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शनिवार, 21 जुलाई 2018

ॐ दोहा शतक इंद्रकुमार श्रीवास्तव


दोहा शतक
इंद्र बहादुर श्रीवास्तव
*
चित्र में ये शामिल हो सकता है: Kavi Indr Bahadur Shrivastava, चश्मे और पाठ

जन्म: १४.५.१९४७, ग्राम डेलहा, मैहर, सतना मध्य प्रदेश। 
आत्मज: स्व. जानकी बाई-स्व. अवधेश प्रसाद श्रीवास्तव। 
जीवन संगिनी: स्व. कमलेश श्रीवास्तव। 
काव्य गुरु: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।
शिक्षा: डिप्लोमा मैकेनिकल अभियांत्रिकी। 
लेखन विधा: दोहा, हास्य कविताएँ। 
संप्रति: सेवानिवृत्त राजपत्रित अधिकारी, वाहन निर्माणी जबलपुर। 
संपर्क: ४१६, स्वागतम चौक, जयप्रकाश नगर, अधारताल, जबलपुर ४८२००४। 
दूरभाष: ०७६१ ४०३७१११, चलभाष: ९१ ९३२ ९६६४२७२, ईमेल: ibshrivastava01@gmail.com ।
*
इंद्रबहादुर श्रीवास्तव जी व्यवसाय से अभियंता होते हुए भी अभिरुचि से हास्य कवि हैं। अभियंता होने के कारण उन्हें हर कार्य समझ-बूझकर करने का अभ्यास है। दोहा शतक मंजूषा में सहभागिता हेतु अत्यल्प समय में दोहा के विधान का अभ्यास कर  उसमें अपनी मूल विधा हास्य को पिरोने में वे सफल रहे हैं। निम्न दोहा इसकी बानगी है:
पिता पुत्र से पूछते, 'खुश हो बीबी संग'?
नमक छिड़कते जले पर, खुद का उतरा रंग।।
पारिवारिक जीवन की एक और झलक इस दोहे में झलक रही है:
देख गैर के मर्द को, मुसकातीं कर जोड़।
अपना आया सामने, गुर्रातीं मुख मोड़।।
सरसरी दृष्टि से देखने पर परिंदों के लिए कहा गया यह दोहा मानव-व्यवहार के लिए भी प्रासंगिक है:
चें-चें, टें-टे कर रहे, हुए न एक विचार।
किसी शिकारी के लिए, हैं वे सुलभ शिकार।।
इंद्र जी में साहित्यिक दोहे रचने की सामर्थ्य का परिचय देता निम्नलिखित दोहा अनुप्रास, भ्रांतिमान, उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकार से समृद्ध हुआ है:
देख नीर में बिंब निज, चाँद हुआ हैरान।
कौन दूसरा आ गया, जुड़वाँ बंधु समान।।
दोहा-रचना में संक्षिप्तता, सम्प्रेषणीयता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता तथा मर्म बेधकता के गुणों को यथावश्यक स्थान देने के प्रति सचेष्ट इंद्र जी का निम्न दोहा 'कम में अधिक' कहता है।     
जन मत; पर मत; विज्ञ मत, शास्त्र मतों की खान।
मन मत सर्वोपरि रखें, साथ रहे निज ज्ञान।।
इंद्र जी के कई दोहे नीति दोहों की तरह सरल-सहज किन्तु उपयोगी हैं। रण हेतु उत्सुक कोई योद्धा जिस तरह शस्त्रागार में विविध शस्त्र रखता है, इंद्र जी उसी तरह विविध रसों के दोहे रचने के लिए सक्रिय हैं। इंद्र जी का शब्द भण्डार, शब्द चयन और व्यंजनात्मक समझ उन्हें अन्यों से भिन्न बनाती है। दोहालोक में इंद्र जी के दोहे अपनी भिन्न भाव-भंगिमा से रोतों को हँसाने में भी सक्षम हैं।    
*
चरण-कमल में शत नमन, लंबोदर गणराज।
दोहा-दोहा समर्पित, रिद्धि-सिद्धि-सरताज।।
*
हे देवों के देव! जय, शंकर भोले नाथ।
चरणों में नत इंद्र है, करिए नाथ सनाथ।।
*
नाग-माल पहने गले, बैल नांदिया साथ।
करें वास कैलाश में, डमरू ले प्रभु हाथ।।
*
मुरली-धुन जबसे सुनी, मन है भाव-विभोर।
कहाँ छिपा है साँवरे, नटखट नंदकिशोर।।
*
मन व्याकुल किसके लिए, तरस रस रहे हैं नैन।
मन बसिया तू है कहाँ, ग्वाल-बाल बेचैन।।

