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शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

समीक्षा- हैं जटायु से अपाहिज हम - कृष्ण भारतीय

पुस्तक चर्चा 

हैं जटायु से अपाहिज हम - कृष्ण भारतीय

[ हैं जटायु से अपाहिज हम,नवगीत संग्रह, कृष्ण भारतीय, आईएसबीएन ९७८७९३८४७७२५८१, प्रथम संस्करण २०१७, अनुभव प्रकाशन, ई-२८, लाजपतनगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद- २०१००५,  मूल्य- रु. १५०, पृष्ठ- ९६, समीक्षा- राजेन्द्र वर्मा]

चर्चित नवगीतकार श्री कृष्ण भारतीय (के.के.भसीन) गीत, नवगीत, कविता एवं निबन्ध आदि विधाओं में विगत चार दशकों से सृजनरत हैं। उनके गीत-नवगीत ‘धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, मधुमती’ आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।

हाल ही में उनका नवगीत-संग्रह, ‘हैं जटायु से अपाहिज हम’ शीर्षक से प्रकाशित होकर आया है। इसमें उनके ७४ नवगीत संगृहीत हैं जिसमें आम आदमी के जीवन के विविध पहलुओं का मार्मिक चित्रांकन है, विशेषतः आज के पूँजीवादी परिवेश में अन्याय, और शोषण से जूझते हुए उसका विफल संघर्ष जिसने उसे हाशिये से भी धीरे-धीरे खिसका दिया है। सत्ता द्वारा पोषित पूँजी के कुफल से उपजी आम आदमी की अभावग्रस्तता, असहायता और विवशता ने रचनाकार को सर्जना हेतु विवश कर दिया है और उसने उसे गीतों में सफलतापूर्वक अभिव्यक्त भी किया है।

समीक्ष्य नवगीतों में अभिव्यक्ति की शैली आकर्षक है। बोलचाल और तत्सम शब्दों से सज्जित भाषा पूर्णरूपेण भावानुरूप है और मिथकीय प्रतीकों के सफल प्रयोग से कथ्य ऐसे खुलकर आता है जैसे वह पाठक का भोगा हुआ हो। विभिन्न छन्दों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति की रक्षा करते हुए सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हैं और आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर रचनाकार ने शिल्प और वस्तु में पूर्ण सामंजस्य बिठाकर यथार्थ की भूमि हमारे आस-पास घटित हो रहे अघट को अधिकांशतः प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है, जिसमें रचनाकार की जन-प्रतिबद्धता प्रवहमान है। विसंगतियों के विश्लेषण और गीत में कहीं-कहीं वर्णित समस्या का समाधान भी दृष्टव्य है। मिथ से उपजे प्रतीक युगीन यथार्थबोध को प्रस्तुत करते हुए संग्रह के सभी नवगीत मार्मिक भाव-भंगिमा दर्शाते हैं और देर तक अपनी अनुगूँज बनाये रखते हैं।

कृष्ण भारतीय ने अपने नवगीतों, विशेषतः जनवादी गीतों की अभिव्यक्ति हेतु ऐसी पदयोजना निर्मित की है जो उसे धार और अतिरिक्त मार्मिकता प्रदान करती है। उनकी पदयोजना के कुछ रूप देखिए : ‘फुस्स दूध का हुआ उबाल, है नसीब ही चिथड़े-चिथड़े, बिलखते हाथ जोड़ते छाले, घास का असली सूप, कंकर की छप, मदारी राजगद्दी के, कटखने छंद, मजहब के भस्मासुर, पेड़ों की बजती शहनाई, सिर ताने फूस की झोपडी, धूप के शाल, फुनगी पे रामधुन की धूनी, गश खाती धरा, भूख की अरदास, मरखने-से बैल वाले दिन, सफेदीलाल के काले मुख; या फिर, हैं जटायु से अपाहिज हम।.... इन बिम्बों-प्रतीकों से न केवल आमजन की व्यथा, घुटन और विवशता की व्यंग्यधर्मी चित्रावली दिखाई देती है, बल्कि आस जगाने वाले सुन्दर और चित्त में उल्लास उठाने वाले चित्र भी प्रगट होते हैं जिनके चरित्र साधनहीनता के वावजूद संघर्ष करना नहीं छोड़ते और जिजीविषा के सम्मान में जीवन-संगीत सुनाते है, वह भी अपने पूरे स्वाभिमान के साथ।

कृति का शीर्षक गीत, हैं जटायु से अपाहिज हम’ जिसमें वर्तमान सत्ता-व्यवस्था से संघर्षरत आम आदमी की बहुस्तरीय व्यथाओं का अंकन है। उसकी हालत उस जटायु जैसी है जो सीता की रक्षा में शक्तिशाली रावण से टकराने का हौसला रखता है और उससे लड़ने में अपने पंख कटवाकर अपाहिज ज़िन्दगी जीने को मजबूर है। मिथ भले ही जटायु को राम के हाथों स्वर्गारोहण उपलब्ध कराता हो, लेकिन आज के अपाहिज जटायु को कोई राम नसीब नहीं है। गीतकार ने जटायु के प्रतीक के माध्यम से आम आदमी के संघर्ष और रावण जैसी अनैतिक सत्ता-व्यवस्था के समक्ष उसकी विवशता को अंकित किया है। यह सता-व्यवस्था आम आदमी को जीने नहीं दे रही और नित हो रहे सीताहरण में वह अपाहिज जटायु की भूमिका में ही रह जाता है। यहाँ सीताहरण भी किसी घटना विशेष का उल्लेख-भर नहीं है, बल्कि मानवीय मूल्यों, संवेदना और नैतिकता के निरन्तर हो रहे ह्रास का प्रतीक है। गीत देखें :
दम घुटा जाता हमारा धुँए के वातावरण में, क्या करें ?/ है नहीं सामर्थ्य इतनी कि खरीदें / सूर्य से थोडा उजाला/ गगनचुम्बी कीमतों के देश में / है बहुत मुश्किल जुटाना एक रोटी का निवाला / हैं जटायु-से अपाहिज हम / हरेक सीताहरण में, क्या करें ? / एक ध्रुवतारा हमारी ज़िन्दगी, / पर बिक रही है भाव रद्दी के / रोज बन्दर-सा नचाते हैं / हमें उफ़! / ये मदारी राजगद्दी के / ढेर सारे प्रश्न अगवानी किया करते /नये नित जागरण में, क्या करें ?

संग्रह में राजनीति और नेताओं पर एक-से-एक बढ़कर गीत हैं। उनमें कहीं आज के राजनैतिक यथार्थ को सहजता से गीत में ढाल दिया गया है, तो कहीं सत्ता के ठेकेदारों पर उनकी चुनावी चालबाजियों पर करारा व्यंग्य करते हुए उस तमाशे का बड़े ही कलात्मक चित्र खींचा गया है कि कैसे तमाशबीन जनता छली जाती है ! ‘और तमाशा ख़त्म हुआ’ गीत का मुखड़ा और दो बन्द देखें :
गरम तवे पर पानी कड़का और तमाशा ख़त्म हुआ / ज़ोर-शोर से राजा गरजा और तमाशा ख़त्म हुआ।
सौ सपनों की झड़ी लगा दी, जितने चाहो लूटो रे / देख, बन्द का बोर्ड लग गया, ख़त्म तमाशा फूटो रे /
नज़रें आसमान से चिपकीं, रिमझिम पानी बरसेगा / काला बादल चीखा, तड़का और तमाशा ख़त्म हुआ।
देख, दौड़ता-फिरता राजा चढ़कर उड़नखटोले से / तुझको क्या जादू दिखलाये रोज़ नया इस झोले से /
तूने इसको तौला-परखा राजतिलक अभिषेक किया / देख, रोज़ अब रगड़ा-भंगड़ा और तमाशा ख़त्म हुआ।
रचनाकार केवल राजनैतिक विद्रूप के चित्र खेंचने तक ही सीमित नहीं है, वह सत्ताधारकों से आँख मिलाकर बात करना भी जानता है। ‘और तपा ले धूप’ गीत में जहाँ उसका यह रूप प्रखरता से प्रगट हुआ है, वहीं उसका रचना-कौशल द्रष्टव्य है। गीत में वह प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से व्यंग्यधर्मी पंक्तियों से सत्ता से संवाद स्थापित करता है :
और तपा ले धूप, रहम मत करना। / लू से भरी चला तू गर्म हवा / धरती कर दे तपता हुआ तवा /रोटी-सा तू सेंक हमें, क्या करना ! / इतना तड़पा, जमकर बहे पसीना / निभा दुश्मनी, मुश्किल कर दे जीना /हम-सी भेड़-बकरियों से क्या डरना ?

