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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

POEM: ---Farhan Khan

POEM:

Farhan Khan

When I feel forlorn,
I feel along with you.
When I feel unknown to the world,
I know you.

You are a constituent of my camouflaged soul?
Who I m and You?
There is no hazy answer,
For being appeased.

This soul is lost in the world,
And wanders with the corporeal body.
Have You forgotten me?
I too strive to learn by heart."

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गीत: जब - तब ... ---आचार्य संजीव 'सलिल'

गीत :
गीत: जब - तब ... ---आचार्य संजीव 'सलिल'
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जब अक्षर का अभिषेक किया,
तब कविता का दीदार मिला.
जब शब्दों की आराधना करी-
तब गीतों का स्वीकार मिला.
 

जब छंद बसाया निज उर में
तब भावों के दर्शन पाये.
जब पर पीड़ा अपनी समझी-
तब जीवन के स्वर मुस्काये.
 

जब वहम अहम् का दूर हुआ
तब अनुरागी मन सूर हुआ.
जब रत्ना ने ठोकर मारी
तब तुलसी जग का नूर हुआ.
 

जब खुद को बिसराया मैंने
तब ही जीवन मधु गान हुआ.
जब विष ले अमृत बाँट दिया
तब मन-मंदिर रसखान हुआ..
 

जब रसनिधि का सुख भोग किया,
तब 'सलिल' अकिंचन दीन हुआ.
जब जस की तस चादर रख दी-
तब हाथ जोड़ रसलीन हुआ..




जब खुद को गँवा दिया मैंने,

तब ही खुद को मैंने पाया.
जब खुदी न मुझको याद रही-
तब खुदा खुदी मुझ तक आया.. 
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ज्योतिष की परीक्षा : पूर्व निर्धारित नाटक - कुछ सवाल --अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल'


ज्योतिष पर प्रतिबन्ध की माँग और विरोध : अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल'



 ज्योतिष की परीक्षा : पूर्व निर्धारित नाटक - कुछ सवाल

* ज्योतिष के विरोधियों का तर्क यह है कि इस विधा का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और यह अंध विश्वास पर आधारित है. यह भी कि इससे आम आदमी भाग्य पर विश्वास कर कर्मठता से दूर होगा. दूसरी ओर ज्योतिष को व्यवसाय बनानेवाले निथालों की जमात खड़ी हो जायेगी जो आम लोगों की सरलता का लाभ लेकर ठगी करेगी तथा इसकी इन्तिहाँ बाल-बलि जैसे प्रकरणों में होगी.
 
* इसमें कोई संदेह नहीं कि इन तर्कों में दम है पर यह भी सच है कि इनमें से कोई भी तर्क अंतिम सच नहीं है.
 
* ज्योतिष को विज्ञानं सम्मत न माननेवालों के पास अपने इस मत के समर्थन में कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है सिवाय इसके कि कुछ ज्योतिषी वह नहीं कर सके जिसका उन्होंने दावा किया था.
 
* सच है कि वे स्वयंभू प्रदर्शनकारी झूठे सिद्ध हुए पर ज्योतिष विधा झूठी सिद्ध नहीं हुई. क्या पूर्व में कई वैज्ञानिकों के प्रयोग असफल तथा बाद में सफल नहीं हुए? यदि असफलता को ही सच-झूठ का अंतिम आधार माना जाये तो कोई उन्नति ही नहीं हो सकेगी.
 
* प्रश्न यह भी है कि जिन्होंने परखने का प्रयास किया उनकी अपनी योग्यता और नीयत कैसी है? क्या वे ज्योतिष को नकारने का पूर्वाग्रह लेकर समूचा आयोजन मात्र इसलिए नहीं कर रहे थे कि उनके कार्यक्रम और चैनल की टी.आर.पी. बढे? हम जानते हैं कि बिग बास, नृत्य और गीत प्रतियोगिता ही नहीं खेल प्रतियोगिताएँ तक धनार्जन के लिये हो रही हैं तथा कब, कहाँ क्या होना है ? यह सब पहले से निर्धारित होता है. यहाँ जीत-हार ही नहीं सच-झूठ भी नकली होता है. ऐसी स्थिति में यह कैसे माना जाये कि ज्योतिष की जड़ खोदने जा रहे महानुभावों की नीयत में खोट नहीं थी? यदि उनका उद्देश्य सही था तो इसके लिये ज्योतिष के विद्वानों को ही परीक्षक क्यों नहीं बनाया गया?
 
* प्रश्न परखे जानेवाले ज्योतिषियों के चयन की विधि तथा योग्यता का भी है. कौन बतायेगा परखे गए लोग वास्तव में विधा के विद्वान थे... केवल अभिनेता ही नहीं. यह कैसे सिद्ध होगा कि यह सब पूर्व निर्धारित नाटक नहीं था जिसके पात्र धन लेकर वह भूमिका निभा रहे थे जो उन्हें दी गयी थी. सच-झूठ को परखने की विधि भी संदेह से परे नहीं है.
 
* विचारणीय यह भी है कि किसी विषय का परीक्षक वही हो सकता जो उस विषय में निष्णात हो. किसी विषय का प्रारंभिक ज्ञान भी न रखनेवाला उस विषय की सार्थकता पर कोई निर्णय कैसे कर सकता है? ज्योतिष की वैज्ञानिकता की परख वे ही कर सकते हैं जो इस विषय के ज्ञाता हैं पर इससे पेट नहीं पालते. ज्योतिष से पेट पालना अपराध नहीं है पर ऐसे जाँचकर्ताओं के निष्कर्ष पर ज्योतिष विरोधी यह कहकर उँगली उठायेंगे कि उन्होंने निजी स्वार्थवश ज्योतिष के पक्ष में फैसला दिया.
 
* दूरदर्शन पर जिन्होंने भी ज्योतिष को झूठा सिद्ध करनेवाले ये भोंडे कार्यक्रम देखे होंगे उन्हें पहले ही आभास हो जाता होगा कि जो किया और कराया जा रहा है उसका परिणाम क्या होगा? इसी से सिद्ध होता है कि यह सब पूर्व नियोजित और सुविचारित था. * अंध श्रद्धा उन्मूलन के नाम पर सदियों से स्थापित किसी विषय और विधा की जड़ों में मठा डालकर गर्वित होने का भ्रम वही पाल सकता है जो नादान या स्वार्थप्रेरित हो.
* एक और बिंदु विचारणीय है कि क्या ज्योतिष को केवल सनातन धर्मी मानते हैं? इस्लाम के अनुयायी नजूमियों को स्वीकारते है. ईसाई भी ज्योतिष पर विश्वास करते हैं पर ज्योतिष को परखने के नाम पर केवल सनातनधर्मी ज्योतिषी परखे गए क्योंकि सनातनधर्मी ही सहिष्णु हैं. यदि निष्पक्षतापूर्वक ज्योतिष को परखा जाना था तो सभी प्रकार के ज्योतिषियों की परीक्षा विषय के विद्वान् विषयसम्मत तरीके से लेते.
 
* ज्योतिष के विविध अंग तथा उपांग हैं. हस्त रेखा, पद रेखा, मस्तक रेखा, शारीरिक गठन, कुण्डली, शगुन विद्या, प्रश्नोत्तर विद्या आदि अनेक ज्ञात-अज्ञात पक्ष हैं ज्योतिष के... समस्या की पहचान तथा निदान के अनेक उपायों में से किन्हें और क्यों चुना गया? इसका आधार क्या था? जिन्हें चुद दिया गया उसके पीछे क्या कारण और धरना है? छोडी गयी दिशों को सही माना गया या एक-के बाद एक उन को भी झूठा सिद्ध किया जाएगा? यह प्रश्न अनुत्तरित है.
 
