दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 21 मार्च 2011
मुक्तिका: गलत मुहरा -- संजीव 'सलिल'
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मुक्तिका: मन तरंगित --- संजीव 'सलिल'
मुक्तिका: मन तरंगित
संजीव 'सलिल'
*
मन तरंगित, तन तरंगित.
झूमता फागुन तरंगित..
होश ही मदहोश क्यों है?
गुन चुके, अवगुन तरंगित..
श्वास गिरवी आस रखती.
प्यास का पल-छिन तरंगित..
शहादत जो दे रहे हैं.
हैं न वे जन-मन तरंगित..
बंद है स्विस बैंक में जो
धन, न धन-स्वामी तरंगित..
सचिन ने बल्ला घुमाया.
गेंद दौड़ी रन तरंगित..
बसंती मौसम नशीला
'सलिल' संग सलिला तरंगित..
***********
Acharya Sanjiv Salil
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रविवार, 20 मार्च 2011
आओ खेलें होली ऐसे -- सुश्री आशा वर्मा
आओ खेलें होली ऐसे
सुश्री आशा वर्मा
*
आओ खेलें होली ऐसे.
अब तक कभी न खेली जैसे...
*
हरा रंग हरियाली लाये,
कोइ पेड़ न कटने पाये.
घर-घर पौधे नए लगायें.
पीपल, इमली, नीम उगायें.
शीतल छाया का सुख पायें.
प्राण वायु से जीवन पायें.
वर्षा बढ़े सुखी हो जाएँ.
तन-मन झूमे खुशी मनायें.
धरती हो नंदन वन जैसे...
*
लाल रंग अनुराग बढ़ायें.
हेल-मेल का पथ पढ़ायें.
सब धर्मों के भाई आयें.
एक-दूजे को गले लगायें.
भाषा-भूषा-भेद भुलायें.
ऊँच-नीच को दूर भगाये.
प्रेम-प्यार से फगुआ गायें.
समता-रंग में भीग नहायें.
दूर करेगा कोई कैसे?...
*
पानी तनिक न व्यर्थ बहायें.
कचरे की होली दहकायें.
ढोल, मंजीरा, झांझ बजायें.
गुझिया, सेव, पपड़ियाँ खायें.
भंग भवानी परे हटायें.
ठण्डाई मिल पियें पिलायें.
सदा प्राकृतिक रंग बनायें.फिर पिचकारी खूब चलायें.
एक्य-भाव सुदृढ़ हो जैसे
आओ होली खेलें ऐसे...
*********
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मुक्तिका: हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की
संजीव 'सलिल'
*
भाल पर सूरज चमकता, नयन आशा से भरे हैं.
मौन अधरों का कहे, हम प्रणयधर्मी पर खरे हैं..
श्वास ने की रास, अनकहनी कहे नथ कुछ कहे बिन.
लालिमा गालों की दहती, फागुनी किंशुक झरे हैं..
चिबुक पर तिल, दिल किसी दिलजले का कुर्बां हुआ है.
भौंह-धनु के नयन-बाणों से न हम आशिक डरे हैं?.
बाजुओं के बंधनों में कसो, जीवन दान दे दो.
केश वल्लरियों में गूथें कुसुम, भँवरे बावरे हैं..
सुर्ख लाल गाल, कुंतल श्याम, चितवन है गुलाबी.
नयन में डोरे नशीले, नयन-बाँके साँवरे हैं..
हुआ इंगित कुछ कहीं से, वर्जना तुमने करी है.
वह न माने लाज-बादल सिंदूरी फिर-फिर घिरे हैं..
पीत होती देह कम्पित, द्वैत पर अद्वैत की जय.
काम था निष्काम, रति की सुरती के पल माहुरे हैं..
हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की.
विदेहित हो देह ने, रंग-बिरंगे सपने करे हैं..
समर्पण की साधना दुष्कर, 'सलिल' होती सहज भी-
अबीरी-अँजुरी करे अर्पण बिना, हम कब टरे हैं..
**************
Acharya Sanjiv Salil
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हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की
संजीव 'सलिल'
*
भाल पर सूरज चमकता, नयन आशा से भरे हैं.
मौन अधरों का कहे, हम प्रणयधर्मी पर खरे हैं..
श्वास ने की रास, अनकहनी कहे नथ कुछ कहे बिन.
लालिमा गालों की दहती, फागुनी किंशुक झरे हैं..
चिबुक पर तिल, दिल किसी दिलजले का कुर्बां हुआ है.
भौंह-धनु के नयन-बाणों से न हम आशिक डरे हैं?.
बाजुओं के बंधनों में कसो, जीवन दान दे दो.
केश वल्लरियों में गूथें कुसुम, भँवरे बावरे हैं..
सुर्ख लाल गाल, कुंतल श्याम, चितवन है गुलाबी.
नयन में डोरे नशीले, नयन-बाँके साँवरे हैं..
हुआ इंगित कुछ कहीं से, वर्जना तुमने करी है.
वह न माने लाज-बादल सिंदूरी फिर-फिर घिरे हैं..
पीत होती देह कम्पित, द्वैत पर अद्वैत की जय.
काम था निष्काम, रति की सुरती के पल माहुरे हैं..
हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की.
विदेहित हो देह ने, रंग-बिरंगे सपने करे हैं..
समर्पण की साधना दुष्कर, 'सलिल' होती सहज भी-
अबीरी-अँजुरी करे अर्पण बिना, हम कब टरे हैं..
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Acharya Sanjiv Salil
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सामयिक कविता: लूट तन्त्र -- वेदप्रकाश शर्मा.
सामयिक कविता:
लूट तन्त्र
लोक लाज सब धरी ताक पर देश को जी भर लूटेंगे
इन की करनी से भारत के भाग तो निश्चित फूटेंगे
पर कहने की हिम्मत किस में किस की ये सुन सकते हैं
एक मात्र उद्देश्य हैं इन का दोनों हाथों लूटेंगे ||
प्रजा तन्त्र कहाँ है भइया केवल झूठ तन्त्र है ये
सत्ता पर कब्जा करने का केवल एक मन्त्र है ये
दिग्गी जैसे कितने चमचे इसी काम में लगे हुए
भगवा को आतंकी कहना कैसा झूठ तन्त्र है ये ||
कैसी मजबूरी और कैसा गठ्बन्धन का नारा है
कितना गिर सकता है कोई इस से भी क्या ज्यादा है
आखिर कोई तो अंदर से पूछ रहा तुम से होगा
क्या होगा इस देश का जिस की जिम्मेदारी का वादा है ||
शपथ हो गई फेल तो अब इस नाटक का क्या मतलब है
देश रहे हो लूट तो फिर इस भाषण का क्या अब मतलब है
आखिर स्वच्छ छवि क्या ऐसे घोटाले करवाती है
भल मन साहत के नाटक को करने का क्या मतलब है ||
देख मालकिन को ऐसे बकरी के जैसे मिमयाते
खा जाएगी क्या तुम को जो उस से ऐसे घिघयाते
सिंह नाम के साथ जुड़ा है तो हुंकार लगा देखो
सच में यदि सिंह हो प्यारे तो औकात बता देखो||
लूट तन्त्र
वेदप्रकाश शर्मा.
लोक लाज सब धरी ताक पर देश को जी भर लूटेंगे
इन की करनी से भारत के भाग तो निश्चित फूटेंगे
पर कहने की हिम्मत किस में किस की ये सुन सकते हैं
एक मात्र उद्देश्य हैं इन का दोनों हाथों लूटेंगे ||
प्रजा तन्त्र कहाँ है भइया केवल झूठ तन्त्र है ये
सत्ता पर कब्जा करने का केवल एक मन्त्र है ये
दिग्गी जैसे कितने चमचे इसी काम में लगे हुए
भगवा को आतंकी कहना कैसा झूठ तन्त्र है ये ||
कैसी मजबूरी और कैसा गठ्बन्धन का नारा है
कितना गिर सकता है कोई इस से भी क्या ज्यादा है
आखिर कोई तो अंदर से पूछ रहा तुम से होगा
क्या होगा इस देश का जिस की जिम्मेदारी का वादा है ||
शपथ हो गई फेल तो अब इस नाटक का क्या मतलब है
देश रहे हो लूट तो फिर इस भाषण का क्या अब मतलब है
आखिर स्वच्छ छवि क्या ऐसे घोटाले करवाती है
भल मन साहत के नाटक को करने का क्या मतलब है ||
देख मालकिन को ऐसे बकरी के जैसे मिमयाते
खा जाएगी क्या तुम को जो उस से ऐसे घिघयाते
सिंह नाम के साथ जुड़ा है तो हुंकार लगा देखो
सच में यदि सिंह हो प्यारे तो औकात बता देखो||
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शनिवार, 19 मार्च 2011
होली के हुरहुरे :
होली के हुरहुरे :
होली के ये हुरहुरे लिए स्नेह सौगात.
