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बुधवार, 14 जनवरी 2015

kruti charcha: hausalon ki udaan kalpana ramani -sanjiv

कृति चर्चा: 
हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान 
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: हौसलों के पंख, नवगीत संग्रहकल्पना रामानी, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, नवगीत ६५, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद] 
ओम निश्चल: 'गीत-नवगीत के क्षेत्र में इधर अवरोध सा आया है. कुछ वरिष्‍ठ कवि फिर भी अपनी टेक पर लिख रहे हैं... एक वक्‍त उनके गीत... एक नया रोमानी उन्‍माद पैदा करते थे पर धीरेधीरे ऐसे जीवंत गीत लिखने वाली पीढी खत्‍म हो गयी. कुछ कवि अन्‍य विधाओं में चले गए .... नये संग्रह भी विशेष चर्चा न पा सके. तो क्‍या गीतों की आभा मंद पड़ गयी है या अब वैसे सिद्ध गीतकार नहीं रहे?'  

'गीत में कथ्य वर्णन के लिए प्रचुर मात्रा में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करना कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता। गीत का कथ्य व्यक्ति को समष्टि से जोड़कर उदात्तता के पथ पर बढ़ाता है तो नवगीत कथ्य समष्टि की विरूपता पर व्यक्ति को केंद्रित कर परिष्कार की राह सुझाता है। भाषा के स्तर पर गीत में संकेतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है जबकि नवगीत में स्पष्टता आवश्यक है। गीत पारम्परिकता का पोषक होता है तो नवगीत नव्यता को महत्व देता है। गीत में छंद योजना को वरीयता है तो नवगीत में गेयता को महत्व मिलता है।'   

उक्त दो बयानों के परिप्रेक्ष्य में नवगीतकार कल्पना रामानी के प्रथम नवगीत संग्रह 'हौसलों के पंख' को पढ़ना और और उस पर लिखना दिलचस्प है 

कल्पना जी उस सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसके लिए साहित्य रचा जाता है और जो साहित्य से जुड़कर उसे सफल बनाता है  जहाँ तक  ओम जी का प्रश्न है वे जिस 'रोमानी उन्मादका उल्लेख करते हैं वह उम्र के एक पड़ाव पर एक मानसिकता विशेष की पहचान होता है आज के सामाजिक परिवेश और विशेषकर जीवनोद्देश्य लेकर चलनेवाले युवाओं नई ने इसे हाशिये पर रखना आरंभ कर दिया है अब किसी का आँचल छू जाने से सिहरन नहीं होती, आँख मिल जाने से प्यार नहीं होता। तन और मन को अलग-अलग समझने के इस दौर में नवगीत निराला काल के छायावादी स्पर्शयुक्त और छंदमुक्त रोमांस तक सीमित नहीं रह सकता। 

कल्पना जी के जमीन से जुड़े ये नवगीत किसी वायवी संसार में विचरण नहीं कराते अपितु जीवन जैसा ही देखते हुए बेहतर बनाने की बात करते हैं। कल्पना की कल्पना भी सम्भावना के समीप है कपोल कल्पना नहीं। जीवन के उत्तरार्ध में रोग, जीवन साथी का विछोह अर्थात नियतिजनित एकाकीपन से जूझ और मृत्यु के संस्पर्श से विजयी होकर आने के पश्चात उनकी जिजीविषाजयी कलम जीवन के प्रति अनुराग-विराग को एक साथ साधती है। ऐसा गीतकार पूर्व निर्धारित मानकों की कैद को अंतिम सत्य कैसे मान सकता है? कल्पना जी नवगीत और गीत से सुपरिचित होने पर भी वैसा ही रचती हैं जैसा उन्हें उपयुक्त लगता है लेकिन वे इसके पहले मानकों से न केवल परिचय प्राप्त करती हैं, उनको सीखती भी हैं। 

प्रतिष्ठित नवगीतकार यश मालवीय ठीक ही कहते हैं कि 'रचनाधर्मिता के बीज कभी भी किसी भी उम्र में रचनाकार-मन में सुगबुगा सकते हैं और सघन छायादार दरख्त बन सकते हैं।

