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मंगलवार, 6 नवंबर 2018

diwali muktak

दिवाली मुक्तक
*
पाक न तन्नक रहो पाक है?
बाकी बची न कहूँ धाक है।।
सूपनखा सें चाल-चलन कर
काटी अपनें हाथ नाक है।।
*
वन्दना प्रार्थना साधना अर्चना
हिंद-हिंदी की करिये, रहे सर तना
विश्व-भाषा बने भारती हम 'सलिल'
पा सकें हर्ष-आनंद नित नव घना
*
वाह! शब्दों की क्या ख़ूब जादूगरी
चाह, रस-भाव की भी हो बाजीगरी
बिंब, रूपक, प्रतीकों से कर मित्रता
हो अलंकार की भी तो कारीगरी
*
ज़िन्दगी को प्रीत का उत्सव बनाइये
बन्दगी को नित्य महोत्सव मनाइये
सीमा पे जो डटा हुआ है रात-दिन 'सलिल'
ले सीख उससे देश के कुछ काम आइये
*
उत्सव नित्य मनाइए, बाल शुभाशा-दीप
श्रम-सीकर अवगाहिए, बनकर मोती-सीप
वर्धन हो धन-धान्य का, तुलसी पूजें आप
राँगोली डालीं 'सलिल', ड्योढ़ी-आँगन लीप
*
सरहद के बाहर चलकर, चलिए बम फोड़ें
आतंकी हौसले सभी हम मिलकर तोड़ें
शत-शत मुक्तक लिखें सुनें दोनों शरीफ जब
सर टकराकर आपस में, झट दुनिया छोड़ें
*
आँख दिखाकर, डरा-डराकर कहती 'डरती हूँ'
ठेंगा दिखा-दिखाकर कहती 'तुझ पर मरती हूँ'
गले लगाती नहीं नायिका, नायक से कहती
'जाओ भाड़ में,समय हो गया अब मैं चलती हूँ
*
जब 'अशोक' मन, 'व्यग्र' हो करता शब्द प्रहार
तब 'नीरव' में 'ॐ' की गूँज उठे झनकार
'कलानाथ' रसधार में झलकाते निज बिम्ब
'रामानुज' से मिल रहे 'ममता' लिए अपार
*
कुछ ग़लत हैं आचार्य जी, बाकी सभी कुछ ठीक है
बस चुप रहें प्राचार्य जी, बाकी सभी कुछ ठीक है
दीवार की शोभा बढ़ाते, चित्र भाते ही नहीं
थूकें तमाखू-पान खा, बाकी सभी कुछ ठीक है
*
लाजवाब आप हो गुलाब हुए
स्नेह की अनपढ़ी किताब हुए
हमको उत्तर नहीं सूझा जब भी
आपके प्रश्न ही जवाब हुए
*
हाय रे! हुस्न रुआंसा क्यों है?
ख्वाब कोई हुआ बासा क्यों है?
हास्य-जिंदादिली उपहार समझ
दूर श्वासा से हुलासा क्यों है?
*
हाँ कह दूँ तो पत्नी पीटे, झूठ अगर ना बोलूँ
करूँ वंदना प्रेम आपसे है रहस्य क्यों खोलूँ ?
रोना है सौभाग्य हमारा, सब तनाव मिट जाता
क्यों न हास्य कर प्रेम-तराजू पर मैं खुद को तोलूँ
*
आप = स्वयं, आत्मा सो परमात्मा = ईश्वर
*
आपने चाहा जिसे वह गीत चाहत के लिखेगा
नहीं चाहा जिसे कैसे वह मिलन-अमृत चखेगा?
राह रपटीली बहुत है चाह की, पग सम्हल धरना
जान लेकर हथेली पर जो चले, आगे दिखेगा
*
भोर से संझा हुई,कर कार्य, रवि जब थक चला
तिमिर छा जाए न जग में सोच, चिंतित जब ढला
कौन रोके तम?, बढ़ा लघु दीप बोला-' शक्ति भर
मैं हरूँगा' तभी दीवाली मनाने का सलिल' प्रचलन चला
*
करे मुक्त मन मुदित हो, जगवाणी में बात
हिंदी कह -पढ़-लिख सतत, हो जग में विख्यात
परभाषा का मोह तज, जनभाषा को जान
जो बढ़ते उनको नहीं, लगता है आघात
*
दीपावली
*
सत्य-शिव-सुन्दर का अनुसन्धान है दीपावली
सत-चित-आनंद का अनुगान है दीपावली
अकेले लड़कर तिमिर से, समर को चुप जीतता
जो उसी दीपक के यश का गान है दीपावली
*
अँधेरे पर रौशनी की जीत है दीपावली
दिलों में पलती मनुज की प्रीत है दीपावली
मिटा अंतर से सभी अंतर मनों को जोड़ दे
एकता-संदेश देती रीत है दीपावली
*
स्वदेशी की गूँज, श्रम का मान है दीपावली
भारती की कीर्ति, भारत-गान है दीपावली
चीन की उद्दंडता को दंड दे धिक्कारता
देश के जनगण का नव अरमान है दीपावली
***
मैं औरों की धुन पर कलम चलाऊँ क्यों?,
मिली प्रेरणा माँ से जो वह गाऊँगा
नहीं बिकेगी कलम, न लूँगा मोल कभी,
नेह-नर्मदावत मैं बहता जाऊँगा
अभिनंदन-सम्मान न मेरा ध्येय रहा,
नई कलम से गीत नए रचवाऊँगा
शपथ शब्द-अक्षर की चित्रगुप्त मुझको,
शीश रहे या जाए, नहीं झुकाऊँगा
*
संजीव, २७.१०.२०१६

