हास्य रचना:
कान बनाम नाक
संजीव 'सलिल'
*
शिक्षक खींचे छात्र के साधिकार क्यों कान?
कहा नाक ने: 'मानते क्यों अछूत श्रीमान?
क्यों अछूत श्रीमान? नहीं क्यों मुझे खींचते?
क्यों कानों को लाड-क्रोध से आप मींजते?'
शिक्षक बोला: 'छात्र की अगर खींच लूँ नाक.
कौन करेगा साफ़ यदि बह आएगी नाक?
बह आएगी नाक, नाक पर मक्खी बैठे.
ऊँची नाक हुई नीची तो हुए फजीते.
नाक एक तुम. कान दो, बहुमत का है राज.
जिसकी संख्या हो अधिक सजे शीश पर साज.
सजे शीश पर साज, सभी सम्बन्ध भुनाते.
गधा बाप को और गधे को बाप बताते.
नाक कटे तो प्रतिष्ठा का हो जाता अंत.
कान खींचे तो सहिष्णुता बढती बनता संत.
कान खींचे तो ज्ञान पा आँखें भी खुलतीं.
नाक खींचे तो श्वास बंद हो आँखें मुन्दतीं
कान ज्ञान को बाहर से भीतर पहुँचाते.
नाक बंद अन्दर की दम बाहर ले आते.
आँख, गाल न अधर खिंचाई-सुख पा सकते.
कान खिंचाकर पत्नी से लालू नित हँसते..
**********************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शनिवार, 13 फ़रवरी 2010
हास्य रचना: कान बनाम नाक --संजीव 'सलिल'
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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
शिव भजन: स्व. शांति देवि वर्मा
शिव भजन
स्व. शांति देवि वर्मा
*
शिवजी की आयी बरात
शिवजी की आयी बरात,
चलो सखी देखन चलिए...
भूत प्रेत बेताल जोगिनी'
खप्पर लिए हैं हाथ.
चलो सखी देखन चलिए
शिवजी की आयी बरात....
कानों में बिच्छू के कुंडल सोहें,
कंठ में सर्पों की माला.
चलो सखी देखन चलिए
शिवजी की आयी बरात....
अंग भभूत, कमर बाघम्बर'
नैना हैं लाल विशाल.
चलो सखी देखन चलिए
शिवजी की आयी बरात....
कर में डमरू-त्रिशूल सोहे,
नंदी गण हैं साथ.
शिवजी की आयी बरात,
चलो सखी देखन चलिए...
कर सिंगार भोला दूलह बन के,
नंदी पे भए असवार.
शिवजी की आयी बरात,
चलो सखी देखन चलिए...
दर्शन कर सुख-'शान्ति' मिलेगी,
करो रे जय-जयकार.
शिवजी की आयी बरात,
चलो सखी देखन चलिए...
***********
गिरिजा कर सोलह सिंगार
गिरिजा कर सोलह सिंगार
चलीं शिव शंकर हृदय लुभांय...
मांग में सेंदुर, भाल पे बिंदी,
नैनन कजरा लगाय.
वेणी गूंथी मोतियन के संग,
चंपा-चमेली महकाय.
गिरिजा कर सोलह सिंगार...
बांह बाजूबंद, हाथ में कंगन,
नौलखा हार सुहाय.
कानन झुमका, नाक नथनिया,
बेसर हीरा भाय.
गिरिजा कर सोलह सिंगार...
कमर करधनी, पाँव पैजनिया,
घुँघरू रतन जडाय.
बिछिया में मणि, मुंदरी मुक्ता,
चलीं ठुमुक बल खांय.
गिरिजा कर सोलह सिंगार...
लंहगा लाल, चुनरिया पीली,
गोटी-जरी लगाय.
ओढे चदरिया पञ्च रंग की ,
शोभा बरनि न जाय.
गिरिजा कर सोलह सिंगार...
गज गामिनी हौले पग धरती,
मन ही मन मुसकाय.
नत नैनों मधुरिम बैनों से
अनकहनी कह जांय.
गिरिजा कर सोलह सिंगार...
**********
मोहक छटा पार्वती-शिव की
मोहक छटा पार्वती-शिव की
देखन आओ चलें कैलाश....
ऊँचो बर्फीलो कैलाश पर्वत,
बीच बहे गैंग-धार.
मोहक छटा पार्वती-शिव की...
शीश पे गिरिजा के मुकुट सुहावे
भोले के जटा-रुद्राक्ष.
मोहक छटा पार्वती-शिव की...
माथे पे गौरी के सिन्दूर-बिंदिया
शंकर के नेत्र विशाल.
मोहक छटा पार्वती-शिव की......
उमा के कानों में हीरक कुंडल,
त्रिपुरारी के बिच्छू कान
मोहक छटा पार्वती-शिव की.....
कंठ शिवा के मोहक हरवा,
नीलकंठ के नाग.
मोहक छटा पार्वती-शिव की......
हाथ अपर्णा के मुक्ता कंगन,
बैरागी के डमरू हाथ.
मोहक छटा पार्वती-शिव की...
सती वदन केसर-कस्तूरी,
शशिधर भस्मी राख़.
मोहक छटा पार्वती-शिव की.....
महादेवी पहने नौ रंग चूनर,
महादेव सिंह-खाल.
मोहक छटा पार्वती-शिव की......
महामाया चर-अचर रच रहीं,
महारुद्र विकराल.
मोहक छटा पार्वती-शिव की......
दुर्गा भवानी विश्व-मोहिनी,
औढरदानी उमानाथ.
मोहक छटा पार्वती-शिव की...
'शान्ति' शम्भू लख जनम सार्थक,
'सलिल' अजब सिंगार.
मोहक छटा पार्वती-शिव की...
********************
भोले घर बाजे बधाई
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौर मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
*******************
स्व. शांति देवि वर्मा
*
शिवजी की आयी बरात
शिवजी की आयी बरात,
चलो सखी देखन चलिए...
भूत प्रेत बेताल जोगिनी'
खप्पर लिए हैं हाथ.
चलो सखी देखन चलिए
शिवजी की आयी बरात....
कानों में बिच्छू के कुंडल सोहें,
कंठ में सर्पों की माला.
चलो सखी देखन चलिए
शिवजी की आयी बरात....
अंग भभूत, कमर बाघम्बर'
नैना हैं लाल विशाल.
चलो सखी देखन चलिए
शिवजी की आयी बरात....
कर में डमरू-त्रिशूल सोहे,
नंदी गण हैं साथ.
शिवजी की आयी बरात,
चलो सखी देखन चलिए...
कर सिंगार भोला दूलह बन के,
नंदी पे भए असवार.
शिवजी की आयी बरात,
चलो सखी देखन चलिए...
दर्शन कर सुख-'शान्ति' मिलेगी,
करो रे जय-जयकार.
शिवजी की आयी बरात,
चलो सखी देखन चलिए...
***********
गिरिजा कर सोलह सिंगार
गिरिजा कर सोलह सिंगार
चलीं शिव शंकर हृदय लुभांय...
मांग में सेंदुर, भाल पे बिंदी,
नैनन कजरा लगाय.
वेणी गूंथी मोतियन के संग,
चंपा-चमेली महकाय.
गिरिजा कर सोलह सिंगार...
बांह बाजूबंद, हाथ में कंगन,
नौलखा हार सुहाय.
कानन झुमका, नाक नथनिया,
बेसर हीरा भाय.
गिरिजा कर सोलह सिंगार...
कमर करधनी, पाँव पैजनिया,
घुँघरू रतन जडाय.
बिछिया में मणि, मुंदरी मुक्ता,
चलीं ठुमुक बल खांय.
गिरिजा कर सोलह सिंगार...
लंहगा लाल, चुनरिया पीली,
गोटी-जरी लगाय.
ओढे चदरिया पञ्च रंग की ,
शोभा बरनि न जाय.
गिरिजा कर सोलह सिंगार...
गज गामिनी हौले पग धरती,
मन ही मन मुसकाय.
नत नैनों मधुरिम बैनों से
अनकहनी कह जांय.
गिरिजा कर सोलह सिंगार...
**********
मोहक छटा पार्वती-शिव की
मोहक छटा पार्वती-शिव की
देखन आओ चलें कैलाश....
ऊँचो बर्फीलो कैलाश पर्वत,
बीच बहे गैंग-धार.
मोहक छटा पार्वती-शिव की...
शीश पे गिरिजा के मुकुट सुहावे
भोले के जटा-रुद्राक्ष.
मोहक छटा पार्वती-शिव की...
माथे पे गौरी के सिन्दूर-बिंदिया
शंकर के नेत्र विशाल.
मोहक छटा पार्वती-शिव की......
उमा के कानों में हीरक कुंडल,
त्रिपुरारी के बिच्छू कान
मोहक छटा पार्वती-शिव की.....
कंठ शिवा के मोहक हरवा,
नीलकंठ के नाग.
मोहक छटा पार्वती-शिव की......
हाथ अपर्णा के मुक्ता कंगन,
बैरागी के डमरू हाथ.
मोहक छटा पार्वती-शिव की...
सती वदन केसर-कस्तूरी,
शशिधर भस्मी राख़.
मोहक छटा पार्वती-शिव की.....
महादेवी पहने नौ रंग चूनर,
महादेव सिंह-खाल.
मोहक छटा पार्वती-शिव की......
महामाया चर-अचर रच रहीं,
महारुद्र विकराल.
मोहक छटा पार्वती-शिव की......
दुर्गा भवानी विश्व-मोहिनी,
औढरदानी उमानाथ.
मोहक छटा पार्वती-शिव की...
'शान्ति' शम्भू लख जनम सार्थक,
'सलिल' अजब सिंगार.
मोहक छटा पार्वती-शिव की...
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भोले घर बाजे बधाई
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौर मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010
स्मृति गीत: हर दिन पिता याद आते हैं... --संजीव 'सलिल'
स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...
संजीव 'सलिल'
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे.
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
ले पहचान गैर-अपनों को-
कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अब न गोद में बिठलाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.
नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-
फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
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हर दिन पिता याद आते हैं...
संजीव 'सलिल'
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे.
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
ले पहचान गैर-अपनों को-
कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अब न गोद में बिठलाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.
नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-
फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
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नव गीत: जीवन की / जय बोल --संजीव 'सलिल'
जीवन की
जय बोल,
धरा का दर्द
तनिक सुन...
तपता सूरज
आँख दिखाता,
जगत जल रहा.
पीर सौ गुनी
अधिक हुई है,
नेह गल रहा.
हिम्मत
तनिक न हार-
नए सपने
फिर से बुन...
निशा उषा
संध्या को छलता
सुख का चंदा.
हँसता है पर
काम किसी के
आये न बन्दा...
सब अपने
में लीन,
तुझे प्यारी
अपनी धुन...
महाकाल के
हाथ जिंदगी
यंत्र हुई है.
स्वार्थ-कामना ही
साँसों का
मन्त्र मुई है.
तंत्र लोक पर,
रहे न हावी
कर कुछ
सुन-गुन...
* * *
जय बोल,
धरा का दर्द
तनिक सुन...
तपता सूरज
आँख दिखाता,
जगत जल रहा.
पीर सौ गुनी
अधिक हुई है,
नेह गल रहा.
हिम्मत
तनिक न हार-
नए सपने
फिर से बुन...
निशा उषा
संध्या को छलता
सुख का चंदा.
हँसता है पर
काम किसी के
आये न बन्दा...
सब अपने
में लीन,
तुझे प्यारी
अपनी धुन...
महाकाल के
हाथ जिंदगी
यंत्र हुई है.
