दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 16 नवंबर 2018
समीक्षा- हैं जटायु से अपाहिज हम - कृष्ण भारतीय
समीक्षा
"समय की पगडण्डियों पर" गीत संग्रह का प्रकाशन "राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर" के आर्थिक सहयोग से होना सुखद है। यह पुस्तक पढ़ना अत्यंत सुखद रहा। श्री ठकुरेला जी पेशे से इंजीनियर हैं। अनेक पुस्तकों का सम्पादन कर चुके हैं। उनके तीन एकल संग्रह प्रकाशित हैं। मुझे विश्वास है यह गीत संग्रह पाठक वर्ग में अपना उच्च स्थान बनाएगा। आशा करती हूँ कि शीघ्र ही उनकी अन्य कृतियों से हमें रूबरू होने का अवसर मिलेगा।
श्रद्धांजलि: विराट
*
'मुक्तिकाएँ लिखें, दर्द गायें लिखें,
हम लिखें धूप भी, हम घटाएँ लिखें।
हास की अश्रु की सब छटाएँ लिखें,
बुद्धि की छाँव में भावनाएँ लिखें,
सत्य के स्वप्न सी कल्पनाएँ लिखें,
आदमी की बड़ी लघुकथाएँ लिखें।
सूचनाएँ नहीं, सर्जनाएँ लिखें,
भव्य भवितव्य की भूमिकाएँ लिखें।
पीढ़ियों के लिए प्रार्थनाएँ लिखें,
केंद्र में रख मनुज मुक्तिकाएँ लिखें।'
*
विश्ववाणी हिंदीके लाड़ले गीतकार, समर्थ दोहाकार, अन्यतम मुक्तककार, सशक्त ग़ज़लकार, सुधी समीक्षक, नई कलमों को हृदय से प्रोत्साहित करने तथा बढ़ते देख आशीष वर्षण करनेवाले, अनेक भवनों तथा सेतुओं का निर्माण कराकर राष्ट्र निर्माण में योगदान करनेवाले इंदौर निवासी चंद्र सेन 'विराट' जी के मधुर रचनाओं काका श्रवण करने के लिए माँ शारदा ने उन्हें अपने धाम में बुला लिया।
३ दिसंबर १९३६ को इंदौर निवासी श्रीमती वेणु ताई तथा श्री यादवराव डोके को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसने १९५८ में नगरी अभियंत्रण में सनतक की उपाधि प्राप्त कर म.प्र. लोक निर्माण विभाग में सहायक यंत्री के पद पर राष्ट्र निर्माण में योगदान देना आरम्भ किया और १९९४ के अंत में सेवा निवृत्त हुए। १४ गीत संग्रहों (मेंहदी रची हथेली १९६५, ओ मेरे अनाम १९६८, स्वर के सोपान १९६९, किरण के कशीदे १९७४, मिट्टी मेरे देश की १९७६, पीले चांवल द्वार पर १९७६, दर्द कैसे चुप रहे १९७७, पलकों में आकाश १९७८, बूँद-बूँद पारा १९९६, गाओ कि जिए जीवन २००३, सरगम के सिलसिले २००८, ओ गीत के गरुण २०१२), ११ हिंदी ग़ज़ल संग्रहों (निर्वसना चाँदनी १९७०, आस्था के अमलतास १९८०, कचनार की टहनी १९८३, धार के विपरीत १९८४, परिवर्तन की आहट १९८७, लड़ाई लम्बी है १९८८, न्याय कर मेरे समय १९९१, फागुन माँगे भुजपाश १९९३, इस सड़ी का आदमी १९९७, हमने कठिन समय देखा है २००२, खुले तीसरी आँख २०१०), ५ मुक्तक संग्रहों (कुछ पलाश कुछ पाटल १९८९, कुछ छाया कुछ धुप १९९८, कुछ सपने कुछ सच २०००, कुछ अंगारे कुछ फुहारें २००७, कुछ मिश्री कुछ नीम २००९, २ दोहा संग्रहों (चुटकी-चुटकी चाँदनी २००६, अँजुरी अँजुरी धूप २००८) तथा ७ सम्पादित ग्रंथों (गीत-गंध १९६६,हिंदी के मनमोहक गीत १९९७, हिंदी के सर्वश्रेष्ठ मुक्तक १९९८, टेसू के फूल २००३, कजरारे बादल २००४, धुप के संगमरमर २००५, चाँदनी-चाँदनी २००७ के माध्यम से विराट जी ने हिंदी-साहित्य को समृद्ध किया है।
