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बुधवार, 5 मई 2010

मत-अभिमत : स्त्री

women

women are like vehicles, everyone appreciate the outside beauty, but the inner beauty is embraced by her owner. - पायल शर्मा

स्त्री वाहन नहीं, संस्कृति की वाहक है.
मानव मूल्यों की स्त्री ही तो चालक है..
वाहन की चाबी कोई भी ले सकता है.
चाबी लगा घुमा कर उसको खे सकता है.
स्त्री चाबी बना पुरुष को सदा घुमाती.
जब जी चाहे रोके, उठा उसे दौडाती.
विधि-हरि-हर पर शारद-रमा-उमा हावी हैं.
नव दुर्गा बन पुजती स्त्री ही भावी है.
Acharya Sanjiv Salil

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नव विचार : ई मेल एड्रेस का पंजीकरण कानूनी रूप से जरूरी हो --इंजी विवेक रंजन श्रीवास्तव

इंटरनेट से जुड़ी आज की दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति का ई मेल एड्रेस होना एक अनिवार्यता बन चुका है ! ई गवर्नेंस पेपर लैस बैंकिंग तथा रोजमर्रा के विभिन्न कार्यो हेतु कम्प्यूटर व इंटरनेट का उपयोग बढ़ता जा रहा है ! मोबाइल के द्वारा इंटरनेट सुविधा ब्राडबैंड , ३जी सेवाओ आदि की बढ़ती देशव्यापी पहुंच से एवं इनके माध्यम से त्वरित वैश्विक संपर्क सुविधा के कारण अब हर व्यक्ति के लिये ईमेल पता बनाना जरूरी सा हो चला है . नई पीढ़ी की कम्प्यूटर साक्षरता स्कूलो के पाठ्यक्रम के माध्यम से सुनिश्चित हो चली है . समय के साथ अद्यतन रहने के लिये बुजुर्ग पीढ़ी की कम्प्यूटर के प्रति अभिरुचि भी तेजी से बढ़ी है . ई मेल के माध्यम से न केवल टैक्सट वरन , फोटो , ध्वनि , वीडियो इत्यादि भी उतनी ही आसानी से भेजे जाने की तकनीकी सुविधा के चलते ई मेल का महत्व बढ़ता ही जा रहा है .हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओ में साफ्टवेयर की उपलब्धता तथा एक ही मशीन से किसी भी भाषा में काम करने की सुगमता के कारण जैसे जैसे कम्प्यूटर का प्रयोग व उपयोगकर्ताओ की संख्या बढ़ रही है , ई मेल और भी प्रासंगिक होता जा रहा है .ई मेल के माध्यम से सारी दुनियां में किसी भी इंटरनेट से जुड़े हुये कम्प्यूटर पर बैठकर केवल अपने पासवर्ड से ईमेल के द्वारा आप अपनी डाक देख सकते हैं व बिना कोई सामग्री साथ लिये अपने ई मेल एकाउंट में सुरक्षित सामग्री का उपयोग कर पत्राचार कर सकते हैं . यह असाधारण सुविधा तकनीक का , युग को एक वरदान है .

आज लगभग हर संस्थान अपनी वेब साइट स्थापित करता जा रहा है . विजिटंग कार्ड में ई मेल पता , वेब एड्रेस , ब्लाग का पता होना अनिवार्य सा हो चला है .किसी संस्थान का कोई फार्म भरना हो , आपसे आपका ई मेल पता पूछा ही जाता है .हार्ड कापी में जानकारी तभी आवश्यक हो जाती है , जब उसका कोई कानूनी महत्व हो , अन्यथा वेब की वर्चुएल दुनियां में ई मेल के जरिये ही ढ़ेरो जानकारी ली दी जा रही हैं . मीडिया का तो लगभग अधिकांश कार्य ही ई मेल के माध्यम से हो रहा है .

विभिन्न कंपनियां जैसे गूगल , याहू , हाटमेल , रैडिफ , आदि मुफ्त में अपने सर्वर के माध्यम से ई मेल पता बनाने व उसके उपयोग की सुविधा सभी को दे रही हैं .ये कंपनियां आपको वेब पर फ्री स्पेस भी उपलब्ध करवाती हैं , जिसमें आप अपने डाटा स्टोर कर सकते हैं . क्लिक हिट्स के द्वारा इन कंपनियों की साइट की लोकप्रियता तय की जाती है , व तदनुसार ही साइट पर विज्ञापनो की दर निर्धारित होती है जिसके माध्यम से इन कंपनियो को धनार्जन होता हैं .
ई मेल की इस सुविधा के विस्तार के साथ ही इसकी कुछ सीमायें व कमियां भी स्पष्ट हो रही हैं .मुफ्त सेवा होने के कारण हर व्यक्ति लगभग हर प्रोवाइडर के पास मामूली सी जानकारियां भरकर , जिनका कोई सत्यापन नही किया जाता , अपना ई मेल एकाउंट बना लेता है . ढ़ेरो फर्जी ई मेल एकाउंट से साइबर क्राइम बढ़ता ही जा रहा है .वेब पर पोर्नसाइट्स की बाढ़ सी आ गई है. आतंकी गतिविधियों में पिछले दिनो हमने देखा कि ई मेल के ही माध्यम से धमकी दी जाती है या किसी घटना की जबाबदारी मीडिया को मेल भेजकर ही ली गई . यद्यपि वेब आई पी एड्रेस के जरिये आई टी विशेषज्ञो की मदद से पोलिस उस कम्प्यूटर तक पहुंच गई जहां से ऐसे मेल भेजे गये थे , पर इस सब में ढ़ेर सा श्रम , समय व धन नष्ट होता है .चूंकि एक ही कम्प्यूटर अनेक प्रयोक्ताओ के द्वारा उपयोग किया जा सकता है , विशेष रूप से इंटरनेट कैफे , या कार्यालयों में इस कारण इस तरह के साइबर अपराध होने पर व्यक्ति विशेष की जबाबदारी तय करने में बहुत कठिनाई होती है .

