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सोमवार, 10 मार्च 2025

मार्च १०, क्रिकेट, कहमुकरी, लोककथा, कुण्डलिया, होली, घनाक्षरी, गीत, दोहा

सलिल सृजन मार्च १०
*
भारत अविजित
एक एक मिल ग्यारह हों जब, तब बढ़ जाता वेट।
ग्यारह मिल जब एक बनें तो जीतें विश्व क्रिकेट।।
सब सपना देखें 'विराट' मिल, करें उसे साकार।
'शुभ मन' हो तो 'हार्दिक' खुशियाँ, मिलतीं आखिरकार।।
'अक्षर' अक्षय खेल भावना, 'श्रेयस' की हकदार।
'राहुल-रोहित अर्श दीप' ले, 'हर्षित' हर अँधियार।।
तरुण 'वरुण' ले गेंद गरुण सम चकरा दे हर बार। 
'ऋषभ-यशस्वी' दें ताली, 'सुंदर' 'कुलदीप' प्रहार।।    
जड़े 'जडेजा' चौका जीते, न्यूजीलैंड पराजित। 
पाकिस्तानी मुँह लटकाए, 'गौतम' भारत अविजित।। 
शमा जलाकर 'शमी' मिटा दे, हर शंका-संदेह।
ट्राफी लिए चैंपियन की हँस लौटें अपने गेह।।
९.३.२०२३
०००
अनुरोध:
भोजन-स्थान पर निम्न सन्देश लिखवायें / घोषणा करवायें :
१. अन्न देवता का अपमान मत करें
२. भोजन फेंकना पाप है.
३. देवता भोग ग्रहण करते हैं, मनुष्य भोजन खाते हैं, राक्षस फेंकते हैं.
४. भोजन की बर्बादी,भूखे की मौत.
५. जितनी भूख उतना लें, जितना लें, उतना खाएं.
६. इस जन्म में भोजन फेंकें, अगले जन्म में भूखे मरें.
७. खाना खा. फेंक मत.
८. खाने से प्यार, बर्बादी से इंकार
९. खाना बचे, भूखे को दें.
१० जितना खा सकें उससे कुछ कम लें.
११. दाने-दाने पर खानेवाले का नाम
जो दाना फेंका उस पर था आपका नाम
अगले जनम में दाने पर नहीं होगा आपका नाम
तब क्या करेंगे?
१२. जीवनाधार
भोजन का सामान
बर्बादी रोकें.
१३. जितना खाना
परोसें उतना ही
फेकें न दाना
१४. भूखे-मुँह में देना दाना
एक यज्ञ का पुण्य कमाना.
१५. पशु-पक्षी को जूठन डालें
प्रभु से गलती क्षमा करा लें.
१६. कम खाना, कम बीमारी
ज्यादा खाना, मुश्किल भारी.
१७. खाना गैर का, पेट आपका.
१८. खाना सस्ता, इलाज मंहगा.
१९. सरल खाना / कठिन पचाना.
२०. भूख से कम खायें, सेहत बनायें.
२१. बचा हुआ शुद्ध ताजा भोजन अनाथालय, वृद्धाश्रम, महिलाश्रम अथवा मंदिर के बाहर
भिक्षुकों को वितरित करा दें. जूठा भोजन / जूठन पशुओं को खाने के लिये दें.
***
कहमुकरी
मन की बात अनकही कहती
मधुर सरस सुधियाँ हँस तहती
प्यास बुझाती जैसे सरिता
क्या सखि वनिता?
ना सखि कविता।
लहर-लहर पर लहराती है।
कलकल सुनकर सुख पाती है।।
मनभाती सुंदर मन हरती
क्या सखि सजनी?
ना सखि नलिनी।
नाप न कोई पा रहा।
सके न कोई माप।।
श्वास-श्वास में रमे यह
बढ़ा रहा है ताप।।
क्या प्रिय बीमा?
नहिं प्रिये, सीमा।
१०-३-२०२२
लोककथा कहावत की
ये मुँह और मसूर की दाल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
एक राजा था, अन्य राजाओं की तरह गुस्से का तेज हुए खाने का शौक़ीन। रसोइया बाँकेलाल उसके चटोरेपन से परेशान था। राजा को हर दिन कुछ नया खाने की लत और कोढ़ में खाज यह कि मसूर मसालेदार दाल की दाल राजा को विशेष पसंद थी। मसूर की दाल बाँकेलाल के अलावा और कोई बनाना नहीं जानता था। इसलिए बांके लाल राजा की मूँछ का बाल बन गया।
एक दिन बाँकेलाल की साली, अपने जीजा के घर आई। उसकी खातिरदारी में कोई कमी न रह जाए इसलिए बाँकेलाल ने राजा से कुछ दिनों के लिए छुट्टी माँगी।
राजा के पास उसके मित्र पड़ोसी देश के राजा के आगमन का संदेश आ चुका था।
हुआ यह कि राजा ने अपने मित्र राजा से बाँकेलाल की बनाई मसूर की दाल की खूब तारीफ की थी। मित्र राजा अपनी रानी सहित आया, ताकि मसूर की दाल का स्वाद ले सके। इसलिए राजा ने बाँकेलाल की छुट्टी मंजूर नहीं की। बाँकेलाल की साली ने उसका खूब मजाक उड़ाया कि जीजाजी साली से ज्यादा राजा का ख्याल रखते हैं। घरवाली का मुँह गोलगप्पे की तरह फूल गया कि उसकी बहिन के कहने पर भी बाँकेलाल ने उसके साथ समय नहीं बिताया। बाँकेलाल मन मसोसकर काम पर चला गया।
खीझ के कारण उसका मन खाना बनाने में कम था। उस दिन दाल में नमक कुछ ज्यादा पड़ गया और दाल कुछ कम गली। मेहमान राजा को भोजन में आनंद नहीं आया। नाराज राजा से बाँकेलाल को नौकरी से निकाल दिया। बेरोजगारी ने बाँकेलाल के सामने समस्या खड़ी कर दी। राजा एक रसोइया रह चुका था इसलिए किसी आम आदमी के घर काम करने में उसे अपमान अनुभव होता। घर में रहता तो घरवाली जली-कटी सुनाती।
कहते हैं सब दिन जात न एक समान, बिल्ली के भाग से छींका टूटा, नगर सेठ मन ही मन राजा से ईर्ष्या करता था। उसे घमंड था कि राजा उससे धन उधार लेकर झूठी शान-शौकत दिखाता था। उसे बाँकेलाल के निकले जाने की खबर मिली तो उसने बाँकेलाल को बुलाकर अपन रसोइया बना लिया और सबसे कहने लगा कि राजा क्या जाने गुणीजनों की कदर करना?
अँधा क्या चाहे दो आँखें, बाँकेलाल ने जी-जान से काम करना आरंभ कर दिया। सेठ को राजसी स्वाद मिला तो वह झूम उठा।
सेठ की शादी की सालगिरह का दिन आया। अधेड़ सेठ युवा रानी को किसी भी कीमत पर प्रसन्न देखना चाहता था। उसने बाँकेलाल से कुछ ऐसा बनाने की फरमाइश की जिसे खाकर सेठानी खुश हो जाए। बाँकेलाल ने शाही मसालेदार मसूर की दाल पकाई। सेठ के घर में इसके पहले मसूर की दाल कभी नहीं बनी थी। सेठ-सेठानी और सभी मेहमानों ने जी भरकर मसूर की दाल खाई। सेठ ने बाँकेलाल को ईनाम दिया। यह देखकर उसका मुनीम कुढ़ गया।
अब सेठ अपना वैभव प्रदर्शित करने के लिए जब-तब मित्रों को दावत देकर वाहवाही पाने लगा।
बाँकेलाल खुद जाकर रसोई का सामान खरीद लाता था इस कारण मुनीम को पहले की तरह गोलमाल करने का अवसर नहीं मिल पा रहा था। मुनीम बाँकेलाल से बदला लेने का मौका खोजने लगा। बही में देखने पर मुनीम ने पाया की जब से बाँकेलाल आया था रसोई का खर्च लगातार बढ़ था। उसे मौका मिल गया। उसने सेठानी के कान भरे कि बाँकेलाल बेईमानी करता है। सेठानी ने सेठ से कहा। सेठ पहले तो अनसुनी करता रहा पर सेठानी ने दबाव डाला तो उसकी नाराजगी से डरकर सेठ ने बाँकेलाल को बुलाकर डाँट लगाई और जवाब-तलब किया कि वह रसोई का सामान लाने में गड़बड़ी कर रहा है।
बाँकेलाल को काटो तो खून नहीं, वह मेहनती और ईमानदार था। उसने सेठ को मेहमानों और दावतों की बढ़ती संख्या और मसलों के लगातार लगातार बढ़ते बाजार भाव का सच बताया और मसूर की दाल में गरम मसाले और मखाने आदि डलने की जानकारी दी। सेठ की आँखें फ़टी की फ़टी रह गईं। उसने नौकर को भेजकर किरानेवाले को बुलवाया और पूछताछ की। किरानेवाले ने बताया कि बाँकेलाल हमेशा उत्तम किस्म के मसाले पूरी तादाद में लता था और भाव भी काम करते था। बाँकेलाल बेईमानी के झूठे इल्जाम से बहुत दुखी हुआ और सेठ की नौकरी छोड़ने का निश्चय कर अपना सामान उठाने चला गया।
वह जा ही रहा था कि उसके कानों में आवाज पड़ी सेठानी नौकर से कह रही थी कि शाम को भोजन में मसूर की दाल बनाई जाए। स्वाभिमानी बाँकेलाल ने यह सुनकर कमरे में प्रवेश कर कहा 'ये मुँह और मसूर की दाल'। मैं काम छोड़कर जा रहा हूँ।
सेठ-सेठानी मनाते रह गए पाए वन नहीं माना। तब से किसी को सामर्थ्य से अधिक पाने की चाह रखते देख कहा जाने लगा 'ये मुँह और मसूर की दाल'।
••
कुण्डलिया
*
दर्शन के दर्शन बिना, रहता मन बेज़ार
तेवर वाली तेवरी, करे निरंतर वार
करे निरंतर वार, केंद्र में रखे विसंगति
करे कौन मनुहार, बढ़े हर समय सुसंगति
मत करिए वन काम, करे मन जिसका वर्जन
अंतर्मन में झांक, कीजिए प्रभु का दर्शन
*
देवर आए खेलने, भौजी से रंग आज
भाई ने दे वर रँगा, भागे बिगड़ा काज
भागे बिगड़ा काज, न गुझिया पपड़ी खाई
भौजी की बहिना न, सामने पड़ी दिखाई
रंग हुए बेरंग, उदास हो गए देवर 
लाल पलाश हार, पहनाएँ किसको जेवर 
***
घनाक्षरी
होली पर चढ़ाए भाँग, लबों से चुआए पान, झूम-झूम लूट रहे रोज ही मुशायरा
शायरी हसीन करें, तालियाँ बटोर चलें, हाय-हाय करती जलें-भुनेंगी शायरा
फख्र इरफान पै है, फन उन्वान पै है, बढ़ता ही जाए रोज आशिकों का दायरा
कत्ल मुस्कान करे, कैंची सी जुबान चले, माइक से यारी है प्यारा जैसे मायरा
१०-३-२०२०
*
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी ​मोहे ​बरजो न राधिका
​आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो, मुँह ही न फेर ले साँसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाँवरे से ​साँवरे की कामना भी बाँवरी-
बैन​ से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका ​
१०-३-२०१७
***
गीत:
ओ! मेरे प्यारे अरमानों,
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ.
ओ! मेरे सपनों अनजानों-
तुमको मैं साकार बनाऊँ...
मैं हूँ पंख उड़ान तुम्हीं हो,
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो.
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही-
मैं अक्षर हूँ गान तुम्हीं हो.
ओ मेरी निश्छल मुस्कानों
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ..
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ! दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***
गीत,
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ, दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***
दोहा
आँखमिचौली खेलते, बादल सूरज संग.
यह भागा वह पकड़ता, देखे धरती दंग..
*
पवन सबल निर्बल लता, वह चलता है दाँव .
यह थर-थर-थर काँपती, रहे डगमगा पाँव ..
१०-३-२०१०
***