गुरु-चरणों में शत नमन, नित प्रति बारंबार।
करिए गुरु-आशीष से, शंका-संकट पार।।
*
गुरु की महिमा का नहीं, कोई पारावार।
दोनों हाथ पसार लें, ज्ञान अमित भण्डार।।

छत्र-छाँव में पिता की, खुश रहता परिवार।
माँ की ममता अहर्निश, देती प्यार-दुलार।।
*
जिसके मस्तक पर रहे, पूज्य पिता का हाथ।
उसके सब दुःख दूर हों, सुख रहते हैं साथ।।
*
साया माता-पिता का, दैव न करना दूर।
हर मुश्किल आसान हो, उन्नति हो भरपूर।।
*
मात-पिता का जो रखे, बिना कहे खुद ध्यान।
उसकी सब मन-कामना, पूर्ण करें भगवान्।।
*
गर्मी के दिन आ गए, रंग दिखाए धूप।
बाहर जाता घूमने, जो हो श्याम स्वरूप।।
*
गर्म  हवाएँ बह रहीं, आकुल-व्याकुल लोग।
धूप सही जाती नहीं, हुई घमोरी रोग।।
*
गर्म थपेड़े लग रहे, बुरा हुआ है हाल।
गोरी के मेक'अप बिना, गाल गुलाबी लाल।।
*
प्यास बुझाने के लिए, जीव-जंतु इंसान।
हैरां पानी के बिना, सूना सकल जहान।।
*
तड़पें पशु; पक्षी विकल, तड़प रहे इंसान।
जीना पानी के बिना, कैसे हो भगवान्।।
*
भानु तरेरे आँख जब, कर विकराल स्वरूप।
परेशान सब ग्रीष्म से, क्या गरीब क्या भूप।।
*
गर्मी का पारा चढ़ा, सबका दिल बेचैन।
व्याकुल मन बेमन तके, कब दिन हो कब रैन।।
*
धूप दिखाती रूप निज, तेजस्वी-विकराल।
जग-जीवन संत्रस्त हो, सूखें नदिया-ताल।।
*
अंतर्मन की व्यथा का, कैसे करें बखान?
सूखी फसलें बिन पके, चिंतित हुए किसान।।
*
तपे धूप जब जेठ में, कोई करे न काम।
घर-अंदर सर छिपाकर, करें न पा आराम।।
*  
धूप तापते ठण्ड में, बैठे रहते लोग।
भानु-किरण की ताप से, दूर भगाते रोग।।
*
बीबी बात न मानती, कोई नहीं इलाज।
कहें किसी से आप मत, रहें छिपाए राज।।
*
पिता पुत्र से पूछते, खुश हो बीबी संग?
नमक छिड़कते जले पर, खुद का उतरा रंग।।
*
दिखी कभी क्या ख्वाब में, मैं मुन्नू के बाप?
सदा बचाते प्रेत से, हनुमत दिखीं न आप।। 
*
देख गैर के मर्द को, मुसकातीं कर जोड़।
अपना आया सामने, गुर्रातीं मुख मोड़।।
*
संस्कार अच्छे अगर, अपनाएँ माँ-बाप।
नेक कर्म करने लगें, बच्चे अपने आप।।
*
रवि-किरणों की लालिमा, ज्यों छाई चहुँ ओर।
उड़ें परिंदे आप ही, कलरव कर हर भोर।।
*
दान चुगने के लिए, मन में अति उत्साह।
नीड़ बनाने की नहीं, खोज रहे क्यों राह?
*
चें-चें, टें-टे कर रहे, हुए न एक विचार।
किसी शिकारी के लिए, हैं वे सुलभ शिकार।।
*
बड़े परिंदे नीड़ के, हैं तो पालनहार।
उदर भरण के वास्ते, खोज रहे आधार।। 
*
दीपावली मना रहे , हो पुलकित सब लोग।
घी के दिए जला रहे, मिटे तिमिर भय रोग।।
*
