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बुधवार, 13 मई 2015

geet: sanjiv

एक गीति रचना:
करो सामना
संजीव
*
जब-जब कंपित भू हुई 
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
खून-पसीने की कमाई
कर में देते जो
उससे छपते विज्ञापन में
चहरे क्यों हों?
.
जिन्हें रात-दिन
काटा करता
सत्ता और कमाई कीड़ा
आँखें रहते
जिन्हें न दिखती
आम जनों को होती पीड़ा
सेवा भाव बिना
मेवा जी भर लेते हैं
जन के मन में ऐसे
लोलुप-बहरे क्यों हों?
.
देश प्रेम का सलिल
न चुल्लू भर
जो पीते
मतदाता को
भूल स्वार्थ दुनिया
में जीते
जन-जीवन है
बहती 'सलिला'
धार रोकते बाधा-पत्थर
तोड़ी-फेंको, ठहरे क्यों हों?
*

मंगलवार, 12 मई 2015

doha salila; - sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
.
जब चाहा संवाद हो, तब हो गया विवाद
निर्विवाद में भी मिला, हमको छिपा विवाद
.
दिल से दिल की बात है, जो चाहे दो नाम
अगणित पाये नाम पर, दिलवर रहा अनाम
.
जोड़-जोड़ कुछ मर गये, तोड़-तोड़ कुछ लोग
छोड़-छोड़ कह कुछ थके, लेकिन मिटा न रोग
.
जो न लचीला हो सका. गिरा भवन हर बार
वृक्ष लचीला सह गया, भूकम्पों की मार
.
जान न ली भूकंप ने, लेते जान मकान
बना दफन हो रहा है, उसमें खुद इंसान
.

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव, राष्ट्रीय,  
कलकल बहते निर्झर गाते 
पंछी कलरव गान सुनाते गान 
मेरा भारत अनुपम अतुलित 
लेने जन्म देवता आते 
ऊषा-सूरज भोर उगाते 
दिन सपने साकार कराते 
सतरंगी संध्या मन मोहे 
चंदा-तारे स्वप्न सजाते   
एक साथ मिल बढ़ते जाते 
गिरि-शिखरों पर चढ़ते जाते 
सागर की गहराई नापें 
आसमान पर उड़ मुस्काते 
द्वार-द्वार अल्पना सजाते 
 रांगोली के रंग मन भाते 
चौक पूरते करते पूजा 
हर को हर दिन भजन सुनाते 
शब्द-ब्रम्ह को शीश झुकाते 
राष्ट्रदेव पर बलि-बलि जाते 
धरती माँ की गोदी खेले 
रेवा माँ में डूब नहाते 
***

अंग्रेजी कविता: क्यों -संजीव

Poetry:

Why?

sanjiv
Why 
We human beings
Like fighting mode 
In normal walk of life?
Why 
We search the differences
And not the Unity 
Until and Unless
We meet the calamities?
Why the misery 
unit us?
Why the Peace and pleasure 
Divide us?

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
*
चाह के चलन तो भ्रमर से हैं
श्वास औ' आस के समर से हैं

