँस-पेशियों के भीतर ज्ञान-तंतु, ज्ञान-तन्तुओं के भीतर मस्तिष्कीय विद्युत आदि की तरह हैं। वे एक के भीतर एक के क्रम से क्रमशः भीतर के भीतर-समाये, अनुभव किये जा सकते हैं। सात लोकों की सत्ता स्थूल लोक के भीतर ही सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम और अति सूक्ष्म होती गई है। सबका स्थान वही है जिसमें हम स्थित हैं। ब्रह्मांड के भीतर ब्रह्मांड की सत्ता परमाणु की मध्यवर्ती नाभिक के अन्तर्गत प्राप्त अति सूक्ष्म किन्तु विशाल ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करनेवाले ब्रह्म-बीज में प्राप्य है।

जीव की देह भी ब्रह्म शरीर का प्रतीक प्रतिनिधि (बीज) है। उसके भीतर भी सात लोक हैं। इन्हें सात शरीर (सप्त धातु-रस, रक्त, माँस, अस्थि, मज्जा, शुक्र, ओजस) कहा जाता है। भौतिक तन में छह धातुएँ हैं, सातवीं ओजस् तो आत्मा की ऊर्जा मात्र है। इनके स्थान अलग-अलग नहीं हैं। वे एक के भीतर एक समाये हैं। इसी तरह चेतना शरीर भी सात शरीरों का समुच्चय है। वे भी एक के भीतर एक के क्रम से अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं।

योग शास्त्र में इन्हें चक्रों का नाम दिया गया है। छह चक्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सातवाँ सहस्रार कमल। कहीं छह, कहीं सात की गणना से भ्रमित न हों। सातवाँ लोक सत्यलोक है। सत्य अर्थात् पूर्ण परमात्मा । इससे नीचे के लोक भी तथा साधना में प्रयुक्त होने वाले चक्र छ:-छ: ही हैं। सातवाँ सहस्रार कमल ब्रह्मलोक है। उस में शेष ६ लोक लय होते है। सात या छह के भेद-भाव को इस तरह समझा जा सकता है। देवालय सात मील दूर है। बीच में छह मील के पत्थर और सातवाँ मील पत्थर प्रत्यक्ष देवालय। छह गिने या सात इससे वस्तुस्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।

मनुष्य के सात शरीरों का वर्णन तत्ववेत्ताओं ने इस प्रकार किया हैं- (१) स्थूल शरीर-फिजिकल बाड़ी (२) सूक्ष्म शरीर इथरिक बॉडी (३) कारण शरीर-एस्ट्रल बॉडी (४)मानस शरीर-मेन्टल बॉडी (५) आत्मिक शरीर-स्प्रिचुअल बॉडी (६) देव शरीर -कॉस्मिक बॉडी (७) ब्रह्म शरीर-वाडीलेस बॉडी।

सप्त धातुओं का बना भौतिक शरीर प्रत्यक्ष है। इसे देखा, छुआ और इन्द्रिय सहित अनुभव किया जा सकता है। जन्मतः प्राणी इसी कलेवर को धारण किये होता है। उनमें प्रायः इन्द्रिय चेतना जागृत होती है। भूख, सर्दी-गर्मी जैसी शरीरगत अनुभूतियाँ सक्षम रहती हैं। पशु शरीर आजीवन इसी स्थिति में रहते हैं। मनुष्य के सातों शरीर क्रमशः विकसित होते हैं। भ्रूण पड़ते ही सूक्ष्म मानव शरीर जागृत होने लगता है। इच्छाओं और सम्वेदनाओं के रूप में इसका विकास होता है। मानापमान, अपना-पराया, राग-द्वेष, सन्तोष-असन्तोष, मिलन-वियोग जैसे अनुभव भाव (सूक्ष्म) शरीर को होते हैं। बीज में से पहले अंकुर निकलता है, तब उसका विकास पत्तों के रूप में होता है। स्थूल शरीर को अंकुर और सूक्ष्म शरीर पत्ता कह सकते हैं। फिजिकल बॉडी यथास्थान बनी रहती है, पर उसमें नई शाखा भाव शरीर एस्ट्रल बॉडी के रूप में विकसित होती है।सातों शरीरों का अस्तित्व आत्मा के साथ-साथ ही है, पर उनका विकास आयु और परिस्थितियों के आधार पर धीमे अथवा तीव्र गति से स्वल्प-अधिक मात्रा में होता है।

