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गुरुवार, 8 जून 2017

hindi haiku

लेख 
हिंदी ने बनाया बोनसाई हाइकु को वटवृक्ष 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हाइकु: असमाप्त काव्य का नैरन्तर्य:
पारम्परिक जापानी हाइकु (Haiku 俳句 high-koo) ३ पदावलियों में विभक्त, ५-७-५ अर्थात १७ ध्वनिखण्डों (लघुतम उच्चरित ध्वनि, अंग्रेजी में सिलेबलका समुच्चय है। हाइकु ऐसी लघु कवितायेँ हैं जो एक अनुभूति या छवि को व्यक्त करने के लिए संवेदी भाषा प्रयोग करती है हाइकु बहुधा प्रकृति के तत्व, सौंदर्य के पल या मार्मिक अनुभव से उद्भूत होते हैं हाइकु को असमाप्त काव्य कहा गया है। हाइकु में पाठक / श्रोता के मनोभावों के अनुसार पूर्ण किये जाने की अपेक्षा निहित होती है। 

कैनेथ यशुदा के अनुसार 'हाइकु' छंद की संज्ञा का विकास क्रम 'रेंगा' की तीन पंक्तियों से 'हाइकाइ', 'होक्कू' होकर 'हाइकु' है। हाइकु का उद्भव 'रेंगा नहीं हाइकाइ' (haikai no renga) सहयोगी काव्य समूह' जिसमें शताधिक छंद होते हैं से हुआ है'रेंगा' समूह का प्रारंभिक छंद 'होक्कु' मौसम तथा 'अंतिम शब्द' का संकेत करता है हाइकु अपने काव्य-शिल्प से परंपरा का नैरन्तर्य  बनाये रखता है। समकालिक हाइकुकार कम से कम शब्दों में लघु काव्य रचनाएँ करते हैं। यशुदा हाइकु को 'एक श्वासी काव्य' कहते हैं। हाइकु को तांका या वाका की प्रथम ३ पंक्तियाँ भी कहा गया है। जापानी समीक्षक कोजी कावामोटो के अनुसार मध्यकालीन दरबारी काव्य में स्थानीय देशज शब्दों की उपेक्षा तथा चीनी भाषा के शब्दों को लेने के विरोध में 'हाइकाइ' (उपहास काव्य) का जन्म हुआ जिसे बाशो जैसे कवियों ने गहनता, विस्तार तथा ऊँचाई से समृद्ध किया तथा हास्य काव्य को 'सेनर्यु' संज्ञा मिली।    

हाइकु: एक मुकम्मल कविता
डॉ. भगवत शरण अग्रवाल के अनुसार "कोई भी छंद हो वास्तव में तो वह संवेदनाओं का वाहक माध्यम भर ही होता है.... पाँच सात पाँच अक्षरों का फ्रेम ही हाइकु नहीं है। शुद्ध हाइकु एक मुकम्मिल कविता होता है।  सूत्र वाक्य के समान।... शुद्ध हाइकु रचना शास्त्रीय संगीत के सामान प्रत्येक कवि के वश की बात नहीं।"

बाँसुरी थी मैं / साँस-साँस बजती / दूसरी क्यों ली? -डॉ. सरोजिनी अग्रवाल 

हाइकु का वैशिष्ट्य
१. ध्वन्यात्मक संरचना: समय के साथ विकसित हाइकु काव्य के अधिकांश हाइकुकार अब ५-७-५ संरचना का अनुसरण नहीं करते। जापानी या अंग्रेजी के आधुनिक हाइकु न्यूनतम एक से लेकर सत्रह से अधिक ध्वनियों तक के होते हैं। अंग्रेजी सिलेबल लम्बाई में बहुत परिवर्तनशील होते है जबकि जापानी सिलेबल एकरूपेण लघु होते हैं।  इसलिए 'हाइकु' चंद ध्वनियों का उपयोग कर एक छवि निखारने' की पारम्परिक धारणा से हटकर रचे जा रहे हैं। १७ सिलेबल का अंग्रेजी हाइकु १७ सिलेबल के जापानी हाइकु की तुलना में बहुत लंबा होता है। ५-७-५ सिलेबल का बंधन बच्चों को विद्यालयों में पढाये जाने के बावजूद अंग्रेजी हाइकू लेखन में प्रभावशील नहीं है। हाइकु लेखन में सिलेबल निर्धारण के लिये जापानी अवधारणा "हाइकु एक श्वास में अभिव्यक्त कर सके" उपयुक्त है। अंग्रेजी में सामान्यतः इसका आशय १० से १४ सिलेबल लंबी पद्य रचना से है। अमेरिकन उपन्यासकार जैक कैरोक का एक हाइकू देखें:
Snow in my shoe  / Abandoned  / Sparrow's nest
मेरे जूते में बर्फ / परित्यक्त/ गौरैया-नीड़। 