रविवार, 9 मार्च 2025

मार्च ९, सॉनेट नारी, भारत, यूक्रेन, माली छंद, होली, दोहा, लघुकथा, सोरठा, मुक्तिका

सलिल सृजन मार्च ९
*
सॉनेट
सबकी दुनिया अपनी अपनी 
सबके अपने अपने काम
सबकी अलग अलग है नपनी
सबका भला करें सिय-राम।
सबसे सबका स्नेह भाव हो
सबसे सब सहयोग करें
सबसे सबका नित निभाव हो
सबका सब उपयोग करें।
सब में रब है जान सकें सब
सब न भिन्न हैं, सभी अभिन्न
सब जानें सच हो पाएँ नब
सबसे सब खुश कोई न खिन्न।
सब पथ पर चल मंजिल पाएँ
सब सुख-दुख में साथ बँटाएँ।।
९.३.२०२५
०००
सॉनेट
नारी
*
नारी! तूने साबित कर दिखलाया है,
जीत नहीं सकता है तुझको छल या बल,
कल से कल तक कल की कल तेरी कलकल,
वन अशोक में रहकर अडिग दिखाया है।
नारी! तूने नर को पूर्ण बनाया है,
जननी, भगिनी, भाभी, अर्धांगिनी संबल,
रुष्ट रहे जीना मुश्किल कर दे किलकिल,
छाया-माया-काया शुभ सरमाया है।
नारी! नर से दो मात्राएँ है भारी,
गलती से भी मत कहना इसको अबला,
तबला बना बजाएगी यह तब तुमको।
नारी! से ही विद्या-शक्ति मिले सारी,
सबल तभी नर जब नारी होगी सबला,
प्रबला होकर प्रबल बनाएगी नर को।
***
सॉनेट
सजग भारत
*
है सजग भारत मिलाकर आँख बातें कर रहा है,
ना झुकाता, ना चुराता आँख संकट देखकर यह,
चुनौती को दे चुनौती, जीतता नित लक्ष्य नव यह,
डराता है यह नहीं पर अब नहीं यह डर रहा है।
है सजग भारत जगत को छोड़ पीछे बढ़ रहा है,
कर रहा व्यवहार अपने हित हमेशा साधकर यह,
सुरक्षा-सुख-शांति सबकी सृष्टि हित आराधकर यह,
नए मानक आप अपने नित्य प्रति यह गढ़ रहा है।
सजग भारत दीन जन की गरीबी मिल मिटाता है,
मिटाता मतभेद, होकर एक, हरता है अँधेरा,
कर विकास प्रयास जन का बढ़ता है हौसला भी।
उद्यमी हो अधिक सक्षम, स्वप्न सुंदर दिखाता है,
दीप उन्नति के जलाकर उगाता है नव सवेरा,
कह रहा परिवार जग को और जग को घोंसला भी।
९.३.२०२४
***
सॉनेट
यूक्रेन

