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गुरुवार, 23 मई 2013

shriddhanjali: saaz jabalpuri -sanjiv

स्मरण:
साज़ गया आवाज शेष है...
संजीव
*
जबलपुर, १८ मई २००१३. सनातन सलिल नर्मदा तट पर पवित्र अग्नि के हवाले की गयी क्षीण काया चमकती आँखों और मीठी वाणी को हमेशा-हमेशा के लिए हम सबसे दूर ले गयी किन्तु उसका कलाम उसकी किताबों और हमारे ज़हनों में चिरकाल तक उसे जिंदा रखेगा. साज़ जबलपुरी एक ऐसी शख्सियत है जो नर्मदा के पानी को तरह का तरह पारदर्शी रहा. उसे जब जो ठीक लगा बेबाकी से बिना किसी की फ़िक्र किये कहा. आर्थिक-पारिवारिक-सामाजिक बंदिशें उसके कदम नहीं रोक सकीं.

उसने वह सब किया जो उसे जरूरी लगा... पेट पालने के लिए सरकारी नौकरी जिससे उसका रिश्ता तन के खाने के लिए तनखा जुटाने तक सीमित था, मन की बात कहने के लिए शायरी, तकलीफज़दा इंसानों की मदद और अपनी बात को फ़ैलाने के लिए पत्रकारिता, तालीम फ़ैलाने और कुछ पैसा जुगाड़ने के लिए एन.जी.ओ. और साहित्यिक मठाधीशों को पटखनी देने के लिए संस्था का गठन-किताबों का प्रकाशन. बिना शक साज़ किताबी आदर्शवादी नहीं, व्यवहारवादी था.

उसका नजरिया बिलकुल साफ़ था कि वह मसीहा नहीं है, आम आदमी है. उसे आगे बढ़ना है तो समय के साथ उसी जुबान में बोलना होगा जिसे समय समझता है. हाथ की गन्दगी साफ़ करने के लिए वह मिट्टी को हाथ पर पल सकता है लेकिन गन्दगी को गन्दगी से साफ़ नहीं किया जा सकता. उसका शायर उसके पत्रकार से कहीं ऊँचा था लेकिन उसके कलाम पर वाह-वाह करनेवाला समाज शायरी मुफ्त में चाहता है तो अपनी और समाज की संतुष्टि के लिए शायरी करते रहने के लिए उसे नौकरी, पत्रकारिता और एन. जी. ओ. से धन जुटाना ही होगा. वह जो कमाता है उसकी अदायगी अपनी काम के अलावा शायरी से भी कर देता है.

साज़ की इस बात से सहमति या असहमति दोनों उसके लिए एक बार सोचने से ज्यादा अहमियत नहीं रखती थीं. सोचता भी वह उन्हीं के मशविरे पर था जो उसके लिए निजी तौर पर मानी रखते थे. सियासत और पैसे पर अदबी रसूख को साज ने हमेशा ऊपर रखा. कमजोर, गरीब और दलित आदमी के लिए तहे-दिल से साज़ हमेशा हाज़िर था.

साज़ की एक और खासियत जुबान के लिए उसकी फ़िक्र थी. वह हिंदी और उर्दू को माँ और मौसी  की तरह एक साथ सीने से लगाये रखता था. उसे छंद और बहर के बीच पुल बनाने की अहमियत समझ आती थी... घंटों बात करता था इन मुद्दों पर. कविता के नाम पर फ़ैली अराजकता और अभिव्यक्ति का नाम पर मानसिक वामन को किताबी शक्ल देने से उसे नफरत थी. चाहता तो किताबों का हुजूम लगा देता पर उसने बहुतों द्वारा बहुत बार बहुत-बहुत इसरार किये जाने पर अब जाकर किताबें छापना मंजूर किया.

साज़ की याद में मुक्तक :
*
लग्न परिश्रम स्नेह समर्पण, सतत मित्रता के पर्याय
दुबले तन में दृढ़ अंतर्मन, मौलिक लेखन के अध्याय
बहर-छंद, उर्दू-हिंदी के, सृजन सेतु सुदृढ़ थे तुम-
साज़ रही आवाज़ तुम्हारी, पर पीड़ा का अध्यवसाय
*
गीत दुखी है, गजल गमजदा, साज मौन कुछ बोले ना
रो रूबाई, दर्द दिलों का छिपा रही है, खोले ना
पत्रकारिता डबडबाई आँखों से फलक निहार रही
मिलनसारिता गँवा चेतना, जड़ है किंचित बोले ना
*
सम्पादक निष्णात खो गया, सुधी समीक्षक बिदा हुआ
'सलिल' काव्य-अमराई में, तन्हा- खोया निज मीत सुआ
आते-जाते अनगिन हर दिन, कुछ जाते जग सूनाकर
नैन न बोले, छिपा रहे, पर-पीड़ा कहता अश्रु  चुआ
*
सूनी सी महफिल बहिश्त की, रब चाहे आबाद रहे
जीवट की जयगाथा, समय-सफों पर लिख नाबाद रहे
नाखूनों से चट्टानों पर, कुआँ खोद पानी की प्यास-  
आम आदमी के आँसू की। कथा हमेशा याद रहे
*
साज़ नहीं था आम आदमी, वह आमों में आम रहा
आडम्बर को खुली चुनौती, पाखंडों प्रति वाम रहा
कंठी-तिलक छोड़, अपनापन-सृजनधर्मिता के पथ पर
बन यारों का यार चला वह, करके नाम अनाम रहा

आपके और साज़ के बीच से हटते हुए पेश करता हूँ साज़ की शायरी के चंद नमूने: 
अश'आर:
लोग नाखून से चट्टानों पे बनाते हैं कुआँ
और उम्मीद ये करते हैं कि पानी निकले
*
कत'आत
जिंदगी दर्द नहीं, सोज़ नहीं, साज़ नहीं
एक अंजामे-तमन्ना है ये आगाज़ नहीं
जिंदगी अहम् अगर है तो उसूलें से है-
सांस लेना ही कोई जीने का अंदाज़ नहीं
*
कोई बतलाये कि मेरे जिस्मो-जां में कौन है?
बनके उनवां ज़िन्दगी की दास्तां में कौन है?
एक तो मैं खुद हूँ, इक तू और इक मर्जी तिरी-
सच नहीं ये तो बता, फिर दोजहां में कौन है?
*
गजल
या माना रास्ता गीला बहुत है
हमारा अश्म पथरीला बहुत है

ये शायद उनसे मिलके आ रहा है
फलक का चाँद चमकीला बहुत है

ये रग-रग में बिखरता जा रहा है
तुम्हारा दर्द फुर्तीला बहुत है

लबों तक लफ्ज़ आकर रुक गए हैं
हमारा प्यार शर्मीला बहुत है

न कोई पेड़, न साया, न सब्ज़ा
सफर जीवन का रेतीला बहुत है

कहो साँपों से बचकर भाग जाएं
यहाँ इन्सान ज़हरीला बहुत है
 *
गजल 
 तन्हा न अपने आप को अब पाइये जनाब,
मेरी ग़ज़ल को साथ लिए जाइये जनाब।


ऐसा न हो थामे हुए आंसू छलक पड़े,
रुखसत के वक्त मुझको न समझाइये जनाब।


मैं ''साज़'' हूँ ये याद रहे इसलिए कभी,
मेरे ही शे'र मुझको सुना जाइये जनाब।।

*

बुधवार, 22 मई 2013

Rare photo ; funeral of mortyres bhagat sinh, rajguru & sukhdev

धरोहर :

geet-prati geet : mahesh chandr dwivedi-acharya sanjiv verma 'salil'

गीत-प्रतिगीत 
*
महेश चन्द्र द्विवेदी
ॐकार बनना चाहता हूं

प्रकाश तक के आगमन का द्वार कर बंद
अभेद्य अपने को जो मान बैठा था स्वयं,
ना देखता था,  और ना सुनता किसी की
अनंत गुरुत्वाकर्षणयुक्त था वह आदिपिंड.

ऐसे आदिपिंड को जो चिरनिद्रा से जगा दे
उस प्रस्फुटन की ॐकार बनना चाहता हूं.

युगों तक जो बना रहता इक तिमिर-छिद्र
अकस्मात बन जाता विस्फोटक बम सशक्त.
क्रोधित शेषनाग सम फुफकारता ऊर्जा-पिंड
स्वयं को विखंडित कर बना देता गृह-नक्षत्र.

उस तिमिर-छिद्र को कुम्भकर्णी नींद से 
जो जगा दे,  मैं वह हुंकार बनना चाहता हूं.

नश्वर विश्व का अणु-अणु रहता अनवरत-
एक वृत्त-परिधि में घूमते रहने में विरत,
वृत्त-परिधि का हर विंदु स्वयं में है आदि,
और है स्वयं में ही एक अंत,  स्वसीमित.


लांघकर ऐसी सीमायें समस्त मैं,  परिधि
के उस पार की झंकार बनना चाहता हूं.

आदि प्रलय की ॐकार बनना चाहता हूं.

Mahesh Dewedy <mcdewedy@gmail.com>
*
संजीव 
गीत:
चाहता हूँ ...
संजीव
*
काव्यधारा जगा निद्रा से कराता सृजन हमसे.
भाव-रस-राकेश का स्पर्श देता मुक्ति तम से
कथ्य से परिक्रमित होती कलम ऊर्जस्वित स्वयं हो

हैं न कर्ता, किन्तु कर्ता बनाते खुद को लगन से
ह्रदय में जो सुप्त, वह झंकार बनना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
गति-प्रगति मेरी नियति है, मनस में विस्फोट होते
व्यक्त होते काव्य में जो, बिम्ब खोकर भी न खोते
अणु प्रतीकों में उतर परिक्रमित होते परिवलय में
रुद्ध द्वारों से अबाधित चेतना-कण तिमिर धोते
अहंकारों के परे हंकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
लय विलय होती प्रलय में, मलय नभ में हो समाहित
अनल का पावन परस, पा धरा अधरा हो निनादित
पञ्च प्यारे दस रथों का, सारथी नश्वर-अनश्वर
आये-जाये वसन तजकर सलिल-धारा हो प्रवाहित
गढ़ रहा आकर, खो निर-आकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
टीप: पञ्च प्यारे= पञ्च तत्व, दस रथों = ५ ज्ञानेन्द्रिय + ५ कर्मेन्द्रिय 

मंगलवार, 21 मई 2013

doha gatha : acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा लें दिल में बसा
दोहा मित्रो,

मैं दोहा हूँ आप सब हैं मेरा परिवार.
कुण्डलिनी दोही सखी, 'सलिल' सोरठा यार.

