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बुधवार, 12 मार्च 2025

ईसुरी, चौकड़ियाँ, बुंदेली

 ईसुरी की चौकड़ियाँ 

१. 

नैंना हैं बरछी से पैनें! मारे प्यारी तैनें!

इनकी चोट बचावे खातर, जतन करे हैं मैंने॥

कटे न पाप गए गंगा नों, दए हजारन कैनें॥

‘ईसुर’ कात पुरा में बस कें, प्रानइ से का लेनें॥

तेरे नेत्र बरछी से पैने हैं। प्यारी, तुमने उनका प्रहार किया है। चोट से बचने के लिए मैंने ख़ूब उपाय किए। गंगा स्नान किया, दान दिया, फिर भी उनके पापों का प्रभाव घटा नहीं। पड़ौस में बस कर भी क्या ईसुरी के प्राण लेकर ही मानेगी?

२. 

टेरौ बलदऊ के भइयै!लगवावे खाँ गैये!

कौंरे हात पकर ना आबै, बछरा बारी बैयै॥

उचका कूंदी होय बगर में, चीनत नइ लगवैऐ॥

जा है कीरत नंद बबा की, लै गई मोय कनैयै॥

अपने खोटे दाम ‘ईसुर’, दोष कौन परखैयै॥

गाय लगाने के लिए बलराम के भाई को बुलाओ। हमारी सुकुमार बेटी के हाथ बहुत कोमल हैं। उन्हें बछड़ा पकड़ना नहीं आता। गोशाला में उछल−कूद मची रहती है। गाय, दोहने वाले को नहीं पहचानती। नंद बाबा की ऐसी कीर्ति है कि वह मेरे लाड़ले कृष्ण को ले गई। अरे ईसुरी! जब अपना दाम खोटा हो तो परखनेवाले को दोष देना व्यर्थ है।

३. 

तोरे नैना मुलक उजारे! हमें हेरतन मारे!

काजर की कोरन में भरके, ठाँडे मानुस मारे॥

जो लऔ पुन्न पियारी तुमने, घर घर घायल पारे॥

‘ईसुर’ सोउ गरीबन ऊपर, पूरे गज़ब गुजारे॥

तुम्हारे नेत्रों ने देश के देश उजाड़ दिए। हमें देखते ही मार डाला। काजल की रेखा से इन्होंने खड़े हुए आदमी मार दिए। प्यारी! तुमने यह पुण्य कमाया है कि घर-घर घायल पड़े हुए हैं। ईसुरी जैसे ग़रीबों पर तुमने भरपूर ज़ुल्म किए हैं।

४. 

धरती धरें लटें लमछारी! मनों नागिनें कारीं!

गुबवा रई छोर कें जूरौ, करया ऊपर डारी॥

रुच सें गोय चुटीला चुटियाँ, रुच रच पटियाँ पारी॥

‘ईसुर’ लखी लगा के ऐंना, श्री वृखभान दुलारीं॥

उनके केशों की लंबी लटें धरती तक फैली हैं, मानों काली नागिनें हों। वे जूड़ा खोलकर केश गुँया रही है। केश कमर पर फैले हैं। छोटी-बड़ी चोटियाँ गूँथ कर उनकी पटियाँ रुचि से सजाई गई हैं। देखो ईसुरी, फिर वृषभान दुलारी ने अपनी केश सज्जा को दर्पण में निहारा।

५. 

साँसी प्रीत कर सें जानें! कएँ सें लबरी मानें!

बतसें निगत जात हैं उत खों, हाल बे हाल भुलानें॥

बातन कछू कछू कै आबै, रात न बुद्द ठिकानें॥

दावत देख दूर सें नकुआ, लासन घाईं बसाने॥

‘ईसुर’ कात कोए ना बिगरौ, हम बेतराँ नसाने॥

प्रीति करके ही सच्चा अनुभव होता है। सुनी हुई बातें झूठी लगती हैं। हम जाना कहीं चाहते हैं और कहीं जा पहुँचते हैं। सब कुछ भूल बैठे। हाल-बेहाल हैं। कुछ कहना चाहते हैं और कुछ मुँह से निकलता है। बुद्धि स्थिर नहीं रहती। प्रेम-दीवाने को दूर से देख कर लोग नाक दबाने लगते हैं, जैसे उसमें लहसुन की दुर्गंध हो। ईसुरी कहता है—कोई प्रेम में बरबाद न हो। मैं बुरी तरह मिट गया।

६. 

कीसें कएँ प्रीत की रीती! कएँ सें होत अनीती!

मरम न जानत एन बातन कौ, को मानत परतीती॥

सई ना जात मिलन की हारी, विछुरन जात न जीती॥

साजी बुरई लई सिर ऊपर, भई सो भाग बदीती॥

पर बीती नइ कात ‘ईसुरी’ कत जौ हमपै बीती॥

प्रेम की रीति हम किसे समझाएँ? उसे बताने से अनीति होती है। लोग उसका मर्म नहीं समझते। उस पर किसे विश्वास है? मिलन की हार और बिछुड़न की जीत कौन सह सकता है? अच्छी-बुरी जो कुछ हुई, मैंने अपने सिर पर ले ली। जो भाग्य में लिखा था, वह हुआ। ईसुरी परबीती बात नहीं कहता, आप बीती बताता है।

७. 

मधुकर प्रीत न होत पुरानी! उत्तम मन की जानी?

पथरी आग तजत है नइयाँ, रहै जुगन भर पानी॥

जैसे फूल गुलाब पखुरिया, सूखें अधिक बसानी॥

‘ईसुर’ कात प्रीत उत्तम की, निभये भर जिंदगानी॥

अरे मधुकर, प्रीति पुरानी नहीं पड़ती। उत्तम मनवाले उसे सदा सँजो कर रखते हैं। पथरी भले ही अनंत काल तक पानी में रहे फिर भी वह अपने भीतर छिपे अग्नि कण को त्यागती नहीं। पंखुरी सूखने पर गुलाब की गंध और तेज होती है। ईसुरी कहता है उत्तम जन की प्रीत जीवन भर निभती है।

८. 

बादर मदन भूप दल दाबैं! विरहिन के घर आबैं!

जिनके सँग नकीब कोकिला, ललित आवाज लगाबैं॥

चातक चतुर अलापत ठाँड़ौ, पिया पिया जस गाबैं॥

बूँदे नई तीर सी लाबें, रात दिना बरसाबैं॥

मदन भूप बादलों का दल दबाए विरहिन के घर आ रहे हैं। उनके संग कोकिल का चारण है। वह मीठी आवाज़ें लगाता है। चतुर पपीहा खड़ा ‘पिया पिया’ कह कर आलाप भरता है। मुझे नई बूँदे तीर सी छिदती है। दिन रात पानी की झड़ी लगी है।

९.

गुइयाँ बचकें जइयौ पाने! गली बँदी ताये लाने!
राज कुराज परौ बेराजी, की खाँ देंय उरानें॥
गोरी गैल घाट बँद गऔ है, बच बच कें है जानें॥
कात ‘ईसुर’ ई गोकुल में, जदुबंसी उबराने॥
अरी सखी, पानी भरने बच के जाना। तेरे लिए (कृष्ण ने) गली पर नाकाबंदी कर रखी है। (आजकल) बड़ा अँधेर और अराजकता है। लोग मनमानी करते हैं। तू किसे उलाहना देगी। हे सुन्दरी, रास्ते और घाट पर छेड़छाड़ होती है। बच कर जाना। अरे ईसुरी! गोकुल के यदुवंशी बड़ा उत्पात करते हैं।
१०. 
जिदना तुमसें कीनी यारी! गइ मत भूल हमारी!
भए बदनाम अलाज कहाए, ग्यान बिगार अनारी॥
मौं गऔ लौट जान कें खा, खाँड़ के धोकें खारी॥
पीट के पीदे हात बजा कें, हँसी करत संसारी॥
‘ईसुर’ अपने हातन अपने, पाँव कुलरिया मारी॥
जिस दिन तुमसे प्रेम किया हमारी मति मारी गई थी। हम बदनाम हुए। निर्लज्ज कहलाए। अज्ञानी और अनाड़ी बन गए। हमारे मुँह का स्वाद बिगड़ गया। शक्कर के धोखे हमने नमक खा लिया। सारी दुनिया पीठ पीछे तालियाँ बजाती है—हँसी करती है। ईसुरी ने अपने हाथों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार ली है।
११. 
नैना काजर भर के मारे! चाय नजर भर कारे!
तन की तुपक सुरत भरदारू, नजर लोहया डारे॥
हँस मुसकान जमा दइ रंजक, फैर करे हत्यारे॥
हाथ हाय कर गिरे ‘ईसुरी’ गिरतन आए तमारे॥
उन्होंने नैंनो में काजल लगा कर तीर मारा है। शरीर की बंदूक़ में सूरत की बारूद और नज़र की गोली भरी है। मुस्कान की रंजक जमा कर प्राण घातक धमाका किया है। ईसुरी हाय-हाय कर गिर पड़ा और मूर्छित हो गया।
१२. 
को रओ रावन कें पनदेवा! बिना करें हरि सेवा!
करुनासिंद करौ कुल भर खों, एक नाव कौ खेबा॥
वासन लगे काग महलन में, चंबोदरे, परेबा॥
‘ईसुर’ नास मिटाउत पाउत, पाप करे कौ मेवा॥
रावण के यहाँ पानी देने वाला कौन शेष रहा? भगवत सेवा न करने का यह नतीजा हुआ। करुणासिंधु ने पूरे कुल को एक बार में पार लगा दिया। (लंका के) महलों में चमगादड़, कौए और पखेरू बसने लगे। अरे ईसुरी! प्रभु पापियों का विनाश कर देते है। पाप का फल भुगतना ही पड़ता है।
१३. 
हम खों नैनन की संगीनें! हँस कें मारी ईनें!
पूरे लगे दूर नों भाले, नइयाँ घाव उछीनें
नइयाँ घाव मरम पट्टी के, दबा काय खों पीनें॥
हार कहीम गए हिम्मत कर, सिंयत बने ना सीनें॥
‘ईसुर’ स्याम दरद ना जानें, जोंनों जग में जीनें॥
इसने आँखों की संगीनें हँस कर मारी हैं। नज़र के भाले दूर तक भरपूर लगे हैं। घाव उथले नहीं। वे मरहम पट्टी के लायक़ नहीं। दवाएँ लेना व्यर्थ है। बड़े-बड़े हक़ीम हार चुके। हिम्मत करके भी किसी से सीने का घाव सेंते नहीं बना। अरे ईसुरी! साँवरे का यह दर्द तब तक नहीं जाएगा जब तक दुनियाँ में जीवन है।
१४. 
छापे दए छैल पै छब के! करे करम सब रब के!
नैना दोऊ बाँस बाँकुड़े, पेड़ पेड़ के टबके॥
सैमू छाती उठै हमारे, सैल सैल के धबके॥
मन धन लुटै, बात बातन में, आँखन देखत सबके॥
बेई बिड़ारे फिरै ‘ईसुरी’ रिझवारे खों लपके॥
वे रसिकों पर छवि के छापे लगाती है। यह सब प्रभु की माया है। उनके नेत्र बड़े बाँके हैं। पेड़ से टपके आमों से रसीले। उनके कटाक्षों के मुष्टिक, छाती पर धमाके के साथ लगते हैं। हमारे मन की दौलत बात-बात में सबकी आँखों के सामने लुट रही है। उनके मारे ईसुरी भागे−भागे फिरते हैं। वे रीझने वालों को लपक कर घेर लेते हैं।
१५. 
जुबना बीते जात लली के! पर गए हात छली के!
मसकत रात पुरा पाले में, सरकत जात गली के॥
कसे रात चोली के भीतर, जैसें फूल कली के॥
कात ‘ईसुरी’ मसके मोहन, जैयें कोउ भली के॥
हाय लली के उरोज लुटे जाते हैं। छलियों के हाथ पड़ गए। मुहल्ले वाले गली में आते-जाते उन्हें मसकते रहते हैं। ये चोली में फूल−कलियों के गुच्छों जैसे कसे रहते हैं। ईसुरी कहता है—इन्हें मोहन ने मसला है। वे किसी भले घर में ब्याही जाएँगी।
१६. 
मानुस बड़े भाग से होबै! रजउ छोड़ दो लोबै!
मिलके चाल चलौ दुनिया में, सब से राख घरोबै॥
जिंदगानी कौ कौन भरोसौ, जुबन जात रँए रोबै॥
भरेतला में सपरत ‘ईसुर’ नंगौ कहा नि चौबै॥
मनुष्य का जन्म बड़े भाग्य से मिलता है। अरी रजउ, लोभ करना त्यागो। दुनियाँ में हिलमिल कर चाल चलो। सबसे पारिवारिकता बनाओ। जीवन का क्या ठिकाना? यौवन बीतने पर रोना पड़ता है। ‘ईसुरी’ तो भरे तालाब में नहाता है। वह तो नंगा है और उसके पास निचोड़ने को कुछ नहीं।
१७. 
जग में बिना यार कौ को है! मिलौ सो भाग बदौ है!
एक यार आमद के पाछूँ, धन के संग लगौ है॥
एक यार दँय प्रान प्रेम पै, प्रेम की फूँद फँसौ है॥
एक यार बिचधार बुआ कें, बीचइ बीच भगौ है॥
जे सब यार निरख कें ‘ईसुर’ मो मन भौत हँसौ है॥
दुनियाँ में बिना यार का कौन है? मुझे नहीं मिला जो भाग्य में था। एक धन का यार होता है। वह आमदनी के लिए धन के पीछे भटकता है। एक यार प्रेम के फंदे में फँसा उस पर प्राण देता फिरता है। एक यार दग़ाबाज़ होता है, जो बीच धार में प्रेमी को डुबा कर छोड़ जाता है। ईसुरी का मन इन सब यारों को देखकर ख़ूब हँसता है।
१८. 
अब रित आइ बसन्त बहारन! पान फूल फल डारन!
हारन हद्द पहारन पारन, धास धवल जल धारन॥
कपटी कुटिल कंदरन छाई, गई बैराग बिगारन॥
चाहत हतीं प्रीत प्यारे की, हा हा करत हजारन॥
जिनके कंत अंत घर से हैं तिने देत दुख दारुन॥
‘ईसुर’ भौंर मौर के ऊपर लगे भौंर गुँजारन॥
अब वसंत ऋतु आ गई है। पत्तों, फूलों, फलों और शाख़ाओं पर बहार छाई है। वनों की सीमाओं , पर्वत तटों, धवल भवनों और जलाशयों में वह विद्यमान है। वह कुटिला कंदराओं में वैराग्य खंडित करने जा घुसी। उसके कारण मानिनी युवतियाँ प्रियतमों से हा-हा कर प्रेम-याचना करने लगी हैं। जिनके पति बाहर हैं उन्हें वह बहुत दुख देती है। अरे ईसुरी! अब बौराए आमों पर भौंरे गुंजन कर उठे हैं।
१९. 
रे मन बिंद्रावन में रइए! किसन राधका कइए।
झाड़ूदार बने गाकुल के, खोरें साफ़ करइए॥
गोपन ब्रजवासन के घर पै, माँग के टुकड़ा खइए॥
करिए ना अभिमान जगत में, प्रभु सें नैकें रइए॥
चार भुजा वारे खों ‘ईसुर’, का दो भुजा निरइए॥
अरे मन! वृंदावन में रहो। 'कृष्ण-राधा' कहो। गोकुल में झाड़ूदार बन कर गलियाँ साफ़ करो। गोपों और ब्रज जनों के घरों से माँग-माँग कर टुकड़े खाओ। इस जगत में अभिमान न करो। प्रभु से विनीत बनकर रहो। ईसुरी! तू चार भुजा वाले प्रभु के सामने अपनी दो भुजाएँ क्या प्रदर्शित करता है?
२०. 
अँखिया पिस्तौलें सी भरकें! भारत जात समर कें!
दारु दरद लाज की गोली, गज कर देत नजर कें॥
देत लगाय सैन की सूजन, पल की टोपी धरकें॥
‘ईसुर’ फैर होत फुरती में, कोउ कहाँ लों बरकें॥
वे भरी पिस्तौल सी आँखें संभल कर मारती चलती हैं। उनमें दर्द की बारूद, और लाज की गोली नज़र के गज से ठाँस कर भरी है। उस पर संकेत की सुई और पलक की टोपी लगी है। अरे ईसुरी, इनसे फुर्ती से धमाके होते हैं। कोई कहाँ तक बचेगा?
२१. 
अब दिन आए बसन्ती नीरे! ललित और रँग भीरे!
टेसू और कदम फूलहैं, कालिंदी के तीरे॥
बसते रात नदी नद तट पै, मजै में पंडा धीरे॥
‘ईसुर’ कात नारबिरहिन पै, पिउ पिउ रटत पपीरे॥
अब बसंत के दिन निकट आ गए। वे मधुर और रंगीन हैं। पलाश और कदंब जमुना के तटों पर फूल रहे हैं। धीरे पंडा नदी के तट पर आनंद से रहते हैं। ईसुरी कहता है—विरहिणी नारियों की छाती पर पपीहे ‘पिउ-पिउ’ रट रहे हैं।
२२. 
लै बौ राम नाम है सच्चा! लगै न जम कौ दच्चा!
बरत अगन तें कूँदत आएँ मारजार के बच्चा॥
हिरनाकुस प्रहलाद के लाने, कौन तमासौ रच्चा॥
‘ईसुर’ लै लै नाम उतर गए, मीरा, दोला, फज्जा॥
‘राम’ नाम लेना ही सार है—सही है। इससे यम के धक्के नहीं लगते। जलती आग में से बिल्ली के बच्चे कूदते-फाँदते ‘राम’ नाम के प्रताप से जीवित निकल आए। हिरनाकुस और प्रह्लाद के लिए प्रभु ने कैसी माया रची थी! अरे ईसुरी! नाम ले-ले कर मीरा, दोला, फच्चा आदि भक्त तर गए।
२३. 
आसौं लै गऔ साल करौंटा! करौ खाव सब खौंटा!
गोऊँ-पिसी खों गिरुआ लग गऔ, मउअन लग गऔ लौंका॥
ककना दौरी सब धर खाए, रै गऔ फकत अनौटा॥
कहत ‘ईसुरी’ बाँदें रइयौ, जबर गाँठ कौ घौंटा॥
इस बार वर्ष करवट ले गया। अब तो घास-पात खौंट कर खाओ और उसी से पेट भरो। गेहूँ पिस्सी को ‘गेरुआ’ रोग लग गया और महुओं को ‘लौंका’। कंगन-दोहरी तो बेच खाए, अब बस अनौटा बच रहा है। ईसुरी कहता है, इस संकट में अच्छी तरह कमर कसे रहना।
२४. 
अब ना करै काउँ सों यारी! गरज कि दुनियाँ सारी!
गरज परे के भाइ बंद हैं, गरज के सब हितकारी॥
गरज परे के परमेसुर नों, गरज के बाप मतारी॥
गरदन दए नो गरज ‘ईसुरी’ गरज परे की प्यारी॥
अब कोई किसी से प्रेम न करे। दुनिया मतलब की है। भाई-बंधु स्वार्थी हैं। सभी हितैषी मतलबी हैं। स्वार्थ के कारण लोग ईश्वर और माँ-बाप को मानते हैं। सिर लेने तक स्वार्थ घेरे है। अरे ईसुरी, प्यारी भी पूरी मतलबी निकली।
२५. 
जमने जान देत ना पानी!
भयौ अनौखौ दानी!

