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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

चन्द माहिया :क़िस्त 29



:1:
दीवार उठाते हो
तनहा जब होते
फिर क्यूँ घबराते हो 

:2:
इतना भी सताना क्या
दम ही निकल जाए
फिर बाद में आना क्या

:3;
ये हुस्न ये रानाई
तड़पेगी यूं ही
गर हो न पज़ीराई

:4:
दुनिया के जो हैं ग़म
इश्क़ में ढल जाए
बदलेगा तब मौसम

;5;
क्या हाल बताना है
तेरे फ़साने में 
मेरा भी फ़साना है 

-आनन्द.पाठक-
09413395592
शब्दार्थ

रानाई = सौन्दर्य
पज़ीराई= प्रशंसा

navgeet

नवगीत:
तुमसे सीखा
*
जीवन को
जीवन सा जीना
तुमसे सीखा।
*
गिरता-उठता
पहले भी था
रोता-हँसता
पहले भी था
आँसू को
अमृत सा पीना
तुमसे सीखा।
*
खिलता-झरता
पहले भी था
रुकता-बढ़ता
पहले भी था
श्वासों में
आसों को जीना
तुमसे सीखा।
*
सोता-जगता
पहले भी था
उगता-ढलता
पहले भी था
घर ही
काशी और मदीना
तुमसे सीखा
*
थकता-थमता
पहले भी था
श्रोता-वक्ता
पहले भी था
देव
परिश्रम और पसीना
तुमसे सीखा
***

navgeet

नवगीत:
हो मेरी तुम!
*
श्वास-आस में मुखरित 
निर्मल नेह-नर्मदा 
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रवहित-लहरित 
घहरित-हहरित 
बूँद-बूँद में मुखरित 
चंचल-चपल शर्मदा 
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
प्रमुदित-मुकुलित 
हर्षित-कुसुमित 
कुंद इंदु सम अर्चित 
अर्पित अचल वर्मदा 
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*
कर्षित-वर्षित 
चर्चित-तर्पित
शब्द-शब्द में छंदित 
वन्दित विमल धर्मदा 
ओ मेरी तुम!
हो मेरी तुम!
*

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

muhavare / kahawat / geet - aankh/andha

आँख पर मुहावरे: 


आँख मारना = इंगित / इशारा करना। 
मुझे आँख मारते देख गवाह मौन हो गया

आँखें आना = आँखों का रोग होना। 
आँखें आने पर काला चश्मा पहनें

आँखें चुराना = छिपाना। 
उसने समय पर काम नहीं किया इसलिए आँखें चुरा रहा है

आँखें झुकना = शर्म आना। 
वर को देखते ही वधु की आँखें झुक गयीं

आँखें झुकाना = शर्म आना। 
ऐसा काम मत करो कि आँखें झुकाना पड़े

आँखें टकराना = चुनौती देना।
आँखें टकरा रहे हो तो परिणाम भोगने की तैयारी भी रखो

आँखें दिखाना = गुस्से से देखना। 
दुश्मन की क्या मजाल जो हमें आँखें दिखा सके?

आँखें नटेरना = घूरना। 
आँखें मत नटेरो, अच्छा नहीं लगता। 

आँखें फेरना = अनदेखी करना।
आज के युग में बच्चे बूढ़े माँ-बाप से आँखें फेरने लगे हैं

आँखें बंद होना = मृत्यु होना। 
हृदयाघात होते ही उसकी आँखें बंद हो गयीं

आँखें मिलना = प्यार होना। 
आँखें मिल गयी हैं तो विवाह के पथ पर चल पड़ो 

आँखें मिलाना = प्यार करना। 
आँखें मिलाई हैं तो जिम्मेदारी से मत भागो

आँखों में आँखें डालना = प्यार करना

लैला मजनू की तरह आँखों में ऑंखें डालकर बैठे हैं 

आँखें मुँदना = नींद आना, मर जाना।
लोरी सुनते ही ऑंखें मुँद गयीं।
माँ की आँखें मुँदते ही भाई लड़ने लगे 

