दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 1 मई 2009
नमन नर्मदा: नर्मदा की धार: चंद्रसेन 'विराट'
बिन रुके बहना निरंतर जिन्दगी।
यह तटों से कह रही।
धार निर्मल बह रही।
तीर पर ये वृक्ष छाया के सघन।
मुकुट दे देती उन्हें सूरज-किरण।
तीर पर स्थित मांझियों के वास्ते।
पुलिन शासन सह रही।
धार निर्मल बह रही।
शीश पर पनिहारिनें जल-घाट भरे।
भक्त करते स्नान श्रृद्धा से भरे।
युग-युगों से यह कलुष मन-प्राण का।
सब स्वयं में गह रही।
धार निर्मल बह रही।
यह स्फटिक चट्टान की बांहें बढा।
बुदबुदों के फूल की माला चढा।
यह किसी सन्यासिनी सी प्रनत हो।
गुरु-चरण में ढह रही।
धार निर्मल बह रही।
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भजन: सिया फुलबगिया... स्व. शान्ति देवी
सिया फुलबगिया आई हैं
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
कमर करधनी, पांव पैजनिया, चाल सुहाई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
कुसुम चुनरी की शोभा लख, रति लजाई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
चंदन रोली हल्दी अक्षत माल चढाई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
दत्तचित्त हो जग जननी की आरती गाई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
फल मेवा मिष्ठान्न भोग को नारियल लाई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
लताकुंज से प्रगट भए लछमन रघुराई हैं।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
मोहनी मूरत देख 'शान्ति' सुध-बुध बिसराई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
विधना की न्यारी लीला लख मति चकराई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
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एक ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस, दिल्ली
कड़कती धूप को सुबहे-चमन लिखा होगा
फ़रेब खा के सुहाना सुखन लिखा होगा
कटे यूँ होंगे शबे-हिज़्र में पहाड़ से पल
ख़ुद को शीरी औ मुझे कोहकन लिखा होगा
लगे उतरने सितारे फलक से उसने ज़रूर
बाम को अपनी कुआरा गगन लिखा होगा
शौके-परवाज़ को किस रंग में ढाला होगा
कफ़स को तो चलो सब्ज़ा-चमन लिखा होगा
हर इक किताब के आख़िर सफे के पिछली तरफ़
मुझी को रूह, मुझी को बदन लिखा होगा
ये ख़त आख़िर का मुझे उसने अपनी गुरबत को
सुनहरी कब्र में करके दफ़न लिखा होगा
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सूक्ति सलिला : डेथ / मृत्यु - प्रो. बी. पी. मिश्रा 'नियाज़', संजीव 'सलिल'
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।
प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' । सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।
प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' । सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
Death मृत्यु :
'By medicine life may be prolonged, yet death will sieze the doctor too.'
शब्द-यात्रा: कैंडिडेट(प्रत्याशी) - अजित वडनेरकर
अ कसर नेताओं के कपड़े काफी उजले होते हैं। चुनावी माहौल में नेता कैंडिडेट कहलाते हैं। अंग्रेजी का कैंडीडेट शब्द भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और मूल धातु kand से इसकी व्युत्पत्ति हुई है जिसमें चमक, प्रकाश का भाव है। खास बात यह कि प्रखरता, चमक में अगर ताप का गुण है तो शीतलता का भी। सूर्य और चंद्र इसकी चमकीली मिसाल हैं। मानवीय गुणों के संदर्भ में उज्जवलता, चमक, कांति आदि गुण नैसर्गिक होते हैं इनके निहितार्थ उच्च चारित्रिक विशेषताओं, अच्छी आदतों के जरिये समाज में प्रभावपूर्ण उपस्थिति है। मगर उज्जवलता, चमक जैसे गुणों की एक अन्य विशेषता भी है। वह यह कि प्रखर आभामंडल की वजह से कई बार चकाचौंध इतनी हो जाती है कि कई खामियां दृष्टिपटल और मानस में दर्ज होने से रह जाती हैं जबकि उज्जवलता का उद्धेश्य दाग को उजागर करना है। सफेदी और उजलापन पवित्रता का आदिप्रतीक रहा है। सार्वजनिक जीवन में व्यक्ति का साफ सुथरा चरित्र और अनुशासन ही महत्वपूर्ण होता है। सफेद रंग में ये दोनों तत्व मौजूद हैं। इसीलिए दुनियाभर में भद्र