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शनिवार, 25 दिसंबर 2010

रामचरित मानस के मनोरम प्रसंग -विवेक रंजन श्रीवास्तव

रामचरित मानस के मनोरम प्रसंग                       

विवेक रंजन श्रीवास्तव

मो . 09425806252

हम , आस्था और आत्मा से राम से जुडे हुये हैं । ऐसे राम का चरित प्रत्येक दृष्टिकोण से हमारे लिये केवल मनोरम ही तो हो सकता है, मधुर ही तो हो सकता है। अधरं मधुरमं वदनम् मधुरमं ,मधुराधिपते रखिलमं मधुरमं -कृष्ण स्तुति में रचित ये पंक्तियां इष्ट के प्रति भक्त के भावों की सही अनुभूति है, सच्ची अभिव्यक्ति है । जब श्रद्वा और विश्वास प्राथमिक हों तो शेष सब कुछ गौंण हो जाता है। मात्र मनोहारी अनुभूति ही रह जाती है। मां प्रसव की असीम पीडा सहकर बच्चे को जन्म देती है , पर वह उसे उतना ही प्यार करती है ,मां बच्चे को उसके प्रत्येक रूप में पसंद ही करती है। सच्चे भक्तों के लिये मानस का प्रत्येक प्रसंग ऐसे ही आत्मीय भाव का मनोरम प्रसंग है किन्तु कुछ विशेष प्रसंग भाषा ,वर्णन , भाव , प्रभावोत्पादकता ,की दृष्टि से बिरले हैं । इन्हें पढ ,सुन, हृदयंगम कर मन भावुक हो जाता है । श्रद्वा ,भक्ति , प्रेम , से हृदय आप्लावित हो जाता है । हम भाव विभोर हो जाते हैं । अलौलिक आत्मिक सुख  का अहसास होता है ।

राम चरित मानस के ऐसे मनोरम प्रसंगों को समाहित करने का बिंदु रूप प्रयास करें तो वंदना , शिव विवाह , राम प्रागट्य , अहिल्या उद्वार ,पुष्प वाटिकाप्रसंग , धनुष भंग , राम राज्याभिषेक की तैयारी , वनवास के कठिन समय में भी केवट प्रसंग , चित्रकूट में भरत मिलाप , शबरी पर राम कृपा , वर्षा व शरद ऋतु वर्णन ,रामराज्य के प्रसंग विलक्षण हैं जो पाठक ,श्रोता , भक्त के मन में विविध भावों का संचार करते हैं । स्फुरण के स्तर तक हृदय के अलग अलग हिस्से को अलग आनंदानुभुति प्रदान करते हैं । रोमांचित करते हैं । ये सारे ही प्रसंग मर्म स्पर्शी हैं , मनोरम हैं ।
मनोरम वंदना                                                                                       
जो सुमिरत सिधि होई गण नायक करि बर बदन

करउ अनुगृह सोई , बुद्वि रासि सुभ गुन सदन

मूक होहि बाचाल , पंगु चढिई गिरि बर गहन

जासु कृपासु दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन

प्रभु की ऐसी अद्भुत कृपा की आकांक्षा किसे नहीं ऐसी मनोरम वंदना अंयत्र दुर्लभ है । संपूर्ण वंदना प्रसंग भक्त को श्रद्वा भाव से रूला देती है।
शिव विवाह                                                                                                    
शिव विवाह के प्रसंग में गोस्वामी जी ने पारलौकिक विचित्र बारात के लौककीकरण का ऐसा दृश्य रचा है कि हम हास परिहास , श्रद्वा भक्ति के संमिश्रित मनो भावों के अतिरेक का सुख अनुभव करते हैं  ।

गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं

भोजन करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहिं

जेवंत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूं न परै कह्यो

अचवांई दीन्हें पान गवनें बास जहं जाको रह्यो ।

रामजन्म                                                                                                                                                                

राम जन्म नहीं हुआ , उनका प्रागट्य हुआ है ।


भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी

हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी

लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आमुद भुजचारी

भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभा सिंधु खरारी

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा

कीजै सिसु लीला अति प्रिय सीला यह सुख परम अनूपा

सचमुच यह सुख अनूपा ही है । फिर तो ठुमक चलत राम चंद्र ,बाजत पैजनियां.... , और गुरू गृह पढन गये रघुराई.... , प्रभु राम के बाल रूप का वर्णन हर दोहे ,हर चैपाई , हर अर्धाली, हर शब्द में मनोहारी है ।

अहिल्या उद्धार                                                                                           

परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तप पुंज सही

देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही

अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नही आवई बचन कही

अतिसय बड भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जल धार बही

मन मस्तिष्क के हर अवयव पर प्रभु कृपा का प्रसाद पाने की आकांक्षा हो तो इस प्रसंग से जुडकर इसमें डूबकर इसका आस्वादन करें , जब शिला पर प्रभु कृपा कर सकते हैं तो हम तो इंसान हैं । बस प्रभु कृपा की सच्ची प्रार्थना के साथ इंसान बनने के यत्न करें , और इस प्रसंग के मनोहारी प्रभाव देखें ।

पुष्प वाटिका प्रसंग                                                                                                                                                  

श्री राम शलाका प्रश्नावली के उत्तर देने के लिये स्वयं गोस्वामी जी ने इसी प्रसंग से दो सकारात्मक भावार्थों वाली चैपाईयों का चयन कर इस प्रसंग का महत्व प्रतिपादित कर दिया है ।

सुनु प्रिय सत्य असीस हमारी पूजहिं मन कामना तुम्हारी

एवं

सुफल मनोरथ होंहि तुम्हारे राम लखन सुनि भए सुखारे

जिस प्रसंग में स्वयं भगवती सीता आम लडकी की तरह अपने मन वांछित वर प्राप्ति की कामना के साथ गिरिजा मां से प्रार्थना करें उस प्रसंग की आध्यत्मिकता पर तो ज्ञानी जन बडे बडे प्रवचन करते हैं । इसी क्रम में धनुप भंग प्रकरण भी अति मनोहारी प्रसंग है ।

राम राज्याभिषेक की तैयारी

लौकिक जगत में हम सबकी कामना सुखी परिवार की ही तो होती है समूची मानस में मात्र तीन छोटे छोटे काल खण्ड ही ऐसे हैं जब राम परिवार बिना किसी कठिनाई के सुखी रह सका है ।

पहला समय श्री राम के बालपन का है । दूसरा प्रसंग यही समय है जब चारों पुत्र ,पुत्रवधुयें , तीनों माताओं और राजा जनक के साथ संपूर्ण भरा पूरा परिवार अयोध्या में है , राम राज्याभिपेक की तैयारी हो रही है । तीसरा कालखण्ड राम राज्य का वह स्वल्प समय है जब भगवती सीता के साथ राजा राम राज काज चला रहे हैं ।

राम राज्याभिषेक की तैयारी का प्रसंग अयोध्या काण्ड का प्रवेश है । इसी प्रसंग से राम जन्म के मूल उद्देश्य की पूर्ति हेतु भूमिका बनती है । लौकिक दृष्टि से हमें राम वन गमन से ज्यादा पीडादायक और क्या लग सकता है पर जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम है । पल भर में होने वाला राजा वनवासी बन सकता है , वह भी कोई और नहीं स्वयं परमात्मा ! इससे अधिक शिक्षा और कैसे प्रसंग से मिल सकती है ।यह गहन मनन चिंतन व अवगाहन का मनोहारी प्रसंग है।

केवट प्रसंग                                                                                 

मांगी नाव न केवट आना कहई तुम्हार मरमु मैं जाना

जिस अनादि अनंत परमात्मा का मरमु न कोई जान सका है न जान सकता है , जो सबका दाता है , जो सबको पार लगाता है , वही सरयू पार करने के लिये एक केवट के सम्मुख याचक की मुद्रा में है! और बाल सुलभ भाव से केवट पूरे विश्वास से कह रहा है - प्रभु तुम्हार मरमु मैं जाना। और तो और वह प्रभु राम की कृपा का पात्र भी बन जाता है । सचमुच प्रभु बाल सुलभ प्रेम के ही तो भूखे हैं । रोना आ जाता है ना .. कैसा मनोरम प्रसंग है ।