प्रकृति के बिम्ब-चित्र और उसका सान्निध्य सर्जकों को लुभाता रहा है। नवगीतकार ने भी अनेक गीतों में निष्काम और निर्विकार जीवन-राग प्रकृति के माध्यम से गा दिया है। ‘ये झूमते परिन्दे’ शीर्षक वाले गीत के माध्यम से आशियाने की तलाश को लेकर गीतकार की जीवन-दृष्टि देखें—
ऊँची उड़ान भरकर, नभ चूमते परिन्दे / कुछ तो बता रहे हैं, ये झूमते परिन्दे। / पहली किरण के माथे को चूम पन्थगामी / ये दूर उड़ चले हैं सूरज को दे सलामी। / ये निर्विकार गाथा के निश्छली पहरुए। / यायावरों से हर पल, ये घूमते परिन्दे। / संतों सा थक गये तो. पाया जो खा रहे हैं / फुनगी पे रामधुन की धूनी रमा रहे हैं।/ जो मिल गया वो अपना, जो न मिला वो सपना / थक करके साँझ ढलते घर ढूँढ़ते परिन्दे।।

आजकल यह धारणा बन चुकी है कि नवगीत में शृंगार का आना उसे ‘नवगीत’ से खारिज करने जैसा है, लेकिन यह औचित्यपूर्ण नहीं। वास्तव में नवगीत मनुष्य के सामयिक सन्दर्भों में जीवन-संघर्ष का पक्षधर है, पर यह संघर्ष दम्पति या प्रेमी-प्रेमिका मिलकर भी तो कर सकते हैं अथवा आपसी संबंधों की संघर्षपूर्ण छवि भी प्रस्तुत कर सकते हैं। यदि ऐसा हो तो, शृंगार नवगीत में अछूत कैसे हो सकता है ? हाड़-माँस के बने हम क्या अपने दिलों की बात भी नहीं कर सकते जिसमें संघर्ष की छाया हो ! मानव-हृदय के ऐसे उदगार जिनसे मिलन की वे बाधाएँ प्रगट होती हों जिनके मूल में सामजिक अथवा राजनैतिक सत्ता का अन्याय या शोषण हो, वह अवश्य ही नवगीत का विषय है। हाँ, नवगीत में यदि शृंगार के पारंपरिक रूप, अर्थात दैहिकता को ही स्थान मिला है और कथ्य में सतही प्रेम-भावनाएं प्रगट हुई हों, तो स्थिति भिन्न है। कृष्ण भारतीय के यहाँ जितने भी श्रांगारिक गीत हैं, वे अधिकांशतः जीवन के खुरदरे यथार्थ से संपृक्त हैं। ‘जूड़े में तुम्हारे’ गीत में शृंगार पक्ष का वर्णन अवश्य है, लेकिन रोजी-रोटी की समस्या सुलझाने में आज की भागमभाग जीवन-शैली के चलते प्रेम-प्रदर्शन का समय किसके पास बचा है ? उल्टे, संयोग की कसक बेचैनी पैदा करती है। इसी से संदर्भित गीत में नायक का वैविश्य कितने मार्मिक ढंग से प्रस्तुत हुआ है ! देखिए—
अब समय मिल ही नहीं पाता / कि जूड़े में तुम्हारे टांक दूँ / एक मोगरे का फूल। / व्यस्तता ने इस क़दर तोड़ा / अव्यस्थित हो गये सारे इरादे / पेट की ख़ातिर बिके सब / यंत्र को, रंगीन वादे /हूँ अपाहिज वक़्त का मारा / तभी तट झील की हर शाम / तुम पर फेंकती है / मुट्ठियों-भर धूल।/ एक लम्बे वक़्त से कितना बुलाया है / पसीने में डुबा, पल-छिन / किन्तु अब तक तो नहीं लौटे / पुराने मोर-पंखी दिन / उम्र चढ़ती जा रही है
सीढ़ियाँ / और कोहरे की अँधेरी घाटियों में / डूबते से जा रहे हैं /ये नयन के फूल।

गीतकार कवि होने की व्यथा-कथा को भी अपने एक गीत में दर्ज़ करता है। गीत की रचना तभी होती है जब गीतकार तपस्वी की भूमिका में उतरता है, वैयक्तिकता को विस्मृत कर परकाया में प्रवेश कर संसृति के कल्याण हेतु चिंतन-मनन की प्रक्रिया में उतरता है और मनोभावों को रूप और दृष्टि के सामंजस्य से उपजी लयात्मक वाणी देता है। संग्रह का दूसरा गीत, ‘कवि होना भी इक दधीच के तप जैसा है’ इसका प्रमाण है। गीतकार कहता है :
कवि होना भी इक दधीच के तप जैसा है। / सबका दुख आँखों से गहना, मथना, सहना / शब्द-शब्द गुनना, बुनना / गीतों का कहना /बहुत कठिन तनहा, संतों के तप जैसा है। / मन-सागर-मंथन ने उगले हीरे-मोती / अमृत बाँट, गरल पी जागीं रातें सोती / सूफी दरगाहों के फक्कड़ जप जैसा है।

विसंगतियों और विद्रूपताओं के चित्रांकन और उनकी भर्त्सना में जहाँ गीतकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है, वहीं उसके गीतों में आशा का संचार भी है कि विद्रूप की काली बदली शीघ्र छँटेगी और सुख का सूरज निकलेगा। संग्रह का अन्तिम गीत ‘सूरज ने सन्देश दिया है’ इसका साक्षी है :
वक़्त आ गया अब, काली बदली को छँटना है / सूरज ने सन्देश दिया है, उसे निकलना है।
भगदड़-सी मच गयी, मचा है रोना-धोना-सा / खाट खड़ी भ्रस्थाचारों की, क़द है बौना-सा /
अब नक़ली चेहरों पर चढ़ा मुल्लमा हटना है।

कृतिकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा- तुकांत के मामले में उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- नाका/झाँका, छँटना/हटना, बैठ/ऐंठ आदि। एक गीत के तुकांत हैं- लादे/थापे/हाँपे। वास्तव में ‘हाँपे’ को ‘हाँफे’ की तरह ही प्रयुक्त किया गया है। उसे यदि ‘हाँफे’ रहने दिया जाता, तो ‘ए’ स्वर से तुकांत का निर्वाह हो जाता और वाक्य में स्वाभाविक क्रिया-पद भी आ जाता। एक स्थल पर ‘स्मृतियाँ’ शब्द को छह मात्रिक (SSS) माना गया है, जबकि उसमें चार मात्राएँ (llS) होती हैं। संग्रह के अनेक गीत वर्णिक छंदों में हैं, लेकिन उनमें दीर्घ वर्णों को लघु के रूप में प्रयोग किया गया है। यह प्रयोग ग़ज़ल में तो चल जाता है, लेकिन गीत में अखरता है। गीत विशुद्ध मात्रिक छंद है। यदि उसमें वर्णिक छंद प्रयुक्त भी हुआ है तो फिर अपवाद को छोड़ते हुए किसी भी दीर्घ वर्ण का स्वरपात नहीं होना चाहिए।... तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।

रचनाकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। नवगीतों में लोक का पुट भी दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आजकल गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना अधिक हो रही है, परिणामस्वरूप, उनमें अपेक्षित संवेदना अनुपस्थित है और वे पाठक के मर्म को नहीं छू पातीं। भोथरी संवेदनावाली कविता हम पर घटित नहीं हो सकती, जबकि आज ऐसी रचनाओं की भरमार है- वे चाहे गीतों में हों अथवा मुक्तछन्द कविता में।... भारतीय जी ने अपने संग्रह के माध्यम से इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है। हिन्दी के नवगीत संसार द्वारा उनके संग्रह का स्वागत किया जाना चाहिए।
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समीक्षा

 

 

