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गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

हिंदी शब्द सलिला : १७ 'अग' से प्रारंभ शब्द : ४. संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : १७  संजीव 'सलिल'



*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदास-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, सूर.-सूरदास, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

'अग' से प्रारंभ शब्द : ४.

संजीव 'सलिल'
*
अगि - स्त्री. अग्नि का समास में प्रयुक्त विकृत रूप,-दधा-वि. अग्निदग्धा, आग से जला हुआ,-दाह- पु. देखें अग्निदाह.-हाना-पु. अग्नि जलने या रखने का स्थान.
अगिन - स्त्री. आग, एक छोटी चिड़िया, एक घास, ईख / गन्ने का ऊपरी हिस्सा. वि. बहुत अधिक, अगणित,-झाल-स्त्री. जलपिप्पली.-वाव-पु. घोड़ों / चौपायों को होने वाला एक रोग.-बोट-स्टीमर.-गोला-नापाम बम, बम जिसके फटने पर आग लग जाये.
अगिनत / अगिनित - वि. देखें अगनित.
अगिया - स्त्री. अगिन घास. पु. एक पौधा, चौपायों गायों / घोड़ों का एक रोग जिसमें पैरों में छाले पड़ जाते हैं, विक्रमादित्य का एक बैताल.-कोइलिया- पु. बैताल पच्चीसी में वर्णित दो बैताल जिन्हें विक्रमादित्य ने सिद्ध किया था.-बैताल- पु. विक्रमादित्यको सिद्ध दो बैतालों में से एक, मुंह से आग उगलनेवाला प्रेत, घूमती हुई सी ज्योति, दलदल आदि से निकलने वाली ज्वलनशील वायु जिसकी लपट दिखाई देती है.   
अगियाना - अक्रि. गरम होना, उत्तेजित होना, गुस्सा / क्रुद्ध होना. सक्रि. बर्तन को आग में डालकर शुद्ध करना.
अगियार - पु. पूजा के लिए जलायी जानेवाली आग, वि. जिसकी दमक / आग अधिक समय तक रहे या तेज हो (ईंधन लकड़ी, कोयला, कंडा आदि)
अगियारी - स्त्री. धूप की तरह अग्नि में डालने की वस्तु. पु. पारसियों का मंदिर.
अगिर - पु. सं. स्वर्ग, सूर्या, अग्नि, एक राक्षस.
अगिरी - स्त्री. घर का अगवाड़ा.
अगिरीका / कस - वि. सं. स्वर्ग में रहनेवाला, देवता. धमकी से न रुकनेवाला.
अगिला - वि. देखें अगला.
अगिलाई - स्त्री. अग्निदाह, -'जोन्ह नहीं सु नई अगिलाई', घनानन्द, झगडा लगाना, लड़वाना.
अगीठा - पु. सामने का हिस्सा, अगवाड़ा, पान जैसा किन्तु उससे बड़े आकार के पत्तोंवाला पौधा.
अगीत - छन्दरहित/तुकहीन गीत.
अगीत-पछीत - पु. अगवाड़ा-पिछवाड़ा. अ. आगे-पीछे.

नवगीत : मन की महक --- संजीव 'सलिल'

नव गीत

मन की महक

संजीव 'सलिल'
*
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
नेह नर्मदा नहा,
छाछ पी, जमुना रास रचाये.
गंगा 'बम भोले' कह चम्बल
को हँस गले लगाये..
कहे : 'राम जू की जय'
कृष्णा-कावेरी सरयू से-
साबरमती सिन्धु सतलज संग
ब्रम्हपुत्र इठलाये..

लहर-लहर
जन-गण मन गाये,
'सलिल' करे मनुहार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
विन्ध्य-सतपुड़ा-मेकल की,
हरियाली दे खुशहाली.
काराकोरम-कंचनजंघा ,
नन्दादेवी आली..
अरावली खासी-जयंतिया,
नीलगिरी, गिरि झूमें-
चूमें नील-गगन को, लूमें
पनघट में मतवाली.

पछुआ-पुरवैया
गलबहियाँ दे
मनायें त्यौहार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
*
चूँ-चूँ चहक-चहक गौरैया
कहे हो गयी भोर.
सुमिरो उसको जिसने थामी
सब की जीवन-डोर.
होली ईद दिवाली क्रिसमस
गले मिलें सुख-चैन
मिला नैन से नैन,
बसें दिल के दिल में चितचोर.

बाज रहे
करताल-मंजीरा
ठुमक रहे करतार.
मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार...
****************

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

मुक्तिका सदय हुए घन श्याम संजीव 'सलिल'

मुक्तिका


सदय हुए घन श्याम


संजीव 'सलिल'
*
सदय हुए घन-श्याम सलिल के भाग जगे.
तपती धरती तृप्त हुई, अनुराग पगे..

बेहतर कमतर बदतर किसको कौन कहे.
दिल की दुनिया में ना नाहक आग लगे..

किसको मानें गैर, पराया कहें किसे?
भोंक पीठ में छुरा, कह रहे त्याग सगे..

विमल वसन में मलिन मनस जननायक है.
न्याय तुला को थाम तौल सच, काग ठगे..

चाँद जुलाहे ने नभ की चादर बुनकर.
तारों के सलमे चुप रह बेदाग़ तगे..

पाक करे नापाक हरकतें भोला बन.
कहे झूठ यह गोला रहा न दाग दगे..

मतभेदों को मिल मनभेद न होने दें.
स्नेह चाशनी में राई औ' फाग पगे..

अवढरदानी की लीला का पार कहाँ.
शिव-तांडव रच दशकन्धर ना नाग नगे..

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मुक्तिका: करवा चौथ संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

करवा चौथ

संजीव 'सलिल'
*
करवा चौथ मनाने आया है चंदा.
दूर चाँदनी छोड़ भटकता क्यों बंदा..

खाली जेब हुई माँगे उपहार प्रिया.
निकल पड़ा है माँग-बटोरे कुछ चंदा..

घर जा भैये, भौजी पलक बिछाए है.
मत महेश के शीश बैठ होकर मंदा..

सूरज है स्वर्णाभ, चाँद पीताभ सलिल'
साँझ-उषा अरुणाभ, निशा का तम गंदा..

हर दंपति को जी भर खुशियाँ दे मौला.
'सलिल' मनाता शीश झुका आनंदकंदा..