२. वैचारिक सन्निकटता: हाइकु में दो विचार सन्निकट होते हैं। जापानी शब्द 'किरु' अर्थात 'काटना' का आशय है कि हाइकु में दो सन्निकट विचार हों जो व्याकरण की दृष्टि से स्वतंत्र तथा कल्पना प्रवणता की दृष्टि से भिन्न हों। सामान्यतः जापानी हाइकु 'किरेजी' (विभाजक शब्द) द्वारा विभक्त दो सन्निकट विचारों को समाहित कर एक सीधी पंक्ति में रचे जाते हैं। किरेजी (एक ध्वनि, पदावली, वाक्यांश) अंत में आती है। अंग्रेजी में किरेजी की अभिव्यक्ति - से की जाती है. बाशो के निम्न हाइकु में दो भिन्न विचारों की संलिप्तता देखें:
how cool the feeling of a wall against the feet — siesta
कितनी शीतल दीवार की अनुभूति पैर के विरुद्ध। 
आम तौर पर अंग्रेजी हाइकु ३ पंक्तियों में रचे जाते हैं। दो सन्निकट विचार (जिनके लिये २ पंक्तियाँ ही आवश्यक हैं) पंक्ति-भंग, विराम चिन्ह अथवा रिक्त स्थान द्वारा विभक्त किये जाते हैं। अमेरिकन कवि ली गर्गा का एक हाइकु देखें-
fresh scent- / the lebrador's muzzle  / deepar into snow            
ताज़ा सुगंध / लेब्राडोर की थूथन / गहरे बर्फ में। 

सारतः दोनों स्थितियों में, विचार- हाइकू का दो भागों में विषयांतर कर अन्तर्निहित तुलना द्वारा रचना के आशय को ऊँचाई देता है।  इस द्विभागी संरचना की प्रभावी निर्मिति से दो भागों के अंतर्संबंध तथा उनके मध्य की दूरी का परिहार हाइकु लेखन का कठिनतम भाग है। 

३. विषय चयन और मार्मिकता: पारम्परिक हाइकु मनुष्य के परिवेश, पर्यावरण और प्रकृति पर केंद्रित होता है। हाइकु को ध्यान की एक विधि के रूप में देखें जो स्वानुभूतिमूलक व्यक्तिनिष्ठ विश्लेषण या निर्णय आरोपित किये बिना वास्तविक वस्तुपरक छवि को सम्प्रेषित करती है। जब आप कुछ ऐसा देखें या अनुभव करे जो आपको अन्यों को बताने के लिए प्रेरित करे तो उसे 'ध्यान से देखें', यह अनुभूति हाइकु हेतु उपयुक्त हो सकती है। जापानी कवि क्षणभंगुर प्राकृतिक छवियाँ यथा मेंढक का तालाब में कूदना, पत्ती पर जल वृष्टि होना, हवा से फूल का झुकना आदि को ग्रहण व सम्प्रेषित करने के लिये हाइकु का उपयोग करते हैं। कई कवि 'गिंकगो वाक' (नयी प्रेरणा की तलाश में टहलना) करते हैं। आधुनिक हाइकु प्रकृति से परे हटकर शहरी वातावरण, भावनाओं, अनुभूतियों, संबंधों, उद्वेगों, आक्रोश, विरोध, आकांक्षा, हास्य आदि को हाइकु की विषयवस्तु बना रहे हैं। 

४. मौसमी संदर्भ: जापान हाइकु में 'किगो' (मौसमी बदलाव, ऋतु परिवर्तन आदि) अनिवार्य तत्व है। मौसमी संदर्भ स्पष्ट या प्रत्यक्ष (सावन, फागुन आदि) अथवा सांकेतिक या परोक्ष (ऋतु विशेष में खिलनेवाले फूल, मिलनेवाले फल, आनेवाले पर्व आदि) हो सकते हैं। फुकुडा चियो नी रचित हाइकु देखें:
morning glory! / the well bucket-entangled, /I ask for water                         
भोर की महिमा/ कुआँ - बाल्टी अनुबंधित / मैंने पानी माँगा। 