पुस्तक परिचय:
[गीत नवगीत संग्रह- समय की पगडंडियों पर, रचनाकार- त्रिलोक सिंह ठकुरेला, प्रकाशक- राजस्थानी ग्रन्थागार, प्रथम माला, गणेश मंदिर के पास, सोजती गेट, जोधपुर (राजस्थान), प्रथम संस्करण संस्करण, मूल्य- रु. २००, पृष्ठ- ११२, समीक्षा- सुनीता काम्बोज]
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गीत का फलक विस्तृत है। साहित्य की सबसे  प्राचीन विधा होने के साथ- साथ आज भी गीत मानवीय हृदय के सबसे नजदीक है। गीत विधा की परंपरा को विस्तार देता एक गीत संग्रह "समय की पगडंडियों पर" चलते हुए अनेक इंद्रधनुषी अनुभव समेट कर साहित्य अनुरागियों के लिए उत्कृष्ट गीतों का गुलदस्ता लेकर आया है।
प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी द्वारा रचित गीत संग्रह "समय की पगडंडियों पर" पढ़ने का सुंदर सुयोग बना। इस संग्रह के गीतों एवं नवगीतों में समाहित  माधुर्य, गाम्भीर्य, अभिनव कल्पना, सहज, सरल भाषाशैली, गेयता की अविरल धार, हृदयतल  को अपनी  मनोरम सुगन्ध से भर गई।  बाल साहित्य, कुण्डलिया छंद व अनेक काव्य विधाओं में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार श्री ठकुरेला जी  ने बड़ी संजीदगी से अपनी गहन अनुभूतियों  को गीतों में उतारा है। 

इन गीतों में कभी शृंगार की झलक दिखाई देती है तो कभी जीवन दर्शन। कभी देश प्रेम का रंग हिलोर लेता है तो कभी सामाजिक विसंगतियाँ। बड़ी खूबसूरती से गीतों में छंद परम्परा का निर्वाह किया गया है। प्रबल भाव, सधा शिल्प सौष्ठव। हर दृष्टिकोण से इस संग्रह के गीत भाव एवं कला पक्ष की कसौटी पर कसे हुए हैं।  "करघा व्यर्थ हुआ कबीर"   इस गीत में कवि ने बदलते परिवेश एवं आधुनिक जीवन शैली की और इशारा करके प्रतीतात्मक शैली का प्रयोग किया है। नवगीतों में अदभुत प्रयोग देखते ही बनता है।

करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया

काशी में नंगों का बहुमत
अब चादर की किसे जरूरत
सिर धुन रहे कबीर 
रुई का 
धुनना छोड़ दिया

बेरोजगार शिल्पकारों और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य का  सजीवचित्रण करते हुए कवि अपनी वेदना व्यक्त करता है। गुजरे जमाने का स्मरण करते हुए  कवि  पाषाण बनती जा रही मानवीय संवेदना देख  व्याकुल है। कवि मन कहता है कि अब सामाजिक मूल्यों का कोई मोल नहीं क्योंकि लोग काँच को ही मोती समझ रहे हैं। एक अन्य गीत गीत "बिटिया" के माध्यम से कवि ने मन के अहसास  को शब्द देकर नारी शोषण पर करारा प्रहार किया है।

बिटिया।
जरा संभल कर जाना
लोग छिपाए रहते खंज़र
गाँव, शहर
अब नहीं सुरक्षित
दोनों आग उगलते
कहीं कहीं तेजाब बरसता

कवि का कोमल मन समय का दर्पण देख गीत के माध्यम से बिटिया की पीड़ा को शब्द देकर कह रहा है कि अब वह कहीं भी सुरक्षित नहीं। तेजाब कांड के प्रति रोष जताते हुए कवि ने पथभ्रष्ट युवाओं  को काँटे दार वृक्ष की संज्ञा दी है। ठूठ होते संस्कारों से सावधान करता हुआ कवि हृदय बेटियों के साथ होती दुखद घटनाओं से आतंकित हैं।

आखिर कब तक
चुप बैठेंगे
चलों वर्जनाओं को तोड़ें
जाति, धर्म, भाषा में
उलझे
सबके चेहरे बंटे हुए हैं
व्यर्थ फँसे हुए हैं
चर्चाओं में
मूल बात से कटे हुए हैं
आओ बिखरे संवादों की
कड़ियाँ कड़ियाँ फिर से जोड़ें।

"कड़ियाँ फिर से जोड़ें" आशा से भरा यह नवगीत इस बात का परिचायक है कि कवि आज भी लहरों में भटकी कश्तियों के किनारे पर आने की आशा रखता है। आज कवि आवाज दे रहा है कि जात-पात, धर्म, भाषा से ऊपर उठकर हम नए भारत का निर्माण करें। इसके अलावा हरसिंगार रखो, अर्थ वृक्ष, मन उपवन, मिट्टी के दीप, बदलते मौसम, सुनों व्याघ्र  आदि गीतों एवं नवगीतों का काव्य सौन्दर्य सराहनीय है।

आँखें फाड़े
खड़े हुए हैं
राजमहल के आगे
शायद राजा जागे।
इस नवगीत के मुखड़े से ही इसकी सारी खूबसूरती प्रकट हो जाती है। राजनीतिक तानशाही के प्रति विद्रोह के तीव्र स्वर जब विस्फुटित होते है तब मन मे दबा आक्रोश जगजाहिर हो जाता है। शासक कुम्भकरणी निद्रा के वशीभूत है। राजनीतिक दल अपने अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे हैं। कवि के मन मे सुलगती चिंगारी अब गीत का रूप लेकर प्रज्वलित हुई है।
जब मन उद्वेलित होता है तब  प्रेम की सरस, मधुर बूँदे हृदय को शीतलता प्रदान करती हैं। 
शृंगार रस के गीतों में कवि का प्रियतम के प्रति समर्पण भाव का परिचय मिलता है।  

मैं अपना मन मन्दिर कर लूँ
उस मंदिर में तुम्हें बिठाऊँ।
वंदन करता रहूँ रात-दिन
नित गुणगान तुम्हारा गाऊँ।

गीतों में कहीं प्रेम की पराकाष्ठा है तो कभी विरह की कठिन घड़ियाँ। 
कवि "दिन बहुरंगे",  गीत के द्वारा स्वार्थ की नींव पर टिके रिश्तों की  तस्वीर दिखलाता है, तो कभी पिता के विशाल चरित्र को शब्दों में ढालने का सफल प्रयास करता है। यह संग्रह में ८२ गीतों की माला है माला के हर मोती की आभा अनोखी है। जड़ों से जुड़ी भावनाओं से रचे गए गीत मन के तार छूने में सक्षम हैं।

"समय की पगडण्डियों पर" गीत संग्रह का प्रकाशन "राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर" के आर्थिक सहयोग से होना सुखद है।  यह पुस्तक पढ़ना अत्यंत सुखद रहा। श्री ठकुरेला जी पेशे से इंजीनियर हैं।   अनेक पुस्तकों का सम्पादन कर चुके हैं। उनके तीन एकल संग्रह प्रकाशित हैं। मुझे विश्वास है यह गीत संग्रह पाठक  वर्ग में अपना उच्च स्थान बनाएगा। आशा करती हूँ कि शीघ्र ही उनकी अन्य कृतियों से हमें रूबरू होने का अवसर मिलेगा।
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श्रद्धांजलि: विराट