कोउ कामें काए खाँ जैहै, जा बऊ बिटिया स्यानी॥
कर पकरत औ हमसें माँगत, रोक दियौ नँद रानी॥

‘ईसुर’ ई बसती ब्रज बसिवौ, कैसें जात निबानी॥
जमुना से पानी भरने को नहीं जाने देते। कृष्ण अनोखे दान लेने वाले हुए हैं। अब स्यानी बहू-बेटियाँ कामकाज के लिए क्यों जाएँगी? कृष्ण हमारा हाथ पकड़ते हैं और माँगते हैं। यशोदा जी! तुम उन्हें रोको। अरे ईसुरी! ब्रज की बसती में रहना कैसे निभेगा?
२६. 
रइयौ मनमोहन सें बरकी! तुम नई भई अहिर की!
होत भोर जमुने न जइयौं, दै कें कोर कजर की॥
उनकौ राज उनह की रैयत, सिर पर बात जबर की॥
‘ईसुर’ कात तला में बस कें, सैये सान मगर की॥
कृष्ण से बच के रहना। तुम अहीर की नवयौवना सुन्दरी हो। सुबह−सुबह काजल लगाकर यमुना की ओर न जाना। उनका राज है और हम उनकी प्रजा हैं। सिर पर बलवान की बात आ पड़ी है। ईसुरी कहता है तालाब में बस कर मगर की मनमानी और अकड़ सहनी पड़ती है।
२७. 
जुबना कड़ आए कर गलियाँ! बेला कैसी कलियाँ!
ना हम देखे अमत जमी पै, ना माली को बगियाँ॥
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ।
‘ईसुर’ हात समारें धरियौ, फूट न जावें गदियाँ॥
उरोज रास्ता बनाते हुए निकल आए। अभी वे बेला की कलियों जैसे हैं। ये न धरती पर उपजते हैं और न माली की बगिया में। वे सोने के तमगों से लगते हैं और बरछी जैसे नोकदार। अरे ईसुरी! उन पर हाथ संभलकर रखना, कहीं हथेली न फोड़ दें।
२८. 
जुबना दए राम ने तोरें! सब कोए आवत दोरें!
आएँ नई खाँड के घुल्ला, पिएँ लेत ना घोरें॥
का भऔ जात हात के फेरें, लेत नई कुछ टोरें॥
पंछी पिएँ घटी नई जाती ‘ईसुर’ समुदः हिलोरें॥
भगवान ने तुझे उरोज दिए हैं। इसी से सब तेरे द्वार पर चक्कर काटते हैं। वे शक्कर के खिलौने तो नहीं, जो कोई उन्हें घोल कर पी लेगा? हाथ फेरने से क्या बिगड़ जाएगा? तोड़ तो लेंगे नहीं? पंछी के पानी से क्या समुद्र की लहरें घटी जाती हैं?
२९. 
मुख ढिंग बार लाड़ली छोरें! दबी कपोलन कोरें!
करन नहान जात सरवर खों, सीस मृत्तिका घोरें॥
मनों फनी पै मड़ी कांचरी, लामी लटें करोरें॥
कालीपत कारे कड आए, जुलफें जलन हिलोरें॥
पूरन उगे कालानिधि पै भए मानस चित्त चकोरें॥
कामिनी भई काम सें पूरन, आनन अमी चचोरें॥
लगी गरे के चन्द्रै ‘ईसुर’ सर्पन कैसी डोरें॥
सुन्दरी के खुले केश मुख के पास बिखरे हैं। कपोल सीमाएँ घिरी हैं। बालों में मिट्टी घोले वह स्नान करने सरोवर जा रही है। उसकी लंबी लटें मानों केंचुलधारी नाग हैं। नहाने में जल पर तैरते केश काले नाग से लहराते हैं। उस पूरे उगे चन्द्र मुख पर जन मन चकोरों की तरह मुग्ध हैं। वह सुन्दरी काम कला में भरी-पूरी है। वे उसके मुख का अमृत पीते हैं। अरे ईसुरी! लगता है चन्द्रमा के गले में नागों की डोरें लगी हैं।
३०. 
ऐसौ भलौ न मानस चमकौ! ऐसौ धरम करम कौ!
का कएँ गोपी ऊँसीं रै गईं, दै छाती में गमकौ॥
बौ बेदरदी ब्रज कौ वासी, बिगरौ बिना करम कौ॥
बाँद भसम पहुँचाई ‘ईसुर’ लेओरी खर्च खसम कौ॥
ऐसा भला आदमी निकला कि शरमाया तक नहीं। वह ऐसे धर्म-कर्म वाला है! गोपियाँ क्या कहें? वे छाती-पीट कर रह गई। वह ब्रजवासी बड़ा निष्ठुर है। वह बिगड़ गया है। किसी करम का नहीं। देखो ईसुरी! उस कुटिल ने हमारे लिए भस्म बाँधकर भेजी है। सँभालो, परदेश गए पति का भेजा ख़र्च!
३१. 
कानन डुलें राधका जी के! लगें तरकुला नीके!
आनदं कंद चंद के ऊपर, दो तारागन झींके॥
परतन पसर परत गलन पै, तरें झूमका जी के॥
जिनके घर सें जे पैराए, और जनन ने सीके॥
‘ईसुर’ स्याम सनेह सौं देखत, ब्रजवासी बसती के॥
राधिका जी के कानों में झूलती झुमकियाँ बड़ी सुंदर लगती है। आनंदकारी चंद्रमा के पास झिलमिलाते दो नक्षत्र भी उनकी शोभा से हतप्रभ है। पोंढ़ते समय नीचे के लटकन उनके कपोलों पर परस कर पड़े रहते हैं। ऐसे आभूषणों का चलन उनके घर से शुरू हुआ, जिन्हें औरों ने सीखा। अरे ईसुरी! उनकी झुमकियों को कृष्ण और ब्रजवासी जन बड़े चाव से देखते हैं।
३२. 
जुबना छाती फोर दिखानें! मदन वदन उपजाने!
बड़े कठोर फोर छाती खों, निबुआ से गदराने॥
शोभा देत वदन गोरे पै, चोली के बदं ताने।!
पौंछ पौंछ के राखे रोजऊँ, बारे बलम के लाने॥
ईसुर कात देखलो इनखों, फिर भए जात पुराने॥
उरोज छाती फोड़ कर दिखने लगे। कामदेव ने उन्हें शरीर में उपजाया है। वे ऐसे कठोर हैं कि छाती फोड़ दी। नीबू से गदरा रहे हैं। उन्होंने गोरे शरीर की शोभा बढ़ाई है ओर कंचुक के बंदों में तनाव पैदा कर दिया। युवती ने उन्हें बाँके प्रियतम के लिए संभाल कर रखा है। ईसुरी कहता है कि उन्हें देख तो लो, नहीं तो वे पुराने पड़े जाते हैं।
३३. 
अपनी अदब में रऔ गिरधारी! गऔ जिन बाँय हमारी!
करौं पुकार, जाओगे पकरे, ना छेड़ो पर नारी॥
हप्पा नोंई कौर करबे खों, हम हैं कठिन कटारी॥
‘ईसुर’ रैयत राजा कंस की, क्या मगदूर तुमारी॥
हे गिरिधारी, अपनी मर्यादा में रहो। मेरा हाथ मत पकड़ो। मैं शोर कर दूँगी, तो पकड़े जाओगे। पराई नारी को मत छेड़ो। हम कोई पके चावल (हप्पा) नहीं, जो तुम आसानी से हजम कर लोगे। हम कटारी की तरह घातक और कठोर हैं। अरे ईसुरी! हम राजा कंस की प्रजा हैं। क्या हम तुम्हारी ग़ुलाम हैं?
३४. 
तलफत बिन बालम जौ जीरा! तनक बँधत ना धीरा!
बोलन लगे पपीरा मोरें, बरसन लागौ नीरां॥
आदी रात पलंग के ऊपर, उठत मदन की पीरा॥
'ईसुर' कात बतादो सजनी, कबै मिलै जिउ हीरा॥
बिना बालम के प्राण तड़प रहे हैं। तनिक धीरज नहीं बँधता। अब मोर और पपीहे बोलने लगे हैं। पानी बरस उठा। आधी रात में पलंग पर काम की आग भड़क उठती है। ईसुरी कहता है—अरे सजनी, मुझे बताओ—तुम्हारा हीरे सा हृदय कब मिलेगा।
३५. 
जुबना छियौ न मोरे कसकें! भरे नई रंग रस कें!
छाती के छाती से लगतन और बैठ जें गसकें॥
छीतन रोंम रोंम भए ठाड़े, प्रान छूट जें मसकें॥
साल एक की मानों ‘ईसुर’ फिर मसकालें हँसकें॥
मेरे स्तन मत छुओ। कसकते हैं। अभी रंग-रस से भरे पूरे नहीं हैं। छाती से छाती लगने पर वे और गस कर बैठ जाएँगे। उन्हें छूने से तो रोंगटे खड़े हो गए, यदि दबा दिया तो प्राण निकल जाएँगे। अरे ईसुरी! एक साल और धीरज धर लो। फिर हम हँस कर मसकवा लेंगे।
३६. 
अब ना होवी यार किसी के! जनम जनम खों सीके!
यार करे में बड़ी बिबूचन, बिन यार के नीके॥
निठुआँ ज्वाप दै दऔ उनने, हते न जीके नीके॥
नेकी करतन समजें रहयौ, जे फल पाए बदी के॥
मानुस जनम करौ ना ‘ईसुर’ पथरा करौ नदी के॥
अब हम किसी से यारी नहीं करेंगे। जनम-भर के लिए सीख गए। यार बनाने में बड़ा झंझट है। बिना यार के ही अच्छे। उसने साफ़ जवाब दे दिया। वह बहुत ख़राब निकला। समझ लो कि नेकी करने में बदी के फल मिलते हैं। ईसुरी को अब मनुष्य कभी न बनाना। इससे तो नदी के पत्थर ही भले।
३७. 
मोय बल रात राधका जी कौ! करों आसरौ की कौ!
दीनदयाल दीन दुख देखत, जिनकी मुख है नीकौ॥
पैलें पार पातकी कर दए, मोहन सौ पति जी कौ॥
कैसौ लगत खात सब कोऊ, स्वाद कात ना घी कौ॥
‘ईसुर’ कछू काम कर जाओ, कदमन के ढिंग झींकौ॥
मुझे राधिका जी का बल-भरोसा है। अन्य किसका आसरा करूँ? दीनदयालु प्रभु, जिनका मुख अनूठा है, दीनों के दुख पर ध्यान देते हैं। उन्होंने पापियों को पहले पार किया, ऐसे हैं राधिकापति! घी खाते सभी हैं, पर उसका स्वाद कैसा है-कोई नहीं कह पाता। (प्रभु ऐसे ही अनिर्वचनीय हैं।) अरे ईसुरी, यहाँ कुछ अच्छा काम कर जाओ। राधिका जी के चरणों में दीनता से झुको—प्रणाम करो।
३८. 
जुबना कौन यार खों दइए! अपने मन में कइए!
है बड़ मोल, गोल गुरदा से, कालों देखें रइए॥
जब सर्रात सेज के ऊपर, पकर मुठी मैं रइए॥
हात धरत दुख होत ‘ईसुरी’, पीरा कैसें सइए॥
किस प्रेमी को अपना यौवन सौंपना है, यह अपने मन में ही रखो। इनकी बड़ी क़ीमत है। उरोज गुरदे से गोल हैं। इनकी रखवाली कहाँ तक करें? जब ये सेज पर सर्राते हैं तब इन्हें मुट्ठियों में कस लेते हैं। अरे ईसुरी! ये हाथ रखने से ही दुखते हैं। पीड़ा कैसे सहें?
३९. 
जौ कोउ समर भूमि लर सोवै! तन तरवारन खोवै!
देय न पीठ, लेय छाती पै, घाव सामने होबै॥
जेइ ज्वानन खों करौ चाइए, अदा नौंन से होबै॥
ऐसे नर के मरें ‘ईसुरी’ जस गंगा खों होबै॥
जो युद्ध भूमि में लड़ते-लड़ते गिरता है, अपना शरीर तलवारों से कटवा देता है, कभी शत्रुओं को पीठ नहीं दिखाता, सीने पर वार झेलता है और घायल होता है; वही नमक की निभाता है। जवानों को यही करना चाहिए। ऐसे वीरों की सद्गति स्वयं हो जाती है। देखो ईसुरी, गंगा को उद्धार करने का यश तो मुफ़्त में ही मिलता है।
४०. 
जब सें भई प्रेम की पीरा! सुखी नहीं जौ जीरा!
कूरा माटी भऔ फिरत है, इतै उतै मन हीरा॥
कमती आ गई रकत माँस में, बहौ दृगन सें नीरा॥
फूँकत जात विरह की आगी, सूकत जात सरीरा॥
ओइ नीम में मानत ‘ईसुर’ ओइ नीम कौ कीरा॥
जब से प्रेम की पीड़ा हुई है, यह मन सुखी नहीं। हीरे जैसा अनमोल मन कूड़े-मिट्टी सा इधर-उधर ठोकर खाता फिर रहा है। रक्त ओर माँस घट चुका है, आँखों से आँसू बहते हैं, विरह की आग धधकती है और शरीर सूख रहा है। फिर भी देखो ईसुरी! नीम का कीड़ा, नीम की कड़वाहट में ही सुख मानता है।
४१. 
इक दिन होत सबई कौ गौनों! हौनों और अनहौनों!
जाने परत सासरें साँसउँ, बुरौ लगै चाय नौनों॥
जा ना बात काउ के बसकी, हँसी मचै चाय रौनों॥
राखौ चाऐ जौनों ‘ईसुर’ देय इनह भर सौनों॥
एक दिन तो सभी का गौंना होता है। कोई उचित समझे या अनुचित। सचमुच ही सबको ससुराल जाना पड़ता है, चाहे अच्छा लगे या बुरा। यह किसी के वश की बात नहीं, भले ही हँसी आए या रोना। अरे ईसुरी! कोई जानहार को उसी की तौल का सोना देकर रोकना चाहे तो नहीं रोक सकता।
४२. 
ऐसहँ कात पपीरा प्यासौ! पिया कौ कैबौ आँसौ!
पानी की माँ कमती की खों, बहत जात चौमासौ॥
ऊ पानी कौ प्यासौ नइयाँ, प्रान पिया कौ साँसौ॥
कलम को चोला ख़ैर बनौ रय, बरे बसे ना बाँसौ॥
‘ईसुर’ इक दिन तोरए देखै, सब संसार तमासौ॥
प्यासा पपीहा ‘पिउ-पिउ’ कहता है। मुझे यह अखरता है। अरे इन दिनों पानी की किसी को क्या कमी? चौमासा बह रहा है। पर उसे इस पानी की प्यास नहीं उसके प्राण तो प्रिय के सच्चा प्रेम है। प्रेमी का शरीर स्वस्थ रहे। वह दूर हो या पास रहे। अरे ईसुरी, एक दिन संसार तेरा भी तमाशा देखेगा।
४३. 
अब ना लगें जुबनवा नोंनें। हो आई हौ गौनें।
इतै भले कैसे लागत ते, सुंदर सुघर सलौने॥
ऐसी जल्दी जाने कैसें, दए मिटाय निरोंगें॥
चलन लगी नेचे खों फलियाँ, हलन लगी देउ टोंनें॥
अब जुबना अच्छे नहीं लगते। तुम गौनें होकर आई हो ना। पहले वे कैसे अच्छे लगते थे—सुन्दर सुडौल और सलोंने। हाय न जानें कैसे इन मनोरम उरोजों को इतनी जल्दी तहस-नहस कर दिए? अब उनके फल नीचे लटकने लगे हैं और दोनों टोंने हिलने लगी हैं।
४४. 
जाड़ौ कैसें कटत बिचारौ! बारौ बलम हमारौ!
दिन डूबे सें करत बियारी, घर में परत नियारौ॥
अंदियारी हो सकियाँ पूछें, कहा कहौं सुकचारौ॥
कात ‘ईसुरी’ सुनलो प्यारी, जुबन उठौ अनियारौ॥
ठंड का यह मौसम कैसे कटेगा? हमारा पति तो बहुत छोटा है। वह शाम होते ही भोजन कर घर में अलग सो रहता है। अँधी-सी सखियाँ मुझसे ससुराल के सुख चाह पूछती हैं। मैं उनसे क्या कहूँ? अरे ईसुरी! सुनो, प्यारी के अनूठा यौवन फूट पड़ा है।
४५. 
मन तें काय भजत ना रामें! आय आखिरी कामें!
सुआ पढ़ावत गनका तर गइ, सोंरी लेतन नामें॥
नाम लेत रैदास चले गए चला चाम के दामें॥
अपने जन को बेइ निबाउत, पठै देत सुरधामें॥
तें नइ भजत ‘ईसुरी’, जानें तोय नरक के गामें॥