५. विषयांतर: हाइकु में दो सन्निकट विचारों की अनिवार्यता को देखते हुए चयनित विषय के परिदृश्य को इस प्रकार बदला जाता है कि रचना में २ भाग हो सकें। रिचर्ड राइट लकड़ी के लट्ठे पर रेंगती दीमक पर केंद्रित होते समय उस छवि को पूरे जंगल या दीमकों के निवास के साथ जोड़ा है। सन्निकटता तथा संलिप्तता हाइकु को सपाट वर्णन के स्थान पर गहराई तथा लाक्षणिकता प्रदान करती हैं:
A broken signboard banging  /In the April wind. / Whitecaps on the bay.     
टूटा साइनबोर्ड तड़क रहा है / अप्रैल की हवाओं में/  खाड़ी में झागदार लहरें। 

६. संवेदी भाषा-सूक्ष्म विवरण: हाइकु गहन निरीक्षणजनित सूक्ष्म विवरणों से निर्मित और संपन्न होता है।  हाइकुकार किसी घटना को साक्षीभाव (तटस्थता) से देखता है और अपनी आत्मानुभूति शब्दों में ढालकर अन्यों तक पहुँचाता है।  हाइकु का विषय चयन करने के पश्चात उन विवरणों का विचार करें जिन्हें आप हाइकु में देना चाहते हैं।  मस्तिष्क को विषयवस्तु पर केंद्रित कर विशिष्टताओं से जुड़े प्रश्नों का अन्वेषण करें। जैसे: अपने विषय के सम्बन्ध क्या देखा? कौन से रंग, संरचना, अंतर्विरोध, गति, दिशा, प्रवाह, मात्रा, परिमाण, गंध आदि तथा अपनी अनुभूति को आप कैसे सही-सही अभिव्यक्त कर सकते हैं?
ईंट-रेट का / मंदिर मनहर / ईश लापता।        

७. वर्णनात्मक नहीं दृश्यात्मक: हाइकु-लेखन वस्तुनिष्ठ अनुभव के पलों का अभिव्यक्तिकरण है न की उन घटनाओं का आत्मपरक या व्यक्तिपरक विश्लेषण या व्याख्या। हाइकू लेखन के माध्यम से पाठक/श्रोता को घटित का वास्तविक साक्षात कराना अभिप्रेत है न कि यह बताना कि घटना से आपके मन में क्या भावनाएँ उत्पन्न हुईं। घटना की छवि से पाठक / श्रोता को उसकी अपनी भावनाएँ अनुभव करने दें।  अतिसूक्ष्म, न्यूनोक्ति (घटित को कम कर कहना) छवि का प्रयोग करें। यथा: ग्रीष्म पर केंद्रित होने के स्थान पर सूर्य के झुकाव या वायु के भारीपन पर प्रकाश डालें। घिसे-पिटे शब्दों या पंक्तियों जैसे अँधेरी तूफानी रात आदि का उपयोग न कर पाठक / श्रोता को उसकी अपनी पर्यवेक्षण उपयोग करने दें। वर्ण्य छवि के माध्यम से मौलिक, अन्वेषणात्मक भाषा / शंब्दों की तलाश कर अपना आशय सम्प्रेषित करें। इसका आशय यह नहीं है कि शब्दकोष लेकर अप्रचलित शब्द खोजकर प्रयोग करें अपितु अपने जो देखा और जो आप दिखाना चाहते हैं उसे अपनी वास्तविक भाषा में स्वाभाविकता से व्यक्त करें।
वृष देव को / नमन मनुज का / सदा छाँव दो।    
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लहर पर / मचलती चाँदनी / मछली जैसी। -सिद्धेश्वर 


८. किरेजी: हाइकु शिल्प का एक महत्त्वपूर्ण अंग है "किरेजि"। "किरेजि" का स्पष्ट अर्थ देना कठिन है, शाब्दिक अर्थ है "काटने वाला अक्षर"। इसे हिंदी में ''वाचक शब्द'' कहा जा सकता है। "किरेजि" जापानी कविता में शब्द-संयम की आवश्यकता से उत्पन्न रूढ़ि-शब्द है जो अपने आप में किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक न होते हुए भी पाद-पूर्ति में सहायक होकर कविता के सम्पूर्णार्थ में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है। सोगि (१४२०-१५०२) के समय में १८ किरेजि निश्चित हो चुके थे। समय के साथ इनकी संख्या बढ़ती रही। महत्त्वपूर्ण किरेजि है- या, केरि, का ना, और जो। "या" कर्ता का अथवा अहा, अरे, अच्छा आदि का बोध कराता है। 
यथा- आरा उमि या / सादो नि योकोतोओ / आमा नो गावा [ "या" किरेजि] 
अशांत सागर / सादो तक फैली है / नभ गंगा 
-[ जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता, डा० सत्यभूषण वर्मा, पृष्ठ ५५-५६ ]