हिंदी गीति जगत शोकाकुल अब विराट ही नहीं रहे
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'मुक्तिकाएँ लिखें, दर्द गायें लिखें, 
हम लिखें धूप भी, हम घटाएँ लिखें। 
हास की अश्रु की सब छटाएँ लिखें, 
बुद्धि की छाँव में भावनाएँ लिखें, 
सत्य के स्वप्न सी कल्पनाएँ लिखें, 
आदमी की बड़ी लघुकथाएँ लिखें। 
सूचनाएँ नहीं, सर्जनाएँ लिखें, 
भव्य भवितव्य की भूमिकाएँ लिखें। 
पीढ़ियों के लिए प्रार्थनाएँ लिखें, 
केंद्र में रख मनुज मुक्तिकाएँ लिखें।'
*
विश्ववाणी हिंदीके लाड़ले गीतकार, समर्थ दोहाकार, अन्यतम मुक्तककार, सशक्त ग़ज़लकार, सुधी समीक्षक, नई कलमों को हृदय से प्रोत्साहित करने तथा बढ़ते देख आशीष वर्षण करनेवाले, अनेक भवनों तथा सेतुओं का निर्माण कराकर राष्ट्र निर्माण में योगदान करनेवाले इंदौर निवासी चंद्र सेन 'विराट' जी के मधुर रचनाओं काका श्रवण करने के लिए माँ शारदा ने उन्हें अपने धाम में बुला लिया। 
३ दिसंबर १९३६ को इंदौर निवासी श्रीमती वेणु ताई तथा श्री यादवराव डोके को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसने १९५८ में नगरी अभियंत्रण में सनतक की उपाधि प्राप्त कर म.प्र. लोक निर्माण विभाग में सहायक यंत्री के पद पर राष्ट्र निर्माण में योगदान देना आरम्भ किया और १९९४ के अंत में सेवा निवृत्त हुए। १४ गीत संग्रहों (मेंहदी रची हथेली १९६५, ओ मेरे अनाम १९६८, स्वर के सोपान १९६९, किरण के कशीदे १९७४, मिट्टी मेरे देश की १९७६, पीले चांवल द्वार पर १९७६, दर्द कैसे चुप रहे १९७७, पलकों में आकाश १९७८, बूँद-बूँद पारा १९९६, गाओ कि जिए जीवन २००३, सरगम के सिलसिले २००८, ओ गीत के गरुण २०१२), ११ हिंदी ग़ज़ल संग्रहों (निर्वसना चाँदनी १९७०, आस्था के अमलतास १९८०, कचनार की टहनी १९८३, धार के विपरीत १९८४, परिवर्तन की आहट १९८७, लड़ाई लम्बी है १९८८, न्याय कर मेरे समय १९९१, फागुन माँगे भुजपाश १९९३, इस सड़ी का आदमी १९९७, हमने कठिन समय देखा है २००२, खुले तीसरी आँख २०१०), ५ मुक्तक संग्रहों (कुछ पलाश कुछ पाटल १९८९, कुछ छाया कुछ धुप १९९८, कुछ सपने कुछ सच २०००, कुछ अंगारे कुछ फुहारें २००७, कुछ मिश्री कुछ नीम २००९, २ दोहा संग्रहों (चुटकी-चुटकी चाँदनी २००६, अँजुरी अँजुरी धूप २००८) तथा ७ सम्पादित ग्रंथों (गीत-गंध १९६६,हिंदी के मनमोहक गीत १९९७, हिंदी के सर्वश्रेष्ठ मुक्तक १९९८, टेसू के फूल २००३, कजरारे बादल २००४, धुप के संगमरमर २००५, चाँदनी-चाँदनी २००७ के माध्यम से विराट जी ने हिंदी-साहित्य को समृद्ध किया है। 
विराट -वैभव १९९९, चन्द्रसेन विराट के प्रतिनिधि गीत १९९९, विराट विमर्श २००४, चन्द्रसेन विराट का काव्य संवेदन और शिल्प २००६, चद्रसेन विराट की प्रतिनिधि हिंदी ग़ज़लें आदि २०११ विराट जी के सृजन पर केंद्रित कृतियाँ हैं। 
चन्द्रसेन विराट ने हिन्दी गजलों को एक नया स्वरूप प्रदान कर 'मुक्तिका' संज्ञा दी। अपनी ‘मुक्तिका के माध्यम से उन्होंने कथ्य और शैली के नये प्रयोगों को हिन्दी भाषा के सांचे में अच्छी तरह ढालने का कार्य किया । कवि का अपना परिवेश है, अपनी संवेदनाएं हैं। नवगीतों, गज़लों से मिली-जुली मुक्तिकाओं में आम आदमी के समकालीन जीवन को पैनी दृष्टि से देखा है । हिन्दी की नयी छवि के रूप में निजी छन्दों का कलात्मक प्रयोग कर एक नयी जमीन जोड़ी है, जिसमें व्यावहारिक जीवन का कटु यथार्थ है । आज की भौतिकतावादी, वैज्ञानिक, यान्त्रिक सभ्यता का सजीव चित्रण उनकी कविताओं में हैं। उन्होंने गीत-ग्रन्थ का भी सम्पादन किया । वे सहृदय, संवेदनशील कवि हैं, किन्तु आधुनिक परिस्थितियों में आडम्बर से परे मानवता के सहज गीतकार हैं । उनकी कविताएं प्रेम और मानवीय रिश्ते से गहरे रूप में जुड़ी हैं। 
चंद्रसेन विराट का कहना है कि 'मुक्तिका' कोई स्वतंत्र विधा नहीं है। यह हिंदी ग़ज़ल की शुरुआत के वर्षों में मेरे द्वारा सुझाया हुआ - हिंदी ग़ज़ल के लिए वैकल्पिक नाम भर था- 'मुक्तिका'। मुझे मेरे संस्कार में परिनिष्ठित हिंदी मिली और यही मेरी अर्जित भाषा रही, इसीलिए स्वाभाविक रूप से मैंने वही भाषा प्रयुक्त की, जिसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग स्वभाववश ही हुआ। हर कवि की अपनी भाषा एवं डिक्शन होता है। मेरी यही तत्समी हिंदी मेरी विशिष्टता भी रही। पाठकों ने तत्सम शब्दों को बहर में सही रूप में प्रयुक्त करके अर्थवत्ता बढ़ाने के प्रयोग की प्रशंसा की तो ठेठ उर्दू ग़ज़ल प्रेमियों ने आपत्तियां भी दर्ज करायीं। मेरी यह परिनिष्ठित हिंदी काव्य भाषा कभी सराही गई तो कभी कटु आलोचना भी हुई।
मान्य हिंदी भाषा में लिखी ग़ज़ल को ही सामान्य रूप से हिंदी ग़ज़ल कहा जाता है। सर्वमान्य हिंदी भाषा के प्रयोग के कारण ही कोई ग़ज़ल, हिंदी ग़ज़ल कही जाती है। अन्यथा तो वह ग़ज़ल ही है। उर्दू ग़ज़ल जानी-मानी उर्दू भाषा में लिखी गई (कालांतर में तथाकथित हिंदुस्तानी) विभिन्न बहरों में बद्ध गीति रचना है, गीति-तत्व जिसकी मूल अर्हता है। यही ग़ज़ल का काव्य रूप यदि परिनिष्ठित हिंदी (संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली अनिवार्य नहीं) में लिखा जाए तो उसे हिंदी ग़ज़ल कहा जाना सर्वथा उचित है। ग़ज़ल केवल हिंदी में ही नहीं, अपितु हिंदीतर भाषाओं जैसे, मराठी, गुजराती, बांग्ला आदि में भी लिखी जा रही है। और तो और, संस्कृत में भी ग़ज़लों की रचना हो रही है। इन भाषाओं में लिखी ग़ज़ल को क्रमशः मराठी ग़ज़ल, गुजराती ग़ज़ल, बांग्ला ग़ज़ल और संस्कृत ग़ज़ल ही तो कहा जाएगा। इसीलिए हिंदी भाषा में लिखी गई ग़ज़ल को हिंदी ग़ज़ल ही तो कहा जाएगा। उर्दू भाषा की ग़ज़ल को सिर्फ देवनागरी लिपि में लिख भर देने से वह हिंदी ग़ज़ल नहीं हो जाती। उर्दू शब्दावली एवं विन्यास के कारण वह उर्दू की ग़ज़ल ही रहेगी। 'ग़ज़ल' तो एक पात्र है। इस पात्र में जिस भाषा का रस आप भरेंगे, उसी भाषा का रस यह पात्र देगा। यही बात हिंदी ग़ज़ल पर भी लागू है।
विराट जी के अनुसार साहित्य में काल क्रमानुसार हर पीढ़ी अपनी अग्रज पीढ़ी से संस्कारित, शिक्षित-दीक्षित होती आयी है। ऐसा ही हमारी पीढ़ी के साथ हुआ है और हमारे बाद की पीढ़ी के साथ भी होगा और हुआ है। 
***
दादा विराट के सांनिंध्य में बिताये पलों की स्मृतियाँ मन पर आच्छदित हैं। चित्र में अमरकंटक यात्रा पर लेजाने के पूर्व मेरी जीवनसंगिनी डॉ. साधना वर्मा, श्रीमती विराट, विराट जी, मैं तथा बिटिया तुहिना।