सत्य लिखेगा यह इतिहास।
जूझा तिनके से तूफान।
धीरज इसका संबल खास।।
हर तिनका करता बलिदान।।
वह करता सब सत्यानाश।
धरती को करता शमशान।
अपराधी का करें विनाश।।
एक साथ मिल सब इंसान।।
भागें मत, संबल दें काश।
एक यही है शेष निदान।
गिरे पुतिन पर ही आकाश।।
यूक्रेनी हैं वीर महान।।
करते हैं हम उन्हें सलाम।
उनकी विपदा अपनी मान।।
९-३-२०२२
•••
आत्मकथ्य
मैं विवाह के पश्चात् प्राध्यापिका पत्नि को रोज कोलेज ले जाता-लाता था. फिर उन्हें लूना और स्कूटर चलाना सिखाया. बाद में जिद कर कार खरीदी तो खुद न चला कर उन्हें ही सिखवाई.शोध कार्य हेतु खूब प्रोत्साहित किया. सडक दुर्घटना के बाद मेरे ओपरेशन में उनहोंने और उन्हें कैंसर होने पर मैंने उनकी जी-जान से सेवा की. हर दंपति को अपने परिवेश और जरूरत के अनुसार एक-दुसरे से तालमेल बैठाना होता है. महिला दिवस मनानेवाली महिलायें घर पर बच्चों और बूढ़ों को नौकरानी के भरोसे कर जाती हैं तो देखकर बहुत बुरा लगता है.
***
कार्यशाला
राजीव गण / माली छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १८ मात्रा, यति ९ - ९
लक्षण छंद:
प्रति चरण मात्रा, अठारह रख लें
नौ-नौ पर रहे, यति यह परख लें
राजीव महके, परिंदा चहके
माली-भ्रमर सँग, तितली निरख लें
उदाहरण:
१. आ गयी होली, खेल हमजोली
भिगा दूँ चोली, लजा मत भोली
भरी पिचकारी, यूँ न दे गारी,
फ़िज़ा है न्यारी, मान जा प्यारी
खा रही टोली, भाँग की गोली
मार मत बोली,व्यंग्य में घोली
तू नहीं हारी, बिरज की नारी
हुलस मतवारी, डरे बनवारी
पोल क्यों खोली?, लगा ले रोली
प्रीती कब तोली, लग गले भोली
२. कर नमन हर को, वर उमा वर को
जीतकर डर को, ले उठा सर को
साध ले सुर को, छिपा ले गुर को
बचा ले घर को, दरीचे-दर को
३. सच को न तजिए, श्री राम भजिए
सदग्रन्थ पढ़िए, मत पंथ तजिए
पग को निरखिए, पथ भी परखिए
कोशिशें करिए, मंज़िलें वरिये
९-३-२०२०
***
होली के दोहे
*
होली हो ली हो रही, होली हो ली हर्ष
हा हा ही ही में सलिल, है सबका उत्कर्ष
होली = पर्व, हो चुकी, पवित्र, लिए हो
*
रंग रंग के रंग का, भले उतरता रंग
प्रेम रंग यदि चढ़ गया कभी न उतरे रंग
*
पड़ा भंग में रंग जब, हुआ रंग में भंग
रंग बदलते देखता, रंग रंग को दंग
*
शब्द-शब्द पर मल रहा, अर्थ अबीर गुलाल
अर्थ-अनर्थ न हो कहीं, मन में करे ख़याल
*
पिच् कारी दीवार पर, पिचकारी दी मार
जीत गई झट गंदगी, गई सफाई हार
*
दिखा सफाई हाथ की, कहें उठाकर माथ
देश साफ़ कर रहे हैं, बँटा रहे चुप हाथ
*
अनुशासन जन में रहे, शासन हो उद्दंड
दु:शासन तोड़े नियम, बना न मिलता दंड
*
अलंकार चर्चा न कर, रह जाते नर मौन
नारी सुन माँगे अगर, जान बचाए कौन?
*
गोरस मधुरस काव्य रस, नीरस नहीं सराह
करतल ध्वनि कर सरस की, करें सभी जन वाह
*
जला गंदगी स्वच्छ रख, मनु तन-मन-संसार
मत तन मन रख स्वच्छ तू, हो आसार में सार
*
आराधे राधे; कहे आ राधे! घनश्याम
वाम न होकर वाम हो, क्यों मुझसे हो श्याम
होली २०१८
***
दोहा लेखन विधान
१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं।
२. हर पद में दो चरण होते हैं।
३. विषम (पहला, तीसरा) चरण में १३-१३ तथा सम (दूसरा, चौथा) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. तेरह मात्रिक पहले तथा तीसरे चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम हो जाती है।
६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं।
७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि, मुस्कानि जैसे देशज क्रिया-रूपों का उपयोग न करें।
८. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए।
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग यथा संभव न करें। औ' वर्जित 'अरु' स्वीकार्य।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके।
१२. दोहे में कारक (ने, को, से, के लिए, का, के, की, में, पर आदि)का प्रयोग कम से कम हो।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१४. दोहा सम तुकान्ती छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है।
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
*
मात्रा गणना नियम
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, प्रिया = १२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
८. हिंदी दोहाकार हिंदी व्याकरण नियमों का पालन करें। दोहा में वर्णिक छंद की तरह लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती।
९. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
१०. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
११. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि। हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है।
***
गीत
महिला दिवस
*
एक दिवस क्या
माँ ने हर पल, हर दिन
महिला दिवस मनाया।
*
अलस सवेरे उठी पिता सँग
स्नान-ध्यान कर भोग लगाया।
खुश लड्डू गोपाल हुए तो
चाय बनाकर, हमें उठाया।
चूड़ी खनकी, पायल बाजी
गरमागरम रोटियाँ फूली
खिला, आप खा, कंडे थापे
पड़ोसिनों में रंग जमाया।
विद्यालय से हम,
कार्यालय से
जब वापिस हुए पिताजी
माँ ने भोजन गरम कराया।
*
ज्वार-बाजरा-बिर्रा, मक्का
चाहे जो रोटी बनवा लो।
पापड़, बड़ी, अचार, मुरब्बा
माँ से जो चाहे डलवा लो।
कपड़े सिल दे, करे कढ़ाई,
बाटी-भर्ता, गुझिया, लड्डू
माँ के हाथों में अमृत था
पचता सब, जितना जी खा लो।
माथे पर
नित सूर्य सजाकर
अधरों पर
मृदु हास रचाया।
*
क्रोध पिता का, जिद बच्चों की
गटक हलाहल, देती अमृत।
विपदाओं में राहत होती
बीमारी में माँ थी राहत।
अन्नपूर्णा कम साधन में
ज्यादा काम साध लेती थी
चाहे जितने अतिथि पधारें
सबका स्वागत करती झटपट।
नर क्या,
ईश्वर को भी
माँ ने
सोंठ-हरीरा भोग लगाया।
*
आँचल-पल्लू कभी न ढलका
मेंहदी और महावर के सँग।
माँ के अधरों पर फबता था
बंगला पानों का कत्था रँग।
गली-मोहल्ले के हर घर में
बहुओं को मिलती थी शिक्षा
मैंनपुरी वाली से सीखो
तनक गिरस्थी के कुछ रँग-ढंग।
कर्तव्यों की
चिता जलाकर
अधिकारों को
नहीं भुनाया।
***
पुस्तक सलिला:
कोई रोता है मेरे भीतर : तब कहता कविता व्याकुल होकर
*
[पुस्तक विवरण- कोई रोता है मेरे भीतर, कविता संग्रह, आलोक वर्मा, वर्ष २०१५, ISBN ९७८-९३-८५९४२-०७-५ आकार डिमाई, आवरण, बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १२०, मूल्य १००/-, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७ सेक्टर ९, पथ ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क ७१ विवेकानंद नगर, रायपुर ४९२००१, ९८२६६ ७४६१४, lokdhvani@gmail.com]
*
कविता और ज़िन्दगी का नाता सूरज और धूप का सा है। सूरज ऊगे या डूबे, धूप साथ होती है। इसी तरह मनुष्य का मन सुख अनुभव करे या दुख अभिव्यक्ति कविता के माध्यम से हो होती है। मनुष्येतर पशु-पक्षी भी अपनी अनुभूतियों को ध्वनि के माध्यम से व्यक्त करते हैं। ऐसी ही एक ध्वनि आदिकवि वाल्मीकि की प्रथम काव्याभिव्यक्ति का कारण बनी। कहा जाता हैं ग़ज़ल की उत्पत्ति भी हिरणी के आर्तनाद से हुई। आलोक जी के मन का क्रौंच पक्षी या हिरण जब-जब आदमी को त्रस्त होते देखता है, जब-जब विसंगतियों से दो-चार होता है, विडम्बनाओं को पुरअसर होते देखता तब-तब अपनी संवेदना को शब्द में ढाल कर प्रस्तुत कर देता है।
कोई रोता है मेरे भीतर ५८ वर्षीय कवि आलोक वर्मा की ६१ यथार्थपरक कविताओं का पठनीय संग्रह है। इन कविताओं का वैशिष्ट्य परिवेश को मूर्तित कर पाना है। पाठक जैसे-जैसे कविता पढ़ता जाता है उसके मानस में संबंधित व्यक्ति, परिस्थिति और परिवेश अंकित होता जाता है। पाठक कवि की अभिव्यक्ति से जुड़ पाता है। 'लोग देखेंगे' शीर्षक कविता में कवि परोक्षत: इंगित करता है की वह कविता को कहाँ से ग्रहण करता है-
शायद कभी कविता आएगी / हमारे पास
जब हम भाग रहे होंगे सड़कों पर / और लिखी नहीं जाएगी
शायद कभी कविता आएगी / हमारे पास
जब हमारे हाथों में / दोस्त का हाथ होगा
या हम अकेले / तेज बुखार में तप रहे होंगे / और लिखी नहीं जाएगी
दैनंदिन जीवन की सामान्य सी प्रतीत होती परिस्थितियाँ, घटनाएँ और व्यक्ति ही आलोक जी की कविताओं का उत्स हैं। इसलिए इन कविताओं में आम आदमी का जीवन स्पंदित होता है। अनवर मियाँ, बस्तर २०१०, फुटपाथ पर, हम साधारण, यह इस पृथ्वी का नन्हा है आदि कविताओं में यह आदमी विविध स्थितियों से दो-चार होता पर अपनी आशा नहीं छोड़ता। यह आशा उसे मौत के मुँह में भी जिन्दा रहने, लड़ने और जितने का हौसला देती है। 'सब ठीक हो जायेगा' शीर्षक कविता आम भारतीय को शब्दित करती है -
सुदूर अबूझमाड़ का / अनपढ़ गरीब बूढ़ा
बैठा अकेला महुआ के घने पेड़ के नीचे
बुदबुदाता है धीरे-धीरे / सब ठीक हो जायेगा एक दिन
यह आशा काम ढूंढने शहर के अँधेरे फुथपाथ पर भटके, अस्पताल में कराहे या झुग्गी में पिटे, कैसा भी भयावह समय हो कभी नहीं मरती।
समाज में जो घटता है उस देखता-भोगता तो हर शख्स है पर हर शख्स कवि नहीं हो सकता। कवि होने के लिए आँख और कान होना मात्र पर्याप्त नहीं। उनका खुला होना जरूरी है-
जिनके पास खुली आँखें हैं / और जो वाकई देखते हैं....
... जिनके पास कान हैं / और जो वाकई सुनते हैं
सिर्फ वे ही सुन सकते हैं / इस अथाह घुप्प अँधेरे में
अनवरत उभरती-डूबती / यह रोने की आर्त पुकार।
'एक कप चाय' को हर आदमी जीता है पर कविता में ढाल नहीं पाता-
अक्सर सुबह तुम नींद में डूबी होगी / और मैं बनाऊंगा चाय
सुनते ही मेरी आवाज़ / उठोगी तुम मुस्कुराते हुए
देखते ही चाय कहोगी / 'फिर बना दी चाय'
करते कुछ बातें / हम लेंगे धीरे-धीरे / चाय की चुस्कियाँ
घुला रहेगा प्रेम सदा / इस जीवन में इसी तरह
दूध में शक्कर सा / और छिपा रहेगा
फिर झलकेगा अनायास कभी भी
धूमकेतु सा चमकते और मुझे जिलाते
कि तुम्हें देखने मुस्कुराते / मैं बनाना चाहूँगा / ज़िंदगी भर यह चाय
यूं देखे तो / कुछ भी नहीं है
पर सोचें तो / बहुत कुछ है / यह एक कप चाय
अनुभूति को पकड़ने और अभिव्यक्त करने की यह सादगी, सरलता, अकृत्रिमता और अपनापन आलोक जी की कविताओं की पहचान हैं। इन्हें पढ़ना मात्र पर्याप्त नहीं है। इनमें डूबना पाठक को जिए क्षणों को जीना सिखाता है। जीकर भी न जिए गए क्षणों को उद्घाटित कर फिर जीने की लालसा उत्पन्न करती ये कवितायें संवेदनशील मनुष्य की प्रतीति करती है जो आज के अस्त-वस्त-संत्रस्त यांत्रिक-भौतिक युग की पहली जरूरत है।
***
मुक्तिका:
*
कर्तव्यों की बात न करिए, नारी को अधिकार चाहिए
वहम अहम् का हावी उस पर, आज न घर-परिवार चाहिए
*
मेरी देह सिर्फ मेरी है, जब जिसको चाहूँ दिखलाऊँ
मर्यादा की बात न करना, अब मुझको बाज़ार चाहिए
*
आदि शक्ति-शारदा-रमा हूँ, शिक्षित खूब कमाती भी हूँ
नित्य नये साथी चुन सकती, बाँहें बन्दनवार चाहिए
*
बच्चे कर क्यों फिगर बिगाडूँ?, मार्किट में वैल्यू कम होती
गोद लिये आया पालेगी, पति ही जिम्मेदार चाहिए
*
घोषित एक अघोषित बाकी,सारे दिवस सिर्फ नारी के
सब कानून उसी के रक्षक, नर बस चौकीदार चाहिए
*
नर बिन रह सकती है दावा, नर चाकर है करे चाकरी
नाचे नाच अँगुलियों पर नित, वह पति औ' परिवार चाहिए
*
किसका बीज न पूछे कोई, फसल सिर्फ धरती की मानो
हो किसान तो पालो-पोसो, बस इतना स्वीकार चाहिए
***
मुक्तक:
मुक्त देश, मुक्त पवन
मुक्त धरा, मुक्त गगन
मुक्त बने मानव मन
द्वेष- भाव करे दहन
*
होली तो होली है, होनी को होना है
शंका-अरि बनना ही शंकर सम होना है
श्रद्धा-विश्वास ही गौरी सह गौरा है
चेत न मन, अब तुझको चेतन ही होना है
*
मुक्त कथ्य, भाव,बिम्ब,रस प्रतीक चुन ले रे!
शब्दों के धागे से कबिरा सम बुन ले रे!
अक्षर भी क्षर से ही व्यक्त सदा होता है
देना ही पाना है, 'सलिल' सत्य गुण ले रे!!
***
लघुकथा:
गरम आँसू
*
टप टप टप
चेहरे पर गिरती अश्रु-बूँदों से उसकी नीद खुल गयी, सास को चुपाते हुए कारण पूछा तो उसने कहा- 'बहुरिया! मोय लला से माफी दिला दे रे!मैंने बापे सक करो. परोस का चुन्ना कहत हतो कि लला की आँखें कौनौ से लर गयीं, तुम नें मानीं मने मोरे मन में संका को बीज पर गओ. सिव जी के दरसन खों गई रई तो पंडत जी कैत रए बिस्वास ही फल देत है, संका के दुसमन हैं संकर जी. मोरी सगरी पूजा अकारत भई'
''नई मइया! ऐसो नें कर, असगुन होत है. तैं अपने मोंडा खों समझत है. मन में फिकर हती सो संका बन खें सामने आ गई. भली भई, मो खों असीस दे सुहाग सलामत रहे.''
एक दूसरे की बाँहों में लिपटी सास-बहू में माँ-बेटी को पाकर मुस्कुरा रहे थे गरम आँसू।
९-३-२०१६
***
सोरठा सलिला
भजन-कीर्तन नित्य, करिए वंदना-प्रार्थना।
रीझे ईश अनित्य, सफल साधना हो 'सलिल'।
*
हों कृपालु जगदीश , शांति-राज सुख-चैन हो।
अंतर्मन पृथ्वीश, सत्य सहाय सदा रहे।।
*
ऐसे ही हों कर्म, गुप्त चित्र निर्मल रहे।
निभा 'सलिल' निज धर्म, ज्यों की त्यों चादर रखे।।
९-३-२०१०
***