पोशाक या गणवेश के तौर पर श्वेत वस्त्रों को ही चुना जाता है। किसी भी चुनाव में प्रत्याशी को कैंडीडेट कहा जाता है इस शब्द की रिश्तेदारी उजलेपन से ही है। अंग्रेजी का कैंडीडेट शब्द भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और मूल धातु kand से इसकी व्युत्पत्ति हुई है। ध्यान दें कि इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की भाषाओं में रोमन ध्वनियां c और k के उच्चारण में बहुत समानता है और अक्सर ये एक दूसरे में बदलती भी हैं। अंग्रेजी का कैमरा हिन्दी का कमरा और चैम्बर एक ही मूल के हैं मगर मूल c सी वर्ण की ध्वनि यहां अलग अलग है। यही हाल कैंडीडेट में भी हुआ है। भारोपीय धातु कंद kand का एक रूप cand चंद् भी होता है। इससे बने चंद्रः का मतलब भी श्वेत, उज्जवल, कांति, प्रकाशमान आदि है। चंद्रमा, चांद, चांदनी जैसे शब्द इससे ही बने हैं। चन्द्रः के अन्य अर्थ भी हैं मसलन पानी, सोना, कपूर और मोरपंख में स्थित आंख जैसा विशिष्ट चिह्न। दरअसल इन सारे पदार्थों में चमक और शीतलता का गुण प्रमुख है। दिन में सूर्य की रोशनी के साथ उसके ताप का एहसास भी रहता हैं। चन्द्रमा रात में उदित होता है। इसलिए इसकी रोशनी के साथ शीतलता का भाव भी जुड़ गया। चंदन के साथ यही शीतलता जुड़ी है। आजकल राजनेताओं यानी चुनावी कैंडिडेटों पर जो जूते सैंडल चल रहे हैं वे यूं ही नहीं हैं, बल्कि उनमें रिश्तेदारी है और दोनों शब्द एक ही मूल के हैं। संस्कृत चंद् से ही एक विशिष्ट आयुर्वैदिक ओषधि को चंदन नाम मिला जो अपनी शीतलता के लिए मशहूर है। संस्कृत चंदन का फारसी रूप है संदल। गौरतलब है कि यही संदल अंग्रेजी के सैंडल में महक रहा है। प्राचीनकाल की लगभग सभी सभ्यताओं में चरणपादुकाएं चमड़े के साथ साथ वृक्षों का छाल से भी बनती थीं। अपने विशिष्ट गुणों की वजह से चंदन की लकड़ी से बनी चरणपादुकाएं यूरोप में भी प्रसिद्ध थी जहां इन्हें सैंडल कहा गया अर्थात संदल की लकड़ी से निर्मित। अंग्रेजी में चंदन को सैंडल कहते हैं। बाद में सैंडल सिर्फ चरणपादुका रह गई। अब अगर चुनावी गर्मी से तपे-तपाए, चौंधियाए कैंडिडेट्स (नेताओं) पर सैंडल बरस रहे हैं तो सिर्फ इसलिए कि उनका तन-मन पवित्र हो जाए। कैंडिडेट बना है लैटिन के कैंडिड से जिसमें सच्चाई, सरलता और निष्ठा जैसे भाव निहित हैं। इसका प्राचीन रूप था कैंडेयर candere जिसका अर्थ है श्वेत, चमकदार, निष्ठावान। गौर करें कि सद्गुणों का एक आभामंडल होता है जबकि दुर्गुणों का प्रभाव मलिन होता है। आज जिस अर्थ में कैंडिडेट शब्द का प्रयोग होता है उसके मूल में प्राचीन रोमन परम्परा है। लैटिन मूल से उपजे इस शब्द का रोमन में गांधार शैली में बुद्ध की एक प्रतिमा। गौरतलब है कि गांधार शैली पर ग्रीकोरोमन कला का बहुत प्रभाव पड़ा था इसीलिए रोमन टोगा और बुद्ध के उत्तरीय में काफी समानता है। अर्थ होता है श्वेत वस्त्रधारी अर्थात सफेदपोश। रोमन परम्परा मे केंडिडेट candidate उन तमाम सरकारी प्रतिनिधियों को कहा जाता था जो राजनीतिक व्यवस्था के तहत शासन के विभिन्न दफ्तरों को संचालित करते थे और वहां बैठकर लोगों से रूबरू होते थे। एक तरह से वे जनप्रतिनिधि ही होते थे जिनके लिए गणवेश के रूप में सफेद वस्त्र धारण करना ज़रूरी था। उद्धेश्य शायद यही रहा होगा कि सफेद वस्त्रों में जनप्रतिनिधि का सौम्य व्यक्तित्व उभरे। यह श्वेत परिधान टोगा toga हलाता था जो प्राचीन भारतीय परम्परा के उत्तरीय जैसा ही होता था। अर्थात एक सफेद सूती चादर जिसे शरीर के इर्दगिर्द लपेटा जाता था जिसे टोगा कहते थे। आज भी पश्चिमी सभ्यता में प्रचलित टोगा पार्टियों में इस व्यवस्था के अवशेष नजर आते हैं। टोगा पार्टियां एक तरह का फैंसी ड्रेस आयोजन होता है।