९. पठन, प्रेरणा और अभ्यास: अन्य भाषाओँ- बोलिओं के हाइकुकारों के हाइकू पढ़िए। अन्यों के हाइकू पढ़ने से आपके अंदर छिपी प्रतिभा स्फुरित तथा गतिशील होती है। महान हाइकुकारों ने हाइकु रचना की प्रेरणा हेतु चतुर्दिक पदयात्रा, परिवेश से समन्वय तथा प्रकृति से बातचीत को आवश्यक कहा है।आज करे सो अब: कागज़-कलम अपने साथ हमेशा रखें ताकि पंक्तियाँ जैसे ही उतरें, लिख सकें। आप कभी पूर्वानुमान नहीं कर सकते कि कब जलधारा में पाषाण का कोई दृश्य, सुरंग पथ पर फुदकता चूहा या सुदूर पहाड़ी पर बादलों की टोपी आपको हाइकु लिखने के लिये प्रेरित कर देगी।किसी भी अन्य कला की तरह ही हाइकू लेखन कला भी आते-आते ही आती है सर्वकालिक महानतम हाइकुकार बाशो के अनुसार हर हाइकु को हजारों बार जीभ पर दोहराएं, हर हाइकू को कागज लिखें, लिखें और फिर-फिर लिखें जब तक कि उसका निहितार्थ स्पष्ट न हो जाए स्मरण रहे कि आपको ५-७-५ सिलेबल के बंधन में कैद नहीं होना है वास्तविक साहित्यिक हाइकु में 'किगो' द्विभागी सन्निकट संरचना और प्राथमिक तौर पर संवादी छवि होती है

हाइकु का हिंदी संस्कार:
१. तीन पंक्ति, ५-७-५ बंधन रूढ़:  निस्संदेह जापानी हाइकु को हिंदी हाइकुकारों ने हिंदी का भाषिक संस्कार और भारतीय परिवेश के अनुकूल कलेवर से संयुक्त कर लोकप्रिय बनाया है किन्तु यह भी उतना ही सच है कि जापानी और अन्य भाषाओँ में हाइकु रचनाओं में ५-७-५ के ध्वनिखंड बंधन तथा तीन पंक्ति बंधन को लचीले रूप में अपनाया गया जबकि हिंदी में इसे अनुल्लंघनीय मान लिया गया है। इसका कारण हिंदी की वार्णिक तथा मात्रिक छंद परंपरा है जहाँ अल्प घटा-बढ़ी से भिन्न छंद उपस्थित हो जाता है 

२. तुकसाम्यता: हाइकु में सामान्यतः तुकसाम्यता, छंदबद्धता या काफ़िया नहीं होता। हिंदी हाइकुकारों में तुकांतता के प्रति आग्रह हठधर्मी तक है। तुकांतता रचना को गेय और सरस तो बनाती है किंतु बहुधा कथ्य के चाक्षुस बिम्बों को कमजोर भी करती है। हिंदी हाइकु में पहली दो, अंतिम दो तथा पहली तीसरी पंक्ति में सामान तुक रख कर शैल्पिक वैविध्य उत्पान किये जाने से पठनीयता तथा सरसता में वृद्धि होती है किन्तु यह स्वाभाविकता को नष्ट कट ठूंसा गया नहीं प्रतीत होना चाहिए 

३. औचित्य: हिंदी जगत में हाइकु का विरोध और समर्थन दोनों हुआ है। विरोधियों ने भारत में गायत्री, ककुप आदि त्रिपदिक छंद होने के तर्क देकर छंद आयात को अनावश्यक कहा। हाइकु का भारतीयकरण कर त्रिपदी, त्रिशूल आदि नाम देकर छंद रचना का प्रयास लोकप्रिय नहीं हुआ डॉ.ओमप्रकाश भाटिया 'अराज' ने दोहा के बिषम चरण की तीन आवृत्तियों से निर्मित 'जनक छंद' की अवधारणा देकर तथा अन्यों ने सम चरण की तीन आवृत्ति, सम-विषम सम चरण, विषम-सम-विषम चरण से छंद बनाकर हाइकु का विकल्प सुझाया किंतु वह सर्व स्वीकार्य नहीं है निस्संदेह आज हाइकु को हिंदी में व्यवहार जगत छंद स्वीकारा जा चुका है किन्तु पिंगल ग्रंथों में इसे हिंदी छंद के रूप में स्थान मिलना शेष है मैंने अपने प्रकाशनाधीन ग्रन्थ 'हिंदी छंद कोष' में पंजाबी के माहिया, मराठी के लावणी, जापानी के हाइकु, वाका, तांका, स्नैर्यु, चोका, सेदोका आदि, अंग्रेजी के सोनेट, कपलेट आदि को हिंदी छंदों के रूप में जोड़ा है   