स्वार्थ-कामना ही
साँसों का
मन्त्र मुई है.
तंत्र लोक पर,
रहे न हावी
कर कुछ
सुन-गुन...
* * *
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रविवार, 7 फ़रवरी 2010
सामयिक कविता: हर चेहरे की अलग कहानी, अलग रंग है. --संजीव 'सलिल'
सामयिक कविता:
संजीव 'सलिल'
*
हर चेहरे की अलग कहानी, अलग रंग है.
अलग तरीका, अलग सलीका, अलग ढंग है...
*
भगवा कमल चढ़ा सत्ता पर जिसको लेकर
गया पाक बस में, आया हो बेबस होकर.
भाषण लच्छेदार सुनाये, सबको भये.
धोती कुरता गमछा धारे सबको भाये.
बरस-बरस उसकी छवि हमने विहँस निहारी.
ताली पीटो, नाम बताओ- ......................
*
गोरी परदेसिन की महिमा कही न जाए.
सास और पति के पथ पर चल सत्ता पाए.
बिखर गया परिवार मगर क्या खूब सम्हाला?
देवरानी से मन न मिला यह गड़बड़ झाला.
इटली में जन्मी, भारत का ढंग ले लिया.
बहुत दुलारी भारत माँ की नाम? .........
*
यह नेता भैंसों को ब्लैक बोर्ड बनवाता.
कुर्सी पड़े छोड़ना, बीबी को बैठाता.
घर में रबड़ी रखे मगर खाता था चारा.
जनता ने ठुकराया अब तडपे बेचारा.
मोटा-ताज़ा लगे, अँधेरे में वह भालू.
जल्द पहेली बूझो नाम बताओ........?
*
माया की माया न छोड़ती है माया को.
बना रही निज मूर्ति, तको बेढब काया को.
सत्ता प्रेमी, कांसी-चेली, दलित नायिका.
नचा रही है एक इशारे पर विधायिका.
गुर्राना-गरियाना ही इसके मन भाया.
चलो पहेली बूझो, नाम बताओ........
*
छोटी दाढीवाला यह नेता तेजस्वी.
कम बोले करता ज्यादा है श्रमी-मनस्वी.
नष्ट प्रान्त को पुनः बनाया, जन-मन जीता.
मरू-गुर्जर प्रदेश सिंचित कर दिया सुभीता.
गोली को गोली दे, हिंसा की जड़ खोदी.
कर्मवीर नेता है भैया ........................
*
बंगालिन बिल्ली जाने क्या सोच रही है?
भय से हँसिया पार्टी खम्बा नोच रही है.
हाथ लिए तृण-मूल, करारी दी है टक्कर.
दिल्ली-सत्ताधारी काटें इसके चक्कर.
दूर-दूर तक देखो इसका हुआ असर जी.
पहचानो तो कौन? नाम .....................
*
तेजस्वी वाचाल साध्वी पथ भटकी है.
कौन बताये किस मरीचिका में अटकी है?
ढाँचा गिरा अवध में उसने नाम काया.
बनी मुख्य मंत्री, सत्ता सुख अधिक न भाया.
बडबोलापन ले डूबा, अब है गुहारती.
शिव-संगिनी का नाम मिला, है ...............
*
मध्य प्रदेशी जनता के मन को जो भाया.
दोबारा सत्ता पाकर भी ना इतराया.
जिसे लाडली बेटी पर आता दुलार है.
करता नव निर्माण, कर रहा नित सुधार है.
दुपहर भोजन बाँट, बना जन-मन का तारा.
जल्दी नाम बताओ वह ............. हमारा.
*
डर से डरकर बैठना सही न लगती राह.
हिम्मत गजब जवान की, मुँह से निकले वाह.
घूम रहा है प्रान्त-प्रान्त में नाम कमाता.
गाँधी कुल का दीपक, नव पीढी को भाता.
जन मत परिवर्तन करने की लाता आँधी.
बूझो-बूझो नाम बताओ ......................
*
बूढा शेर बैठ मुम्बई में चीख रहा है.
देश बाँटता, हाय! भतीजा दीख रहा है.
पहलवान है नहीं मुलायम अब कठोर है.
धनपति नेता डूब गया है, कटी डोर है.
शुगर किंग मँहगाई अब तक रोक न पाया.
रबर किंग पगड़ी बाँधे, पहचानो भाया.
*
रंग-बिरंगे नेता करते बात चटपटी.
ठगते सबके सब जनता को बात अटपटी.
लोकतन्त्र को लोभतंत्र में बदल हँस रहे.
कभी फांसते हैं औरों को कभी फँस रहे.
ढंग कहो, बेढंग कहो चल रही जंग है.
हर चहरे की अलग कहानी, अलग रंग है.
**********************************
संजीव 'सलिल'
*
हर चेहरे की अलग कहानी, अलग रंग है.
अलग तरीका, अलग सलीका, अलग ढंग है...
*
भगवा कमल चढ़ा सत्ता पर जिसको लेकर
गया पाक बस में, आया हो बेबस होकर.
भाषण लच्छेदार सुनाये, सबको भये.
धोती कुरता गमछा धारे सबको भाये.
बरस-बरस उसकी छवि हमने विहँस निहारी.
ताली पीटो, नाम बताओ- ......................
*
गोरी परदेसिन की महिमा कही न जाए.
सास और पति के पथ पर चल सत्ता पाए.
बिखर गया परिवार मगर क्या खूब सम्हाला?
देवरानी से मन न मिला यह गड़बड़ झाला.
इटली में जन्मी, भारत का ढंग ले लिया.
बहुत दुलारी भारत माँ की नाम? .........
*
यह नेता भैंसों को ब्लैक बोर्ड बनवाता.
कुर्सी पड़े छोड़ना, बीबी को बैठाता.
घर में रबड़ी रखे मगर खाता था चारा.
जनता ने ठुकराया अब तडपे बेचारा.
मोटा-ताज़ा लगे, अँधेरे में वह भालू.
जल्द पहेली बूझो नाम बताओ........?
*
माया की माया न छोड़ती है माया को.
बना रही निज मूर्ति, तको बेढब काया को.
सत्ता प्रेमी, कांसी-चेली, दलित नायिका.
नचा रही है एक इशारे पर विधायिका.
गुर्राना-गरियाना ही इसके मन भाया.
चलो पहेली बूझो, नाम बताओ........
*
छोटी दाढीवाला यह नेता तेजस्वी.
कम बोले करता ज्यादा है श्रमी-मनस्वी.
नष्ट प्रान्त को पुनः बनाया, जन-मन जीता.
मरू-गुर्जर प्रदेश सिंचित कर दिया सुभीता.
गोली को गोली दे, हिंसा की जड़ खोदी.
कर्मवीर नेता है भैया ........................
*
बंगालिन बिल्ली जाने क्या सोच रही है?
भय से हँसिया पार्टी खम्बा नोच रही है.
हाथ लिए तृण-मूल, करारी दी है टक्कर.
दिल्ली-सत्ताधारी काटें इसके चक्कर.
दूर-दूर तक देखो इसका हुआ असर जी.
पहचानो तो कौन? नाम .....................
*
तेजस्वी वाचाल साध्वी पथ भटकी है.
कौन बताये किस मरीचिका में अटकी है?
ढाँचा गिरा अवध में उसने नाम काया.
बनी मुख्य मंत्री, सत्ता सुख अधिक न भाया.
बडबोलापन ले डूबा, अब है गुहारती.
शिव-संगिनी का नाम मिला, है ...............
*
मध्य प्रदेशी जनता के मन को जो भाया.
दोबारा सत्ता पाकर भी ना इतराया.
जिसे लाडली बेटी पर आता दुलार है.
करता नव निर्माण, कर रहा नित सुधार है.
दुपहर भोजन बाँट, बना जन-मन का तारा.
जल्दी नाम बताओ वह ............. हमारा.
*
डर से डरकर बैठना सही न लगती राह.
हिम्मत गजब जवान की, मुँह से निकले वाह.
घूम रहा है प्रान्त-प्रान्त में नाम कमाता.
गाँधी कुल का दीपक, नव पीढी को भाता.
जन मत परिवर्तन करने की लाता आँधी.
बूझो-बूझो नाम बताओ ......................
*
बूढा शेर बैठ मुम्बई में चीख रहा है.
देश बाँटता, हाय! भतीजा दीख रहा है.
पहलवान है नहीं मुलायम अब कठोर है.
धनपति नेता डूब गया है, कटी डोर है.
शुगर किंग मँहगाई अब तक रोक न पाया.
रबर किंग पगड़ी बाँधे, पहचानो भाया.
*
रंग-बिरंगे नेता करते बात चटपटी.
ठगते सबके सब जनता को बात अटपटी.
लोकतन्त्र को लोभतंत्र में बदल हँस रहे.
कभी फांसते हैं औरों को कभी फँस रहे.
ढंग कहो, बेढंग कहो चल रही जंग है.
हर चहरे की अलग कहानी, अलग रंग है.
**********************************
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Poetry: Get well soon -sanjiv 'salil'
Get well soon.
de dushnman ko bhoon.
neta karte roz
loktantra ka khoon.
kuchh halat badal
kutar naheen nakhoon.
kha mehnat ke baad
tu roti do joon.
koshish bina 'salil'
milta naheen sukoon.
++++++++++++++++
de dushnman ko bhoon.
neta karte roz
loktantra ka khoon.
kuchh halat badal
kutar naheen nakhoon.
kha mehnat ke baad
tu roti do joon.
koshish bina 'salil'
milta naheen sukoon.
++++++++++++++++
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Petry
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
पाती राज के नाम: संजीव 'सलिल'
अजर अमर अक्षय अजित, अमित अनादि अनंत.
अनहद नादित ॐ ही, नभ भू दिशा दिगंत.
प्रणवाक्षर ओंकार ही, रचता दृष्ट-अदृष्ट.
चित्र चित्त में गुप्त जो, वही सभी का इष्ट.
चित्र गुप्त साकार हो, तभी बनें आकार.
हर आकार-प्रकार से, हो समृद्ध संसार.
कण-कण में बस वह करे, प्राणों का संचार.
हर काया में व्याप्त वह, उस बिन सृष्टि असार.
स्वामी है वह तिमिर का, वह प्रकाश का नाथ.
शान्ति-शोर दोनों वही, सदा सभी के साथ.
कंकर-कंकर में वही शंकर, तन में आत्म.
काया स्थित अंश का, अंशी वह परमात्म.
वह विदेह ही देह का, करता है निर्माण.
देही बन निष्प्राण में, वही फूंकता प्राण.
वह घट है आकाश में, वह घट का आकाश.
करता वह परमात्म ही, सबमें आत्म-प्रकाश.
वह ही विधि-हरि-हर हुआ, वह अनुराग-विराग.
शारद-लक्ष्मी-शक्ति वह, भुक्ति-मुक्ति, भव त्याग.
वही अनामी-सुनामी, जल-थल-नभ में व्याप्त.
रव-कलरव वह मौन भी, वेद वचन वह आप्त.
उससे सब उपजे, हुए सभी उसी में लीन.
वह है, होकर भी नहीं, वही ‘सलिल’ तट मीन.
वही नर्मदा नेह की, वही मोह का पाश.
वह उत्साह-हुलास है, वह नैराश्य हताश.
वह हम सब में बसा है, किसे कहे तू गैर.
महाराष्ट्र क्यों राष्ट्र की, नहीं चाहता खैर?
कौन पराया तू बता?, और सगा है कौन?
राज हुआ नाराज क्यों ख़ुद से?रह अब मौन.