अरे मन! तू राम को क्यों नहीं भजता? आख़िर में वही काम आता है। गणिका तोते को राम नाम सिखाने और शबरी नाम जपने से तर गई। नाम से रैदास का उद्धार हुआ और उनका चमड़े का सिक्का तक चला। वे अपने भक्तों की बात निभाते हैं और उन्हें स्वर्ग में स्थान देते हैं। अरे ईसुरी! तू उन्हें नहीं भजता। तुझे नरक के गाँव जाना पड़ेगा।
४६. 
जी के रामचंद रखवारे! को कर सकत दगा रे!
घर नरसिंग रूप कड़ आए, हिरनाकुस खों मारे॥
राना ज़हर दऔ मीरा खों, पीतन प्रान समारे॥
मसकी उतै ग्राह की गरदन, झट गजराज उबारे॥
‘ईसुर’ बचा लई है उनने, सिर सें गाज हमारे॥
राम जिसके रखवाले हैं, उसके साथ कौन दग़ा कर सकता है? उन्होंने (भक्त के लिए) नृसिंह रूप रखा और हिरनाकुस का वध किया था। राणा ने मीरा को ज़हर दिया, किंतु पीते ही उसके प्राण उन्हीं ने बचाए। उधर उन्होंने ग्राह की गरदन घोंट कर गजराज की तुरंत रक्षा की। उन्हीं ने ‘ईसुरी’ के सिर से वज्राघात को बचाया था।
४७. 
जिन खों दीन द्रोपदी रोई! सुनें कृष्ण जाँ होई।
पाँचउ भइया मौन बैठ गए, पांडव राज घरोई॥
सई न गई गुपाल लाल खाँ, गर्वं गरूरी खोई॥
‘ईसुर’ बचा लाज लई उनने, वे चाहें सो सोई॥
द्रोपदी ने आर्त्तवाणी में रोकर पुकारा—कृष्ण जहाँ भी हों मेरी पुकार सुनें। पांडव राजा पाँचों भाई तो मौन बैठे रहे पर गोपाल कृष्ण से यह न सहा गया। उन्होंने आकर दुःशासन का गर्व चूर किया और द्रोपदी की लाज बचाई। अरे ईसुरी! जो वे चाहें वही होता है।
४८. 
कइयौ गौनें जोग भई छाती! लिखौ बलम खों पाती!
हमखों देख हमारे दोरें, उतरन लगे बिसाँती॥
बेंचन लगे कनक कजरौटी, टिकली सीस सुहाती॥
मन राजा ने छोड़ौ ‘ईसुर’ तन मुद्दई कौ हाती॥
कह देना अब मेरी छाती गौने के योग्य हो गई। बालम को पत्र भेज दो। अब मुझे देख मेरे द्वार पर बिसांती दूकान ज़माने लगे हैं। वे मुझे सुनहरी कजरौटी और माथे की बिंदी देने लगे हैं। अरे ईसुरी, मन के राजा ने तन के मतवाले हाथी को छुट्टा छोड़ दिया है।
४९. 
छाती नौकदार है तोरी! जी सें चित्त लगौ री।
एक बार हरौ चित्त देकें, कइयक बार कहौरी॥
होय अधार तनक ई जी खों, लगी सुर्त की डोरी॥
ओंठ ओंठ पै लगे न ‘ईसुर’ अधर राय से जोरी॥
तेरी छाती बड़ी नोकदार है। उसमें मेरा मन बसा है। एक बार तो मेरी ओर प्रेम से देख लो। यह बात मैं कई बार कह चुका हूँ। मेरे मन को थोड़ा सहारा हो जाएगा। वह सुरत की डोर में बँधा है। ईसुरी अधर राय से कहता है—जिससे प्रेम किया है उसके ओठों से ओठ नहीं लग सके।
५०. 
जुबना नौंकदार प्यारी के! अबै बैस बारी के!
इनने रेजा कितने फारे, गोटा जरतारी के॥
चपे रात चोली के भीतर, नीचे रँगसारो के॥
‘ईसुर’ कात बचन ना पावै, मसक लेव दारी के॥
प्यारी के उरोज बहुत नोंकदार हैं। अभी नई उम्र के हैं। ये जरी-पट्टे की कई चोलियाँ फाड़ चुके हैं। चोली में रंगीली साड़ी के नीचे छिपे रहते हैं। ईसुरी कहता है—वह बच न पाए। दारी के मसक लो।
५१. 
सँइयाँ बिसा सौत के लानें! अँगिया लाए उमानें!
ऐसे और बनक के रेजा अबई हाट बिकाने॥
उनने करी दूसरी दुलहन, जौ जिउ कैसें मानें॥
उनें पैर दोरे हो कड़ने, प्रान हमारे खाने॥
मायकें सें ना निगते ‘ईसुर’ जौ हम ऐसी जाने॥
स्वामी ने सौत के लिए सही नाप की चोली ख़रीदी है। ऐसी बनक की चोली पहली बार बाज़ार में बिकने आई थी। उन्होंने दूसरी दुलहिन बना ली है। मेरा जी कैसे शांत रहे? वह उनकी ख़रीदी चोली पहन कर इसी द्वार से निकलेगी और मेरा कलेजा जलाएगी। देखो ईसुरी! यदि हमें यह बात मालूम होती तो मायके से ससुराल को पैर ही नहीं बढ़ाते।
५२. 
गोदो गुदनन की गुदनारी! सबरी देय हमारी!
गालन पै गोविन्द गोद दो, कर में कुंजबिहारी॥
बँइयन भौत भरौ बनमाली, गरें धरौ गिरधारी॥
आनंद कदं लेन अँगिया में, माँग में लिखौ मुरारी॥
करया गोद कनइया ‘ईसुर’ गोद मुखन मनहारी॥
अरी गुदना गोदने वाली, हमारी सारी देह पर गुदने गोद दो। हमारे गालों पर गोविंद, करों में कुंजबिहारी, बाहों पर वनमाली, गले में गिरधारी, अंगिया के हिस्से में आनंदकंद, माँग में मुरारी, कमर में कन्हैया और मुख पर मनमोहन गोद दो।
५३. 
गुंइयाँ काके नातें गारी! हमें देत गिरधारी!
ना कुऊँ इतै सासरौ मोरो, ना उनक ससुरारी॥
बसती सास ससुर की नइयाँ, हयाँ हैं बाप मतारी॥
एकइ गाँव बसत हैं ‘ईसुर’, सरज लगें ना सारी॥
दई मोर कौ साथ होत जब कएँ चाय वे दारी॥
अरी सखी! कृष्ण मुझे किस रिश्ते से गाली देते हैं? यहाँ न मेरी ससुराल है, न उनकी। यहाँ सास-ससुर नहीं रहते, माँ-बाप का घर है। हम एक ही गाँव के रहने वाले हैं। हम न तो उनकी सलहज हैं, न साली। उत्पाती का संग पड़ गया, क्या करें? वे मुझे जब चाहे, तब ‘दारी’ कह सकते हैं।
५४. 
सब सें भली बैस लरकइयाँ! दैय ना रऔ गुसइयाँ!
हँस लिपटात सबइ सें बौलत, चढ़ जैयत ते कइयाँ॥
लरकन संग रहुनियाँ माँगत, ढील अइयत ते गइयाँ॥
ज्वानी में बाहर खों कड़तन, घर घर होत लरइयाँ॥
ईसुर संग रए बारे में, बलदाऊ की छइयाँ॥
लड़कपन की उम्र सबसे अच्छी है। भगवान ने सदा वही उम्र क्यों नहीं दी? तब तो सबसे हँसते, बोलते और लिपट जाते थे। गोद में भी चढ़ जाते थे। लड़कों के साथ खेलते थे। गाएँ खोल आते थे। अब जवानी में घर से बाहर निकलना झंझट का काम है। इससे घर-घर लड़ाई-झगड़े होने लगे। अरे ईसुरी! लड़कपन में हम बदलाव की छत्र-छाया में रहते थे।
५५. 
राधे सजी सखिन की पलटन! आप बनी लफटंटन!
ललिता सूबेदार सलामी देन लगीं फरजंटन॥
पथरकला सन सैन सवौँरी, बरदी पैरी बन ठन॥
राइट लफ्ट मिचन नैनन की, खोलन खोल फिरंटन॥
‘ईसुर’ कुष्णचंद मन व्याकुल, बनौ रऔ है घंटन॥
राधाजी सखियों की सेना सजाए हैं और ख़ुद सेनापति बनी हुई हैं। ललिता सखी सूबेदारनी बनी हुई चुस्त सलामी दे रही हैं। पथरकला के साथ सेना सजाई और सबने बन ठन कर फौजी वर्दी पहनी है। दाईं बाईं आँखें खुलती और बंद होती हैं। राधा जी की इस व्यूह रचना से कृष्ण चंद्र का मन घंटों बेचैन बना रहा।
५६. 
डारी रूप नयन गर फाँसी! दै काजर विस्वासी!
कोरन कोर डोर काजर की मन मोहन के आँसी॥
मनमथ कौ अनुहार त्याग कें, भूल गई हरि हाँसी॥
बैठे जाय ख़ास महलन में, ऊँची लेत उसासी॥
‘ईसुर’ श्री बृखभान लाड़ली, बैठी बनी रमा सी॥
आँखों में कटीला काजल लगाकर सौन्दर्य ने आँखों को गले की फाँसी बना रखा है। मनमोहन कृष्ण को आँखों की कोरों में लगी यह काजल की धार बेहाल किए देती है। कामदेव की अनुहार वाले कृष्ण हँसना−बोलना भूल बैठे हैं। वे निज मंदिर में बैठे उसाँसें ले रहे हैं। अरे ईसुरी! वृषभानु-नंदिनी लक्ष्मी-सी अनिंद्य सुंदरी बनी बैठी हैं।
५७. 
बखरी रइयत है भारे की! दई पिया प्यारे की।
कच्ची भींत उठी साटी की, छाह फूस चारे की॥
बे बंदेज डरी बेवाड़ा, ओह में दस द्वारे की॥
नई किबार किबरियाँ एकउ, बिना कुची तारे की॥
‘ईसुर’ चाय निकारौ जिदना, हमें कौन उआरे की॥
हम प्रियतम के दिए हुए मकान में रहते हैं। इसमें मिट्टी (हाड़, माँस) की कच्ची दीवारें खड़ी हैं और घासफूस (बालों) का छप्पर चढ़ा है। इसमें न ठीक व्यवस्था है न कोई परकोटा। ऊपर से (इंद्रियों के) दस दरवाज़े खुले पड़े हैं। उनमें न किवाड़ हैं न ताले-चाबियाँ। ईसुरी को जब चाहो तब इस मकान से हटा दो। हमें इसमें रहने में क्या फ़ायदा?
५८. 
रसना राम राम नित कौरी! फिरत पाप खों दौरी!
सवरौ बदन बाम खों धावै, नाम खों बँढ़ता दतौरी॥
नरकन नफा बाम में पावत, नामें करत ठगौरी॥
‘ईसुर’ नाम बाम में भूलत, तें भ्रम भूत भगौरी॥
अरी जीभ! रोज़ राम राम कह। तू पाप के लिए दौड़ी फिरती है। नारी के लिए तो (मनुष्य) मुँह फाड़े दौड़ता है और राम नाम के लिए दाँत भिंच जाते हैं। नारी से तो नरक का लाभ (दुख) मिलता है। तू नाम से छल करता है। हे ईसुरी, नारी के पीछे तेरी जीभ नाम को भुलाए फिरती है। अरे तू! भ्रम का भूत भगा!
५९. 
करिया बूँदा बुँदका तर कौ! तक बेंदा ऊपर कौ!
सनम समान गुरु रहौ होय कें, भानचन्द्र के धर कौ॥
देखौ देतइ ते सुख देत न, मिलवौ अरि सें अर कौ॥
देत झमाक ढाँक मुख झमका, लग ना जाय नजर कौ॥
‘ईसुर’ दएँ बृखभान लड़ली, मन हर लऔ गिरधर कौ॥
बिंदी के नीचे लगी यह काली टिकुली देखो और यह बेंदा (झूमर)। मानों सूर्य चंद्रमा के घर गुरु ओर शनि आ बैठे हों। शत्रु का शत्रु से मिलना कितना सुखकारी दिखता है। मुख की इस अनूठी छवि को झट घूँघट से ढँक लिया है कि कहीं नज़र की लपट न लग जाए। देखो ईसुरी! वृषभानु नंदिनी ने कैसा शृंगार किया है। वे गिरिधर कृष्ण का मन हर लेती हैं।
६०. 
मोरी खबर सारदा लइए! कंठ बिराजी रइए।
मैं अपड़ा अच्छर ना जानों, भूली कड़ी मिलइए॥
तोरे डेरा हिंगलाज पै, ह्याँ नौं फेरा दइए॥
‘ईसुर’ कात सत्रु के बाने, छीन के हम खों लइए॥
हे शारदा! मेरी ख़बर लिए रहो। मेरे कंठ में विराजो माँ! मैं अपढ़ हूँ और अक्षर तक नहीं पहचानता। छंद की भूली कड़ी मिलाती रहो। तुम्हारा निवास हिंग—लाज में है, किंतु तुम यहाँ तक फेरी दो। ‘ईसुरी’ कहता है कि शत्रुओं की विजय पताकाएँ छीन कर मुझे प्रदान करो माँ!
६१. 
मैंने मन मुदरी में गाड़ौ! राम रतन काँ छाँड़ौ।
सुमरन साथ सुबंज लगायौ, लंच आँच हो काड़ौ॥
तम कंचन की डाँक डाट दई, कुमत खटाई ताड़ौ॥
नेम के बाँट डार कें डर से, प्रेम तराज़ू आड़ौ॥
तिसना तौल घटी ना ‘ईसुर’, रंग रसना में बाड़ौ॥
मैंने ‘राम’ नाम मन की मुद्रिका में जड़ लिया है। उसे छोड़ा कहाँ है? सुमिरन का टाँका लगाया है। दीपक की लौ में तपाया है। शरीर के सोने की डाँट लगाई है। कुमति की खटाई में शोधन किया है। नियम-संयम के बाटों में त्रुटि के डर से प्रेम की तराज़ू पर उसे सँभाल कर तोला है। तृष्णा रूपी तौल में तो घटती नहीं आई, परंतु ईसुरी की जीभ को प्रेममय रस चख़ने को ख़ूब मिला।
६२. 
ब्रज में राधा औ गिरधारी! करें खुलासा यारी!
बिगरे जात नेंक का हटकें, उनके बाप मतारी॥
कै सुन लेव, हुए कैबे खाँ, कए की नैया गारी॥
अपनी अपनी जाँगन जुरकें, घैर करत नर नारी॥
‘ईसुर’ कभऊँ बजत नइ देखी, एक हात की तारी॥
राधा और कृष्ण ब्रज में खुलकर प्रेम करते हैं। दोनों बिगड़े जाते हैं। उन के माँ−बाप तनिक नहीं रोकते। उनको समझा−बुझा दो। बात कहने को तो रहेगी। कहने में कोई बुराई नहीं। कोई गाली तो है नहीं। नगर के लोग अपनी−अपनी जगह एकत्र होकर यही बातें करते है—निंदा करते हैं। ईसुरी ने कभी एक हाथ से ताली बजते नहीं देखी।
६३. 
जौ तन बाग बलम कौ नीकौ! सिंचौ सुहाग अभी कौ!
श्रीफल फरे धरे चोली में, मदरस चुअत लली कौ॥
लेत पराग अधर के ऊपर, विकसौ कमल कली कौ॥
‘ईसुर’ कात बचाएँ रहयौ, छिऐ न छैल गली कौ॥
प्रिय के शरीर का यह बग़ीचा बहुत सुंदर है। यह सुहाग के अमृत से सींचा है। इसमें लगे नारियल चोली में हैं। छबीली का यौवन रस चू रहा है। कमल की विकसित कली का पराग होंठ लेते हैं। ईसुरी कहता है—इस फूल-बगिया को बचा के रखना। कहीं गली का रसिया इसे न छू ले। 
६४. 
नैना मोसें लगे दिलवर के! घरै चलौ गिरधर के!
उन खाँ चलौ देखिए फिर कं, भर कें एक नजर के॥
कोयन के भीतर लौं भर गए, वे रंग पीताम्बर के॥
जाँ चित्त चड़े लाज ताँ खोई, ना रए घूँघट तर के॥
‘ईसुर’ दए भोर करुनानिधि, दरसन दोर बगर के॥
प्राण वल्लभ की आँखें मुझसे लग गई हैं। गिरिधर के घर चलो। उन्हें एक बार फिर चलकर नज़र भर के देखेंगें। उनके पीतांबर का रंग हमारी आँखों की पुतलियों में समा गया है। जहाँ वे चित्त में समाए, तो हमने लोक−लाज त्याग दी है। अब यह बात अवगुंठन के भीतर की नहीं। ईसुरी को प्रभु ने प्रातः गायों के खिरक के द्वार पर दर्शन दिए हैं।
६५. 
रसना काय न राम रस पीती! परबै धार अचीती!
बिसरी खबर तोय वा दिन की, जा दिन बात कई ती॥
खट रस भोजन पान करत है, फिर रीती की रीती॥