शनिवार, 8 मार्च 2025

संजीव वर्मा 'सलिल', परिचय २०२५,

परिचय : इंजी. संजीव वर्मा 'सलिल'।
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपिअर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश। ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com, वाट्सऐप ९४२५१८३२४४, चलभाष जिओ ७९९९५५९६१८।
जन्म: २०-८-१९५२, मंडला मध्य प्रदेश।
माता-पिता: स्व. शांति देवी - स्व. राज बहादुर वर्मा।
प्रेरणास्रोत: बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा।
शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम.आई.ई., एम.आई.जी.एस.,विशारद, एम.ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एल-एल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.।
उपलब्धि : - जीवन परिचय प्रकाशित ७ साहित्यकार कोश।
- 'हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी अंब विमल मति दे' सरस्वती शिशु मंदिरों में दैनिक प्रार्थना करोड़ों विद्यार्थियों द्वारा हर दिन गायन।
- इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी में तकनीकी लेख 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ को द्वितीय श्रेष्ठ - तकनीकी प्रपत्र पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति द्वारा।
- विश्व रिकॉर्डधारी तीन ग्रंथों 'भारत को जानें', 'आयुर्वेद को जानें' तथा 'संविधान को जानें' में सहभागी।
- '२१ वीं सदी के अंतर्राष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यका'र में सहभागी।
- 'नवगीत के सृजन सारथी भाग २-३' में सहभागी।
- 'नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार' में सहभागी ।
- १५ उपनिषदों का हिंदी काव्यानुवाद।
- ५०० से अधिक नए छंदों की रचना।
- १६ भाषाओं/बोलिओं (हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, बुंदेली, पचेली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बृज, हाड़ौती, भोजपुरी, सरायकी, गढ़वाली, मैथिली, अंगिका) में काव्य रचना।
- ७५ सरस्वती वंदना लेखन।
- इंटरनेट पर हिंदी छंदों तथा हिंदी अलंकारों पर दो वर्षीय लेखमालाएँ।
प्रकाशित कृतियाँ:
१. कलम के देव, (भक्ति गीत संग्रह १९९७),
२. भूकंप के साथ जीना सीखें, (जनोपयोगी तकनीकी १९९७),
३. लोकतंत्र का मक़बरा, (कविताएँ २००१),
४. मीत मेरे, (कविताएँ २००२),
५. सौरभः, (संस्कृत श्लोकों का दोहानुवाद) सहलेखन, २००३,
६. काल है संक्रांति का, नवगीत संग्रह २०१६,
७. कुरुक्षेत्र गाथा, प्रबंध काव्य सहलेखन २०१६,
८. सड़क पर, नवगीत संग्रह,
९. ओ मेरी तुम, श्रृंगार गीत संग्रह २०२१,
१०. आदमी अभी जिन्दा है, लघुकथा संग्रह २०२२,
११. इक्कीस श्रेष्ठ (आदिवासी) लोककथाएँ मध्य प्रदेश २०२२,
१२. इक्कीस श्रेष्ठ बुंदेली लोककथाएँ मध्य प्रदेश २०२२।
१३. जंगल में जनतंत्र, लघुकथा संग्रह २०२४।
ट्रू मिडिया पत्रिका दिल्ली द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित।
- 'सलिल : एक साहित्यिक निर्झर' व्यक्तित्व-कृतित्व पर पुस्तक, लेखिका मनोरमा जैन 'पाखी', मुरैना।
(अ)- विश्व कीर्तिमान :
- जबलपुर में भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की ९ मूर्तियों की स्थापना।
- हिंदी में ३२१ सॉनेट, ३२ सोनेटकारों का प्रथम संकलन संपादित-प्रकाशित।
- हिंदी में प्रथम सोरठा सतसई (डॉ. संतोष शुक्ला) का संपादन-प्रकाशन।
- विश्व में ऑन लाइन सर्वाधिक लंबी हिंदी छंद शिक्षण कक्षाएँ (हिन्द युग्म.कॉम पर २ वर्ष तक प्रति सप्ताह २ कक्षाएँ)।
- विश्व में ऑन लाइन सर्वाधिक लंबी हिंदी अलंकार शिक्षण कक्षाएँ (साहित्य शिल्पी.कॉम पर ८० अलंकार)।
- भारत को जानें, - आयुर्वेद को जानें तथा- छंदबद्ध 'भारत का संविधान' 
(आ). भूमिका लेखन: ९० पुस्तकें। (इ). तकनीकी लेख: १५। (ई). पुस्तक समीक्षा: ३०० से अधिक।
रचनायें प्रकाशित: मुक्तक मंजरी (४० मुक्तक), कन्टेम्परेरी हिंदी पोएट्री (परिचय सहित ८ कविताएँ अंग्रेजी में अनुवादित), ७५ साझा गद्य-पद्य संकलन, लगभग ४०० पत्रिकाएँ। मेकलसुता पत्रिका में २ वर्ष तक लेखमाला 'दोहा गाथा सनातन' प्रकाशित, पत्रिका शिखर वार्ता में भूकंप पर आमुख कथा।
अंतरजाल पर- १९९८ से सक्रिय, हिन्द युग्म पर छंद-शिक्षण २ वर्ष तक, साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचनाशास्त्र' ८० अलंकारों पर लेखमाला, शताधिक छंदों पर लेखमाला।
विशेष उपलब्धि: ५०० से अधिक नए छंदों की रचना।, हिंदी, अंग्रेजी, बुंदेली, मालवी, निमाड़ी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, अवधी, बृज, राजस्थानी, सरायकी, नेपाली आदि में काव्य रचना।
संपादन १३ पुस्तकें, १७ स्मारिकाएँ, ७ पत्रिकाएँ, २ विशेषांक। 
साहित्यिक सम्मान- ३०० से अधिक। 
संप्रति: - पूर्व कार्यपालन यंत्री / पूर्व संभागीय परियोजना यंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.। - अध्यक्ष इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर। - अधिवक्ता म. प्र. उच्च न्यायालय। - सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर। प्रति वर्ष हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों पर लगभग १.५ लाख रुपए के पुरस्कार । - संचालक समन्वय प्रकाशन संस्थान जबलपुर। - पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष / महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद जयपुर। - पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा दिल्ली। - पूर्व उपाध्यक्ष, अध्यक्ष लोक निर्माण समिति, पत्रिका संपादक म.प्र. डिप्लोमा इंजीनियर्स असोसिएशन भोपाल। - संरक्षक राजकुमारी बाई बाल निकेतन जबलपुर।


संपादन:
(क) कृतियाँ: १. निर्माण के नूपुर (अभियंता कवियों का संकलन १९८३),२. नींव के पत्थर (अभियंता कवियों का संकलन १९८५), ३. राम नाम सुखदाई १९९९ तथा २००९, ४. तिनका-तिनका नीड़ २०००, ५. ऑफ़ एंड ओन (अंग्रेजी ग़ज़ल संग्रह) २००१, ६. यदा-कदा (ऑफ़ एंड ऑन का हिंदी काव्यानुवाद) २००४, ७ . द्वार खड़े इतिहास के २००६, ८. समयजयी साहित्यशिल्पी प्रो. भागवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' (विवेचना) २००६, ९-१०. काव्य मंदाकिनी २००८ व २०१०, ११, दोहा दोहा नर्मदा २०१८, १२. दोहा सलिला निर्मला २०१८, १३. दोहा दीप्त दिनेश २०१८, हिंदी सॉनेट सलिला २०२३ (३२ सॉनेटकारों के ३२१ सॉनेट)।
(ख) स्मारिकाएँ: १. शिल्पांजलि १९८३, २. लेखनी १९८४, ३. इंजीनियर्स टाइम्स १९८४, ४. शिल्पा १९८६, ५. लेखनी-२ १९८९, ६. संकल्प १९९४,७. दिव्याशीष १९९६, ८. शाकाहार की खोज १९९९, ९. वास्तुदीप २००२ (विमोचन स्व. कुप. सी. सुदर्शन सरसंघ चालक तथा भाई महावीर राज्यपाल मध्य प्रदेश), १०. इंडियन जिओलॉजिकल सोसाइटी सम्मेलन २००४, ११. दूरभाषिका लोक निर्माण विभाग २००६, (विमोचन श्री नागेन्द्र सिंह तत्कालीन मंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.) १२. निर्माण दूरभाषिका २००७, १३. विनायक दर्शन २००७, १४. मार्ग (IGS) २००९, १५. भवनांजलि (२०१३), १७. आरोहण रोटरी क्लब २०१२, १७. अभियंता बंधु (IEI) २०१३।


(ग) पत्रिकाएँ: १. चित्राशीष १९८० से १९९४, २. एम.पी. सबॉर्डिनेट इंजीनियर्स मंथली जर्नल १९८२ - १९८७, ३. यांत्रिकी समय १९८९-१९९०, ४. इंजीनियर्स टाइम्स १९९६-१९९८, ५. एफोड मंथली जर्नल १९८८-९०, ६. नर्मदा साहित्यिक पत्रिका २००२-२००४, ७. शब्द समिधा २०१९।
साहित्य त्रिवेणी त्रैमासिकी कोलकाता भारतीय छंद विधान विशेषांक अप्रैल-सितंबर १९१८ के अतिथि संपादक।
मासिकी शिखर वार्ता भोपाल के भूकंप अंक में जबलपुर भूकंप १९९३ संबंधी आमुख कथा प्रकाशित।


अप्रकाशित कार्य-
मौलिक कृतियाँ:
कुत्ते बेहतर हैं ( लघुकथाएँ), आँख के तारे (बाल गीत), दर्पण मत तोड़ो (गीत), आशा पर आकाश (मुक्तक), पुष्पा जीवन बाग़ (हाइकु), काव्य किरण (कवितायें), जनक सुषमा (जनक छंद), मौसम ख़राब है (गीतिका), गले मिले दोहा-यमक (दोहा), दोहा-दोहा श्लेष (दोहा), मूं मत मोड़ो (बुंदेली), जनवाणी हिंदी नमन (खड़ी बोली, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, सिरायकी रचनाएँ), छंद कोश, अलंकार कोश, मुहावरा कोश, दोहा गाथा सनातन, छंद बहर का मूल है, तकनीकी शब्दार्थ सलिला।
अनुवाद:
(अ) ७ संस्कृत-हिंदी काव्यानुवाद: नर्मदा स्तुति (५ नर्मदाष्टक, नर्मदा कवच आदि), शिव-साधना (शिव तांडव स्तोत्र, शिव महिम्न स्तोत्र, द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र आदि),रक्षक हैं श्री राम (रामरक्षा स्तोत्र), गजेन्द्र प्रणाम ( गजेन्द्र स्तोत्र), नृसिंह वंदना (नृसिंह स्तोत्र, कवच, गायत्री, आर्तनादाष्टक आदि), महालक्ष्मी स्तोत्र (श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र), विदुर नीति।
(आ) प्रबंध काव्य 'दिव्य गृह' (रोमानियन खंडकाव्य ल्यूसिआ फेरूल से प्रेरित)।
(इ) सत्य सूक्त (दोहानुवाद)।


सम्मान- ११ राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरयाणा, दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, असम, बंगाल, झारखण्ड) की विविध संस्थाओं द्वारा २०० से अधिक सम्मान तथा अलंकरण। प्रमुख सम्मान - संपादक रत्न २००३ श्रीनाथद्वारा, सरस्वती रत्न आसनसोल, विज्ञान रत्न, २० वीं शताब्दी रत्न हरयाणा, आचार्य हरयाणा, वाग्विदाम्बर उत्तर प्रदेश, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, वास्तु गौरव, मानस हंस, साहित्य गौरव, साहित्य श्री(३) बेंगलुरु, काव्य श्री, भाषा भूषण, कायस्थ कीर्तिध्वज, चित्रांश गौरव, कायस्थ भूषण, हरि ठाकुर स्मृति सम्मान, सारस्वत साहित्य सम्मान, कविगुरु रवीन्द्रनाथ सारस्वत सम्मान कोलकाता, युगपुरुष विवेकानंद पत्रकार रत्न सम्मान कोलकाता, साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान, भारत गौरव सारस्वत सम्मान, सर्वोच्च कामता प्रसाद गुरु वर्तिका अलंकरण जबलपुर, उत्कृष्टता प्रमाणपत्र, सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट (३) इंजीनियर्स फोरम (भारत), अभव्यक्ति विश्वम् दुबई द्वारा नवगीत नवांकुर अलंकरण (११,०००/-), लोक साहित्य शिरोमणि अलंकरण गुंजन कला सदन जबलपुर २०१७, सर्वोच्च राजा धामदेव अलंकरण २०१७ गहमर, युग सुरभि २०१७, सर्वोच्च भवानी प्रसाद तिवारी प्रसंग अलंकरण जबलपुर २०२०, साहित्य सिंधु अलंकरण, सर्वोच्च भारतेंदु पुरस्कार (५०००/-) उत्कर्ष साहित्य अकादमी दिल्ली २०२२, दिव्य संगम श्री २०२३, साहित्य सिंधु २०२३, रजनीकान्त चौबे अलंकरण (५०००/-) प्रसंग जबलपुर २०२४आदि।