उत्तर-दक्षिण शीश-पग, पूरब-पश्चिम हाथ.
ह्रदय मध्य में ले बसा, सब हों तेरे साथ.
भारत माता कह रही, सबका बन तू मीत.
तज कुरीत, सबको बना अपना, दिल ले जीत.
सच्चा राजा वह करे जो हर दिल पर राज.
‘सलिल’ तभी चरणों झुकें, उसके सारे ताज.
salil.sanjiv@gmail.com / sanjivsalil.blogspot.com
अनहद नादित ॐ ही, नभ भू दिशा दिगंत.
प्रणवाक्षर ओंकार ही, रचता दृष्ट-अदृष्ट.
चित्र चित्त में गुप्त जो, वही सभी का इष्ट.
चित्र गुप्त साकार हो, तभी बनें आकार.
हर आकार-प्रकार से, हो समृद्ध संसार.
कण-कण में बस वह करे, प्राणों का संचार.
हर काया में व्याप्त वह, उस बिन सृष्टि असार.
स्वामी है वह तिमिर का, वह प्रकाश का नाथ.
शान्ति-शोर दोनों वही, सदा सभी के साथ.
कंकर-कंकर में वही शंकर, तन में आत्म.
काया स्थित अंश का, अंशी वह परमात्म.
वह विदेह ही देह का, करता है निर्माण.
देही बन निष्प्राण में, वही फूंकता प्राण.
वह घट है आकाश में, वह घट का आकाश.
करता वह परमात्म ही, सबमें आत्म-प्रकाश.
वह ही विधि-हरि-हर हुआ, वह अनुराग-विराग.
शारद-लक्ष्मी-शक्ति वह, भुक्ति-मुक्ति, भव त्याग.
वही अनामी-सुनामी, जल-थल-नभ में व्याप्त.
रव-कलरव वह मौन भी, वेद वचन वह आप्त.
उससे सब उपजे, हुए सभी उसी में लीन.
वह है, होकर भी नहीं, वही ‘सलिल’ तट मीन.
वही नर्मदा नेह की, वही मोह का पाश.
वह उत्साह-हुलास है, वह नैराश्य हताश.
वह हम सब में बसा है, किसे कहे तू गैर.
महाराष्ट्र क्यों राष्ट्र की, नहीं चाहता खैर?
कौन पराया तू बता?, और सगा है कौन?
राज हुआ नाराज क्यों ख़ुद से?रह अब मौन.
उत्तर-दक्षिण शीश-पग, पूरब-पश्चिम हाथ.
ह्रदय मध्य में ले बसा, सब हों तेरे साथ.
भारत माता कह रही, सबका बन तू मीत.
तज कुरीत, सबको बना अपना, दिल ले जीत.
सच्चा राजा वह करे जो हर दिल पर राज.
‘सलिल’ तभी चरणों झुकें, उसके सारे ताज.
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
आज की रचना: संजीव 'सलिल'
सत्ता की जय बोलिए, दुनिया का दस्तूर.
सत्ता पा मदमस्त हो, रहें नशे में चूर..
*
है विनाश की दिशा यह, भूल रहे सब जान.
वंशज हम धृतराष्ट्र के, सके न सच पहचान.
*
जो निज मन को जीत ले, उसे नमन कर मौन.
निज मन से यह पूछिए, छिपा आपमें कौन?.
*
मुझे तुम न भूलीं, मुझे ज्ञात है यह.
तभी तो उषामय, मधुर प्रात है यह..
*
ये बासंती मौसम, हवा में खुनक सी-
परिंदों की चह-चह सा ज़ज्बात है यह..
*
काल ग्रन्थ की पांडुलिपि, लिखता जाने कौन?
जब-जब पूछा प्रश्न यह, उत्तर पाया मौन..
*
जय प्रकाश की बोलिए, मानस होगा शांत.
'सलिल' मिटाकर तिमिर को, पथ पायें निर्भ्रांत..
*
परिंदा नन्हा है छोटे पर मगर है हौसला.
बना ले तूफ़ान में भी, जोड़ तिनका घोंसला..
*
अश्वारोही रश्मि की, प्रभा निहारो मीत.
जीत तिमिर उजियार दे, जग मनभावन रीत..
*
हम 'मैं' बनकर जी रहे, 'तुम' से होकर दूर.
काश कभी 'हम एक' हों, खुसी मिले भरपूर..
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, मिल भरते हैं रंग.
समझ न पाता साम्य तो, होता मानव तंग.
*
एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से ज्यादा भारी.
आज नहीं चिर काल से, रहती आयी नारी..
*
मैन आप वूमैन वह, किसमें ज्यादा भार?
सत्य जान करिए नमन, करिए पायें प्यार.
*****************************
सत्ता पा मदमस्त हो, रहें नशे में चूर..
*
है विनाश की दिशा यह, भूल रहे सब जान.
वंशज हम धृतराष्ट्र के, सके न सच पहचान.
*
जो निज मन को जीत ले, उसे नमन कर मौन.
निज मन से यह पूछिए, छिपा आपमें कौन?.
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मुझे तुम न भूलीं, मुझे ज्ञात है यह.
तभी तो उषामय, मधुर प्रात है यह..
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ये बासंती मौसम, हवा में खुनक सी-
परिंदों की चह-चह सा ज़ज्बात है यह..
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काल ग्रन्थ की पांडुलिपि, लिखता जाने कौन?
जब-जब पूछा प्रश्न यह, उत्तर पाया मौन..
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जय प्रकाश की बोलिए, मानस होगा शांत.
'सलिल' मिटाकर तिमिर को, पथ पायें निर्भ्रांत..
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परिंदा नन्हा है छोटे पर मगर है हौसला.
बना ले तूफ़ान में भी, जोड़ तिनका घोंसला..
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अश्वारोही रश्मि की, प्रभा निहारो मीत.
जीत तिमिर उजियार दे, जग मनभावन रीत..
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हम 'मैं' बनकर जी रहे, 'तुम' से होकर दूर.
काश कभी 'हम एक' हों, खुसी मिले भरपूर..
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अनिल अनल भू नभ सलिल, मिल भरते हैं रंग.
समझ न पाता साम्य तो, होता मानव तंग.
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एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से ज्यादा भारी.
आज नहीं चिर काल से, रहती आयी नारी..
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मैन आप वूमैन वह, किसमें ज्यादा भार?
सत्य जान करिए नमन, करिए पायें प्यार.
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बुधवार, 3 फ़रवरी 2010
गीतिका आदमी ही भला मेरा गर करेंगे
गीतिका
आदमी ही भला मेरा गर करेंगे.
बदी करने से तारे भी डरेंगे.
बिना मतलब मदद कर दे किसी की
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.
कलम थामे, न जो कहते हकीकत
समय से पहले ही बेबस मरेंगे।
नरमदा नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के खुद तरेंगे।
न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।
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आदमी ही भला मेरा गर करेंगे.
बदी करने से तारे भी डरेंगे.
बिना मतलब मदद कर दे किसी की
दुआ के फूल तुझ पर तब झरेंगे.
कलम थामे, न जो कहते हकीकत
समय से पहले ही बेबस मरेंगे।
नरमदा नेह की जो नहाते हैं
बिना तारे किसी के खुद तरेंगे।
न रुकते जो 'सलिल' सम सतत बहते
सुनिश्चित मानिये वे जय वरेंगे।
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सोमवार, 1 फ़रवरी 2010
रायपुर प्रेस क्लब में ब्लोग्गर्स मीट ---अभिषेक प्रसाद 'अवि'
रायपुर प्रेस क्लब में ब्लोगर्स बैठक
--अभिषेक प्रसाद 'अवि'
२४ जनवरी २०१०. पूर्व नियोजित समयानुसार रायपुर प्रेस क्लब में ब्लोगर्स बैठक का आयोजन हुआ. धन्यवाद डॉक्टर महेश सिन्हा जी को जिन्होंने न केवल मुझे उस बैठक में शामिल होने का मौका दिया बल्कि खुद मुझे मेरे घर से लेने आये और वापस घर तक पहुँचाया भी. अभी कुछ ही दिन पहले तक मैं उन्हें जानता तक नहीं था और आज उनसे एक गहरा अनजाना रिश्ता बन गया है.
गोष्ठी की शुरुआत श्री अनिल पुसदकर जी ने की. शुरुआत हुई ब्लॉग की उपलब्धता, इसके रूप, मजबूती और इसके योग्यता से, योग्यता कि कैसे ब्लॉग पांचवे खम्भे के रूप में उभर कर आ रहा है और समाज की समस्याओं और निवारण का एक अच्छा माध्यम है.... अनिल जी ने छत्तीसगढ़ की खराब होती छवि पर भी सवाल उठाया. ये एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा भी है. हम कमियों को तो बढा-चढ़ा कर लिखते, छापते और सुनाते है पर सच्चाई और वास्तिवकता से कोशूं दूर रहते है. अनिल जी ने एक बहुत ही उम्दा सुझाव दिया कि एक ऐसा कमुनिटी ब्लॉग बनाया जाये जिसमें छतीसगढ़ के सही समस्याएं, उसकी उपलब्धि सही और निष्पक्ष रूप से लोगों तक पहुँचाया जा सकें... मैं उनके इस प्रयास को सार्थक और सही मानता हूँ.
अनिल जी के बाद श्री बी. एस. पाबला जी ने लोगों को संबोधित किया और अपना परिचय और विचार लोगों के सामने रखें. लगभग ३० चिट्ठाकारों का समूह मौजूद था, ये एक छोटी मगर सार्थक शुरुआत थी. एक के बाद एक सभी लोगों को अपने विचार रखने का मौका मिला. श्री ललित शर्मा जी से कई जानकारियाँ मिली. कुल मिलाकर कहूँ तो इस मीट में कई सारी नयी जानकारियाँ और विचार सामने आये.
कोई चिटठा सिर्फ शौक के लिए लिखता है तो कोई इसे धनार्जन का स्रोत भी मानता है. बोलने का मौका मुझे भी मिला पर उत्साह, डर और घबराहट में शायद मैं अपने मन की बात कह ही नहीं पाया. जाने से पहले मैंने सोंचा था ये कहूँगा, वो कहूँगा, ऐसे बोलूँगा, वैसे अपनी बात रखूँगा... पर जब बोलने का मौका आया तो सारे शब्द गायब हो गए.
बैठक के दौरान कहा गया एक सार्थक दृष्टान्त मुझे याद है... "दो सेब के पेड़ आपस में बात कर रहे थे. पहले ने दूसरे से कहा: 'एक दिन ऐसा आएगा जब सिर्फ सेब ही सेब के पेड़ बचेंगे बाकी सब ख़त्म हो जायेंगे'.दूसरे पेड़ ने सवाल किया: 'वो कैसे?'... पहले ने कहा: 'जिस तरह लोग जात और घर को लेकर आपस में लड़ रहे हैं , मर रहे हैं मार रहे हैं , एक दिन सिर्फ हम ही तो बचेंगे, आदमी आदमी को मार रहा है, जानवरों को मार रहा है और जानवर भी दूसरे छोटे जानवरों को मार रहे है... एक दिन सिर्फ हम ही तो बचेंगे...' तो सेब के दूसरे पेड़ ने धीरे से कहा: 'कौन सा सेब का पेड़ बचेगा? लाल वाला या सफ़ेद वाला?"
ये सिर्फ एक दृष्टान्त नहीं था बल्कि बहुत गंभीर सोच और चिंता की बात थी इसमें...
