niyati
कुछ
सत्य कथाएं अपर्याप्त शब्दों या श्रम-रहित अभिव्यक्ति के कारण केवल कल्पना
मात्र ही रह जाती हैं; तो कभी कल्पना की उड़ान इतनी ऊंचाइयों को छू लेती
है, की यदि शब्दों का चुनाव व लेखन-प्रवाह सही हो तो वो किसी सत्य-कथा से
कम नहीं लगती ।
इसे ज़रा देखें ; आपको क्या लगता है
...?
मेरे और अमिताभ के बीच ---
केवल छैह महीने की दोस्ती थी। लेकिन पीले लिफ़ाफ़े में रखे 7000/-
रुपयों की संदिग्ध कड़ी ने चालीस वर्ष तक हमें एक डोर से बंधे रखा। मैं आज
भी उसे केवल अमित ही बुलाता हूँ
देहली
यूनिवर्सिटी बैचलर डिग्री के अंतिम चरण में कैम्पस कैफेटेरिया के टेबल
पर
मैं अमित से पहली बार मिला था। दोपहर लगभग तीन बजे कॉफ़ी का आख़री घूँट
पी कर उसने प्याले में झाँका और उसे सरका कर टेबल के मेरी ओर वाले किनारे
पर टिका दिया, फिर लक्ष्य साधने के अंदाज़ में उसे तीखी नज़रों से घूरने
लगा। कुछ क्षण तसल्ली सी करने लेने के बाद उसने जेब से एक माचिस की डिब्बी
निकाली और उसे अपनी ओर वाले किनारे पर ठीक से जांच कर रखा। उसके ठीक
सामने मैं प्लेट में
पड़े गर्म सांबर में इडली डूबा कर खाने की तैयारी में था। फिर अंगूठे व
उंगली को झटक कर उसने माचिस को हवा में उछाला। मैने तुरंत ही एक हाथ से
अपनी सांबर की प्लेट को ढांप लिया। अमित का निशाना पक्का था। एक दो चार
पांच फिर लगातार एक के बाद एक वो माचिस उछलता रहा और हर बार माचिस
प्याले में ही गिरती रही। तीन वर्ष कॉलेज में व्यतीत करने के पश्चात इस
खेल से मैं अनभिज्ञ नहीं
था। कई बार छात्रों को यहीं पर ये खेल खेलते देखता था। कुछ स्टूडेंट तो
पैसा लगा कर भी खेलते थे। तीन-चार पारी के बाद उसके निशाने से अश्वस्त हो
कर मैने भी प्लेट के ऊपर से हाथ हटा दिया। मुझे इस खेल का पता तो अवश्य
था, लेकिन किसी छात्र के इतने अभ्यस्त होने का अंदाजा नहीं था।
लगाते हो क्या दस-बीस-पचास जो भी हो अमित ने अपनी भारी आवाज़ को थोड़ा और
भारी करते हुए कहा।
अब क्या लगाना नतीज़ा जब सामने ही
है तो जीतने का तो कोई चांस तो है नहीं मैने हँसते हुए टालने का
प्रयत्न किया।
अरे नहीं भई ऐसी क्या बात है। कोशिश तो कर ही सकते हो माचिस मेरे सामने सरकाते हुए उसने फिर खेलने को उकसाया।
सुनो दोस्त मैं देखने में सीधा साधा लग सकता हूँ, लेकिन बेवक़ूफ़ तो कतई नहीं हूँ
मैने उसे माचिस वापिस करते हुए साफ़ कहा।
बहुत खूब मेरा नाम अमिताभ है तुम मुझे अमित कह सकते हो सब कहते हैं
और बस वहीं से बातों का सिलसिला आरंभ हुआ। सबसे पहले आपसी
परिचय फिर पढ़ाई के बाद कर्रियर की बात; और फिर गर्ल-फ्रेंड्स अदि के
हल्के-फुल्के चर्चों से होता हुआ ये सिलसिला अपनी-अपनी घरेलू परिस्थितियों
और निजी समस्यों पर आकर
रूक गया।
जीवन में कुछ घटनाएं एसी घट जाती हैं कि
उन्हें उम्र के किसी ख़ास पड़ाव पर मित्रों से साझा करने का मन हो उठता है।
इस प्रक्रिया से एक तो मन हल्का हो जाता है दूसरे उस व्यक्ति-विशेष के
ऊंचे-नीचे हालातों की गणना करते हुए अपनी वर्तमान स्थिति पर संतोष होने
लगता है। भले ही वो ईर्षा का ही कोई अन्य रूप क्यों न हो। बात सन 1967-68
की चल रही है। आज
के मुकाबले तब सस्ता ज़माना था। वस्तुएं उपलब्ध थी, राजनैतिक घोटाले,
आपा'धापी भी इतने ज़ोरों पर नहीं थे। और ऐसे सहज समय में कॉलेज से निकले
इस नवयुवक को तुरंत ही 7000: रुपयों की दीर्घ-आवश्यकता ने झंझोड़ रखा था।
उस दौर के लिहाज़ से रक़म कम नहीं थी। माचिस के दांव से ले कर तीन-पत्ती,
कैरम बोर्ड, शतरंज; क्या-क्या नहीं किया उसने रुपये जमा करने के लिए।
तभी कुछ स्थानीय
सूत्रों से पता चला की अमित समाज के जाने-माने व संपन्न दम्पति का सुपुत्र
था। कुछ दिनों बाद एक दिन वो मुझे लाल रंग की स्टैण्डर्ड हैरल्ड (उन
दिनों की हाई-लैवल कार में दिखाई दिया। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था
एक-एक कॉफ़ी हो जाये; कैनॉट-प्लेस, इंडिया कैफे अमित ने पसेंजेर-डोर खोलते हुए गाड़ी में बैठने को कहा।