आपको समय की खबर ही नहीं
हमको पल भी हुए पहर से हैं

आपके रूप पे फ़िदा दुनिया
हम तो मन में बसे, नजर से हैं

मौन हैं आप, बोलते हैं नयन
मन्दिरों में बजे गजर से हैं

प्यार में हार हमें जीत हुई
आपके धार में लहर से हैं

भाते नाते नहीं हमें किंचित
प्यार के शत्रु हैं, कहर से हैं

गाँव सा दिल हमारा ले भी लो
क्या हुआ आप गर शहर से हैं.
***




matra-vandna sanjiv

मातृ-वन्दना:
संजीव
.
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
.
मातृ भू भाषा जननि को कर नमन
गौ नदी हैं मातृ सम बिसरा न मन
प्रकृति मैया को न मैला कर कभी
शारदा माँ के चरण पर धर सुमन
लक्ष्मी माँ उसे ही मनुहारती
शक्ति माँ की जो उतारे आरती
स्वर्ग इस भू पर बसाना चाहिए
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
.
प्यार माँ करती है हर संतान से
शीश उठता हर्ष सुख सम्मान से
अश्रु बरबस नयन में आते झलक
सुत शहीदों के अमर बलिदान से
शहादत है प्राण पूजा जो करें
वे अमरता का सनातन पथ वरें
शहीदों-प्रति सर झुकाना चाहिए
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
.
देश-रक्षा हर मनुज का धर्म है
देश सेवा से न बढ़कर कर्म है
कहा गीता, बाइबिल, कुरआन ने
देश सेवा जिन्दगी का मर्म है
जब जहाँ जितना बने उतना करें
देश-रक्षा हित मरण भी हँस वरें
जियें जब तक मुस्कुराना चाहिए
भारती के गीत गाना चाहिए
देश हित मस्तक कटाना चाहिए
.

सोमवार, 11 मई 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
मैं नहीं मैं 
संजीव 
*
मैं,
नहीं मैं
माँ तुम्हारा अक्स हूँ.
.
ख्वाब तुमने देखकर ताबीर की
गृहस्थी की मूर्तित तस्वीर की
आई जब भी कोई मुश्किल डट गयीं
कोशिशें अनथक करीं, तदबीर की
अमरकंटक मनोबल से जीत पा
नीति को संबल किया, नित गीत गा
जानता हूँ
तुम्हारा ही
नक्श हूँ.
मैं,
नहीं मैं
माँ तुम्हारा अक्स हूँ.
.
कलम मेरे हाथ में हो भाव तुम
शब्द मैं अन्तर्निहित हो चाव तुम
जिंदगी यह नर्मदा है नेह की
धार में पतवार पापा, नाव तुम
बन लहर बच्चे तुम्हारे साथ हों
रहें यूँ निर्मल कि ऊँचे माथ हों
नहीं
तुम सा
हो सका मैं दक्ष हूँ?
मैं,
नहीं मैं
माँ तुम्हारा अक्स हूँ.
.
सृजन-पथ पर दे रहीं तुम हौसला
तुम्हीं से आबाद है घर-घोंसला
सुधि तुम्हारी जिंदगी की प्रेरणा
दुआ बन तुम संग हुईं, सपना पला
छवि तुम्हारी मन-बसी अहसास है
तिमिर में शशिकिरण का आभास है
दृष्टि
बन जिसमें बसीं
वह अक्ष हूँ
मैं,
नहीं मैं
माँ तुम्हारा अक्स हूँ.
*

शुक्रवार, 8 मई 2015

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव, जेठ, महुआ, गर्मी, नीम, 
*
जेठ जेठ में हो रहे, गर्मी से बदहाल
जेठी की हेठी हुई, थक हो रहीं निढाल
*
चढ़ा करेला नीम पर, लू पर धूप सवार
जान निकले ले रही, उमस हुई हथियार
*
चुआ पसीना तर-बतर, हलाकान हैं लोग
सीना पोंछें भूलकर, सीना- करते सोग
*
नीम-डाल में डाल दे, झूला ठंडी छाँव
पकी निम्बोली चूस कर, झूल न जाना गाँव
*
मदिर गंध मन मोहती, महुआ चुआ बटोर
ओली में भर स्वाद लून, पवन न करना शोर
*   