आँखें मूँदना = सो जाना। 
उसने थकावट के कारण आँखें मूँद लीं

आँखें मूँदना = मर जाना। 
डॉक्टर इलाज कर पते इसके पहले ही घायल ने आँखें मूँद लीं

आँखें लगना = नींद आ जाना। 
जैसे ही आँखें लगीं, दरवाज़े की सांकल बज गयी

आँखें लड़ना = प्रेम होना। 
आँखें लड़ गयी हैं तो सबको बता दो

आँखें लड़ाना = प्रेम करना। 
आँखें लड़ाना आसान है, निभाना कठिन

आँखें बिछाना = स्वागत करना। 
मित्र के आगमन पर उसने आँखें बिछा दीं।

आँखों का काँटा = शत्रु 
घुसपैठिए सेना की आँखों का काँटा हैं 

आँख का तारा = लाड़ला। 
कान्हा यशोदा मैया की आँखों का तारा था। 

आँखों की किरकिरी = जो अच्छा न लगे। 
आतंकवादी मानव की आँखों की किरकिरी हैं।

आँखों में खून उतरना = अत्यधिक क्रोध आना। 
कसाब को देखते ही जनता की आँखों में खून उतर आया।

आँखों में धूल झोंकना = धोखा देना।
खड़गसिंग बाबा भारती की आँखों में धूल झोंक कर भाग गया। 

आँखों से गिरना = सम्मान समाप्त होना। 
झूठे आश्वासन देकर नेता मतदाताओं की आँखों से गिर गए हैं 

आँखों-आँखों में बात होना = इशारे से बात करना। 
आँखों-आँखों में  बात हुई और दोनों कक्षा से बाहर हो गये

आँख से सम्बंधित मुहावरे:

अंधो मेँ काना राजा = अयोग्यों में खुद को योग्य बताना
अंधों में काना राजा बनने से योग्यता सिद्ध नहीं होती

एक आँख से देखना = समानता का व्यवहार करना
सगे और सौतेले बेटे को एक आँख से कौन देखता है?

फूटी आँखों न सुहाना = एकदम नापसंद करना 
माली की बेटी रानी को फूटी आँखों न सुहाती थी

कहावत 


अंधे के आगे रोना, अपने नैना खोना = नासमझ/असमर्थ  के सामने अपनी व्यथा कहना
नेता को दुःख-दर्द बताना ऐसा ही है जैसे अंधे के आगे रोना, अपने नैना खोना। 

आँख का अंधा नाम नैन सुख = नाम के अनुसार गुण न होना। 
उसका नाम तो बहादुर है पर छिपकली से डर भी जाता हैं, इसी को कहते हैं आँख का अँधा नाम नैन सुख