नवगीत संग्रह २०१८

नवगीत संग्रह २०१८
क्रमांक नाम नवगीतकार संस्करण प्रकाशक
१ सहमा हुआ घर मयंक श्रीवास्तव तृतीय संस्करण अयन प्रकाशन दिल्ली २ समय है सम्भावना का जगदीश पंकज प्रथम संस्करण ए. आर. पब्लिशिंग कम्पनी, दिल्ली * ३ नदी जो गीत गाती है शिवानंद सहयोगी प्रथम संस्करण अयन प्रकाशन ४ समय की पगडंडियों पर त्रिलोक सिंह ठकुरेला प्रथम संस्करण राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर * ५ मोरपंखी स्वर हमारे ब्रजकिशोर वर्मा शैदी प्रथम संस्करण अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद ६ आदिम राग सुहाग का कुमार रवीन्द्र प्रथम संस्करण उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ ७ शब्द वर्तमान जयप्रकाश श्रीवास्तव प्रथम संस्करण बोधि प्रकाशन, जयपुर * ८ फिर माड़ी रंगोली महेश अनघ प्रथम संस्करण निखिल पब्लिशर्स/ डिस्टिब्यूटर्स आगरा ९ गीतों के गुरिया महेश अनघ प्रथम संस्करण निखिल पब्लिशर्स/ डिस्टिब्यूटर्स आगरा १० चारों ओर कुहासा है , रघुवीर शर्मा प्रथम संस्करण शिवना प्रकाशन, सीहोर ११ पहने हुए धूप के चेहरे- मधुकर अष्ठाना, प्रथम संस्करण गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद १२ सयानी आहटें हैं बृजनाथ श्रीवास्तव प्रथम संस्करण ज्ञानोदय प्रकाशन, कानपुर १३ सम्बन्धों में चीनी कम है विजय राठौर प्रथम संस्करण बोधि प्रकाशन, जयपुर १४ भौचक शब्द अचंभित भाषा शिवानंद सहयोगी प्रथम संस्करण अयन प्रकाशन, दिल्ली १५ फुसफुसाते वृक्ष कान में हरिहर झा प्रथम संस्करण अयन प्रकाशन, दिल्ली * १६ कुछ फूलों के कुछ मौसम के जयकृष्ण राय तुषार प्रथम संस्करण साहित्य भंडार, इलाहाबाद = १७ संदर्भों से कटकर रविशंकर मिश्र रवि प्रथम संस्करण बोधि प्रकाशन, जयपुर = १८ ओझल रहे उजाले विजय बागरी विजय प्रथम संस्करण उद्भावना प्रकाशन गाजियाबाद *
१९. सड़क पर संजीव वर्मा 'सलिल' प्रथम संस्करण समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर *
२०
निकष पर: २०१८ में प्रकाशित नवगीत संकलन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[शब्द वर्तमान, नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१८, आकार २०.५ से. x १४ से., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १२८, मूल्य १२०/- , बोधि प्रकाशन, सी ७६ सुदर्शनपुरा औद्योगिक क्षेत्र विस्तार, नाला रोड, २२ गोदाम, जयपुर ३०२००६, चलभाष ९८२९०१८०८७, bodhiprakashan@gmail.com, रचनाकार संपर्क आई.सी.५ सैनिक सोसायटी, शक्ति नगर, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९१ ७८६९१९३९२७, ९७१३५४४६४२, समीक्षक संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ७९९९५५९६१८ ]
जयप्रकाश श्रीवास्तव मन का साकेत गीत संग्रह (२०१२) तथा परिंदे संवेदना के गीत-नवगीत संग्रह (२०१५) के बाद अब 'शब्द वर्तमान' नवगीत संग्रह के साथ नवगीत संसद में दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। जयप्रकाश जी के नवगीतों में समसामयिक समस्याओं से आँखें चार करते हुए दर्द से जूझने, विसंगतियों ले लड़ने और अभाव रहते हुए भी हार न मानने की प्रवृत्तिमानव मन की जटिलता, संबंधों में उपजता-पलता परायापन, स्मृतियों में जीता गाँव, स्वार्थ के काँटों से घायल होता समरसता का पाँव, गाँव की भौजाई बनने को विवश गरीब की आकांक्षा, विश्वासों को नीलाम कर सत्ता का समीकरण साधती राजनीति, गाँवों को मुग्ध कर उनकी आत्मनिर्भरता को मिटाकर आतंकियों की तरह घुसपैठ करता शहर अर्थक समूचा वर्तमान है। जयप्रकाश जी शब्दों को शब्दकोशीय अर्थों से मिली सीमा की कैद में रखकर प्रयोग नहीं करते, वे शब्दों को वृहत्तर भंगोमाओं का पर्याय बना पाते हैं। उनके गीत आत्मलीनता के दस्तावेज नहीं, सार्वजनीन चेतना की प्रतीति के कथोकथन हैं। भाषा लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता तथा उक्ति वैचित्र्य से समृद्ध है।
जय प्रकाश जी के नवगीतों का मुखड़ा और सम वजनी पंक्तियाँ सार कह देती हैं, अंतरा तो उनका विस्तार जैसा होता है-
"उड़ मत पंछी
कटे परों से
बड़े बेरहम गिद्ध यहाँ के
(अंतरा)
तन से उजले
मन के काले
बन बैठे हैं सिद्ध यहाँ के
(अंतरा) सत्ता के
हाथों बिकते हैं
धर्मभ्रष्ट हो बुद्ध यहाँ के
(अंतरा)
खींच विभाजन
रेखा करते
मार्ग सभी अवरुद्ध यहाँ के।
अब अंतरे देखें तो बात स्पष्ट हो जायेगी।
१. नोंच-नोंच कर
खा जायेंगे
सारी बगिया
पानी तक को
तरस जायेगी
उम्र गुजरिया,
२. हकदारी का
बैठा पहरा
साँस-साँस पर
करुणा रोती
कटता जीवन
बस उसाँस पर,
३. तकदीरों के
अजब-गजब से
खेल निराले
तदबीरों पर
डाल रहे हैं
हक के ताले।
नवगीत लेखन में पदार्पण कर रही कलमों के लिए मुखड़े अंतरे तथा स्थाई पंक्तियों का अंतर्संबंध समझना जरूरी है। विदेश प्रवास के बीच बोस्टन में लिखा गया नवगीत परिवेश के प्रति जयप्रकाश जी की सजगता की बानगी देता है-
तड़क-भक है
खुली सड़क है
मीलों लंबी खामोशी है।

जंगल सारा
ऊँघ रहा है
चिड़िया गाती नहीं सवेरे
नभ के नीचे
मेघ उदासी
पहने बैठे घोर अँधेरे
हवा बाँटती
घूम रही है
ठिठुरन वाली मदहोशी है।

जयप्रकाश जी ने मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग कम किंतु कुशलता से किया है-
"मन का क्या है
रमता जोगी, बहता पानी
कभी हिरण सा भरें कुलाँचें
कभी मचलता निर्मल झरना",
या "मुर्दों की बस्ती में
जाग रहे मरघट हैं",
"सुविधा के खाली
पीट रहे ढोल हैं
मंदी में प्रजातंत्र
बिकता बिन मोल है",
"अंधों के हाथ
लग गई बटेर
देर कहें या इसको

कह दें अंधेर" आदि

गीत नवगीत संग्रह,समय है संभावना का, जगदीश पंकज, प्रथम संस्करण २०१८, आईएसबीएन  978-93-86236-76 -0 पृष्ठ- १२८, मूल्य- रु. २००, प्रकाशक- ए.आर.पब्लिशिंग कं., दिल्ली -110032 , संस्करण, समीक्षा- डॉ. ईश्‍वर सिंह तेवतिया] * 
नवगीतकार श्री जगदीश पंकज प्रशासनिक और सामाजिक दोनों व्यवस्थाओं से लड़कर अपने सच के समर्थन में पूरी शक्ति से खड़े होकर दुर्गम, कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हैं। वे समझौता नहीं संघर्ष को स्वीकारते हैं। पंकज जी के लिए नवगीत लेखन स्थापित को नष्ट कर विस्थापित को स्थापित करने का हथियार है। वे लोक की आवाज अनसुनी होते देखकर आव्हान करते हैं-

देश निरंकुशता का अभिनय देख रहा
देख रहा झूठे जुमलों को वादों को
देख रहा जनतंत्र विवश मतदाता को
और बदलते हुए नित्य संवादों को
केवल निर्वाचन तक सीमित कर डाला
चतुर भेड़ियों के दल ने सिंहासन को
आओ मिल षड्यंत्रों का आकलन करें