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
जो 'फुट' पर चलते 
पलते हैं 'पाथों' पर 
उनका ही हक है सारे 
'फुटपाथों' पर 
*
बेलाइसेंसी कारोंवालों शर्म करो 
मदहोशी में जब कोई दुष्कर्म करो 
माफी मांगों, सजा भोग लो आगे आ 
जिनको कुचला उन्हें पाल कुछ धर्म करो 
धन-दौलत पर बहुत अधिक इतराओ मत 
बहुत अधिक मोटा मत अपना चर्म करो 
दिन भर मेहनत कर 
जो थककर सोते हैं 
पड़ते छाले उनके 
हाथों-पांवों पर 
जो 'फुट' पर चलते 
पलते हैं 'पाथों' पर 
उनका ही हक है सारे 
'फुटपाथों' पर 
*
महलों के अंदर रहकर तुम ऐश करो 
किसने दिया तुम्हें हक़ ड्राइविंग रैश करो 
येन-केन बचने के लिये वकील लगा 
झूठे लाओ गवाह खर्च नित कैश करो 
चुल्लू भर पानी में जाकर डूब मारो 
सत्य-असत्य कोर्ट में मत तुम मैश करो 
न्यायालय में न्याय 
तनिक हो जाने दो 
जनगण क्यों चुप्पी 
साधे ज़ज़्बातों पर 
जो 'फुट' पर चलते 
पलते हैं 'पाथों' पर 
उनका ही हक है सारे 
'फुटपाथों' पर 
*
स्वार्थ सध रहे जिनके वे ही संग जुटे 
उनकी सोचो जिनके जीवन-ख्वाब लुटे 
जो बेवक़्त बोलते कड़वे बोल यहाँ 
जनता को मिल जाएँ अगर बेभाव कुटें 
कहे शरीयत जान, जान के बदले दो 
दम है मंज़ूर करो, मसला सुलटे 
हो मासूम अगर तो 
माँगो दण्ड स्वयं 
लज्जित होना सीखो 
हुए गुनाहों पर 
जो 'फुट' पर चलते 
पलते हैं 'पाथों' पर 
उनका ही हक है सारे 
'फुटपाथों' पर 

गुरुवार, 7 मई 2015

DOHA SALILA: SANJIV

दोहा सलिला:
संजीव, सलमान खान 
.
सजा सुनी तो हो गये, तुरत रुँआसे आप
रूह न कापी जब किये, हे दबंग! नित पाप
.
उनका क्या ली नशे में, जिनकी पल में जान
कहे शरीअत आपकी, वे भी ले लें जान
.
नायक ने नाटक किया, मिलकर मिली न जेल
मेल व्यवस्था से हुआ, खेल हो गयी बेल
.
गायक जिसको पूछता, नहीं कोई भी आज 
 दे बयान यह चाहता, फिर से पा ले काज
.
नायक-गायक को सुला, फुटपाथों पर रोज
कुछ कारें भिजवाइये, दे कुत्तों को भोज
.
जिसने झूठी साक्ष्य दी, उस पर भी हो वाद
दंड वकीलों को मिले,  किया झूठ परिवाद
.
टेर रहे काले हिरन, करो हमारा न्याय
जां के बदल जां मिले, बंद करो अन्याय
***

SALMAAN PRAKARAN AUR NYAYA

आप न्यायाधीश हों तो सलमान को क्या सजा देंगे? 

मेरा सुझाव:
१. सुधार: एक माह तक फुटपाथ पर सोएं ताकि वहां सोनेवालों की मजबूरी और दर्द जान सकें.
२. क्षतिपूर्ति: मृत तथा दिवंगतों द्वारा पूरे जीवन में कमाए जानेवाली राशि की गणना कर ब्याज सहित उसकी क्षतिपूर्ति वारिसों को देय हो . 
३. दंड: देश के कानूनों को तोड़ने और झूटी गवाही से न्यायालय को गुमराह करने के लिए सलमान को १० वर्ष तथा गवाह को ५ वर्ष का सश्रम कारावास. 
४. पीड़ितों के अपमान के लिए अभिजीत को: एक माह तक फुटपाथ पर सोएं ताकि वहां सोनेवालों की मजबूरी और दर्द जान सकें.
५. झूठी साक्ष्य नेयाले में प्रस्तुतकर न्यायालय का समय बर्बाद करने और पेशे के प्रति निष्ठावान न रहने के लिए वकीलों का लायसेंस ३ साल तक निरस्त हो. 

