कुल पेज दृश्य

रविवार, 15 अप्रैल 2012

गीत: हरसिंगार मुस्काए --संजीव 'सलिल'

गीत:

हरसिंगार मुस्काए

संजीव 'सलिल'
*
खिलखिलायीं पल भर तुम
हरसिंगार मुस्काए

अँखियों के पारिजात
उठें-गिरें पलक-पात
हरिचंदन देह धवल
मंदारी मन प्रभात
शुक्लांगी नयनों में
शेफाली शरमाए

परजाता मन भाता
अनकहनी कह जाता
महुआ तन महक रहा
टेसू रंग दिखलाता
फागुन में सावन की
हो प्रतीति भरमाए

पनघट खलिहान साथ,
कर-कुदाल-कलश हाथ
सजनी-सिन्दूर सजा-
कब-कैसे सजन-माथ?
हिलमिल चाँदनी-धूप
धूप-छाँव बन गाए
*
हरसिंगार पर्यायवाची: हरिश्रृंगार, परिजात, शेफाली, श्वेतकेसरी, हरिचन्दन, शुक्लांगी, मंदारी, परिजाता,  पविझमल्ली, सिउली, night jasmine, coral jasmine, jasminum nitidum, nycanthes arboritristis, nyclan, 

संजीव सलिल
जबलपुर

गीत: जिसने सपने देखे --संजीव 'सलिल'


गीत:
जिसने सपने देखे
संजीव 'सलिल'
*
 जिसने सपने देखे,
उसको हँसते देखा...
*
निशा-तिमिर से घिरकर मन ने सपना देखा.
अरुण उगा ले आशाओं का अभिनव लेखा..

जब-जब पतझर मिला, कोंपलें नव ले आया.
दिल दीपकवत जला, उजाला नव बिखराया..

भ्रमर-कली का मिलन बना मधु जीवनदायी.
सपनों का कंकर भी शंकर सम विषपायी..

गिरकर उठने के
सपनों का करिए लेखा.
जिसने सपने देखे,
उसको हँसते देखा...
*
सपने बुनकर बना जुलाहा संत कबीरा.
सपने बुने न लोई मति, हो विकल अधीरा..

सपने नव निर्माणों के बुनता अभियंता.
करे नाश से सृजन, देख सपने भगवंता..

मरुथल को मधुबन, 'मावस को पूनम करता.
संत अनंत न देखे, फिर भी उसको वरता..

कर सपना साकार
खींचकर कोशिश रेखा.
जिसने सपने देखे,
उसको हँसते देखा...
*

गीत- तुम मुसकायीं... ---संजीव 'सलिल'

गीत-
तुम मुसकायीं...
संजीव 'सलिल'
*
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
निशा-तिमिर का अंत हो गया.
ज्योतित गगन दिगंत हो गया.
रास रचकर तन-अंतर्मन-
कहे-अनकहे संत हो गया.

अपने सपने पूरे करने -
सूरज आया, भोर हो गया.
वन-उपवन में पंछी चहके,
चौराहों पर शोर हो गया.

कर प्रयास का थाम
मुग्ध नव आशा झूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
धूप सुनहरी
रूप देखकर मचल रही है.
लेख उमंगें पुरवैया खुश
उछल रही है.

गीत फागुनी, प्रीत सावनी
अचल रही है.
पुरा-पुरातन रीत-नीत
नित नवल रही है.

अर्पण मौन
समर्पण को भाये घरघूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
हाथ बाँधकर मुट्ठी देखे
नील गगन को.
जिव्हा पानकर घुट्टी
चाहे लगन मगन को.

श्रम न देखता बाधा-अडचन
शूल अगन को.
जब उठता पग, सँग-सँग पाता
'सलिल' शगन को.

नेह नर्मदा नहा,
झूम मंजिल को छूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

नीरज के गीत


युगकवि नीरज के गीत

*
खग! उड़ते रहना जीवन भर...

*
भूल गया है तू अपना पथ और नहीं पंखों में भी गति,
किन्तु लौटना पीछे पथ पर- अरे! मौत से भी है बदतर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...

*
मत दर प्रलय झकोरों से तू, बढ़ आशा-हलकोरों से तू,
क्षण में अरिदल मिट जायेगा- तेरे पंखों से पिसकर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...

*
यदि तू लौट पड़ेगा थककर, अंधड़ काल बवंडर से डर,
प्यार तुझे करनेवाले ही- देखेंगे तुझको हँस-हँसकर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...

*
और मिट गया चलते-चलते, मंजिल पथ तय करते-करते,
तेरी खाक चढ़ाएगा जग- उन्नत भाल औ' आँखों पर.
खग! उड़ते रहना जीवन भर...

 *
छिप-छिप अश्रु बहानेवालों...

 *
छिप-छिप अश्रु बहानेवालों, मोती व्यर्थ लुटानेवालों,
कुछ सपनों के मर जाने से- जीवन मरा नहीं करता है...

*
सपना क्या है नयन-सेज पर, सोया हुआ आँख का पानी.
और टूटना है उसका ज्यों- जागे कच्ची नींद जवानी.
गीली उम्र बनानेवालों, डूबे बिना नहानेवालों,
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है...

 *
माला बिखर गयी तो क्या है खुद ही हल हो गयी समस्या.
आँसू गर नीलाम हुए तो- समझो पूरी हुई तपस्या.
रूठे दिवस माननेवालों, फटी कमीज सिलानेवालों,
कुछ दीपों के बुझ जाने से आँगन नहीं मरा करता है...

*
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर, केवल जिल्द बदलती पोथी.
जैसे रात उतार चाँदनी- पहने सुबह धूप की धोती.
वस्त्र बदलकर आनेवालों, चाल बदलकर जानेवालों,
चंद खिलौनों के खोने से- बचपन नहीं मरा करता है...

 *
लाखों बार गगरियाँ फूटीं, शिकन न आयी पर पनघट पर.
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर.
तन की उम्र बढ़ानेवालों, लौ की आयु घटानेवालों,
लाख करे पतझर कोशिश पर- उपवन नहीं मरा करता है...

*
लूट लिया माली ने उपवन, लुटी न लेकिन गंध फूल की.
तूफानों तक ने छेड़ा पर- खिड़की बंद न हुई धूल की.
 नफरत गले लगानेवालों, सब पर धूल उड़ानेवालों,
 कुछ मुखड़ों की नाराजी से- दर्पण नहीं मरा करता है...

*****
जीवन कटना था...

*
जीवन कटना था, कट गया...
अच्छा कटा, बुरा कटा,
यह तुम जानो.
मैं तो यह समझता हूँ,
कपड़ा पुराना फटना था, फट गया.
जीवन कटना था, कट गया...

*
रीता है क्या कुछ,
बीता है क्या कुछ,
यह हिसाब तुम करो.
मैं तो यह कहता हूँ-
परदा भरम का जो हटना था, हट गया.
जीवन कटना था, कट गया...

*
क्या होगा चुकने के बाद,
बूँद-बूँद रिसने के बाद?
यह चिंता तुम करो.
मैं तो यह कहता हूँ-
कर्जा जो मिट्टी का पटना था, पट गया.
जीवन कटना था, कट गया...

*
बँधा हूँ कि खुला हूँ.
मैला हूँ कि धुला हूँ.
यह विचार तुम करो-
मैं तो यह सुनता हूँ-
घट-घट का अंतर जो घटना था, घट गया.
जीवन कटना था, कट गया...

********
धर्म है...

*
जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है...
*
जिस वक्त जीना ग़ैर मुमकिन सा लगे
उस वक्त जीना फर्ज़ है इन्सान का.
लाज़िम लहर के साथ है तब खेलना-
जब हो समुन्दर पर नशा तूफ़ान का.
जिस वायु का दीपक बुझाना ध्येय हो-
उस वायु में दीपक जलना धर्म है...

 *
हो नहीं मंजिल कहीं जिस राह की.
उस राह चलना चाहिए इंसान को.
जिस दर्द से सारी उमर रोते कटे,
वह दर्द पाना है जरूरी प्यार को.
जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है-
उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है...