मार्च ८, रामकिंकर, शिव, महिला दिवस, दोहा, सॉनेट, तुम, सुधारानी, श्रृंगार गीत, धरती

 सलिल सृजन मार्च

*
युगतुलसी स्मरण
***
शीलसिंधु राघव छवि अनुपम,
जगजननी जानकी वत्सला,
हनुमत राम भक्ति शुभ प्रबला,
रक्षक राम-नाम जप निरुपम।
मधुर मूर्ति माधव हरती तम,
राधा आद्याशक्ति मंजुला,
भक्ति भावधारा नव मृदुला,
काम करें निष्काम सदा हम।
वाल्मीकि श्रीराम उपासक,
तुलसी राम चरित के रसिया,
युगतुलसी भव तरे राम जप।
राम-कृष्ण भव सागर तारक,
सकल सृष्टि स्वामी उन्नायक,
नाम सुमिरना सहज सरल तप।
८ मार्च २०२४
***
सॉनेट
महाशिवरात्रि / महिला दिवस
*
महाकाल धूनी रमा लेते जब वैराग,
उमा अपर्णा तप करें शिव देते वरदान,
हिमगिरि-मैना मिल करें पुलकित कन्यादान,
द्वैत मिटा अद्वैत वर देते निजता त्याग।
अध नारी-नर में पले कालजयी अनुराग,
कार्तिकेय-गणपति तनय प्रगटे पुत्र महान,
तनया मनसा-नर्मदा देतीं जीवन-दान,
असमय व्यापे काम, दें फूँक लगाकर आग।
महिला दिवस न नर बिना मन सकता लें मान,
पूरक बनकर साथ हों, मिलें हाथ, हो खैर,
नहीं विरोधी हो कभी, रहिए कभी न दूर।
पुरुष दिवस महिला बिना कैसे हो रस-खान?
दें-पाएँ सम्मान नित, कभी न पालें बैर,
शब्द-अर्थ बनकर रहें सँग न जो वे सूर।
***
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे -अहमद फ़राज़
गिरहबंदी
हार जाने का हौसला है मुझे
वज़्न - २१२२ १२१२ २२ (११२)
अर्कान -- फ़ाइलातुन--मुफ़ाइलुन--फ़ेलुन
बह्र -- बह्रे-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ मक़्तूअ
क़ाफ़िया -- हौसला ('आ' की बंदिश)
रदीफ़ -- है मुझे
*
हारना-जीतना नहीं होगा
साथ होने का हौसला है मुझे।
*
चार सौ बीस मैं रहा प्यारे
नेता होने का हौसला है मुझे।
*
लाख फाके करूँ, न हारूँगा
फ़स्ल बोने का हौसला है मुझे।
*
नैन बेचैन नैन से उलझे
खोने-पाने का हौसला है मुझे।
*
बोल वादे किए न, जुमले थे
धोखे खाने का हौसला है मुझे।
***
गीत
मृत्युंजय
*
हे मृत्युंजय! महाकाल हे!!
गौरी को पाकर निहाल हे!
रक्षक सकल सृष्टि के तुम ही-
ऊँचा रखना भक्त-भाल हे!!
हे नटराज! न अधिक नचाओ
भव सागर यह पार कराओ।
चरण-शरण ले लो शिव शंकर
श्वासें-आसें धन्य कराओ।
मुझे न होने दो निढाल हे!
हे मृत्युंजय! महाकाल हे!!
नीलकंठ हे! अमृत-दाता
जो तुमको ध्याता तर जाता।
मन-मंदिर में करे विराजित-
जो वह मनवांछित पा जाता।
कृपा करो सुत पर भुआल हे!
हे मृत्युंजय! महाकाल हे!!
निंगादेव! न मति हो दूषित
बड़ादेव! हों कहीं न शोषित।
उमानाथ त्रिपुरारि सदय हों-
महादेव! प्रभु!! करिए पोषित।
रहे न बाकी कुछ सवाल हे!
हे मृत्युंजय! महाकाल हे!!
***
विरासत
भारत के स्वाधीन होने के कुछ समय बाद इंग्लैण्ड की राष्ट्राध्यक्ष महारानी एलिजाबेथ पहली बार स्वतंत्र भारत में आ रही थीं। राजनैतिक शिष्टाचार के अनुसार भारत के राष्ट्राध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अपनी पत्नी सहित हाथ मिलाकर उनका स्वागत करना था। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें इससे अवगत कराया। राजेंद्र बाबू यह सुन कर बोले," प्रोटोकाल के तहत मेरी पत्नी भी साथ होंगी उस समय, फिर तो यह मुझ से न हो पाएगा।"
नेहरु जी ने पूछा,"कठिनाई क्या है?"
राजेंद्र बाबू ने कहा- "किसी और स्त्री से हाथ मिलाने पर पत्नी कहीं भड़क गईं और महारानी के बाल नोचने पर आमादा हो गईं तो अनर्थ हो जाएगा।"
नेहरु बोले- "हाँ,यह दिक्कत तो बड़ी है। फिर नेहरू जी ने ही सलाह दी कि आप सिर्फ़ हाथ जोड़ लें। मैं आगे बढ़ कर जल्दी से हाथ मिला लूँगा, किसी को कुछ पता ही नहीं चलेगा।"
पद पर रहते हुए अपना कर्तव्य पूर्ण न करना राजेन्द्र प्रसाद जी का स्वभाव नहीं था। जब महारानी आईं तो राजेंद्र प्रसाद ने महारानी से ख़ुद ही हाथ मिला लिया। अब नेहरू जी घबराए कि कहीं कुछ अनर्थ न हो जाए पर कहीं कुछ भी नहीं हुआ।
राजेंद्र प्रसाद की पत्नी राजवंशी देवी शांत खड़ी रहीं। बाद में जब महारानी की भारत यात्रा सकुशल संपन्न हो गई और वह इंग्लैण्ड लौट गईं तब एक दिन राजेंद्र प्रसाद से नेहरू ने पूछा कि आपने तो हाथ मिला लिया और कुछ नहीं हुआ। तो राजेंद्र बाबू ने नेहरू को बताया कि असल में उस दिन आप के जाने बाद रात में पत्नी से बात की-
"एक संकट आ गया है। एक अंगरेज औरत से हाथ मिलाना पड़ेगा।'' पहले तो वह बहुत नाराज हुईं कि मेरे रहते तो यह संभव नहीं। फिर मैं ने पत्नी को बताया कि मामला नौकरी का है अगर उस अंगरेज औरत से हाथ नहीं मिलाया तो नौकरी चली जाएगी। यह सुनकर पत्नी ने कहा- "अगर बात नौकरी की है तो हाथ मिला लीजिए, नौकरी नहीं जानी चाहिए।"
***
चिंतन: दोहा मंथन १.
*
लाओत्से ने कहा है, भोजन में लो स्वाद।
सुन्दर सी पोशाक में, हो घर में आबाद।।
लाओत्से ने बताया, नहीं सरलता व्यर्थ।
रस बिन भोजन का नहीं, सत्य समझ कुछ अर्थ।।
रस न लिया; रस-वासना, अस्वाभाविक रूप।
ले विकृत हो जाएगी, जैसे अँधा कूप।।
छोटी-छोटी बात में, रस लेना मत भूल।
करो सलिल-स्पर्श तो, लगे खिले शत फ़ूल।
जल-प्रपात जल-धार की, शीतलता अनुकूल।।
जीवन रस का कोष है, नहीं मोक्ष की फ़िक्र।
जीवन से रस खो करें, लोग मोक्ष का ज़िक्र।।
मंदिर-मस्जिद की करे, चिंता कौन अकाम।
घर को मंदिर बना लो, हो संतुष्ट सकाम।।
छोटा घर संतोष से, भर होता प्रभु-धाम।
तृप्ति आदमी को मिले, घर ही तीरथ-धाम।।
महलों में तुम पाओगे, जगह नहीं है शेष।
सौख्य और संतोष का, नाम न बाकी लेश।।
जहाँ वासना लबालब, असंतोष का वास।
बड़ा महल भी तृप्ति बिन, हो छोटा ज्यों दास।।
क्या चाहोगे? महल या, छोटा घर; हो तृप्त?
रसमय घर या वरोगे, महल विराट अतृप्त।।
लाओत्से ने कहा है:, "भोजन रस की खान।
सुन्दर कपड़े पहनिए, जीवन हो रसवान।।"
लाओ नैसर्गिक बहुत, स्वाभाविक है बात।
मोर नाचता; पंख पर, रंगों की बारात।।
तितली-तितली झूमती, प्रकृति बहुत रंगीन।
प्रकृति-पुत्र मानव कहो, क्यों हो रंग-विहीन?
पशु-पक्षी तक ले रहे, रंगों से आनंद।
मानव ले; तो क्या बुरा, झूमे-गाए छंद।।
वस्त्राभूषण पहनते, थे पहले के लोग।
अब न पहनते; क्यों लगा, नाहक ही यह रोग?
स्त्री सुंदर पहनती, क्यों सुंदर पोशाक।
नहीं प्राकृतिक यह चलन, रखिए इसको ताक।।
पंख मोर के; किंतु है, मादा पंख-विहीन।
गाता कोयल नर; मिले, मादा कूक विहीन।।
नर भी आभूषण वसन, बहुरंगी ले धार।
रंग न मँहगे, फूल से, करे सुखद सिंगार।।
लाओ कहता: पहनना, सुन्दर वस्त्र हमेश।
दुश्मन रस के साधु हैं, कहें: 'न सुख लो लेश।।'
लाओ कहता: 'जो सहज, मानो उसको ठीक।'
मुनि कठोर पाबंद हैं, कहें न तोड़ो लीक।।
मन-वैज्ञानिक कहेंगे:, 'मना न होली व्यर्थ।
दीवाली पर मत जला, दीप रस्म बेअर्थ।।'
खाल बाल की निकालें, यह ही उनका काम।
खुशी न मिल पाए तनिक, करते काम तमाम।।
अपने जैसे सभी का, जीवन करें खराब।
मन-वैज्ञानिक शूल चुन, फेंके फूल गुलाब।।
लाओ कहता: 'रीति का, मत सोचो क्या अर्थ?
मजा मिला; यह बहुत है, शेष फ़िक्र है व्यर्थ।।
होली-दीवाली मना, दीपक रंग-गुलाल।
सबका लो आनंद तुम, नहीं बजाओ गाल।।
***
क्षणिका
महिला
*
खुश हो तो
खुशी से दुनिया दे हिला
नाखुश हो तो
नाखुशी से लोहा दे पिघला
खुश है या नाखुश
विधाता को भी न पता चला
अनबूझ पहेली
अनन्य सखी-सहेली है महिला
***
सॉनेट
तुम
*
ट्रेन सरीखी लहरातीं तुम।
पुल जैसे मैं थरथर होता।
अपनों जैसे भरमातीं तुम।।
मैं सपनों सा बेघर होता।।
तुम जुमलों जैसे मन भातीं।
मैं सचाई सम कडुवा लगता।
न्यूज़ सरीखी तुम बहकातीं।।
ठगा गया मैं; खुद को ठगता।।
कहतीं मन की बात, न सुनतीं।
जन की बात अनकही रहती।
ईश न जाने क्या तुम गुनतीं।।
सुधियों की चादर नित तहती।।
तुम केवल तुम, कोई न तुम सा।
तुम में हूँ मैं खुद भी गुम सा।।
८-३-२०२२
***
मुक्तिका
*
झुका आँखें कहर ढाए
मिला नज़रें फतह पाए
चलाए तीर जब दिल पर
न कोई दिल ठहर पाए
गहन गंभीर सागर सी
पवन चंचल भी शर्माए
धरा सम धैर्य धारणकर
बदरियों सी बरस जाए
करे शुभ भगवती हो यह
अशुभ हो तो कहर ढाए
कभी अबला, कभी सबला
बला हर पल में हर गाए
न दोधारी, नहीं आरी
सुनारी सभी को भाए
८-३-२०२०
***
महिला दिवस पर विशेष
बहुमुखी प्रतिभा की धनी विधि पंडिता सुधारानी श्रीवास्तव
श्रीमती सुधारानी श्रीवास्तव का महाप्रस्थान रंग पर्व के रंगों की चमक कम कर गया है। इल बहुमुखी बहुआयामी प्रतिभा का सम्यक् मूल्यांकन समय और समाज नहीं कर सका। वे बुंदेली और भारतीय पारंपरिक परंपराओं की जानकार, पाककला में निष्णात, प्रबंधन कला में पटु, वाग्वैदग्धय की धनी, शिष्ट हास-परिहासपूर्ण व्यक्तित्व की धनी, प्रखर व्यंग्यकार, प्रकांड विधिवेत्ता, कुशल कवयित्री, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू साहित्य की गंभीर अध्येता, संगीत की बारीकियों को समझनेवाली सुरुचिपूर्ण गरिमामयी नारी हैं। अनेकरूपा सुधा दीदी संबंधों को जीने में विश्वास करती रहीं। उन जैसे व्यक्तित्व काल कवलित नहीं होते, कालातीत होकर अगणित मनों में बस जाते हैं।