डॉ. अमिताभ त्रिपाठी इन गीतों में संवेदना का उदात्त स्तर, साफ़-सुथरा छंद-विधान, सुगठित शब्द-योजना, सहजता, लय तथा प्रवाह की उपस्थिति को रेखांकित करते हैं। कल्पना जी ने भाषिक सहजता-सरलता को शुद्धता के साथ साधने में सफलता पाई है। उनके इन गीतों में संस्कृतनिष्ठ शब्द (संकल्प, विलय, व्योम, सुदर्श, विभोर, चन्द्रिका, अरुणिमा, कुसुमित, प्राण-विधु, जल निकास, नीलांबर, तरुवर, तृण पल्लव्, हिमखंड, मोक्षदायिनी, धरणी, सद्ज्ञान, परिवर्धित, वितान, निर्झरिणी आदि), उर्दू लफ़्ज़ों ( मुश्किलों, हौसलों, लहू. तल्ख, शबनम, लबों, फ़िदा, नादां, कुदरत, फ़िज़ा, रफ़्तार, गुमशुदा, कुदरत, हक़, जुबां, इंक़लाब, फ़र्ज़, क़र्ज़, जिहादियों, मज़ार, मन्नत, दस्तखत, क़ैद, सुर्ख़ियों आदि) के साथ गलबहियाँ डाले हुए देशज शब्दों ( बिजूखा, छटां, जुगाड़, फूल बगिया, तलक आदि) से गले मिलते हैं। 

इन नवगीतों में शब्द युग्मों (नज़र-नज़ारे, पुष्प-पल्लव, विहग वृन्दों, मुग्ध-मौसम, जीव-जगत, अर्पण-तर्पण, विजन वन, फल-फूल, नीड़चूजे, जड़-चेतन, तन-मन, सतरंगी संसार, पापड़-बड़ी-अचार आदि) ने माधुर्य घोला है। नवगीतों में अन्त्यानुप्रास का होना स्वाभाविक है किन्तु कल्पना जी ने छेकानुप्रास तथा वृत्यनुप्रास का भी प्रयोग प्रचुरता से किया है।  इन स्थलों पर नवगीतों में रसधार पुष्ट हुई है। देखें: तृषायुक्त तरुवर तृण, सारू सरिता सागर, साँझ सुरमई, सतरंगी संसार, वरद वन्दिता, कचनार काँप कर, चंचल चपल चारुवदना, सचेतना सुभावना सुकमना, मृदु महक माधुरी, सात सुरों का साजवृन्द, मृगनयनी मृदु बयनभाषिणी, कोमल कंचन काया, कवच कठोर कदाचित, कोयलिया की कूक आदि। 

कल्पना जी ने नवल भाषिक प्रयोग करने में कमी नहीं की है: जोश की समिधा, वसुधा का वैभव, निकृष्ट नादां, स्वत्व स्वामिनी, खुशरंग हिना आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। महलों का माला से स्वागत, वैतरिणी जगताप हरिणी, पीड़ाहरिणी तुम भागीरथी, विजन वनों की गोद में, साधना से सफल पल-पल, चाह चित से कीजिए, श्री गणेश हो शुभ कर्मों का जैसी अभिव्यक्तियाँ सूक्ति की तरह जिव्हाग्र पर प्रतिष्ठित होने का सामर्थ्य रखती हैं  

कल्पना जी के इन नवगीतों में राष्ट्रीय गौरव (यही चित्र स्वाधीन देश का, हस्ताक्षर हिंदी के, हिंदी की मशाल, सुनो स्वदेशप्रेमियों, मिली हमें स्वतंत्रता, जयभारत माँ, पूछ रहा है आज देश), पारिवारिक जुड़ाव (बेटी तुम, अनजनमी बेटी, पापा तुम्हारे लिए, कहलाऊं तेरा सपूत, आज की  नारी, जीवन संध्या, माँ के बाद के बाद आदि), सामाजिक सरोकार (मद्य निषेध सजा पन्नो पर, हमारा गाँव, है अकेला आदमी, महानगर में, गाँवों में बसा जीवन, गरम धूप में बचपन ढूँढे, आँगन की तुलसी आदि) के गीतों के साथ भारतीय संस्कृति के उत्सवधर्मिता और प्रकृति परकता के गीत भी मुखर हुए हैं। ऐसे नवगीतों में दिवाली, दशहरा, राम जन्मसूर्य, शरद पूर्णिमासंक्रांतिवसंत, फागुन, सावन, शरद आदि आ सके हैं। 