जिन्होंने दोहा लेखन का प्रयास किया है, उन सबका अभिनंदन। उन्हें समर्पित है एक दोहा-

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान.
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पड़त निसान.

हारिये न हिम्मत... लिखते और भेजते रहें दोहे। हम सब कुछ कालजयी दोहाकारों के लोकप्रिय-चर्चित दोहों का रसास्वादन कर धन्य हों।

दोहा है इतिहास:


दसवीं सदी में पवन कवि ने हरिवंश पुराण में 'कउवों के अंत में 'दत्ता' नामक जिस छंद का प्रयोग किया है वह दोहा ही है।

जइण रमिय बहुतेण सहु, परिसेसिय बहुगब्बु.
अजकल सिहु णवि जिमिविहितु, जब्बणु रूठ वि सब्बु.

११वीं सदी में कवि देवसेन गण ने 'सुलोचना चरित' की १८ वी संधि (अध्याय) में कडवकों के आरम्भ में 'दोहय' छंद का प्रयोग किया है। यह भी दोहा ही है.

कोइण कासु विसूहई, करइण केवि हरेइ.
अप्पारोण बिढ़न्तु बद, सयलु वि जीहू लहेइ

मुनि रामसिंह कृत 'पाहुड दोहा' संभवतः पहला दोहा संग्रह है। एक दोहा देखें-

वृत्थ अहुष्ठः देवली, बाल हणा ही पवेसु.
सन्तु निरंजणु ताहि वस्इ, निम्मलु होइ गवेसु

कहे सोरठा दुःख कथा:

सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) का कालजयी आख्यान पूरी मार्मिकता के साथ गाकर दोहा लोक मानस में अमर हो गया। कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी।। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया। मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किए पर उसे हरा नहीं सका। अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारण वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के किनारे सती हो गयी। अनेक लोक गायक विगत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठों (दोहा का जुड़वाँ छंद) में गाते आ रहे हैं-

वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं.
सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या.

दोहा की दुनिया से जुड़ने के लिए उत्सुक रचनाकारों को दोहा की विकास यात्रा की झलक दिखने का उद्देश्य यह है कि वे इस सच को जान और मान लें कि हर काल की अपनी भाषा होती है। जिस तरह उक्त दोहों की भाषा समझना हमारे लिए त्कात्हीं है वैसे ही नमन कवियों की भाषा में आज दोहा रचें तो नयी पीढ़ी के लिए ग्राह्य करना कठिन होगा। अतः,  आज के दोहाकार को आज की भाषा और शब्द उपयोग में लाना चाहिए। अब निम्न दोहों को पढ़कर आनंद लें-

कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.
पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.

असन-बसन सुत नारि सुख, पापिह के घर होय.
संत समागम राम धन, तुलसी दुर्लभ होय.

बांह छुड़ाकर जात हो, निबल जान के मोहि.
हिरदै से जब जाइगो, मर्द बदौंगो तोहि. - सूरदास

पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार.
सब सिंगार रतनावली, इक पियु बिन निस्सार.

अब रहीम मुस्किल पडी, गाढे दोऊ काम.
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम.

*
 दोहा लें दिल में बसा, लें दोहे को जान.
दोहा जिसको सिद्ध हो, वह होता रस-खान.

दोहा लेखन में द्विमात्रिक, दीर्घ या गुरु अक्षरों के रूपाकार और मात्रा गणना के लिए निम्न पर ध्यान दें-

अ. सभी दीर्घ स्वर: जैसे- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
 
आ. दीर्घ स्वरों की ध्वनि (मात्रा) से संयुक्त सभी व्यंजन। यथा: का, की, कू, के, कै, को, कौ आदि।

इ. बिन्दीयुक्त (अनुस्वार सूचक) स्वर। उदाहरण: अंत में अं, चिंता में चिं, कुंठा में कुं, हंस में हं, गंगा में गं,
खंजर में खं, घंटा में घं, चन्दन में चं, छंद में छं, जिंदा में जिं, झुंड में झुं आदि।

ई. विसर्गयुक्त ऐसे वर्ण जिनमें हलंत ध्वनित होता है। जैसे: अतः में तः, प्रायः में यः, दु:ख में दु: आदि।

उ. ऐसा हृस्व वर्ण जिसके बाद के संयुक्त अक्षर का स्वराघात होता हो। यथा: भक्त में भ, मित्र में मि, पुष्ट में पु, सृष्टि में सृ, विद्या में वि, सख्य में स, विज्ञ में वि, विघ्न में वि, मुच्य में मु, त्रिज्या में त्रि, पथ्य में प, पद्म में प, गर्रा में र।

उक्त शब्दों में लिखते समय पहला अक्षर लघु है किन्तु बोलते समय पहले अक्षर के साथ उसके बाद का आधा अक्षर जोड़कर एक साथ बोला जाता है तथा संयुक्त अक्षर के उच्चारण में एक एकल अक्षर के उच्चारण में लगे समय से अधिक लगता है। इस कारण पहला अक्षर लघु होते हुए भी बाद के आधे अक्षर को जोड़कर २ मात्राएँ गिनी जाती हैं

ऊ. शब्द के अंत में हलंत हो तो उससे पूर्व का लघु अक्षर दीर्घ मानकर २ मात्राएँ गिनी जाती हैं। उदाहरण: स्वागतम् में त, राजन् में ज. सरित में रि, भगवन् में न्, धनुष में नु आदि.

ए. दो ऐसे निकटवर्ती लघु वर्ण जिनका स्वतंत्र उच्चारण अनिवार्य न हो और बाद के अकारांत लघु वर्ण का उच्चारण हलंत वर्ण के रूप में हो सकता हो तो दोनों वर्ण मिलाकर संयुक्त माने जा सकते हैं। जैसे: चमन् में मन्, दिल् , हम् दम् आदि में हलंतयुक्त अक्षर अपने पहले के अक्षर के साथ मिलाकर बोला जाता है. इसलिए दोनों को मिलाकर गुरु वर्ण हो जाता है

मात्रा गणना हिन्दी ही नहीं उर्दू में भी जरूरी है। गजल में प्रयुक्त होनेवाली 'बहरों' ( छंदों) के मूल अवयव 'रुक्नों" (लयखंडों) का निर्मिति भी मात्राओं के आधार पर ही है। उर्दू छंद शास्त्र में भी अक्षरों के दो भेद 'मुतहर्रिक' (लघु) तथा 'साकिन' (हलंत) मान्य हैं। उर्दू में रुक्न का गठन अक्षर गणना के आधार पर होता है जबकि हिंदी में छंद का आधार उच्चारण समय पर आधारित मात्रा गणना है। वस्तुतः हिन्दी और उर्दू दोनों का उद्गम संस्कृत है, जिससे दोनों ने ध्वनि उच्चारण की नींव पर छंद शास्त्र गढ़ने की विरासत पाई और उसे दो भिन्न तरीकों से विकसित किया

मात्रा गणना को सही न जाननेवाला न तो दोहा या गीत सही लिख सकेगा न ही गजल। आजकल लिखी जानेवाली अधिकाँश पद्य रचनायें निरस्त किये जाने योग्य हैं, चूंकि उनके रचनाकार परिश्रम करने से बचकर 'भाव' की दुहाई देते हुए 'शिल्प' की अवहेलना करते हैं। ऐसे रचनाकार एक-दूसरे की पीठ थपथपाकर स्वयं भले ही संतुष्ट हो लें किन्तु उनकी रचनायें स्तरीय साहित्य में कहीं स्थान नहीं बना सकेंगी। साहित्य आलोचना के नियम और सिद्धांत दूध का दूध और पानी का पानी करने नहीं चूकते। हिंदी रचनाकार उर्दू के मात्रा गणना नियम जाने और माने बिना गजल लिखकर तथा उर्दू शायर हिन्दी मात्रा गणना जाने बिना दोहे लिखकर दोषपूर्ण रचनाओं का ढेर लगा रहे हैं जो अंततः जानकारों और पाठकों / श्रोताओं द्वारा खारिज किया जा रहा है। अतः 'दोहा गाथा..' के पाठकों से अनुरोध है कि उच्चारण तथा मात्रा संबन्धी जानकारी को हृदयंगम कर लें ताकि वे जो भी लिखें वह समादृत हो

गंभीर चर्चा को यहीं विराम देते हुए दोहा का एक और सच्चा किस्सा सुनाएँ..
 
अमीर खुसरो का नाम तो आप सबने सुना ही है। वे हिन्दी और उर्दू दोनों के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार हैं। वे अपने समय की मांग के अनुरूप संस्कृतनिष्ठ भाषा तथा अरबी-फारसी मिश्रित जुबान के साथ-साथ आम लोगों की बोलचाल की बोली 'हिन्दवी' में भी लिखते थे बावजूद इसके कि वे दोनों भाषाओं, आध्यात्म तथा प्रशासन में निष्णात थे

जनाब खुसरो एक दिन घूमने निकले। चलते-चलते दूर निकल गए, जोरों की प्यास लगी। अब क्या करें? आस-पास देखा तो एक गाँव दिखा। सोचा, चलकर किसी से पानी मांगकर प्यास बुझायें। गाँव के बाहर एक कुँए पर औरतों को पानी भरते देखकर खुसरो साहब ने उनसे पानी पिलाने की दरखास्त की। खुसरो चकराये कि सुनने के बाद भी उनमें से किसी ने तवज्जो नहीं दी। शायद पहचान नहीं सकीं। 
 
दोबारा पानी माँगा तो उनमें से एक ने कहा कि पानी एक शर्त पर पिलायेंगी कि खुसरो उन्हें उनके मन मुताबिक कविता सुनाएँ। खुसरो समझ गए कि जिन्हें वे भोली-भली देहातिनें समझ रहे थे वे ज़हीन-समझदार हैं और उन्हें पहचान चुकने पर भी उनकी झुंझलाहट का आनंद लेते हुए अपनी मनोकामना पूरी करना चाहती हैंकोई और रास्ता भी न था, प्यास बढ़ती जा रही थी। खुसरो ने उनकी शर्त मानते हुए विषय पूछा तो बिना देर किये चारों ने एक-एक विषय दे दिया और सोचा कि आज किस्मत खुल गयी। महाकवि खुसरो के दर्शन तो हुए ही चार-चार कवितायें सुनाने का मौका भी मिल गया। 
 
विषय सुनकर खुसरो एक पल झुंझलाये... कैसे बेढब विषय हैं? इन पर क्या कविता करें?, न करें तो अपनी अक्षमता दर्शायें... ऊपर से प्यास... इन औरतों से हार मानना भी गवारा न था... राज हठ और बाल हठ के समान त्रिया हठ के भी किस्से तो खूब सुने थे पर आज उन्हें एक-दो नहीं चार-चार महिलाओं के त्रिया हठ का सामना करना था। खुसरो ने विषयों पर गौर किया...खीर...चरखा...कुत्ता...और ढोल... चार कवितायें तो सुना दें पर प्यास के मरे जान निकली जा रही थी

इन विषयों पर ऐसी स्थति में आपको कविता करनी हो तो क्या करेंगे? चकरा रहे हैं न? ऐसे मौकों पर अच्छे-अच्छों की अक्ल काम नहीं करती पर खुसरो भी एक ही थे, अपनी मिसाल आप। उन्होंने शरण ली दोहे की और छोटे छंद दोहा ने उनकी नैया पार लगायी। खुसरो ने एक ही दोहे में चारों विषयों को समेटते हुए ताजा-ठंडा पानी पिया और चैन की सांस ली। खुसरो का वह दोहा है- 
 
खीर  पकाई जतन से, चरखा दिया जलाय
आया  कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय।। 
                                        ला, पानी पिला... 
 
