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बुधवार, 8 अप्रैल 2015

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
दिल में पड़ी जो गिरह उसे खोल डालिए
हो बाँस की गिरह सी गिरह तो सम्हालिए

रखिये न वज्न दिल पे ज़रा बात मानिए
जो बात सच है हँस के उसे बोल डालिए

है प्यार कठिन, दुश्मनी करना बहुत सरल
जो भाये न उस बात को मन से बिसारिये

संदेह-शुबह-शक न कभी पालिए मन में
क्या-कैसा-कौन है विचार, तौल डालिए

जिसकों भुलाना आपको मुश्किल लगे 'सलिल'
उसको न जाने दीजिए दिल से पुकारिए

दूरी को पाट सकना हमेशा हुआ कठिन
दूरी न आ सके तनिक तो झोल डालिए

कर्जा किसी तरह का हो, आये न रास तो
दुश्वारियाँ कितनी भी हों कर्जा उतारिये
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
भोर भई दूँ बुहार देहरी अँगना
बाँस बहरी टेर रही रुक जा सजना

बाँसगुला केश सजा हेरूँ  ऐना  
बाँसपिया देख-देख फैले नैना
बाँसपूर लुगरी ना पहिरब बाबा
लज्जा से मर जाउब, कर मत सैना

बाँस पुटु खूब रुचे, जीमे ललना

बाँस बजें तैं न जा मोरी सौगंध
बाँस बराबर लबार बरठा बरबंड
बाँस चढ़े मूँड़ झुके बाँसा कट जाए
बाँसी ले, बाँसलिया बजा देख चंद

बाँस-गीत गुनगुना, भोले भजना

बगदई मैया पूजूँ,  बगियाना  भूल    
बतिया बड़का लइका, चल बखरी झूल
झिन बद्दी दे मोको, बटर-बटर हेर
कर ले बमरी-दतौन, डलने दे धूल  
     
बेंस खोल, बासी खा, झल दे बिजना
***
शब्दार्थ : बाँस बहरी = बाँस की झाड़ू, बाँस पुटु = बाँस का मशरूम, जीमना = खाना,  बाँसपान = धान के बाल का सिरा जिसके पकने से धान के पकाने का अनुमान किया जाता है, बाँसगुला = गहरे गुलाबी रंग का फूल,  ऐना = आईना, बाँसपिया = सुनहरे कँसरइया पुष्प की काँटेदार झाड़ी, बाँसपूर = बारीक कपड़ा, लुगरी = छोटी धोती,  सैना = संकेत,  बाँस बजें = मारपीट होना, लट्ठ चलना,  बाँस बराबर = बहुत लंबा, लबार = झूठा, बरठा = दुश्मन, बरबंड - उपद्रवी, बाँस चढ़े = बदनाम हुए, बाँसा = नाक की उभरी हुई अस्थि, बाँसी = बारीक-सुगन्धित चावल, बाँसलिया = बाँसुरी, बाँस-गीत = बाँस निर्मित वाद्य के साथ अहीरों द्वारा गाये जानेवाले लोकगीत, बगदई = एक लोक देवी, बगियाना = आग बबूला होना, बतिया = बात कर, बड़का लइका = बड़ा लड़का, बखरी = चौकोर परछी युक्त आवास, झिन = मत, बद्दी = दोष, मोको = मुझे, बटर-बटर हेर = एकटक देख, बमरी-दतौन = बबूल की डंडी जिससे दन्त साफ़ किये जाते हैं, धूल डालना = दबाना, भुलाना,  बेंस = दरवाजे का पल्ला, कपाट, बासी = रात को पकाकर पानी डालकर रखा गया भात,  बिजना = बाँस का पंखा.   

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
मंझधार में हो नाव तो हिम्मत न हारिए
ले बाँस की पतवार घाट पर उतारिए

मन में किसी के फाँस चुभे तो निकाल दें
लें साँस चैन की, न खाँसिए-खखारिए

जो वंशलोचनी है वही नेह नर्मदा
बन कांस सुरभि-रज्जु से जीवन संवारिए

बस हाड-माँस-चाम नहीं, नारि शक्ति है
कर भक्ति प्रेम से 'सलिल' जीवन गुजारिए

तम सघन हो तो निकट मान लीजिए प्रकाश
उठ-जाग कोशिशों से भोर को पुकारिए

***

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
जो न अपना, न ही पराया है
आप कहते हैं अपना साया है

जो सजा दें, वही क़ुबूल हमें
हमने दिल आपका चुराया है

दिल का लेना हसीं गुनाह तो है
दिल मगर आपने लुटाया है

ज़ुल्म ये है कि आँख फिरते ही
आपने यूँ हमें भुलाया है

हौसला है या जवांमर्दी है
दिल में दिलवर के घर बनाया है

***  

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
.
मान किया, अभिमान किया, अपमान किया- हरि थे मुस्काते
सौंवी न हो गलती यह भी प्रभु आप ही आप रहे चेताते
काल चढ़ा सिर पर न रुका, तब चक्र सुदर्शन कृष्ण चलाते
शीश कटा भू लोट रहा था, प्राण गए हरि में ही समाते
***

kavita: baans sanjiv

कविता 
बाँस
संजीव
.
ज़िन्दगी भर 
नेह-नाते 
रहे जिनसे.
रह गए हैं
छूट पीछे
आज घर में.
साथ आया वह
न जिसकी
कभी भायी फाँस.
उठाया
हाँफा न रोया
वीतरागी बाँस
*

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
गैर से हमको क्यों गिला होगा?
आइना सामने मिला होगा

झील सी आँख जब भरी होगी
कोई उसमें कमल खिला होगा

गर हकीकत न बोल पायी तो
होंठ उसने दबा-सिला होगा

कब तलक चैट से मिलेगा वह
क्या कभी खत्म सिलसिला होगा

हाय! ऐसे न मुस्कुराओ तुम
ढह गया दिल का हर किला होगा

झोपड़ी खाट धनुष या लाठी
जब बनी बाँस ही छिला होगा

काँप जाते हैं कलश महलों के
नीव पत्थर कोई हिला होगा
***

laghukatha: sanjiv


लघु कथा: 
बाँस 
संजीव
. 
गेंड़ी पर नाचते नर्तक की गति और कौशल से मुग्ध जनसमूह ने करतल ध्वनि की. नर्तक ने मस्तक झुकाया और तेजी से एक गली में खो गया. 

