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मंगलवार, 24 मार्च 2009

* POETRY

Delicious

mehak

Today on the road

While I was passing by

Saw u there

Thro corner of my eye

Since long we r not in touch

My fault I had forgoten u as such

Now all emotions,

Overwhelmed inside

Logging into old memories

Seeing u beside

Remembered ur cold touch

And ur kiss on my lips

Loved the way u drooled on my neck

And sometimes u on my nose tips

Couldn't control myself

To feel the same u again

So am near there u

Please come in my hands

The feel is so good

With u this world I forgot

Together we make good seen

Love always being with u

Ohh my delicious icecream.

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गीतिका

ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव।
सस्ता हुआ नमक का भाव।

मंझधारों-भंवरों को पार
किया किनारे डूबी नाव।

सौ चूहे खाने के बाद
सत्य-अहिंसा का है चाव।

ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव।

ठण्ड भगाई नेता ने
जला झोपडी, बना अलाव।

डाकू तस्कर चोर खड़े
मतदाता क्या करे चुनाव?

नेता रावण, जन सीता
कैसे होगा सलिल निभाव?

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जबलपुर में पीपल के एक पुरातन वृक्ष को विस्थापित कर पुनः रोपने का अद्भुत सफल प्रयोग हुआ

जबलपुर में पीपल के एक पुरातन वृक्ष को विस्थापित कर पुनः रोपने का अद्भुत सफल प्रयोग हुआ , मेरी साहित्यिक शब्दांजली , इस सुप्रयास को ....

विस्थापन

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ. सी ..६ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
फोन ०७६१ २६६२०५२ ,
सदा साथ ०९४२५८०६२५२
vivek1959@yahoo.co.in

बाबा कस्बे की शान हैं . वे उनके जमाने के कस्बे के पहले ग्रेजुएट हैं . बाबा ने आजादी के आंदोलन का जमाना जिया है , उनके पास गाँधी जी और सुभाष बाबू की कस्बे की यात्राओं के आंखों देखे हाल के कथानक हैं . बाबा ने कस्बे के कच्चे मकानों को दोमंजिला पक्की इमारतों में बदलते और धूल भरी गलियों को पक्की सीमेंटेड सड़कों में परिवर्तित होते देखा है.पूरा कस्बा ही जैसे बाबा का अपना परिवार है . स्कूल में निबंध प्रतियोगिता हो या कस्बे के किसी युवा को बाहर पढ़ने या नौकरी पर जाना हो , किसी की शादी तय हो रही हो या कोई पारिवारिक विवाद हो , बाबा हर मसले पर निस्वार्थ भाव से सबकी सुनते हैं , अपनेपन से मश्विरा देते हैं . वे अपने हर परिचित की बराबरी से चिंता करते हैं . उन्होंने दुनियां देखी है , वे जैसे चलते फिरते इनसाइक्लोपीडिया हैं . समय के साथ समन्वय बाबा की विषेशता है . वे हर पीढ़ी के साथ ऐसे घुल मिल जाते हैं मानो उनके समवयस्क हों . शायद इसी लिये बाबा "बाबा " हैं .