अब समय आ गया है कि ई मेल एड्रेस का पंजीकरण कानूनी रूप से जरूरी किया जावे . जब जन्म , मृत्यु , विवाह , ड्राइविंग लाईसेंस ,पैन कार्ड , पासपोर्ट , राशन कार्ड , जैसे ढ़ेरो कार्य समुचित कार्यालयो के द्वारा निर्धारित पंजियन के बाद ही होते हैं तो इंटरनेट पर यह अराजकता क्यो ? ईमेल एकाउंट के पंजियन से धारक का डाक्यूमेंटेड सत्यापन हो सकेगा तथा इसके लिये निर्धारित शुल्क से शासन की अच्छी खासी आय हो सकेगी . पंजियन आवश्यक हो जाने पर लोग नये नये व्यर्थ ईमेल एकाउंट नही बनायेंगे , जिससे वेब स्पेस बचेगी , वेब स्पेस बनाने के लिये जो हार्डवेयर लगता है , उसके उत्पादन से जो पर्यावरण ह्रास हो रहा है वह बचेगा , इस तरह इसके दीर्घकालिक , बहुकोणीय लाभ होंगे . जब ईमेल उपयोगकर्ता वास्तविक हो जायेगा तो उसके द्वारा नेट पर किये गये कार्यो हेतु उसकी जबाबदारी तय की जा सकेगी . हैकिंग से किसी सीमा तक छुटकारा मिल सकेगा . वेब से पोर्नसाइट्स गायब होने लगेंगी , व इससे जुड़े अपराध स्वयमेव नियंत्रित होंगे तथा सैक्स को लेकर बच्चो के चारित्रिक पतन पर कुछ नियंत्रण हो सकेगा .
चूंकि इंटरनेट वैश्विक गतिविधियो का सरल , सस्ता व सुगम संसाधन है , यदि जरूरी हो तो ईमेल पंजियन की आवश्यकता को भारत को विश्व मंच पर उठाना चाहिये , मेरा अनुमान है कि इसे सहज ही विश्व की सभी सरकारो का समर्थन मिलेगा क्योंकि वैश्विक स्तर पर माफिया आतंकी अपराधो के उन्मूलन में भी इससे सहयोग ही मिलेगा .

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मंगलवार, 4 मई 2010

गीत: समर ठन गया... --संजीव 'सलिल'

 गीत:
समर ठन गया...
संजीव 'सलिल'
*
तुमने दंड दिया था मुझको, लेकिन वह वरदान बन गया.
दैव दिया जब पुरस्कार तो, अपनों से ही समर ठन गया...
*
तुम लक्ष्मी के रहे पुजारी, मुझे शारदा-पूजन भाया.
तुम हर अवसर रहे भुनाते, मैंने दामन स्वच्छ बचाया.
चाह तुम्हारी हुई न पूरी, दे-दे तुमको थका विधाता.
हाथ न मैंने कभी पसारे, सहज प्राप्य जो रहा सुहाता.
तीन-पाँच करने में माहिर तुमसे मन मिलता तो कैसे?
लाख जतन कर बचते-बचते, कीचड में था पाँव सन गया...
*
दाल-नमक अनुपात सतासत में रख लो यदि मजबूरी है.
नमक-दाल के आदी तुममें ऐंठ-अकड़ है, मगरूरी है.
ताल-मेल एका चोरों में, होता ही है रहा हमेशा.
टकराते सिद्धांत, न मिलकर चलना होता सच का पेशा.
केर-बेर का साथ निभ रहा, लोकतंत्र की बलिहारी है.
शीश न किंचित झुका शरम से, अहंकार से और तन गया...
*
रेत बढ़ा सीमेंट घटाना, जिसे न आता वह अयोग्य है.
सेवा लक्ष्य नहीं सत्ता का, जन- शासन के लिये भोग्य है.
हँसिया हाथ हथौड़ा हाथी चक्र कमल में रहा न अंतर.
प्राच्य पुरातन मूल्य भूलकर, फूँक रहा पश्चिम का मंतर.
पूज्य न सद्गुण, त्याज्य न दुर्गुण, रावणत्व को आरक्षण है.
देशप्रेम का भवन स्वार्थ की राजनीति से 'सलिल' घुन गया...
*****
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

सोमवार, 3 मई 2010

लघु कथा: जंगल में जनतंत्र - आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

Kaifi
जंगल में चुनाव होनेवाले थे। मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे- 'जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर क़दम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।'

मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके काग़ज़ घर पर दे आया हूँ। ' भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया। मंत्री जी ख़ुश हुए।
तभी उल्लू ने आकर कहा- 'अब तो बहुत धाँसू बोलने लगे हैं। हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखी' और एक लिफ़ाफ़ा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया।
विभिन्न महकमों के अफ़सरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी।
समाजवादी विचार धारा के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफ़ाफ़ों को देखते हुए सोच रहे थे - 'जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद।'

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POEM: ---Farhan Khan


POEM

FARHAN KHAN

Oh! God,
Why the earth had created.
For exploitation, knavery, thievery?
Man is exploited by man.
Man is deceived by man.
Why the earth had created?

