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शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

chitra par kavita: doha -sanjiv

चित्र पर कविता
संजीव
*


जब कविता ही सामने, कलम लिये हो हाथ
सलिल नहीं कविता करे, यह कैसे हो नाथ?
*
प्रश्नाकुल हैं नयन पर, उत्तर हुए अशेष
खाली प्याला चाय का, कहे कहानी शेष
*
युग कागज़ को समेटे, तरुणी बनी सवाल
संसद या जम्हूरियत के जी का जंजाल?
*
कोरे कागज़ पर लिखूँ, क्या? जो दे संतोष
जिससे तनिक समृद्ध हो, सरस्वती का कोष
*
श्यामल कंगन हाथ का, युग की नज़र उतार
कहे आम को ही चुनो, ख़ास तजो इस बार
*

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बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

chhand salila: kakubh chhand -sanjiv

​ककुभ / कुकुभ
संजीव
*
(छंद विधान: १६ - १४, पदांत में २ गुरु)
*
यति रख सोलह-चौदह पर कवि, दो गुरु आखिर में भाया
ककुभ छंद मात्रात्मक द्विपदिक, नाम छंद ने शुभ पाया
*
देश-भक्ति की दिव्य विरासत, भूले मौज करें नेता
बीच धार मल्लाह छेदकर, नौका खुदी डुबा देता
*
आशिको-माशूक के किस्से, सुन-सुनाते उमर बीती.
श्वास मटकी गह नहीं पायी, गिरी चटकी सिसक रीती.
*
जीवन पथ पर चलते जाना, तब ही मंज़िल मिल पाये
फूलों जैसे खिलते जाना, तब ही तितली मँडराये
हो संजीव सलिल निर्मल बह, जग की तृष्णा हर पाये
शत-शत दीप जलें जब मिलकर, तब दीवाली मन पाये
*
(ककुभ = वीणा का मुड़ा हुआ भाग, अर्जुन का वृक्ष)
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, ककुभ, कीर्ति, घनाक्षरी, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)

Sanjiv verma 'Salil'
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doha salila: samyikidohe -sanjiv

सामयिक दोहे
संजीव
*
जो रणछोड़ हुए उन्हें, दिया न हमने त्याग
किया श्रेष्ठता से सदा, युग-युग तक अनुराग।
*
मैडम को अवसर मिला, नहीं गयीं क्या भाग?
त्यागा था पद अटल ने, किया नहीं अनुराग।
*
शास्त्री जी ने भी किया, पद से तनिक न मोह
लक्ष्य हेतु पद छोड़ना, नहिं अपराध न द्रोह।
*
केर-बेर ने मिलाये, स्वार्थ हेतु जब हाथ
छोड़ा जिसने पद विहँस, क्यों न उठाये माथ?
*
करते हैं बदलाव की, जब-जब भी हम बात
पूर्व मानकों से करें, मूल्यांकन क्यों तात?
*
विष को विष ही मारता, शूल निकाले शूल
समय न वह जब शूल ले, आप दीजिये फूल
*
सहन असहमति को नहीं, करते जब हम-आप
तज सहिष्णुता को 'सलिल', करें व्यर्थ संताप
**

