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शनिवार, 2 सितंबर 2017

doha yamak

दोहा सलिला:
यमक का रंग दोहा के संग-
.....नहीं द्वार का काम
संजीव 'सलिल'
*
मन मथुरा तन द्वारका, नहीं द्वार का काम.
प्राणों पर छा गये है, मेरे प्रिय घनश्याम..
*
बजे राज-वंशी कहे, जन-वंशी हैं कौन?
मिटे राजवंशी- अमिट, जनवंशी हैं मौन..
*
'सज ना' सजना ने कहा, कहे: 'सजाना' प्रीत.
दे सकता वह सजा ना, यही प्रीत की रीत..
*
'साजन! साज न लाये हो, कैसे दोगे संग?'
'संग-दिल है संगदिल नहीं, खूब जमेगा रंग'..
*
रास खिंची घोड़ी उमग, लगी दिखने रास.
दर्शक ताली पीटते, खेल आ रहा रास..
*
'किसना! किस ना लौकियाँ, सकूँ दही में डाल.
जीरा हींग बघार से, आता स्वाद कमाल'..
*
भोला भोला ही 'सलिल', करते बम-बम नाद.
फोड़ रहे जो बम उन्हें, कर भी दें बर्बाद..
*
अर्ज़ किया 'आदाब' पर, वे समझे आ दाब.
वे लपके मैं भागकर, बचता फिर जनाब..
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, हो जाते जब मौन.
मन से मन तक 'सबद' तब, कह जाता है कौन??
*
रात अलार्म लगा गयी, सपनों की बारात
खुली आँख गायब, दिखी बंद आँख सौगात
*
salil.sanjiv @gmail.com, ९४२५१८३२४४
http ://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर.

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

द्विपदी बीर छंद


 द्विपदी 
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
यह द्विपदी अश्वावातारी जातीय बीर छंद में है.

ekakshari doha

एकाक्षरी दोहा: 
आनन्दित हों, अर्थ बताएँ
*
की की काकी कूक के,
की को काका कूक.
काका-काकी कूक के,
का के काके कूक.
*

गुरुवार, 31 अगस्त 2017

doha

एक दोहा
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*

doha


दोहा सलिला
दोहा पढ़िए चाह कर
*
दोहा पढ़िये चाह कर, अनचाहे जा भूल
चाह मन बसे सुमन सम, अनचाहे हो शूल
*
चाह अंजली मल हुई, श्वेता लाल गुलाल
दीपा दीपित दीप ले, चली उठाये भाल
*
चाह शिवानी ने करी, शिव की झुलसा काम चाह मिल गयी चाह को, रति तडपे विधि वाम *
जान जानकी में बसी, हुई जानकी गैर देख विकल मिथलेश को, राम मनाएं खैर *
दशकंधर की चाह ने, सब कुछ किया तबाह इन्द्रजीत कर पराजित, इन्द्रजीत भर आह *
चाह-चाह कर चाह को, बनो चाह की चाह.
बरबस चाहे चाह फिर, भरे आह कह वाह.
*
चाह चाह की राह में, खड़ा देखता राह. चाह चाह को खिझाने, रही दिखाती राह. *
चाह चाह से झगड़ कर, बनी चाह की चाह
चाह चाह से हारकर, जीत गया पा चाह
*
चाह चाह की थाह ले, उथला या गंभीर? चाह चली मुँह फेरकर, चाह न चाह फकीर *
चाह चाह कर चाह को, हो निर्जीव सजीव
डाह दाह से झुलसकर, हो सजीव निर्जीव
*
गौ-भाषा को नित दुहें, यदि दोहा की चाह दो-दो हा-हा मिल करें, राही की परवाह *
चाह भारती बन सके, जगवाणी जग जीत भारतीय ही राह में, बाधक इंग्लिश-प्रीत *
चाह-चाह कर चाह को, करी चाह की चाह
चाह न चाहे चाह को, चाह फँसा कर चाह
*
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
http://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