तीसरा कारण शरीर विचार, तर्क, बुद्धि से सम्बन्धित है। इसका विकास, व्यावहारिक, सभ्यता और मान्यतापरक संस्कृति के आधार पर होता है। यह किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते आरम्भ होता है और वयस्क होने तक अपने अस्तित्व का परिचय देने लगता है। बालक को मताधिकार १८ वर्ष की आयु में मिलता है। अल्प वयस्कता इसी अवधि में पहुँचने पर पूरी होती है। बारह से लेकर अठारह वर्ष की आयु में शरीर का काम चलाऊ विकास हो जाता है। यौन सम्वेदनाएँ इसी अवधि में जागृत होती हैं। सामान्य मनुष्य इतनी ही ऊँचाई तक बढ़ते हैं। फिजिकल-इथरिक और एस्ट्रल बॉडी के तीन वस्त्र पहनकर ही सामान्य लोग दरिद्रता में जीवन बिताते हैं। इसलिए सामान्यत: तीन शरीरों की ही चर्चा होती है। स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीरों की व्याख्या कर बात पूरी कर ली जाती है। प्रथम शरीर में शरीरगत अनुभूतियों का सुख-दुःख, दूसरे में भाव सम्वेदनाएँ और तीसरे में लोकाचार एवं यौनाचार की प्रौढ़ता विकसित होकर एक कामचलाऊ मनुष्य का ढाँचा खड़ा हो जाता है।

तीन शरीरों के बाद मनुष्य की विशिष्टताएँ आरम्भ होती हैं। मनस् शरीर में कलात्मक रसानुभूति होती है। कवित्व जगता है। कोमल सम्वेदनाएँ उभरती हैं। कलाकार, कवि, सम्वेदनाओं के भाव लोक में विचरण करने वाले भक्त-जन, दार्शनिक, करुणार्द्र, उदार, देश-भक्त इसी स्तर के विकसित होने से बनते हैं। यह स्तर उभरे तो पर विकृत बन चले तो व्यसन और व्याभिचार जन्य क्रीड़ा-कौतुकों में रस लेने लगता है। विकसित मनस् क्षेत्र के व्यक्ति असामान्य होते हैं। इस स्तर के लोग कामुक-रसिक हो सकते हैं। सूरदास, तुलसीदास जैसे सन्त अपने आरम्भिक दिनों में कामुक थे। वही ऊर्जा जब भिन्न दिशा में प्रवाहित हो तो सम्वेदनाएँ कुछ से कुछ करके दिखाने लगीं। महत्वाकाँक्षाएँ (अहंकार) इसी क्षेत्र में जागृत होती हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति भौतिक जीवन में तरह-तरह के महत्वपूर्ण प्रयास कर असाधारण प्रतिभाशाली कहलाते हैं। प्रतिभागी लोगों का मनस् तत्व प्रबल होता है। उन्हें मनस्वी भी कहा जा सकता है। बाल्मीक, अँगुलिमाल, अशोक जैसे महत्वाकांक्षी विकृत मनःस्थिति में घोर आतंकवादी रहे, पर जब सही दिशा में मुड़ गये तो उन्हें चोटी की सफलता प्राप्त करने में देर नहीं लगी। इसे मेन्टल बॉडी की प्रखरता एवं चमत्कारिता कहा जा सकता है।

पाँचवाँ शरीर-आत्मिक शरीर स्प्रिचुअल बॉडी अतीन्द्रिय शक्तियों का आवास होता है। अचेतन मन की गहरी परतें जिनमें दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। इसी पाँचवें शरीर से सम्बन्धित हैं। मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, टेलीपैथी, क्लैरेहवाइंस जैसे प्रयोग इसी स्तर के विकसित होने पर होते हैं । कठोर तन्त्र साधनाएँ एवं उग्र तपश्चर्याएँ इसी शरीर को परिपुष्ट बनाने के लिए की जाती हैं। संक्षेप में इसे ‘दैत्य’ सत्ता कहा जा सकता है। सिद्धि और चमत्कारों की घटनाएँ- संकल्प शक्ति के बढ़े-चढ़े प्रयोग इसी स्तर के समर्थ होने पर सम्भव होते हैं। सामान्य सपने सभी देखते हैं पर जब चेतना इस पाँचवे शरीर में जमी होती है तो किसी घटना का सन्देश देने वाले सपने भी दीख सकते हैं। उनमें भूत, भविष्य की जानकारियों तथा किन्हीं रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन भी होता है। भविष्यवक्ताओं, तान्त्रिकों एवं चमत्कारी सिद्धि पुरुषों की गणना पाँचवे शरीर की जागृति से ही सम्भव होती है। ऊँची मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य जमीन पर खड़े मनुष्य की तुलना में अधिक दूर की स्थिति देख सकता है। जमीन पर खड़ा आदमी आँधी का अनुभव तब करेगा जब वह बिलकुल सामने आ जायगी। पर मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य कई मील दूर जब आँधी होंगी तभी उसकी भविष्यवाणी कर सकता है। इतने मील दूर वर्षा हो रही है। अथवा अमुक स्थान पर इतने लोग इकट्ठे हैं। इसका वर्णन वह कर सकता जो ऊँचे पर खड़ा है और आँखों पर दूरबीन चढ़ाये है, नीचे खड़े व्यक्ति के लिए यह सिद्धि चमत्कार है, पर मीनार पर बैठे व्यक्ति के लिए यह दूरदर्शन नितान्त सरल और स्वाभाविक है।