कोई पढ़ मुस्का रहे, कोई दिल सहलात.
कोई दिल सहलात, किसी को चढ़ गओ पारा.
जिसका पारा चढ़े होय बाको मुंह कारा..
रश्मि मिश्रा :
होली में रंगीन रश्मि की दिव्य छटा मनभावन है.
भीग रंग में ऐसा लगता यह फागुन भी सावन है..
होली की झोली से लेकर स्नेह और सद्भाव सखे!
सब को बाँटो, शतगुण पाओ, ईश्वर सबको सुखी रखे.
सारा सच:
सारा सच बस इतना ही है होली पर मस्ताना है.
जो मन भाए सुनो-सुनाओ आये न आये गाना है..
जो सम्मुख हो मल गुलाल लग-लगा गले से खूब हँसो-
कभी फंसाओ यारों को तुम, कभी स्वयं भी धँसो-फंसो..
रोहित दुलाल:
है गुलाल का पर्व सुहाना घर में घुसो न आज दुलाल.
सतरंगे होकर मस्ताओ यारों के संग करो धमाल..
जगदीश सी. कर्मा
कर्मा हो या धर्मा होली पर सब भंग चढ़ाएंगे.
कोइ न बचने पायेगा हम सबको खूब नचाएंगे..
प्रभा तिवारी:
कैसी प्रभा अनोखी है, हर चेहरा रंगों की खान.
दुःख चिंताएं फ़िक्र भुला, नाचो धरती हो स्वर्ग समान..
आदर्श श्रीवास्तव:
होली का आदर्श एक है, भंग चढ़ा हुडदंग करो.
जो न पिए मुँह काला कर दो, होरी गा सत्संग करो..
कल क्या होगा किसने जाना, आज चढ़ा कर झूमो यार.
फ़िक्र नहीं क्या कहता कोई, कर दो रंगों की बौछार..
गीता पंडित:
जो पीता वह पढ़ता गीत, जो पंडित वह दंडित हो.
होली जो ना मस्ताये, मौन उसी का खंडित हो..
गाओ कबीरा सा रा रा रा, जिसको चाहो गारी दो.
जो भी चाहो करो प्रेम से, भांग न थोड़ी सारी दो..
धर्म:
धर्म एक है, कर्म है, होली में बेशर्म नेक है.
रंग-गुलाल में खूब नहाओ, हर न मानो यही टेक है..
चैतन्य शर्मा:
ले चैतन्य चूर्ण होली में, गटको-मटको, फ़िक्र तजो.
हो बेशर्म, न शर्मा शर्मा, सजनी को रंग नहीं लजों..
मस्ती में पस्ती को भूलो, मस्ती औ' मनमानी कर.
जो सफ़ेद है हर वह सूरत लाल, गुलाबी धानी कर..
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
ब्रजभाषा - होली के छन्द - नायक नायिका सम्वाद नवीन चतुर्वेदी
ब्रजभाषा - होली के छन्द - नायक नायिका सम्वाद
नवीन चतुर्वेदी
नायक:-
गोरे गोरे गालन पे मलिहौँ गुलाल लाल,
क़ोरन में सजनी अबीर भर डारिहौँ|
सारी रँग दैहौँ सारी, मार पिचकारी प्यारी,
अंग-अंग रँग जाय, ऐसें पिचकारिहौँ|
अँगिया-चुनर-नीबी-सुपरि भिगोय डारौँ,
जो तू रूठ जैहै, हौलें-हौलें पुचकारिहौँ|
अब कें फगुनवा में कहें दैहौँ 'कविदास',
राज़ी सौं नहीं, तो जोरदारी कर डारिहौँ||
[घनाक्षरी कवित्त]
नायिका:-
दुहुँ गालन लाल गुलाल भर्यौ, अँगिया में दबी हैं अबीर की झोरी|
अधरामृत रंग तरंग भरे, पिचकारी बनीं ये निगाह निगोरी|
ढप-ढोल-मृदंग उमंगन के, रति के रसगीत करें चितचोरी|
तुम फाग की बाट निहारौ व्रुथा, तुम्हें बारहों माज़ खिलावहुँ होरी||
[सवैया]
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barsane ke holi,
holi,
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
बरसाने की लट्ठमार होली : नवीन चतुर्वेदी
बरसाने की लट्ठमार होली :
नवीन चतुर्वेदी
होरी खेलिवे कों हुरियार चले बरसाने,
संग लिएं ग्वाल-बाल हुल्लड़ मचामें हैं|
टेसू के फूलन कों पानी में भिगोय कें फिर,
भर भर पिचकारी रंगन उडामें हैं|
संगत के सरारती संगी सहोदर कछू,
गोपिन कों घेर गोबर में हू डुबामें हैं|
कूद कूद जामें और बरसाने पौंचते ही,
लट्ठ खाय गोरिन सों घर लौट आमें हैं||
महीना पच्चीस दिन दूध पिएं घी हू खामें,
जाय कें अखाडें डंड बैठक लगामें हैं|
इहाँ-उहाँ जहाँ जायँ, इतरायँ, भाव खायँ,
नुक्कड़-अथाँइन पे गाल हू बजामें हैं|
पिछले बरस कौ यों बदलौ लेंगे अचूक,
यों-त्यों कर दंगे ऐसी योजना बनामें हैं|
कूद कूद जामें और बरसाने पौंचते ही,
लट्ठ खाय गोरिन सों घर लौट आमें हैं||
संग लिएं ग्वाल-बाल हुल्लड़ मचामें हैं|
टेसू के फूलन कों पानी में भिगोय कें फिर,
भर भर पिचकारी रंगन उडामें हैं|
संगत के सरारती संगी सहोदर कछू,
गोपिन कों घेर गोबर में हू डुबामें हैं|
कूद कूद जामें और बरसाने पौंचते ही,
लट्ठ खाय गोरिन सों घर लौट आमें हैं||
महीना पच्चीस दिन दूध पिएं घी हू खामें,
जाय कें अखाडें डंड बैठक लगामें हैं|
इहाँ-उहाँ जहाँ जायँ, इतरायँ, भाव खायँ,
नुक्कड़-अथाँइन पे गाल हू बजामें हैं|
पिछले बरस कौ यों बदलौ लेंगे अचूक,
यों-त्यों कर दंगे ऐसी योजना बनामें हैं|
कूद कूद जामें और बरसाने पौंचते ही,
लट्ठ खाय गोरिन सों घर लौट आमें हैं||
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
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ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
रविवार, 13 मार्च 2011
भज गोविन्दम्: मूल संस्कृत, हिन्दी काव्यानुवाद, अर्थ व अंग्रेजी अनुवाद सहित
(मूल संस्कृत, हिन्दी काव्यानुवाद, अर्थ व अंग्रेजी अनुवाद सहित)
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥
गोविंद भजो, गोविंद भजो, गोविंद भजो रे मूरख मन।
अंतिम पल में रक्षा न करेगा, केवल यह व्याकरण रटन॥१॥
हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र! गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है ॥१॥
O deluded minded friend, chant Govinda, worship Govinda, love Govinda as memorizing the rules of grammar cannot save one at the time of death. ॥1॥
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्, कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्, वित्तं तेन विनोदय चित्तं ॥२॥
धन-अर्जन की तृष्णा तज, सद्बुद्धि रखो वासना तजो।
सत्कर्म उपार्जित धन-प्रयोग दे, सदा चित्त को आनंदन॥२॥
हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो ॥२॥
O deluded minded ! Give up your lust to amass wealth. Give up such desires from your mind and take up the path of righteousness. Keep your mind happy with the money which comes as the result of your hard work. ॥2॥
नारीस्तनभरनाभीदेशम्, दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्, मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥३॥
नाभि-वक्ष सौंदर्य देखकर, मत मतवाला हो नारी का।
अस्थि, मांस, मज्जा, मेदा है, अशुचि मोह का कर भंजन॥३॥
स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं ॥३॥