फोड़ पटाखे मत करो, शोर न दूषित वायु।
कलुषित पर्यावरण कर, घटा रहे निज आयु।।
*
सीमा पर तैनात जो, रहें सुबह से शाम।
पहला दीपक जला दें, हम मिल उनके नाम।।
*
टी. व्ही. जब से आ गया, ऐसा हुआ कमाल।
खुद को अपना ही नहीं, मिल पाता है हाल।।
*
छोटे-बड़े शिकार हो, चिपके भूले काम।
थककर आये किंतु हैं, व्यस्त न कर आराम।।
*
बच्चे टी. व्ही.देखकर, आँखें करें खराब।
'होमवर्क' को भूलकर,  चश्मिश हुए जनाब।।
*
खाते टी. व्ही. देखकर, पिज्जा लोलीपोप।
कहना सुनें न बड़ों का, परेशान माँ-बाप।।
*
अहो भाग्य है खुल गए, तन-पिंजरे के द्वार।
मन-पंछी चल उड़ चलें, नीलाम्बर के पार।।
*
नील गगन में उड़ मिले, पंछी को आनंद।
बंदिश लगे उड़ान पर, पिंजरा नहीं पसंद।।
*
हे प्रभु! दिखलाना नहीं, मुझको ऐसा काल।
पर कतरे उड़ने न दे, कोई पिंजरे-डाल।।
*
साजन तेरे नाम की, हिना रचाई हाथ
राह देखते झुक रहा, आ जा! मेरा माथ
*
फीका मेंहदी के बिना, नारी का श्रृंगार
लगा महावर पाँव में, बैठी बाट निहार
*
हिंसा से बढ़कर नहीं, है कोई अपराध
मात्र अहिंसा ही हरे, सबके मन की व्याध
*
मन, वचनों या कर्म से, मत देना संताप
सके अहिंसा ही मिटा, कलुषित मन के पाप
*
देख नीर में बिंब निज, चाँद हुआ हैरान।
कौन दूसरा आ गया, जुड़वाँ बंधु समान।।
*
चंद्र-चंद्रिका साथ हों, लगे सुहानी रात।
मन-द्वारा खटका रही, पिया मिलन की बात।।
*
सूरज की किरणें उगीं, ऊषा ले चित-चोर।
बीरबहूटी देखकर, मन है भाव विभोर।।
*
तन पर कपड़े अधूरे, मन में अमित उमंग।
खेल-खेल में बचपना, देता जीवन रंग।।
*
बचपन के बीते हुए, दिन आते जब याद।
भूल बुढ़ापा मन कहे, हो जा फिर आज़ाद।।
*
जन मत; पर मत; विज्ञ मत, शास्त्र मतों की खान।
मन मत सर्वोपरि रखें, साथ रहे निज ज्ञान।। 
*
चलें सदा सदमार्ग पर, नहीं भटकिए राह।
नर ही नारायण बने, यदि सच्ची हो चाह।।
*
जिनमें बसते दिव्य गुण, करें श्रेष्ठ व्यवहार।
निज-पर, छोटे-बड़ों से, मर्यादा-अनुसार।।
*
शब्द-बाण मत मारिए, करें नहीं अपमान।
कटु वचनों से दूर हो, होंठों की मुस्कान।।
*
सद्गति होती ही नहीं, बिना योग, गुरु-ज्ञान।
मुक्ति मिलेगी युक्ति से, बनिए कर्म-प्रधान।।  
*
कुलदीपक कहते उसे, जो है घर का लाल। 
लाड़-प्यार से सीख दें, ले घर-द्वार सम्हाल।।
*
बेटा-बेटी रत्न हैं, जीवन के अनमोल। 
बोली वही सीखिए, दे मिसरी सी घोल।।
*
बेटा-बेटी बढ़ाते, दो-दो कुल की शान। 
किसी एक पर मत करें, आप निछावर जान।।
*
करें बड़ा माता-पिता, मिल अपनी संतान।
बूढ़ें हो तो सम्हाले, संतति रहे निहाल।।  