कैंडेयर से ही बना है मशाल, ज्योति के अर्थ मे अंग्रेजी का कैंडल शब्द जिसके हिन्दी अनुवाद के तौर पर मोमबत्ती शब्द सामने आता है। त्योहारों पर छत से रोशनी के दीपक लटकाए जाते हैं जिन्हें कंदील कहते हैं। यह शब्द अरबी से फारसी उर्दू होते हुए हिन्दी में दाखिल हुआ। अरबी में यह लैटिन के कैंडिला और Candela ग्रीक के कंदारोस kandaros से क़दील में तब्दील हुआ। जिन लोगों पर समाज को रोशनी दिखाने की जिम्मेदारी है, वे अब कैंडिडेट बनकर रोशनी में आते है और सिर्फ अपने घर के उजाले की फिक्र करते हैं। गौरतलब है कि नेता का सफेदपोश होना भारतीय परिवेश की देन नहीं है बल्कि इसके अतीत का विस्तार पूर्व से पश्चिम तक रहा है। भारत में प्राचीन ऋषिमुनि चादरनुमा श्वेतवसन ही धारण करते थे। बौद्ध-जैन परम्पराओं में भी इसी उत्तरीय का प्रयोग हुआ जिसे चीवर भी कहा गया। समाज को राह दिखानेवाले, गुरूपद के योग्य, महात्मा, धर्मोपदेशक और महात्माओं के लिए आचार-व्यवहार से लेकर पहनावे तक पर सादगी-सरलता की छाप छोड़नी जरूरी थी, तभी समाज उनके पीछे चलता था और वे प्रतिष्ठा पाते थे। सूफियों को भी सूफी इसी लिए कहा जाता रहा क्योंकि वे सूफ् अर्थात वे शरीर पर सफेद सूती चादर ही धारण करते थे। भारत में सफेद सूती कपड़े कि एक किस्म खादी के नाम से मशहूर है। संभव है इस खादी शब्द का मूल भी भारोपीय कंद से ही हो। नेताओं को हमारे यहां खद्दरपोश भी कहा जाता है। गांधी जी ताउम्र खादी की चादर ओढ़ कर बिना कैंडिडेट बने दुनिया को शांति, समता, चरित्र की पवित्रता जैसे गुणों का उजाला पहुंचाने में सफल रहे मगर उनके अनुयायी (देश के कर्णधार न कि सिर्फ कांग्रेसी) बगुला भगत बन गए। धूर्त, मक्कार, पाखंडी के चरित्र को उजागर करनेवाले इस मुहावरे में भी सफेद रंग की महिमा नज़र आ रही है। बगुला शुभ्र धवल होता है। वह सरोवर के छिछले पानी में एक टांग पर ध्यानस्थ संत की मुद्रा में खड़ा रहता है और मौका देखते ही चोंच में मछली को दबोच लेता है।
गुरुवार, 30 अप्रैल 2009
संस्कृति चिन्तन: आइये! आर्य (श्रेष्ठ) बनें -सलिल
संस्कृति चिन्तन
॥ वृत्तेन आर्यो भवति ॥ आइये! आर्य (श्रेष्ठ) बनें
भारत की संस्कृति आदर्श प्रधान है. केवल भारत ही विश्व को आदर्शों को जीवंत और मूर्त करते हुए जीवन जीना सिखा सकता है. इस पुण्य भूमि पर हमेशा ही त्याग, बलिदान, निष्काम प्रेम, वैराग्य, समन्वय- सामंजस्य, ईश्वरानुराग, ज्ञान-विज्ञानं, तकनीक, धर्म एवं दर्शन का अध्ययन-अध्यापन और विविध प्रयोग होते रहे हैं
प्राणभूतञ्च यत्तत्त्वं सारभूतं तथैव च । संस्कृतौ भारतस्यास्य तन्मे यच्छतु संस्कृतम् ॥
"संस्कृत भारत भूमि की प्राणभूत व सारभूत भाषा है; संस्कृत के बिना भारत की भव्य संस्कृति, नीतिमूल्यों, और जीवनमूल्यों को यथास्वरुप समझना संभव नहीं ।
दुर्योगवश मानव सभ्यता का यह स्वर्णिम पृष्ठ देव भाषा संस्कृत में लिखा गया जिससे वर्तमान में जन सामान्य और विश्व लगभग अपरिचित है। वैदिक ऋचाओं, श्लोकों, सुभाषितों, बोध शास्त्रों, भाष्यों, पुराणों, उपनिषदों, नाट्य, इतिहास आदि श्रुति-स्मृति के सहारे संस्कृत वांग्मय (वेद, वेदांग, उपांग) अंततः अपने उद्गम ॐकार में विलीन हो जाता है. 'संस्कृत' रुपी राजमार्ग निसर्ग, विद्या, कला, धर्म, ईश्वर, और कर्मयोग ऐसे विविध स्वरुप लेते हुए अंतिमतः श्रुति (वेद, वेदांग और उपांग) और ॐकार में विलीन या व्याप्त हो जाता है. विश्व के अन्य भागों में सभ्यताओं के उदय से सदियों पूर्व भारत में ज्ञान-विज्ञानं के अद्वितीय साहित्य का सृजन हुआ. सुव्यवस्थित शासन प्रणाली के बिना यह कैसे संभव है? साहित्य साम्प्रत समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं मार्गदर्शक भी होता है किंतु समय के सत्य को न पहचानने, इतिहास से सीख न लेने, साहित्य के सनातन मूल्यों की अनदेखी कर निजी स्वार्थ को वरीयता देने से आगत अपने विनाश के बीज बोता है. त्रेता और द्वापर के समय और उसके बाद भारत में भी यही हुआ. मध्यकाल की पराजयों और सहस्र वर्षों की गुलामी से उपजी आत्म्हींत की मनोवृत्ति और वर्तमान भोग प्रधान क्षणजीवी जीवन पद्धति ने संस्कृति एवं संस्कृत की गरिमा को नष्ट:करने का प्रयत्न किया है किन्तु, भूतकाल में रौंदी गयी ज्ञान-भाषा को हमेशा दबाया या मिटाया नहीं जा सकता. 'संस्कृत' का सुसंस्कार हर भारतीय के हृदय में राख से ढँकी चिंगारी की तरह सुप्त होने से लुप्त होने का भ्रम पैदा करता है किंतु इस गुप्त चित्र के प्रगट होने में देर नहीं लगेगी यदि हम विवेकी जन संस्कृति और साहित्य का न केवल स्वयं अवगाहन करें अपितु अन्य जनों को भी प्रेरित कर सहायक बनें.