 *
आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे,
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर.
उसकी ख़बर में ही सफ़र सारा कटे,
जो हर नज़र से, हर तरह हो बेख़बर.
जिस आँख का आँखें चुराना कम हो-
उस आँख से आँखें मिलाना धर्म है...

*
जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी,
तब माँग लो ताकत स्वयं ज़ंजीर से.
जिस दम न थमती हो नयन-सावन-झड़ी,
उस दम हँसी ले लो किसी तस्वीर से.
जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो-
तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है...
*
कालजयी रचनाएँ :
कारवां गुज़र गया
गोपाल दास सक्सेना 'नीरज'
*
हिंदी काव्यमंच से चलचित्र जगत तक, सुदूर ग्राम्यांचलों से महानगरों तक, कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिन्दी गीत और ग़ज़ल को सूफियाना प्यार और आत्मिक श्रृंगार से समृद्ध करनेवाले महान अर्चनाकर नीरज जी का एक कालजयी गीत प्रस्तुत है काव्यधारा के पाठकों के लिये:

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी,
बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े
बहार देखते रहे|
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
*
नींद भी खुली न थी,
कि हाय! धूप ढल गयी.
पाँव जब तलक उठे,
कि जिंदगी फिसल गयी.
पात-पात झर गए,
कि शाख-शाख जल गयी.
चाह तो निकल सकी न,
पर उमर निकल गयी.
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए.
साथ के सभी दिए,
धुआँ पहन-पहन गए.
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके.
उम्र के चढ़ाव का,
उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
*
क्या शबाब था कि फूल-
फूल प्यार कर उठा.
क्या सरूप था कि देख,
आइना मचल उठा.
इस तरफ ज़मीन और
आसमां उधर उठा.
थाम कर जिगर उठा कि,
जो उठा नजर उठा.
एक दिन मगर यहाँ
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली,
कि घुट गयी गली-गली.
और हम लुटे-लुटे,
वक़्त से पिटे-पिटे,
सांस की शराब का,
खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
*
हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़,
चाँद की सँवार दूँ.
होंठ थे खुले कि हर,
बहार को पुकार दूँ.
दर्द था दिया गया,
कि हर दुखी को प्यार दूँ.
और साँस यूँ कि स्वर्ग,
भूमि पर उतार दूँ.
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गयी सहर.
वह उठी लहर कि ढह-
गये किले बिखर-बिखर.
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफन,पड़े,
मज़ार देखते रहे
माँग भर चली कि एक,
जब नयी-नयी किरन.
ढोलकें धमक उठीं,
ठुमक उठे चरन-चरन.
शोर मच गया कि लो,
चली दुल्हन, चली दुल्हन.
गाँव सब उमड़ पड़ा,
बहक उठे नयन-नयन.
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पूछ गया सिन्दूर तार-
तार हुई चूनरी.
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए,
कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया,
गुबार देखते रहे...
*********
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

 ********* *

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

लघुकथा: जंगल में जनतंत्र - संजीव 'सलिल'

लघुकथा:
जंगल में जनतंत्र -
संजीव 'सलिल'

जंगल में चुनाव होनेवाले थे। मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे।

- ' जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर कदम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।' '

-''मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके कागज़ घर पर दे आया हूँ।'' भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया।

मंत्री जी खुश हुए। तभी उल्लू ने आकर कहा- 'अब तो बहुत धांसू बोलने लगे हैं। हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखी' और एक लिफाफा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया।

 विभिन्न महकमों के अफसरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी।
समाजवादी विचार धारा के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफाफों को देखते हुए सोच रहे थे - 'जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद। '


 ********************
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
 http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

कवि और कविता १. : प्रो. वीणा तिवारी --आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'


कवि और कविता १. : प्रो. वीणा तिवारी
 *
कवि परिचय:
३०-०७-१९४४, एम्. ए., एम्,. एड.
प्रकाशित कृतियाँ - सुख पाहुना सा (काव्य संग्रह), पोशम्पा (बाल गीत संग्रह), छोटा सा कोना (कविता संग्रह} .
सम्मान - विदुषी रत्न तथा शताधिक अन्य.
संपर्क - १०५५ प्रेम नगर, नागपुर मार्ग, जबलपुर ४८२००३.
*
बकौल लीलाधर मंडलोई --
'' वे जीवन के रहस्य, मूल्य, संस्कार, संबंध आदि पर अधिक केंद्रित रही हैं. मृत्यु के प्रश्न भी कविताओं में इसी बीच मूर्त होते दीखते हैं. कविताओं में अवकाश और मौन की जगहें कहीं ज्यादा ठोस हैं. ...मुख्य धातुओं को अबेरें तो हमारा साक्षात्कार होता है भय, उदासी, दुःख, कसक, धुआं, अँधेरा, सन्नाटा, प्रार्थना, कोना, एकांत, परायापन, दया, नैराश्य, बुढापा, सहानुभूति, सजा, पूजा आदि से. इन बार-बार घेरती अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए पैबंद, कथरी, झूलता पंखा, हाशिया, बेहद वन, धुन्धुआती गीली लकड़ी, चटकती धरती, धुक्धुकाती छाती, बोलती हड्डियाँ, रूखी-खुरदुरी मिट्टी, पीले पत्ते, मुरझाये पौधे, जैसे बिम्बों की श्रंखला है. 
 
देखा जाए तो यह कविता मन में अधिक न बोलकर बिम्बों के माध्यम से अपनी बात कहने की अधिक प्रभावी प्रविधि है. वीणा तिवारी सामुदायिक शिल्प के घर-परिवार में भरोसा करनेवाली मनुष्य हैं इसलिए पति, बेटी, बेटे, बहु और अन्य नातेदारियों को लेकर वे काफी गंभीर हैं. उनकी काव्य प्रकृति भावः-केंद्रित है किंतु वे तर्क का सहारा नहीं छोड़तीं इसलिए वहाँ स्त्री की मुक्ति व आज़ादी को लेकर पारदर्शी विमर्श है.''

वीणा तिवारी की कवितायें आत्मीय पथ की मांग करती हैं. इन कविताओं के रहस्य कहीं अधिक उजागर होते हैं जब आप धैर्य के साथ इनके सफर में शामिल होते हैं. इस सफर में एक बड़ी दुनिया से आपका साक्षात्कार होता है. ऐसी दुनिया जो अत्यन्त परिचित होने के बाद हम सबके लिए अपरिचय की गन्ध में डूबी हैं. 
 
समकालीन काव्य परिदृश्य में वीणा तिवारी की कवितायें गंभीरता से स्वीकारी जाती हैं. विचारविमर्श के पाठकों के लिये प्रस्तुत हैं वीणा जी की लेखनी से झंकृत कुछ कवितायेँ...
प्रतीक्षा है आपकी प्रतिक्रियाओं की--- सलिल

घरौंदा

रेत के घरौंदे बनाना

जितना मुदित करता है

उसे ख़ुद तोड़ना

उतना उदास नहीं करता.

बूँद

बूँद पडी

टप

जब पडी

झट

चल-चल

घर के भीतर

तुझको नदी दिखाऊँगा

मैं

बहती है जो

कल-कल.

चेहरा

जब आदमकद आइना

तुम्हारी आँख बन जाता है

तो उम्र के बोझिल पड़ाव पर

थक कर बैठे यात्री के दो पंख उग आते हैं।

तुम्हारी दृष्टि उदासी को परत दर परत

उतरती जाती है

तब प्रेम में भीगा ये चेहरा

क्या मेरा ही रहता है?