आँख पर चित्रपटीय गीत

हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू   -गुलजार   

छलके तेरी आँखों से शराब और ज्यादा   -हसरत जयपुरी   

जलते हैं जिसके लिये, तेरी आँखों के दिये  -मजरूह सुल्तानपुरी 

आँखों के ऊपर “आँखें” नाम से अभी तक जो मुझे पता है, तीन फिल्में बन चुकी हैं, २००२ (विपुल शाह निर्देशित अमिताभ बच्चन के साथ), १९९३(डेविड धवन निर्देशित गोविंदा के साथ) और १९६८ (रामानंद सागर निर्देशित धर्मेन्द्र के साथ)।
सबसे पहले उन आँखों का जिक्र करते हैं जो शांत हैं, चौकस हैं और जरूरत पड़ने पर अंगारे भी बरसाती हैं। अगर अभी तक आप अंदाज नही लगा पायें हैं तो मैं सीमा पर पहरा देती बहादुर फौजियों की आँखों का जिक्र कर रहा हूँ और इन आँखों पर साहिर लुधयानवी ने क्या खूब लिखा है – उस मुल्क की सरहद को कोई छू नही सकता जिस मुल्क की सरहद की निगेहबाँ हैं आँखें…….शबनम कभी शोला कभी तूफान हैं आँखें
अक्सर प्रेमी युगल आँखों का उपयोग बातें करने में भी करते हैं शायद ऐसे ही किसी जोड़े को देख जान निसार अख्तर ने लिखा “आँखों ही आँखों में इशारा हो गया“। बात इशारों तक ही सीमित नही रहती कुछ प्रेमी इन आँखों को शो-केस की तरह इस्तेमाल भी करते हैं, और गुलजार ने इसे कुछ यूँ बयाँ किया “आँखों में हमने आपके सपने सजाये हैं“, और “आपकी आँखों में कुछ महके हुए से ख्वाब हैं“।
आँखों में सपने और ख्वाब के अलावा भी बहुत कुछ देखा जा सकता है मसलन एस एच बिहारी (फिल्म किस्मत में नूर देवासी ने भी गीत लिखे थे) कहते हैं, “आँखों में कयामत के काजल” जबकि राजेन्द्र कृष्ण का मानना है, “आँखों में मस्ती शराब की” लेकिन इतना सब सुनकर भी मजरूह (सुल्तानपुरी) साहेब मासूमियत से पूछते हैं, “आँखों में क्या जी?” एक तरफ शराब की मस्ती की बात करने वाले राजेन्द्र कृष्ण ठुकराये जाने का दर्द कुछ इस तरह बयाँ करते हैं, “आँसू समझ के क्यों मुझे आँख से तुमने गिरा दिया, मोती किसी के प्यार का मिट्टी में क्यों मिला दिया“।
प्रेम धवन भी आँखों की तारीफ में पीछे नही रहते और कह उठते हैं, “बहुत हसीँ है तुम्हारी आँखें, कहो तो मैं इनसे प्यार कर लूँ” जबकि साहिर लुधयानवी साहेब का कुछ ये कहना है, “भूल सकता है भला कौन प्यारी आँखें, रंग में डूबी हुई नींद से भारी आँखें“। लेकिन राजेन्द्र कृष्ण के ख्यालात अपने साथियों से बिल्कुल जुदा है, ये एक तरफ कहते हैं “आँखें हमारी हों सपने तुम्हारे हों” और फिर इशारे में बात करने लगते हैं “तेरी आँख का जो इशारा ना होता, तो बिस्मिल कभी दिल हमारा ना होता“।
कैफी आजमी साहब जहाँ सवालिया मूड में सवाल करते हैं, “जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमें, राख के ढेर में शोला है ना चिंगारी है” वहीं दिल्ली के तख्त में बैठने वाले आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर अपनी जिंदगी के दुख को यूँ बयाँ करते हैं, “ना किसी की आँख का नूर हूँ, ना किसी के दिल का करार हूँ, जो किसी के काम ना आ सके मैं वो एक मुस्त-ए-गुबार हूँ“।
साहिर लुधयानवी से बादशाह का दुख नही देखा गया और कलम उठा के उनको पाती में लिख भेजा, “पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से मुस्कुराओ तो कोई बात बने, सर झुकाने से कुछ नही होगा, सर उठाओ तो कोई बात बने“।
और इस पोस्ट के अंत में एक बार फिर गुलजार साहब का आँखों पर लिखा कुछ इस तरह है , “मचल के जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू, सूना है आबसारों को बड़ी तकलीफ होती है“।
लेकिन आँखों पर लिखे पहले भाग में आनंद बख्शी का आँखों पर कही बात कैसे छोड़ सकते हैं भला,- 
कितने दिन आँखें तरसेंगी, कितने दिन यूँ दिल तरसेंगे,
एक दिन तो बादल बरसेंगे, ऐ मेरे प्यासे दिल।
आज नही तो कल महकेगी ख्वाबों की महफिल।
आँखों ही आँखों में इशारा हो गया / बैठे-बैठे जीने का सहारा हो गया

आँखों-आँखों में बात होने दो / मुझको अपनी बाँहों में सोने दो

ये काली-काली आँखें / ये गोर-गोरे गाल  -दिलवाले 

आँखें भी होती हैं दिल की जुबां / बिन बोले, कर देती हैं हालत ये पल में बयां -हासिल 