अग्रतः संस्कृतं मेऽस्तु पुरतो मेऽस्तु संस्कृतम् ।
संस्कृतं हृदये मेऽस्तु विश्वमध्येऽस्तु संस्कृतम् ॥
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भजन: गिरिजा पूजन... -स्व. शान्तिदेवी वर्मा.
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सिया फुलबगिया आई हैं
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
कमर करधनी, पांव पैजनिया, चाल सुहाई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
कुसुम चुनरी की शोभा लख, रति लजाई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
चंदन रोली हल्दी अक्षत माल चढाई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
दत्तचित्त हो जग जननी की आरती गाई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
फल मेवा मिष्ठान्न भोग को नारियल लाई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
लताकुंज से प्रगट भए लछमन रघुराई हैं।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
मोहनी मूरत देख 'शान्ति' सुध-बुध बिसराई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
विधना की न्यारी लीला लख मति चकराई है।
गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...
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गज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली.
असर दिखला रहा है खूब, मुझ पे गुलबदन मेरा,
उसी के रंग जैसा हो चला है, पैराहन मेरा।
कोई मूरत कहीं देखी, वहीं सर झुक गया अपना
मुझे काफ़िर कहो बेशक, यही है पर चलन मेरा।
हजारों बोझ हैं रूह पर, मेरे बेहिस गुनाहों के,
तेरे अहसां से लेकिन दब रहा है, तन-बदन मेरा।
उस इक कूचे में मत देना बुलावे मेरी मय्यत के,
शहादत की वजह ज़ाहिर न कर डाले कफ़न मेरा।
मैं इस आख़िर के मिसरे में, जरा रद्दो-बदल कर लूँ
ख़फा वो हो ना बैठे, खूब समझे है सुखन मेरा।
मुझे हर गाम पर लूटा है, मेरे रहनुमाओं ने,
ज़रा देखूं के ढाए क्या सितम, अब राहजन मेरा।
यहाँ शोहरत-परस्ती है, हुनर का अस्ल पैमाना
इन्हीं राहों पे शर्मिंदा रहा है, मुझसे फन मेरा।
कभी आ जाए शायद हौसला, परबत से भिड़ने का,
ज़रा तुम नाम तो रख कर के देखो, कोहकन मेरा
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लघु कथा: चुनाव प्रचार - आभा झा
सूक्ति कोष: कोवार्ड- कायर प्रो. बी.प. मिश्र 'निआज़' / सलिल
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।
प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' । सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
Coward कायर :
'Cowards die many times before their deaths,
The valient never taste of death but once.