बाबा का एक ही बेटा है और एक ही नातिन अनु, जो उनकी हर पल की साथिन है . अनु के बचपन में बाबा स्वयं को फिर से जीते हुये लगते हैं . वे और अनु एक दूसरे को बेहद बेहद प्यार करते हैं .शायद अनु के बाबा बनने के बाद से ही वे कस्बे में हर एक के बाबा बन गये हैं . बाबा स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक हैं . बाबा को घर के सामने चौराहे के किनारे लगे बरगद से बहुत लगाव है . लगता है बरगद बाबा का समकालीन है . बरगद और बाबा अनेक घटनाओं के समानांतर साक्ष्य हैं . दोनों में कई अद्भुत साम्य हैं , अंतर केवल इतना है कि एक मौन की भाषा बोलता है दूसरा मुखर है . बरगद पर ढ़ेरों पक्षियों का आश्रय है , प्रत्यक्ष या परोक्ष बाबा पर भी गांव के नेतृत्व और अनेकानेक ढ़ंग से जैसे कस्बा ही आश्रित है . अनु की दादी के दुखद अनायास देहांत के बाद , जब से बाबा ने डाढ़ी बनाना छोड़ दिया है , उनकी श्वेत लंबी डाढ़ी भी मानो बरगद की लम्बी हवा में झूलती जड़ों से साम्य उत्पन्न करती हैं , जो चौराहे पर एक दूसरे को काटती दोनों सड़कों पर राहगीरों के सिरों को स्पर्श करने लगी हैं . बच्चे इन जड़ों को पकड़कर झूला झूलते हैं . बरगद कस्बे का आस्था केंद्र बन चुका है . उसके नीचे एक छोटा सा शिवालय है . लोग सुबह शिवपिंडी पर जल चढ़ाते सहज ही देखे जा सकते हैं . तपती गर्मियों मे बरगदाही के त्यौहार पर स्त्रियाँ बरगद के फेरे लगाकर पति की लम्बी उम्र के लिये पूजन करती हैं , बरगद के तने पर बंधा कच्चा सूत सालों साल स्त्रियों की उन भावना पूर्ण परिक्रमाओ का उद्घोष करता नही थकता .

अनु , बाबा की नातिन पढ़ने में कुशाग्र है . बाबा के पल पल के साथ ने उसे सर्वांगीण विकास की परवरिश दी है . कस्बे के स्कूल से अव्वल दर्जे में दसवी पास करने के बाद अब वह शहर जाकर पढ़ना चाहती है . पर इसके लिये जरूरी हो गया है परिवार का कस्बे से शहर को विस्थापन .. क्योंकि बाबा की ढ़ृड़ प्रतिज्ञ अनु ने दो टूक घोषणा कर दी है कि वह तभी शहर पढ़ने जायेगी जब बाबा भी साथ चलेंगे . बाबा किंकर्तव्यविमूढ़ , पशोपेश में हैं .

विकास के क्रम में कस्बे से होकर निकलने वाली सड़क को नेशनल हाईवे घोषित कर दिया गया है . सड़क के दोनो ओर भवनों के सामने के हिस्से शासन ने अधिगृहित कर लिये हैं बुल्डोजर चल रहा है , सड़क चौड़ी हो रही है . बरगद इस विकास में आड़े आ रहा है . वह नई चौड़ी सड़क के बीचों बीच पड़ रहा है . ठेकेदार बरगद को उखाड़ फेंकना चाहता है . बाबा ने शायद पहली बार स्पष्ट उग्र प्रतिरोध जाहिर कर दिया है , कलेक्टर साहब को लिखित रूप से बता दिया गया है कि बरगद नहीं कटेगा सड़क का मार्ग बदलना हो तो बदल लें . कस्बे का जन समूह एकमतेन बाबा के साथ है .
गतिरोध को हल करने अंततोगत्वा युवा जिलाधीश ने युक्ति ढ़ूढ़ निकाली , उन्होंने बरगद को समूल निकालकर , कस्बे में ही मंदिर के किनारे खाली पड़े मैदान में पुनर्स्थापित करने की योजना ही नहीं बनाई उसे क्रियांवित भी कर दिखाया . विशेषज्ञो की टीम बुलाई गई , क्रेन की मदद से बरगद को निकाला गया , और नये स्थान पर पहले से किये गये गड्ढ़े में बरगद का वृक्ष पुनः रोपा गया है . लोगों के लिये यह सब एक अजूबा था . अखबारों में सुर्खिया थी . सबको संशय था कि बरगद फिर से लग पायेगा या नहीं ? बरगद के नये स्थान पर पक्का चबूतरा बना दिया गया है , जल्दी ही बरगद ने फिर से नई जगह पर जड़ें जमा लीं , उसकी हरियाली से बाबा की आँखों में अश्रुजल छलक आये . बरगद ने विस्थापन स्वीकार कर लिया था .बाबा ने भी अनु के आग्रह को मान लिया था और अनु की पढ़ाई के लिये आज बाबा सपरिवार सामान सहित शहर की ओर जा रहे थे , बाबा ने देखा कि बरगद में नई कोंपले फूट रही थीं .

