कायस्थ युवक-युवती परिचय सम्मलेन भिलाई
13दिसम्बर2009
आयोजक
चित्रांश चर्चा मासिक एवं चित्रांश चेतना मंच
पंजीयन शुल्क रु. 151/-
अन्य विवरण के लिए संपर्क
दूरभाष: श्री देवेन्द्र नाथ - 0788-2290864
श्री अरुण श्रीवास्तव 'विनीत'09425201251
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
सोमवार, 21 सितंबर 2009
कायस्थ युवक-युवती परिचय सम्मलेन
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कायस्थ युवक-युवती परिचय सम्मलेन
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
नवगीत: लोकतंत्र के शहंशाह की जय... --आचार्य संजीव 'सलिल'
नवगीत:
लोकतंत्र के
शहंशाह की जय...
*
राजे-प्यादे
कभी हुए थे.
निज सुख में
नित लीन मुए थे.
करवट बदले समय
मिटे सब-
तनिक नहीं संशय.
कोपतंत्र के
शहंशाह की जय....
*
महाकाल ने
करवट बदली.
गायब असली,
आये नकली.
सिक्के खरे
नहीं हैं बाकि-
खोटे हैं निर्भय.
लोभतंत्र के
शहंशाह की जय...
*
जन-मत कुचल
माँगते जन-मत.
मन-मथ,तन-मथ
नाचें मन्मथ.
लोभ, हवस,
स्वार्थ-सुख हावी
करुनाकर निर्दय.
शोकतंत्र के
शहंशाह की जय....
******
लोकतंत्र के
शहंशाह की जय...
*
राजे-प्यादे
कभी हुए थे.
निज सुख में
नित लीन मुए थे.
करवट बदले समय
मिटे सब-
तनिक नहीं संशय.
कोपतंत्र के
शहंशाह की जय....
*
महाकाल ने
करवट बदली.
गायब असली,
आये नकली.
सिक्के खरे
नहीं हैं बाकि-
खोटे हैं निर्भय.
लोभतंत्र के
शहंशाह की जय...
*
जन-मत कुचल
माँगते जन-मत.
मन-मथ,तन-मथ
नाचें मन्मथ.
लोभ, हवस,
स्वार्थ-सुख हावी
करुनाकर निर्दय.
शोकतंत्र के
शहंशाह की जय....
******
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loktantra ke shahanshaah ki jaya,
navgeet
चिंतन : शिवानन्द वाणी
जब कभी तुम उभय-संभव तर्क में पड़ जाओ, तो तुम्हें
मार्ग निश्चित करने के लिए निपुण बनना चाहिए,
जिससे तुम्हे सीधी सफलता प्राप्त हो सके। इसके लिए
बुद्धि अति सूक्षम और कुशाग्र रहनी चाहिए।
YOU MUST BECOME AN EXPERT IN DECIDING
A LINE OF ACTION, WHEN YOU ARE IN A
DILEMMA, THAT CAN BRING SURE SUCCESS.
YOU MUST KEEP THE INSTRUMENT(BUDHHI)
VERY VERY SUBTLE AND SHARP.
(Swami Sivananda)
मार्ग निश्चित करने के लिए निपुण बनना चाहिए,
जिससे तुम्हे सीधी सफलता प्राप्त हो सके। इसके लिए
बुद्धि अति सूक्षम और कुशाग्र रहनी चाहिए।
YOU MUST BECOME AN EXPERT IN DECIDING
A LINE OF ACTION, WHEN YOU ARE IN A
DILEMMA, THAT CAN BRING SURE SUCCESS.
YOU MUST KEEP THE INSTRUMENT(BUDHHI)
VERY VERY SUBTLE AND SHARP.
(Swami Sivananda)
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chintan,
shivanand vani
सोमवार, 14 सितंबर 2009
स्वामी शिवानन्द वाणी
स्वामी शिवानन्द वाणी
भावनाओं की प्रचुरता और बुलबुले के समान
उठने वाली उत्तेजनाओं के प्रवाह में बह न जाओ।
उनको वश में करो। आखिर संकट आया क्यों, यह
झंझट बरसी कैसे-इस पर मनन करो। परिस्थितियों
पर विजय पाने के लिए अनेकों प्रभावशाली और
आसान तरीकों की सदैव गुंजाईश रहती है।
व्यवहार और दृढ़ता, लगन और ध्यान, धैर्य और
अप्रतिहत प्रयत्न, विश्वास और स्वावलम्बन
मनुष्य को ख्यातिमान बना देते हैं।
Do not be carried away by undue sentiments
and bubbling emotions. Control them.
Reflect how the calamity or trouble or
catastrophe has come. There is always
scope for suitable, effective, easy methods
to tide over the crisis or trying situation.
******************
APPLICATION AND TENACITY, INTEREST AND
ATTENTION, PATIENCE AND PERSEVERANCE,
FAITH AND SELF-RELIANCE, CAN MAKE A MAN
A WONDERFUL WORLD-FIGURE.
******************
SERVE ALL CREATURES OF GOD. THE SERVICE OF SERVANTS OF GOD IS HIS REAL WORSHIP.
विजय अनंत, अनंत सेवाश्रम, ७८८ सेक्टर १६, पंचकुला ०९८१५९००१५९ , http://vijayanant.blogspot.com
भावनाओं की प्रचुरता और बुलबुले के समान
उठने वाली उत्तेजनाओं के प्रवाह में बह न जाओ।
उनको वश में करो। आखिर संकट आया क्यों, यह
झंझट बरसी कैसे-इस पर मनन करो। परिस्थितियों
पर विजय पाने के लिए अनेकों प्रभावशाली और
आसान तरीकों की सदैव गुंजाईश रहती है।
व्यवहार और दृढ़ता, लगन और ध्यान, धैर्य और
अप्रतिहत प्रयत्न, विश्वास और स्वावलम्बन
मनुष्य को ख्यातिमान बना देते हैं।
Do not be carried away by undue sentiments
and bubbling emotions. Control them.
Reflect how the calamity or trouble or
catastrophe has come. There is always
scope for suitable, effective, easy methods
to tide over the crisis or trying situation.
******************
APPLICATION AND TENACITY, INTEREST AND
ATTENTION, PATIENCE AND PERSEVERANCE,
FAITH AND SELF-RELIANCE, CAN MAKE A MAN
A WONDERFUL WORLD-FIGURE.
******************
SERVE ALL CREATURES OF GOD. THE SERVICE OF SERVANTS OF GOD IS HIS REAL WORSHIP.
विजय अनंत, अनंत सेवाश्रम, ७८८ सेक्टर १६, पंचकुला ०९८१५९००१५९ , http://vijayanant.blogspot.com
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स्वामी शिवानन्द वाणी
नवगीत: संजीव 'सलिल'
नवगीत:
संजीव 'सलिल'
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
संजीव 'सलिल'
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
********************
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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angrejee,
geet,
hindi,
hindi divas,
nvgeet
श्लोक ११ से १५ मेघदूत ..अनुवाद प्रो सी बी श्रीवास्तव
कर्तुं यच च प्रभवति महीम उच्चिलीन्ध्राम अवन्ध्यां
तच च्रुत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोत्काः
आ कैलासाद बिसकिसलयच्चेदपाथेयवन्तः
संपत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः॥१.११॥
सुन कर्ण प्रिय घोष यह प्रिय तुम्हारा
जो करता धरा को हरा , पुष्पशाली
कैलाश तक साथ देते उड़ेंगे
कमल नाल ले हंस मानस प्रवासी
आपृच्चस्व प्रियसखम अमुं तुङ्गम आलिङ्ग्य शैलं
वन्द्यैः पुंसां रघुपतिपदैर अङ्कितं मेखलासु
काले काले भवति भवतो यस्य संयोगम एत्य
स्नेहव्यक्तिश चिरविरहजं मुञ्चतो बाष्पमुष्णम॥१.१२॥
जगतवंद्य श्रीराम पदपद्म अंकित
उधर पूततट शैल उत्तुंग से मिल
जो वर्ष भर बाद पा फिर तुम्हें
विरह दुख से खड़ा स्नेहमय अश्रुआविल
मर्गं तावच चृणु कथयतस त्वत्प्रयाणानुरूपं
संदेशं मे तदनु जलद श्रोष्यसि श्रोत्रपेयम
खिन्नः खिन्नः शिहरिषु पदं न्यस्य गन्तासि यत्र
क्षीणः क्षीणः परिलघु पयः स्रोतसां चोपभुज्य॥१.१३॥
तो घन सुनो मार्ग पहले गमन योग्य
फिर वह संदेशा जो प्रिया को सुनाना
थके और प्यासे , प्रखर गिरि शिखर पर
जहां निर्झरों से तृषा है बुझाना
अद्रेः शृङ्गं हरति पवनः किं स्विद इत्य उन्मुखीभिर
दृष्टोत्साहश चकितचकितं मुग्धसिद्धाङ्गनाभिः
स्थानाद अस्मात सरसनिचुलाद उत्पतोदङ्मुखः खं
दिङ्नागानां पथि परिहरन स्थूलहस्तावलेपान॥१.१४॥
यहां से दिशा उत्तर प्रति उड़ो
इस तरह से कि लख तेज गति यह तुम्हारी
सिद्धांगनायें भी अज्ञान के वश
भ्रमित हों कि यह वायु गिरितुंगधारी
रत्नच्चायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ताद
वल्मीकाग्रात प्रभवति धनुःखण्डम आखण्डलस्य
येन श्यामं वपुर अतितरां कान्तिम आपत्स्यते ते
बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः॥१.१५॥
यथा कृष्ण का श्याम वपु गोपवेशी
सुहाता मुकुट मोरपंखी प्रभा से
तथा रत्नछबि सम सतत शोभिनी
कान्ति पाओगे तुम इन्द्र धनु की विभा से
तच च्रुत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोत्काः
आ कैलासाद बिसकिसलयच्चेदपाथेयवन्तः
संपत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः॥१.११॥
सुन कर्ण प्रिय घोष यह प्रिय तुम्हारा
जो करता धरा को हरा , पुष्पशाली
कैलाश तक साथ देते उड़ेंगे
कमल नाल ले हंस मानस प्रवासी
आपृच्चस्व प्रियसखम अमुं तुङ्गम आलिङ्ग्य शैलं
वन्द्यैः पुंसां रघुपतिपदैर अङ्कितं मेखलासु
काले काले भवति भवतो यस्य संयोगम एत्य
स्नेहव्यक्तिश चिरविरहजं मुञ्चतो बाष्पमुष्णम॥१.१२॥
जगतवंद्य श्रीराम पदपद्म अंकित
उधर पूततट शैल उत्तुंग से मिल
जो वर्ष भर बाद पा फिर तुम्हें
विरह दुख से खड़ा स्नेहमय अश्रुआविल
मर्गं तावच चृणु कथयतस त्वत्प्रयाणानुरूपं
संदेशं मे तदनु जलद श्रोष्यसि श्रोत्रपेयम
खिन्नः खिन्नः शिहरिषु पदं न्यस्य गन्तासि यत्र
क्षीणः क्षीणः परिलघु पयः स्रोतसां चोपभुज्य॥१.१३॥
तो घन सुनो मार्ग पहले गमन योग्य
फिर वह संदेशा जो प्रिया को सुनाना
थके और प्यासे , प्रखर गिरि शिखर पर
जहां निर्झरों से तृषा है बुझाना
अद्रेः शृङ्गं हरति पवनः किं स्विद इत्य उन्मुखीभिर
दृष्टोत्साहश चकितचकितं मुग्धसिद्धाङ्गनाभिः
स्थानाद अस्मात सरसनिचुलाद उत्पतोदङ्मुखः खं
दिङ्नागानां पथि परिहरन स्थूलहस्तावलेपान॥१.१४॥
यहां से दिशा उत्तर प्रति उड़ो
इस तरह से कि लख तेज गति यह तुम्हारी
सिद्धांगनायें भी अज्ञान के वश
भ्रमित हों कि यह वायु गिरितुंगधारी
रत्नच्चायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ताद
वल्मीकाग्रात प्रभवति धनुःखण्डम आखण्डलस्य
येन श्यामं वपुर अतितरां कान्तिम आपत्स्यते ते
बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः॥१.१५॥
यथा कृष्ण का श्याम वपु गोपवेशी
सुहाता मुकुट मोरपंखी प्रभा से
तथा रत्नछबि सम सतत शोभिनी
कान्ति पाओगे तुम इन्द्र धनु की विभा से

रविवार, 13 सितंबर 2009
ईशावास्योपनिषद : हिंदी काव्यानुवाद डॉ. मृदुल कीर्ति
आत्मीय पाठकों!
वन्दे मातरम.
सनातन भारतीय मूल्यों के कालजयी वाहक उपनिषदों को संस्कृत में होने के कारण आम जन पढ़ नहीं पाते. विश्वविख्यात विदुषी डॉ. मृदुल कीर्ति जी जिनका साक्षात्कार विगत सप्ताह आपने पढ़ा, आज से हरको क सोमवार को किसी एक उपनिषद का हिंदी काव्यानुवाद का उपहार जनता जनार्दन को समर्पित कर हमें धन्य करेंगी.