आश्चर्य हुआ प्रशंसा पाने के लिये लोग क्या-क्या नहीं करते? चंद करतल ध्वनियों के लिये रैली, भाषण, सभा, समारोह, यहाँ ताक की खुद प्रायोजित भी कराते हैं. यह अनाम नर्तक इसकी उपेक्षा कर चला गया जबकि विरागी-संत भी तालियों के मोह से मुक्त नहीं हो पाते. मंदिर से संसद तक और कोठों से अमरोहों तक तालियों और गालियों का ही राज्य है. 



संयोगवश अगले ही दिन वह नर्तक फिर मिला गया. आज वह पीठ पर एक शिशु को बाँधे हाथ में लंबा बाँस लिये रस्से पर चल रहा था और बज रही थीं तालियाँ लेकिन वह फिर गायब हो गया.



कुछ दिन बाद नुक्कड़ पर फिर दिख गया वह... इस बार कंधे पर रखे बाँस के दोनों ओर जलावन के गट्ठर टँगे थे जिन्हें वह बेचने जा रहा था..

मैंने पुकारा तो वह रुक गया. मैंने उसके नृत्य और रस्से पर चलने की कला की प्रशंसा कर पूछा कि इतना अच्छा कलाकार होने के बाद भी वह अपनी प्रशंसा से दूर क्यों चला जाता है? कला साधना के स्थान पर अन्य कार्यों को समय क्यों देता है? 



कुछ पल वह मुझे देखता रहा फिर लम्बी साँस भरकर बोला : 'क्या कहूँ? कला साधना और प्रशंसा तो मुझे भी मन भाती है पर पेट की आग न तो कला से, न प्रशंसा से बुझती है. तालियों की आवाज़ में रमा रहूँ तो बच्चे भूखे रह जायेंगे.' मैंने जरूरत न होते हुए भी जलावन ले ली... उसे परछी में बैठाकर पानी पिलाया और रुपये दिए तो वह बोल पड़ा: 'सब किस्मत का खेल है. अच्छा-खासा व्यापार करता था. पिता को किसी से टक्कर मार दी. उनके इलाज में हुए खर्च में लिये कर्ज को चुकाने में पूँजी ख़त्म हो गयी. बचपन का साथी बाँस और उस पर सीखे खेल ही पेट पालने का जरिया बन गये.' इससे पहले कि मैं उसे हिम्मत देता वह फिर बोला:'फ़िक्र न करें, वे दिन न रहे तो ये भी न रहेंगे. अभी तो मुझे कहीं झुककर, कहीं तनकर बाँस की तरह परिस्थितियों से जूझना ही नहीं उन्हें जीतना भी है.' और वह तेजी से आगे बढ़ गया. मैं देखता रह गया उसके हाथ में झूलता बाँस
*

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
पल में  न दिल में दिल को बसाने की बात कर  
जो निभ सके वो नाता निभाने की बात कर 

मुझको तो आजमा लिया, लूँ मैं भी आजमा
तू अब न मुझसे पीछा छुड़ाने की बात कर 

आना है मुश्किलात को आने भी दे ज़रा 
आ जाए तो महफिल से न जाने की बात कर 

बचना 'सलिल' वो  चाहता मिलना तुझे गले 
पड़ जाए जो गले तो भुलाने की बात कर 

बेचारगी  और तीरगी से हारना न तुम 
यायावरी को अपनी जिताने की बात कर  
...
     

navgeet: sanjiv

नवगीत
संजीव 
.
पूज रहे हैं 
मूरत 
कहते चित्र गुप्त है
.
है आराध्य हमारा जो
वह है अविनाशी
कहते फिर बतलाते कैसा
मनुज विनाशी
पैदा हुआ-मरा कैसे-कब
कहाँ? कह रहे
झगड़े-झंझट खड़े कर रहे
काबा-काशी
शिव वैरागी को अर्पित
करते हैं राशी
कहते कंकर-कंकर में वह
छिपा-सुप्त है.
.
तुमने उसे बनाया या
वह तुम्हें बनाता?
तुम आते-जाते हो या
वह आता-जाता?
गढ़ते-मढ़ते, तोड़-फाड़ते
बिना विचारे
देख हमारी करनी वह
छिप-छिप मुस्काता
कैसा है यह बुद्धिमान
जो आप ठगाता?
मैंने दिया विवेक, कहाँ वह
हुआ लुप्त है?
.
५.४.२०१४

navgeet: baans sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
नवगीत:
संजीव
.
बाँस हैं हम
.
पत्थरों में उग आते हैं
सीधी राहों पर जाते हैं
जोड़-तोड़ की इस दुनिया में
काम सभी के हम आते हैं
नहीं सफल के पीछे जाते
अपने ही स्वर में गाते हैं
यह न समझो
नहीं कूबत
फाँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
चाली बनकर चढ़ जाते हैं
तम्बू बनकर तन जाते हैं
नश्वर माया हमें न मोहे
अरथी सँग मरघट जाते हैं
वैरागी के मन भाते हैं
लाठी बनकर मुस्काते हैं
निबल के साथी
उसीकी
आँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
बन गेंड़ी पग बढ़वाते हैं
अगर उठें अरि भग जाते हैं
मिले ढाबा बनें खटिया
सबको भोजन करवाते हैं
थके हुए तन सो जाते हैं
सुख सपनों में खो जाते हैं
ध्वज लगा
मस्तक नवाओ
नि-धन का धन
काँस हैं हम
बाँस हैं हम
*

रविवार, 5 अप्रैल 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
शिरीष
संजीव

.
क्षुब्ध पहाड़ी
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
Kalkora Mimosa (Albizia kalkora)
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.

कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा पाता बुरा है
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
Kalkora Mimosa (Albizia kalkora)
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो  
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
...
Kalkora Mimosa (Albizia kalkora)

टिप्पणी: इस पुष्प का नाम शिरीष है। बोलचाल की भाषा में इसे सिरस कहते हैं। बहुत ही सुंदर गंध वाला... संस्कृत ग्रंथों में इसके बहुत सुंदर वर्णन मिलते हैं। अफसोस कि इसे भारत में काटकर जला दिया जाता है शारजाह में  इसके पेड़ हर सड़क के दोनो ओर लगे हैं। स्व. हजारी प्रसाद द्विवेदी का ललित निबंध शिरीष के फूल है -http://www.abhivyakti-hindi.org/.../lali.../2015/shirish.htm वैशाख में इनमें नई पत्तियाँ आने लगती हैं और गर्मियों भर ये फूलते रहते हैं... ये गुलाबी, पीले और सफ़ेद होते हैं. इसका वानस्पतिक नाम kalkora mimosa (albizia kalkora) है. गाँव के लोग हल्के पीले फूल वाले शिरीष को, सिरसी कहते हैं। यह अपेक्षाकृत छोटे आकार का होता है। इसकी फलियां सूखकर कत्थई रंग की हो जाती हैं और इनमें भरे हुए बीज झुनझुने की तरह बजते हैं। अधिक सूख जाने पर फलियों के दोनों भाग मुड़ जाते हैं और बीज बिखर जाते हैं। फिर ये पेड़ से ऐसी लटकी रहती हैं, जैसे कोई बिना दाँतो वाला बुजुर्ग मुँह बाए लटका हो।इसकी पत्तियाँ इमली के पेड़ की पत्तियों की भाँति छोटी छोटी होती हैं। इसका उपयोग कई रोगों के निवारण में किया जाता है। फूल खिलने से पहले (कली रूप में) किसी गुथे हुए जूड़े की तरह लगता है और पूरी तरह खिल जाने पर इसमें से रोम (छोटे बाल) जैसे निकलते हैं, इसकी लकड़ी काफी कमजोर मानी जाती है, जलाने के अलावा अन्य किसी उपयोग में बहुत ही कम लाया जाता है।बडे शिरीष को गाँव में सिरस कहा जाता है। यह सिरसी से ज्यादा बडा पेड़ होता है, इसकी फलियां भी सिरसी से अधिक बडी होती हैं। इसकी फलियां और बीज दोनों ही काफी बडे होते हैं, गर्मियों में गाँव के बच्चे ४-५ फलियां इकठ्ठा कर उन्हें खूब बजाते हैं, यह सूखकर सफेद हो जाती हैं, और बीज वाले स्थान पर गड्ढा सा बन जाता है और वहाँ दाग भी पड जाता है ... सिरस की लकड़ी बहुत मजबूत होती है, इसका उपयोग चारपाई, तख्त और अन्य फर्नीचर में किया जाता है ... गाँव में ईंट पकाने के लिए इसका उपयोग ईधन के रूप में भी किया जाता है।गाँव में गर्मियों के दिनों में आँधी चलने पर इसकी पत्ती और फलियां उड़ कर आँगन में और द्वारे पर फैल जाती हैं, इसलिए इसे कूड़ा फैलाने वाला रूख कहकर काट दिया जाता है.

Kalkora Mimosa (Albizia kalkora) bark

शिरीष: एक गीत
आभा सक्सेना 
.
जिस आँगन में टहली हूं मैं ,
शिरीष एक पल्ल्वित हुआ है।

हरा भरा है वृक्ष वहाँ पर,
नव कलियों से भरा हुआ है।


सिंदूरी फूलों से लदकर,
टहनी टहनी गमक रही है।
छटा निराली मन को भाये,
धूप मद भरी लटक रही है।


आओ कवियो तुम सब आओ,
एक नवीन गोष्ठी रचायें।
वृक्ष शिरीष के नीचे हम सब,
एक नयी सी प्रथा बनायें।


गरमी के आने की आहट,
खुद शिरीष ने दे डाली है।
हर रेशा फूलों का कहता,
फिर रंगोली रच डाली है।


जिस आँगन में टहली हूं मैं ,
शिरीष एक पल्लवित हुआ हैं।
हरा भरा है वृक्ष वहाँ पर,
नव कलियों से भरा हुआ है।
....


मैं शिरीष से मिलाने जाऊँ
कल्पना रामानी 
.
सोच रही
इस बार गाँव में
मैं शिरीष से मिलने जाऊँ

बाग सघन वो याद अभी तक
पले बढ़े जिसमें ये जातक
जल न जलाशय जब-जब देते
नम पुरवा बन जाती पालक
उन केसर
सुकुमार गुलों को
सहलाकर बचपन दोहराऊँ
ग्रीष्म-काल के अग्निकुंड से
झाँक रही छाया शिरीष की
लहराते गुल अल्प- दिवस ये
अलबेली माया शिरीष की
कोमल सुमन
बसे नज़रों में, मन
करता फिर नज़र मिलाऊँ
जेठी-धूप जवान हो रही
तन को बन धारा भिगो रही
ऐसे में कविता शिरीष से
कर शृंगार सुजान हो रही
तंग शहर
के ढंग भूल अब
रंग नए कुछ दिन अपनाऊँ
.

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
कुनबा
गीति विधा  का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध काव्य करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा  का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा  का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा  का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा  का है यह
.