लहरों से किनारे तक

हौसलों की कसर है बस लहरों से किनारे तक
रात भर का फासला है अँधेरे से उजाले तक

दूर बहुत लगती हो खुद में ही उलझी उलझी
हाथ भर का फासला है हमारे से तुम्हारे तक

मोहब्बत लेती है इम्तिहान कई कई मुश्किल
पहुँचती है तब जाकर अँखियों के इशारे तक

घुली हुई हो गंध हवन की पवन में जैसे
वैसी ही तू बसी हुई है घर के द्वारे द्वारे तक

कौन है जिसके आगे हमसब हरदम बेबस होते है
कैद नहीं ताकत वो कोई मस्जिद और दिवाले तक

घोटालों की शकलें बदलीं वही कहानी पर हर बार
कभी है मंदी कभी है तेजी हर्षद और हवाले तक

शब्दों की सीमा असीम है शब्द ब्रह्म है शाश्वत हैं
शब्द ज्ञान हैँ शब्द शक्ति हैं पोथी और रिसाले तक

- विवेक रंजन श्रीवास्तव

रविवार, 22 मार्च 2009

कविता एक पुडिया - मौत का समान : प्रदीप पाठक


शोख हसीं बचपन,
और अब ताज़ा जवानी,
सब खत्म हो गया,
वह जो झील का पानी था,
फिर बेरंग हो गया,
सँभलते हुवे सपने,
सँवरते हुए अरमां,
फिर ओझल थे,
कोडियों को तरसते नैनां,
अब आँसुओं से बोझिल थे,
मैं तड़पता रहा,
एक लौ की गुजारिश करता रहा,
पर बेईमान सा हर एक कोई-
चोर नज़र आया,
मेरी जिंद जो पुडिया मे बंद थी,
उसे नोच आया,
मै सुबकता रहा,
रोता रहा,
हर पीडा में,
आज़ादी खोजता रहा,
कशमकश सी थी,
ज़िन्दगी औ' मौत के बीच,
हर अंगडाई में अपनी,
नई खामोशी सहेजता रहा,
अब क्या करूँ,
किसे कहूँ!
बहुत चुभन है,
कोई संभाले तड़पती तस्वीर को,
नहीं कोई लगन है।
मर रहा हूँ अब,
जल रहा हूँ अब,
शायद अब यही प्रायाश्चित्य है,
हर सांस मर्म पर आश्रित है।
( यह कविता मेरे उन नौजवान दोस्तों के लिए है जो ड्रग्स के शिकार हो रहे हैं... हम सब की गुजारिश है
इस ज़हर को मत अपनायें... यह सब कुछ ख़तम करता है.... सब कुछ...!! .... ज़िन्दगी बहुत ख़ूबसूरत है,
इसे हमारे साथ मिल कर आगे बढाइये... ग़म, नाउम्मीदी कभी आपके सपनों को नहीं डगमगायेगी....!!)

दोहे समय 'सलिल'

दोहे :

समय न होता है सगा, समय न होता गैर।
'सलिल' सभी की मांगता, है ईश्वर से खैर।

समय बड़ा बलवान है, चलें सम्हलकर मीत।
बैर न नाहक ही करें, बाँटें सबको प्रीत।

समय-समय पर कीजिये, यथा-उचित व्यवहार।
सदा न कोई जीतता, सदा न होती हार।

समय-समय की बात है, राजा होता रंक।
कभी रंक राजा बने, सदा रहें निश्शंक।

समय-समय का फेर है, आज धूप कल छाँव।
'सलिल' रह पर रख सदा, भटक न पायें पाँव।

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ग़ज़ल

अक्स लखनवी

जिसकी आँखों में अक्स उतरा नहीं।
बस वही सामने मेरे चेहरा नहीं।

मेरे बारे में इतना भी सोचा नहीं।
वक्ते-रुखसत पलटकर भी देखा नहीं।

जब से देखी हैं रानाइयाँ आपकी।
दिल मेरे पास पल भर भी ठहरा नहीं।

दाग दिखाते न हों ये अलग बात है।
आज दामन किसी का भी उजला नहीं।

वुसअते आरजू पूछिए मत अभी।
आसमां भी कभी इतना फैला नहीं।

खिल्वतों में तो तुम मिलते हो रात-दिन।
जल्वतों में मगर कोई जलवा नहीं।

कौन दरिया की मानिंद देगा पनाह?
दर कोई मछलियों के लिए वा नहीं।

दूसरों के घरों में न झाँका करो।
जब निगाहों में ऐ अक्स! पर्दा नहीं.