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

lekh: prem geet men sangeet chetna -sanjiv

प्रेम गीत में संगीत चेतना
संजीव
*
साहित्य और संगीत की स्वतंत्र सत्ता और अस्तित्व असंदिग्ध है किन्तु दोनों के समन्वय और सम्मिलन से अलौकिक सौंदर्य सृष्टि-वृष्टि होती है जो मानव मन को सच्चिदानंद की अनुभूति और सत-शिव-सुन्दर की प्रतीति कराती है. साहित्य जिसमें सबका हित समाहित हो और संगीत जिसे अनेक कंठों द्वारा सम्मिलित-समन्वित गायन१।
वाराहोपनिषद में अनुसार संगीत 'सम्यक गीत' है. भागवत पुराण 'नृत्य तथा वाद्य यंत्रों के साथ प्रस्तुत गायन' को संगीत कहता है तथा संगीत का लक्ष्य 'आनंद प्रदान करना' मानता है, यही उद्देश्य साहित्य का भी होता है.
संगीत के लिये आवश्यक है गीत, गीत के लिये छंद. छंद के लिये शब्द समूह की आवृत्ति चाहिए जबकि संगीत में भी लयखंड की आवृत्ति चाहिए। वैदिक तालीय छंद साहित्य और संगीत के समन्वय का ही उदाहरण है.
अक्षर ब्रम्ह और शब्द ब्रम्ह से साक्षात् साहित्य करता है तो नाद ब्रम्ह और ताल ब्रम्ह से संगीत। ब्रम्ह की
मतंग के अनुसार सकल सृष्टि नादात्मक है. साहित्य के छंद और संगीत के राग दोनों ब्रम्ह के दो रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
साहित्य और संगीत का साथ चोली-दामन का सा है. 'वीणा-पुस्तक धारिणीं भगवतीं जाड्यंधकारापहाम्' - वीणापाणी शारदा के कर में पुस्तक भी है.
'संगीत साहित्य कलाविहीन: साक्षात पशु: पुच्छ विषाणहीनः' में भी साहित्य और संगीत के सह अस्तित्व को स्वीकार किया गया है.
स्वर के बिना शब्द और शब्द के बिना स्वर अपूर्ण है, दोनों का सम्मिलन ही उन्हें पूर्ण करता है.
ग्रीक चिंतक और गणितज्ञ पायथागोरस के अनुसार 'संगीत विश्व की अणु-रेणु में परिव्याप्त है. प्लेटो के अनुसार 'संगीत समस्त विज्ञानों का मूल है जिसका निर्माण ईश्वर द्वारा सृष्टि की विसंवादी प्रवृत्तियों के निराकरण हेतु किया गया है. हर्मीस के अनुसार 'प्राकृतिक रचनाक्रम का प्रतिफलन ही संगीत है.
नाट्य शास्त्र के जनक भरत मुनि के अनुसार 'संगीत की सार्थकता गीत की प्रधानता में है. गीत, वाद्य तथा नृत्य में गीत ही अग्रगामी है, शेष अनुगामी.
गीत के एक रूप प्रगीत (लिरिक) का नामकरण यूनानी वाद्य ल्यूरा के साथ गाये जाने के अधर पर ही हुआ है. हिंदी साहित्य की दृष्टि से गीत और प्रगीत का अंतर आकारगत व्यापकता तथा संक्षिप्तता ही है.
गीत शब्दप्रधान संगीत और संगीत नाद प्रधान गीत है. अरस्तू ने ध्वनि और लय को काव्य का संगीत कहा है. गीत में शब्द साधना (वर्ण अथवा मात्रा की गणना) होती है, संगीत में स्वर और ताल की साधना श्लाघ्य है. गीत को शब्द रूप में संगीत और संगीत को स्वर रूप में गीत कहा जा सकता है.
प्रेम के दो रूप संयोग तथा वियोग श्रृंगार तथा करुण रस के कारक हैं.
प्रेम गीत इन दोनों रूपों की प्रस्तुति करते हैं. आदिकवि वाल्मीकि के कंठ से नि:सृत प्रथम काव्य क्रौंचवध  की प्रतिक्रिया था. पंत जी के नौसर: 'वियोगी होगा पहला कवि / आह से उपजा होगा गान'
लव-कुश द्वारा रामायण का सस्वर पाठ सम्भवतः गीति काव्य और संगीत की प्रथम सार्वजनिक समन्वित प्रस्तुति थी.
लालित्य सम्राट जयदेव, मैथिलकोकिल विद्यापति, वात्सल्य शिरोमणि सूरदास, चैतन्य महाप्रभु, प्रेमदीवानी मीरा आदि ने प्रेमगीत और संगीत को श्वास-श्वास जिया, भले ही उनका प्रेम सांसारिक न होकर दिव्य आध्यात्मिक रहा हो.
आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', हरिवंश राय बच्चन आदि कवियों की दृष्टि और सृष्टि में सकल सृष्टि संगीतमय होने की अनुभूति और प्रतीति उनकी रचनाओं की भाषा में अन्तर्निहित संगीतात्मकता व्यक्त करती है.
निराला कहते हैं- "मैंने अपनी शब्दावली को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह संगीत के छंदशास्त्र की अनुवर्तिता की है.… जो संगीत कोमल, मधुर और उच्च भाव तदनुकूल भाषा और प्रकाशन से व्यक्त होता है, उसके साफल्य की मैंने कोशिश की है.''
 पंत के अनुसार- "संस्कृत का संगीत जिस तरह हिल्लोलाकार मालोपमा से प्रवाहित होता है, उस तरह हिंदी का नहीं। वह लोल लहरों का चंचल कलरव, बाल झंकारों का छेकानुप्रास है.''
लोक में आल्हा, रासो, रास, कबीर, राई आदि परम्पराएं गीत और संगीत को समन्वित कर आत्मसात करती रहीं और कालजयी हो गयीं।
गीत और संगीत में प्रेम सर्वदा अन्तर्निहित रहा. नव गति, नव लय, ताल छंद नव (निराला), विमल वाणी ने वीणा ली (प्रसाद), बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ (महादेवी), स्वर्ण भृंग तारावलि वेष्ठित / गुंजित पुंजित तरल रसाल (पंत) से प्रेरित समकालीन और पश्चात्वर्ती रचनाकारों की रचनाओं में यह सर्वत्र देखा जा सकता है.
छायावादोत्तर काल में गोपालदास सक्सेना 'नीरज', सोम ठाकुर, भारत भूषण, कुंवर बेचैन आदि के गीतों और मुक्तिकाओं (गज़लों) में प्रेम के दोनों रूपों की सरस सांगीतिक प्रस्तुति की परंपरा अब भी जीवित है.
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doha salila: samyik dohe -salil


सामयिक दोहे
संजीव
*
इनके पंजे में कमल, उनका भगवा हाथ
आम आदमी देखकर, नत दोनों का माथ
*
'राज्य बनाया है' कहो या 'तोडा है राज्य'
तोड़ रही है सियासत, कैसे हों अविभाज्य?
*
भाग्य विधाता आम है, शोषण करता ख़ास
जो खासों का साथ दे, उसको मानो दास
*
साथ आम का दो सलिल, उस पर कर विश्वास
साथ  ख़ास के जो रहा, वह भोगे संत्रास 
*
ख़ास हुआ है वह 'सलिल', जिसे न  भाये आम 
बेच रहा ईमान निज, जो निश-दिन ले दाम 
*
एक द्विपदी:
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
*
 

chhand salila: chandika chhand -sanjiv

छंद सलिला:
चंडिका छंद
संजीव
*
दो पदी, चार चरणीय, १३ मात्राओं के मात्रिक चंडिका छंद में चरणान्त में गुरु-लघु-गुरु का विधान है.
 