रक्षा करते वतन की, जो देकर बलिदान। 
हम उनके परिवार को, अपनाकर दें मान।।
*
हर दिन दीवाली मना, तनिक सुमीर लो राम। 
अहंकार लंका जला, मोह दशानन मार।।  

अभिनंदन नव वर्ष का, करें लुटाकर प्यार। 
आँसू पोछें किसी के, पाए दीन दुलार।।
*
हुरियारे करते फिरें, होली में हुडदंग। 
जोश सयानों में अधिक, देख युवा हैं दंग।।
*
फगुआ में फगुआ रहे, करते फिरें धमाल। 
माथ अबीरी हो रहा, गाल गुलाबी लाल।।
*
भीगी चूनर देखकर, लगी जिया में आग। 
नैन शराबी हो रहे, कंठ सुनाए फाग।।   

तेज बढ़ा आदित्य का, रौब दिखाती धूप।
चेहरा उतरा हुआ है, संझा सूरज-रूप।।
*
माँ शारद की कृपा बिन, ज्यों सूना साहित्य। 
त्यों अँधियारा हो जगत, जब डूबे आदित्य।।
*
आँख मूँदकर सो रहा, शासन होकर मौन। 
देते जान किसान की, व्यथा सुने कब-कौन?
*
खेती करते रात-दिन, लगा-लगाकर जान। 
भूखे गोली खा रहे, पालनहार किसान।।
*
बेबस घिरे अशांति में, लोग रहे हैं भाग। 
धधक रही हर दिशा में, अब नफरत की आग।।  
*
लोकतंत्र दम तोड़ता, मचती चीख-पुकार। 
नेता दावे कर रहे, कहीं-नहीं उपचार।। 
*
मोबाइल घातक नशा, कर देता लाचार।
इंटरनेट न मिले तो, युवा हुए बीमार।। 

मित्र फेसबुक पर बना, पहली-पहली बार। 
हक्का-बक्का कवि हुआ, गले पड़ गई नार। 
*
छैल-छबीली सुंदरी, नैना लगें कटार। 
बोली: 'मैं आ रही हूँ, छोड़ दिया घर-बार'।।
*
शादी कर लें हम चलो, हो जीवन-भर साथ। 
महबूबा-महबूबा बन, आओ, थामो हाथ।।
*
कवि को रास न आ सका, यह नाता नापाक। 
बोला: 'मैंने रात ही, किया आपको ब्लोक'।।
*
बीबी बोली: 'मैं तुम्हें, प्यार करूँ घनघोर।
दिल मेरा चोरी किया, क्राइम है यह घोर'।। 
*
कवि बोला: 'लूटा मुझे, तुमने क्राइम खास'।
दोनों ने पाई सजा, आजीवन कारावास।।
*
कुर्सी पाकर तन गए, घूरें आँख तरेर। 
बिल्ली अब तक जो रहे, हाय! हो गए शेर।।
*
एक साथ मिल-बैठकर, नेता दाँत निपोर। 
झट भत्ते बढ़वा; लड़ें, हैं जन-धन के चोर।।  
*
नूर कुश्ती कर रहे, टी. व्ही. पर दिन-रात। 
कुत्ते कहते: 'बेहतर, इनसे अपनी जात'।।
*
चीर हरें सिद्धांत का, लगा-लगा कर दाँव। 
काम पड़े तो पड़ रहे, गधे गधों के पाँव।।
*
खेल रहे हैं दल सभी, राजनीति का खेल। 
बाहर तो टकराव है, पर भीतर है मेल।।  
*
मुश्किल से हो पा रहा, अब जीवन निर्वाह। 
मँहगाई आकाश छू, बढ़ा रही है चाह।।

दिन दूने चौगुन बढ़े, नित अपराध-गुनाह। 
दूषित है परिवेश अब, मिले न खोजे राह।।
*  
करे परिश्रम रात-दिन, बेचारा मजदूर।
दो रोटी के वास्ते, फिर भी है मजबूर।     
*
नहीं अदब के दिन रहे, संस्कार भी सुप्त। 
आपस में टकराव है, भाईचारा लुप्त।।

संस्कार हो गए हैं, अब चिट्ठी गुमनाम।    
घर-घर में अखबार सम, मिलते खोटे काम।   

कहाँ दूत श्री राम के, महावीर जी खास?
खुद हैं ऊपर गढ़ी में, इनका तंबू वास। 
*
वृक्ष कटे तो हो गए, जैसे विधुर पहाड़। 
चट्टानें खुद तप रहीं, पथिक न पाता आड़।
*
व्याकुल पक्षीगण हुए, मिलती कहीं न ठौर। 
अकुलाकर बतिया रहे, चलें कहीं अब और
*
पर्यावरण सुधार पर, करे न कोई गौर। 
कोंक्रीटी वन उग रहे, आया कैसा दौर?
*
बनें नासमझ समझकर, दाना भी नादान। 
वृक्ष काटकर कर रहे, अपना ही नुकसान।  
*
पेड़ लगाओगे अगर, पुण्य रहेगा साथ। 
अंत समय वर्ना रहे, तेरे खाली हाथ
*
तरु देते छाया सघन, जीवन हो खुशहाल। 
शुद्ध हवा तन को मिले, बीमारी दे टाल
*
हरियाली दस दिश रहे, मन के मिटें विकार। 
वर्षा की बौछार हो जीवन का आधार
*
भवन तानते जा रहे, पेड़ों को कर नष्ट।
बिना पेड़ हो आप ही, सारा दृष्ट अदृष्ट।   
*
नहीं दिखेंगे यदि कहीं, हरे-भरे वन-बाग़। 
मिल पायेगी फिर नहीं, सुनने कोयल-राग 
*
निज स्वार्थों का ध्यान रख, करते हैं जो काम। 
पौधारोपण का कभी, लेते हैं वे नाम
*
अंतर्मन की व्यथा का, कैसे करें बखान?
सूखी फसलें देखकर, जीते मरे किसान
*****