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जनम जनम का साथ-----------रानी विशाल

जनम जनम का साथ-----------रानी विशाल













मांग सिंदूर, माथे पर बिंदिया
रचाई मेहंदी दोनों हाथ
साज सिंगार कर, आज मैं निखरी
लिए भाग सुहाग की आस
प्रिय यह जनम-जनम का साथ

पुण्य घड़ी का पुण्य मिलन बना 
मेरे जग जीवन की आस
पूर्ण हुई मैं, परिपूर्ण आभिलाषा 
जब से पाया पुनीत यह साथ
प्रिय यह जनम-जनम का साथ

व्रत, पूजन कर दे अर्ध्य चन्द्र को
मांगू आशीष विशाल ये आज
जियूं सुहागन, मरू सुगागन 
रहे अमर प्रेम सदा साथ
प्रिय यह जनम जनम का साथ

हर युग, हर जीवन, मिले साथ तुम्हारा
रहे तुम्हीं से चमकते भाग
मैं-तुम, तुम-मैं, रहे एक सदा हम
कभी ना छूटे यह विश्वास
प्रिय यह जनम-जनम का साथ 



आज करवा चौथ के पावन दिन पूरी आस्था और विश्वास के साथ परम पिता परमेश्वर के चरणों में यह परम अभिलाषा समर्पित है और आप सभी मेरे ब्लॉग परिवार को भी मेरा चरण वंदन आज कमेन्ट में अपने स्नेह के साथ यही आशीष प्रदान करें कि मैं हर जीवन हर जन्म अखंड विशाल सौभाग्य प्राप्त करूँ ....

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

दोहा सलिला: भाई को भाई की, भाये कुछ बात..... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

भाई को भाई की, भाये कुछ बात..... 

संजीव 'सलिल'

*

भाई को भाई की, भाये कुछ बात.....

संजीव 'सलिल'
*
जो गिरीश मस्तक धरे, वही चन्द्र को मौन.
अमिय-गरल सम भाव से, करे ग्रहण है कौन?
महाकाल के उपासक, हम न बदलते काल.
व्याल-जाल को छिन्न कर, चलते अपनी चाल..
अनुज न मेरा कभी भी, होगा तनिक हताश.
अरिदल को फेंटे बना, निज हाथों का ताश..
मेघ न रवि को कभी भी, ढाँक सके हैं मीत.
अस्त-व्यस्त खुद हो गए, गरज-बरस हो भीत..
सलिल धार को कब कहें, रोक सकी चट्टान?
रेत बनी, बिखरी, बही, रौंद रहा इंसान..
बाधाएँ पग चूम कर, हो जायेंगी दूर.
मित्रों की पहचान का, अवसर है भरपूर..
माँ सरस्वती शक्ति-श्री का अपूर्व भण्डार.
सदा शांत रह, सृजन ही उनका है आचार..
कायर उन्हें  न मानिये, कर सकती हैं नाश.
काट नहीं उनकी कहीं, डरे काल का पाश..
शब्द-साधना पथिक हम, रहें हमेशा शांत.
निबल न हमको समझ ले, कोई होकर भ्रांत..
सृजन साध्य जिसको 'सलिल', नाश न उसकी चाह.
विवश करे यदि समय तो, सहज चले उस राह..
चन्द्र-चन्द्रिका का नहीं, कुछ कर सका कलंक.
शरत-निशा कहती यही, सत्य सदा अकलंक..
वर्षा-जल की मलिनता, से न नर्मदा भीत.
अमल-विमल-निर्मल बाहें, नमन करे जग मीत..
यह साँसों की धार है, आसों का सिंगार.
कीर्ति-कथा ही अंत में, शेष रहे अविकार..
जितने कंटक-कष्ट में, खिलता जीवन-फूल.
गौरव हो उतना अधिक, कोई न सकता भूल..
हम भी झेलें विपद को, धरे अधर-मुस्कान.
तिमिर-निशा को दिवाली, करते चतुर सुजान..
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हिंदी शब्द सलिला : १६ 'अग' से प्रारंभ शब्द : ३. -- संजीव 'सलिल'


हिंदी शब्द सलिला : १६       संजीव 'सलिल'


*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदास-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, सूर.-सूरदास, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

'अग' से प्रारंभ शब्द : ३.

संजीव 'सलिल'
*
अगहाट - पु. भूमि जो बहुत दिनों से किसी अन्य के अधिकार में हो और वह छोड़ने के लिये तैयार न हो.
अगहार - पु. देखें अग्रहार.
अगहुँड़ - अ. आगे, आगे की ओर. वि. आगे चलनेवाला.
अगाउनी - अ. अगौनी, आगे, अग्रिम.
अगाऊँ / अगाऊ - वि. पेशगी, आगे का, अग्रिम, अ. आगेसे, पहले से, पूर्वसे.
अगाड़ - पु. हुक्के की निगाली, ढेंकली के छोर पर लगी पतली लकड़ी.
अगाड़ा - पु. पहले भेजा जानेवाला यात्रा का सामान.
अगाड़ी - अ. आगे, पहले, सामने, भविष्य में. स्त्री. आगे का हिस्सा, घोड़े की गर्दन में बंधी रस्सियाँ, अंगरखे या कुरते के सामने का हिस्सा, सेना का पहला धावा.
अगाड़ू  - अ. आगे, पहले.
आगाता - पु. सं. अच्छा न गानेवाला व्यक्ति.
अगात्मजा - स्त्री, सं. पार्वती, .
अगाद - वि. अगाध.
अगाध - वि. सं. अतल, अथाह, अपार, अधिक, दुर्बोध, अज्ञेय. पु. स्वाहाकार की पाँच अग्नियों में से एक, गहरा छेद, गड्ढा.-जल-पु. गहरा जलाशय, बावली, झील.-रुधिर- पु. अत्यधिक रक्त, बहुत अधिक खून.
अगान - वि. अज्ञानी, नासमझ. पु. नासमझी.
अगामै - अ. आगे.
अगार - अ. आगे. पु. सं. देखें आगार.
अगारी - अ. स्त्री. देखें अगाड़ी.
अगारी / रिन - वि. सं. मकान्वाला.
अगाव - पु. ईख के ऊपर का रसहीन भाग.
अगास - पु. देखें आकाश, द्वार के सामने का चबूतरा.
अगाह - वि. अथाह, अत्यधिक, उदास, चिंतित, देखें आगाह. अ. आगे से, पहले से.
                                                                          -- निरंतर

रवींद्र खरे 'अकेला' रचित 'मेरी लघुकथाओं का पहला नाबाद शतक' विमोचित :

कृति विमोचन:
रवींद्र खरे 'अकेला' रचित 'मेरी लघुकथाओं का पहला नाबाद शतक' विमोचित :


भोपाल . मध्यप्रदेश के राज्यपाल महामहिम श्री रामेश्वर ठाकुर के करकमलों से दिव्यनर्मदा परिवार के अभिन्न अंग श्री रविन्द्र खरे 'अकेला' के नव प्रकाशित लघुकथा संग्रह 'मेरी लघुकथाओं का पहला नाबाद शतक' का विमोचन पूर्व सांसद श्री कैलाशनारायण सारंग, अध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा की विशेष उपस्थिति में संपन्न हुआ. श्री अकेला को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें. 