लक्षण छंद:
१. तेरह मात्री चंडिका, वसु-गति सम जगवन्दिता 
   गुरु लघु गुरु चरणान्त हो, श्वास-श्वास हो नंदिता 

२. वसु-गति आठ व पाँच हो, रगण चरण के अंत में 
   रखें चंडिका छंद में, ज्ञान रहे ज्यों संत में 

उदाहरण:

१. त्रयोदशी! हर आपदा, देती राहत संपदा
   श्रम करिये बिन धैर्य खो, नव आशा की फस्ल बो 

२. जगवाणी है भारती,
विश्व उतारे आरती
   ज्ञान-दान जो भी करे, शारद भव से तारती

३. नेह नर्मदा में नहा, राग द्वेष दुःख दें बहा 
   विनत नमन कर मात को, तम तज वरो उजास को 

४. तीन न तेरह में रहे,
जो मिथ्या चुगली कहे
   मौन भाव सुख-दुःख सहे, कमल पुष्प सम हँस बहे

(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
*********

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

chhand salila: pradosh chhand -sanjiv

छंद सलिला:
प्रदोष छंद
संजीव
*
दो पदी, चार चरणीय, १२ मात्राओं के मात्रिक प्रदोष छंद में दो चतुष्कल एक पंचकल होते हैं तथा चरणान्त में गुरु-लघु (तगण, जगण) वर्जित हैं.
उदाहरण:
१. प्रदोष व्रत दे शांति सुख, उमेश हर लें भ्रान्ति-दुःख
त्रिदोष मेंटें गजानन, वर दें दुर्गे-षडानन
२. भारत भू है पुरातन, धरती है यह सनातन
जां से प्यारा है वतन, चिन्तन-दर्शन चिरंतन
३. झण्डा ऊंचा तिरंगा, नभ को छूता तिरंगा 

 अपना सपना तिरंगा, जनगण वरना तिरंगा 
 *
१. लक्षण संकेत: उमेश = १२ ज्योतिर्लिंग = १२ मात्रायें
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
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charcha: prem geet -salil

चर्चा:
प्रेम गीत
सलिल 
*
स्थापना और प्रतिस्थापना के मध्य संघात, संघर्ष, स्वीकार्यता, सहकार और सृजन सृष्टि विकास का मूल है। विज्ञान बिग बैंग थ्योरी से उत्पन्न ध्वनि तरंग जनित ऊर्जा और पदार्थ की सापेक्षिक विविधता का अध्ययन करता है तो दर्शन और साहित्य अनाहद नाद की तरंगों से उपजे अग्नि और सोम के चांचल्य को जीवन-मृत्यु का कारक कहता है। प्राणमय सृष्टि की गतिशीलता ही जीवन का लक्षण है। यह गतिशीलता वेदना, करुणा, सौन्दर्यानुभूति, हर्ष और श्रृंगार के पञ्चतात्विक वृत्तीय सोपानों पर जीवनयात्रा को मूर्तित करती है। 
 
'जीवन अनुभूतियों की संसृति है। मानव का अपने परिवेश से संपर्क किसी न किसी सुखात्मक या दुखात्मक अनुभूति को जन्म देता है और इन संवेदनों पर बुद्धि की क्रिया-प्रतिक्रिया मूल्यात्मक चिंतन के संस्कार बनती चलती है। विकास की दृष्टि से संवेदन चिंतन के अग्रज रहे हैं क्योंकि बुद्धि की क्रियाशीलता से पहले ही मनुष्य की रागात्मक वृत्ति सक्रिय हो जाती है।'-महादेवी वर्मा, संधिनी, पृष्ठ ११

इस रागात्मक वृत्ति की प्रतीति, अनुभूति और अभिव्यक्ति की प्रेम गीतों का उत्स है। गीत में भावना, कल्पना और सांगीतिकता की त्रिवेणी का प्रवाह स्वयमेव होता है। गीतात्मकता जल प्रवाह, समीरण और चहचहाहट में भी विद्यमान है। मानव समाज की सार्वजनीन और सरकालिक अनुभूतियों को कारलायल ने 'म्यूजिकल थॉट' कहा है. अनुभूतियों के अभिव्यमति कि मौखिक परंपरा से नि:सृत लोक गीत और वैदिक छान्दस पाठ कहने-सुनने की प्रक्रिया से कंठ से कंठ तक गतिमान और प्राणवंत होता रहा। आदिम मनुष्य के कंठ से नि:सृत नाद ब्रम्ह व्यष्टि और समष्टि के मध्य प्रवाहमान होकर लोकगीत और गीत परंपरा का जनक बना। इस जीवन संगीत के बिना संसार असार, लयहीन और बेतुक प्रतीत होने लगता है। अतः जीवन में तुक, लय और सार का संधान ही गीत रचना है। काव्य और गद्य में क्रमशः क्यों, कब, कैसे की चिंतनप्रधानता है जबकि गीत में अनुभूति और भावना की रागात्मकता मुख्य है। गीत को अगीत, प्रगीत, नवगीत कुछ भी क्यों न कहें या गीत की मृत्यु की घोषणा ही क्यों न कर दें गीत राग के कारण मरता नहीं, विरह और शोक में भी जी जाता है। इस राग के बिना तो विराग भी सम्भव नहीं होता।

आम भाषा में राग को प्रेम कहा जाता है और राग-प्रधान गीतों को प्रेम गीत। 
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शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

savaiya geet: vindhyeshwari prasad tripathi 'vinay'

(सवैया गीत)
दुख और जीवन
विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी 'विनय'
*

इस जीवन में दुख ही दुख है, गृह त्याग चलें वन गौतम नाई।
फिर भी संग छूट नहीं दुख से, घर बैठ सुता सुत नारि रोवाई॥
मन सूख रहा जग आतप से, अब नैन वरीष गये हरियाई।
बहु भांति विचार किया हमने, पथ कंटक झेल रहो जग भाई॥