चाँदनी
चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है

क्या करें सुनती है न कुछ बोलती है

शाख पर सहमे पखेरू

लरजती डरती हवाएं

क्या करें जब चातकी भ्रम तोड़ती है

चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है।

चाहना फ़ैली दिशा बन

आस का सिमटा गगन

क्या करें सूनी डगर मुख मोडती है

चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है

उम्र मात्र सी गिनी

सामने पतझड़ खड़ा

क्या करें बहकी लहर तट तोड़ती है

चाँदनी गुमसुम अकेले डोलती है

मन

उतरती साँझ में बेकल मन

सूनी पगडंडी पर दो चरण

देहरी पर ठिठकी पदचाप

सांकल की परिचित खटखटाहट

दरारों से आती धीमी उच्छ्वास ही

क्यों सुनना चाहता है मन?
सगे वाला
सुबह आकाश पर छाई रक्तिम आभा

विदेशियों के बीच परदेस में

अपने गाँव-घर की बोली बोलता अपरिचित

दोनों ही उस पल सगे वाले से ज्यादा

सगे वाले लगते हैं।

शायद वे हमारे अपनों से

हमें जोड़ते हैं या हम उस पल

उनकी ऊँगली पकड़ अपने आपसे जुड़ जाते हैं

*******************

मुक्तिका: समय का शुक्रिया... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
समय का शुक्रिया...
संजीव 'सलिल'
*

समय का शुक्रिया, नेकी के घर बदनामियाँ आयीं.
रहो आबाद तुम, हमको महज बरबादियाँ भायीं..

भुला नीवों को, कलशों का रहा है वक्त ध्वजवाहक.
दिया वनवास सीता को, अँगुलियाँ व्यर्थ दिखलायीं..
शहीदों ने खुदा से, सिर उठाकर प्रश्न यह पूछा:
कटाया हमने सिर, सत्ता ने क्यों गद्दारियाँ पायीं?

ये संसद सांसदों के सुख की खातिर काम करती है.
गरीबी को किया लांछित, अमीरी शान इठलायीं..

बहुत जरखेज है माटी, फसल उम्मीद की बोकर
पसीना सींच देखो, गर्दिशों ने मात फिर खायीं..

*******
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

मुक्तिका : 'काव्य धारा' है प्रवाहित --संजीव 'सलिल'


मुक्तिका :
'काव्य धारा' है प्रवाहित
संजीव 'सलिल'
*
'काव्य धारा' है प्रवाहित, सलिल की कलकल सुनें.
कह रही किलकिल तजें, आनंदमय सपने बुनें..

कमलवत रह पंक में, तज पंक को निर्मल बनें.
दीप्ति पाकर दीपशिख सम, जलें- तूफां में तनें..

संगमरमर संगदिल तज, हाथ माटी में सनें.
स्वेद-श्रम कोशिश धरा से, सफलता हीरा खनें..

खलिश दें बाधाएँ जब भी, अचल-निर्मम हो धुनें.
है अरूप अनूप सच, हो मौन उसको नित गुनें..

समय-भट्टी में न भुट्टे सदृश गुमसुम भुनें.
पिघलकर स्पात बनने की सदा राहें चुनें..
*************
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

रविवार, 8 अप्रैल 2012

दोहा सलिला: सपने देखे रात भर --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
सपने देखे रात भर, भोर गये सब भूल.
ज्यों सुगंध से रहित हों, सने धूल से फूल..
*
स्वप्न सुहाने देखते, जागे सारी रैन.
सुबह पूछते हैं स्वजन, लाल-लाल क्यों नैन..
*
मिले आपसे हो गये, सब सपने साकार.
निराकार होने लगे, अब गुपचुप साकार..
*
जिनके सपनों में बसे, हम अनजाने मीत.
अपने सपनों में वही, बसे निभाने प्रीत..
*
तजें न सपने देखना, स्वप्न बढ़ाते मान.
गैर न सपनों में रहें, रखिये इसका ध्यान..
*
रसनिधि हैं, रसखान हैं, सपने हैं रसलीन.
स्वप्न रहित जग-जिंदगी, लगे 'सलिल' रसहीन..
*
मीरा के सपने बसे, जैसे श्री घनश्याम.
मेरे सपनों में बसें, वैसे देव अनाम..
*
स्वप्न न देखे तो लिखे, कैसे सुमधुर गीत.
पले स्वप्न में ही सदा, दिल-दिलवर में प्रीत..
*
स्वप्न साज हैं छेड़िए, इनके नाजुक तार.
मंजिल के हो सकेंगे, तभी 'सलिल' दीदार..
*
अपने सपने कभी भी, देख न पाये गैर.
सावधान हों रहेगी, तभी आपकी खैर..
*
अपने सपने कीजिये, कभी नहीं नीलाम.
ये अमूल्य-अनमोल हैं, 'सलिल' यही बेदाम..
*

हाइकु: सपने --संजीव 'सलिल'

हाइकु
सपने
संजीव 'सलिल'
* नैन देखते
अनगिन सपने
मौन लेखते. 
*
कौन बसाये
सपनों की दुनिया?
कौन बताये??
*
रंगबिरंगा
सपनों सा संसार,
या भदरंगा?
*
नियतिनटी
बुन रही सपने
नितांत अपने.
*
होते साकार
वही जो निराकार
किन्तु साधार.
*
चित्र-विचित्र
अनगढ़ सपने
देखिये मित्र.
*
बेपेंदी के हैं
सपने औ' नपने?
क्षणभंगुर.
*
नहीं असार
सांसों का सिंगार
स्वप्निल संसार.
* जहाँ है चाह
ख्वाब कह रहे हैं
वहीं है राह.
*
तम में छोड़े
परछाईं भी साथ
ख्वाब न छोड़ें.
*
स्वप्नदर्शी
थे अभियंता, लेकिन
हैं दूरदर्शी.
*

मेरी पसंद : एक गीत- मन वैरागी सोच रहा है राकेश खंडेलवाल


मेरी पसंद : 

एक गीत- मन वैरागी सोच रहा है

राकेश खंडेलवाल
*
मन वैरागी सोच रहा है मंज़िल पथ पर कदम चल रहे
लेकिन आवारा कदमों ने राह और ही चुनी हुई है

राह निदेशक भी भटके हैं अपने धुंधले मान चित्र में
कहाँ दिखाये राह चन्द्रमा ,मावस की काली रातों में
कौन सँचारे उलझे केशों सी सर्पीली पग्डँडियों को
बाँटे कौन अनिश्चय अपना लगा किसे अपनी बातों में .

पल भर का मेजमान अँधेरा ? छोड़ो व्यर्थ दिलासे मत दो
महज कहानी हैं ये बातें, बहुत बार की सुनी हुई हैं

भटक रहे हैं हाँ इतना अहसास लगा है हमको होने
केन्द्रबिन्दु हैं कहाँ? लक्ष्य है कहाँ, नहीं कुछ नजर आरहा
वक्ता कैन,कौन है श्रोता,कहाँमंच है कहाँ सभा है
किसका नंबर आने वाला, कौन अभी है खड़ा गा रहा

जीवन  की जिन गाथाओं को हम गीतों में ढाल रहे हैं
उनमें कोई नहीं क्रमश:. एक एक कर गुनी हुई हैं

बढ़ती प्यास अपेक्षाओं की लौटाती निर्झर से प्यासा
भटकन की डोरी ने अटके रहे चेतनाओं के खाते
पानी की हलचल ने लीले बिम्ब अधूरे टुटे फ़ूटे
फ़िर ज़िद्दी आवारा मन को बार बार यह कह समझाते

हाँ है अपनी मैली चादर, जिसे आज तक ओढ़ रहे हैं
नहीं जुलाहा था कबीर, यह किसी और की बुनी हुई है.
**********

दूसरा पहलू बहन प्रज्ञा की मार्मिक दशा : मुकेश कुमार

दूसरा पहलू

बहन प्रज्ञा की मार्मिक दशा :                                                       

मुकेश कुमार
एक साध्वी को हिन्दू होने की सजा और कितनी देर तक|| 

बहन प्रज्ञा की सचाई अवश्य पढ़े | 

मैं साध्वी प्रज्ञा चंद्रपाल सिंह ठाकुर, उम्र-38 साल, पेशा-कुछ नहीं, 7 गंगा सागर ...अपार्टमेन्ट, कटोदरा, सूरत,गुजरात राज्य की निवासी हूं जबकि मैं मूलतः मध्य प्रदेश की निवासिनी हूं. कुछ साल पहले हमारे अभिभावक सूरत आकर बस गये. पिछले कुछ सालों से मैं अनुभव कर रही हूं कि भौतिक जगत से मेरा कटाव होता जा रहा है. आध्यात्मिक जगत लगातार मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रहा था. इसके कारण मैंने भौतिक जगत को अलविदा करने का निश्चय कर लिया और 30-01-2007 को संन्यासिन हो गयी. जब से सन्यासिन हुई हूं मैं अपने जबलपुर वाले आश्रम से निवास कर रही हूं. आश्रम में मेरा अधिकांश समय ध्यान-साधना, योग, प्राणायम और आध्यात्मिक अध्ययन में ही बीतता था. आश्रम में टीवी इत्यादि देखने की मेरी कोई आदत नहीं है, यहां तक कि आश्रम में अखबार की कोई समुचित व्यवस्था भी नहीं है. आश्रम में रहने के दिनों को छोड़ दें तो बाकी समय मैं उत्तर भारत के ज्यादातर हिस्सों में धार्मिक प्रवचन और अन्य धार्मिक कार्यों को संपन्न कराने के लिए उत्तर भारत में यात्राएं करती हूं. 23-9-2008 से 4-10-2008 के दौरान मैं इंदौर में थी और यहां मैं अपने एक शिष्य अण्णाजी के घर रूकी थी. 