Do not get attracted on seeing the parts of woman's anatomy under the influence of delusion, as these are made up of skin, flesh and similar substances. Deliberate on this again and again in your mind॥3॥
नलिनीदलगतजलमतितरलम्, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोक शोकहतं च समस्तम् ॥४॥
कमल-पाँखुरी पर क्रीड़ारत, सलिल-बिंदुवत चंचल मति-यश।
रोग, अहं, अभिमानग्रस्त है, सकल विश्व यह समझ अकिंचन॥४॥
जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है ॥४॥
Life is as ephemeral as water drops on a lotus leaf . Be aware that the whole world is troubled by disease, ego and grief. ॥4॥
यावद्वित्तोपार्जनसक्त:, तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे, वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥५॥
धन-अर्जन-संचय की जब तक, शक्ति तभी तक आश्रित चिपके।
कोई न चाहे बातें करना, निर्बल-जर्जर जब होगा तन॥५॥
जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है ॥५॥
As long as a man is fit and capable to earn money, everyone in the family show affection towards him. But after wards, when the body becomes weak no one enquires about him even during the talks. ॥5॥
यावत्पवनो निवसति देहे, तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥६॥
इस नश्वर शरीर में जब तक, प्राण तभी तक लोग पूछते।
प्राण शरीर छोड़ता, डरती अर्धांगिनी तक लख विकृत तन॥६॥
जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है ॥६॥
Till one is alive, family members enquire kindly about his welfare. But when the vital air (Prana) departs from the body, even the wife fears from the corpse.॥6॥
बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः, परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥
बालक-मन आसक्त खेल में, तरुण-युवा मन हो रमणी में।
चिंतासक्त वृद्ध-मन होता, हो न ब्रम्ह में लीन कभी मन.॥७॥
बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥
In childhood we are attached to sports, in youth, we are attached to woman . Old age goes in worrying over every thing . But there is no one who wants to be engrossed in Govind, the parabrahman at any stage. ॥7॥
का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत आयातः, तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥८॥
कौन तुम्हारा पत्नि-पुत्र है?, यह दुनिया सचमुच विचित्र है।
तुम किसके हो?, आये कहाँ से?, अब तो कर लो यह सच-चिंतन.॥8॥
कौन तुम्हारी पत्नी है, कौन तुम्हारा पुत्र है, ये संसार अत्यंत विचित्र है, तुम कौन हो, कहाँ से आये हो, बन्धु ! इस बात पर तो पहले विचार कर लो ॥८॥
Who is your wife ? Who is your son? Indeed, strange is this world. O dear, think again and again who are you and from where have you come. ॥8॥
सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं, निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥९॥
सत्संगति से अनासक्ति हो, अनासक्ति से माया छूटे।
मुक्ति तत्व का अनुभव हो तब, जन्म-मरण का छूटे बंधन॥९॥
सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥९॥
Association with saints brings non-attachment, non-attachment leads to right knowledge, right knowledge leads us to permanent awareness,to which liberation follows. ॥9॥
वयसि गते कः कामविकारः, शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः, ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥१०॥
काम कहाँ जब यौवन बीते?, कहाँ जलाशय जब जल रीते?।
धन बिन कहाँ स्वजन औ' परिजन?, तत्व-ज्ञान सच, भ्रम जग-जीवन॥१०॥ आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ॥१०॥
As lust without youth, lake without water, the relatives without wealth are meaningless, similarly this world ceases to exist, when the Truth is revealed? ॥10॥
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा, ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा ॥११॥
धन-अनुचर-यौवन पर मत कर, गर्व काल पल में हर लेता।
मिथ्या माया तज दे पल में, जान ब्रम्ह को कर अनुगायन॥११॥
धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो ॥११॥
Do not boast of wealth, friends (power), and youth, these can be taken away in a flash by Time . Knowing this whole world to be under the illusion of Maya, you try to attain the Absolute. ॥11॥
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः, शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि, न मुन्च्त्याशावायुः ॥१२॥
आते-जाते दिवस-रात, संध्या-प्रभात, ऋतु शिशिर-वसंती।
मिथ्या माया तज दे पल में, जान ब्रम्ह को कर अनुगायन॥१२॥
दिन और रात, शाम और सुबह, सर्दी और बसंत बार-बार आते-जाते रहते है काल की इस क्रीडा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है पर इच्छाओ का अंत कभी नहीं होता है ॥१२॥
Day and night, dusk and dawn, winter and spring come and go. In this sport of Time entire life goes away, but the storm of desire never departs or diminishes. ॥12॥
द्वादशमंजरिकाभिरशेषः, कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः, श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः ॥१२अ॥
बारह पद के पुष्पहार से, उपदेशा व्याकरणाचार्य को ।
आदि शंकराचार्य देव ने, पढ़-सुन-गुन ले कुछ तू भी मन॥१२अ॥
बारह गीतों का ये पुष्पहार उपदेश के रूप में, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण को प्रदान किया गया ॥१२अ॥
This bouquet of twelve verses was imparted to a grammarian by the all-knowing, god-like Sri Shankara. ॥12A॥
काते कान्ता धन गतचिन्ता, वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका, भवति भवार्णवतरणे नौका ॥१३॥
चिंता क्यों भार्या की, धन की?, क्या न तुम्हारा ईश नियामक?