Oh! God,
Why the winsome nature had created.

For wreckage, ruination, dilapidation?
Why man has become wrecker for nature?
Why the winsome nature had created?

Oh, God,
I pray for man,
To come in daylight,
From the gloom of night
.
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मुक्तक : माँ के प्रति प्रणतांजलि: संजीव 'सलिल'

माँ के प्रति प्रणतांजलि:

तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.
दोहा गीत गजल कुण्डलिनी, मुक्तक छप्पय रूबाई सी..
मन को हुलसित-पुलकित करतीं, यादें 'सलिल'  डुबातीं दुख में-
होरी गारी बन्ना बन्नी, सोहर चैती शहनाई सी.. 
*
मानस पट पर अंकित नित नव छवियाँ ऊषा अरुणाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी..
प्यार हौसला थपकी घुड़की, आशीर्वाद दिलासा देतीं-
नश्वर जगती पर अविनश्वर विधि-विधना की परछांई सी..
*
उँगली पकड़ सहारा देती, गिरा उठा गोदी में लेती.
चोट मुझे तो दर्द उसे हो, सुखी देखकर मुस्का देती.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी-
'सलिल' अभागा माँ बिन रोता, श्वास -श्वास है रुसवाई सी..
*
जन्म-जन्म तुमको माँ पाऊँ, तब हो क्षति की भरपाई सी.
दूर हुईं जबसे माँ तबसे घेरे रहती तन्हाई सी.
अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*
कौशल्या सी ममता तुममें, पर मैं राम नहीं बन पाया.
लाड़ दिया जसुदा सा लेकिन, नहीं कृष्ण की मुझमें छाया.
मूढ़ अधम मुझको दामन में लिए रहीं तुम निधि पाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*

शनिवार, 1 मई 2010

गीतिका: रहना होगा...... ---आचार्य संजीव 'सलिल'

गीत :
संजीव 'सलिल'
भारतीय जो उसको भारत माता की जय कहना होगा.
सर्व धर्म समभाव मानकर, स्नेह सहित मिल रहना होगा...
*
आरक्षण की राजनीति है त्याज्य करें उन्मूलन मिलकर.
कमल योग्यता का प्रमुदित सौन्दर्य सौंदर्य बिखेरे सर में खिलकर.
नेह नर्मदा निर्मल रहे प्रवाहित हर भारतवासी में-
द्वेष-घृणा के पाषाणों को सिकता बनकर बहना होगा..
*
जाति धर्म भू भाषा भूषा, अंतर में अंतर उपजाते.
भारतीय भारत माता का दस दिश में जयकार गुंजाते.
पूज्य न हो यह भारत जिसको उसे गले से लगा न पाते-
गैर न कोई सब अपने हैं, सबको हँसकर सहना होगा...
*
कंकर-कंकर में शंकर हैं, गद्दारों हित प्रलयंकर हैं.
देश हेती हँस शीश कटाएँ, रण में अरि को अभ्यंकर हैं.
फूट हुई तो पद्मिनियों को फिर जौहर में दहना होगा...
*
******
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

POEM: ---Farhan Khan

POEM:

Farhan Khan

When I feel forlorn,
I feel along with you.
When I feel unknown to the world,
I know you.

You are a constituent of my camouflaged soul?
Who I m and You?
There is no hazy answer,
For being appeased.

This soul is lost in the world,
And wanders with the corporeal body.
Have You forgotten me?
I too strive to learn by heart."

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गीत: जब - तब ... ---आचार्य संजीव 'सलिल'

गीत :
गीत: जब - तब ... ---आचार्य संजीव 'सलिल'
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जब अक्षर का अभिषेक किया,
तब कविता का दीदार मिला.
जब शब्दों की आराधना करी-
तब गीतों का स्वीकार मिला.
 

जब छंद बसाया निज उर में
तब भावों के दर्शन पाये.
जब पर पीड़ा अपनी समझी-
तब जीवन के स्वर मुस्काये.
 

जब वहम अहम् का दूर हुआ
तब अनुरागी मन सूर हुआ.
जब रत्ना ने ठोकर मारी
तब तुलसी जग का नूर हुआ.
 

जब खुद को बिसराया मैंने
तब ही जीवन मधु गान हुआ.
जब विष ले अमृत बाँट दिया
तब मन-मंदिर रसखान हुआ..
 

जब रसनिधि का सुख भोग किया,
तब 'सलिल' अकिंचन दीन हुआ.
जब जस की तस चादर रख दी-
तब हाथ जोड़ रसलीन हुआ..