सभी साथियों के बीच एक मात्र महिला चिट्ठाकार थीं श्रीमती तोशी गुप्ता. उन्होंने अपने चिट्ठे के माध्यम से एक सशक्त शुरुआत की थी पर कुछ लोगों की धमकियों ने उन्हें लिखने से डरा दिया. मैं तोशी जी से इतना ही कहूँगा कि तमाशबीनों की दुनिया है यह, बुरा किसी को दीखता नहीं..और बुरा जो दिखाने की कोशिश करो तो और भी कुछ दीखता नहीं...ये दुनिया झूठ और फरेबों से चल रही है आजकल.यहाँ ईमानदारी की कीमत नहीं, सच बिकता नहीं....'
"अपनी जिंदगी से न यूँ मुझे किनारे कीजिये
ग़मों में ही सही अपनी, मुझे अपना सहारा कीजिये
तेरी महक सदा पाता हूँ पास अपने
कोई तो अपनी मौजूदगी का इशारा कीजिये"
यूँ तो खुद को न सामने उसके संवारा कीजिये
इन्तेजार में तेरी एक झलक पाने को तो चाँद भी है
इक पल का ही सही, वक़्त कोई अपना हमारा कीजिये
गुनाह की है तुझसे मोहब्बत करने की मैंने
खतादार हूँ तेरे हुस्न की आरजू की है
सजा देने को ही सही, एक बार तो
अपनी जिंदगी में शामिल दोबारा कीजिये
ब्लोग्गर्स मीट के बाद शानदार और यादगार रात्रि भोजन की भी व्यवस्था की गयी थी. खाने के साथ साथ लोगों की बातें और मजाकें खाने में और मसाला डाल रहे थे... रात करीब १० बजे लोगों से विदा ली फिर मिलने के लिए...
++++++++++++++++++++++++++
कल की शाम मेरी सबसे ज्यादा यादगार और हसीं शाम थी... एक ही शाम में मैंने उत्साह, गर्व, डर, घबराहट और ख़ुशी सारी भावनाओं का मजा ले लिया. महेश अंकल का साथ, पाबला जी की गर्मजोशी से मिलाया गया हाथ (मेरे हाथों में अभी भी दर्द है), ललित शर्मा जी की मूंछें, अनिल जी का व्यवहार और बाकी बंधुओं का सौहाद्र ... हमेशा याद रहेगा...
*********
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रविवार, 31 जनवरी 2010
गीत: निर्झर सम / निर्बंध बहो... -संजीव 'सलिल'
गीत:
निर्झर सम / निर्बंध बहो...
-संजीव 'सलिल'
*
निर्झर सम
निर्बंध बहो,
सत नारायण
कथा कहो...
*
जब से
उजडे हैं पनघट.
तब से
गाँव हुए मरघट.
चौपालों में
हँसो-अहो...
*
पायल-चूड़ी
बजने दो.
नथ-बिंदी भी
सजने दो.
पीर छिपा-
सुख बाँट गहो...
*
अमराई
सुनसान न हो.
कुँए-खेत
वीरान न हो.
धूप-छाँव
मिल 'सलिल' सहो...
***************
निर्झर सम / निर्बंध बहो...
-संजीव 'सलिल'
*
निर्झर सम
निर्बंध बहो,
सत नारायण
कथा कहो...
*
जब से
उजडे हैं पनघट.
तब से
गाँव हुए मरघट.
चौपालों में
हँसो-अहो...
*
पायल-चूड़ी
बजने दो.
नथ-बिंदी भी
सजने दो.
पीर छिपा-
सुख बाँट गहो...
*
अमराई
सुनसान न हो.
कुँए-खेत
वीरान न हो.
धूप-छाँव
मिल 'सलिल' सहो...
***************
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शुक्रवार, 29 जनवरी 2010
लघु कथा / बोध कथा: आदमीं बन जाओ… __संजीव 'सलिल'
लघु कथा / बोध कथा:
आदमीं बन जाओ…
संजीव 'सलिल'
भारत माता ने अपने घर में जन-कल्याण का जानदार आँगन बनाया. उसमें शिक्षा की शीतल हवा, स्वास्थ्य का निर्मल नीर, निर्भरता की उर्वर मिट्टी, उन्नति का आकाश, दृढ़ता के पर्वत, आस्था की सलिला, उदारता का समुद्र तथा आत्मीयता की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन के पौधे में प्रेम के पुष्प महक रहे थे ।
सिर पर सफ़ेद टोपी लगाये एक बच्चा आया, रंग-बिरंगे पुष्प देखकर ललचाया. पुष्प पर सत्ता की तितली बैठी देखकर उसका मन ललचाया, तितली को पकड़ने के लिए हाथ बढाया, तितली उड़ गयी. बच्चा तितली के पीछे दौड़ा, गिरा, रोते हुए रह गया खडा ।
कुछ देर बाद भगवा वस्त्रधारी दूसरा बच्चा खाकी पैंटवाले मित्र के साथ आया. सरोवर में खिला कमल का पुष्प उसके मन को भाया, मन ललचाया, बिना सोचे कदम बढाया, किनारे लगी काई पर पैर फिसला, गिरा, भीगा और सिर झुकाए वापिस लौट गया, कोने मे खड़ा चुपचाप सब देखता रहा ।
तभी चक्र घुमाता तीसरा बच्चा अनुशासन को तोड़ता, शोर मचाता घर में घुसा और हाथ में हँसिया-हथौडा थामे चौथा बच्चा उससे जा भिड़ा. दोनों टकराए, गिरे, कांटें चुभे और वे चोटें सहलाते सिसकने लगे ।
हाथी की तरह मोटे, अक्ल के छोटे, कुछ बच्चे एक साथ धमाल मचाते आए, औरों की अनदेखी कर जहाँ मन हुआ वहीं जगह घेरकर हाथ-पैर फैलाये. धक्का-मुक्की में फूल ही नहीं पौधे भी उखाड़ लाये ।
कुछ देर बाद भारत माता घर में आयीं, कमरे की दुर्दशा देखकर चुप नहीं रह पायीं, दुःख के साथ बोलीं- ‘ मत दो झूटी सफाई, मत कहो कि घर की यह दुर्दशा तुमने नहीं तितली ने बनाई. काश तुम तितली को भुला पाते, काँटों को समय रहते देख पाते, मिल-जुल कर रह पाते, ख़ुद अपने लिये लड़ने की जगह औरों के लिए कुछ कर पाते तो आदमी बन जाते ।
********************
आदमीं बन जाओ…
संजीव 'सलिल'
भारत माता ने अपने घर में जन-कल्याण का जानदार आँगन बनाया. उसमें शिक्षा की शीतल हवा, स्वास्थ्य का निर्मल नीर, निर्भरता की उर्वर मिट्टी, उन्नति का आकाश, दृढ़ता के पर्वत, आस्था की सलिला, उदारता का समुद्र तथा आत्मीयता की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन के पौधे में प्रेम के पुष्प महक रहे थे ।
सिर पर सफ़ेद टोपी लगाये एक बच्चा आया, रंग-बिरंगे पुष्प देखकर ललचाया. पुष्प पर सत्ता की तितली बैठी देखकर उसका मन ललचाया, तितली को पकड़ने के लिए हाथ बढाया, तितली उड़ गयी. बच्चा तितली के पीछे दौड़ा, गिरा, रोते हुए रह गया खडा ।
कुछ देर बाद भगवा वस्त्रधारी दूसरा बच्चा खाकी पैंटवाले मित्र के साथ आया. सरोवर में खिला कमल का पुष्प उसके मन को भाया, मन ललचाया, बिना सोचे कदम बढाया, किनारे लगी काई पर पैर फिसला, गिरा, भीगा और सिर झुकाए वापिस लौट गया, कोने मे खड़ा चुपचाप सब देखता रहा ।
तभी चक्र घुमाता तीसरा बच्चा अनुशासन को तोड़ता, शोर मचाता घर में घुसा और हाथ में हँसिया-हथौडा थामे चौथा बच्चा उससे जा भिड़ा. दोनों टकराए, गिरे, कांटें चुभे और वे चोटें सहलाते सिसकने लगे ।
हाथी की तरह मोटे, अक्ल के छोटे, कुछ बच्चे एक साथ धमाल मचाते आए, औरों की अनदेखी कर जहाँ मन हुआ वहीं जगह घेरकर हाथ-पैर फैलाये. धक्का-मुक्की में फूल ही नहीं पौधे भी उखाड़ लाये ।
कुछ देर बाद भारत माता घर में आयीं, कमरे की दुर्दशा देखकर चुप नहीं रह पायीं, दुःख के साथ बोलीं- ‘ मत दो झूटी सफाई, मत कहो कि घर की यह दुर्दशा तुमने नहीं तितली ने बनाई. काश तुम तितली को भुला पाते, काँटों को समय रहते देख पाते, मिल-जुल कर रह पाते, ख़ुद अपने लिये लड़ने की जगह औरों के लिए कुछ कर पाते तो आदमी बन जाते ।
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विशेष आलेख: डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य --आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
विशेष आलेख:
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जगवाणी हिंदी को माँ वीणापाणी के सितार के तारों से झंकृत विविध रागों से उद्भूत सांस्कृत छांदस विरासत से समृद्ध होने का अनूठा सौभाग्य मिला है. संस्कृत साहित्य की सरस विरासत को हिंदी ने न केवल आत्मसात किया अपितु पल्लवित-पुष्पित भी किया. हिंदी साहित्योद्यान के गीत-वृक्ष पर झूमते-झूलते सुन्दर-सुरभिमय अगणित पुष्पों में अपनी पृथक पहचान और ख्याति से संपन्न डॉ. महेंद्र भटनागर गत ७ दशकों से विविध विधाओं (गीत, कविता, क्षणिका, कहानी, नाटक, साक्षात्कार, रेखाचित्र, लघुकथा, एकांकी, वार्ता संस्मरण, गद्य काव्य, रेडियो फीचर, समालोचना, निबन्ध आदि में) समान दक्षता के साथ सतत सृजन कर बहु चर्चित हुए हैं. उनके गीतों में सर्वत्र व्याप्त आलंकारिक वैभव का पूर्ण निदर्शन एक लेख में संभव न होने पर भी हमारा प्रयास इसकी एक झलक से पाठकों को परिचित कराना है. नव रचनाकर्मी इस लेख में उद्धृत उदाहरणों के प्रकाश में आलंकारिक माधुर्य और उससे उपजी रमणीयता को आत्मसात कर अपने कविकर्म को सुरुचिसंपन्न तथा सशक्त बनाने की प्रेरणा ले सकें, तो यह प्रयास सफल होगा.
संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य समीक्षा के विभिन्न सम्प्रदायों (अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचत्य, अनुमिति, रस) में से अलंकार, ध्वनि तथा रस को ही हिंदी गीति-काव्य ने आत्मार्पित कर नवजीवन दिया. संस्कृत साहित्य में अलंकार को 'सौन्दर्यमलंकारः' ( अलंकार को काव्य का कारक), 'अलंकरोतीति अलंकारः' (काव्य सौंदर्य का पूरक) तथा अलंकार का मूल वक्रोक्ति को माना गया.
'सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाच्याते.
यत्नोस्यां कविना कार्यः कोs लंकारोsनया बिना..' २.८५ -भामह, काव्यालंकारः
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीत-संसार में वक्रोक्ति-वृक्ष के विविध रूप-वृन्तों पर प्रस्फुटित-पुष्पित विविध अलंकार शोभायमान हैं. डॉ. महेंद्र भटनागर गीतों में स्वाभाविक भावाभिव्यक्ति के पोषक हैं. उनके गीतों में प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक सनातन भारतीय परंपरा से उद्भूत हैं जिन्हें सामान्य पाठक/श्रोता सहज ही आत्मसात कर लेता है. ऐसे पद सर्वत्र व्याप्त हैं जिनका उदाहरण देना नासमझी ही कहा जायेगा. ऐसे पद 'स्वभावोक्ति अलंकार' के अंतर्गत गण्य हैं.