विराट -वैभव १९९९, चन्द्रसेन विराट के प्रतिनिधि गीत १९९९, विराट विमर्श २००४, चन्द्रसेन विराट का काव्य संवेदन और शिल्प २००६, चद्रसेन विराट की प्रतिनिधि हिंदी ग़ज़लें आदि २०११ विराट जी के सृजन पर केंद्रित कृतियाँ हैं।
चन्द्रसेन विराट ने हिन्दी गजलों को एक नया स्वरूप प्रदान कर 'मुक्तिका' संज्ञा दी। अपनी ‘मुक्तिका के माध्यम से उन्होंने कथ्य और शैली के नये प्रयोगों को हिन्दी भाषा के सांचे में अच्छी तरह ढालने का कार्य किया । कवि का अपना परिवेश है, अपनी संवेदनाएं हैं। नवगीतों, गज़लों से मिली-जुली मुक्तिकाओं में आम आदमी के समकालीन जीवन को पैनी दृष्टि से देखा है । हिन्दी की नयी छवि के रूप में निजी छन्दों का कलात्मक प्रयोग कर एक नयी जमीन जोड़ी है, जिसमें व्यावहारिक जीवन का कटु यथार्थ है । आज की भौतिकतावादी, वैज्ञानिक, यान्त्रिक सभ्यता का सजीव चित्रण उनकी कविताओं में हैं। उन्होंने गीत-ग्रन्थ का भी सम्पादन किया । वे सहृदय, संवेदनशील कवि हैं, किन्तु आधुनिक परिस्थितियों में आडम्बर से परे मानवता के सहज गीतकार हैं । उनकी कविताएं प्रेम और मानवीय रिश्ते से गहरे रूप में जुड़ी हैं।
चंद्रसेन विराट का कहना है कि 'मुक्तिका' कोई स्वतंत्र विधा नहीं है। यह हिंदी ग़ज़ल की शुरुआत के वर्षों में मेरे द्वारा सुझाया हुआ - हिंदी ग़ज़ल के लिए वैकल्पिक नाम भर था- 'मुक्तिका'। मुझे मेरे संस्कार में परिनिष्ठित हिंदी मिली और यही मेरी अर्जित भाषा रही, इसीलिए स्वाभाविक रूप से मैंने वही भाषा प्रयुक्त की, जिसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग स्वभाववश ही हुआ। हर कवि की अपनी भाषा एवं डिक्शन होता है। मेरी यही तत्समी हिंदी मेरी विशिष्टता भी रही। पाठकों ने तत्सम शब्दों को बहर में सही रूप में प्रयुक्त करके अर्थवत्ता बढ़ाने के प्रयोग की प्रशंसा की तो ठेठ उर्दू ग़ज़ल प्रेमियों ने आपत्तियां भी दर्ज करायीं। मेरी यह परिनिष्ठित हिंदी काव्य भाषा कभी सराही गई तो कभी कटु आलोचना भी हुई।
मान्य हिंदी भाषा में लिखी ग़ज़ल को ही सामान्य रूप से हिंदी ग़ज़ल कहा जाता है। सर्वमान्य हिंदी भाषा के प्रयोग के कारण ही कोई ग़ज़ल, हिंदी ग़ज़ल कही जाती है। अन्यथा तो वह ग़ज़ल ही है। उर्दू ग़ज़ल जानी-मानी उर्दू भाषा में लिखी गई (कालांतर में तथाकथित हिंदुस्तानी) विभिन्न बहरों में बद्ध गीति रचना है, गीति-तत्व जिसकी मूल अर्हता है। यही ग़ज़ल का काव्य रूप यदि परिनिष्ठित हिंदी (संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली अनिवार्य नहीं) में लिखा जाए तो उसे हिंदी ग़ज़ल कहा जाना सर्वथा उचित है। ग़ज़ल केवल हिंदी में ही नहीं, अपितु हिंदीतर भाषाओं जैसे, मराठी, गुजराती, बांग्ला आदि