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शनिवार, 7 अप्रैल 2018

? ॐ दोहा शतक जय प्रकाश श्रीवास्तव

दोहा शतक जय प्रकाश श्रीवास्तव

छाया है कुहरा घना,दिखता ओर न छोर
जाने कब संध्या ढली,कब उग आई भोर।

फूल बसंती खिल गये,वन उपवन श्रंगार
प्रीत हिंडोला झूलती,मन में जागा प्यार।

मन के आँगन में जगे,प्रीत पगे संबंध
कली कली से हो गये,भँवरों के अनुबंध।

खिले फूल कलियाँ खिलीं,खिला खिला रँग रूप
खिली खिली धरती लगे,खिली खिली सी धूप।

ऋतु बसंत के मायने ,समझा रही बयार
कभी लगे ग़ुस्सैल सी,कभी जताती प्यार।

पाँव जब तलक साथ दें,चलता चल तू यार
मिलता जैसा जो जहाँ,बाँट सभी से प्यार।

रोज़ बनाते नीतियाँ,रोज़ निभाते फ़र्ज़
जनता के सिर पर मढ़ें,टैक्स लगाकर क़र्ज़ ।

भीतर अपने झाँक ले,फिर कर सोच विचार
कितना पाया क्या दिया,कितना रहा उधार।

सूरज खिड़की में उगा,दरवाज़े पर घाम
दिन के कारोबार में,रात हुई बदनाम।

सन्नाटा बुनती रही,अँधियारे में रात
दिन निकला फिर धूप की,लेकर के सौग़ात।

जिनके महल अटारियाँ ,मख़मल के क़ालीन उनके पाँवों के तले,होती नहीं ज़मीन । जिन्हें देखकर ज़रा भी,जगे नहीं उल्लास उनसे रहिये दूर ही,हों कितने ही पास। वैमनस्य की आग में,झुलस रहे परिवेश बुझा बुझा कर हारता,मेरा प्यारा देश। भक्ति और वैराग्य का,मणिकाँचन सा योग ढूँढे़ से मिलता नहीं ,अब ऐसा संयोग। धूल बवंडर आँधियाँ,और गले तक प्यास बूँद पसीना पोंछने,छाँव बुलाती पास। फूलों के रँग में घुली,मादकता की गंध कलियों के फिर से हुये,भँवरों से अनुबंध। फागुन पाहुन ने रखे,जब से घर में पाँव तन मन होरी सा जले,रात दिया की छाँव। फागुन लेकर आ गया,रंग अबीर गुलाल फिरें गोपियाँ ढूढ़ती,कहाँ छुपा नँदलाल। टेसू सेमल से सजी,जंगल की हर राह सड़क पकड़ चलती यहाँ,पगडंडी की बाँह। बौरायी अमराइयाँ ,महुआ झरते फूल बहकी बहकी हवा भी,राह गई है भूल।

फूलों के रँग में घुली,मादकता की गंध कलियों के फिर से हुये,भँवरों से अनुबंध। फागुन पाहुन ने रखे,जब से घर में पाँव तन मन होरी सा जले,रात दिया की छाँव।

फागुन लेकर आ गया,रंग अबीर गुलाल फिरें गोपियाँ ढूढ़ती,कहाँ छुपा नँदलाल। टेसू सेमल से सजी,जंगल की हर राह सड़क पकड़ चलती यहाँ,पगडंडी की बाँह। बौरायी अमराइयाँ ,महुआ झरते फूल बहकी बहकी हवा भी,राह गई है भूल।

राजनीति के मंच पर,कुर्सी का है खेल सत्ता पाने के लिये,मचती रेलमपेल।


गंगा शुद्धीकरण में,लेंगें अब वे दान इससे क्या बच पायेगा,गंगा का सम्मान।
आजादी आई कहाँ,जनता है परतंत्र राजनीति के घाट पर,है घायल गणतंत्र।
बेकारी औ भूख से,लड़ता रोज गरीब श्रम से लिखता हाथ पर,अपना रोज नसीब।
रोटी रोटी के लिये,रोटी रहे उछाल प्रजातंत्र में आज भी,रोटी एक सवाल
प्रेम सरोवर में लगा,डुबकी तू इक बार प्रेम उतारेगा तुझे,भवसागर से पार।