* इस समस्त चर्चा का उद्देश्य मात्र इतना है कि दूरदर्शनी मनोरंजक कार्यक्रमों को प्रमाण नहीं माना जा सकता. ऐसे कार्यक्रम उद्देश्य विशेष से बनाये और दिखाए जाते हैं. भारत शासन ने इन कुछ कार्यक्रमों के कारण सदियों से परखी और स्वीकारी गयी ज्योतिष विद्या पर प्रतिबन्ध लगाने की दुर्बुद्धिपूर्ण माँग को अस्वीकार कर एक सही निर्णय लिया है जिसे आम लोगों द्वारा सराहा जाना जरूरी है. ज्योतिषप्रेमियों को इस निर्णय हेतु भारत सरकार को धन्यवाद देना चाहिए और सम्बंधित मत्रियों औए अधिकारियों को साधुवाद देना चाहिए. किसी सही निर्णय को समय पर ना सराहा जाये तो उसका औचित्य शंकास्पद हो जाता है.
 
* दिव्य नर्मदा परिवार तहे-दिल से ज्योतिष पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग को ठुकराने के निर्णय के साथ है तथा निर्णयकर्ताओं के प्रति आभार व्यक्त करता है.

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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम
कविता:
 

सारे जग को अपना माने...
 

संजीव 'सलिल'
*
जब अपनी पहचान न हो तो सारे जग को अपना मानें,
'खलिश' न हो, पहचान न होने की, हमको किंचित दीवाने..

'गौतम' तम् सब जग का पीकर, सबको बाँट सका उजियारा.
'राजरिशी' थे जनक, विरागी-अनुरागी सब पर निज वारा..

बहुत 'बहादुर' थीं 'शकुंतला', शाप सहा प्रिय ध्यान न छोड़ा.

दुर्वासा का अहम् गलित कर, प्रिय को फिर निज पथ पर मोड़ा..

'श्री प्रकाश' दे तो जीवन पर, छाती नहीं अमावस काली.
आस्था हो जाती 'शार्दूला', 'आहुति' ले आती खुशहाली..

मन-'महेश' 'आनंद कृष्ण' बन, पूनम की आरती उतारे.

तन हो जब 'राकेश', तभी जीवन-श्वासें हों बंदनवारे..

'अभिनव' होता जब 'प्रताप', तब 'सिंह' जैसे गर्जन मन करता.

मोह न होता 'मोहन' को, मद न हो- 'मदन' को शिव भी वरता..

भीतर-बाहर बने एक जब, तब 'अरविन्द' 'सलिल' में खिलता.

तन-मन बनते दीपक-बाती, आत्मप्रकाश जगत को मिलता..

परिचय और अपरिचय का क्या, बिंदु सिन्धु में मिल जानी है.
जल वाष्पित हो मेघ बने फिर 'सलिल' धार जल हो जानी है..

'प्रतिभा' भासित होती तब जब, आत्म ज्योति निश-दिन मन बाले.

 कह न पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं, निधि नहीं जाती सम्हाले..

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Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com



गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

रासलीला : संजीव 'सलिल'

रासलीला :

संजीव 'सलिल'

*
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.

झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.

कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.

अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.

नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.

खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.

कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.

सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.

चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.

अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.

भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.

कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?

पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?

कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?

क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?

कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाये.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाये.

जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?

ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?

थाप में आलाप कब देता सुनायी?
हर किसी में आप वह देता दिखायी?

अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?

कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?

कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?

कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.

भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?

द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?

कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?

अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.

नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.

आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.

अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् में दिगंत जैसे था समाया.

कंकरों में शंकरों का वास देखा.
और रज में आज बृज ने हास देखा.

मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.

रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.

रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.

रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.

रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.

रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.

रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..

रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.

राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.
साधिका सब को नचातीं जाँचती थीं. 

'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्रीबांकेबिहारी.

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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

एक चैट चर्चा: चर्चाकार : संजय भास्कर-संजीव 'सलिल'

एक चैट चर्चा:
चर्चाकार : संजय भास्कर-संजीव 'सलिल'

Sanjay: ram ram ji
 5:52 PM बजे बुधवार को प्रेषित
Sanjay: NAMASKAR JI
मैं: nmn nayee rachnayen dekheen kya?
Sanjay: RAAT KO FURSAT SE DEKHUNGA..............
AAP YE DEKHEN CHOTI SI RACHNAAA
जारी है अभी
सिलसिला
सरहदों पर
http://sanjaybhaskar.blogspot.com/2010/04/blog-post_28.html
 6:22 PM बजे बुधवार को प्रेषित


मैं: हद सर करती है हमें
हद को कैसे सर करें
कोई यह बतलाये?
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com


 6:26 PM बजे बुधवार को प्रेषित
मैं: रमे रमा में सब मिले, राम न चाहे कोई
'सलिल' राम की चाह में काम बिसर गयो मोई


Sanjay: ARE WAHHHHHHHH
 6:29 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..

Sanjay: AAP TO GURU HO
 6:33 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख.
चाह कहाँ कितनी रही, करले इसका लेख..

 6:36 PM बजे बुधवार को प्रेषित
Sanjay: nice


मैं: गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल.
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..

Sanjay: KYA BAAT HAI LAJWAAB
 6:39 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब.
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब..

Sanjay: BHASKAR TO DOBEGA ही

मैं: डूबेगा तो उगेगा, भास्कर ले नव भोर.
पंछी कलरव करेंगे, मनुज करेंगे शोर..


Sanjay: EK SE BADH KAR EK
 6:41 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: एक-एक से बढ़ चलें, पग लें मंजिल जीत.
बाधा माने हार जग, गाये जय के गीत..


Sanjay: ......... बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

मैं: कौन कहाँ प्रस्तुत हुआ?, और अप्रस्तुत कौन?
जब भी पूछा प्रश्न यह, उत्तर पाया मौन..
 6:46 PM बजे बुधवार को प्रेषित
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मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

नवगीत: परिवर्तन तज, चेंज चाहते ... --संजीव 'सलिल'

*
परिवर्तन तज, चेंज चाहते 
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
मठा-महेरी बिसर गए हैं,
गुझिया-घेवर से हो दूर..
नूडल-डूडल के दीवाने-
पाले कब्ज़ हुए बेनूर..
लस्सी अमरस शरबत पन्हा,
जलजीरा की चाह नहीं.
ड्रिंक सोफ्ट या कोल्ड हाथ में,
घातक है परवाह नहीं.
रोती छोडो, ब्रैड बुलाओ,
बनो आधुनिक खाओ केक.
परिवर्तन तज, चेंज चाहते
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
नृत्य-गीत हैं बीती बातें,
डांसिंग-सिंगिंग की है चाह.
तज अमराई पार्क जा रहे,
रोड बनायें, छोड़ें राह..
ताज़ा जल तज मिनरल वाटर
पियें पहन बरमूडा रोज.
कच्छा-चड्डी क्यों पिछड़ापन
कौन करेगा इस पर खोज?
धोती-कुरता नहीं चाहिये
पैंटी बिकनी है फैशन,
नोलेज के पीछे दीवाने,
नहीं चाहिए बुद्धि-विवेक.
परिवर्तन तज, चेंज चाहते
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
दिया फेंक कैंडल ले आये,
पंखा नहीं फैन के फैन.
रंग लगें बदरंग कलर ने
दिया टेंशन, छीना चैन.
खतो-किताबत है ज़हालियत
प्रोग्रेस्सिव चलभाष हुए,
पोड कास्टिंग चैट ब्लॉग के
ह्यूमन खुद ही दास हुए.
पोखर डबरा ताल तलैयाँ
पूर, बनायें नकली लेक.
परिवर्तन तज, चेंज चाहते
युवा नहीं हैं यंग अनेक.....
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

गीतिका: झुलस रहा गाँव ... ---आचार्य संजीव 'सलिल'


नवगीत :
झुलस रहा गाँव 
संजीव 'सलिल'
*
झुलस रहा गाँव  
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा हुआ है माल में नक़ल..

गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..

'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
********************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

Acharya Sanjiv Salil

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मुक्तिका: ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो --संजीव 'सलिल'

आज की रचना :                                                                                                                                                                   

संजीव 'सलिल'

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ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..

जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..

वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..

रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..

दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी.. 
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

नवगीत: मत हो राम अधीर...... --संजीव 'सलिल'

*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, आभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिल्न, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल परस नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.

अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.

सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निरमा नीर.....
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil

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रविवार, 25 अप्रैल 2010

विशेष लेख: कविता में छंदानुशासन --संजीव 'सलिल'

विशेष लेख:  
कविता में छंदानुशासन  
--संजीव 'सलिल'
*
शब्द ब्रम्ह में अक्षर, अनादि, अनंत, असीम और अद्भुत सामर्थ्य होती है. रचनाकार शब्द ब्रम्ह के प्रागट्य  का माध्यम मात्र होता है. इसीलिए सनातन प्राच्य परंपरा में प्रतिलिपि के अधिकार (कोपी राइट) की अवधारणा ही नहीं है. श्रुति-स्मृति, वेदादि के रचयिता मन्त्र दृष्टा हैं, मन्त्र सृष्टा नहीं. दृष्टा उतना ही देख और देखे को बता सकेगा जितनी उसकी क्षमता होगी.

रचना कर्म अपने आपमें जटिल मानसिक प्रक्रिया है. कभी कथ्य, कभी भाव रचनाकार को प्रेरित करते है.कि वह 'स्व' को 'सर्व' तक पहुँचाने के लिए अभिव्यक्त हो. रचना कभी दिल(भाव) से होती है कभी दिमाग(कथ्य) से. रचना की विधा का चयन कभी रचनाकार अपने मन से करता है कभी किसी की माँग पर. शिल्प का चुनाव भी परिस्थिति पर निर्भर होता है. किसी चलचित्र के लिए परिस्थिति के अनुरूप संवाद या पद्य रचना ही होगी लघु कथा, हाइकु या अन्य विधा सामान्यतः उपयुक्त नहीं होगी.

गजल का अपना छांदस अनुशासन है. पदांत-तुकांत, समान पदभार और लयखंड की द्विपदियाँ तथा कुल १२ लयखंड गजल की विशेषता है. इसी तरह रूबाई के २४ औजान हैं कोई चाहे और गजल या रूबाई की नयी बहर या औजान रचे भी तो उसे मान्यता नहीं मिलेगी. गजल के पदों का भार (वज्न) उर्दू में तख्ती के नियमों के अनुसार किया जाता है जो कहीं-कहीं हिन्दी की मात्र गणना से साम्य रखता है कहीं-कहीं भिन्नता. गजल को हिन्दी का कवि हिन्दी की काव्य परंपरा और पिंगल-व्याकरण के अनुरूप लिखता है तो उसे उर्दू के दाना खारिज कर देते हैं. गजल को ग़ालिब ने 'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' इसी लिए कहा कि वे इस विधा को बचकाना लेखन समझते थे जिसे सरल होने के कारण सब समझ लेते हैं. विडम्बना यह कि ग़ालिब ने अपनी जिन रचनाओं को सर्वोत्तम मानकर फारसी में लिखा वे आज बहुत कम तथा जिन्हें कमजोर मानकर उर्दू में लिखा वे आज बहुत अधिक चर्चित हैं.

गजल का उद्भव अरबी में 'तशीबे' (संक्षिप्त प्रेम गीत) या 'कसीदे' (रूप/रूपसी की प्रशंसा) से तथा उर्दू में 'गजाला चश्म (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप से हुआ कहा जाता है. अतः, नाज़ुक खयाली गजल का लक्षण हो यह स्वाभाविक है. हिन्दी-उर्दू के उस्ताद अमीर खुसरो ने गजल को आम आदमी और आम ज़िंदगी से बावस्ता किया. इस चर्चा का उद्देश्य मात्र यह कि हिन्दी में ग़ज़ल को उर्दू से भिन्न भाव भूमि तथा व्याकरण-पिंगल के नियम मिले, यह अपवाद स्वरूप हो सकता है कि कोई ग़ज़ल हिन्दी और उर्दू दोनों के मानदंडों पर खरी हो किन्तु सामान्यतः ऐसा संभव नहीं. हिन्दी गजल और उर्दू गजल में अधिकांश शब्द-भण्डार सामान्य होने के बावजूद पदभार-गणना के नियम भिन्न हैं, समान पदांत-तुकांत के नियम दोनों में मान्य है. उर्दू ग़ज़ल १२ बहरों के आधार पर कही जाती है जबकि हिन्दी गजल हिन्दी के छंदों के आधार पर रची जाती है. दोहा गजल में दोहा तथा ग़ज़ल और हाइकु ग़ज़ल में हाइकु और ग़ज़ल दोनों के नियमों का पालन होना अनिवार्य है किन्तु उर्दू ग़ज़ल में नहीं.

हिन्दी के रचनाकारों को समान पदांत-तुकांत की हर रचना को गजल कहने से बचना चाहिए. गजल उसे ही कहें जो गजल के अनुरूप हो. हिन्दी में सम पदांत-तुकांत की रचनाओं को मुक्तक कहा जाता है क्योकि हर द्विपदी अन्य से स्वतंत्र (मुक्त) होती है. डॉ. मीरज़ापुरी ने इन्हें प्रच्छन्न हिन्दी गजल कहा है. विडम्बनाओं को उद्घाटित कर परिवर्तन और विद्रोह की भाव भूमि पर रची गयी गजलों को 'तेवरी' नाम दिया गया है.

एक प्रश्न यह कि जिस तरह हिन्दी गजलों से काफिया, रदीफ़ तथा बहर की कसौटी पर खरा उतरने की उम्मीद की जाती है वैसे ही अन्य भाषाओँ (अंग्रेजी, बंगला, रूसी, जर्मन या अन्य) की गजलों से की जाती है या अन्य भाषाओँ की गजलें इन कसौटियों पर खरा उतरती हैं? अंग्रेजी की ग़ज़लों में  पद के अंत में उच्चारण नहीं हिज्जे (स्पेलिंग) मात्र मिलते हैं लेकिन उन पर कोई आपत्ति नहीं होती. डॉ. अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल सन्ग्रह 'ऑफ़ एंड ओन' की रचनाओं में पदांत तो समान है पर लयखंड समान नहीं हैं.