द्विपदी - दोहे साथ में


बसा लो दिल में, दिल में बस जाओ                                                                                  फिर भुला दो तो कोई बात नहीं
*
खुद्कुशी अश्क की कहते हो जिसे 
वो आंसुओं का पुनर्जन्म हुआ
*
अल्पना कल्पना की हो ऐसी 
 द्वार जीवन का जरा सज जाये.
*
गौर गुरु! मीत की बातों पे करो 
दिल किसी का दुखाना ठीक नहीं
*
श्री वास्तव में हो वहीं, जहां रहे श्रम साथ 
 जीवन में ऊँचा रखे श्रम ही हरदम माथ
*
खरे खरा व्यवहार कर, लेते हैं मन जीत 
जो इन्सान न हो खरे, उनसे करें न प्रीत.
*
गौर करें मन में नहीं, 'सलिल' तनिक हो मैल
कोल्हू खीन्चे द्वेष का, इन्सां बनकर बैल
*
काया की माया नहीं जिसको पाती मोह, 
वही सही कायस्थ है, करे गलत से द्रोह.

सोरठा-दोहा गीत संबंधों की नाव

सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही। 
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।
नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।
घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।
गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
***
२०-७-२०१६

दोहा - सोरठा गीत पानी की प्राचीर

दोहा - सोरठा गीत
पानी की प्राचीर
*
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।
पीर, बाढ़ - सूखा जनित
हर, कर दे बे-पीर।।
*
रखें बावड़ी साफ़,
गहरा कर हर कूप को।
उन्हें न करिये माफ़,
जो जल-स्रोत मिटा रहे।।
चेतें, प्रकृति का कहीं,
कहर न हो, चुक धीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
सकें मछलियाँ नाच,
पोखर - ताल भरे रहें।
प्रणय पत्रिका बाँच,
दादुर कजरी गा सकें।।
मेघदूत हर गाँव को,
दे बारिश का नीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
पर्वत - खेत - पठार पर
हरियाली हो खूब।
पवन बजाए ढोलकें,
हँसी - ख़ुशी में डूब।।
चीर अशिक्षा - वक्ष दे ,
जन शिक्षा का तीर।
आओ मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
***
२०-७-२०१६
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मुक्तिका: सहारा

मुक्तिका 
*
कल दिया था, आज लेता मैं सहारा 
चल रहा हूँ, नहीं अब तक तनिक हारा 
*
सांस जब तक, आस तब तक रहे बाकी 
जाऊँगा हँस, ईश ने जब भी पुकारा
*