४. अलंकार: जापानी हाइकु में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारों के प्रयोग और प्रकृति के मानवीकरण को वर्ज्य मानते हुए हाइकु को सहज अभिव्यक्ति के कविता कहा गया है। हिंदी में महाकवि केशव का मत सर्वमान्य है- 'भूषण बिना न सोहहीं कविता, वनिता, वित्त' जापानी हाइकु में श्लाघ्य 'सहजता' भी हिंदी में 'स्वभावोक्ति अलंकार' बन जाती है। भारत और हिंदी के संस्कार हाइकु में अलंकारों की उपस्थिति अनिवार्य बना देते हैं  

५. सामासिकता तथा संयोजक चिन्ह: लघुकाव्य में 'ऊहा' और 'सामासिकता' का समान महत्व है संस्कृत, गुजराती आदि में विभक्ति-प्रयोग से अक्षर बचाए जाते हैं जबकि हिंदी में कारक का प्रयोग अक्षरों की संख्या वृद्धि करता है। संयोजक चिन्ह के प्रयोग से अक्षर संख्या कम की जा सकती है मेरे कुछ प्रयोग दृष्टव्य हैं 

मैथिली हाइकु: स्नेह करब / हमर मंत्र अछि / गले लगबै
*

६. नव प्रयोग: हिंदी में हाइकु को एक छंद के रूप में स्वीकारते हुए कुछ स्वाभाविक और व्यवहारिक तथा कुछ अतिरेकी प्रयोग किये गए हैं। इससे हिंदी हाइकु को अन्य भाषाओँ के हाइकु की तुलना में वृहत्तर भूमिका निर्वहन का अवसर उपलब्ध हुआ है। डॉ. राम नारायण पटेल 'राम ' ने प्रथम हाइकु खंड काव्य वियोगिनी सन १९९८ में प्रकाशित किया। डॉ. राज गोस्वामी ने १९९९ में श्रीमद्भागवत का काव्यानुवाद हाइकु में  किया। श्री नलिनी कांत ने १०११ हाइकु 'हाइकु शब्द छवि' शीर्षक से २००४ में प्रकाशित किये। ललिता रावल ने मालवी हाइकु संग्रह 'थाली में चंदरमा' २००४ तथा 'बिलपत्तर' २०१० प्रकाशित किये हैं। हिंदी में अनेक हाइकु संग्रह और संकलन प्रकशित हुए जिनका उल्लेख स्थानाभाव के कारण नहीं किया जा रहा 

७. रस वर्षण: हाइकु में विविध रसों की नदी प्रवाहित करने में हिंदी पीछे नहीं है। मन्वंतर ने हास्य हाइकु रचकर १९९४-९५ में नया प्रयोग किया-
हास्य हाइकु:  अजब गेट / कोई न जाए पार / रे! कोलगेट।
                  एक ही सेंट / नहीं सकते सूंघ / है परसेंट।
                  कौन सी बला / मानी जाती है कला? / बजा तबला।

७. नव छंद रचना: हिंदी ने हाइकु को नया आकाश और नए आयाम देकर उसे वटवृक्ष की सी भूमिका निर्वाह करने का अवसर दिया है। हिंदी में हाइकु दोहा, हाइकु ग़ज़ल, हाइकु कुंडली, हाइकु गीत, हाइकु नवगीत जैसे प्रयोगों ने उसे नवजीवन दिया है। मेरी जानकारी में किसी भी अन्य भाषा में हाइकु के ऐसे बहुआयामी प्रयोग नहीं किये गए। प्रस्तुत हैं एक हाइकु गीत, एक हाइकु ग़ज़ल

हाइकु गीत:
.
रेवा लहरें
झुनझुना बजातीं
लोरी सुनातीं
.
मन लुभातीं
अठखेलियाँ कर
पीड़ा भुलातीं
.
राई सुनातीं  
मछलियों के संग
रासें रचातीं
.
रेवा लहरें
हँस खिलखिलातीं
ठेंगा दिखातीं 