में भी लिखी जा रही है। और तो और, संस्कृत में भी ग़ज़लों की रचना हो रही है। इन भाषाओं में लिखी ग़ज़ल को क्रमशः मराठी ग़ज़ल, गुजराती ग़ज़ल, बांग्ला ग़ज़ल और संस्कृत ग़ज़ल ही तो कहा जाएगा। इसीलिए हिंदी भाषा में लिखी गई ग़ज़ल को हिंदी ग़ज़ल ही तो कहा जाएगा। उर्दू भाषा की ग़ज़ल को सिर्फ देवनागरी लिपि में लिख भर देने से वह हिंदी ग़ज़ल नहीं हो जाती। उर्दू शब्दावली एवं विन्यास के कारण वह उर्दू की ग़ज़ल ही रहेगी। 'ग़ज़ल' तो एक पात्र है। इस पात्र में जिस भाषा का रस आप भरेंगे, उसी भाषा का रस यह पात्र देगा। यही बात हिंदी ग़ज़ल पर भी लागू है।
विराट जी के अनुसार साहित्य में काल क्रमानुसार हर पीढ़ी अपनी अग्रज पीढ़ी से संस्कारित, शिक्षित-दीक्षित होती आयी है। ऐसा ही हमारी पीढ़ी के साथ हुआ है और हमारे बाद की पीढ़ी के साथ भी होगा और हुआ है।
***
दादा विराट के सांनिंध्य में बिताये पलों की स्मृतियाँ मन पर आच्छदित हैं। चित्र में अमरकंटक यात्रा पर लेजाने के पूर्व मेरी जीवनसंगिनी डॉ. साधना वर्मा, श्रीमती विराट, विराट जी, मैं तथा बिटिया तुहिना।
नवगीत संग्रह २०१८
क्रमांक नाम नवगीतकार संस्करण प्रकाशक
१ सहमा हुआ घर मयंक श्रीवास्तव तृतीय संस्करण अयन प्रकाशन दिल्ली २ समय है सम्भावना का जगदीश पंकज प्रथम संस्करण ए. आर. पब्लिशिंग कम्पनी, दिल्ली * ३ नदी जो गीत गाती है शिवानंद सहयोगी प्रथम संस्करण अयन प्रकाशन ४ समय की पगडंडियों पर त्रिलोक सिंह ठकुरेला प्रथम संस्करण राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर * ५ मोरपंखी स्वर हमारे ब्रजकिशोर वर्मा शैदी प्रथम संस्करण अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद ६ आदिम राग सुहाग का कुमार रवीन्द्र प्रथम संस्करण उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ ७ शब्द वर्तमान जयप्रकाश श्रीवास्तव प्रथम संस्करण बोधि प्रकाशन, जयपुर * ८ फिर माड़ी रंगोली महेश अनघ प्रथम संस्करण निखिल पब्लिशर्स/ डिस्टिब्यूटर्स आगरा ९ गीतों के गुरिया महेश अनघ प्रथम संस्करण निखिल पब्लिशर्स/ डिस्टिब्यूटर्स आगरा १० चारों ओर कुहासा है , रघुवीर शर्मा प्रथम संस्करण शिवना प्रकाशन, सीहोर ११ पहने हुए धूप के चेहरे- मधुकर अष्ठाना, प्रथम संस्करण गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद १२ सयानी आहटें हैं बृजनाथ श्रीवास्तव प्रथम संस्करण ज्ञानोदय प्रकाशन, कानपुर १३ सम्बन्धों में चीनी कम है विजय राठौर प्रथम संस्करण बोधि प्रकाशन, जयपुर १४ भौचक शब्द अचंभित भाषा शिवानंद सहयोगी प्रथम संस्करण अयन प्रकाशन, दिल्ली १५ फुसफुसाते वृक्ष कान में हरिहर झा प्रथम संस्करण अयन प्रकाशन, दिल्ली * १६ कुछ फूलों के कुछ मौसम के जयकृष्ण राय तुषार प्रथम संस्करण साहित्य भंडार, इलाहाबाद = १७ संदर्भों से कटकर रविशंकर मिश्र रवि प्रथम संस्करण बोधि प्रकाशन, जयपुर = १८ ओझल रहे उजाले विजय बागरी विजय प्रथम संस्करण उद्भावना प्रकाशन गाजियाबाद *