उस शाम मेरी कुछ ख़ास व्यस्तता नहीं थी, और फिर एक जिज्ञासा भी थी जिसका
निवारण करना था, सो बिना एक भी शब्द बोले मैं तुरंत ही साथ वाली सीट में
धंस गया। क्या रुपयों का प्रबंध हो गया था ये प्रश्न देर तक मैने
उसी के शब्द-सुरों के लिए छोड़े रखा।
"नहीं हुआ रुपयों का प्रबंध। अब तक नहीं हुआ; और मुझे ये रक़म जल्द ही चाहिए," उसने मेरी जिज्ञासा भांपते हुए
कहा।
तो फिर ये मेरा मतलब ये गाड़ी घर से कोई मदद नहीं
घर से ही तो नहीं चाहिए यार वो ही तो सबसे बड़ी प्रॉब्लम है उसने होंठ चबाते हुए मूंह में ही बड़बड़ाया ।
मैने मानो उसकी दुखती रग़ पर हाथ धर दिया था। तिलमिलाया सा
अमित खम्बे से टकराते-टकराते बचा। ख़ैर इंडिया कैफ़े पहुँच कर टेबल पर
कॉफ़ी आने से पहले ही
अमित ने मस्तिष्क में चल रही सारी राम कथा उगल दी।
देखो दोस्त बात सीधी और साफ़ करता हूँ। मुझे मुम्बई जा कर फिल्मों में
काम करना है बस। बहुत जुगाड़ के बाद एक फिल्म में चांस भी मिल रहा है।
जिसके लिए मुझे फोटो-सैशन सैट कर के पोर्टफोलियो तैयार करना होगा और फिर
मुम्बई की ओर रवानगी। मैं जानता हूँ कि ये चांस पक्का है निर्देशक से
मेरी बात हो चुकी
है। पोर्टफोलियो, रेल टिकट मुम्बई में महीने भर का खान-पान व रात
गुज़ारने को एक खोली। कुल मिला कर लगभग 7000/- रुपये होते हैं हिसाब लगा
चूका हूँ। तुमने घर की बात की थी ना; सो भैया, घर वाले तो मेरे इस फैसले
के सख्त खिलाफ हैं। कहते हैं अगर ये ही करना है तो अपने बल-बूते पर
करो
बिना एक भी विराम लिए अमित ने अपने दिल का हाल
शतरंज की बिसात सा वहीं टेबल पर
बिछा दिया। और तभी बैरे ने भी दो कप कॉफ़ी और पेस्ट्री का आर्डर साथ ही
ला कर रख दिया। कॉफ़ी के प्याले में चम्मच से शक्कर घुमाते हुए हम दोनों
कुछ मिनट समस्या का निवारण सोचते रहे। फिर कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ
बातों का( उधेड़-बुन का सिलसिला आगे बढ़ा और मैने न जाने क्या सोच कर
उसकी मदद करने का बीड़ा उठा लिया।
अच्छा सुनो.अपने घर का फ़ोन नंबर मुझे
दो मैं दो दिन में कुछ प्रबंध करके तुम्हें इत्तला करता हूँ
मैने उसको लगभग विश्वस्त ही कर दिया और फिर सोच में भी पड़ गया
की कहाँ से क्या प्रबंध करना होगा। कॉफ़ी हाउस से निकलने के पश्चात मुझे
घर छोड़ते वक़्त अमित ने शुक्रिया के साथ अपने घर का फ़ोन नंबर लिखवाया और
आगे सरक गया।
उन दिनों मैं अपने बड़े भैया व भाभी के
पास तीन कमरों
वाले डीडीए फ्लैट में रहता था। कॉलेज की पढाई के अंतर्गत ही माँ-बाबा
के स्वर्गवास के उपरान्त उन्हों ने मेरी डिग्री पूरी करवाने की ज़िम्मेदारी
ले ली थी। मेरा व बड़े भाई का उम्र का काफी बड़ा अंतर था। यानि वे घर के
सबसे बड़े और मैं सबसे छोटा। सो, भाभी का स्नेह सदा मुझ पर बरसता रहता
था। कहने की आवश्यकता नहीं की अपना कौल पूरा करने के लिये मुझे भाभी में
ही पहला और सबसे
उपयुक्त जरिया नज़र आया। इतना ही नहीं, बल्कि मेरा निशाना भी बिलकुल सही
बैठा। मदद के नाम पर बतौर उधार 7000:- रुपयों का बंदोबस्त दो-तीन दिन में
ही कर लिया गया। मेरे फ़ोन करने पर अमित की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और
उसने तुरंत ही मुझ से घर पर मिलने का समय तय कर लिया। बैंक के एक पीले
लिफ़ाफ़े में बंद रक़म को मैने ड्राईंग-रूम की मेज़ पर सजे गुलदस्ते के
नीचे सुरक्षित टिका
दिया।
उस शाम एक बहुत ही अजीब सी बात हुई। भाभी ने
मुझे चाय के साथ परोसने के लिए समोसे लेने बाहर भेज दिया। इत्तेफ़ाक़ से
अमित मेरे वापिस आने से पहले ही घर पर आ पहुंचा। भाभी के कहे अनुसार कुछ
देर प्रतीक्षा करने के उपरान्त वो उठ खडा हुआ था; और मैं फिर कभी आ
जाऊँगा कहते हुए बाहर की ओर प्रस्थान कर गया था। लेकिन तब तक मैं
दरवाज़े पर आ पहुँचा था,
अतः उसे बांह से पकड़ कर फिर से अन्दर ले आया। कुछ देर बाद चाय और समोसों