पर्यावरण और प्रकृति के प्रति कल्पना जी सजग हैं। जंगल चीखा, कागा रे! मुंडेर छोड़ दे, आ रहा पीछे शिकारी, गोल चाँद की रात, क्यों न हम उत्सव् मनाएं?, जान-जान कर तन-मन हर्षा, फिर से खिले पलाश आदि गीतों में उनकी चिंता अन्तर्निहित है। सामान्यतः नवगीतों में न रहनेवाले साग, मुरब्बे, पापड़, बड़ी, अचार, पायल, चूड़ी आदि ने इन नवगीतों में नवता के साथ-साथ मिठास भी घोली है। बगिया, फुलबगिया, पलाश, लता, हरीतिमा, बेल, तरुवर, तृण, पल्लव, कोयल, पपीहे, मोर, भँवरे, तितलियाँ, चूजे, चिड़िया आदि के साथ रहकर पाठक रुक्षता, नीरसता,  विसंगतियोंजनित पीड़ा, विषमता और टूटन को बिसर जाता है।  

सारतः विवेच्य कृति  का जयघोष करती जिजीविषाओं का तूर्यनाद है। इन नवगीतों में भारतीय आम जन की उत्सवधर्मिता और हर्षप्रियता मुखरित हुई है। कल्पना जी जीवन के संघर्षों पर विजय के हस्ताक्षर अंकित करते हुए इन्हें रचती हैं। इन्हें भिन्न परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकित करना इनके साथ न्याय न होगा। इन्हें गीत-नवगीत के निकष पर न कसकर इनमें निहित रस सलिला में अवगाहन कर आल्हादित  अभीष्ट है। कल्पना जी को बधाई जीवट, लगन और सृजन के लिये। सुरुचिपूर्ण और शुद्ध मुद्रण के लिए अंजुमन प्रकाशन का अभिनन्दन। 

…        

​समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट
नेपियर टाउन, जबलपुर, ४८२००१ 
​९४२५१ ८३२४४ / ०७६१ २४१११३१ 
salil.sanjiv@gmail.com

  

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

bundeli gazal: gupteshwar

बुंदेली ग़ज़ल:
गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त 
*
उनको तकुआ टेड़ौ हो गओ
बातन बीच बखेड़ौ हो गओ  

टंटैया सौ दुबरौ-पतरौ 
लम्मों खूब बसेड़ौ हो गओ 

जौन छुअत ते बिलकुल नें जू 
मैंगौ ओई चचेड़ौ हो गओ 

पर की सालै जिऐ लगाओ 
नानों पौधा पेड़ौ हो गओ 

मातादाई नें दओ चरपेटा 
आँख बची पै भेंड़ौ हो गओ 

लदो-फरो तागत खों धार लो 
थानों खाव लबेड़ौ हो गओ 

हर्र आंवरौ संग मिलावे 
त्रिफला बीच बहेड़ौ हो गओ   

*
मकान  ७६९, गली १७, जे. डी. ए. मार्केट के पीछे 
शांति नगर, दमोह नाका, जबलपुर ४८२००१
चलभाष: ८२२५० ३६ ७२८  

navgeet: sanjiv

अनुभूति अंतरजाल पत्रिका के संक्रांति अंक में प्रकाशित नवगीत:
 संजीव 

jankari, takneek, upkaran,

जानकारी, तकनीक, उपकरण :  
फेक आई डी से कैसे निबटें? 
2. अब उस यूजरनेम का इस्तेमाल, फेसबुक लोगइन बॉक्स पर बने फॉरगेट पासवर्ड पर क्लिक कर, अपने फोन के मैजेसबॉक्स में पासवर्ड रिसेट कोड मंगाएं
3. पासवर्ड रिसेट कर, उस प्रोफाइल में लोग इन करें
4. यह काम सुबह सुबह करें.. जब मोहतरमा कजोल सो रही हों, क्योंकि पासवर्ड रिसेट होने का एक नोटिफिकेशन उनके मेल पर जाएगा, अगर वह सतर्क रहीं तो वह लोग इन पहले कर सकती हैं...
5. लोग इन हो जाने पर आप, प्रोफाइल से जुडे, इ-मेल को तुरंत बदल दें , ताकि वह उस दौरान ई-मेल के जरिये भी न लोगइन कर पाएं
6. अब उस अकाउंट को डिलीट कर दें
7. फेसबुक पहले उसे कुछ दिनों को लिए डीएक्टिवेट रखेगा , फिर हटा देगा
8... अपने फोन को लोक लगा कर रखें... और किसी अविश्वनीय के हाथ में न दें.. दूकान में बनाने को न ही दे तो बेहतर, अगर दें भी तो देते समय सिम निकाल कर दें