चित्रगुप्त रहस्य

शोध लेख :
चित्रगुप्त रहस्य:  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
लेखक परिचय: जन्म- २०.८.१९५२, शिक्षा- डी.सी.ई., बी.ई., एम्.आई.ई., एम् ए. (दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र), एलएल.बी., दीप. पत्रकारिता, डी.सी.ए., सेवानिवृत्त संभागीय परियोजना अभियंता, कायस्थ संस्थाओं से ५० वर्ष से अधिक का जुड़ाव, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, विश्व कायस्थ कायस्थ कोंफेरेंस आदि में सक्रिय सहभागिता तथा वरिष्ठ उपाध्यक्ष, महामंत्री, संगठन सचिव, कोषाध्यक्ष आदि पदों पर विविध कालखंडों में सक्रिय रहे। बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी की प्रेरणा से हिंदी साहित्य में योगदान, ६ कृतियाँ प्रकाशित। छंद शास्त्र में विशेष योगदान, ४०० नए छंदों की खोज, छंद कोष पर कार्यरत, नवगीत के चर्चित हस्ताक्षर। अनेक कायस्थ सम्मलेन व सामूहिक विवाहों का आयोजन कराया। १२ प्रान्तों की अनेक संस्थाओं द्वारा शताधिक सम्मन और अलंकरण साहित्य तथा समाज सेवा हेतु प्राप्त।
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चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं

परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है: '

"चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.'' 
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. 

आत्मा क्या है? 

सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के नहीं। 

चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं: 

सभी जानते हैं कि परमात्मा और उनका अंश आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन), अनंत (अंतहीन), अजर (कभी वृद्ध न होना), अमर (कभी न करना) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं। परमात्मा (परम आत्मा) ही सृष्टि का निर्माण कर उसके कण-कण में वास करता है। 'कण-कण में भगवान् या कंकर-कंकर में शंकर कहकर इसी सत्य को सनातन काल से स्वीकार किया गया है।

चित्रगुप्त पूर्ण हैं: 

अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आरम्भ तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। दूज पूजन के समय कोरे कागज़ पर चन्दन, केसर, हल्दी, रोली तथा जल से ॐ लिखकर अक्षत (जिसका क्षय न हुआ हो आम भाषा में साबित चांवल) से चित्रगुप्त जी का पूजन कायस्थ जन करते हैं। 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते 

पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब 
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा। 

चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण दोनों हैं:

चित्रगुप्त निराकार-निर्गुण ही नहीं साकार-सगुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिये वे साकार-सगुण रूप में प्रगट हुए वर्णित किये गए हैं। सकल सृष्टि का मूल होने के कार उनके माता-पिता नहीं हो सकते। इसलिए उन्हें ब्रम्हा की काया से ध्यान पश्चात उत्पन्न बताया गया है। आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं। 

अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह. 
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।। 

परमब्रम्ह के अंश- कर, कर्म भोग परिणाम 
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।। 

कर्म ही वर्ण का आधार:

श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। 

स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिये मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। सभी वर्णों के व्यक्तियों की काया में आत्मा के रूप में परमात्मा का अंश होने के कारण सब 'कायस्थ' थे। व्यवहारिक अर्थ में इस सिद्धांत को जानने और मानने वाले, मानव मात्र को सम भाव से देखकर सबके साथ रोटी-बेटी सम्बन्ध रखने वाले कायस्थ हुए। इसी कारण लोक में एक कहावत प्रचलित हुई 'कायथ घर भोजन करे, बचहि न एकहि जात' जिस तरह गंगा में नहाने के बाद किसी नदी में नहाना शेष नहीं रहता, वह सर्वश्रेष नदी है, उसी तरह कायस्थ के घर में भोजन करने के बाद किसी के घर में भोजन कर्ण शेष नहीं रहता क्योंकि कायस्थ सर्वश्रेष्ठ हैं। जिन समूहों ने अपने व्यवसाय के समान व्यवसाय रखनेवालों में सम्बन्ध किए वे समान गुण के अर्थात एक 'जात' के कहे गए। कालांतर में ब्राम्हणों ने धर्म ग्रंथों में प्रक्षिप्त अंश जोड़कर, स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित बता दिया । 

चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे? 