छठे शरीर को देव शरीर कहते हैं-यही कॉस्मिक बाड़ी है। ऋषि , तपस्वी, योगी इसी स्तर पर पहुँचने पर बना जा सकता है। ब्राह्मणों और सन्तों का भू-देव, भू-सुर नामकरण उनकी दैवी अन्तःस्थिति के आधार पर है। स्वर्ग और मुक्ति इस स्थिति में पहुँचने पर मिलनेवाला मधुर फल है। सामान्य मनुष्य चर्म-चक्षुओं से देखता है, पर देव शरीर में दिव्य चक्षु खुलते हैं और “सियाराम मय सब जग जानी” के विराट ब्रह्मदर्शन की मनःस्थिति बन जाती है। कण-कण में ईश्वरीय सत्ता के दर्शन होते हैं और इस दिव्य उद्यान में सर्वत्र सुगंध महकती प्रतीत होती हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण ही स्वर्ग है। स्वर्ग में देवता रहते हैं। देव शरीर में जागृत मनुष्यों के अन्दर उत्कृष्ट चिन्तन और बाहर आदर्श कर्तृत्व सक्रिय रहता है। तदनुसार भीतर शान्ति की मनःस्थिति और बाहर सुख भरी परिस्थिति भरी-पूरी दृष्टिगोचर होती है। स्वर्ग इसी स्थिति का नाम है। जो ऐसी भूमिका में निर्वाह करते हैं। उन्हें देव कहते हैं। असुर मनुष्य और देव यह आकृति से तो एक किन्तु प्रकृति से भिन्न होते हैं।

भौतिकवादी लोक-मान्यताओं का ऐसे देव मानवों पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ता । वे निन्दा-स्तुति की, संयोग-वियोग की, हानि-लाभ की, मानापमान की लौकिक सम्वेदनाओं से बहुत ऊँचे उठ जाते हैं। लोक मान्यताओं को वे बाल-बुद्धि की दृष्टि से देखते हैं। लोभ-मोह, वासना-तृष्णा के भव-बन्धन सामान्य मनुष्यों को बेतरह जकड़कर कठपुतली की तरह नचाते हैं। छठवीं देव भूमिका में पहुँची देव आत्माएँ आदर्श और कर्त्तव्य मात्र को पर्याप्त मानती हैं। आत्मा और परमात्मा को सन्तोष देना ही उन्हें पर्याप्त लगता है। वे अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करते समय लोक मान्यताओं पर तनिक भी ध्यान नहीं देते वरन् उच्चस्तरीय चेतना से प्रकाश ग्रहण करते हैं। इन्हें भव-बन्धनों से मुक्त-जीवन मुक्त कहा जाता है। मुक्ति या मोक्ष प्राप्त कर लेना इसी स्थिति का नाम है। यह छोटे शरीर में देव स्थिति में कॉस्मिक बॉडी में विकसित आत्माओं को उपलब्ध होता है।

सातवाँ ब्रह्म शरीर है। इसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होता है। वे शरीर झड़ जाते हैं जो किसी न किसी प्रकार भौतिक जगत से सम्बन्धित थे। उनका आदान-प्रदान प्रत्यक्ष संसार से चलता है। वे उससे प्रभावित होते और प्रभावित करते हैं। ब्रह्म शरीर का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से होता है। उसकी स्थिति लगभग ब्रह्म स्तर की हो जाती है। अवतार इसी स्तर पर पहुँची हुई आत्माएँ हैं। लीला अवतरण में उनकी अपनी कोई इच्छा आकाँक्षा नहीं होती, वे ब्रह्मलोक में निवास करते हैं। ब्राह्मी चेतना किसी सृष्टि सन्तुलन के लिए भेजती है तो उस प्रयोजन को पूरा करके पुनः अपने लोक वापस लौट जाते हैं। ऐसे अवतार भारत में १० या २४ मान्य है। वस्तुतः उनकी गणना करना कठिन है। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रयोजनों के लिए वे समय-समय पर विलक्षण व्यक्तित्व सहित उतरते हैं और अपना कार्य पूरा करके वापिस चले जाते हैं। यह स्थिति ‘अहम् ब्रह्मोसि’ सच्चिदानन्दोऽहम्, शिवोऽहम् सोऽहम्, कहने की होती है। उस चरम लक्ष्य स्थल पर पहुँचने की स्थिति को चेतना क्षेत्र में बिजली की तरह कोंधाने के लिए इन वेदान्त मन्त्रों का जप, उच्चारण एवं चिन्तन, मनन किया जाता है।