शब्दालंकारों की छटा:
डॉ. महेंद्र भटनागर सामान्य शब्दों का विशिष्ट प्रयोग कर शब्द-ध्वनियों द्वारा पाठकों/श्रोताओं को मुग्ध करने में सिद्धहस्त हैं. वे वस्तु या तत्त्व को रूपायित कर संवेद्य बनाते हैं. शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का यथास्थान प्रयोग गीतों के कथ्य को रमणीयता प्रदान करता है.
शब्दालंकारों के अंतर्गत आवृत्तिमूलक अलंकारों में अनुप्रास उन्हें सर्वाधिक प्रिय है.
'मैं तुम्हें अपना ह्रदय गा-गा बताऊँ, साथ छूटे यही कभी ना, हे नियति! करना दया, हे विधना! मोरे साजन का हियरा दूखे ना, आज आँखों में गया बस, प्रीत का सपना नया, निज बाहुओं में नेह से, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा, तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी आदि अगणित पंक्तियों में 'छेकानुप्रास' की छबीली छटा सहज दृष्टव्य है.
एक या अनेक वर्णों की अनेक आवृत्तियों से युक्त 'वृत्यानुप्रास' का सहज प्रयोग डॉ. महेंद्र जी के कवि-कर्म की कुशलता का साक्ष्य है. 'संसार सोने का सहज' (स की आवृत्ति), 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो' ( क तथा ह की आवृत्ति), 'महकी मेरे आँगन में महकी' (म की आवृत्ति), 'इसके कोमल-कोमल किसलय' (क की आवृत्ति), 'गह-गह गहनों-गहनों गहकी!' (ग की आवृत्ति), 'चारों ओर झूमते झर-झर' (झ की आवृत्ति), 'मिथ्या मर्यादा का मद गढ़' (म की आवृत्ति) आदि इसके जीवंत उदाहरण हैं.
अपेक्षाकृत कम प्रयुक्त हुए श्रुत्यानुप्रास के दो उदाहरण देखिये- 'सारी रात सुध-बुध भूल नहाओ' (ब, भ) , काली-काली अब रात न हो, घन घोर तिमिर बरसात न हो' (क, घ) .
गीतों की काया को गढ़ने में 'अन्त्यानुप्रास' का चमत्कारिक प्रयोग किया है महेंद्र जी ने. दो उदाहरण देखिये- 'और हम निर्धन बने / वेदना कारण बने तथा 'बेसहारे प्राण को निज बाँह दी / तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी / और जीने की नयी भर चाह दी' .
इन गीतों में 'भाव' को 'विचार' पर वरीयता प्राप्त है. अतः, 'लाटानुप्रास' कम ही मिलता है- 'उर में बरबस आसव री ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी हो ली.'
महेंद्र जी ने 'पुनरुक्तिप्रकाश' अलंकार के दोनों रूपों का अत्यंत कुशलता से प्रयोग किया है.
समानार्थी शब्दावृत्तिमय 'पुनरुक्तिप्रकाश' के उदाहरणों का रसास्वादन करें: 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, गह-गह गहनों-गहनों गहकी, इसके कोमल-कोमल किसलय, दलों डगमग-डगमग झूली, भोली-भोली गौरैया चहकी' आदि.
शब्द की भिन्नार्थक आवृत्तिमय पुनरुक्तिप्रकाश से उद्भूत 'यमक' अलंकार महेंद्र जी की रचनाओं को रम्य तथा बोधगम्य बनाता है: ' उर में बरबस आसव सी ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी होली' ( होली पर्व और हो चुकी), 'आँगन-आँगन दीप जलाओ (घर का आँगन, मन का आँगन).' आदि.
'श्लेष वक्रोक्ति' की छटा इन गीतों को अभिनव तथा अनुपम रूप-छटा से संपन्न कर मननीय बनाती है: 'चाँद मेरा खूब हँसता-मुस्कुराता है / खेलता है और फिर छिप दूर जाता है' ( चाँद = चन्द्रमा और प्रियतम), 'सितारों से सजी चादर बिछये चाँद सोता है'. काकु वक्रोक्ति के प्रयोग में सामान्यता तथा व्यंगार्थकता का समन्वय दृष्टव्य है: 'स्वर्ग से सुन्दर कहीं संसार है.'
चित्रमूलक अलंकार: हिंदी गीति काव्य के अतीत में २० वीं शताब्दी तक चित्र काव्यों तथा चित्रमूलक अलंकारों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ किन्तु अब यह समाप्त हो चुका है. असम सामयिक रचनाकारों में अहमदाबाद के डॉ. किशोर काबरा ने महाकाव्य 'उत्तर भागवत' में महाकाल के पूजन-प्रसंग में चित्रमय पताका छंद अंकित किया है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में लुप्तप्राय चित्रमूलक अलंकार यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं किन्तु कवि ने उन्हें जाने-अनजाने अनदेखा किया है.
डॉ. महेंद्र भटनागर जी ने शब्दालंकारों के साथ-साथ अर्थालंकारों का प्रयोग भी समान दक्षता तथा प्रचुरता से किया है. छंद मुक्ति के दुष्प्रयासों से सर्वथा अप्रभावित रहते हुए भी उनहोंने न केवल छंद की साधना की अपितु उसे नए शिखर तक पहुँचाने का भागीरथ प्रयास किया.
प्रस्तुत-अप्रस्तुत के मध्य गुण- सादृश्य प्रतिपादित करते 'उपमा अलंकार' को वे पूरी सहजता से अंगीकार कर सके हैं. 'दिग्वधू सा ही किया होगा, किसी ने कुंकुमी श्रृंगार / झलमलाया सोम सा होगा किसी का रे रुपहला प्यार, बिजुरी सी चमक गयीं तुम / श्रुति-स्वर सी गमक गयीं तुम / दामन सी झमक गयीं तुम / अलबेली छमक गयीं तुम / दीपक सी दमक गयीं तुम, कौन तुम अरुणिम उषा सी मन-गगन पर छ गयी हो? / कौन तुम मधुमास सी अमराइयाँ महका गयी हो? / कौन तुम नभ अप्सरा सी इस तरह बहका गयी हो? / कौन तुम अवदात री! इतनी अधिक जो भा गयी हो? आदि-आदि.
रूपक अलंकार उपमेय और उपमान को अभिन्न मानते हुए उपमेय में उपमान का आरोप कर अपनी दिव्या छटा से पाठक / श्रोता का मन मोहता है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में 'हो गया अनजान चंचल मन हिरन, झम-झमाकर नाच ले मन मोर, आस सूरज दूर बेहद दूर है, गाओ कि जीवन गीत बन जाये, गाओ पराजय जीत बन जाये, गाओ कि दुःख संगीत बन जाये, गाओ कि कण-कण मीत बन जाये, अंधियारे जीवन-नभ में बिजुरी सी चमक गयीं तुम, मुस्कुराये तुम ह्रदय-अरविन्द मेरा खिल गया है आदि में रूपक कि अद्भुत छटा दृष्टव्य है.'नभ-गंगा में दीप बहाओ, गहने रवि-शशि हों, गजरे फूल-सितारे, ऊसर-मन, रस-सागा, चन्द्र मुख, मन जल भरा मिलन पनघट, जीवन-जलधि, जीवन-पिपासा, जीवन बीन जैसे प्रयोग पाठक /श्रोता के मानस-चक्षुओं के समक्ष जिवंत बिम्ब उपस्थित करने में सक्षम है.
डॉ. महेंद्र भटनागर ने अतिशयोक्ति अलंकार का भी सरस प्रयोग सफलतापूर्वक किया है. एक उदाहरण देखें: 'प्रिय-रूप जल-हीन, अँखियाँ बनीं मीन, पर निमिष में लो अभी / अभिनव कला से फिर कभी दुल्हन सजाता हूँ, एक पल में लो अभी / जगमग नए अलोक के दीपक जलाता हूँ, कुछ क्षणों में लो अभी.'
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अन्योक्ति अलंकार भी बहुत सहजता से प्रयुक्त हुआ है. किसी एक वस्तु या व्यक्ति को लक्ष्य कर कही बात किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति पर घटित हो तो अन्योक्ति अलंकार होता है. इसमें प्रतीक रूप में बात कही जाती है जिसका भिन्नार्थ अभिप्रेत होता है. बानगी देखिये: 'सृष्टि सारी सो गयी है / भूमि लोरी गा रही है, तुम नहीं और अगहन की रात / आज मेरे मौन बुझते दीप में प्रिय / स्नेह भर दो / अब नहीं मेरे गगन पर चाँद निकलेगा.
कारण के बिना कार्य होने पर विशेषोक्ति अलंकार होता है. इन गीतों में इस अलंकार की व्याप्ति यत्र-तत्र दृष्टव्य है: 'जीवन की हर सुबह सुहानी हो, हर कदम पर आदमी मजबूर है आदि में कारन की अनुपस्थिति से विशेषोक्ति आभासित होता है.
'तुम्हारे पास मानो रूप का आगार है' में उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की गयी है. यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है जिसका अपेक्षाकृत कम प्रयोग इन गीतों में मिला.
डॉ. महेंद्र भटनागर रूपक तथा उपमा के धनी गीतकार हैं. सम्यक बिम्बविधान, तथा मौलिक प्रतीक-चयन में उनकी असाधारण दक्षता ने उन्हें अछूते उपमानों की कमी नहीं होने दी है. फलतः, वे उपमेय को उपमान प्रायः नहीं कहते. इस कारण उनके गीतों में व्याजस्तुति, व्याजनिंदा, विभावना, व्यतिरेक, भ्रांतिमान, संदेह, विरोधाभास, अपन्हुति, प्रतीप, अनन्वय आदि अलंकारों की उपस्थति नगण्य है.
'चाँद मेरे! क्यों उठाया / जीवन जलधि में ज्वार रे?, कौन तुम अरुणिम उषा सी, मन गगन पर छा गयी हो?, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा उषा रानी नहाती है, जूही मेरे आँगन में महकी आदि में मानवीकरण अलंकर की सहज व्याप्ति पाठक / श्रोता को प्रकृति से तादात्म्य बैठालने में सहायक होती है.
स्मरण अलंकार का प्रचुर प्रयोग डॉ. महेंद्र भटनागर ने अपने गीतों में पूर्ण कौशल के साथ किया है. चिर उदासी भग्न निर्धन, खो तरंगों को ह्रदय / अब नहीं जीवन जलधि में ज्वार मचलेगा, याद रह-रह आ रही है / रात बीती जा रही है, सों चंपा सी तुम्हारी याद साँसों में समाई है, सोने न देती छवि झलमलाती किसी की आदि अभिव्यक्तियों में स्मरण अलंकार की गरिमामयी उपस्थिति मन मोहती है.
तत्सम-तद्भव शब्द-भंडार के धनी डॉ. महेंद्र भटनागर एक वर्ण्य का अनेक विधि वर्णन करने में निपुण हैं. इस कारण गीतों में उल्लेख अलंकार की छटा निहित होना स्वाभाविक है. यथा: कौन तुम अरुणिम उषा सी?, मधु मॉस सी, नभ आभा सी, अवदात री?, बिजुरी सी, श्रुति-स्वर सी, दीपक सी / स्वागत पुत्री- जूही, गौरैया, स्वर्गिक धन आदि.