इसी प्रसंग में नदी के पार आ जाने पर भगवान राम केवट को उतराई स्वरूप कुछ देना चाहते हैं किन्तु वनवास ग्रहण कर चुके श्रीराम के पास क्या होता यहीं भाव , भाषा की दृष्टि से तुलसी मनोरम दृश्य रचना करते हैं । मां सीता राम के मनोभावों को देखकर ही पढ लेती हैं ,और -

‘‘ पिय हिय की सिय जान निहारी , मनि मुदरी मन मुदित उतारी ’’ ।

भारतीय संस्कृति में पति पत्नी के एकात्म का यह श्रेष्ठ उदाहरण है ।

                                                                  *************





चित्रकूट में भरत मिलाप

आपके मन के सारे कलुष भाव स्वतः ही अश्रु जल बनकर बह जायेंगे , आप अंतरंग भाव से भरत के त्याग की चित्रमय कल्पना कीजीये , राम को मनाने चित्रकूट की भरत की यात्रा , आज भी चित्रकूट की धरती व कामद गिरि पर्वत भरत मिलाप के साक्षी हैं । इसी चित्रकूट में -

चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीर , तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर

यह तीर्थ म.प्र. में ही है , एक बार अवश्य जाइये और इस प्रसंग को साकार भाव में जी लेने का यत्न कीजीये । राम मय हो जाइये ,श्रद्वा की मंदाकिनी में डुबकी लगाइये ।

बरबस लिये उठाई उर , लाए कृपानिधान

भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान ।

भरत से मनोभाव उत्पन्न कीजीये ,राम आपको भी गले लगा लेंगें ।

शबरी पर कृपा

नवधा भक्ति की शिक्षा स्वयं श्री राम ने शबरी को दी है । संत समागम , राम कथा में प्रेम , अभिमान रहित रहकर गुरू सेवा , कपट छोडकर परमात्मा का गुणगान , राम नाम का जाप ईश्वर में ढृड आस्था, सत्चरित्रता , सारी सृष्टि को राम मय देखना , संतोषं परमं सुखं , और नवमीं भक्ति है सरलता । स्वयं श्री राम ने कहा है कि इनमें से काई एक भी गुण भक्ति यदि किसी भक्त में है तो - ‘‘सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।’’ जरूरत है तो बस शबरी जैसी अगाध श्रद्वा और निश्छल प्रेम की । राम के आगमन पर शबरी की दशा यूं थी -

प्रेम मगन मुख बचन न आवा पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा

ऋतु वर्णन

गोस्वामी तुलसी दास का साहित्यिक पक्ष वर्षा ,शरद ऋतुओं के वर्णन और इस माध्यम से प्रकृति से पाठक का साक्षात्कार करवाने में , मनोहारी प्रसंग किष्किन्धा काण्ड में मिलता है ।

छुद्र नदी भर चलि तोराई जस थोरेहु धनु खल इतिराई

प्रकृति वर्णन करते हुये  गोस्वामी जी भक्ति की चर्चा नहीं भूलते -

बिनु घन निर्मल सोह अकासा हरिजन इव परिहरि सब आसा

रामराज्य

सुन्दर काण्ड तो संपूर्णता में सुन्दर है ही । रावण वध , विभीषण का अभिषेक , पुष्पक पर अयोध्या प्रस्थान आदि विविध मनोरम प्रसंगों से होते हुये हम उत्तर काण्ड के दोहे क्रमांक 10 के बाद से दोहे क्रमांक 15 तक के मनोरम प्रसंग की कुछ चर्चा करते है । जो प्रभु राम के जीवन का सुखकर अंश है । जहां भगवती सीता ,भक्त हनुमान , समस्त भाइयों , माताओं , अपने वन के साथियों , एवं समस्त गुरू जनों अयोध्या के मंत्री गणों के साथ हमारे आराध्य राजा राम के रूप में आसीन हैं । राम पंचायतन यहीं मिलता है । ओरछा के सुप्रसिद्व मंदिर में आज भी प्रभु राजा राम अपने दरबार सहित इसी रूप में विराजमान है।
राज्य संभालने के उपरांत ‘ जाचक सकल अजाचक कीन्हें ’ राजा राम हर याचना करने वाले को इतना देते हैं कि उसे अयाचक बनाकर ही छोडते हैं , अब यह हम पर है कि हम राजा राम से क्या कितना और कैसे , किसके लिये मांगते हैं । हमें अपने सत्कर्मों से अपने ही हृदय में बिराजे राजा राम के दरबार में पहुंचने की पात्रता तो हासिल करनी ही होगी । तभी तो हम याचक बन सकते हैं ।

जय राम रमारमनं समनं भवताप भयाकुल पाहि जनं

अवधेश सुरेश रमेस विभो सरनागत मागत पाहि प्रभो


बस इसी विनती से इस मनोरम प्रसंग का आनंद लें कि


गुन सील कृपा परमायतनं प्रनमामि निरंतर श्री रमनं

रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं महिपाल बिलोकय दीनजनं ।।

जय राजा राम जय श्रीराम

चौपाई सलिला: १. क्रिसमस है आनंद मनायें संजीव 'सलिल'

चौपाई सलिला: १.                                                               
क्रिसमस है आनंद मनायें

संजीव 'सलिल'
*
खुशियों का त्यौहार है, खुशी मनायें आप.
आत्म दीप प्रज्वलित कर, सकें जगत में व्याप..
*
क्रिसमस है आनंद मनायें, हिल-मिल केक स्नेह से खायें.
लेकिन उनको नहीं भुलाएँ, जो भूखे-प्यासे रह जायें.

कुछ उनको भी दे सुख पायें, मानवता की जय-जय गायें.
मन मंदिर में दीप जलायें, अंधकार को दूर भगायें.


जो प्राचीन उसे अपनायें, कुछ नवीन भी गले लगायें.
उगे प्रभाकर शीश झुकायें, सत-शिव-सुंदर जगत बनायें.

चौपाई कुछ रचें-सुनायें, रस-निधि पा रस-धार बहायें.
चार पाये संतुलित बनायें, सोलह कला-छटा बिखरायें.


जगण-तगण चरणान्त न आयें, सत-शिव-सुंदर भाव समायें.
नेह नर्मदा नित्य नहायें, सत-चित -आनंद पायें-लुटायें..

हो रस-लीन समाधि रचायें, नये-नये नित छंद बनायें.
अलंकार सौंदर्य बढ़ायें, कवियों में रस-खान कहायें..

बिम्ब-प्रतीक अकथ कह जायें, मौलिक कथ्य तथ्य बतलायें.
समुचित शब्द सार समझायें, सत-चित-आनंद दर्श दिखायें..
*
चौपाई के संग में, दोहा सोहे खूब.
जो लिख-पढ़कर समझले, सके भावमें डूब..
*************

चौपाई हिन्दी काव्य के सर्वकालिक सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में से एक है. आप जानते हैं कि चौपायों के चार पैर होते हैं जो आकार-प्रकार में पूरी तरह समान होते हैं. इसी तरह चौपाई के चार चरण एक समान सोलह कलाओं (मात्राओं) से
युक्त होते हैं. चौपाई के अंत में जगण (लघु-गुरु-लघु) तथा तगण (गुरु-गुरु-लघु) वर्जित कहे गये हैं. चारों चरणों के उच्चारण में एक समान समय लगने के कारण
इन्हें विविध रागों तथा लयों में गाया जा सकता है. गोस्वामी तुलसीदास जी कृत
रामचरित मानस में चौपाई का सर्वाधिक प्रयोग किया गया है. चौपाई के साथ
दोहे की संगति सोने में सुहागा का कार्य करती है. चौपाई के साथ सोरठा,
छप्पय, घनाक्षरी, मुक्तक आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है. लम्बी काव्य
रचनाओं में छंद वैविध्य से सरसता में वृद्धि होती है.
Acharya Sanjiv Salil

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शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

जनक छंदी सलिला: २ -- संजीव 'सलिल'