का दौर आरम्भ हुआ। तभी मैने भैया-भाभी से अमित का परिचय करवाया। इसी बीच
मैने देखा, गुलदस्ते के नीचे पीला लिफ़ाफ़ा नहीं था। मुझे लगा शायद मेरे
आने से पहले ही भाभी ने वो लिफ़ाफ़ा अमित को पकड़ा दिया होगा । सबके
सामने उसको शर्म महसूस न हो ये सोच कर मैने उससे पैसों का कोई ज़िक्र नहीं
किया। फिर भी
चाय के दौरान वो कुछ बेचैन सा लग रहा था किन्तु बड़े ही विचित्र ढंग से
वो अपनी विचलता को छिपाता रहा। मुझे याद है बाहर जाने से पहले वो एक बार
बाथ-रूम गया था और वापस आने पर काफी शांत दिखाई पड़ा। दरवाज़े से निकलते
वक़्त भी उसने पैसों का ज़िक्र नहीं छेड़ा सो मुझे यकीन हो गया कि
लिफ़ाफ़ा उसे मिल चुका है। उसके चले जाने के काफी बाद यानि रात के खाने पर
अच्छा लड़का है अमित। काफी भरोसे-मंद लगा मुझे सो चिंता की कोई बात नहीं भाभी ने भैया को आश्वासन दिया।
अच्छा ये तो बताओ भाभी जब आपने उसे पैसों का लिफ़ाफ़ा पकड़ाया तो वो क्या बोला मैने जिज्ञासा-वश भाभी से पूछा।
लिफ़ाफ़ा ?वो तो तुमने ही दिया होगा ना उसे। मैं भला क्यूं
दूंगी तुम्हारा दोस्त है भाभी ने तुरंत पल्ला झाड़ते हुए
कहा।
हाँ लड़का भले घर का है सो पैसा तो कहीं नहीं जाता। बस दो तीन महीने की बात है
मैने बात को तुरंत ही आई-गयी कर दिया वर्ना भैया-भाभी के बीच
उलझनों का जंजाल खड़ा हो जाता। बहरहाल सारी रात इसी सोच में बीती
कि आखिर पीला लिफ़ाफ़ा गायब कहाँ हुआ कहीं बिना बताये वो उसे चुप-चाप
उठा कर तो नहीं ले गया ताकि उसे ये उधार वापिस
ही ना करना पड़े एक ख़याल ये भी आया की हमारी दोस्ती सिर्फ छै महीने
की है इतने कम समय में उसे मेरी भावनाओं की क्या कद्र होगी कुछ भी कर
सकता है वो। फिर लगा, नहीं भरे-पूरे खानदान का लड़का है धोखा तो कभी
नहीं करेगा। वगैरह- वगैरह भिन्न-भिन्न प्रकार के ख्याल आते रहे और रात
यूं ही अध्-खुली आँखों में गुज़र गयी।
अगले दिन
सुबह-सुबह मेरे एक नेक
विचार ने मन को शांति प्रदान करने के बजाय मुझे और भी अधिक विचलित कर
दिया। वो नेक विचार था कि फ़ोन पर अमित से बात कर के पीले-लिफ़ाफ़े की बात
साफ़ कर लूं तो दिल को तसल्ली हो जाए। किन्तु फ़ोन पर घर के बावर्ची ने
ये शुभ समाचार सुनाया की अमित बबुआ तो सुबह पांच बजे की टिरेन से ही मुम्बई सटक लिए थे। समाचार आश्चर्यजनक तो था पर उतना भी नहीं;
क्यूं कि मुम्बई जाने की जितनी
छटपटाहट वो दिखाता रहा था उसके मुताबिक तो ये मुमकिन था ही। उसी क्षण
रक़म की वापसी की उम्मीद तज कर मैने ये सोचना आरंभ कर दिया कि तीन माह के
अन्दर भैया-भाभी को वापिस लौटाने के लिए 7000:- रुपये कैसे जुटाने होंगे।
लगभग दो महीने तक अमित की कोई खोज-खबर नहीं थी। फिर एक दिन
अचानक उसका पत्र मिला। संक्षिप्त सा ही था; केवल खैर खबर और काम की तलाश
जारी है का
सन्देश। उसके बाद, लगभग छै माह तक तो हफ्ते-दो-हफ्ते में एक-आध बार पत्र
आते रहे जिसमे वो अपनी विडंबनाओं का ज़िक्र लिखता रहा। फिर एक दिन लम्बा
सा, उल्लास से भरपूर पत्र मिला। एक फिल्म प्रोडक्शन कंपनी में उसे काम मिल
गया था। उसके एक-एक शब्द में खुशी के मोती से पिरोये हुए प्रतीत हो रहे
थे। ज्यूं-ज्यूं मैं पत्र को पंक्ति-दर-पंक्ति पढ़ता जा रहा था, मुझे एक
आस सी बंधने लगी
थी की अब आगे शायद पैसों का ज़िक्र लिखा होगा। किन्तु चार पन्नों का
लम्बा सा पत्र पढने पर भी मुझे दिए गए उन पैसों का ज़िक्र कहीं नज़र नहीं
आया। उसके बाद भी यदा-कदा वो अपनी तरक्की या नयी कंपनी के नए कोंट्रेक्ट
आदि के किस्से लिखता-बताता रहा; पर शायद पैसों के बारे में तो बिलकुल भूल
ही चुका था।
वक़्त के गुज़रते कुछ नयी बातें इधर मेरी
और भी हुईं। मुझे
फरीदाबाद की एक बड़ी फर्म में नौकरी मिल गयी। मैने एम बी ऐ की पढाई
जारी रखते हुए काम शुरू कर दिया और सबसे पहले भाई-भाभी का उधार चुकता करने
को पैसे जमा करने लगा। घर में भी काफी सुधार किया। जैसे की, एक फ़ोन