उस मुल्क की सरहद को कोइ छू नहीं सकता / जिस मुल्क की सरहद की निगहबान हो आँखें  -आँखें 

आँखों की, गुस्ताखियाँ, माफ़ हो / 

आँखों में तेरी अजब सी, अजब सी अदाएं हैं    -ॐ शांति ॐ 

सुरीली आँखोंवाले सुना है तेरी आँखों में / बहती हैं नींदें, और नींदों में सपने -वीर 

कत्थई आँखोंवाली लड़की / एक ही बात पे रोज लड़ती है -डुप्लीकेट 

तेरी कली अँखियों से, जिंद मेरी जागे / धड़कन से तेज दौडूँ, सपनों से आगे 

नैन सो नैन नहीं मिलाओ / देखत सूरत आवत लाज सैयां!

तेरे मस्त-मस्त दो नैन / मेरे दिल का ले गए चैन 

तोसे नैना लागे पिया! 

तेरे नैना बड़े दगाबाज रे! - दगाबाज रे 

तेरे नैना बड़े कातिल मार ही डालेंगे -जय हो 

तेरे नैना हँस दिए / बस गए दिल में मेरे / तेरे नैना -चाँदनी चौक टु चाइना 

नैनों की चाल है, मखमली हाल है / नीची पलकों से बदले समा

निगाहें मिलाने को जी चाहता है / दिलो-जां लुटाने को जी चाहता है 

नवगीत

एक रचना- 
आदमी 
*
हमने जहाँ 
जब भी लिखा 
बस आदमी लिखा 
*
मेहनत लिखी 
कोशिश लिखी 
मुस्कान भी लिखी 
ठोकर लिखी
आहें लिखीं 
नव तान भी लिखी 
पीड़ा लिखी 
आँसू लिखे 
पहचान भी लिखी 
ऐसा नहीं कि 
कुछ न कहीं 
वायवी लिखा 
*
कुछ चाहतें 
कुछ राहतें
मधुगान भी लिखा 
पनघट लिखा 
नुक्कड़ लिखा 
खलिहान भी लिखा 
हुक्का लिखा 
हाकिम लिखा 
फरमान भी लिखा 
पत्थर लिखा 
ठोकर लिखी 
मधुगान भी लिखा 
*
गेंती लिखी 
छाले लिखे 
प्याले नहीं लिखे
उपले लिखे 
टिक्कड़ लिखे 
निवाले भी लिखे 
अपने लिखे 
सपने लिखे 
यश-मान भी लिखा 
अमुआ लिखा 
महुआ लिखा 
बेचारगी लिखा 
*

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

एक रचना 
बरगद बब्बा 
*
बरगद बब्बा 
खड़े दिख रहे 
जड़ें न लेकिन 
अब मजबूत 
*
बदलावों की घातक बारिश
संस्कार की माटी बहती। 
जटा न दे पाती मजबूती 
पात गिर रहे, डालें ढहतीं।
बेपेंदी के 
लोटों जैसे 
लुढकें घबरा 
पंछी-पूत 
*
रक्षक मानव छाया पाता 
भक्षक बन फिर काट गिराता 
सिर पर धूप पड़े जब सहनी  
हाय-हाय तब खूब मचाता 
सावन-झूला 
गिल्ली-डंडा 
मोबाइल को 
लगे अछूत 
*
मिटा दिये चौपाल-चौंतरे
भूले पूजा-व्रत-फेरे 
तोता-मैना तोड़ रहे दम
घिरे चतुर्दिक बाँझ अँधेरे 
बरगद बब्बा 
अड़े दिख रहे 
टूटी हिम्मत 
मगर अकूत 
***
१६-२-१६ 
Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

एक ग़ज़ल : कहाँ तक रोकता दिल को....

एक ग़ैर रवायती ग़म-ए-दौरां की ग़ज़ल......


कहाँ तक रोकता दिल को कि जब होता दिवाना है
ज़माने  से    बगावत   है , नया आलम   बसाना है

मशालें   इल्म की  लेकर  चले थे  रोशनी करने
अरे ! क्या हो गया तुमको कि अपना घर जलाना है ?