भवसागर से पार उतर जा, कर सुसंग नौका-नौकायन ॥१३॥
तुम्हें पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है, क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है| तीनों लोकों में केवल सज्जनों का साथ ही इस भवसागर से पार जाने की नौका है ॥१३॥
Oh deluded man ! Why do you worry about your wealth and wife? Is there no one to take care of them? Only the company of saints can act as a boat in three worlds to take you out from this ocean of rebirths. ॥13॥
जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः, काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः, उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ॥१४॥
जटा बढ़ाकर, शीश मुंडाकर, बाल नुचा, गेरुआ पहनकर ।
सत्य देख क्यों देख न पाते?, विविध वेश धर पाते भोजन ॥१४॥
बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरे बाल , काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति भांति के वेश ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो ॥१४॥
Matted and untidy hair, shaven heads, orange or variously colored cloths are all a way to earn livelihood . O deluded man why don't you understand it even after seeing.॥14॥
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥१५॥
बदन गल गया, बाल पक गये, मुँह के दाँत गिर गये सारे।
ले लाठी करता पग-चालन, आशा फिर भी नहीं तजे मन॥१५॥
क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दांतों से रहित मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश से बंधा रहता है ॥१५॥
Even an old man of weak limbs, hairless head, toothless mouth, who walks with a stick, cannot leave his desires. ॥15॥
अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः, रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः, तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥१६॥
सूर्य ढले तब अग्नि जला, सह ठंडी घुटने-ठुड्डी पर रख ठुड्डी।
भिक्षा माँगे, तरु नीचे रह, आशा-फंदा ताजे न दामन॥१६॥
सूर्यास्त के बाद, रात्रि में आग जला कर और घुटनों में सर छिपाकर सर्दी बचाने वाला, हाथ में भिक्षा का अन्न खाने वाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को छोड़ नहीं पाता है ॥१६॥
One who warms his body by fire after sunset, curls his body to his knees to avoid cold; eats the begged food and sleeps beneath the tree, he is also bound by desires, even in these difficult situations . ॥16॥
कुरुते गङ्गासागरगमनं, व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन, मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥
गंगासागर गमन करे या, दान करे करके व्रत-पालन।
ज्ञान बिना भव-पार न जाता, सौ-सौ जन्म कहें सब सज्जन॥१७॥
किसी भी धर्म के अनुसार ज्ञान रहित रह कर गंगासागर जाने से, व्रत रखने से और दान देने से सौ जन्मों में भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है ॥१७॥
According to all religions, without knowledge one cannot get liberated in hundred births though he might visit Gangasagar or observe fasts or do charity. ॥17॥
सुर मंदिर तरु मूल निवासः, शय्या भूतल मजिनं वासः।
सर्व परिग्रह भोग त्यागः, कस्य सुखं न करोति विरागः ॥१८॥
छाल हिरन की पहन, शयनकर देवालय में तरु के नीचे।
ताजे लालसा-भोग विलासी, सुख न कौन सा पता तब मन?॥१८॥
देव मंदिर या पेड़ के नीचे निवास, पृथ्वी जैसी शय्या, अकेले ही रहने वाले, सभी संग्रहों और सुखों का त्याग करने वाले वैराग्य से किसको आनंद की प्राप्ति नहीं होगी ॥१८॥
Reside in a temple or below a tree, sleep on mother earth as your bed, stay alone, leave all the belongings and comforts, such renunciation can give all the pleasures to anybody. ॥18॥
योगरतो वाभोगरतोवा, सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं, नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥१९॥
भोग करे या योगलीं हो?, रहे भीड़ में या एकाकी?।
सुखी-प्रसन्न वही वास्तव में, लीन ब्रम्ह में हो जिसका मन॥१९॥
कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है ॥१९॥
One may like meditative practice or worldly pleasures , may be attached or detached. But only the one fixing his mind on God lovingly enjoys bliss, enjoys bliss, enjoys bliss. ॥19॥
भगवद्गीता किञ्चिदधीता, गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा, क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ॥२०॥
किंचित भी भवद्गीता पढ़, एक बूँद भी गंगाजल पी।
पूजे पल भर भी मुरारि को, यदि- हो दूर सदा यम-बंधन॥२०॥
जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है ॥२०॥
Those who study Gita, even a little, drink just a drop of water from the holy Ganga, worship Lord Krishna with love even once, Yama, the God of death has no control over them. ॥20॥
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥२१॥
जन्म-मरण, माँ-गर्भ-शयन, हो बार-बार संसार यही है।
करो कृपा हे देव मुरारि!, उद्धारो कर भव-भय-भंजन॥२१॥
बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके मेरी इससे रक्षा करें ॥२१॥
Born again, die again, stay again in the mother's womb, it is indeed difficult to cross this world. O Murari ! please help me through your mercy. ॥21॥
रथ्या चर्पट विरचित कन्थः, पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः।
योगी योगनियोजित चित्तो, रमते बालोन्मत्तवदेव ॥२२॥
जो गुण-दोष-परे पथ का हो, पथिक मात्र गुदड़ी धारणकर।
बच्चे सा उन्मत्त सुयोगी, दैव-चेतना-लीन रहे मन॥२२॥
रथ के नीचे आने से फटे हुए कपडे पहनने वाले, पुण्य और पाप से रहित पथ पर चलने वाले, योग में अपने चित्त को लगाने वाले योगी, बालक के समान आनंद में रहते हैं ॥२२॥
One who wears cloths ragged due to chariots, move on the path free from virtue and sin,keeps his mind controlled through constant practice, enjoys like a carefree exuberant child. ॥22॥
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः, का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारम्, विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ॥२३॥
कौन तुम? हूँ कौन मैं?, आया कहाँ से?, कौन माँ-पितु?।
स्वप्नसम निस्सार जग-तज, तत्व-जिज्ञासा करो मन॥२३॥
तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी माँ कौन है, मेरा पिता कौन है? सब प्रकार से इस विश्व को असार समझकर इसको एक स्वप्न के समान त्याग दो ॥२३॥
Who are you ? Who am I ? From where I have come ? Who is my mother, who is my father ? Ponder over these and after understanding,this world to be meaningless like a dream,relinquish it. ॥23॥
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः, व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥२४॥
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥२४॥
तुममें, मुझमें, सकल जगत में, व्याप्त विष्णु ही व्यापक सच है।
क्रुद्ध अकारण हो न, एक सा हर हालत में रखना निज मन॥२४॥
तुममें, मुझमें और अन्यत्र भी सर्वव्यापक विष्णु ही हैं, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो, यदि तुम शाश्वत विष्णु पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ ॥२४॥
Lord Vishnu resides in me, in you and in everything else, so your anger is meaningless . If you wish to attain the eternal status of Vishnu, practice equanimity all the time, in all the things. ॥24॥
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं, सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥२५॥
शत्रु-मित्र या संबंधी-सुत, से लड़ना-मिलना न सार्थक।
सब में खुद को देख तजो, अज्ञानजनित वैभिन्न्य भाव मन॥२५॥
शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधवों से द्वेष और प्रेम मत करो, सबमें अपने आपको ही देखो, इस प्रकार सर्वत्र ही भेद रूपी अज्ञान को त्याग दो ॥२५॥
Try not to win the love of your friends, brothers, relatives and son(s) or to fight with your enemies. See yourself in everyone and give up ignorance of duality everywhere.॥25॥
कामं क्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः, ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥२६॥