4 अक्टूबर की शाम को मैं अपने आश्रम जबलपुर वापस आ गयी. 7-10-2008 को जब मैं अपने जबलपुर के आश्रम में थी तो शाम को महाराष्ट्र से एटीएस के एक पुलिस अधिकारी का फोन मेरे पास आया जिन्होंने अपना नाम सावंत बताया. वे मेरी एलएमएल फ्रीडम बाईक के बारे में जानना चाहते थे. मैंने उनसे कहा कि वह बाईक तो मैंने बहुत पहले बेच दी है. अब मेरा उस बाईक से कोई नाता नहीं है. फिर भी उन्होंने मुझे कहा कि अगर मैं सूरत आ जाऊं तो वे मुझसे कुछ पूछताछ करना चाहते हैं. मेरे लिए तुरंत आश्रम छोड़कर सूरत जाना संभव नहीं था इसलिए मैंने उन्हें कहा कि हो सके तो आप ही जबलपुर आश्रम आ जाईये, आपको जो कुछ पूछताछ करनी है कर लीजिए. लेकिन उन्होंने जबलपुर आने से मना कर दिया और कहा कि जितनी जल्दी हो आप सूरत आ जाईये. फिर मैंने ही सूरत जाने का निश्चय किया और ट्रेन से उज्जैन के रास्ते 10-10-2008 को सुबह सूरत पहुंच गयी. रेलवे स्टेशन पर भीमाभाई पसरीचा मुझे लेने आये थे. उनके साथ मैं उनके निवासस्थान एटाप नगर चली गयी. यहीं पर सुबह के कोई 10 बजे मेरी सावंत से मुलाकात हुई जो एलएमएल बाईक की खोज करते हुए पहले से ही सूरत में थे. सावंत से मैंने पूछा कि मेरी बाईक के साथ क्या हुआ और उस बाईक के बारे में आप पडताल क्यों कर रहे हैं? 

श्रीमान सावंत ने मुझे बताया कि पिछले सप्ताह सितंबर में मालेगांव में जो विस्फोट हुआ है उसमें वही बाईक इस्तेमाल की गयी है. यह मेरे लिए भी बिल्कुल नयी जानकारी थी कि मेरी बाईक का इस्तेमाल मालेगांव धमाकों में किया गया है. यह सुनकर मैं सन्न रह गयी. मैंने सावंत को कहा कि आप जिस एलएमएल फ्रीडम बाईक की बात कर रहे हैं उसका रंग और नंबर वही है जिसे मैंने कुछ साल पहले बेच दिया था. सूरत में सावंत से बातचीत में ही मैंने उन्हें बता दिया था कि वह एलएमएल फ्रीडम बाईक मैंने अक्टूबर 2004 में ही मध्यप्रदेश के श्रीमान जोशी को 24 हजार में बेच दी थी. उसी महीने में मैंने आरटीओ के तहत जरूरी कागजात (टीटी फार्म) पर हस्ताक्षर करके बाईक की लेन-देन पूरी कर दी थी. मैंने साफ तौर पर सावंत को कह दिया था कि अक्टूबर 2004 के बाद से मेरा उस बाईक पर कोई अधिकार नहीं रह गया था. 

उसका कौन इस्तेमाल कर रहा है इससे भी मेरा कोई मतलब नहीं था. लेकिन सावंत ने कहा कि वे मेरी बात पर विश्वास नहीं कर सकते. इसलिए मुझे उनके साथ मुंबई जाना पड़ेगा ताकि वे और एटीएस के उनके अन्य साथी इस बारे में और पूछताछ कर सकें. पूछताछ के बाद मैं आश्रम आने के लिए आजाद हूं. यहां यह ध्यान देने की बात है कि सीधे तौर पर मुझे 10-10-2008 को गिरफ्तार नहीं किया गया. मुंबई में पूछताछ के लिए ले जाने की बाबत मुझे कोई सम्मन भी नहीं दिया गया. जबकि मैं चाहती तो मैं सावंत को अपने आश्रम ही आकर पूछताछ करने के लिए मजबूर कर सकती थी क्योंकि एक नागरिक के नाते यह मेरा अधिकार है. लेकिन मैंने सावंत पर विश्वास किया और उनके साथ बातचीत के दौरान मैंने कुछ नहीं छिपाया. मैं सावंत के साथ मुंबई जाने के लिए तैयार हो गयी. सावंत ने कहा कि मैं अपने पिता से भी कहूं कि वे मेरे साथ मुंबई चलें. मैंने सावंत से कहा कि उनकी बढ़ती उम्र को देखते हुए उनको साथ लेकर चलना ठीक नहीं होगा. इसकी बजाय मैंने भीमाभाई को साथ लेकर चलने के लिए कहा जिनके घर में एटीएस मुझसे पूछताछ कर रही थी. 

शाम को 5.15 मिनट पर मैं, सावंत और भीमाभाई सूरत से मुंबई के लिए चल पड़े. 10 अक्टूबर को ही देर रात हम लोग मुंबई पहुंच गये. मुझे सीधे कालाचौकी स्थित एटीएस के आफिस ले जाया गया था. इसके बाद अगले दो दिनों तक एटीएस की टीम मुझसे पूछताछ करती रही. उनके सारे सवाल 29-9-2008 को मालेगांव में हुए विस्फोट के इर्द-गिर्द ही घूम रहे थे. मैं उनके हर सवाल का सही और सीधा जवाब दे रही थी. 