देह निर्बल पर सबल मन, हौसला है
चल पड़ा हूँ, लक्ष्य भूलूँ? ना गवारा
*

पाँव हैं कमजोर तो बल हाथ का ले
थाम छड़ियाँ खड़ा पैरों पर दुबारा
*

साथ दे जो मुसीबत में वही अपना
दूर बैठा गैर, चुप देखे नज़ारा
*

मैं नहीं निर्जीव, हूँ संजीव जिसने
अवसरों को खोजकर फिर-फिर गुहारा
*

शक्ति हो तब संग जब कोशिश करें खुद
सफलता हो धन्य जब मुझको निहारा
*

दोहे महिला क्रिकेट के : मिताली राज-हरमनप्रीत

दोहे महिला क्रिकेट के : मिताली राज-हरमनप्रीत 
भारत-आस्ट्रेलिया मैच 
*
राज मिताली राज का, तूफानी रफ़्तार। 
राज कर रही विकेट पर, दौड़ दौड़ हर बार
*
कर किताब से मित्रता, रह तनाव से दूर 
शान्त चित्त खेलो क्रिकेट, मिले वाह भरपूर
*
दस हजार का लक्ष्य ले, खेलो धरकर धीर
खेल नायिका पा सको, नया नाम रन वीर
*
खेलो हर स्ट्रोक तुम, पीटो हँस हर गेंद 
गेंदबाज भयभीत हो, लगा न पाए सेंध
*
चौकों से यारी करो, छक्कों से हो प्यार. 
शतक साथ डेटिंग करो, मीताली सौ बार
*
जा विदेश में बोलिए, हिंदी तब हो गर्व. 
क्या बोला सुन-समझ लें, भारतीय हम सर्व
*
अंग्रेजी का मोह तज, कर हिंदी में बात.
राज दिलों पर राज का, यह मीताली राज
*
हरमन ने की दनादन, चोट, चोट पर चोट.
दीवाली की बम लडी, ज्यों करती विस्फ़ोट
*
सरहद सारी सुरक्षित, दुश्मन फौज फ़रार.
पता पड़ गया आ रही, हरमन करने वार
*
चौको छक्को की करी, लगातार बरसात.
हक्का बक्का रह गए, कंगारू खा मात
*
हरमन पर हर मन फिदा, खूब दिखाया खेल.
कंगारू पीले पड़े, पल में निकला तेल
*
गेंदबाज चकरा गए, भूले सारे दाँव.
पंख उगे हैं गेंद के, या ऊगे हैं पाँव.
या ऊगे हैं पाँव विकेटकीपर को भूली.
आँख मिचौली खेल, भीड़ के हाथों झूली.
हरमन से कर प्रीत,शोट खेल में छा गए.
भूले सारे दाँव, गेंदबाज चकरा गए.

*

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

क्षणिका सलिला

क्षणिका सलिला
अविनाश ब्योहार 
*
चारा

जब कोई चारा
नहीं रहा तो
देना पड़ा प्रलोभन!
नैतिकता से
कार्य करवाना
सिद्ध हुआ
अरण्य रोदन!!

रस्म

पैसा खाना
दफ्तर की
हो गई
है रस्म!
लोग हो
गये हैं
चार चश्म!!

पस्त

लगता है
सूर्य हो गया
है अस्त!
प्रजातंत्र की
हालत पस्त!!

***
रायल एस्टेट
कटंगी रोड जबलपुर।

मुक्तक

मुक्तक:
जन्म दिन 
​समय ग्रन्थ के एक पृष्ठ को संजीवित कर आप रहे 
बिंदु सिंधु में, सिंधु बिंदु में होकर नित प्रति व्याप रहे 
हर दिन जन्म नया होना है, रात्रि मूँदना आँख सखे!
पैर धरा पर जमा, गगन छू आप सफलता नाप रहे 
*
मन सागर, मन सलिला भी है, नमन अंजुमन विहँस कहें
प्रश्न करे यह उत्तर भी दे, मन की मन में रखेँ-कहें?
शमन दमन का कर महकाएँ चमन, गमन हो शंका का-
बेमन से कुछ काम न करिए, अमन में चमन 'सलिल' रहे
*
तेरी निंदिया सुख की निंदिया, मेरी निंदिया करवट-करवट
मेरा टीका चौखट-चौखट, तेरी बिंदिया पनघट-पनघट
तेरी आसें-मेरी श्वासें, साथ मिलें रच बृज की रासें-
तेरी चितवन मेरी धड़कन, हैं हम दोनों सलवट-सलवट
*
बोरे में पैसे ले जाएँ, सब्जी लायें मुट्ठी में
मोबाइल से वक़्त कहाँ है, जो रुचि ले युग चिट्ठी में
कुट्टी करते घूम रहे हैं सभी सियासत के मारे-
चले गये वे दिन जब गले मिले हैं संगा मिट्ठी में
*
नहीं जेब में बचीं छदाम, खास दिखें पर हम हैँ आम
कोई तो कविता सुनकर, तनिक दाद दे करे सलाम
खोज रहीं तन्मय नज़रें, कहाँ वक़्त का मारा है?
जिसकी गर्दन पकड़ें हम फ़िर चुकवा दें बिल बेदाम
***

गीत:फ़िक्र मत करो

एक रचना-
फ़िक्र मत करो
*
फ़िक्र मत करो 
सब चलता है 
*
सूरज डूबा उगते-उगते
क्षुब्ध उषा को ठगते-ठगते
अचल धरा हो चंचल धँसती
लुटी दुपहरी बचते-फँसते
सिंदूरी संध्या है श्यामा
रजनी को
चंदा छलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
गिरि-चट्टानें दरक रही हैं
उथली नदियाँ सिसक रही हैं
घायल पेड़-पत्तियाँ रोते
गुमसुम चिड़ियाँ हिचक रही हैं
पशु को खा
मानव पलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
मनमर्जी कानून हुआ है
विधि-नियमों का खून हुआ है
रीति-प्रथाएँ विवश बलात्कृत
तीन-पाँच दो दून हुआ है
हाथ तोड़ पग
कर मलता है
***
१८. १२. २०१५