लगवा लिया और ज़माने की रफ़्तार के साथ कई अन्य प्रगतिशील उपकरणों का उपयोग
भी होने लगा। फिर एक लम्बे समय तक अमित की ओर से, मेरी ओर से भी एक
खामोशी सी उभर आयी। इसी बीच
मेरा विवाह हो गया, और एक सुविधा-जनक अवसर पा कर मैं अमरीका चला आया।
विवाह व अमरीका आने की खबर देने हेतु मैंने अमित को एक-दो पत्र लिखे और
वहीं से छूटा हुआ बात-चीत का सिलसिला फिर से जुड़ गया। अमरीका शिफ्ट हो
जाने के पश्चात मैं लगभग हर दूसरे-तीसरे वर्ष भारत का चक्कर लगता रहा पर
समयाभाव के चलते मुम्बई जाना न हो पाया; किन्तु अमित के साथ शब्द-संपर्क
स्थापित रहा। इसी दौरान
भैया-भाभी को भी मैने अमरीका बुलवा लिया और एक अच्छी सी नौकरी का प्रबंध
कर उन्हें यहीं सेट कर दिया।
लगभग
चालीस वर्षों तक अमित ने मेरे साथ फ़ोन या ई-मेल का सिलसिला जारी रखा।
सप्ताह-दो-सप्ताह, कुछ नही तो माह में एक बार तो उससे तकनीकी संपर्क होता
ही रहा था। वो बात अलग कि US आने के पश्चात मैं जितनी बार भारत गया,
दिल्ली तक ही सीमित
रहा । लेकिन इस लम्बे सफ़र के अंतरगत मुम्बई की ख़ाक छानने से लेकर
ऊँचाई-नीचाई से गिरते-सँभलते वो जाने कहाँ से कहाँ और कैसे पहुँचा; पर अपनी
स्थिति की संक्षिप्त जानकारी समय-समय पर देता रहा।
पिछले वर्ष
कुछ पुश्तैनी ज़मीनों के कानूनी मसले तय करने थे। दिल्ली में
वर्षों से छोड़े हुए फ्लैट की मरम्मत करवा कर उसे बेचना भी था; सो,
इस बार लंबा अवकाश भी लिया तथा कुछ पैसे भी खुले हाथ से रख लिये। मकान के
रेनोवेशन के लिए आधुनिक आवश्यक सामान खरीद कर पहले ही भारत भिजवा दिया गया
था। फिर एक शुभ महूरत में भारत प्रस्थान किया। भारत यात्रा के दौरान
परंपरा के मुताबिक़ पहला सप्ताह सम्बन्धियों से मिलने मिलाने में बीता,
लेकिन बहुत कारगर साबित हुआ क्यूं की इस मिलने मिलाने के बीच फ्लैट की
मरम्मत के लिए
कुछ अच्छे कारीगरों की व्यवस्था सहज हो गयी। अगले ही सप्ताह मरम्मत का
काम शुरू हो गया और तभी एक बहुत ही चौंका देने वाली बात सामने आयी।
बाथरूम में आधुनिक प्रसाधन जड़ने के लिए जब चार दशक पुराने
कमोड, और दीवार में धंसी चेन वाली फ्लश की टंकी को उखाड़ा गया, तब हे भगवान! ये पीला लिफाफा यहाँ--- अनायास ही मुहं से निकल पड़ा।
इतने वर्षों मौसमों के बदलते गर्मी-सर्दी में जाने कितनी बार ये
लिफाफा भीगा, सूखा और फिर भीगा और उसका रंग भी बदल कर अब ब्राउन सा हो गया
था। यहाँ तक कि छिपकलियों की कारगुज़र भी उस पर अंकित थी। कुछ भी हो
लेकिन उसमे रक़म पूरी ही निकली; पूरे सात हज़ार रुपये। ये भी इश्वर का एक
संकेत ही था कि मैं टंकी उखाड़ते वक़्त वहां मौजूद रहा वरना यदि ये
लिफ़ाफा मजदूरों के हाथ लग
गया होता तो अमित की इतनी बड़ी सच्चाई ज़िंदगी की धूल तले ढंकी ही रह
जाती। हालां कि इतने वर्षों तक पीले लिफ़ाफ़े का टंकी के पीछे पड़े रहने
का रहस्य जानना बाक़ी था किन्तु अमित को ले कर अब मेरे मन में कोई गिला
नहीं रहा बलिक उससे मिलने की चाह ने और ज़ोर पकड़ लिया और मैने अमित से
मिलने की ठान ली। लगभग एक सप्ताह के अन्दर ही फ्लैट की मरम्मत का बाकी बचा
हुआ काम भी निपट गया। मैने राहत की सांस ली और अगले ही दिन अमित से मिलने की चाहत लिए मुम्बई
की ओर रुख किया। मुझे देख कर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी; काम की व्यस्तता
के कारण क्या वो मुझे समय दे पायेगा वगैरा वगैरा कई प्रश्नों
में उलझते-निकलते दिल्ली से मुम्बई का सफ़र तय हो गया।
फ्लाईट से उतरने पर सबसे पहले मैंने पास के ही एक सामान्य से होटल
में एक कमरा बुक
कराया और फिर हाथ-मूंह धो कर थोड़ा फ्रैश हो गया। फिर कुछ देर पश्चात
अमित के पिछले महीनों में हुए पत्र-व्यवहार के आधार पर समय को भांपते हुए
मैं सीधा रणजीत स्टूडियो पहुंचा। दोपहर लगभग एक बजने को था। संभवतः लंच
का अवकाश ही था, इसीलिए स्टूडियो के बहुत से तकनीकी कर्मचारी फिल्म के सेट
पर ही इधर-उधर टिफ़िन खोले बैठे नज़र आ रहे थे। स्टील के पोल पर लटकी