यदि तृप्त नहीं मन तो भटके, जब तोष हुआ दुख तो मिटता है।
पर तृप्त करें किस भांति इसे, यह तो बिन बात के भी हठता है॥
हठवान बड़ा मन मान नहीं, भगवान कहो तुम ही समझाई।
पद पंकज में जब ध्यान लगे, तब छोड़ रहा मन है हठताई॥

मन की हठता सुन है तब ही, जब ही इसको तुम ढील दियो है।
कहता मन लोलुप जो तुम से, उसके सुर में सुर आप दियो है॥
निज आत्म सुनो सच वो कहता, 'वह ईश्वर अंश' कहे बुध भाई।
अनमोल बड़ा यह जीवन है, इसको नर वीर न व्यर्थ गवाई॥

गह सार रहें जग में डट के, दुख झंझट से अब दूर भगें ना।
जग में जब ईश्वर जन्म दिये, तब ईश दिये कुछ कार्य करें ना॥
बिन कर्म किये घर ईश गये, उनको यह सूरत क्यों दिखलाई?
डर रंच नहीं इस जीवन से, जग में रह कर्म करो कुछ भाई॥

chhand salila: nit chhand -sanjiv

​​छंद सलिला:
नित छंद
 
संजीव  
*
दो पदी, चार चरणीय, १२ मात्राओं के मात्रिक नित छंद में चरणान्त में रगण, सगण या नगण होते हैं.
उदाहरण:
१. नित जहाँ होगा नमन, सत
वहाँ होगा रसन
   राशियाँ ले गंग जल, कर रहीं हँस आचमन 
२. जां लुटाते देश पर, जो वही होते अमर 
   तिरंगा जब लहरता, गीत गाता आसमां 
३. नित गगन में रातभर, खेलते तारे नखत
    निशा सँग शशि नाचता, देखकर नभ विहँसता
                                                        *
१. लक्षण संकेत: नित = छंद का नाम, रसन = चरणान्त में रगण, सगण या नगण, राशियाँ = १२ मात्रायें
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि,
​जाया, ​
तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
                                             *********

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

doha salila: valentine -sanjiv

दोहा सलिला:
वैलेंटाइन 
संजीव
*
उषा न संध्या-वंदना, करें खाप-चौपाल
मौसम का विक्षेप ही, बजा रहा करताल
*
लेन-देन ही प्रेम का मानक मानें आप
किसको कितना प्रेम है?, रहे गिफ्ट से नाप
*
बेलन टाइम आगया, हेलमेट धर शीश
घर में घुसिए मित्रवर, रहें सहायक ईश
*
पर्व स्वदेशी बिसरकर, मना विदेशी पर्व
नकद संस्कृति त्याग दी, है उधार पर गर्व
*
उषा गुलाबी गाल पर, लेकर आई गुलाब
प्रेमी सूरज कह रहा, प्रोमिस कर तत्काल
*
धूप गिफ्ट दे धरा को, दिनकर करे प्रपोज  
देख रहा नभ मन रहा, वैलेंटाइन रोज
*
रवि-शशि से उपहार ले, संध्या दोनों हाथ
मिले गगन से चाहती, बादल का भी साथ
*
चंदा रजनी-चाँदनी, को भेजे पैगाम
मैंने दिल कर दिया है, दिलवर तेरे नाम
*
पुरवैया-पछुआ कहें, चखो प्रेम का डोज
मौसम करवट बदलता, जब-जब करे प्रपोज
*

hasya salila: valentine -sanjiv

हास्य सलिला:
वैलेंटाइन पर्व:
संजीव
*
भेंट पुष्प टॉफी वादा आलिंगन भालू फिर प्रस्ताव
लला-लली को हुआ पालना घर से 'प्रेम करें' शुभ चाव
कोई बाँह में, कोई चाह में और राह में कोई और
वे लें टाई न, ये लें फ्राईम, सुबह-शाम बदलें का दौर *

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

chhand salila: siddhi chhand -sanjiv

​​छंद सलिला:
सिद्धि छंद
 
संजीव  
*
       दो पदी, चार चरणीय, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं के मात्रिक सिद्धि छंद में प्रथम चरण इन्द्रवज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु) तथा द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ चरण उपेन्द्रवज्रा (जगण तगण जगण २ गुरु) छंद के होते हैं.
उदाहरण:
१. आना, न जाना मन में समाना, बना बहाना नज़रें मिलाना
   सुना तराना नज़दीक आना, बना बहाना नयना चुराना 

२. ऊषा लजाये खुद को भुलाये, उठा करों में रवि चूम भागा                               हुए गुलाबी कह गाल क्यों हैं?, करे ठिठोली रतनार मेघा 

३. आकाशचारी उड़ता अकेला, भरे उड़ानें नभ में हमेशा
    न पिंजरे में रहना सुहाता, हरा चना भी उसको न भाता
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, जाया, ​ तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
*********

hasya salila: lala gulab -sanjiv

हास्य सलिला:
लाल गुलाब
संजीव
*
लालू घर में घुसे जब लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊंगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
चलो रसोई सम्हालो, मैं जाऊं बाज़ार
चलकर पहले पोंछ दो मैली मेरी चार.'
****