navgeet: -naya saal

अंजुमन। उपहार। काव्य संगम। गीत। गौरव ग्राम। गौरवग्रंथदोहे। पुराने अंक संकलन। अभिव्यक्ति। कुण्डलिया। हाइकुहास्य व्यंग्य। क्षणिकाएँ। दिशांतर

नव बरस
सिर्फ सच का साथ देना
नव बरस

धाँधली अब तक चली, अब रोक दे
सुधारों के लिये खुद को झोंक दे
कर रहा मनमानियाँ, गाली बकें-
ऐसा जनप्रतिनिधि गटर में फेंक दे
सेकता जो स्वार्थ रोटी भ्रष्ट हो
सेठ-अफसर को न किंचित टेक दे
टेक का निर्वाह जनगण भी करे
टेक दें घुटने दरिंदे
इस बरस

अँधेरों को भेंट कुछ आलोक दे
दहशतों को दर्द-दुःख दे, शोक दे
बेटियों-बेटों में समता पल सके-
रिश्वती को भाड़ में तू झोंक दे
बंजरों में फसल की उम्मीद बो
प्रयासों के हाथ में साफल्य हो
अनेक रहें नेक, अ-नेक लड़ मरें
जयी हों विश्वास-आस
हँस बरस

संजीव सलिल
२९ दिसंबर २०१४
© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

navgeet: -sanjiv

नवगीत: 

संजीव 
खों-खों करते 
बादल बब्बा 
तापें सूरज सिगड़ी 
आसमान का आँगन चौड़ा 
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा 
ऊधम करते नटखट तारे 
बदरी दादी 'रोको' पुकारें 
पछुआ अम्मा 
बड़बड़ करती 
डाँट लगातीं तगड़ी 
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती  
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम 
रात और दिन बेटे अनुपम 
पाला-शीत न 
आये घर में 
खोल न खिड़की अगड़ी
सूर बनाता सबको कोहरा 
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही 
फसल लाएगी राहत को ही 
हँसकर खेलें 
चुन्ना-मुन्ना 
मिल चीटी-धप, लँगड़ी  
.... 
 

सोमवार, 12 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

नवगीत: 
संजीव 
दर्पण का दिल देखता 
कहिए, जग में कौन?
आप न कहता हाल 
भले रहे दिल सिसकता 
करता नहीं खयाल  
नयन कौन सा फड़कता? 
सबकी नज़र उतारता
लेकर राई-नौन 
पूछे नहीं सवाल 
नहीं किसी से हिचकता 
कभी न देता टाल 
और न किंचित ललकता 
रूप-अरूप निहारता 
लेकिन रहता मौन 

रहता है निष्पक्ष 
विश्व हँसे या सिसकता 
सब इसके समकक्ष 
जड़ चलता या फिसलता 
माने सबको एक सा 
हो आधा या पौन  
… 
(मुखड़ा दोहा, अन्तरा सोरठा)  