पाँचवें शरीर तक स्त्री-पुरुष का भेद, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा अगले जन्म में उसी लिंग का शरीर बनने की प्रक्रिया चलती है। उससे आगे के छठे और सातवें शरीर में विकसित होने पर यह भेदभाव मिट जाता है। तब मात्र एक आत्मा की अनुभूति होती है। स्त्री-पुरुष का आकर्षण-विकर्षण समाप्त हो जाता है। सर्वत्र एक ही आत्मा की अनुभूति होती है। अपने आपकी अन्तः स्थिति लिंग भेद से ऊपर उठी होती है यद्यपि जननेंद्रिय चिन्ह शरीर में यथावत् बने रहते हैं। यही बात साँसारिक स्थिति बदलने के कारण मन पर पड़ने वाली भली-बुरी प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में भी होती है। समुद्र में लहरें उठती-गिरती रहती हैं। नाविक उनके लिए हर्ष-शोक नहीं करता, समुद्री हलचलों का आनन्द लेता है। छठे शरीर में विकसित देवात्माएँ इस स्थिति से ऊपर उठ जाती हैं। उनका चेतना स्तर गीता में कहे गये 'स्थित प्रज्ञ ज्ञानी' की और उपनिषदों में वर्णित 'तत्वदर्शी' की बन जाती है। उसके आत्म सुख से संसार के किसी परिवर्तन में विक्षेप नहीं पड़ता। लोकाचार हेतु उपयुक्त लीला प्रदर्शन हेतु उसका व्यवहार चलता रहता है। यह छठे शरीर तक की बात है। सातवें शरीर वाले अवतारी (भगवान) संज्ञा से विभूषित होते हैं। इन्हें ब्रह्मात्मा, ब्रह्म पुरुष का सकते हैं। उन्हें ब्रह्म साक्षात्कार, ब्रह्म निर्वाण प्राप्त भी कहा जा सकता है।

छठे शरीर में स्थित देव मानव स्थितिवश शाप और वरदान देते हैं, पर सातवें शरीर वाले के पास शुभेच्छा के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। उनके लिए पराया एवं बैरी कोई रहता ही नहीं। दोष, अपराधों को वे बाल बुद्धि मानते हैं और द्वेष दण्ड के स्थान पर करुणा और सुधार की बात भर सोचते हैं।


सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार पृथ्वी के नीचे सात पाताल लोक वर्णित हैं जिनमें पाताल अंतिम है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में पाताल लोक से सम्बन्धित असंख्य कहानियाँ, घटनायें तथा पौराणिक विवरण मिलते हैं। पाताल लोक को नागलोक का मध्य भाग बताया गया है, क्योंकि जल-स्वरूप जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब वहाँ पर्याप्त रूप से गिरती हैं। पाताल लोक में दैत्य तथा दानव निवास करते हैं। जल का आहार करने वाली आसुर अग्नि सदा वहाँ उद्दीप्त रहती है। वह अपने को देवताओं से नियंत्रित मानती है, क्योंकि देवताओं ने दैत्यों का नाश कर अमृतपान कर शेष भाग वहीं रख दिया था। अत: वह अग्नि अपने स्थान के आस-पास नहीं फैलती। अमृतमय सोम की हानि और वृद्धि निरंतर दिखाई पड़ती है। सूर्य की किरणों से मृतप्राय पाताल निवासी चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से पुन: जी उठते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार पूरे भू-मण्डल का क्षेत्रफल पचास करोड़ योजन है। इसकी ऊँचाई सत्तर सहस्र योजन है। इसके नीचे सात लोक इस प्रकार हैं-१. अतल, २. वितल, ३. सुतल, ४. रसातल, ५. तलातल, ६. महातल, ७. पाताल।

पौराणिक उल्लेख

पुराणों में पाताल लोक के बारे में सबसे लोकप्रिय प्रसंग भगवान विष्णु के अवतार वामन और पाताल सम्राट बलि का है। रामायण में अहिरावण द्वारा राम-लक्ष्मण का हरण कर पाताल लोक ले जाने पर श्री हनुमान के वहाँ जाकर अहिरावण वध करने का प्रसंग आता है। इसके अलावा भी ब्रह्माण्ड के तीन लोकों में पाताल लोक का भी धार्मिक महत्व बताया गया है।
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(प्रकाशनाधीन छंद कोष से)