दोहे के साथ 'ला, पानी पिला' कहकर खुसरो ने पानी माँगा था किन्तु कालांतर में इस तरह कुछ शब्द जोड़कर दुमछल्ले दोहे खूब कहे-सुने-सराहे गये। उनकी शेष चर्चा यशास्थान होगी।
 
अंत में एक काम आपके लिए- अपनी पसंद का एक दोहा लिख भेजिए, दोहाकार का नाम और आपको क्यों पसंद है?,  जरूर बतायें। 
___________________________
हिन्दयुग्म २७ . १२ . २००८, २१ . ३ . २००९

 


niyati






कुछ सत्य कथाएं अपर्याप्त शब्दों या श्रम-रहित अभिव्यक्ति के कारण केवल कल्पना मात्र  ही रह जाती हैं; तो कभी कल्पना की उड़ान इतनी ऊंचाइयों को छू लेती है, की यदि शब्दों का चुनाव व लेखन-प्रवाह सही हो तो वो किसी सत्य-कथा से कम नहीं लगती ।  



इसे ज़रा देखें ; आपको क्या लगता है ...? 
 
 मेरे और अमिताभ के बीच ---

            केवल छैह महीने की दोस्ती थी।  लेकिन पीले लिफ़ाफ़े में रखे 7000/- रुपयों की संदिग्ध कड़ी ने चालीस वर्ष तक हमें एक डोर से बंधे रखा। मैं आज भी उसे  केवल अमित ही बुलाता हूँ

            देहली यूनिवर्सिटी बैचलर डिग्री के अंतिम चरण  में कैम्पस कैफेटेरिया के टेबल पर मैं अमित से पहली बार मिला था।  दोपहर लगभग तीन बजे कॉफ़ी का आख़री घूँट पी कर उसने प्याले में झाँका और उसे सरका कर टेबल के मेरी ओर वाले किनारे पर टिका दिया, फिर लक्ष्य साधने के अंदाज़ में उसे तीखी नज़रों से घूरने लगा।  कुछ क्षण तसल्ली सी करने लेने के बाद उसने जेब से एक माचिस की डिब्बी निकाली और उसे अपनी ओर वाले किनारे पर ठीक से जांच कर रखा। उसके ठीक सामने मैं प्लेट में पड़े गर्म सांबर में इडली डूबा कर खाने की तैयारी में था। फिर अंगूठे व उंगली को झटक कर उसने माचिस को हवा में उछाला।  मैने तुरंत ही एक हाथ से अपनी सांबर की प्लेट को ढांप लिया। अमित का निशाना पक्का था।  एक दो चार पांच फिर लगातार एक के बाद एक वो माचिस उछलता रहा और हर बार माचिस प्याले में ही गिरती रही।  तीन वर्ष कॉलेज में व्यतीत करने के पश्चात इस खेल से मैं अनभिज्ञ नहीं था।  कई बार छात्रों को यहीं पर ये खेल खेलते देखता था। कुछ स्टूडेंट तो पैसा लगा कर भी खेलते थे। तीन-चार पारी के बाद उसके निशाने से अश्वस्त हो कर मैने भी प्लेट के ऊपर से हाथ हटा दिया। मुझे इस खेल का पता तो अवश्य था, लेकिन किसी छात्र के इतने अभ्यस्त होने का अंदाजा नहीं था।

            लगाते हो क्या दस-बीस-पचास जो भी हो  अमित ने अपनी भारी आवाज़ को थोड़ा और भारी करते हुए कहा।
            अब क्या लगाना नतीज़ा जब सामने ही है तो जीतने का तो कोई चांस तो है नहीं मैने हँसते हुए टालने का प्रयत्न किया।
            अरे नहीं भई ऐसी क्या बात है। कोशिश तो कर ही सकते हो माचिस मेरे सामने सरकाते हुए उसने फिर खेलने को उकसाया।
            सुनो दोस्त मैं देखने में सीधा साधा लग सकता हूँ, लेकिन बेवक़ूफ़ तो कतई नहीं हूँ मैने उसे माचिस वापिस करते हुए साफ़ कहा।
            बहुत खूब मेरा नाम अमिताभ है तुम मुझे अमित कह सकते हो सब कहते हैं

            और बस वहीं से बातों का सिलसिला आरंभ हुआ।  सबसे पहले आपसी परिचय फिर पढ़ाई के बाद कर्रियर की बात; और फिर गर्ल-फ्रेंड्स  अदि के हल्के-फुल्के चर्चों से होता हुआ ये सिलसिला अपनी-अपनी घरेलू परिस्थितियों और निजी समस्यों पर आकर रूक गया।

            जीवन में कुछ घटनाएं एसी घट जाती हैं कि उन्हें उम्र के किसी ख़ास पड़ाव पर मित्रों से साझा करने का मन हो उठता है।  इस प्रक्रिया से एक तो मन हल्का हो जाता है दूसरे उस व्यक्ति-विशेष के ऊंचे-नीचे हालातों की गणना करते हुए अपनी वर्तमान स्थिति पर संतोष होने लगता है।  भले ही वो ईर्षा का ही कोई अन्य रूप क्यों न हो।  बात सन 1967-68 की चल रही  है।  आज के मुकाबले तब सस्ता ज़माना था।  वस्तुएं उपलब्ध थी, राजनैतिक घोटाले, आपा'धापी भी इतने ज़ोरों पर नहीं थे।  और ऐसे सहज समय में कॉलेज से निकले इस नवयुवक को तुरंत ही 7000: रुपयों की दीर्घ-आवश्यकता ने झंझोड़ रखा था।  उस दौर के लिहाज़ से रक़म कम नहीं थी।  माचिस के दांव से ले कर तीन-पत्ती, कैरम बोर्ड, शतरंज;  क्या-क्या नहीं किया उसने रुपये जमा करने के लिए।  तभी कुछ स्थानीय सूत्रों से पता चला की अमित समाज के जाने-माने व संपन्न दम्पति का सुपुत्र था।  कुछ दिनों बाद एक दिन वो मुझे लाल रंग की स्टैण्डर्ड हैरल्ड (उन दिनों की हाई-लैवल कार  में दिखाई दिया।  मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था 

            एक-एक कॉफ़ी हो जाये; कैनॉट-प्लेस, इंडिया कैफे अमित ने पसेंजेर-डोर खोलते हुए गाड़ी में बैठने को कहा।
       
            उस शाम मेरी कुछ ख़ास व्यस्तता नहीं थी, और फिर एक जिज्ञासा भी थी जिसका निवारण करना था, सो बिना एक भी शब्द बोले मैं तुरंत ही साथ वाली सीट में धंस गया।  क्या रुपयों का प्रबंध हो गया था  ये प्रश्न देर तक मैने उसी के शब्द-सुरों के लिए छोड़े रखा।

            "नहीं हुआ रुपयों का प्रबंध।  अब तक नहीं हुआ; और मुझे ये रक़म जल्द ही चाहिए," उसने मेरी जिज्ञासा भांपते हुए कहा।
            तो फिर ये मेरा मतलब ये गाड़ी घर से कोई मदद नहीं 
            घर से ही तो नहीं चाहिए यार वो ही तो सबसे बड़ी प्रॉब्लम है उसने होंठ चबाते हुए मूंह में ही बड़बड़ाया ।

            मैने मानो उसकी दुखती रग़ पर हाथ धर दिया था।  तिलमिलाया सा अमित खम्बे से टकराते-टकराते बचा।  ख़ैर इंडिया कैफ़े  पहुँच कर टेबल पर कॉफ़ी आने से पहले ही अमित ने मस्तिष्क में चल रही सारी राम कथा उगल दी।

            देखो दोस्त बात सीधी और साफ़ करता हूँ।  मुझे मुम्बई जा कर फिल्मों में काम करना है बस।  बहुत जुगाड़ के बाद एक फिल्म में चांस भी मिल रहा है।  जिसके लिए मुझे फोटो-सैशन सैट कर के पोर्टफोलियो तैयार करना होगा और फिर मुम्बई की ओर रवानगी।  मैं जानता हूँ कि ये चांस पक्का है निर्देशक से मेरी बात हो चुकी है।  पोर्टफोलियो, रेल टिकट मुम्बई में महीने भर का खान-पान व रात गुज़ारने को एक खोली।  कुल मिला कर लगभग 7000/- रुपये होते हैं हिसाब लगा चूका हूँ।  तुमने घर की बात की थी ना; सो भैया, घर वाले तो मेरे इस फैसले के सख्त खिलाफ हैं।  कहते हैं अगर ये ही करना है तो अपने बल-बूते पर  करो
           बिना एक भी विराम लिए अमित ने अपने दिल का हाल शतरंज की बिसात सा वहीं टेबल पर बिछा दिया।  और तभी बैरे ने भी दो कप कॉफ़ी और पेस्ट्री का आर्डर साथ ही ला कर रख दिया।  कॉफ़ी के प्याले में चम्मच से शक्कर घुमाते हुए हम दोनों कुछ मिनट समस्या का निवारण सोचते रहे।  फिर कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ बातों का( उधेड़-बुन का सिलसिला आगे बढ़ा और मैने न जाने क्या सोच कर उसकी मदद करने का बीड़ा उठा लिया।

            अच्छा सुनो.अपने घर का फ़ोन नंबर मुझे दो मैं दो दिन में कुछ प्रबंध करके तुम्हें इत्तला करता हूँ