बड़ी-बड़ी
काली बत्तियां आँखें मूँदे सुस्ता रही थी। स्टैण्ड पर अटका कैमरा भी
तारपोलिन का घूंघट ओढ़े आराम कर रहा था। बड़े कलाकारों का तो कहीं अत-पता
नहीं था। शायद उनका लंच किसी फाइव-स्टार होटल में तय हुआ होगा। चरों ओर
एक नज़र वहां मौजूद चेहरों पर डाली; लेकिन अमित से मिलता-जुलता कोई चेहरा
नज़र नहीं आया। इतने वर्षों में चेहरे में बदलाव भी तो आ जाता है। मैं भी
अमित को
किन लोगों में ढूँढ रहा था सोच कर खुद पर ही हंसी आ गयी।
भाई साहब क्या आप बता सकते हैं अमित जी कहाँ मिलेंगे मैने
कैमरे के पास ही कुर्सी पर सुस्ता रहे एक कर्मचारी से पूछा।
उन्हें कहाँ ढूँढ रहे हैं आप फिल्म-स्टूडियो में तो वो आज-कल कम ही
आते हैं उसने आँखें मलते हुए संक्षिप्त सा जवाब दिया।
लेकिन उन्होंने तो मुझे
इ-मेल में लिखा था कि रणजीत स्टूडियो में ही किसी फिल्म की शूटिंग में मैने फिर अपनी बात पर ज़ोर दिया।
अरे भाई टेलीविज़न-स्टेशन पर जाओ; आजकल वो वहीं पर ज़्यादा मिलते हैं उसने मेरी बात काटते हुए फिर अपनी बात रखी।
मैं स्टूडियो से बाहर आने को ही था कि मेन-गेट पर वाचमैन ने रोक लिया
"तुम अन्दर कैसे आया मैन किसको
मांगता उसकी आवाज़ सुन कर आस-पास के दो-तीन कर्मचारी भी पास ही सरक आये।
देखो ऐसा कुछ नहीं है मैं अमित का दोस्त हूँ और उससे मिलने
आया हूँ। उसने बताया था वो यहीं काम करता है मैने सफाई देने का प्रयास
किया।
आप आप बच्चन साहब का दोस्त है आईला अरे
कुर्सी लाओ रे अरे कोई चाय को बोलो बाप उनमे से एक कर्मचारी उत्सुक हो
उठा।
आप लोग ग़लत समझ रहे हैं। मैं अमिताभ बच्चन को नहीं अमित सक्सेना को
तलाश कर रहा हूँ इसी यूनिट के साथ काम करते हैं मैने बात साफ़ की।
ओ। अच्छा वो येड़ा स्पॉट-बोय वो तो साला तीन दिन पहले चला
गया। उसकी टांग पर लाइट गिरा साला इंजर्ड हो कर गया एक ने बताया।
क्या आपमें से कोई बता सकता है वो कहाँ रहता है चोट लगने की खबर सुन कर उसे
देखने की मेरी उत्सुकता और बढ़ गयी।
हां बतायेगा न साहब।
पहले एक-एक सिगरेट तो पिलाओ इंडियन सिनेमा की पोल खोलते हुए एक
कर्मचारी ने बॉलीवुड अंदाज़ में कहा।
सौरी लेकिन मैं सिगरेट नहीं पीता हूँ मैने गेट से बाहर कदम रखते हुए कहा।
लेकिन वो सामने दुकान है न साहब; उधर से खरीदने का
गेट के बाहर आने पर भी
कुछ दूर तक मेरे पीछे-पीछे उनके पैरों की आहट सुनायी देती रही। मैने हाथ
दिखा कर एक टेक्सी को रोका और वहां से खिसक लिया। मुम्बई का ये मेरा
पहला दौरा था सो टैक्सी-ड्राइवर से वहां की ख़ास जगहों पर घुमाने का
निवेदन किया और दिन तमाम होने तक शहर की सड़कें नापता रहा। फिर सुरमई शाम
के ढलते-ढलते मैं होटल में वापिस लौट आया; डिनर ऑर्डर किया और कुछ ख़ास
मित्रों को फ़ोन करने
में व्यस्त हो गया। ख़ास जतन-प्रयत्न के उपरांत अंतत% अमित का पता मिला
और मुलाक़ात की संभावना बन गयी। अमित से जल्द ही होने वाली मुलाक़ात के
क्षणों के बारे में सोचते-सोचते रात का खाना डकार कर मैं जल्द ही सो गया।
अगली सुबह लगभग दस बजे
चाय-नाश्ते से निपट कर मैं होटल से बाहर निकल आया और टैक्सी पकड़ मुम्बई की
व्यस्त सडकों में शामिल हो गया। बताया गया पता टैक्सी द्वारा होटल से
घंटे भर की दूरी पर था। एक घंटे से कुछ पहले कोलाबा से सटा हुआ इलाका
तलाशने पर मेरिन-ड्राइव से दायीं ओर जुड़ी हुई एक लम्बी सी दुकानों की कतार
के पास टैक्सी रोक दी गयी। शुरू की दो चार दुकानें छोड़ कर 'बॉलीवुड डी'लक्स कैफ़े' का बड़ा सा साइन-बोर्ड साफ़ दिखाई पड़ रहा था।
ये अमित का ही कैफ़े था पिछली रात पता देने वाले से मालूम हुआ। भाड़ा थमाते हुए टैक्सी को विदा कर मैं कैफ़े की तरफ बढ़ गया।
सामान्य से ऊपर किन्तु डीलक्स से थोड़ा सा निम्न औसत साइज़ का
ये कैफ़े अन्दर से काफी साफ&सुथरा नज़र आया। खाने-पीने के हॉल के
बाद बिलकुल पछली दीवार से सटे अर्धचंद्राकार काउंटर पर एक अधेड़ उम्र