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

मुक्तिका: यादों का दीप संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

यादों का दीप

संजीव 'सलिल'
*
हर स्मृति मन-मंदिर में यादों का दीप जलाती है.
पीर बिछुड़ने से उपजी जो उसे तनिक सहलाती है..

'आता हूँ' कह चला गया जो फिर न कभी भी आने को.
आये न आये, बात अजाने, उसको ले ही आती है..

सजल नयन हो, वाणी नम हो, कंठ रुद्ध हो जाता है.
भाव भंगिमा हर, उससे नैकट्य मात्र दिखलाती है..

आनी-जानी है दुनिया कोई न हमेशा साथ रहे.
फिर भी ''साथ सदा होंगे'' कह यह दुनिया भरमाती है..

दीप तुम्हारी याद हुई, मैं दीपावली मनाऊँगा. दुनिया देखे-लेखे स्मृति जीवन-पथ दिखलाती है..

मन में मन की याद बसी है, गहरी निकल न पायेगी.
खलिश-चुभन पाथेय 'सलिल' बिछुड़े से पुनः मिलाती है..

मन मीरा या बने राधिका, पल-पल तुमको याद करे.
स्वास-आस में याद नेह बन नित नर्मदा बहाती है..
*
नर्मदा = नर्मम ददाति इति नर्मदा = जो मन-प्राणों को आनंद दे वह नर्मदा.

मुक्तिका: आँख में संजीव 'सलिल

मुक्तिका:

आँख में

संजीव 'सलिल'
*
जलती, बुझती न, पलती अगन आँख में.
सह न पाता है मन क्यों तपन आँख में ??

राम का राज लाना है कहते सभी.
दीन की कोई देखे  मरन आँख में..

सूरमा हो बड़े, सारे जग से लड़े.
सह न पाए तनिक सी चुभन आँख में..

रूप ऊषा का निर्मल कमलवत खिला
मुग्ध सूरज हुआ ले किरन आँख में..

मौन कैसे रहें?, अनकहे भी कहें-
बस गये हैं नयन के नयन आँख में..

ढाई आखर की अँजुरी लिये दिल कहे
दिल को दिल में दो अशरन शरन आँख में..

ज्यों की त्यों रह न पायी, है चादर मलिन
छवि तुम्हारी है तारन-तरन आँख में..

कर्मवश बूँद बन, गिर, बहा, फिर उड़ा.
जा मिला फिर 'सलिल' ले लगन आँख में..

साँवरे-बाँवरे रह न अब दूर रख-
यह 'सलिल' ही रहे आचमन, आँख में..

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हिंदी शब्द सलिला : १५ 'अग' से प्रारंभ शब्द : २. --संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : १५        संजीव 'सलिल'

*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदास-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, सूर.-सूरदास, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

'अग' से प्रारंभ शब्द : २.