१९. सड़क पर संजीव वर्मा 'सलिल' प्रथम संस्करण समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर *
२०
निकष पर: २०१८ में प्रकाशित नवगीत संकलन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जयप्रकाश श्रीवास्तव मन का साकेत गीत संग्रह (२०१२) तथा परिंदे संवेदना के गीत-नवगीत संग्रह (२०१५) के बाद अब 'शब्द वर्तमान' नवगीत संग्रह के साथ नवगीत संसद में दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। जयप्रकाश जी के नवगीतों में समसामयिक समस्याओं से आँखें चार करते हुए दर्द से जूझने, विसंगतियों ले लड़ने और अभाव रहते हुए भी हार न मानने की प्रवृत्तिमानव मन की जटिलता, संबंधों में उपजता-पलता परायापन, स्मृतियों में जीता गाँव, स्वार्थ के काँटों से घायल होता समरसता का पाँव, गाँव की भौजाई बनने को विवश गरीब की आकांक्षा, विश्वासों को नीलाम कर सत्ता का समीकरण साधती राजनीति, गाँवों को मुग्ध कर उनकी आत्मनिर्भरता को मिटाकर आतंकियों की तरह घुसपैठ करता शहर अर्थक समूचा वर्तमान है। जयप्रकाश जी शब्दों को शब्दकोशीय अर्थों से मिली सीमा की कैद में रखकर प्रयोग नहीं करते, वे शब्दों को वृहत्तर भंगोमाओं का पर्याय बना पाते हैं। उनके गीत आत्मलीनता के दस्तावेज नहीं, सार्वजनीन चेतना की प्रतीति के कथोकथन हैं। भाषा लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता तथा उक्ति वैचित्र्य से समृद्ध है।
नवगीतकार श्री जगदीश पंकज प्रशासनिक और सामाजिक दोनों व्यवस्थाओं से लड़कर अपने सच के समर्थन में पूरी शक्ति से खड़े होकर दुर्गम, कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हैं। वे समझौता नहीं संघर्ष को स्वीकारते हैं। पंकज जी के लिए नवगीत लेखन स्थापित को नष्ट कर विस्थापित को स्थापित करने का हथियार है। वे लोक की आवाज अनसुनी होते देखकर आव्हान करते हैं-
समय की पगडंडियों पर, गीत-नवगीत संग्रह, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ- ११२, मूल्य- रु. २००, प्रकाशक राजस्थानी ग्रंथागार, प्रथम माला, गणेश मंदिर के पास, सोजती गेट, जोधपुर, समीक्षा सुनीता काम्बोज]
[ हैं जटायु से अपाहिज हम,नवगीत संग्रह, कृष्ण भारतीय, आईएसबीएन ९७८७९३८४७७२५८१, प्रथम संस्करण २०१७, अनुभव प्रकाशन, ई-२८, लाजपतनगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद- २०१००५, मूल्य- रु. १५०, पृष्ठ- ९६, समीक्षा- राजेन्द्र वर्मा]
गुरुवार, 15 नवंबर 2018
samiksha