जनक छंदी सलिला: २                                                                         

संजीव 'सलिल'
*
शुभ क्रिसमस शुभ साल हो,
   मानव इंसां बन सके.
      सकल धरा खुश हाल हो..
*
दसों दिशा में हर्ष हो,
   प्रभु से इतनी प्रार्थना-
       सबका नव उत्कर्ष हो..
*
द्वार ह्रदय के खोल दें,
   बोल क्षमा के बोल दें.
      मधुर प्रेम-रस घोल दें..
*
तन से पहले मन मिले,
   भुला सभी शिकवे-गिले.
      जीवन में मधुवन खिले..
*
कौन किसी का हैं यहाँ?
   सब मतलब के मीत हैं.
      नाम इसी का है जहाँ..
*
लोकतंत्र नीलाम कर,
   देश बेचकर खा गये.
      थू नेता के नाम पर..
*
सबका सबसे हो भला,
   सभी सदा निर्भय रहें.
      हर मन हो शतदल खिला..
*
सत-शिव सुन्दर है जगत,
   सत-चित -आनंद ईश्वर.
      हर आत्मा में है प्रगट..
*
सबको सबसे प्यार हो,
  अहित किसी का मत करें.
     स्नेह भरा संसार हो..
*
वही सिंधु है, बिंदु भी,
   वह असीम-निस्सीम भी.
      वही सूर्य है, इंदु भी..
*
जन प्रतिनिधि का आचरण,
   जन की चिंता का विषय.
      लोकतंत्र का है मरण..
*
शासन दुश्शासन हुआ,
   जनमत अनदेखा करे.
      कब सुधरेगा यह मुआ?
*
सांसद रिश्वत ले रहे,
   क़ैद कैमरे में हुए.
      ईमां बेचे दे रहे..
*
सबल निबल को काटता,
   कुर्बानी कहता उसे.
      शीश न निज क्यों काटता?
*
जीना भी मुश्किल किया,
   गगन चूमते भाव ने.
      काँप रहा है हर जिया..
*

मुक्तिका: कौन चला वनवास रे जोगी? -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                            
कौन चला वनवास रे जोगी?

संजीव 'सलिल'
*

*

कौन चला वनवास रे जोगी?
अपना ही विश्वास रे जोगी.
*
बूँद-बूँद जल बचा नहीं तो
मिट न सकेगी प्यास रे जोगी.
*
भू -मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी.
*
फिक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
*
गीता वह कहता हो जिसकी
श्वास-श्वास में रास रे जोगी.
*
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.
*
माली बाग़ तितलियाँ भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.
*
जो आया है वह जायेगा
तू क्यों हुआ उदास रे जोगी.
*
जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.
*
राग-तेल, बैराग-हाथ ले
रब का 'सलिल' खवास रे जोगी.
*
नेह नर्मदा नहा 'सलिल' सँग
तब ही मिले उजास रे जोगी.
*

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

जनक छंदी सलिला : १. --- संजीव 'सलिल'

जनक छंदी सलिला :  १.                                                                                                                                                                                   

संजीव 'सलिल'
*
आत्म दीप जलता रहे,
   तमस सभी हरता रहे.
      स्वप्न मधुर पलता रहे..
                  *
उगते सूरज को नमन,
   चतुर सदा करते रहे.
      दुनिया का यह ही चलन..
                  *
हित-साधन में हैं मगन,
   राष्ट्र-हितों को बेचकर.
      अद्भुत नेता की लगन..
                  *
सांसद लेते घूस हैं,
   लोकतन्त्र के खेत की.
      फसल खा रहे मूस हैं..
                   *
मतदाता सूची बदल,
   अपराधी है कलेक्टर.
      छोडो मत दण्डित करो..
                   *
बाँधी पट्टी आँख में,
  न्यायालय अंधा हुआ.
    न्याय न कर, ले बद्दुआ..
                  *
पहने काला कोट जो,
   करा रहे अन्याय नित.
      बेच-खरीदें न्याय को..
                  *
हरी घास पर बैठकर,
   थकन हो गयी दूर सब.
     रूप धूप का देखकर..
                  *
गाल गुलाबी लला लाख़,
   रवि ऊषा को छेदता.
      भू-माँ-गृह वह जा छिपी..
                 *
ऊषा-संध्या-निशा को
   चन्द्र परेशां कर रहा.
      सूर्य न रोके डर रहा..
                 *
चाँद-चाँदनी की लगन,
  देख मुदित हैं माँ धरा.
      तारे बाराती बने..
                *
वर से वधु रूठी बहुत,
   चाँद मुझे क्यों कह दिया?
      गाल लाल हैं क्रोध से..
                *
लहरा बल खा नाचती,
   नागिन सी चोटी तेरी.
      सँभल, न डस ले यह तुझे..
                *
मन मीरा, तन राधिका,
   प्राण स्वयं श्री कृष्ण हैं.
   भवसागर है वाटिका..
               ***

Acharya Sanjiv Salil

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कविता: मैत्रेयी / प्रति कविता: संजीव 'सलिल'

कविता:

 
मैत्रेयी
 maitreyi_anuroopa@yahoo.com 
*
फिर आज
लिखने लगी है यह कलम
कुछ शब्द...
कुछ नाकारा
कुछ अर्थहीन
कुछ ऊलजलूल
कुछ भटकते हुए
कुछ उलझते हुए
और कुछ ऐसे
जिनमें
सोचा था मैने
लिपटा होगा
मेरा अभिप्राय
और समझ सकोगे तुम
वह सब
जो लपेट नहीं पाये
यह शब्द
सदियाँ बीतने के बाद भी
ये अजनबी आकार
सोच रही हूँ
कलम से निकलने के बाद
मैं भी
क्यों नहीं पहचानती
इन्हें.
तुम्हारे पास
है क्या उत्तर ?
*
प्रति कविता:                                                                       

संजीव 'सलिल'
*
हाँ,
मुझे ज्ञात हैं
उन प्रश्नों के उत्तर,
जो
तुम्हारे लिये अबूझे हैं
या यूँ कहूँ कि
तुम्हारे अचेतन में होते हुए भी
तुम्हें नहीं सूझे हैं.
ऐसा होना
पूरी तरह स्वाभाविक है.

जब भी कोई
बनी बनायी लीक को
छोड़कर चलता है,
ज़माने की रीत-नीत को
तोड़कर पलता है ,
तो उसे सभ्यता के
तथाकथित ठेकेदार

कुछ नाकारा
कुछ अर्थहीन
कुछ ऊलजलूल
कुछ भटकते हुए
कुछ उलझते हुए
पाते और बताते हैं.

कलम से उतरे शब्द
सदियाँ बीतने के बाद भी
सदियों पहले के
मूल्यों और मानकों को
अंतिम सच मान बैठे हैं.
जो समय के साथ चलेगा
उसे ये शब्द
अजनबी ही लगेंगे.
शुक्र है कि तुम
इन्हें नहीं पहचानतीं.
*************

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

विशेष रचना : षडऋतु - दर्शन -- संजीव 'सलिल'

विशेष रचना :
                                                                                   
षडऋतु-दर्शन                 
*
संजीव 'सलिल'
*
षडऋतु में नित नव सज-धजकर,
     कुदरत मुकुलित मनसिज-जित है.                           
मुदितकमल सी, विमल-अमल नव,
     सुरभित मलयज नित प्रवहित है.
नभ से धरा निहार-हारकर,
     दिनकर थकित, 'सलिल' विस्मित है.
रूप-अरूप, अनूप, अनूठा,
     'प्रकृति-पुरुष' सुषमा अविजित है.                                  
                   ***
षडऋतु का मनहर व्यापार.
कमल सी शोभा अपरम्पार.
रूप अनूप देखकर मौन-
हुआ है विधि-हरि-हर करतार.

शाकुंतल सुषमा सुकुमार.
प्रकृति पुलक ले बन्दनवार.
शशिवदनी-शशिधर हैं मौन-
नाग शांत, भूले फुंकार.

भूपर रीझा गगन निहार.
दिग-दिगंत हो रहे निसार.
निशा, उषा, संध्या हैं मौन-                                                                 
शत कवित्त रच रहा बयार.

वीणापाणी लिये सितार.
गुनें-सुनें अनहद गुंजार.
रमा-शक्ति ध्यानस्थित मौन-
चकित लखें लीला-सहकार.
                ***
                             शिशिर

स्वागत शिशिर ओस-पाले के बाँधे बंदनवार
   वसुधा स्वागत करे, खेत में उपजे अन्न अपार.         
धुंध हटाता है जैसे रवि, हो हर विपदा दूर-
    नये वर्ष-क्रिसमस पर सबको खुशियाँ मिलें हजार..


                              बसंत
 
आम्र-बौर, मादक महुआ सज्जित वसुधा-गुलनार, 
       रूप निहारें गगन, चंद्र, रवि, उषा-निशा बलिहार.
गौरा-बौरा रति-रतिपति सम, कसे हुए भुजपाश- 
  नयन-नयन मिल, अधर-अधर मिल, बहा रहे रसधार.. 