‘ईसुर’ भजन राम कौ करना, जेइ जगत की रीती॥
अरी जीभ! राम का रस क्यों नहीं पीती? देख, अनंत रस-धार पड़ रही है। तुझे उस दिन की याद भूल गई, जब यह बात कही थी। तू तो षट रस भोजन और पान कर रीती की रीती रहती है। अरे ईसुरी! राम भजन करना ही जगत की सही रीति है!
६६. 
राधा लाड़ करें गिरधर पै! रुपें न अपने घर पै!
उरझे में सुरझें ना नैना, पी के पीताम्बर पै॥
कोए बात मौं फार सामने, कै नई सकत जबर पै॥
‘ईसुर’ जात मोह के बस में, सत्ती चड़ सरवर पै॥
राधा जी गिरधर कृष्ण से बहुत प्रेम करती हैं। वे अपने घर में नहीं टिकतीं। उनके नेत्र प्रियतम कृष्ण के पीतांबर से ऐसे उलझे हैं कि सुलझाए नहीं सुलझते। बड़े लोगों की बात मुँह खोल कर सबके सामने कोई नहीं कह सकता। अरे ईसुरी! मोह के फंदे में फँसी नारी प्रियतम पर सती हो जाती है।
६७. 
मनुआँ को सम्मन हो आऔ! बूड़ौ बार दिखाऔ!
दूजौ सम्मन रहै जवानी, दाँत हिलन जब पाऔ॥
तीजौ सम्मन लाठी टेंके, कम्मर दर्द कराऔ॥
कात ‘ईसुर’ तबई न चेते, सोइ वारंट कटाऔ॥
मन-प्राण का बुलावा आ चुका है। सफ़ेद बाल होना इसी का संकेत है। जब दाँत हिला तब मौत का दूसरा संदेशा आया। तीसरी सूचना तब मिली जब कमर में दर्द हुआ और लाठी टेककर चलने लगे। ईसुरी कहता है—जब इतने पर भी नहीं चेते तब (मौत ने) गिरफ़्तारी का वारंट भेज दिया।
६८. 
कतरे पतरे से करया कें! मन घर दए धरया कें!
पीन नितंब पयोधर उन्नत, लंक हीन भए आकें॥
बे अहार बारीक बार सें, जिए जान बरयाकें॥
तन तन किए हिए के गतरा, सिंग चड़े गिर धाँकें॥
उड़ उड़ परत चुनरिया ‘ईसुर’ चलती कमर चलाकें॥
तराशी हुई पतली कमर से उन्होंने मेरे मन को घड़ी करके रख दिया। उनके नितंब भारी, उरोज उन्नत और कमर पतली है। लगता है बिना आहार के मुश्किल से जी रहे हैं। बाल से बारीक है कमर। उन्होंने मेरे हृदय को काट कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। अपनी विजय पर सिंह पर्वत पर चढ़ कर जयनाद करता है। अरे ईसुरी! उनकी चुनरी उड़-उड़ जाती है। वे कमर लचकाती चलती हैं।
६९. 
आसौं होस सबइ के भूले! कइयक काँखे कूले!
कच्चे बेर बचे हैं नइयाँ, कंगीरन ने रूले॥
दो दो दिन के फाँके पर गए, परचत नइयाँ चूलें
मरे जात भूकन के मारें, अँदरा, कनमा, लूले॥
मारे मारे फिरत ‘ईसुर’ बड़े बड़े दिन दूले॥
इस वर्ष सभी के होश गुम हैं। कई कराहते और बिलबिलाते हैं।कईयों ने तो कच्चे बेर तक नोच खाए, वे भी नहीं छोड़े। दो-दो दिनों के फाके करने पड़ते हैंऔर घरों में चूल्हे तक नहीं जलते। अपाहितों की बुरी दशा है। अंधे, लूले, लँगड़े भूख से मर रहे हैं। देखो ईसुरी, बड़े-बड़े रईस तक मारे-मारे फिर रहे हैं।
७०. 
आउत भाग्गवान के दोरें! कौन बसत ना तोरें!
भौत विसाल गाल मौं भरकें, जी में मदन हिलारें॥
भीतर से बाहर कड़ आए, जुबन पसुरियाँ फोरें॥
एक चीज़ है बहुत अनौखी, जाँगन तरें फफोरें॥
नग नग फूली फली ‘ईसुरी’ फूल फलनियाँ मोरें॥
भाग्यवान के द्वार पर सभी आते हैं। तेरे पास कौन सी वस्तु नहीं है? सब कुछ है। मुँह में भरने लायक़ बहुत सुडौल गाल है। काम देव उनमें हिलोरें लेता है। भीतर से बाहर निकले तेरे दोनों उरोज पसलियाँ फोड़ डालेंगे। एक चीज़ तेरे पास बहुत अनूठी है। वह जाँघों के बीच फूली है। अरे ईसुरी! तेरा अंग-अंग फूल और फल रहा है। तू मेरी फूल-बगिया है।
७१. 
रसना राम कौ नाम नगीना! मन मुदरी में दीना!
नियत निबान खान सें खोदौ, ऐसौ थान कहीं ना॥
देत उदोत जोत जैपुर की, चड़ौ भजन कौ मीना॥
दिन दिन देत देह खों दीपक, कभऊँ न होत मलीना॥
अरी जीभ! राम का नाम अनमोल नगीना है। इसे मन की मुद्रिका में जड़ा जाता है। यही नियति को निभाता है (भाग्य को चमकाता है) इसे अलौकिक खान से निकाला है। यह अलभ्य है। इसमें जयपुरी रत्नों की चमक है और भजन-भक्ति की मीनाकारी (कारीगरी) है। यह दिन प्रतिदिन देह को दिव्य प्रकाश देता है और कभी मलिन नहीं होता।
७२. 
सखी री भाग हमारे भारी! यार भए गिरधारी!
दस औ चार भुअन चौदा में, जिने भजत संसारी॥
रामकृष्ण में भेद कहा है, जिन गौतम तिय तारी॥
पठए सुरग मरीच सुबाहू, तकत ताड़का मारी॥
हैं गरीब के नाथ ‘ईसुर’ दीनन के हितकारी॥
अरी सखी! मेरा बड़ा सौभाग्य है, जो गिरिधर कृष्ण मेरे प्रेमी हैं। चौदह भुवनों में संसारी लोग उनका भजन करते हैं। राम और कृष्ण में कोई अंतर नहीं। एक ने गौतम ऋषि की पत्नी का उद्वार किया और मारीचि, सुबाहु, ताड़का आदि राक्षसों का वध किया था। देखो ईसुरी! प्रभु ग़रीबों के स्वामी हैं तथा उनके हितैषी हैं।
७३. 
नइयाँ कोउ निबाउन हारौ! तुम बिन स्याम हमारौ!
टूटी धुजा, पताका, सरदें, भौं में डरौ निबारौ॥
करुनासिंह करी ना मरजी, बिछरौ सेवन हारौ॥
दीनानाथ दया कर चाहौ, राखो पिरन हमारौ॥
अब आधीन पुकारै ‘ईसुर’, ताबेदार तुमारौ॥
हे श्याम! तुम्हारे सिवा मुझे निभानेवाला और कोई नहीं। मेरे जीवन के रथ की ध्वजा पताकाएँ टूट गई हैं। मैं भूमि में पड़ा हूँ। करुणा सिंधु कृपा नहीं कर रहे हैं। आपका सेवक बिछुड़ रहा है। हे दीन-बंधु! दया कर मुझे अपना लो। मेरा प्रण पूरा करो। मैं तुम्हारी शरण हूँ। ईसुरी तुम्हारा सेवक है। उसकी पुकार सुनो!
७४. 
राखे मन पंछी ना रानें! इक दिन सब खों जानें!
ना जे अटा-अटारी अपने, ना बख री-दालानें॥
खा लो, पी लो, दै लो, लै लो, जेई लगै ठिकानें॥
कर लाधरम कछू वा दिन खों, जा दिन होत रमानें॥
‘ईसुर’ बात मान लो मोरी, लगी हाट उठ जानें॥
लाख रखवाली करो पर मन का पंछी नहीं रहेगा। एक न एक दिन सब को जाना है। ये अट्टालिकाएँ अपनी नहीं, और न भवन तथा दालानें ही। यहाँ तो बस खाओ-पियो और कुछ ले-दे लो। यही सार वस्तु है। उस दिन के लिए धर्म-पुण्य कर लो जब अनंत यात्रा पर रवाना होना है। देखो ईसुरी, कहना मान लो। यह मेला उजड़ने वाला है।
७५. 
आऔ अमरौती को खाकें! ई दुनिया मे आकें!
नंगे गैल पकर गए, धर गए करतूत कमाकें॥
जर गए, बर गए, धुँधक लकरियन, घर गए लोग जराकें॥
बार-बार नइ जनमत ‘ईसुरी’ कूँख आपनी माँ कें॥
इस दुनिया में अमर होकर कौन आया है! सब यहीं छोड़कर नग्न देह रास्ता पकड़ना होता है। लोग यहाँ क्या कमा कर रख जाते हैं? वे क्या करतूतें कर पाते हैं? आख़िर वे लकड़ियों में धुक कर जल जाते हैं। लोग उन्हें जलाकर अपने-अपने घर लौट जाते हैं। अरे ईसुरी, माँ की कोख से जन्म बार-बार नहीं मिलता!
७६. 
तन कौ तनक भरोसौ नइयाँ! राखै लाज गुसइयाँ!
तरवर पत्र गिरै धरनी में, फिर ना लगत डरइयाँ॥
जर बर देह मिले माटी में, चुनें न राख चिरइयाँ॥
जा नर देही काम न आवै, पसु की बनें पनइयाँ॥
इस शरीर का तनिक भी भरोसा नहीं। भगवान ही लाज रखे। पेड़ से पत्ता गिरने पर फिर डाल पर नहीं लगता। देह जलकर मिट्टी में मिल जाती है तो उसकी राख चिड़ियाएँ भी नहीं चुनती। मानव-देह कुछ काम नहीं आती, पशु की खाल से जूते तो बन सकते हैं।
७७. 
इनपै लगे कुलरियाँ घालन! भैया मानस पालन!
इन्हैं काटबौ नइचइयत तौ, काट देत जो कालन॥
ऐसे रूख भूँख के लानें, लगवा दए नँद लालन॥
जे कर देत नई सी ‘ईसुर’ भरी मराई खालन॥
अरे भाई, इन पर कुल्हाड़ी चलाते हो? ये पेड़ तो मनुष्यों के पालन कर्त्ता हैं। जो काल को काट देते हैं उनको नहीं काटना चाहिए। ये वृक्ष भूख से रक्षा के लिए भगवान ने उपजाए हैं। अरे ईसुरी ये मृतप्राय लोगों को तरो ताज़ा कर देते हैं।
७८. 
हम धन कबै मायके जाएँ! जे बालम मर जाएँ!
खेलत रत दिन भर लरकन में, रात परे माँ बाएँ॥
दिन बूड़े सें करत बिछौना, फिर ना जगत जगाएँ॥
काँच खोल कें मैंने देखौ, पौनी सी चिपकाएँ॥
‘ईसुर’ कात भली तो क्वाँरी, का भऔ ब्याव कराएँ॥
अरी, मैं कब अपने मायके लौटूँ? अच्छा हो मेरा निखट्टू पति मर जाए। वह दिन भर लड़कों में खेलता है और रात में मुँह फाड़े सो रहता है। सूरज डूबते ही वह बिछौना पकड़ लेता है और फिर जगाने पर भी नहीं जागता। मैंने उसकी धोती खोल कर देखा तो रूई की पूनी सी चिपकी थी। अरे ईसुरी! इससे तो मैं क्वाँरी ही अच्छी थी। ब्याह कराने से क्या लाभ हुआ?
७९. 
मानुस बिरथा राम बनाऔ! दाबा खूब भंजाऔ!
मैं भई ज्वान तबकरई भरदर, बिरहा जोर जनाऔ॥
बांदे बलम लिलोर गरें से, जान बूज लजवाऔ॥
कामदेव कासिन पै आऔ, मदन पसर के धाऔ॥
भगवान ने मानव जीवन बेकार दिया। ख़ूब बैर निकाला। जवान हो गई हूँ। अब विरह ज़ोर दिखाता है। मेरे गले से किशोर पति बाँध, जान−बूझकर मुझे लजवाया है। युवती पर जवानी सवार है और देह में कामदेव तेज़ी से पसर गया है।
८०. 
का सुक भयों सासरे मइयाँ! हमें गए को गुइयाँ!
परबू करे दूद पीबे खों, सास के संगै सइयाँ॥
दिन भर बनी रात संकीरन, चड़े ससुर की कइयाँ॥
भर भर दूबू करे दूर सें, देखत हमें, तरइयाँ॥
कटी बज्र सी रात ‘ईसुरी’ लटी होत लरकइयाँ॥
अरे सखी, मुझे ससुराल में जाने का क्या सुख मिला? मेरे पति तो सास का दूध पीने के लिए उनके संग लेटते हैं। वे दिन में ससुर की गोद में बैठे रहते हैं। बड़ी अड़चन रहती है। वे जब मुझे दूर से देखते हैं तो उनकी आँखें डबडबा जाती हैं। अरे ईसुरी! वहाँ मेरी रातें वज्र सी कटती हैं। पति की लड़कपन की उमर मुखे खटकती है।
८१. 
अब नइ लगत मायके नौनें! पिय के संगै सौनें!
हमरे संग की दो दो बेरा, हो आई है गौनें॥
उनकी हमरी एक उमर है, लरका लग गए हौनें॥
लगवारन के मारे मोरे कैसे होत चलौनें॥
‘ईसुर’ मद भर रऔ जुबन पै, सर्राती हैं टौनें॥
अब मुझे मायके में अच्छा नहीं लगता। मुझे तो प्रिय के साथ सोना है। मेरे संग की लड़कियाँ गौने के बाद दो-दो बार ससुराल हो आई हैं। हमारी उनकी एक सी ही उम्र है। उनके तो बच्चे तक होने लगे हैं। चुगलख़ोर दुश्मनों के मारे मेरी विदा नहीं हो पा रही है। अरे ईसुरी, अब मैं यौवन मद से चूर हो रही हूँ। मेरे उरोजों के अग्रमान तन रहे हैं।
८२. 
हँस के नजर छैल पै डारें! कड़ियौ यार समारें!
काजर छुरी, बगुरदा पटियाँ भौयन की तरवारें॥
लंबी खोर दूर नों डारें, सैन दुनाली मारें॥
कात ‘ईसुरी’ बचके रइऔ, जा भइ नार उतारें॥
वे रसियों पर हँस हँस कर नज़र मारती हैं। दोस्त सँभल कर निकला करो। उनके पास काजल की छुरियाँ है, पटियों के मुष्टिक और भौंहों की तलवारें हैं। लंबी गली में वे दूर तक संकेतों की दुनाली से मार करती हैं। ईसुरी कहता है—बच कर रहो। वह सुंदरी मार डालने पर उतारू है।
८३. 
जुबना धरे न बाँदें रानें! ज्वानी में गर्रानें!
मस्ती छा रइ इन दोउन पै, टौनन पै सर्रानें॥
फैकें फेंकं फिरत ओड़नी, अँगिया नई समानें॥
मुँसेलू पाजाने जिदना, पकरत हा हा खानें॥
जांगन में दब जाने ‘ईसुर’ राम धरें लौं जानें॥
अब जुबना सँभाले नहीं सँभलेंगे। वे जवानी में गर्रा रहे हैं। इन दोनों पर मस्ती छा रही है। उनकी टोनें सर्रा रही है। अब वे ओड़नी फेंके-फेंके फिरते हैं। चोली में समाते नहीं। पर जिस दिन इन्हें बाँका जवान पकड़ बैठेगा तब हा-हा खाते फिरेंगे। अरे ईसुरी जब वह जाँघों में दाबेगा, तब राम ही जानता है जो हाल होगा।
८४. 
नैना रँगरेजिन ने मारे! कर दए प्रान दरारे!
दबे रात अलफा के भीतर, जुबन दोए अनियारे॥
गिरदी लेत दिखाने हम खाँ, तेरे छूटा कारे॥
‘ईसुर’ बड़े भाग हैं उनके, जो इनसे ना हारे॥
रंगरेजिन के नैन कटाक्ष से मेरे-प्राणों में दरार पड़ गई। उसकी कुर्ती के भीतर दोनों नोकदार उरोज छिपे रहते हैं। तेरे काले रंग का छूटा गले में देख कर हमें चक्कर आने लगे। अरे ईसुरी! वे बड़े भाग्यवान हैं जो इससे आहत नहीं हुए।
८५. 
गाँजौ पियौ न पीतम प्यारे! जर जैं कमल तुमारे!
जारत काय, बिगारत सूरत, सूकत रकत नियारे॥
जौ तौ आय साधु संतन खों, अपुन गिरस्ती बारे।
ईसुर कात छोड़ दो ईखों, अबै उमर के बारे॥