की सुंदर युवती ग्राहकों का ऑर्डर व पैसों का लेन&देन देख रही थी।
लगभग तीन बैरे टेबलों पर ग्राहकों की सेवा में थे। कम से कम चार टेबल
ग्राहकों से भरी थीं और कुछ लोग तो मेरे ही साथ-साथ अन्दर घुसे थे। तात्पर्य ये कि अमित का धंधा ठीक चल रहा था ये जान कर मुझे खुशी हुई। बिना कोई दुबिधा मन में लिए सीधा काउंटर पर पहुंचा और उस सुन्दर युवती के
सम्मुख
खड़ा हो गया। उसकी सूरत कुछ जानी&पहचानी सी लग रही थी। मस्तिष्क
पर ज़ोर डालने से याद आया कि उसको टीवी सीरियल में छोटे&मोटे रोल
करते देखा था; नाम से परिचित नहीं था। कुछ क्षण मैं उसे निहारता रहा पर वो
बिना सर उठाये काम में व्यस्त रही। फिर मैने उसकी तन्द्रा भंग की
सुनिए आप शायद मिसेज़ सक्सेना हैं
आप कौन मैने आपको पहचाना नहीं मेरे मुहं से ऐसा संबोधन सुन कर वो कुछ चौंक सी गयी।
कैसे पहचानेंगी मैं अमित का पुराना दोस्त हूँ और उससे
मिलने अमरीका से आया हूँ। सरप्राईस देना चाहता था सो उसे खबर नहीं की
लेकिन वो तो अच्छा एक मिनट मैं अभी आती हूँ---
काउंटर के पीछे बाईं ओर बने
दरवाज़े में से होती हुई वो युवती कहीं अलोप हो गयी। मैं कुछ
देर प्रतीक्षा में वहीं खड़ा रहा। दीवार की दूसरी
ओर वो बड़ा सा दरवाज़ा शायद किचन का था जहां से बैरा लोग अन्दर&बाहर
आते&जाते मुझे घूर रहे थे। कुछ देर पश्चात काउंटर वाले दरवाज़े से पर्दा
उठाते हुए उस युवती ने मुझे अन्दर आने का संकेत दिया। बाजू से काउंटर को
लांघता हुआ
मैं युवती के पीछे&पीछे अन्दर की ओर चल पड़ा। कुछ दूरी पर ही ऊपर जा
रही सीढ़ियों द्वारा वो मुझे दूसरी मंजिल पर ले गयी। कैफे के ठीक ऊपर ये अमित का निवास स्थान था। कमरे के अन्दर घुसते ही सोफे पर अधलेटे अमित
को मैने तुरंत पहचान लिया। इतने वर्षों बाद चेहरे का मांस भले ही लटक सा
गया था पर नक्श नहीं बदले थे। पट्टियों से बंधी उसकी एक टांग टेबल पर
सीधी रखी हुई थी अतः वो उठ कर मेरा सत्कार करने में असमर्थ जान पड़ा।
उसने केवल हाथ हिल कर ही मुझे अन्दर बुलाया और उसके पास लगी कुर्सी पर बैठ
जाने का संकेत दिया।
अरे वाह अमित भाई चालीस साल बाद भी वैसे के वैसे दिख रहे हो मैने उसे उत्साहित करने की मंशा से संबोधित किया।
कैसा है बीडू अक्खा उमर
के बाद आज साला आईच गया मिलने कू अच्छा कियेला रे बाप उसने मुम्बैया शब्दों में मेरा स्वागत किया।
कल मैं रणजीत स्टूडियो गया था तुम्हें ढूँढने। वहां पता लगा
के तुम्हारी टांग में गहरी चोट आयी है सांत्वना देते हुए मैने उसे
बताया।
कौन बोला रे तेरे कू साला पकिया होयिंगा ये साला चू--- लोग। चल छोड़ तू बता
अमरीका में खूब साला डॉलर छापता होयिंगा है ना
अरे नहीं दोस्त बस काम चलता है
मै जितना संक्षेप में हर बात को टालने का प्रयत्न करता रहा
उतना ही वो खोद&खोद कर गुज़रे चालीस वर्षों का विवरण पूछता रहा। यही
नही अपने साथ गुजरी दास्ताँ भी वो काफी विस्तार में बताता रहा। उसने
बताया की अथक प्रयास के बाद भी जब
उसे फिल्म के पर्दे पर काम करने का अवसर नहीं मिला तो पेट भरने की
खातिर वो स्पॉट बोय बन गया। अपनी असफलता की शर्म के कारण पिता से भी
सहायता माँगना उसने उचित नहीं समझा। बीच में अपनी पत्नी से मिलवाते हुए
अमित ने बताया कि बुरे समय में उसने उसकी कितनी मदद की थी। इसी के
चलते तब अमित ने उससे विवाह भी कर लिया था। अमित ने ये भी बताया कि
उसके पिता
ने नाराजगी के कारण मृत्यू के बाद उसे जायदाद का बहुत कम हिस्सा दिया
था जिससे उसने ये कैफे खोला और जीवन में कुछ सुधार हुआ। और भी ज़िंदगी
के बहुत से उतराव चढ़ाव देर तक सुनाता रहा, वो भी अपुन तुपुन बीडू वगैरा
की संज्ञाओं के साथ मुम्बैया लहजे में। कुछ देर बाद नीचे से एक बैरा ट्रे
में बीयर की दो बोतलें व खाने के लिए सलाद व चिकन आदि ले आया।
फिर अगले दो घंटे तक बियर व खाने के साथ बातों का सिलसिला जारी रहा। दिन
भर अच्छे खासे तीन&चार घंटे बात चीत में गुज़रे लेकिन विशेष बात ये रही की