                              ग्रीष्म 

संध्या-उषा, निशा को शशि संग देख सूर्य अंगार.
         
विरह-व्यथा से तप्त धरा ने छोड़ी रंग-फुहार.
झूम-झूम फागें-कबीर गा, मन ने तजा गुबार-
         चुटकी भर सेंदुर ने जोड़े जन्म-जन्म के तार..
 
                               वर्षा  

दमक दामिनी, गरज मेघ ने, पाया-खोया प्यार,
      रिमझिम से आरम्भ किन्तु था अंत मूसलाधार. 
बब्बा आसमान बैरागी, शांत देखते खेल- 
      कोख धरा की भरी, दैव की महिमा अपरम्पार..

                             शरद

चन्द्र-चन्द्रिका अमिय लुटाकर, करते हैं सत्कार, 
     आत्म-दीप निज करो प्रज्वलित, तब होगा उद्धार. 
बाँटा-पाया, जोड़-गँवाया, कोरी ही है चादर- 
      काया-माया-छाया का तज मोह, वरो सहकार.. 

                            हेमन्त 

कंत बिना हेमंत न भाये, ठांड़ी बाँह पसार. 
    खुशियों के पल नगद नहीं तो दे-दे दैव उधार.
गदराई है फसल, हाय मुरझाई मेरी प्रीत- 
    नियति-नटी दे भेज उन्हें, हो मौसम सदा बहार.. 
                                  ***
बिन नागा सूरज उगे सुबह ढले हर शाम.
यत्न सतत करते रहें, बिना रुके निष्काम..
                                   *
अंतिम पल तक दिये से, तिमिर न पाता जीत. 
सफर साँस का इस तरह, पूर्ण करें हम मीत..
                                  *
संयम तज हम बजायें, व्यर्थ न अपने गाल.
बन संतोषी हों सुखी, रखकर उन्नत भाल..
                              ***
ढाई आखर पढ़े बिन पढ़े, तज अद्वैत वर द्वैत.  
मैं-तुम मिटे, बचे हम ही हम, जब-जब खेले बैत.. 
                               *
जीत हार में, हार जीत में, पायी हुआ कमाल.
'सलिल'-साधना सफल हो सके, सबकी अबकी साल..

                                         ************************************ 


 
                            
                         
                                                       
                              
                           


                                     
                                                           
                              
                          


                         

                           
                           
                                                                                   
                           
                           



                                                                                                 **************

होशियार... ख़बरदार..... नकली दूध व्यापारी या मौत के सौदागर

होशियार... ख़बरदार.....

नकली दूध व्यापारी या मौत के सौदागर 

कभी भारत में दूध-घी की नदियाँ बहतीं थीं. 
दुग्ध-पान को अमृत के समतुल्य मानने और दूध का क़र्ज़ उतरने को सबसे बड़ा फ़र्ज़ माननेवाले इस देश में दूध पीना भी मौत को आमंत्रण देने के समान हो गया है. 
आप दूध पीने से पहलें देख लें कि वह गाय-भैंस-बकरी का ही हो. आजकल देश में किसी भी तरह पैसा पैदा करने के शुकीन लोगों ने बेकिंग सोडा, सर्फ़, सस्ते रसायनों और पानी को मिलाकर नकली दूध बनाने का धंधा बड़े पैमाने पर शुरू कर दिया है.  
प्रशासन को अपने काले कारनामों से फुर्सत नहीं है सो इन्हें रोके कौन?
देखने में असली दूध से भी अधिक शुद्ध दिखनेवाले इस दूध को पीने से लीवर, किडनी और अन्य अंग ख़राब होते है तथा पाचन शक्ति का नाश हो जाता है.

ऋतु - दर्शन एस. एन. शर्मा 'कमल'



ऋतु - दर्शन
 

एस. एन. शर्मा 'कमल' , <ahutee@gmail.com>
 
                           शिशिर नित शीत सिहरता गात                                       
  शिशिर               बन्द वातायन बन्द कपाट
                           दे रही दस्तक झंझावात
                           लिये हिम-खण्डों की सौगात

                          

                            मलय-गंधी मृदु-मंद बयार
बसंत                    निहोरे करते अलि गुंजार                                        
                            न हो कैसे कलि को स्वीकार
                            मदिर ऋतु का फागुनी दुलार

                             


                             ज्येष्ठ का ताप-विदग्ध आकाश
ग्रीष्म                    धरा सहती दिनकर का श्राप                                          
                             ग्रीष्म का दारुणतम संताप
                             विखंडित अणु का सा अनुताप

                           

                             प्रकृति में नव-यौवन संचार
वर्षा                      क्वार की शिथिल सुरम्य फुहार                                  
                            गगन-पथ पर उन्मुक्त विहार
                            श्वेत श्यामल बादल सुकुमार


                           शरदनिशि का सौन्दर्य अपार          
शरद                    पूर्णिमा की अमृत-रस धार                                       
                           दिशाएँ करतीं मधु-संचार
                           धरा सजती सोलह श्रृंगार

                         

 
                           
                           अनोखी है हेमन्त बहार
हेमन्त                 सजें गेंदा गुलाब घर द्वार                                                                      खेत गदराये वक्ष उभार
                          प्रकृति का अदभुत रूप निखार  

         

                                *******************

गीत: निज मन से हांरे हैं... --संजीव 'सलिल'

गीत:                                                                                    
निज मन से हांरे हैं...
संजीव 'सलिल'
*
कौन, किसे, कैसे समझाये
सब निज मन से हारे हैं.....
*
इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं.
उस पर भी तुर्रा यह, खुद को
तीसमारखां पाते हैं.
रास न आये सच कबीर का
हम बुदबुद-गुब्बारे हैं.....
*
बिजली के जिन तारों से
टकरा पंछी मर जाते हैं.
हम नादां उनका प्रयोग कर,
घर में दीप जलाते हैं.
कोई न जाने कब चुप हों
नाहक बजते इकतारे हैं.....
*
पान, तमाखू, ज़र्दा, गुटका,
खुद खरीदकर खाते हैं.
जान हथेली पर रखकर-
वाहन जमकर दौड़ाते हैं.
'सलिल' शहीदों के वारिस या
दिशाहीन बंजारे हैं.....
*********************
.

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

पुण्य स्मरण: " १९ दिसम्बर की वह सुबह " -मिथिलेश दुबे

पुण्य स्मरण:

" १९ दिसम्बर की वह सुबह "

-मिथिलेश दुबे                                                                 

रोज की तरह उस दिन भी सुबह होती है, लेकिन वह ऐसी सुबह थी जो सदियों तक लोगों के जेहन में रहेगी । 

दिसंबर का वह दिंन तारीख १९ , फांसी दी जानी थी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दी जानी थी । 
                                                                                                            
रोज की तरह बिस्मिल ने सुबह उठकर नित्यकर्म किया और फांसी की प्रतीक्षा में बैठ गए । निरन्तर परमात्मा के मुख्य नाम ओम् का उच्चारण करते रहे । उनका चेहरा शान्त और तनाव रहित था । ईश्वर स्तुति उपासना मंन्त्र ओम् विश्वानि देवः सवितुर्दुरुतानि परासुव यद्रं भद्रं तन्न आसुव का उच्चारण किया ।
बिस्मिल बुलंद हौसले के इंसान थे । वे एक अच्छे शायर और कवि थे, जेल में भी दोनों समय संध्या, हवन-व्यायाम करते थे । महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती को अपना आदर्श मानते थे । संघर्ष की राह चले तो उन्होंने दयानन्द जी के अमर ग्रन्थों और उनकी जीवनी से प्रेरणा ग्रहण की थी । 

१८ दिसंबर को उनकी अपनी माँ से जेल में भेट हुई । वे बहुत हिम्मत वाली महिला थी । माँसे मिलते ही बिस्मिल की आखों मे अश्रु बहने लगे थे । तब माँ ने कहा कहा: " हरीशचन्द्र, दधीचि आदि की तरह वीरता से धर्म और देश के लिए जान दो, चिन्ता करने और पछताने की जरूरत नहीं है ।'' बिस्मिल हँस पड़े और बोले: " हम जिंदगी से रुठ के बैठे हैं. माँ मुझे क्या चिंता हो सकतीहै  और कैसा पछतावा? मैंने कोई पाप नहीं किया । मैं मौत से नहीं डरता, लेकिन माँ ! आग के पास रखा घी पिघल ही जाता है । तेरा-मेरा संबंध कुछ ऐसा ही है कि पास आते ही मेरी आँखों सेआँसू निकल पड़े, नहीं तो मैं बहुत खुश हूँ ।