            मैने उसको लगभग विश्वस्त ही कर दिया और फिर सोच में भी पड़ गया की कहाँ से क्या प्रबंध करना होगा।  कॉफ़ी हाउस से निकलने के पश्चात मुझे घर छोड़ते वक़्त अमित ने शुक्रिया के साथ अपने घर का फ़ोन नंबर लिखवाया और आगे सरक गया।

            उन दिनों मैं अपने बड़े भैया व भाभी के पास तीन कमरों वाले डीडीए फ्लैट में रहता था।  कॉलेज की पढाई के अंतर्गत ही माँ-बाबा के स्वर्गवास के उपरान्त उन्हों ने मेरी डिग्री पूरी करवाने की ज़िम्मेदारी ले ली थी।  मेरा व बड़े भाई का उम्र का काफी बड़ा अंतर था।  यानि वे घर के सबसे बड़े और मैं सबसे छोटा।  सो, भाभी का स्नेह सदा मुझ पर बरसता रहता था।  कहने की आवश्यकता नहीं की अपना कौल पूरा करने के लिये मुझे भाभी में ही पहला और सबसे उपयुक्त जरिया नज़र आया।  इतना ही नहीं, बल्कि मेरा निशाना भी बिलकुल सही बैठा।  मदद के नाम पर बतौर उधार 7000:- रुपयों का बंदोबस्त दो-तीन दिन में ही कर लिया गया।  मेरे फ़ोन करने पर अमित की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और उसने तुरंत ही मुझ से घर पर  मिलने का समय तय कर लिया।  बैंक के एक पीले लिफ़ाफ़े में बंद रक़म को मैने ड्राईंग-रूम की मेज़ पर सजे गुलदस्ते के नीचे सुरक्षित टिका दिया।

            उस शाम एक बहुत ही अजीब सी बात हुई।  भाभी ने मुझे चाय के साथ परोसने के लिए समोसे लेने बाहर भेज दिया।  इत्तेफ़ाक़ से अमित मेरे वापिस आने से पहले ही घर पर आ पहुंचा।  भाभी के कहे अनुसार कुछ देर प्रतीक्षा करने के उपरान्त वो उठ खडा हुआ था; और मैं फिर कभी आ जाऊँगा  कहते हुए बाहर की ओर प्रस्थान कर गया था।  लेकिन तब तक मैं दरवाज़े पर आ पहुँचा था, अतः उसे बांह से पकड़ कर फिर से अन्दर ले आया।  कुछ देर बाद चाय और समोसों का दौर आरम्भ हुआ।  तभी मैने भैया-भाभी से अमित का परिचय करवाया।  इसी बीच मैने देखा, गुलदस्ते के नीचे पीला लिफ़ाफ़ा नहीं था।  मुझे लगा शायद मेरे आने से पहले ही भाभी ने वो लिफ़ाफ़ा अमित को पकड़ा दिया होगा ।  सबके सामने उसको शर्म महसूस न हो ये सोच कर मैने उससे पैसों का कोई ज़िक्र नहीं किया।  फिर भी चाय के दौरान वो कुछ बेचैन सा लग रहा था किन्तु बड़े ही विचित्र ढंग से वो अपनी विचलता को छिपाता रहा।  मुझे याद है बाहर जाने से पहले वो एक बार बाथ-रूम गया था और वापस आने पर काफी शांत दिखाई पड़ा।  दरवाज़े से निकलते वक़्त भी उसने पैसों का ज़िक्र नहीं छेड़ा सो मुझे यकीन हो गया कि लिफ़ाफ़ा उसे मिल चुका है। उसके चले जाने के काफी बाद यानि रात के खाने पर 
            अच्छा लड़का है अमित।  काफी भरोसे-मंद लगा मुझे सो चिंता की कोई बात नहीं भाभी ने भैया को आश्वासन दिया।
            अच्छा ये तो बताओ भाभी जब आपने उसे पैसों का लिफ़ाफ़ा पकड़ाया तो वो क्या बोला  मैने जिज्ञासा-वश भाभी से पूछा।
            लिफ़ाफ़ा ?वो तो तुमने ही दिया होगा ना उसे।  मैं भला क्यूं दूंगी  तुम्हारा दोस्त है  भाभी ने तुरंत पल्ला झाड़ते हुए कहा।
           हाँ लड़का भले घर का है सो पैसा तो कहीं नहीं जाता।  बस दो तीन महीने की बात है   

            मैने बात को तुरंत ही आई-गयी कर दिया वर्ना भैया-भाभी के बीच उलझनों का जंजाल खड़ा हो जाता।  बहरहाल सारी रात इसी सोच में बीती कि आखिर पीला लिफ़ाफ़ा गायब कहाँ हुआ  कहीं बिना बताये वो उसे चुप-चाप उठा कर तो नहीं ले गया ताकि उसे ये उधार वापिस ही ना करना पड़े एक ख़याल ये भी आया की हमारी दोस्ती सिर्फ छै महीने की है इतने कम समय में उसे मेरी भावनाओं की क्या कद्र होगी   कुछ भी कर सकता है वो।  फिर लगा, नहीं भरे-पूरे खानदान का लड़का है धोखा तो कभी नहीं करेगा।  वगैरह- वगैरह भिन्न-भिन्न प्रकार के ख्याल आते रहे और रात यूं ही अध्-खुली आँखों में गुज़र गयी।

            अगले दिन सुबह-सुबह मेरे एक नेक विचार ने मन को शांति प्रदान करने के बजाय मुझे और भी अधिक विचलित कर दिया।  वो नेक विचार था कि फ़ोन पर अमित से बात कर के पीले-लिफ़ाफ़े की बात साफ़ कर लूं तो दिल को तसल्ली हो जाए।  किन्तु फ़ोन पर घर के बावर्ची ने ये शुभ समाचार सुनाया की  अमित बबुआ तो सुबह पांच बजे की टिरेन से ही मुम्बई सटक लिए थे।  समाचार आश्चर्यजनक तो था पर उतना भी नहीं; क्यूं कि मुम्बई जाने की जितनी छटपटाहट वो दिखाता रहा था उसके मुताबिक तो ये मुमकिन था ही।  उसी क्षण रक़म की वापसी की उम्मीद तज कर मैने ये सोचना आरंभ कर दिया कि तीन माह के अन्दर भैया-भाभी को वापिस  लौटाने के लिए 7000:- रुपये कैसे जुटाने होंगे।

            लगभग दो महीने तक अमित की कोई खोज-खबर नहीं थी।  फिर एक दिन अचानक उसका पत्र मिला।  संक्षिप्त सा ही था; केवल खैर खबर और काम की तलाश जारी है का सन्देश।  उसके बाद, लगभग छै माह तक तो हफ्ते-दो-हफ्ते में एक-आध बार पत्र आते रहे जिसमे वो अपनी विडंबनाओं का ज़िक्र लिखता रहा।  फिर एक दिन लम्बा सा, उल्लास से भरपूर पत्र मिला।  एक फिल्म प्रोडक्शन कंपनी में उसे काम मिल गया था।  उसके एक-एक शब्द में खुशी के मोती से पिरोये हुए प्रतीत हो रहे थे।  ज्यूं-ज्यूं मैं पत्र को पंक्ति-दर-पंक्ति पढ़ता जा रहा था, मुझे एक आस सी बंधने लगी थी की अब आगे शायद पैसों का ज़िक्र लिखा होगा।  किन्तु चार पन्नों का लम्बा सा पत्र पढने पर भी मुझे दिए गए उन पैसों का ज़िक्र कहीं नज़र नहीं आया।  उसके बाद भी यदा-कदा वो अपनी तरक्की या नयी कंपनी के नए कोंट्रेक्ट आदि के किस्से लिखता-बताता रहा; पर शायद पैसों के बारे में तो बिलकुल भूल ही चुका था।

            वक़्त के गुज़रते कुछ नयी बातें इधर मेरी और भी हुईं।  मुझे फरीदाबाद की एक बड़ी फर्म में नौकरी मिल गयी।  मैने एम बी ऐ की पढाई जारी रखते हुए काम शुरू कर दिया और सबसे पहले भाई-भाभी का उधार चुकता करने को पैसे जमा करने लगा।  घर में भी काफी सुधार किया।  जैसे की, एक फ़ोन लगवा लिया और ज़माने की रफ़्तार के साथ कई अन्य प्रगतिशील उपकरणों का उपयोग भी होने लगा।  फिर एक लम्बे समय तक अमित की ओर से, मेरी ओर से भी एक खामोशी सी उभर आयी।  इसी बीच मेरा विवाह हो गया, और एक सुविधा-जनक अवसर पा कर मैं अमरीका चला आया।  विवाह व अमरीका आने की खबर देने हेतु मैंने अमित को एक-दो पत्र लिखे और वहीं से छूटा हुआ बात-चीत का सिलसिला फिर से जुड़ गया।  अमरीका शिफ्ट हो जाने के पश्चात मैं लगभग हर दूसरे-तीसरे वर्ष भारत का चक्कर लगता रहा पर समयाभाव के चलते मुम्बई जाना न हो पाया; किन्तु अमित के साथ शब्द-संपर्क स्थापित रहा।  इसी दौरान भैया-भाभी को भी मैने अमरीका बुलवा लिया और एक अच्छी सी नौकरी का प्रबंध कर उन्हें यहीं सेट कर दिया।          


           लगभग चालीस वर्षों तक अमित ने मेरे साथ फ़ोन या ई-मेल का सिलसिला जारी रखा।  सप्ताह-दो-सप्ताह, कुछ नही तो माह में एक बार तो उससे तकनीकी संपर्क होता ही रहा था।  वो बात अलग कि US आने के पश्चात मैं जितनी बार भारत गया, दिल्ली तक ही सीमित रहा । लेकिन इस लम्बे सफ़र के अंतरगत मुम्बई की ख़ाक छानने से लेकर ऊँचाई-नीचाई से गिरते-सँभलते वो जाने कहाँ से कहाँ और कैसे पहुँचा; पर अपनी स्थिति की संक्षिप्त जानकारी समय-समय पर देता रहा।

            पिछले वर्ष

            कुछ पुश्तैनी ज़मीनों के कानूनी मसले तय करने थे। दिल्ली में वर्षों से छोड़े हुए फ्लैट की मरम्मत करवा कर उसे बेचना भी था; सो, इस बार लंबा अवकाश भी लिया तथा कुछ पैसे भी खुले हाथ से रख लिये। मकान के रेनोवेशन के लिए आधुनिक आवश्यक सामान खरीद कर पहले ही भारत भिजवा दिया गया था।  फिर एक शुभ महूरत में भारत प्रस्थान किया। भारत यात्रा के दौरान परंपरा के मुताबिक़ पहला सप्ताह सम्बन्धियों से मिलने मिलाने में बीता, लेकिन बहुत कारगर साबित हुआ क्यूं की इस मिलने मिलाने के बीच फ्लैट की मरम्मत के लिए कुछ अच्छे कारीगरों की व्यवस्था सहज हो गयी। अगले ही सप्ताह मरम्मत का काम शुरू हो गया और तभी एक बहुत ही चौंका देने वाली बात सामने आयी।