अरे प्रियतम, गांजा मत पियो। इससे तुम्हारा हृदय कमल जल जाएगा। यह शरीर को जलाता है, चेहरा बिगाड़ता है और साथ में ख़ून सुखा देता है। यह तो साधु संतों के लिए है। हम तो गृहस्थ हैं। ईसुरी कहता है—अरे इसे छोड़ दो। अभी तुम्हारी उम्र छोटी है।
८६. 
सब सौं बोलौ मीठी बानी! थोरी है जिंदगानी!
जेइ बानी सुर लोक पठावै, जेई नरक निसानी॥
जेइ बानी हाती चड़वाबै, जेई उतारै पानी॥
जेई बानी सों तरे ‘ईसुर’ बड़े बड़े मुनि ज्ञानी॥
सब से मीठी वाणी बोलो। यह जीवन थोड़ा है। हमारी यही वाणी स्वर्ग का सुख देती है और यही नरक की यातना। अच्छी कहने वाले हाथी पर बैठाए जाते हैं। बुरी बातों से पानी उतर जाता है। अरे ईसुरी, इसी वाणी ने बड़े-बड़े ऋषि मुनियों को तार दिया।
८७. 
राते परदेसी सँग सोई! छोड़ गऔ निरमोई!
अँसुआ ढड़क परे गालन पै, ज़ुबन भींज गए दोई॥
गोरे तन की चोली भौजी, दो दो बार निचोई॥
ईसुर परी सेज के ऊपर हिलक-हिलक मैं रोई॥
मैं रात में परदेशी के संग सोई थी। वह निष्ठुर छोड़कर चला गया। आँसू छलक कर मेरे गालों पर बह रहे हैं। मेरे दोनों उरोज भीग गए हैं। अरे भाभी, गोरे शरीर की चोली मैंने रात में दो-दो बार निचोड़ी। देखो ईसुरी! अब मैं सूनी सेज पर पड़ी हिचकी भर-भर कर रो रही हूँ।
८८. 
तुम बिन तलफ रए दृग दोई! आन मिलौ निरमोई!
सोने की जा बनी देईया, केंचन जुबना दोई॥
जब से बिछुरन पिउ सें हो गई, नई नीद भर सोई॥
कात ‘ईसुरी’ मुरलीधर बिन, हिलक हिलक कें रोई॥
तुम्हारे बिना दोनों आँखे व्याकुल हैं। अरे निर्मीही! आकर मिल जाओ। यह देह सोने-सी है और दोनों स्तन कंचन जैसे हैं। जब से प्रिय बिछुड़ गए हैं, मैं पूरी नींद सो नहीं पाई। अरे ईसुरी! उस बाँसुरीवाले के बिना मैं हिचकियाँ भर-भर रोती रहती हूँ।
८९. 
हम खों लाए विदेस बिंदुलिया! तोरे विरन नँदुलिया!
प्यारे पिया पलंग के ऊपर पारौ पकर हतुलिया॥
जाके अरी मरी री मसकत, मुँख से कड़त बतुलिया॥
‘ईसुर’ स्याम रात रँग बरसे, भुस भई रतन खटुलिया॥
ननद जी, तुम्हारे भाई मेरे लिए परदेश से बिंदी लाए हैं। प्यारे प्रियतम ने मुझे हाथ पकड़ कर पलंग पर लिटाया। वहाँ जाते ही उन्होंने मुझे दबा लिया और मेरे मुँह से ‘मरी-मरी’ निकला। अरे ईसुरी, रात में ख़ूब रस वर्षा हुई। रत्न खटुलिया पिस कर भूसा बन गई।
९०. 
छाती लगत जुबनवा नौनें! जिनकी कारी टोंनें!
फारन लगे अबें सें फरिया, आँगू कैसे हौनें॥
सीक लली अन्याव अबैं सें, कान लगी चल गौंने॥
करन लगे चिबत्योरी चाबें, भर भर कठिन निरोंने॥
बचे ‘ईसुरी’ कानौं रइयत, कइयक खों जिउ खोंने॥
छाती पर उरोज सलौने लगते हैं। उनकी टौनें काली हैं। वे अभी से ओढ़नी फाड़ने लगे हैं तो आगे क्या नहीं करेंगे? सजनी तुम अभी से अन्याय करना सीख गई जो कहती हो कि गौने पर हम जाएँगे। यह मुँह मरोड़ना ठीक नहीं। ये दर्शनीय कठोर अब भरे पूरे हैं। अरे ईसुरी! कहाँ तक बचेगा? अब तो ये कई रसिकों के प्राण लेंगे।
९१. 
पर गई लरकन की रगदाई! बउ बरसान कहाई।
धोबन ज्वाय देत धोंबे खों, अब नइँ होत धुआई॥
सोरें धोउत बसोरन चिक गई, नाँइ करत है नाई॥
कैसी करें रंज के मारें घर में आफ़त आई॥
आँगन सौ घर हो गऔ ‘ईसुर’ मागन लगे खबाई॥
लड़कों का ढेर लगा दिया। बहू के हर वर्ष बच्चा होता है। उसे वर्ष बियावन कहते हैं। धोबिन अब कपड़े धोने से मना करने लगी। बरोड़िन प्रसूति के कपड़े धो-धो कर थक गई। नाई ने भी ना कर दी है। क्या करें बड़े दुख में हैं। घर पर विपत्ति आ गई है। घर चौपट हो रहा है। अरे ईसुर, सब खाने को माँगते हैं। कहाँ से क्या करें?
९२. 
तन कौ कौन भरोसो करनें! आखिर इक दिन मरने!
जौ संसार ओस कौ बूंदा, पवन लगें से ढरनें॥
जौ लौं जी की जियन जोरिया, जी सों जै दिन भरनें॥
‘ईसुर’ ई संसार आन कें, बुरए काम में डरने॥
इस देह का क्या भरोसा करना? आख़िरकार मरना तो है ही। यह जगत ओस की बूँद जैसा है, जो हवा लगते ही नष्ट हो जाता है। जिसके जीवन की डोर जितनी लंबी है, उसे उतने दिन भरना भुगतना है। अरे ईसुरी! इस संसार में आए हो तो बुरे काम से डरो।
९३. 
मोहन हँसबौ होत रजा कौ! छोड़ौ ऐसौ साकौ!
हों कुल बधू साव की बेटी, रहबौ बड़े मजा कौ॥
बात न कहौ, हात ना मसकौ, जौ है काम रजा कौ॥
‘ईसुर’ स्याम आरसी लै कें, अपनो मों तौ ताकौ॥
सुनो मोहन, हँसना-खेलना राजी की बात है। मुझे ऐसा शौक़ पंसद नहीं। मैं कुलीन घर की और साहुकार की लड़की हूँ। बड़े चैन से रहती हूँ। बिना काम की बातें न करो। हाथ मत दबाओ। ये बातें रज़ामंदी से होती हैं। अरे साँवरे! ज़रा दर्पण लेकर अपनी सूरत तो देख ले।
९४. 
भौंरा जात पराए बागै! तनक लाज न लागै!
घर की कली कौन कम फूली, काए न लेत परागै॥
जब चाओ रस लेओ मौज सें, छिन-छिन छबि अनुरागै॥
कैसें जात लगाउत हुइऐ, और के आँग से आँगै॥
जूँठी जाँठी पातर ‘ईसुर’ भावै कूकर कागै॥
अरे भाैंरे, पराई बगिया में जाता है। तुझे लाज नहीं आती? तेरे घर की कली क्या कम फूली है? उसका पराग क्यों नहीं लेता? तू जब चाहे तब मौज से उसका रस ले। हर क्षण उसका रसमय अनुराग तुझे सुलभ है। अरे तू पराए शरीर से शरीर कैसे लगाता होगा? देखो ईसुरी! जूठी पत्तल तो कुत्ते और कौवे ही खाते हैं।
९५. 
तक कें भर मारी पिचकारी! तिन्नी तर गिरधारी!
निउरी भौत भुमाऔ करया, हात लगा कें हारी॥
सराबोर हो गई रंग में, ब्रज वनिता बेचारी॥
‘ईसुर’ फाग नंद के दोरें, देख हँसें दै तारी॥
गिरिधर कृष्ण ने निशाना साध कर सामने ऐसी पिचकारी मारी कि नीचे तिन्नी (साड़ी को मोटी तह) भी तर हो गई। बहुत झुकी, कमर को मोड़ा, हाथ भी थक गए पर एक न चली और बेचारी ब्रज बाला रंग में सराबोर हो गई। लगा कर देखो ईसुरी! नंद बाबा के द्वार पर कैसी फाग (होली) हो रही है। लोग ताली बजाकर हँस रहे हैं।
९६. 
ऐसी पिचकारी की घालन! कहाँ सीक लइ लालन!
कपड़ा भींज गए बड़ बड़ कें, जड़े हते जर तारन॥
अपुन फिरत भींजे सो भींजे, भिंजै फिरे ब्रजबालन॥
तिन्नी तरें छुअत छाती हौ, पीक लाग गई गालन॥
‘ईसुर’ आज मदन मोहन ने, कर डारी बेहालन॥
लालाजी, ऐसी पिचकारी चलाना कहाँ सीख आए हो? बढ़िया कपड़े जो जरी के काम के थे, भीग गए। ख़ुद तो भीगे ही थे, ब्रजबालाओं को भी तर कर दिया। साड़ी और चोली के भीतर हाथ चलाते हो और गालों पर मुँह की पीक लगा दी। अरे ईसुरी! आज मदनमोहन ने बेहाल कर दिया।
९७. 
जो तुम छैल छला हो जाते! परे उँगरियन राते!
मौं पौछत गालन से लगते, कजरा देत दिखाते॥
घरी घरी घूँघट खोलत में, नजर के सामें राते॥
मैं चाउतती लख में बिदते, हात ज्याँइ खों जाते॥
‘ईसुर’ दूर दरस के लाने, काए खों तरसाते॥
रसिया, तुम छल्ला क्यों न हुए? मेरी उँगलियों में तो रहते। मुँह पौंछते समय मेरे गालों से लिपटते और काजल लगाते हुए आँखों से दिखते। हर घड़ी घूँघट खोलने में तुम निगाह के सामने रहते। मैं चाहती थी—सदा मेरी नज़र में रहते और हाथ जिधर जाते उधर ही तुम दिखते। अरे ईसुरी! तब दूर हो कर, दर्शन के लिए तो न तरसाते।
९८. 
पर गए इन सालन में ओरे! कऊँ भौत कउँ थोरे!
आँगे सुनत परत से दिनकें अब दिन रात चबोरे॥
कोनउ ठीक कायदा ना रए, धरै विधाता तोरे॥
कैसे जियत गरीब गुसा में, छिके अन्न के दोरे॥
‘ईसुर’ कैउ करे है ऐसे, कंगाली में कोरे॥
इस वर्ष ओले पड़ गए। कहीं थोड़े कहीं ज़्यादा। सुनते हैं पहले वे दिन में पड़ते थे किंतु अब दिन-रात गिर रहे हैं। अरे विधाता, तेरे घर कोई ठीक नियम नहीं रह गए हैं। अब ग़रीब लोग कैसे जिएँगे। अन्न के द्वार बंद हो गए। देखो ईसुरी, अनेक लोग इनके कारण बिल्कुल कंगाल हो गए हैं।
९९. 
बीते जात मायके मइयाँ! ज्वानी के दिन गुइयाँ।
गादर गाल काटबे लायक, चूमा लायक मुइयाँ॥
छाती जुबन मसकबे लायक, गहबे लायक बइयाँ॥
जौन जौन गुन होत तियन में, एकउ बाकी नइयाँ॥
कात ‘ईसुरी’ सुनलो प्यारी, बिदा करा लें सइयाँ॥
अरी सखी, मेरे जवानी के दिन मायके में ही बीते जाते हैं। अभी मेरे गाल सलौने हैं और मुँह चूमने लायक। मेरे उरोज अभी दबाने के योग्य है और बाँहें थामने लायक हैं। युवतियों में जो-जो गुण होते हैं उनमें से एक की भी कमी नहीं। ईसुरी कहता है—प्यारी सुनो! तुम्हारे पति तुम्हें विदा अवश्य कराएँगे।
१००. 
मोहन भर पिचकारी खींचें! मारें जाँग दुबीचें!
लगतन धार लौट गई सारी गई तिन्नी के नीचे॥
हात लगाय भुअन के भीतर, चली गई दृग मीचें॥
तेइ पै स्याम पर गए पीछें, रंग गुलाल उलीचें॥
विन्द्रावन में भई ‘ईसुर’, रंग केसर की कीचें॥
मोहन पिचकारी खींच कर भरते हैं और जाँघों के बीच मारते हैं। रंग की धार पड़ते ही साड़ी लौट गई ओर तिन्नी (तह) के भीतर तक धार गई। मैं हाथ लगाकर, घर भीतर आँखें बंद किए चली गई। इस पर भी कृष्ण पीछे पड़ गए और रंग तथा गुलाल उलीचने लगे। देखो ईसुरी! वृन्दावन में रंग और केशर की कीच मच गई है।
१०१. 
गोरी तोरे नैंन उरजैला! छले छबीले छैला!
गैलारन पै चोट करत हैं, बाँदे रात चुगैला॥
हँस मुसकात दाउनी सी दएँ, करौ गाँव दबकैला॥
इन से जस नाहुइऐ ‘ईसुर’ आँगे अपयस फैला॥
गोरी तुम्हारे नैन उलझने वाले हैं। उन्होंने छबीले रसिकों को फाँस लिया। वे राहगीरों पर चोट करते हैं और चौराहे की नाकाबंदी रखते हैं। तुम हँस मुस्काकर आग-सी लगा देते हो। सारे गाँव को तुमने दबैल बना लिया है। अरे ईसुरी! वे यश नहीं कमा सकते। उनके आगे अपयश ही अपयश है।
१०२. 
करकें प्रीत मरे बहुतेरे! असल न पाँछू हेरे!
कुदकत रहे परेबा बन कें, बिरह की मार जरे रे॥
ऐसे नर थोरे ई जग में, डारन नाईं फरे रे॥
नीत तकन ‘ईसुर’ की ताकत, नेही खूब तरेरे॥
प्रेम करके बहुतेरे मर गए हैं। सच्चे प्रेमी कभी पीछे फिरकर नहीं देखते। प्रेम में पहले तो लोग कबूतर हैं और फिर विरह की आग से जलते हैं। इस संसार में सच्चे प्रेमी थोड़े हैं। वे फलों की तरह बड़ी संख़्या में डालियों पर लटके नहीं मिलते। ईसुरी सामर्थ्य के अनुसार नीति के रास्ते पर चलता है, किंतु वह प्रिय सदा आँखें तरेरता है।
१०३. 
कारी लगत प्रान से प्यारी! जीवन मूर हमारी!
कहा चीज़ कारी कें कमती, का गोरी कें भारी॥
कारिन की कऊँ देखी नइयाँ, बसो बसीगत न्यारी॥
‘ईसुर’ कात बसो मन मोरें, साँवलिया रँग वारी॥
मुझे काले वर्ण वाली प्राणों से अधिक प्यारी है। वह हमारे जीवन की सर्वस्व है। काली में कौन सी चीज़ कम होती है और गोरी में कौन सी चीज़ अधिक। कालों की अलग बस्तियाँ नहीं बनाई जाती। ईसुरी कहता है—साँवले रंगवाली मेरे मन में बसी हुई है।
१०४. 
जे नर फिरैं प्रीत के मारे! संसारी सें न्यारे!
खान पान कैसँउ ना करबें, बदन विसाल उगारे॥
ढूँढत फिरह विछर गए नेही, जाँचत हैं हर द्वारे॥
भाई बंद कबीला जुर कें, घर तें देत निकारे॥
‘ईसुर’ कोऊ नइ बेवरदी दरस दच्छना डारे॥
प्रेम के फंदे में फँसे लोग संसारी लोगों से निराले होते हैं। कुछ खाते-पीते नहीं। कपड़े हैं पर उघाड़े घूमते हैं। बिछुड़े प्रेमी को ढूँढ़ते हर द्वार पर याचना करते हैं। भाई-बंधु और कुटुंबी उन्हें घर से निकाल देते हैं। अरे ईसुरी! ऐसों का कोई साथी नहीं। वह निष्ठुर प्रेमी भी दर्शन की भीख नहीं डालता।
१०५. 
कातन झूठ साँच न डरतीं! हेरत बींगें धरतीं!
कैना चूक परी का कइए, कातन जीव पकरतीं॥
ऐसा पूरीं बिना पिरोजन, आन बीच में परतीं॥
इन खाँ राम दई ना मौंतें, सौतें हमें अखरतीं॥
‘ईसुर’ ई ब्रज की ब्रजनारी, पाँख परेबा करतीं॥
(औरते) झूँठ−सच कहते नहीं डरतीं। वे आँखों से देखने पर भी दोष लगा देती हैं। क्या कहें−कहने में कोई बात भूल से निकल जाए, तो वे जीभ पकड़ लेती हैं। वे ऐसी पूरी शैतान हैं कि बे−मतलब बीच में आ कूदती हैं। इन्हें भगवान मौत भी नहीं देता। ये सौतें हमें बहुत खटकती हैं। अरे ईसुरी! ये ब्रज नारियाँ पंख का कबूतर बनाने में बड़ी कुशल हैं।