नवगीत महोत्सव २०१५ लखनऊ

यादें न जाएँ:
नवगीत महोत्सव २०१५ लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना:
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आए हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाए हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोएँ-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसाएँ
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पाएँ
मतभेदों को विहँस पचाएँ
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*

नवगीत: नौटंकियाँ

नवगीत:
नौटंकियाँ 
*
नित नयी नौटंकियाँ 
हो रहीं मंचित 
*
पटखनी खाई
हुए चित
दाँव चूके
दिन दहाड़े।
छिन गयी कुर्सी
बहुत गम
पढ़ें उलटे
मिल पहाड़े।
अब कहो कैसे
जियें हम?
बीफ तजकर
खायें चारा?
बना तो सकते
नहीं कुछ
बन सके जो
वह बिगाडें।
न्याय-संटी पड़ी
पर सुधरे न दंभित
*
'सहनशीली
हो नहीं
तुम' दागते
आरोप भारी।
भगतसिंह, आज़ाद को
कब सहा तुमने?
स्वार्थ साधे
चला आरी।
बाँट-रौंदों
नीति अपना
सवर्णों को
कर उपेक्षित-
लगाया आपात
बापू को
भुलाया
ढोंगधारी।
वाममार्गी नाग से
थे रहे दंशित
*
सह सके
सुभाष को क्या?
क्यों छिपाया
सच बताओ?
शास्त्री जी के
निधन को
जाँच बिन
तत्क्षण जलाओ।
कामराजी योजना
जो असहमत
उनको हटाओ।
सिक्ख-हत्या,
पंडितों के पलायन
को भी पचाओ।
सह रहे क्यों नहीं जनगण ने
किया जब तुम्हें दंडित?
*

बांग्ला हिंदी: रवीन्द्रनाथ ठाकुर

एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएँ और बरसें जिससे तन-मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इंद्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना? आईए, आज एक सुंदर गीत सुनकर आनंद लें जिसे रचा है भानु सिंह ने। अरे! आप भानुसिंह को नहीं जानते? अब जान लीजिए, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी 'प्रेम कवितायेँ' भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
*
सावन गगने घोर घन घटा; निशीथ यामिनी रे!
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब; अबला कामिनी रे!!
उन्मद पवने जमुना तर्जित; घन-घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित; थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम; बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले; निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।
कह रे सजनी! ये दुर्योगे; कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत; सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे; टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम; बाँध ह चंपक माले।
गहन रैन में न जाओ, बाला! नवल किशोर क' पास
गरजे घन-घन बहु डरपाव;ब कहे 'भानु' तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाए; आधी रतिया रे!
बाग़ डगर किस विधि जाएगी?; निर्बल गुइयाँ रे!!
मत्त हवा यमुना फुँफकारे; गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि; मग-वृक्ष लोटते; थर-थर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेज तरु; घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर; कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले; 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे; लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट-चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत; तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है: देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं: हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बाँसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
***
http://divyanarmada.blogspot.in/

मुक्तक

मुक्तक:
आँखों से बरसात हो, अधर झराते फूल
मन मुकुलित हो जूही सम, विरह चुभे ज्यों शूल
तस्वीरों को देखकर, फेर रहे तस्बीह
ऊपर वाला कब कहे: 'ठंडा-ठंडा कूल'
***

माँ के प्रति प्रणतांजलि

माँ के प्रति प्रणतांजलि:
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.
दोहा गीत गजल कुण्डलिनी, मुक्तक छप्पय रूबाई सी..
मन को हुलसित-पुलकित करतीं, यादें 'सलिल' डुबातीं दुख में-
होरी गारी बन्ना बन्नी, सोहर चैती शहनाई सी.. 
*
मानस पट पर अंकित नित नव छवियाँ ऊषा अरुणाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी..
प्यार हौसला थपकी घुड़की, आशीर्वाद दिलासा देतीं-
नश्वर जगती पर अविनश्वर विधि-विधना की परछांई सी..
*
उँगली पकड़ सहारा देती, गिरा उठा गोदी में लेती.
चोट मुझे तो दर्द उसे हो, सुखी देखकर मुस्का देती.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी-
'सलिल' अभागा माँ बिन रोता, श्वास -श्वास है रुसवाई सी..
*
जन्म-जन्म तुमको माँ पाऊँ, तब हो क्षति की भरपाई सी.
दूर हुईं जबसे माँ तबसे घेरे रहती तन्हाई सी.
अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*
कौशल्या सी ममता तुममें, पर मैं राम नहीं बन पाया.
लाड़ दिया जसुदा सा लेकिन, नहीं कृष्ण की मुझमें छाया.
मूढ़ अधम मुझको दामन में लिए रहीं तुम निधि पाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*