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव.
रचनाओं की हर रामायण
अक्षर-अक्षर मिलकर गढ़ते
कथ्य भाव रस बिम्ब बनाते
क्षर शब्दों की सार्थक दुनिया
.
शब्द-शब्द मिल वाक्य बनाते
वाक्य अनुच्छेदों में ढलते
अनुच्छेद मिल कथा-कहानी
बन जाते तो  सपने पलते
बनते सपने युग के नपने
लगे पतीले ऊपर ढकने
पुरुषार्थी कोशिश कर हारे
लगे राम की माला जपने
दे जाती है साँझ सलोने
सपने लेकिन ढलते-ढलते
नानी के अधरों पर लाती
हँसी शरारत करती मुनिया
.
किसने जीवन यहाँ बिताया
केवल सुख पा, सहा न दुखड़ा
किसने आँसू नहीं बहाये
किसका सुख से खिला न मुखड़ा
किस अंतर में नहीं अंतरा
इश्क-मुश्क का गूँजा कहिए  
सम आकारिक पंक्ति-लहरियाँ
बन नवगीत बह रही गहिए
होते तब जीवंत खिलौने
शिशु-नयनों में पलते-पलते
खेले हास-रास के सँग जब
श्वास-आस की जीवित गुड़िया
.
गीतकार पाठक श्रोता का
नाता होता बहुत अनूठा
पल में खुश हो जाता बच्चा
पल भर पहले था जो रूठा
टटकापन-देशजता रुचती
अधुनातानता भी मन भाती
बन्ना-गारी के सँग डी जे
सुनते-नाचें झूम बराती
दिखे क्षितिज पर देखे चंदा
धवल चाँदनी हँसते-खिलते
घूँघट डाले हनीमून पर
जाती इठलाकर दुलहनिया
४.४.२०१५
...   

navgeet: sanjiv

नवगीत : 
संजीव 
.
खेत उगलते हैं सोना पर 
खेतिहरों का दीवाला है 
.
जो बोये-काटे वह भूखा
जो हथिया ले वही सुखी है
मिल दलाल लें लूट मुनाफा
उत्पादक मर रहा दुखी है
भूमि छीनते हो किसान की
कैसे भूमि-पुत्र हो? बोलो!
जनप्रतिनिधि सोचो-शर्माओ
मत ज़मीर अपना यूं बेचो
निज सुविधा त्यागो, जनगण सा
जीवन जियों, बनो साधारण
तब ही तो कर पाओगे तुम
आमजनों का कष्ट निवारण
गंगा सुखी लोकनीति की
भरा स्वार्थ का परनाला है
.
वनवासी से छीन लिये वन
है अधनंगा श्रमिक शहर में
शिखर मानकों के फेकें हैं
तोड़-तोड़कर सतत गव्हर में
दलहित साध्य हुआ सूरों को
गौड़ देशहित मान रहे हो
जयचंदी है मूढ़ सियासत
घोल कुएँ में भाँग रहे हो
सर्वदली सरकार बनाओ
मतभेदों का शमन करो मिल
भारत पहली विश्वशक्ति हो
भारत माँ की शपथ गहो नित
दीनबन्धु बन पोछों आँसू
दीन-हीन के सँग मेहनत कर
तभी खुलेगा भारत के
उन्नति पथ का लौही ताला है
...

रविवार, 15 मार्च 2015

चन्द माहिया : क़िस्त 17

:1:
दरया जो उफ़नता है
दिल में ,उल्फ़त का
रोके से न रुकता है 

:2:
क्या कैस का अफ़साना !
कम तो नहीं अपना
उलफ़त में मर जाना

:3:
क्या हाल सुनाऊँ मैं 
तुम से छुपा है क्या
जो और छुपाऊँ मैं

:4:
सब उनकी मेहरबानी
सागर में कश्ती
और मौज़-ए-तुगयानी

:5:
इस हुस्न पे इतराना !
दो दिन का खेला
इक दिन तो ढल जाना

-आनन्द.पाठक
09413395592

[मौज़-ए-तुगयानी =बाढ़/सैलाब की लहरें]


मंगलवार, 10 मार्च 2015

लघु व्यंग्य कथा 12 : अस्मिन असार संसारे ..

.

---’तीये’ की बैठक चल रही है । पंडित जी प्रवचन कर रहे हैं -"अस्मिन असार संसारे !..इस असार संसार में ..जगत मिथ्या है .ईश्वर अंश ...जीव अविनाशी
ज्ञानी ध्यानी लोगो ने कहा है ---पानी केरा बुलबुला अस मानुस की जात... तो जीवन क्या है... पानी का बुलबुला है ...नश्वर है..क्षण भंगुर है..मैं नीर भरी दुख की बदली...उमड़ी थी कल मिट आज चली...जो उमड़ा ..वो मिटा..जो आया है वो जायेगा ,,’जायते म्रियते वो कदाचित...तो फिर किसका शोक ....जो भरा है वो खाली होगा..यही जीवन है यही नश्वरता है गीता में लिखा है -"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ....अर्थात यह शरीर क्या है माया है ..फटा पुराना कपड़ा है ...आदमी इसे जान ले कि व्यर्थ ही इस कटे-फटे कपड़े को सँवार रहा था तो शरीर छूटने का कोई कष्ट नहीं....शरीर तो दीवार है .मिट्टी की दीवार ..एक घड़े की दीवार की तरह...जल में कुम्भ...कुम्भ में जल है ..बाहर भीतर पानी....फुटा कुम्भ जल जल ही समाना ...यह तथ कहें गियानी---... .."-
--"तुलसी दास जी ने कहा है क्षिति जल पावक गगन समीरा ...जब यह शरीर क्षिति का बना है मिट्टी का बना है तो इसके मिटने का क्या शोक करना.....मिट्टी का तन मिट्टी का मन क्षण भर जीवन मेरा परिचय...तो सज्जनों ! आप सब जानते है ..एक फ़िल्म का गाना है---चल उड़ जा रे पंक्षी कि अब यह देश हुआ बेगाना...शरीर पिंजरा है ..आत्मा पंक्षी है..आत्मा ने पिंजरा छोड़ दिया अब वह और पिंजरे में जायेगी...
पंडित जी ने अपना प्रवचन जारी रखा,, उन्हें आत्मा-परमात्मा जीव के बारे में जितनी जानकारी थी सब उड़ेल रहे थे