अक्टूबर को एटीएस ने अपनी पूछताछ का रास्ता बदल दिया. अब उसने उग्र होकर पूछताछ करना शुरू किया. पहले उन्होंने मेरे शिष्य भीमाभाई पसरीचा (जिन्हें मैं सूरत से अपने साथ लाई थी) से कहा कि वह मुझे बेल्ट और डंडे से मेरी हथेलियों, माथे और तलुओं पर प्रहार करे. जब पसरीचा ने ऐसा करने से मना किया तो एटीएस ने पहले उसको मारा-पीटा. आखिरकार वह एटीएस के कहने पर मेरे ऊपर प्रहार करने लगा. कुछ भी हो, वह मेरा शिष्य है और कोई शिष्य अपने गुरू को चोट नहीं पहुंचा सकता. इसलिए प्रहार करते वक्त भी वह इस बात का ध्यान रख रहा था कि मुझे कोई चोट न लग जाए. इसके बाद खानविलकर ने उसको किनारे धकेल दिया और बेल्ट से खुद मेरे हाथों, हथेलियों, पैरों, तलुओं पर प्रहार करने लगा. मेरे शरीर के हिस्सों में अभी भी सूजन मौजूद है. 13 तारीख तक मेरे साथ सुबह, दोपहर और रात में भी मारपीट की गयी. दो बार ऐसा हुआ कि भोर में चार बजे मुझे जगाकर मालेगांव विस्फोट के बारे में मुझसे पूछताछ की गयी. भोर में पूछताछ के दौरान एक मूछवाले आदमी ने मेरे साथ मारपीट की जिसे मैं अभी भी पहचान सकती हूं. इस दौरान एटीएस के लोगों ने मेरे साथ बातचीत में बहुत भद्दी भाषा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. मेरे गुरू का अपमान किया गया और मेरी पवित्रता पर सवाल किये गये. मुझे इतना परेशान किया गया कि मुझे लगा कि मेरे सामने आत्महत्या करने के अलावा अब कोई रास्ता नहीं बचा है. 14 अक्टूबर को सुबह मुझे कुछ जांच के लिए एटीएस कार्यालय से काफी दूर ले जाया गया जहां से दोपहर में मेरी वापसी हुई. उस दिन मेरी पसरीचा से कोई मुलाकात नहीं हुई. मुझे यह भी पता नहीं था कि वे (पसरीचा) कहां है. 15 अक्टूबर को दोपहर बाद मुझे और पसरीचा को एटीएस के वाहनों में नागपाड़ा स्थित राजदूत होटल ले जाया गया जहां कमरा नंबर 315 और 314 में हमे क्रमशः बंद कर दिया गया. यहां होटल में हमने कोई पैसा जमा नहीं कराया और न ही यहां ठहरने के लिए कोई खानापूर्ति की. सारा काम एटीएस के लोगों ने ही किया. मुझे होटल में रखने के बाद एटीएस के लोगों ने मुझे एक मोबाईल फोन दिया. एटीएस ने मुझे इसी फोन से अपने कुछ रिश्तेदारों और शिष्यों (जिसमें मेरी एक महिला शिष्य भी शामिल थी) को फोन करने के लिए कहा और कहा कि मैं फोन करके लोगों को बताऊं कि मैं एक होटल में रूकी हूं और सकुशल हूं. मैंने उनसे पहली बार यह पूछा कि आप मुझसे यह सब क्यों कहलाना चाह रहे हैं. समय आनेपर मैं उस महिला शिष्य का नाम भी सार्वजनिक कर दूंगी.

 एटीएस की इस प्रताड़ना के बाद मेरे पेट और किडनी में दर्द शुरू हो गया. मुझे भूख लगनी बंद हो गयी. मेरी हालत बिगड़ रही थी. होटल राजदूत में लाने के कुछ ही घण्टे बाद मुझे एक अस्पताल में भर्ती करा दिया गया जिसका नाम सुश्रुसा हास्पिटल था. मुझे आईसीयू में रखा गया. इसके आधे घण्टे के अंदर ही भीमाभाई पसरीचा भी अस्पताल में लाये गये और मेरे लिए जो कुछ जरूरी कागजी कार्यवाही थी वह एटीएस ने भीमाभाई से पूरी करवाई. जैसा कि भीमाभाई ने मुझे बताया कि श्रीमान खानविलकर ने हास्पिटल में पैसे जमा करवाये. इसके बाद पसरीचा को एटीएस वहां से लेकर चली गयी जिसके बाद से मेरा उनसे किसी प्रकार का कोई संपर्क नहीं हो पाया है. इस अस्पताल में कोई 3-4 दिन मेरा इलाज किया गया. यहां मेरी स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा था तो मुझे यहां से एक अन्य अस्पताल में ले जाया गया जिसका नाम मुझे याद नहीं है. यह एक ऊंची ईमारत वाला अस्पताल था जहां दो-तीन दिन मेरा ईलाज किया गया. इस दौरान मेरे साथ कोई महिला पुलिसकर्मी नहीं रखी गयी. न ही होटल राजदूत में और न ही इन दोनो अस्पतालों में. होटल राजदूत और दोनों अस्पताल में मुझे स्ट्रेचर पर लाया गया, इस दौरान मेरे चेहरे को एक काले कपड़े से ढंककर रखा गया. दूसरे अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद मुझे फिर एटीएस के आफिस कालाचौकी लाया गया.

 इसके बाद 23-10-2008 को मुझे गिरफ्तार किया गया. गिरफ्तारी के अगले दिन 24-10-2008 को मुझे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, नासिक की कोर्ट में प्रस्तुत किया गया जहां मुझे 3-11-2008 तक पुलिस कस्टडी में रखने का आदेश हुआ. 24 तारीख तक मुझे वकील तो छोड़िये अपने परिवारवालों से भी मिलने की इजाजत नहीं दी गयी. 

मुझे बिना कानूनी रूप से गिरफ्तार किये ही 23-10-2008 के पहले ही पालीग्रैफिक टेस्ट किया गया. इसके बाद 1-11-2008 को दूसरा पालिग्राफिक टेस्ट किया गया. इसी के साथ मेरा नार्को टेस्ट भी किया गया. मैं कहना चाहती हूं कि मेरा लाई डिटेक्टर टेस्ट और नार्को एनेल्सिस टेस्ट बिना मेरी अनुमति के किये गये. सभी परीक्षणों के बाद भी मालेगांव विस्फोट में मेरे शामिल होने का कोई सबूत नहीं मिल रहा था. आखिरकार 2 नवंबर को मुझे मेरी बहन प्रतिभा भगवान झा से मिलने की इजाजत दी गयी. मेरी बहन अपने साथ वकालतनामा लेकर आयी थी जो उसने और उसके पति ने वकील गणेश सोवानी से तैयार करवाया था. हम लोग कोई निजी बातचीत नहीं कर पाये क्योंकि एटीएस को लोग मेरी बातचीत सुन रहे थे. आखिरकार 3 नवंबर को ही सम्माननीय अदालत के कोर्ट रूम में मैं चार-पांच मिनट के लिए अपने वकील गणेश सोवानी से मिल पायी. 



10 अक्टूबर के बाद से लगातार मेरे साथ जो कुछ किया गया उसे अपने वकील को मैं चार-पांच मिनट में ही कैसे बता पाती? इसलिए हाथ से लिखकर माननीय अदालत को मेरा जो बयान दिया था उसमें विस्तार से पूरी बात नहीं आ सकी. इसके बाद 11 नवंबर को भायखला जेल में एक महिला कांस्टेबल की मौजूदगी में मुझे अपने वकील गणेश सोवानी से एक बार फिर 4-5 मिनट के लिए मिलने का मौका दिया गया. इसके अगले दिन 13 नवंबर को मुझे फिर से 8-10 मिनट के लिए वकील से मिलने की इजाजत दी गयी. इसके बाद शुक्रवार 14 नवंबर को शाम 4.30 मिनट पर मुझे मेरे वकील से बात करने के लिए 20 मिनट का वक्त दिया गया जिसमें मैंने अपने साथ हुई सारी घटनाएं सिलसिलेवार उन्हें बताई, जिसे यहां प्रस्तुत किया गया है. (मालेगांव बमकांड के संदेह में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर द्वारा नासिक कोर्ट में दिये गये शपथपत्र पर आधारित. 

संकलनकर्ता संजय एस कुमार गीते 

(क्या यही व्यवहार इन्होने अफजल और कसाब या किसी लुटेरे देशद्रोही के साथ किया, कभी नहीं क्यों- क्या इसी लिए की वे हिंदू सन्यासिन नहीं थे,, कृपया इसे कम से कम ५० लोगो को अग्रेषित करे..)



--

  contact No - 9215959500
स्वदेशी प्रचारक भिवानी , हरियाणा

दूसरा पहलू: जन गण मन का सच --कुमार अश्विनी









































































































































































दूसरा पहलू:
जन गण मन का सच 
कुमार अश्विनी
*
रविन्द्र नाथ टेगोर ने अपने ICS ऑफिसर बहनोई को भेजे एक पत्र में लिखा था कि 'जन गण मन' गीत मुझसे अंग्रेजो के दबाव में लिखवाया है. यह में अंग्रेजों के राजा जॉर्ज पंचम की खुशामद में लिखा गया है, इसके शब्दों का अर्थ देश के स्वाभिमान को चोट पहुंचाता है. इस गीत को नहीं गाया जाये तो अच्छा है.