मरण पूर्व ही बार-बार, हैं कायर मरते / शूर एक ही बार, मृत्यु आलिंगन करते।
मरण-पूर्व कायर मरे, जाने कितनी बार।
वीर न जाने mrityu वह, हो शहीद इक बार॥
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शब्द-यात्रा: सब्ज़ -अजित वडनेरकर
हिन्दी में आमतौर पर प्रचलित सब्जी और तरकारी लफ्ज फारसी के हैं और बरास्ता उर्दू ये हिन्दी में प्रचलित हो गए। मोटे तौर पर देखा जाए तो तरकारी और सब्जी के मायने एक ही समझे जाते हैं यानी सागभाजी। मगर अर्थ एक होने के बावजूद भाव दोनों का अलग-अलग है। हालांकि तरकारी शब्द संस्कृत मूल से निकला है। मगर पहले बात सब्जी की।फारसी का एक शब्द है सब्ज: यानी सब्जा जिसका मतलब है हरी घास, हरियाली, हरे रंग का या सांवला। इसी से बना सब्जी लफ्ज जिसका मतलब है साग भाजी, तरकारी, हरे पत्ते, हरियालापन या भांग आदि। जाहिर है कि सब्ज यानी हरे रंग से संबंधित होने की वजह से सब्जी का मूल अर्थ हरे पत्तों से ही था यानी पालक, बथुआ, मेथी, चौलाई जैसी तरकारी जिनका सब्जी के अर्थ में प्रयोग एकदम सटीक है । मगर अब तो सब्जी का मतलब सिर्फ तरकारी भर रह गया है। हालत सब्ज: यानी सब्जा जिसका मतलब है हरी घास, हरियाली, हरे रंग का या सांवलाये है कि अब आलू गोभी समेत पीले रंग का कद्दू, लाल रंग का टमाटर बैंगनी बैंगन, या सफेद मूली सब कुछ सामान्य सब्जी है और पालक मेथी ,बथुआ और पत्तों वाली सब्ज़ियां हरी सब्जी कहलाती हैं। गौरतलब है कि हरा रंग सुख समृद्धि का प्रतीक है जिसमें खुशहाली, सौभाग्य के साफ संकेत हैं। साधारण जीवनस्तर का संकेत अक्सर खान पान के जरिये भी दिया जाता है मसलन दाल रोटी खाकर गुजारा करना। इसका साफ मतलब है कि सब्जी खाना समृद्धि की निशानी है और यह आम आदमी को आसानी से मयस्सर नहीं है। प्रकृति विभिन्न रंगों में अपने भाव प्रकट करती है। जीव जगत के लिए जो रंग सर्वाधिक अनुकूल है वह है हरा रंग क्योंकि सभी प्रकार के जीवों का मुख्य आहार है वनस्पतियां जो हरे रंग की ही होती हैं। इसीलिए मनुष्य ने हरे रंग को सौभाग्य और मंगलकारी माना है। सब्जः से बने कुछ और भी शब्द हैं जो उर्दू में ज्यादा प्रचलित हैं जैसे सब्जरू यानी जिसकी दाढ़ी-मूछें उग रही हों, सब्जकार यानी जो कुशलता से काम करे। सब्जबख्त यानी सौभाग्य शाली। खुशहाली और अच्छे दिनों के लिए कहा जाता है हराभरा होना। मोटे तौर पर सब्जीखोर शब्द के मायने होंगे वह शख्स जो तरकारी यानी सब्जी ज्यादा खाता हो। मगर फारसी में इसका सही मतलब होता है शाकाहारी। हरितिमा, हराभरा या हरियाली से भरपूर माहौल को सब्जख़ेज कहा जाता है। अब बात तरकारी की। यह शब्द बना है फ़ारसी के तर: से जिसका मतलब है सागभाजी। इसी तरह फ़ारसी का ही एक शब्द है तर जिसका मतलब है नया, आर्द्र यानी गीला, एकदम ताजा, लथपथ , संतुष्ट वगैरह। जाहिर है पानी से भीगा होना और एकदम ताजा होना ही साग सब्जी की खासियत है। यह तर बना है संस्कृत की तृप् धातु से जिससे बने तृप्त-परितृप्त शब्द का अर्थ भी यही है यानी प्रसन्न, संतुष्ट। इससे बने तर से हिन्दी उर्दू में कई शब्द आम हैं जैसे तरबतर, खूबतर और तरमाल आदि। अब बात साग-भाजी की। साग शब्द संस्कृत के शाक: या शाकम् से बना है जिसका अर्थ है भोजन के लिए उपयोग में आने वाले हरे पत्ते या कंद, मूल, फल आदि। इस साग-भाजी को कहीं-कहीं साक या शाक भी कहते हैं। रूखे-सूखे भोजन के किये साग-पात शब्द भी चलता है।
बुधवार, 29 अप्रैल 2009
गीत: मानसरोवर तज... संजीव 'सलिल'
कागा आया है
जयकार करो,
जीवन के हर दिन
सौ बार मरो...
राजहंस को
बगुले सिखा रहे
मानसरोवर तज
पोखर उतरो...
सेवा पर
मेवा को वरीयता
नित उपदेशो
मत आचरण करो...
तुलसी त्यागो
कैक्टस अपनाओ
बोनसाई बन
अपनी जड़ कुतरो...
स्वार्थ पूर्ति हित
कहो गधे को बाप
निज थूका चाटो
नेता चतुरों...
कंकर में शंकर
हमने देखा
शंकर को कंकर
कर दो ससुरों...
मात-पिता मांगे
प्रभु से लडके
भूल फ़र्ज़, हक
लड़के लो पुतरों...
*****
राम भजन : स्व. शान्ति देवी
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ, राज कुंवर दो आए।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
कौन के कुंवर?, कहाँ से आए?, कौन काज से आए? 