बुधवार, 30 अगस्त 2017

doha karyashala

कार्यशाला:
चर्चा डॉ. शिवानी सिंह के दोहों पर
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गागर मे सागर भरें भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश तो कासे कह दे पीर||
तो अनावश्यक, प्रिय के जाने के बाद प्रिया पीर कहना चाहेगी या मन में छिपाना? प्रेम की विरह भावना को गुप्त रखना जाना करुणा को जन्म देता है.
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गागर मे सागर भरें, भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश मन, चुप रह, मत कह पीर||
*
सावन भादव तो गया गई सुहानी तीज|
कौनो जतन बताइए साजन जाए पसीज||
साजन जाए पसीज = १२
सावन-भादों तो गया, गई सुहानी तीज|
कुछ तो जतन बताइए, साजन सके पसीज||
*
प्रेम विरह की आग मे झुलस गई ये गात|
मिलन भई ना सांवरे उमर चली बलखात||
गात पुल्लिंग है., सांवरा पुल्लिंग, नारी देह की विशेषता उसकी कोमलता है, 'ये' तो कठोर भी हो सकता है.
प्रेम-विरह की आग में, झुलस गया मृदु गात|
किंतु न आया सांवरा, उमर चली बलखात||
*
प्रियतम तेरी याद में झुलस गई ये नार|
नयन बहे जो रात दिन भया समुन्दर खार||
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प्रियतम! तेरी याद में, मुरझी मैं कचनार|
अश्रु बहे जो रात-दिन, हुआ समुन्दर खार||
कचनार में श्लेष एक पुष्प, कच्ची उम्र की नारी,
नयन नहीं अश्रु बहते हैं, जलना विरह की अंतिम अवस्था है, मुरझाना से सदी विरह की प्रतीति होती है.
*
अब तो दरस दिखाइए, क्यों है इतनी देर?
दर्पण देखूं रूप भी ढले साँझ की बेर|
क्यों है इतनी देर में दोषारोपण कर कारण पूछता है. दर्पण देखना सामान्य क्रिया है, इसमें उत्कंठा, ऊब, खीझ किसी भाव की अभिव्यक्ति नहीं है. रूप भी अर्थात रूप के साथ कुछ और भी ढल रहा है, वह क्या है?
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अब तो दरस दिखाइए, सही न जाए देर.
रूप देख दर्पण थका, ढली साँझ की बेर
सही न जार देर - बेकली का भाव, रूप देख दर्पण थका श्लेष- रूप को बार-बार देखकर दर्पण थका, दर्पण में खुद को बार-बार देखकर रूप थका
*
टिप्पणी- १३-११ मात्रावृत्त, पदादि-चरणान्त व पदांत का लघु गुरु विधान-पालन या लय मात्र ही दोहा नहीं है. इन विधानों से दोहा की देह निर्मित होती है. उसमें प्राण संक्षिप्तता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता, मर्मबेधकता तथा चारुता के पञ्च तत्वों से पड़ते हैं. इसलिए दोहा लिखकर तत्क्षण प्रकाशन न करें, उसका शिल्प और कथ्य दोनों जाँचें, तराशें, संवारें तब प्रस्तुत करें.
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mukatak

 मुक्तक
साधना की साधना पल-पल सफल हो
कर्म की आराधना पल-पल सफल हो
ज़िन्दगी जीना महज जीवन नहीं है
मर्म मन की भावना सुरभित सजल हो
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navgeet

नवगीत -
*
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
*
कैसा निजाम जिसमें
दो दूनी
तीन-पाँच ही होता है।
जो काट रहा है पौधों को
वह हँसिया
फसलें बोता है।
कीचड़ धोता है दाग
रगड़कर
कालिख गोर चेहरे पर।
अंधे बैठे हैं देख
सुनयना राहें रोके पहरे पर।
ठुमकी दे उठा, गिराते हो
खुद ही पतंग
दे रहे ढील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
*
कैसा मजहब जिसमें
भक्तों की
जेब देख प्रभु वर देता?
कैसा मलहम जो घायल के
ज़ख्मों पर
नमक छिड़क देता।
अधनँगी देहें कहती हैं
हम सुरुचि
पूर्ण, कपड़े पहने।
ज्यों काँटे चुभा बबूल कहे
धारण कर
लो प्रेमिल गहने।
गौरैया निकट बुलाते हो
फिर छोड़ रहे हो
कैद चील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
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३०-८-२०१६
salil.sanjiv @gmail.com, ९४२५१८३२४४
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मंगलवार, 29 अगस्त 2017

पौधारोपण

chhand shala

छंद चर्चा
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नाम क्या इस छंद का बतलाइए?
किस तरह यह रचा जाता, नियम भी समझाइए.
लिख सकें तो छंद लिखकर हमें भी सिखलाईए.
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पाखंड बाबा नित्य कर फ़ैला रहे हैं जाल.
नेता बने चारण रहे, इन ढोंगियों को पाल.
सरकार ही अक्षम हुई, दंगा  न पाई रोक.
थू-थू हुई हर दिशा में, जनगण मनाता शोक.
...