aaiye kavita karen: 3 - sanjiv

आइये कविता करें: ३,
संजीव
मुक्तक

हिंदी काव्य को मुक्तक संस्कृत से विरासत में प्राप्त हुआ है. संस्कृत में अनेक प्रकार के मुक्तक काव्य मिलते हैं. मुक्तक एक पद्य या छंद में परिपूर्ण रचना है, जिसमें किसी प्रकार का चमत्कार पाया जाता हो. सामान्यतः मुक्तक अनिबद्ध काव्य है. इसमें किसी कथा या विचार सूत्र की अपेक्षा उस छंद या पद्य को समझने के लिए नहीं रहती क्यों कि वह अपने आप में ही परिपूर्ण होता है. संस्कृत साहित्य के अनुसार मुक्तक अनिबद्ध साहित्य का भेद है किन्तु आधुनिक काल में मुक्तक विधा का उपयोग कर प्रबंध काव्य और खंड काव्य रचे गए हैं.
अग्नि पुराण के अनुसार: ' मुक्तकश्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमःसतां' अर्थात एक छंद में पूर्ण अर्थ एवं चमत्कार को प्रगट करनेवाला काव्य मुक्तक कहलाता है.
संस्कृत में अनिबद्ध काव्य के भेद भी मिलते हैं. डंडीकृत काव्यादर्श की तर्कवागीश कृत टीका के अनुसार क्रमशः तीन, चार, पांच और छह छंदों वाले अनिबद्ध काव्य को गुणवती, प्रभद्रक, वाणावली और करहाटक कहा गया है.
जगन्नाथ प्रसाद भानु द्वारा सन १८९४ में लिखित छंद शास्त्र के मानक ग्रन्थ छन्द प्रभाकर पृष्ठ २१३ के अनुसार ''मुक्तक उसे कहते हैं जिसके प्रत्येक पाद में केवल अक्षरों की संख्या का ही प्रमाण रहता है अथवा कहीं-कहीं गुरु-लघु का नियम होता है. इसे मुक्तक इसलिये कहते हैं कि यह गानों के बंधन से मुक्त है अथवा कविजनों को मात्रा और गणों के बंधन से मुक्त करनेवाला है. इसके ९ भेद पाये जाते हैं:
१ मनहरण
२ जनहरण
४ रूप घनाक्षरी
५. जलहरण
६. डमरू
७ कृपाण
८ विजया
९ देवघनाक्षरी
इनके उपप्रकार भी हैं.
डॉ. भगीरथ मिश्र कृत काव्य मनीषा के अनुसार 'मुक्तक वह पद्य रचना है जिसके छंद स्वतः पूर्ण रहते हैं और वे किसी भी सूत्र में बंधे न रहकर स्वतंत्र रहते हैं. प्रत्येक छंद अपने में स्वतंत्र और निजी वैशिष्ट्य और चमत्कार से मुक्त रहता है.' १८९४ के बाद हिंदी साहित्य का बहुत विकास हुआ है. अब हिंदी तथा हिंदीतर भाषाओँ के अनेक छंदों को आधार बनाकर मुक्तक रचे जा रहे हैं. उक्त के अलावा दोहा, उल्लाला, सोरठा, रोला, चौपाई, आल्हा, हरिगीतिका, छप्पय, घनाक्षरी, हाइकू, माहिया आदि पर मैंने भी मुक्तक रचे हैं.
आप सभी के प्रति आभार,
फूल-शूल दोनों स्वीकार।
'सलिल' पंक में पंकज सम
जो खिलते बनते गलहार
*
नीरज जी को शत वंदन
अर्पित है अक्षत-चन्दन
रचे गीत-मुक्तक अनगिन-
महका हिंदी-नंदन वन
*


मुक्तक पर चर्चा हेतु आभा सक्सेना जी के २ मुक्तक प्राप्त हुए हैं। इनको मात्रिक मानते हुए इनका पदभार (पंक्तियों में मात्रा संख्या) तथा वर्णिक मुक्तक मानते हुए पदभार (वर्ण संख्या) कोष्ठक में दिया है.  

दो मुक्तक मकर संक्रांति पर
1.
सूरज ने मौसम को फिर से जतलाया।      = २२ (१५)
उत्तर से दक्षिण को मैं तो दौड़ आया।।      = २३ (१४) 
ताप तेज़ करने को धूपको कह आया।      = २३  (१५)
ठंड तेरे आँगन की कुछ कम कर आया।।  = २३  (१६)
प्रथम पंक्ति और शेष तीन पंक्तियों में मात्र के अंतर के कारण लय में आ रही भिन्नता पढ़ने पर अनुभव होगी। यदि इसे दूर किया जा सके तो मुक्तक की सरसता बढ़ेगी।
2.
रंगीन पतंगें सब संग में ले लाया हूं।        = २५ (१५)
उनकी डोर भी बच्चों को दे आया हूं।।     = २३  (१३)
गगन भी बुहार दिया पतंगें उड़ाने को।    = २४  (१६)
गज़क रेबड़ी साथ है संक्रंति मनाने को।। =२५   (१६)
इस मुक्तक की पंक्तियों में भी लय भिन्नता अनुभव की जा सकती है. 
आभा जी इन्हें सुधारकर फिर भेज रहे हैं। अन्य पाठक भी इन्हें संतुलित करने का प्रयास करें तो अधिक आनंद आएगा। 



Abha Saxena दो मुक्तक मकर संक्रांति पर सुधार के बाद

1.