यूँ जिनके शह पे कल तुमने एलान-ए-जंग कर दी थी
कि उनका एक ही मक़सद ,तुम्हें  मोहरा बनाना है

धुँआ  आँगन से उठता है तो अपना दम भी घुटता है
तुम्हारा शौक़ है या साज़िशों  का ताना-बाना  है

लगा कर आग नफ़रत की सियासी रोटियाँ  सेंको
अभी तक ख़्वाब में खोए ,हमें उनको जगाना  है

-" शहीदों की चिताऒं पर लगेंगे  हर बरस मेले "-
यहाँ की धूल पावन है , तिलक माथे लगाना है

तुम्हारे बाज़ुओं में  दम है कितना ,देख ली ’ आनन
हमारे बाजुओं  का ज़ोर अब तुमको  दिखाना है 

-आनन्द.पाठक-
094133 95592

समीक्षा

पुस्तक सलिला:

परिंदे संवेदना के : गीत नव सुख-वेदना के 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: परिंदे संवेदना के, गीत-नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, वर्ष २०१५, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, जैकेटयुक्त, बहुरंगी, पृष्ठ ७०, मूल्य १५०/-, पहले पहल प्रकाशन, २५ ए प्रेस कॉम्प्लेक्स, भोपाल ०७६१ २५५५७८९, गीतकार संपर्क- आई. सी. ५ सैनिक सोसायटी, शक्ति नगर, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ०७८६९१९३९२७, ईमेल- jaiprakash09.shrivastava@gmail.com]
गीत-नवगीत के मानकों, स्वीकार्यताओ-अस्वीकार्यताओं को लेकर तथाकथित मठाधीशों द्वारा छेड़ी गयी निरर्थक कवायद से दूर रहते हुए जिन नवगीतकारों ने अपनी कृति गीत संग्रह के रूप में प्रकाशित करना बेहतर समझा जयप्रकाश श्रीवास्तव उनमें से एक हैं। हिंदी साहित्य में स्नाकोत्तर उपाधि प्राप्त रचनाकार गीत-नवगीत को भली-भाँति समझता है, उनके वैशिष्ट्य, साम्य और अंतर पर चर्चा भी करता है किन्तु अपने रचनाकर्म को आलोचकीय छीछालेदर से दूर रखने के लिये गीत संग्रह के रूप में प्रकाशित कर संतुष्ट है। इस कारण नवगीत के समीक्षकों - शोधछात्रों की दृष्टि से ऐसे नवगीतकार तथा उनका रचना कर्म ओझल हो जाना स्वाभाविक है।  
'परिंदे संवेदना के' शीर्षक चौंकाता है परिंदे अनेक, संवेदना एक अर्थात एक संवेदना विशेष से प्रभावित अनेक भाव पक्षियों की चहचहाहट किन्तु संग्रह में संकलित गीत-नवगीत जीवन की विविध संवेदनाओं सुख-दुःख, प्रीति-घृणा, सर्जन-शोषण, राग-विराग, संकल्प-विकल्प आदि को अभिव्यक्त करते हैं। अत:, 'परिंदे संवेदनाओं के' शीर्षक उपयुक्त होता। जयप्रकाश आत्मानंदी रचनाकार हैं, वे छंद के शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हैं। उनके सभी गीत-नवगीत जय हैं किन्तु विविध अंतरों में समान संख्या अथवा मात्रा भार की पंक्तियों की सामान्यत: प्रचलित प्रथा का अनुकरण वे हमेशा नहीं करते। हर अंतरे के पश्चात मुखड़े के समान तुकांती पंक्तियों की प्रथा का वे पालन करते हैं। उनके नवगीत कथ्य-केंद्रित हैं। प्रकृति-पर्यावरण, शासन-प्रशासन, शोषण-विलास, गिराव-उठाव, आशा-निराशा आदि उनके इन ५८ नवगीतों में अन्तर्निहित हैं। 