और धन ...धन तो हाथ का मैल है ...सारा जीवन प्राणी इसी मैल के चक्कर में पड़ा रहता है...इसी मैल को बटोरता है ..और अन्त में सब कुछ यहीं छोड़ जाता है ..धन तो माया है
धन मिट्टी है शास्त्रों में इसे "लोष्ठ्वत’ कहा गया है ...मगर सारी जिन्दगी आदमी इसी "लोष्ठ’ को एकत्र करता रहता है ..और अन्त में? अन्त में ’धन ’ की कौन कहे वो तो यह मिट्टी भी साथ नहीं ले जा सकता ... आदमी इस मिट्टी को समझ ले तो कोई दुख न हो....जब आवै सन्तोष धन ..सब धन धूरि समान’ अन्त में मालूम होता है कि आजीवन हम ने जो दौड़-धूप करता रहा वो सब तो धूल था ..तब तक बहुत विलम्ब हो चुका होता है---सब ठाठ पड़ा रह जायेगा...जब लाद चलेगा बंजारा...बंजारा चला गया..किस बात का शोक....
पंडित जी घंटे भर आत्मा-परमात्मा--जीव..जगत .माया...धन..मिट्टी आदि समझाते रहे और श्रोता भी कितना समझ रहे थे भगवान जाने

अन्त में ...अब हम सब मिल कर प्रार्थना करें कि भगवान मॄतक की आत्मा को शान्ति प्रदान करें और और परिवार को दुख सहने की शक्ति....."-पंडित जी का प्रवचन समाप्त हुआ

...लोग मृतक की तस्वीर पर ’श्रद्धा-सुमन’ अर्पित करने लगे ...पंडित जी ने जल्दी जल्दी पोथी-पतरा सम्भाला --चेले ने ’लिफ़ाफ़े’ में आई दान-दक्षिणा संभाली..इस जल्दी जल्दी के क्रम में चेले से 2-दक्षिणा का लिफ़ाफ़ा रह गया...पंडित जी की ’तीक्ष्ण दॄष्टि’ ने पकड़ लिया और चेले को एक हल्की सी चपत लगाते हुए कहा-" मूढ़ ! पैसा हाथ का मैल है..लिफ़ाफ़ा’ तो नहीं -यह लिफ़ाफ़ा क्या तेरा बाप उठायेगा..
पंडित जी ने दोनो लिफ़ाफ़े उठा कर जल्दी जल्दी अपने झोले में रख लिए...उन्हे अभी दूसरे ’तीये’ की बैठक में जाना है और वहाँ भी यही प्रवचन करना है---" अस्मिन असार संसारे !....पैसा हाथ का मैल है ....

-आनन्द.पाठक
09413395592

शनिवार, 7 मार्च 2015

एक होली उत्तर गीत

मित्रो !
कल ’होली’ थी , सदस्यों ने बड़े धूम-धाम से ’होली’ मनाई।  आप ने उनकी "होली-पूर्व " की रचनायें पढ़ीं 
अब होली के बाद का एक गीत [होली-उत्तर गीत ]-... पढ़े,.

होली के बाद की सुबह जब "उसने" पूछा --"आई थी क्या याद हमारी होली में ?" 
  एक होली-उत्तर गीत
    
"आई थी क्या याद हमारी होली मे ?"
आई थी ’हाँ’  याद तुम्हारी होली में

रूठा भी कोई करता क्या अनबन में
स्वप्न अनागत पड़े हुए हैं उलझन में
तरस रहा है दर्पण तुम से बतियाने को
बरस बीत गए रूप निहारे दरपन में
पूछ रहे थे रंग  तुम्हारे बारे में -
मिल कर जो थे रंग भरे रंगोली में

होली आई ,आया फागुन का मौसम
गाने लगी हवाएं खुशियों की सरगम
प्रणय सँदेशा लिख दूँगा मैं रंगों से
काश कि तुम आ जाती बन जाती हमदम 
आ जाती तो युगलगीत गाते मिल कर
’कालेज वाले’ गीत ,प्रीति की बोली में

कोयल भी है छोड़ गई इस आँगन को
जाने किसकी नज़र लगी इस मधुवन को
पूछ रहा ’डब्बू"-"मम्मी कब आवेंगी ?
तुम्हीं बताओ क्या बतलाऊं उस मन को
छेड़ रहे थे नाम तुम्हारा ले लेकर
कालोनी वाले भी हँसी-ठिठोली में --आई थी ’हाँ याद तुम्हारी होली में 

