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गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

navgeet:

नवगीत:
संजीव
.
कौन है जो
बिन कहे ही
शब्द में संगीत भरता है?
.
चाँद उपगृह निरा बंजर
सिर्फ पर्वत बिन समंदर
ज़िन्दगी भी नहीं संभव
उजाला भी नहीं अंदर
किन्तु फिर भी
रात में ले
चाँदनी का रूप  झरता है
.
लता को देता सहारा
करें पंछी भी गुजारा
लकड़ियाँ फल फूल पत्ते
लूटता वहशी मनुज पर
दैव जैसा
सदय रहता
वृक्ष कल से नहीं डरता है
.
नदी कलकल बह रही है
क्या कभी कुछ गह रही है?
मिटाती है प्यास सबकी
पर न कुछ भी कह रही है
अचल सागर
से अँजुरिया
नीर पी क्या कोई तरता है?
*

2 टिप्‍पणियां:

Kusum Vir kusumvir@gmail.com ने कहा…


Kusum Vir kusumvir@gmail.com

अति सुन्दर, अनुपम रचना, आचार्य जी l
अशेष सराहना के साथ,
सादर,
कुसुम

sanjiv ने कहा…

अहा!
कुसुम जी धन्यवाद