सन 1911 तक भारत की राजधानी बंगाल हुआ करता था. सन 1905 में जब बंगाल विभाजन को लेकर अंग्रेजो के खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के लोग उठ खड़े हुए तो अंग्रेजो ने अपने आपको बचाने के लिए के कलकत्ता से हटाकर राजधानी को दिल्ली ले गए और 1911 में दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया. पूरे भारत में उस समय लोग विद्रोह से भरे हुए थे तो अंग्रेजो ने अपने इंग्लॅण्ड के राजा को भारत आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाये. इंग्लैंड का राजा जोर्ज पंचम 1911 में भारत में आया. रविंद्रनाथ टैगोर पर दबाव बनाया गया कि तुम्हे एक गीत जोर्ज पंचम के स्वागत में लिखना ही होगा.

उस समय टैगोर का परिवार अंग्रेजों के काफी नजदीक हुआ करता था, उनके परिवार के बहुत से लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम किया करते थे, उनके बड़े भाई अवनींद्र नाथ टैगोर बहुत दिनों तक ईस्ट इंडिया कंपनी के कलकत्ता डिविजन के निदेशक (Director) रहे. उनके परिवार का बहुत पैसा ईस्ट इंडिया कंपनी में लगा हुआ था. और खुद रविन्द्र नाथ टैगोर की बहुत सहानुभूति थी अंग्रेजों के लिए. रविंद्रनाथ टैगोर ने मन से या बेमन से जो गीत लिखा उसके बोल है "जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता". इस गीत के सारे के सारे शब्दों में अंग्रेजी राजा जोर्ज पंचम का गुणगान है, जिसका अर्थ समझने पर पता लगेगा कि ये तो हकीक़त में ही अंग्रेजो की खुशामद में लिखा गया था.

इस राष्ट्रगान का अर्थ कुछ इस तरह से होता है "भारत के नागरिक, भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता समझती है और मानती है. हे अधिनायक (Superhero) तुम्ही भारत के भाग्य विधाता हो. तुम्हारी जय हो ! जय हो ! जय हो ! तुम्हारे भारत आने से सभी प्रान्त पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा मतलब महाराष्ट्र, द्रविड़ मतलब दक्षिण भारत, उत्कल मतलब उड़ीसा, बंगाल आदि और जितनी भी नदिया जैसे यमुना और गंगा ये सभी हर्षित हैं, खुश हैं, प्रसन्न हैं , तुम्हारा नाम लेकर ही हम जागते है और तुम्हारे नाम का आशीर्वाद चाहते है. तुम्हारी ही हम गाथा गाते है. हे भारत के भाग्य विधाता (सुपर हीरो ) तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो. "

जोर्ज पंचम भारत आया 1911 में और उसके स्वागत में ये गीत गाया गया. जब वो इंग्लैंड चला गया तो उसने उस जन गण मन का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया. क्योंकि जब भारत में उसका इस गीत से स्वागत हुआ था तब उसके समझ में नहीं आया था कि ये गीत क्यों गाया गया और इसका अर्थ क्या है. जब अंग्रेजी अनुवाद उसने सुना तो वह बोला कि इतना सम्मान और इतनी खुशामद तो मेरी आज तक इंग्लॅण्ड में भी किसी ने नहीं की. वह बहुत खुश हुआ. उसने आदेश दिया कि जिसने भी ये गीत उसके (जोर्ज पंचम के) लिए लिखा है उसे इंग्लैंड बुलाया  जाये. रविन्द्र नाथ टैगोर इंग्लैंड गए. जोर्ज पंचम उस समय नोबल पुरस्कार समिति का अध्यक्ष भी था.

उसने रविन्द्र नाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया. तो रविन्द्र नाथ टैगोर ने इस नोबल पुरस्कार को लेने से मना कर दिया. क्यों कि गाँधी जी ने बहुत बुरी तरह से रविन्द्रनाथ टेगोर को उनके इस गीत के लिए खूब डांटा था. टैगोर ने कहा की आप मुझे नोबल पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो मैंने एक गीतांजलि नामक रचना लिखी है उस पर मुझे दे दो लेकिन इस गीत के नाम पर मत दो और यही प्रचारित किया जाये क़ि मुझे जो नोबेल पुरस्कार दिया गया है वो गीतांजलि नामक रचना के ऊपर दिया गया है. जोर्ज पंचम मान गया और रविन्द्र नाथ टैगोर को सन 1913 में गीतांजलि नामक रचना के ऊपर नोबल पुरस्कार दिया गया.

रविन्द्र नाथ टैगोर की ये सहानुभूति ख़त्म हुई 1919 में जब जलिया वाला कांड हुआ और गाँधी जी ने लगभग गाली की भाषा में उनको पत्र लिखा और कहा क़ि अभी भी तुम्हारी आँखों से अंग्रेजियत का पर्दा नहीं उतरेगा तो कब उतरेगा, तुम अंग्रेजों के इतने चाटुकार कैसे हो गए, तुम इनके इतने समर्थक कैसे हो गए ? फिर गाँधी जी स्वयं रविन्द्र नाथ टैगोर से मिलने गए और बहुत जोर से डाटा कि अभी तक तुम अंग्रेजो की अंध भक्ति में डूबे हुए हो ? तब जाकर रविंद्रनाथ टैगोर की नीद खुली. इस काण्ड का टैगोर ने विरोध किया और नोबल पुरस्कार अंग्रेजी हुकूमत को लौटा दिया. सन 1919 से पहले जितना कुछ भी रविन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा वो अंग्रेजी सरकार के पक्ष में था और 1919 के बाद उनके लेख कुछ कुछ अंग्रेजो के खिलाफ होने लगे थे.

रविन्द्र नाथ टेगोर के बहनोई, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी लन्दन में रहते थे और ICS ऑफिसर थे. अपने बहनोई को उन्होंने एक पत्र लिखा था (ये 1919 के बाद की घटना है) . इसमें उन्होंने लिखा है कि ये गीत 'जन गण मन' अंग्रेजो के द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकर लिखवाया गया है. इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है. इस गीत को नहीं गाया जाये तो अच्छा है. लेकिन अंत में उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को नहीं दिखाए क्योंकि मैं इसे सिर्फ आप तक सीमित रखना चाहता हूँ लेकिन जब कभी मेरी म्रत्यु हो जाये तो सबको बता दे. 7 अगस्त 1941 को रबिन्द्र नाथ टैगोर की मृत्यु के बाद इस पत्र को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ये पत्र सार्वजनिक किया, और सारे देश को ये कहा क़ि ये जन गन मन गीत न गाया जाये.

1941 तक कांग्रेस पार्टी थोड़ी उभर चुकी थी. लेकिन वह दो खेमो में बट गई. जिसमे एक खेमे के समर्थक बाल गंगाधर तिलक थे और दुसरे खेमे में मोती लाल नेहरु थे. मतभेद था सरकार बनाने को लेकर. मोती लाल नेहरु चाहते थे कि स्वतंत्र भारत की सरकार अंग्रेजो के साथ कोई संयोजक सरकार (Coalition Government) बने. जबकि गंगाधर तिलक कहते थे कि अंग्रेजो के साथ मिलकर सरकार बनाना तो भारत के लोगों को धोखा देना है. इस मतभेद के कारण लोकमान्य तिलक कांग्रेस से निकल गए और उन्होंने गरम दल बनाया. कोंग्रेस के दो हिस्से हो गए. एक नरम दल और एक गरम दल.

गरम दल के नेता थे लोकमान्य तिलक जैसे क्रन्तिकारी. वे हर जगह वन्दे मातरम गाया करते थे. और नरम दल के नेता थे मोती लाल नेहरु (यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि गांधीजी उस समय तक कांग्रेस की आजीवन सदस्यता से इस्तीफा दे चुके थे, वो किसी तरफ नहीं थे, लेकिन गाँधी जी दोनों पक्ष के लिए आदरणीय थे क्योंकि गाँधी जी देश के लोगों के आदरणीय थे). लेकिन नरम दल वाले ज्यादातर अंग्रेजो के साथ रहते थे. उनके साथ रहना, उनको सुनना, उनकी बैठकों में शामिल होना. हर समय अंग्रेजो से समझौते में रहते थे. वन्देमातरम से अंग्रेजो को बहुत चिढ होती थी. नरम दल वाले गरम दल को चिढाने के लिए 1911 में लिखा गया गीत "जन गण मन" गाया करते थे और गरम दल वाले "वन्दे मातरम".