सच यह है कि डॉ. भटनागर के सृजन का फलक इतना व्यापक है कि उसके किसी एक पक्ष के अनुशीलन के लिए जिस गहन शोधवृत्ति की आवश्यकता है उसका शतांश भी मुझमें नहीं है. यह असंदिग्ध है की डॉ. महेंद्र भटनागर इस युग की कालजयी साहित्यिक विभूति हैं जिनका सम्यक और समुचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए और उनके सृजन पर अधिकतम शोध कार्य उनके रहते ही हों तो उनकी रचनाओं के विश्लेषण में वे स्वयं भी सहायक होंगे. डॉ. महेंद्र भटनागर की लेखनी और उन्हें दोनों को शतशः नमन.
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Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com/
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जगवाणी हिंदी को माँ वीणापाणी के सितार के तारों से झंकृत विविध रागों से उद्भूत सांस्कृत छांदस विरासत से समृद्ध होने का अनूठा सौभाग्य मिला है. संस्कृत साहित्य की सरस विरासत को हिंदी ने न केवल आत्मसात किया अपितु पल्लवित-पुष्पित भी किया. हिंदी साहित्योद्यान के गीत-वृक्ष पर झूमते-झूलते सुन्दर-सुरभिमय अगणित पुष्पों में अपनी पृथक पहचान और ख्याति से संपन्न डॉ. महेंद्र भटनागर गत ७ दशकों से विविध विधाओं (गीत, कविता, क्षणिका, कहानी, नाटक, साक्षात्कार, रेखाचित्र, लघुकथा, एकांकी, वार्ता संस्मरण, गद्य काव्य, रेडियो फीचर, समालोचना, निबन्ध आदि में) समान दक्षता के साथ सतत सृजन कर बहु चर्चित हुए हैं. उनके गीतों में सर्वत्र व्याप्त आलंकारिक वैभव का पूर्ण निदर्शन एक लेख में संभव न होने पर भी हमारा प्रयास इसकी एक झलक से पाठकों को परिचित कराना है. नव रचनाकर्मी इस लेख में उद्धृत उदाहरणों के प्रकाश में आलंकारिक माधुर्य और उससे उपजी रमणीयता को आत्मसात कर अपने कविकर्म को सुरुचिसंपन्न तथा सशक्त बनाने की प्रेरणा ले सकें, तो यह प्रयास सफल होगा.
संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य समीक्षा के विभिन्न सम्प्रदायों (अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचत्य, अनुमिति, रस) में से अलंकार, ध्वनि तथा रस को ही हिंदी गीति-काव्य ने आत्मार्पित कर नवजीवन दिया. संस्कृत साहित्य में अलंकार को 'सौन्दर्यमलंकारः' ( अलंकार को काव्य का कारक), 'अलंकरोतीति अलंकारः' (काव्य सौंदर्य का पूरक) तथा अलंकार का मूल वक्रोक्ति को माना गया.
'सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाच्याते.
यत्नोस्यां कविना कार्यः कोs लंकारोsनया बिना..' २.८५ -भामह, काव्यालंकारः
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीत-संसार में वक्रोक्ति-वृक्ष के विविध रूप-वृन्तों पर प्रस्फुटित-पुष्पित विविध अलंकार शोभायमान हैं. डॉ. महेंद्र भटनागर गीतों में स्वाभाविक भावाभिव्यक्ति के पोषक हैं. उनके गीतों में प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक सनातन भारतीय परंपरा से उद्भूत हैं जिन्हें सामान्य पाठक/श्रोता सहज ही आत्मसात कर लेता है. ऐसे पद सर्वत्र व्याप्त हैं जिनका उदाहरण देना नासमझी ही कहा जायेगा. ऐसे पद 'स्वभावोक्ति अलंकार' के अंतर्गत गण्य हैं.
शब्दालंकारों की छटा:
डॉ. महेंद्र भटनागर सामान्य शब्दों का विशिष्ट प्रयोग कर शब्द-ध्वनियों द्वारा पाठकों/श्रोताओं को मुग्ध करने में सिद्धहस्त हैं. वे वस्तु या तत्त्व को रूपायित कर संवेद्य बनाते हैं. शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का यथास्थान प्रयोग गीतों के कथ्य को रमणीयता प्रदान करता है.
शब्दालंकारों के अंतर्गत आवृत्तिमूलक अलंकारों में अनुप्रास उन्हें सर्वाधिक प्रिय है.
'मैं तुम्हें अपना ह्रदय गा-गा बताऊँ, साथ छूटे यही कभी ना, हे नियति! करना दया, हे विधना! मोरे साजन का हियरा दूखे ना, आज आँखों में गया बस, प्रीत का सपना नया, निज बाहुओं में नेह से, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा, तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी आदि अगणित पंक्तियों में 'छेकानुप्रास' की छबीली छटा सहज दृष्टव्य है.
एक या अनेक वर्णों की अनेक आवृत्तियों से युक्त 'वृत्यानुप्रास' का सहज प्रयोग डॉ. महेंद्र जी के कवि-कर्म की कुशलता का साक्ष्य है. 'संसार सोने का सहज' (स की आवृत्ति), 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो' ( क तथा ह की आवृत्ति), 'महकी मेरे आँगन में महकी' (म की आवृत्ति), 'इसके कोमल-कोमल किसलय' (क की आवृत्ति), 'गह-गह गहनों-गहनों गहकी!' (ग की आवृत्ति), 'चारों ओर झूमते झर-झर' (झ की आवृत्ति), 'मिथ्या मर्यादा का मद गढ़' (म की आवृत्ति) आदि इसके जीवंत उदाहरण हैं.
अपेक्षाकृत कम प्रयुक्त हुए श्रुत्यानुप्रास के दो उदाहरण देखिये- 'सारी रात सुध-बुध भूल नहाओ' (ब, भ) , काली-काली अब रात न हो, घन घोर तिमिर बरसात न हो' (क, घ) .
गीतों की काया को गढ़ने में 'अन्त्यानुप्रास' का चमत्कारिक प्रयोग किया है महेंद्र जी ने. दो उदाहरण देखिये- 'और हम निर्धन बने / वेदना कारण बने तथा 'बेसहारे प्राण को निज बाँह दी / तप्त तन को वारिदों सी छाँह दी / और जीने की नयी भर चाह दी' .
इन गीतों में 'भाव' को 'विचार' पर वरीयता प्राप्त है. अतः, 'लाटानुप्रास' कम ही मिलता है- 'उर में बरबस आसव री ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी हो ली.'
महेंद्र जी ने 'पुनरुक्तिप्रकाश' अलंकार के दोनों रूपों का अत्यंत कुशलता से प्रयोग किया है.
समानार्थी शब्दावृत्तिमय 'पुनरुक्तिप्रकाश' के उदाहरणों का रसास्वादन करें: 'कन-कन की हर्षांत कहानी हो, लहकी-लहकी मधुर जवानी हो, गह-गह गहनों-गहनों गहकी, इसके कोमल-कोमल किसलय, दलों डगमग-डगमग झूली, भोली-भोली गौरैया चहकी' आदि.
शब्द की भिन्नार्थक आवृत्तिमय पुनरुक्तिप्रकाश से उद्भूत 'यमक' अलंकार महेंद्र जी की रचनाओं को रम्य तथा बोधगम्य बनाता है: ' उर में बरबस आसव सी ढाल गयी होली / देखो अब तो अपनी यह चाल नयी होली' ( होली पर्व और हो चुकी), 'आँगन-आँगन दीप जलाओ (घर का आँगन, मन का आँगन).' आदि.
'श्लेष वक्रोक्ति' की छटा इन गीतों को अभिनव तथा अनुपम रूप-छटा से संपन्न कर मननीय बनाती है: 'चाँद मेरा खूब हँसता-मुस्कुराता है / खेलता है और फिर छिप दूर जाता है' ( चाँद = चन्द्रमा और प्रियतम), 'सितारों से सजी चादर बिछये चाँद सोता है'. काकु वक्रोक्ति के प्रयोग में सामान्यता तथा व्यंगार्थकता का समन्वय दृष्टव्य है: 'स्वर्ग से सुन्दर कहीं संसार है.'
चित्रमूलक अलंकार: हिंदी गीति काव्य के अतीत में २० वीं शताब्दी तक चित्र काव्यों तथा चित्रमूलक अलंकारों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ किन्तु अब यह समाप्त हो चुका है. असम सामयिक रचनाकारों में अहमदाबाद के डॉ. किशोर काबरा ने महाकाव्य 'उत्तर भागवत' में महाकाल के पूजन-प्रसंग में चित्रमय पताका छंद अंकित किया है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में लुप्तप्राय चित्रमूलक अलंकार यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं किन्तु कवि ने उन्हें जाने-अनजाने अनदेखा किया है.
डॉ. महेंद्र भटनागर जी ने शब्दालंकारों के साथ-साथ अर्थालंकारों का प्रयोग भी समान दक्षता तथा प्रचुरता से किया है. छंद मुक्ति के दुष्प्रयासों से सर्वथा अप्रभावित रहते हुए भी उनहोंने न केवल छंद की साधना की अपितु उसे नए शिखर तक पहुँचाने का भागीरथ प्रयास किया.
प्रस्तुत-अप्रस्तुत के मध्य गुण- सादृश्य प्रतिपादित करते 'उपमा अलंकार' को वे पूरी सहजता से अंगीकार कर सके हैं. 'दिग्वधू सा ही किया होगा, किसी ने कुंकुमी श्रृंगार / झलमलाया सोम सा होगा किसी का रे रुपहला प्यार, बिजुरी सी चमक गयीं तुम / श्रुति-स्वर सी गमक गयीं तुम / दामन सी झमक गयीं तुम / अलबेली छमक गयीं तुम / दीपक सी दमक गयीं तुम, कौन तुम अरुणिम उषा सी मन-गगन पर छ गयी हो? / कौन तुम मधुमास सी अमराइयाँ महका गयी हो? / कौन तुम नभ अप्सरा सी इस तरह बहका गयी हो? / कौन तुम अवदात री! इतनी अधिक जो भा गयी हो? आदि-आदि.
रूपक अलंकार उपमेय और उपमान को अभिन्न मानते हुए उपमेय में उपमान का आरोप कर अपनी दिव्या छटा से पाठक / श्रोता का मन मोहता है. डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में 'हो गया अनजान चंचल मन हिरन, झम-झमाकर नाच ले मन मोर, आस सूरज दूर बेहद दूर है, गाओ कि जीवन गीत बन जाये, गाओ पराजय जीत बन जाये, गाओ कि दुःख संगीत बन जाये, गाओ कि कण-कण मीत बन जाये, अंधियारे जीवन-नभ में बिजुरी सी चमक गयीं तुम, मुस्कुराये तुम ह्रदय-अरविन्द मेरा खिल गया है आदि में रूपक कि अद्भुत छटा दृष्टव्य है.'नभ-गंगा में दीप बहाओ, गहने रवि-शशि हों, गजरे फूल-सितारे, ऊसर-मन, रस-सागा, चन्द्र मुख, मन जल भरा मिलन पनघट, जीवन-जलधि, जीवन-पिपासा, जीवन बीन जैसे प्रयोग पाठक /श्रोता के मानस-चक्षुओं के समक्ष जिवंत बिम्ब उपस्थित करने में सक्षम है.