jangeet: haan beta -sanjiv

जनगीत : 
हाँ बेटा 
संजीव, नवगीत, सलमान खान, 

चंबल में 
डाकू होते थे
हाँ बेटा!
.
लूट किसी को
मार किसी को
वे सोते थे?
हाँ बेटा!
.
लुटा किसी पर
बाँट किसी को
यश पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अख़बारों के
कागज़ उनसे
रंग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
पुलिस और
अफसर भी उनसे
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
केस चले तो
विटनेस डरकर
भग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
बिके वकील
झूठ को ही सच
बतलाते थे?
हाँ बेटा!
.
सब कानून
दस्युओं को ही
बचवाते थे?
हाँ बेटा!
.
चमचे 'डाकू की
जय' के नारे
गाते थे?
हाँ बेटा!
.
डाकू फिल्मों में
हीरो भी
बन जाते थे?
हाँ बेटा!
.
भूले-भटके
सजा मिले तो
घट जाती थी?
हाँ बेटा!
.
मरे-पिटे जो
कहीं नहीं
राहत पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अँधा न्याय
प्रशासन बहरा
मुस्काते थे?
हाँ बेटा!
.
मानवता के
निबल पक्षधर
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
तब से अब तक
वहीं खड़े हम
बढ़े न आगे?
हाँ बेटा!
.

बुधवार, 6 मई 2015

navgeet: sanjiv

एक रचना:
संजीव 
जैसा किया है तूने 
वैसा ही तू भरेगा
कभी किसी को धमकाता है 
कुचल किसी को मुस्काता है 
दुर्व्यवहार नायिकाओं से 
करता, दानव बन जाता है 
मार निरीह जानवर हँसता  

​कभी न किंचित शर्माता है 

बख्शा नहीं किसी को 

कब तक बोल बचेगा 


​सौ सुनार की भले सुहाये  

एक लुहार जयी हो जाए  

अगर झूठ पर सच भारी हो 

बददिमाग रस्ते पर आये 

चक्की पीस जेल में जाकर 

ज्ञान-चक्षु शायद खुल जाए 

साये से अपने खुद ही 

रातों में तू डरेगा 

**

मंगलवार, 5 मई 2015

navgeet: jaisa boya, -sanjiv

नवगीत:
जैसा बोया 
संजीव  
*
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुमने मेरा
मन तोड़ा था
सोता हुआ
मुझे छोड़ा था
जगी चेतना
अगर तुम्हारी
मुझे नहीं
क्यों झिंझोड़ा था?
सुत रोया
क्या कभी चुपाया?
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुम सोये
मैं रही जागती
क्या होता
यदि कभी भागती?
क्या तर पाती?
या मर जाती??
अच्छा लगता
यदि तड़पाती??
केवल खुद का
उठना भाया??
जैसा बोया
वैसा पाया
.
सात वचन
पाये झूठे थे.
मुझे तोड़
तुम भी टूटे थे. 
अति बेमानी
जान सके जब
कहो नहीं क्यों
तुम लौटे थे??
खीर-सुजाता ने
भरमाया??
जैसा बोया
वैसा पाया
.
घर त्यागा
भिक्षा की खातिर?
भटके थे
शिक्षा की खातिर??
शिक्षा घर में भी
मिलती है-
नहीं बताते हैं  
सच शातिर
मूरत गढ़
जग ने झुठलाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
मन मंदिर में
तुम्हीं विराजे
मूरत बना
बजाते बाजे
जो, वे ही
प्रतिमा को तोड़ें
उनका ढोंग
उन्हीं को साजे
मैंने दोनों में
दुःख पाया
जैसा बोया
वैसा पाया
.
तुम, शोभा की
वस्तु बने हो
कहो नहीं क्या
कर्म सने हो?
चित्र गुप्त
निर्मल रख पाये??
या विराग के
राग घने हो??
पूज रहा जग
मगर भुलाया 
जैसा बोया
वैसा पाया
.




सोमवार, 4 मई 2015

एक ग़ज़ल : इधर गया या उधर गया था...



इधर गया या  उधर गया था 
तेरा ही चेहरा जिधर गया था

तेरे खयालों में मुब्तिला हूँ
ख़बर नहीं है किधर गया था

जहाँ बसज्दा जबीं  हुआ तो 
वहीं का पत्थर सँवर गया था

भला हुआ जो तू मिल गया है
वगरना मैं तो बिखर गया था

हिसाब क्या दूँ ऐ शेख  साहिब !
सनमकदा  में ठहर गया था

अजीब शै है ये मौज-ए-उल्फ़त
जहाँ चढ़ा "मैं’  उतर गया था

ख़ुदा की ख़ातिर न पूछ ’आनन’
कहाँ कहाँ से गुज़र  गया  था 

-आनन्द पाठक-
09413395592

शब्दार्थ
बसजदा जबीं हुआ= सजदा में माथा टेका
सनमकदा       = महबूबा के घर
मैं   = अहम /अना/ अपना वज़ूद/अस्तित्व