इन नवगीतों की भाषा सामान्यत: बोली जा रही शब्दावली से संपन्न है, जयप्रकाश अलंकरण पर स्वाभाविक सादगी को वरीयता देते हैं। वे शब्द चुनते नहीं, नदी के जलप्रवाह में स्वयमेव आती लहरियों के तरह शब्द अपने आप आते हैं। 
आश्वासन के घर / खुशियों का डेरा 
विश्वासों के / दीपक तले अँधेरा 
बीज बचा / रक्खा है हमने 
गाढ़े वक़्त अकाल का 
हर संध्या / झंझावातों में बीते 
स्नेह-प्यार के / सारे घट हैं रीते 
संबंधों की /पगडंडी पर 
रिश्ता सही कुदाल का 

जाड़े के सूरज को अँगीठी की उपमा देता कवि दृश्य को सहजता से शब्दित करता है-
एक जलती अँगीठी सा / सूर्य धरकर भेष 
ले खड़ा पूरब दिशा में / भोर का सन्देश 
कुनकुनी सी धूप / पत्ते पेड़ के उजले 
जागकर पंछी / निवाले खोजने निकले 
नदी धोकर मुँह खड़ी / तट पर बिखेरे केश 

जयप्रकाश मन में उमड़ते भावों को सीधे कागज़ पर उतार देते हैं। वे शिल्ल्प पर अधिक ध्यान नहीं देते। गीतीय मात्रात्मक संतुलन जनित माधुर्य के स्थान पर वे अभिव्यक्ति की सहजता को साधते हैं। फलत:, कहीं-कहीं कविता की अनुभूति देते हैं नवगीत। अँतरे के पश्चात मुखड़े की संतुकान्ति-समभारीय पंक्तिया ही रचनाओं को गीत में सम्मिलित कराती हैं-
संवेदनायें / हुईं खारिज, पड़ी हैं / अर्ज़ियाँ         (९-१२-५)
बद से बदतर / हो गये हालात                         (८-१०)  
वेदनाएँ हैं मुखर / चुप हुए ज़ज़्बात                 (१२-१०) 
आश्वासनों की / बाँटी गईं बस / पर्चियाँ            (९-९-५)  
सोच के आगे / अधिक कुछ भी नहीं                (९-१०) 
न्याय की फ़ाइल / रुकी है बस वहीं                  (९-१०) 
व्यवस्थाओं ने / बयानों की उड़ाईं / धज्जियाँ    (१०-१२-५) 
प्रतिष्ठित अपराध / बिक चुकी है शर्म              (१०-१०) 
हाथ में कानून/ हो रहे दुष्कर्म                         (१०-१०) 
मठाधीशों से / सुरक्षित अब नहीं / मूर्तियाँ      (९-१०-५) 

स्पष्ट है कि मुखड़ा तथा उसकी आवृत्ति ९-१२-५ = २६ मात्रीय अथवा ५-८-३ के वर्णिक बंधन में आसानी से ढली जा सकती हैं किंतु अभिव्यक्ति को मूल रूप में रख दिया गया है। इस कारण नवगीतों में नादीय पुनरावृत्ति जनित सौंदर्य में न्यूनता स्वाभाविक है। 

जयप्रकाश जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य बिना किसी प्रयास के आंग्ल शब्दों का प्रयोग न होना है। केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक होने के नाते उनके कोष में अनेक आंग्ल शब्द हैं किंतु भाषा पर उनका अधिकार उन्हें आंग्ल शब्दों का मुहताज नईं बनाने देता जबकि संस्कृत मूल के शिरा, अवशेष, वातायनों, शतदल, अनुत्तरित, नर्तन, प्रतिमान, उत्पीड़न, यंत्रणाएँ, श्रमफल आदि, देशज बुंदेली के समंदर, मीड़, दीवट, बिचरें, दुराव, दिहाड़ी, तलक, ऊसर आदि और उर्दू के खारिज, अर्जियाँ, बदतर, हालात, ज़ज़्बात, बयानों, बहावों, वज़ीर, ज़मीर, दरख्तों, दुशाले, निवाले, दुश्वारियों, मंज़िल, ज़ख्म, बेनूर, ख्याल. दहलीज़ आदि शब्द वे सहजता से प्रयोग करते हैं। शब्दों को एकवचन से बहुवचन बनाते समय वे ज़ज़्बा - ज़ज़्बात, हालत - हालात में उर्दू व्याकरण का अनुकरण करते हैं तो बयान - बयानों में हिंदी व्याकरण के अनुरूप चलते हैं। काले-गोरे, शह-मात, फूल-पत्ते, अस्त्र-शस्त्र, आड़ी-तिरछी जैसे शब्द युग्म भाषा को सरसता देते हैं। 