                                                अब जिंदगी से हमको मनाया न जायेगा।
यारों है अब भी वक्त हमें देखभाल लो,  
फिर कुछ पता हमारा लगाया न जाएगा ।  

ब्रह्मचारी रामप्रसाद बिस्मिल के पूर्वज ग्वालियर के निवासी थे । इनके पिता श्री मुरलीधर ने कौटुम्बिक कलह से तंग आकर ग्वालियर छोड़ दिया और शाहजहाँपुर आकर बस गये थे । परिवार बचपन से ही आर्थिक संकट से जूझ रहा था । बहुत प्रयास के उपरान्त ही परिवार का भरण-पोषण हो पाता था । बड़ी कठिनाई से परिवार आधे पेट भोजन कर पाता था । परिवार के सदस्य भूख के कारण पेट में घोटूं देकर सोने को विवश थे । उनकी दादी जी एक आदर्श महिला थी  उनके परिश्रम से परिवार में अच्छे दिंन आने लगे । आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और पिता म्यूनिसपिल्टी में काम पर लग गए जिन्हे १५ रुपए मासिक वेतन मिलता था और शाहजहाँपुर में इस परिवार ने अपना एक छोटा सा मकान भी बना लिया । 

  ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष ११ (निर्जला एकादशी) सम्वत १९५४ विक्रमी तद्ननुसार ११ जून वर्ष १८९७ में रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म हुआ । बाल्यकाल में बीमारी का लंबा दौर भी रहा । पुजारियों की संगत में आने से इन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया । नियमित व्यायाम से देह सुगठित हो गई और चेहरे के रंग में निखार भी आने लगा । वे तख्त पर सोते और प्रायः चार बजे उठकर नियमित संध्या भजन और व्यायाम करते थे । केवल उबालकर साग, दाल, दलिया लेते । मिर्च-खटाई को स्पर्श तक नहीं करते थे, नमक खाना छोड़ दिया था । उनके स्वास्थ्य को लोग आश्चर्य से देखते थे । 

वे कट्टर आर्य समाजी थे, जबकि उनके पिता आर्य समाज के विरोधी थे इस कारण इन्हें घर छोड़ना पड़ा । वे दृढ़ सत्यव्रती थे । उनकी माता उनके धार्मिक कार्यों में और शिक्षा मे बहुत मदद करती थी । उस युग के क्रान्तिकारी गैंदालाल दीक्षित के सम्पर्क में आकर भारत में चल रहे असहयोग आन्दोलन के दौरान रामप्रसाद बिस्मिल क्रान्ति का पर्याय बन गये थे । उन्होंने बहुत बड़ा क्रान्तिकारी दल (ऐच आर ए) हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेसन के नाम से तैयार किया और पूरी तरह से क्रान्ति की लपटों के बीच बैठ गए । 

'अमरीका को स्वाधीनता कैसे मिली?' नामक पुस्तक उन्होनें प्रकाशन की जिसे बाद में ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया । बिस्मिल को दल चलाने लिए धन का अभाव हर समय खटकता था । धन के लिए उन्होंने सरकारी खजाना लूटने का विचार बनाया । बिस्मिल ने सहारनपुर से चलकर लखनऊ जाने वाली रेलगाड़ी नम्बर ८ डाऊन पैसेंन्जर में जा रहे सरकारी खजाने को लूटने की कार्ययोजना तैयार की । इसका नेतृत्व मौके पर स्वयं मौजूद रहकर रामप्रसाद बिस्मिल जी ने किया था । उनके साथ क्रान्तिकारीयों में पण्डित चन्द्रशेखर आजाद, अशफाकउल्ला खां , राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मनाथ गुप्त , शचीन्द्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती, मुरारीलाल, बनवारीलाल और मुकुन्दीलाल इत्यादि थे । काकोरी ट्रेन डकैती की घटना की सफलता ने जहाँ अंग्रजों की नींद उड़ा दी वहीं दूसरी ओर क्रान्तिकारियों का इस सफलता से उत्साह बढ़ा । 

इसके बाद इनकी धर-पकड़ की जाने लगी । बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह , राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मनाथ गुप्त, गोविन्द चरणकार, राजकुमार सिन्हा आदि गिरफ्तार किए गए । सी. आई. डी की चार्जशीट के बाद स्पेशल जज लखनऊ की अदालत में काकोरी केस चला । भारी जनसमुदाय अभियोग वाले दिन आता था । विवश होकर लखनऊ के बहुत बड़े सिनेमा हाल रिंक थिएटर को सुनवाई के लिए चुना गया । बिस्मिल, अशफाक , ठा. रोशनसिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी को मृत्युदंड तथा शेष को कालापानी की सजा दी गई । फाँसी की तारीख १९ दिसंबर १९२७ तय की गई । 

फाँसी के फन्दे की ओर चलते हुए बड़े जोर से बिस्मिल जी ने वन्दे मातरम का उदघोष किया । राम प्रसाद बिस्मिल फाँसी पर झूलकर अपना तन मन भारत माता के चरणों में अर्पित कर गए । प्रातः ७ बजे उनकी लाश गोरखपुर जेल अधिकारियों ने परिवारवालों को दे दी । लगभग ११ बजे इस महान देशभक्त का अन्तिम संस्कार पूर्ण वैदिक रीति से किया गया । स्वदेश प्रेम से ओत-प्रोत उनकी माता ने कहा " मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु से प्रसन्न हूँ, दुखी नहीं हूँ ।"  

उस दिन बिस्मिल की ये पंक्तियाँ वहाँ मौजूद हजारों युवकों-छात्रों के ह्रदय में गूँज रही थी: 

''यदि देशहित मरना पड़े, मुझको हजारों बार भी,  
तो भी नहीं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी ।  
हे ईश ! भारतवर्ष मे शत बार मेरा जन्म हो  
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो ।''

इस महान वीर सपूत को शत्-शत् नमन ।                                              आभार-- युग के देवता, LBA
****

घनाक्षरी : जवानी -- संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी :
जवानी
संजीव 'सलिल'
*
१.
बिना सोचे काम करे, बिना परिणाम करे,
व्यर्थ ही हमेशा होती ऐसी कुर्बानी है.
आगा-पीछा सोचे नहीं, भूल से भी सीखे नहीं,
सच कहूँ नाम इसी दशा का नादानी है..
बूझ के, समझ के जो काम न अधूरा तजे-
मानें या न मानें वही बुद्धिमान-ज्ञानी है.
'सलिल' जो काल-महाकाल से भी टकराए-
नित्य बदलाव की कहानी ही जवानी है..
२.
लहर-लहर लड़े, भँवर-भँवर भिड़े,
झर-झर झरने की ऐसी ही रवानी है.
सुरों में निवास करे, असुरों का नाश करे,
आदि शक्ति जगती की मैया ही भवानी है.
हिमगिरि शीश चढ़े, सिन्धु पग धोये नित,
भारत की भूमि माता-मैया सुहानी है.
औरों के जो काम आये, संकटों को जीत गाए,
तम से उजाला जो उगाये वो जवानी है..
३.
नेता-अभिनेता जो प्रणेता हों समाज के तो,
भोग औ'विलास की ही बनती कहानी है.
अधनंगी नायिकाएं भूलती हैं फ़र्ज़ यह-
सादगी-सचाई की मशाल भी जलानी है.
निज कर्त्तव्य को न भूल 'सलिल' याद हो-
नींव के पाषाण की भी भूमिका निभानी है.
तभी संस्कृति कथा लिखती विकास की जब
दीप समाधान का जलती जब जवानी है..

****************

रविवार, 19 दिसंबर 2010

कविता चिर पिपासु -- श्यामलाल उपाध्याय


कविता                                                                             

चिर पिपासु

श्यामलाल उपाध्याय
*
चिरंतन सत्य के बीच
श्रांति के अवगुंठन के पीछे
चिर प्रतीक्षपन्न निस्तब्ध
निरखता उस मुकुलित पुष्प को
और परखता उस पत्र का
निष्करुण निपात
जिसमें नव किसलय के
स्मिति-हास की परिणति
तथा रोदन के आवृत्त प्रलाप.