१०६. 
अपने मन मानिक के लानें! सुघर चौहरी चानें!
नर तन रतन जतन सें राखौ, चड़ौ प्रेमरस सानें॥
बेंची ओई दुकाने जैहे, जो गुन खौं पैचानें॥
‘ईसुर’ सब जाँगा फिर हारे, कोए धरत ना गानें॥
अपने मन के रत्न की परख के लिए चतुर होना चाहिए। मैंने इस मानव देह के रत्न को बड़े यत्न से सँभाल कर रखा। इसे प्रेमरस की सान पर चढ़ाया है—तराशा है। यह उसी दूकान पर बेचा जाएगा जो गुन को पहचानता हो। ईसुरी सब जगह घूमा-फिरा, इसे कोई गिरवी नहीं रखता।
१०७. 
करकें नेह टोर जिन दइयौ!दिन दिन और बड़इयौ!
जैसें मिलै दूद में पानी, ऐसहूँ मनें मिलइयौ॥
हमरौ और तुमारौ जौ जिउ, एकह जाने रइयौ॥
कात ‘ईसुरी’ बाँय गए की, खबर बिसर जिन जइयो॥
प्रेम करके मिटा ने देना। दिनों−दिन बढ़ना। जैसे दूध में पानी मिलकर एक होता है वैसे ही अपना मन मिलाना। मेरा और अपना जी एक ही माने रहना। ईसुरी कहता है कि बाँह पकड़ने की सुधि बिसराना नहीं।
१०८. 
जुबना अबै होंन दो स्यानें! आएँ तुमारे लानें!
पर ना हते कछू छाती में, आसों तनक दिखानें॥
तन तन परे दरोरा आगें, देवली कैसे दानें॥
परबी संग पचेउस ‘ईसुर’, जब टोंने सर्रानें॥
स्तन जरा स्याने (बड़े) होने दो। ये तुम्हारे लिए ही तो हैं। पिछले साल तो छाती पर कुछ भी नहीं था। ये इसी वर्ष थोड़े से दिखाई पड़े हैं। पहले थोड़े-थोड़े ददोरे पड़े थे—चने की देवला से। अरे ईसुरी! तीन वर्षों के बाद जब इनकी टोने सर्राने लगेंगी, तब तुम्हारे संग लेटेंगे।
१०९. 
वे दिन गौने के कब आबैं! जब हम ससुरै जाबैं!
बारे बलम लिबउआ होकें डोला संग सजाबैं॥
गा गा गुइयाँ गाँठ जोर कें, दोरे नों पौंचाबैं॥
हात लगा कें, सास ननद कें चरनन सीस नवाबैं॥
‘ईसुर’ कबै फलाने जू की, दुलइन टेर कहाबैं॥
वे गौने के सुखमय दिन कब आएँगे जब मैं ससुराल जाऊँगी? मेरे छोटे राजा डोली लेकर मुझे लेने आएँगे। मेरी सखियाँ गीत गाकर और मेरी गाँठ बाँधकर मुझे दरवाज़े तक पहुँचाने जाएँगी। मैं ससुराल में सिर झुकाए हाथों से सास-ननद के चरण-स्पर्श करूँगी। अरे ईसुरी, लोग मुझे कब ‘फलाने' की दुलहिन पुकार कर बुलाएँगे?
११०. 
जोगिन भई राधिका तोरी! बरस बीस की गोरी!
राख लगाएँ, लटें छुटकाएँ, डरी कँदा पै झोरी॥
गाबै बजत चमीटा चुटकी, चमक रई ना चोरी॥
फेरी देत फिरत फिरकी सी, ब्रजवासिन की खोरी॥
उन गुपाल में कईयौ ‘ईसुर’, जै गुपाल की मोरी॥
देखो, कृष्ण तुम्हारी राधा जोगिन बन गई है। वह अभी बीस बरस की सुंदरी है। उसने शरीर पर भस्म रमा ली है। केश खोल रखे हैं और कँधे पर झोली है। वह गाती बजाती चुटकी और चीमटा चटकाती है। यह सब वह खुल कर करती है, चोरी छिपे नहीं, शरम भी नहीं करती है। वह फिरकिनी सी ब्रजवासियों की गलियों में चक्कर काटती फिरती है। वह कहती है—‘ईसुरी’ उन गोपाल कृष्ण से मेरी ‘जै गोपाल की’ कह देना।
१११. 
हो गइ देह दूबरी सोचन! बीच परौ है कोसन!
परबस दऔ बिगार सयानी, कर कर सील सकोचन॥
भइ दिन देख देखवे खइयाँ, अब का पूँछत मोसन॥
जानत नाइ तो बिछुरन ऐसी, भूली रई भरोसन॥
‘ईसुर’ भयौ कछू ई जी खाँ, आय तुमें का दोसन॥
चिंता से देह दुबली हो गई है। मेरे और प्रिय के बीच कोसों का फ़ासला आ पड़ा है। उस सयानी ने शील-संकोच में जबरन खेल बिगाड़ दिया और हमें ऐसे दिन देखने पड़े। अब मुझ से क्या पूछते हो? ऐसा विछोह होगा, मैं नहीं जानता था। भरोसे में भूला फिरा। अरे ईसुरी, उस समय जी को ही कुछ हो गया था। तुम्हारा कोई दोष नहीं।
११२. 
ओइ घर जाओ मुरलिया वारे! जितै रात रए प्यारे!
अब आबौ का काम तुमारौ, का है घरै हमारे॥
हेरे बाट मुनइयाँ हुइएँ, करें नैम कजरारे॥
खासी सेज लगा महलन में, दियला धरें उजारे॥
भोर भएँ आ गए ‘ईसुरी’, जरे पै फोरा पारे॥
अरे मुरलीधर, तुम उसी घर जाओ जहाँ रात बिताई है। अब तुम्हारा यहाँ आना किस काम का? हमारे घर में क्या धरा है? वहाँ वह छलिनी आँखों में काजल आँजे तुम्हारी बाट जोहती होगी। मैंने तुम्हारे लिए महल में सुंदर सेज सजाई थी और रात भर दीपक जलाए तुम्हारी बाट जोही। अरे ईसुरी, अब सुबह यहाँ आकर क्यों जले पर नमक छिड़क रहे हो?
११३. 
तुमने नेह टोर दऔ सैंयाँ! खबर हमारी नैंयाँ!
कोंचन में हो निकपन लागीं, चुरियाँ पतरी बैंयाँ॥
सूकी देह छिपुनिया हो गईं, हो गए प्रान चलैंयाँ॥
जे पापिन ना सूकी अँखियाँ, भर भर देत तरैंयाँ॥
उने मिला देव हमें—‘ईसुरी’ परौं तुम्हारी पैंयाँ॥
रसिया, तुमने नेह तोड़ दिया। हमारी ख़बर भूल बैठे। विरह से कलाइयाँ इतनी पतली पड़ गई कि चूड़ियाँ हाथों में से निकल जाती हैं। शरीर सूख कर सीप हो रहा है। अब प्राण चलने को हो रहे हैं। सब सूखा है पर ये आँखें नहीं सूखतीं। तलैयों सी भरी रहती हैं। अरे मुझे ईसुरी से मिला दो। मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ।
११४. 
तिल की परन तिलन से हलकी! बाएँ गाल पै झलकी!
कै मकरंद फूल पंकज पै, उड़ बैठन भइ अलि की॥
कै चू गई चंद के ऊपर, बिंदी जमुना जल की॥
ऐसी लगी ‘ईसुरी’ दिल में, कर गई काट कतल की॥
तिल के दाने से छोटा तिल बाएँ गाल पर झलक रहा है। पराग मंडित कमल पर भौंरा उड़कर आ बैठा है या चंद्रमा पर यमुना जल की बूँद चू पड़ी है? ईसुरी के दिल में ऐसा लगा जैसे उसने काट कर क़त्ल कर डाला हो।
११५. 
जुबना सदा रए हैं की के! हमें बता दो जी के!
इनकौ गरब करै सो नाहक, जे ना भए किसी के॥
ऐसे बिला जात हैं जैसें, बलबूजा पानी के॥
‘ईसुर’ मजा लूट लो ईसें, अपने मनमानी के॥
जुबना सदा किसके बने रहते हैं? जिसके रहे हों सो हमें बताओ। इनका कोई घमंड करे तो व्यर्थ है। ये किसी के साथी नहीं। पानी के बुलबुलों की तरह लुप्त हो जाते हैं। ईसुरी कहता है कि इसी से अभी मनचाहे मज़े लूट लो।
११६. 
मानूस बड़ौ होत करनी सें! रजउ से कऔं मैं तीसें!
नेकी बदी पुन्न परमारथ, भगत भजन होय जी सें॥
अपने जान गुमान न करिए, लरिए नाईं किसी सें॥
बे ऊँचे हो जात चलें जे नैकें मिले सबी सें॥
फूँक फूँक पग धरत ‘ईसुरी’ स्याने लोग इसी सें॥
मनुष्य बड़ा कमों से होता है। इसीलिए मैं रजउ से कहता हूँ। भलाई, बुराई, पुण्य, परमार्थ, भक्ति, भजन—सब उसी से होता है। अपने जाने कभी घमंड न करे और न किसी से लड़ाई। वे लोग जो सब से नम्र होकर मिलते हैं, महान बनते हैं। अरे ईसुरी! इसीलिए बुद्धिमान लोग फूँक-फूँककर पैर रखते हैं।
११७. 
जुबना जिउ पर हरन जिमुरियाँ! भए ज्वानी की बिरियाँ!
अब इनके भीतर सें लगीं, झिरन दूद की झिरियाँ
टोरन लगे अकास तरइयां, फोरन लगे पसुरियाँ॥
छैल छबीले छियन न देती, वे छाती खों तिरियाँ॥
जे कोरे मिड़वाले ‘ईसुर’ तनक गम्म खा हिरिया॥
नारंगियों से जुबना पराये प्राण हरते हैं। ये यौवन काल में उगे हैं। अब इनसे दूध की धारें झरने लगी हैं। ये आकाश पाताल के तारे तोड़ते हैं और पसलियाँ फोड़ देते हैं। स्त्रियाँ रसिकों को छाती नहीं छूने देतीं। अरी हीरा, धीरज तो घर, ईसुरी को ज़रा मसक लेने दे।
११८. 
दोऊ नैनन की तरवारें! प्यारी फिरे उबारें!
अलेमान, गुजरात, सिरोही, सुलेमान झक मारे॥
ऐंची बाड़ म्यान घूँघट की, दै काजर की धारें॥
‘ईसुर’ स्याम बरकते रइयौ, ऑदियारें उजियारें॥
दोनों आँखों की तलवारें प्यारी ताने फिरती हैं। उनके सामने गुजराती, सिराही, सुलेमानी और अलेमानी तलवारें भी फीकी हैं। वे घूँघट के म्यान से उसे खींचती हैं। उन पर काजल की धार धरी गई है। अरे साँवरे, अँधेरे उजाले में उनसे बच कर रहो।
१२०. 
जुबना अबै न देतीं मागें! पछतैहो तुम आगें!
कर कर करना उदना सोचो, जब जे लटकन लागं॥
कछु दिनन में जेई जुबनवा, तुमरौ तन जै त्यागें॥
नाई ना करौ और जनन खों, सुन सुन धीरज भागें॥
भरन भरी सो इनकी ‘ईसुर’ उतरी जाती पागें॥
अभी माँगने पर तुम उरोज नहीं देतीं; सजनी आगे पछताओगी जब ये लटकने लगेंगे। कुछ दिनों में ये उरोज तुम्हारा शरीर छोड़ देंगे। तुम औरों को तो नहीं नहीं करतीं—यह सुन-सुन कर धीरज छूटा जाता है। ईसुरी को इनकी लगन लगी है। इनके पीछे हमारी पगड़ी उतरी जाती है।
१२१. 
इनके अजब सिकारी नैंना!छैल छरकते रैंना!
भौंय कमान तान चितवन को, लएँ रात दिन सैना॥
परतन दाव चाव नो चूकें, पंछी उड़त बचै ना॥
छिपै रात घूँघट के भीतर वे औचक उगरै ना॥
पर जियरा के लेत ‘ईसुरी’ वे निरदई कसकें ना॥
इनके नैना अनोखे शिकारी हैं। रसिया बचे रहना। भौहों की कमाने ताने ये नज़र की फ़ौज दिन-रात साथ में लिए रहते हैं। दाँव लगते ही इनका चाहा निशाना चूकता नहीं। उड़ता पंछी भी नहीं बच सकता। वे घूँघट में छिपे रहते हैं और सहसा उघाड़ते नहीं। अरे ईसुरी! पराए प्राण लेने में वे निष्ठुर संकोच नहीं करते हैं।
१२२. 
पटियाँ कौन सुगर ने पारीं! लगें देखतन प्यारी!
रंचक घटी बड़ी है नइयाँ, साँचे कैसी ढारीं॥
तन रह आन सीस के ऊपर, स्याम घटा सी कारी॥
‘ईसुर’ प्रान साँय जे पटियाँ, जबसें तकी उगारीं॥
तुम्हारी पटियाँ किस चतुर ने सजाई हैं। देखने में बहुत प्यारी लगती हैं। वे न बड़ी हैं न छोटी। साँचे में ढली सी लगती हैं। तुम्हारे सिर पर केश काली घटा से फैले हुए हैं। ये पटियाँ जब से उघाड़ी देखी हैं, ईसुरी के प्राण लिए डालती हैं।
१२३. 
तुमने नैन कसाई कीनें! पाप पुरातन लीनें।
बरुनी डोर डारे के बाँदे काठे में सिर छीनें॥
बे वे ज्वान जान सें मोर, कटा छटा के बीनें
इनके हात काए काजर दै, गवा बगुरदा दीनें॥
‘ईसुर’ जनम जिएँ जे जख्मी, जखम खाए हैं जीनें॥
तुमने अपने नैन कसाई बना लिए। जन्म-जन्म के पाप कमा रही हो। रसिकों को अपनी बरौनी की डोर से बाँध कर उनके सिर कट्ठे में फँसा देती हो। तुमने छाँट−छाँट कर जवानों को मारा है। अरे ईसुरी! जिन्होने नैंनों के घाव खाए हैं, वे जीवन भर घायल रहेंगे।
१२४. 
देखौ कभउँ न देखौ जिनखों! धन्न आज के दिन खों!
जिनकी देय दमक दरपन सी, देउता ललचें इनखों॥
तेरौ जस रस भरौ कात हों, नाव चलै पेरिन खों॥
सुख होवै, जग आए कौ जब, लगा कें छाती छिन खों॥
ऐसे नौने प्रान ‘ईसुरी’ करे निछाबर किनखों॥
जिनहें कभी नहीं देखा था उन्हें देख सका। आज का दिन धन्य है। उनकी देह की चमक दर्पण जैसी है। देवता उन्हें देख कर ललचाते हैं। तुम्हारा रसमय यश मैं गाता हूँ, जिससे मेरा नाम पीढ़ियों तक चल सके। इस संसार में आने का सुख तो तभी मिलेगा जब क्षण भर के लिए उन्हें छाती से चिपकाउँगा। अरे ईसुरी! अपने सलौने प्राण आख़िर किस पर न्योछावर किए हैं?
१२५. 
बालम बाग तयार तुमारौ! किऐ करत रखवारौ!
बिरवा तिलन लटैं छुटकाएँ, लग आयौ अँदियारौ॥
हम खों सुनो छोड़ गए ना, लगवादो इक पारो॥
‘ईसुर’ जुवन नारियल मोरे, इनें न कोउ उजारौ॥
बालम, तुम्हारा बग़ीचा तैयार है। इसका रखवाला किसे बनाते हो? वृक्षों ने तेलिया लटें छिटकाली हैं। अब अँधेरा घिरने लगा। मुझे अकेली मत छोड़ा करो। एक पहरेदार रख दो। अरे ईसुरी! मेरे उरोज नारियल से बड़े हैं। इन्हें कोई उजाड़ न दे।
१२६. 
चलतन परत पैजना झनके! पाँवन गौरी धन के! 
सुनतन रौम रोंम उठ आवत, धीरज रत ना तनके॥
छूटे फिरत गैल खोरन में, सुर मुख़्तार मदन के॥
करबे जोग भोग कुछु ना ते, लुट कए बालापन के॥
‘ईसुर’ कौन कसाइन डारे, जे ककरा कसकन के॥
गोरी के चलने से पैरों में पायल छनक उठती है। ध्वनि सुनकर रोम-रोम खड़ा हो जाता है और शरीर में धैर्य नहीं रहता। वह स्वर कामदेव के प्रतिनिधि रास्तों और गलियों में गूँजते हैं। वे कुछ काम-धाम के लायक़ नहीं क्योंकि बालपन में लुट चुके हैं। अरे ईसुरी! उनके पैजनों में किन क़साइयों ने दिल में कसकने वाले कंकड़ डाले हैं?
१२७. 