काम, क्रोध, मद, लोभ त्यागकर, मैं 'वह' हूँ अनुभव कर साधक।
जिन्हें न आत्मज्ञान, वे मूरख, पीड़ित हों बन यम-बंदीजन ॥२६॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वे बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं ॥२६॥
Give up desires, anger, greed and delusion. Ponder over your real nature . Those devoid of the knowledge of self come in this world, a hidden hell, endlessly. ॥26॥
गेयं गीता नाम सहस्रं, ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं, देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥२७॥
गीता-विष्णुसहस्त्रनाम का गान, ध्यानकर श्री हरि का मन।
सदा रहो सत्संग-लीन मन, दीनों को के दान सदा धन॥२७॥
भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो, सज्जनों के संग में अपने मन को लगाओ और गरीबों की अपने धन से सेवा करो ॥२७॥
Sing thousand glories of Lord Vishnu, constantly remembering his form in your heart. Enjoy the company of noble people and do charity for the poor and the needy. ॥27॥
सुखतः क्रियते रामाभोगः, पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं, तदपि न मुंचति पापाचरणं ॥२८॥
क्षणिक भोगकर कायिक सुख, रोगी हो जाते सभी बाद में।
मृत्यु अंत में पाते लेकिन, नहीं त्यागते पाप-आचरण॥२८॥
सुख के लिए लोग आनंद-भोग करते हैं जिसके बाद इस शरीर में रोग हो जाते हैं। यद्यपि इस पृथ्वी पर सबका मरण सुनिश्चित है फिर भी लोग पापमय आचरण को नहीं छोड़ते हैं ॥२८॥
People use this body for pleasure which gets diseased in the end. Though in this world everything ends in death, man does not give up the sinful conduct. ॥28॥
अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं, नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः, सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥२९॥
हर विपत्ति का मूल संपदा, सुख न तनिक भी धन से मिलता।
सुत भी बैरी बने धनिक का, सच स्वीकारी तज दो धन, मन॥२९॥
धन अकल्याणकारी है और इससे जरा सा भी सुख नहीं मिल सकता है, ऐसा विचार प्रतिदिन करना चाहिए | धनवान व्यक्ति तो अपने पुत्रों से भी डरते हैं ऐसा सबको पता ही है ॥२९॥
Keep on thinking that money is cause of all troubles, it cannot give even a bit of happiness. A rich man fears even his own son . This is the law of riches everywhere. ॥29॥
प्राणायामं प्रत्याहारं, नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं, कुर्ववधानं महदवधानम् ॥३०॥
क्रिया-नियंत्रण, इन्द्रिय संयम, सत्यासत्य-विवेचन नित कर ।
नित्य-अनित्य विचारण, जप-तप, का अभ्यास सजग रह कर मन॥३०॥
प्राणायाम, उचित आहार, नित्य इस संसार की अनित्यता का विवेक पूर्वक विचार करो, प्रेम से प्रभु-नाम का जाप करते हुए समाधि में ध्यान दो, बहुत ध्यान दो ॥३०॥
Do pranayam, the regulation of life forces, take proper food, constantly distinguish the permanent from the fleeting, Chant the holy names of God with love and meditate,with attention, with utmost attention. ॥30॥
गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः, संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं, द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥३१॥
गुरु-पदपद्म-भक्त! इन्द्रिय-मन, नियमन कर भव से छूटो रे।
निज उरवासी देव के करो, दर्शन, तरो मुक्त हो रे मन॥३१॥
गुरु के चरणकमलों का ही आश्रय माननेवाले भक्त बनकर सदैव के लिए इस संसार में आवागमन से मुक्त हो जाओ, मन एवं इन्द्रियों का निग्रह कर अपने हृदय में विराजमान प्रभु के दर्शन करो ॥३१॥
Be dependent only on the lotus feet of your Guru and get salvation from this world. Through disciplined senses and mind, you can see the indwelling Lord of your heart !॥31॥
मूढः कश्चन वैयाकरणो, डुकृञ्करणाध्ययन धुरिणः।
श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै, बोधित आसिच्छोधितकरणः ॥३२॥
मुग्ध व्याकरण के नियमों पर, संगत में व्याकरणाचार्य की।
शिष्य कई शंकराचार्य के, ईश-बोध हित हुए सुप्रेरित ॥३२॥
इस प्रकार व्याकरण के नियमों को कंठस्थ करते हुए किसी मोहित वैयाकरण के माध्यम से बुद्धिमान श्री भगवान शंकर के शिष्य बोध प्राप्त करने के लिए प्रेरित किये गए ॥३२॥
Thus through a deluded grammarian lost in memorizing rules of the grammar, the all knowing Sri Shankara motivated his disciples for enlightenment. ॥32॥
भजगोविन्दं भजगोविन्दं, गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं, नहि पश्यामो भवतरणे ॥३३॥
गोविन्द भजो, गोविन्द भजो, गोविन्द भजो रे मूरख मन।
भव से पार उतरने का है, ईश नाम जप ही साधन॥३३॥
गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है ॥३३॥
O deluded minded friend, chant Govinda, worship Govinda, love Govinda as there is no other way to cross the life's ocean except lovingly remembering the holy names of God. ॥33॥
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नवगीत का वस्तु विन्यास
महेश अनघ |
विषय की पूर्वपीठिका के रूप में पहले दो बातें कहना चाहूँगा।
एक - लौकिक काव्य संदर्भ में गीत की दो अनिवार्य शर्तें रही हैं - छंद संतुलन और अंत्यानुप्रास (तुकांत)। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर अब तक गीत इसी रूप में पहचाना जाता है। यह अलग बात है कि इसके पूर्व, वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ, जो गीत ही मानी जाती हैं, उपर्युक्त शर्तों के अधीन नहीं रहीं। वहाँ पर सांगीतिक लय ही गीत का आधार था और प्रत्येक ऋचा की एक सुनिश्चित गायन पद्धति निर्धारित थी, जिसे आरोह-अवरोह-स्वरित के नाम से चिह्नित किया गया था। अस्तु, वह लय पर आधारित काव्य था। बाद में सनातन गीत की इस अनिवार्य शर्त 'लय' को साधने के लिए छंद और तुकांत को साधन बनाया गया जो संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक बखूबी निर्वाह किया जाता रहा।
एक - लौकिक काव्य संदर्भ में गीत की दो अनिवार्य शर्तें रही हैं - छंद संतुलन और अंत्यानुप्रास (तुकांत)। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर अब तक गीत इसी रूप में पहचाना जाता है। यह अलग बात है कि इसके पूर्व, वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ, जो गीत ही मानी जाती हैं, उपर्युक्त शर्तों के अधीन नहीं रहीं। वहाँ पर सांगीतिक लय ही गीत का आधार था और प्रत्येक ऋचा की एक सुनिश्चित गायन पद्धति निर्धारित थी, जिसे आरोह-अवरोह-स्वरित के नाम से चिह्नित किया गया था। अस्तु, वह लय पर आधारित काव्य था। बाद में सनातन गीत की इस अनिवार्य शर्त 'लय' को साधने के लिए छंद और तुकांत को साधन बनाया गया जो संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक बखूबी निर्वाह किया जाता रहा।
लेकिन हिंदी काव्य में, ख़ासतौर से मात्रिक छंद के रूढ़ प्रयोग और भाषाई जटिलता के कारण यह छंद रूपी साधन तो बना रहा, किंतु साध्य लय छूटती गई। एक लंबे समय तक इस विचलन पर किसी का ध्यान नहीं गया। (मैं तो कहूँगा, आज भी किसी का ध्यान नहीं है) यही पारंपरिक गीत का दुर्भाग्य था जिसके कारण गीत प्राण विहीन होकर आकार मात्र रह गया और उसकी इसी कमज़ोरी के कारण नई कविता ने उस पर आक्रमण कर उसे ग्रसने का प्रयास किया।
तो यह स्पष्ट होता है कि वैदिक साहित्य से लेकर अद्यतन नवगीत तक लय ही एकमात्र ज़रूरी शर्त रही है गीत की। और यह भी, कि सांगीतिक गीतराग तथा मुद्रित गीतपाठ के बीच संबंध जोड़ने वाला एकमात्र कारक सेतु भी लय ही है।
दो - नवगीत में और कुछ नहीं, केवल एक 'नव' उपसर्ग जुड़ गया है। लेकिन यह उपसर्ग बहुत व्यापक संदर्भों में जुड़ा हुआ है। इसके कई आशय परिलक्षित हैं। एक आशय यह कि नवगीत का तौर-तरीका अब तक रचे गए गीत से बिल्कुल अलग तरह का, नया हो। दूसरा आशय यह कि गीत की प्रथम बाध्यता-छंद को लय के आधार पर नया आकार दिया गया हो। तीसरा आशय यह कि अनुप्रास पंक्ति के अंत में होने की बजाय और कहीं भी हो, अथवा न भी हो। चौथा आशय यह कि गीत का अंदाज़ेबयाँ यानी शिल्प नए तरह का, बिल्कुल मौलिक हो। पाँचवाँ आशय यह कि गीत में प्रयुक्त हिंदी भाषा को आंचलिकता के साथ सविस्तार ग्रहण किया गया हो अथवा नए निजी शब्द गढ़े गए हों। और छठा आशय यह कि गीत में ऐसा कुछ कहा गया हो, जो अभी तक गीत विधा का विषय नहीं बन पाया था, आदि आदि।
और अब यहीं से मूल विषय पर चर्चा करते हैं।
पहला सवाल - गीत में वस्तु की अनिवार्यता क्यों हैं?