सूरज ने मौसम को फिर ऐसे जताया।23
उत्तर से दक्षिण को मैं तो दौड़ आया।।23
ताप तेज़ करने को धूप को कह आया।23
ठंड तेरे आँगन की कुछ कम कर आया।।23
2.
रंगीन पतंगें सब संग ले लाया हूं।23
उनकी डोर भी बच्चों को दे आया हूं।।23
गगन सँवारा है पतंगें उड़ाने को।23
गज़क रेबड़ी रखी संक्रंाति मनाने को।।23
....आभा

[फिर ऐसे, मैं तो, करने को आदि कोई विशेष अर्थ व्यक्त नहीं करते, उत्तर से दक्षिण को संक्रन्ति में सूर्य दक्षिणायन से उत्त्तरायण होता है, तथ्य दोष ] 
अब देखें - 
१. 

सूरज ने मौसम को उगकर बतलाया २२ 
दक्षिण से उत्तर तक उजियारा लाया २२ 
पाले की गलन मिटे खुद को दहकाया २२ 
आँगन में धूप बिछा घर को गरमाया २२
२. 
बच्चों मैं रंगीन पतंगें लाया हूँ २२ 
चकरी-डोरी तुम्हें सौंपने आया हूँ २२
गगन सँवारा खूब पतंग उड़ाओ रे! २२ 

घर गरमाने धूप बिछा हर्षाया हूँ २२ 

आभा जी! मुक्तकों को अब देखें। कुछ बात बनी क्या? हम स्नान पश्चात जैसे प्रसाधनों से खुद को सँवारते हैं वैसे ही रचना की, भाषा, कथ्य और शिल्प को सँवारना होता है। अभ्यास हो जाने पर अपने आप ही विचार और भाषा की प्रांजल अभिव्यक्ति होने लगाती है   

navgeet: -sanjiv

बाल नवगीत:
संजीव
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर 
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ 
खा पर सबक 
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
.
  



रविवार, 11 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
ग्रंथि श्रेष्ठता की
पाले हैं
.
कुटें-पिटें पर बुद्धिमान हैं
लुटे सदा फिर भी महान हैं
खाली हाथ नहीं संसाधन
मतभेदों का सर वितान है
दो-दो हाथ करें आपस में
जाने क्या गड़बड़
झाले हैं?
.
बातें बड़ी-बड़ी करते हैं
मनमानी का पथ वरते हैं
बना तोड़ते संविधान खुद
दोष दूसरों पर धरते हैं
बंद विचारों की खिड़की
मजबूत दिशाओं पर
ताले हैं 
.
सच कह असच नित्य सब लेखें
शीर्षासन कर उल्टा देखें
आँख मूँद 'तूफ़ान नहीं' कह
शतुरमुर्ग निज पर अवरेखें
परिवर्तित हो सके न तिल भर
कर्म सकल देखे
भाले हैं.



navgeet: -sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
दिशा न दर्शन
दीन प्रदर्शन
.
क्यों आये हैं?
क्या करना है??
ज्ञात न पर
चर्चा करना है
गिले-शिकायत
शिकवे हावी
यह अतीत था
यह ही भावी
मर्यादाओं का
उल्लंघन
.
अहंकार के
मारे सारे
हुए इकट्ठे
बिना बिचारे
कम हैं लोग
अधिक हैं बातें
कम विश्वास
अधिक हैं घातें
क्षुद्र स्वार्थों
हेतु निबंधन
.
चित्र गुप्त
सू रत गढ़ डाली
मनमानी
मूरत बनवा ली
आत्महीनता
आत्ममोह की
खुश होकर
पीते विष-प्याली
पल में गाली
पल में ताली
मंथनहीन
हुआ मन-मंथन

१३.३०,  २९.१२. २०१४ 
पंचायती धर्मशाला जयपुर