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रविवार, 3 मई 2015

ghanakshari: sanjiv

घनाक्षरी
संजीव
.
गीत-ग़ज़ल गाइये / डूबकर सुनाइए / त्रुटि नहीं छिपाइये / सीखिये-सिखाइए
शिल्प-नियम सीखिए / कथ्य समझ रीझिए / भाव भरे शब्द चुन / लय भी बनाइए
बिम्ब नव सजाइये / प्रतीक भी लगाइये / अलंकार कुछ नये / प्रेम से सजाइए
वचन-लिंग, क्रिया रूप / दोष न हों देखकर / आप गुनगुनाइए / वाह-वाह पाइए  
.
कौन किसका है सगा? / किसने ना दिया दगा? / फिर भी प्रेम से पगा / जग हमें दुलारता
जो चला वही गिरा / उठ हँसा पुन: बढ़ा / आदि-अंत सादि-सांत / कौन छिप पुकारता?
रात बनी प्रात नित / प्रात बने रात फिर / दोपहर कथा कहे / साँझ नभ निहारता
काल-चक्र कब रुका? / सत्य कहो कब झुका? /मेहनती नहीं चुका / धरांगन बुहारता
.
न चाहतें, न राहतें / न फैसले, न फासले / दर्द-हर्ष मिल सहें / साथ-साथ हाथ हों
न मित्रता, न शत्रुता / न वायदे, न कायदे / कर्म-धर्म नित करें / उठे हुए माथ हों
न दायरे, न दूरियाँ / रहें न मजबूरियाँ / फूल-शूल, धूप-छाँव / नेह नर्मदा बनें
गिर-उठें, बढ़े चलें / काल से विहँस लड़ें / दंभ-द्वेष-छल मिटें / कोशिशें कथा बुनें
.


doha salila: sanjiv

दोहा सलिला,
अखबारी दोहे
संजीव
.
कॉफी नाकाफी हुई, माफी दो सरकार
ऊषा हाज़िर हो गयी, ले ताज़ा अखबार
.
चाय-पिलाऊँ प्रेम से, अपनेपन के साथ
प्रिय मांगे अखबार तो, लगे ठोंक लूँ माथ
.  
बैरन है अखबार यह, प्रिय को करता दूर
बैन लगा दूँ वश चले, मेरा अगर हुज़ूर
.
चाह चाय की अधिक या, रुचे अधिक अखबार
केर-बेर के संग सी, दोनों की दरकार
.
नज़र प्यार के प्यार पर, रखे प्यार से यार
नैन न मिलते नैन से, बाधक है अखबार
.  

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव 
हमको बहुत है फख्र कि मजदूर हैं
क्या हुआ जो हम तनिक मजबूर हैं. 
कह रहे हमसे फफोले हाथ के 
कोशिशों की माँग का सिन्दूर हैं 
आबलों को शूल से शिकवा नहीं 
हौसले अपने बहुत मगरूर हैं. 
*
कलश महलों के न हमको चाहिए 
जमीनी सच्चाई से भरपूर हैं. 
स्वेद गंगा में नहाते रोज ही 
देव सुरसरि-'सलिल' नामंज़ूर है. 

***

शनिवार, 2 मई 2015

nazm: sanjiv

नज़्म:  
संजीव
ग़ज़ल 
मुकम्मल होती है तब
जब मिसरे दर मिसरे
दूरियों पर 
पुल बनाती है बह्र
और एक दूसरे को 
अर्थ देते हैं
गले मिलकर
 मक्ते और मतले
काश हम इंसान भी
साँसों और 
आसों के मिसरों से
पूरी कर सकें
ज़िंदगी की ग़ज़ल
जिसे गुनगुनाकर कहें: 
आदाब अर्ज़
आ भी जा ऐ अज़ल!
**