नरम दल वाले अंग्रेजों के समर्थक थे और अंग्रेजों को ये गीत पसंद नहीं था तो अंग्रेजों के कहने पर नरम दल वालों ने उस समय एक हवा उड़ा दी कि मुसलमानों को वन्दे मातरम नहीं गाना चाहिए क्यों कि इसमें बुतपरस्ती  (मूर्ति पूजा) है. और आप जानते है कि मुसलमान मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी है. उस समय मुस्लिम लीग भी बन गई थी जिसके प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना थे. उन्होंने भी इसका विरोध करना शुरू कर दिया क्योंकि जिन्ना भी देखने भर को (उस समय तक) भारतीय थे मन,कर्म और वचन से अंग्रेज ही थे उन्होंने भी अंग्रेजों के इशारे पर ये कहना शुरू किया और मुसलमानों को वन्दे मातरम गाने से मना कर दिया. जब भारत सन 1947 में स्वतंत्र हो गया तो जवाहर लाल नेहरु ने इसमें राजनीति कर डाली. संविधान सभा की बहस चली. संविधान सभा के 319 में से 318 सांसद ऐसे थे जिन्होंने बंकिम बाबु द्वारा लिखित वन्देमातरम को राष्ट्र गान स्वीकार करने पर सहमति जताई.

बस एक सांसद ने इस प्रस्ताव को नहीं माना. और उस एक सांसद का नाम था पंडित जवाहर लाल नेहरु. उनका तर्क था कि वन्दे मातरम गीत से मुसलमानों के दिल को चोट पहुचती है इसलिए इसे नहीं गाना चाहिए (दरअसल इस गीत से मुसलमानों को नहीं अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचती थी). अब इस झगडे का फैसला कौन करे, तो वे पहुचे गाँधी जी के पास. गाँधी जी ने कहा कि जन गन मन के पक्ष में तो मैं भी नहीं हूँ और तुम (नेहरु ) वन्देमातरम के पक्ष में नहीं हो तो कोई तीसरा गीत तैयार किया जाये. तो महात्मा गाँधी ने तीसरा विकल्प झंडा गान के रूप में दिया "विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊँचा रहे हमारा". लेकिन नेहरु जी उस पर भी तैयार नहीं हुए.

नेहरु जी का तर्क था कि झंडा गान ओर्केस्ट्रा पर नहीं बज सकता और जन गन मन ओर्केस्ट्रा पर बज सकता है. उस समय बात नहीं बनी तो नेहरु जी ने इस मुद्दे को गाँधी जी की मृत्यु तक टाले रखा और उनकी मृत्यु के बाद नेहरु जी ने जन गण मन को राष्ट्र गान घोषित कर दिया और जबरदस्ती भारतीयों पर इसे थोप दिया गया जबकि इसके जो बोल है उनका अर्थ कुछ और ही कहानी प्रस्तुत करते है, और दूसरा पक्ष नाराज न हो इसलिए वन्दे मातरम को राष्ट्रगीत बना दिया गया लेकिन कभी गया नहीं गया. नेहरु जी कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे जिससे कि अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचे, मुसलमानों के वो इतने हिमायती कैसे हो सकते थे जिस आदमी ने पाकिस्तान बनवा दिया जब कि इस देश के मुसलमान पाकिस्तान नहीं चाहते थे, जन गण मन को इस लिए तरजीह दी गयी क्योंकि वो अंग्रेजों की भक्ति में गाया गया गीत था और वन्देमातरम इसलिए पीछे रह गया क्योंकि इस गीत से अंगेजों को दर्द होता था.

बीबीसी ने एक सर्वे किया था. उसने पूरे संसार में जितने भी भारत के लोग रहते थे, उनसे पुछा कि आपको दोनों में से कौन सा गीत ज्यादा पसंद है तो 99 % लोगों ने कहा वन्देमातरम. बीबीसी के इस सर्वे से एक बात और साफ़ हुई कि दुनिया के सबसे लोकप्रिय गीतों में दुसरे नंबर पर वन्देमातरम है. कई देश है जिनके लोगों को इसके बोल समझ में नहीं आते है लेकिन वो कहते है कि इसमें जो लय है उससे एक जज्बा पैदा होता है.

तो ये इतिहास है वन्दे मातरम का और जन गण मन का. अब ये आप को तय करना है कि देश का राष्ट्र गान क्या होना चाहिए और क्या नहीं

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

एक गीत: हरसिंगार मुस्काये... --संजीव 'सलिल'

एक गीत:
हरसिंगार मुस्काये...
संजीव 'सलिल'
*
खिलखिलायीं पल भर 
शत हरसिंगार मुस्काये...
*
अँखियों के पारिजात
उठें-गिरें पलक-पात.
हरिचंदन देह धवल
मंदारी मन प्रभात.
शुक्लांगी नयनों में
शेफाली शरमाये.
खिलखिलायीं पल भर तुम  
हरसिंगार मुस्काये...
*
परजाता मन भाता.
अनकहनी कह जाता.
महुआ तन महक रहा
टेसू रंग दिखलाता.
फागुन में सावन की
हो प्रतीति भरमाये.
खिलखिलाये पल भर तुम   
हरसिंगार मुस्काये...
*
पनघट खलिहान साथ,
कर-कुदाल-कलश हाथ.
सजनी-सिन्दूर सजा-
कब-कैसे सजन-माथ?
हिलमिल चाँदनी-धूप
धूप-छाँव बन गाये.
खिलखिलायीं पल भर हम  
हरसिंगार मुस्काये...
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

नवगीत: पोथी ले बाँच... --संजीव 'सलिल'

नवगीत:
पोथी ले बाँच...
संजीव 'सलिल'
*
हरसिंगार सुधियों की
पोथी ले बाँच...
*
कैसे कर हो अनाथ?
कल्पवृक्ष कर्म नाथ.
माटी में सना हाथ,
स्वेद-बिंदु चुआ माथ,
कोशिश कर लिये साथ-
कंडे कुछ रहा पाथ.

होने मत दे जुदा
पारिजात साँच.
हरसिंगार सुधियों की
पोथी ले बाँच...
*
कोशिश की कलम थाम
आप बदल भाग्य वाम.
लघु है कोई न काम.
साथ 'सलिल' के अनाम.
जिसका कोई न दाम.
रख न नाम, वही राम.

मंदारी मन दर्पण
शुक्लांगी काँच.
हरसिंगार सुधियों की
पोथी ले बाँच...
*
चाहत की शेफाली.
रोज उगा बन माली.
हरिचंदन-छाँह मिले
कण-कण में वनमाली.
मन को गोपी बना
रास रचा दे ताली.

परजाता निशाहासा
तले पले आँच.
हरसिंगार सुधियों की
पोथी ले बाँच...
*
टीप: हरसिंगार के पर्याय पारिजात, मंदार, शुक्लांग, शेफाली, हरिचंदन, परजाता, निशाहासा.
५ स्वर्ग वृक्ष- हर सिंगार, कल्प वृक्ष, संतान वृक्ष, मंदार, पारिजात.

एक गीत: मन फिर से एकाकी हो जा --संजीव 'सलिल'

एक गीत:
संजीव 'सलिल'
मन फिर से एकाकी हो जा
मन फिर से एकाकी...
*
गिर-उठ-चल तू घट-घट घूमा
अब कर ले विश्राम.
भला न्यून कह बुरा अधिक कह
त्रुटियाँ करीं तमाम.
जो भी पाया अपर्याप्त
कुछ नहीं किया निष्काम.
देना याद न रहता तुझको
पाना रहता बाकी-
मन फिर से एकाकी हो जा
मन फिर से एकाकी...
*
साया साथ न देता जाने
फिर भी सत्य न माने.
माया को अपनाने का
हठ अंतर्मन में ठाने.
होश जोश में खोकर लेता
निर्णय नित मनमाने.
प्रिय का श्रेय स्वयं ले, प्रभु को
दे अप्रिय का दोष-
सुरा फेंक कर चाह रहा तू
प्यास बुझा दे साक़ी
मन फिर से एकाकी हो जा
मन फिर से एकाकी...
*
अपनों-सपनों ने भटकाया
फिरता मारे-मारे.
वहम अहं का पाले बैठा
सर्प सदृश फुंकारे.
अपना और पराया बिसारा
प्रभु को भज ले प्यारे.
अंत समय में नयनों में
प्रभु की मनहर झांकी.
मन फिर से एकाकी हो जा
मन फिर से एकाकी...
*

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

मुक्तिका: -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका
संजीव 'सलिल'
*
लिखा रहा वह, हम लिखते हैं.
अधिक देखते कम लिखते हैं..