इस पृष्ठ भूमि में श्री भगवान सिंह की विवेच्य कृति व्यक्तिगत स्मृति आख्यान न होकर भारत के सतत परिवर्तित होते ग्राम्यांचल का पूर्वाग्रह मुक्त और प्रामाणिक आकलन की तरह है। अपने ग्राम निखतीकलां जिला सिवान (बिहार) को रखकर लिखे संस्मरण प्रकारांतर से अन्य ग्रामों से अपने आप जुड़ जाते हैं क्योंकि सामाजिक मूल्यों, प्रतिक्रियाओं, संघर्षों, पर्वों- त्योहारों, आर्थिक दुष्चक्रों, अवसरों के अभावों और उनसे जूझकर आगे बढ़ते कर्मवीरों की कीर्ति-कथाओं में सर्वत्र साम्य है। मूलत: गाँधीवादी आलोचक रहे भगवान सिंह का ग्राम्यांचलों में पैर पसारने के लिए हमेशा उद्यत रहनेवाली साम्यवादी विचारधारा से संघर्ष होना स्वाभाविक है। सामाजिक मूल्यों में गिरावट, पारस्परिक संबंधों में विश्वास की कमी, राजनीति का सामाजिक जीवन में अयाचित और बलात हस्तक्षेप, नगरीकरण के दुष्प्रभाव के कारण ग्रामीण कुटीर उद्योंगों के लिए अवसरों का भाव आदि से किसी आम नागरिक की तरह लेखक का चिंतित होना सहज स्वाभाविक है।
लेखन की पत्रकारिता उसे किस्सागो नहीं बनने देती। वह कल्पना कुञ्ज में विहार नहीं कर पाता, न मिथ्या रोचक चुटकुलेनुमा कहानियों से पाठक को भ्रमित करता है। खुद को केंद्र में रखते हुए भी लेखक अतिरेकी आत्मप्रशंसा के मोह से मुक्त रह सका है। अपने घर, परिवार, सेज संबंधियों, इष्ट-मित्रों आदि की चर्चा करते समय भी निस्संग रह पाना तलवार की धार की तरह कठिन होता है किन्तु लेखन नट-संतुलन साध सका है। भगवान् सिंह के लिए संस्मरणों से जुड़े चरित्र, चित्रण नहीं सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण हैं। वे व्यक्तियों के बहाने समष्टि से जुड़े बिंदुओं को विचारार्थ सामने लाते हैं और बात स्पष्ट होते ही चरित्र को जहाँ का तहाँ छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। राजेंद्र प्रसाद सिंह (पृष्ठ ५९) इसी तरह का चरित्र हैं जो विद्यालय भवन में जमींदार परिवार की बारात ठहरने के विरोध करते हैं कि यह सुविधा सब को मिले या किसी को नहीं। फलत:, विशेषधिकार चाहनेवालों को झुकना पड़ा, वह भी गाँधीवादी प्रतिरोध के सामने।
'कम पढ़ा ज्यादा गुना' की विरासत को सम्हालते ग्रामीण बुजुर्गों की समझदारी की बानगी ताऊ जी (पृष्ठ ६३) के चरित्र में हैं जो अपने हलवाहे के परामर्श स्वीकार करने में पल की भी देर नहीं करते। केवल हस्ताक्षर करनेवाले ताऊ जी खेती-किसानी के सम्बन्ध में श्रुति-स्मृति परंपरा के वाहक थे। उनके सम्बन्ध में वर्णित बातों से घाघ-भड्डरी, जैसी प्रतिभा होने का अनुमान होता है। गाँवों में छुआछूत की व्याप्ति के अतिरेकी वर्णन कर सामाजिक संघर्ष की आग जलानेवाले तथाकथित समाज सुधारकों (ज्योतिबा फुले) के संदर्भ में सीधी मुठभेड़ टालते हुए लेखन नम्रता पूर्वक अपने गाँव में वह स्थिति न होने की बार पूरी विनम्रता किन्तु दृढ़ता से कहता है। भारत सवर्ण-अवर्ण के भेदभाव को अमरीकी नस्लवादी भेदभाव की तरह बतानेवालों को लेखक दर्पण दिखाने में नहीं चूकता। सती प्रथा के संदर्भ में लेखक कुछ जातियों में विधवा विवाह के चलन का उदाहरण देता है। (पृष्ठ ८५) तथाकथित प्रगति के मानकों से सहमत न होते हुए लेखक साफ़-साफ़ कहता है "समझ में नहीं आता कि हम तब पिछड़े हुए थे या अब प्राकृतिक दृष्टि से पिछड़े होते जा रहे हैं? (पृष्ठ ९२)