समस्त बातचीत के दौरान पैसों का ज़िक्र कहीं नहीं आया।
अंत में, हम दोनों जब अपनी-अपनी चालीस वर्षीय राम-कहानी सुना
चुके तो मुझे लगा कि अब लिफ़ाफ़े की बात आ ही जानी चाहिए। और
तब, कुछ ऐसा अजीब सा, अनुचित सा हुआ जब मैने चालीस वर्ष पहले खोया हुआ
7000:- रुपयों से भरा पीला लिफ़ाफ़ा अमित के हाथ में थमाया।
जानता हूँ अब तुम्हें इन रुपयों की ज़रुरत नहीं है । पर फिर भी
ये साला तेरे कू किधर से मिला बाप कहते&कहते अमित की जुबान
लड़खड़ा गयी और आँखें चौड़ी हो कर लिफ़ाफ़े पर जम सी गयी ।
चलो शुक्र है मिल तो गया। पर मुझे अफ़सोस तो ये है की ये रक़म तेरे
काम नहीं आयी मैने बात संभालते हुए लिफ़ाफ़े को टेबल पर रख दिया।
अरे छोड़ न बीडू अपुन का अक्खा तकदीर ईच साल पांडू है नज़रें चुराते हुए अमित बगलें झाँकने लगा।
पर दोस्त मुझे ये समझ नहीं आया कि ये लिफ़ाफ़ा टंकी के पीछे कैसे पहुंचा मैंने बात कुरेदने
की कोशिश की।
तू बहुत अच्छा आदमी है रे एक दम मस्त। और एक अपुन है साला
कुछ गंभीर सा सोचते हुए अमित की आवाज़ अनायास ही बैठ गयी गला
रुंध सा गया। बस, उसके कंधे पर मेरे हाथ रखने भर की देर थी और वो मानो
बाँध तोड़ कर बह निकला और फिर उसकी रुंधी आवाज़ के साथ साफ़ हुआ पीले
लिफ़ाफ़े का दबा हुआ रहस्य। उस रोज़ जब वो
पैसे लेने मेरे घर आया था।
अमित की जुबानी दिल्ली वाले साफ़ लहजे में
दरअसल
पिता जी ने मुझे ज़िद पे अड़ा देख माँ के कहने पर पैसे दे दिए थे और
मुम्बई की टिकेट भी बुक करवा दी थी। उस दिन मैं जाने से पहले केवल तुझसे
मिलने ही आया था। पहुँचने पर पता चला कि तू घर पर नहीं था। भाभी
ने मुझे अन्दर बैठाया और चाय बनाने रसोई में चली गयी। सामने ही टेबल पर
फूलदान के नीचे दबा ये पीला लिफ़ाफ़ा रखा था। मैने छू कर देखा और रुपयों
को महसूस कर लिया । वो एक क्षण था जब मेरा दिमाग लालच के शिकंजे में फंस
गया। सोचा, कुछ एक्स्ट्रा-कैश पास रहेगा तो आसानी होगी। मैने लिफ़ाफ़े
को उठा कर फ़ौरन जेब में रख लिया। भाभी को दूर से ही मैं फिर आ
जाऊँगा कह कर बाहर निकल ही रहा था कि सामने से तू आ गया और मुझे
फिर से घसीट कर अन्दर ले आया। सब के साथ चाय-समोसे खाते समय मेरा दम घुट
रहा था कि यदि लिफ़ाफ़े का ज़िक्र छिड़ गया तो मुझे कुछ नहीं सूझ
रहा था की लिफ़ाफ़ा किस तरह जेब से निकाल कर वहीं कहीं रख दूं। भैया-भाभी
के कमरे से चले जाने के बाद भी तू कमरे में जमा रहा। बस तब मेरे पास केवल
एक ही
रास्ता बचा था टॉयलेट । मैं तुरंत ही उठा और वहां जा कर लिफ़ाफ़े को
फ्लश की टंकी के पीछे रख कर चला आया। मैने लिफ़ाफ़े का एक कोना ज़रा
सा बाहर निकला छोड़ दिया था ताकि किसी दिन परिवार में से किसी की नज़र उस
पर पड़ जाए।
पिछले चालीस बरस से लगातार तुझसे संपर्क बनाये रखने का मूल कारण
भी यही था; किसी दिन तू इन पैसों के बारे में पूछगा तो मुझे तसल्ली हो जायेगी कि लिफ़ाफ़ा तुझे मिल गया है,"
अरे वाह साला यहाँ भी उस्तादी तू गुरू है भई मान गए मैने बे-तक़ल्लुफ़ होते हुए कहा।
अरे यार अपुन को माफ़ कर दे और ये रुपया अब इनकी कोई ज़रूरत नहीं उसने लिफ़ाफ़ा टेबल
से उठा कर मेरी ओर बढ़ा दिया।
मुझे पता था कि अब उसे इस रक़म की आवश्यकता नहीं है वो इसे कभी नहीं
लेगा। लेकिन मैने भी मन में ठान लिया था कि वो लिफ़ाफ़ा अपने साथ वापिस ले
कर नहीं जाना है। मैं किसी भी तरह वो रक़म वहीं छोड़ जाने के लिए कोई
तरकीब सोचने लगा। अमित ने तिपाई पर रखे पैकेट से सिगरेट निकाल कर होठों
में
दबाई और इधर-उधर माचिस ढूँढने लगा। तभी फर्श पर गिरी हुई माचिस पर मेरी
नज़र पड़ी और मुझे अपनी समस्या का हल मिल गया। मैने कुर्सी से थोडा उचक कर
माचिस उठाई और
अच्छा ये
बताओ तुम्हें अभी तक वो माचिस का खेल याद है मतलब अब भी निशाना उतना ही
पक्का है मैंने माचिस पकड़ाते हुए अमित से पूछा।
क्या बात करता है
मैन अरे वो गेम अपुन बॉलीवुड में बहुत पॉपुलर किएला है। बोले तो, सब चमचा लोग खेलता है और मुझको उस्ताद भी बोलता है