निदर्शन-दर्शन के आलोक
विकचित-संकुचित
अन्वेषण-निमग्न
निरवधि विस्तीर्ण बाहुल्य में
उस सत्य के परिशीलन को.

निर्विवाद नियति-नटी का
रक्षण प्रयत्न महार्णव मध्य
उत्ताल तरंग आलोड़ित
उस पत्रस्थ पिपीलक का.
मैं एकाकी
विपन्न, विक्षिप्त, स्थिर
अन्वेक्षणरत
भयंकर जलप्रपात के समक्ष
चिर पिपासु मौन-मूक
ऊर्ध्व दृष्ट निहारता
अगणित असंख्य
तारक लोक, तारावलि
जिनके रहस्य
अधुनातन विज्ञानं के परे
सर्वथा अज्ञात
अस्थापित-अनन्वेषित.

*******************

लघुकथा: काफिला संजीव वर्मा 'सलिल'

लघुकथा:
  
काफिला

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कें... कें... कें...

मर्मभेदी कटर ध्वनि कणों को छेड़ते एही दिल तक पहुँच गयी तो रहा न गया.बाहर निकलकर देखा कि एक कुत्ता लंगड़ाता-घिसटता-किकयाता हुआ सड़क के किनारे पर गर्द के बादल में अपनी पीड़ा को सहने की कोशिश कर रहा था.

हा...हा...हा...

अट्टहास करता हुआ एक सिरफिरा भिखारी उस कुत्ते के समीप आया ... अपने हाथ की अधखाई रोटी कुत्ते की ओर बढ़ाकर उसे खिलाने और सांत्वना देने की कोशिश करने लगा. तभी खाकी वर्दी में एक पुलिस सिपाही दिखाते ही दोनों सहम गये. मैंने सिपाही की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो वह चिल्ला रहा था 'स्साले... मादर... सड़क पर ऐसे पड़े रहते हैं मानों इनके बाप की जागीर है. ... पर दो लात जमाव तभी हटते हैं.'

'अरे भाई! नाराज़ क्यों होते हो? सड़क पर न रहें तो जाएँ कहाँ? इनका घर-द्वार तो हैं नहीं.' मैंने कहा.

'भाड़ में जाएँ. इनके बाप ने मुझसे पूछ कर तो इन्हें पैदा नहीं किया था..... खुद तो मरेंगे ही मेरी भी नौकरी भी चाट लेंगे. इधर ये सूअर हटते नहीं उधर उन कुत्तों को एक पल का धैर्य नहीं है.'

'अरे, कहे गरम होते हो? कौन छीनेगा तुम्हारी नौकरी? कौन है जिसे गरिया भी रहे हो उससे और डर भी रहे हो.' 

'और कौन? अपने मंत्री जी और उनका बिटुआ.'

तभी लाल बत्तियों से सजी गाड़ियों का लम्बा काफिला सनसनाता हुआ निकलने लगा. लोक और लोकतंत्र की तरह भिखारी और कुत्ता सहमकर एक तरफ दुबक गये.

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शनिवार, 18 दिसंबर 2010

नवगीत: मुहब्बत संजीव 'सलिल'

नवगीत:                                                                    
मुहब्बत

संजीव 'सलिल'
*
दिखाती जमीं पे
है जीते जी
खुदा की है ये
दस्तकारी मुहब्बत...
*
मुहब्बत जो करते,
किसी से न डरते.
भुला सारी दुनिया
दिलवर पे मरते..

न तजते हैं सपने,
बदलते न नपने.
आहें भरें गर-
लगे दिल भी कंपने.
जमाना को दी है
खुदा ने ये नेमत...
*
दिलों को मिलाओ,
गुलों को खिलाओ.
सपने न टूटें,
जुगत कुछ भिड़ाओ.

दिलों से मिलें दिल.
कली-गुल रहें खिल.
मिले आँख तो दूर
पायें न मंजिल.
नहीं इससे ज्यादा
'सलिल' है मसर्रत...
***********

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

मुक्तिका : मुहब्बत --- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका                                                                               

मुहब्बत

संजीव 'सलिल'
*
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत.
मनोभूमि की काश्तकारी मुहब्बत..

मिले मन तो है मस्तकारी मुहब्बत.
इन्सां की है हस्तकारी मुहब्बत..

जीता न दिल को, महज दिल को हारा.
तो कहिये इसे पस्तकारी मुहब्बत..

मिले सज-सँवर के, सलीके से हरदम.
फुर्ती सहित चुस्तकारी मुहब्बत..

बना सीढ़ियाँ पीढ़ियों को पले जो
करिए नहीं पुश्तकारी मुहब्बत..

ज़बर-जोर से रिश्ता बनता नहीं है.
बदनाम है जिस्तकारी मुहब्बत..

रखे एक पर जब नजर दूसरा तो.
शक्की हुई गश्तकारी मुहब्बत..

रही बिस्तरों पे सिसकती सदा जो
चाहे न मन बिस्तकारी मुहब्बत..

किताबी मुहब्बत के किस्से अनेकों.
पढ़ो नाम है पुस्तकारी मुहब्बत..

घिस-घिस के एड़ी न दीदार पाये.
थक-चुक गयी घिस्तकारी मुहब्बत..

बने दोस्त फिर प्यार पलने लगे तो
नकारो नहीं दोस्तकारी मुहब्बत..

मिले आते-जाते रस्ते पे दिल तो.
नयन में पली रस्तकारी मुहब्बत..

चक्कर पे चक्कर लगाकर थके जब
तो बोले कि है लस्तकारी मुहब्बत..

शुरू देह से हो खतम देह पर हो.
है गर्हित 'सलिल' गोश्तकारी मुहब्बत..

बातों ही बातों में बातों से पैदा
बरबस 'सलिल' नशिस्तकारी मुहब्बत..

छिपे धूप रवि से, शशि चांदनी से
'सलिल' है यही अस्तकारी मुहब्बत..

'सलिल' दोनों रूठें मनाये न कोई.
तो कहिये हुई ध्वस्तकारी मुहब्बत..

मिलते-बिछुड़ते जो किस्तों में रुक-रुक
वो करते 'सलिल' किस्तकारी मुहब्बत..

उसे चाहती जो न मिलकर भी मिलता.
'सलिल' चाह यह जुस्तकारी मुहब्बत..

बने एक-दूजे की खातिर 'सलिल' जो
पलती वहीं जीस्तकारी मुहब्बत..

*

दस्तकारी = हस्तकला, काश्तकारी = खेती, पस्तकारी = थकने-हरानेवाली, गश्तकारी = पहरेदारी, जिस्त = निकृष्ट/ खराब, नशिस्त = गोष्ठी, जीस्त = ज़िंदगी, जुस्त = तलाश.

टीप: अब तक आये काफियों से हटकर काफिया प्रयोग करने की यह कोशिश कितनी सफल है, आप ही तय करेंगे. लीक से हटकर काफियों को सामने लाने के नजरिये से भर्ती के षे'र अलग नहीं किये हैं. उन्हें बतायें ताकि शेरोन को छाँटने की कला से भी वाकफियत हो सके.

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

लघु मुक्तिका : -- संजीव 'सलिल'

लघु मुक्तिका                                                                                        


संजीव 'सलिल'
*
नैन
बैन.

नहीं
चैन.

कटी
रैन.

थके
डैन.

मिले
फैन.

शब्द
बैन.



चुभे
सैन.

*

मुक्तिका ... मुहब्बतनामा संजीव 'सलिल'

मुक्तिका ...                                                                            

 मुहब्बतनामा

संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' सद्गुणों की पुजारी मुहब्बत.
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत.१.

गंगा सी पावन दुलारी मुहब्बत.
रही रूह की रहगुजारी मुहब्बत.२.

अजर है, अमर है हमारी मुहब्बत.
सितारों ने हँसकर निहारी मुहब्बत.३.

महुआ है तू महमहा री मुहब्बत.
लगा जोर से कहकहा री मुहब्बत.४.

पिया बिन मलिन है दुखारी मुहब्बत.
पिया संग सलोनी सुखारी मुहब्बत.५.

सजा माँग सोहे भ'तारी मुहब्बत.
पिला दूध मोहे म'तारी मुहब्बत.६.

नगद है, नहीं है उधारी मुहब्बत.
है शबनम औ' शोला दुधारी मुहब्बत.७.

माने न मन मनचला री मुहब्बत.
नयन-ताल में झिलमिला री मुहब्बत.८.