"गाँव प्रबंधन" शीर्षक अध्याय भगवान सिंह की सजग-सतर्क पर्यवेक्षकीय दृष्टि, मौलिक सोच और विश्लेषण सामर्थ्य की बानगी है। यहाँ उनका आकलन चौंकाता है कि हमारे देश-समाज में जिस बदनाम पर्दा-प्रथा की चर्चा होती रही है, वह इन्हीं अगड़ी जातियों की औरतों के गले का फंदा थी"...... वस्तुत: सारा प्रबंधन तो स्त्रियों के हाथों में ही होता था।" (पृष्ठ ९३)। तथाकथित स्त्रीविमर्श वादियों को भगवान् सिंह का तथ्याधारित यह निष्कर्ष शीर्षासन करने पर भी नहीं नहीं पचेगा कि "औरतों के लिए कभी किसी मर्द ने 'अनुत्पादक श्रम' या 'फालतू काम' जैसे अवमानना सूचक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। उलटे पुरुष-समाज द्वारा यह सुनने को मिलता है कि 'बिन घरनी भर भूत का डेरा"। (पृष्ठ ९५)
'मनोविनोद के अवसर' शीर्षक अध्याय भारत के ग्रामीण सांस्कृतिक वैभव से परिचित कराता है। चैती तथा बटोही गीत इस अध्याय की जान हैं। इसके साथ 'पर्व-त्यौहार' शीर्षक अध्याय बच्चों के पाठ्क्रम में जोड़ा जा सके तो नई पीढ़ी को सांस्कृतिक वैभव की महत्ता ही नहीं उपादेयता से भी परिचित होने का अवसर मिलेगा। 'जिनकी यादें हैं शेष' शीर्षक अध्याय उन आम लोगों की स्मृतियों से जुड़ा है जो अपने आप में ख़ास रहे हैं। धनेश्वर बाबू जैसे सुलझे हुए बुजुर्ग, हिंदी काव्य की वाचिक परंपरा को जीते सहदेव चौबे, चिरकुंवारे परमार्थी रामजनम, विनोदी पति काका, गप्पी सुदामा भाई, आदि चरित्र कृति की रोचकता में वृद्धि करने के साथ-साथ भगवान् सिंह की गुणान्वेषी दृष्टि का परिचय भी देतीं हैं। 'स्मृति में संयुक्त परिवार' शीर्षक अध्याय आधुनिक पीढ़ी के लिए पठनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है। संयुक्त परिवार की मिठास-खटास से जीवन कितना मधुर हो जाता है, इसका अनुमान इसे पढ़कर हो सकता है। 'वर्तमान: दशा और दिशाएँ' अध्याय में अमावसी तिमिर को चीरती प्रकाश किरणों की झलकियाँ आश्वस्त करती हैं की कल आज से बेहतर होगा।
'गाँव मेरा देश' में 'गाँव: मेरा देश' और 'गाँव मेरा: देश' के श्लेष के दो अर्थों का आनंद लिया सकता है। कृति का कथ्य दोनों के साथ न्याय करता है। भूमिका में सूर्यनाथ सिंह के आकलन "यह किताब रोजी-रोटी और जीवन की बेहतरी के सपने लिए पढ़-लिखकर गाँवों से शहरों में आ बेस उन तमाम लोगों को विगत की स्मृतियों में ले जाएगी। उन्हें झकझोर कर पूछेगी कि जो गाँव तुम छोड़ आये थे, क्या उसके इस तरह विनष्ट होते जाने को रोकने के लिए तुमने कोई रास्ता सोचा है?" के सन्दर्भ में यह कहना है कि कटी हुई पतंगों की ऊँचाई भले ही अधिक हो किन्तु उनकी जड़ें नहीं होती। गाँव के भले का रास्ता उन्हें छोड़कर जानेवाले नहीं उनसे जुड़े रहकर विसंगतियों से लड़नेवाले दूर करेंगे। भगवान् सिंह इसी तरह के व्यक्ति हैं और उनकी यह किताब गाँव की बेहतरी के लिए उनके संघर्ष का हिस्सा है।