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

kruti charcha: bol meri zindagi -sanjiv

कृति चर्चा:
बोल मेरी ज़िंदगी: हिंदी ग़ज़ल का उजला रूप 
चर्चाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
               (कृति विवरण: बोल मेरी ज़िंदगी, हिंदी गज़ल संग्रह, चंद्रसेन 'विराट', आकर डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, पृष्ठ १८४, मूल्य ३००रु, समान्तर पब्लिकेशन तराना, उज्जैन)
*
               हिंदी गीतिकाव्य की मुक्तिका परंपरा के शिखर हस्ताक्षरों में प्रमुख, हिंदी की भाषिक शुद्धता के सजग पहरुए, छांदस काव्य के ध्वजवाहक चंद्रसेन विराट का नया हिंदी गज़ल संग्रह 'बोल मेरी ज़िंदगी' हिंदी ग़ज़ल का उज्जवल रूप प्रस्तुत करता है. संग्रह का शीर्षक ही ग़ज़लकार के सृजन-प्रवाह की लहरियों के नर्तन में परिवर्तन का संकेत करता है. पूर्व के ११ हिंदी गज़ल संग्रहों से भिन्न इस संग्रह में भाषिक शुद्धता के प्रति आग्रह में किंचित कमी और भाषिक औदार्य के साथ उर्दू के शब्दों के प्रति पूर्वपेक्षा अधिक सहृदयता परिलक्षित होती है. सम्भवतः सतत परिवर्तित होते परिवेश, नयी पीढ़ी की भाषिक संवेदनाएँ और आवश्यकताएँ तथा समीक्षकीय मतों ने विराट जी को अधिक भाषिक औदार्य की ओर उन्मुख किया है.

               गीतिका,  उदयिका, प्रारम्भिका, अंतिका, पदांत, तुकांत जैसी सारगर्भित शब्दावली के प्रति आग्रही रही कलम का यह परिवर्तन नये पाठक को भले ही अनुभव न हो किन्तु विराट जी के सम्पूर्ण साहित्य से लगातार परिचित होते रहे पाठक की दृष्टि से नहीं चूकता। पूर्व संग्रहों निर्वासन चाँदनी में रूप-सौंदर्य, आस्था के अमलतास में विषयगत व्यापकता, कचनार की टहनी में अलंकारिक प्रणयाभिव्यक्ति, धार के विपरीत में वैषम्य विरोध, परिवर्तन की आहट में सामयिक चेतना, लड़ाई लम्बी है में मानसिक परिष्कार का आव्हान, न्याय कर मेरे समय में व्यंग्यात्मकता, इस सदी का आदमी  में आधुनिकताजन्य विसंगतियों पर चिंता, हमने कठिन समय देखा है में विद्रूपताओं की श्लेषात्मक अभिव्यञ्जना, खुले तीसरी आँख में उज्जवल भविष्य के प्रति आस्था के स्वरों के बाद 'बोल मेरी ज़िंदगी' में आम आदमी की सामर्थ्य पर विश्वास की अभिव्यक्ति का स्वर मुखर हुआ है. विराट जी का प्रबुद्ध और परिपक्व गज़लकार सांस्कारिक प्रतिबद्धता, वैश्विक चेतना, मानवीय गरिमा, राष्ट्रीय सामाजिकता और स्थानीय आक्रोश को तटस्थ दृष्टि से देख-परख कर सत्य की प्रतीति करता-कराता है. 

               विश्व भाषा हिंदी के समृद्धतम छंद भंडार की सुरभि, संस्कार, परंपरा, लोक ग्राह्यता और शालीनता के मानकों के अनुरूप रचित श्रेष्ठ रचनाओं को प्रयासपूर्वक खारिज़ करने की पूर्वाग्रहग्रसित आलोचकीय मनोवृत्ति की अनदेखी कर बह्र-पिंगल के छन्दानुशासन को समान महत्त्व देते हुए अंगीकार कर कथ्य को लोकग्राह्य और प्रभावी बनाकर प्रस्तुत कर विराट जी ने अपनी बात अपने ही अंदाज़ में कही है;

'कैसी हो ये सवाल ज़रा बाद में हल हो 
पहली यह शर्त है कि गज़ल है तो गज़ल हो 
भाषा में लक्षणा हो कि संकेत भरे हों 
हो गूढ़ अर्थवान मगर फिर भी सरल हो'

               अरबी-फ़ारसी के अप्रचलित और अनावश्यक शब्दों का प्रयोग किये बिना छोटी, मझोली और बड़ी बहरों की ग़ज़लों में शिद्दत और संजीदगी के साथ समर्पण का अद्भुत मिश्रण हुआ है इस संग्रह में. विराट जी आलोचकीय दृष्टि की परवाह न कर अपने मानक आप बनाते हैं-

तृप्त हो जाए सुधीजन यह बहुत / फिर समीक्षक से विवेचन हो न हो 
जी सकूँ मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो 
               ग़ालिब ने अपने अंदाज़े बयां को 'और' अर्थात अनूठा बताया था, विराट जी की 'कहन' अपनी मिसाल आप है :

देह की दूज तो मन गयी / प्रेम की पंचमी रह गयी 
*
मूढ़ है मौज में आज भी / और ज्ञानी परेशान है 
*
मादा सिर्फ न माँ भी तू / नत होकर औरत से कह
*
लूँ न जमीं के बदले में / यह जुमला जन्नत से कह 
*
आते कल के महामहिम बच्चे / उनको उठकर गुलाब दो पहले 
*
गुम्बद का जो मखौल उड़ाती रही सदा / मीनार जलजले में वो अबके ढही तो है 
*
               विराट जी मूलतः गीतकार हैं. उनका गीतकार मुक्तिकाकार का विरोधी नहीं पूरक है. वे गज़ल में भी गीत की दुहाई न सिर्फ देते है बल्कि पूरी दमदारी से देते हैं:

गीत की सर्जना / ज्यों प्रसव-वेदना 
*
जी सकूँ मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो 
*
क्षमा हरगिज़ न माँगूँगा / ये गर्दन गंग कवि की है 
*
मैं कवि ब्रम्ह रचना में रत हूँ हे देवों!
*
उनका दावा था रचना मौलिक है / वह मेरे गीत की नकल निकली 
*
तू रख मेरे गीत नकद / यश की आय मुझे दे दे 
*
मुक्त कविता के घर में गीतों का / छोड़कर क्यों शिविर गया कोई?
*
हम भावों को गीत बनाने / शब्दों छंदों लय तक पहुँचे 
*
ह्रदय तो गीत से भरता / उदर भरता न पर जिससे 
*
मेरे गीत! कुशलता से / मर्मव्यथा मार्दव से कह 
*
गीत! इस मरुस्थल में तू कहाँ चला आया
*
बेच हमने भी दिये गीत नहीं रोयेंगे / पेट भर खायेंगे हम आज बहुत सोयेंगे 
*

               विराट जी हिंदी के वार्णिक-मात्रिक छंदों की नींव पर हिंदी ग़ज़ल के कथ्य की इमारत खड़ी कर उर्दू के बहरो-अमल से उसकी साज-सज्जा  करते हैं. हिंदी ग़ज़लों की इस केसरिया स्वादिष्ट खीर में बराए नाम कुछ कंकर भी हैं जो चाँद में दाग की तरह हैं:
ये मीठी हँसी की अधर की मिठाई / हमें कुछ चखाओ गज़ल कह रहा हूँ 
               यहाँ प्रेमी अपनी प्रेमिका से अधरों की मधुरता चखने का निवेदन कर रहा है. कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से अनेकों को अधर-रस-पान कराने का अनुरोध नहीं कर सकता। अतः, कर्ता एकवचन 'हैम' के स्थान पर 'मैं' होगा। यहाँ वचन दोष है. 

दिल को चट्टान मान बैठे थे / किस कदर अश्रु से सजल निकली 

               यहाँ 'चट्टान' पुल्लिंग तथा 'निकली' स्त्रीलिंग होने से लिंग दोष है. 
पत्नी को क्यों लगाया युधिष्ठिर बताइये / क्यों दाँव पर स्वयं को लगाया नहीं गया?
               महाभारत में वर्णित अनुसार युधिष्ठिर पहले राज्य फिर भाइयों को, फिर स्वयं को तथा अंत में द्रौपदी को हारे थे. अतः, यहाँ तथ्य दोष है. 

               'मौन क्यों रहती है तू' शीर्षक ग़ज़ल में 'रहती है तू, कहती है तू, महती है तू, दहती है तू, ढहती है तू, बहती है तू तथा सहती है तू' के साथ 'वरती है तू' का प्रयोग खटकता है. 

               'वचनों से फिर गया कोई' शीर्षक गज़ल की अंतिम द्विपदी 'यह तो मौसम था उसके खिलने का / हाय, इसमें ही खिर गया कोई' में प्रयुक्त 'खिर' शब्द हिंदी-उर्दू शब्द कोष में नहीं मिला। यहाँ 'ही' को 'हि' की तरह पढ़ना पड़ रहा है जो हिंदी  ग़ज़ल में दोष कहा जायेगा। यदि 'हाय, इसमें बिखर गया कोई' कर दिया जाए तो लय और अर्थ दोनों सध जाते हैं. 
               विराट जी की रचनाओं में पौराणिक मिथकों और दृष्टान्तों का पिरोया जाना स्वाभाविक और सहज है. इस संग्रह का वैशिष्ट्य गीता-महाभारत-कृष्ण सम्बन्धी प्रसंगों का अनेक स्थलों पर विविध सन्दर्भों में मुखर होना है. यथा: हो चुका अन्याय तब भी जातियों के नाम पर / मान्य अर्जुन को किया पर कर्ण ठुकराया गया, बढ़ोगे तुम भी लक्ष्य वो चिड़िया की आँख का / अर्जुन की भाँति खुद को निष्णात तो करो,  उठा दे दखल ज़िंदगी / यक्ष के ताल से चुन कमल ज़िंदगी, प्राप्त माखन नहीं / छाछ को क्यों मथा, सब कोष तो खुले हैं कुबेरों के वास्ते / लेकिन किसी सुदामा को अवसर तो नहीं है, फेन काढ़ता है दंश को उसका अहम् सदा / तक्षक का खानदान है / है तो हुआ करे, समर में कृष्ण ने जो भी युधिष्ठिर से कहलवाया / 'नरो वा कुंजरो वा' में सचाई है- नहीं भी है, हम अपनी डाल पर हैं सुरक्षित तो न चिंता / उन पर बहेलिये का है संधान हमें क्या? मोर का पंख / यश है मुकुट का बना, तुम बिना कृष्ण के अर्जुन हो उठो भीलों से / गोपियाँ उनकी बचा लो कि यही अवसर है, भीष्म से पार्थ बचे और न टूटे प्रण भी / कृष्ण! रथ-चाक उठा लो कि यही अवसर है, भोले से एकलव्य से अंगुष्ठ माँगकर / अर्जुन था द्रोण-शिष्य विरल कर दिया गया, एक सपना तो अर्जुन बने / द्रोण सी शिक्षा-दीक्षा करें आदि. उल्लेखनीय है कि एक ही प्रसंग को दो स्थानों पर दो भिन्नार्थों में प्रयोग किया गया है. यह गज़लकार की असाधारण क्षमता का परिचायक है. 