संजीव 'सलिल'
*
अगदित - वि. सं. अकथित, जो कहा न गया हो.
अगन - स्त्री. अग्नि, आग, जलन, तपन. पु. दुष्टगण पिंगल. वि. अगण्य, बेशुमार उ.
अगनत / अगनित - वि. देखें अगणित.
अगनिउ - पु. अग्निकोण, आग्नेय, दक्षिण-पूर्व का कोना.
अगनी - स्त्री. घोड़े के सिर पर की भौंरी, अग्नि. वि अगनित.
अगनू - स्त्री. आग्नेय कोण, अग्नि कोण.
अगनेउ / अग्नेत - पु. अग्नि कोण.
अगम-वि. सं. न चलनेवाला, अगंता, सुदृढ़ -लंका बसत दैत्य अरु दानव, उनके अगम सरीरा. सूर., पु. वृक्ष, पहाड़. वि. देखें अगम्य. पु. देखें आगम.
अगमन-पु. सं. गमन का अभाव, न जाना. अ. आगे से पहले.
अगमनीया-वि. स्त्री. सं. देखें अगम्या.
अगमानी-पु. अगुआ, नायक, नेता. स्त्री. अगवानी.
अगमासी-स्त्री. देखें अगवाँसी.
अगम्य-वि. सं. दुर्गम, पहुँच के बाहर, अप्राप्य, अयुक्त, मन-बुद्धि के परे, कठिन, अपार, अथाह, जिससे सहवास न किया जा सके,-गा- स्त्री. अपात्र पुरुष से सम्बन्ध रखनेवाली स्त्री.-रूप- वि. जिसका रूप / स्वभाव समझ न आये. -वाक्- जिसकी वाणी /  बात समझ में न आये.
अगम्या-वि. स्त्री. सं. गमन न करनेयोग्य स्त्री, स्त्री जिसके संग सहवास / संभोग वर्जित हो, अन्त्यजा.-गमन- पु. अगम्या स्त्री से सहवास करना, एक महापातक. -गमनीय-वि. अवैध सम्बन्ध विषयक. -गामी / मिन- वि. अगम्यागमन करनेवाला.
अगर-पु. एक वृक्ष जिसकी लकड़ी में सुगंध होती है और जिसे धूप दशांग में डाला जाता है, उद. -बत्ती-  स्त्री. अगरकी बत्ती.-सार- अगरु नामक वृक्ष.  
अगर-पु. आगार, घर, आवास. -जे संसार-अंधियार अगरमें भये मगनबर- काव्यांगकौमुदी.
अगर-अ. फा. यदि, मगर, जो, किन्तु, परन्तु. -चे- अ. यद्यपि. मुहा.-मगर करना - तर्क करना, सोच-विचार करना, आगा-पीछा करना, टाल-मटोल करना.
अगरई-वि. कालापन लिये हुए सुनहरे रंग का.
अगरना-अक्रि. आगे जाना, बढ़ना.
अगरपार-पु. क्षत्रियों का एक भेद.
अगर-बगर-अ. देखें अगल-बगल.
अगरवाला/अगरवाल-पु. वैश्यों की एक जाति, अग्रवाल.
अगराई-स्त्री. स्त्री. अग्रता, श्रेष्ठता,-गिरा अगराई गुनगरिमा-गगन कौं-घन.
अगराना-सक्रि.मन बढ़ाना, लाड़-प्यार के कारण धृष्ट बनाना, अक्रि. प्यार आदि के कारण धृष्टतापूर्ण व्यवहार करना.
अगरी-स्त्री. देखें अगड़ी, फूस की छाजन का एक तरीका, बुरी बात, धृष्टता सं., एक विषनाशक द्रव्य, देवताड़ वृक्ष.
अगरु-पु. सं. अगर का पेड़ / लकड़ी.
अगरे-अ. सामने, आगे.
अगरो-वि. अगला, श्रेष्ठ, अधिक, निपुण.
अगर्व-वि. सं. गर्व / अभिमान से रहित, निरभिमान.
अगर्हित-वि. सं. जो बुरा न हो, अनिंद्य.
अगल-बगल-अ. इधर-उधर, आस-पास, निकट, समीप.
अगला-वि. आगे / सामने का, गत / बीते समय का, पुराना, जानेवाला, बादका. पु. अगुआ, चतुर, चालाक, पूर्वज, कर्णफूल में आगे लगी हुई जंजीर, गाँव और उसकी सीमा के बीच पड़नेवाले खेत.
अगवना-सक्रि. सहना, अंगेजना. अक्रि. आगे बढ़ना, अग्रसर होना.
अगवाँसी-स्त्री. हलकी वह लकड़ी जिसमें फाल लगता है.    
अगवाई-स्त्री. अगवानी. पु. अगुआ.
अगवाड़ा-पु. घर के आगे का भाग / भूमि, पिछवाड़ा का उल्टा.
अगवान-पु.अगवानी करनेवाला, अगवानी.
अगवानी- स्त्री. आगे बढ़कर मिलना/स्वागत करना, बारात के स्वागतार्थ कन्यापक्ष के बड़ों का आगे जाना. पु. अगुआ.
अगवार-खलिहान में पुरोहित / फकीर आदि को देने के लिये अलग किया जानेवाला अन्न, ओसाते उड़ावनी करते समय भूसे के साथ उड़नेवाला हल्का अन्न, गाँव का चर्मकार, देखें अगवाड़ा.
अगसर-अ. आगे, -'अगसरखेती, अगसरभार, घाघ कहैं, ये कबहूँ न हार'- अमरबेल-वृन्दावन लाल वर्मा..
अगसार / अग्सरी-अ. आगे.
अगस्त-पु. ईसवी साल का आठवाँ माह, एक ऋषि / वृक्ष देखें अगस्त्य.
अगस्ति-पु. सं. एक प्राचीन ऋषि जिन्होंने एक चुल्लू में भरकर समुद्र को पी लिया था, एक तारा, एक पेड़.
अगस्त्य-पु. सं. देखें अगस्ति, शिव.-कूट- दक्षिण भारत स्थित एक पर्वत जिससे ताम्रपर्णी नदी निकली है.-गीता- स्त्री.शांतिपर्व महाभारत में कथित एक गीता.-चार /मार्ग-पु. अगस्त नामक तरे का मार्ग.-तीर्थ-पु. दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ.-वट-पु. हिमालय पर स्थित एक पवित्र तीर्थ.-संहिता-स्त्री. अगस्त्य मुनि-रचित एक धर्मग्रन्थ.
अगस्त्योदय-पु. सं. अगस्त्य का उदय (भाद्रपद शुक्लपक्ष).
अगह-वि. अग्राह्य, पकड़ में न आने लायक, चंचल, ग्रहण न करने योग्य, दुस्साध्य, वर्णन /चिंतन के बाहर.
अगहन-पु. भारतीय वर्ष का नौवाँ माह, अग्रहायण / मार्गशीर्ष माह.
अगहनिया-वि. अगहन में होनेवाला, धान.
अगहनी-वि. अगहन में तैयार होनेवाला. स्त्री. अगहन में तैयार होनेवाली फसल. 
अगहर-आगे/पहले.                                                                                                                                                     क्रमशः

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

नवगीत: महका-महका : संजीव सलिल

नवगीत:

महका-महका :

संजीव सलिल

*
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
*
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
*
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
*
लख मयंक की छटा अनूठी
तारे हरषे.
नेह नर्मदा नहा चन्द्रिका
चाँदी परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
                                     साभार: अनुभूति, नवगीत की पाठशाला.
***************

अ. भा. रचना शिविर

अ. भा. रचना शिविर मुक्तिबोध की कर्मस्थली राजनांदगाँव में

रायपुर । रचनाकारों की संस्था, प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, रायपुर, छत्तीसगढ़ द्वारा देश के उभरते हुए कवियों/लेखकों/निबंधकारों/कथाकारों/लघुकथाकारों/ब्लॉगरों को देश के विशिष्ट और वरिष्ठ रचनाकारों द्वारा साहित्य के मूलभूत सिद्धातों, विधागत विशेषताओं, परंपरा, विकास और समकालीन प्रवृत्तियों से परिचित कराने, उनमें संवेदना और अभिव्यक्ति कौशल को विकसित करने, प्रजातांत्रिक और शाश्वत जीवन मूल्यों के प्रति उन्मुखीकरण तथा स्थापित लेखक तथा उनके रचनाधर्मिता से तादात्मय स्थापित कराने के लिए अ.भा.त्रिदिवसीय/रचना शिविर (18, 19, 20 दिसंबर, 2010) सृजनात्मक लेखन कार्यशाला का आयोजन विश्वकवि गजानन माधव मुक्तिबोध की कार्यस्थली(त्रिवेणी परिसर), राजनांदगाँव में किया जा रहा है जिसमें देश के महत्वपूर्ण रचनाकार और विशेषज्ञ पधार रहे हैं । इस अखिल भारतीय स्तर के कार्यशाला में देश के 75 नवोदित/युवा रचनाकारों को सम्मिलित किया जायेगा ।



संक्षिप्त ब्यौरा निम्नानुसार है-
प्रतिभागियों को 20 नवंबर, 2010 तक अनिवार्यतः निःशुल्क पंजीयन कराना होगा । पंजीयन फ़ार्म संलग्न है ।

प्रतिभागियों का अंतिम चयन पंजीकरण में प्राप्त आवेदन पत्र के क्रम से होगा ।
पंजीकृत एवं कार्यशाला में सम्मिलित किये जाने वाले रचनाकारों का नाम ई-मेल से सूचित किया जायेगा ।

प्रतिभागियों की आयु 18 वर्ष से कम एवं 45 वर्ष से अधिक ना हो ।

प्रतिभागियों में 5 स्थान हिन्दी के स्तरीय ब्लॉगर के लिए सुरक्षित रखा गया है ।

प्रतिभागियों को संस्थान/कार्यशाला में एक स्वयंसेवी रचनाकार की भाँति, समय-सारिणी के अनुसार अनुशासनबद्ध होकर कार्यशाला में भाग लेना अनिवार्य होगा ।