नहीं ब्याहता या कुमारी मुहब्बत.
है पूजा सदा सिर नवा री, मुहब्बत.९.

जवां है हमारी-तुम्हारी मुहब्बत..
सबल है, नहीं है बिचारी मुहब्बत.१०.

उजड़ती है दुनिया, बसा री मुहब्बत.
अमन-चैन थोड़ा तो ब्या री मुहब्बत.११.

सम्हल चल, उमरिया है बारी मुहब्बत.
हो शालीन, मत तमतमा री मुहब्बत.१२.

दीवाली का दीपक जला री मुहब्बत.
न बम कोई लेकिन चला री मुहब्बत.१३.

न जिस-तिस को तू सिर झुका री मुहब्बत.
जो नादां है कर दे क्षमा री मुहब्बत.१४.

जहाँ सपना कोई पला री मुहब्बत.
वहीं मन ने मन को छला री मुहब्बत.१५.

न आये कहीं जलजला री मुहब्बत.
लजा मत तनिक खिलखिला री मुहब्बत.१६.

अगर राज कोई खुला री मुहब्बत.
तो करना न कोई गिला री मुहब्बत.१७.

बनी बात काहे बिगारी मुहब्बत?
जो बिगड़ी तो क्यों ना सुधारी मुहब्बत?१८.

कभी चाँदनी में नहा री मुहब्बत.
कभी सूर्य-किरणें तहा री मुहब्बत.१९.

पहले तो कर अनसुना री मुहब्बत.
मानी को फिर ले मना री मुहब्बत.२०.

चला तीर दिल पर शिकारी मुहब्बत.
दिल माँग ले न भिखारी मुहब्बत.२१.

सजा माँग में दिल पियारी मुहब्बत.
पिया प्रेम-अमृत पिया री मुहब्बत.२२.

रचा रास बृज में रचा री मुहब्बत.
हरि न कहें कुछ बचा री मुहब्बत.२३.

लिया दिल, लिया रे लिया री मुहब्बत.
दिया दिल, दिया रे दिया, री मुहब्बत.२४.

कुर्बान तुझ पर हुआ री मुहब्बत.
काहे सारिका से सुआ री मुहब्बत.२५.

दिया दिल लुटा तो क्या बाकी बचा है?
खाते में दिल कर जमा री मुहब्बत.२६.

दुनिया है मंडी खरीदे औ' बेचे.
कहीं तेरी भी हो न बारी मुहब्बत?२७.

सभी चाहते हैं कि दर से टरे पर
किसी से गयी है न टारी मुहब्बत.२८.

बँटे पंथ, दल, देश बोली में इंसां.
बँटने न पायी है यारी-मुहब्बत.२९.

तौलो अगर रिश्तों-नातों को लोगों
तो पाओगे सबसे है भारी मुहब्बत.३०.

नफरत के काँटे करें दिल को ज़ख़्मी.
मिलें रहतें कर दुआ री मुहब्बत.३१.

कभी माँगने से भी मिलती नहीं है.
बिना माँगे मिलती उदारी मुहब्बत.३२.

अफजल को फाँसी हो, टलने न पाये.
दिखा मत तनिक भी दया री मुहब्बत.३३.

शहादत है, बलिदान है, त्याग भी है.
जो सच्ची नहीं दुनियादारी मुहब्बत.३४.

धारण किया धर्म, पद, वस्त्र, पगड़ी.
कहो कब किसी ने है धारी मुहब्बत.३५.

जला दिलजले का भले दिल न लेकिन
कभी क्या किसी ने पजारी मुहब्बत?३६.

कबीरा-शकीरा सभी तुझ पे शैदा.
हर सूं गई तू पुकारी मुहब्बत.३७.

मुहब्बत की बातें करते सभी पर
कहता न कोई है नारी मुहब्बत?३८.

तमाशा मुहब्बत का दुनिया ने देखा
मगर ना कहा है 'अ-नारी मुहब्बत.३९.

चतुरों की कब थी कमी जग में बोलो?
मगर है सदा से अनारी मुहब्बत.४०.

बहुत हो गया, वस्ल बिन ज़िंदगी क्या?
लगा दे रे काँधा दे, उठा री मुहब्बत.४१.

निभाये वफ़ा तो सभी को हो प्यारी
दगा दे तो कहिये छिनारी मुहब्बत.४२.

भरे आँख-आँसू, करे हाथ सजदा.
सुकूं दे उसे ला बिठा री मुहब्बत.४३.

नहीं आयी करके वादा कभी तू.
सच्ची है या तू लबारी मुहब्बत?४४.

महज़ खुद को देखे औ' औरों को भूले.
कभी भी न करना विकारी मुहब्बत.४५.

हुआ सो हुआ अब कभी हो न पाये.
दुनिया में फिर से निठारी मुहब्बत.४६.
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कभी मान का पान तो बन न पायी.
बनी जां की गाहक सुपारी मुहब्बत.४७.

उठाते हैं आशिक हमेशा ही घाटा.
कभी दे उन्हें भी नफा री मुहब्बत.४८.

न कौरव रहे कोई कुर्सी पे बाकी.
जो सारी किसी की हो फारी मुहब्बत.४९.

कलाई की राखी, कजलियों की मिलनी.
ईदी-सिवँइया, न खारी मुहब्बत.५०.

नथ, बिंदी, बिछिया, कंगन औ' चूड़ी.
पायल औ मेंहदी, है न्यारी मुहब्बत.५१.

करे पार दरिया, पहाड़ों को खोदा.
न तू कर रही क्यों कृपा री मुहब्बत?५२.

लगे अटपटी खटपटी चटपटी जो
कहें क्या उसे हम अचारी मुहब्बत?५३.

अमन-चैन लूटा, हुई जां की दुश्मन.
हुई या खुदा! अब बला री मुहब्बत.५४.

तू है बदगुमां, बेईमां जानते हम
कभी धोखे से कर वफा री मुहब्बत.५५.

कभी ख़त-किताबत, कभी मौन आँसू.
कभी लब लरजते, पुकारी मुहब्बत.५६.

न टमटम, न इक्का, नहीं बैलगाड़ी.
बसी है शहर, चढ़के लारी मुहब्बत.५७.

मिला हाथ, मिल ले गले मुझसे अब तो
करूँ दुश्मनों को सफा री मुहब्बत.५८.

तनिक अस्मिता पर अगर आँच आये.
बनती है पल में कटारी मुहब्बत.५९.

है जिद आज की रात सैयां के हाथों.
मुझे बीड़ा दे तू  खिला री मुहब्बत.६०.

न चौका, न छक्का लगाती शतक तू.
गुले-दिल खिलाती खिला री  मुहब्बत.६१.

न तारे, न चंदा, नहीं चाँदनी में
ये मनुआ प्रिया में रमा री मुहब्बत.६२.

समझ -सोच कर कब किसी ने करी है?
हुई है सदा बिन विचारी मुहब्बत.६३.

खा-खा के धोखे अफ़र हम गये हैं.
कहें सब तुझे अब अफारी मुहब्बत.६४.

तुझे दिल में अपने हमेशा है पाया.
कभी मुझको दिल में तू पा री मुहब्बत.65.

अमन-चैन हो, दंगा-संकट हो चाहे
न रोके से रुकती है जारी मुहब्बत.६६.

सफर ज़िंदगी का रहा सिर्फ सफरिंग
तेरा नाम धर दूँ सफारी मुहब्बत.६७.

जिसे जो न भाता उसे वह भगाता
नहीं कोई कहता है: 'जा री मुहब्बत'.६८.

तरसती हैं आँखें  झलक मिल न पाती.
पिया को प्रिया से मिला री मुहब्बत.६९.

भुलाया है खुद को, भुलाया है जग को.
नहीं रबको पल भर बिसारी मुहब्बत.७०.

सजन की, सनम की, बलम की चहेती.
करे ढाई आखर-मुखारी मुहब्बत.७१.

न लाना विरह-पल जो युग से लगेंगे.
मिलन शायिका पर सुला री मुहब्बत.७२.

उषा के कपोलों की लाली कभी है.
कभी लट निशा की है कारी मुहब्बत.७३. 

मुखर, मौन, हँस, रो, चपल, शांत है अब
गयी है विरह से उबारी मुहब्बत..

न तनकी, न मनकी,  न सुध है बदनकी.
कहाँ हैं प्रिया?, अब बुला री मुहब्बत.७४.