सुधा दीदी १९ जनवरी १९३२ को मैहर राज्य के दीवान बहादुर रामचंद्र सहाय व कुंतीदेवी की आत्मजा होकर जन्मीं। माँ शारदा की कृपा उन पर हमेशा रही। संस्कृत में विशारद, हिंदी में साहित्य रत्न, अंग्रेजी में एम.ए.तथा विधि स्नातक सुधा जी मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहीं। विधि साक्षरता के प्रति सजग-समर्पित सुधा जी १९९५ से लगातार दो दशकों तक मन-प्राण से समर्पित रहीं। सारल्य, सौजन्य, ममत्व और जनहित को जीवन का ध्येय मानकर सुधा जी ने शिक्षा, साहित्य और संगीत की त्रिवेणी को बुंदेली जीवनशैली की नर्मदा में मिलाकर जीवनानंद पाया-बाँटा।
वे नारी के अधिकारों तथा कर्तव्यों को एक दूसरे का पूरक मानती रहीं। तथाकथित स्त्रीविमर्शवादियों की उन्मुक्तता को उच्छृंखलता को नापसंद करती सुधा जी, भारतीय नारी की गरिमा की जीवंत प्रतीक रहीं। सुधा दीदी और उन्हें भौजी माननेवाले विद्वान अधिवक्ता राजेंद्र तिवारी की सरस नोंक-झोंक जिन्होंने सुनी है, वे आजीवन भूल नहीं सकते। गंभीरता, विद्वता, स्नेह, सम्मान और हास्य-व्यंग्य की ऐसी सरस वार्ता अब दुर्लभ है। कैशोर्य में
संस्कारधानी के दो मूर्धन्य गाँधीवादी हिंदी प्रेमी व्यक्तित्वों ब्यौहार राजेंद्र सिंह व सेठ गोविंददास द्वारा संविधान में हिंदी को स्थान दिलाने के लिए किए गए प्रयासों में सुधा जी ने निरंतर अधिकाधिक सहयोग देकर उनका स्नेहाशीष पाया।
अधिवक्ता और विधिवेत्ता -
१३ अप्रैल १९७५ को महान हिंदी साहित्यकार, स्त्री अधिकारों की पहरुआ,महीयसी महादेवी जी लोकमाता महारानी दुर्गावती की संगमर्मरी प्रतिमा का अनावरण करने पधारीं। तब किसी मुस्लिम महिला पर अत्याचार का समाचार सामने आया था। महादेवी जी ने मिलने पहुँची सुधा जी से पूछा- "सुधा! वकील होकर तू महिलाओं के लिए क्या कर रही है?" महीयसी की बात मन में चुभ गयी। सुधा दीदी ने इलाहाबाद जाकर सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रिका मनोरमा के संपादक को प्रेरित कर महिला अधिकार स्तंभ आरंभ किया। शुरू में ४ अंकों में पत्र और उत्तर दोनों वे खुद ही लिखती रहीं। बाद में यह स्तंभ इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि रोज ही पत्रों का अंबार लगने लगा। यह स्तंभ १९८१ तक चला। विधिक प्रकरणों, पुस्तक लेखन तथा अन्य व्यस्तताओं के कारण इसे बंद किया गया। १९८६ से १९८८ तक दैनिक नवीन दुनिया के साप्ताहिक परिशिष्ट नारी निकुंज में "समाधान" शीर्षक से सुधा जी ने विधिक परामर्श दिया।
स्त्री अधिकार संरक्षक -
सामान्य महिलाओं को विधिक प्रावधानों के प्रति सजग करने के लिए सुधा जी ने मनोरमा, धर्मयुग, नूतन कहानियाँ, वामा, अवकाश, विधि साहित्य समाचार, दैनिक भास्कर आदि में बाल अपराध, किशोर न्यायालय, विवाह विच्छेद, स्त्री पुरुष संबंध, न्याय व्यवस्था, वैवाहिक विवाद, महिला भरण-पोषण अधिकार, धर्म परिवर्तन, नागरिक अधिरार और कर्तव्य, तलाक, मुस्लिम महिला अधिकार, समानता, भरण-पोषण अधिकार, पैतृक संपत्ति अधिकार, स्वार्जित संपत्ति अधिकार, विधिक सहायता, जीवनाधिकार, जनहित विवाद, न्याय प्रक्रिया, नागरिक अधिकार, मताधिकार, दुहरी अस्वीकृति, सहकारिता, महिला उत्पीड़न, मानवाधिकार, महिलाओं की वैधानिक स्थिति, उपभोक्ता संरक्षण, उपभोक्ता अधिकार आदि ज्वलंत विषयों पर शताधिक लेख लिखे। कई विषयों पर उन्होंने सबसे पहले लिखा।
विधिक लघुकथा लेखन-
१९८७ में सुधा जी ने म.प्र.राज्य संसाधन केंद्र (प्रौढ़ शिक्षा) इंदौर के लिए कार्यशालाओं का आयोजन कर नव साक्षर प्रौढ़ों के लिए न्याय का घर, भरण-पोषण कानून, अमन की राह पर, वैवाहिक सुखों के अधिकार, सौ हाथ सुहानी बात, माँ मरियम ने राह सुझाई, भूमि के अधिकार आदि पुस्तकों में विधिक लघुकथाओं के माध्यम से हिंदू, मुस्लिम, ईसाई कानूनों का प्राथमिक ग्यान दिया।
उपभोक्ता हित संरक्षण
१९८६ में उपभोक्ता हित संरक्षण कानून बनते ही सुधा जी ने इसका झंडा थाम लिया और १९९२ में "उपभोक्ता संरक्षण : एक अध्ययन" पुस्तक लिखी। भारत सरकार के नागरिक आपूर्ति और उपभोक्ता मामले मंत्रालय ने इसे पुरस्कृत किया।
मानवाधिकार संरक्षण
वर्ष १९९३ में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम बना। सुधा जी इसके अध्ययन में जुट गईं। भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद दिल्ली के सहयोग से शोध परियोजना "मानवाधिकार और महिला उत्पीड़न" पर कार्य कर २००१ में पुस्तकाकार में प्रकाशित कराया। इसके पूर्व म.प्र.हिंदी ग्रंथ अकादमी ने सुधा जी लिखित "मानवाधिकार'' ग्रंथ प्रकाशित किया।
विधिक लेखन
सुधा दीदी ने अपने जीवन का बहुमूल्य समय विधिक लेखन को देकर ११ पुस्तकों (भारत में महिलाओं की वैधानिक स्थिति, सोशियो लीगल अास्पेक्ट ऑन कन्ज्यूमरिज्म, उपभोक्ता संरक्षण एक अध्ययन, महिलाओं के प्रति अपराध, वीमेन इन इंडिया, मीनवाधिकार, महिला उत्पीड़न और मानवाधिकार, उपभोक्ता संरक्षण, भारत में मानवाधिकार की अवधारणा, मानवाधिरार और महिला शोषण, ह्यूमैनिटी एंड ह्यूमन राइट्स) का प्रणयन किया।
सशक्त व्यंग्यकार -
सुधा दीदी रचित वकील का खोपड़ा, दिमाग के पाँव तथा दिमाग में बकरा युद्ध तीन व्यंग्य संग्रह तथा ग़ज़ल-ए-सुधा (दीवान) ने सहृदयों से प्रशंसा पाई।
नर्मदा तट सनातन साधनास्थली है। सुधा दीदी ने आजीवन सृजन साधना कर हिंदी माँ के साहित्य कोष को समृद्ध किया है। दलीय राजनीति प्रधान व्यवस्था में उनके अवदान का सम्यक् मूल्यांकन नहीं हुआ। उन्होंने जो मापदंड स्थापित किए हैं, वे अपनी मिसाल आप हैं। सुधा जी जैसे व्यक्तित्व मरते नहीं, अमर हो जाते हैं। मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनका स्नेहाशीष और सराहना निरंतर मिलती रही।
८-३-२०२०
***
गीत
महिला दिवस
*
एक दिवस क्या
माँ ने हर पल, हर दिन
महिला दिवस मनाया।
*
अलस सवेरे उठी पिता सँग
स्नान-ध्यान कर भोग लगाया।
खुश लड्डू गोपाल हुए तो
चाय बनाकर, हमें उठाया।
चूड़ी खनकी, पायल बाजी
गरमागरम रोटियाँ फूली
खिला, आप खा, कंडे थापे
पड़ोसिनों में रंग जमाया।
विद्यालय से हम,
कार्यालय से
जब वापिस हुए पिताजी
माँ ने भोजन गरम कराया।
*
ज्वार-बाजरा-बिर्रा, मक्का
चाहे जो रोटी बनवा लो।
पापड़, बड़ी, अचार, मुरब्बा
माँ से जो चाहे डलवा लो।
कपड़े सिल दे, करे कढ़ाई,
बाटी-भर्ता, गुझिया, लड्डू
माँ के हाथों में अमृत था
पचता सब, जितना जी खा लो।
माथे पर
नित सूर्य सजाकर
अधरों पर
मृदु हास रचाया।
*
क्रोध पिता का, जिद बच्चों की
गटक हलाहल, देती अमृत।
विपदाओं में राहत होती
बीमारी में माँ थी राहत।
अन्नपूर्णा कम साधन में
ज्यादा काम साध लेती थी
चाहे जितने अतिथि पधारें
सबका स्वागत करती झटपट।
नर क्या,
ईश्वर को भी
माँ ने
सोंठ-हरीरा भोग लगाया।
*
आँचल-पल्लू कभी न ढलका
मेंहदी और महावर के सँग।
माँ के अधरों पर फबता था
बंगला पानों का कत्था रँग।
गली-मोहल्ले के हर घर में
बहुओं को मिलती थी शिक्षा
मैंनपुरी वाली से सीखो
तनक गिरस्थी के कुछ रँग-ढंग।
कर्तव्यों की
चिता जलाकर
अधिकारों को
नहीं भुनाया।
८-३-२०१७
***
श्रृंगार गीत
रहवासी
*
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
खनक-झनक सुनने के आदी
कान तुम्हारे बिन व्याकुल हैं।
''ए जी! ओ जी!!'' मंत्र-ऋचा बिन
कहा नहीं पर प्राण विकल हैं।
नाकाफी लगती है कॉफ़ी
फीके क्यों लगते गुड-शक्कर?
बिना काम क्यों शयन कक्ष के
लगा रहा चक्कर घनचक्कर?
खबर न रुचती, चर्चा नीरस
गीत अगीत हुए जाते हैं
बिन मुखड़ा हर एक अंतरा
लय-गति-रस
आधार खो रहा
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
डाले लेकिन गौरैया आ
बैठ मुँडेरे चुगे न दाना।
दरवाजे पर डाली रोटी
नहीं गाय का मगर ठिकाना।
बिना गुहारे चला गया है
भिक्षुक भी मुझको निराश कर
मन न हो रहा दफ्तर छोडूँ
जल्दी से जल्दी जाऊँ घर।
अधिकारी हो चकित पूछता
कहो, आज क्या घडी बंद है?
क्या बतलाऊँ उसे लघुकथा
का भूली है
कलम ककरहा
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
सब्जी नमक हलाल नहीं है
खाने लायक दाल नहीं है।
चाँवल की संसद में कंकर
दाँत कौन बेहाल नहीं है?
राम राज्य आना है शायद
बही दूध की नदी आज भी।
असल डूबना हुआ सुनिश्चित
हाथ न लगता कुफ़्र ब्याज भी।
अर्थशास्त्र फिकरे कसता है
हार गया रे गीतकार तू!
तेरे बस में नहीं रहा कुछ
क्यों पत्थर पर
फसल बो रहा?
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
८-३-२०१६
***
कविता महिला दिवस पर :
धरती
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता-संस्कृति को,
धरती जन्म देती है
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
८-३-२०११
***
मुक्तिका
*
भुज पाशों में कसता क्या है?
अंतर्मन में बसता क्या है?
*
जितना चाहा फेंक निकालूँ
उतना भीतर धँसता क्या है?
*
ऊपर से तो ठीक-ठाक है
भीतर-भीतर रिसता क्या है?
*
दिल ही दिल में रो लेता है.
फिर होठों से हँसता क्या है?
*
दाने हुए नसीब न जिनको
उनके घर में पिसता क्या है?
*
'सलिल' न पाई खलिश अगर तो
क्यों है मौन?, सिसकता क्या है?
८-३-२०१०
***