हिन्दी में दोहा ग़ज़लों में हर मिसरे का कुल पदभार तो समान (१३+११) x२ = ४८ मात्रा होता है पर दोहे २३ प्रकारों में से किसी भी प्रकार के हो सकते हैं. इससे लयखण्ड में  भिन्नता आ जाती है. शुद्ध दोहा का प्रयोग करने पर हिन्दी दोहा ग़ज़ल में हर मिसरा समान पदांत का होता है जबकि उर्दू गजल के अनुसार चलने पर दोहा के दोनों पद सम तुकान्ती नहीं रह जाते. किसे शुद्ध माना जाये, किसे ख़ारिज किया जाये? मुझे लगता है खारिज करने का काम समय को करने दिया जाये. हम सुधार के सुझाव देने तक सीमित रहें तो बेहतर है.

गीत का फलक गजल की तुलना में बहुत व्यापक है. 'स्थाई' तथा 'अंतरा' में अलग-अलग लय खण्ड हो सकते है और समान भी किन्तु गजल में हर शे'र और हर मिसरा समान लयखंड और पदभार का होना अनिवार्य है. किसे कौन सी विधा सरल लगती है और कौन सी सरल यह विवाद का विषय नहीं है, यह रचनाकार के कौशल पर निर्भर है. हर विधा की अपनी सीमा और पहुँच है. कबीर के सामर्थ्य ने दोहों को साखी बना दिया. गीत, अगीत, नवगीत, प्रगीत, गद्य गीत और अन्य अनेक पारंपरिक गीत लेखन की तकनीक (शिल्प) में परिवर्तन की चाह के द्योतक हैं. साहित्य में ऐसे प्रयोग होते रहें तभी कुछ नया होगा. दोहे के सम पदों की ३ आवृत्तियों, विषम पदों की ३ आवृत्तियों, सम तह विषम पदों के विविध संयोजनों से नए छंद गढ़ने और उनमें रचने के प्रयोग भी हो रहे हैं.

हिन्दी कवियों में प्रयोगधर्मिता की प्रवृत्ति ने निरंतर सृजन के फलक को नए आयाम दिए हैं किन्तु उर्दू में ऐसे प्रयोग ख़ारिज करने की मनोवृत्ति है. उर्दू में 'इस्लाह' की परंपरा ने बचकाना रचनाओं को सीमित कर दिया तथा उस्ताद द्वारा संशोधित करने पर ही प्रकाशित करने के अनुशासन ने सृजन को सही दिशा दी  जबकि हिन्दी में कमजोर रचनाओं की बाढ़ आ गयी. अंतरजाल पर अराजकता की स्थिति है. हिन्दी को जानने-समझनेवाले ही अल्प संख्यक हैं तो स्तरीय रचनाएँ अनदेखी रह जाने या न सराहे जाने की शिकायत है. शिल्प, पिंगल आदि की दृष्टि से नितांत बचकानी रचनाओं पर अनेक टिप्पणियाँ तथा स्तरीय रचनाओं पर टिप्पणियों के लाले पड़ना दुखद है.

छंद मुक्त रचनाओं और छन्दहीन रचनाओं में भेद ना हो पाना भी अराजक लेखन का एक कारण है. छंद मुक्त रचनाएँ लय और भाव के कारण एक सीमा में गेय तथा सरस होती है. वे गीत परंपरा में न होते हुए भी गीत के तत्व समाहित किये होती हैं. वे गीत के पुरातन स्वरूप में परिवर्तन से युक्त होती हैं,  किन्तु छंदहीन रचनाएँ नीरस व गीत के शिल्प तत्वों से रहित बोझिल होती हैं.               

हिंद युग्म पर 'दोहा गाथा सनातन' की कक्षाओं और गोष्ठियों के ६५ प्रसंगों तथा साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचना शास्त्र' में अलंकारों पर ५८ प्रसंगों में मैंने अनुभव किया है कि पाठक को गंभीर लेखन में रुची नहीं है. समीक्षात्मक गंभीर लेखन हेतु कोई मंच हो तो ऐसे लेख लिखे जा सकते हैं.

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Acharya Sanjiv Salil

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भोजपुरी के संग: दोहे के रंग ---संजीव 'सलिल'

भोजपुरी के संग: दोहे के रंग

संजीव 'सलिल'

भइल किनारे जिन्दगी, अब के से का आस?
ढलते सूरज बर 'सलिल', कोउ न आवत पास..
*
अबला जीवन पड़ गइल, केतना फीका आज.
लाज-सरम के बेंच के, मटक रहल बिन काज..
*
पुड़िया मीठी ज़हर की, जाल भीतरै जाल.
मरद नचावत  अउरतें, झूमैं दै-दै ताल..
*
कवि-पाठक के बीच में, कविता बड़का सेतु.
लिखे-पढ़े आनंद बा, सब्भई जोड़े-हेतु..
*
रउआ लिखले सत्य बा, कहले दूनो बात.
मारब आ रोवन न दे, अजब-गजब हालात..
*
पथ ताकत पथरा गइल, आँख- न  दरसन दीन.
मत पाकर मतलब सधत, नेता भयल विलीन..
*
हाथ करेजा पे धइल, खोजे आपन दोष.
जे नर ओकरा सदा ही, मिलल 'सलिल' संतोष..
*
मढ़ि के रउआ कपारे, आपन झूठ-फरेब.
लुच्चा बाबा बन गयल, 'सलिल' न छूटल एब..
*
कवि कहsतानी जवन ऊ, साँच कहाँ तक जाँच?
सार-सार के गह 'सलिल', झूठ-लबार न बाँच..
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

माँ को दोहांजलि: संजीव 'सलिल

माँ को दोहांजलि:

संजीव  'सलिल'

माँ गौ भाषा मातृभू, प्रकृति का आभार.
श्वास-श्वास मेरी ऋणी, नमन करूँ शत बार..

भूल मार तज जननि को, मनुज कर रहा पाप.
शाप बना जेवन 'सलिल', दोषी है सुत आप..

दो माओं के पूत से, पाया गीता-ज्ञान.
पाँच जननियाँ कह रहीं, सुत पा-दे वरदान..

रग-रग में जो रक्त है, मैया का उपहार.
है कृतघ्न जो भूलता, अपनी माँ का प्यार..

माँ से, का, के लिए है, 'सलिल' समूचा लोक.
मातृ-चरण बिन पायेगा, कैसे तू आलोक?

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

एक घनाक्षरी: फूली-फूली राई...... --पारस मिश्र, शहडोल..