.
कुनमुनातीं
सुबह से गले मिल
जागें मुस्कातीं
.
चहचहातीं
चिरैयाँ तो खुद भी
गुनगुनातीं
.
रेवा लहरें
झट फिसल जातीं 
हाथ न आतीं
***
हाइकु  ग़ज़ल-
नव दुर्गा का, हर नव दिन हो, मंगलकारी
नेह नर्मदा, जन-मन रंजक, संकटहारी

मैं-तू रहें न, दो मिल-जुलकर एक हो सकें
सुविचारों के, सुमन सुवासित, जीवन-क्यारी

गले लगाये, दिल को दिल खिल, गीत सुनाये
हों शरारतें, नटखटपन मन,-रञ्जनकारी 

भारतवासी, सकल विश्व पर, प्यार लुटाते
संत-विरागी, सत-शिव-सुंदर, छटा निहारी 

भाग्य-विधाता, लगन-परिश्रम, साथ हमारे
स्वेद बहाया, लगन लगाकर, दशा सुधारी

पंचतत्व का, तन मन-मंदिर,  कर्म धर्म है
सत्य साधना, 'सलिल' करे बन, मौन पुजारी
(वार्णिक हाइकु छन्द ५-७-५)

हिंदी ने जापानी छंद को न केवल अपनाया उसका भारतीयकरण और हिंदीकरण कर उसे अपने रंग में रंगकर बोनसाई से वट वृक्ष बना दिया। किसी भी अन्य भाषा न हाइकु को वह उड़ान नहीं दी जो हिंदी ने दी
***
संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष: ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com


smruti geet

प्रख्यात भूविद डॉ. एस.एस. श्रीवास्तव लखनऊ दिवंगत
गत २ जून २०१७ को प्रख्यात भूविद डॉ. एस. एस. श्रीवास्तव का लम्बी - जटिल बीमारी के पश्चात् देहावसान हो गया. सहधर्मिणी श्रीमती सुमन श्रीवास्तव (कवयित्री-लघुकथाकार) ने जिस समर्पण, कुशलता, धैर्य, निष्ठा तथा निरंतरतापूर्वक अपने जीवनसाथ की श्वासें बचाने के लिए काल से लोहा लिया वह असाधारण है। डॉ. श्रीवास्तव के अल्प सानिंध्य में उनकी जिजीविषा, जीवट और मानवीयता के जिन पहलुओं से परिचित हो सका वह प्रणम्य है। माननीय सुमन जी, स्वजनों-परिजनों के शोक में सहभागी होते हुए दिवंगत महाप्राण की स्मृतियों को नतशिर नमन.
विश्व वाणी हिंदी भाषा-साहित्य संस्थान डॉ. एस. एस. श्रीवास्तव के परलोक प्रस्थान जनित पीड़ा के क्षणों में आत्मीय सुमन जी, पुत्र डॉ. सुधांशु तथा स्वजनों के प्रति संवेदना व्यक्त करता है। दिवंगत की पुण्य स्मृति में शान्ति पाठ तथा हवन ९ जून २०१७ को प्रात: ९ बजे श्रीवास्तव निवास बी. जी. २, विंकन होम्स, ६ फान ब्रेक अवेन्यु, सरोजिनी नायडू मार्ग लखनऊ में है।
***
स्मृति गीत-
दादा नहीं रहे...
*
कैसे हो विश्वास
हमारे दादा नहीं रहे?
*
दुर्बल तन
मन वज्र सरीखा।
तेज आत्म का
मुख पर देखा।
तन दधीचि सा
मुस्काते लब-
कितना कुछ
कह डाला पल में
लेकिन बिना कहे
कैसे हो विश्वास
हमारे दादा नहीं रहे?
*
भूविद थे
उदार धरती सम।
सु-मन मना
अँखियाँ चमकीं नम।
सुमन-सुवासित
श्वास-श्वास तव,
अस्फुट ध्वनियों के
वर्तुल बुन
किस्से अगिन कहे?
कैसे हो विश्वास
हमारे दादा नहीं रहे?
*
यादें मन में
अमिट-अमर शत।
फिर-फिर जीवित
होता है गत।
भीष्म पितामह
शर-शैया पर.
अविचल लेटे
मन ही मन में
नव संकल्प तहे
कैसे हो विश्वास
हमारे दादा नहीं रहे?
*
अब भी जगत
वही-वैसा है।
किन्तु न कुछ
पहले जैसा है।
सुमन-भाल का
सूर्य ग्रहण से
अस्त हुआ न दहे.
कैसे हो विश्वास
हमारे दादा नहीं रहे?
*
अक्षय निधि है
कर्म विरासत।
हम सब गहें
न तजें सिया-सत।
दर्द सुमन-मन का
सहभागी हो मन
मौन तहे.
कैसे हो विश्वास
हमारे दादा नहीं रहे?
****