डॉ. महेंद्र भटनागर ने अतिशयोक्ति अलंकार का भी सरस प्रयोग सफलतापूर्वक किया है. एक उदाहरण देखें: 'प्रिय-रूप जल-हीन, अँखियाँ बनीं मीन, पर निमिष में लो अभी / अभिनव कला से फिर कभी दुल्हन सजाता हूँ, एक पल में लो अभी / जगमग नए अलोक के दीपक जलाता हूँ, कुछ क्षणों में लो अभी.'
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अन्योक्ति अलंकार भी बहुत सहजता से प्रयुक्त हुआ है. किसी एक वस्तु या व्यक्ति को लक्ष्य कर कही बात किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति पर घटित हो तो अन्योक्ति अलंकार होता है. इसमें प्रतीक रूप में बात कही जाती है जिसका भिन्नार्थ अभिप्रेत होता है. बानगी देखिये: 'सृष्टि सारी सो गयी है / भूमि लोरी गा रही है, तुम नहीं और अगहन की रात / आज मेरे मौन बुझते दीप में प्रिय / स्नेह भर दो / अब नहीं मेरे गगन पर चाँद निकलेगा.
कारण के बिना कार्य होने पर विशेषोक्ति अलंकार होता है. इन गीतों में इस अलंकार की व्याप्ति यत्र-तत्र दृष्टव्य है: 'जीवन की हर सुबह सुहानी हो, हर कदम पर आदमी मजबूर है आदि में कारन की अनुपस्थिति से विशेषोक्ति आभासित होता है.
'तुम्हारे पास मानो रूप का आगार है' में उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की गयी है. यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है जिसका अपेक्षाकृत कम प्रयोग इन गीतों में मिला.
डॉ. महेंद्र भटनागर रूपक तथा उपमा के धनी गीतकार हैं. सम्यक बिम्बविधान, तथा मौलिक प्रतीक-चयन में उनकी असाधारण दक्षता ने उन्हें अछूते उपमानों की कमी नहीं होने दी है. फलतः, वे उपमेय को उपमान प्रायः नहीं कहते. इस कारण उनके गीतों में व्याजस्तुति, व्याजनिंदा, विभावना, व्यतिरेक, भ्रांतिमान, संदेह, विरोधाभास, अपन्हुति, प्रतीप, अनन्वय आदि अलंकारों की उपस्थति नगण्य है.
'चाँद मेरे! क्यों उठाया / जीवन जलधि में ज्वार रे?, कौन तुम अरुणिम उषा सी, मन गगन पर छा गयी हो?, नील नभ सर में मुदित-मुग्धा उषा रानी नहाती है, जूही मेरे आँगन में महकी आदि में मानवीकरण अलंकर की सहज व्याप्ति पाठक / श्रोता को प्रकृति से तादात्म्य बैठालने में सहायक होती है.
स्मरण अलंकार का प्रचुर प्रयोग डॉ. महेंद्र भटनागर ने अपने गीतों में पूर्ण कौशल के साथ किया है. चिर उदासी भग्न निर्धन, खो तरंगों को ह्रदय / अब नहीं जीवन जलधि में ज्वार मचलेगा, याद रह-रह आ रही है / रात बीती जा रही है, सों चंपा सी तुम्हारी याद साँसों में समाई है, सोने न देती छवि झलमलाती किसी की आदि अभिव्यक्तियों में स्मरण अलंकार की गरिमामयी उपस्थिति मन मोहती है.
तत्सम-तद्भव शब्द-भंडार के धनी डॉ. महेंद्र भटनागर एक वर्ण्य का अनेक विधि वर्णन करने में निपुण हैं. इस कारण गीतों में उल्लेख अलंकार की छटा निहित होना स्वाभाविक है. यथा: कौन तुम अरुणिम उषा सी?, मधु मॉस सी, नभ आभा सी, अवदात री?, बिजुरी सी, श्रुति-स्वर सी, दीपक सी / स्वागत पुत्री- जूही, गौरैया, स्वर्गिक धन आदि.
सच यह है कि डॉ. भटनागर के सृजन का फलक इतना व्यापक है कि उसके किसी एक पक्ष के अनुशीलन के लिए जिस गहन शोधवृत्ति की आवश्यकता है उसका शतांश भी मुझमें नहीं है. यह असंदिग्ध है की डॉ. महेंद्र भटनागर इस युग की कालजयी साहित्यिक विभूति हैं जिनका सम्यक और समुचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए और उनके सृजन पर अधिकतम शोध कार्य उनके रहते ही हों तो उनकी रचनाओं के विश्लेषण में वे स्वयं भी सहायक होंगे. डॉ. महेंद्र भटनागर की लेखनी और उन्हें दोनों को शतशः नमन.
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Acharya Sanjiv Salil
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गुरुवार, 28 जनवरी 2010
डा० गणेश दत्त सारस्वत नहीं रहे
डा० गणेश दत्त सारस्वत नहीं रहे
(१० दिसम्बर १९३६--२६ जनवरी २०१०)
हिन्दी साहित्य के पुरोधा विद्वता व विनम्रता की प्रतिमूर्ति सरस्वतीपुत्र, डा० गणेश दत्त सारस्वत २६ जनवरी २०१० को हमारे बीच नहीं रहे।
शिक्षा : एम ए, हिन्दी तथा संस्कृत में पी० एच० डी०
प्राप्त सम्मान: उ० प्र० हिंदी संस्थान से अनुशंसा पुरुस्कार, हिंदी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद से साहित्य महोपाध्याय की उपाधि सहित अन्य बहुत से पुरुस्कार।
पूर्व धारित पद: पूर्व विभागाध्यक्ष हिंदी विभाग आर० एम० पी० पी० जी० कालेज सीतापुर
आप ’हिन्दी सभा’ के अध्यक्ष तथा’ ’मानस चन्दन’ के प्रमुख सम्पादक रहे हैं।
सारस्वत कुल में जनम, हिरदय में आवास..
उमादत्त इनके पिता, सीतापुर में वास.
श्यामल तन झुकते नयन, हिन्दी के विद्वान .
वाहन रखते साइकिल, साधारण परिधान..
कोमल स्वर मधुरिम वचन, करते सबसे प्रीति.
सरल सौम्य व्यवहार से, जगत लिया है जीत..
कर्म साधना में रमे, भगिनी गीता साथ.
मानस चन्दन दे रहे, जनमानस के हाथ..
तजी देह गणतन्त्र दिन, छूट गये सब काज.
हुए जगत में अब अमर, सारस्वत महाराज
हिंदी की सारी सभा, हुई आज बेहाल..
रमारमणजी हैं विकल, साथ निरन्जन लाल..
आपस में हो एकता, अपनी ये आवाज.
आओ मिल पूरित करें, इनके छूटे काज..
अम्बरीष नैना सजल, कहते ये ही बात.
आपस में सहयोग हो, हो हाथों में हाथ..
--अम्बरीष श्रीवास्तव
सारस्वत जी नहीं रहे...
श्री सारस्वत जी नहीं रहे, सुनकर होता विश्वास नहीं.
लगता है कर सृजन रहे, मौन बैठकर यहीं कहीं....
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मूर्ति सरलता के अनुपम,
जीवंत बिम्ब थे शुचिता के.
बाधक बन पाए कभी नहीं-
पथ में आडम्बर निजता के.
वे राम भक्त, भारत के सुत,
हिंदी के अनुपम चिन्तक-कवि.
मानस पर अब तक अंकित है
सादगीपूर्ण वह निर्मल छवि.
प्रभु को क्या कविता सुनना है?
या गीत कोई लिखवाना है?
पत्रिका कोई छपवाना है -
या भजन नया रचवाना है?
क्यों उन्हें बुलाया? प्रभु बोलो, हम खोज रहे हैं उन्हें यहीं.
श्री सारस्वत जी नहीं रहे, सुनकर होता विश्वास नहीं...
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सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम / दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
आइये! हम उन्हें कुछ श्रद्धा सुमन समर्पित करते हैं।
(१० दिसम्बर १९३६--२६ जनवरी २०१०)
हिन्दी साहित्य के पुरोधा विद्वता व विनम्रता की प्रतिमूर्ति सरस्वतीपुत्र, डा० गणेश दत्त सारस्वत २६ जनवरी २०१० को हमारे बीच नहीं रहे।
शिक्षा : एम ए, हिन्दी तथा संस्कृत में पी० एच० डी०
प्राप्त सम्मान: उ० प्र० हिंदी संस्थान से अनुशंसा पुरुस्कार, हिंदी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद से साहित्य महोपाध्याय की उपाधि सहित अन्य बहुत से पुरुस्कार।
पूर्व धारित पद: पूर्व विभागाध्यक्ष हिंदी विभाग आर० एम० पी० पी० जी० कालेज सीतापुर
आप ’हिन्दी सभा’ के अध्यक्ष तथा’ ’मानस चन्दन’ के प्रमुख सम्पादक रहे हैं।
सारस्वत कुल में जनम, हिरदय में आवास..
उमादत्त इनके पिता, सीतापुर में वास.
श्यामल तन झुकते नयन, हिन्दी के विद्वान .
वाहन रखते साइकिल, साधारण परिधान..
कोमल स्वर मधुरिम वचन, करते सबसे प्रीति.
सरल सौम्य व्यवहार से, जगत लिया है जीत..
कर्म साधना में रमे, भगिनी गीता साथ.
मानस चन्दन दे रहे, जनमानस के हाथ..
तजी देह गणतन्त्र दिन, छूट गये सब काज.
हुए जगत में अब अमर, सारस्वत महाराज
हिंदी की सारी सभा, हुई आज बेहाल..
रमारमणजी हैं विकल, साथ निरन्जन लाल..
आपस में हो एकता, अपनी ये आवाज.
आओ मिल पूरित करें, इनके छूटे काज..
अम्बरीष नैना सजल, कहते ये ही बात.
आपस में सहयोग हो, हो हाथों में हाथ..
--अम्बरीष श्रीवास्तव
सारस्वत जी नहीं रहे...
श्री सारस्वत जी नहीं रहे, सुनकर होता विश्वास नहीं.
लगता है कर सृजन रहे, मौन बैठकर यहीं कहीं....
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मूर्ति सरलता के अनुपम,
जीवंत बिम्ब थे शुचिता के.
बाधक बन पाए कभी नहीं-
पथ में आडम्बर निजता के.
वे राम भक्त, भारत के सुत,
हिंदी के अनुपम चिन्तक-कवि.
मानस पर अब तक अंकित है
सादगीपूर्ण वह निर्मल छवि.
प्रभु को क्या कविता सुनना है?
या गीत कोई लिखवाना है?
पत्रिका कोई छपवाना है -
या भजन नया रचवाना है?
क्यों उन्हें बुलाया? प्रभु बोलो, हम खोज रहे हैं उन्हें यहीं.
श्री सारस्वत जी नहीं रहे, सुनकर होता विश्वास नहीं...
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सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम / दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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नवगीत / भजन: जाग जुलाहे! --संजीव 'सलिल'
नवगीत / भजन:
संजीव 'सलिल'
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
आशा-पंछी चहक रहा है.
सुमन सुरभि ले महक रहा है..
समय बीतते समय न लगता.
कदम रोक, क्यों बहक रहा है?
संयम पहरेदार सो रहा-
सुविधा चतुरा चोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
साँसों का चरखा तक-धिन-धिन.
आसों का धागा बुन पल-छिन..
ताना-बाना, कथनी-करनी-
बना नमूना खाने गिन-गिन.
ज्यों की त्यों उजली चादर ले-
मन पतंग, तन डोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
रीते हाथों देख रहा जग.