प्रतिभागी रचनाकारों को प्रतिदिन दिये गये विषय पर लेखन-अभ्यास करना होगा जिसमें वरिष्ठ रचनाकारों द्वारा मार्गदर्शन दिया जायेगा ।

कार्यशाला के सभी निर्धारित नियमों का आवश्यक रूप से पालन करना होगा ।

प्रतिभागियों को सैद्धांतिक विषयों के प्रत्येक सत्र में भाग लेना अनिवार्य होगा । अपनी वांछित विधा विशेष के सत्र में वे अपनी इच्छानुसार भाग ले सकते हैं । प्रतिभागियों के आवास, भोजन, स्वल्पाहार, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह की व्यवस्था संस्थान द्वारा किया जायेगा ।

प्रतिभागियों को कार्यशाला में संदर्भ सामग्री दी जायेगी ।

प्रतिभागियों को अपना यात्रा-व्यय स्वयं वहन करना होगा ।

प्रतिभागियों को 17 दिसंबर, 2010 दोपहर 3 बजे के पूर्व कार्यशाला स्थल –त्रिवेणी परिसर/सिंधु सदन, जीई रोड, राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़ में अनिवार्यतः उपस्थित होना होगा । पंजीकृत/चयनित प्रतिभागी लेखकों को कार्यशाला स्थल (होटल) की जानकारी, संपर्क सूत्र आदि की सम्यक जानकारी पंजीयन पश्चात दी जायेगी ।


संपर्क सूत्र
जयप्रकाश मानस
कार्यकारी निदेशक
प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, छत्तीसगढ़
एफ-3, छगमाशिम, आवासीय परिसर, पेंशनवाड़ा, रायपुर, छत्तीसगढ – 492001
ई-मेल-pandulipipatrika@gmail.com
मो.-94241-82664
पंजीयन हेतु आवेदनपत्र नमूना
01. नाम -
02. जन्म तिथि व स्थान (हायर सेंकेंडरी सर्टिफिकेट के अनुसार) -
03. शैक्षणिक योग्यता
04. वर्तमान व्यवसाय -
05. प्रकाशन (पत्र-पत्रिकाओं के नाम)
06. प्रकाशित कृति का नाम
07. ब्लॉग्स का यूआरएल – (यदि हो तो)
08. अन्य विवरण ( संक्षिप्त में लिखें)
09. पत्र-व्यवहार का संपूर्ण पता (ई-मेल सहित)
हस्ताक्षर

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

गीत करवा चौथ पर: माटी तो माँ होती है... संजीव 'सलिल'

गीत करवा चौथ पर:

माटी तो माँ होती है...

संजीव 'सलिल'
**
माटी तो माँ होती है...
मैं भी माँ हूँ पर माँ बनने से पहले मैं नारी हूँ.
जो है मेरा प्रीतम प्यारा मैं भी उसको प्यारी हूँ.

सास नहीं सासू माँ ने मेरी आरती उतारी थी.
परिचय-पल से कुलवधू की छवि देखी, कमी बिसारी थी..

लगा द्वार पर हस्त-छाप मैंने पल में था जान लिया.
सासू माँ ने अपना वारिस मुझको ही है मान लिया..

मुझसे पहले कभी उन्हीं के हाथों की थी छाप लगी.
मुझ पर, छापों पर थीं उनकी नजरें गहरी प्रेम-पगी..

गले लगा, पूजा गृह ले जा पीढ़े पर बैठाया था.
उनके दिल की धड़कन में मैंने निज माँ को पाया था..

दीपक की दो बाती मुझसे एक करा वे मुस्काईं.
कुलवधू नहीं, मिली है बेटी, इसमें मेरी परछाईं.

सुन सिहरी, कुलदेवों की पूजा कर ज्यों ही पाँव छुए. 
'देख इसे कुछ कष्ट न हो, वरना डाटूंगी तुझे मुए.'

माँ बेटे से बोल रहीं थी: 'इसका बहुत ध्यान रखना.
कुल-लक्ष्मी गुणवती नेक है, इसका सदा मान रखना ..'

मेरे नयन सजल, वे बोलीं: 'बेटी! जा आराम करो.
देती हूँ आशीष, समुज्ज्वल दोनों कुल का नाम करो.'

पर्व और त्यौहार मनाये हमने साथ सदा मिलकर.
गृह-बगिया में सुमन-कली जैसे रहते हैं हम खिलकर..

आई करवा चौथ, पुलक मैं पति की कुशल मनाऊँगी.
निर्जल व्रत कर मन की मृदुता को दृढ़-जयी बनाऊँगी..

सोचा, माँ बोली: 'व्रत मैं कर लूँगी, तू कुछ खा-पी ले.
उमर पड़ी है व्रत को, अभी लड़कपन है, हँसकर जी ले'

'माँ मत रोकें, व्रत करने दें, मेरे मन की आस यही.
जीवन-धन की कुशल न मानूँ इससे बढ़कर त्रास नहीं..'

माँ ने रोका, सविनय मैंने उन्हें मनाया-फुसलाया.
अनुमति पाकर मन-प्राणों ने जैसे नव जीवन पाया..

नित्य कार्य पश्चात् करी पूजा की हमने तैयारी.
तन-मन हम दोनों के प्रमुदित, श्वास-श्वास थी अग्यारी..

सास-बहू से माँ-बेटी बन, हमने यह उपवास किया.
साँझ हुई कब पता न पाया,  जी भर जीवन आज जिया..

कुशल मनाना किसी स्वजन की देता है आनंद नया.
निज बल का अनुमान न था, अनुभूति नयी यह हुई पिया..

घोर कष्ट हो, संकट आये, तनिक न मैं घबड़ाऊँगी.
भूख-प्यास जैसे हर आपद-विपदा पर जय पाऊँगी..

प्रथा पुरातन, रीति सनातन, मैं भी इसकी बनी कड़ी.
सच ही मैं किस्मतवाली हूँ, थी प्रसन्नता मुझे बड़ी..

मैका याद न आया पल भर, प्रिय को पल-पल याद किया.
वे आये-बोले: 'पल भर भी ध्यान न तुमसे हटा प्रिया..''

चाँद देख पूजा की तो निज मन को था संतोष नया.
विजयी नारी भूख-प्यास पर, अबला नाहक कहा गया..

पिता-पुत्र के नयनों में, जो कुछ था कहा न सुना गया.
श्वास-श्वास का, आस-आस का, सरस स्वप्न नव बुना गया..

माँ का सच मैंने भी पाया, धरती धैर्य न खोती है.
पति-संतानों का नारी तपकर दृढ़ संबल होती है.
                       नारी ही माँ होती है.
***************************************

मुक्तिका: पथ पर पग संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:


पथ पर पग


संजीव 'सलिल'
*
पथ पर पग भरमाये अटके.
चले पंथ पर जो बे-खटके..