            बाथरूम में आधुनिक प्रसाधन जड़ने के लिए जब चार दशक पुराने कमोड, और दीवार में धंसी चेन वाली फ्लश की टंकी को उखाड़ा गया, तब  हे भगवान!  ये पीला लिफाफा यहाँ--- अनायास ही मुहं से निकल पड़ा।

            इतने वर्षों मौसमों के बदलते गर्मी-सर्दी में जाने कितनी बार ये लिफाफा भीगा, सूखा और फिर भीगा और उसका रंग भी बदल कर अब ब्राउन सा हो गया था। यहाँ तक कि छिपकलियों की कारगुज़र भी उस पर अंकित थी।  कुछ भी हो लेकिन उसमे रक़म पूरी ही निकली; पूरे सात हज़ार रुपये।  ये भी इश्वर का एक संकेत ही था कि मैं टंकी उखाड़ते वक़्त वहां मौजूद रहा वरना यदि ये लिफ़ाफा मजदूरों के हाथ लग गया होता तो अमित की इतनी बड़ी सच्चाई ज़िंदगी की धूल तले ढंकी ही रह जाती।  हालां कि इतने वर्षों तक पीले लिफ़ाफ़े का टंकी के पीछे पड़े रहने का रहस्य जानना बाक़ी था किन्तु अमित को ले कर अब मेरे मन में कोई गिला नहीं रहा बलिक उससे मिलने की चाह ने और ज़ोर पकड़ लिया और मैने अमित से मिलने की ठान ली।  लगभग एक सप्ताह के अन्दर ही फ्लैट की मरम्मत का बाकी बचा हुआ काम भी निपट गया। मैने राहत की सांस ली और अगले ही दिन अमित से मिलने की चाहत लिए मुम्बई की ओर रुख किया। मुझे देख कर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी; काम की व्यस्तता के कारण क्या वो मुझे समय दे पायेगा वगैरा वगैरा कई प्रश्नों में उलझते-निकलते दिल्ली से मुम्बई का सफ़र तय हो गया।    

            फ्लाईट से उतरने पर सबसे पहले मैंने पास के ही एक सामान्य से होटल में एक कमरा बुक कराया और फिर हाथ-मूंह धो कर थोड़ा फ्रैश हो गया।  फिर कुछ देर पश्चात अमित के पिछले महीनों में हुए पत्र-व्यवहार के आधार पर समय को भांपते हुए मैं सीधा रणजीत स्टूडियो पहुंचा। दोपहर लगभग एक बजने को था।  संभवतः लंच का अवकाश ही था, इसीलिए स्टूडियो के बहुत से तकनीकी कर्मचारी फिल्म के सेट पर ही इधर-उधर टिफ़िन खोले बैठे नज़र आ रहे थे।  स्टील के पोल पर लटकी बड़ी-बड़ी काली बत्तियां आँखें मूँदे सुस्ता रही थी।  स्टैण्ड पर अटका कैमरा भी तारपोलिन का घूंघट ओढ़े आराम कर रहा था।  बड़े कलाकारों का तो कहीं अत-पता नहीं था।  शायद उनका लंच किसी फाइव-स्टार होटल में तय हुआ होगा।  चरों ओर एक नज़र वहां मौजूद चेहरों पर डाली; लेकिन अमित से मिलता-जुलता कोई चेहरा नज़र नहीं आया।  इतने वर्षों में चेहरे में बदलाव भी तो आ जाता है।  मैं भी अमित को किन लोगों में ढूँढ रहा था सोच कर खुद पर ही हंसी आ गयी।

            भाई साहब क्या आप बता सकते हैं अमित जी कहाँ मिलेंगे  मैने कैमरे के पास ही कुर्सी पर सुस्ता रहे एक कर्मचारी से पूछा।
            उन्हें कहाँ ढूँढ रहे हैं आप फिल्म-स्टूडियो में तो वो आज-कल कम ही आते हैं उसने आँखें मलते हुए संक्षिप्त सा जवाब दिया।
            लेकिन उन्होंने तो मुझे इ-मेल में लिखा था कि रणजीत स्टूडियो में ही किसी फिल्म की शूटिंग में मैने फिर अपनी बात पर ज़ोर दिया।
            अरे भाई टेलीविज़न-स्टेशन पर जाओ; आजकल वो वहीं पर ज़्यादा मिलते हैं उसने मेरी बात काटते हुए फिर अपनी बात रखी।

            मैं स्टूडियो से बाहर आने को ही था कि मेन-गेट पर वाचमैन ने रोक लिया
            "तुम अन्दर कैसे आया मैन  किसको मांगता उसकी आवाज़ सुन कर आस-पास के दो-तीन कर्मचारी भी पास ही सरक आये।
           देखो ऐसा कुछ नहीं है मैं अमित का दोस्त हूँ और उससे मिलने आया हूँ। उसने बताया था वो यहीं काम करता है मैने सफाई देने का प्रयास किया।
            आप आप बच्चन साहब का दोस्त है  आईला अरे कुर्सी लाओ रे अरे कोई चाय को बोलो बाप उनमे से एक कर्मचारी उत्सुक हो उठा।
            आप लोग ग़लत समझ रहे हैं। मैं अमिताभ बच्चन को नहीं अमित सक्सेना को तलाश कर रहा हूँ इसी यूनिट के साथ काम करते हैं मैने बात साफ़ की।
            ओ।  अच्छा वो येड़ा स्पॉट-बोय वो तो साला तीन दिन पहले चला गया।  उसकी टांग पर लाइट गिरा साला इंजर्ड हो कर गया एक ने बताया।
            क्या आपमें से कोई बता सकता है वो कहाँ रहता है चोट लगने की खबर सुन कर उसे देखने की मेरी उत्सुकता और बढ़ गयी।
            हां बतायेगा न साहब।  पहले एक-एक सिगरेट तो पिलाओ इंडियन सिनेमा की पोल खोलते हुए एक कर्मचारी ने बॉलीवुड अंदाज़ में कहा।
            सौरी लेकिन मैं सिगरेट नहीं पीता हूँ मैने गेट से बाहर कदम रखते हुए कहा।
            लेकिन वो सामने दुकान है न साहब; उधर से खरीदने का
            गेट के बाहर आने पर भी कुछ दूर तक मेरे पीछे-पीछे उनके पैरों की आहट सुनायी देती रही।  मैने हाथ दिखा कर एक टेक्सी को रोका और वहां से खिसक लिया।  मुम्बई का ये मेरा पहला दौरा था सो टैक्सी-ड्राइवर से वहां की ख़ास जगहों पर घुमाने का निवेदन किया और दिन तमाम होने तक शहर की सड़कें नापता रहा।  फिर  सुरमई शाम के ढलते-ढलते मैं होटल में वापिस लौट आया; डिनर ऑर्डर किया और कुछ ख़ास मित्रों को फ़ोन करने में व्यस्त हो गया।  ख़ास जतन-प्रयत्न के उपरांत अंतत% अमित का पता मिला और मुलाक़ात की संभावना बन गयी।  अमित से जल्द ही होने वाली मुलाक़ात के क्षणों के बारे में सोचते-सोचते रात का खाना डकार कर मैं जल्द ही सो गया।          
                 
            अगली सुबह लगभग दस बजे चाय-नाश्ते से निपट कर मैं होटल से बाहर निकल आया और टैक्सी पकड़ मुम्बई की व्यस्त सडकों में शामिल हो गया।  बताया गया पता टैक्सी द्वारा होटल से घंटे भर की दूरी पर था।  एक घंटे से कुछ पहले कोलाबा से सटा हुआ इलाका तलाशने पर मेरिन-ड्राइव से दायीं ओर जुड़ी हुई एक लम्बी सी दुकानों की कतार के पास टैक्सी रोक दी गयी।  शुरू की दो चार दुकानें छोड़ कर 'बॉलीवुड डी'लक्स कैफ़े'  का बड़ा सा साइन-बोर्ड साफ़ दिखाई पड़ रहा था।  ये अमित का ही कैफ़े था पिछली रात पता देने वाले से मालूम हुआ।  भाड़ा थमाते हुए टैक्सी को विदा कर मैं कैफ़े की तरफ बढ़ गया।

            सामान्य से ऊपर किन्तु डीलक्स से थोड़ा सा निम्न औसत साइज़ का ये कैफ़े अन्दर से काफी साफ&सुथरा नज़र आया। खाने-पीने के हॉल के बाद बिलकुल पछली दीवार से सटे अर्धचंद्राकार काउंटर पर एक अधेड़ उम्र की सुंदर युवती ग्राहकों का ऑर्डर व पैसों का लेन&देन देख रही थी।  लगभग तीन बैरे टेबलों पर ग्राहकों की सेवा में थे।  कम से कम चार टेबल ग्राहकों से भरी थीं और कुछ लोग तो मेरे ही साथ-साथ अन्दर घुसे थे। तात्पर्य ये कि अमित का धंधा ठीक चल रहा था ये जान कर मुझे खुशी हुई। बिना कोई दुबिधा मन में लिए सीधा काउंटर पर पहुंचा और उस सुन्दर युवती के सम्मुख खड़ा हो गया।  उसकी सूरत कुछ जानी&पहचानी सी लग रही थी। मस्तिष्क पर ज़ोर डालने से याद आया कि उसको टीवी सीरियल में छोटे&मोटे रोल करते देखा था; नाम से परिचित नहीं था।  कुछ क्षण मैं उसे निहारता रहा पर वो बिना सर उठाये काम में व्यस्त रही।  फिर मैने उसकी तन्द्रा भंग की

            सुनिए आप शायद मिसेज़ सक्सेना हैं
            आप कौन मैने आपको पहचाना नहीं  मेरे मुहं से ऐसा संबोधन सुन कर वो कुछ चौंक सी गयी।
        कैसे पहचानेंगी मैं अमित का पुराना दोस्त हूँ और उससे मिलने अमरीका से आया हूँ। सरप्राईस देना चाहता था सो उसे खबर नहीं की 
            लेकिन वो तो अच्छा एक मिनट मैं अभी आती हूँ---