श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। चित्रगुप्त जी का निर्गुण स्वरुप आम जनों को सरलता से समझ नहीं आता, इसलिए उनका विग्रह (प्रतिमा) स्थापित किया जाना बहुत बाद में आरम्भ हुआ जबकि उनका उल्लेख वैदिक काल से प्राप्त होने पर भी उस समय पार्थिव पूजन की परंपरा नहीं थी।

चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:

सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु परमात्मा के अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति 'अनहद नाद' से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर भारहीन कण भार युक्त कण (बोसान पार्टिकल) आदि तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। नासा ने सूर्य के जो ध्वनि-चित्र लिए हैं उनमें 'अ', 'उ' तथा 'म' की संयुक्त ध्वनि 'ॐ' सुनाई दी है तथा उसका रेखण किए जाने पर 'ॐ' आकृति दिखी है।

यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर तथा पानी मिलाकर 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष
में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है। ज्ञान की विविध शाखाओं के प्रमुख देवी-देवताओं के नाम लिखकर उन्हें स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की जाती है। तत्पश्चात दो पंक्तियों में अंक इस तरह लिखे जाते हैं जिनका योग नौ बार नौ आए। नौ अंक पूर्णता का प्रतीक है। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठायी जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें।आशय यह कि पूजनकर्ता परमात्मा का अंश है, परमात्मा से प्राप्त शक्तियों के माध्यम से ज्ञान देनेवाले देवी-देवताओं के प्रति कृतज्ञ है। ज्ञान के शुद्ध रूप गणित के माध्यम से जीवन काल में लेना-देना इस प्रकार करना चाहता है कि अंत में पूर्णता पाकर परमात्मा में लीं हो जाए। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु द्वारा सृष्टि के कल्याण के लिये विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार, विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ये देवी शक्तियां ज्ञान के विविध शाखाओं के प्रमुख हैं. ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। 

बहुदेववाद की परंपरा: 

सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव पहले देवी-देवताओं के नाम लिखकर फिर दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये व्यक्त किया जाता है। पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम को देव के समीप रखकर उसकी पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियाँ अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन कोई सांसारिक कार्य (व्यवसायिक, मैथुन आदि) न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है। 

'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है। उदारता तथा समरसता की विरासत यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। इसलिए उन्हें औरों से अधिक बुद्धिमान कहा गया है. चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवी-देवताओं के साथ समाज सुधारकों दयानंद सरस्वती, आचार्य श्री राम शर्मा, सत्य साइ बाबा, आचार्य महेश योगी आदि का पूजन-अनुकरण किया जाता है। कायस्थ मानवता, विश्व तथा देश कल्याण के हर कार्य में योगदान करते मिलते हैं. 

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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विकास (विश्व कायस्थ समाज), ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चभाश: ७९९९५५९६१८, ई मेल: salil.sanjiv@gmail.com

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

laghukathayen

लघुकथाएं -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
१. एकलव्य
*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
२. खाँसी
*
कभी माँ खाँसती, कभी पिता. उसकी नींद टूट जाती, फिर घंटों न आती। सोचता काश, खाँसी बंद हो जाए तो चैन की नींद ले पाए।
पहले माँ, कुछ माह पश्चात पिता चल बसे। उसने इसकी कल्पना भी न की थी.
अब करवटें बदलते हुए रात बीत जाती है, माँ-पिता के बिना सूनापन असहनीय हो जाता है। जब-तब लगता है अब माँ खाँसी, अब पिता जी खाँसे।
तब खाँसी सुनकर नींद नहीं आती थी, अब नींद नहीं आती है कि सुनाई दे खाँसी।
***
३. साँसों का कैदी
*
जब पहली बार डायलिसिस हुआ था तो समाचार मिलते ही देश में तहलका मच गया था। अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति और अनगिनत जनता अहर्निश चिकित्सालय परिसर में एकत्र रहते, डॉक्टर और अधिकारी खबरचियों और जिज्ञासुओं को उत्तर देते-देते हलाकान हो गए थे।

गज़ब तो तब हुआ जब प्रधान मंत्री ने संसद में उनके देहावसान की खबर दे दी, जबकि वे मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे। वस्तुस्थिति जानते ही अस्पताल में उमड़ती भीड़ और जनाक्रोश सम्हालना कठिन हो गया। प्रशासन को अपनी भूल विदित हुई तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे हो गए। गनीमत हुई कि उनके एक अनुयायी जो स्वयं भी प्रभावी नेता थे, वहां उपस्थित थे, उन्होंने तत्काल स्थिति को सम्हाला, प्रधान मंत्री से बात की, संसद में गलत सूचना हेतु प्रधानमंत्री ने क्षमायाचना की।