कहो री गुइयाँ, कहो री गुइयाँ...
दशरथ-कुंवर, अवध से आए, स्वयम्वर देखे आए।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
का पहने हैं?, का धारे हैं?, कैसे कहो सुहाए?
कहो री गुइयाँ, कहो री गुइयाँ...
पट पीताम्बर, कांध जनेऊ, श्याम-गौर मन भये।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
शौर्य-पराक्रम भी है कछु या कोरी बात बनायें?
कहो री गुइयाँ, कहो री गुइयाँ...
राघव-लाघव, लखन शौर्य से मार ताड़का आए।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
चार कुंअरि हैं जनकपुरी में, कौन को जे मन भाए?
कहो री गुइयाँ, कहो री गुइयाँ...
अवधपुरी में चार कुंअर, जे सिया-उर्मिला भाए।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
विधि सहाय हों, कठिन परिच्छा रजा जनक लगाये।
कहो री गुइयाँ, कहो री गुइयाँ...
तोड़ सके रघुवर पिनाक को, सिया गिरिजा से मनाएं।
सुनो री गुइयाँ, सुनो री गुइयाँ...
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अंगरेजी ग़ज़ल- हिन्दी काव्यानुवाद: प्रो. अनिल जैन -डॉ. बाबु जोसेफ
When Sun goes down and Moon is bright. ----------------सूरज जब अलविदा कहता चाँद चमकता है॥
Do not make noise, the session going on. ------------------------आवाज न करो वह काम चल रहा है।
They gathered here to get scriptures cite. ---------------------इकट्ठे हुए यहाँ वे कलाम दोहराते हैं॥
The term is coming to an end. ----------------------------------वह सत्र तो अब ख़त्म हुआ जाता है।
Again the walls are there to write. ----------------------------दीवारें खडीं फ़िर से लिखने के लिए हैं॥
A lamb is killed in the forest. ------------------------------जंगल में एक मासूम मेमना मारा जाता है।
Each one stood to take a bite. ----------------------------------सभी खड़े वहाँ हिस्सा लेने के लिए हैं॥
The darker gets the deepar you go. ---------------------------गहराई में जाओगे तो अँधेरा बढेगा ही।
The darkness always claad in white. -------------------------वह अँधेरा सफेदी का जामा ओढे हुए है॥
My place is said to be peaceful one. ---------------------------मेरा रुतबा तो अमन के परवाने का है।
I got my share, why should I fight? ------------------जब मिल गया हिस्सा ज़रूरत क्यों लड़ने की है?
Wrong is wrong till they out. ----------------------------गलत तो गलत है जब तक वे नहीं शामिल।
Take them in the wrong is wright. --------------------------शामिल करो उन्हें तो ग़लत भी सही है॥
Find some means to keep them busy. ---------------------उन्हें मसरूफ रखने का जरिया खोजना है।
Dangef lies in moments of respite। --------------------------आराम के लम्हों में ही खतरा मंडराता है॥
Never mind when it barks. ----------------------------------नजर अंदाज़ कर दो जो भी भौंकता है।
Throw him peace and dog is quiet. ----------------------------टुकडा डालो कुत्ता चुप होने के लिए है॥
Your love only abode of peace. ---------------------------------तुम्हारा प्यार ही अमन का चमन है।
Where day dawns after night. ----------------------------------जहाँ रात गुजरने पर सवेरा होता है॥
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लघु कथा सलिला: प्रार्थना -कुँवर प्रेमिल
स्वरूप संपत रोज़गार के लिए बहुत घूमा। कई जोड़े जूते-चप्पलें घिस गयीं। मायूस होकर उसने आत्महत्या की बात सोचना प्रारम्भ कर दी।मरने से पहले उसने अपने इष्ट की याद कर लेना उचित समझा। प्रार्थना करते हुए वह मन ही मन में बुदबुदाया: 'हे इष्ट देव! अगली बार यदि जन्म देना तो किसी आरक्षित वर्ग में ही देना, नहीं तो इस मनुष्य तन का फायदा ही क्या है?' ऐसे ही चप्पलें तब भी घिसनी पड़ेंगी और ऐसी ही कायरता तब भी करना पड़ेगी। मैं बार-बार ऐसा नहीं करना चाहता हूँ। भगवान जी! मेरी लाज रखना।
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सूक्ति कोष प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' / सलिल
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।
प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
कंटेंट santosh:
'Poor and content is rich and rich enough.'