            काउंटर के पीछे बाईं ओर बने दरवाज़े में से होती हुई वो युवती कहीं अलोप हो गयी।  मैं कुछ देर प्रतीक्षा में वहीं खड़ा रहा।  दीवार की दूसरी ओर वो बड़ा सा  दरवाज़ा शायद किचन का था जहां से बैरा लोग अन्दर&बाहर आते&जाते मुझे घूर रहे थे।  कुछ देर पश्चात काउंटर वाले दरवाज़े से पर्दा उठाते हुए उस युवती ने मुझे अन्दर आने का संकेत दिया।  बाजू से काउंटर को लांघता हुआ मैं युवती के पीछे&पीछे अन्दर की ओर चल पड़ा।  कुछ दूरी पर ही ऊपर जा रही सीढ़ियों द्वारा वो मुझे दूसरी मंजिल पर ले गयी।  कैफे के ठीक ऊपर ये अमित का निवास स्थान था।  कमरे के अन्दर घुसते ही सोफे पर अधलेटे अमित को मैने तुरंत पहचान लिया।  इतने वर्षों बाद चेहरे का मांस भले ही लटक सा गया था पर नक्श नहीं बदले थे।  पट्टियों से बंधी उसकी एक टांग टेबल पर सीधी रखी हुई थी अतः वो उठ कर मेरा सत्कार करने में असमर्थ जान पड़ा।  उसने केवल हाथ हिल कर ही मुझे अन्दर बुलाया और उसके पास लगी कुर्सी पर बैठ जाने का संकेत दिया।  

            अरे वाह अमित भाई चालीस साल बाद भी वैसे के वैसे दिख रहे हो मैने उसे उत्साहित करने की मंशा से संबोधित किया।
            कैसा है बीडू  अक्खा उमर के बाद आज साला आईच गया मिलने कू अच्छा कियेला रे बाप उसने मुम्बैया शब्दों में मेरा स्वागत किया।
            कल मैं रणजीत स्टूडियो गया था तुम्हें ढूँढने।  वहां पता लगा के तुम्हारी टांग में गहरी चोट आयी है सांत्वना देते हुए मैने उसे बताया। 
            कौन बोला रे तेरे कू साला पकिया होयिंगा ये साला  चू--- लोग।  चल छोड़ तू बता अमरीका में खूब साला डॉलर छापता होयिंगा है ना
            अरे नहीं दोस्त बस काम चलता है

            मै जितना संक्षेप में हर बात को टालने का प्रयत्न करता रहा उतना ही वो खोद&खोद कर गुज़रे चालीस वर्षों का विवरण पूछता रहा।  यही नही अपने साथ गुजरी दास्ताँ भी वो काफी विस्तार में बताता रहा।  उसने बताया की अथक प्रयास के बाद भी जब उसे फिल्म के पर्दे पर काम करने का अवसर नहीं मिला तो पेट भरने की खातिर वो स्पॉट बोय बन गया।  अपनी असफलता की शर्म के कारण पिता से भी सहायता माँगना उसने उचित नहीं समझा।  बीच में अपनी पत्नी से मिलवाते हुए अमित ने बताया कि  बुरे समय में उसने उसकी कितनी मदद की थी।  इसी के चलते तब अमित ने उससे विवाह भी कर लिया था। अमित ने ये भी बताया कि उसके  पिता ने नाराजगी के कारण मृत्यू के बाद उसे जायदाद का बहुत कम हिस्सा दिया था जिससे उसने ये कैफे खोला और जीवन में कुछ सुधार हुआ।  और भी ज़िंदगी के बहुत से उतराव चढ़ाव देर तक सुनाता रहा, वो भी अपुन तुपुन बीडू वगैरा की संज्ञाओं के साथ मुम्बैया लहजे में।  कुछ देर बाद नीचे से एक बैरा ट्रे में बीयर की दो बोतलें व खाने के लिए सलाद व चिकन आदि ले आया।  फिर अगले दो घंटे तक बियर व खाने के साथ बातों का सिलसिला जारी रहा।  दिन भर अच्छे खासे तीन&चार घंटे बात चीत में गुज़रे लेकिन विशेष बात ये रही की समस्त बातचीत के दौरान पैसों का ज़िक्र कहीं नहीं आया।  

            अंत में, हम दोनों जब अपनी-अपनी चालीस वर्षीय राम-कहानी सुना चुके तो मुझे लगा कि अब लिफ़ाफ़े की बात आ ही जानी चाहिए।  और तब, कुछ ऐसा अजीब सा, अनुचित सा हुआ जब मैने चालीस वर्ष पहले खोया हुआ 7000:- रुपयों से भरा पीला लिफ़ाफ़ा अमित के हाथ में थमाया।  

            जानता हूँ अब तुम्हें इन रुपयों की ज़रुरत नहीं है ।  पर फिर भी
            ये साला तेरे कू किधर से मिला बाप कहते&कहते अमित की जुबान लड़खड़ा गयी और आँखें चौड़ी हो कर लिफ़ाफ़े पर जम सी गयी ।
            चलो शुक्र है मिल तो गया।  पर मुझे अफ़सोस तो ये है की ये रक़म तेरे काम नहीं आयी मैने बात संभालते हुए लिफ़ाफ़े को टेबल पर रख दिया।
            अरे छोड़ न बीडू अपुन का अक्खा तकदीर ईच साल पांडू है नज़रें चुराते हुए अमित बगलें झाँकने लगा। 
            पर दोस्त मुझे ये समझ नहीं आया कि ये लिफ़ाफ़ा टंकी के पीछे कैसे पहुंचा  मैंने बात कुरेदने की कोशिश की। 
            तू बहुत अच्छा आदमी है रे एक दम मस्त।  और एक अपुन है साला

            कुछ गंभीर सा सोचते हुए अमित की आवाज़ अनायास ही बैठ गयी गला रुंध सा गया।  बस, उसके कंधे पर मेरे हाथ रखने भर की देर थी और वो मानो बाँध तोड़ कर बह निकला  और फिर उसकी रुंधी आवाज़ के साथ साफ़ हुआ पीले लिफ़ाफ़े का दबा हुआ रहस्य।  उस रोज़ जब वो पैसे लेने मेरे घर आया था।

           अमित की जुबानी दिल्ली वाले साफ़ लहजे में

            दरअसल पिता जी ने मुझे ज़िद पे अड़ा देख माँ के कहने पर पैसे दे दिए थे और मुम्बई की टिकेट भी बुक करवा दी थी।  उस दिन मैं जाने से पहले केवल तुझसे मिलने ही आया था।  पहुँचने पर पता चला कि तू घर पर नहीं था।  भाभी ने मुझे अन्दर बैठाया और चाय बनाने रसोई में चली गयी।  सामने ही टेबल पर फूलदान के नीचे दबा ये पीला लिफ़ाफ़ा रखा था।  मैने छू कर देखा और रुपयों को महसूस कर लिया ।  वो एक क्षण था जब मेरा दिमाग लालच के शिकंजे में फंस गया।  सोचा, कुछ एक्स्ट्रा-कैश पास रहेगा तो आसानी होगी।  मैने लिफ़ाफ़े को उठा कर फ़ौरन जेब में रख लिया।  भाभी को दूर से ही मैं फिर आ जाऊँगा  कह कर बाहर निकल ही रहा था कि सामने से तू आ गया और मुझे फिर से घसीट कर अन्दर ले आया।  सब के साथ चाय-समोसे खाते समय मेरा दम घुट रहा था कि यदि लिफ़ाफ़े का ज़िक्र छिड़ गया तो   मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था की लिफ़ाफ़ा किस तरह जेब से निकाल कर वहीं कहीं रख दूं।  भैया-भाभी के कमरे से चले जाने के बाद भी तू कमरे में जमा रहा।  बस तब मेरे पास केवल एक ही रास्ता बचा था टॉयलेट ।  मैं तुरंत ही उठा और वहां जा कर लिफ़ाफ़े को फ्लश की टंकी के पीछे रख कर चला आया।  मैने लिफ़ाफ़े का एक कोना ज़रा सा बाहर निकला छोड़ दिया था ताकि किसी दिन परिवार में से किसी की नज़र उस पर पड़ जाए।  

            पिछले  चालीस बरस से लगातार तुझसे  संपर्क बनाये रखने का मूल कारण भी यही था; किसी दिन तू इन पैसों के बारे में पूछगा तो मुझे तसल्ली हो जायेगी कि लिफ़ाफ़ा तुझे मिल गया है,"

          अरे वाह साला यहाँ भी उस्तादी  तू गुरू है भई मान गए मैने बे-तक़ल्लुफ़ होते हुए कहा।
            अरे यार अपुन को माफ़ कर दे और ये रुपया अब इनकी कोई ज़रूरत नहीं उसने लिफ़ाफ़ा टेबल से उठा कर मेरी ओर बढ़ा दिया। 
            
            मुझे पता था कि अब उसे इस रक़म की आवश्यकता नहीं है वो इसे कभी नहीं लेगा।  लेकिन मैने भी मन में ठान लिया था कि वो लिफ़ाफ़ा अपने साथ वापिस ले कर नहीं जाना है।  मैं किसी भी तरह वो रक़म वहीं छोड़ जाने के लिए कोई तरकीब सोचने लगा।  अमित ने तिपाई पर रखे पैकेट से सिगरेट निकाल कर होठों में दबाई और इधर-उधर माचिस ढूँढने लगा।  तभी फर्श पर गिरी हुई माचिस पर मेरी नज़र पड़ी और मुझे अपनी समस्या का हल मिल गया।  मैने कुर्सी से थोडा उचक कर माचिस उठाई और   

            अच्छा ये बताओ तुम्हें अभी तक वो माचिस का खेल याद है मतलब अब भी निशाना उतना ही पक्का है  मैंने माचिस पकड़ाते हुए अमित से पूछा। 
            क्या बात करता है मैन अरे वो गेम अपुन बॉलीवुड में बहुत पॉपुलर किएला है।  बोले तो, सब चमचा लोग खेलता है और मुझको उस्ताद भी बोलता है

            अमित के चेहरे पर गर्व के चिन्ह से उभर आये थे शायद फ़िल्मी कैरियर में अपनी नाकामयाबी को इस माचिस के खेल की उस्तादी से ढांप रहा था। टांग को आहिस्ता से फर्श पर रखते हुए वो उठ खडा हुआ और मुझे पीछे&पीछे आने का इशारा किया। मेरे कंधे पर हाथ रख, संभलते हुए सीढ़ियों से उतर कर वो मुझे कैफ़े के लाउंज  में ले आया।  फिर सामने कुछ दूरी पर लगी एक टेबल की ओर इशारा कर मुझे कुछ दिखने लगा।  टेबल पर चार&पांच लफंगे टाइप युवक माचिस उछाल कर प्याले में डालने का खेल खेल रहे थे।