बुधवार, 7 जून 2017

sagar sikata seep















चित्र पर रचना
** सिकता, सागर, सीप **
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सिकता हूँ वसुधा की बिटिया मेरी गोदी में सागर.
मेरे आँचल में नद-निर्झर जिनसे भरते घट-गागर.
अहं शिलाओं का खंडित हो मुझको देता जन्म रहा.
गले लगाते रही पंक मैं पंकज जग ने तभी गहा.
मेरी संतानें घोंघे हैं सीपी जिनका कड़ा कवच.
मोती-मुक्ता पलते जिनमें शंख न मनु से पाते बच.
बच्चे फैला पैर बनाते घरघूला मैं मुस्काती.
छोटी हरकत बड़े बड़ों की देख कहूँ सच दुःख पाती.
लोभ तुम्हारा दंशित करता,खोद-बेचते करते लोभ.
भवन बना संतोष न पाते, कभी न जाता मन का क्षोभ.
थपक-थपक सागर की लहरें, मुझे सांत्वना देती हैं.
तुम मनुजों सी नहीं स्वार्थी, दाम न कुछ भी लेती हैं.
दिनकर आता, खूब तपाता, चन्दा शीतल करता है.
क्रीडा करती शुभ्र ज्योत्सना, रूप देख शशि मरता है.
प्रकृति-पुत्र हम,नियति नटी के, ऋतु-चक्रों अनुसार ढलें.
मनुज सीख ले, प्रकृति वक्ष पर निज हित हेतु न दाल दले.
मलिन न सिकता-सलिल को करे, स्वच्छ रखे सारे जग को.
पर्यावरण न दूषितकर, मंगल जगती का तनिक करे.
***

geeta chhand, kaampoop chhand

छंद सलिला:
गीता छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद - मात्रा २६ मात्रा, यति १४ - १२, पदांत गुरु लघु.
लक्षण छंद:
चौदह भुवन विख्यात है , कुरु क्षेत्र गीता-ज्ञान
आदित्य बारह मास नित , निष्काम करे विहान
अर्जुन सदृश जो करेगा , हरी पर अटल विश्वास
गुरु-लघु न व्यापे अंत हो , हरि-हस्त का आभास
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. जीवन भवन की नीव है , विश्वास- श्रम दीवार
दृढ़ छत लगन की डालिये , रख हौसलों का द्वार
ख्वाबों की रखें खिड़कियाँ , नव कोशिशों का फर्श
सहयोग की हो छपाई , चिर उमंगों का अर्श
२. अपने वतन में हो रहा , परदेश का आभास
अपनी विरासत खो रहे , किंचित नहीं अहसास
होटल अधिक क्यों भा रहा? , घर से हुई क्यों ऊब?
सोचिए! बदलाव करिए , सुहाये घर फिर खूब
३. है क्या नियति के गर्भ में , यह कौन सकता बोल?
काल पृष्ठों पर लिखा क्या , कब कौन सकता तौल?
भाग्य में किसके बदा क्या , पढ़ कौन पाया खोल?
कर नियति की अवमानना , चुप झेल अब भूडोल।
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
७-६-२०१४
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गीता, गीतिका, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मदनाग, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, शंकर, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

छंद सलिला:
कामरूप छंद
संजीव
*
लक्षण छंद:
कामरूप छंद , दे आनंद , रचकर खुश रहिए
मुँहदेखी नहीं , बात हमेशा , खरी-खरी कहिए
नौ निधि सात सुर , दस दिशाएँ , कीर्ति गाथा कहें
अंत में अंतर , भुला लघु-गुरु , तज- रिक्त कर रहें
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. गले लग जाओ , प्रिये! आओ , करो पूरी चाह
गीत मिल गाओ , प्रिये! आओ , मिटे सारी दाह
दूरियाँ कम कर , मुस्कुराओ , छिप भरो मत आह
मन मिले मन से , खिलखिलाओ , करें मिलकर वाह
२. चलें विद्यालय , पढ़ें-लिख-सुन , गुनें रहकर साथ
करें जुटकर श्रम , रखें ऊँचा , हमेशा निज माथ
रोप पौधे कुछ , सींच हर दिन , करें भू को हरा
प्रदूषण हो कम , हँसे जीवन / हर मनुज हो खरा
३. ईमान की हो , फिर प्रतिष्ठा , प्रयासों की जीत
दुश्मनों की हो , पराजय ही / विजय पायें मीत
आतंक हो अब , खत्म नारी , पा सके सम्मान
मुनाफाखोरी , न रिश्वत हो , जी सके इंसान
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
७-६-२०१४
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामरूप, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गीता, गीतिका, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मदनाग, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, शंकर, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