आओ अपने लोकतंत्र को नमन करें
लोक को मताधिकार तो है किन्तु प्रतिनिधि चुनने का नहीं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जनहित की चिंता करने के स्थान पर सरकारों के पक्ष या विपक्ष में प्रचार में व्यस्त है। ‘समय है संभावना का’ में यह विद्रूप रेखांकित किया गया है। ‘जल्दी से आलस्य उतारो’ में इस विसंगति को सामने लाने के साथ आलस छोड़कर परिवर्तन करने का भी है-
बिका मीडिया फेंक रहा है, मालिक की मंशा परदे पर
और साथ में बेच रहा है, बाबाओं के भी आडम्‍बर
अगर नहीं सो रहे उठो अब, अपने मुँह पर छींटे मारो
जाग गए हो अगर समय से, जल्दी से आलस्य उतारो
कविवर जगदीश पंकज अपने वैचारिक चिंतन को नवगीतों में पिरोकर प्रस्तुत करने की कला में निपुण हैं। 
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समय की पगडंडियों पर, गीत-नवगीत संग्रह, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ- ११२, मूल्य- रु. २००, प्रकाशक राजस्थानी ग्रंथागार, प्रथम माला, गणेश मंदिर के पास, सोजती गेट, जोधपुर, समीक्षा सुनीता काम्बोज] 
समय की पगडण्डियों पर बाल साहित्य तथा कुण्डलिया छंद में निष्णात श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला का प्राथन गीत-नवगीत संग्रह है। गीति रचनाओं में सामाजिक विसंगतियाँ, राष्ट्रीयता, जीवन दर्शन, श्रृंगार आदि सहज दृष्टव्य हैं। मोलत: बाल साहित्यकार होने के कारण ठकुरेला जी को अपनी बात सहज, सरल भाषा-शैली में कहना पसंद है। दोहा, रोला व कुण्डलिया छंद में उनकी निपुणता ने भाषिक प्रवाह, सम्यक शब्द चयन तथा लय से इन रचनाओं को समृद्ध किया है। प्रबल भाव पक्ष, सधा शिल्प सौष्ठव तथा जमीन से जुड़ाव इन रचनाओं का वैशिष्ट्य है। युगीन विसंतियों को लक्ष्य कर 'करघा व्यर्थ हुआ कबीर' नवगीत में कवि कहता है- 
करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया

काशी में नंगों का बहुमत
अब चादर की किसे जरूरत
सिर धुन रहे कबीर 
रुई का 
धुनना छोड़ दिया
सामाजिक मूल्यों के क्षरण तथा पारस्परिक विश्वास के नष्ट होने से दिशाभ्रमित जनों द्वारा किये जा रहे नारी-अपराधों को संकेत कर 'बिटिया' के माध्यम से कवि करारा प्रहार करता है।
बिटिया।
जरा संभल कर जाना
लोग छिपाए रहते खंज़र
गाँव, शहर
अब नहीं सुरक्षित
दोनों आग उगलते
कहीं कहीं तेजाब बरसता
दिन-ब-दिन बढ़ते अपराधों के विरुद्ध संघर्ष का आव्हान करते हैं ठकुरेला जी-
आखिर कब तक
चुप बैठेंगे
चलों वर्जनाओं को तोड़ें
जाति, धर्म, भाषा में
उलझे
सबके चेहरे बंटे हुए हैं
व्यर्थ फँसे हुए हैं
चर्चाओं में
मूल बात से कटे हुए हैं
आओ बिखरे संवादों की
कड़ियाँ कड़ियाँ फिर से जोड़ें।
लोकोक्ति है 'आशा पर आसमान टंगा हैँ' को आत्मसात कर कवी निराश न होकर सतत प्रयास करने के लिए तत्पर है- 
आँखें फाड़े
खड़े हुए हैं
राजमहल के आगे
शायद राजा जागे।
अभियंता ठकुरेला जी का यह नवगीत संकलन 'चीकने पात' की तरह पठनीय बन पड़ा है। 
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[ हैं जटायु से अपाहिज हम,नवगीत संग्रह, कृष्ण भारतीय, आईएसबीएन ९७८७९३८४७७२५८१, प्रथम संस्करण २०१७, अनुभव प्रकाशन, ई-२८, लाजपतनगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद- २०१००५,  मूल्य- रु. १५०, पृष्ठ- ९६, समीक्षा- राजेन्द्र वर्मा]

वरिष्ठ नवगीतकार कृष्ण भारतीय के ७४ सशक्त नवगीतों का पठनीय-संग्रहणीय संकलन 'है जटायु से अपाहिज हम' २०१७ में प्रकाशित हुआ है।  समीक्ष्य नवगीतों में अभिव्यक्ति की शैली आकर्षक है। बोलचाल और तत्सम शब्दों से सज्जित भाषा पूर्णरूपेण भावानुरूप है। मिथकीय प्रतीकों के सफल प्रयोग से कथ्य ऐसे खुलकर आता है जैसे वह पाठक का भोगा हुआ हो। नवगीत की शक्ति को पहचानकर रचनाकार ने शिल्प और वस्तु में पूर्ण सामंजस्य बिठाकर यथार्थ की भूमि हमारे आस-पास घटित हो रहे अघट को अधिकांशतः प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है, जिसमें रचनाकार की जन-प्रतिबद्धता प्रवहमान है। 
दम घुटा जाता हमारा 
धुँए के वातावरण में, 
क्या करें ?
है नहीं सामर्थ्य इतनी कि खरीदें
सूर्य से थोडा उजाला
गगनचुम्बी कीमतों के देश में 
है बहुत मुश्किल जुटाना 
एक रोटी का निवाला 
हैं जटायु-से अपाहिज हम 
हरेक सीताहरण में, 
क्या करें ? 
एक ध्रुवतारा हमारी ज़िन्दगी, 
पर बिक रही है भाव रद्दी के 
रोज बन्दर-सा नचाते हैं
हमें उफ़! 
ये मदारी राजगद्दी के
ढेर सारे प्रश्न 
अगवानी किया करते
नये नित जागरण में, 
क्या करें ?
गीतकार कवि होने की व्यथा-कथा को भी अपने एक गीत में दर्ज़ करता है। गीत की रचना तभी होती है जब गीतकार तपस्वी की भूमिका में उतरता है। 
कवि होना भी इक दधीच के तप जैसा है। 
सबका दुख आँखों से गहना, मथना, सहना
शब्द-शब्द गुनना, बुनना
गीतों का कहना 
बहुत कठिन तनहा, संतों के तप जैसा है। 
मन-सागर-मंथन ने उगले हीरे-मोती 
अमृत बाँट, गरल पी जागीं रातें सोती 
सूफी दरगाहों के फक्कड़ जप जैसा है।
विसंगतियों के विश्लेषण और गीत में कहीं-कहीं वर्णित समस्या का समाधान भी दृष्टव्य है। मिथ से उपजे प्रतीक युगीन यथार्थबोध को प्रस्तुत करते हुए संग्रह के नवगीत मार्मिक भाव-भंगिमा दर्शाते हैं और देर तक अपनी अनुगूँज बनाये रखते हैं। 
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गुरुवार, 15 नवंबर 2018