ईसुरी की फागें (पृष्ठ 200) संपादक : घनश्याम कश्यप प्रकाशन : शब्दपीठ संस्करण : 1995





























































मंगलवार, 11 मार्च 2025

मार्च ११, रामकिंकर, श्रद्धा, सॉनेट, बुंदेली, शारदा, सुजाता, वर्ण पिरामिड, लघुकथा, त्रिभंगी, छंद, हाइकु

 सलिल सृजन मार्च ११

*
गीत
जो मेरा सो तेरा साधो! जो मेरा सो तेरा रे!
आए आज चले जाना कल, किसका सदा बसेरा रे!
.
काया छाया माया ने भरमाया सारी दुनिया को
सबने सबसे लिया, दिया हँस वह ही समझ दुनिया को।
सबका सबको गर न मिले तो आपस में होती तकरार-
अपना जो आखिर में वह भी दे जाना है दुनिया को।
चार दिनों के लिए ठिकाण फिर उठना है डेरा रे!
जो मेरा सो तेरा साधो! जो मेरा सो तेरा रे!
.
तेरा तुझको अर्पण कर दूँ, मैंने कुछ भी नहीं तहा
आया खाली हाथ, न हाथों में कुछ अपने कभी रहा।
गड्ढा जल रोके रखता जो वह जाता है जल्दी सूख
वही नदी जिंदा रह पुजती जिसमें हर पल सलिल बहा।
भोर रात काली दे, देती काली रात सवेरा रे!
जो मेरा सो तेरा साधो! जो मेरा सो तेरा रे!
.
लिए अंजली में सुर सातों, प्रीति किरण प्रभु को अर्पित
करे साधना सरला चित नित, मुकल मना कर यश अर्जित
शारद-इला-उमा बिन विधि-हरि-हर को जग में पूछे कौन-
ऋद्धि-सिद्धि सह ही विघ्नेश्वर होते सकल सृष्टि पूजित।
आता-जाता, जाता-आता हर जन हो पग फेरा रे!
११.३.२०२५
000
स्मरण युग तुलसी
मुक्तक
भज मन राम सिया निश-दिन हो भवसागर से पार।
बन जा किंकर हनुमत का तब ही होगा उद्धार।।
रिश्ते-नाते मोह न माया हो सकते निष्काम-
करना है तो कर गुरुवर के श्री चरणों से प्यार।।
श्री रामकिंकर को सुमिर हनुमत कृपा हो जाएगी।
हनुमत कृपा ही जानकी- रघुवर कृपा दिलवाएगी।।
भव ताप सारे पाप क्षण में आप ही जल जाएँगे।
सब जीव हो संजीव भव से आप ही तर जाएँगे।।
दोहा सलिला
सूर्य बिंदु संघर्ष का, बढ़े हताशा-व्यास।
कम न पड़े संभावना-परिधि बँधाए आस।।
द्वेष-ईर्ष्या मुक्त मति, ले अंतर्मन जीत।
सूर्य सांख्य योगी तपे, सबसे कर सम प्रीत।।
सूर्य बिंदु रेखा किरण, आभा वर्तुल वृत्त।
ठोस वायु द्रव पिंड है, गोल न अस्थिर चित्त।।
काया की छाया नहीं, माया सके न व्याप।
सूर्य तूर्य दस दिशा में, व्याप रहा चुपचाप।।
११.३.२०२४
•••
गीत
श्रद्धा के टुकड़े-टुकड़े कर
ठठा रहे लिव इन की जय जय।
धन्य-धन्य नारी विमर्श यह
रहे निर्भया जहाँ न निर्भय।।
पोथी पढ़, बढ़-चढ़ बातें कर
कमा रुपैया मनमानी कर।
तज संयम की लछमन रेखा
सिर्फ देह को रजधानी कर।
कन्यादान न करने देना
बाबुल को ठेंगा दिखला दो-
वरो शाप वरदान समझकर
ढक्कन धरो समझदानी पर।
बनना बोल्ड, बोल्ड हो चाहे
मर्यादा कुचलो हो निर्दय
ठठा रहे लिव इन की जय जय।
परंपरा पिछड़ापन बोलो
निष्ठा को सिक्कों से तोलो।
आजादी को उच्छृंखलता
मानो अमृत में विष घोलो।
देह दान को युवा क्रांति कह
गैरों की बाँहों में झूलो।
ढाँको कम तन अधिक दिखा
हो प्रगतिशील मन ही मन फूलो।
बिन ब्याहे पर्यंकशायिनी
हो सतीत्व का कर डालो क्षय
ठठा रहे लिव इन की जय जय।
अवसरवादी की लफ्फाजी
सुनो मान लो वादा सच्चा।
मात-पिता रोकें, कह दुश्मन
भागो घर से देकर गच्चा।
हवस कुंड को खुद दहकाओ
साथी अदल-बदल मुस्काओ।
अपनी गलती कभी न मानो-
दुनिया को दोषी बतलाओ।
बिना नींव की बने इमारत
जो उसका गिरना ही है तय।
ठठा रहे लिव इन की जय जय
११.३.२०२३
•••
सॉनेट
बुंदेली शारद वंदना
बन्दौं सारद मैहरवारी!
किरपा कर मों पै महतारी!
मैंने सबरी बात बिगारी।।
मैया! काय नें तुरत सँवारी।।
थक आओ मैं सरन तिहारी।
पाछूँ पर गए जे संसारी।
कैत बनो रय तैं पंसारी।।
मोखों भा रय प्रभु त्रिपुरारी।।
राजहंस की किए सवारी।
बिनती सुन माँ!, मत ठुकरा री!
मोरी पीरा मत बिसरा री!
जबसें मोहक छबि निहारी।
कर जोरे मैं बनो भिखारी।
भव से तारो बीनाबारी!
•••
सॉनेट
चिंता-चिंतन
चिंतन कर ले, चिंता तज दे
चिंता तुझको सतत जलाती
जीते जी मरघट पहुँचाती
चिंतन अमृत घट हरि भज ले
अधरों पर मुस्कान सजा ले
गा ले गीत, मीत! निज स्वर में
रह पगले! खुशियों के घर में
होनी होती देख मजा ले
छोड़ बड़प्पन, बच्चा बन जा
सपने देख न कर कंजूसी
कुछ झूठा कुछ सच्चा बन जा
धरती बिछा, ओढ़ नीला नभ
ओढ़ दिशाएँ सुन कर कलरव
उड़े पखेरू पल में संभव
११-३-२०२३
•••
सुजाता
सुजाता कठोर तप कार चुके मरणासन्न बुद्ध को खीर खिलाकर नया जीवन और जीवन के प्रति संतुलित दृष्टि पाने में सहायक हुई थी। वह बोधगया के पास सेनानी ग्राम के एक धनी व्यक्ति अनाथपिण्डिका की अहंकारी, वाचाल और उद्दंड पुत्रवधू थी। उसने मनौती माँगी थी कि पुत्रवती होने पर वह वह वृक्ष-देव को पायस (खीर) का भीग लगाएगी। उसने अपनी दासी पूर्णा को वृक्ष और उसके आसपास सफाई के लिए भेजा ताकि वृक्ष को खीर अर्पित कर मनौती पूर्ण कर सके। पूर्णा ने वृक्ष नीचे बैठे कृशकाय बुद्ध को देखा और उन्हें वृक्ष का देवता समझ बैठी। वह भागती हुई अपनी स्वामिनी को बुला लाई। सुजाता ने तत्काल वहाँ पहुँचकर सोने की कटोरी में बुद्ध को खीर और शहद अर्पण करते हुए कहा- ‘जैसे मेरी पूरी हुई, आपकी भी मनोकामना पूरी हो।'
उसी दिन कृशकाय बुद्ध को बोध हुआ 'तत्तु समन्वयात्' अर्थात जीवन के विविध तत्वों में समन्वय रखना ही श्रेष्ठ है। अति किसी भी वस्तु की ठीक नहीं - न भोग की, न योग की। यह बोध होने पर मरणासन्न बुद्ध ने नदी में स्नान कर सुजाता द्वारा दी गई खीर खाई। अगले दिन आभार प्रकट करने बुद्ध सुजाता के घर गए। वहाँ घर में लड़ाई-झगड़े का शोर था। पूछने पर अनाथपिण्डिका ने बताया कि उनकी बहू सुजाता अत्यंत अभिमानी और झगड़ालू स्त्री है जो घर में सास-ससुर-पति किसी की एक नहीं सुनती।
बुद्ध ने सुजाता को बुलाकर उसे सात प्रकार की पत्नियों के किस्से बताकर उसकी भूल का बोध कराया और सफल गृहस्थ जीवन के कई सूत्र दिए। सुजाता ने सबसे क्षमा माँगी और उसी दिन से सास-ससुर के साथ पुत्री और पति के साथ मित्र रूप से रहने की सौगंध खाई।
अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में सुजाता बुद्ध के प्रभामंडल से प्रभावित होकर साकेत के पास एक मठ में बौद्ध भिक्षुणी बनी थी और बुद्ध की उपस्थिति में ही वैशाली के पास स्थित किसी आश्रम में उसने अंतिम सांस ली थी। बौद्ध ग्रंथ 'थेरीगाथा' में दूसरी कई प्रख्यात बौद्ध-भिक्षुणियों के साथ भिक्षुणी सुजाता की भी एक पाली कविता संकलित है, जिसका ध्रुव गुप्ताद्वारा अंग्रेजी से किया भावानुवाद प्रस्तुत है-
गीत
कहे सुजाता
पवन सुगंधित सुंदर झीने मंहगे परदे
गहने पहने बेशकीमती सुमन हार भी।
भोग रही सुख दास-दसियों से सेवा ले,
दुर्लभ खाद्य-पेय,
जीवन की सुख-सुविधाएँ,
देखे सब ऐश्वर्य और
क्रीड़ाएँ मैंने।
जिस दिन देखा दिव्य
प्रकाश बुद्ध का अनुपम
जा समीप चरणों में
झुक मैं हुई समर्पित।
परिवर्तित हो गया
पलों में मेरा जीवन।
उपदेशों से जाना मैंने
धर्म-मर्म क्या?
बिना वासना के रहना
कैसा होता है?
इच्छाओं से परे रहो तो
कैसा-क्या सुख?
जान लिया मैंने सचमुच
अमरत्व-सत्य को।
और उसी दिन पाया
मैंने ऐसा जीवन
जो है दुःख के परे
न जिसमें होता है घर।
•••
सॉनेट
चाह
अंतर्मन में ज्योति जला प्रभु!
कलुष न किंचित कहीं शेष हो।
तिमिर न बाकी कहीं लेश हो।।
अंधकार में राह दिखा विभु!
काट सकें कर्मों की कारा।
राग-द्वेष से मुक्त हो सकें।
प्रभु! तुमसे संयुक्त हो सकें।।
जग जग को बाँटें उजियारा।।
कोई न हमको लगे पराया।
सबमें देखें खुद की छाया।
व्याप न पाए मिथ्या माया।।
अहंकार दे विहँस मिटा प्रभु!
काम-क्रोध, मद-लोभ हटा विभु!
नामामृत की चाट चटा प्रभु!
११-३-२०२२
•••
गीत
*
समय न उगता खेत में
समय न बिके बजार
कद्र न जिनको समय की
वही हुए लाचार
नाथ समय के नमन लें
दें मुझको वरदान
असमय करूँ न काम मैं
बनूँ नहीं अनजान
खाली हाथ न फिरे जो
याचक आए द्वार
सीमित घड़ियाँ करी हैं
हर प्राणी के नाम
उसने जो सकता बना
सबके बिगड़े काम
सौ सुनार पर रहा है
भारी एक लुहार
श्वास खेत में बोइए
कर्म फसल बिन देर
ईश्वर के दरबार में
हो न कभी अंधेर
सौदा करिए नगद पर
रखिए नहीं उधार
११-३-२०२०
***
वर्ण पिरामिड
१.
'रे
नर!'
वानर
बोल पड़ा :
अभिनंदन
कर, मैं हूँ तेरा
पुरखा सचमुच।'
*
२.
है
छाया
काया से
ज्यादा लंबी,
मत समझो
महत्वपूर्ण है
केवल लंबाई ही।
११-३-२०१९
***
दोहा दुनिया
*
मन की मन में क्यों रहे, कर मनमानी खूब।
मन उन्मन क्यों हो रहा? बेमन पूछ, न ऊब।।
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
***
लघुकथा
कन्हैया
*
नामकरण संस्कार को इतना महत्त्व क्यों दिया जाता है? यह तो व्यक्ति के जीवन का एक पल मात्र है, उसे किस नाम से पुकारा जाता है इससे औरों को क्या फर्क पड़ता है? मित्र ने पूछा।
नामकरण किसी को पुकारना मात्र नहीं है। नाम रखना, नाम धरना, नाम थुकाना, नाम करना और नाम होना सबका अलग-अलग बहुत महत्त्व है। किसी जातक के संभावित गुणों का पूर्वानुमान कर तदनुसार पुकारना नामकरण करना है- जनक वह जो पिता की तरह प्रजा का पालन करे, शंकर वह जो शंका का अरि हो अर्थात शंका का अंत कर विश्वास का सृजन करे, श्याम अँधेरे का अंत कर सके, भारत जो प्रकाश फ़ैलाने में रत हो। नाम देते समय औचित्य का विचार अपरिहार्य है। किसी का नाम रखना या नाम धरना एक मुहावरा है जिसका अर्थ किसी त्रुटी के लिए दोषी ठहराना है। 'नाम थुकाना' अर्थात बदनामी कराना। नाम करना या नामवर होना का आशय यश पाना है। नाम होना का मतलब कीर्ति फैलाना है।
जन मानस गुण-धर्म को स्मरण रखता है। भाई से द्रोह करने वाले विभीषण, सबको रुलानेवाले रावण, शासक की पीठ में छुरा भोंकनेवाले मीरजाफर, स्वामिनी को गलत सलाह देनेवाली मंथरा, शिशु वध का प्रयास करनेवाली पूतना, अत्याचारी कंस, अहंकारी दुर्योधन आदि के नाम आज तक कोई अपनी सन्तान क्या पशुओं तक को नहीं देता।
तब तो भविष्य में 'कन्हैया' नाम भी इसी श्रेणी में सम्मिलित हो जाएगा, मित्र ने कहा।
***
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रसानंद दे छंद नर्मदा २० :
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी तथा बरवैछंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए त्रिभंगी से।
छंद सलिला : छंद त्रिभंगी
तीन बार हो भंग त्रिभंगी, तीन भंगिमा दर्शाये
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त्रिभंगी ३२ मात्राओं का छंद है जिसके हर पद की गति तीन बार भंग होकर चार चरणों (भागों) में विभाजित हो जाती है। प्राकृत पैन्गलम के अनुसार:
पढमं दह रहणं, अट्ठ विरहणं, पुणु वसु रहणं, रस रहणं।
अन्ते गुरु सोहइ, महिअल मोहइ, सिद्ध सराहइ, वर तरुणं।
जइ पलइ पओहर, किमइ मणोहर, हरइ कलेवर, तासु कई।
तिब्भन्गी छंदं, सुक्खाणंदं, भणइ फणिन्दो, विमल मई।
(संकेत: अष्ट वसु = ८, रस = ६)
संकेत : प्रथम यति १० मात्रा पर, दूसरी ८ मात्रा पर, तीसरी ८ मात्रा पर तथा चौथी ६ मात्रा पर हो। हर पदांत में गुरु हो तथा जगण (ISI लघु गुरु लघु ) कहीं न हो।
केशवदास की छंद माला में वर्णित लक्षण:
विरमहु दस पर, आठ पर, वसु पर, पुनि रस रेख।
करहु त्रिभंगी छंद कहँ, जगन हीन इहि वेष।।
(संकेत: अष्ट वसु = ८, रस = ६)
भानुकवि के छंद-प्रभाकर के अनुसार:
दस बसु बसु संगी, जन रसरंगी, छंद त्रिभंगी, गंत भलो।
सब संत सुजाना, जाहि बखाना, सोइ पुराना, पन्थ चलो।
मोहन बनवारी, गिरवरधारी, कुञ्जबिहारी, पग परिये।
सब घट घट वासी मंगल रासी, रासविलासी उर धरिये।
(संकेत: बसु = ८, जन = जगण नहीं, गंत = गुरु से अंत)
सुर काज सँवारन, अधम उघारन, दैत्य विदारन, टेक धरे।
प्रगटे गोकुल में, हरि छिन छिन में, नन्द हिये में, मोद भरे।
त्रिभंगी का मात्रिक सूत्र निम्नलिखित है