दीनता में भी जिसे संतोष है। / सत्य ही निस्सीम उसका कोष है।
जो दरिद्रता को रहे, कृपा देव की मान।
धनी न उनसे अधिक है, अन्य 'सलिल' ले मान।
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शब्द यात्रा: कछुआ - अजित वडनेरकर
सु सुस्त रफ्तार के लिए कछुआ-चाल kachhua मुहावरा प्रसिद्ध है। कछुआ एक प्रसिद्ध उभयचर है जो जल और धरती दोनो पर रह सकता है। इसका शरीर कवच से ढका होता है। अत्यंत छोटे पैरों और स्थूल आकार के चलते इसकी रफ्तार बेहद धीमी होती है। धीमी गति से काम करनेवाले व्यक्ति के लिए जहां कछुआ चाल मुहावरा उलाहने के तौर पर इस्तेमाल होता है वहीं कछुआ-खरगोश की प्रसिद्ध कथा कछुए के बारे में अलग ही संदेश देती है। यह नीतिकथा कछुए को ध्येयनिष्ठ और लगनशील साबित करती है जो अपनी धीमी गति के बावजूद खरगोश से दौड़ में जीत जाता है जबकि इस कथा में चंचल, चपल और तेज रफ्तार खरगोश को अति चातुरी और दंभ की वजह से हार का मुंह देखना पड़ा था। कछुआ जलतत्व का प्रतीक भी है। कुछ विशिष्ट बसाहटों का संबंध भी कछुए से है। कछुआ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के कच्छप से मानी जाती है। कच्छप kachhap शब्द बना है कक्ष+कः+प के मेल से जिसका मतलब होता है कक्ष में रहनेवाला। गौरतलब है कि कछुए की बाहरी सतह एक मोटी-कठोर खोल से ढकी होती है। संस्कृत कक्षः का अर्थ होता है प्रकोष्ठ, कंदरा , कुटीर का भाव है। हिन्दी में कमरे के लिए कक्ष प्रचलित शब्द है। खास बात यह कि आश्रय के संदर्भ में कक्ष में आंतरिक या भीतरी होने का भाव भी विद्यमान है। मोटे तौर पर कक्ष किसी भवन के भीतरी कमरे को ही कहा जाता है। कक्षा का जन्म हुआ है कष् धातु से जिसमें कुरेदने, घिसने, खुरचने, मसलने आदि का भाव है। किसी भी आश्रय के निर्माण की आदिम क्रिया खुरचने, कुरेदने से ही जुड़ी हुई है। कछुआ बेहद शर्मीला और सुस्त प्राणी है। प्रकृति ने इसे अपनी रक्षा के लिए एक विशाल खोल प्रदान किया है। दरअसल यह एक कक्ष की तरह ही है। आपात्काल को भांप कर कछुआ अपने शरीर को इस खोल में सिकोड़ लेता है जिससे यह हिंस्त्र जीवों से अपनी ऱक्षा कर पाता है। कछुए के अनेक रूप हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे कच्छवो, कच्छू, कछऊं, काछिम, कश्यप आदि। मराठी में इसे कासव कहते हैं। कछुआ शब्द की व्युत्पत्ति कश्यप kashyap से भी जोड़ी जाती है। पुराणों में कश्यप नाम के ऋषि भी थे जो ब्रह्मा के पुत्र मरीचि की संतान थे। एक पौराणिक प्रसंग में वे स्वयं अपने कश्यप नाम का अर्थ बताते हुए कहते हैं कि कश्य का अर्थ है शरीर। जो उसको पाले अर्थात रक्षा करे वह हुआ कश्यप। गौर करें कि अपनी मोटी खाल के भीतर कछुआ अपने शरीर की बड़ी कुशलता से रक्षा करता है अतः यहां कश्यप से व्युत्पत्ति भी तार्किक है। उत्तर भारत में सोनकच्छ sonkachh नाम के एकाधिक कस्बे मिलेंगें। यह ठीक वैसा ही है जेसे राजगढ़ या उज्जयिनी नाम की एक से अधिक आबादियां होना। कछुआ जल संस्कृति से जुड़ा हुआ है। गौर करें भारतीय संस्कृति में जल को ही जीवन कहा गया है। जल से जुड़े समस्त प्रतीक भी मांगलिक और कछुआ अपने शरीर की रक्षा मोटी खाल में कुशलता से करता है… समृद्धि के द्योतक हैं। चाहे जिनमें मत्स्य, मीन, शंकु, अमृतमंथन में निकल चौदह रत्नों समेत कछुआ भी शामिल है। प्राचीनकाल मे कई तरह के प्रयासों और संस्कारों की सहभागिता से जलसंकट से मुक्ति पायी जाती थी। जल का प्रतीक होने के चलते कश्छप को अत्यंत पवित्र माना जाता रहा है। जिस स्थान को कुआं या तालाब का निर्माण होना होता था, सर्वप्रथम उस स्थान की भूमि पूजा कर खुदाई आरंभ की जाती थी। जब जलाशय या कुएं का निर्माण परा हो जाता तब इस कामना के साथ उसकी तलहटी में स्वर्ण-कच्छप अर्थात कछुए की सोने से बनी आकृति स्थापित कर दी जाती थी। अगर उ जल की भरपूर उपलब्धता बनी रहती तो उस स्थान के साथ स्वर्ण कच्छप