नफरत को, हिंसा, घृणा, द्वेष को भी
प्रचारा, न क्योंकर प्रचारी मुहब्बत?७५.

सातों जनम तक है नाता निभाना.
हो कुछ भी न डर, कर तयारी मुहब्बत.७६.

बसे नैन में दिल, बसे दिल में नैना.
सिखा दे उन्हें भी कला री मुहब्बत.७७.

कभी देवता की, कभी देश-भू की 
अमानत है जां से भी प्यारी मुहब्बत.७८.

पिए बिन नशा क्यों मुझे हो रहा है?
है साक़ी, पियाला, कलारी मुहब्बत.७९.

हो गोकुल की बाला मही बेचती है.
करे रास लीलाविहारी मुहब्बत.८०.

हवन का धुआँ, श्लोक, कीर्तन, भजन है.
है भक्तों की नग्मानिगारी मुहब्बत.८१.

ज़माने ने इसको कभी ना सराहा.
ज़माने पे पड़ती है भारी मुहब्बत.८२.

मुहब्बत के दुश्मन सम्हल अब भी जाओ.
नहीं फूल केवल, है आरी मुहब्बत.८३.

फटेगा कलेजा न हो बदगुमां तू.
सिमट दिल में छिप जा, समा री मुहब्बत.८४.

गली है, दरीचा है, बगिया है पनघट
कुटिया-महल है अटारी मुहब्बत.८५.

पिलाया है करवा से पानी पिया ने.
तनिक सूर्य सी दमदमा री मुहब्बत.८६.

मुहब्बत मुहब्बत है, इसको न बाँटो.
तमिल न मराठी-बिहारी मुहब्बत.८७.

न खापों का डर है न बापों की चिंता.
मिटकर निभा दे तू यारी मुहब्बत.८८.

कोई कर रहा है, कोई बच रहा है.
गयी है किसी से न टारी मुहब्बत.८९.

कली फूल कांटा है तितली- भ्रमर भी
कभी घास-पत्ती है डारी मुहब्बत.९०.

महल में मरे, झोपड़ी में हो जिंदा.
हथेली पे जां, जां पे वारी मुहब्बत.९१.

लगा दाँव पर दे ये खुद को, खुदा को.
नहीं बाज आये, जुआरी मुहब्बत.९२.

मुबारक है हमको, मुबारक है तुमको.
मुबारक है सबको, पिआरी मुहब्बत.९३.

रहे भाजपाई या हो कांगरेसी
न लेकिन कभी हो सपा री मुहब्बत.९४.

पिघल दिल गया जब कभी मृगनयन ने
बहा अश्क जीभर के ढारी मुहब्बत.९५.

जो आया गया वो न कोई रहा है.
अगर हो सके तो न जा री मुहब्बत.९६.

समय लीलता जा रहा है सभी को.
समय को ही क्यों न खा री मुहब्बत?९७.

काटे अनेकों लगाया न कोई.
कर फिर धरा को हरा री मुहब्बत.९८.

नंदन न अब देवकी के रहे हैं.
न पढ़ने को मिलती अयारी मुहब्बत.९९.

शतक पर अटक मत कटक पार कर ले.
शुरू कर नयी तू ये पारी मुहब्बत.१००.

न चौके, न छक्के 'सलिल' ने लगाये.
कभी हो सचिन सी भी पारी मुहब्बत.१०१.

'सलिल' तर गया, खुद को खो बेखुदी में
हुई जब से उसपे है तारी मुहब्बत.१०२.

'सलिल' शुबह-संदेह को झाड़ फेंके.
ज़माने की खातिर बुहारी मुहब्बत.१०३.

नए मायने जिंदगी को 'सलिल' दे.
न बासी है, ताज़ा-करारी मुहब्बत.१०४.

जलाती, गलाती, मिटाती है फिर भी
लुभाती 'सलिल' को वकारी मुहब्बत.१०५.

नहीं जीतकर भी 'सलिल' जीत पायी.
नहीं हारकर भी है हारी मुहब्बत.१०६.

नहीं देह की चाह मंजिल है इसकी.
'सलिल' चाहता निर्विकारी मुहब्बत.१०७.

'सलिल'-प्रेरणा, कामना, चाहना हो.
होना न पर वंचना री मुहब्बत.१०८.

बने विश्व-वाणी ये हिन्दी हमारी.
'सलिल' की यही कामना री मुहब्बत.१०९.

ये घपले-घुटाले घटा दे, मिटा दे.
'सलिल' धूल इनको चटा  री मुहब्बत.११०.

'सलिल' घेरता चीन चारों तरफ से.
बहुत सोये अब तो जगा री मुहब्बत.१११.

अगारी पिछारी से होती है भारी.
सच यह 'सलिल' को सिखा री मुहब्बत.११२.

'सलिल' कौन किसका हुआ इस जगत में?
न रह मौन, सच-सच बता री मुहब्बत.११३.

'सलिल' को न देना तू गारी मुहब्बत.
सुना गारी पंगत खिला री मुहब्बत.११४.

'सलिल' तू न हो अहंकारी मुहब्बत.
जो होना हो, हो निराकारी मुहब्बत.११५.

'सलिल' साधना वन्दना री मुहबत.
विनत प्रार्थना अर्चना री मुहब्बत.११६.

चला, चलने दे सिलसिला री मुहब्बत.
'सलिल' से गले मिल मिल-मिला री मुहब्बत.११७.

कभी मान का पान लारी मुहब्बत.
'सलिल'-हाथ छट पर खिला री मुहब्बत.११८.

छत पर कमल क्यों खिला री मुहब्बत?
'सलिल'-प्रेम का फल फला री मुहब्बत.११९.

उगा सूर्य जब तो ढला री मुहब्बत.
'सलिल' तम सघन भी टला री मुहब्बत.१२०.

'सलिल' से न कह, हो दफा री मुहब्बत.
है सबका अलग फलसफा री मुहब्बत.१२१.

लड़ाती ही रहती किला री मुहब्बत.
'सलिल' से न लेना सिला री मुहब्बत.१२२.

तनिक नैन से दे पिला री मुहब्बत.
मरते 'सलिल' को जिला री मुहब्बत.१२३.

रहे शेष धर, मत लुटा री मुहब्बत.
कल को 'सलिल' कुछ जुटा री मुहब्बत.१२४.

प्रभाकर की रौशन अटारी मुहब्बत.
कुटिया 'सलिल' की सटा री मुहब्बत.१२५.

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बुधवार, 15 दिसंबर 2010

लघु कथा - वन्देमातरम -- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

वन्देमातरम [लघु कथा] - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'




साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।

आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।

आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि।

वर्तमान में आप म.प्र. सड़क विकास निगम में उप महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं।

-'मुसलमानों को 'वन्दे मातरम' नहीं गाना चाहिए, वज़ह यह है की इस्लाम का बुनियादी अकीदा 'तौहीद' है। मुसलमान खुदा के अलावा और किसी की इबादत नहीं कर सकता।' -मौलाना तकरीर फरमा रहे थे।


'अल्लाह एक है, वही सबको पैदा करता है। यह तो हिंदू भी मानते हैं। 'एकोहम बहुस्याम' कहकर हिंदू भी आपकी ही बात कहते हैं। अल्लाह ने अपनी रज़ा से पहले ज़मीनों-आसमां तथा बाद में इन्सान को बनाया। उसने जिस सरज़मीं पर जिसको पैदा किया, वही उसकी मादरे-वतन है। अल्लाह की मर्जी से मिले वतन के अलावा किसी दीगर मुल्क की वफादारी मुसलमान के लिए कतई जायज़ नहीं हो सकती। अपनी मादरे-वतन का सजदा कर 'वंदे-मातरम' गाना हर मुसलमान का पहला फ़र्ज़ है। हर अहले-इस्लाम के लिए यह फ़र्ज़ अदा करना न सिर्फ़ जरूरी बल्कि सबाब का काम है। आप भी यह फ़र्ज़ अदा कर अपनी वतन-परस्ती और मजहब-परस्ती का सबूत दें।' -एक समझदार तालीमयाफ्ता नौजवान ने दलील दी।

मौलाना कुछ और बोलें इसके पेश्तर मजामीन 'वन्दे-मातरम' गाने लगे तो मौलाना ने चुपचाप खिसकने की कोशिश की मगर लोगों ने देख और रोक लिया तो धीरे-धीरे उनकी आवाज़ भी सबके साथ घुल-मिल गयी।
 
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