-आनन्द.पाठक
09413395592

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

kruti charcha: pyas ke hiran radheshyam bandhu sanjiv

कृति चर्चा:
प्यास के हिरन : नवगीत की ज्योतित किरण  
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ 
[कृति विवरण:प्यास के हिरन, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, वर्ष १९९८, पृष्ठ ९४, मूल्य ४०/-, प्रकाशक पराग दिल्ली, नवगीतकार संपर्क:९८६८४४४६६६, rsbandhu2 @gmail.com] 
मानवीय सभ्यता के विकास के साथ ध्वनियों की पहचान, इनमें अन्तर्निहित संवेदनाएँ. इनकी पुनर्प्रस्तुति, इनके विविध संयोजन और उनके अर्थ, संवेदनाओं को व्यक्त करते शब्द, शब्द समुच्चयों के आरोह-अवरोह और उनसे अभिव्यक्त होती भावनायें, छलकती सरसता क्रमशः लोकगीतों का रूप लेती गयी. सुशिक्षित अभिजात्य वर्ग में रचनाओं के विधान निश्चित करने की चेतना ने गीतों और गीतों में छांदस अनुशासन, बिम्ब, प्रतीकों और शब्दावली परिवर्तन की चाह के द्वार पर आ खड़ी हुई है.
नवगीतों और छंदानुशासन को सामान कुशलता से साध सकने की रूचि, सामर्थ्य और कौशल जिन हस्ताक्षरों में है उनमें से एक हैं राधेश्याम बंधु जी. बंधु जी का नवगीत संकलन प्यास के हिरन के नवगीत मंचीय दबावों में अधिकाधिक व्यावसायिक होती जाती काव्याभिव्यक्ति के कुहासे में सांस्कारिक सोद्देश्य रचित नवगीतों की अलख जगाता है. नवगीतों को लोक की अभिव्यक्ति का माध्यम माननेवालों में बंधु जी अग्रणी हैं. वे भाषिक और पिन्गलीय विरासत को अति उदारवाद से दूषित करने को श्रेयस्कर नहीं मानते और पारंपरिक मान्यताओं को नष्ट करने के स्थान पर देश-कालानुरूप अपरिहार्य परिवर्तन कर लोकोपयोगी और लोकरंजनीय बनाने के पथ पर गतिमान हैं. 
बंधु जी के नवगीतों में शब्द-अर्थ की प्रतीति के साथ लय की समन्विति और नादजनित आल्हाद की उपस्थिति और नियति-प्रकृति के साथ अभिन्न होती लोकभावनाओं की अभिव्यक्ति का मणिकांचन सम्मिलन है. ख्यात समीक्षक डॉ. गंगा प्रसाद विमल के अनुसार’ बंधु जी में बडबोलापन नहीं है. उनमें रूपक और उपमाओं के जो नये प्रयोग मिलते हैं उनसे एक विचित्र व्यंग्य उभरता है. वह व्यंग्य जहाँ स्थानिक संबंधों पर प्रहार करता है वहीं वह सम्पूर्ण व्यवस्था की विद्रूपता पर भी बेख़ौफ़ प्रहार करता है. बंधु जी पेशेवर विद्रिही नहीं हैं, वे विसंगत के प्रति अपनी असहमति को धारदार बनानेवाले ऐसे विद्रोही हैं जिसकी चिंता सिर्फ आदमी है और वह आदमी निरंतर युद्धरत है.’
प्यास के हिरन (२३ नवगीत), रिश्तों के समीकरण (२७ नवगीत) तथा जंग जारी है (७ नवगीत) शीर्षक त्रिखंदों में विभक्त यह नवगीत संकलन लोक की असंतुष्टि, निर्वाह करते रहने की प्रवृत्ति और अंततः परिवर्तन हेतु संघर्ष की चाह और जिजीविषा का दस्तावेज है. ये गीति रचनाएँ न तो थोथे आदर्श का जय घोष करती है, न आदर्शहीन वर्तमान के सम्मुख नतमस्तक होती हैं, ये बदलाव की अंधी चाह की मृगतृष्णा में आत्माहुति भी नहीं देतीं अपितु दुर्गन्ध से जूझती अगरुबत्ती की तरह क्रमशः सुलगकर अभीष्ट को इस तरह पाना चाहती हैं कि अवांछित विनाश को टालकर सकल ऊर्जा नवनिर्माण हेतु उपयोग की जा सके.  
बाजों की / बस्ती में, धैर्य का कपोत फँसा / गली-गली अट्टहास, कर रहे बहेलिये, आदमकद / टूटन से, रोज इस तरह जुड़े / सतही समझौतों के प्यार के लिए जिए, उत्तर तो / बहरे हैं, बातूनी प्रश्न, / उँगली पर ठहर गये, पर्वत से दिन, गुजरा / बंजारे सा एक वर्ष और, चंदा तो बाँहों में / बँध गया, किन्तु लुटा धरती का व्याकरण, यह घायल सा मौन / सत्य की पाँखें नोच रहा है,  आदि-आदि पंक्तियों में गीतकार पारिस्थितिक वैषम्य और विडम्बनाओं के शब्द चित्र अंकित करता है.    
साधों के / कन्धों पर लादकर विराम / कब तक तम पियें, नये सूरज के नाम?, ओढ़ेंगे / कब तक हम, अखबारी छाँव?, आश्वासन किस तरह जिए?, चीर हरणवाले / चौराहों पर, मूक हुआ क्यों युग का आचरण?, आश्वासन किस तरह जिए? / नगरों ने गाँव डंस लिये, कल की मुस्कान हेतु / आज की उदासी का नाम ताक न लें?, मैंने तो अर्पण के / सूर्य ही उगाये नित / जाने क्यों द्विविधा की अँधियारी घिर आती, हम उजाले की फसल कैसे उगाये?, अपना ही खलिहान न देता / क्यों मुट्ठी भर धान,  जैसी अभिव्यक्तियाँ जन-मन में उमड़ते उन प्रश्नों को सामने लाती हैं जो वैषम्य के विरोध की मशाल बनकर सुलगते ही नहीं शांत मन को सुलगाकर जन असंतोष का दावानल बनाते हैं.          
जो अभी तक / मौन थे वे शब्द बोलेंगे / हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे, धूप बनकर / धुंध में भी साथ दो तो / ज़िन्दगी का व्याकरण कुछ सरल हो जाए, बाबा की अनपढ़ / बखरी में शब्दों का सूरज ला देंगे, अनब्याहे फासले / ममता की फसलों से पाटते चलो, परिचय की / शाखों पर, संशय की अमरबेल मत पालो, मैं विश्वासों को चन्दन कर लूँगा आदि में जन-मन की आशा-आकांक्षा, सपने तथा विश्वास की अभिव्यक्ति है. यह विश्वास ही जनगण को सर्वनाशी विद्रोह से रोककर रचनात्मक परिवर्तन की  ओर उन्मुख करता है. क्रांति की भ्रान्ति पालकर जीती प्रगतिवादी कविता के सर्वथा विपरीत नवगीत की यह भावमुद्रा लोक की, लोक के द्वारा, लोक के लिये सक्षम व्यवस्था का आव्हान करती है. 
बंधु जी के नवगीत सरस श्रृंगार-सलिला में अवगाहन करते हुए मनोरम अभिव्यक्तियों से पाठक का मन मोहने में समर्थ हैं. यादों के / महुआ वन, तन-मन में महक उठे / आओ! हम बाँहों में, गीत-गीत हो जायें, तुम महकते द्वीप की मुस्कान / हम भटकते प्यार के जलयान / क्यों न हम-तुम मिल, छुअन के छंद लिख डालें? क्यों न आदिम गंध से, अनुबंध लिख डालें, आओ, हँ-तुम मिल / प्यार के गुणकों से / रिश्तों के समीकरण, हल कर लें, दालानों की / हँसी खनकती, बाजूबंद हुई / आँगन की अठखेली बोली, नुपुर छंद हुई, चम्पई इशारों से / लिख-लिख अनुबंध / एक गंध सौंप गयी, सौ-सौ सौगंध, खिड़की में /  मौलश्री, फूलों का दीप धरे / कमरे का खालीपन, गंध-गीत से भरे, नयनों में / इन्द्रधनुष, अधरोंपर शाम / किसके स्वागत में ये मौसमी प्रणाम? जैसी मादक-मदिर अभिव्यक्तियाँ किसके मन को न मोह लेंगी? 
बंधु जी का वैशिष्ट्य सहज-सरल भाषा और सटीक शब्दों का प्रयोग है. वे न तो संस्कृतनिष्ठता को आराध्य मानते हैं, न भदेसी शब्दों को ठूँसते हैं, न ही उर्दू या अंग्रेजी के शब्दों की भरमार कर अपनी विद्वता की धाक जमाते हैं. इस प्रवृत्ति के सर्वथा विपरीत बंधु जी नवगीत के कथ्य को उसके अनुकूल शब्द ही नहीं बिम्ब और प्रतीक भी चुनने देते हैं. उनकी उपमाएँ और रूपक अनूठेपन का बना खोजते हुए अस्वाभाविक नहीं होते. धूप-धिया, चितवन की चिट्ठी, याद की मुंडेरी, शतरंजी शब्द, वासंती सरगम, कुहरे की ओढ़नी, रश्मि का प्रेमपत्र आदि कोमल-कान्त अभिव्यक्तियाँ नवगीत को पारंपरिक वीरासा से अलग-थलग कर प्रगतिवादी कविता से जोड़ने के इच्छुक चंद जनों को भले ही नाक-भौं चढ़ाने के लिये  विवश कर दे अधिकाँश सुधि पाठक तो झूम-झूम कर बार-बार इनका आनंद लेंगे. 
नवगीत लेखन में प्रवेश कर रहे मित्रों के लिए यह नवगीत संग्रह पाठ्य पुस्तक की तरह है. हिंदी गीत लेखन में उस्ताद परंपरा का अभाव है, ऐसे संग्रह एक सीमा तक उस अभाव की पूर्ति करने में समर्थ हैं. 