जब खुद को गँवा दिया मैंने,

तब ही खुद को मैंने पाया.
जब खुदी न मुझको याद रही-
तब खुदा खुदी मुझ तक आया.. 
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ज्योतिष की परीक्षा : पूर्व निर्धारित नाटक - कुछ सवाल --अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल'


ज्योतिष पर प्रतिबन्ध की माँग और विरोध : अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल'



 ज्योतिष की परीक्षा : पूर्व निर्धारित नाटक - कुछ सवाल

* ज्योतिष के विरोधियों का तर्क यह है कि इस विधा का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और यह अंध विश्वास पर आधारित है. यह भी कि इससे आम आदमी भाग्य पर विश्वास कर कर्मठता से दूर होगा. दूसरी ओर ज्योतिष को व्यवसाय बनानेवाले निथालों की जमात खड़ी हो जायेगी जो आम लोगों की सरलता का लाभ लेकर ठगी करेगी तथा इसकी इन्तिहाँ बाल-बलि जैसे प्रकरणों में होगी.
 
* इसमें कोई संदेह नहीं कि इन तर्कों में दम है पर यह भी सच है कि इनमें से कोई भी तर्क अंतिम सच नहीं है.
 
* ज्योतिष को विज्ञानं सम्मत न माननेवालों के पास अपने इस मत के समर्थन में कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है सिवाय इसके कि कुछ ज्योतिषी वह नहीं कर सके जिसका उन्होंने दावा किया था.
 
* सच है कि वे स्वयंभू प्रदर्शनकारी झूठे सिद्ध हुए पर ज्योतिष विधा झूठी सिद्ध नहीं हुई. क्या पूर्व में कई वैज्ञानिकों के प्रयोग असफल तथा बाद में सफल नहीं हुए? यदि असफलता को ही सच-झूठ का अंतिम आधार माना जाये तो कोई उन्नति ही नहीं हो सकेगी.
 
* प्रश्न यह भी है कि जिन्होंने परखने का प्रयास किया उनकी अपनी योग्यता और नीयत कैसी है? क्या वे ज्योतिष को नकारने का पूर्वाग्रह लेकर समूचा आयोजन मात्र इसलिए नहीं कर रहे थे कि उनके कार्यक्रम और चैनल की टी.आर.पी. बढे? हम जानते हैं कि बिग बास, नृत्य और गीत प्रतियोगिता ही नहीं खेल प्रतियोगिताएँ तक धनार्जन के लिये हो रही हैं तथा कब, कहाँ क्या होना है ? यह सब पहले से निर्धारित होता है. यहाँ जीत-हार ही नहीं सच-झूठ भी नकली होता है. ऐसी स्थिति में यह कैसे माना जाये कि ज्योतिष की जड़ खोदने जा रहे महानुभावों की नीयत में खोट नहीं थी? यदि उनका उद्देश्य सही था तो इसके लिये ज्योतिष के विद्वानों को ही परीक्षक क्यों नहीं बनाया गया?
 
* प्रश्न परखे जानेवाले ज्योतिषियों के चयन की विधि तथा योग्यता का भी है. कौन बतायेगा परखे गए लोग वास्तव में विधा के विद्वान थे... केवल अभिनेता ही नहीं. यह कैसे सिद्ध होगा कि यह सब पूर्व निर्धारित नाटक नहीं था जिसके पात्र धन लेकर वह भूमिका निभा रहे थे जो उन्हें दी गयी थी. सच-झूठ को परखने की विधि भी संदेह से परे नहीं है.
 
* विचारणीय यह भी है कि किसी विषय का परीक्षक वही हो सकता जो उस विषय में निष्णात हो. किसी विषय का प्रारंभिक ज्ञान भी न रखनेवाला उस विषय की सार्थकता पर कोई निर्णय कैसे कर सकता है? ज्योतिष की वैज्ञानिकता की परख वे ही कर सकते हैं जो इस विषय के ज्ञाता हैं पर इससे पेट नहीं पालते. ज्योतिष से पेट पालना अपराध नहीं है पर ऐसे जाँचकर्ताओं के निष्कर्ष पर ज्योतिष विरोधी यह कहकर उँगली उठायेंगे कि उन्होंने निजी स्वार्थवश ज्योतिष के पक्ष में फैसला दिया.
 
* दूरदर्शन पर जिन्होंने भी ज्योतिष को झूठा सिद्ध करनेवाले ये भोंडे कार्यक्रम देखे होंगे उन्हें पहले ही आभास हो जाता होगा कि जो किया और कराया जा रहा है उसका परिणाम क्या होगा? इसी से सिद्ध होता है कि यह सब पूर्व नियोजित और सुविचारित था. * अंध श्रद्धा उन्मूलन के नाम पर सदियों से स्थापित किसी विषय और विधा की जड़ों में मठा डालकर गर्वित होने का भ्रम वही पाल सकता है जो नादान या स्वार्थप्रेरित हो.
* एक और बिंदु विचारणीय है कि क्या ज्योतिष को केवल सनातन धर्मी मानते हैं? इस्लाम के अनुयायी नजूमियों को स्वीकारते है. ईसाई भी ज्योतिष पर विश्वास करते हैं पर ज्योतिष को परखने के नाम पर केवल सनातनधर्मी ज्योतिषी परखे गए क्योंकि सनातनधर्मी ही सहिष्णु हैं. यदि निष्पक्षतापूर्वक ज्योतिष को परखा जाना था तो सभी प्रकार के ज्योतिषियों की परीक्षा विषय के विद्वान् विषयसम्मत तरीके से लेते.
 