- अक्स = प्रतिबिम्ब, वक्ते-रुखसत = बिदाई का समय, रानाइयाँ = सुन्दरता, वुसअते आरजू = इच्छाओं का विस्तार, खिल्वतों = एकांत, जल्वतों = खुले-आम, वा = खुला हुआ.
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मुक्तक संजीव 'सलिल'

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खन-खन, छम-छम तेरी आहट, हर पल चुप रह सुनता हूँ।
आँख मूँदकर, अनजाने ही तेरे सपने बुनता हूँ।
छिपी कहाँ है मंजिल मेरी, आकर झलक दिखा दे तू-
'सलिल' नशेमन तेरा, तेरी खातिर तिनके चुनता हूँ।
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बादलों की ओट में महताब लगता इस तरह
छिपी हो घूँघट में ज्यों संकुचाई शर्मीली दुल्हन।
पवन सैयां आ उठाये हौले-हौले आवरण-
'सलिल' में प्रतिबिम्ब देखे, निष्पलक होकर मगन।
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शनिवार, 21 मार्च 2009

कम्प्यूटर पीडित।

व्यंग्य
कम्प्यूटर पीडित।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी.-6, एम.पी.एस.ई.बी. कालोनी,
रामपुर, जबलपुर.

हमारा समय कम्प्यूटर का है, इधर उधर जहॉ देखें, कम्प्यूटर ही नजर आते है, हर पढा लिखा युवा कम्प्यूटर इंजीनियर है, और विदेश यात्रा करता दिखता है। अपने समय की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पाकर, श्रेष्ठतम सरकारी नौकरी पर लगने के बाद भी आज के प्रौढ पिता वेतन के जिस मुकाम पर पहुंच पाए है, उससे कही अधिक से ही, उनके युवा बच्चे निजी संस्थानों में अपनी नौकरी प्रारंभ कर रहे हैं, यह सब कम्प्यूटर का प्रभाव ही है।
कम्प्यूटर ने भ्रष्टाचार निवारण के क्षेत्र में वो कर दिखाखा है, जो बडी से बडी सामाजिक क्रांति नही कर सकती थी। पुराने समय में कितने मजे थे, मेरे जैसे जुगाडू लोग, काले कोट वाले टी. सी से गुपचुप बातें करते थे, और सीधे रिजर्वेशन पा जाते थे। अब हम कम्प्यूटर पीडितों की श्रेणी में आ गए है - दो महीने पहले से रिजर्वेशन करवा लो तो ठीक, वरना कोई जुगाड नही। कोई दाल नही गलने वाली, भला यह भी कोई बात हुई। यह सब मुए कम्प्यूटर के कारण ही हुआ है।
कितना अच्छा समय था, कलेक्द्रेट के बाबू साहब शाम को जब घर लौटते थे तो उनकी जेबें भरी रहती थीं अब तो कम्प्यूटरीकरण नें `` सिंगल विंडो प्रणाली बना दी है, जब लोगों से मेल मुलाकात ही नही होगी, तो भला कोई किसी को `ओबलाइज कैसे करेगा, हुये ना बडे बाबू कम्प्यूटर पीडित।
दाल में नमक बराबर, हेराफेरी करने की इजाजत तो हमारी पुरातन परंपरा तक देती है, तभी तो ऐसे प्यारे प्यारे मुहावरे बने हैं, पर यह असंवेदनशील कम्प्यूटर भला इंसानी जज्बातों को क्या समझे ? यहॉ तो ``एंटर´´ का बटन दबा नही कि चटपट सब कुछ रजिस्टर हो गया, कहीं कोई मौका ही नही।