रिश्तों के इन्द्रधनुष, शब्द पत्थर की तरह आदमी की भीड़ में शीर्षक ३ मुक्तिकाएँ (हिंदी गज़लें) तथा आदमी शीर्षक एकमात्र मुक्तक की उपस्थिति चौंकाती है. इसने संग्रह की शोभा नहीं बढ़ती. तमसा के तट पर, मेरा सत्य हिमालय पर नवगीत अन्य सम्मिलित नवगीतों की सामान्य लीक से हटकर हैं. सारतः यह नवगीत संग्रह बंधु जी की सृजन-सामर्थ्य का जीवंत दस्तावेज होने के साथ-साथ आम पाठक के लिये रस की गागर भी है.                                    
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kruti charcha; navgeet ke naye pratimaan radheshyam bandhu -sanjiv


कृति चर्चा:
नवगीत के नये प्रतिमान : अनंत आकाश अनवरत उड़ान 

चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
 
[कृति विवरण: नवगीत के नये प्रतिमान, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी जेकेट युक्त, वर्ष २०१२, पृष्ठ ४६४, मूल्य ५००/-, प्रकाशक कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, नवगीतकार संपर्क ९८६८४४४६६६, rsbandhu2@gmail.com]

समकालिक हिंदी काव्य के केंद्र में आ चुका नवगीत अपनी विकास यात्रा के नव पड़ावों की ओर पग रखते हुए नव छंद संयोजन से लोक धुनों और लोक गीतों की ओर कदम बढ़ा रहा है. बटोही, कजरी, आल्हा. पंथी आदि सहोदरों से गले मिलकर सहज उल्लास के स्वर गुंजाने लगा है. छायावाद की अमूर्तता और साम्यवादी प्रगतिवाद के भटकाव से निकलकर नवगीत जन-मन की व्यथा, जन-जीवन की छवि तथा जनाशाओं का उल्लास लोक में चिरकाल से व्याप्त शब्दों, धुनों, गीतों में ढालकर व्यक्त करने की ओर प्रयाण कर चुका है. विशिष्ट शब्दावली, छंद पंक्तियों में गति-यति स्थलों पर पंक्ति परिवर्तन कर नव छंद रचने के व्यामोह से मुक्त होकर नवगीत अब अपनी अस्मिता की खोज में अपनी जमीन में जमी जड़ों की ओर जा रहा है जो निराला की दिशा थी. 

नवगीत को हिंदी समालोचना के दिग्गजों द्वारा अनदेखा किया जाने के बावजूद वह जनवाणी बनकर उनके कानों में प्रविष्ट हो गया है. फलतः, नवगीत के मूल्यांकन के गंभीर प्रयास हो रहे हैं. नवगीत की नवता-परीक्षण के प्रतिमानों के अन्वेषण का दुरूह कार्य सहजता से करने का पौरुष दिखाया है श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार राधेश्याम बंधु ने. नवगीत के नये प्रतिमानों पर चर्चा करता सम्पादकीय खंड आलोचना और सौन्दर्य बोध, वस्तुवादी वर्गीय चेतना और उसका यथार्थवाद, प्रयोगवाद और लोकधर्मी प्रयोग, इतिहासबोध: उद्भव और विकास, लोकचेतना और चुनौतियाँ, नये रूप और वस्तु की प्रासंगिकता, छंद और लय की प्रयोजनशीलता, मूल्यान्वेषण की दृष्टि और उसका समष्टिवाद, वैज्ञानिक और वैश्विक युगबोध, सामाजिक चेतना और जनसंवादधर्मिता, वैचारिक प्रतिबद्धता और जनचेतना तथा जियो और जीने दो आदि बिन्दुओं पर केन्द्रित है. यह खंड कृतिकार के गहन और व्यापक अध्ययन-मनन से उपजे विचारों के मंथन से निसृत विचार-मुक्ताओं से समृद्ध-संपन्न है. 