* ज्योतिष के विविध अंग तथा उपांग हैं. हस्त रेखा, पद रेखा, मस्तक रेखा, शारीरिक गठन, कुण्डली, शगुन विद्या, प्रश्नोत्तर विद्या आदि अनेक ज्ञात-अज्ञात पक्ष हैं ज्योतिष के... समस्या की पहचान तथा निदान के अनेक उपायों में से किन्हें और क्यों चुना गया? इसका आधार क्या था? जिन्हें चुद दिया गया उसके पीछे क्या कारण और धरना है? छोडी गयी दिशों को सही माना गया या एक-के बाद एक उन को भी झूठा सिद्ध किया जाएगा? यह प्रश्न अनुत्तरित है.
 
* इस समस्त चर्चा का उद्देश्य मात्र इतना है कि दूरदर्शनी मनोरंजक कार्यक्रमों को प्रमाण नहीं माना जा सकता. ऐसे कार्यक्रम उद्देश्य विशेष से बनाये और दिखाए जाते हैं. भारत शासन ने इन कुछ कार्यक्रमों के कारण सदियों से परखी और स्वीकारी गयी ज्योतिष विद्या पर प्रतिबन्ध लगाने की दुर्बुद्धिपूर्ण माँग को अस्वीकार कर एक सही निर्णय लिया है जिसे आम लोगों द्वारा सराहा जाना जरूरी है. ज्योतिषप्रेमियों को इस निर्णय हेतु भारत सरकार को धन्यवाद देना चाहिए और सम्बंधित मत्रियों औए अधिकारियों को साधुवाद देना चाहिए. किसी सही निर्णय को समय पर ना सराहा जाये तो उसका औचित्य शंकास्पद हो जाता है.
 
* दिव्य नर्मदा परिवार तहे-दिल से ज्योतिष पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग को ठुकराने के निर्णय के साथ है तथा निर्णयकर्ताओं के प्रति आभार व्यक्त करता है.

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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम
कविता:
 

सारे जग को अपना माने...
 

संजीव 'सलिल'
*
जब अपनी पहचान न हो तो सारे जग को अपना मानें,
'खलिश' न हो, पहचान न होने की, हमको किंचित दीवाने..

'गौतम' तम् सब जग का पीकर, सबको बाँट सका उजियारा.
'राजरिशी' थे जनक, विरागी-अनुरागी सब पर निज वारा..

बहुत 'बहादुर' थीं 'शकुंतला', शाप सहा प्रिय ध्यान न छोड़ा.

दुर्वासा का अहम् गलित कर, प्रिय को फिर निज पथ पर मोड़ा..

'श्री प्रकाश' दे तो जीवन पर, छाती नहीं अमावस काली.
आस्था हो जाती 'शार्दूला', 'आहुति' ले आती खुशहाली..

मन-'महेश' 'आनंद कृष्ण' बन, पूनम की आरती उतारे.

तन हो जब 'राकेश', तभी जीवन-श्वासें हों बंदनवारे..

'अभिनव' होता जब 'प्रताप', तब 'सिंह' जैसे गर्जन मन करता.

मोह न होता 'मोहन' को, मद न हो- 'मदन' को शिव भी वरता..

भीतर-बाहर बने एक जब, तब 'अरविन्द' 'सलिल' में खिलता.

तन-मन बनते दीपक-बाती, आत्मप्रकाश जगत को मिलता..

परिचय और अपरिचय का क्या, बिंदु सिन्धु में मिल जानी है.
जल वाष्पित हो मेघ बने फिर 'सलिल' धार जल हो जानी है..

'प्रतिभा' भासित होती तब जब, आत्म ज्योति निश-दिन मन बाले.

 कह न पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले..

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Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com



गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

रासलीला : संजीव 'सलिल'

रासलीला :

संजीव 'सलिल'

*
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.

झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.

कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.

अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.

नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.

खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.

कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.

सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.

चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.

अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.

भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.

कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?

पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?

कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?

क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?

कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाये.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाये.

जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?

ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?

थाप में आलाप कब देता सुनायी?
हर किसी में आप वह देता दिखायी?

अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?

कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?

कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?

कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.

भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?

द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?

कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?

अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.

नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.

आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.

अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् में दिगंत जैसे था समाया.

कंकरों में शंकरों का वास देखा.
और रज में आज बृज ने हास देखा.

मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.

रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.

रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.

रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.

रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.

रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.

रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..

रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.

राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.
साधिका सब को नचातीं जाँचती थीं. 

'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्रीबांकेबिहारी.

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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

एक चैट चर्चा: चर्चाकार : संजय भास्कर-संजीव 'सलिल'

एक चैट चर्चा:
चर्चाकार : संजय भास्कर-संजीव 'सलिल'

Sanjay: ram ram ji
 5:52 PM बजे बुधवार को प्रेषित
Sanjay: NAMASKAR JI
मैं: nmn nayee rachnayen dekheen kya?
Sanjay: RAAT KO FURSAT SE DEKHUNGA..............
AAP YE DEKHEN CHOTI SI RACHNAAA
जारी है अभी
सिलसिला
सरहदों पर
http://sanjaybhaskar.blogspot.com/2010/04/blog-post_28.html
 6:22 PM बजे बुधवार को प्रेषित


मैं: हद सर करती है हमें
हद को कैसे सर करें
कोई यह बतलाये?
Acharya Sanjiv Salil

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 6:26 PM बजे बुधवार को प्रेषित
मैं: रमे रमा में सब मिले, राम न चाहे कोई
'सलिल' राम की चाह में काम बिसर गयो मोई


Sanjay: ARE WAHHHHHHHH
 6:29 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..