तुमने जिसको पूजा, उसको-
गले लगा हमदम लिखते हैं..

जग लिखता है हँसी ठहाके.
जो हैं चुप वे गम लिखते हैं..

तुम भूले सावन औ' कजरी
हम फागुन पुरनम लिखते हैं..

पूनम की चाँदनी लुटाकर
हँस 'मावस का तम लिखते हैं..

स्वेद-बिंदु से श्रम-अर्चन कर
संकल्पी परचम लिखते हैं..

शुभ विवाह की रजत जयन्ती
मने- ज़ुल्फ़  का ख़म लिखते हैं..

संसद में लड़ते, सरहद पर
दुश्मन खातिर यम लिखते हैं.

स्नेह-'सलिल' में अवगाहन कर
साँसों की सरगम लिखते हैं..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

दोहा सलिला: --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
इस नश्वर संसार में, कहीं-कहीं है सार.
सार वहीं है जहाँ है, अंतर्मन में प्यार..
*
प्यार नहीं तो मानिए, शेष सभी निस्सार.
पग-पग पर मग में चुभें, सतत अनगिनत खार..
*
सारमेय का शोर सुन, गज न बदलते राह.
वानर उछलें डाल पर, सिंह न करता चाह..
*
कमल ललित कोमल कुसुम, सब करते सम्मान.
कौन भुला सकता रहा, कब-कब क्या अवदान?.
*
खार खलिश देता सदा, बदले नहीं स्वभाव.
करें अदेखी दूर रह, चुभे न हो टकराव..
*
दीप्ति उजाला दे तभी, जब होता अँधियार.
दीप्ति तीव्र लख सूर्य की, मुंदें नयन-पट द्वार..
*
थूकें सूरज पर अगर, खुद पर गिरती गंद.
नादां फिर भी थूकते, हैं होकर निर्द्वंद..
*
दाता दे- लेता नहीं, अगर ग्रहीता आप.
जिसका उसको ही मिले, हर लांछन दुःख शाप..
*
शब्दब्रम्ह के उपासक, चलें सृजन की राह.
शब्द-मल्ल बन डाह दे, करें न सुख की चाह..
*
अपनी-अपनी सोच है, अपने-अपने दाँव.
अपनी-अपनी डगर है, अपने-अपने पाँव..
*
लगे अप्रिय जो कीजिए, 'सलिल' अदेखी आप.
जितनी चर्चा करेंगे, अधिक सकेगा व्याप..
*
कौन किसी का सगा है, कही किसको गैर.
काव्य-सृजन करते रहें, चाह सभी की खैर..
*
बुद्धि प्रखर हो तो 'सलिल', देती है अभिमान.
ज्ञान समझ दे मद हरे, हो विनम्र इंसान..
*
शिला असहमति की प्रबल, जड़ हो रोके धार.
'सलिल' नम्रता-सेंध से, हो जाता भव-पार..
*
बुद्धि-तत्व करता 'सलिल', पैदा नित मतभेद.
स्नेह-शील-सौहार्द्र से, हो न सके मन-भेद..
*
एक-एक बिखरे हुए, तारे दें न प्रकाश.
चन्द्र-किरण मिल एक हो, चमकातीं आकाश..
*
दरवाज़े बारात हो, भाई करें तकरार.
करें अनसुनी तो बड़े, हो जाते लाचार..
*
करे नासमझ गलतियाँ, समझदार हों मौन.
सार रहित आक्षेप पर, बेहतर है हों मौन..
*
मैदां को छोड़ें नहीं, बदलें केवल व्यूह.
साथ आपके जब 'सलिल', व्यापक मौन समूह..
*
गहते-कहते सार को, तजते कवि निस्सार.
पंक तजे पंकज कमल, बने देव-श्रृंगार..
*

दोहा सलिला: नीर-क्षीर दोहा-यमक --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
नीर-क्षीर दोहा-यमक
संजीव 'सलिल' 
*
पोती पोती बीनकर, बिखरे सुमन अनेक.
दादी देती सीख: 'बन, धागा रख घर एक'..
*
हर ने की हर भक्त की, मनोकामना पूर्ण.
दर्प दुष्ट का हर लिया, भस्म काम संपूर्ण..
*
चश्मा हो तो दिख सके, सारी दुनिया साफ़.
चश्मा हो तो स्नानकर, हो जा निर्मल साफ़..
*
रागी राग गुँजा रहा, मन में रख अनुराग.
राग-द्वेष से दूर हो, भक्त वरे बैराग..
*
कलश ताज का देखते, सिर पर रखकर ताज.
ताज धूल में मिल कहे:, 'प्रेम करो निर्व्याज'..
*
अंगुल भर की छोकरी, गज भर लम्बी पूंछ.
गज को चुभ कर दे विकल, पूंछ न सकती ऊंछ..
*
हैं अजान उससे भले, देते नित्य अजान.
जिसके दर पर मौलवी, बैठे बन दरबान..
*
ला दे दे रम जान तू, चला गया रमजान
सूख गया है हलक अब, होने दे रसखान
*
खेल खेलकर भी रहा, 'सलिल' खिलाड़ी मौन.
जिनसे खेले पूछते:, 'कहाँ छिपा है कौन?.
*
स्त्री स्त्री कर करे, शिकन वस्त्र की दूर.
शिकन माथ की कह रही, अमन-चैन है दूर..
*
गोद लिया पर गोद में, बिठा न करते प्यार.
बिन पूछे ही पूछता, शिशु- चुप पालनहार..
*
जब सुनते करताल तब, देते हैं कर ताल.
मस्त न हो सुन झूमिये, शेष! मचे भूचाल..
*******
 

Hindi Tech Blog



Posted: 03 Apr 2012 12:05 AM PDT

Ccleaner के अब बहुत जल्दी नए संस्करण आने लगे है पर अच्छी बात ये है की ये उपयोगी औजार हर बार बेहतर होता जाता है ऐसे में एक और नया संस्करण CCleaner v3.17



इसमें जो बदलाव हुए हैं वो हैं :-
  • Added wildcard support for Cookie cleaning.
  • Improved Google Chrome Saved Form Information cleaning.
  • Improved Google Chrome History cleaning for Search Engines.
  • Added Hosts history cleaning in Aurora.
  • Added Shortcuts history cleaning in Google Chrome Canary.
  • Improved JumpList menu to avoid possible UI lock.
  • Improved option to close running browsers when cleaning.
  • Improved IE AutoComplete Form History and Saved Passwords cleaning.
  • Improved shortcut cleaning in Windows 8.
  • Added cleaning for CyberLink PhotoDirector 10, DivX player and Snagit 11.
  • Improved cleaning for Vuze, Windows Media Center, Windows Media Player, Corel VideoStudio Pro X4 and Game Explorer.
  • Improved BitTorrent detection.
  • Minor bug fixes and improvements.


तो अपडेट कीजिये अपने कंप्यूटर को इस नए संस्करण से ताकि आपका कंप्यूटर ज्यादा तेज, ज्यादा सुरक्षित बन जाए ।

ये टूल बिना टूल बार वाले Slim संस्करण (2.5 एमबी ) और पोर्टेबल ( 3.25 एमबी ) रूप में भी उपलब्ध है ।












  
You are subscribed to email updates from Hindi Tech - तकनीक हिंदी में
To stop receiving these emails, you may unsubscribe now.
Email delivery powered by Google
Google Inc., 20 West Kinzie, Chicago IL USA 60610