परिचर्चा खंड में डॉ. नामवर सिंह, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ. नित्यानंद तिवारी, डॉ. मैनेजर पाण्डेय, डॉ. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह, डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, डॉ. विमल, रामकुमार कृषक जैसे विद्वज्जनों ने हिचकते-ठिठकते हुए ही सही नवगीत के विविध पक्षों का विचारण किया है. यह खंड अधिक विस्तार पा सकता तो शोधार्थियों को अधिक संतुष्ट कर पाता. वर्तमान रूप में भी यह उन बिन्दुओं को समाविष्ट किये है जिनपर भविष्य में प्रासाद निर्मित किये का सकते हैं. 

sसमीक्षात्मक आलेख खंड के अंतर्गत डॉ. शिव कुमार मिश्र ने नवगीत पर भूमंडलीकरण के प्रभाव और वर्तमान की चुनौतियाँ, डॉ. श्री राम परिहार ने नवगीत की नयी वस्तु और उसका नया रूप, डॉ. प्रेमशंकर ने लोकचेतना और उसका युगबोध, डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी ने गीत प्रगीत और नयी कविता का सच्चा उत्तराधिकारी नवगीत, डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ ने सामाजिक चेतना और चुनौतियाँ, डॉ. भारतेंदु मिश्र ने आलोचना की असंगतियाँ, डॉ. सुरेश उजाला ने विकास में लघु पत्रिकाओं का योगदान, डॉ. वशिष्ठ अनूप ने नईम के लोकधर्मी नवगीत, महेंद्र नेह ने रमेश रंजक के अवदान, लालसालाल तरंग ने कुछ नवगीत संग्रहों, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ ने गीत-नवगीत की तुलनात्मक रचनाशीलता तथा डॉ. राजेन्द्र गौतम ने नवगीत के जनोन्मुखी परिदृश्य पर उपयोगी आलेख प्रस्तुत किये हैं. 

विराsसत खंड में निराला जी, माखनलाल जी, नागार्जुन जी, अज्ञेय जी, केदारनाथ अग्रवाल जी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी, धर्मवीर भारती जी, देवेन्द्र कुमार, नईम, डॉ. शंभुनाथ सिंह, रमेश रंजक तथा वीरेंद्र मिश्र का समावेश है. यह खंड नवगीत के विकास और विविधता का परिचायक है. 
’नवगीत के हस्ताक्षर’ तथा ‘नवगीत के कुछ और हस्ताक्षर’ खंड में लेखक ने ७० तथा ६० नवगीतकारों को बिना किसी पूर्वाग्रह के उन प्रमुख नवगीतकारों को सम्मिलित किया है जिनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ उसके पढ़ने में आ सकीं. ऐसे खण्डों में नाम जोड़ने की गुंजाइश हमेशा बनी रह सकती है. इसके पूरक खंड भी हो सकते हैं और पुस्तक के अगले संस्करण में संवर्धन भी किया जा सकता है. 

बंधु जी नवगीत विधा से लम्बे समय से जुड़े हैं. वे नवगीत विधा के उत्स, विकास, वस्तुनिष्ठता, अवरोधों, अवहेलना, संघर्षों तथा प्रमाणिकता से सुपरिचित हैं. फलत: नवगीत के विविध पक्षों का आकलन कर संतुलित विवेचन, विविध आयामों का सम्यक समायोजन कर सके हैं. सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उनका निष्पक्ष और निर्वैर्य होना. व्यक्तिगत चर्चा में भी वे इस कृति और इसमें सम्मिलित अथवा बारंबार प्रयास के बाद भी असम्मिलित हस्ताक्षरों के अवदान के मूल्यांकन प्रति समभावी रहे हैं. इस सारस्वत अनुष्ठान में जो महानुभाव सम्मिलित नहीं हुए वे महाभागी हैं अथवा नहीं स्वयं सोचें और भविष्य में ऐसे गंभीर प्रयासों के सहयोगी हों तो नवगीत और सकल साहित्य के लिये हितकर होगा. 

डॉ. शिवकुमार मिश्र ने ठीक ही कहा है: ‘डॉ. राधेश्याम बंधु का यह प्रयास नवगीत को उसके समूचे विकासक्रम, उसकी मूल्यवत्ता और उसकी संभावनाओं के साथ समझने की दिशा में एक स्तुत्य प्रयास माना जायेगा.’ कृतिकार जानकारी और संपर्क के आभाव में कृति में सम्मिलित न किये जा सके अनेक हस्ताक्षरों को जड़ते हुए इसका अगला खंड प्रकाशित करा सकें तो शोधार्थियों का बहुत भला होगा. 

‘नवगीत के नये प्रतिमान’ समकालिक नवगीतकारों के एक-एक गीत तो आमने लाता है किन्तु उनके अवदान, वैशिष्ट्य अथवा न्यूनताओं का संकेतन नहीं करता. सम्भवत: यह लेखक का उद्देश्य भी नहीं है. यह एक सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह उपयोगी है. इसकी उपयोगिता में और अधिक वृद्धि होती यदि परिशिष्ट में अब तक प्रकाशित प्रमुख नवगीत संग्रहों तथा नवगीत पर केन्द्रित समलोचकीय पुस्तकों के रचनाकारों, प्रकाशन वर्ष, प्रकाशक आदि तथा नवगीतों पर हुए शोधकार्य, शोधकर्ता, वर्ष तथा विश्वविद्यालय की जानकारी दी जा सकती. 
ग्रन्थ का मुद्रण स्पष्ट, आवरण आकर्षक, बँधाई मजबूत और मूल्य सामग्री की प्रचुरता और गुणवत्ता के अनुपात में अल्प है. पाठ्यशुद्धि की ओर सजगता ने त्रुटियों के लिये स्थान लगभग नहीं छोड़ा है.