धीरे-धीरे संकट टला.… आंशिक स्वास्थ्य लाभ होते ही वे फिर सक्रिय हो गए, सम्पूर्ण क्रांति और जनकल्याण के कार्यों में। बार-बार डायलिसिस की पीड़ा सहता तन शिथिल होता गया पर उनकी अदम्य जिजीविषा उन्हें सक्रिय किये रही। तन बाधक बनता पर मन कहता मैं नहीं हो सकता साँसों का कैदी।
***
४. गुरु जी
*
मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है, क्या आप मुझे शिष्य बना नहीं सिखायेंगे?
बार-बार अनुरोध होने पर न स्वीकारने की अशिष्टता से बचने के लिए सहमति दे दी। रचनाओं की प्रशंसा, विधा के विधान आदि की जानकारी लेने तक तो सब कुछ ठीक रहा।
एक दिन रचनाओं में कुछ त्रुटियाँ इंगित करने पर उत्तर मिला- 'खुद को क्या समझते हैं? हिम्मत कैसे की रचनाओं में गलतियाँ निकालने की? मुझे इतने पुरस्कार मिल चुके हैं। फेस बुक पर जो भी लिखती हूँ सैंकड़ों लाइक मिलते हैं। मेरी लिखे में गलती हो ही नहीं सकती। आइंदा ऐसा किया तो...'

आगे पढ़ने में समय ख़राब करने के स्थान पर शिष्या को ब्लोक कर चैन की सांस लेते कान पकड़े कि अब नहीं बनेंगे किसी के गुरु। ऐसों को गुरु नहीं गुरुघंटाल ही मिलने चाहिए।
***
प्रेषक:
संजीव वर्मा 'सलिल'
विश्व वाणी हिंदी संस्थान,
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१


चलभाष: ७९९९५५९६१८, ई मेल: salil.sanjiv@gmail.com

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

slman khan ko saja

त्वरित प्रतिक्रिया
कृष्ण-मृग हत्याकांड
*
मुग्ध हुई वे हिरन पर, किया न मति ने काम।
हरण हुआ बंदी रहीं, रहे विधाता वाम ।।
*
मुग्ध हुए ये हिरन पर, मिले गोश्त का स्वाद।
सजा हुई बंदी बने, क्यों करते फ़रियाद?
*
देर हुई है अत्यधिक, नहीं हुआ अंधेर।
सल्लू भैया सुधरिए, अब न कीजिए देर।।
*
हिरणों की हत्या करी, चला न कोई दाँव।
सजा मिली तो टिक नहीं, रहे जमीं पर पाँव।।
*
नर-हत्या से बचे पर, मृग-हत्या का दोष।
नहीं छिप सका भर गया, पापों का घट-कोष।।
*
आहों का होता असर, आज हुआ फिर सिद्ध।
औरों की परवा करें, नर हो बनें न गिद्ध।।
*
हीरो-हीरोइन नहीं, ख़ास नागरिक आम।
सजा सख्त हो तो मिले, सबक भोग अंजाम ।।
*
अब तक बचते रहे पर, न्याय हुआ इस बार।
जो छूटे उन पर करे, ऊँची कोर्ट विचार।।
*
फिर अपील हो सभी को, सख्त मिल सके दंड।
लाभ न दें संदेह का, तब सुधरेंगे बंड।।
*
न्यायपालिका से विनय करें न इतनी देर।
आम आदमी को लगे, होता है अंधेर।।
*
सरकारें जागें न दें, सुविधा कोई विशेष।
जेल जेल जैसी रहे, तनहा समय अशेष।।
***

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

कविता

कविता:
अहसास
*
'अहसास' तो अहसास है
वह छोटा-बड़ा
या पतला-मोटा नहीं होता.
'अनुभूति' तो अनुभूति है
उसका मजहब या धर्म नहीं होता.
'प्रतीति' तो प्रतीति है
उसका दल या वाद नहीं होता.
चाहो तो 'फीलिंग' कह लो
लेकिन कहने से पहले 'फील' करो.
किसी के घाव को हील करो.
कभी 'स्व' से आरम्भकर
'सर्व' की प्राप्ति करो.
अब तक अपने लिए जिए
अब औरों के लिए मरो.
देखोगे,
मौत का भय मिट गया है.
अँधेरे का घेरा सिमट गया है.
विष रुका गया है कंठ में
और तुम
हो गए हो नीलकंठ'
***