अमित के चेहरे पर गर्व के चिन्ह से उभर आये थे शायद
फ़िल्मी कैरियर में अपनी नाकामयाबी को इस माचिस के खेल की उस्तादी से ढांप
रहा था। टांग को आहिस्ता से फर्श पर रखते हुए वो उठ खडा हुआ और मुझे
पीछे&पीछे आने
का इशारा किया। मेरे कंधे पर हाथ रख, संभलते हुए सीढ़ियों से उतर कर वो
मुझे कैफ़े के लाउंज में ले आया। फिर सामने कुछ दूरी पर लगी एक टेबल की
ओर इशारा कर मुझे कुछ दिखने लगा। टेबल पर चार&पांच लफंगे टाइप युवक माचिस
उछाल कर प्याले में डालने का खेल खेल रहे थे।
बीडू अब येईच हैं यहाँ के उस्ताद लोग। अपुन तो बस खलास हो गयेला
है
आज एक बार अपना जलवा भी दिखा दे ना दोस्त। मेरी खातिर हो जाये एक-एक दाव पैसा मैं लगाता हूँ
अमित ने मेरी आँखों में गहराई तक झाँक कर देखा कुछ सोचा फिर
सिगरेट का एक लम्बा सा काश खींचा और खेलने के लिए टेबल की ओर बढ़ गया।
कुर्सी सरकाते हुए अमित ने बहुत नाटकीय अंदाज़ मे बैठे हुए सब लड़कों
को ललकारा
बस एक आख़री बाज़ी। तुम्हारा तीन चांस, अपुन का बस एक स्ट्रोक। बोले तो पूरा 7000/- रुपया। आता है कोई---
अपने उस्ताद को टेबल पर ललकारते देख पहले तो सबकी सिट्टी&पिट्टी
गुम हो गयी। फिर ये सोच कर कि शायद इतने सालों में उस्ताद के निशाने पे
ज़ंग लग गया होगा उनमे से दो सामने आये। दोनों लड़कों को माचिस
उछाल कर कप में डालने का तीन बार का चांस था जब की अमित को केवल एक ही
स्ट्रोक में माचिस को कप में डालना था। पहले लड़के ने निशान चूकते
हुए अपने तीनों चांस खो दिए। दूसरा खिलाड़ी ज़रा अच्छा निशाने बाज़ था।
फिर भी उसने अमित से हाथ जोड़ कर आग्रह किया की यदि वो हार गया तो
पैसे किश्तों में चुकता कर सकेगा। अमित ने उसका आग्रह स्वीकार करने में
तनिक भी
विलम्ब नहीं किया और माचिस की डिब्बी को उसकी ओर बढ़ा दिया।
लड़के ने पहले तो आँख मूँद कर गणपति बप्पा मोरया का हुंकारा लगाया और तुरंत ही उंगली के नीचे दबाये अंगूठे को स्प्रिंग की तरह छोड़ कर माचिस की डिब्बी को उछला। गणपति बप्पा की
लीला रंग लाई और माचिस की डिब्बी पहली बार में ही कॉफ़ी के कप में जा
गिरी। उस लड़के को
अपनी किस्मत पर यकीन नहीं हो रहा था। अब केवल एक स्ट्रोक अमित का। अमित
ने माचिस की डिब्बी को टेबल के किनारे रख कर अंगूठे के स्ट्रोक से हवा में
ज़ोर से उछाला फिर डिब्बी का रुख देखे बिना मेरे हाथ से लिफ़ाफ़ा लेकर
लड़के के हाथ में थमा दिया और काउंटर की तरफ मुड़ गया। कुछ ही सेकिंड में
माचिस की डिब्बी हवा में कुलाचें भारती हुई कप के कोने से टकरा कर
मेरे पैरों के पास आ गिरी। उस पर बने ताश के निशान मानो उस पर हंस रहे
थे। यदि अमित ने वही किया जो मैं उसके बारे में सोचा रहा था तो उसके
दिमाग़ की अथाह सराहना करनी होगी।
लड़के ने लिफ़ाफ़े में से रुपयों की गड्डी निकाल कर उसे बस देख भर लिया
गिना नहीं। फिर उसे जेब में डाल उस्ताद को दुआएं देता हुआ कैफ़े से बहार
निकल गया।
काउंटर के पास जा कर मैने अमित के चेहरे को पढने का प्रयास किया। कुछ
देर खामोशी के पश्चात मुंह से सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए अमित ने बताया की
वो लड़का पछले दो-तीन वर्षों से अपने फ़िल्मी कैरियर के लिए बॉलीवुड
में धक्के खा रहा था और कई लोगों के क़र्ज़ में डूबा हुआ था।
वापसी से पहले गुज़रे उन आख़री लम्हों में मैने अमित को
जितना जाना, उतना तो कॉलेज के वक़्त साथ गुज़ारे छै-आठ महीनों में भी नही
जान सका था। शाम के पांच बजने को थे। उससे विदा ले कर मैं कैफ़े से बाहर
निकल आया। हल्की-हल्की लहराती हवा सुहावनी लग रही थी। मैने देखा, सड़क
पर पड़ा खाली पीला लिफ़ाफ़ा रुपयों का बोझ दिल और दिमाग से निकाल कर खुली
हवा में कलाबाज़ियाँ खा रहा था---
और 7000:-
की रक़म वहां जहां नियति द्वारा उसे निश्चित किया गया थाA
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