एक घनाक्षरी
पारस मिश्र, शहडोल..
फूली-फूली राई, फिर तीसी गदराई.
बऊराई अमराई रंग फागुन का ले लिया.
मंद-पाटली समीर, संग-संग राँझा-हीर,
ऊँघती चमेली संग फूँकता डहेलिया..
थरथरा रहे पलाश, काँप उठे अमलतास,
धीरे-धीरे बीन सी बजाये कालबेलिया.
आँखिन में हीरकनी, आँचल में नागफनी,
जाने कब रोप गया प्यार का बहेलिया..
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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम  

Acharya Sanjiv Salil

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शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली एक अंतहीन प्रक्रिया है।...Pankaj Agrawal IAS

शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली एक अंतहीन प्रक्रिया है।



हमारे देश में शिक्षा सामान्यतः केवल अच्छी नौकरी पाने का एक माध्यम ही मानी जाती है!‘थ्री इडियट्स‘ फिल्म ने इस विचार के विपरीत आदर्श स्थापित करने का एक छोटा सा प्रयत्न किया है! दरअसल शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली एक अंतहीन प्रक्रिया है। हमारे माननीय सी.एम.डी. पूर्वी क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी जबलपुर श्री पंकज अग्रवाल आई.ए.एस हम सबके लिये प्रेरणा स्त्रोत है।

विगत वर्ष वे मैनेजमेंट में उच्च शिक्षा हेतु विदेश गये थे। ओपन युनिवर्सिटी के कानसेप्ट के अनुरूप नौकरी करते हुये अपने ज्ञान का विस्तार करते रहना आप सब भी सीख सकते है। माननीय सी.एम.डी. महोदय की बिदाई के समय मैंने लिखा था ‘‘हो सके तो लौटकर कहना कि फिर से लौट आना है!‘ आज वे पुनः हमारे बीच है। स्वागत है सर! नई ऊर्जा के साथ, ऊर्जा जगत के नेतृत्व का स्वागत।

हमने उनसे उनके विगत वर्ष के शैक्षिक पाठ्यक्रम के अनुभवो पर बातचीत की, प्रस्तुत है कुछ अंश-

सबसे पहले हमने जानना चाहा कि-

मैनेजमेंट में उच्च शिक्षा लेने की प्रेरणा किस तरह हुई

धीर, गंभीर सहज सरल स्वर में उन्होंने बताया - इंजीनियरिंग की शिक्षा के साथ मैं प्रशासनिक सेवा में हूं। प्रशासनिक मैनेजमेंट की नवीनतम तकनीको के प्रति मेरी गहन रूचि रही है। इंटरनेट विभिन्न सेमीनार इत्यादि के माध्यम से मैं लगातार ज्ञान के विस्तार में रूचि रखता हूं। मेरा मानना है कि शिक्षा से हमारे व्यक्तित्व का सकारात्मक विस्तार होता है। अतः मैंने यह पाठ्यक्रम करने का मन बनाया।

यह कोर्स किस संस्थान से किया जावे इसका निर्णय आपने किस तरह लिया

ली कूएन यू स्कूल आफ पब्लिक पालिसी, सिंगापुर विश्व का एक ऐसा संस्थान है जो कि एशिया के विभिन्न देशो की राजनैतिक, सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों पर फोकस करते हुये यह पाठ्यक्रम चलाता है जिसमें शैक्षिक गतिविधि दो हिस्सों में बंटी हुई है पहले हिस्से में जनवरी से अगस्त तक सिंगापुर में ही क्लासरूम आधारित पाठ्यक्रम होता है। दूसरे चरण में हावर्ड केनली स्कूल यू.एस.ए. में अगस्त से दिसम्बर तक शिक्षार्थी द्वारा चुने गये विषयों पर (इलेक्टिव शिक्षण होता है। यह पाठ्यक्रम वैश्विक स्तर का है एवं अपनी तरह का विशिष्ट है जिसमें विश्व स्तर पर एक्सपोजर के अवसर मिलते है।

आपने आई.आई.टी. से बी.टेक एवं आई.आई.एम. अहमदाबाद से शार्ट टर्म कोर्स भी किया था तो विदेशो की शिक्षण व्यवस्था और भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों की शिक्षण प्रणाली में आपको कोई आधारभूत अंतर लगा वहां आप वैश्विक रूप से विभिन्न देशों के शिक्षार्थियों के बीच रहे आपके विशेष अनुभव-

शिक्षण व्यवस्था में हमारे उच्च शिक्षा संस्थान किसी भी विश्व स्तरीय संस्थान से कम नहीं है आई.आई.एम. एवं वहा की षिक्षण पद्धति समान है सिंगापुर में 8 विभिन्न देषों के 22 षिक्षार्थियों का हमारा ग्रुप था। जब हम दूसरे चरण में हावर्ड केनली स्कूल यू.एस.ए. में थे तब यू.एस. एवं अन्य देषों के 900 छात्रों के बीच, विभिन्न इलेक्टिव विषयों के लिये अलग-अलग ग्रुप थे। अतः विश्व स्तर के श्रेष्ठ लोगों से मिलने उन्हें समझने के अवसर प्राप्त हुये। हावर्ड केनली स्कूल में एवं जो विषेष बात मैने नोट की वह यह थी कि वहां छात्रों के विचारो का सम्मान करने की बहुत अच्छी परम्परा है। वहाँ विषय विषेषज्ञ अपने विचार शिक्षार्थियों पर थोपते नहीं हैं वरन् ‘‘दे आर ओपन टु अवर आइडियाज्‘‘वहां कानसेप्ट बेस्ट शिक्षा है। न केवल उच्च शिक्षा में वरन् वहां स्कूलों में भी सारी शिक्षा प्रणाली प्रेक्टिकल बेस्ड है मेरी बेटी ने वहां ग्रेड फोर (क्लास चार की पढ़ाई की जब उसे इलेक्ट्रिसिटी का पाठ पढ़ाया गया तो उसे प्रयोगशाला में बल्ब बैटरी और तार के साथ प्रयोग करने के लिये छोड दिया गया स्वंय ही बल्ब को जलाकर उसने इलेक्ट्रिसिटी के विषय में प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त किया।

पारिवारिक जिम्मेदारियां कई लोगों को चाहते हुये भी नौकरी में आने के बाद उच्च शिक्षा लेने में बाधा बन जाती है आपके इस पाठ्यक्रम में श्रीमती अग्रवाल व आपकी बिटिया के सहयोग पर आप क्या कहना चाहेंगे

मैं सपरिवार ही पूरे वर्ष अध्ययन कार्य पर रहा । श्रीमती अग्रवाल को अवश्य ही अपने कार्य से एक वर्ष का अवकाश लेना पडा बिटिया छोटी है वह अभी क्लास चार में है। अतः उसकी पढ़ाई वहां दोनों ही स्थानो पर सुगमता से जारी रह सकी। यह अध्ययन का एक वर्ष हम सबके लिये अनेक सुखद चिरस्मरणीय एवं नई-नई यादों का समय रहा है। इस समय में हमने दुनिया का श्रेष्ठ देखा समझा जाना और अनुभव किया । बिना परिवार के सहयोग के यह अध्ययन संभव नहीं था, पर हां किसी को कोई कम्प्रोमाइज नहीं करना पड़ा।

आम कर्मचारियों के नौकरी के साथ उच्च षिक्षा को नौकरी में आर्थिक लाभ से जोड़कर देखने के दृष्टिकोण पर आप क्या कहना चाहेंगे

हमें जीवन में शिक्षा जैसे व्यक्तित्व विकास के संसाधन को केवल आर्थिक दृष्टिकोण से जोडकर नहीं देखना चाहिये। ज्ञान का विस्तार इससे कहीं अधिक महत्तवपूर्ण है। यदि मैनेजमेंट की भाषा में कहे तो इससे हमारी ‘‘मार्केट वैल्यू‘‘ स्वतः सदा के लिये ही बढ़ जाती है जिसके सामने एक-दो इंक्रीमेंट के आर्थिक लाभ नगण्य है।


आपके द्वारा किये गये कोर्स से आपको क्या लाभ लग रहे है

निश्चित ही इस समूचे अनुभव से मेरे आउटलुक में बदलाव आया है, सोचने, समझने तथा क्रियान्वयन के दृष्टिकोण में भारतीय परिपेक्ष्य में पब्लिक मैनेजमेंट के इस पाठ्यक्रम के सकारात्मक लाभ है, जो दीर्धकालिक है।