navgeet

अंतरजाल पर पहली बार :
त्रिपदिक नवगीत :
नेह नर्मदा तीर पर
- संजीव 'सलिल' 
*
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन कर धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?
निष्क्रिय, मौन, हताश है.
या दिलजला निराश है?
जलती आग पलाश है.
जब पीड़ा बनती भँवर,
खींचे तुझको केंद्र पर,
रुक मत घेरा पार कर...
.
पग आये पौधे लिये,
ज्यों नव आशा के दिये.
नर्तित थे हुलसित हिये.
सिकता कण लख नाचते.
कलकल ध्वनि सुन झूमते.
पर्ण कथा नव बाँचते.
बम्बुलिया के स्वर मधुर,
पग मादल की थाप पर,
लिखें कथा नव थिरक कर...
*
७.६.२०१०

baal geet

बाल कविता :
तुहिना-दादी
संजीव 'सलिल'
*
तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काये तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको : 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटें रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जायेंगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछतायेंगे.'
तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाये वह
वह गाये तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
*
७-६-२०१०
तुहिना बिटिया अब आई. एच. ए. टी. हरदोई में डिस्ट्रिक्ट न्यूट्रीशन स्पेशलिस्ट है.

सोमवार, 5 जून 2017

navgeet

नवगीत
*
सच हर झूठ
झूठ हर सच है
*
तू-तू, मैं-मैं कर हम हारे
हम न मगर हो सके बेचारे
तारणहार कह रहे उनको
मत दे जिनके भाग्य सँवारे
ठगित देवयानी
भ्रम कच है
सच हर झूठ
झूठ हर सच है
*
काश आँख से चश्मा उतरे
रट्टू तोता यादें बिसरे
खुली आँख देखे क्या-कैसा?
छोड़ झुनझुना रोटी कस रे!
राग न त्याज्य
विराग न शुभ है
सच हर झूठ
झूठ हर सच है
*
'खुला' न खुला बंद है तब तक
तीन तलाक मिल रहे जब तक
एसिड डालो तो प्रचार हो
दूध मिले नागों को कब तक?
पत्थरबाज
न अपना कुछ है
सच हर झूठ
झूठ हर सच है
*


navgeet

नवगीत-
*
एसिड की 
शीशी पर क्यों हो 
नाम किसी का?
*
अल्हड, कमसिन, सपनों को 
आकार मिल रहा। 
 अरमानों का कमल 
यत्न-तालाब खिल रहा।
दिल को भायी कली 
भ्रमर गुंजार करे पर-
मौसम को खिलना-हँसना 
क्यों व्यर्थ खल रहा?
तेज़ाबी बारिश की जिसने 
पात्र मौत का-
एसिड की 
शीशी पर क्यों हो 
नाम किसी का?
*
व्यक्त असहमति करना 
क्या अधिकार नहीं है?
जबरन मनमानी क्या 
 पापाचार नहीं है? 
एसिड-अपराधी को 
 एसिड से नहला दो-
निरपराध की पीर 
 तनिक स्वीकार नहीं है।
क्यों न किया अहसास-
पीड़ितों की पीड़ा का? 
एसिड की 
शीशी पर क्यों हो 
नाम किसी का?
*
अपराधों से नहीं, 
आयु का लेना-देना।
नहीं साधना स्वार्थ, 
 सियासत-नाव न खेना।
दया नहीं सहयोग 
सतत हो, सबल बनाकर-
दण्ड करे निर्धारित 
पीड़ित जन की सेना।
बंद कीजिए नाटक 
खबरों की क्रीड़ा का
एसिड की 
शीशी पर क्यों हो 
नाम किसी का?
*

ankik upmaan

छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
संजीव
 *
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, जोड़िये।
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
 पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
 इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
 दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
 महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
 तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: । दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म।मामा:कंस, शकुनि, माहुल।
 तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
 त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
 चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
 अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
 चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
 पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
 इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
 षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
 अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
 नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
 दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
 ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - कला: ।, श्रृंगार: ।, संस्कार: ।,
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।,
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
 सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
 अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।