               सारतः, अनुप्रास, उपमा और दृष्टान्त  विराट जी को सर्वाधिक प्रिय अलंकार हैं जिनका प्रयोग प्रचुरता से हुआ है. विराट जी की शब्द सामर्थ्य स्पृहणीय है. हिंदी शब्दों के साथ संस्कृत, उर्दू तथा देशज शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है जबकि अंगरेजी शब्द (सेंसेक्स, डॉक्टर आदि) अपरिहार्य होने पर अपवाद रूप ही हैं. संग्रह में प्रयुक्त भाषा प्रसाद गुण संपन्न है. व्यंग्यात्मक, अलंकारिक तथा उद्बोधनात्मक शैली में विराट जी पाठक के मन को बाँध पाये हैं. सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों की कसौटी पर चतुर्दिक घट रही राजनैतिक घटनाओं और सामाजिक परिवर्त्तनों के प्रति सजग कवि की सतर्क प्रतिक्रिया गज़लों को पठनीय ही नहीं ग्रहणीय भी बनाती हैं. सामयिक संकलनों की भीड़ में विराट जी का यह संग्रह अपनी परिपक्व चिंतनपूर्ण ग़ज़लों के कारण पाठकों को न केवल भायेगा अपितु बार-बार उद्धृत भी किया जायेगा।
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संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
वार्ता: ०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४ 
salil.sanjiv@gmail.com , divya narmada



geet: fahra naheen tiranga -sanjiv

गीत:
फहरा नहीं तिरंगा...
संजीव
*
झुका न शासन-नेत्र शर्म से सुन लें हिंदुस्तान में
फहरा नहीं तिरंगा सोची खेलों के मैदान में...
*
आज़ादी के संघर्षों में जन-गण का हथियार था
शीश चढ़ाने हेतु समुत्सुक लोगों का प्रतिकार था
आज़ादी के बाद तिरंगा आम जनों से दूर हुआ
शासन न्याय प्रशासन गूंगा अँधा बहरा  क्रूर हुआ
झंडा एक्ट बनाकर झंडा ही जनगण से दूर किया
बुझा न पाये लेकिन चाहा बुझे तिरंगा-प्रेम-दिया
नेता-अफसर स्वार्थ साधते खेलों के शमशान में...
*
कमर तोड़ते कर आरोपित कर न घटाते खर्च हैं
अफसर-नेताशाही-भर्रा लोकतंत्र का मर्ज़ हैं
भत्ता नहीं खिलाड़ी खातिर, अफसर करता मौज है
खेल संघ या परम भ्रष्ट नेता-अफसर की फ़ौज है
नूरा कुश्ती मैच करा जनता को ठगते रहे सभी
हुए जाँच में चोर सिद्ध पर शर्म न आयी इन्हें कभी
बिका-बिछा है पत्रकार भी भ्रष्टों के सम्मान में...
*
ससुर पुत्र दामाद पुत्रवधु बेटी पीछे कोई नहीं
खेले नहीं कभी खेलों के आज मसीहा बने वही
लगन परिश्रम त्याग समर्पण तकनीकों की पूछ नहीं
मौज मजा मस्ती अधनंगापन की बिक्री खूब हुई
मुन्नी-शीला बेच जवानी गंदी बात करें खो होश
संत पादरी मुल्ला ग्रंथी बहे भोग में किसका दोष?
खुद के दोष भुला कर ढूँढें दोष 'सलिल' भगवान में...
*

facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

chhand salila: riddhi chhand -sanjiv


​​छंद सलिला:
ऋद्धि छंद
संजीव
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि,
​जाया, ​
तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)

*
दो पदी, चार चरणीय, ४४ वर्ण, ६९ मात्राओं के मात्रिक ऋद्धि छंद में प्रथम- तृतीय-चतुर्थ चरण उपेन्द्र वज्रा छंद के
तथा द्वितीय चरण इंद्र वज्रा छंद के होते हैं.
उदाहरण:
१. करो न बातें कुछ काम भी हो, यों ही नहीं नाम मिला किसी को
   चलो करें काम न सिर्फ बातें, बढ़ो न भूलो निज लक्ष्य साथी
२. चुनाव कैसे करेगी जनता, गुंडे मवाली ही हों खड़े तो?
   न दो किसी को मत आप भाई, भगा उन्हें दो दर से- न रोको
३. बना खिलोने खुश हो विधाता, देखे करे क्या कब कौन कैसा?
    उठो लिखेंगे खुद किस्मतें भी, पुजे हमारा श्रम देवता सा
*********
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शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

chhand salila: jaya chhand -sanjiv

​​छंद सलिला:
जाया छंद
संजीव
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि,
​जाया, ​
तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)

*
दो पदी, चार चरणीय, ४ वर्ण, ६९ मात्राओं के मात्रिक जाया छंद में प्रथम- द्वितीय-तृतीय चरण उपेन्द्र वज्रा छंद के
तथा चतुर्थ चरण इंद्र वज्रा छंद के होते हैं.
उदाहरण:
१. अनाम नाता न निभा सकोगी, प्रणाम माता न डिगा सकोगी
   दिया सहारा जिसने मुझे था, बोलो उसे भी अपना सकोगी?
२. कभी न कोई उपकार भूले, कहीं न कोई प्रतिकार यूँ ले
   नदी तरंगोंवत झूल झूले, तौलो न बोलो कडुआ कभी भी
३. हमें लुभातीं छवियाँ तुम्हारी, प्रिये! न जाओ नज़दीक आओ
    यही तुम्हारी मनकामना है, जानूं! हमीं से सच ना छिपाओ
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शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

ram-ravan yuddha -sanjiv

 
^ उस युद्धभूमि की पहचान कर ली गई जहां श्रीराम जी और रावण के बीच निर्णायक युद्ध किया गया था