वैसे कम्प्यूटर दो नंबरी पीडा भर नही देता सच्ची बात तो यह है कि इस कम्प्यूटर युग में नंबर दो पर रहना ही कौन चाहता है, मैं तो आजन्म एक नंबरी हूं, मेरी राशि ही बारह राशियों में पहली है, मै कक्षा पहली से अब तक लगातार नंबर एक पर पास होता रहा हूंं । जो पहली नौकरी मिली , आज तक उसी में लगा हुआ हूंं यद्यपि मेरी प्रतिभा को देखकर, मित्र कहते रहते हैं, कि मैं कोई दूसरी नौकरी क्यों नही करता `` नौकरी डॉट कॉम की मदद से,पर अपने को दो नंबर का कोई काम पसंद ही नही है, सो पहली नौकरी को ही बाकायदा लैटर पैड और विजिटिंग कार्ड पर चिपकाए घूम रहे हैं। आज के पीडित युवाओं की तरह नही कि सगाई के समय किसी कंपनी में , शादी के समय किसी और में , एवं हनीमून से लौटकर किसी तीसरी कंपनी में , ये लोग तो इतनी नौकरियॉं बदलते हैं कि जब तक मॉं बाप इनकी पहली कंपनी का सही- सही नाम बोलना सीख पाते है, ये फट से और बडे पे पैकेज के साथ, दूसरी कंपनी में शिफ्ट कर जाते हैं, इन्हें केाई सेंटीमेंटल लगाव ही नही होता अपने जॉब से। मैं तो उस समय का प्राणी हूं, जब सेंटीमेंटस का इतना महत्व था कि पहली पत्नी को जीवन भर ढोने का संकल्प, यदि उंंघते- उंंघते भी ले लिया तो बस ले लिया। पटे न पटे, कितनी भी नोंकझोंक हो पर निभाना तो है, निभाने में कठिनाई हो तो खुद निभो।
आज के कम्प्यूटर पीडितों की तरह नही कि इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए प्यार हो गया और चीटिंग करते हुए शादी,फिर बीटिंग करते हुए तलाक।
हॉं हम कम्प्यूटर की एक नंबरी पीडाओं की चर्चा कर रहे थ्ेा, अब तो `` पैन ³ªाइव´´ का जमाना है, पहले फ्लॉपी होती थी, जो चाहे जब धोखा दे देती थी, एक कम्प्यूटर से कॉपी करके ले जाओ, तो दूसरे पर खुलने से ही इंकार कर देती थी। आज भी कभी साफ्टवेयर मैच नही करता, कभी फोंन्टस मैच नही करते, अक्सर कम्प्यूटर, मौके पर ऐसा धोखा देते हैं कि सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है, फिर बैकअप से निकालने की कोशिश करते रहो। कभी जल्दबाजी में पासवर्ड याद नही आता, तो कभी सर्वर डाउन रहता है। कभी साइट नही खुलती तो कभी पॉप अप खुल जाता है, कभी वायरस आ जाते हैं तो कभी हैर्कस आपकी जरुरी जानकारी ले भागते हैं, अथाZत कम्प्यूटर ने जितना आराम दिया है, उससे ज्यादा पीडायें भी दी हैं। हर दिन एक नई डिवाइस बाजार में आ जाती है, ``सेलरॉन´´ से ``पी-5´´ के कम्प्यूटर बदलते- बदलते और सी.डी. ड्राइव से डी.वी.डी. राईटर तक का सफर , डाट मैट्रिक्स से लेजर प्रिंटर तक बदलाव, अपडेट रहने के चक्कर में मेरा तो बजट ही बिगड रहा है। पायरेटेड साफ्टवेयर न खरीदने के अपने एक नंबरी आदशोZं के चलते मेरी कम्प्यूटर पीडित होने की समस्यांए अनंत हैं, आप की आप जानें। अजब दुनिया है इंटरनेट की कहॉं तो हम अपनी एक-एक जानकारी छिपा कर रखते हैं, और कहॉं इंटरनेट पर सब कुछ खुला- खुला है, वैब कैम से तो लोंगों के बैडरुम तक सार्वजनिक है, तो हैं ना हम सब किसी न किसी तरह कम्प्यूटर पीडित।





विवेक रंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर.