शुक्रवार, 7 मार्च 2025

मार्च ७, रामकिंकर, तारकेश्वर आयरलैंड, होली, जोगीरा, शिशु गीत, नवगीत,

सलिल सृजन मार्च ७
*
स्मरण युगतुलसी
मुक्तक
युगतुलसी की चरण शरण गह।
मानस मंथन कर सत्-शिव गह।।
सुंदरतम हो जीवन तब जब-
राम भगति पथ हनुमत सह गह।।
तुलसी प्रिय करुणानिधान को।
हुलसी सुत जीवन विधान को,
जोड़े रत्ना सह, वह तोड़े-
तब पाते हनुमत महान को।।
हुलसी शीघ्र न साथ छोड़ती,
रत्ना अगर न राह मोड़ती,
तुलसी युगतुलसी को कैसे-
राम भगति तब कहें मोहती।।
७.३.२०२४
•••
तारकेश्वर महादेव आयरलैंड
*
आयरलैंड में तारा हिल्स पर यह ४००० से अधिक वर्ष पुराना शिवलिंग स्थापित है। सनातन धर्म में तारा देवी को श्मशान की देवी कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन के समय भगवान शिव ने विषपान किया था, जिससे उनके शरीर में असहनीय हो रही थी। शिव जी की पीड़ा दूर करने के लिए माँ काली ने तारा देवी का रूप धरण कर भगवान शंकर को स्तनपान कराया, तब शिव जी को विष की जलन से मुक्ति मिली। माता तारा तंत्र की देवी मान्य हैं। तांत्रिक साधना करने वाले तारा माता के भक्त कहे जाते हैं। चैत्र मास की नवमी तिथि और शुक्ल पक्ष के दिन तारा देवी की तंत्र साधना करना सबसे ज्यादा फलकारी माना जाता है।
भगवान शिव की पत्नी माता सती राजा दक्ष की पुत्रीं थी। उनकी बहन थीं देवी तारा। महान देवी तारा नकी पूजा हिंदू और बौद्ध दोनों धर्मों में होती हैं। भव से तारनेवाली होने के कारण इन्हें तारा देवी कहा जाना जाता है। भारत में शिमला में तारा देवी का जंगल है।
प्राचीन काल में महर्षि वशिष्ठ ने देवी तारा उपासना कर सिद्धियां हासिल की थी। बीरभूम पश्चिम बंगाल में तांत्रिक पीठ तारापीठ सर्व मान्य है। देवी तारा के तीन नयन थे। ऐसा माना जाता है कि यहां देवी तारा के नयन गिरे थे, इसलिए इस स्थान को नयन तारा भी कहा जाता है।
तारा देवी का दूसरा सर्वाधिक प्रसिद्ध मंदिर हिमाचल की राजधानी शिमला से लगभग १३ किलोमीटर दूर शोधी में तारा पर्वत पर है। यहाँ हिंदुओं के साथ तिब्बती बौद्ध धर्म के लोग भी पूजा करतेते हैं। तारा देवी के तीन स्वरू तारा, एकजटा और नील सरस्वती है।
माघ नवरात्रि में दूसरे दिन दस महाविद्याओं की दूसरी विद्या माँ तारा की पूजा तंत्र शक्ति प्राप्ति के लिए की जाती है।
आयरलैंड में ईसाई पूर्व काल में यहाँ मूर्ति पूजक रहते थे। लगभग २५०० वर्ष पूर्व तक आयरलैंड के सभी राजाओं का राज्याभिषेक यहीं इन्हीं के आशीर्वाद से होता था। ५०० ए. डी. में यह परंपरा बंद कर दी गई। कुछ साल पहले आयरलैंड के रेडिकल समूह ने इसे क्षतिग्रस्त करने का प्रयास किया था। क्या वर्तमान भारत सरकार इस तीर्थ स्थान की सुरक्षा और विकास के लिए कुछ करेगी?
***
बोध कथा
*
पुत्र द्वारा बार बार गलती करने पर पिता ने सीख देने के लिए एक थप्पड़ लगा दिया। बाद में सोच कि व्यर्थ ही मार दिया, एक बार और समझाता तो शायद वह समझ जाता। बेटे के आहत मन को सहलाने के लिए पिता ने उसे 'सॉरी' कह दिया।
बेटे ने एक कागज उठाया और उसे तोड़-मरोड़कर फिर सीधा फ़ाइल दिया और बोला जैसे यह कागज पहले की तरह नहीं हो सकता, वैसे ही चोट खाए मन की पीड़ा 'सॉरी' से दूर नहीं होती।
पिता ने बेटे को बहुत दिनों से उपयोग न हुए स्कूटर की चाबी देकर उसे स्टार्ट करने को कहा। बेटे ने स्कूटर में कुछ किक लगाई, स्कूटर न चलने पर वापिस आ गया।
पिता ने चाबी वापिस लेकर लगातार कुछ किक लगाईं तो स्कूटर स्टार्ट हो गया। पिता ने कहा 'लातों के देव बातों से नहीं मानते, जैसा देव वैसी पूजा जरूरी होती है।
***
रंगों के दोहे -दोहों के रंग
*
जोगीरा सा रा रा रा
रंग रंग पर आ गया, अद्भुत नवल निखार।
प्रिय से एकाकार हो, खुद को रहा निहार।। जोगीरा सा रा रा रा
*
हुआ रंग में भंग जब, पड़ी भंग में रंग।
जोरा-जोरी हुई तो, मन के बजे मृदंग।। जोगीरा सा रा रा रा
*
फागुन में भूला 'सलिल', श्याम-गौर का द्वैत।
राधा-कान्हा यूँ मिले, ज्यों जीवित अद्वैत।। जोगीरा सा रा रा रा
*
श्याम-रंग ऐसा चढ़ा, देह न सके उतार।
गौर रंग मन में बसा, गेह आत्म उजियार।। जोगीरा सा रा रा रा
*
लल्ला में लावण्य है, लल्ली में लालित्य।
लीला लल्ला-लली की, लखे लाल आदित्य।। जोगीरा सा रा रा रा
*
प्रिये! लाल पीली न हो, रहना पीली लाल।
गुस्सा रखो न नाक पर, नाचो आ दे ताल।। जोगीरा सा रा रा रा
*
आस न अब बेरंग हो, श्वास न हो बदरंग।
प्यास न अब बाकी रहे, खेल खिलाओ रंग।। जोगीरा सा रा रा रा
*
रंग-रंग से रंग को, रंग रंग है पस्त।
रंग रंग से हार कर, जीत गया हो मस्त।। जोगीरा सा रा रा रा
७.३.२०२३
***
मुक्तिका
याद तुम्हारी
*
याद तुम्हारी नेह नर्मदा
आकर देती है प्रसन्नता
हर लेती है हर विपन्नता
याद तुम्हारी है अखण्डिता
सह न उपेक्षा हो प्रचंडिता
शुचिता है साकार वन्दिता
याद तुम्हारी आदि अमृता
युग युग पुजती हो समर्पिता
अभिनंदित हो आत्म अर्पिता
७-३-२०२०
***
शिशु गीत सलिला : २
*
११. पापा -१
पापा लाड़ लड़ाते खूब,
जाते हम खुशियों में डूब।
उन्हें बना लेता घोड़ा-
हँसती, देख बाग़ की दूब।।
*
१२. पापा -२
पापा चलना सिखलाते,
सारी दुनिया दिखलाते।
रोज बिठाकर कंधे पर-
सैर कराते मुस्काते।।
गलती हो जाए तो भी,
कभी नहीं खोना आपा।
सीख सुधारूँगा मैं ही-
गुस्सा मत होना पापा।।
*
१३. भैया - १
मेरा भैया प्यारा है,
सारे जग से न्यारा है।
बहुत प्यार करता मुझको-
आँखों का वह तारा है।।
*
१४ . भैया -२
नटखट चंचल मेरा भैया,
लेती हूँ हँस रोज बलैया।
दूध नहीं इसको भाता-
कहता पीना है चैया।।
*
१५. बहिन -१
बहिन गुणों की खान है,
वह प्रभु का वरदान है।
अनगिन खुशियाँ देती है-
वह हम सबकी जान है।।
*
१६. बहिन -२
बहिन बहुत ही प्यारी है,
सब बच्चों से न्यारी है।
हँसती तो ऐसा लगता-
महक रही फुलवारी है।।
*
१७. घर
पापा सूरज, माँ चंदा,
ध्यान सभी का धरते हैं।
मैं तारा, चाँदनी बहिन-
घर में जगमग करते हैं।।
*
१८. बब्बा
बब्बा ले जाते बाज़ार,
दिलवाते टॉफी दो-चार।
पैसे नगद दिया करते-
कुछ भी लेते नहीं उधार।।
मम्मी-पापा डांटें तो
उन्हें लगा देते फटकार।
जैसे ही मैं रोता हूँ,
गोद उठा लेते पुचकार।।
*
१९. दादी-१
दादी बनी सहेली हैं,
मेरे संग-संग खेली हैं।
उनके बिना अकेली मैं-
मुझ बिन निपट अकेली हैं।।
*
२०. दादी-
राम नाम जपतीं दादी,
रहती हैं बिलकुल सादी।
दूध पिलाती-पीती हैं-
खूब सुहाती है खादी।।
गोदी में लेतीं, लगतीं -
रेशम की कोमल गादी।
मुझको शहजादा कहतीं,
बहिना उनकी शहजादी।।
***
नवगीत-
आज़ादी
*
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
किसी चिकित्सा-ग्रंथ में
वर्णित नहीं निदान
सत्तर बरसों में बढ़ा
अब आफत में जान
बदपरहेजी सभाएँ,
भाषण और जुलूस-
धर्महीनता से जला
देशभक्ति का फूस
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
देश-प्रेम की नब्ज़ है
धीमी करिए तेज
देशद्रोह की रीढ़ ने
दिया जेल में भेज
कोर्ट दंड दे सर्जरी
करती, हो आरोग्य
वरना रोगी बचेगा
बस मसान के योग्य
वैचारिक स्वातंत्र्य
स्वार्थ हितकर नाटक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात त्राटक है
*
मुँदी आँख कैसे सके
सहनशीलता देख?
सत्ता खातिर लिख रहे
आरोपी आलेख
हिंदी-हिन्दू विरोधी
केर-बेर का संग
नेह-नर्मदा में रहे
मिला द्वेष की भंग
एक लक्ष्य असफल करना
इनका नाटक है
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
६.३.२०१६
***
नवगीत :
चूहा झाँक रहा हंडी में...
*
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
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मेहनतकश के हाथ हमेशा
रहते हैं क्यों खाली-खाली?
मोती तोंदों के महलों में-
क्यों बसंत लाता खुशहाली?
ऊँची कुर्सीवाले पाते
अपने मुँह में सदा बताशा.
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
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भरी तिजोरी फिर भी भूखे
वैभवशाली आश्रमवाल.
मुँह में राम बगल में छूरी
धवल वसन, अंतर्मन काले.
करा रहा या 'सलिल' कर रहा
ऊपरवाला मुफ्त तमाशा?
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
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अँधियारे से सूरज उगता,
सूरज दे जाता अँधियारा.
गीत बुन रहे हैं सन्नाटा,
सन्नाटा निज स्वर में गाता.
ऊँच-नीच में पलता नाता
तोल तराजू तोला-माशा.
चूहा झाँक रहा हंडी में,
लेकिन पाई सिर्फ हताशा...
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गुरुवार, 6 मार्च 2025

दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२५


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विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२५
सूचना
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प्रतिवर्षानुसार वर्ष २०२५ में भी  गत ५ वर्षों (२०२१ से २०२५) में हिंदी में लिखित/अनुवादित श्रेष्ठ चयऩित पुस्तकों पर नगद राशि व अलंकरण पत्र प्रदान किए जाएँगे। अलंकरणों हेतु गत ५ वर्षों में प्रकाशित पुस्तक की २ प्रतियाँ, लेखक का चित्र, संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्म तारीख माह वर्ष, माता-पिता / पति-पत्नी के नाम, शिक्षा, संप्रति, प्रकाशित एकल पुस्तकों के नाम, डाक का पता, चलभाष/वाट्स एप, ईमेल) आदि संस्था कार्यालय ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ के पते पर तथा सहभागिता निधि ३००/- (वाट्स ऐप ९४२५१८३२४४ पर) आमंत्रित है। कृपया, पूर्व में प्राप्त सम्मानों /पुरस्कारों/प्रमाण पत्रों, साझा संकलनों आदि की सूची न भेजें। 
 
विधाएँ- यांत्रिकी, चिकित्सा, तकनीक, गद्य (उपन्यास, कहानी, समीक्षा, दर्शन, निबंध, नाटक/एकांकी/प्रहसन, व्यंग्य लेख, लघुकथा, संस्मरण, रेखाचित्र, जीवनी, आत्मकथा, यात्रावृत्त, गद्य गीत, रिपोर्ताज, दैनंदिनी/डायरी, भेंटवार्ता, पत्र साहित्य, संपादन, बालकथा, लोककथा, धार्मिक कथा, अनुवाद, संग्रह आदि) पद्य (महाकाव्य, खण्ड/प्रबंध काव्य, मुक्तक, गीत, गजल, सवैया, घनाक्षरी, जापानी छंद, सॉनेट, छंदशास्त्र, तुकान्त, अतुकान्त, बाल गीत, लोकगीत, अनुवाद संग्रह आदि)। अंतिम तिथि ३० जून २०२५। १,०००/- नगद व हिंदी रत्न अलंकरण (३) श्रेष्ठ चयनित पुस्तकों पर, ५,०००/- नगद व हिंदी गौरव अलंकरण ७ कृतियों पर, २०००/- नगद व हिंदी भूषण अलंकरण १० कृतियों पर, १०००/- नगद व हिंदी श्री अलंकरण २० कृतियों पर प्रदान किए जाएँगे। अलंकरणों की संख्या परिवर्तनीय  है। किसी वर्ग में न्यूनतम ५  प्रविष्टियाँ प्राप्त न होने पर उसे अन्य वर्ग के साथ जोड़ दिया जाएगा। 
अलंकरण समारोह में व्यक्तिगत उपस्थिति न होने पर नगद राशि नहीं दी जाएगी। प्राप्त पुस्तकों का अध्ययन कर निर्णायक मण्डल द्वारा सर्वसम्मत चयन कर परिणाम घोषित किए जाएँगे। किसी प्रकार की पैरवी/सिफारिश/श्रेष्ठता का दावा आदि करने पर प्रविष्टि निरस्त मानी जाएगी। सहभागिता निधि या पुस्तकें वापिस नहीं की जाएँगी। उक्त के अतिरिक्त उल्लेखनीय अवदान / उत्तम लेखन हेतु  प्रतिभार्चन  ५०००/- मूल्य का साहित्य व प्रमाणपत्र भेंट कर सम्मानित किया जाएगा। 
शांतिराज पुस्तकालय 
शिक्षा संस्थाओं/ ग्राम पंचायतों को २५,०००/- की पुस्तकें निशुल्क प्रदान की जाएँगी। इस हेतु संस्था में वाचनालय, अलमारी तथा पुस्तकें देने-लेने हेतु व्यवस्था होना, उक्त अनुसार आवेदन तथा पुस्तकें प्राप्त करने हेतु संस्था के प्रतिनिधि की उपस्थिति आवश्यक है।    
अलंकरण स्थापना 
अलंकरण स्थापित करने के लिए प्रदाताओं से प्रस्ताव आमंत्रित हैं। इस हेतु अलंकरण दाता का नाम, चित्र, संक्षिप्त परिचय, राशि, पूज्य/प्रियजन का चित्र, संक्षिप्त परिचय, वार्षिक सदस्यता निधि ११००/- + अलंकरण राशि आदि उक्त अनुसार आमंत्रित है।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल, सभापति
बसंत शर्मा, अध्यक्ष 
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प्राप्तियाँ 
गद्य 
०१. डॉ. रानी श्रीवास्तव,  १.७.१९५८, ६०१ ग्रैंड तौर, मैप्सको रॉयल विले, सेक्टर ८२, गुड़गाँव हरियाणा। ९९३४८३७७९३, dr.rani.srivastava@gmail.com . यूपीआई आई डी ४३३९४८२२०९११/ ४.१२.२०२४  रु. ३००/-,   
ज्योति जिंदा है तथा अन्य कहानियाँ, कहानी संग्रह, आईएसबीएन ९७८-९३-९५५१८-८१-९, २०२४, २००/-, सर्वभाषा ट्रस्ट नई दिल्ली ८१७८६९५६०६, ९२०५४६१३८७ ।   
  
पद्य 
०१. डॉ. रानी श्रीवास्तव,  १.७.१९५८, ६०१ ग्रैंड तौर, मैप्सको रॉयल विले, सेक्टर ८२, गुड़गाँव हरियाणा। ९९३४८३७७९३, dr.rani.srivastava@gmail.com . यूपीआई आई डी ४३३९४५६०१७७० / ४.१२.२०२४ रु. ३००/-,
अनहद के बीच, काव्य संग्रह, आईएसबीएन ९७८-८१-९५१०९७-४-६, २०२१, ३००/-, अनन्य प्रकाशन दिल्ली ०११- २२८२५६०६ / २२८२४६०६  ।
०२. इं. राजेश अरोरा 'शलभ' लखनऊ, हास्य कार-नाम, चुनाव चक्रम, कहीं धूप कहीं छाँव। 
०३. कालीदास ताम्रकार जबलपुर- तीसरी आँख 
०४. रचना उनियाल बेंगलुरु- संकल्प की धूप