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गुरुवार, 14 मई 2009

अमर पंक्तियाँ....


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स्व. रामकृष्ण श्रीवास्तव, जबलपुर

जो कलम सरीखे टूट गए पर झुके नहीं,
उनके आगे यह दुनिया शीश झुकाती है.
जो कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गयी,
वह तो मशाल की तरह उठाई जाती है..

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:: पर्यावरण गीत :: -आचार्य संजीव'सलिल'


फ़र्ज़ हमारा क्या है?, तनिक विचार करें.

नहीं गैर का, खुद का तो उपकार करें..

हरी-भरी धरती, शीतल जल हमें मिला।


नील गगन नीचे, यह जीवन-सुमन खिला॥


प्राणदायिनी पवन शुद्ध ले बड़े हुए।


गिरे-उठे, रो-हँस, लड़-मिलकर खड़े हुए॥


सबल हुए तो हरियाली को मिटा दिया.

पेड़ कटते हुए न कांपा तनिक हिया॥


मलिन किया निर्मल जल, मैल बहाया है।


धुंआ विषैला चारों तरफ उड़ाया है॥


शांति-चैन निज हर, कोलाहल-शोर भरा।


पग-पग पर फैलाया है कूड़ा-कचरा..

नियति-नटी के नयनों से जलधार बही।


नहीं पैर धरने को निर्मल जगह रही..

रुकें, विचारें और न अत्याचार करें.

फ़र्ज़ हमारा क्या है?, तनिक विचार करें....

सम्हले नहीं अगर तो मिट ही जायेंगे।


शाह मिलने के पहले पिट भी जायेंगे॥


रक्षक कवच मिट रहा है ओजोन का.

तेजाबी वर्षा झेले नर कौन सा?

दूषित फिजा हो रही प्राणों की प्यासी।


हुई जिन्दगी स्वयं मौत की ज्यों दासी..

बिन पानी सब सून, खो गया है पानी।


दूषित जल ले आया, बंजर-वीरानी.

नंगे पर्वत भू ऊसर-वीरान है।


कोलाहल सुन हाय! फट रहा कान है.

पशु भी बदतर जीवन जीने विवश हुए।


मिटे जा रहे नदी, पोखरे, ताल, कुए.

लाइलाज हो रोग-पूर्व उपचार करें।


फ़र्ज़ हमारा क्या है?, तनिक विचार करें...

क्या?, क्यों?, कैसे? बिगडा हमें न होश है।


शासन, न्याय, प्रशासन भी मदहोश है.

जनगण-मन को मीत जगना ही होगा।


अंधकार से सूर्य उगाना ही होगा.

पौधे लेकर गोद धरा को हरा करें।


हुई अत्यधिक देर किन्तु अब त्वरा करें..

धूम्र-रहित तकनीक सौर-ऊर्जा की है।


कृत्रिम खाद से अनुपजाऊ की माटी है.

कचरे से कम्पोस्ट बना उर्वरता दें।


वाहन-ईंधन कम कर स्वच्छ हवा हम लें.

कांच, प्लास्टिक, कागज़ फिर उपयोग करें।


सदा स्वच्छ जल, भू हो वह उद्योग करें..

श्वास-आस का 'सलिल' सदा सिंगार करें।


फ़र्ज़ हमारा क्या है?, तनिक विचार करें...

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शनिवार, 9 मई 2009

धुँआधार , जबलपुर

सूक्ति-सलिला: Equality समानता -प्रो बी.पी. मिश्र 'नियाज़' /सलिल

विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।


इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'


'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।

सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-


Equality समानता

Mean and mighty, rotting
Together, have one dust.

निर्धन हो या धनी अंत में इसी धूल में मिलना है.

निर्धन या धनवान हो, माने एक समान।

नियति धूल में दे मिला, तनिक न अंतर मान॥


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स्वास्थ्य सम्पदा बचायें : दादी माँ के घरेलू नुस्खे


इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं।

आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें।

इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।

रोग: अफारा / पेट फूलना / वायु विकार

जायफल को पीसकर नीबू के रस के साथ मलकर चाटने से दस्त साफ़ होकर पेट की वायु निकल जाती है।
पीस जायफल चाट लें , नीबू रस के संग।
हाजत हो अफरा मिटे, जीत सकें हे जंग॥

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गुरु वन्दना: विद्या सक्सेना, कानपूर,

बलिहारी गुरु सोवत दीन जगाय.
जन्म-जन्म का सोया मनुआ, शब्दन लीन चिताय.
माया-मोह में हम लिपटाने, जग में फिरत भुलाय.
जन्म-कर्म के बंधन निशदिन, रहत हमें भरमाय.
काम-क्रोध की नदिया गहरी, लेती हमें बहाय.
बलिहारी गुरु संत हुलसी!, 'विद्यहि' लीन बचाय.
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कविता: ईश्वर हमारे कितने करीब -डॉ. अनूप निगम, उज्जैन


मंदिर में
सलाखों के बीच
इंसानी फितरत से
भगवान कैद में है.
उसी भगवान से मिलने को
उसकी एक झलक पाने को
इंसानों का समूह बेचैन है.
घने ऊंचे पदों में,
पक्षियों के मधुर कोलाहल के बीच
शांत-सौम्य बहती नदी के साथ
ईशवर स्वतंत्र, स्वच्छंद, जीवंत है.
इन्हें बहुत तेजी से
ख़त्म करता हुआ
नासमझ इन्सान
अपने ही ईश्वर से
दूर रहने को अभिशप्त है..
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शब्द-सलिला: चींटी -अजित vadnerkar

Acharya Sanjiv Salilhttp://divyanarmada.blogspot.com

कि सी चीज़ के अत्यंत छोटे आकार की तुलना अक्सर चींटी से की जाती है। यही नहीं, कम हैसियत को भी चींटी की लघुता से आंकने का प्रचलन रहा है। कमरफ्तारी को भी चींटी की गति से आंका जाता है। जीव जगत में रोज़ नज़र आने वाले लघुतम प्राणियों में चींटी प्रमुख है क्योंकि इसका इन्सान के साथ साहचर्य है और इसीलिए इन्सान का मिथ्या गर्वबोध हमेशा चींटी की तरह मसलने वाले मुहावरे में झलकता है। यह इन्सान की फितरह है कि वह हमेशा सहचरों का ही विनाश करता है, अनिष्ट सोचता है। क्या इसीलिए तो सृष्टि में अकेला नहीं है?
चींटी की व्युत्पत्ति संस्कृत की चुण्ट् धातु से हुई है इसी धातु से हिन्दी के कई अन्य शब्द भी जन्मे हैं। दिलचस्प यह कि इसमें कहीं भी सूक्ष्मता या लघुता का भाव नहीं है। चुण्ट् धातु का अर्थ होता है खींचना, सताना, कष्ट देना, दबाना, नोचना, खरोचना आदि। चुण्टिका से ही बना है ... प्रेमचंद की ईदगाह कहानी में चिमटे की महिमा का खूब बखान हुआ है... चींटी शब्द। चींटी के अग्र भाग में सूई की नोक की तरह तीक्ष्ण स्पर्शक होते हैं जिन्हें चुभाकर यह पौधों और जीवों से आहार ग्रहण करती है। इसके स्पर्शकों की तेज चुभन को ही हम चींटी का काटना कहते हैं।
शरीर की एक ही मुद्रा लगातार बनी रहने पर अक्सर उस हिस्से में रक्त प्रवाह रुक जाता है और इसका बोध होने पर उस हिस्से में संवेदना शून्य हो जाती है। जब रक्त प्रवाह फिर शुरू होता है तो रक्त प्रवाह की तेजी से उस हिस्से में चींटी के हजारों हल्के दंश जैसी पीड़ा महसूस होती है। आमतौर पर इस अनुभूति को चींटी चढ़ना या चींटी आना भी कहा जाता है। बड़े आकार की चींटी को चींटा कहा जाता है। चींटी के काटने के अंदाज़ को ही चिमटी, चिकोटी लेना या चिमटी भरना कहा जाता है। पश्चिमी संभ्यता में न्यू पिंच का शिष्टाचार भी होता है, जिसका चलन हिन्दुस्तान में भी है। यह शब्द भी चुण्ट् से ही बना है। लोहे की दो समानान्तर भुजाओं वाला एक उपकरण जो ज्यादातर रसोईघर में चूल्हे से रोटी उतारने के काम आता है, चिमटा कहलाता है। चिमटी की क्रिया पर गौर करें। दो अंगुलियों से त्वचा पकड़ कर खीचने को चिमटी भरना या चिमटी लेना कहते हैं। चिमटा भी यही काम करता है।
विरक्त या वीतरागी भाव के लिए भी चिमटा बजाना एक मुहावरा है। कभी कभी निठल्लो के लिए भी यह इस्तेमाल होता है। चिमटा यूं घोषित वाद्ययंत्र नहीं है पर लोकसंगीत में चिमटे का प्रयोग होता है। बजानेवाला चिमटा आकार में काफी बड़ा और भारी होता है। इसके सिरे पर एक कुंदा लगा होता है। दोनो भुजाओं को खड़ताल की तरह से एक दूसरे से टकराकर ध्वनि पैदा की जाती है। यह काम एक हाथ करता है और दूसरा हाथ कुंदे को बजाता है। मूलतः यह तालवाद्य की तरह काम करता है। इसे साधु-फकीर-कलंदर भी अपने साथ रखते हैं और गाते हुए इसे बजाते हैं। रुढ़ी और अंधविश्वास के दाग भी चिमटेने ही लगाए हैं। देहात में रोगग्रस्त को अक्सर प्रेतबाधा ग्रस्त बता कर दागने की परम्परा है। यह दाग आग में तपाए हुए चिमटे से ही लगाया जाता है।
प्रेमचंद ने अपनी प्रसिद्ध कहानी ईदगाह के प्रमुख पात्र नन्हे हमीद के बहाने से चिमटे की महिमा का बखूबी बयान किया है। आए दिन के क्रियाकलापों में शरीर जख़्मी होता रहता है। छोटे मोटे जख्म को संस्कृत में हाथी और चींटी की न सिर्फ राशि एक है बल्कि उनके नाम भी एक ही मूल से उपजे हैं। चोट कहा जाता है जो इसी शब्द श्रंखला का शब्द है। चुण्ट् में नोचने खरोचने का भाव स्पष्ट है जो शरीर के लिए कष्टकारी है। चोट भी एक ऐसा ही आघात है। चोट से ही बना है चोटिल शब्द अर्थात जख्मी होना।
मराठी में चींटा-चींटी को मुंगा-मुंगी कहते हैं। शुद्ध रूप में यह मुंगळा मुंगळी है। “तू मुंगळा मैं गुड़ की डली” वाले उषा मंगेशकर के लोकप्रिय हिन्दी गीत के जरिये कई लोग इस मराठी शब्द से परिचित हो चुके हैं। मुंगा या मुंगी शब्द द्रविड़ मूल का है। दक्षिणी यूरोप के मेडिटरेनियन क्षेत्र की ज्यादातर भाषाओं में चींटी के लिए फार्मिका formica या इससे मिलते जुलते शब्द हैं जैसे फ्रैंच में फोर्मी, स्पेनिश में फोर्मिगा, कोर्सिकन में फुर्मिकुला आदि। यह लैटिन के फोर्मिका से बना है जिसका मतलब होता है लाल कीट। जाहिर है लाल रंग की चींटियों के लिए ही किसी ज़माने में यह प्रचलित रहा होगा। छोटी सी चींटी हाथी को पछाड़ सकती है, जैसी कहावतें खूब प्रचलित हैं। मगर दिलचस्प तथ्य यह है कि संस्कृत में हाथी और चींटी की न सिर्फ राशि एक है बल्कि उनके नाम भी एक ही मूल से उपजे हैं।
संस्कृत में चींटी को कहते हैं पिपीलः, पिपीली। यह बना है संस्कृत की पील् धातु से जिसमें एक साथ सूक्ष्मता और समष्टि दोनो का भाव है। इसका अर्थ होता है अणु या समूह। सृष्टि अणुओं का ही समूह है। चींटी सूक्ष्मतम थलचर जीव है। चींटे के लिए संस्कृत में पिपिलकः, पिलुकः जैसे शब्द हैं। बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में भी चींटी को पिपिलिका ही कहा जाता है। जो लोग पुराने अंदाज़ वाले शतरंज के शौकीन हैं वे इसके मोहरों का नाम भी जानते होंगे। इसमें हाथी को फीलः या फीला कहा जाता है। यह फारसी का शब्द है और अवेस्ता के पिलुः से बना है। संस्कृत में भी यह इसी रूप में है। इसमें अणु, कीट, हाथी, ताड़ का तना, फूल, ताड़ के वृक्षों का झुण्ड आदि अर्थ भी समाये हैं। गौर करें इन सभी अर्थों में सूक्ष्मता और समूहवाची भाव हैं।
फाईलेरिया एक भीषण रोग होता है जिसमें पांव बहुत सूज कर खम्भे जैसे कठोर हो जाते हैं। इस रोग का प्रचलित नाम है फीलपांव जिसे हाथीपांव या शिलापद भी कहते हैं। यह फीलपांव शब्द इसी मूल से आ रहा है। महावत को फारसी, उर्दू या हिन्दी में फीलवान भी कहते हैं।
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शुक्रवार, 8 मई 2009

दो गीतिकाएँ: -रमेश श्रीवास्तव 'चातक', सिवनी

आम जनता के हक में सदा शूल रहे हैं।
आज गाँधी के अनुयायी फल-फूल रहे हैं॥

सीधे-सादे पेड़ तो हर दिन हैं कट रहे।
आरक्षितों में शूल और बबूल रहे हैं॥

कश्मीर तो भारत के माथे का मुकुट है।
भारत समूचा एक है हम भूल रहे हैं॥

आ गया 'चातक' पुनः चुनाव् का मौसम।
वादों के झूठे झूले सब झूल रहे हैं॥

उस दर पे मेरी गर्दन इसलिए न झुक सकी।
'चातक' की इबादत के कुछ उसूल रहे हैं॥

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यह बात मेरे अपने तजुर्बे में आई है।
साफ़ बात कहने में केवल बुराई है॥

जब एक बनो, नेक बनो तभी हो इन्सां।
सब के लिये रब ने यह दुनिया बनाई है॥

आपस में बाँट लें सभी के सुख-औ'- दुःख को हम।
आपस में बँटोगे तो बहुत ही बुराई है॥

क्यों लड़ते-झगड़ते हो, उलझते हो दोस्तों?
आपस में लड़कर किसने सुख-शान्ति पाई है?

'चातक; की प्यास के लिए, दरिया भी कम रहा।
स्वाति की एक बूँद सदा काम आयी है॥

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शोभना चौरे

कविता

ऐसा क्यों?...

शोभना चौरे

ऐसा क्यो होता है ?
जहाँ 'फूल तोड़ना मना है'
लिखा है
हम वहीं पर
सबसे ज्यादा फूल तोड़ते है
जहाँ वाहन खडा करना वर्जित हो,
वनीं सर्वाधिक गाडियां खड़ी होती हैं
जहाँ धूम्रपान 'वर्जित है,
वहीं तथाकथित भद्रजन
धुएँ के छल्ले उडाते देखे जाते हैं
जहाँ कचरा फेंकना मना है,
वहीं पर
घर और शहर कचरा फेकते हैं,
डब्बे में पेट्रोल ले जाना मना है,
तो पेट्रोल पम्प पर धड़ल्ले से
डब्बे में पेट्रोल भरते देखे जा सकते हैं.
हम समझना ही नहीन चाहते
मन्दिर की शान्ति को सराहते हैं,
परन्तु
जूतों की गंदगी
वहाँ भी फैला ही आते हैं.
आप ही बताएन
ऐसा क्यों होता है?
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IndiBlogger - Network of Indian Bloggers

शब्द-सलिला: गणना -अजित वडनेरकर

गर हम कहें कि सिरों की गिनती से ही सरदार चुने जाते हैं तो इस बात को अटपटा समझा जाएगा। मगर बात सच है। चुनाव को लिए पोल poll शब्द भी भारत में प्रचलित है। पोल, पोलिंग और ओपिनियन पोल जैसे शब्द अब चुनावी संदर्भो में हिन्दी में खूब इस्तेमाल होते हैं। पोल शब्द की व्युत्पत्ति दिलचस्प है।


अंग्रेजी का पोल poll शब्द प्राचीन डच भाषा का है जिसका अर्थ होता है सिर। शरीर का ऊपरी हिस्सा। खासतौर पर वह जिस पर केश हों। प्राचीनकाल में मानव समाज पशुपालक था। विभिन्न समूहों के साथ उनके पालतू पशु भी साथ रहते थे। आमतौर पर इन्हें चिह्मित किया जाता था मगर दिनभर चरागाहों में चरने के बाद शाम को जब ये मवेशी लौटते थे तो इनकी गिनती अनिवार्य तौर पर होती थी। आज भी गांवों में ऐसा ही होता है। पशुओं की गिनती उनके सिर से होती थी।


सिर का प्रतीक सिर्फ इतना ही है कि यह शरीर का वह प्रमुख हिस्सा है जिस पर सबसे पहले नजर पड़ती है। क्योंकि यह शरीर के ऊपरी हिस्से पर होता है। हिन्दी, फारसी, उर्दू का सिर शब्द संस्कृत के शीर्ष से बना है जिसका मतलब होता है सर्वोच्च, सबसे ऊपर। इससे ही फारसी का सरदार शब्द बना है अर्थात प्रमुख व्यक्ति। सरदार में सिरवाला या बड़े सिरवाला जैसा भाव न होकर शीर्ष अर्थात सर्वोच्च का भाव है। यही प्रक्रिया अंग्रेजी में भी प्रमुख व्यक्ति के लिए हैड के संदर्भ में देखी जा सकती है। हैड का अर्थ सिर होता है मगर इसका प्रयोग प्रमुख या प्रधान के तौर पर भी होता है।


पशुगणना से उठकर यह शब्द जन समूहों में किसी मुद्दे पर सबकी राय जानने का जरिया भी बना। जिस मुद्दे पर लोगों की राय जाननी होती है आमतौर पर आज भी सहमति या असहमति व्यक्त करने के लिए सिर हिलाया जाता है। प्राचीनकाल में भी पक्ष और विपक्ष के लोगों के सिर गिनने के बाद बहुमत के आधार पर निर्णय लिया जाता था। इस तरह सिर गिनने की प्रक्रिया किसी मामले पर लोगों की रायशुमारी या निर्वचन का तरीका बन गई।


पशुगणना से होते हुए जन समूहों की रायशुमारी के बाद यही पोल आधुनिक दौर में लोकतात्रिक प्रणाली का आधार बना है। मतपत्र के लिए बैलट शब्द का इस्तेमाल होता है। भाषाविज्ञानियों के मुताबिक यह शब्द भी भारोपीय भाषा परिवार का है। अग्रेजी का बैलट बना है इतालवी के बलोट्टा ballotta से जिसका अर्थ होता है छोटी गेंद।


रोमनकाल में मतों के निर्धारण के लिए नन्हीं गेंदों का प्रयोग किया जाता था। कुछ संदर्भो के अनुसार एक घड़ेनुमा पात्र में मत के प्रतीक स्वरूप ये गेंदें डाली जाती थी जिनकी गणना बाद में की जाती थी। कुछ संदर्भों के अनुसार घड़े मे डाली गई गेंदों में से किसी एक को लाटरी पद्धति से निकाल लिया जाता था।

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गुरुवार, 7 मई 2009

सूक्ति सलिला: Dream स्वप्न -प्रो. बी. पी. मिश्र'नियाज़' / सलिल

विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।


इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नगर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'


'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-


Dream स्वप्न :
Dreams,
Which are the children of an idle brain,,
Begot of nothing but vain fantasy.'

स्वप्न ऐसे शिशु हैं जिनकी जननी व्यर्थ कल्पना और पिता एक निष्क्रिय मस्तिष्क है।

व्यर्थ कल्पना है जननि, जड़ दिमाग है तात.
'सलिल' स्वप्न शिशु जानिए, कहे अनकही बात..

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हास्य दोहे: दोहा श्री ४२० -रामस्वरूप ब्रिजपुरिया, ग्वालियर

१० अप्रैल १९३३ को ग्वालियर में जन्में ब्रिजपुरिया जी १९९१ में उप जिलाध्यक्ष पद से सेना निवृत्ति के बाद से साहित्यसेवा में निमग्न हैं. साद विचार प्रचार अभियान के अन्तर्गर वे ६० पुस्तकें प्रकाशित कराकर निशुल्क वितरित कर चुके हैं. उनके द्वारा जैन ग्रन्थ आदि पुराण का दोहा-चौपाई में ''ऋषभ कथा'' शीर्षक से रचित महाकाव्य बहु प्रशंसित हुआ है. प्रस्तुत है दोहा श्री ४२० के प्रथम १० दोहे.

अंक चार सौ बीस तो, सिर्फ गणित का अंक.
करते अर्थ अनर्थ हैं, माथे लगा कलंक..

ठग औ' धोखेबाज को, कहें चार सौ बीस.
इस क्रमांक पर आ गयी, धारा यह कटपीस..

अब क्रमांक का कुछ नहीं, इसमें यहाँ कुसूर.
क्यों क्रमांक को कह रहे, धोखेबाज हुज़ूर..

लिखे चार सौ बीस ये, दोहे हाथों हाथ.
धोते अंक कलंक रख, दोहा श्री के साथ..

कविगण तो कहते रहे, लिखते हैं दो टूक.
उन पर क्या होगा असर, चाट रहे जो थूक..

फूलों से यह कह रहे, हास्य व्यंग के शूल.
अपनी निज पहचान तुम, कभी न जाना भूल..

बीस चार सौ दोहरे, ज्यों चौसर के दाँव.
देखत में छोटे लगें, देते गहरे घाव..

ब्रम्हा से दोहे बने, बनी विष्णु से टेक.
तेरह-ग्यारह मात्रा, से शिव का अभिषेक..

हास्य-व्यंग को जानिए, ज्यों लड्डू गोपाल.
कहावत में मीठे लगें, जावत पेट बवाल..

हास्य-व्यंग के पात दो, हँसा कबीर देख.
चक्की भी चलती रही, बनी न तन पर रेख..

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काव्य कल्लोल : यामिनी -अग्निभ मुखर्जी

सनातन सलिल नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर में १२ जुलाइ १९८७ को जन्मा अग्निभ तरुणाई में परिपक्व चिंतन तथा प्रांजल भाषा से संपन्न है. डॉ. सुचेता तथा डॉ. अंकुर मुखर्जी का पुत्र अग्निभ मास्को (रूस) में चिकित्सा विज्ञानं का छात्र है. प्रस्तुत है अग्निभ की एक रचना 'यामिनी'.

विपुलक विपुला विपिन अधर में,

श्वेत दुकूल लिपट.

अंतर आकुल अखिल अँधर से,

धारण कर नव पट.

जल-विप्लव में बहे तड़ित शशि,

राज तरंगिणी हे!

बहती चंचल, कल-कल सुरमय

सरित-सुधा बन के.

माधवियों का दल परिमलमय

आभा करे वरण.

चारु चन्द्र की तरि तिमिर से

मनु मन करे तरण.

विपुलक विपुला विपिन अँधर में

श्वेत दुकूल लिपट.

अभिरत पवनाधूत अजहर से

श्यामल तेरे लट.

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बुधवार, 6 मई 2009

भजन: मिथिला में सजी बरात -स्व. शांतिदेवी

मिथिला में सजी बरात

मिथिला में सजी बरात, सखी! देखन चलिए...

शंख मंजीरा तुरही बाजे, सजे गली घर द्वार।

सखी! देखन चलिए...

हाथी सज गए, घोड़ा सज गए, सज गए रथ असवार।

सखी! देखन चलिए...

शिव-बिरंचि-नारद जी नभ से, देख करें जयकार।

सखी! देखन चलिए...

रामजी की घोडी झूम-नाचती, देख मुग्ध नर-नार।

सखी! देखन चलिए...

भरत-लखन की शोभा न्यारी, जनगण है बलिहार।

सखी! देखन चलिए...

लाल शत्रुघन लगें मनोहर, दशरथ रहे दुलार।

सखी! देखन चलिए...


'शान्ति' प्रफुल्लित हैं सुमंत जी, नाच रहे सरदार।

सखी! देखन चलिए...


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मात नर्मदे गोविन्द प्रसाद तिवारी 'देव', मंडला


ॐ रुद्रतनया नर्मदे, शत शत समर्पित वन्दना।

हे देव वन्दित, धरा-मंडित , भू तरंगित वन्दना॥

पयामृत धारामयी हो, ओ तरल तरंगना।

मीन, कच्छप मकर विचरें, नीर तीरे रंजना॥

कल-कल करती निनाद, उछल-कूद भँवर जाल।

दिव्य-रम्य शीतालाप, सत्य-शिवम् तिलक भाल॥

कोटि-कोटि तीर्थराज, कण-कण शिव जी विराज।

देव-दनुज नर बसते, तट पर तेरे स्वकाम।

मोदमयी अठखेलियाँ, नवल धवलित लहरियाँ।

अमरकंटकी कली, भारती चली किलकारियाँ॥

ओ! विन्ध्यवासिनी, अति उत्तंग रंजनी।

अटल, अचल, रागिनी, स्वयं शिवा-त्यागिनी॥

पाप-तापहारिणी, दिग्-दिगंत पालिनी।

शाश्वत मनभावनी, दूर दृष्टि गामिनी॥

पर्वत, गुह, वन, कछार, पथराया वन-पठार।

भील, गोंड, शिव, सांवर, ब्रम्हज्ञानी वा नागर।

सुर-नर-मुनियों की मीत, वनचर विचरें सप्रीत।

उच्च श्रृंग शाल-ताल, मुखरित वन लोकगीत॥

महामहिम तन प्रभाव, तीन लोक दर्शना।

धन-जन पालन स्वभाव, माता गिरी नंदना॥

निर्मल जल प्राण सोम, सार तोय वर्षिणी।

साधक मन सदा रटत, भक्ति कर्म- मोक्षिणी॥

ध्यान धरूँ, सदा जपूँ, मंगल कर वर्मदे।

मानस सतत विराज, देवि मातृ नर्मदे!!

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नव गीत: आचार्य संजीव 'सलिल'

मगरमच्छ सरपंच
मछलियाँ घेरे में
फंसे कबूतर आज
बाज के फेरे में...


सोनचिरैया विकल
न कोयल कूक रही
हिरनी नाहर देख
न भागी, मूक रही
जुड़े पाप ग्रह सभी
कुण्डली मेरे में...


गोली अमरीकी
बोली अंगरेजी है
ऊपर चढ़ क्यों
तोडी स्वयं नसेनी है?
सन्नाटा छाया
जनतंत्री डेरे में...


हँसिया फसलें
अपने घर में भरता है
घोड़ा-माली
हरी घास ख़ुद
चरता है
शोले सुलगे हैं
कपास के डेरे में...
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ग़ज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली

मेरी निगाह ने वा कर दिए बवाल कई,

हुए हैं जान के दुश्मन ही हमखयाल कई


नज़र मिलाते ही मुझसे वो हुआ,

कहा था जिसने के, आ पूछ ले सवाल कई


उलट पलट दिया सब कुछ नई हवाओं ने,

कई निकाल दिए, हो गए बहाल कई


कहीं पे नूर, कहीं ज़ुल्मतें बरसती रहीं,

दिखाए रौशनी ने ऐसे भी कमाल कई


है बादे-मर्ग की बस्ती ज़रा अदब से चल,

यहाँ पे सोये हैं, तुझ जैसे बेमिसाल कई ************

शब्द सलिला: लखपति -अजित वडनेरकर

भारतीय उपमहाद्वीप में हज़ार, लाख, करोड़ शब्दों का आम इस्तेमाल होता है। पाकिस्तान में भी और बांग्लादेश में भी।

हिन्दी-उर्दू के करोड़ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के कोटि crore से हुई है। जबकि लाख की व्युत्पत्ति लक्ष से और फ़ारसी का हज़ार शब्द आ रहा है इंड़ो-ईरानी परिवार के हस्र से।

संस्कृत का कोटि शब्द कुट् धातु से बना है। धातुएं अक्सर विभिन्नार्थक होती हैं। कुट् का एक अर्थ होता है वक्र या टेढ़ा। दिलचस्प बात यह है यही वक्रता या टेढ़ापन ही उच्च, सर्वोच्च, निम्नता या पतन का कारण भी है। पृथ्वी की सतह पर आई वक्रता ने ही पहाड़ों के उच्च शिखरों को जन्म दिया इसीलिए इससे बना कोट शब्द पहाड़ या किले के अर्थ में प्रचलित है। किसी टहनी को जब मोड़ा जाता है तो अपने आप उसके घुमाव वाले स्थान पर उभार आना शुरु हो जाता है। इस कोण में तीक्ष्णता, पैनापन और उच्चता समाहित रहती है। इसी धातु से बने कोटि शब्द में यह भाव और स्पष्ट है। कोटि यानी उच्चता, चरम सीमा। धनुष को मुड़े हुए हिस्से को भी कोटि ही कहा जाता है। कोटि में उच्चतम बिन्दु, परम और पराकाष्ठा का भाव है। इसी रूप में एक करोड़ को भी सामान्य तौर पर संख्यावाची प्रयोग में पराकाष्ठा कहा जा सकता है।

कोटि का दूसरा अर्थ होता है कोण या भुजा। एक अन्य अर्थ है वर्ग, श्रेणी जिसे उच्च कोटि, निम्नकोटि में समझा जा सकता है। यह कोटि ही कोण है। उच्च कोण निम्न कोण।

करोड़ शब्द का इस्तेमाल अब ठाठ से अंग्रेजी में भी होता है। भारत में पुत्र के सौभाग्य की कामना से पुराने ज़माने में करोड़ीमल जैसा नाम भी रखा जाता रहा है। बेचारा करोड़ीमल देहात में नासमझी के कारण रोड़मल और बाद में रोड़ा, रोडे या रोड्या बनकर रह गया।

एक सहस्र के लिए हज़ार hazar शब्द उर्दू-फारसी का माना जाता है। मज़े की बात यह कि उर्दू ही नही ज्ञानमंडल जैसे प्रतिष्ठित हिन्दी के शब्दकोश में भी यह इन्हीं भाषाओं के नाम पर दर्ज है। हजार इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है। इसका संस्कृत रूप हस्र है। अवेस्ता में भी इसका यही रूप है जिसने फारसी के हज़र/हज़ार का रूप लिया और लौट कर फिर हिन्दी में आ गया। सहस्र यानी स+हस्र में हज़ार का ही भाव है। हस्र बना है हस् धातु से। करोड़ के कुट् की तरह से इसमें भी चमक का भाव है। हास्य, हंसी जैसे शब्द इसी धातु से जन्मे हैं। हँसी से चेहरे पर चमक आती है क्योंकि यह प्रसन्नता का प्रतीक है। प्रसन्नता, खुशहाली, आनंद ये चमकीले तत्व हैं। धन से हमारी आवश्यकताएं पूरी होती हैं। आवश्यकताएं अनंत हैं तो भी इनकी आंशिक पूर्णता, आंशिक संतोष तो देती ही है। सो एक सहस्र की राशि में धन से मिले अल्प संतोष की एक हजार चमक छुपी हैं। अपने प्रसिद्ध उपन्यास अनामदास का पोथा में हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने नाम की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि हज़ार वस्तुतः सहस्त्र में विद्यमान हस्र का ही फ़ारसी उच्चारण है....यूं शक्ति का एक रूप भी हजारी है।

सहज शब्द ह (हठयोग) और ज (जययोग) का गुणपरक समन्वित रूप है और हजारी क्रियापरक समन्वय है। “ हजमाराति या देवी महामायास्वरूपिणी, सा हजारीति सम्प्रोक्ता राधेति त्रिपुरेति वा ” सामान्य बोलचाल में हज़ार शब्द में कई, अनेक का भाव भी शामिल हो गया। जैसे बागवानी का एक उपकरण हजारा hazara कहलाता है जिसके चौड़े मुंह पर बहुत सारे छिद्र होते हैं जिससे पौधों पर पानी का छिड़काव किया जाता है। यही हजारा हिन्दी में रसोई का झारा बन जाता है जिससे बूंदी उतारी जाती है। शिवालिक और पीरपंजाल पर्वतीय क्षेत्र की एक जनजाति का नाम भी हजारा है। यह क्षेत्र अब पाकिस्तान में आता है। एक प्रसिद्ध फूल का नाम भी हजारी है। इसे गेंदा भी कहा जाता है। इसमें बेशुमार पंखुड़ियां होती हैं जिसकी वजह से इसे यह नाम मिला। हजारीलाल और हजारासिंह जैसे नाम इसी मूल से निकले हैं।

हिन्दी में एक और संख्यावाची शब्द का इस्तेमाल खूब होता है वह है लाख। यह बना है संस्कृत के लक्षम् से बना है। इसमें सौ हज़ार की संख्या का भाव है। लक्षम् बना है लक्ष् धातु से जिसमें देखना, परखना जैसे अर्थ हैं। इस लक्ष् में आंख की मूल धातु अक्ष् ही समायी हुई है। इसमें चिह्नित करना, प्रकट करना, दिखाना लक्षित करना जैसे भाव भी निहित हैं। बाद में इसमें विचार करना, मंतव्य रखना, निर्धारित करना जैसे भाव भी जुड़ते चले गए। टारगेट के लिए भी लक्ष्य शब्द बना जो एक चिह्न ही होता है। धन की देवी लक्ष्मी का नाम भी इसी धातु से उपजा है जिसमें समृद्धि का भाव है।

किन्हीं संकेतों, चिह्नों के लिए लक्षण शब्द का प्रयोग भी होता है। लक्षण में पहचान के संकेतों का भाव ही है चाहे स्वभावगत हों या भौतिक। मालवी राजस्थानी में इससे लक्खण (बुन्देली में लच्छन- सलिल) जैसा देशज शब्द भी बनता है। देखने के अर्थ में भी लख शब्द का प्रयोग होता है। लखपति शब्द से यूं तो अभिप्राय होता है बहुत धनवान, समृद्ध व्यक्ति। मगर इसका भावार्थ है भगवान विष्णु जो लक्ष्मीपति हैं। स्पष्ट है कि लखपति lakhpati में प्रभु विष्णु जैसी दयालुता, तेज और पौरुष का भाव समाहित है पर आज के लखपति-करोड़पति सिर्फ धनपति हैं। इन्हें किस कोटि में आप रखना चाहते हैं?

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