संगीत की रचनाओं में कथ्य की आवश्यकता नहीं होती। वहाँ लय चाहिए, राग-रागिनी चाहिए, सधा हुआ कंठ-स्वर चाहिए और संगत के लिए साज चाहिए। उदाहरण के लिए मियाँ तानसेन की रचनाएँ अथवा किसी ठुमरी को लीजिए, इन रचनाओं का श्रोता कभी भी गीत में अर्थ तलाश नहीं करता है बल्कि स्वर के आरोह-अवरोह में झूमता है। यहाँ हाल ज़्यादातर फ़िल्मी गीतों का भी है, जैसे 'डम डम डिगा डिगा. . .मौसम भीगा भीगा. . .'। इसीलिए फ़िल्मी गीतों में गीतकार की अपेक्षा दस गुना ज़्यादा महत्व संगीतकार का होता है।
लेकिन काव्यगीत के साथ ऐसा नहीं है। काव्यगीत एक 'पाठ विधा' है वह छपे हुए रूप में पाठक के सामने होता है। पाठक उसे बार-बार पढ़ता है, उसमें अर्थ तलाश करता है, आशय तथा संदेश भी तलाश करता है। इसलिए काव्यगीत में कथ्य महत्वपूर्ण है। ज़्यादातर यही कथ्य जनसामान्य में संप्रेषित होता है और उद्धरण का विषय बनता है। काव्यगीत और संगीत रचना के बीच विभाजक रेखा भी कथ्य ही है।
अब हम वर्तमान हिंदी नवगीत को लें। यहाँ रचनाकारों का उल्लेख किए बिना मैं केवल नवगीतों का ज़िक्र करूँगा, कि पिछले वर्षों में अधिकांश नवगीत मौसम, प्रकृति और वैयक्तिक मनःस्थितियों पर रचे गए। इनमें से पहले दो कथ्य (यदि उन्हें कथ्य माना जाए) या तो महाकाव्य के कथा विस्तार में सहयोग देने वाले पूरक वर्णन हो सकते हैं, या फिर सीधे-सीधे वैदिक ऋचाओं का अनुगायन। जबकि तीसरा कथ्य उर्दू की रूमानी ग़ज़ल परंपरा का द्योतक है। यहाँ मैं प्रसंगवश कहना चाहूँगा कि उर्दू की पारंपरिक ग़ज़ल का एक बड़ा हिस्सा कथ्य विहीन है। वह केवल बहर, क़ाफ़िया और कहन के बल पर जीवित बना रहा है। हिंदी नवगीत ने भी संभवतः इसी प्रवृत्ति को ग्रहण कर लिया, जिसके फलस्वरूप अनेक ऐसी नवगीत रचनाएँ सामने आईं जिनमें कवि अपने निजी (ज़्यादातर काल्पनिक) अवसाद-आह्लाद को ऐकांतिक भाव में गाता दिखाई देता है।
अब यहाँ थोड़ा रुक कर विचार करना चाहिए कि ''आज सर्दी बहुत है'' - ''सूरज भी ठंड से काँप रहा है'' - या फिर ''गर्मी ने भीड़ को पसीना-पसीना कर दिया'' या फिर ''वसंत ऋतु आ गई'' (यह वैसी ही है, जैसी हर वर्ष होती है) या फिर आषाढ़ के बादल घिर आए, धरती उठकर आलिंगन कर रही है'' इत्यादि। इन सभी सर्वज्ञात यथास्थितियों का वर्णन करके नवगीत आख़िर क्या संदेश देना चाहता है? दूसरा विचारणीय तथ्य यह कि - ''मैं आज सुबह से उदास हूँ'', ''रह-रह कर भीतर से पीर उभरती है'' या फिर- ''खाया सोया खुश हुआ'' इत्यादि प्रसंगों पर नवगीत की रचना करने का दूरगामी प्रभाव क्या हो सकता है? बहुत स्पष्ट है कि किसी एक व्यक्ति की ऐकांतिक अनुभूति में समग्र जन समुदाय ज़्यादा रुचि नहीं ले सकता।
हर पाठक गीत रचना में अपना जीवन और अपना कथ्य तलाश करता है और यह भी कि ''हर पाठक'' कोई एक व्यक्ति नहीं, एक वर्ग या जाति नहीं, यहाँ तक कि एक देश भी नहीं, बल्कि यह तो मनुष्य मात्र है, जो अपने परिवेश से, व्यवस्था से, विकृत कानून से अथवा अन्य मानवीय अपराधिक प्रवृत्तियों से पीड़ित हुआ त्राण की तलाश करता है, या फिर सुख के अतिरिक्त साधन की खोज में काव्य की ओर उन्मुख होता है। फिर भले ही उसे अंधी आस्था या ज्योतिष- भविष्य फल जैसी अवैज्ञानिक चीज़ों का ही सहारा क्यों न लेना पड़े।
इस सार्वभौम, समकालीन मानव समुदाय के लिए गीत की भूमिका है। यद्यपि यह सच है कि कविता कोई आदेश, उपदेश या संदेश नहीं देती है किंतु वह अपने परोक्ष कथन और पारिवेशिक चित्रण के माध्यम से जन सामान्य को इस तरह आंदोलित अवश्य करती है कि पाठक स्वयं अपने रोग का कारण, लक्षण और निदान समझ लेता है। लेकिन यह होता तभी है, जब गीत में परोक्ष रूप से व्यंजित शिल्प में, बिंबों, प्रतीकों के माध्यम से ''कुछ'' कहा गया हो। मौसम से संबद्ध नवगीत रचना के ये दो उदाहरण देखें-
1 -
फिर दोपहर लगी अलसाने / नीम तले
कौए लगे पंख खुजलाने / नीम तले
सिर पर पसरी छाँव / लगी हटने
ताल नदी के होंठ / लगे फटने
हवा लगी अफ़वाह उड़ाने / नीम तले
फिर दोपहर लगी अलसाने / नीम तले
कौए लगे पंख खुजलाने / नीम तले
सिर पर पसरी छाँव / लगी हटने
ताल नदी के होंठ / लगे फटने
हवा लगी अफ़वाह उड़ाने / नीम तले
2-
धूप में जब भी जले हैं पाँव / घर की याद आई
नीम की छोटी छरहरी छाँव में / डूबा हुआ मन
द्वार पर आधा झुका बरगद-पिता / माँ-बँधा आँगन
सफ़र में जब भी दुखे हैं घाव / घर की याद आई
धूप में जब भी जले हैं पाँव / घर की याद आई
नीम की छोटी छरहरी छाँव में / डूबा हुआ मन
द्वार पर आधा झुका बरगद-पिता / माँ-बँधा आँगन
सफ़र में जब भी दुखे हैं घाव / घर की याद आई
मैं कहना चाहूँगा कि पहले गीत में ग्रीष्म का वर्णन भर है किंतु कथ्य संप्रेषित नहीं है जबकि दूसरे गीत में संतप्त मनुष्य को अपनी जड़ों की ओर लौटने का परोक्ष संदेश निहित है, इसलिए वह वस्तु प्रधान गीत है।
इसी तरह, व्यक्तिपरक मनःस्थिति के चित्रण से संबंधित ये दो नवगीत उदाहरण दृष्टव्य हैं -
1 -
व्यथा वेदना का है आलम / जीवन की अब शाम हो गई
विश्वास किया जिस पर भी मैंने / वही ह्रदय से खेला है
लाखों की चाहत की थी पर / हाथ न आया धेला है
सफ़र अनवरत / पर न मंज़िल / मौच स्वयं आयाम हो गई।
विश्वास किया जिस पर भी मैंने / वही ह्रदय से खेला है
लाखों की चाहत की थी पर / हाथ न आया धेला है
सफ़र अनवरत / पर न मंज़िल / मौच स्वयं आयाम हो गई।
2 -
चंदन क्षण / डूबे अतीत में / यादें शेष रहीं
वे दिन जबकि विचारों में / प्रतिपल गुलाब महके
भावों के पाँखी / गदराई शाखों पर चहके
वर्तमान ही जिया / हुआ आगत का भान नहीं।
चंदन क्षण / डूबे अतीत में / यादें शेष रहीं
वे दिन जबकि विचारों में / प्रतिपल गुलाब महके
भावों के पाँखी / गदराई शाखों पर चहके
वर्तमान ही जिया / हुआ आगत का भान नहीं।
यहाँ पहला उद्धरण कथ्यविहीन, केवल वैयक्तिक निराशा का चित्रण है, जबकि दूसरे उद्धरण में वैयक्तिक अनुभूति की अभिव्यक्ति में सुखों के संरक्षण हेतु सतत सजग एवं भविष्योन्मुखी रहने की परोक्ष चेतावनी है, इसीलिए, यह वस्तुयुक्त नवगीत है।