इस परिपेक्ष्य में हमारे लिये आप क्या संदेष देना चाहेंगे

‘‘आत्म निरीक्षण आवष्यक है। स्वंय अपनी समीक्षा करें। अपने दीर्धकालिक लक्ष्य बनाये और सकारात्मक विचारधारा के लाभ उनकी पूर्ति हेतु संपूर्ण प्रयास करें। इससे आप स्वंय अपने लिये एवं कंपनी के लिये भी अपनी उपयोगिता प्रमाणित कर पायेंगे। इन सर्विस ट्रेनिंग रिफ्रशर कोर्स सेमीनारों में भागीदारी आपको अपडेट रखती है इसी दृष्टिकोण से मैंने कंपनी का ट्रेनिंग सेंटर स्थापित करवाया है हमारे अधिकारियों कर्मचारियों को भी अन्य संस्थानों में समय-समय पर प्रषिक्षण हेतु भेजा जाता है। आवश्यक है कि इस समूचे व्यय का कंपनी के हित में रचनात्मक उपयोग किया जावे, जो आपको ही करना है।‘‘


साक्षात्कार- विवेक रंजन श्रीवास्तव
जबलपुर

नवगीत: निधि नहीं जाती सँभाली...... --संजीव 'सलिल'

नव गीत:
संजीव 'सलिल'
*
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
छोड़ निज जड़ बढ़ रही हैं.
नए मानक गढ़ रही हैं.
नहीं बरगद बन रही ये-
पतंगों सी चढ़ रही हैं.

चाह लेने की असीमित-
किन्तु देने की कंगाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*
नेह-नाते हैं पराये.
स्वार्थ-सौदे नगद भाये.
फेंककर तुलसी घरों में-
कैक्टस शत-शत उगाये..


तानती हैं हर प्रथा पर
अरुचि की झट से दुनाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
*

भूल देना-पावना क्या?
याद केवल चाहना क्या?
बहुत जल्दी 'सलिल' इनको-
नहीं मतलब भावना क्या?

जिस्म की कीमत बहुत है.
रूह की है फटेहाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली...
**********************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

भोजपुरीदोहा सलिला : संजीव 'सलिल'

भोजपुरीदोहा सलिला :

संजीव 'सलिल'

दोहा का रचना विधान:

दोहा में दो पद (पंक्तियाँ) तथा हर पंक्ति में २ चरण होते हैं. विषम (प्रथम व तृतीय) चरण में १३-१३
मात्राएँ तथा सम (२रे व ४ थे) चरण में ११-११
मात्राएँ, इस तरह हर पद में २४-२४ कुल ४८ मात्राएँ होती हैं. दोनों पदों या
सम चरणों के अंत में गुरु-लघु मात्र होना अनिवार्य है. विषम चरण के आरम्भ
में एक ही शब्द जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित है. विषम चरण के अंत में सगण,
रगण या नगण तथा सम चरणों के अंत में जगण या तगण हो तो दोहे में लय दोष
स्वतः मिट जाता है. अ, इ, , ऋ लघु (१) तथा शेष सभी गुरु (२) मात्राएँ
गिनी जाती हैं


दोहा के रंग, भोजपुरी के संग:


कइसन होखो कहानी, नहीं साँच को आँच.
कंकर संकर सम पूजहिं, ठोकर खाइल कांच..

कोई किसी भी प्रकार से झूठा-सच्चा या घटा-बढाकर कहे सत्य को हांनि नहीं पहुँच सकता. श्रद्धा-विश्वास के कारण ही कंकर भी शंकर सदृश्य पूजित होता है जबकि झूठी
चमक-दमक धारण करने वाला काँच पल में टूटकर ठोकरों का पात्र बनता है.

*
कतने घाटल के पियल, पानी- बुझल न प्यास.
नेह नरमदा घाट चल, रहल न बाकी आस..

जीवन भर जग में यहाँ-वहाँ भटकते रहकर घाट-घाट का पानी पीकर भी तृप्ति नहीं मिली किन्तु स्नेह रूपी आनंद देनेवाली पुण्य सलिला (नदी) के घाट पर ऐसी तृप्ति मिली की
और कोई चाह शेष न रही.

*
गुन अवगुन कम- अधिक बा, ऊँच न कोई नीच.
मिहनत श्रम शतदल कमल, मोह-वासना कीच..

अलग-अलग इंसानों में गुण-अवगुण कम-अधिक होने से वे ऊँचे या नीचे नहीं हो जाते. प्रकृति ने सबको एक सम़ान बनाया है. मेंहनत कमल के समान श्रेष्ठ है जबकि मोह और वासना कीचड के समान त्याग देने योग्य
है. भावार्थ यह की मेहनत करने वाला श्रेष्ठ है जबकि मोह-वासना में फंसकर
भोग-विलास करनेवाला निम्न है.

*
नेह-प्रेम पैदा कइल, सहज-सरल बेवहार.
साँझा सुख-दुःख बँट गइल, हर दिन बा तिवहार..

सरलता तथा स्नेह से भरपूर व्यवहार से ही स्नेह-प्रेम उत्पन्न होता है. जिस परिवार में सुख तथा दुःख को मिल बाँटकर सहन किया जाता है वहाँ हर दिन त्यौहार की तरह खुशियों से भरा होता है..
*
खूबी-खामी से बनल, जिनगी के पिहचान.
धूप-छाँव सम छनिक बा, मान अउर अपमान..

ईश्वर ने दुनिया में किसी को पूर्ण नहीं बनाया है. हर इन्सान की ज़िन्दगी की पहचान उसकी अच्छाइयों और बुराइयों से ही होती है. जीवन में मान और अपमान धुप और
छाँव की तरह आते-जाते हैं. सज्जन व्यक्ति इससे प्रभावित नहीं होते.

*
सहरन में जिनगी भयल, कुंठा-दुःख-संत्रास.
केई से मत कहब दुःख, सुन करिहैं उपहास..

शहरों में आम आदमी की ज़िन्दगी में कुंठा, दुःख और संत्रास की पर्याय बन का रह गयी है किन्तु अपना अपना दुःख किसी से न कहें, लोग सुनके हँसी उड़ायेंगे, दुःख
बाँटने कोई नहीं आएगा.

*
(इसी आशय का एक दोहा महाकवि रहीम का भी है:

रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही रखियो गोय.
सुन हँस लैहें लोग सब, बाँट न लैहें कोय..)
*
फुनवा के आगे पड़ल, चीठी के रंग फीक.
सायर सिंह सपूत तो, चलल तोड़ हर लीक..

समय का फेर देखिये कि किसी समय सन्देश और समाचार पहुँचाने में सबसे अधिक भूमिका निभानेवाली चिट्ठी का महत्व दूरभाष के कारण कम हो गया किन्तु शायर, शेर और
सुपुत्र हमेशा ही बने-बनाये रास्ते को तोड़कर चलते हैं.

*
बेर-बेर छटनी क द स, हरदम लूट-खसोट.
दुर्गत भयल मजूर के, लगल चोट पर चोट..

दुनिया का दस्तूर है कि बलवान आदमी निर्बल के साथ बुरा व्यव्हार करते हैं. ठेकेदार बार-बार मजदूरों को लगता-निकलता है, उसके मुनीम कम मजदूरी देकर मजदूरों को
लूटते हैं. इससे मजदूरों की उसी प्रकार दशा ख़राब हो जाती है जैसे चोट लगी
हुई जगह पर बार-बार चोट लगने से होती है.