            बीडू  अब येईच हैं यहाँ के उस्ताद लोग।  अपुन तो बस खलास हो गयेला है
          आज एक बार अपना जलवा भी दिखा दे ना दोस्त।  मेरी खातिर हो जाये एक-एक दाव पैसा मैं  लगाता हूँ

            अमित ने मेरी आँखों में गहराई तक झाँक कर देखा कुछ सोचा फिर सिगरेट का एक लम्बा सा काश खींचा और खेलने के लिए टेबल की ओर बढ़ गया।  कुर्सी सरकाते हुए अमित ने बहुत नाटकीय अंदाज़ मे बैठे हुए सब लड़कों को ललकारा  

            बस एक आख़री बाज़ी।  तुम्हारा तीन चांस, अपुन का बस एक स्ट्रोक।  बोले तो पूरा 7000/- रुपया।  आता है कोई---
            अपने उस्ताद को टेबल पर ललकारते देख पहले तो सबकी सिट्टी&पिट्टी गुम हो गयी।  फिर ये सोच कर कि शायद इतने सालों में उस्ताद के निशाने पे ज़ंग लग गया होगा उनमे से दो सामने आये।  दोनों लड़कों को माचिस उछाल कर कप में डालने का तीन बार का चांस था जब की अमित को केवल एक ही स्ट्रोक में माचिस को कप में डालना था। पहले लड़के ने निशान चूकते हुए अपने तीनों चांस खो दिए।  दूसरा खिलाड़ी ज़रा अच्छा निशाने बाज़ था।  फिर भी उसने अमित से  हाथ जोड़ कर आग्रह किया की यदि वो हार गया तो पैसे किश्तों में चुकता कर सकेगा।  अमित ने उसका आग्रह स्वीकार करने में तनिक भी विलम्ब नहीं किया और माचिस की डिब्बी को उसकी ओर बढ़ा दिया। 

            लड़के ने पहले तो आँख मूँद कर गणपति बप्पा मोरया  का हुंकारा लगाया और तुरंत ही उंगली के नीचे दबाये अंगूठे को स्प्रिंग की तरह छोड़ कर माचिस की डिब्बी को उछला।  गणपति बप्पा  की लीला रंग लाई और माचिस की डिब्बी पहली बार में ही कॉफ़ी के कप में जा गिरी।  उस लड़के को अपनी किस्मत पर यकीन नहीं हो रहा था।  अब केवल एक स्ट्रोक अमित का।  अमित ने माचिस की डिब्बी को टेबल के किनारे रख कर अंगूठे के स्ट्रोक से हवा में ज़ोर से उछाला फिर डिब्बी का रुख देखे बिना मेरे हाथ से लिफ़ाफ़ा लेकर लड़के के हाथ में थमा दिया और काउंटर की तरफ मुड़ गया।  कुछ ही सेकिंड में माचिस की डिब्बी हवा में कुलाचें भारती हुई कप के कोने से टकरा कर मेरे पैरों के पास आ गिरी।  उस पर बने ताश के निशान मानो उस पर हंस रहे थे।  यदि अमित ने वही किया जो मैं उसके बारे में सोचा रहा था तो उसके दिमाग़ की अथाह सराहना करनी होगी।  

            लड़के ने लिफ़ाफ़े में से रुपयों की गड्डी निकाल कर उसे बस देख भर लिया गिना नहीं।  फिर उसे जेब में डाल उस्ताद को दुआएं देता हुआ कैफ़े से बहार निकल गया। काउंटर के पास जा कर मैने अमित के चेहरे को पढने का प्रयास किया।  कुछ देर खामोशी के पश्चात मुंह से सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए अमित ने बताया की वो लड़का पछले दो-तीन वर्षों से अपने फ़िल्मी कैरियर के लिए बॉलीवुड में धक्के खा रहा था और कई लोगों के क़र्ज़ में डूबा हुआ था।  

            वापसी से पहले गुज़रे उन आख़री लम्हों में मैने अमित को जितना जाना, उतना तो कॉलेज के वक़्त साथ गुज़ारे छै-आठ महीनों में भी नही जान सका था।  शाम के पांच बजने को थे।  उससे विदा ले कर मैं कैफ़े से बाहर निकल आया।  हल्की-हल्की लहराती हवा सुहावनी लग रही थी।  मैने देखा, सड़क पर पड़ा खाली पीला लिफ़ाफ़ा रुपयों का बोझ दिल और दिमाग से निकाल कर खुली हवा में कलाबाज़ियाँ खा रहा था--- 

             और 7000:- की रक़म वहां जहां नियति द्वारा उसे निश्चित किया गया थाA
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Lalit Walia <lkahluwalia@yahoo.com>

vastu hints: acharya sanjiv verma 'salil'


वास्तु सूत्र  ------  संजीव

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(१ ) भवन के मुख्य द्वार पर किसी भी ईमारत, मंदिर, वृक्ष, मीनार आदि की छाया नहीं पड़नी चाहिए।

(२ ) मुख्य द्वार के सामने रसोई बिलकुल नहीं होनी चाहिए।

(३ ) रसोई घर, पूजा कक्ष तथा शौचालय एक साथ अर्थात लगे हुए न हों।  इनमे अंतर होना चाहिए।

(४ ) वाश बेसिन, सिंक, नल की टोंटी, दर्पण आदि उत्तरी या पूर्वी दीवार के सहारे ही लगवाएं।

(५) तिजोरी (केश बॉक्स या सेफ)
दक्षिण या पश्चिमी दीवार में लगवाएं ताकि उसका  दरवाजा उत्तर या पूर्व में खुले।
 

 (६) भवन की छत एवं फर्श नैऋत्य में ऊँचा रखें एवं  शान में नीचा रखें।
 
(७) पूजा स्थान इस तरह हो कि पूजा करते समय आपका मुँह पूर्व, उत्तर या ईशान (उत्तर-पूर्व) दिशा में हो। 
 
(८) जल स्रोत (नल, कुआँ, ट्यूब वेल आदि), जल-टंकी ईशान में हो।

(९) अग्नि तत्व (रसोई गृह) भूखंड के आग्नेय में हो। चूल्हा, ओवन, बिजली का मीटर आदि कक्ष के दक्षिणआग्नेय में हों। 

(१०) नैऋत्य दिशा में भारी निर्माण जीना, ममटी आदि तथा भारी सामान हो। घर की चहार दीवारी नैऋत्य  में अधिक ऊँची   व मोटी तथा ईशान में दीवार कम नीची व कम मोटी अर्थात पतली हो।
 
(११) वायव्य दिशा में अतिथि कक्ष, अविवाहित कन्याओं का कक्ष, कारखाने का उत्पादन कक्ष रखें। यहाँ सेप्टिक टैंक बना सकते हैं। टैक्सी सर्विस वाले यहाँ वहां रखें तो सफलता अधिक मिलेगी।
 

hindi humourous poetry: acharya sanjiv verma 'salil'

हास्य रचना
बतलायेगा कौन?
संजीव
*
मैं जाता था ट्रेन में, लड़ा मुसाफिर एक.
पिटकर मैंने तुरत दी, धमकी रखा विवेक।।

मुझको मारा भाई को, नहीं लगाना हाथ।
पल में रख दे फोड़कर, हाथ पैर सर माथ ।।

भाई पिटा तो दोस्त का, उच्चारा था नाम।
दोस्त और फिर पुत्र को, मारा उसने थाम।।

रहा न कोई तो किया, उसने एक सवाल।
आप पिटे तो मौन रह, टाला क्यों न बवाल?

क्यों पिटवाया सभी को, क्या पाया श्रीमान?
मैं बोला यह राज है, किन्तु लीजिये जान।।

अब घर जाकर सभी को रखना होगा मौन.
पीटा मुझको किसी ने, बतलायेगा कौन??

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सोमवार, 20 मई 2013

lgerman laghu katha : snehil bahan deepti gupta


  लघु कथा:
दीप्ति गुप्ता जी ने जर्मन लेखक
C. Schmid,  की प्रसिद्ध  ‘बाल कथाओं’ का  हिन्दी में अनुवाद  किया है ! यह पुस्तक प्रकाशनाधीन है ! आज  The  Loving  Sister   का हिन्दी रूपान्तरण पढ़िए !

                           स्नेहिल बहन
·          
·       मारिया  आंटी  बहुत  रईस थी लेकिन अकेली थी उसने एक नेक, उदार-दिल, मेहनती, हँसमुख और आज्ञाकारी अनाथ लड़की को गोद  लिया। एक दिन  मरिया  आंटी  उस लड़की से बोली-
           ''एनी, तुम बहुत अच्छी और प्यारी हो। मैं चाहती हूँ कि तुम्हें क्रिसमस के मौके पर एक अच्छा सा उपहार दूँ। मैंने दुकानदार से बात कर ली है, ये रुपये लो और दुकान पर जाकर अपने लिए एक मनपसन्द ख़ूबसूरत  ड्रेस ख़रीद लाओ।''

·          

·         मारिया ने  एनी को  रुपये दिए, पर एनी कुछ सोचती  खड़ी रही और फिर बोली माँ, अभी  मेरे पास काफ़ी कपड़े हैं, जबकि मेरा बहन फ़्रान्सिस फटे- पुराने कपड़े पहनती है। यदि वह मुझे नई ड्रेस पहने देखेगी तो निश्चित ही मन ही मन थोड़ी उदास हो जायेगी। यदि आप इज़ाज़त दें तो ये रुपये मैं अपनी बहन को भेज दूँ।  वह मुझे बहुत प्यार करती है। जब मैं बीमार थी तो वह रोज़ मुझसे मिलने आती थी और बहुत ही प्यार से मेरी देख-भाल करती थी।

·         यह सुनकर  ममतामयी  मारिया  बोली ''मेरी बच्ची, अपनी बहन को एक ख़त लिखो कि वह यहाँ आए और हमारे पास  रहे। मैं तुम दोनो को बराबर रुपये दूँगी क्योंकि तुम दोनो एक दूसरे को एक जैसा प्यार करती हो, एक दूसरे का ख़्याल रखती हो। मैं तुम दोनो को ही ख़ुश रखना चाहूँगी।''

               

                          सुख के खुशनुमा और दुख के उदास दिनों में

              बहन   से  बेहतर  कोई  दोस्त  नहीं  होता

              जो  थके और मायूस होने पे तुम्हे हँसाती है

              और गुमराह  होने पे रास्ता  दिखाती है  !!”