दोनों तुलनात्मक गीतों का प्रभाव एक सामान्य पाठक पर भी ऐसा ही पड़ेगा, कि वह एक गीत को पढ़ देगा, जबकि दूसरे गीत को पढ़कर उसमें अंतर्निहित आशय ग्रहण कर लेगा। और यह कि नवगीत रचना या कोई भी काव्य रचना अंततः सामान्य पाठक के निमित्त ही होती है - होनी चाहिए। इसलिए पाठगीत में वस्तु की अनिवार्यता सिद्ध है।
नवगीत में वस्तु विविधता और विस्तार की भी व्यापक संभावनाएँ हैं। संभवतः और किसी काव्य विधा में इतने कथ्य प्रकार न समा सकें, जितने नवगीत में हो सकते हैं। समय था जब गीत को रागात्मक अभिव्यक्ति और केवल सकारात्मक विचार व्याप्ति तक सीमित मान लिया गया था।
इसी तरह ग़ज़ल रूमानी ज़मीन पर केंद्रित थी, दोहा नैतिक एवं सामाजिक सूक्तियों के लिए आरक्षित था, घनाक्षरी ब्रज क्षेत्र की संपत्ति थी और नई कविता केवल वामपंथी विचारों का पुलिंदा रही। लेकिन नवगीत अपने आरंभ काल से ही अप्रतिबंधित कथ्य को लेकर चला है। उसने सौंदर्य तथा प्रेमानुभूति को तो साथ रखा ही, नैतिक - सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक विषयों सहित विश्व परिदृश्य को भी अपनी विषय वस्तु बनाया। यहाँ तक कि जो विषय गीत में वर्जित किए गए थे, ऐसे वीभत्स और क्रूर संदर्भों सहित विज्ञान और तकनीक को भी अपने अंदर समेट कर नवगीत ने वस्तु को इतना व्यापक आयाम दिया कि अब उसे निर्बाध गमन हेतु दसों दिशाएँ खुली हुई हैं।
नवगीत के एक असाधारण कथ्य का अंश देखें -
काँधे पर धरे हुए
खूनी यूरेनियम
हँसता है तम
युद्धों के लावा से
उठते हैं प्रश्न
और गिरते हैं हम
काँधे पर धरे हुए
खूनी यूरेनियम
हँसता है तम
युद्धों के लावा से
उठते हैं प्रश्न
और गिरते हैं हम
और भी ढेरों ऐसे नवगीत हैं जिनका कथ्य एकदम असाधारण और लीक से हट कर है। क्यों कि नवगीत अब बालिग हो चुका है। उसकी मूँछें निकल रही है, अतः उसे अपनी अभिव्यक्ति के विस्तार के लिए सारी धरती और सारा आकाश चाहिए।
और अंततः नवगीत वस्तु के विन्यास पर एक दृष्टि।
समकालीन नई कविता की तरह, समकालीन नवगीत सपाटबयानी, गद्यात्मक शैली या रिपोर्ताज पसंद नहीं करता। चूँकि नवगीत हमेशा ही लय से संपृक्त होता है इस कारण वह गद्यात्मक तो हो ही नहीं सकता। वह काव्य विधाओं की भाँति अपने कथ्य का विन्यास भी करता है। इसे आप बुनावट या बनावट भी कह सकते हैं और कृत्रिमता का दोषारोपण भी कर सकते हैं। किंतु कौन-सी विधा कृत्रिम नहीं है? - ज़रा सोचिए। वस्तु को ज्यों का त्यों परोसने का दंभ भरने वाली समकालीन कविता भी आख़िर रची ही जाती है। यह 'रचना' आख़िर क्या है - वस्तुविन्यास ही न। कभी प्रतीकों के द्वारा, कभी व्यंजित शब्दों के माध्यम से और कभी ठेठ आँचलिक टटकी भाषा के सहारे अत्याधुनिक संदर्भों को कविता में एक नितांत नया रूप आकार दे दिया जाता है। यह विन्यास ज़रूरी भी है। यह न हो तो कविता, कविता जैसी नहीं लगेगी। इसी तरह, नवगीत भी विन्यास के बिना नवगीत तो क्या, गीत ही नहीं लगेगा।
विन्यास के लिए नवगीत के पास बहुत प्रसाधन हैं। सबसे सशक्त और बहुप्रयुक्त साधन है - बिंब योजना। इस दौर के अधिकांश नवगीत बिंब केंद्रित हैं और इसी कारण ने आकर्षक तथा रोचक भी हैं। बिंब न सही, तो प्रतीक योजना है, जो नवगीत के अंग, उपांगों को आकर्षक बनाती है। इसके अतिरिक्त व्यंजना शैली है, सांस्कृतिक संदर्भों का रेखांकन है, पौराणिक-ऐतिहासिक मिथक है, इंगित है, वैज्ञानिक शब्दावली है, आंचलिक बोलियों का आकर्षण है, कोमल भावों का उत्प्रेरण है तथा रागात्मकता है। और कुछ भी न हो तो छंद, लय तथा तुकांत का शाश्वत रूप शृंगार तो है ही।
इस प्रकार, हिंदी नवगीत अपनी अनिवार्य लय की प्राणवत्ता के साथ व्यापक वस्तु विन्यास का भरपूर उपयोग करके आज साहित्य भूमि में आदमक़द आकार में खड़ा है अप्रतिहत-अपराजित-अनश्वर।
आभार: नवगीत की पाठशाला.
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बुधवार, 9 मार्च 2011
नवगीत: तुमने खेली हमसे होली -------संजीव 'सलिल'
नवगीत:
तुमने खेली हमसे होली
संजीव 'सलिल'
*
तुमने खेली हमसे होली
अब हम खेलें.
अब तक झेला बहुत
न अब आगे हम झेलें...
*
सौ सुनार की होती रही सुनें सच नेता.
अब बारी जनता की जो दण्डित कर देता..
पकड़ा गया कलेक्टर तो क्यों उसे छुडाया-
आम आदमी का संकट क्यों नजर न आया?
सत्ता जिसकी संकट में
हम उसे ढकेलें...
*
हिरनकशिपु तुम, जन प्रहलाद, होलिका अफसर.
मिले शहादत तुमको अब आया है अवसर.
जनमत का हरि क्यों न मार ही डाले तुमको?
जनगण को ही रहे मराते हो तुम अक्सर.
जो रिश्वत ले,
शीश कटाये वही अकेले...
*
रंग-अबीर न आज चाहिए, रक्त-धार हो.
सीमा पर मरने अफसर-नेता तयार हो.
सुख-सुविधा जो भोग रहे उसकी कीमत दो-
नगद रहे हर सौदा ना कुछ भी उधार हो.
वीर शहीदों की समाधि पर
हों अब मेले...
*********
तुमने खेली हमसे होली
संजीव 'सलिल'
*
तुमने खेली हमसे होली
अब हम खेलें.
अब तक झेला बहुत
न अब आगे हम झेलें...
*
सौ सुनार की होती रही सुनें सच नेता.
अब बारी जनता की जो दण्डित कर देता..
पकड़ा गया कलेक्टर तो क्यों उसे छुडाया-
आम आदमी का संकट क्यों नजर न आया?
सत्ता जिसकी संकट में
हम उसे ढकेलें...
*
हिरनकशिपु तुम, जन प्रहलाद, होलिका अफसर.
मिले शहादत तुमको अब आया है अवसर.
जनमत का हरि क्यों न मार ही डाले तुमको?
जनगण को ही रहे मराते हो तुम अक्सर.
जो रिश्वत ले,
शीश कटाये वही अकेले...
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रंग-अबीर न आज चाहिए, रक्त-धार हो.
सीमा पर मरने अफसर-नेता तयार हो.
सुख-सुविधा जो भोग रहे उसकी कीमत दो-
नगद रहे हर सौदा ना कुछ भी उधार हो.
वीर शहीदों की समाधि पर
हों अब मेले...
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आचार्य श्यामलाल उपाध्याय की कवितायेँ :
आचार्य श्यामलाल उपाध्याय की कवितायेँ :
मित्रों!
प्रस्तुत हैं कोलकाता निवासी श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हिंदीसेवी आचार्य श्यामलाल उपाध्याय की कुछ रचनाएँ
१. कवि-मनीषी
साधना संकल्प करने को उजागर
औ' प्रसारण मनुजता के भाव
विश्व-कायाकल्प का बन सजग प्रहरी
हरण को शिव से इतर संताप
मैं कवि-मनीषी.
