गीत:
आँसू और ओस
संजीव 'सलिल'
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी कहें: 'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' संग नित गहिये हमको...
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 1 नवंबर 2010
गीत: आँसू और ओस संजीव 'सलिल'
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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12 टिप्पणियां:
सुबह सवेरे मन सुरभित हो गया ....
बहुत सुंदर.....
आभार...
सादर नमन आपको.....
sundar rachna hetu badhai Salil ji.
Mahesh Chandra Dwivedy
आ० सलिल जी,
आंसू की अंतर्कथा का आपने ओस के परिप्रेक्ष्य में
सुन्दर शब्द-चित्रण किया है | साधुवाद |
कमल
आ० सलिल जी
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
आदरणीय आचार्य जी,
बहुत सुन्दर रचना सदैव की तरह.
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल.com/
आंसू दो ही काम करते हैं ये आंसू :
कभी ये पानी गिराते हैं , जलाने के लिए \
कभी ये नीर बहाते हैं , मनाने के लिए \
लेकिन ओस :
रात भर मिल के सभी तारे, रोते जाते हैं \
जिन्हें प्रातः अरुण तो मोती बना जाते हैं \
मगर सूरज को नहीं भाता मोतिओं का चमक
प्रखर किरण दे उन्हें खाद में मिलाते हैं \
आचार्य सलिल ,
आपका आकलन बहुत सुन्दर है , जिन्हें कवित्व शक्ति ने और चमका दिया है| बहुत खुशी होती है पढ़कर
Your's ,
Achal Verma
पंकज त्रिवेदी जी की रचना पढ़ी थी रिसेंट्ली बहुत अच्छी लगी थी| अब ओस बूँद और आँसुओं को ले कर सिक्के का ये दूसरा पहलू भी बड़ा रमणीक लगा है| यही तो विशेषता है रचनाकारों की की एक बात के अनेकों अभिप्राय और सारे के सारे सही| आप दोनो को बहुत बहुत बधाई|
आदरणीय आचार्य जी
अच्छी रचना के लिए आभार!
सादर
अमित
sn Sharma ✆
ekavita
विवरण दिखाएँ ९:१० अपराह्न (3 मिनट पहले)
आ० आचार्य जी,
बड़ा चुटीला व्यंग है | वैसे आपको शानीचरिया बताने वाले
एक से पाला पड़ चुका है और मैंने उन्हें अपनी प्रतिक्रिया भी बता दी है |
शायद आपने भी वह संवाद देखा होगा | वैसे आपका तो अंदाज़ ही निराला है -
उठें उँगलियाँ उठा करें मैं अपनी धुन में जीता हूँ
कहने वाले कहा करें मैं अमृत मान गरल पीता हूँ
सादर
कमल
आचार्य जी,
अति सुन्दर!
कविवर रबीन्द्रनाथ ठाकूर ओस को रात्रि के आँसू कहते हैं।
"In moon thou sendest thy love letters to me," said the night to the Sun, "I leave my answers in tears upon the grass"
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर
बधाई सलिल जी. 'अब बहिये' का अनूठा प्रयोग किया है.
महेश चन्द्र द्विवेदी
आद० आचार्य जी
अभिवादन,
आँसू और ओस एक सुंदर सार्थक, तथ्य्परक रचना, साधुवाद
डा० अजय जनमेजय,बिजनोर,उ०प्र०[०९४१२२१५९५२
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