diwali navgeet

दिवाली नवगीत
*
मन-कुटिया में
दीप बालकर
कर ले उजियारा।
तनिक मुस्कुरा
मिट जाएगा
सारा तम कारा।।
*
ले कुम्हार के हाथों-निर्मित
चंद खिलौने आज।
निर्धन की भी धनतेरस हो
सध जाए सब काज।
माटी-मूरत,
खील-बतासे
है प्रसाद प्यारा।।
*
रूप चतुर्दशी उबटन मल, हो
जगमग-जगमग रूप।
प्रणय-भिखारी गृह-स्वामी हो
गृह-लछमी का भूप।
रमा रमा में
हो मन, गणपति
का कर जयकारा।।
*
स्वेद-बिंदु से अवगाहन कर
श्रम-सरसिज देकर।
राष्ट्र-लक्ष्मी का पूजन कर
कर में कर लेकर।
निर्माणों की
झालर देखे
विस्मित जग सारा।।
*
अन्नकूट, गोवर्धन पूजन
भाई दूज न भूल।
बैरी समझ कूट मूसल से
पैने-चुभते शूल।
आत्म दीप ले
बाल, तभी तो
होगी पौ बारा।।
*
संजीव १२.१०.२०१६

panch parva

एक रचना
: पाँच पर्व :














*
पाँच तत्व की देह है,
ज्ञाननेद्रिय हैं पाँच।
कर्मेन्द्रिय भी पाँच हैं,
पाँच पर्व हैं साँच।।
*














माटी की यह देह है,
माटी का संसार।
माटी बनती दीप चुप,
देती जग उजियार।।
कच्ची माटी को पका
पक्का करती आँच।
अगन-लगन का मेल ही
पाँच मार्ग का साँच।।
*














हाथ न सूझे हाथ को
अँधियारी हो रात।
तप-पौरुष ही दे सके
हर विपदा को मात।।
नारी धीरज मीत की
आपद में हो जाँच।
धर्म कर्म का मर्म है
पाँच तत्व में जाँच।।
*











बिन रमेश भी रमा का
तनिक न घटता मान।
ऋद्धि-सिद्धि बिन गजानन
हैं शुभत्व की खान।।
रहें न संग लेकिन पुजें
कर्म-कुंडली बाँच।
अचल-अटल विश्वास ही
पाँच देव हैं साँच।।
*











धन्वन्तरि दें स्वास्थ्य-धन
हरि दें रक्षा-रूप।
श्री-समृद्धि, गणपति-मति
देकर करें अनूप।।
गोवर्धन पय अमिय दे
अन्नकूट कर खाँच।
बहिनों का आशीष ले
पाँच शक्ति शुभ साँच।।
*












पवन, भूत, शर, अँगुलि मिल
हर मुश्किल लें जीत।
पाँच प्राण मिल जतन कर
करें ईश से प्रीत।।
परमेश्वर बस पंच में
करें न्याय ज्यों काँच।
बाल न बाँका हो सके
पाँच अमृत है साँच












*****
संजीव, ११.११.२०१५

diwali geet

दीवाली गीत  
*
दीपमालिके!
दीप बाल के
बैठे हैं हम
आ भी जाओ

अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता

मिलकर श्रम की करें आरती
साथ हमारे तुम भी गाओ

राष्ट्र-लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चंदन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर

विधि-हरि-हर हे! नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष तनिक दे जाओ

अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे-रमा तिमिर हर 
रवि-शशि जैसा हमें बना दो

चित्र गुप्त जो रहा अभी तक
झलक दिव्य हो सदय दिखाओ

- संजीव वर्मा सलिल
१ नवंबर २०१५

नरक/रूप चौदस

हिंदी के नए छंद १२ 
कृष्णमोहन छन्द
विधान-
1. प्रति पंक्ति 7 मात्रा
2. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम गुरु लघु गुरु लघु लघु
गीत
रूप चौदस
.
रूप चौदस
दे सदा जस
.
साफ़ हो तन
साफ़ हो मन
हों सभी खुश
स्वास्थ्य है धन
बो रहा जस
काटता तस
बोलती सच
रूप चौदस.
.
है नहीं धन
तो न निर्धन
हैं नहीं गुण
तो न सज्जन
ईश को भज
आत्म ले कस
मौन तापस
रूप चौदस.
.
बोलना तब
तोलना जब
राज को मत
खोलना अब
पूर्णिमा कह
है न 'मावस
रूप चौदस
.
मैल दे तज
रूप जा सज
सत्य को वर
ईश को भज
हो प्रशंसित
रूप चौदस
.
वासना मर
याचना मर
साथ हो नित
साधना भर
हो न सीमित
हर्ष-पावस
साथ हो नित
रूप चौदस
.......
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नरक चौदस / रूप चतुर्दशी

नरक चौदस / रूप चतुर्दशी पर विशेष रचना:                      
गीत  
संजीव 'सलिल'
*
असुर स्वर्ग को नरक बनाते
उनका मरण बने त्यौहार.
देव सदृश वे नर पुजते जो
दीनों का करते उपकार..

अहम्, मोह, आलस्य, क्रोध, भय,
लोभ, स्वार्थ, हिंसा, छल, दुःख,
परपीड़ा, अधर्म, निर्दयता,
अनाचार दे जिसको सुख..

था बलिष्ठ-अत्याचारी
अधिपतियों से लड़ जाता था.
हरा-मार रानी-कुमारियों को
निज दास बनाता था..

बंदीगृह था नरक सरीखा
नरकासुर पाया था नाम.
कृष्ण लड़े, उसका वधकर
पाया जग-वंदन कीर्ति, सुनाम..

राजमहिषियाँ कृष्णाश्रय में
पटरानी बन हँसी-खिलीं.
कहा 'नरक चौदस' इस तिथि को
जनगण को थी मुक्ति मिली..

नगर-ग्राम, घर-द्वार स्वच्छकर
निर्मल तन-मन कर हरषे.
ऐसा लगा कि स्वर्ग सम्पदा
धराधाम पर खुद बरसे..

'रूप चतुर्दशी' पर्व मनाया
सबने एक साथ मिलकर.
आओ हम भी पर्व मनाएँ
दें प्रकाश दीपक बनकर..

'सलिल' सार्थक जीवन तब ही
जब औरों के कष्ट हरें.
एक-दूजे के सुख-दुःख बाँटें
इस धरती को स्वर्ग करें..
************************
४.११.२०१६ 

सोमवार, 5 नवंबर 2018

दोहा-दोहा धन तेरस
*
तेरह दीपक बालिए, ग्यारह बाती युक्त।
हो प्रदीप्त साहित्य-घर, रस-लय हो संयुक्त।।
*
लघु से गुरु गुरुता गहे, गुरु से लघु की वृद्धि।
जब दोनों संयुक्त हो, होती तभी समृद्धि।।
*
धन चराग प्रज्वलित कर, बाँटें सतत प्रकाश।
ज्योतित वसुधा देखकर, विस्मित हो आकाश।।
*
ज्योति तेल-बाती जले, दिया पा रहा श्रेय।
तिमिर पूछता देव से, कहिए क्या अभिप्रेय??
*
ज्योति तेल बाती दिया, तनहा करें न काम।
मिल जाएँ तो पी सकें, जग का तिमिर तमाम।।
*
चल शारद-दरबार में, बालें रचना-दीप।
निर्धन के धन शब्द हों, हर कवि बने महीप।।
*
धन तेरस का हर दिया, धन्वन्तरि के नाम।
बालें तन-मन स्वस्थ हों, काम करें निष्काम।।
*
संजीव, धनतेरस
५.११.२०१८