हो सराहना उनकी भी तो
सफल नहीं जो लेकिन भटके..

ऐसों का क्या करें भरोसा
जो संकट में गुप-चुप सटके..

दिल को छूती वह रचना जो
बिम्ब समेटे देशज-टटके..

हाथ न तुम फौलादी थामो.
जान न पाये कब दिल चटके..

शूलों से कलियाँ हैं घायल.
लाख़ बचाया दामन हट के..

गैरों से है नहीं शिकायत
अपने हैं कारण संकट के..

स्वर्णपदक के बने विजेता.
पाठ्य पुस्तकों को रट-रट के..

मल्ल कहाने से पहले कुछ
दाँव-पेंच भी सीखो जट के..

हों मतान्तर पर न मनांतर
काया-छाया चलतीं सट के..

चौपालों-खलिहानों से ही
पीड़ित 'सलिल' पंथ पनघट के
************************

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

गीत: कौन रचनाकार है?.... संजीव 'सलिल'

गीत:

कौन रचनाकार है?....

संजीव 'सलिल'
*
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
कौन व्यापारी? बताओ-
क्या-कहाँ व्यापर है?.....
*
रच रहा वह सृष्टि सारी
बाग़ माली कली प्यारी.
भ्रमर ने मधुरस पिया नित-
नगद कितना?, क्या उधारी?
फूल चूमे शूल को, क्यों
तूल देता है ज़माना?
बन रही जो बात वह
बेबात क्यों-किसने बिगारी?
कौन सिंगारी-सिंगारक
कर रहा सिंगार है?
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
*
कौन है नट-नटवर नटी है?
कौन नट-नटराज है?
कौन गिरि-गिरिधर कहाँ है?
कहाँ नग-गिरिराज है?
कौन चाकर?, कौन मालिक?
कौन बन्दा? कौन खालिक?
कौन धरणीधर-कहाँ है?
कहाँ उसका ताज है?
करी बेगारी सभी ने 
हर बशर बेकार है.
कौन है रचना यहाँ पर
कौन रचनाकार है?....
*
कौन सच्चा?, कौन लबरा?
है कसाई कौन बकरा?
कौन नापे?, कहाँ नपना?
कौन चौड़ा?, कौन सकरा?.
कौन ढांके?, कौन खोले?
राज सारे बिना बोले.
काज किसका?, लाज किसकी?
कौन हीरा?, कौन कचरा?
कौन संसारी सनातन
पूछता संसार है?
कौन है रचना यहाँ पर?
कौन रचनाकार है?
********************

नवगीत: नफरत पाते रहे प्यार कर संजीव 'सलिल'

नवगीत:

नफरत पाते रहे प्यार कर

संजीव 'सलिल'
*
हर मर्यादा तार-तार कर
जीती बजी हार-हार कर.
सबक न कुछ भी सीखे हमने-
नफरत पाते रहे प्यार कर.....
*
मूल्य सनातन सच कहते
पर कोई न माने.
जान रहे सच लेकिन
बनते हैं अनजाने.
अपने ही अपनापन तज
क्यों हैं बेगाने?
मनमानी करने की जिद
क्यों मन में ठाने?
छुरा पीठ में मार-मार कर
रोता निज खुशियाँ उधार कर......
*
सेनायें लड़वा-मरवा
क्या चाहे पाना?
काश्मीर का झूठ-
बेसुरा गाता गाना.
है अवाम भूखी दे पाता
उसे न खाना.
तोड़ रहा भाई का घर
भाई दीवाना.
मिले आचरण निज सुधार कर-
गले लगें हम जग बिसार कर.....
*******************

दोहा सलिला: मोहन मोह न अब मुझे संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

मोहन मोह न अब मुझे

संजीव 'सलिल'
*
कब अच्छा हो कब बुरा कौन सका है जान?,
समय सगा होता नहीं, कहें सदा मतिमान..

जन्म-मृत्यु  के साथ दे, पीड़ा क्यों भगवान्?
दर्दरहित क्यों है नहीं, उदय और अवसान?

कौन यहाँ बलहीन है?, कौन यहाँ बलवान?
सब में मिट्टी एक सी, बोल पड़ा शमशान..

माटी का तन पा करे, मूरख मन अभिमान.
सो ना, सोना अंत में, जाग-जगा नादान..

मोहन मोह न अब मुझे, दे गीता का ज्ञान.
राग-द्वेष से दूर कर, भुला मान-अपमान..

कौन किसी का सगा है?, कौन पराया-गैर??
सबमें बसता प्रभु वही, चाहो सबकी खैर..

धड़क-धड़क धड़कन बढ़ी, धड़क न दिल हो शांत.
लेने स्वामी आ रहे, मनहर रम्य प्रशांत..


मुरली-धुन पर नाचता, मन-मयूर सुध भूल.
तन तबला सुन थाप दे, मुकुलित आत्मा-फूल..


राधा धारा प्रेम की, मीरा-प्रेम-प्रणाम.
प्रेम विदुरिनी का नमन, कृष्णा-प्रेम अनाम..

ममता जसुदा की विमल, अचल देवकी-मोह.
सुतवत्सल कुब्जा तृषित, कुंती करुणा छोह..


भक्ति पार्थ की शुचि अटल, गोप-भक्ति अनुराग.

भीष्म-भक्ति संकल्प दृढ़, कर्ण-भक्ति हवि-आग..


******************************

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

आलेख: शब्दों की सामर्थ्य - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

आलेख :

शब्दों की सामर्थ्य  - 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'




पिछले कुछ दशकों से यथार्थवाद के नाम पर साहित्य में अपशब्दों के खुल्लम खुल्ला प्रयोग का चलन बढ़ा है. इसके पीछे दिये जाने वाले तर्क २ हैं: प्रथम तो यथार्थवाद अर्थात रचना के पात्र जो भाषा प्रयोग करते हैं उसका प्रयोग और दूसरा यह कि समाज में इतनी गंदगी आचरण में है कि उसके आगे इन शब्दों की बिसात कुछ नहीं. सरसरी तौर से सही दुखते इन दोनों तर्कों का खोखलापन चिन्तन करते ही सामने आ जाता है.