   


                                                                                            
                                                                                                     दीप्ति

think

सोचिये क्यों???








































Emjambment अपूर्णान्वयी छंद दीप्ति गुप्ता - संजीव


14)  Enjambment :
  दीप्ति गुप्ता
इसमें कविता  की पहली दो पंक्तियों के  अंतिम शब्द से  अगली दो-दो पंक्तियां   शुरू होती हैं और अंत तक  कविता इसी तरह लिखी जाती है  ! जैसे –
 
The word Enjambment comes from the French word for "to straddle". Enjambment  poem  is the  continuation of  stanzas  from  the  last  word  of previous   two lines  into the next.
                              

  ‘Tree’
    I think that I shall never see
A poem lovely as a tree.

A tree whose hungry mouth is prest
Against the sweet earth's flowing breast;

A tree that looks at God all day,
And lifts her leafy arms to pray;

A tree that may in summer wear
A nest of robins in her hair; 


अपूर्णान्वयी छंद:
(Enjambment poetry in Hindi)
झूठ न होता झूठ
संजीव

'झूठ कभी मत बोलना', शिक्षक ने दी सीख
पूछा बालक ने: 'कहाँ इससे बढ़कर झूठ।

झूठ न बोलें तो कहें, कैसे होगा काम?
काम बिना हो जाएगा, अपना काम तमाम।

झूठ बिना क्या कहेगा? नेता, पंडित, चोर।
रहे मौन तो नहीं क्या, होगा संकट घोर?

झूठ बिना थाने सभी, हो जायेंगे बंद।
सभी वकील-अदालतें, गायेंगे क्या छंद?

झूठ बिना क्या कहेंगे, दफ्तर जाकर लेट?
छापा मारे आयकर, जिस पर वह अपसेट।

झूठ बिना खुद सत्य भी, मर जाए बिन मौत।
क्या कह दें? पूछे पुलिस कौन हुआ है फौत?

'झूठ न होता झूठ गर सच दें उसको नाम।'
शिक्षक बोला, छात्र ने सविनय किया प्रणाम।।

*****

शनिवार, 18 मई 2013

bundeli geet aa khen sehar acharya sanjiv verma 'salil'

बुन्देली गीत;
संजीव
*
आ खें सेहर गाँव पछता रओ,
नाहक  मन खों चैन गँवा दओ....
*
छोर खेत-खलिहान आओ थो,
नैनों  मां सपना सजाओ थो।
सेहर आओ तो छूटे अपने,
हाय राम रे! टूटे सपने।
धोखा दें खें, धोखा खा रओ....
*
दूनो काम, मजूरी आधी,
खाज-कोढ़ मां रिस्वत ब्याधी।
सुरसा कहें मूं सी मंहगाई-
खुसियाँ जैसे नार पराई।
आपने साए से कतरा रओ....
*
राह हेरती घर मां तिरिया,
रोत हटी बऊ आउत बिरिया।
कब लौं बहले बिटिया भोली?
खुद  सें खुद ही आँख चुरा रओ....
***
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in


shashthi purti kavivar rakesh khandelwal

युग कवि राकेश खंडेलवाल के प्रति प्रणतांजलि:

लेखनी में शारदा का वास है, रचते रहो,
युग हलाहल से कहो कवि -कंठ में पचते रहो।
काल चारण बन तुम्हारे गीत गायेगा-
कवि-चरण ठहराव से बचते रहो।।
*
तुम नहीं बस तुम, समय की चेतना हो,
ह्रदय में अन्तर्निहित मनु-वेदना हो।
नाद अनहद गुंजाते हो अक्षरों से-
भाव लय रस शब्द मंथित रेतना हो।।
*
अक्षरी आकाश के राकेश हो तुम,
शब्द के वातास में भावेश हो तुम।
नाद अनहद से निनादित गीत सर्जक-
नव प्रतीकों में बसे बिम्बेश हो तुम।।
*
गीत तुम लिखते नहीं हो, गीत तुममें प्रगट होते,
भाव उर में आ अजाने रसों की नव फसल बोते।
रस न बस में रह स्वयं के, मानते आदेश कवि का-
लय विलय हो प्राण में तब हो समाधित खो न खोते।।
*
विनयावनत
संजीव 
कविवर राकेश खंडेलवाल की षष्ठी पूर्ति पर विशेष वीडिओ
द्वारा शार्दूला नोगजा

 

अमिताभ त्रिपाठी

काव्याकाश के निर्मल राकेश को उनकी षष्ठिपूर्ति पर हार्दिक बधाई!
कुछ लोग जन्मना कवि होते हैं
कुछ लोग कवित्व का अर्जन कर लेते हैं श्रम से
और कुछ लोगों पर यह थोप दिया जाता है या वे इसे जबरदस्ती ओढ़ लेते हैं। 
यहाँ मैनें फ्रांसिस बेकन की नकल मारी है सिर्फ़ यह बताने के लिये की इसकी पहली पंक्ति पर राकेश जी विराजमान हैं और अन्तिम पर मैं सगर्व खड़ा हूँ। इन दोनों सीमाओं के बीच यदि समाकलन कर दिया जाय तो शेष सभी कवि आ जायेंगे। आज के भी, कल के भी और आने वाले कल के भी।
राकेश जी में कविता अजस्र पयस्विनी की भाँति बहती है बिना किसी अवरोध के और बिना किसी कृत्रिमता के। राकेश जी के काव्यलोक का भ्रमण करने पर ज्ञात होता है कि कविता वहाँ पर किसी लम्बे फीते की तरह खुलती चली जाती है। अविच्छिन्न और अनवरुद्ध। 
फ़िराक़ ने ग़ज़ल के बारे में कहा है कि यह गद्य की विधा है। अर्थात्‌ वहाँ पर बातों को कहा जाता है और सुना जाता हैं, जैसा कि सामान्य वार्तालाप में होता है। राकेश जी की कविताओं को पढ़ कर मेरे मन में कई बार यह विचार उठता है कि उनके गीत वास्तव में लयात्मक गद्य हैं। राकेश जी के काव्य में मानवीकरण, रूपक और बिम्ब प्रचुरता से समाविष्ट हैं जिसके कारण उसके वाचन या गायन से परिवेश स्वतः जीवन्त हो उठता है। उनका बिम्ब विधान इतना सार्थक और सटीक होता है कि वह अमूर्त का साक्षात स्पर्श करा देता है। 
मेरा बहुत मन है कि मैं उनकी काव्ययोजना और बिम्ब विधान पर कुछ लिखूँ परन्तु तथाकथित व्यस्तता और अपने अपरिभाषित आलस्य के कारण अवसर खिसकता जा रहा है। डर है किसी और ने लिख दिया तो मुझे बड़ा दुख होगा। फिर भी कुछ बातें...
राकेश जी आजीविका के लिये जिस व्यवसाय में हैं वह उन्हें इतना समय नहीं देता कि वे व्यवस्थित योजना के द्वारा लेखन करें फिर भी आश्चर्य हैं जब भी उनका कोई गीत 
हमारे सामने आता है तो वह एक सुचिन्तित और सुव्यस्थित योजना लिये हुये होता है। सहजता, सरलता और अकृत्रिमता उनके गीतों का प्रमुख गुण है। उनके बिम्ब प्रायः सुग्राह्य होते हैं। विस्तार भय से अभी उदाहरण नहीं दे रहा हूँ।
राकेश जी बहुत से प्रयोग नहीं करते। भावना को काव्य-यात्रा का पाथेय मानते हुये जिस भी प्रवाह (छन्द) में बात निकल पड़ती बहुत स्वाभावित रीति से उसी तरंग में बहते चले जाते हैं।
राकेश जी काव्य में बौद्धिक या छान्दसिक चमत्कार उत्पन्न करने की आधुनिक या प्राचीन किसी भी रीति (या आन्दोलन) का अनुसरण करते दिखाई नहीं देते।
उनकी शैली का लालित्य उनकी भाषा और काव्यगत वाक्य विन्यास में दिखाई देता है।
......अभी इतना ही
राकेश जी, आप शतायु हों आपकी लेखनी इसी तरह प्रवहमान रहे, उसका यश और कीर्ति अक्षुण्ण रहे यही ईश्वर से प्रार्थना है। कुछ अनुचित लिख दिया हो तो क्षमा कर दीजियेगा।
सादर
अमित, रचनाधर्मिता
Amitabh Tripathi <amitabh.ald@gmail.com>

doha taj laj paryay hai acharya sanjiv verma 'salil'




दोहा सलिल:
ताज लाज-पर्याय है…





संजीव
*
ताज लाज-पर्याय है, देखे दोहा मौन.
दर्दनाक सच सिसकता, धीर धराये कौन?
*
मंदिर था मकबरा है, ताज महल है नाम.
बलिहारी है समय की, कहें सुबह को शाम।।
*
संगमरमरी शान का, जीवित दस्तावेज।
हृदयहीनता छिपी है, यहाँ सनसनीखेज।।
*
तहखाने में बंद हैं, शिव कब हो उद्धार।
कब्रों का पाखंड है, शमशानी श्रृंगार।।
*
बूँद-बूँद जल टपकता, शिव गुम नीचे कब्र।
कब तक करना पडेगा, पाषणों को सब्र।।
*
चिन्ह मांगलिक सुशोभित, कई कमल-ओंकार।
नाम मकबरे का महल, कहीं न जग में यार।।
*
जितने बरस विवाह के, उतनी हों संतान।
तन सह पाए किस तरह, असमय निकली जान।।
*
बच्चे जनने की बनी, बीबी सिर्फ मशीन।
खेल वासना का हुआ, नाम प्यार की बीन।।
*
कैद बाप को कर हुए, जो सुत सत्तासीन।
दें दुहाई वे प्यार की, पद-मद में जो लीन।।
*
प्रथम जोड़ सम्बन्ध फिर, मान लिया आधीन।
छीन महल अपमान कर, तड़पाया कर दीन।।
*
कब तक पढ़ सुन कहेंगे, हम झूठा इतिहास?
पूछें पत्थर ताज के, हो गमगीन-उदास।।
*
मुक्तक
मुहब्बत है किसे कितनी, नहीं पत्थर बताएँगे?
नहीं दिल पास जिनके, कैसे दिल के गीत गायेंगे?
प्यार के नाम पर जनता के धन के फूंकनेवाले-
गरीबों की मुहब्बत को, न क्यों नीचा दिखायेंगे?
*
दोष होता न समरथ का, न मानेंगे कभी यारों,
सचाई सामने लाना है लो संकल्प यह सारों।
करो मत स्वार्थ, सत्ता या सियासत की अधिक चिंता-
न सच से आँख मूंदो, निडर हो सच ही कहो प्यारों।।
*
salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.in