*
दम नइखे दम के भरम, बिटवा भयल जवान.
एक कमा दू खर्च के, ऊँची भरल उडान..

किसी व्यक्ति में ताकत न हो लेकिन उसे अपने ताकतवर होने का भ्रम हो तो वह किसी से भी लड़ कर अपनी दुर्गति करा लेता है. इसी प्रकार जवान लड़के अपनी कमाई का ध्यान न रखकर हैसियत से अधिक खर्च कर
परेशान हो जाते हैं..

*

रूप धधा के मोर जस, नचली सहरी नार.
गोड़ देख ली छा गइल, घिरना- भागा यार..

*
बाग़-बगीचा जाइ के, खाइल पाकल आम.
साझे के सेनुरिहवा, मीठ लगल बिन दाम..
*
अजबे चम्मक आँखि में, जे पानी हिलकोर.
कनवा राजकुमार के, कथा कहsसु जे लोर..
*
कहतानी नीमन कsथा, जाई बइठि मचान.
ऊभ-चूभ कउआ हंकन, हीरामन कहतान..
*
कँकहि फेरि कज्जर लगा, शीशा देखल बेर.
आपन आँचर सँवारत, पल-पल लगल अबेर..
*
पनघट के रंग अलग बा, आपनपन के ठौर.
निंबुआ अमुआ से मिले, फगुआ अमुआ बौर..
*
खेत हु
रहा खेत क्यों, 'सलिल' सून खलिहान?
सुन सिसकी चौपाल के, पनघट के पहचान..
*
आपन गलती के मढ़े, दूसर पर इल्जाम.
मतलब के दरकार बा, भारी-भरकम नाम..
*
परसउती के दरद के, मर्म न बूझै बाँझ.
दुपहरिया के जलन के, कइसे समझे साँझ?.
*
कौन
के न चिन्हाsइल, मति में परि गै भाँग.
बिना बात के बात खुद, खिचहैं आपन टाँग..
*
अउरत अइसन छ
हँतरी, हुलिया देत बिगाड़.
मरद बनाइल नामरद, करिके तिल के ताड़..
*
भोजपुरी खातिर 'सलिल', जान लड़इहै कौन?
अइसन खाँटी मनख कम, जे करि रइहैं मौन..
*

खाली चौका देखि कै, दिहले चूहा भाग.
चौंकि परा चूल्हा निरख, आपन मुँह में आग..
*
'सलिल' रखे संसार में, सभका खातिर प्रेम.
हर पियास हर किसी की, हर की चाहे छेम..
*
कउनौ  बाधा-विघिन के, आगे मान न हार.
श्रद्धा आ सहयोग के, दम पे उतरल पार..
*
कब आगे का होइ? ई, जो ले जान- सुजान.
समझ-बूझ जेकर नहीं, कहिये है नादान..
*
शशि जी के अनुरोध पर दोहा पर चर्चा के लिये फ़ोरम में दोहे लगाये हैं. इन्हें पढ़कर पाठक इनके अर्थ टिप्पणियों में बताएँ तथा
मात्रा गिनें तो अभ्यास हो सकेगा और वे खुद भी दोहा लिख सकेंगे. मेरा
उद्देश्य खुद लिखना मात्र नहीं अपितु अनेक सिद्ध दोहाकार तैयार करना है. आप
अर्थ बताएँगे तो मैं समझ सकूँगा कि मैंने जिस अर्थ में लिखा वह पाठक तक
पहुँचा या नहीं. संचालक सहयोग कर कोई प्रकाशक खोज सकें तो भोजपुरी में
'दोहा सतसई' प्रकाशित हो. मैं ७०० दोहे रचने का प्रयास करता हूँ. एक
सामूहिक संकलन भी हो हर दोहाकार के १०-१० या १००-१०० दोहे लेकर भी
सतसई बन सकती है. आप सबकी राय क्या है? भोजपुरी के हर साहित्य
प्रेमी के हाथ में श्रेष्ठ साहित्यिक पुस्तक देने से ही भाषा का विकास
होगा. इसी तरह भोजपुरी में ग़ज़ल, गीतिका, हाइकु, गीत आदि के संकलन हों.
मैं हर संभव सहयोग हेतु तत्पर हूँ.

एक काम और हो...भोजपुरी के साहित्यिक गीतों, दोहों का गायन कर यहाँ लगाया
जाये तथा सी.डी. बनें. जब उत्तम गीत नहीं मिलेंगे तो लोग बाजारू ही सुन रहे
हैं. आप सबने पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया दी है... अब यहाँ भी अपना मत
उदारता और शीघ्रता से व्यक्त करें. दोहा रचने संबंधी प्रश्न और कठिनाइयाँ
अवश्य सामने लायें.


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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

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भोजपुरी कहावत कोष : संजीव वर्मा 'सलिल'

भोजपुरी कहावत कोष  : संजीव वर्मा 'सलिल'

भोजपुरी मधुर और सरस लोक भाषा है. कहावतें किसी भाषा की जान होती हैं.
कहावतों को लोकोक्ति ( लोक + उक्ति = जन सामान्य द्वारा कही
और उद्दृत किए जानेवाला कथन ) भी कहा जाता है. अंगरेजी में इसे saying, maxim
या phrase
कहते हैं. कहावत का प्रयोग स्वतंत्र रूप से किया जा सकता है अर्थात कहावत
का वाक्य में प्रयोग किया जाना आवश्यक नहीं है. सिर्फ कहावत कही जाये तो भी
उसका आशय, मतलब या भावार्थ व्यक्त हो जाता है.
मुहावरों (Idioms) का संकलन अलग किया जा रहा है.

हमारा प्रयास देवनागरी वर्णमाला के क्रमानुसार भोजपुरी कहावतों का संचय करना है. जब जो कहावत मिलाती जायेगी उसे यथास्थान जोड़ा जाएगा. आप को जो कहावत या मुहावरा ज्ञात हो वह अवश्य बताइए ताकि
भोजपुरी का विकास हो और उसमें हर विषय और विधा की अभिव्यक्ति हो सके.


१. अँखिया पथरा गइल.

२. अपने दिल से जानी पराया दिल के हाल. 

३. अपने मुँह मियाँ मीठू बा.

४. अबरा के भईंस बिआले कs टोला.

५. अबरा के मेहर गाँव के भौजी.

६.
७.
८.
९.
१०.



१. कोढ़िया डरावे थूक से.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.

१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.


१. गरीब के मेहरारू सभ के भौजाई.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.



१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.

१.
२.
३.
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७.
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९.
१०.

१.
२.
३.
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८.
९.
१०.

१.
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३.
४.
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१. ढेर जोगी मठ के इजार होले.
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१. पोखरा खनाचे जिन मगर के डेरा.
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१. मुर्गा न बोली त बिहाने न होई.

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संकलक: संजीव 'सलिल, दिव्यनर्मदा@जीमेल.कॉम

हो गया है की विन्रमता , सदाचार , गुणवत्ता और कार्यकुशलता को महत्व व सम्मान देने का युग जाने क्यों समाप्त

व्यक्ति की विन्रमता , सदाचार , गुणवत्ता और कार्यकुशलता को महत्व व सम्मान देने का युग जाने क्यों समाप्त हो गया है .