अब तक हुए अनुसंधान में भगवान हनुमान का श्रीलंका में उत्तर दिशा में एंट्री प्वांइट नागद्वीप से शुरू होने के निशान मिले हैं। यहीं नहीं अनुसंधान के दौरान उस स्थान की भी तलाश पूरी कर ली गई है जिस स्थान पर राम व रावण के बीच भीषण व निर्णायक जंग हुई थी।

श्रीलंका में आज भी उस युद्धस्थान को युद्धागनावा नाम से जाना जाता है जहां पर रावण का भगवान राम ने वध किया था। इसी स्थान पर दक्षिणा दिशा में दोनारा वह स्थल हैं जहां से प्रभु श्रीराम की सेना ने रावण की सेना पर पहला हमला बोला था। अब यहां पर वन्य जीव सेंचुरी है जहां पर घास के अलावा कोई भी उपज नहीं होती। लंकेश रावण के घर लंका में से जो कुछ खंगाला जा रहा है, वह दुनिया भर में मील का पत्थर साबित हो रहा है। यही नहीं, हिन्दुस्थान में जहां दीपावली पर राम के वापस अयोध्या लौटने पर दीए जलाए जाते हैं, वहीं श्रीलंका में आज भी रावण की मौत के बाद विभीषण के राज्याभिषेक पर दीवाली मनाई जाती है।

श्रीलंका की संसद में विभीषण को लंका के चार भगवानों में से एक के तौर पर मान्यता दी गई है। यहां लोग दीपावली पर दीए तो जलाते ही हैं, आतिशबाजी भी होती है। यह विभीषण के राज्यभिषेक की खुशी में होता है। श्रीलंका में कैलेनिया कस्बे में स्थित बुद्ध मंदिर में यहां विभीषण का मंदिर भी बनाया गया है। इसके मुख्य द्वार पर लक्ष्मणजी द्वारा विभीषण का राजतिलक करते हुए दिखाया गया है। श्रीलंका में रामायण से जुड़ी घटनाओं और इससे जुड़े धार्मिक स्थलों को खोज-खोज कर इन्हें रामायणरूपी एक माला में पिरोया गया है।

श्रीलंका रामायण रिसर्च कमेटी द्वारा पिछले पाँच साल में सेंट्रल व पश्चिमी श्रीलंका के भागों में लगभग 50 रामायण साइट्स की खोज के बाद उन्हें श्रीराम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण और मेघनाद के साथ जोड़ा गया है। हाल ही में अशोक वाटिका के समीप भगवान हनुमान के विराट रूप के पांवों के निशान भी मिले हैं। यह विराट रूप हनुमानजी ने अशोक वाटिका में उस समय धारण किया था, जब वह माता सीता को भगवान राम की सूचना देने पहुंचे थे। हनुमान जी के छोटे रूप के पांवों के निशान भी यहां खोजे गए हैं। युद्ध स्थल पर जाने से पहले जब श्रीराम ने हनुमानजी को सीता का पता लगाने भेजा तो रास्ते में कुछ दिन हनुमानजी पहाड़ियों में रुके थे। इन पहाड़ियों को रामबोड़ा का नाम दिया गया है। यहां पर अब हनुमानजी का लंका में सबसे पुराना मंदिर है।

श्रीलंका में रावण ने जिस स्थान पर माता सीता को रखा था, उस अशोक वाटिका की तलाश पूरी हो चुकी है। इसे अब सीता टियर पोंड के नाम से जाना जाता है। सीता टियर पोंड आज भी लंका में लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। इस टियर पोंड से पहले एक बड़ी-सी झील आती है, जहां कुछ देर रुक कर पर्यटक बोटिंग का लुप्फ लेते हैं।
सीता टियर पोंड के बारे में कहा गया है कि गर्मी के दिनों में जब आसपास के कई तालाब सूख जाते हैं तो भी यह कभी नहीं सूखता। आस-पास का पानी तो मीठा है, लेकिन इसका पानी आंसुओं जैसा खारा है। कहते हैं कि रावण जब सीता माता को हरण करके ले जा रहा था तो इसमें सीताजी के आंसू गिरे थे।

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hasya salila: deewana -sanjiv


हास्य सलिला:
दीवाना 
संजीव
*
लालू ने सीटी फूँकी ज्यों लाली पडी दिखाई
'रे कालू! चेहरे पर काहे दिखती नहीं लुनाई
जीरो फिगर, हाड़ से गायब मांस भुतनिया आई
नहीं फूल या कली शूल है, कैसे करूँ सगाई?
वैलेंटाइन डे पर ले जो फूल कमर झुक जाए
दूध भैंस का पिये तनिक तो कोई इसे समझाए'
"लाली गरजी: ओ रे कालू! भैंसे सा मत फूल
लट्ठ पड़ेगा बापू का तो, चाटेगा तू धूल
लिख-पढ़ ले, कुछ काम-काज कर, क्यों खाता है गाली
रोज रोज़ लाएगा तो भी हाथ न आये लाली"
कालू बोला: तुम दोनों की माया अजब निराली
चैन न पड़ता बिना मिले, क्यों मुझको देते गाली?
खाता कसम न अब से मुझको साथ तुम्हारे आना
बेगानी शादी में क्यों हो अब्दुल्ला दीवाना?
*


 

लड़की ने उत्तर दिया;
डालूंगी मैं तुझको घास कोन्या
आने दूंगी कभी भी पास कोन्या
कुड़ियों का पीछा छोड़ काम-काज कर
पुलिसवाला मेरा बाप हास कोन्या

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