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संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संसथान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८
दोहा सलिला
दोहा-दर्पण में दिखे, देश-काल का सत्य।
देख-सुधार, निखार ले, खुद को घटे असत्य।।
*
अलंकार रस भाव लय, बिंब-प्रतीक न मूल।
शब्द मिथक हैं उपकरण, कथ्य साध्य मत भूल।।
*
दिल से दिल की बात कह, दोहा हो दिल-दूत।
दिलवर का दिलदार तक, पहुँचा स्नेह अकूत।।
*
आभा से आ भा कहे, आभित हो नव सूर्य।
दिनकर दिन कर दे जगा, बजे दसों दिश तूर्य।।
*
कहे देहरी देह री!, मत मर्यादा छोड़।
बाहर मिले न गेह री!, नाता निभा न तोड़।।
*
चीत्कार कविता नहीं, मात्र कराह न गीत।
नव रसमय नव गीत ही, है जीवन संगीत।।
*
कल से कल के बीच हो, कलकल भाव प्रवाह।
किलकिल कर क्यों कर रहे, कल को कहें तबाह।।
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार।
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।
*
हिंदी आटा माढ़िए, देशज मोयन डाल।
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल।।
*
करती भोर विभोर मन, दुपहर चाहे काम।
साँझ कहे पा लक्ष्य झट, रात मिले आराम।।
*
ठाकुर जी को पूजते, ठाकुर जी ले भोग।
ठकुराइन मुस्का रहीं, काम पड़े का जोग।।
***
संजीव
बुधवार, 14 नवंबर 2018
वस्तुवदनक छंद
छंद सलिला:
वस्तुवदनक छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल
लक्षण छंद:
वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
१. प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर
''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर *********
काव्य छंद
छंद सलिला:
अवतारी जातीय काव्य छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति ग्यारह-तेरह, मात्रा बाँट ६+४+४+४+६, हर चरण में ग्यारहवीं मात्रा लघु
लक्षण छंद:
काव्य छंद / चौबी/स, कला / ग्यारह/-तेरह हो
१. चमक-दमक/कर दिल / दहला/ती बिज/ली गिरकर
दादुर ना/चे उछ/ल-कूद/कर, मट/क-मटककर
सनन-सनन / सन पव/न खेल/ता मच/ल-मचलकर
ढाँक सूर्य / को मे/घ अकड़/ता गर/ज-गरजकर
फिर भी झग/ड़े-झं/झट घे/रे हैं / जन-जन को
लोभ--मोह / माया-/ममता / बेढब / चक्कर है
हर युग में /परमा/र्थ-स्वार्थ / की ही /टक्कर है
सेवा भू/ले पथ / इनको / मेवा / का रुचता
लालच ने / मोहा,/ तिल भर / भी त्या/ग न दिखता
मंगलवार, 13 नवंबर 2018
kundaliya
राजनीति आध्यात्म की, चेरी करें न दूर
हुई दूर तो देश पर राज करेंगे सूर
राज करेंगे सूर, लड़ेंगे हम आपस में
सृजन छोड़ आनंद गहेँगे, निंदा रस में
देरी करें न और, वरें राह परमात्म की
चेरी करें न दूर, राजनीति आध्यात्म की
***
संजीव, १३.११.२०१८
bal geet
लँगड़ी खेलें
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोड़ा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*************