Sanjay: AAP TO GURU HO
 6:33 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख.
चाह कहाँ कितनी रही, करले इसका लेख..

 6:36 PM बजे बुधवार को प्रेषित
Sanjay: nice


मैं: गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल.
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..

Sanjay: KYA BAAT HAI LAJWAAB
 6:39 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब.
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब..

Sanjay: BHASKAR TO DOBEGA ही

मैं: डूबेगा तो उगेगा, भास्कर ले नव भोर.
पंछी कलरव करेंगे, मनुज करेंगे शोर..


Sanjay: EK SE BADH KAR EK
 6:41 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: एक-एक से बढ़ चलें, पग लें मंजिल जीत.
बाधा माने हार जग, गाये जय के गीत..


Sanjay: ......... बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

मैं: कौन कहाँ प्रस्तुत हुआ?, और अप्रस्तुत कौन?
जब भी पूछा प्रश्न यह, उत्तर पाया मौन..
 6:46 PM बजे बुधवार को प्रेषित
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मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

नवगीत: परिवर्तन तज, चेंज चाहते ... --संजीव 'सलिल'

*
परिवर्तन तज, चेंज चाहते 
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
मठा-महेरी बिसर गए हैं,
गुझिया-घेवर से हो दूर..
नूडल-डूडल के दीवाने-
पाले कब्ज़ हुए बेनूर..
लस्सी अमरस शरबत पन्हा,
जलजीरा की चाह नहीं.
ड्रिंक सोफ्ट या कोल्ड हाथ में,
घातक है परवाह नहीं.
रोती छोडो, ब्रैड बुलाओ,
बनो आधुनिक खाओ केक.
परिवर्तन तज, चेंज चाहते
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
नृत्य-गीत हैं बीती बातें,
डांसिंग-सिंगिंग की है चाह.
तज अमराई पार्क जा रहे,
रोड बनायें, छोड़ें राह..
ताज़ा जल तज मिनरल वाटर
पियें पहन बरमूडा रोज.
कच्छा-चड्डी क्यों पिछड़ापन
कौन करेगा इस पर खोज?
धोती-कुरता नहीं चाहिये
पैंटी बिकनी है फैशन,
नोलेज के पीछे दीवाने,
नहीं चाहिए बुद्धि-विवेक.
परिवर्तन तज, चेंज चाहते
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
दिया फेंक कैंडल ले आये,
पंखा नहीं फैन के फैन.
रंग लगें बदरंग कलर ने
दिया टेंशन, छीना चैन.
खतो-किताबत है ज़हालियत
प्रोग्रेस्सिव चलभाष हुए,
पोड कास्टिंग चैट ब्लॉग के
ह्यूमन खुद ही दास हुए.
पोखर डबरा ताल तलैयाँ
पूर, बनायें नकली लेक.
परिवर्तन तज, चेंज चाहते
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

गीतिका: झुलस रहा गाँव ... ---आचार्य संजीव 'सलिल'


नवगीत :
झुलस रहा गाँव 
संजीव 'सलिल'
*
झुलस रहा गाँव  
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा हुआ है माल में नक़ल..

गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..

'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

Acharya Sanjiv Salil

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मुक्तिका: ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो --संजीव 'सलिल'

आज की रचना :                                                                                                                                                                   

संजीव 'सलिल'

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ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..

जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..

वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..

रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..

दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी.. 
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

नवगीत: मत हो राम अधीर...... --संजीव 'सलिल'

*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, आभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिल्न, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल परस नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.

अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.

सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निरमा नीर.....
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil

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रविवार, 25 अप्रैल 2010

विशेष लेख: कविता में छंदानुशासन --संजीव 'सलिल'

विशेष लेख:  
कविता में छंदानुशासन  
--संजीव 'सलिल'
*
शब्द ब्रम्ह में अक्षर, अनादि, अनंत, असीम और अद्भुत सामर्थ्य होती है. रचनाकार शब्द ब्रम्ह के प्रागट्य  का माध्यम मात्र होता है. इसीलिए सनातन प्राच्य परंपरा में प्रतिलिपि के अधिकार (कोपी राइट) की अवधारणा ही नहीं है. श्रुति-स्मृति, वेदादि के रचयिता मन्त्र दृष्टा हैं, मन्त्र सृष्टा नहीं. दृष्टा उतना ही देख और देखे को बता सकेगा जितनी उसकी क्षमता होगी.

रचना कर्म अपने आपमें जटिल मानसिक प्रक्रिया है. कभी कथ्य, कभी भाव रचनाकार को प्रेरित करते है.कि वह 'स्व' को 'सर्व' तक पहुँचाने के लिए अभिव्यक्त हो. रचना कभी दिल(भाव) से होती है कभी दिमाग(कथ्य) से. रचना की विधा का चयन कभी रचनाकार अपने मन से करता है कभी किसी की माँग पर. शिल्प का चुनाव भी परिस्थिति पर निर्भर होता है. किसी चलचित्र के लिए परिस्थिति के अनुरूप संवाद या पद्य रचना ही होगी लघु कथा, हाइकु या अन्य विधा सामान्यतः उपयुक्त नहीं होगी.