बिजली है तो ही इस जग की, हर गतिविधि आसान है

अग्नि , वायु , जल गगन, पवन ये जीवन का आधान है
इनके किसी एक के बिन भी , सृष्टि सकल निष्प्राण है !

अग्नि , ताप , ऊर्जा प्रकाश का एक अनुपम समवाय है
बिजली उसी अग्नि तत्व का , आविष्कृत पर्याय है !

बिजली है तो ही इस जग की, हर गतिविधि आसान है
जीना खाना , हँसना गाना , वैभव , सुख , सम्मान है !

बिजली बिन है बड़ी उदासी , अँधियारा संसार है ,
खो जाता हरेक क्रिया का , सहज सुगम आधार है !

हाथ पैर ठंडे हो जाते , मन होता निष्चेष्ट है ,
यह समझाता विद्युत का उपयोग महान यथेष्ट है !

यह देती प्रकाश , गति , बल , विस्तार हरेक निर्माण को
घर , कृषि , कार्यालय, बाजारों को भी ,तथा शमशान को !

बिजली ने ही किया , समूची दुनियाँ का श्रंगार है ,
सुविधा संवर्धक यह , इससे बनी गले का हार है !

मानव जीवन को दुनियाँ में , बिजली एक वरदान है
वर्तमान युग में बिजली ही, इस जग का भगवान है !

कण कण में परिव्याप्त , जगत में विद्युत का आवेश है
विद्युत ही जग में , ईश्वर का , लगता रूप विशेष है !!


- प्रो सी बी श्रीवास्तव

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

गीतिका

तुम

आचार्य संजीव 'सलिल'

सारी रात जगाते हो तुम।
नज़र न फिर भी आते हो तुम.

थक कर आँखें बंद करुँ तो-
सपनों में मिल जाते हो तुम.

पहले मुझ से आँख चुराते,
फिर क्यों आँख मिलाते हो तुम?

रूठ मौन हो कभी छिप रहे,
कभी गीत नव गाते हो तुम

'सलिल' बांह में कभी लजाते,
कभी दूर हो जाते हो तुम.

नटवर नटनागर छलिया से,
नचते नाच नचाते हो तुम

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ग़ज़ल

डॉ. महेंद्र अग्रवाल, शिवपुरी

मुसीबत पीठ पर कोई लदी वो मुस्कुराता है
उठाकर सर खडी हो त्रासदी वो मुस्कुराता है

विरासत में मिली है शानो-शौकत राजवंशी है
कभी करवट बदलती है सदी वो मुस्कुराता है

महाजन गाँव से आकर शहर में और लापरवाह
उफनती है वहाँ जब भी नदी वो मुस्कुराता है

हमारे बीच का, हमने चुना सरदार अपना ही
कबीले में खिली जब भी बदी वो मुस्कुराता है

शहर जलता रहा फिर भी मगन वो बाँसुरी में था
मुसीबत में अगर हो द्रौपदी वो मुस्कुराता है

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भक्ति गीत

प्रो भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'

राममय जीवन बनाओ,
राम से ही काम रखो,
राम का ही नाम गाओ...

राम पुरुषोत्तम पुरुष हैं,
राम मर्यादा पुरुष हैं।
अनुकरण उनका करो तुम-
सृष्टि के वे युग पुरुष हैं।

राम के आदर्श धारणकर
सफल जीवन बनाओ...

कौन ऐसा है जिसे पथ में
न बाधाएँ सतायें?
कौन ऐसा है न जिसको
घेरती काली घटायें?

उठो! गोवर्धन उठाकर
कृष्ण का सा बल दिखाओ...

कृष्णमय जीवन बनाओ।
राममय जीवन बनाओ..