दिव्यनर्मदा परिवार डॉ. मृदुल कीर्ति जी का ह्रदय से आभारी है, इस अनुपम और सर्वोपयोगी कार्य के लिए. -- सं.
जन्म स्थान पूरनपुर, जिला पीलीभीत, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ :
सामवेद का पद्यानुवाद (1988),
ईशादि नौ उपनिषद (1996),
अष्टवक्र गीता - काव्यानुवाद (2006),
ईहातीत क्षण (1991),
श्रीमद भगवद गीता का ब्रजभाषा में अनुवाद (2001)
विविध "ईशादि नौ उपनिषद" - आपने नौ उपनिषदों का हरिगीतिका छंद में हिन्दी अनुवाद किया है।
सम्पर्क: mridulkirti@hotmail.com
ईशावास्योपनिषद : हिंदी काव्यानुवाद डॉ. मृदुल कीर्ति
ॐ
समर्पण
परब्रह्म को
उस आदि शक्ति को,
जिसका संबल अविराम,
मेरी शिराओ में प्रवाहित है।
उसे अपनी अकिंचनता,
अनन्यता
एवं समर्पण
से बड़ी और क्या पूजा दूँ ?
शान्ति मंत्र
पूर्ण मदः पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्ण मुदचत्ये,
पूर्णस्य पूर्ण मादाये पूर्ण मेवावशिश्यते
परिपूर्ण पूर्ण है पूर्ण प्रभु, यह जगत भी प्रभु पूर्ण है,
परिपूर्ण प्रभु की पूर्णता से पूर्ण जग सम्पूर्ण है,
उस पूर्णता से पूर्ण घट कर पूर्णता ही शेष है,
परिपूर्ण प्रभु परमेश की यह पूर्णता ही विशेष है।
ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥
ईश्वर बसा अणु कण मे है, ब्रह्माण्ड में व नगण्य में,
सृष्टि सकल जड़ चेतना जग, सब समाया अगम्य में।
भोगो जगत निष्काम वृत्ति से, त्यक्तेन प्रवृत्ति हो
यह धन किसी का भी नही, अथ लेश न आसक्ति हो॥ [१]
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥
कर्तव्य कर्मों का आचरण, ईश्वर की पूजा मान कर,
सौ वर्ष जीने की कामना है, ब्रह्म ऐसा विधान कर।
निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा,
कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [२]
असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥
अज्ञान तम आवृत्त विविध बहु लोक योनि जन्म हैं,
जो भोग विषयासक्त, वे बहु जन्म लेते, निम्न हैं।
पुनरापि जनम मरण के दुख से, दुखित वे अतिशय रहें,
जग, जन्म, दुख, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥ [३]
अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥
है ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गतिमान है,
ज्ञानस्वरूपी, आदि कारण, सृष्टि का है महान है।
स्थित स्वयं गतिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे,
अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥
चलते भी हैं, प्रभु नहीं भी, प्रभु दूर से भी दूर हैं,
अत्यन्त है सामीप्य लगता, दूर हैं कि सुदूर हैं।
ब्रह्माण्ड के अणु कण में व्यापक, पूर्ण प्रभु परिपूर्ण है,
बाह्य अन्तः जगत में, वही व्याप्त है सम्पूर्ण है॥ [५]
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मनेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
प्रतिबिम्ब जो परमात्मा का प्राणियों में कर सके,
फिर वह घृणा संसार में कैसे किसी से कर सके।
सर्वत्र दर्शन परम प्रभु का, फिर सहज संभाव्य है,
अथ स्नेह पथ से परम प्रभु, प्रति प्राणी में प्राप्तव्य है॥ [६]
यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥
सर्वत्र भगवत दृष्टि अथ जब प्राणी को प्राप्तव्य हो,
प्रति प्राणी में एक मात्र, श्री परमात्मा ज्ञातव्य हो।
फिर शोक मोह विकार मन के शेष उसके विशेष हों,
एकमेव हो उसे ब्रह्म दर्शन, शेष दृश्य निःशेष हों॥ [७]
स पर्यगाच्छक्रमकायव्रणम स्नाविर शुद्धमपापविद्धम।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूर्याथातत्थ्यतो र्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यहः समाभ्यः ॥८॥
प्रभु पाच्भौतिक, सूक्ष्म, देह विहीन शुद्ध प्रवीण है,
सर्वज्ञ सर्वोपरि स्वयं भू, सर्व दोष विहीन है।
वही कर्म फल दाता विभाजक, द्रव्य रचनाकार है,
उसको सुलभ, जिसे ब्रह्म प्रति प्रति प्राणी में साकार है॥ [८]
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥
अभ्यर्थना करते अविद्या की, जो वे घन तिमिर में,
अज्ञान में हैं प्रवेश करते, भटकते तम अजिर में।
और वे तो जो कि ज्ञान के, मिथ्याभिमान में मत्त हैं,
हैं निम्न उनसे जो अविद्या, मद के तम उन्मत्त हैं॥ [९]
अन्यदेवाहुर्विद्यया न्यदेवाहुर्विद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥
क्षय क्षणिक, क्षण, क्षय माण, क्षण भंगुर जगत से विरक्ति हो,
यही ज्ञान का है यथार्थ रूप कि, ब्रह्म से बस भक्ति हो।
कर्तव्य कर्म प्रधान, पहल की भावना, निःशेष हो,
यही धीर पुरुषों के वचन, यही कर्म रूप विशेष हो॥ [१०]
विद्यां चाविद्यां च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥
जो ज्ञान कर्म के तत्व का, तात्विक व ज्ञाता बन सके,
निष्काम कर्म विधान से, निश्चय मृत्युंजय बन सके।
उसी ज्ञान कर्म विधान पथ से, मिल सके परब्रह्म से,
एक मात्र निश्चय पथ यही, है जो मिलाता अगम्य से॥ [११]
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये सम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्या रताः ॥१२॥
जो मरण धर्मा तत्त्व की, अभ्यर्थना करते सदा,
अज्ञान रुपी सघन तम में, प्रवेश करते हैं सर्वदा।
जिसे ब्रह्म अविनाशी की पूजा, भाव का अभिमान है,
वे जन्म मृत्यु के सघन तम में, विचरते हैं विधान है॥ [१२]
अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद विचचिक्षिरे ॥१३॥
प्रभु दिव्य गुण गण मय विभूषित, सच्चिदानंद घन अहे,
यही ब्रह्म अविनाशी के अर्चन का है रूप महिम महे।
जो देव ब्राह्मण, पितर, आचार्यों की निस्पृह भाव से,
अर्चना करते वे मुक्ति पाते पुण्य प्रभाव से॥ [१३]
संभूतिं च विनाशं च यस्तद वेदोभयम सह।
विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भुत्या मृतमश्नुते ॥१४॥
जिन्हें नित्य अविनाशी प्रभु का मर्म ऋत गंतव्य है,
उन्हे अमृतमय परमेश का अमृत सहज प्राप्तव्य है,
जिन्हें मरण धर्मा देवता का, मर्म ही मंतव्य है,
निष्काम वृति से विमल मन और कर्म ही गंतव्य है॥ [१४]
हिरण्यमयेंन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये ॥१५॥
अति दिव्य श्री मुख रश्मियों से, रवि के आवृत है प्रभो,
निष्कंप दर्शन हो हमें, करिये निरावृत, हे विभो !
ब्रह्माण्ड पोषक पुष्टि कर्ता, सच्चिदानंद आपकी,
हम चाहते हैं अकंप छवि, दर्शन कृपा हो आपकी॥ [१५]
पूषन्नेकर्षे यम् सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह।
कल्याणतमं तत्ते पश्यामि यो सौ पुरुषः सो हमस्मि ॥१६॥
हे! भक्त वत्सल, हे! नियंता, ज्ञानियों के लक्ष्य हो,
इन रश्मियों को समेट लो, दर्शन तनिक प्रत्यक्ष हो।
सौन्दर्य निधि माधुर्य दृष्टि, ध्यान से दर्शन करूं,
जो है आप हूँ मैं भी वही, स्व आपके अर्पण करूँ॥ [१६]
वायुर्निलममृतमथेदम भस्मानतम शरीरम।
ॐ क्रतो स्मर कृत स्मर क्रतो स्मर कृत स्मर ॥१७॥
यह देह शेष हो अग्नि में, वायु में प्राण भी लीन हो,
जब पंचभौतिक तत्व मय, सब इंद्रियां भी विलीन हों,
तब यज्ञ मय आनंद घन, मुझको मेरे कृत कर्मों को,
कर ध्यान देना परम गति, करना प्रभो स्व धर्मों को॥ [१७]
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानी देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्म ज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥
हे! अग्नि देव हमें प्रभो, शुभ उत्तरायण मार्ग से,
हूँ विनत प्रभु तक ले चलो, हो विज्ञ तुम मम कर्म से।
अति विनय कृतार्थ करो हमें, पुनि पुनि नमन अग्ने महे,
हो प्रयाण, पथ में पाप की, बाधा न कोई भी रहे॥ [१८]
*********************************************************
वन्दे मातरम.
सनातन भारतीय मूल्यों के कालजयी वाहक उपनिषदों को संस्कृत में होने के कारण आम जन पढ़ नहीं पाते. विश्वविख्यात विदुषी डॉ. मृदुल कीर्ति जी जिनका साक्षात्कार विगत सप्ताह आपने पढ़ा, आज से हरको क सोमवार को किसी एक उपनिषद का हिंदी काव्यानुवाद का उपहार जनता जनार्दन को समर्पित कर हमें धन्य करेंगी.
दिव्यनर्मदा परिवार डॉ. मृदुल कीर्ति जी का ह्रदय से आभारी है, इस अनुपम और सर्वोपयोगी कार्य के लिए. -- सं.
जन्म स्थान पूरनपुर, जिला पीलीभीत, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ :
सामवेद का पद्यानुवाद (1988),
ईशादि नौ उपनिषद (1996),
अष्टवक्र गीता - काव्यानुवाद (2006),
ईहातीत क्षण (1991),
श्रीमद भगवद गीता का ब्रजभाषा में अनुवाद (2001)
विविध "ईशादि नौ उपनिषद" - आपने नौ उपनिषदों का हरिगीतिका छंद में हिन्दी अनुवाद किया है।
सम्पर्क: mridulkirti@hotmail.com
ईशावास्योपनिषद : हिंदी काव्यानुवाद डॉ. मृदुल कीर्ति
ॐ
समर्पण
परब्रह्म को
उस आदि शक्ति को,
जिसका संबल अविराम,
मेरी शिराओ में प्रवाहित है।
उसे अपनी अकिंचनता,
अनन्यता
एवं समर्पण
से बड़ी और क्या पूजा दूँ ?
शान्ति मंत्र
पूर्ण मदः पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्ण मुदचत्ये,
पूर्णस्य पूर्ण मादाये पूर्ण मेवावशिश्यते
परिपूर्ण पूर्ण है पूर्ण प्रभु, यह जगत भी प्रभु पूर्ण है,
परिपूर्ण प्रभु की पूर्णता से पूर्ण जग सम्पूर्ण है,
उस पूर्णता से पूर्ण घट कर पूर्णता ही शेष है,
परिपूर्ण प्रभु परमेश की यह पूर्णता ही विशेष है।
ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥
ईश्वर बसा अणु कण मे है, ब्रह्माण्ड में व नगण्य में,
सृष्टि सकल जड़ चेतना जग, सब समाया अगम्य में।
भोगो जगत निष्काम वृत्ति से, त्यक्तेन प्रवृत्ति हो
यह धन किसी का भी नही, अथ लेश न आसक्ति हो॥ [१]
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥
कर्तव्य कर्मों का आचरण, ईश्वर की पूजा मान कर,
सौ वर्ष जीने की कामना है, ब्रह्म ऐसा विधान कर।
निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा,
कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [२]
असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥
अज्ञान तम आवृत्त विविध बहु लोक योनि जन्म हैं,
जो भोग विषयासक्त, वे बहु जन्म लेते, निम्न हैं।
पुनरापि जनम मरण के दुख से, दुखित वे अतिशय रहें,
जग, जन्म, दुख, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥ [३]
अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥
है ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गतिमान है,
ज्ञानस्वरूपी, आदि कारण, सृष्टि का है महान है।
स्थित स्वयं गतिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे,
अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥
चलते भी हैं, प्रभु नहीं भी, प्रभु दूर से भी दूर हैं,
अत्यन्त है सामीप्य लगता, दूर हैं कि सुदूर हैं।
ब्रह्माण्ड के अणु कण में व्यापक, पूर्ण प्रभु परिपूर्ण है,
बाह्य अन्तः जगत में, वही व्याप्त है सम्पूर्ण है॥ [५]
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मनेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
प्रतिबिम्ब जो परमात्मा का प्राणियों में कर सके,
फिर वह घृणा संसार में कैसे किसी से कर सके।
सर्वत्र दर्शन परम प्रभु का, फिर सहज संभाव्य है,
अथ स्नेह पथ से परम प्रभु, प्रति प्राणी में प्राप्तव्य है॥ [६]
यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥
सर्वत्र भगवत दृष्टि अथ जब प्राणी को प्राप्तव्य हो,
प्रति प्राणी में एक मात्र, श्री परमात्मा ज्ञातव्य हो।
फिर शोक मोह विकार मन के शेष उसके विशेष हों,
एकमेव हो उसे ब्रह्म दर्शन, शेष दृश्य निःशेष हों॥ [७]
स पर्यगाच्छक्रमकायव्रणम स्नाविर शुद्धमपापविद्धम।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूर्याथातत्थ्यतो र्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यहः समाभ्यः ॥८॥
प्रभु पाच्भौतिक, सूक्ष्म, देह विहीन शुद्ध प्रवीण है,
सर्वज्ञ सर्वोपरि स्वयं भू, सर्व दोष विहीन है।
वही कर्म फल दाता विभाजक, द्रव्य रचनाकार है,
उसको सुलभ, जिसे ब्रह्म प्रति प्रति प्राणी में साकार है॥ [८]
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥
अभ्यर्थना करते अविद्या की, जो वे घन तिमिर में,
अज्ञान में हैं प्रवेश करते, भटकते तम अजिर में।
और वे तो जो कि ज्ञान के, मिथ्याभिमान में मत्त हैं,
हैं निम्न उनसे जो अविद्या, मद के तम उन्मत्त हैं॥ [९]
अन्यदेवाहुर्विद्यया न्यदेवाहुर्विद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥
क्षय क्षणिक, क्षण, क्षय माण, क्षण भंगुर जगत से विरक्ति हो,
यही ज्ञान का है यथार्थ रूप कि, ब्रह्म से बस भक्ति हो।
कर्तव्य कर्म प्रधान, पहल की भावना, निःशेष हो,
यही धीर पुरुषों के वचन, यही कर्म रूप विशेष हो॥ [१०]
विद्यां चाविद्यां च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥
जो ज्ञान कर्म के तत्व का, तात्विक व ज्ञाता बन सके,
निष्काम कर्म विधान से, निश्चय मृत्युंजय बन सके।
उसी ज्ञान कर्म विधान पथ से, मिल सके परब्रह्म से,
एक मात्र निश्चय पथ यही, है जो मिलाता अगम्य से॥ [११]
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये सम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्या रताः ॥१२॥
जो मरण धर्मा तत्त्व की, अभ्यर्थना करते सदा,
अज्ञान रुपी सघन तम में, प्रवेश करते हैं सर्वदा।
जिसे ब्रह्म अविनाशी की पूजा, भाव का अभिमान है,
वे जन्म मृत्यु के सघन तम में, विचरते हैं विधान है॥ [१२]
अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद विचचिक्षिरे ॥१३॥
प्रभु दिव्य गुण गण मय विभूषित, सच्चिदानंद घन अहे,
यही ब्रह्म अविनाशी के अर्चन का है रूप महिम महे।
जो देव ब्राह्मण, पितर, आचार्यों की निस्पृह भाव से,
अर्चना करते वे मुक्ति पाते पुण्य प्रभाव से॥ [१३]
संभूतिं च विनाशं च यस्तद वेदोभयम सह।
विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भुत्या मृतमश्नुते ॥१४॥
जिन्हें नित्य अविनाशी प्रभु का मर्म ऋत गंतव्य है,
उन्हे अमृतमय परमेश का अमृत सहज प्राप्तव्य है,
जिन्हें मरण धर्मा देवता का, मर्म ही मंतव्य है,
निष्काम वृति से विमल मन और कर्म ही गंतव्य है॥ [१४]
हिरण्यमयेंन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये ॥१५॥
अति दिव्य श्री मुख रश्मियों से, रवि के आवृत है प्रभो,
निष्कंप दर्शन हो हमें, करिये निरावृत, हे विभो !
ब्रह्माण्ड पोषक पुष्टि कर्ता, सच्चिदानंद आपकी,
हम चाहते हैं अकंप छवि, दर्शन कृपा हो आपकी॥ [१५]
पूषन्नेकर्षे यम् सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह।
कल्याणतमं तत्ते पश्यामि यो सौ पुरुषः सो हमस्मि ॥१६॥
हे! भक्त वत्सल, हे! नियंता, ज्ञानियों के लक्ष्य हो,
इन रश्मियों को समेट लो, दर्शन तनिक प्रत्यक्ष हो।
सौन्दर्य निधि माधुर्य दृष्टि, ध्यान से दर्शन करूं,
जो है आप हूँ मैं भी वही, स्व आपके अर्पण करूँ॥ [१६]
वायुर्निलममृतमथेदम भस्मानतम शरीरम।
ॐ क्रतो स्मर कृत स्मर क्रतो स्मर कृत स्मर ॥१७॥
यह देह शेष हो अग्नि में, वायु में प्राण भी लीन हो,
जब पंचभौतिक तत्व मय, सब इंद्रियां भी विलीन हों,
तब यज्ञ मय आनंद घन, मुझको मेरे कृत कर्मों को,
कर ध्यान देना परम गति, करना प्रभो स्व धर्मों को॥ [१७]
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानी देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्म ज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥
हे! अग्नि देव हमें प्रभो, शुभ उत्तरायण मार्ग से,
हूँ विनत प्रभु तक ले चलो, हो विज्ञ तुम मम कर्म से।
अति विनय कृतार्थ करो हमें, पुनि पुनि नमन अग्ने महे,
हो प्रयाण, पथ में पाप की, बाधा न कोई भी रहे॥ [१८]
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मेघदूत अनुवाद ...आगे... द्वारा.. प्रो.सी बी श्रीवास्तव
जातं वंशे भुवनविदिते पुष्करावर्तकानां
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः
तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशाद दूरबन्धुर गतो ऽहं
याच्ञा मोघा वरम अधिगुणे नाधमे लब्धकामा॥१.६॥
कहा पुष्करावर्त के वंश में जात ,
सुरपति सुसेवक मनोवेशधारी
मैं दुर्भाग्यवश दूर प्रिय से पड़ा हूं
हो तुम श्रेष्ठ इससे है विनती हमारी
संतप्त जन के हे आश्रय प्रदाता
जलद! मम प्रिया को संदेशा पठाना
भली है गुणी से विफल याचना पर
बुरी नीच से कामना पूर्ति पाना
संतप्तानां त्वमसि शरणं तत पयोद प्रियायाः
संदेशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य
गन्तव्या ते वसतिर अलका नाम यक्षेश्वराणां
बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहर्म्या॥१.७॥
मैं , धनपति के श्राप से दूर प्रिय से
है अलकावती नाम नगरी हमारी
यक्षेश्वरों की, विशद चंद्रिका धौत
प्रासाद , है बन्धु गम्या तुम्हारी
त्वाम आरूढं पवनपदवीम उद्गृहीतालकान्ताः
प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिताः प्रत्ययाद आश्वसन्त्यः
कः संनद्धे विरहविधुरां त्वय्य उपेक्षेत जायां
न स्याद अन्यो ऽप्य अहम इव जनो यः पराधीनवृत्तिः॥१.८॥
गगन पंथ चारी , तिम्हें देख वनिता
स्वपति आगमन की लिये आश मन में
निहारेंगी फिर फिर ले विश्वास की सांस
अपने वदन से उठा रूक्ष अलकें
मुझ सम पराधीन जन के सिवा कौन
लखकर सघन घन उपस्थित गगन में
विरह दग्ध कान्ता की अवहेलना कब
करेगा कोई जन भला किस भवन में
त्वां चावश्यं दिवसगणनातत्पराम एकपत्नीम
अव्यापन्नाम अविहतगतिर द्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम
आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्य अङ्गनानां
सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि॥१.९॥
अतिमंद अनुकूल शीतल पवन दोल
पर जब बढ़ोगे स्वपथ पर प्रवासी
तो वामांग में तब मधुर कूक स्वन से
सुमानी पपीहा हरेगा उदासी
आबद्ध माला उड़ेंगी बलाका
समय इष्ट लख गर्भ के हित , गगन में
करेंगी सुस्वागत तुम्हारा वहां पर
स्व अभिराम दर्शन दे भर मोद मन में
मन्दं मन्दं नुदति पवनश चानुकूलो यथा त्वां
वामश चायं नदति मधुरं चातकस ते सगन्धः
गर्भाधानक्षणपरिचयान नूनम आबद्धमालाः
सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः॥१.१०॥
लखोगे सुनिश्चित विवश जीवशेषा
तो गिनते दिवस भ्रात की भामिनी को
आशा ही आधार , पति के विरह में
सुमन सम सुकोमल सुनारी हृदय को
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः
तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशाद दूरबन्धुर गतो ऽहं
याच्ञा मोघा वरम अधिगुणे नाधमे लब्धकामा॥१.६॥
कहा पुष्करावर्त के वंश में जात ,
सुरपति सुसेवक मनोवेशधारी
मैं दुर्भाग्यवश दूर प्रिय से पड़ा हूं
हो तुम श्रेष्ठ इससे है विनती हमारी
संतप्त जन के हे आश्रय प्रदाता
जलद! मम प्रिया को संदेशा पठाना
भली है गुणी से विफल याचना पर
बुरी नीच से कामना पूर्ति पाना
संतप्तानां त्वमसि शरणं तत पयोद प्रियायाः
संदेशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य
गन्तव्या ते वसतिर अलका नाम यक्षेश्वराणां
बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहर्म्या॥१.७॥
मैं , धनपति के श्राप से दूर प्रिय से
है अलकावती नाम नगरी हमारी
यक्षेश्वरों की, विशद चंद्रिका धौत
प्रासाद , है बन्धु गम्या तुम्हारी
त्वाम आरूढं पवनपदवीम उद्गृहीतालकान्ताः
प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिताः प्रत्ययाद आश्वसन्त्यः
कः संनद्धे विरहविधुरां त्वय्य उपेक्षेत जायां
न स्याद अन्यो ऽप्य अहम इव जनो यः पराधीनवृत्तिः॥१.८॥
गगन पंथ चारी , तिम्हें देख वनिता
स्वपति आगमन की लिये आश मन में
निहारेंगी फिर फिर ले विश्वास की सांस
अपने वदन से उठा रूक्ष अलकें
मुझ सम पराधीन जन के सिवा कौन
लखकर सघन घन उपस्थित गगन में
विरह दग्ध कान्ता की अवहेलना कब
करेगा कोई जन भला किस भवन में
त्वां चावश्यं दिवसगणनातत्पराम एकपत्नीम
अव्यापन्नाम अविहतगतिर द्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम
आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्य अङ्गनानां
सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि॥१.९॥
अतिमंद अनुकूल शीतल पवन दोल
पर जब बढ़ोगे स्वपथ पर प्रवासी
तो वामांग में तब मधुर कूक स्वन से
सुमानी पपीहा हरेगा उदासी
आबद्ध माला उड़ेंगी बलाका
समय इष्ट लख गर्भ के हित , गगन में
करेंगी सुस्वागत तुम्हारा वहां पर
स्व अभिराम दर्शन दे भर मोद मन में
मन्दं मन्दं नुदति पवनश चानुकूलो यथा त्वां
वामश चायं नदति मधुरं चातकस ते सगन्धः
गर्भाधानक्षणपरिचयान नूनम आबद्धमालाः
सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः॥१.१०॥
लखोगे सुनिश्चित विवश जीवशेषा
तो गिनते दिवस भ्रात की भामिनी को
आशा ही आधार , पति के विरह में
सुमन सम सुकोमल सुनारी हृदय को

शनिवार, 12 सितंबर 2009
मेघदूतम् हिन्दी पद्यानुवाद श्लोक १ से ५ पद्यानुवादक .. प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध "
मेघदूतम् हिन्दी पद्यानुवाद
महा कवि कालिदास कृत संस्कृत ..मेघदूतम्
हिन्दी पद्यानुवादक .. प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध "
संपर्क ओबी ११ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र. ४८२००८
मोबा. ०९४२५८०६२५२, फोन ०७६१२६६२०५२
पूर्वमेघः
कश्चित कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात प्रमत्तः
शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः
यक्षश चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्चायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥१.१॥
पदच्युत , प्रिया के विरहताप से
वर्ष भर के लिये , स्वामिआज्ञाभिशापित
कोई यक्ष सीतावगाहन सलिलपूत
घन छांह वन रामगिरि में निवासित
तस्मिन्न अद्रौ कतिचिद अबलाविप्रयुक्तः स कामी
नीत्वा मासान कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठः
आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघम आश्लिष्टसानुं
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श॥१.२॥
बिताते कई मास दौर्बल्य के वश
कनकवलय शोभा रहित हस्तवाला
प्रथम दिवस आषाढ़ के अद्रितट
वप्रक्रीड़ी द्विरद सम लखी मेघमाला
तस्य स्थित्वा कथम अपि पुरः कौतुकाधानहेतोर
अन्तर्बाष्पश चिरम अनुचरो राजराजस्य दध्यौ
मेघालोके भवति सुखिनो ऽप्य अन्यथावृत्ति चेतः
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर दूरसंस्थे॥१.३॥
हुआ स्तब्ध , चिंतित , प्रिया स्व्पन में रत
उचित जिन्हें लख विश्व चांच्ल्य पाता
उन आषाढ़घन के सुखद दर्शनो से
प्रियालिंगनार्थी हृदय की दशा क्या ?
प्रत्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी
जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन प्रवृत्तिम
स प्रत्यग्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मै
प्रीतः प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार॥१.४॥
पर धैर्य धारे शुभेच्छुक प्रिया का
कुशल वार्ता भेजने मेघ द्वारा
गिरि मल्लिका के नये पुष्प से...
पूजकर , मेघ प्रति बोल , सस्मित निहारा
महा कवि कालिदास कृत संस्कृत ..मेघदूतम्
हिन्दी पद्यानुवादक .. प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध "
संपर्क ओबी ११ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र. ४८२००८
मोबा. ०९४२५८०६२५२, फोन ०७६१२६६२०५२
पूर्वमेघः
कश्चित कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात प्रमत्तः
शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः
यक्षश चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्चायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥१.१॥
पदच्युत , प्रिया के विरहताप से
वर्ष भर के लिये , स्वामिआज्ञाभिशापित
कोई यक्ष सीतावगाहन सलिलपूत
घन छांह वन रामगिरि में निवासित
तस्मिन्न अद्रौ कतिचिद अबलाविप्रयुक्तः स कामी
नीत्वा मासान कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठः
आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघम आश्लिष्टसानुं
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श॥१.२॥
बिताते कई मास दौर्बल्य के वश
कनकवलय शोभा रहित हस्तवाला
प्रथम दिवस आषाढ़ के अद्रितट
वप्रक्रीड़ी द्विरद सम लखी मेघमाला
तस्य स्थित्वा कथम अपि पुरः कौतुकाधानहेतोर
अन्तर्बाष्पश चिरम अनुचरो राजराजस्य दध्यौ
मेघालोके भवति सुखिनो ऽप्य अन्यथावृत्ति चेतः
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर दूरसंस्थे॥१.३॥
हुआ स्तब्ध , चिंतित , प्रिया स्व्पन में रत
उचित जिन्हें लख विश्व चांच्ल्य पाता
उन आषाढ़घन के सुखद दर्शनो से
प्रियालिंगनार्थी हृदय की दशा क्या ?
प्रत्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी
जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन प्रवृत्तिम
स प्रत्यग्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मै
प्रीतः प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार॥१.४॥
पर धैर्य धारे शुभेच्छुक प्रिया का
कुशल वार्ता भेजने मेघ द्वारा
गिरि मल्लिका के नये पुष्प से...
पूजकर , मेघ प्रति बोल , सस्मित निहारा

निर्बलता दूर करने के उपाय : डॉ. कृष्णमोहन निगम, जबलपुर
निर्बलता दूर करने के उपाय : डॉ. कृष्णमोहन निगम, जबलपुर
-- बिदारीकंद को पीस-छान कर समान भर खांड (शक्कर) मिलाकर रख लें. एक-एक चम्मच गौ-दुग्ध के साथ सेवन करने से निर्बलता दूर होगी.
-- दो-दो अंजीर सुबह-शाम गौ-दुग्ध में औंटाकर सेवन करें तो यौन निर्बलता घटेगी.
-- पाँच मुनक्के गौ-दुग्ध में पकाकर सुबह-शाम सेवन करने स एशारिरिक निर्बलता दूर होगी.
-- पुनर्नवा कि जड़ तथा छाल को मिलाकर प्रातःकाल निहारे पेट दुग्ध के साथ सेवन करें तो शारीरिक निर्बलता दूर होकर स्मरण शक्ति बढेगी.
प्रस्तुतकर्ता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' पर 5:48 PM 0 टिप्पणियाँ
लेबल: ayurved, gharelu nuskhe, kmjoree, nirbalta
-- बिदारीकंद को पीस-छान कर समान भर खांड (शक्कर) मिलाकर रख लें. एक-एक चम्मच गौ-दुग्ध के साथ सेवन करने से निर्बलता दूर होगी.
-- दो-दो अंजीर सुबह-शाम गौ-दुग्ध में औंटाकर सेवन करें तो यौन निर्बलता घटेगी.
-- पाँच मुनक्के गौ-दुग्ध में पकाकर सुबह-शाम सेवन करने स एशारिरिक निर्बलता दूर होगी.
-- पुनर्नवा कि जड़ तथा छाल को मिलाकर प्रातःकाल निहारे पेट दुग्ध के साथ सेवन करें तो शारीरिक निर्बलता दूर होकर स्मरण शक्ति बढेगी.
प्रस्तुतकर्ता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' पर 5:48 PM 0 टिप्पणियाँ
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गुरुवार, 10 सितंबर 2009
आलेख: भारत की राजनीति और गृह योग -प० राजेश कुमार शर्मा
शनि+बुध+सूर्य+शुक्र का योग भारत के राजनैतिक व्यक्तियो कें लिये शुभ नहीं
शनि 9 सितंबर 2009 को रात्री में 12 (24) बजे कन्या राशि में प्रवेश करेगे और 16 सितंबर 2009 को 23बजकर 23 मिनट पर सूर्य कन्या राशि मे प्रवेश कर रहे हैं। 15 सितंबर 2009 को 20बजकर 39मिनट पर सिहं राशि में प्रवेश कर रहे हैं। राशियों का योग सितंबर माह में बनने जा रहा है। यह योग भारत के राजनैतिक व्यक्तियो कें लिये शुभ नहीं हैं अगस्त माह मे भी यह योग बना था जिसके परिणाम स्वरूप देश में चारो ओर प्रत्येक क्षेत्र में आमजनता को महंगाई का सामना करना पडा और राजनैतिक क्षेत्रो मे उठापटक हो गई हैं। वर्तमान में यह योग कुछ न कुछ अशुभ होने के सकेत दे रहा हैं। आम जन भी इस योग के कारण परेशानियों का सामना करेगा। चार राशियों का योग अक्टूबर माह में बन रहा हैं। यह योग अमावस्या को बनरहा हैं। शनि+बुध+सूर्य+शुक्र ये चार ग्रह का योग क्या रगं लायेगा ज्योतिष शास्त्रो में इसयोग को सुभिक्षा-दुभिक्ष योग कहां गया हैं इस वर्ष दीपावली भी शनिवार के दिन पड रहीं हैं यह भी अशुभ सकेत का कारक हैं इस पर ज्यादा लिखा जाना ठिक नहीं है। हम यहां पर शनि के कारण आनेवाली समस्याओ को आपके सामने रख रहें है।
कुंभ राशि को छोड़कर सभी राशियों के लिये यह सुखदायी होगा भारतवर्ष की वृष लग्न की कुंडली में कर्क राशि होने के कारण फिलहाल साढ़े साती का प्रभाव है। बुधवार की मध्यरात्रि को यह प्रभाव समाप्त हो जायेगा, जो देश के साथ देशवासियों के लिये भी शुभ है। कर्क व सिंह राशि वाले लोग पिछले सालो से कष्टों से पीडि़त हैं लेकिन इस बदलाव के बाद उनके कष्टों का स्वत: निवारण होने लगेगा।
शनि के कारण आनेवाली समस्याओ के निवारण
शनि की व्याधियां
आयुर्वेद में वात का स्थान विशेष रूप से अस्थि माना गया है। शनि वात प्रधान रोगों की उत्पत्ति करता है आयुर्वेद में जिन रोगों का कारण वात को बताया गया है उन्हें ही ज्योतिष शास्त्र में शनि के दुष्प्रभाव से होना बताया गया है। शनि के दुष्प्रभाव से केश, लोम, नख, दंत, जोड़ों आदि में रोग उत्पन्न होता है। आयुर्वेद अनुसार वात विकार से ये स्थितियां उत्पन्न होती हैं।
प्रशमन एवं निदान
ज्योतिष शास्त्र में शनि के दुष्प्रभावों से बचने के लिए दान आदि बताए गए हैं
माषाश्च तैलं विमलेन्दुनीलं तिल: कुलत्था महिषी च लोहम्।
कृष्णा च धेनु: प्रवदन्ति नूनं दुष्टाय दानं रविनन्दनाय॥
तेलदान, तेलपान, नीलम, लौहधारण आदि उपाय बताए गए हैं, वे ही आयुर्वेद में अष्टांगहृदय में कहे गए हैं। अत: चिकित्सक यदि ज्योतिष शास्त्र का सहयोग लें तो शनि के कारण उत्पन्न होने वाले विकारों को आसानी से पहचान सकते हैं। इस प्रकार शनि से उत्पन्न विकारों की चिकित्सा आसान हो जाएगी।
शनि ग्रह रोग के अतिरिक्त आम व्यवहार में भी बड़ा प्रभावी रहता है लेकिन इसका डरावना चित्र प्रस्तुत किया जाता है जबकि यह शुभफल प्रदान करने वाला ग्रह है। शनि की प्रसन्नता तेलदान, तेल की मालिश करने से, हरी सब्जियों के सेवन एवं दान से, लोहे के पात्रों व उपकरणों के दान से, निर्धन एवं मजदूर लोगों की दुआओं से होती है।
मध्यमा अंगुली को तिल के तेल से भरे लोहे के पात्र में डुबोकर प्रत्येक शनिवार को निम्न शनि मंत्र का 108 जप करें तो शनि के सारे दोष दूर हो जाते हैं तथा मनोकामना पूर्ण हो जाती है। ढैया सा साढ़े साती शनि होने पर भी पूर्ण शुभ फल प्राप्त होता है।
शनि मंत्र : ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम:।
॥ शनिवार व्रत ॥
आकाशगंगा के सभी ग्रहों में शनि ग्रह का मनुष्य पर सबसे हानिकारक प्रकोप होता है। शनि की कुदृष्टि से राजाओं तक का वैभव पलक झपकते ही नष्ट हो जाता है। शनि की साढ़े साती दशा जीवन में अनेक दु:खों, विपत्तियों का समावेश करती है। अत: मनुष्य को शनि की कुदृष्टि से बचने के लिए शनिवार का व्रत करते हुए शनि देवता की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। श्रावण मास में शनिवार का व्रत प्रारंभ करने का विशेष महत्व है।
शनिवार का व्रत कैसे करें?
* ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नदी या कुएँ के जल से स्नान करें।
* तत्पश्चात पीपल के वृक्ष पर जल अर्पण करें।
* लोहे से बनी शनि देवता की मूर्ति को पंचामृत से स्नान कराएँ।
* फिर इस मूर्ति को चावलों से बनाए चौबीस दल के कमल पर स्थापित करें।
* इसके बाद काले तिल, फूल, धूप, काला वस्त्र व तेल आदि से पूजा करें।
* पूजन के दौरान शनि के निम्न दस नामों का उच्चारण करें- कोणस्थ, कृष्ण, पिप्पला, सौरि, यम, पिंगलो, रोद्रोतको, बभ्रु, मंद, शनैश्चर।
* पूजन के बाद पीपल के वृक्ष के तने पर सूत के धागे से सात परिक्रमा करें।
* इसके पश्चात निम्न मंत्र से शनिदेव की प्रार्थना करें-
शनैश्चर नमस्तुभ्यं नमस्ते त्वथ राहवे।
केतवेअथ नमस्तुभ्यं सर्वशांतिप्रदो भव।।
* इसी तरह सात शनिवार तक व्रत करते हुए शनि के प्रकोप से सुरक्षा के लिए शनि मंत्र की समिधाओं में, राहु की कुदृष्टि से सुरक्षा के लिए दूर्वा की समिधा में, केतु से सुरक्षा के लिए केतु मंत्र में कुशा की समिधा में, कृष्ण जौ, काले तिल से 108 आहुति प्रत्येक के लिए देनी चाहिए।
* फिर अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराकर लौह वस्तु धन आदि का दान अवश्य करें।
नीलांजनं समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तण्ड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥
शनि का व्रत करने से लाभ
* शनिवार की पूजा सूर्योदय के समय करने से श्रेष्ठ फल मिलता है।
* शनिवार का व्रत और पूजा करने से शनि के प्रकोप से सुरक्षा के साथ राहु, केतु की कुदृष्टि से भी सुरक्षा होती है।
* मनुष्य की सभी मंगलकामनाएँ सफल होती हैं।
* व्रत करने तथा शनि स्तोत्र के पाठ से मनुष्य के जीवन में धन, संपत्ति, सामाजिक सम्मान, बुद्धि का विकास और परिवार में पुत्र, पौत्र आदि की प्राप्ति होती है।
प० राजेश कुमार शर्मा भृगु ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र सदर मेरठ 194/14शान्ति कुन्ज निकट रामा फलोर मिल सदर मेरठ कैन्ट
मोबईल न 9359109683 www.bhragujyotish.blogspot.com
शनि 9 सितंबर 2009 को रात्री में 12 (24) बजे कन्या राशि में प्रवेश करेगे और 16 सितंबर 2009 को 23बजकर 23 मिनट पर सूर्य कन्या राशि मे प्रवेश कर रहे हैं। 15 सितंबर 2009 को 20बजकर 39मिनट पर सिहं राशि में प्रवेश कर रहे हैं। राशियों का योग सितंबर माह में बनने जा रहा है। यह योग भारत के राजनैतिक व्यक्तियो कें लिये शुभ नहीं हैं अगस्त माह मे भी यह योग बना था जिसके परिणाम स्वरूप देश में चारो ओर प्रत्येक क्षेत्र में आमजनता को महंगाई का सामना करना पडा और राजनैतिक क्षेत्रो मे उठापटक हो गई हैं। वर्तमान में यह योग कुछ न कुछ अशुभ होने के सकेत दे रहा हैं। आम जन भी इस योग के कारण परेशानियों का सामना करेगा। चार राशियों का योग अक्टूबर माह में बन रहा हैं। यह योग अमावस्या को बनरहा हैं। शनि+बुध+सूर्य+शुक्र ये चार ग्रह का योग क्या रगं लायेगा ज्योतिष शास्त्रो में इसयोग को सुभिक्षा-दुभिक्ष योग कहां गया हैं इस वर्ष दीपावली भी शनिवार के दिन पड रहीं हैं यह भी अशुभ सकेत का कारक हैं इस पर ज्यादा लिखा जाना ठिक नहीं है। हम यहां पर शनि के कारण आनेवाली समस्याओ को आपके सामने रख रहें है।
कुंभ राशि को छोड़कर सभी राशियों के लिये यह सुखदायी होगा भारतवर्ष की वृष लग्न की कुंडली में कर्क राशि होने के कारण फिलहाल साढ़े साती का प्रभाव है। बुधवार की मध्यरात्रि को यह प्रभाव समाप्त हो जायेगा, जो देश के साथ देशवासियों के लिये भी शुभ है। कर्क व सिंह राशि वाले लोग पिछले सालो से कष्टों से पीडि़त हैं लेकिन इस बदलाव के बाद उनके कष्टों का स्वत: निवारण होने लगेगा।
शनि के कारण आनेवाली समस्याओ के निवारण
शनि की व्याधियां
आयुर्वेद में वात का स्थान विशेष रूप से अस्थि माना गया है। शनि वात प्रधान रोगों की उत्पत्ति करता है आयुर्वेद में जिन रोगों का कारण वात को बताया गया है उन्हें ही ज्योतिष शास्त्र में शनि के दुष्प्रभाव से होना बताया गया है। शनि के दुष्प्रभाव से केश, लोम, नख, दंत, जोड़ों आदि में रोग उत्पन्न होता है। आयुर्वेद अनुसार वात विकार से ये स्थितियां उत्पन्न होती हैं।
प्रशमन एवं निदान
ज्योतिष शास्त्र में शनि के दुष्प्रभावों से बचने के लिए दान आदि बताए गए हैं
माषाश्च तैलं विमलेन्दुनीलं तिल: कुलत्था महिषी च लोहम्।
कृष्णा च धेनु: प्रवदन्ति नूनं दुष्टाय दानं रविनन्दनाय॥
तेलदान, तेलपान, नीलम, लौहधारण आदि उपाय बताए गए हैं, वे ही आयुर्वेद में अष्टांगहृदय में कहे गए हैं। अत: चिकित्सक यदि ज्योतिष शास्त्र का सहयोग लें तो शनि के कारण उत्पन्न होने वाले विकारों को आसानी से पहचान सकते हैं। इस प्रकार शनि से उत्पन्न विकारों की चिकित्सा आसान हो जाएगी।
शनि ग्रह रोग के अतिरिक्त आम व्यवहार में भी बड़ा प्रभावी रहता है लेकिन इसका डरावना चित्र प्रस्तुत किया जाता है जबकि यह शुभफल प्रदान करने वाला ग्रह है। शनि की प्रसन्नता तेलदान, तेल की मालिश करने से, हरी सब्जियों के सेवन एवं दान से, लोहे के पात्रों व उपकरणों के दान से, निर्धन एवं मजदूर लोगों की दुआओं से होती है।
मध्यमा अंगुली को तिल के तेल से भरे लोहे के पात्र में डुबोकर प्रत्येक शनिवार को निम्न शनि मंत्र का 108 जप करें तो शनि के सारे दोष दूर हो जाते हैं तथा मनोकामना पूर्ण हो जाती है। ढैया सा साढ़े साती शनि होने पर भी पूर्ण शुभ फल प्राप्त होता है।
शनि मंत्र : ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम:।
॥ शनिवार व्रत ॥
आकाशगंगा के सभी ग्रहों में शनि ग्रह का मनुष्य पर सबसे हानिकारक प्रकोप होता है। शनि की कुदृष्टि से राजाओं तक का वैभव पलक झपकते ही नष्ट हो जाता है। शनि की साढ़े साती दशा जीवन में अनेक दु:खों, विपत्तियों का समावेश करती है। अत: मनुष्य को शनि की कुदृष्टि से बचने के लिए शनिवार का व्रत करते हुए शनि देवता की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। श्रावण मास में शनिवार का व्रत प्रारंभ करने का विशेष महत्व है।
शनिवार का व्रत कैसे करें?
* ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नदी या कुएँ के जल से स्नान करें।
* तत्पश्चात पीपल के वृक्ष पर जल अर्पण करें।
* लोहे से बनी शनि देवता की मूर्ति को पंचामृत से स्नान कराएँ।
* फिर इस मूर्ति को चावलों से बनाए चौबीस दल के कमल पर स्थापित करें।
* इसके बाद काले तिल, फूल, धूप, काला वस्त्र व तेल आदि से पूजा करें।
* पूजन के दौरान शनि के निम्न दस नामों का उच्चारण करें- कोणस्थ, कृष्ण, पिप्पला, सौरि, यम, पिंगलो, रोद्रोतको, बभ्रु, मंद, शनैश्चर।
* पूजन के बाद पीपल के वृक्ष के तने पर सूत के धागे से सात परिक्रमा करें।
* इसके पश्चात निम्न मंत्र से शनिदेव की प्रार्थना करें-
शनैश्चर नमस्तुभ्यं नमस्ते त्वथ राहवे।
केतवेअथ नमस्तुभ्यं सर्वशांतिप्रदो भव।।
* इसी तरह सात शनिवार तक व्रत करते हुए शनि के प्रकोप से सुरक्षा के लिए शनि मंत्र की समिधाओं में, राहु की कुदृष्टि से सुरक्षा के लिए दूर्वा की समिधा में, केतु से सुरक्षा के लिए केतु मंत्र में कुशा की समिधा में, कृष्ण जौ, काले तिल से 108 आहुति प्रत्येक के लिए देनी चाहिए।
* फिर अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराकर लौह वस्तु धन आदि का दान अवश्य करें।
नीलांजनं समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तण्ड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥
शनि का व्रत करने से लाभ
* शनिवार की पूजा सूर्योदय के समय करने से श्रेष्ठ फल मिलता है।
* शनिवार का व्रत और पूजा करने से शनि के प्रकोप से सुरक्षा के साथ राहु, केतु की कुदृष्टि से भी सुरक्षा होती है।
* मनुष्य की सभी मंगलकामनाएँ सफल होती हैं।
* व्रत करने तथा शनि स्तोत्र के पाठ से मनुष्य के जीवन में धन, संपत्ति, सामाजिक सम्मान, बुद्धि का विकास और परिवार में पुत्र, पौत्र आदि की प्राप्ति होती है।
प० राजेश कुमार शर्मा भृगु ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र सदर मेरठ 194/14शान्ति कुन्ज निकट रामा फलोर मिल सदर मेरठ कैन्ट
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आलेख: भारत की राजनीति और गृह योग -प० राजेश कुमार शर्मा
बुधवार, 9 सितंबर 2009
महाशोक: डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' नहीं रहीं -acharya sanjiv 'salil'
महाशोक:
डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' दिवंगत

ग्राम होरीपूरा, तहसील बाह, जिला आगरा उत्तर प्रदेश में २० सितम्बर १९३९ को जन्मी चित्राजी ने विधि और साहित्य के क्षेत्र में ख्यातिलब्ध पिता न्यायमूर्ति ब्रिजकिशोर चतुर्वेदी बार-एट-ला, से
सनातन मूल्यों के प्रति प्रेम और साहित्यिक सृजन की विरासत पाकर उसे सतत तराशा-संवारा और अपने जीवन का पर्याय बनाया. उद्भट विधि-शास्त्री, निर्भीक न्यायाधीश, निष्पक्ष इतिहासकार, स्वतंत्र विचारक, श्रेष्ठ साहित्यिक समीक्षक, लेखक तथा व्यंगकार पिता की विरासत को आत्मसात कर चित्रा जी ने अपने सृजन संसार को समृद्ध किया.
ग्वालियर, इंदौर तथा जबलपुर में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त चित्रा जी ने इलाहांबाद विश्व विद्यालय से १९६२ में राजनीति शास्त्र में एम्.ए. तथा १९६७ में डी. फिल. उपाधियाँ प्राप्तकर शासकीय स्वशासी महाकौशल कला-वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष के रूप में कर्मठता और निपुणता के अभिनव मानदंड स्थापित किये.
चित्राजी का सृजन संसार विविधता, श्रेष्ठता तथा सनातनता से समृद्ध है.
द्रौपदी के जीवन चरित्र पर आधारित उनका बहु प्रशंसित उपन्यास 'महाभारती' १९८९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद्र पुरस्कार तथा १९९९३ में म.प्र. साहित्य परिषद् द्वारा विश्वनाथ सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
ययाति-पुत्री माधवी पर आधारित उपन्यास 'तनया' ने उन्हें यशस्वी किया. लोकप्रिय मराठी साप्ताहिक लोकप्रभा में इसे धारावाहिक रूप में निरंतर प्रकाशित किया गया.
श्री कृष्ण के जीवन एवं दर्शन पर आधारित वृहद् उपन्यास 'वैजयंती' ( २ खंड) पर उन्हें १९९९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा पुनः प्रेमचंद पुरस्कार से अलंकृत किया गया.
उनकी महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियों में प्रथा पर्व (महाकाव्य), अम्बा नहीं मैं भीष्म (खंडकाव्य), तथा वैदेही के राम खंडकाव्य) महत्वपूर्ण है.
स्वभाव से गुरु गम्भीर चित्रा जी के व्यक्तित्व का सामान्यतः अपरिचित पक्ष उनके व्यंग संग्रह अटपटे बैन में उद्घाटित तथा प्रशंसित हुआ.
उनका अंतिम उपन्यास 'न्यायाधीश' शीघ्र प्रकाश्य है किन्तु समय का न्यायाधीश उन्हें अपने साथ ले जा चुका है.
उनके खंडकाव्य 'वैदेही के राम' पर कालजयी साहित्यकार डॉ. विद्यानिवास मिश्र का मत- ''डॉ चित्रा चतुर्वेदी ने जीवन का एक ही संकल्प लिया है कि श्री राम और श्री कृष्ण की गाथा को अपनी सलोनी भाषा में अनेक विधाओं में रचती रहेंगी. प्रस्तुत रचना वैदेही के राम उसी की एक कड़ी है. सीता की करूँ गाथा वाल्मीकि से लेकर अनेक संस्कृत कवियों (कालिदास, भवभूति) और अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओँ के कवियों ने बड़ी मार्मिकता के साथ उकेरी है. जैस अकी चित्रा जी ने अपनी भूमिका में कहा है, राम की व्यथा वाल्मीकि ने संकेत में तो दी, भवभूति ने अधिक विस्तार में दी पर आधुनिक कवियों ने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया, बहुत कम ने सोचा कि सीता के निर्वासन से अधिक राम का ही निर्वासन है, अपनी निजता से. सीता-निर्वासन के बाद से राम केवल राजा रह जाते हैं, राम नहीं रह जाते. यह उन्हें निरंतर सालता है. लोग यह भी नहीं सोचते कि सीता के साथ अन्याय करना, सीता को युगों-युगों तक निष्पाप प्रमाणित करना था.''
चित्रा जी के शब्दों में- ''आज का आलोचक मन पूछता है कि राम ने स्वयं सिंहासन क्यों नहीं त्याग दिया बजे सीता को त्यागने के? वे स्वयं सिंहासन प् र्बैठे राज-भोग क्यों करते रहे?इस मत के पीछे कुछ अपरिपक्वता और कुछ श्रेष्ठ राजनैतिक परम्पराओं एवं संवैधानिक अभिसमयों का अज्ञान भी है. रजा या शासक का पद और उससे जुड़े दायित्वों को न केवल प्राचीन भारत बल्कि आधुनिक इंग्लॅण्ड व अन्य देशों में भी दैवीय और महान माना गया है. रजा के प्रजा के प्रति पवित्र दायित्व हैं जिनसे वह मुकर नहीं सकता. अयोग्य राजा को समाज के हित में हटाया जा सकता था किन्तु स्वेच्छा से रजा पद-त्याग नहीं कर सकता था....कोइ भी पद अधिकारों के लिया नहीं कर्तव्यों के लिए होता है....''
चित्रा जी के मौलिक और तथ्यपरक चिंतन कि झलक उक्त अंश से मिलती है.

श्री नरेश मेहता को ''काफी समय से हिंदी में ऐसी और इतनी तुष्टि देनेवाली रचना नजर नहीं आयी.'' उनको तो ''पढ़ते समय ऐसा लगता रहा कि द्रौपदी को पढ़ा जरूर था पर शायद देखना आज हुआ है.''
आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के अनुसार- ''द्रौपदी को महाभारती कहना अपने आप में एक विशिष्ट उपलब्धि है.''
स्वयं चित्रा जी के अनुसार- ''यह कहानी न्याय पाने हेतु भटकती हुई गुहार की कहानी है. आज भी न्याय हेतु वह गुहार रह-रहकर कानों में गूँज रही है. नारी की पीडा शाश्वत है. नारी की व्यथा अनंत है. आज भी कितनी ही निर्दोष कन्यायें उत्पीडन सह रही हैं अथवा न सह पाने की स्थिति में आत्मघात कर रही हैं.
द्रुपदनन्दिनी भी टूट सकती थी, झंझाओं में दबकर कुचली जा सकती थी. महाभारत व रामायण काल में कितनी ही कन्याओं ने अपनी इच्छाओं का गला घोंट दिया. कितनी ही कन्याओं ने धर्म के नाम पर अपमान व कष्ट का हलाहल पान कर लिया. क्या हुआ था अंबा और अंबालिका के साथ? किस विवशता में आत्मघात किया था अंबा ने? क्या बीती थी ययाति की पुत्री माधवी पर? अनजाने में अंधत्व को ब्याह दी जाने वाली गांधारी ने क्यों सदा के लिए आँखें बंद कर ली थीं? और क्यों भूमि में समां गयीं जनकनन्दिनी अपमान से तिलमिलाकर? द्रौपदी भी इसी प्रकार निराश हो टूट सकती थी.
किन्तु अद्भुत था द्रुपदसुता का आत्मबल. जितना उस पर अत्याचार हुआ, उतनी ही वह भभक-भभककर ज्वाला बनती गयी. जितनी बार उसे कुचला गया, उतनी ही बार वह क्रुद्ध सर्पिणी सी फुफकार-फुफकार उठी. वह याज्ञसेनी थी. यज्ञकुंड से जन्म हुआ था उसका. अन्याय के प्रतिकार हेतु सहस्त्रों जिव्हाओंवाली अक्षत ज्वाला सी वह अंत तक लपलपाती रही.
नीलकंठ महादेव ने हलाहल पान किया किन्तु उसे सावधानी से कंठ में ही रख लिया था. कंठ विष के प्रभाव से नीला हो गया और वे स्वयं नीलकंठ किन्तु आजीवन अन्याय, अपमान तथा पीडा का हलाहल पी-पीकर ही दृपद्न्न्दिनी का वर्ण जैसे कृष्णवर्ण हो गया था. वह कृष्ण हो चली, किन्तु झुकी नहीं....''
चित्रा जी का वैशिष्ट्य पात्र की मनःस्थिति के अनुकूल शब्दावली, घटनाओं की विश्वसनीयता बनाये रखते हुए सम-सामयिक विश्लेषण, तार्किक-बौद्धिक मन को स्वीकार्य तर्क व मीमांसा, मौलिक चिंतन तथा युगबोध का समन्वय कर पाना है.
मुझे उनका निष्कपट सान्निध्य मिला यह मेरा सौभाग्य है. मेरी धर्मपत्नी डॉ. साधना वर्मा और चित्रा जी क्रमशः अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में एक ही महाविद्यालय में पदस्थ थीं. चित्रा जी साधना से भागिनिवत संबंध मानकर मुझे सम्मान देती रहीं. जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं ईंट-पत्थर जुडवाने के साथ शब्द-सिपाही भी हूँ तो उनकी स्नेह-सलिला मुझे आप्लावित करने लगी. एक-दो बार की भेंट में संकोच के समाप्त होते ही चित्रा जी का साहित्यकार विविध विषयों खासकर लेखनाधीन कृतियों के कथानकों और पात्रों की पृष्ठभूमि और विकास के बारे में मुझसे गहन चर्चा करने लगा. जब उन्हें किसी से मेरी ''दोहा गाथा'' लेख माला की जानकारी मिली तो उनहोंने बिना किसी संकोच के उसकी पाण्डुलिपि चाही. वे स्वयं विदुषी तथा मुझसे बहुत अधिक जानकारी रखती थीं किन्तु मुझे प्रोत्साहित करने, कोई त्रुटि हो रही हो तो उसे सुधारने तथा प्रशंसाकर आगे बढ़ने के लिए आशीषित करने के लिए उन्होंने बार-बार माँगकर मेरी रचनाएँ और लंबे-लंबे आलेख बहुधा पढ़े.
'दिव्या नर्मदा' पत्रिका प्रकाशन की योजना बताते ही वे संरक्षक बन गयीं. उनके अध्ययन कक्ष में सिरहाने-पैताने हर ओर श्रीकृष्ण के विग्रह थे. एक बार मेरे मुँह से निकल गया- ''आप और बुआ जी (महीयसी महादेवी जी) में बहुत समानता है, वे भी गौरवर्णा आप भी, वे भी श्वेतवसना आप भी, वे भी मिष्टभाषिणी आप भी, उनके भी सिरहाने श्री कृष्ण आपके भी.'' वे संकुचाते हुए तत्क्षण बोलीं 'वे महीयसी थीं मैं तो उनके चरणों की धूल भी नहीं हूँ.'
चित्रा जी को मैं हमेशा दीदी का संबोधन देता पर वे 'सलिल जी' ही कहती थीं. प्रारंभ में उनके साहित्यिक अवदान से अपरिचित मैं उन्हें नमन करता रहा और वे सहज भाव से सम्मान देती रहीं. उनके सृजन पक्ष का परिचय पाकर मैं उनके चरण स्पर्श करता तो कहतीं ' क्यों पाप में डालते हैं, साधना मेरी कभी बहन है.' मैं कहता- 'कलम के नाते तो कहा आप मेरी अग्रजा हैं इसलिए चरणस्पर्श मेरा अधिकार है.' वे मेरा मन और मान दोनों रख लेतीं. बुआ जी और दीदी में एक और समानता मैंने देखी वह यह कि दोनों ही बहुत स्नेह से खिलातीं थीं, दोनों के हाथ से जो भी खाने को मिले उसमें अमृत की तरह स्वाद होता था...इतनी तृप्ति मिलती कि शब्द बता नहीं सकते. कभी भूखा गया तो स्वल्प खाकर भी पेट भरने की अनुभूति हुई, कभी भरे पेट भी बहुत सा खाना पड़ा तो पता ही नहीं चला कहाँ गया. कभी एक तश्तरी नाश्ता कई को तृप्त कर देता तो कभी कई तश्तरियाँ एक के उदार में समां जातीं. शायद उनमें अन्नपूर्णा का अंश था जो उनके हाथ से मिली हर सामग्री प्रसाद की तरह लगती.
वे बहुत कृपण थीं अपनी रचनाएँ सुनाने में. सामान्यतः साहित्यकार खासकर कवि सुनने में कम सुनाने में अधिक रूचि रखते हैं किन्तु दीदी सर्वथा विपरीत थीं. वे सुनतीं अधिक, सुनातीं बहुत कम.
अपने पिताश्री तथा अग्रज के बारे में वे बहुधा बहुत उत्साह से चर्चा करतीं. अपनी मातुश्री से लोकजीवन, लोक साहित्य तथा लोक परम्पराओं की समझ तथा लगाव दीदी ने पाया था.
वे भाषिक शुद्धता, ऐतिहासिक प्रमाणिकता तथा सम-सामयिक युगबोध के प्रति सजग थीं. उनकी रचनाओं का बौद्धिक पक्ष प्रबल होना स्वाभाविक है कि वे प्राध्यापक थीं किन्तु उनमें भाव पक्ष भी सामान रूप से प्रबल है. वे पात्रों का चित्रण मात्र नहीं करती थीं अपितु पात्रों में रम जाती थीं, पात्रों को जीती थीं. इसलिए उनकी हर कृति जादुई सम्मोहन से पाठक को बाँध लेती है.
उनके असमय बिदाई हिंदी साहित्य की अपूरणीय क्षति है. शारदापुत्री का शारदालोक प्रस्थान हिंदी जगत को स्तब्ध कर गया. कौन जानता था कि ८ सितंबर को न उगनेवाला सूरज हिंदी साहित्य जगत के आलोक के अस्त होने को इंगित कर रहा है. कौन जानता था कि नील गगन से लगातार हो रही जलवृष्टि साहित्यप्रेमियों के नयनों से होनेवाली अश्रु वर्षा का संकेत है. होनी तो हो गयी पर मन में अब भी कसक है कि काश यह न होती...
चित्रा दीदी हैं और हमेशा रहेंगी... अपने पात्रों में, अपनी कृतियों में...नहीं है तो उनकी काया और वाणी... उनकी स्मृति का पाथेय सृजन अभियान को प्रेरणा देता रहेगा. उनकी पुण्य स्मृति को अशेष-अनंत प्रणाम.
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डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका'
साक्षात्कार: कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा
साक्षात्कार
कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति
प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा, सौजन्य: प्रभासाक्षी
डॉ. म्रदुल कीर्ति ने शाश्वत ग्रंथों का काव्यानुवाद कर उन्हें घर-घर पहुँचने का कार्य हाथ में लिया है. उनहोंने अष्टावक्र गीता और उपनिषदों का काव्यानुवाद करने के साथ-साथ भगवद्गीता का ब्रिज भाषा में अनुवाद भी किया है और इन दिनों पतंजलि योग सूत्र के काव्यानुवाद में लगी हैं. प्रस्तुत हैं उनसे हुई बातचीत के चुनिन्दा अंश:
प्रश्न: मृदुल जी! अक्सर लोग कविता लिखना शुरू करते हैं तो पद्य के साथ-साथ गद्य की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं पर आप आरंभिक अनुवाद की ओर कैसे प्रवृत्त हुईं और असके मूल प्रेरणास्त्रोत क्या थे?
उत्तर: इस प्रश्न उत्तर का दर्शन बहुत ही गूढ़ और गहरा है. वास्तव में चित्त तो चैतन्य की सत्ता का अंश है पर चित्त का स्वभाव तीनों तत्वों से बनता है- पहला आपके पूर्व जन्मों के कृत कर्म, दूसरा माता-पिता के अंश परमाणु और तीसरा वातावरण. इन तीनों के समन्वय से ही चित्त की वृत्तियाँ बनती हैं. इस पक्ष में गीता का अनुमोदन- वासुदेव अर्जुन से कहते हैं-शरीरं यद वाप्नोति यच्चप्युतक्रमति वरः / ग्रहीत्व वैतानी संयति वायुर्गंधा निवाश्यत.'
यानि वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है. इन भावों की काव्य सुधा भी आपको पिलाती चलूँ तो मुझे अपने काव्य कृत 'भगवदगीता का काव्यानुवाद ब्रिज भाषा में' की अनुवादित पंक्तियाँ सामयिक लग रही हैं.
यही तत्त्व गहन अति सूक्ष्म है जस वायु में गंध समावति है.
तस देहिन देह के भावन को, नव देह में हु लई जावति है..
कैवल्यपाद में ऋषि पातंजलि ने भी इसी तथ्य का अनुमोदन किया है. अतः, देहिन द्वारा अपने पूर्व जन्म के देहों का भाव पक्ष इस प्रकार सिद्ध हुआ और यही हमारा स्व-भाव है जिसे हम स्वभाव से ही दानी, उदार, कृपण या कर्कश होन कहते हैं. उसके मूल में यही स्व-भाव होता है.
नीम न मीठो होय, सींच चाहे गुड-घी से.
छोड़ती नांय सुभाव, जायेंगे चाहे जी से..
अतः, इन तीनों तत्वों का समीकरण ही प्रेरित होने के कारण हैं- मेरे पूर्व जन्म के संस्कार, माता-पिता के अंश परमाणु और वातावरण.
मेरी माँ प्रकाशवती परम विदुषी थीं. उन्हें पूरी गीता कंठस्थ थी. उपनिषद, सत्यार्थ प्रकाश आदि आध्यात्मिक साहित्य हमारे जीवन के अंग थे. तब मुझे कभी-कभी आक्रोश भी होता था कि सब तो शाम को खेलते हैं और मुझे मन या बेमन से ४ से ५ संध्या को स्वाध्याय करना होता था. उस ससमय वे कहती थीं-
तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीझ.
भूमि परे उपजेंगे ही, उल्टे-सीधे बीज..
मनो-भूमि पर बीज की प्रक्रिया मेरे माता-पिता की देन है. मेरे पिता सिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे. वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और संस्कृत में ही कवितायेँ लिखते थे. कर्ण पर खंड काव्य आज भी रखा है. उन दिनों आयुर्वेद की शिक्षा संस्कृत में ही होती थी- यह ज्ञातव्य हो. मेरे दादाजी ने अपना आधा घर आर्य समाज को तब दान कर दिया था जब स्वामी दयानंद जी पूरनपुर, जिला पीलीभीत में आये थे, जहाँ से आज भी नित्य ओंकार ध्वनित होता है. यज्ञ और संध्या हमारे स्वभाव बन चुके थे.
शादी के बाद इन्हीं परिवेशों की परीक्षा मुझे देनी थी. नितान्त विरोधी नकारात्मक ऊर्जा के दो पक्ष होते हैं या तो आप उनका हिस्सा बन जाएँ अथवा खाद समझकर वहीं से ऊर्जा लेना आरम्भ कर दें. बिना पंखों के उडान भरने का संकल्प भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहा पर जब आप कोई सत्य थामते हैं तो इन गलियारों में से ही अंतिम सत्य मिलता है. अनुवाद के पक्ष में मैं इसे दिव्य प्रेरणा ही कहूँगी. मुझे तो बस लेखनी थामना भर दिखाई देता था.
प्रश्न: आगामी परिकल्पनाएं क्या थीं? वे कहाँ तक पूरी हुईं?
उत्तर:
वेदों में राजनैतिक व्यवस्था' इस शीर्षक के अर्न्तगत मेरा शोध कार्य चल ही रहा था. यजुर्वेद की एक मन्त्रणा जिसका सार था कि राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्रीय महत्व के साहित्य और विचारों का सम्मान और प्रोत्साहन करे. यह वाक्य मेरे मन ने पकड़ लिया और रसोई घर से राष्ट्रपति भवन तक की मेरी मानसिक यात्रा यहीं से आरम्भ हो गयी. मेरे पंख नहीं थे पर सात्विक कल्पनाओं का आकाश मुझे सदा आमंत्रण देता रहता था. सामवेद का अनुवाद मेरे हाथ में था जिसे छपने में बहुत बाधाएं आयीं. दयानंद संस्थान से यह प्रकाशित हुआ. श्री वीरेन्द्र शर्मा जी जो उस समय राज्य सभा के सदस्य थे, उनके प्रयास से राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरामन द्वारा राष्ट्रपति भवन में १६ मई १९८८ को इसका विमोचन हुआ. सुबह सभी मुख्य समाचार पत्रों के शीर्षक मुझे आज भी याद हैं- 'वेदों के बिना भारत की कल्पना नहीं', 'असंभव को संभव किया', 'रसोई से राष्ट्रपति भवन तक' आदि-आदि. तब से लेकर आज तक यह यात्रा सतत प्रवाह में है. सामवेद के उपरांत ईशादि ९ उपनिषदों का अनुवाद 'हरिगीतिका' छंद में किया. ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय और श्वेताश्वर- इनका विमोचन महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने १७ अप्रैल १९९६ को किया.
तदनंतर भगवद्गीता का काव्यात्मक अनुवाद ब्रिज भाषा में घनाक्षरी छंद में किया जिसका विमोचन श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने कृष्ण जन्माष्टमी पर १२ अगस्त २२०९ को किया. 'ईहातीत क्षण' आध्यत्मिक काव्य संग्रह का विमोचन मोरिशस के राजदूत ने १९९२ में किया.
प्रश्न: संगीत शिक्षा व छंदों के ज्ञान के बिना वेदों-उपनिषदों का अनुवाद आसान नहीं.
उत्तर: संसार में सब कुछ सिखाने के असंख्य शिक्षण संस्थान हैं पर कहीं भी कविता सिखाने का संस्थान नहीं है क्योंकि काव्य स्वयं ही व्याकरण से संवरा हुआ होता है. क्या कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी ने कहीं काव्य कौशल सीखा था? अतः, सिद्ध होता है कि दिव्य काव्य कृपा-साध्य होता है, श्रम-साध्य नहीं. मैं स्वयं कभी ब्रिज के पिछवाडे से भी नहीं निकली जब गीता को ब्रिज भाषा में अनुवादित किया. हाँ, बाद में बांके बिहारी के चरणों में समर्पण करने गयी थी. इसकी एक पुष्टि और है. पातंजल योग शास्त्र को काव्यकृत करने के अनंतर यदि कहीं कुछ रह जाता है तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सटीक शब्द नहीं खोज पाती हूँ. यदि मैंने कहीं लिखा है तो मुझे किस शक्ति की प्रतीक्षा है? इसलिए ये काव्य अमर होते हैं. इनका अमृतत्व इन्हें अमरत्व देता है.
प्रश्न: आपकी भावी योजना क्या है?
उत्तर: हम श्रुति परंपरा के वाहक हैं. वेद सुनकर ही हम तक आये हैं. हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में कर्ण सबसे अधिक प्रवण माने जाते हैं. नाद आकाश का क्षेत्र है और आकाश कि तन्मात्रा ध्वनि है. नभ अनंत है, अतः ध्वनि का पसारा भी अनंत है. भारतीय दर्शन के अनुसार वाणी का कभी नाश भी नहीं होता. अतः, इस दर्शन में अथाह विश्वास रखते हुए मैं इन अनुवादों को सी.डी. में रूपांतरित करने हेतु तत्पर हूँ. मार्च में अष्टावक्र गीता और पातंजल योग दर्शन का विमोचन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल कर रही हैं. उसी के साथ पातंजल योग दर्शन का काव्यकृत गायन भी विमोचित होगा. पातंजल योग दर्शन की क्लिष्टता से सब परिचित हैं ही. इसी कारण जन सामान्य तक कम जा सका है. अब सरल और सरस रूप में जन-मानस को सुलभ हो सकेगा. अतः, पूरे विश्व में इन दर्शनों कि क्लिष्टता को सरल और सरस काव्य में जनमानस के अंतर में उतार सकूँ यही भावी योजना है. मैं अंतिम सत्य को एक पल भी भूल नहीं पाती जो मुझे जगाये रखता है.
परयो भूमि बिन प्राण के, तुलसी-दल मुख-नांहि.
प्राण गए निज देस में, अब तन फेंकन जांहि.
को दारा, सुत, कंत, सनेही, इक पल रखिहें नांहि.
तनिक और रुक जाओ तुम, कोऊ न पकिरें बाँहि..
*************************************
कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति
प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा, सौजन्य: प्रभासाक्षी
डॉ. म्रदुल कीर्ति ने शाश्वत ग्रंथों का काव्यानुवाद कर उन्हें घर-घर पहुँचने का कार्य हाथ में लिया है. उनहोंने अष्टावक्र गीता और उपनिषदों का काव्यानुवाद करने के साथ-साथ भगवद्गीता का ब्रिज भाषा में अनुवाद भी किया है और इन दिनों पतंजलि योग सूत्र के काव्यानुवाद में लगी हैं. प्रस्तुत हैं उनसे हुई बातचीत के चुनिन्दा अंश:
प्रश्न: मृदुल जी! अक्सर लोग कविता लिखना शुरू करते हैं तो पद्य के साथ-साथ गद्य की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं पर आप आरंभिक अनुवाद की ओर कैसे प्रवृत्त हुईं और असके मूल प्रेरणास्त्रोत क्या थे?
उत्तर: इस प्रश्न उत्तर का दर्शन बहुत ही गूढ़ और गहरा है. वास्तव में चित्त तो चैतन्य की सत्ता का अंश है पर चित्त का स्वभाव तीनों तत्वों से बनता है- पहला आपके पूर्व जन्मों के कृत कर्म, दूसरा माता-पिता के अंश परमाणु और तीसरा वातावरण. इन तीनों के समन्वय से ही चित्त की वृत्तियाँ बनती हैं. इस पक्ष में गीता का अनुमोदन- वासुदेव अर्जुन से कहते हैं-शरीरं यद वाप्नोति यच्चप्युतक्रमति वरः / ग्रहीत्व वैतानी संयति वायुर्गंधा निवाश्यत.'
यानि वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है. इन भावों की काव्य सुधा भी आपको पिलाती चलूँ तो मुझे अपने काव्य कृत 'भगवदगीता का काव्यानुवाद ब्रिज भाषा में' की अनुवादित पंक्तियाँ सामयिक लग रही हैं.
यही तत्त्व गहन अति सूक्ष्म है जस वायु में गंध समावति है.
तस देहिन देह के भावन को, नव देह में हु लई जावति है..
कैवल्यपाद में ऋषि पातंजलि ने भी इसी तथ्य का अनुमोदन किया है. अतः, देहिन द्वारा अपने पूर्व जन्म के देहों का भाव पक्ष इस प्रकार सिद्ध हुआ और यही हमारा स्व-भाव है जिसे हम स्वभाव से ही दानी, उदार, कृपण या कर्कश होन कहते हैं. उसके मूल में यही स्व-भाव होता है.
नीम न मीठो होय, सींच चाहे गुड-घी से.
छोड़ती नांय सुभाव, जायेंगे चाहे जी से..
अतः, इन तीनों तत्वों का समीकरण ही प्रेरित होने के कारण हैं- मेरे पूर्व जन्म के संस्कार, माता-पिता के अंश परमाणु और वातावरण.
मेरी माँ प्रकाशवती परम विदुषी थीं. उन्हें पूरी गीता कंठस्थ थी. उपनिषद, सत्यार्थ प्रकाश आदि आध्यात्मिक साहित्य हमारे जीवन के अंग थे. तब मुझे कभी-कभी आक्रोश भी होता था कि सब तो शाम को खेलते हैं और मुझे मन या बेमन से ४ से ५ संध्या को स्वाध्याय करना होता था. उस ससमय वे कहती थीं-
तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीझ.
भूमि परे उपजेंगे ही, उल्टे-सीधे बीज..
मनो-भूमि पर बीज की प्रक्रिया मेरे माता-पिता की देन है. मेरे पिता सिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे. वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और संस्कृत में ही कवितायेँ लिखते थे. कर्ण पर खंड काव्य आज भी रखा है. उन दिनों आयुर्वेद की शिक्षा संस्कृत में ही होती थी- यह ज्ञातव्य हो. मेरे दादाजी ने अपना आधा घर आर्य समाज को तब दान कर दिया था जब स्वामी दयानंद जी पूरनपुर, जिला पीलीभीत में आये थे, जहाँ से आज भी नित्य ओंकार ध्वनित होता है. यज्ञ और संध्या हमारे स्वभाव बन चुके थे.
शादी के बाद इन्हीं परिवेशों की परीक्षा मुझे देनी थी. नितान्त विरोधी नकारात्मक ऊर्जा के दो पक्ष होते हैं या तो आप उनका हिस्सा बन जाएँ अथवा खाद समझकर वहीं से ऊर्जा लेना आरम्भ कर दें. बिना पंखों के उडान भरने का संकल्प भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहा पर जब आप कोई सत्य थामते हैं तो इन गलियारों में से ही अंतिम सत्य मिलता है. अनुवाद के पक्ष में मैं इसे दिव्य प्रेरणा ही कहूँगी. मुझे तो बस लेखनी थामना भर दिखाई देता था.
प्रश्न: आगामी परिकल्पनाएं क्या थीं? वे कहाँ तक पूरी हुईं?
उत्तर:
वेदों में राजनैतिक व्यवस्था' इस शीर्षक के अर्न्तगत मेरा शोध कार्य चल ही रहा था. यजुर्वेद की एक मन्त्रणा जिसका सार था कि राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्रीय महत्व के साहित्य और विचारों का सम्मान और प्रोत्साहन करे. यह वाक्य मेरे मन ने पकड़ लिया और रसोई घर से राष्ट्रपति भवन तक की मेरी मानसिक यात्रा यहीं से आरम्भ हो गयी. मेरे पंख नहीं थे पर सात्विक कल्पनाओं का आकाश मुझे सदा आमंत्रण देता रहता था. सामवेद का अनुवाद मेरे हाथ में था जिसे छपने में बहुत बाधाएं आयीं. दयानंद संस्थान से यह प्रकाशित हुआ. श्री वीरेन्द्र शर्मा जी जो उस समय राज्य सभा के सदस्य थे, उनके प्रयास से राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरामन द्वारा राष्ट्रपति भवन में १६ मई १९८८ को इसका विमोचन हुआ. सुबह सभी मुख्य समाचार पत्रों के शीर्षक मुझे आज भी याद हैं- 'वेदों के बिना भारत की कल्पना नहीं', 'असंभव को संभव किया', 'रसोई से राष्ट्रपति भवन तक' आदि-आदि. तब से लेकर आज तक यह यात्रा सतत प्रवाह में है. सामवेद के उपरांत ईशादि ९ उपनिषदों का अनुवाद 'हरिगीतिका' छंद में किया. ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय और श्वेताश्वर- इनका विमोचन महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने १७ अप्रैल १९९६ को किया.
तदनंतर भगवद्गीता का काव्यात्मक अनुवाद ब्रिज भाषा में घनाक्षरी छंद में किया जिसका विमोचन श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने कृष्ण जन्माष्टमी पर १२ अगस्त २२०९ को किया. 'ईहातीत क्षण' आध्यत्मिक काव्य संग्रह का विमोचन मोरिशस के राजदूत ने १९९२ में किया.