गजल का अपना छांदस अनुशासन है. पदांत-तुकांत, समान पदभार और लयखंड की द्विपदियाँ तथा कुल १२ लयखंड गजल की विशेषता है. इसी तरह रूबाई के २४ औजान हैं कोई चाहे और गजल या रूबाई की नयी बहर या औजान रचे भी तो उसे मान्यता नहीं मिलेगी. गजल के पदों का भार (वज्न) उर्दू में तख्ती के नियमों के अनुसार किया जाता है जो कहीं-कहीं हिन्दी की मात्र गणना से साम्य रखता है कहीं-कहीं भिन्नता. गजल को हिन्दी का कवि हिन्दी की काव्य परंपरा और पिंगल-व्याकरण के अनुरूप लिखता है तो उसे उर्दू के दाना खारिज कर देते हैं. गजल को ग़ालिब ने 'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' इसी लिए कहा कि वे इस विधा को बचकाना लेखन समझते थे जिसे सरल होने के कारण सब समझ लेते हैं. विडम्बना यह कि ग़ालिब ने अपनी जिन रचनाओं को सर्वोत्तम मानकर फारसी में लिखा वे आज बहुत कम तथा जिन्हें कमजोर मानकर उर्दू में लिखा वे आज बहुत अधिक चर्चित हैं.

गजल का उद्भव अरबी में 'तशीबे' (संक्षिप्त प्रेम गीत) या 'कसीदे' (रूप/रूपसी की प्रशंसा) से तथा उर्दू में 'गजाला चश्म (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप से हुआ कहा जाता है. अतः, नाज़ुक खयाली गजल का लक्षण हो यह स्वाभाविक है. हिन्दी-उर्दू के उस्ताद अमीर खुसरो ने गजल को आम आदमी और आम ज़िंदगी से बावस्ता किया. इस चर्चा का उद्देश्य मात्र यह कि हिन्दी में ग़ज़ल को उर्दू से भिन्न भाव भूमि तथा व्याकरण-पिंगल के नियम मिले, यह अपवाद स्वरूप हो सकता है कि कोई ग़ज़ल हिन्दी और उर्दू दोनों के मानदंडों पर खरी हो किन्तु सामान्यतः ऐसा संभव नहीं. हिन्दी गजल और उर्दू गजल में अधिकांश शब्द-भण्डार सामान्य होने के बावजूद पदभार-गणना के नियम भिन्न हैं, समान पदांत-तुकांत के नियम दोनों में मान्य है. उर्दू ग़ज़ल १२ बहरों के आधार पर कही जाती है जबकि हिन्दी गजल हिन्दी के छंदों के आधार पर रची जाती है. दोहा गजल में दोहा तथा ग़ज़ल और हाइकु ग़ज़ल में हाइकु और ग़ज़ल दोनों के नियमों का पालन होना अनिवार्य है किन्तु उर्दू ग़ज़ल में नहीं.

हिन्दी के रचनाकारों को समान पदांत-तुकांत की हर रचना को गजल कहने से बचना चाहिए. गजल उसे ही कहें जो गजल के अनुरूप हो. हिन्दी में सम पदांत-तुकांत की रचनाओं को मुक्तक कहा जाता है क्योकि हर द्विपदी अन्य से स्वतंत्र (मुक्त) होती है. डॉ. मीरज़ापुरी ने इन्हें प्रच्छन्न हिन्दी गजल कहा है. विडम्बनाओं को उद्घाटित कर परिवर्तन और विद्रोह की भाव भूमि पर रची गयी गजलों को 'तेवरी' नाम दिया गया है.

एक प्रश्न यह कि जिस तरह हिन्दी गजलों से काफिया, रदीफ़ तथा बहर की कसौटी पर खरा उतरने की उम्मीद की जाती है वैसे ही अन्य भाषाओँ (अंग्रेजी, बंगला, रूसी, जर्मन या अन्य) की गजलों से की जाती है या अन्य भाषाओँ की गजलें इन कसौटियों पर खरा उतरती हैं? अंग्रेजी की ग़ज़लों में  पद के अंत में उच्चारण नहीं हिज्जे (स्पेलिंग) मात्र मिलते हैं लेकिन उन पर कोई आपत्ति नहीं होती. डॉ. अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल सन्ग्रह 'ऑफ़ एंड ओन' की रचनाओं में पदांत तो समान है पर लयखंड समान नहीं हैं.

हिन्दी में दोहा ग़ज़लों में हर मिसरे का कुल पदभार तो समान (१३+११) x२ = ४८ मात्रा होता है पर दोहे २३ प्रकारों में से किसी भी प्रकार के हो सकते हैं. इससे लयखण्ड में  भिन्नता आ जाती है. शुद्ध दोहा का प्रयोग करने पर हिन्दी दोहा ग़ज़ल में हर मिसरा समान पदांत का होता है जबकि उर्दू गजल के अनुसार चलने पर दोहा के दोनों पद सम तुकान्ती नहीं रह जाते. किसे शुद्ध माना जाये, किसे ख़ारिज किया जाये? मुझे लगता है खारिज करने का काम समय को करने दिया जाये. हम सुधार के सुझाव देने तक सीमित रहें तो बेहतर है.