का नाम जुड़ जाता। इस उल्लेख की आवृत्ति इतनी ज्यादा होती कि कई बार उस स्थान का नाम ही सोनकच्छ हो जाता। भोपाल से इंदौर और भोपाल से जयपुर जाने के रास्ते में क्रमशः सौ किमी और सोलह किमी की दूरी पर इसी नाम के दो कस्बे हैं। कछुए के लिए संस्कृत में एक और शब्द है कूर्मः । समुद्रमंथन के प्रसिद्ध प्रसंग में जब मंदार पर्वत को देव-दानवों ने मथानी बनाया तब भगवान विष्णु ने कछुए का रूप धारण कर उसे आधार प्रदान किया था जिसे कूर्मावतार भी कहा जाता है। उत्तर भारत का एक स्थान प्राचीनकाल में कूर्मांचल कहलाता था जो आज उत्तराखंड प्रांत में है और कुमाऊं नाम से प्रसिद्ध है। बताया जाता है कि यहां कूर्म पर्वत है। पौराणिक कथा के अनुसार इस पर्वत पर प्रभु विष्णु ने कूर्मावतार में तपस्या की थी इसीलिए इसका नाम कूर्मपर्वत पड़ा और यह क्षेत्र कूर्मांचल कहलाया। यहां के निवासियों की आजीविका के लिए अथक श्रमजीवी-वृत्ति अर्थात कमाऊं से ध्वनिसाम्य करते हुए भी कई लोग कुमाऊं की व्युत्पत्ति मानते हैं। मगर इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।
मंगलवार, 28 अप्रैल 2009
वेब पत्रकारिता पर शोध :
आत्मीय!
'परहित सरिस धरम नहीं भाई ! किसी का हित करने का ऐसा अवसर मिले की आपकी गाँठ से कौडी भी न जाए तो धर्म करने का यह अवसर कौन चूकना चाहेगा?
आपके सामने एक ऐसा ही अवसर है। आप जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में पत्रकारिता एंव जनसंचार विभाग की द्वितीय वर्ष की छात्रा निहारिका श्रीवास्तव के कुछ प्रश्नों के उत्तर देकर उसके लघु शोध कार्य में सहायक हो सकते हैं।
स्नातकोत्तर चतुर्थ सत्र में उसके लघु शोध पत्र का विषय है - 'बेव पत्रकारिता का बिकास एंव संभावनाये' ।
प्रश्न निम्न है--
प्रश्न १ : ई न्यूज पेपर क्या है?
प्रश्न 2 : पोर्टल क्या है?
प्रश्न 3 : डाॅट इन, डाॅट काम, डाॅट ओ। आर। जी। तथा अन्य सबंधित शब्दों के अर्थ एवं बेव पत्रकारिता में उनकी भूमिका?
प्रश्न 4 : भारत में बेव पत्रकारिता का प्रचलन कैसा है एंव मुख पोर्टल कौन कौन से है?
प्रश्न 5: वेब पत्रकारिता के विभिन्न स्वरूप एंव उनके समक्ष आने वाली चुनौतिया क्या ?
दिव्य नर्मदा के पाठक / दर्शक इन प्रश्नों के उत्तर देकर इस लधु शोध पत्र के लिए संजीवनी बूटी के समान सहायक सिद्ध हों। इन प्रश्नों के अतिरिक्त उक्त शोध पत्र से संबधित अन्य कोई जानकारी रखते है तो आप निहारिका को अपने ज्ञान से अनुगृहित करें।
निहारिका का ee मेल पता mailto:---naina7786@%3Cspan%20title= डाक का पता : निहारिका श्रीवास्तव, जनसंचार एंव पत्रकारिता अध्ययन केन्द्र, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
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आंग्ल काव्य सलिला: भारत माता : सलिल
POETRY :
BHARAT MATA
Salil
She is lovely,
She is brave .
She is gentle,
As river wave.
She is the ocean,
She is the sky.
She is the faith,
Never asks why?
Always do right
Never feels fear,
Call him by heart
And find very near।
She is power
the SHAKTI.
She is devotion
the BHAKTI.
She is donor
the DATA.
Not merely the land
But BHARAT MATA.
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ग़ज़ल सलिला: मनु बतखल्लुस
जुनूने-गिरिया का ऐसा असर भी, मुझ पे होता है
कि जब तकिया नहीं मिलता, तो दिल कागज़ पे रोता है
अबस आवारगी का लुत्फ़ भी, क्या खूब है यारों,
मगर जो ढूँढते हैं, वो सुकूं बस घर पे होता है
तू बुत है, या खुदा है, क्या बला है, कुछ इशारा दे,
हमेशा क्यूँ मेरा सिजदा, तेरी चौखट पे होता है
अजब अंदाज़ हैं कुदरत, तेरी नेमत-नवाजी के
कोई पानी में बह जाता, कोई बंजर पे रोता है
दखल इतना भी, तेरा न मेरा उसकी खुदाई में
कि दिल कुछ चाहता है, और कुछ इस दिल पे होता है
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