मुक्तिका: किस्सा नहीं हूँ

मुक्तिका:
संजीव
.
आप मानें या न मानें, सत्य हूँ ;किस्सा नहीं हूँ
कौन कह सकता है, हूँ इस सरीखा; उस सा नहीं हूँ
मुझे भी मालुम नहीं है, क्या बता सकता है कोई?
पूछता हूँ आजिजी से, कहें; मैं किस सा नहीं हूँ
साफगोई ने अदावत, का दिया है दंड हरदम
फिर भी मुझको फख्र है, मैं छल रहा घिस्सा नहीं हूँ
हाथ थामो या न थामो, फैसला-मर्जी तुम्हारी
कस नहीं सकता गले में, आदमी- रस्सा नहीं हूँ
अधर पर तिल समझ मुझको, दूर अपने से न करना
हनु न रवि को निगल लेना, हाथ में गस्सा नहीं हूँ
निकट हो या दूर हो तुम, नूर हो तुम; हूर हो तुम
पर बहुत मगरूर हो तुम, सच कहा; गुस्सा नहीं हूँ
***
खामियाँ कम, खूबियाँ ज्यादा, तुम्हें तब तक दिखेंगी
मान जब तक यह न लोगे, तुम्हारा हिस्सा नहीं हूँ
.

नवगीत: खों-खों करते

नवगीत: 
संजीव 

खों-खों करते 
बादल बब्बा 
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रुको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आये घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
....

श्रृद्धांजलि: नीरज

स्व.नीरज के प्रति 
*
कंठ विराजीं शारदा, वाचिक शक्ति अनंत।
शब्द-ब्रम्ह के दूत हे!, गीति काव्य कवि-कंत।।
गीति काव्य कवि-कंत, भाव लय रस के साधक।
चित्र गुप्त साकार, किए हिंदी-आराधक।।
इंसां को इंसान, बनाने ही की कविता।
करे तुम्हारा मान, रक्त-नत होकर सविता।।
*
नीर नर्मदा-धार सा, निर्मल पावन काव्य।
नीरज कवि लें जन्म, फिर हिंदी-हित संभाव्य।
हिंदी हित संभाव्य, कारवां फिर-फिर गुजरे।
गंगो-जमनी मूल्य, काव्य में सँवरे-निखरे।।
दिल की कविता सुने, कहे दिल हुआ प्यार सा।
नीरज काव्य महान, बहा नर्मदा-धार सा।।
*
ऊपरवाला सुन पायेगा जब जी चाहे मीठे गीत
समझ सकेंगे चित्रगुप्त भी मानव मन में पलती प्रीत
सारस्वत दरबार सजेगा कवि नीरज को पाकर बीच-
मनुज सभ्यता के सुर सुनने बैठें सुर, नीरज की जीत.
***
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
गीत
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है।
नेह-नर्मदा काव्य नहाकर, व्याकुल मनुज तरा करता है।।
*
नीरज है हर एक कारवां, जो रोतों को मुस्कानें दे।
पीर-गरल पी; अमिय लुटाए, गूँगे कंठों को तानें दे।।
हों बदनाम भले ही आँसू, बहे दर्द का दर्द देखकर।
भरती रहीं आह गजलें भी, रोज सियासत सर्द देखकर।।
जैसी की तैसी निज चादर, शब्द-सारथी ही धरता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
"ओ हर सुबह जगानेवाले!" नीरज युग का यह न अंत है। 
"ओ हर शाम सुलानेवाले!", गीतकार हर शब्द-संत है।।
"सारा जग बंजारा होता", नीरज से कवि अगर न आते। 
"साधो! हम चौसर की गोटी", सत्य सनातन कौन सुनाते?
"जग तेरी बलिहारी प्यारे", कह कुरीती से वह लड़ता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
'रीति गागर का क्या होगा?", क्यों गोपाल दास से पूछे?
"मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ", खाली जेब; हाथ ले छूछे।।
"सारा जग मधुबन लगता है", "हर मौसम सुख का मौसम है"।
"मेरा श्याम सकारे मेरी हुंडी" ले भागा क्या कम है? 
"इसीलिए तो नगर-नगर बदनाम" गीत-माला जपता है। 
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
[टीप: ".." नीरज जी के गीतों से उद्धृत अंश] 
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८