"बत्तिस कल संगी, बने त्रिभंगी, दश-अष्ट अष्ट षट गा-अन्ता"
लय सूत्र: धिन ताक धिना धिन, ताक धिना धिन, ताक धिना धिन, ताक धिना।
नाचत जसुदा को, लखिमनि छाको, तजत न ताको, एक छिना।
उक्त में आभ्यंतर यतियों पर अन्त्यानुप्रास इंगित नहीं है किन्तु जैन कवि राजमल्ल ने ८ चौकल, अंत गुरु, १०-८-८-६ पर विरति, चरण में ३ यमक (तुक) तथा जगण निषेध इंगित कर पूर्ण परिभाषा दी है।
गुजराती छंद शास्त्री दलपत शास्त्री कृत दलपत पिंगल में १०-८-८-६ पर यति, अंत में गुरु, तथा यति पर तुक (जति पर अनुप्रासा, धरिए खासा) का निर्देश दिया है।
सारतः: त्रिभंगी छंद के लक्षण निम्न हैं:
१. त्रिभंगी ३२ मात्राओं का (मात्रिक) छंद है।
२. त्रिभंगी समपाद छंद है।
३. त्रिभंगी के हर चरणान्त (चौथे चरण के अंत) में गुरु आवश्यक है। इसे २ लघु से बदलना नहीं चाहिए।
४. त्रिभंगी के प्रत्येक चरण में १०-८-६-६ पर यति (विराम) आवश्यक है। मात्रा बाँट ८ चौकल अर्थात ८ बार चार-चार मात्रा के शब्द प्रावधानित हैं जिन्हें २+४+४, ४+४, ४+४, ४+२ के अनुसार विभाजित किया जाता है। इस तरह २ + (७x ४) + २ = ३२ मात्राएँ हर एक पंक्ति में होती है।
५. त्रिभंगी के चौकल ७ मानें या ८ जगण का प्रयोग सभी में वर्जित है।
६. त्रिभंगी के हर पद में पहले दो चरणों के अंत में समान तुक हो किन्तु यह बंधन विविध पदों पर नहीं है।
७. त्रिभंगी के तीसरे चरण के अंत में लघु या गुरु कोई भी मात्रा हो सकती है किन्तु कुशल कवियों ने सभी पदों के तीसरे चरण की मात्रा एक सी रखी है।
८. त्रिभंगी के किसी भी मात्रिक गण में विषमकला नहीं है। सम कला के मात्रिक गण होने से मात्रिक मैत्री का नियम पालनीय है।
९. त्रिभंगी के प्रथम दो पदों के चौथे चरणों के अंत में समान तुक हो। इसी तरह अंतिम दो पदों के चौथे चरणों के अंत में समान तुक हो। चारों पदों के अंत में समान तुक होने या न होने का उल्लेख कहीं नहीं मिला।
उदाहरण:
१. महाकवि तुलसीदास रचित निम्न पंक्तियों में तीसरे चरण की ८ मात्राएँ अगले शब्द के प्रथम अक्षर पर पूर्ण होती हैं, यह आदर्श स्थिति नहीं है, किन्तु मान्य है।
धीरज मन कीन्हा, प्रभु मन चीन्हा, रघुपति कृपा भगति पाई।
पदकमल परागा, रस अनुरागा, मम मन मधुप करै पाना।
सोई पद पंकज, जेहि पूजत अज, मम सिर धरेउ कृपाल हरी।
जो अति मन भावा, सो बरु पावा, गै पतिलोक अनन्द भरी।
२. तुलसी की ही निम्न पंक्तियों में हर पद का हर चरण आपने में पूर्ण है।
परसत पद पावन, सोक नसावन, प्रगट भई तप, पुंज सही।
देखत रघुनायक, जन सुख दायक, सनमुख हुइ कर, जोरि रही।
अति प्रेम अधीरा, पुलक सरीरा, मुख नहिं आवै, वचन कही।
अतिशय बड़भागी, चरनन लागी, जुगल नयन जल, धार बही।
यहाँ पहले २ पदों में तीसरे चरण के अंत में 'प' तथा 'र' लघु (समान) हैं किन्तु अंतिम २ पदों में तीसरे चरण के अंत में क्रमशः 'वै' गुरु तथा 'ल' लघु हैं।
३.महाकवि केशवदास की राम चन्द्रिका से एक त्रिभंगी छंद का आनंद लें:
सम सब घर सोभैं, मुनिमन लोभैं, रिपुगण छोभैं, देखि सबै।
बहु दुंदुभि बाजैं, जनु घन गाजैं, दिग्गज लाजैं, सुनत जबैं।
जहँ तहँ श्रुति पढ़हीं, बिघन न बढ़हीं, जै जस मढ़हीं, सकल दिसा।
सबही सब विधि छम, बसत यथाक्रम, देव पुरी सम, दिवस निसा।
यहाँ पहले २ पदों में तीसरे चरण के अंत में 'भैं' तथा 'जैं' गुरु (समान) हैं किन्तु अंतिम २ पदों में तीसरे चरण के अंत में क्रमशः 'हीं' गुरु तथा 'म' लघु हैं।
४. श्री गंगाप्रसाद बरसैंया कृत छंद क्षीरधि से तुलसी रचित त्रिभंगी छंद उद्धृत है:
रसराज रसायन, तुलसी गायन, श्री रामायण, मंजु लसी।
शारद शुचि सेवक, हंस बने बक, जन कर मन हुलसी हुलसी।
रघुवर रस सागर, भर लघु गागर, पाप सनी मति, गइ धुल सी।
कुंजी रामायण, के पारायण, से गइ मुक्ति राह खुल सी।
टीप: चौथे पद में तीसरे-चौथे चरण की मात्राएँ १४ हैं किन्तु उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता चूंकि 'राह' को 'र'+'आह' नहीं लिखा जा सकता। यह आदर्श स्थिति नहीं है। इससे बचा जाना चाहिए। इसी तरह 'गई' को 'गइ' लिखना अवधी में सही है किन्तु हिंदी में दोष माना जाएगा।
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त्रिभंगी छंद के कुछ अन्य उदाहरण निम्नलिखित हैं
०१. री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ।।।
मंदार सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं, मलयभरं।
भरि कंचनथारी, तुमढिग धारी, मदनविदारी, धीरधरं।। --रचनाकार : ज्ञात नहीं
संजीव 'सलिल'
०२. रस-सागर पाकर, कवि ने आकर, अंजलि भर रस-पान किया।
ज्यों-ज्यों रस पाया, मन भरमाया, तन हर्षाया, मस्त हिया।।
कविता सविता सी, ले नवता सी, प्रगटी जैसे जला दिया।
सारस्वत पूजा, करे न दूजा, करे 'सलिल' ज्यों अमिय पिया।।
०३. ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले।
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले।।
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले।
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले।।
०४. ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी।
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी।।
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी।
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी।।
०५. ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।
अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।
होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन।
बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।।
०६. ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा।
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा।।
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने।
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने।।
शम्भुदान चारण
०७. साजै मन सूरा, निरगुन नूरा, जोग जरूरा, भरपूरा।
दीसे नहि दूरा, हरी हजूरा, परख्या पूरा, घट मूरा।।
जो मिले मजूरा, एष्ट सबूरा, दुःख हो दूरा, मोजीशा।
आतम तत आशा, जोग जुलासा, श्वांस ऊसासा, सुखवासा।।
डॉ. प्राची.सिंह
०८.मन निर्मल निर्झर, शीतल जलधर, लहर लहर बन, झूमे रे।
मन बनकर रसधर, पंख प्रखर धर, विस्तृत अम्बर, चूमे रे।।
ये मन सतरंगी, रंग बिरंगी, तितली जैसे, इठलाये।
जब प्रियतम आकर, हृदय द्वार पर, दस्तक देता, मुस्काये।।
स्व. सत्यनारायण शर्मा 'कमल'
०९ छंद त्रिभंगी षट -रस रंगी अमिय सुधा-रस पान करे।
छवि का बंदी कवि-मन आनंदी स्वतः त्रिभंगी-छंद झरे।।
दृश्यावलि सुन्दर लोल-लहर पर अलकावलि अतिशय सोहे।
पृथ्वी-तल पर सरिता-जल पर पसरी कामिनि मन को मोहे।।
१०. उषाकाल नव-किरण जाल जल का उछाल चुप रह लख रे
रति सद्यस्नाता कंचन गाता रूप लजाता दृश्य अरे
मुद सस्मित निरखत रूप-सुधा घट चितवत नेह-पगा छिप रे
हँस गगन मुदित रवि नैसर्गिक छवि विस्मित मौन ठगा कित रे
११. नम श्यामल केश कमल-मुख श्वेत रुचिर परिवेश प्रदान करे।
नत नयन खुले से निमिष-तजे से अधर मंद मुस्कान भरे।।
उभरे वक्षस्थल जल क्रीडास्थल लहर उछल मन प्राण हरे।
सोई सुषमा सी विधु ज्योत्स्ना सी शरद पूर्णिमा नृत्य करे।।
१२. था तन रोमांचित मन आलोड़ित सिकता-कण शत-शत बिखरे।
सस्मित आकृति अनमोल कलाकृति मुग्ध प्रकृति भी इस पल रे।।
उतरीं जल-परियाँ सिन्धु-लहर सी प्रात प्रहर सुर-धन्या सी।
नव दीप-शिखा सी नव-कलिका सी इठलाती हिम-कन्या सी।।
संजीव 'सलिल'
१३. हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे।
हर संकट हर हर मंज़िल वरकर, सबका भाग्य निखारेंगे।।
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे।
भारत माँ पावन जन मन भावन, सीकर चरण पखारेंगे।।
१४. अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे।
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे।।
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है।
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है।।
१५. श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें।
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें।।
उपकरण जुटायें, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें।
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें न चुकें।।
१६. नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा।
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'।।
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें।।
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें।।
जनश्रुति / क्षेपक- रामचरितमानस में बालकाण्ड में अहल्योद्धार के प्रकरण में चार (४) त्रिभङ्गी छंद प्रयुक्त हुए हैं. कहा जाता है कि इसका कारण यह है कि अपने चरण से अहल्या माता को छूकर प्रभु श्रीराम ने अहल्या के पाप, ताप और शाप को भङ्ग (समाप्त) किया था, अतः गोस्वामी जी की वाणी से सरस्वतीजी ने त्रिभङ्गी छन्द को प्रकट किया.
११-३-२०१६
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हाइकु
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धरने पर
बैठा मुख्यमंत्री
आँखें चुराए
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रंग-बिरंगे
नमो गुजरात को
रोज भुनाएं
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ममो का मौन
अनकहनी कह
होली मनाए
*
झोपड़ी में जा
शहजादा लालू को
गले लगाए
*
नारी बेचारी
ममता की मारी है
ख्वाब सजाए
*
अन्ना हजारे
मुसीबत के मारे
खोजें सहारे
*
माया की काया
दे न किसी को कभी
थोड़ी भी छाया
*
बाल्टी का रंग
अम्मा को पड़े कम
करुणा दंग
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मुक्तिका:
खुली आँख सपने…
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खुली आँख सपने बुने जा रहे हैं
कहते खुदी खुद सुने जा रहे हैं
वतन की जिन्हें फ़िक्र बिलकुल नहीं है
संसद में वे ही चुने जा रहे हैं
दलतंत्र मलतंत्र है आजकल क्यों?
जनता को दल ही धुने जा रहे हैं
बजा बीन भैसों के सम्मुख मगन हो
खुश है कि कुछ तो सुने जा रहे हैं
निजी स्वार्थ ही साध्य सबका हुआ है
कमाने के गुर मिल गुने जा रहे हैं
११-३-२०१४
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नव गीत:
ऊषा को लिए बाँह में,
संध्या को चाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
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पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल कहीं
पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
मुक्तक:
समय बदला तो समय के साथ ही प्रतिमान बदले.
प्रीत तो बदली नहीं पर प्रीत के अनुगान बदले.
हैं वही अरमान मन में, है वही मुस्कान लब पर-
वही सुर हैं वही सरगम 'सलिल' लेकिन गान बदले..
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रूप हो तुम रंग हो तुम सच कहूँ रस धार हो तुम.
आरसी तुम हो नियति की प्रकृति का श्रृंगार हो तुम..
भूल जाऊँ क्यों न खुद को जब तेरा दीदार पाऊँ-
'सलिल' लहरों में समाहित प्रिये कलकल-धार हो तुम.
*
नारी ही नारी को रोके इस दुनिया में आने से.
क्या होगा कानून बनाकर खुद को ही भरमाने से?.
दिल-दिमाग बदल सकें गर, मान्यताएँ भी हम बदलें-
'सलिल' ज़िंदगी तभी हँसेगी, क्या होगा पछताने से?
*
ममता को समता के पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड़-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
*
११-३-२०१०
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