अहं ईर्ष्या जल्पना के तीक्ष्ण खर-शर-विद्ध
लोक के श्रृंगार से अति दूर
बुद्धि के व्यभिचार से ले दंभ भर उर
रह गया संकुचित करतल मध्य
मैं कवि-मनीषी.
*
औ' प्रसारण मनुजता के भाव
विश्व-कायाकल्प का बन सजग प्रहरी
हरण को शिव से इतर संताप
मैं कवि-मनीषी.
अहं ईर्ष्या जल्पना के तीक्ष्ण खर-शर-विद्ध
लोक के श्रृंगार से अति दूर
बुद्धि के व्यभिचार से ले दंभ भर उर
रह गया संकुचित करतल मध्य
मैं कवि-मनीषी.
*
२. पथ-प्रदर्शक
मूल्य के आख्यानकों को कंठगत कर
'तत्त्वमसि' के ऋचा-सूत्रों को पचाया
शुभ्र भगवा श्वेत के परिधान में
पा गया पद श्री विभूषित आर्य का
मैं पथ-प्रदर्शक.
कर्म की निरपेक्षता के स्वांग भर
विश्व के उत्पात का मैं मूल वाहक
द्वेष-ईर्ष्या-कलह के विस्फोट से
बन गया हिरोशिमा यह विश्व
मैं पथ प्रदर्शक.
पर न पाया जगत का वह सार
जिससे कर सकूँ अभिमान निज पर
लोक सम्मत संहिताओं से पराजित
पड़ा हूँ भू-व्योम मध्य त्रिशंकु सा
मैं पथ प्रदर्शक.
***************
'तत्त्वमसि' के ऋचा-सूत्रों को पचाया
शुभ्र भगवा श्वेत के परिधान में
पा गया पद श्री विभूषित आर्य का
मैं पथ-प्रदर्शक.
कर्म की निरपेक्षता के स्वांग भर
विश्व के उत्पात का मैं मूल वाहक
द्वेष-ईर्ष्या-कलह के विस्फोट से
बन गया हिरोशिमा यह विश्व
मैं पथ प्रदर्शक.
पर न पाया जगत का वह सार
जिससे कर सकूँ अभिमान निज पर
लोक सम्मत संहिताओं से पराजित
पड़ा हूँ भू-व्योम मध्य त्रिशंकु सा
मैं पथ प्रदर्शक.
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३. उपेक्षा
वसंत की तीव्र तरल
ऊर्जा के ताप से
शीत की बेड़ियों को तोड़कर
पल्लवित-पुष्पित हो रहे
अर्जुन-भीम ये पादप.
नई सृष्टि को उत्सुक,
अजस्र गरिमा को धारण किए
कर्ण औ' दधीचि बने
जोड़ते परंपरा को
सृष्टि के क्रम को
जिसकी उपेक्षा करता आ रहा
सदियों से आधुनिक मानव.
***************
ऊर्जा के ताप से
शीत की बेड़ियों को तोड़कर
पल्लवित-पुष्पित हो रहे
अर्जुन-भीम ये पादप.
नई सृष्टि को उत्सुक,
अजस्र गरिमा को धारण किए
कर्ण औ' दधीचि बने
जोड़ते परंपरा को
सृष्टि के क्रम को
जिसकी उपेक्षा करता आ रहा
सदियों से आधुनिक मानव.
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४. कुण्ठा
अस्पताल के पीछे
दो दीवारों के बीच
पक्के धरातल पर
कूड़े के ढेर से झाँक रहे
कुछ हरी बोतल के टुकड़े
आधे युग की कमाई
जिस पर आम के अमोले,
बहाया और इमली
काट रहे जेल कि सजा
कुकुरमुत्तों के मध्य
यही जीवन-क्रंदन.
*******************
दो दीवारों के बीच
पक्के धरातल पर
कूड़े के ढेर से झाँक रहे
कुछ हरी बोतल के टुकड़े
आधे युग की कमाई
जिस पर आम के अमोले,
बहाया और इमली
काट रहे जेल कि सजा
कुकुरमुत्तों के मध्य
यही जीवन-क्रंदन.
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५. शोध
शोध-मिश्रण निर्मित
मैं एक विटाप्लेक्स.
चाँदी के चमकते
चिप्पडों में बंद
केमिस्ट की शाला के
शेल्फ पर पडी
उत्सुक जानने को
अपनी एक्सपायरी डेट.
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 8 मार्च 2011
दोहा सलिला: रख तन-मन निष्पाप संजीव 'सलिल'
दोहा सलिला: रख तन-मन निष्पाप
संजीव 'सलिल'
*
प्रकृति-पुरुष का सनातन, स्नेह-गेह व्यापार.
निराकार साकार कर, बनता सृजनागार..
शांत पवन जाता मचल, तो आता तूफ़ान
देख असंयम भू डिगे, नभ का फटे वितान..
कांति लास्य रमणीयता, ओज शौर्य तारुण्य.
सेतु सृजन का हो सहज, प्रीति-रीति आरुण्य..
सद्यस्नाता उषा के, लाल हुए जब गाल.
झलक न ले रवि देख, यह सोच छिपी जा ताल..
ताका-झाँकी से हुई रुष्ट, दे दिया शाप.
रहे दहकता दिवस भर, सहे काम का ताप..
पश्चातापित विनत रवि, हुआ निराभित पीत.
संध्या-वंदन कर हुआ, शाप-मुक्त अविजीत..
निज आँचल में छिपाकर, माँ रजनी खामोश,
बेटे सूरज से कहे: 'सम्हल न खोना होश'..
सुता चाँदनी पर गया, जनक चंद्र जब रीझ. पाण्डु रोग पीड़ित हुआ, रजनी रोई खीझ..
दाह हृदय की बदरिया, नयन-अश्रु बरसात.
आह दामिनी ने किया, वसुधा पर आघात.
सुता चाँदनी पर गया, जनक चंद्र जब रीझ. पाण्डु रोग पीड़ित हुआ, रजनी रोई खीझ..
दाह हृदय की बदरिया, नयन-अश्रु बरसात.
आह दामिनी ने किया, वसुधा पर आघात..
दुर्गा-काली सम हुईं पूनम-मावस एक.
दुबक छिपे रवि-चन्द्रमा, जाग्रत हुआ विवेक..
विधि-हरि-हर स्तब्ध हो, हुए आत्म में लीन.
जलना-गलना दंड पा, रवि-शशि हुए महीन..
शिव रहित शिव शव हुए, शक्ति-भक्ति-अनुरक्ति.
कंकर को शंकर करें, उमा कौन सी युक्ति?
श्री बिन श्रीपति भी हुए, दीन-हीन चित-लीन.
क्षम्य-रम्य अनुगम्य पा, श्री ने किया अदीन..
थाप ताल अनुनाद तज, वाक् हुईं जब मौन.
नीरव में रव को प्रगट, कैसे करता कौन??
सुधा-क्षमा का दान हो, वसुधा ने दी सीख.
अनहोनी से सबल हो, शक्ति न अबला दीख..
दिया हौसला पवन ने, 'रुक न किये चल काम'.
नीलगगन बोला:'सदा काम करें निष्काम'..
सृजन शक्ति संपन्न है, नारी बिन जड़ सृष्टि.
एक दिवस जो मनाते, उनकी सीमित दृष्टि..स्वामिनि बिन गृह गृह नहीं, होता सिर्फ मकान.
श्वास-आस-विश्वास बिन, जग-जीवन वीरान..
पाप-शाप-संताप हर, कलकल नवल निनाद.
भू-सागर-नभ से करे, 'सलिल' सतत संवाद..
रवि-शशि करें परिक्रमा, बिना रुके चुपचाप.
वसुधा को उजियारते, रख तन-मन निष्पाप..
गृहपति गृहणी की करें, मान वन्दना नित्य.
तभी सफल हो साधना, मिलती कीर्ति अनित्य..
*******************
Acharya Sanjiv Salil
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एक कविता महिला दिवस पर : धरती संजीव 'सलिल'
एक कविता महिला दिवस पर :
धरती
संजीव 'सलिल'
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
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