मुक्तक

भूगोलीय मुक्तक
*
धरती गोल-गोल हैं, बातें धत्तेरे की।
वादे-पर्वत पोले, घातें धत्तेरे की।।
लोकहितों की नदिया, करे सियासत गंदी
अमावसी पूनम की रातें धत्तेरे की।।
*
आसमान में ग्रह-उपग्रह करते हैं दंगा।
बने नवग्रह-पति जो नाचे होकर नंगा।।
दावानल-बड़वानल पक्ष-विपक्ष बने हैं-
भाटा-ज्वार समुद-संसद में लेते पंगा।।
*
पत्रकारिता भूकंपी सनसनी बन गई।
ज्वालामुखी सियासत जनता झुलस-भुन गई।।
धूमकेतु बोफोर्स-रफाल न पिंड छूटता-
धर्म-ध्वजा झुक काम-लोभ के पंक सन गई।।
*
महासागरी तूफानों सा जनाक्रोश है। 
आइसबर्गों सम पिघलेगा किसे होश है?
दिग-दिगंत काँपेंगे, जब प्रकृति रौंदेगी-
तिनके सम मिट जाएगा जो उठा जोश है।। 
*
सूर्य-चंद्र नैतिक मूल्यों पर लगा ग्रहण है। 
आय और आवश्यकता में भीषण रण है।।
सच अभिमन्यु शहीद, स्वार्थ-संशप्तक विजयी-
तंत्र-प्रशासन दांव सम्मुख मानव तृण है।।
***     
संजीव, ५.११.२०१८ 
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navgeet- avinash beohar

नवगीत:
अविनाश ब्यौहार
*
हर सू इस शहर
में क्रन्दन है!
*
आब हवा
बदली-बदली है!
सभ्यता दूषित
गंदली है!!

भाईचारा होने में
भी निबन्धन है!
*
निराशाओं के अब्र 
घने हैं!
सपने सारे
धूल सने हैं!!

तपन दिखाता
मलयागिरी चन्दन है!
*
रायल एस्टेट कटंगी रोड
जबलपुर

navgeet

नवगीत
गंधों की डोली 
अविनाश ब्यौहार
*
उठती है
गंधों की डोली
अब तारों
की छाँव में!
*
फूलों पर रंगत
और आ गया हिजाब!
कलरव करें पंछी सा
आँखों मे ख्वाब!!
खेत, मेड़, 
खलिहान, बगीचे
मनोहारी हैं
गाँव में!
*
बागों में होती
अलियों की
गुनगुन है!
आती दूर कहीं से
रबाब की धुन है!!
है मिले सुकूं
भटकी हवाओं को
पीपल की 
ठाँव में!!
*
- रायल एस्टेट कटंगी रोड
जबलपुर

dhan teras

धन तेरस पर नव छंद 
गीत 
*
षड्मात्रिक रागी जातीय रविशंकर छंद 
सूत्र: सलल 
***
धन तेरस
बरसे रस... 
*
मत निन्दित
बन वन्दित।
कर ले श्रम
मन चंदित।
रचना कर
बरसे रस।
मनती तब
धन तेरस ... 
*
कर साहस
पा ले यश। 
ठुकरा मत
प्रभु हों खुश।
मन की सुन
तन को कस।
असली तब
धन तेरस ...   
 *
सब की सुन
कुछ की गुन।
नित ही नव
सपने बुन। 
रख चादर
जस की तस। 
उजली तब
धन तेरस
***
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रविवार, 4 नवंबर 2018

muktak

मुक्तक
*
अपने कंधे पे हँस बिठाता है
नाज़ ऊपर से सौ उठाता है
खुद से आगे बढ़ा जो खुश होता
बाप वह शख्स ही कहाता है
*
जिस से चढ़ता उसीको तोड़ रहा
साथ जिनके था उनको छोड़ रहा
वादा करता तुरत भुलाता है
नेता खुद का बयान मोड़ रहा
*

geet

एक गीत 
*
नम थी रेत 
पाँव के नीचे
*
चली जा रही थी मरुथल में 
खुद को भुला खुशी ज्यों कोई 
घिर विपदा में खुद को भूली 
राह न जाने भटकी खोई 
तप्त रेत भी रोक न पाई  
चली जा रही 
अँखियाँ मीचे 
*
नहीं भाग्य से वह लड़ पाई
तन-मन जलता विरह-व्यथा से 
छूट रहे थे सभी सहारे 
किसको मतलब करुण-कथा से? 
स्मृतियों में डूबी-डूबी 
मरुथल को 
आँसू से सींचे 
*
धूल लिए उठते अंधड़ की 
करे अदेखी रूप सलोना 
उसे न कुछ पाने की चिंता 
और न कुछ बाकी थी खोना 
चपल तरंगिणी विद्युत् रेखा 
तम से ज्यों 
उजियार उलीचे 
***