अदना मुझको लेख रहा जग..
मन का मालिक, रब का चाकर.
शून्य भले अव्रेख रहा जग..
उषा उमंगों की लाली संग-
संध्या कज्जल-कोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी
***
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
संजीव 'सलिल'
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
आशा-पंछी चहक रहा है.
सुमन सुरभि ले महक रहा है..
समय बीतते समय न लगता.
कदम रोक, क्यों बहक रहा है?
संयम पहरेदार सो रहा-
सुविधा चतुरा चोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
साँसों का चरखा तक-धिन-धिन.
आसों का धागा बुन पल-छिन..
ताना-बाना, कथनी-करनी-
बना नमूना खाने गिन-गिन.
ज्यों की त्यों उजली चादर ले-
मन पतंग, तन डोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी...
***
रीते हाथों देख रहा जग.
अदना मुझको लेख रहा जग..
मन का मालिक, रब का चाकर.
शून्य भले अव्रेख रहा जग..
उषा उमंगों की लाली संग-
संध्या कज्जल-कोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गयी
***
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मंगलवार, 26 जनवरी 2010
विशेष लघु कथा:
सीख
आचार्य संजीव ‘सलिल’
भारत माता ने अपने घर में जन-कल्याण का जानदार आँगन बनाया. उसमें सिक्षा की शीतल हवा, स्वास्थ्य का निर्मल नीर, निर्भरता की उर्वर मिट्टी, उन्नति का आकाश, दृढ़ता के पर्वत, आस्था की सलिला, उदारता का समुद्र तथा आत्मीयता की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन के पौधे में प्रेम के पुष्प महक रहे थे.
सिर पर सफ़ेद टोपी लगाये एक बच्चा आया, रंग-बिरंगे पुष्प देखकर ललचाया. पुष्प पर सत्ता की तितली बैठी देखकर उसका मन ललचाया, तितली को पकड़ने के लिए हाथ बढाया, तितली उड़ गयी. बच्चा तितली के पीछे दौड़ा, गिरा, रोते हुए रह गया खडा.
कुछ देर बाद भगवा वस्त्रधारी दूसरा बच्चा खाकी पैंटवाले मित्र के साथ आया. सरोवर में खिला कमल का पुष्प उसके मन को भाया, मन ललचाया, बिना सोचे कदम बढाया, किनारे लगी काई पर पैर फिसला, गिरा, भीगा और सिर झुकाए वापिस लौट गया.
तभी चक्र घुमाता तीसरा बच्चा अनुशासन को तोड़ता, शोर मचाता घर में घुसा और हाथ में हँसिया-हथौडा थामे चौथा बच्चा उससे जा भिड़ा. दोनों टकराए, गिरे, कांटें चुभे और वे चोटें सहलाते सिसकने लगे.
हाथी की तरह मोटे, अक्ल के छोटे, कुछ बच्चे एक साथ धमाल मचाते आए, औरों की अनदेखी कर जहाँ मन हुआ वहीं जगह घेरकर हाथ-पैर फैलाये. धक्का-मुक्की में फूल ही नहीं पौधे भी उखाड़ लाये.
कुछ देर बाद भारत माता घर में आयीं, कमरे की दुर्दशा देखकर चुप नहीं रह पायीं, दुःख के साथ बोलीं- ‘ मत दो झूटी सफाई, मत कहो कि घर की यह दुर्दशा तुमने नहीं तितली ने बनाई. काश तुम तितली को भुला पाते, काँटों ओ समय रहते देख पाते, मिल-जुल कर रह पाते, ख़ुद अपने लिये लड़ने की जगह औरों के लिए कुछ कर पाते तो आदमी बन जाते.
सीख
आचार्य संजीव ‘सलिल’
भारत माता ने अपने घर में जन-कल्याण का जानदार आँगन बनाया. उसमें सिक्षा की शीतल हवा, स्वास्थ्य का निर्मल नीर, निर्भरता की उर्वर मिट्टी, उन्नति का आकाश, दृढ़ता के पर्वत, आस्था की सलिला, उदारता का समुद्र तथा आत्मीयता की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन के पौधे में प्रेम के पुष्प महक रहे थे.
सिर पर सफ़ेद टोपी लगाये एक बच्चा आया, रंग-बिरंगे पुष्प देखकर ललचाया. पुष्प पर सत्ता की तितली बैठी देखकर उसका मन ललचाया, तितली को पकड़ने के लिए हाथ बढाया, तितली उड़ गयी. बच्चा तितली के पीछे दौड़ा, गिरा, रोते हुए रह गया खडा.
कुछ देर बाद भगवा वस्त्रधारी दूसरा बच्चा खाकी पैंटवाले मित्र के साथ आया. सरोवर में खिला कमल का पुष्प उसके मन को भाया, मन ललचाया, बिना सोचे कदम बढाया, किनारे लगी काई पर पैर फिसला, गिरा, भीगा और सिर झुकाए वापिस लौट गया.
तभी चक्र घुमाता तीसरा बच्चा अनुशासन को तोड़ता, शोर मचाता घर में घुसा और हाथ में हँसिया-हथौडा थामे चौथा बच्चा उससे जा भिड़ा. दोनों टकराए, गिरे, कांटें चुभे और वे चोटें सहलाते सिसकने लगे.
हाथी की तरह मोटे, अक्ल के छोटे, कुछ बच्चे एक साथ धमाल मचाते आए, औरों की अनदेखी कर जहाँ मन हुआ वहीं जगह घेरकर हाथ-पैर फैलाये. धक्का-मुक्की में फूल ही नहीं पौधे भी उखाड़ लाये.
कुछ देर बाद भारत माता घर में आयीं, कमरे की दुर्दशा देखकर चुप नहीं रह पायीं, दुःख के साथ बोलीं- ‘ मत दो झूटी सफाई, मत कहो कि घर की यह दुर्दशा तुमने नहीं तितली ने बनाई. काश तुम तितली को भुला पाते, काँटों ओ समय रहते देख पाते, मिल-जुल कर रह पाते, ख़ुद अपने लिये लड़ने की जगह औरों के लिए कुछ कर पाते तो आदमी बन जाते.
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सोमवार, 25 जनवरी 2010
गणतंत्र दिवस पर विशेष गीत:
सारा का सारा हिंदी है
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
****************************************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
सारा का सारा हिंदी है
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.
रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
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आज की रचना: होता था घर एक -संजीव 'सलिल'
आज की रचना:
संजीव 'सलिल'
शायद बच्चे पढेंगे
'होता था घर एक.'
शब्द चित्र अंकित किया
मित्र कार्य यह नेक.
अब नगरों में फ्लैट हैं,
बंगले औ' डुप्लेक्स.
फार्म हाउस का समय है
मिलते मल्टीप्लेक्स.
बेघर खुद को कर रहे
तोड़-तोड़ घर आज.
इसीलिये गायब खुशी
हर कोई नाराज़.
घर न इमारत-भवन है
घर होता सम्बन्ध.
नाते निभाते हैं जहाँ
बिना किसी अनुबंध.
'ई-कविता' घर की बना
अद्भुत 'सलिल' मिसाल.
नाते नव नित बन रहे
देखें आप कमाल.
बिना मिले भी मन मिले,
होती जब तकरार.
दूजे पल ही बिखरता
निर्मल-निश्छल प्यार.
मतभेदों को हम नहीं
बना रहे मन-भेद.
लगे किसी को ठेस तो
सबको होता खेद.
नेह नर्मदा निरंतर
रहे प्रवाहित मित्र.
'ई-कविता' घर का बने
'सलिल' सनातन चित्र..
++++++++++++++++
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
संजीव 'सलिल'
शायद बच्चे पढेंगे
'होता था घर एक.'
शब्द चित्र अंकित किया
मित्र कार्य यह नेक.
अब नगरों में फ्लैट हैं,
बंगले औ' डुप्लेक्स.
फार्म हाउस का समय है
मिलते मल्टीप्लेक्स.
बेघर खुद को कर रहे
तोड़-तोड़ घर आज.
इसीलिये गायब खुशी
हर कोई नाराज़.
घर न इमारत-भवन है
घर होता सम्बन्ध.
नाते निभाते हैं जहाँ
बिना किसी अनुबंध.
'ई-कविता' घर की बना
अद्भुत 'सलिल' मिसाल.
नाते नव नित बन रहे
देखें आप कमाल.
बिना मिले भी मन मिले,
होती जब तकरार.
दूजे पल ही बिखरता
निर्मल-निश्छल प्यार.
मतभेदों को हम नहीं
बना रहे मन-भेद.
लगे किसी को ठेस तो
सबको होता खेद.
नेह नर्मदा निरंतर
रहे प्रवाहित मित्र.
'ई-कविता' घर का बने
'सलिल' सनातन चित्र..
++++++++++++++++
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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शनिवार, 23 जनवरी 2010
The network underlines a prejudice.
नवगीत: चले श्वास-चौसर पर --संजीव 'सलिल'
नवगीत
संजीव 'सलिल'
चले श्वास-चौसर पर
आसों का शकुनी नित दाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सम्बंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार.
प्रतिबंधों के धंधों के
आगे दुनिया लाचार.
कामनाओं ने भावनाओं को
करा दिया नीलाम.
बाद को अच्छा माने दुनिया,
कहे बुरा बदनाम.
ठंडक देती धूप,
ताप रही बाहर बेहद छाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सद्भावों की सती तजी,
वर राजनीति रथ्या.
हरिश्चंद्र ने त्याग सत्य,
चुन लिया असत मिथ्या..
सत्ता-शूर्पनखा हित लड़ते
हाय! लक्ष्मण-राम.
खुद अपने दुश्मन बन बैठे
कहें- विधाता वाम..
मोह शहर का किया
उजड़े अपने सुन्दर गाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
'सलिल' समय पर न्याय न होता,
करे देर अंधेर.
मार-मारकर बाज खा रहे
कुर्सी बैठ बटेर..
बेच रहे निष्ठाएँ अपनी,
बिना मोल बेदाम.
और कह रहे बेहयाई से
'भला करेंगे राम'.
अपने हाथों तोड़ खोजते
कहाँ खो गया ठाँव?
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
***************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
संजीव 'सलिल'
चले श्वास-चौसर पर
आसों का शकुनी नित दाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सम्बंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार.
प्रतिबंधों के धंधों के
आगे दुनिया लाचार.
कामनाओं ने भावनाओं को
करा दिया नीलाम.
बाद को अच्छा माने दुनिया,
कहे बुरा बदनाम.
ठंडक देती धूप,
ताप रही बाहर बेहद छाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
सद्भावों की सती तजी,
वर राजनीति रथ्या.
हरिश्चंद्र ने त्याग सत्य,
चुन लिया असत मिथ्या..
सत्ता-शूर्पनखा हित लड़ते
हाय! लक्ष्मण-राम.
खुद अपने दुश्मन बन बैठे
कहें- विधाता वाम..
मोह शहर का किया
उजड़े अपने सुन्दर गाँव.
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
*
'सलिल' समय पर न्याय न होता,
करे देर अंधेर.
मार-मारकर बाज खा रहे
कुर्सी बैठ बटेर..
बेच रहे निष्ठाएँ अपनी,
बिना मोल बेदाम.
और कह रहे बेहयाई से
'भला करेंगे राम'.
अपने हाथों तोड़ खोजते
कहाँ खो गया ठाँव?
मौन रो रही कोयल
कागा हँसकर बोले काँव...
***************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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-acharya sanjiv 'salil',
/samyik hindi kavya,
bal geet,
Contemporary Hindi Poetry,
nabgeet
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
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