प्रश्न: संगीत शिक्षा व छंदों के ज्ञान के बिना वेदों-उपनिषदों का अनुवाद आसान नहीं.
उत्तर: संसार में सब कुछ सिखाने के असंख्य शिक्षण संस्थान हैं पर कहीं भी कविता सिखाने का संस्थान नहीं है क्योंकि काव्य स्वयं ही व्याकरण से संवरा हुआ होता है. क्या कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी ने कहीं काव्य कौशल सीखा था? अतः, सिद्ध होता है कि दिव्य काव्य कृपा-साध्य होता है, श्रम-साध्य नहीं. मैं स्वयं कभी ब्रिज के पिछवाडे से भी नहीं निकली जब गीता को ब्रिज भाषा में अनुवादित किया. हाँ, बाद में बांके बिहारी के चरणों में समर्पण करने गयी थी. इसकी एक पुष्टि और है. पातंजल योग शास्त्र को काव्यकृत करने के अनंतर यदि कहीं कुछ रह जाता है तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सटीक शब्द नहीं खोज पाती हूँ. यदि मैंने कहीं लिखा है तो मुझे किस शक्ति की प्रतीक्षा है? इसलिए ये काव्य अमर होते हैं. इनका अमृतत्व इन्हें अमरत्व देता है.
प्रश्न: आपकी भावी योजना क्या है?
उत्तर: हम श्रुति परंपरा के वाहक हैं. वेद सुनकर ही हम तक आये हैं. हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में कर्ण सबसे अधिक प्रवण माने जाते हैं. नाद आकाश का क्षेत्र है और आकाश कि तन्मात्रा ध्वनि है. नभ अनंत है, अतः ध्वनि का पसारा भी अनंत है. भारतीय दर्शन के अनुसार वाणी का कभी नाश भी नहीं होता. अतः, इस दर्शन में अथाह विश्वास रखते हुए मैं इन अनुवादों को सी.डी. में रूपांतरित करने हेतु तत्पर हूँ. मार्च में अष्टावक्र गीता और पातंजल योग दर्शन का विमोचन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल कर रही हैं. उसी के साथ पातंजल योग दर्शन का काव्यकृत गायन भी विमोचित होगा. पातंजल योग दर्शन की क्लिष्टता से सब परिचित हैं ही. इसी कारण जन सामान्य तक कम जा सका है. अब सरल और सरस रूप में जन-मानस को सुलभ हो सकेगा. अतः, पूरे विश्व में इन दर्शनों कि क्लिष्टता को सरल और सरस काव्य में जनमानस के अंतर में उतार सकूँ यही भावी योजना है. मैं अंतिम सत्य को एक पल भी भूल नहीं पाती जो मुझे जगाये रखता है.
परयो भूमि बिन प्राण के, तुलसी-दल मुख-नांहि.
प्राण गए निज देस में, अब तन फेंकन जांहि.
को दारा, सुत, कंत, सनेही, इक पल रखिहें नांहि.
तनिक और रुक जाओ तुम, कोऊ न पकिरें बाँहि..
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dr. mridul kirti,
dr. sudha om dheengara
रविवार, 6 सितंबर 2009
कर दर्शन मंत्र हिन्दी पद्यानुवाद
कर दर्शन मंत्र हिन्दी पद्यानुवाद
कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती।
करमूले च शक्ति: प्रभाते करदर्शनम्॥
अर्थ: उंगलियों के पोरों में लक्ष्मी जी निवास करती हैं, हथेली के मध्य भाग में सरस्वती जी और हथेली के मूल में देवी शक्ति। सवेरे-सवेरे इनका दर्शन करना पुण्यप्रद है।
विधि: प्रात:काल उठते ही दोनों हाथ खोलकर उनके दर्शन करने चाहिए।
लाभ: दिनभर चित्त प्रसन्न रहता है और कार्यो में सफलता मिलती है।
हिन्दी भावानुवाद
द्वारा ..... प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव विदग्ध
लक्ष्मी ,सरस्वती ,शक्ति के ," कर" में हैं स्थान
करिये प्रातः हथेली का , प्रिय दर्शन-ध्यान !!
कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती।
करमूले च शक्ति: प्रभाते करदर्शनम्॥
अर्थ: उंगलियों के पोरों में लक्ष्मी जी निवास करती हैं, हथेली के मध्य भाग में सरस्वती जी और हथेली के मूल में देवी शक्ति। सवेरे-सवेरे इनका दर्शन करना पुण्यप्रद है।
विधि: प्रात:काल उठते ही दोनों हाथ खोलकर उनके दर्शन करने चाहिए।
लाभ: दिनभर चित्त प्रसन्न रहता है और कार्यो में सफलता मिलती है।
हिन्दी भावानुवाद
द्वारा ..... प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव विदग्ध
लक्ष्मी ,सरस्वती ,शक्ति के ," कर" में हैं स्थान
करिये प्रातः हथेली का , प्रिय दर्शन-ध्यान !!

शनिवार, 5 सितंबर 2009
गीतिका : आचार्य संजीव 'सलिल'
गीतिका
संजीव 'सलिल'
हम मन ही मन प्रश्न वनों में दहते हैं.
व्यथा-कथाएँ नहीं किसी से कहते हैं.
दिखें जर्जरित पर झंझा-तूफानों में.
बल दें जीवन-मूल्य न हिलते-ढहते हैं.
जो मिलता वह पहने यहाँ मुखौटा है.
सच जानें, अनजान बने हम सहते हैं.
मन पर पत्थर रख चुप हमने ज़हर पिए.
ममता पाकर 'सलिल'-धार बन बहते हैं.
दिल को जिसने बना लिया घर बिन पूछे
'सलिल' उसी के दिल में घर कर रहते हैं.
***************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
संजीव 'सलिल'
हम मन ही मन प्रश्न वनों में दहते हैं.
व्यथा-कथाएँ नहीं किसी से कहते हैं.
दिखें जर्जरित पर झंझा-तूफानों में.
बल दें जीवन-मूल्य न हिलते-ढहते हैं.
जो मिलता वह पहने यहाँ मुखौटा है.
सच जानें, अनजान बने हम सहते हैं.
मन पर पत्थर रख चुप हमने ज़हर पिए.
ममता पाकर 'सलिल'-धार बन बहते हैं.
दिल को जिसने बना लिया घर बिन पूछे
'सलिल' उसी के दिल में घर कर रहते हैं.
***************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

जरूरी है कि गैर हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाना जावे
दुखद स्थिति है कि जब हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में जन मान्यता मिलनी थी तब भाषाई राजनीति की गई और यह संवैधानिक व्यवस्था हो गई कि जब तक एक भी राज्य नही चाहेगा तब तक हिन्दी वैकल्पिक बनी रहेगी .. विगत वर्षो में ग्लोबलाइजेशन के नाम पर अंग्रेजी को बहुत ज्यादा बढ़ावा मिला और हिन्दी उपेक्षित होति गई .. पर अब जरूरी है कि गैर हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाना जावे जिससे सभी भारत वासी हिन्दी जाने समझें .. यह तो मानना ही पड़ेगा कि चाहे देवगौड़ा हो या सोनिया ..इस देश से जुड़ने के लिये सबको हिन्दी सीखनी ही पड़ी है .
vivek ranjan shrivastava...jabalpur
vivek ranjan shrivastava...jabalpur

गुरुवार, 3 सितंबर 2009
हिंदुस्ताँ की धरती पे अमन ही बरसे।
हिंदुस्ताँ की धरती पे अमन ही बरसे।
मुस्कुराये हर जिंदगी कोई भी न तरसे।।
बड़ी ही खूबसूरत फिज़ा हर दिशायें।
सुना रहीं तराने जहाँ भर हवायें।
हर एक अंजुमन में मनायें सब जलसे।।
बाग़बाँ हो ज़िन्दगी लबों पे हँसी हो।
जिधर नज़र घुमायें, खुशी ही खुशी हो।
इन्सानियत की बस्ती बसे हर तरफ से।।
खुदा करे हिफाज़त सभी की ये मिन्नत।
हिन्दुस्ताँ जहाँ में जैसे कि मानो जन्नत।
महफूज़ हो जायें सभी हर तरह से।।
Ansh Lal Pandre
मुस्कुराये हर जिंदगी कोई भी न तरसे।।
बड़ी ही खूबसूरत फिज़ा हर दिशायें।
सुना रहीं तराने जहाँ भर हवायें।
हर एक अंजुमन में मनायें सब जलसे।।
बाग़बाँ हो ज़िन्दगी लबों पे हँसी हो।
जिधर नज़र घुमायें, खुशी ही खुशी हो।
इन्सानियत की बस्ती बसे हर तरफ से।।
खुदा करे हिफाज़त सभी की ये मिन्नत।
हिन्दुस्ताँ जहाँ में जैसे कि मानो जन्नत।
महफूज़ हो जायें सभी हर तरह से।।
Ansh Lal Pandre

एक शेर: संजीव 'सलिल'
काफिर से हरदम मिले,
खुद आकर भगवान।
उसे ज्ञात ठगता नहीं,
यह सच्चा इन्सान..
खुद आकर भगवान।
उसे ज्ञात ठगता नहीं,
यह सच्चा इन्सान..
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एक शे'र : संजीव 'सलिल'
कविता: मानव मन: देवेन्द्र कुमार
मानव मन पर नहीं है बंधन,
किस पर कब आ जाये ।
मनोभावनाएं सृजन कर,
अपना उसे बनाये ।।
कुछ न सोचे, कुछ न समझे,
कुछ का कुछ हो जाये ।
चलते-चलते जीवन पथ पर,
राह कहीं खोजाये।।
रंग न देखे, रूप न देखे,
आयु, जाति, रिस्तेदारी।
गुरू-शिष्य वैराग्य न देखे,
प्रेम है इन सब पर भारी।।
प्रेम में अंधा होकर प्राणी,
क्या कुछ न कर जाये ।
ठगा ठगा महसूस करे,
अंजाम देख पछताये ।।
जब टूट जाये विश्वास,
खो जाये होशोहवास।
जीवन वन जाये अभिशाप,
रिस्तों में आजाये खटास ।।
सब जानता इंसान ,
अनजान बन जाये ।
प्रेममयी माया के छटे,
गर्दिश में अपने को पाये ।।
कलंकित होकर समाज में,
खुली साँस न ले पाये ।
आत्मग्लानि से मायूस,
लज्जित हो शर्माये।।
गलतियाँ सभी से होतीं,
फिर से न दुहराओ ।
पश्चाताप करो उनका,
सपना मान भूल जाओ।।
संस्कृति की लक्ष्मण रेखा,
न नाको मेरे यार,
मर्यादा से जीवन में ,
आती रहे बहार।।
***************
किस पर कब आ जाये ।
मनोभावनाएं सृजन कर,
अपना उसे बनाये ।।
कुछ न सोचे, कुछ न समझे,
कुछ का कुछ हो जाये ।
चलते-चलते जीवन पथ पर,
राह कहीं खोजाये।।
रंग न देखे, रूप न देखे,
आयु, जाति, रिस्तेदारी।
गुरू-शिष्य वैराग्य न देखे,
प्रेम है इन सब पर भारी।।
प्रेम में अंधा होकर प्राणी,
क्या कुछ न कर जाये ।
ठगा ठगा महसूस करे,
अंजाम देख पछताये ।।
जब टूट जाये विश्वास,
खो जाये होशोहवास।
जीवन वन जाये अभिशाप,
रिस्तों में आजाये खटास ।।
सब जानता इंसान ,
अनजान बन जाये ।
प्रेममयी माया के छटे,
गर्दिश में अपने को पाये ।।
कलंकित होकर समाज में,
खुली साँस न ले पाये ।
आत्मग्लानि से मायूस,
लज्जित हो शर्माये।।
गलतियाँ सभी से होतीं,
फिर से न दुहराओ ।
पश्चाताप करो उनका,
सपना मान भूल जाओ।।
संस्कृति की लक्ष्मण रेखा,
न नाको मेरे यार,
मर्यादा से जीवन में ,
आती रहे बहार।।
***************
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कविता: मानव मन: देवेन्द्र कुमार
गीतिका: संजीव 'सलिल'
शब्द-शब्द से छंद बना तू।
श्वास-श्वास आनंद बना तू॥
सूर्य प्रखर बन जल जाएगा,
पगले! शीतल चंद बना तू॥
कृष्ण बाद में पैदा होंगे,
पहले जसुदा-नन्द बना तू॥
खुलना अपनों में, गैरों में
ख़ुद को दुर्गम बंद बना तू॥
'सलिल' ठग रहे हैं अपने ही,
मन को मूरख मंद बना तू॥
********************
श्वास-श्वास आनंद बना तू॥
सूर्य प्रखर बन जल जाएगा,
पगले! शीतल चंद बना तू॥
कृष्ण बाद में पैदा होंगे,
पहले जसुदा-नन्द बना तू॥
खुलना अपनों में, गैरों में
ख़ुद को दुर्गम बंद बना तू॥
'सलिल' ठग रहे हैं अपने ही,
मन को मूरख मंद बना तू॥
********************
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