samiksha

पुस्तक चर्चा:
"गाँव मेरा देश" संस्मरण अशेष 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*   
[कृति विवरण: गाँव मेरा देश, संस्मरणात्मक निबंध, श्री भगवान सिंह, आई एस बीे एन ९७८८१७१३८३९५५, प्रथम संस्करण, २०१८, आवरण सजिल्द, सजाइकेट बहुरंगी, २५५/-, मूल्य -५००/, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, samyikprakashan@gmail.com,  लेखक संपर्क: १०२ अम्बुज अपार्टमेंट, हनुमान पथ, तिलकामांझी, भागलपुर ८१२००१, ईमेल: sribhagwantmbu@gmailcom]
विश्ववाणी हिंदी के साहित्य भण्डार की श्री वृद्धि करनेवाली विधाओं में आत्मकथात्मक संस्मरण का स्थान अन्यतम है। हिंदी गद्य में गल्प साहित्य के अंतर्गत कहानी, उपन्यास, लघुकथा की त्रिवेणी जलप्लावित बरसाती सलिला की तरह सतत प्रवाहित होती रहती है जबकि निबंध, संस्मरण, आत्मकथा की त्रिधारा अपेक्षाकृत कम वेगमयी दिखाई देती है। हिंदी ही नहीं विश्व की हर भाषा में ऐसा होना स्वाभाविक है। कथा साहित्य कल्पना के विहग को उड़ने के लिए अनंत नीलाकाश उपलब्ध कराता है किन्तु संस्मरणात्मक गद्य-लेखन में गतागत के मध्य सेतु स्थापित करते हुए, हुआ और  होना चाहिए के मध्य संतुलन बनाते हुए कथ्य के प्रभाव  अधिक संवेदनशील व् उत्तरदाई होना होता है। प्रामाणिकता, प्रासंगिकता और प्रभाव के त्रि आयामों में  उपादेयता सिद्ध करने के साथ-साथ संदर्भित-संबंधित जनों के अप्रिय प्रक्रिया का खतरा लेना ही होता है।  पद्य तथा कहानी-उपन्यास की  लिखे-पढ़े जाने पर भी इन विधाओं का लेखन अधिक स्थाई तथा प्रभावी होता है। इस तरह के लेखन में अंशत: सम सामयिक इतिहास तथा निबंध भी सम्मिलित हो जाते हैं। संस्मरण लेखन के व्यक्तित्व-कृतित्व तथा विचारधारा के अनुसार इस विधा में इंद्रधनुषी रंग बिखरते-निखरते हैं। विवेच्य कृति के लेखक श्री भगवान सिंह वरिष्ठ पत्रकार, गाँधीवादी विचारक तथा समाज सुधारक भी हैं। इसलिए स्वाभाविक है की उनके संस्मरण में 'व्यक्ति के 'साथ समष्ति                                                               संस्मरण स्मृति के आधार पर किसी व्यक्ति, घटना, यात्रा या विषय पर लिखित आलेख है। यात्रा साहित्य भी इसके अन्तर्गत आता है। संस्मरण लेखक जो कुछ स्वयं देखता या अनुभव करता है वह नहीं उससे जुड़ी अपनी अनुभूतियाँ तथा संवेदनायें संस्मरण व्यक्त करता है, इतिहासकार के समान केवल यथातथ्य विवरण नहीं। इस दृष्टि से संस्मरण का लेखक निबन्धकार के अधिक निकट है। हिन्दी के संस्मरण लेखकों में बनारसीदास चतुर्वेदी (संस्मरण, हमारे अपराध), महादेवी वर्मा (स्मृति की रेखाएँ, अतीत के चलचित्र) तथा रामवृक्ष बेनीपुरी (माटी की मूरतें), कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (भूले हुए चेहरे, दीपजले शंख बजे), भदन्त-आनन्द कोसल्यायन (जो न भूल सका, जो लिखना पड़ा), राजा राधिकारमण वर्मा (सावनी समां, सूरदास), रामधारी सिंह 'दिनकर' (लोकदेव नेहरु, संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ), डॉ. रामकुमार वर्मा (संस्मरणों के सुमन) आदि उल्लेखनीय हैं। देवेन्द्र सत्यार्थी ने लोकगीत संग्रह करने हेतु देश के विभिन्न क्षेत्रें की यात्राएँ कर इन स्थानों के संस्मरण भावात्मक शैली में क्या गोरी क्या साँवली तथा रेखाएँ बोल उठीं सत्यार्थी के संस्मरणों के अपने ढंग के संग्रह हैं।  गुलाबराय की कृति "मेरी असफलताएँ" में संस्मरणात्मक निबन्ध हैं। 

इस पृष्ठ भूमि में श्री भगवान सिंह की  विवेच्य कृति व्यक्तिगत स्मृति आख्यान न होकर भारत के सतत परिवर्तित होते ग्राम्यांचल का पूर्वाग्रह मुक्त और प्रामाणिक आकलन की तरह है। अपने ग्राम निखतीकलां जिला सिवान (बिहार) को  रखकर लिखे संस्मरण प्रकारांतर से अन्य ग्रामों से अपने आप जुड़ जाते हैं क्योंकि सामाजिक मूल्यों, प्रतिक्रियाओं, संघर्षों, पर्वों- त्योहारों, आर्थिक दुष्चक्रों, अवसरों के अभावों और उनसे जूझकर आगे बढ़ते कर्मवीरों की कीर्ति-कथाओं में सर्वत्र साम्य है। मूलत: गाँधीवादी आलोचक रहे भगवान सिंह का ग्राम्यांचलों में पैर पसारने के लिए हमेशा उद्यत रहनेवाली साम्यवादी विचारधारा से संघर्ष होना स्वाभाविक है। सामाजिक मूल्यों में गिरावट, पारस्परिक संबंधों में विश्वास की कमी, राजनीति  का सामाजिक जीवन में अयाचित और बलात हस्तक्षेप, नगरीकरण के दुष्प्रभाव के कारण ग्रामीण कुटीर उद्योंगों के लिए अवसरों का भाव आदि से किसी आम नागरिक की  तरह लेखक का चिंतित होना सहज स्वाभाविक है।

लेखन की पत्रकारिता उसे किस्सागो नहीं बनने देती। वह कल्पना कुञ्ज में विहार नहीं कर पाता, न मिथ्या रोचक चुटकुलेनुमा कहानियों से पाठक को भ्रमित करता है। खुद को केंद्र में रखते हुए भी लेखक अतिरेकी आत्मप्रशंसा के मोह से मुक्त रह सका है। अपने घर, परिवार, सेज संबंधियों, इष्ट-मित्रों आदि की चर्चा करते समय भी निस्संग रह पाना तलवार की धार की तरह कठिन होता है किन्तु लेखन नट-संतुलन साध सका है। भगवान् सिंह के लिए संस्मरणों से जुड़े चरित्र, चित्रण  नहीं  सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण हैं। वे व्यक्तियों के बहाने समष्टि से जुड़े बिंदुओं को विचारार्थ सामने लाते हैं और बात स्पष्ट होते ही चरित्र को जहाँ का तहाँ छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। राजेंद्र प्रसाद सिंह (पृष्ठ ५९) इसी तरह का चरित्र हैं जो विद्यालय भवन में जमींदार परिवार की बारात ठहरने के विरोध करते हैं कि यह सुविधा सब को मिले या किसी को नहीं। फलत:, विशेषधिकार चाहनेवालों को झुकना पड़ा, वह भी गाँधीवादी प्रतिरोध के सामने।

'कम पढ़ा ज्यादा गुना' की विरासत को सम्हालते ग्रामीण बुजुर्गों की समझदारी की बानगी ताऊ जी (पृष्ठ ६३) के चरित्र में हैं जो अपने हलवाहे के परामर्श स्वीकार करने में पल की भी देर नहीं करते। केवल हस्ताक्षर करनेवाले ताऊ जी खेती-किसानी के सम्बन्ध में श्रुति-स्मृति परंपरा के वाहक थे। उनके सम्बन्ध में वर्णित बातों से घाघ-भड्डरी, जैसी प्रतिभा होने का अनुमान होता है। गाँवों में छुआछूत की व्याप्ति के अतिरेकी वर्णन कर सामाजिक संघर्ष की आग जलानेवाले तथाकथित समाज सुधारकों (ज्योतिबा फुले) के संदर्भ में सीधी मुठभेड़ टालते हुए लेखन नम्रता पूर्वक अपने गाँव में वह स्थिति न होने की बार पूरी विनम्रता किन्तु दृढ़ता से कहता है। भारत सवर्ण-अवर्ण के भेदभाव को अमरीकी नस्लवादी भेदभाव की तरह बतानेवालों को लेखक दर्पण दिखाने में नहीं चूकता। सती प्रथा के संदर्भ में लेखक कुछ जातियों में विधवा विवाह के चलन का उदाहरण देता है। (पृष्ठ ८५) तथाकथित प्रगति के मानकों से सहमत न होते हुए लेखक साफ़-साफ़ कहता है "समझ में नहीं आता कि हम तब पिछड़े हुए थे या अब प्राकृतिक दृष्टि से पिछड़े होते जा रहे हैं? (पृष्ठ ९२)

"गाँव प्रबंधन" शीर्षक अध्याय भगवान सिंह की सजग-सतर्क पर्यवेक्षकीय दृष्टि, मौलिक सोच और विश्लेषण सामर्थ्य की बानगी है। यहाँ उनका आकलन चौंकाता है कि हमारे देश-समाज में जिस बदनाम पर्दा-प्रथा की चर्चा होती रही है, वह इन्हीं अगड़ी जातियों की औरतों के गले का फंदा थी"...... वस्तुत: सारा प्रबंधन तो स्त्रियों के हाथों में ही होता था।" (पृष्ठ ९३)। तथाकथित स्त्रीविमर्श वादियों को भगवान् सिंह का तथ्याधारित यह निष्कर्ष शीर्षासन करने पर भी नहीं नहीं पचेगा कि "औरतों के लिए कभी किसी मर्द ने 'अनुत्पादक श्रम'  या 'फालतू काम' जैसे अवमानना सूचक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। उलटे पुरुष-समाज द्वारा यह सुनने को मिलता है कि 'बिन घरनी भर भूत का डेरा"। (पृष्ठ ९५)