इस संग्रह के मुद्रण में पथ्य-शुद्धि पर काम ध्यान दिया गया है। फलत: आहूति (आहुति), दर्पन (दर्पण), उपरी (ऊपरी), रुप (रूप), बिचरते (विचरते), खड़ताल (करताल), उँचा (ऊँचा), सोंपकर (सौंपकर), बज़ीर (वज़ीर), झंझाबातों (झंझावातों) जैसी त्रुटियाँ हो गयी हैं। 

जयप्रकाश के ये नवगीत आम आदमी के दर्द और पीड़ा की अभिव्यक्ति के प्रति प्रतिबद्ध हैं। श्री शिवकुमार अर्चन ने ठीक ही आकलित किया है- इन 'गीतों की लयात्मक अभिव्यक्ति के वलय में प्रेम, प्रकृति, परिवार, रिश्ते, सामाजिक सरोकार, राजनैतिक विद्रूप, असंगतियों का कुछ जाना, कुछ अनजाना कोलाज है'।  

जयप्रकाश जी पद्य साहित्य में छंदबद्धता से उत्पन्न लय और संप्रेषणीयता से न केवल सुपरिचित है उसे जानते और मानते भी हैं, इसलिए उनके गीतों में छान्दस अनुशासन में शैथिल्य अयाचित नहीं सुविचारित है जिससे गीत में रस-भंग नहीं होता। उनका यह संग्रह उनकी प्रतिबद्धता और रचनाधर्मिता के प्रति आश्वस्त करता है। उनके आगामी संग्रह को पढ़ने की उत्सुकता जगाता है यह संग्रह।
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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 
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सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

laghukatha

लघुकथा 
जमीन  
*
जब आपको माफी ही माँगनी थी तो आपने आतंकवादी के नाम के साथ 'जी' क्यों जोड़ा? पूछा पत्रकार ने।
इतना समझ पाते तो तुम भी नेता न बन जाते। 'जी' जोड़ने से आतंकवादियों, अल्पसंख्यकों और विदेशी आकाओं तक सन्देश पहुँच गया और माफी माँगकर आपत्ति उठानेवालों को जवाब तो दिया ही उनके नेताओं के नाम लेकर उन्हें आतंवादियों से समक्ष भी खड़ा कर दिया।
लेकिन इससे तो संतोष भड़केगा, आन्दोलन होंगे, जुलूस निकलेंगे, अशांति फैलेगी, तोड़-फोड़ से देश का नुकसान होगा।
हाँ, यह सब अपने आप होगा, न हुआ तो हम कराएँगे और उसके लिये सरकार को दोषी और देश को असहिष्णु बताकर अपने अगले चुनाव के लिये जमीन तैयार करेंगे।
***

navgeet

नवगीत :
समा गया तुम में
---------------------
समा गया तुममें
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
जो आया, गया वह
बचा है न कोई
अजर कौन कहिये?
अमर है न कोई
जनम बीज ने ही
मरण बेल बोई
बनाया गया तुमसे
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
किसे, किस तरह, कब
कहाँ पकड़ फाँसे
यही सोच खुद को
दिये व्यर्थ झाँसे
सम्हाले तो पाया
नहीं शेष साँसें
तुम्हारी ही खातिर है
यह विश्व सारा
वहम पाल तुमने
पसारा पसारा
*