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ग्वारीघाट (गौरीघाट) जबलपुर जहाँ सती ने शिव को पाने के लिए तप किया था

ग्वारीघाट

दोहे डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र, देहरादून

नदियों के इस देश में, अपना यही वजूद।
पहले डूबा टेहरी, अब डूबा हरसूद।

चाहे वह हो सीकरी, चाहे वह हो ताज।
खाली घर में गूँजती, है भरी आवाज।

मन का रिश्ता भूलकर, तन का रिश्ता जोड़।
इस परदेसी शहर में, गंवई बातें छोड़।

पवन बसन्ती रात-दिन, मारे सूखी मार।
फिर भी लौटाए नहीं, मन जो लिया उधार।

सुधियों में फागुन गया, दुविधा गया सनेह।
भीगे मन की छाँव में, सगुन मनाती देह.

रूपाजीवी-साधू में, सदा रही तकरार।
कान्चीमठ से है खफा, इसीलिये सरकार।

आँगन में ही नीम था, किन्तु न समझा मोल।
रोगी था मधुमेह का, मरा खुली तब पोल।

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कविता

ईसा और मैं

डॉ।किशोर काबरा, अहमदाबाद

क्रूस पर लटका
ड्राइंग रूम की शोभा बढाता
ईसा का खिलौना, बड़ा सलौना।
बच्चे आखिर बच्चे,
बच्चों ने ईसा को सूली से उतार दिया।
पूछा तो बोले-
सदियों से लटका है।
तकलीफ बड़ी होती थी।
भड़क उठा मैं-
ये क्या जानेंगे कल के छोकरे
बड़ों की इज्जत करना?
अरे! ईसा तकलीफ सहेगा, या न सहेगा,
पर यहाँ आकर कोई देखेगा तो क्या कहेगा?
और मैंने ईसा को फिर से सूली पर चढा दिया।
मेरा ड्राइंग रूम चमक उठा।

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हाइकु नलिनीकांत

हाइकु

नलिनीकांत
खांचे का पंछी
चिल्लाया करता है
मुक्ति के लिए।

राम-राम है
रट रहा, बाहर
होने के लिए।

फडफडाया
करता पंख, खुले
व्योम के लिए.

अक्सर वह
रहता है गुस्से में
हवा के लिए.

गाता नहीं है,
रोया करता, उड़
जाने के लिए.

तरस रहीं
आँखें उसकी, हरे
दृश्य के लिए.

किया करता
प्रार्थना प्रभु जी की
मुक्ति के लिए.

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kavita samay khatm devendra mishra

कविता

समय ख़त्म

देवेन्द्र कुमार मिश्रा

खेल शुरू होने से पहले की
जिज्ञासा और तैयारी
चलते खेल पैर भरी
कोशिश जीतने की
दोनों पक्ष पसीने से तरबतर
भरपूर प्रयास
जी तोड़ कोशिश
दर्शक दीर्घ में बैठे
अपने-अपने खिलाड़ियों की
जीत के प्रति प्रार्थना
भरोसा और
हौसला अफजाई भी
जीत लक्ष्य है।
जीतना चाहते हैं दोंनों ही
पर
जीतता कोई एक ही है
किसी को तो हारना भी है।
कौन जीता?
अधिक मेहनती,
अधिक लगनवाला,
या किस्मतवाला?
जीत-हार न हो तब भी
सीटी बजी- खेल ख़त्म
समय तो सीमित ही है
समय ख़त्म...खेल ख़त्म...
ऐसे ही चलता है जीवन
खेलो..हारो...जीतो...
समय पर सब ख़त्म।

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गुरुवार, 19 मार्च 2009

क्षणिका

बेटियाँ भगवान् की देन
फिर विवाह में
कैसा लेन-देन ?
- सोनी जर्मनी से
दोहे पर्यावरण के

कैलाश त्रिपाठी

ज़हर हवा में छोड़ते, तनिक नहीं संकोच।
जीवन दूभर हो रहा, बदलो अपनी सोच.

प्रतिदिन बढ़ता जा रहा, भूमंडल का ताप।
अनियोजित उद्योग है, जीवन का अभिशाप.

क्षरण हुआ ओजोन का, अन्तरिक्ष तक घात।
सागर में भी जा रही, ज़हरीली सौघात.

कविताओं में रह गया, शीतल सुखद समीर।
वन काटे, छोडा धूंआ, वायु मलिन गंभीर।

--शिव कुटी, आर्य नगर, अजीतमल, औरैया।

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