'मनोविनोद के अवसर' शीर्षक अध्याय भारत के ग्रामीण सांस्कृतिक वैभव से परिचित कराता है। चैती तथा बटोही गीत इस अध्याय की जान हैं। इसके साथ 'पर्व-त्यौहार' शीर्षक अध्याय बच्चों के पाठ्क्रम में जोड़ा जा सके तो नई पीढ़ी को सांस्कृतिक वैभव की महत्ता ही नहीं उपादेयता से भी परिचित होने का अवसर मिलेगा। 'जिनकी यादें हैं शेष' शीर्षक अध्याय उन आम लोगों की स्मृतियों से जुड़ा है जो अपने आप में ख़ास रहे हैं। धनेश्वर बाबू जैसे सुलझे हुए बुजुर्ग, हिंदी काव्य की वाचिक परंपरा को जीते सहदेव चौबे, चिरकुंवारे परमार्थी रामजनम, विनोदी पति काका, गप्पी सुदामा भाई, आदि चरित्र कृति की रोचकता में वृद्धि करने के साथ-साथ भगवान् सिंह की गुणान्वेषी दृष्टि का परिचय भी देतीं हैं। 'स्मृति में संयुक्त परिवार' शीर्षक अध्याय आधुनिक पीढ़ी के लिए पठनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है। संयुक्त परिवार की मिठास-खटास से जीवन कितना मधुर हो जाता है, इसका अनुमान इसे पढ़कर हो सकता है। 'वर्तमान: दशा और दिशाएँ' अध्याय में अमावसी तिमिर को चीरती प्रकाश किरणों की झलकियाँ आश्वस्त करती हैं की कल आज से बेहतर होगा।

'गाँव मेरा देश' में 'गाँव: मेरा देश' और 'गाँव मेरा: देश' के श्लेष के दो अर्थों का आनंद लिया सकता है। कृति का कथ्य दोनों के साथ न्याय करता है। भूमिका में सूर्यनाथ सिंह के आकलन "यह किताब रोजी-रोटी और जीवन की बेहतरी के सपने लिए पढ़-लिखकर गाँवों से शहरों में आ बेस उन तमाम लोगों को विगत की स्मृतियों में ले जाएगी। उन्हें झकझोर कर पूछेगी कि जो गाँव तुम छोड़ आये थे, क्या उसके इस तरह विनष्ट होते जाने को रोकने के लिए तुमने कोई रास्ता सोचा है?" के सन्दर्भ में यह कहना है कि कटी हुई पतंगों की ऊँचाई भले ही अधिक हो किन्तु उनकी जड़ें नहीं होती। गाँव के भले का रास्ता उन्हें छोड़कर जानेवाले नहीं उनसे जुड़े रहकर विसंगतियों से लड़नेवाले दूर करेंगे। भगवान् सिंह इसी तरह के व्यक्ति हैं और उनकी यह किताब गाँव की बेहतरी के लिए उनके संघर्ष का हिस्सा है। 
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संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संसथान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८

दोहा सलिला

दोहा-दर्पण में दिखे, देश-काल का सत्य।
देख-सुधार, निखार ले, खुद को घटे असत्य।।
*
अलंकार रस भाव लय, बिंब-प्रतीक न मूल।
शब्द मिथक हैं उपकरण, कथ्य साध्य मत भूल।।
*
दिल से दिल की बात कह, दोहा हो दिल-दूत।
दिलवर का दिलदार तक, पहुँचा स्नेह अकूत।।
*
आभा से आ भा कहे, आभित हो नव सूर्य।
दिनकर दिन कर दे जगा, बजे दसों दिश तूर्य।।
*
कहे देहरी देह री!, मत मर्यादा छोड़।
बाहर मिले न गेह री!, नाता निभा न तोड़।।
*
चीत्कार  कविता नहीं, मात्र कराह न गीत।
नव रसमय नव गीत ही, है जीवन संगीत।।
*
कल से कल के बीच हो, कलकल भाव प्रवाह।
किलकिल कर क्यों कर रहे, कल को कहें तबाह।।
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार।
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।
*
हिंदी आटा माढ़िए, देशज मोयन डाल।
सलिल संस्कृत सान दे,  पूड़ी बने कमाल।।
*
करती भोर विभोर मन, दुपहर चाहे काम।
साँझ कहे पा लक्ष्य झट, रात मिले आराम।।
*
ठाकुर जी को पूजते, ठाकुर जी ले भोग।
ठकुराइन मुस्का रहीं, काम पड़े का जोग।।
***
संजीव

बुधवार, 14 नवंबर 2018

वस्तुवदनक छंद


छंद सलिला:   ​​​

वस्तुवदनक छंद ​

संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल

लक्षण छंद:
   वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
   पदांत चौकल-द्विकल हो तो शांत हो मन-छवि      
उदाहरण:

१.  प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर 
    रविदर्शन कर उड़े परिंदे, चहक-चहक/कर नभ / पर
    कलकल-कलकल उतर नर्मदा, शिव-मस्तक / से भू/पर 
   पाप-शाप से मुक्त कर रही, हर्षित ऋषि / मुनि सुर / नर      
 
२. मोदक लाईं मैया, पानी सुत / के मुख / में 
    आया- बोला: 'भूखा हूँ, मैया! सचमुच में'
    ''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
    मुझे ज्ञात है पेटू, राज छिपा मोदक में''
  
३. 'तुम रोओगे कंधे पर रखकर सिर?  
    सोचो सुत धृतराष्ट्र!, गिरेंगे सुत-सिर कटकर''
    बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
    फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर                    *********

काव्य छंद


छंद सलिला:   ​​​

अवतारी जातीय काव्य छंद ​

संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति ग्यारह-तेरह, मात्रा बाँट ६+४+४+४+६, हर चरण में ग्यारहवीं मात्रा लघु


लक्षण छंद: 
   काव्य छंद / चौबी/, कला / ग्यारह/-तेर हो
   रखें कला / लघु रु/द्र, षट क/ली आ/दि-अं हो 
   मध्य चतुष्/कल ती/, द्विमा/ता क/र्मदे वत 
   अवतारी / की सुं/,र छवि / लख शं/का क मत  
(संकेत: रूद्र = ग्यारह, द्विमाता कर्मदेव = नंदिनी-इरावती तथा चित्रगुप्त)  

उदाहरण: 
१. चमक-दमक/कर दिल / हला/ती बिज/ली गिकर
   दादुर ना/चे उछ/-कूद/कर, मट/क-मटकर
   सनन-सनन / सन पव/ खेल/ता मच/ल-मचकर
   ढाँक सूर्य / को मे/ अकड़/ता गर/ज-गरकर      

२. अमन-चैन / की है / लाश / दुनिया / में सको
    फिर भी झग/ड़े-झं/ट घे/रे हैं / जन-ज को
    लोभ--मोह / माया-/मता / बेढब / चक्क है

    हर युग में /परमा/र्थ-स्वार्थ / की ही /टक्क है 

   ३. मस्जिद-मं/दिर ध/र्म-कर्म / का म/र्म न सझे 
    रीति-रिवा/ज़ों में / हते / हैं हर/दम उझे 
    सेवा भू/ले पथ / नको / मेवा / का रुता 
    लालच ने / मोहा,/ तिल भर / भी त्या/ग न दिता                    
                              ********* 

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

kundaliya

कुण्डलिया
राजनीति आध्यात्म की, चेरी करें न दूर
हुई दूर तो देश पर राज करेंगे सूर
राज करेंगे सूर, लड़ेंगे हम आपस में
सृजन छोड़ आनंद गहेँगे, निंदा रस में
देरी करें न और, वरें राह परमात्म की
चेरी करें न दूर, राजनीति आध्यात्म की
***
संजीव, १३.११.२०१८

bal geet

बाल गीत:
लँगड़ी खेलें
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोड़ा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लँगड़ी खेलें.....
*************

सोमवार, 12 नवंबर 2018

chhath ke dohe

छठ के दोहे,
*
छठ पूजन कर एक दिन, शेष दिवस नाबाद
दूध छठी का कराती, गृहस्वामी को याद
*
हरछठ पर 'हऱ' ने किए, नखरे कई हजार
'हिज़' बेचारा उठाता, नखरे बाजी हार
*
नाक-शीर्ष से सर तलक, भरी देख ले माँग
माँग न पूरी की अगर, बच न सकेगी टाँग
*
'मी टू' छठ का व्रत रही, तू न रहा क्यों बोल?
ढँकी न अब रह सकेगी, खोलेगी वह पोल
*
माँग नहीं जिसकी भरी, रही एक वर माँग
माँग भरे वह कर सके, जो पूरी हर माँग
*