हम जानते हैं कि विवाह के पश्चात् नव दम्पति वे बेटी-दामाद हों या बेटा-बहू शयन कक्ष में क्या करनेवाले हैं? यह यथार्थ है पर क्या इस यथार्थ का मंचन हम मंडप में देखना चाहेंगे? कदापि नहीं, इसलिए नहीं कि हम अनजान या असत्यप्रेमी पाखंडी हैं, अथवा नव दम्पति कोई अनैतिक कार्य करेने जा रहे होते हैं अपितु इसलिए कि यह मानवजनित शिष्ट, सभ्यता और संस्कारों का तकाजा है. नव दम्पति की एक मधुर चितवन ही उनके अनुराग को व्यक्त कर देती है. इसी तरह रचना के पत्रों की अशिक्षा, देहातीपन अथवा अपशब्दों के प्रयोग की आदत का संकेत बिना अपशब्दों का प्रयोग किए भी किया जा सकता है. रचनाकार की शब्द सामर्थ्य तभी ज्ञात होती है जब वह अनकहनी को बिना कहे ही सब कुछ कह जाता है, जिनमें यह सामर्थ्य नहीं होती वे रचनाकार अपशब्दों का प्रयोग करने के बाद भी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाते जो अपेक्षित है.

दूसरा तर्क कि समाज में शब्दों से अधिक गन्दगी है, भी इनके प्रयोग का सही आधार नहीं है. साहित्य का सृजन करें के पीछे साहित्यकार का लक्ष्य क्या है? सबका हित समाहित करनेवाला सृजन ही साहित्य है. समाज में व्याप्त गन्दगी और अराजकता से क्या सबका हित, सार्वजानिक हित सम्पादित होता है? यदि होता तो उसे गन्दा नहीं माना जाता. यदि नहीं होता तो उसकी आंशिक आवृत्ति भी कैसे सही कही जा सकती है? गन्दगी का वर्णन करने पर उसे प्रोत्साहन मिलता है.

समाचार पात्र रोज भ्रष्टाचार के समाचार छापते हैं... पर वह घटता नहीं, बढ़ता जाता है. गन्दगी, वीभत्सता, अश्लीलता की जितनी अधिक चर्चा करेंगे उतने अधिक लोग उसकी ओर आकृष्ट होंगे. इन प्रवृत्तियों की नादेखी और अनसुनी करने से ये अपनी मौत मर जाती हैं. सतर्क करने के लिये संकेत मात्र पर्याप्त है.

तुलसी ने असुरों और सुरों के भोग-विलास का वर्णन किया है किन्तु उसमें अश्लीलता नहीं है. रहीम, कबीर, नानक, खुसरो अर्थात हर सामर्थ्यवान और समयजयी रचनाकार बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता हैं और पाठक, चिन्तक, समलोचालक उसके लिखे के अर्थ बूझते रह जाते हैं. समस्त टीका शास्त्र और समीक्षा शास्त्र रचनाकार की शब्द सामर्थ्य पर ही टिका है.

अपशब्दों के प्रयोग के पीछे सस्ती और तत्कालिल लोकप्रियता पाने या चर्चित होने की मानसिकता भी होती है. रचनाकार को समझना चाहिए कि साथी चर्चा किसी को साहित्य में अजर-अमर नहीं बनाती. आदि काल से कबीर, गारी और उर्दू में हज़ल कहने का प्रचलन रहा है किन्तु इन्हें लिखनेवाले कभी समादृत नहीं हुए. ऐसा साहित्य कभी सार्वजानिक प्रतिष्ठा नहीं पा सका. ऐसा साहित्य चोरी-चोरी भले ही लिखा और पढ़ा गया हो, चंद लोगों ने भले ही अपनी कुण्ठा अथवा कुत्सित मनोवृत्ति को संतुष्ट अनुभव किया हो किन्तु वे भी सार्वजनिक तौर पर इससे बचते ही रहे.

प्रश्न यह है कि साहित्य रच ही क्यों जाता है? साहित्य केवल मनुष्य ही क्यों रचता है?

केवल मनुष्य ही साहित्य रचता है चूंकि ध्वनियों को अंकित करने की विधा (लिपि) उसे ही ज्ञात है. यदि यही एकमात्र कारण होता तो शायद साहित्य की वह महत्ता न होती जो आज है. ध्वन्यांकन के अतिरिक्त साहित्य की महत्ता श्रेष्ठतम मानव मूल्यों को अभिव्यक्त करने, सुरक्षित रखने और संप्रेषित करने की शक्ति के कारण है. अशालीन साहित्य श्रेष्ठतम मूल्यों को नहीं निकृष्टतम मूल्यों को व्यक्त कर्ता है, इसलिए वह सदा त्याज्य माना गया और माना जाता रहेगा.

साहित्य सृजन का कार्य अक्षर और शब्द की आराधना करने की तरह है. माँ, मातृभूमि, गौ माता और धरती माता की तरह भाषा भी मनुष्य की माँ है. चित्रकार हुसैन ने सरस्वती और भारत माता की निर्वस्त्र चित्र बनाकर यथार्थ ही अंकित किया पर उसे समाज का तिरस्कार ही झेलना पड़ा. कोई भी अपनी माँ को निर्वस्त्र देखना नहीं चाहता, फिर भाषा जननी को अश्लीलता से आप्लावित करना समझ से परे है.

सारतः शब्द सामर्थ्य की कसौटी बिना कहे भी कह जाने की वह सामर्थ्य है जो अश्लील को भी श्लील बनाकर सार्वजनिक अभिव्यक्ति का साधन तो बनती है, अश्लीलता का वर्णन किए बिना ही उसके त्याज्य होने की प्रतीति भी करा देती है. इसी प्रकार यह सामर्थ्य श्रेष्ट की भी अनुभूति कराकर उसको आचरण में उतारने की प्रेरणा देती है. साहित्यकार को अभिव्यक्ति के लिये शब्द-सामर्थ्य की साधना कर स्वयं को सामर्थ्यवान बनाना चाहिए न कि स्थूल शब्दों का भोंडा प्रयोग कर साधना से बचने का प्रयास करना चाहिए.

हिंदी शब्द सलिला : १४ 'अग' से प्रारंभ शब्द : १ -- संजीव 'सलिल'

हिंदी शब्द सलिला : १४        संजीव 'सलिल'

*
संकेत : अ.-अव्यय, अर. अरबी, अक्रि.-अकर्मक क्रिया, अप्र.-अप्रचलित, अर्थ.-अर्थशास्त्र, अलं.- अलंकार, अल्प-अल्प (लघुरूप) सूचक, आ.-आधुनिक, आयु.-आयुर्वेद, इ.-इत्यादि, इब.-इबरानी, उ. -उर्दू, उदा.-उदाहरण, उप.-उपसर्ग, उपनि.-उपनिषद, अं.-अंगिका, अंक.-अंकगणित, इ.-इंग्लिश/अंगरेजी, का.-कानून, काम.-कामशास्त्र, क्व.-क्वचित, ग.-गणित, गी.-गीता, गीता.-गीतावली, तुलसी-कृत, ग्रा.-ग्राम्य, ग्री.-ग्रीक., चि.-चित्रकला, छ.-छतीसगढ़ी, छं.-छंद, ज.-जर्मन, जै.-जैन साहित्य, ज्या.-ज्यामिति, ज्यो.-ज्योतिष, तं.-तंत्रशास्त्र, ति.-तिब्बती, तिर.-तिरस्कारसूचक, दे.-देशज, देव.-देवनागरी, ना.-नाटक, न्या.-न्याय, पा.-पाली, पारा.- पाराशर संहिता, पु.-पुराण, पुल.-पुल्लिंग, पुर्त. पुर्तगाली, पुरा.-पुरातत्व, प्र.-प्रत्यय, प्रा.-प्राचीन, प्राक.-प्राकृत, फा.-फ़ारसी, फ्रे.-फ्रेंच, ब.-बघेली, बर.-बर्मी, बहु.-बहुवचन, बि.-बिहारी, बुं.-बुन्देलखंडी, बृ.-बृहत्संहिता, बृज.-बृजभाषा  बो.-बोलचाल, बौ.-बौद्ध, बं.-बांग्ला/बंगाली, भाग.-भागवत/श्रीमद्भागवत, भूक्रि.-भूतकालिक क्रिया, मनु.-मनुस्मृति, महा.-महाभारत, मी.-मीमांसा, मु.-मुसलमान/नी, मुहा. -मुहावरा,  यू.-यूनानी, यूरो.-यूरोपीय, योग.योगशास्त्र, रा.-रामचन्द्रिका, केशवदास-कृत, राम.- रामचरितमानस-तुलसीकृत, रामा.- वाल्मीकि रामायण, रा.-पृथ्वीराज रासो, ला.-लाक्षणिक, लै.-लैटिन, लो.-लोकमान्य/लोक में प्रचलित, वा.-वाक्य, वि.-विशेषण, विद.-विदुरनीति, विद्या.-विद्यापति, वे.-वेदान्त, वै.-वैदिक, व्यं.-व्यंग्य, व्या.-व्याकरण, शुक्र.-शुक्रनीति, सं.-संस्कृत/संज्ञा, सक्रि.-सकर्मक क्रिया, सर्व.-सर्वनाम, सा.-साहित्य/साहित्यिक, सां.-सांस्कृतिक, सू.-सूफीमत, स्त्री.-स्त्रीलिंग, स्मृ.-स्मृतिग्रन्थ, ह.-हरिवंश पुराण, हिं.-हिंदी.     

'अग' से प्रारंभ शब्द : १.

संजीव 'सलिल'
*
अगंड-पु. बिना हाथ-पैर का धड़.
अगंता/तृ - वि. सं. न चलनेवाला, न जानेवाला, स्त्री. अगंत्री.
अग-वि. सं. चलने में असमर्थ, स्थावर, टेढ़ा चलनेवाला, अगम्य, अज्ञ, अज्ञान. पु. पहाड़, पेड़, साँप, सूर्य, घडा, ७ सँख्या, सप्त.--पहाड़ या वृक्ष से पैदा होनेवाला, पहाड़-पहाड़ घूमनेवाला, जंगली, वनचर, वन्य. पु. शिलाजतु, हाथी, गज.-जग-पु. चराचर.-जा-स्त्री. पार्वती.
अगच्छ-वि. सं.जो न चले, अचल. पु. वृक्ष, पर्वत. 
अगट-वि. सं. पु. मांसकी दूकान.
अगटना-अक्रि. एकत्र होना.
अगड़-पु. अकड़, ऐंठ.
अगड़धत्त/अगड़धत्ता-वि. लंबा-तगड़ा, ऊँचा, बढ़ा-चढ़ा.
अगड़बगड़-वि. उलजलूल, बेसिर-पैरका, ऊटपटांग. पु. अंड-बंड काम/बात.
अगड़म-बगड़म-पु. तरह-तरह की चीजों का बेतरतीब ढेर, कबाड़.
अगड़ा/अगड़ी - पु./स्त्री. उच्च वर्ग का/की, पिछड़ा/पिछड़ी का उल्टा.
अगण-पु. सं. पिंगल के चार गण- जगण, तगण, रगण, सगण जजों छंद के आदि में शुभ माने जाते हैं.
अगणन-वि. सं. अगणनीय, असंख्य, अनगिनत.
अगणनीय-वि. सं. देखें अगण्य.
अगणित-वि. सं. अनगिनत, बेहिसाब उ.,-प्रतियात-वि. ध्यान न दिए जाने/उपेक्षित होने/अनदेखी किएजाने के कारण लौटा हुआ.-लज्ज-वि. लज्जा का विचार न करनेवाला, निर्लज्ज, बेशर्म, बेहया. 
अगण्य - वि. सं. असंख्य, तुच्छ, उपेक्षणीय.
अगत - वि. सं. न गया हुआ. आगे चलने हेतु हाथी को आगे बढ़ाने हेतु महावत द्वारा प्रयुक्त किया जानेवाला शब्द. स्त्र. देखें अगति.
अगति - स्त्री. सं. गति का अभाव, पहुँच का न होना, उपाय का अभाव, दुर्दशा, उन्नति का अभाव, प्रगति का रुक जाना, अ. सद्गति मोक्ष-प्राप्ति,-गति-अद्गति मोक्ष की अप्राप्ति, स्थिर पदार्थ. वि. गतिहीन, निरुपाय.
अगतिक - वि. सं. निरुपाय, निराश्रय.-गति-स्त्री. आश्रयहीन का आश्रय, अंतिम आश्रय, ईश्वर.
अगती - वि. सद्गति का अनाधिकारी, कुकर्मी, पापी. पु. पापी मनुष्य. स्त्री एक पौधा जो चरमरोग की दावा है, चकवँड़. वि. पेशगी, अग्रिम, एडवांस इं. अ. पहले से.
अगतीक - वि. सं. जिसपर चलना उचित न हो, कुमार्ग, देखें अगतिक.
अगत्या - अ. सं. आगे चलकर, अंत में, सहसा, अन्य गति/उपाय न रहनेसे, लाचार/बाध्य होकर.
अगदंकार - पु. सं. वैद्य, वैद दे., हकीम उ., डॉक्टर इं.
अगद - वि. सं. नेरोग, स्वस्थ, न बोलनेवाला, बाधारहित. पु. एक औषध, स्वास्थ्य, आरोग्य.-तंत्र-पु. आयुर्वेद के ८ अंगों में से एक जिसमें सर्पादी के दंश की चिकित्सा वर्णित है.-वेद-पु.चिकित्सा-शास्त्र, आयुर्वेद, आयुर्विज्ञान.
                                                                   --- निरंतर.