हमारे समय का व्यक्ति की विन्रमता , सदाचार , गुणवत्ता और कार्यकुशलता को महत्व व सम्मान देने का युग जाने क्यों समाप्त हो गया है ? आज समाज में चापलूसी , झूठी प्रशंसा ,और अपना मतलब पूरा करने  के लिये किसी भी सीमा तक गिरकर , काम निकालने में निपुण व्यक्ति ही योग्य माना जाता है . उसे टैक्ट फुल कहा जाता है .शासकीय नौकरियों में अनेको ऐसे लोग दिखते हैं जो नौकरी तो सरकारी कर रहे हैं , पर कथित रूप से टैक्टफुल बनकर वे व्यवसाय अपना ही कर रहे हैं , चिकित्सा , शिक्षा व अन्य क्षेत्रों से जुड़े अनेक व्यक्ति अपनी सरकारी नौकरी का अपने निहित हितो के लिये उपयोग करते सहज ही मिल जाते हैं . मन में भले ही हम ऐसे व्यक्तियो की वास्तविकता समझते हुये , पीठ पीछे उनकी निंदा करें , पर अपनी चाटुकारिता के चलते ऐसे लोग लगातार फलीभूत ही होते दिखते हैं , व समाज में सफल माने जाते हैं . इस प्रवृति से शासकीय सेवा के वास्तविक उद्शेश्य ही दिग्भ्रमित हो रहे हैं .

 हमारे समय में कर्तव्य निष्ठ अधिकारी अपने अधीनस्थ की चापलूसी  की बू पाकर उसे झिड़क देते थे , कर्तव्यपरायण , गुणी व्यक्ति की मुक्त कंठ प्रशंसा करते थे , व अपने अधिकारो का उपयोग करते हुये ऐसे व्यक्ति को भरपूर सहयोग देते थे . जनहित के उद्देश्य को प्रमुखता दी जाती थी .

वर्तमान सामाजिक मानसिकता व स्वार्थसिक्त व्यवहारों को देख सुनकर मुझे अपने सेवाकाल के १९५० के दशक के मेरे अधिकारियों के कर्तव्य के प्रति संवेदनशील समर्पण के व्यवहार  बरबस याद आते हें . तब सी पी एण्ड बरार राज्य था , वर्ष १९५० में , मैं अकोला में हिन्दी शिक्षक था . मुझे याद है उस वर्ष ग्रीष्मावकाश १ मई से १५ जून तक था . १६ जून से प्रौढ़ शिक्षा की कक्षायें लगनी थीं . जब १४जून तक मुझे मेरा पदांकन आदेश नहीं मिला तो मैं स्वयं ही अपने कर्तव्य के प्रति जागरूखता के चलते अकोला पहुंच गया व संभागीय शिक्षा अधिक्षक महोदय से सीधे उनके निवास पर सुबह ही मिला , मुझे स्मरण है कि, मुझे देकते ही उन्होंने मेरे आने का कारण पूछा , व यह जानकर कि मुझे पदांकन आदेश नही मिल पाया है , वे अपने साथ  अपनी कार में ही मुझे कार्यालय ले गये , व संबंधित लिपिक को उसकी ढ़ीली कार्य शैली हेतु डांट लगाई , व मुझे तुरंत मेरा आदेश दिलवाया .मेरा व उन अधिकारि का केवल इतना संबंध था कि उन्होंने पिछले दो तीन वर्षो में  ,मेरी कार्य कुशलता , क्षमता व व्यवहार देखा था और अपनी रिपोर्ट में मेरे लिये प्रशंसात्मक टिप्पणियां लिखी थीं . मैं समझता हूं कि शायद आज के परिवेश में कोई अधिकारी यदि इस तरह आगे बढ़कर किसी अधीनस्थ कर्मचारी की मदद करे तो शायद उसकी निष्ठा व ईमानदारी  पर ही लोग खुसुर पुसुर करने लगें . युग व्यवहार में यह परिवर्तन कब और किस तरह आ गया है समझ से परे है .

हमारी पीढ़ी ने लालटेन और ढ़िबरियो के उजाले को चमचमाती बिजली के प्रकाश में बदलते देखा है . पोस्टकार्ड और तार के इंतजार भरे संदेशों को मोबाइल के त्वरित संपर्को में बदलते हम जी रहे हैं .  लम्बी इंतजार भरी थका देने वाली यात्राओ की जगह आरामदेह हवाई यात्राओ से दूरियां सिमट सी गई हैं , हम इसके भी गवाह हैं . मुझे याद है कि १९५० के ही दशक में जब राज्यपाल हमारे मण्डला आने वाले थे तो उनका छपा हुआ टूर प्रोग्राम महीने भर पहले हमारे पास आया था , शायद उसकी एक प्रिंटेड प्रति अब भी मेरे पास सुरक्षित है , अब तो शायद स्वयं राज्यपाल महोदय भी न जानते होंगे कि दो दिन बाद उन्हें कहां जाना पड़ सकता है . भौतिक सुख संसाधनो का विस्तार जितना हमारी पीढ़ी ने अनुभव किया है शायद ही हमसे पहले की किसी पीढ़ी ने किया हो . लड़कियों की शिक्षा के विस्तार से स्त्रियो के जीवन में जो  सकारात्मक क्राति आई है वह स्वागतेय है , पर उनके पहनावे में जैसे पाश्चात्य परिवर्तन हम देख रहे हैं , हमसे पहले की पीढ़ी ने कभी नही देखे होंगे . पर इस सबके साथ यह भी उतना ही कटु सत्य है , जिसे मैं स्वीकार करना चाहता हूं और उस पर गहन क्षोभ व अफसोस व्यक्त करना चाहता हूं कि लोक व्यवहार में जितना सामाजिक नैतिक अधोपतन हमारी पीढ़ी ने देखा है , उतनी तेजी से यह गिरावट  इससे पहले शायद ही कभी हुई  हो .

प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव " विदग्ध ", सेवानिवृत प्राध्यापक , प्रांतीय शिक्षण महाविद्यालय , जबलपुर
वरिष्ट कवि , अर्थशास्त्री , व कालिदास के ग्रंथो के हिन्दी पद्यानुवादक
संपर्क      ओ बी ११ . विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर , मो ९४२५८०६२५२

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

कहावत सलिला: १ भोजपुरी कहावतें:

कहावत सलिला: १

भोजपुरी कहावतें:

संजीव 'सलिल'
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कहावतें किसी भाषा की जान होती हैं. कहावतें कम शब्दों में अधिक भाव व्यक्त करती हैं. कहावतों के गूढार्थ तथा निहितार्थ भी होते हैं. यहाँ भोजपुरी कि कुछ कहावतें दी जा रही हैं. पाठकों से अनुरोध है कि अपने-अपने अंचल में प्रचलित लोक भाषाओँ, बोलियों की कहावतें भावार्थ सहित यहाँ दें ताकि अन्य जन उनसे परिचित हो सकें.

१. अबरा के मेहर गाँव के भौजी.

२. अबरा के भईंस बिआले कs टोला.

३. अपने मुँह मियाँ मीठू बा.

४. अपने दिल से जानी पराया दिल के हाल.

५. मुर्गा न बोली त बिहाने न होई.

६. पोखरा खनाचे जिन मगर के डेरा.

७. कोढ़िया डरावे थूक से.

८. ढेर जोगी मठ के इजार होले.

९. गरीब के मेहरारू सभ के भौजाई.

१०. अँखिया पथरा गइल.

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संकलक: संजीव 'सलिल, दिव्यनर्मदा@जीमेल.कॉम