गीत का फलक गजल की तुलना में बहुत व्यापक है. 'स्थाई' तथा 'अंतरा' में अलग-अलग लय खण्ड हो सकते है और समान भी किन्तु गजल में हर शे'र और हर मिसरा समान लयखंड और पदभार का होना अनिवार्य है. किसे कौन सी विधा सरल लगती है और कौन सी सरल यह विवाद का विषय नहीं है, यह रचनाकार के कौशल पर निर्भर है. हर विधा की अपनी सीमा और पहुँच है. कबीर के सामर्थ्य ने दोहों को साखी बना दिया. गीत, अगीत, नवगीत, प्रगीत, गद्य गीत और अन्य अनेक पारंपरिक गीत लेखन की तकनीक (शिल्प) में परिवर्तन की चाह के द्योतक हैं. साहित्य में ऐसे प्रयोग होते रहें तभी कुछ नया होगा. दोहे के सम पदों की ३ आवृत्तियों, विषम पदों की ३ आवृत्तियों, सम तह विषम पदों के विविध संयोजनों से नए छंद गढ़ने और उनमें रचने के प्रयोग भी हो रहे हैं.

हिन्दी कवियों में प्रयोगधर्मिता की प्रवृत्ति ने निरंतर सृजन के फलक को नए आयाम दिए हैं किन्तु उर्दू में ऐसे प्रयोग ख़ारिज करने की मनोवृत्ति है. उर्दू में 'इस्लाह' की परंपरा ने बचकाना रचनाओं को सीमित कर दिया तथा उस्ताद द्वारा संशोधित करने पर ही प्रकाशित करने के अनुशासन ने सृजन को सही दिशा दी  जबकि हिन्दी में कमजोर रचनाओं की बाढ़ आ गयी. अंतरजाल पर अराजकता की स्थिति है. हिन्दी को जानने-समझनेवाले ही अल्प संख्यक हैं तो स्तरीय रचनाएँ अनदेखी रह जाने या न सराहे जाने की शिकायत है. शिल्प, पिंगल आदि की दृष्टि से नितांत बचकानी रचनाओं पर अनेक टिप्पणियाँ तथा स्तरीय रचनाओं पर टिप्पणियों के लाले पड़ना दुखद है.

छंद मुक्त रचनाओं और छन्दहीन रचनाओं में भेद ना हो पाना भी अराजक लेखन का एक कारण है. छंद मुक्त रचनाएँ लय और भाव के कारण एक सीमा में गेय तथा सरस होती है. वे गीत परंपरा में न होते हुए भी गीत के तत्व समाहित किये होती हैं. वे गीत के पुरातन स्वरूप में परिवर्तन से युक्त होती हैं,  किन्तु छंदहीन रचनाएँ नीरस व गीत के शिल्प तत्वों से रहित बोझिल होती हैं.               

हिंद युग्म पर 'दोहा गाथा सनातन' की कक्षाओं और गोष्ठियों के ६५ प्रसंगों तथा साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचना शास्त्र' में अलंकारों पर ५८ प्रसंगों में मैंने अनुभव किया है कि पाठक को गंभीर लेखन में रुची नहीं है. समीक्षात्मक गंभीर लेखन हेतु कोई मंच हो तो ऐसे लेख लिखे जा सकते हैं.

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Acharya Sanjiv Salil

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भोजपुरी के संग: दोहे के रंग ---संजीव 'सलिल'

भोजपुरी के संग: दोहे के रंग

संजीव 'सलिल'

भइल किनारे जिन्दगी, अब के से का आस?
ढलते सूरज बर 'सलिल', कोउ न आवत पास..
*
अबला जीवन पड़ गइल, केतना फीका आज.
लाज-सरम के बेंच के, मटक रहल बिन काज..
*
पुड़िया मीठी ज़हर की, जाल भीतरै जाल.
मरद नचावत  अउरतें, झूमैं दै-दै ताल..
*
कवि-पाठक के बीच में, कविता बड़का सेतु.
लिखे-पढ़े आनंद बा, सब्भई जोड़े-हेतु..
*
रउआ लिखले सत्य बा, कहले दूनो बात.
मारब आ रोवन न दे, अजब-गजब हालात..
*
पथ ताकत पथरा गइल, आँख- न  दरसन दीन.
मत पाकर मतलब सधत, नेता भयल विलीन..
*
हाथ करेजा पे धइल, खोजे आपन दोष.
जे नर ओकरा सदा ही, मिलल 'सलिल' संतोष..
*
मढ़ि के रउआ कपारे, आपन झूठ-फरेब.
लुच्चा बाबा बन गयल, 'सलिल' न छूटल एब..
*
कवि कहsतानी जवन ऊ, साँच कहाँ तक जाँच?
सार-सार के गह 'सलिल', झूठ-लबार न बाँच..
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

माँ को दोहांजलि: संजीव 'सलिल

माँ को दोहांजलि:

संजीव  'सलिल'

माँ गौ भाषा मातृभू, प्रकृति का आभार.
श्वास-श्वास मेरी ऋणी, नमन करूँ शत बार..

भूल मार तज जननि को, मनुज कर रहा पाप.
शाप बना जेवन 'सलिल', दोषी है सुत आप..

दो माओं के पूत से, पाया गीता-ज्ञान.
पाँच जननियाँ कह रहीं, सुत पा-दे वरदान..

रग-रग में जो रक्त है, मैया का उपहार.
है कृतघ्न जो भूलता, अपनी माँ का प्यार..

माँ से, का, के लिए है, 'सलिल' समूचा लोक.
मातृ-चरण बिन पायेगा, कैसे तू आलोक?

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम