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शनिवार, 6 अप्रैल 2024

अप्रैल ६ , सोरठा, सॉनेट, दोहा गजल, हाइकु गजल, Saraswati Prayer, शिव, लघुकथा, नवगीत

सलिल सृजन अप्रैल ६

*
सोरठा सलिला
बही रसों की धार, कवियों की महफ़िल जमी।
कविता का श्रृंगार, अलंकार लालित्यमय।।
सुमिरे जिसको रोज, रैन रहे बेचैन मन।
कभी हमारी खोज, चैन गँवा वह भी करे।।
बंदी कर चितचोर, आँख रैन जगती रहे।
जा न सके बरजोर, बंदी ले बंदी बना।।
नित सुधियों का कोष, रैन सहेजे मौन रह।
जब कर ले संतोष, शाहों की शाह तब।।
पाकर कंत बसंत, रैन महकती चहकती।
पालें चाह अनंत, नैन कथा कह अनकही।।
६-४-२०१३
•••
सॉनेट
तन-मन
तन में मन है, सुमन सुरभि सम।
माटी हो जाता, तन बिन मन।
लचक अधिक रख नाहक मत तन।।
खुश रह, खुश रख, मिट जाए गम।।
तन्मय मन हो, हो मन्मय तन।
चादर बुनकर ओढ़, स्वच्छ रख।
प्रभुको दे आखिर में फल चख।।
ज्यों की त्यों धर सके कर जतन।।
अनगिन जन फिर भी जग निर्जन।
इकतारा बन बज तुन तिन तिन।
तान न ढीला छोड़, कर जतन।।
कर धन संचय, हो मत निर्धन।
जोड़ बावरे! हँस मन से मन।
एक-नेक, दो रहें न तन-मन।।
६-४-२०२२
•••
***
दोहा मुक्तिका
ताल दे लता याद वह, आ ले बाँहें थाम
लाडो कह कह लिपटता, अपना बन बेदाम
*
अश्क बहा मत रोक ले, हो अशोक भूधाम
सुधा बरस हर श्वास में, रहे कृष्ण का नाम
*
रेखा खींच सरोज की, बीच सलिल ले नाम
मन मंदिर में शारदा, लख आए घनश्याम
*
तुलसी जब तुल सी गई, कैक्टस जा ब्रजधाम
कुंज करीब मिटा रहा, घायल गोप गुलाम
***
एक दोहा
करे जीव संजीव वह, करे वही निष्प्राण
माटी से मूर्त गढ़े, कर चेतन संप्राण
६-४-२०२१
दोहा-दोहा खेलिए
नियम
१. आखिरी दोहे के अंतिम शब्द/अक्षर से अगला दोहा आरंभ करें।
२. दोहा खुद का लिखा न हो तो दोहे के साथ दोहाकार का नाम अवश्य दें।
३. किसी अन्य के दोहे पर टीका-टिप्पणी न करें।
४. दोहे के कथ्य की पूरी जवाबदारी प्रस्तुतकर्ता की होगी।
५. प्रबंधक का आदेश / निर्णय सब पर बंधनकारी होगा।
६. एक शब्द या अक्षर पर एक से अधिक दोहे आने पर जो दोहा सबसे पहले आया हो, उसे आधार मानकर आगे बढ़ा जाए।
७. बीच के किसी दोहे पर टिप्पणी या उससे जुड़ा दोहा, मूल दोहे के साथ ही जवाब में दें ताकि संदर्भ सहित पढ़ा जा सके।
*
सदय रहें माँ शारदा, ऋिद्धि सिद्धि गणराज
हिंदी के सिर सज सके, जगवाणी का ताज
अगला दोहा ज से आरंभ करें
*
समय बिताने के लिए यह एक रोचक क्रीड़ा है। इसमें कितने भी प्रतिभागी भाग ले सकते हैं। आरंभक एक दोहा प्रस्तुत करे जिसका प्रथम चरण गुरु लघु से आरम्भ हो। दोहे के अंतिम शब्द से आरंभ कर अगला प्रतिभागी दोहा प्रस्तुत करे। यह क्रम चलता रहेगा। खेल के दो प्रकार हैं - १. प्रतिभागियों का क्रम तय हो, जिसकी बारी हो वही दोहा प्रस्तुत करे। २. क्रम अनिश्चित हो, जो पहले दोहा बना ले प्रस्तुत कर दे। किसी दोहे के अंत में पहले दोहे का पहला शब्द आने पर खेल ख़त्म हो जाएगा। इसे निरंतर कई दिनों तक खेला जा सकता है।
उदाहरण
दोहा-सलिला
बोल रहे सब सगा पर, सगा न पाया एक
हैं अनेक पर एक भी, मिला न अब तक नेक
नेक नेकियत है कहाँ, खोज खोज हैरान
अपने भीतर झाँक ले, बोल पड़ा मतिमान
मान न मान मगर करे, मन ही मन तू गान
मौन न रह पाए भले, मन में ले तू ठान
ठान अगर ले छू सके, हाथों से आकाश
पैर जमकर धरा पर, तोड़ मोह का पाश
पाश न कोई है जिसे, मनुज न सकता खोल
कर ले दृढ़ संकल्प यदि, मन ही मन में बोल
६-४-२०२०
***

Saraswati Prayer

Acharya Sanjiv Verma 'Salil'

*

O the Origin of Knowledge, Art and wisdom.
We welcome, bless us, please do come.

ज्ञान कला मति की उद्गम हे!
स्वागत दो आशीष हमें आ।

You are the root of love and affection.
You are the key of all creative action.

तुम्हीं मूल हो स्नेह-प्यार की
कुंजी हो तुम सृजन कार्य की।

O lotus eyed, lotus faced, lotus seated mother.
Inspire us all to live joyfully with each other.

हे कमलाक्षी! पद्ममुखी!, कमलासनी मैया
प्रेरित कर सानंद रह सकें साथ-साथ हम।

We worship your divinity, bow our heads.
O Mother! help us to keep high heads.

हम पूजें दिव्यता तुम्हारी, शीश नवाए
हे माँ! रहो सहायक; हों हम शीश उठाए।

Fill our hearts with all good feelings.
Let us be honest in all our dealings.

भरो हमारे ह्रदयों में भावना मधुर माँ।
हम हों निष्ठावान सभी अपने कार्यों में।
***
शिव परमात्मा !
* शिव निराकार है, ज्योतिर्लिंगम् अर्थात ज्योति पुंज हैं।
* शिव सूक्ष्म से सूक्ष्म हैं, हर किसी की आत्मा में उनका निवास है।
* शिव-मंदिरों में विराजित अंडाकार लिंग ब्रह्माण्ड का प्रतीक है जिसके अंदर सकल सृष्टि समायी है।
* शिव का नाम बिना लिए गीता में कहा गया है कि वह (परमात्मा) सूक्ष्म से अधिक सूक्ष्म, विशाल से अधिक विशाल हैं।
* शिव का एकाक्षरी नाम ॐ कभी समाप्त नहीं होगा, इसमें समस्त स्वरों का संगम है. पृथ्वी या अन्य ग्रहों के घूर्णन से जो ध्वन्यात्मक नाद उत्पन्न होता है वो ॐ है। सूर्य से निसृत धावनि तरंगों का रेखांकन करने पर वैज्ञानिकों को ॐ की तरह आकृति मिली है।
* शिव (ॐ) परमेश्वर सकल सृष्टि के अध्यात्म का केंद्र बिंदु है, सर्वज्ञ OMNICIEN , सर्वशक्तिशाली OMNIPOTENT,
सर्व व्यापी OMNIPRESEN, प्रभु की ख़ुशी OMEGA , भोला OMAR आदि शब्द ॐ की विश्व व्यापकता बताते हैं।
* सिख धर्म कहता है- एक ओंकार ही सत्य है
एको जपो एको सालाहि। एको सिमरि एको मन आहि॥
ऐकस के गन गाऊ अनंत। मनि तनि जापि एक भगवंत।।
जैन धर्म का महामंत्र कहता है -"ओमणमो " उस निराकार ओम को नमन।
* मक्का में मुसलमान संगे अस्वद की उसी प्रकार परिक्रमा करते हैं जैसे हम शिव की करते हैं।
* ॐ को ९० अंश घड़ी की दिशा में घुमाने पर इसको अल्लाह भी पढ़ा जा सकता है।
* शिव अर्थात ॐ निराकार परमात्मा ही सत्य है। इस सत्य को मानने से पूरी मानवजाति ईश्वर के नाम पर एक होगी, यही सत्य पूरी मानव जाति को एक करने की शक्ति रखता है।
* ऋग्वेद के अनुसार ॐ ही "देवनामधा" अर्थात समस्त देवताओं के नाम को धारण करते हैं। एक परमात्मा ही समस्त देवताओं फरिश्तों की शक्तियों को धारण करते हैं।
* शिव निराकार परमात्मा है, निराकार ब्रह्म हैं। साकार ब्रह्म के रूप में शिव ही ब्रह्मा-विष्णु-शंकर आदि हैं।
* विश्व शांति का सूत्र है "सत्य शिवम सुंदरम्"
६.४.२०१९
***
चार लघुकथाएँ
१. एकलव्य
*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
२. खाँसी
*
कभी माँ खाँसती, कभी पिता. उसकी नींद टूट जाती, फिर घंटों न आती। सोचता काश, खाँसी बंद हो जाए तो चैन की नींद ले पाए।
पहले माँ, कुछ माह पश्चात पिता चल बसे। उसने इसकी कल्पना भी न की थी.
अब करवटें बदलते हुए रात बीत जाती है, माँ-पिता के बिना सूनापन असहनीय हो जाता है। जब-तब लगता है अब माँ खाँसी, अब पिता जी खाँसे।
तब खाँसी सुनकर नींद नहीं आती थी, अब नींद नहीं आती है कि सुनाई दे खाँसी।
***
३. साँसों का कैदी
*
जब पहली बार डायलिसिस हुआ था तो समाचार मिलते ही देश में तहलका मच गया था। अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति और अनगिनत जनता अहर्निश चिकित्सालय परिसर में एकत्र रहते, डॉक्टर और अधिकारी खबरचियों और जिज्ञासुओं को उत्तर देते-देते हलाकान हो गए थे।
गज़ब तो तब हुआ जब प्रधान मंत्री ने संसद में उनके देहावसान की खबर दे दी, जबकि वे मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे। वस्तुस्थिति जानते ही अस्पताल में उमड़ती भीड़ और जनाक्रोश सम्हालना कठिन हो गया। प्रशासन को अपनी भूल विदित हुई तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे हो गए। गनीमत हुई कि उनके एक अनुयायी जो स्वयं भी प्रभावी नेता थे, वहां उपस्थित थे, उन्होंने तत्काल स्थिति को सम्हाला, प्रधान मंत्री से बात की, संसद में गलत सूचना हेतु प्रधानमंत्री ने क्षमायाचना की।
धीरे-धीरे संकट टला.… आंशिक स्वास्थ्य लाभ होते ही वे फिर सक्रिय हो गए, सम्पूर्ण क्रांति और जनकल्याण के कार्यों में। बार-बार डायलिसिस की पीड़ा सहता तन शिथिल होता गया पर उनकी अदम्य जिजीविषा उन्हें सक्रिय किये रही। तन बाधक बनता पर मन कहता मैं नहीं हो सकता साँसों का कैदी।
***
४. गुरु जी
*
मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है, क्या आप मुझे शिष्य बना नहीं सिखायेंगे?
बार-बार अनुरोध होने पर न स्वीकारने की अशिष्टता से बचने के लिए सहमति दे दी। रचनाओं की प्रशंसा, विधा के विधान आदि की जानकारी लेने तक तो सब कुछ ठीक रहा।
एक दिन रचनाओं में कुछ त्रुटियाँ इंगित करने पर उत्तर मिला- 'खुद को क्या समझते हैं? हिम्मत कैसे की रचनाओं में गलतियाँ निकालने की? मुझे इतने पुरस्कार मिल चुके हैं। फेस बुक पर जो भी लिखती हूँ सैंकड़ों लाइक मिलते हैं। मेरी लिखे में गलती हो ही नहीं सकती। आइंदा ऐसा किया तो...'
आगे पढ़ने में समय ख़राब करने के स्थान पर शिष्या को ब्लोक कर चैन की सांस लेते कान पकड़े कि अब नहीं बनेंगे किसी के गुरु। ऐसों को गुरु नहीं गुरुघंटाल ही मिलने चाहिए।
***
त्वरित प्रतिक्रिया
कृष्ण-मृग हत्याकांड
*
मुग्ध हुई वे हिरन पर, किया न मति ने काम।
हरण हुआ बंदी रहीं, कहा विधाता वाम ।।
*
मुग्ध हुए ये हिरन पर, मिले गोश्त का स्वाद।
सजा हुई बंदी बने, क्यों करते फ़रियाद?
*
देर हुई है अत्यधिक, नहीं हुआ अंधेर।
सल्लू भैया सुधरिए, अब न कीजिए देर।।
*
हिरणों की हत्या करी, चला न कोई दाँव।
सजा मिली तो टिक नहीं, रहे जमीं पर पाँव।।
*
नर-हत्या से बचे पर, मृग-हत्या का दोष।
नहीं छिप सका भर गया, पापों का घट-कोष।।
*
आहों का होता असर, आज हुआ फिर सिद्ध।
औरों की परवा करें, नर हो बनें न गिद्ध।।
*
हीरो-हीरोइन नहीं, ख़ास नागरिक आम।
सजा सख्त हो तो मिले, सबक भोग अंजाम ।।
*
अब तक बचते रहे पर, न्याय हुआ इस बार।
जो छूटे उन पर करे, ऊँची कोर्ट विचार।।
*
फिर अपील हो सभी को, सख्त मिल सके दंड।
लाभ न दें संदेह का, तब सुधरेंगे बंड।।
*
न्यायपालिका से विनय करें न इतनी देर।
आम आदमी को लगे, होता है अंधेर।।
*
सरकारें जागें न दें, सुविधा कोई विशेष।
जेल जेल जैसी रहे, तनहा समय अशेष।।
६.४.२०१८
***
एक गीत-
अपने सपने कहाँ खो गये?
*
तुमने देखे,
मैंने देखे,
हमने देखे।
मिल प्रयास कर
कभी रुदन कर
कभी हास कर।
जाने-अनजाने, मन ही मन, चुप रह लेखे।
परती धरती में भी
आशा बीज बो गये।
*
तुमने खोया,
मैंने खोया ,
हमने खोया।
कभी मिलन का,
कभी विरह का,
कभी सुलह का।
धूप-छाँव में, नगर-गाँव में पाया मौक़ा।
अंकुर-पल्लव ऊगे
बढ़कर वृक्ष हो गये।
*
तुमने पाया,
मैंने पाया,
हमने पाया।
एक दूजे में,
एक दूजे कोको,
गले लगाया।
हर बाधा-संकट को, जीता साथ-साथ रह।
पुष्पित-फलित हुए तो
हम ही विवश हो गये।
***
हाइकु मुक्तिका-
नव दुर्गा का, हर नव दिन हो, मंगलकारी
नेह नर्मदा, जन-मन रंजक, संकटहारी
मैं-तू रहें न, दो मिल-जुलक,र एक हो सकें
सुविचारों के, सुमन सुवासित, जीवन-क्यारी
गले लगाये, दिल को दिल खिल, गीत सुनाये
हों शरारतें, नटखटपन मन,-रञ्जनकारी
भारतवासी, सकल विश्व पर, प्यार लुटाते
संत-विरागी, सत-शिव-सुंदर, छटा निहारी
भाग्य-विधाता, लगन-परिश्रम, साथ हमारे
स्वेद बहाया, लगन लगाकर, दशा सुधारी
पंचतत्व का, तन मन-मंदिर, कर्म धर्म है
सत्य साधना, 'सलिल' करे बन, मौन पुजारी
(वार्णिक हाइकु छन्द ५-७-५)
६.४.२०१६
***
नवगीत:
.
मत बंदी नवगीत को करो
.
आम आदमी समझ न पाए
ऐसे शब्द न जन को भाये.
सरल-सहज भाषा-शैली हो
अलंकार मन-चित्त रमाये.
बिम्ब-प्रतीक यथा आवश्यक,
लय-रस-छंद साधना दुष्कर
जिन्हें न साध्य हो सका संयम
औरों को अक्षम बतलाये.
कानी अपनी टेंट न देखे
रहे और पर दृष्टि गड़ाये.
दम्भ कुएँ का मेंढक पाले
जहँ-तहँ कूद छलांग लगाये
मत 'जड़ है', नवगीत को कहो
.
बहता पानी रहे निर्मला
जो रुकता वह सड़ता जाए.
पाँच दशक पहले की भाषा
कैद न नवगीतों को भाये.
स्वागत रचनाकार नए का
अदा पुरानी मत दुहराये.
अपना कथ्य भाव अनुभूति
निज शब्दों-शैली में गाये.
शिशु घुटनों-बल चलना सीखे
ऊँची कूद न उसको भाये.
लंबी कूद लगानेवाले
गिरी-शिखरों पर कब चढ़ पाये.
निज मुँह मिट्ठू आप मत बनो
.
दावा मठाधीश होने का
बार-बार नाहक दोहराये.
व्यर्थ श्रेष्ठता- नवोदितों की
भूल न यदि मिल ठीक कराये.
तुकबन्दी अपने गीतों में
रख, औरों को हीन बताये
ऐसे दोहरे आचरणों को
नवता का प्रतिमान बनाये
फल तजकर नवगीत, गजल की
जय-जय नयी कलम नित गाये
गजलकार को गीतकार का
पुरस्कार-सम्मान दिलाये
नवगीतों में नवता से इंकार मत करो
६.४.२०१५
...
एक दोहा
सगा कह रहे सब मगर, सगा न पाया एक
हैं अनेक पर एक भी, अब तक मिल न नेक
६.४.२०१०

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

अप्रैल ५, रामकिंकर, खुसरो, लघुकथा, दोहा यमक, माखन लाल, ममता शर्मा, शिरीष,

सलिल सृजन अप्रैल ५
*
स्मरण युग तुलसी
युगतुलसी की गहो विरासत,
कर शिव-प्रीति, उमा पग वंदन,
वर जीवन-पथ सत्-सुंदर नित,
राम नाम हो माथे चंदन।
युगतुलसी हैं श्रद्धा अविचल,
सिया-राम-हनुमंत उपासक,
नेह नर्मदा प्रवहित अविरल,
सर-सरयू निर्मलता साधक।
युगतुलसी विश्वास अखंडित,
एक साधते, सब सध जाते,
गुरु-प्रभु को कर महिमा मंडित,
पल-पल राम नाम गुंजाते।
युगतुलसी सम करें आचरण,
सिया-राम को सुमिरें हर क्षण।।
५.४.२०२४
•••
आज की रचना
जागो माँ
*
जागो माँ! जागो माँ!!
*
सीमा पर अरिदल ने भारत को घेरा है
सत्ता पर स्वार्थों ने जमा लिया डेरा है
जनमत की अनदेखी, चिंतन पर पहरा है
भक्तों ने गाली का पढ़ लिया ककहरा है
सैनिक का खून अब न बहे मौन त्यागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
जनगण है दीन-हीन, रोटी के लाले हैं
चिड़ियों की रखवाली, बाज मिल सम्हाले हैं
नेता के वसन श्वेत, अंतर्मन काले हैं
सेठों के स्वार्थ भ्रष्ट तंत्र के हवाले हैं
रिश्वत-मँहगाई पर ब्रम्ह अस्त्र दागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
जन जैसे प्रतिनिधि को औसत ही वेतन हो
मेहनत का मोल मिले, खुश मजूर का मन हो
नेता-अफसर सुत के हाथों में भी गन हो
मेहनत कर सेठ पले, जन नायक सज्जन हो
राजनीति नैतिकता एक साथ पागो माँ
*
सीमा पर अरिदल ने भारत को घेरा है
सत्ता पर स्वार्थों ने जमा लिया डेरा है
जनमत की अनदेखी, चिंतन पर पहरा है
भक्तों ने गाली का पढ़ लिया ककहरा है
सैनिक का खून अब न बहे मौन त्यागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
नवसंवत्सर, ५.४.२०१९
***
नवगीत
.
पूज रहे हैं
मूरत
कहते चित्र गुप्त है
.
है आराध्य हमारा जो
वह है अविनाशी
कहते फिर बतलाते कैसा
मनुज विनाशी
पैदा हुआ-मरा कैसे-कब
कहाँ? कह रहे
झगड़े-झंझट खड़े कर रहे
काबा-काशी
शिव वैरागी को अर्पित
करते हैं राशी
कहते कंकर-कंकर शंकर
छिपा-सुप्त है.
.
तुमने उसे बनाया या
वह तुम्हें बनाता?
तुम आते-जाते हो या
वह आता-जाता?
गढ़ते-मढ़ते, तोड़-फाड़ते
बिना विचारे
देख हमारी करनी वह
छिप-छिप मुस्काता
कैसा है यह बुद्धिमान
जो आप ठगाता?
मैंने दिया विवेक, कहाँ वह
हुआ लुप्त है?
५.४.२०१४
...
कार्यशाला काव्यानुवाद  
ग़ज़ल - अमीर खुसरो  
*
काफ़िरे-इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नीस्त
हर रगे मन तार गश्ता हाजते जुन्नार नीस्त
अज़ सरे बालिने मन बर खेज ऐ नादाँ तबीब
दर्द मन्द इश्क़ रा दारो- बख़ैर दीदार नीस्त
मा व इश्क़ यार,अगर पर किब्ला ,गर दर बुतकदा
आशिकान दोस्त रा बक़ुफ़्रो- इमां कार नीस्त
ख़ल्क़ मी गोयद के खुसरो बुत परस्ती मी कुनद
आरे -आरे मी कुनम बा ख़लको-दुनिया कार नीस्त।
*
भावानुवाद 
नास्तिक हूँ मैं प्रेम पूजता, नहीं चाहिए मुझे सुमिरनी 
नस नस तार बन गई मेरी, नहीं जरूरत है जनेऊ की 
मेरे सिरहाने से उठ जा, अब तो ऐ नादां हकीम तू 
प्रेम-रोग जिसको इलाज है, उसका केवल प्रिय-दर्शन ही 
चाह प्रेम प्रेमी की केवल, काबा हो या हो देवालय 
काम प्रेमिका से है केवल,कुफ़्र और ईमान से नहीं
कहती है तो कह ले दुनिया, खसरो करता मूरत-पूजन  
हाँ हाँ मूरत पूज रहा मैं, परवा नहीं मुझे दुनिया की  
५.४.२०१४ 
***
दोहा
डैड रहें रिच या पुअर, तनिक न पड़ता फर्क।
योग्य बनो आगे बढ़ो, छोड़ी तर्क-वितर्क।।
५-४-२०२३
***
लघुकथा:
अकल के अंधे
*
२ अप्रैल २०२० एक सामान्य दिन और तारीख, बिलकुल अन्य दिनों की तरह।
पोंगा पंडित को बहुत दिनों से अपने लोगों द्वारा अनदेखा किया जा रहा था। चर्चा में न बने रहना उनका शगल तो था ही, राजनीति में बने रहने के लिए चर्चित होना भी जरूरी था। क्या करें कि नाम चर्चा में आ जाए। कुछ सूझ ही नहीं रहा था, तभी प्रधान मंत्री जी ने ५ अप्रैल को रात ९ बजे ९ मिनिट के लिए बिजली बंद कर बालकनी या दरवाजे पर दिया. मोमबत्ती, लालटेन आदि जलाने की अपील जनता जनार्दन से की।
उन्हें लगा यही मौका है, इसे तुरन्त भुनाना चाहिए पर कैसे?
संयोगवश ५ और ४ का योग ९ होने पर उनका ध्यान गया। दिमाग पर जोर दिया तारीख और माह का योग ९, समय ९ बजे, दिया जलने की अवधि ९ मिनिट, बचपन में शिक्षक द्वारा बताये गए ९ के पहाड़े की विशेषताएं याद हो आईं। पोंगा पंडित मुस्कुराये चलो. काम बन गया। तुरंत एक लेख बनाया। महान पंडितों की गणना के आधार पर घोषणा, ९ पूर्णता का प्रतीक...
रात नौ बजे ९ मिनिट ९ x ९ = ८१ = ८ + १ = ९
माह और तारीख का योग ४ + ५ + ९
तीनों को जोड़ें ९ + ९ + ९ = २७ = २ + ७ = ९
तीनों का गुणा करें ९ x ९ x ९ = ७२९ = ७ + २ + ९ = १ + ८ = ९
महापूर्ण योग , महा मंगलकारी, किस राशि पर कैसा प्रभाव? जानने के लिए संपर्क करें और अपना चलभाष क्रमांक, फीस और एटीएम नंबर दे दिया।
अपने अलग-अलग नंबरों से कई वॉट्सऐप समूहों, फेसबुक पटलों, आदि में डालने में जुट गए।
'निठल्लों की तरह क्या मोबाइल से चिपके हो, कुछ करते क्यों नहीं? चलो झाड़ू ही लगा लो, मैं तब तक बर्तन माँज लूँ। नहीं तो चाय-वाय कुछ नहीं मिलेगी' पंडिताइन ने घुड़की दी।
पंडित जी ने सोचा इसे खुश कर दूँ तो दिन भर चैन रहेगा, सो बोले 'डार्लिंग! देखो तो कितनी बढ़िया गणना की है अब चारों तरफ चर्चा तो होगी ही, कुंडली मिलवाने वालों से कमाई भी हो जाएगी। पंडितानी पंडित जी से ज्यादा पढ़ी-लिखी थीं, तुरंत बोलीं "ये क्या आधा-अधूरा गया बघारते हो? वर्ष २०२० का क्या हुआ? मुहूर्त की बात करते हो चैत्र माह का अंक १ हुआ, विक्रम संवत २०७७ = १६ = ७, तिथि है द्वादशी = ३ सबका योग ११ = २ , सबका गुणा २१ = ३। अब क्या होगा तुम्हारी ९ के फंडे का?"
"ए भागवान! बंद रखो अपनी जबान। भगवान् अक्लमंद पत्नी किसी को न दे। तुम तो मेरी खटिया ही खड़ी करा दोगी। बना बनाया काम बिगाड़ दोगी। तय मानो कमाई तो होंगई ही, नाम भी उछल जायेगा, तुम चाय बनाने का जुगाड़ करों, मैं तुम्हारे हुकुम का पालन करता हूँ। ये भारत है, यहाँ कम नहीं हैं अकल के अंधे।"
***
गले मिले दोहा यमक
*
काहे को रोना मचा, जीना किया हराम
कोरोना परदेश से, लाये ख़ास न आम
बिना सिया-सत सियासत, है हर काम सकाम
काम तमाम न काम का, बाकि काम तमाम
हेमा की तस्वीर से, रोज लड़ाते नैन
बीबी दीखते झट कहें हे माँ, मन बेचैन
बौरा-गौरा को नमन, करता बौरा आम.
खास बन सके, आम हर, हे हरि-उमा प्रणाम..
देख रहा चलभाष पर, कल की झलकी आज.
नन्हा पग सपने बड़े, कल हो कल का राज..
५.४.२०२०
***
गीत
सबसे पहले देश
*
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
रक्षा करी विदेशी से लड़
शस्त्र हाथ में लेकर
बापू के सत्याग्रह से जुड़
जूझे कमल उठाकर
पत्रकार-कवि तेजस्वी हे!
कसर न छोड़ी लेश
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
विद्यार्थी जी के पथ पर चल
जान हथेली पर ले
लक्ष्मण सिंह-सुभद्रा को पथ दिखलाया आशिष दे
हिम तरंगिणी, हिम किरीटनी
ने दी कीर्ति अशेष
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
सत्ता दल पद कभी न चाहा
करी स्वार्थ बिन सेवा
शर्म करें दल नेता चमचे
चाह रहे जो मेवा
नोटा चुने हराओ इनको
जागृत रहो विशेष
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
करी पुष्प ने अभिलाषा यह
बिछे राह पर जाकर
गुजरें माँ के सेवक पग धर
चाह नहीं प्रभु का सिर
त्यागी-बलिदानी अजरामर
कमी न छोड़ी लेश
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
***
कृति चर्चा:
मैं हूँ एक भाग हिमालय का : मन मंदाकिनी का काव्य प्रवाह
*
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: मैं हूँ एक भाग हिमालय का, काव्य संग्रह, ममता शर्मा, प्रथम संस्करण २०१८, आईएसबीएन ९७८०४६३६४४९६६, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १२०, मूल्य१८५ रु., प्रकाशक वर्जिन साहित्य पीठ दिल्ली)
*
कविता की नहीं जाती, हो जाती है। अनुभूति के शिखर से अभिव्यक्ति सलिला प्रवाहित होकर कलकल निनाद करे तो कविता हो जाती है। मानव जीवन पल-पल परिवर्तन का साक्षी बनता है। भावात्म शब्द-तन मे वास कर परिवर्तनजनित प्रतिक्रिया के प्रागट्य का साक्षी बनता है। यह निर्विवाद सत्य है कि नारी मन पुरुष मन की तुलना में अधिक भाव प्रवण और ममतामय होता है। 'मैं हूँ भाग हिमालय का' की कविताएँ व्यष्टि और समष्टि के अंतर्संबंध की प्रतीति से उद्भूत हैं।
'आज धरा के आँगन में फिर
सूरज ऊषा लेकर आया
देख अचानक संग उन्हें
रजनी-नेत्रों में जल भर आया।
फट ले अपनी काली चूनर
झटपट वो विभावरी भागी
तभी अचानक पाँखें खोले
चिड़िया भी चूँ-चूँ कर जागी।'
प्रकृति के साथ तादात्म्य-स्थापन ब्रह्म-साक्षात का प्रथम चरण है। रंग उड़ा, रंग उड़ा, हर दिशा ही रंग उड़ा' हर दिशा में रंग दिखना लगे तो कबीर सब कुछ लुटा देता है पर लोई को घर में ही ब्रह्म का पारा पाँव पसारे मिल जाता है। उसे मम्मी के भाल, पूजा के थाल, गणपति और हाथी, मोती के बैल और पकवानों का कतारों में अर्थात यत्र-तत्र-सर्वत्र रंग ही रंग दिखता है। निराकुल मीरा कहती हैं 'मैं तो साँवरी के रँग राँची' ममता की प्रतीति भिन्न होना स्वाभाविक है। 'मन को लगाएँ किससे / मैं बतियाऊँ किससे' के गिले-शिकवे भुलाकर 'चंपकवन में एक रूपसी / गर्वीली मतवाली आली' होकर स्वरूप निहारती वह जान ही नहीं पाती 'आया कौन मन के दर्पण में....बिना रोके-टोके' लेकिन आ ही गया तो जाने का द्वार नहीं है। 'यही तो जीवन है अभिराम / यही तो जीवन है सुखधाम।' रंगरसिया साथ हो तो 'पीली-पीली सरसों फैली / फैली चारों ओर' का प्रतीति होनी ही है। यह प्रतीति संकुचन नहीं विस्तार और नव सृजन के पथ पर पग धरती है- 'है बस नियमों थोड़ा सा अहसास जागा / हाँ, मैं भी हूँ हिस्सा धरा का जरा सा', कामना जागती है 'भूमि पा अब बीज जाए / हो उजाला सूर्य का / चंदा का किरणें गुनगुनाएँ'।
सृजनाकांक्षी चेतना 'मुसाफिर हूँ मैं / हर क्षण चलती ही रहती हूँ' कहते हुए भी गंतव्य के प्रति सचेत रहती है-'रहा बचपन जवानी, सब में बेसुध / कुछ खबर ले-ले'।
'काठ का हाँडी चढ़ी तो पल में बात समझ गई'। कौन सी बात? यही कि 'जो करना आज ही कर लो'। क्योंकि 'हम क्या हैं? / केवल सितारों की राख / या हैं हम / संपूर्ण ब्रह्मांड'।
अनुभूतियों का इंद्रधनुषी रंग 'मैं हूँ एक भाग हिमालय का' में सर्वत्र व्याप्त है। गीत-सागर राकेश खंडेलवाल लिखित आमुख से समृद्ध
यह कृति कवयित्री की काव्य-सृजन प्रतिभा की प्रथम पुष्प है जो पूत के पाँव पालने में दिखते हैं कहावत को चरितार्थ करती है।
'ठुमुक चलत रामचंद्र' का पैंजनियों का रुनझुन ले आनंदित होते समय पुष्प-वाटिका, पंचवटी या लंकापुरी में राम की छवि न खोजें तो विवेच्य कृति बालारुणी ऊषा की रम्य छवि-दर्शन का सा आनंद देती है। कवयित्री की प्रतिभा आगामी काव्य संग्रहों में परवान पर चढ़कर विश्ववाणी हिंदी के साहित्य कोष को समृद्ध करेगी, यह विश्वास किया जा सकता है।
५-४-२०१९
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आनुप्रासिक दोहे
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दया-दफीना दे दिया, दस्तफ्शां को दान
दरा-दमामा दाद दे, दल्कपोश हैरान
(दरा = घंटा-घड़ियाल, दफीना = खज़ाना, दस्तफ्शां = विरक्त, दमामा = नक्कारा, दल्कपोश = भिखारी)
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दर पर था दरवेश पर, दरपै था दज्जाल
दरहम-बरहम दामनी, दूर देश था दाल
(दर= द्वार, दरवेश = फकीर, दरपै = घात में, दज्जाल = मायावी भावार्थ रावण, दरहम-बरहम = अस्त-व्यस्त, दामनी = आँचल भावार्थ सीता, दाल = पथ प्रदर्शक भावार्थ राम )
*
दिलावरी दिल हारकर, जीत लिया दिलदार
दिलफरेब-दीप्तान्गिनी, दिलाराम करतार
(दिलावरी = वीरता, दिलफरेब = नायिका, दिलदार / दिलाराम = प्रेमपात्र)
५-४-२०१७
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नवगीत:
.
क्षुब्ध पहाड़ी
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.
कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा पाता बुरा है
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
***
नवगीत:
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध काव्य करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
५-४-२०१५
***
नवगीत:
.
रचनाओं की हर रामायण
अक्षर-अक्षर मिलकर गढ़ते
कथ्य भाव रस बिम्ब बनाते
क्षर शब्दों की सार्थक दुनिया
.
शब्द-शब्द मिल वाक्य बनाते
वाक्य अनुच्छेदों में ढलते
अनुच्छेद मिल कथा-कहानी
बन जाते तो सपने पलते
बनते सपने युग के नपने
लगे पतीले ऊपर ढकने
पुरुषार्थी कोशिश कर हारे
लगे राम की माला जपने
दे जाती है साँझ सलोने
सपने लेकिन ढलते-ढलते
नानी के अधरों पर लाती
हँसी शरारत करती मुनिया
.
किसने जीवन यहाँ बिताया
केवल सुख पा, सहा न दुखड़ा
किसने आँसू नहीं बहाये
किसका सुख से खिला न मुखड़ा
किस अंतर में नहीं अंतरा
इश्क-मुश्क का गूँजा कहिए
सम आकारिक पंक्ति-लहरियाँ
बन नवगीत बह रही गहिए
होते तब जीवंत खिलौने
शिशु-नयनों में पलते-पलते
खेले हास-रास के सँग जब
श्वास-आस की जीवित गुड़िया
.
गीतकार पाठक श्रोता का
नाता होता बहुत अनूठा
पल में खुश हो जाता बच्चा
पल भर पहले था जो रूठा
टटकापन-देशजता रुचती
अधुनातानता भी मन भाती
बन्ना-गारी के सँग डी जे
सुनते-नाचें झूम बराती
दिखे क्षितिज पर देखे चंदा
धवल चाँदनी हँसते-खिलते
घूँघट डाले हनीमून पर
जाती इठलाकर दुलहनिया
४.४.२०१५
...
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PAN Card explained:-
PAN is a 10 digit alpha numeric number,
where the first 5 characters are letters,
the next 4 numbers and the last one a letter again.
These 10 characters can be divided in five parts as can be seen below.
The meaning of each number has been explained further.
1. First three characters are alphabetic series running from AAA to ZZZ
2. Fourth character of PAN represents the status of the PAN holder. • C — Company • P — Person • H — HUF(Hindu Undivided Family) • F — Firm • A — Association of Persons (AOP) • T — AOP (Trust) • B — Body of Individuals (BOI) • L — Local Authority • J — Artificial Juridical Person • G — Government
3. Fifth character represents first character of the PAN holder’s last name/surname.
4. Next four characters are sequential number running from 0001 to 9999.
5. Last character in the PAN is an alphabetic check digit.
Nowadays, the DOI (Date of Issue) of PAN card is mentioned at the right (vertical) hand side of the photo on the PAN card.
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दोहा सलिला
ठिठुर रहा था तुम मिलीं, जीवन हुआ बसंत.
दूर हुईं पतझड़ हुआ, हेरूँ हर पल कन्त..
तुम मैके मैं सासरे, हों तो हो आनंद.
मैं मैके तुम सासरे, हों तो गाएँ छन्द.
तू-तू मैं-मैं तभी तक, जब तक हों मन दूर.
तू-मैं ज्यों ही हम हुए, साँस हुई संतूर..
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दो हाथों में हाथ या, लो हाथों में हाथ.
अधरों पर मुस्कान हो, तभी सार्थक साथ..
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नयन मिला छवि बंदकर, मून्दे नयना-द्वार.
जयी चार, दो रह गये, नयना खुद को हार..
५-४-२०१३
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खबरदार कविता:
खबर: हमारी सरहद पर इंच-इंच कर कब्ज़ा किया जा रहा है.
दोहा गजल:
असरकार सरकार क्यों?, हुई न अब तक यार.
करता है कमजोर जो, 'सलिल' वही गद्दार..
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अफसरशाही राह का, रोड़ा- क्यों दरकार?
क्यों सेना में सियासत, रोके है हथियार..
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दें जवाब हम ईंट का, पत्थर से हर बार.
तभी देश बच पायेगा, चेते अब सरकार..
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मानवता के नाम पर, रंग जाते अखबार.
आतंकी मजबूत हों, थम जाते हथियार..
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५-४-२०१०

फरवरी ९, सलिल, अन्नपूर्णा

 सलिल सृजन ९ फरवरी 

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अन्नपूर्णा

आईने से पूछिए तो कहेगा वह

ख्वाब तेरे देखते हैं श्याम निश-दिन

राधिका तू बावरी मत हो सम्हाल जा

चुन उसे दिल देख जिसको कहे तक-धिन

लक्ष्मी तू है सुनिश्चित हरि मिलेंगे

शिवा हो तो शिव न अब तुझको तजेंगे

शारदा हो रमेगी तू जब जहाँ पर

ब्रह्म थामे हाथ तेरा वहीं आकर

करेगी संकल्प जो वह पा सकेगी

धन्य वह घर तू जहाँ पर पग धरेगी

शाद हो तू साथ जिसके वर उसे ही

अन्नपूर्णा है सदा मंगल करेगी

*

गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

अप्रैल ४, रामकिंकर, लावणी, सॉनेट, माखन, नोटा, कुण्डलिया, लघुकथा, गीत, पैरोडी, लौकिक छन्द,

सलिल सृजन अप्रैल ४
*
स्मरण युगतुलसी 
• 
मन हर पल तू राम नाम 
भज मोह वासना क्रोध काम तज 
• 
युगतुलसी सम ध्यान लीन हो 
सिया-राम छवि बसा हृदय में 
जग के सम्मुख नहीं दीन हो 
रमे राम में श्वास विलय हो। 
मस्तक धर किंकर की पद-रज 
मन हर पल तू राम नाम भज 
• 
राम रमापति के पग धो ले 
केवट हो पी ले चरणामृत 
बन निषाद, प्रभु पाहुन हो ले 
पंचेंद्रिय नित पी नामामृत। 
टेर राम जी को होकर गज 
मन हर पल तू राम नाम भज 
• 
हनुमत को भज राम-दास हो 
भोग लगा प्रभु को शबरी बन 
क्यों न रामबोला निवास हो 
युगतुलसी नर्मदा निमज्जन। 
किंकर-चरण-शरण गह मत लज 
मन हर पल तू राम नाम भज 
४.४.२०२४ 
•••

मुक्तिका
याद आ रही याद फिर।
या आए हैं मेघ घिर?
देख रहे वर्तुल अगिन।
जल में कंकर फेंककर।।
जब छूता सुरभित पवन।
'आया' सोचे मन सिहर।।
प्राची में छवि दिख कहे- पकड़,
किरण बनकर निखर।।
दस दिश में सुधियाँ ही सुधियाँ।
हाथ न आतीं, बिखर बिखर।।
•••
मुक्तक
लावणी छंद
महलों में सन्नाटा छाया, कलरव है फुटपाथों पे
हाथों की रेखाएँ हँसकर, आ बैठी हैं माथों में
चाहों में है एक बसा तो दूजा क्यों है बाँहों में
कौन बताए किससे पूछें, किसकी कौन पनाहों में?
४-४-२०२३
सॉनेट
दादा
*
दादा माखनलाल प्रणाम।
खासुलखास, रहे बन आम।
सदा देश के आए काम।।
दसों दिशा में गूँजा नाम।।
शस्त्र उठा विद्रोह किया।
अमिय अहिंसा विहँस पिया।।
शब्द-बाण जब चला दिया।।
अँग्रेजों का हिला जिया।।
'प्रभा','प्रताप' मशाल बना।
कर्मवीर' युग-नाद घना।
'हिम किरीटिनी' दर्द घना।
रखे 'युग चरण' ख्वाब बुना।
जीवन जिया नर्मदा सम।
सुदृढ़ वज्र, माखन सम नम।।
४-४-२०२२
•••
सॉनेट
विनय
विनय सुनें हे तारणहार!
ले भावों का बंदनवार।
आया तव आत्मज सब हार।।
लाया है अँजुरी भर प्यार।।
करी बहुत तज दी तकरार।
किया बहुत त्यागा श्रंगार।
है समान अब हिम-अंगार।।
तुम पर बरबस ही दिल हार।।
पल भर तो लो ईश! निहार।
स्वीकारो हँसकर सत्कार।
मैं कैसे बिसरे सरकार!
युक्ति बता दो प्रभु! पुचकार।।
हारा, हरि! अब हो दीदार।
करुणा कर मेरे करतार!!
४•४•२०२२
•••
कुण्डलिया
नोटा
नोटा तो ब्रह्मास्त्र है, समझ लीजिए आप।
अनाचार पर चलाकर, मिटा दीजिए पाप।।
मिटा दीजिए पाप, न भ्रष्टाचार सहो अब।
जो प्रत्याशी गलत, उसे मिल दूर करो सब।।
कहे 'सलिल' कविराय, न जाए तुमको पोटा।
सजग मौन रह आप, मात दें चुनकर नोटा।।
***
एक द्विपदी
करें न शिकवा, नहीं शिकायत, तुमने जात दिखा दी है।
अश्क़ बहकर मौन-दूर हम, तुमको यही सजा दी है।।
४-४-२०२१
***
लघुकथा
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अँधा बाँटे रेवड़ी
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जंगल में भीषण गर्मी पड़ रही थी। नदियों, झरनों, तालाबों, कुओं आदि में पानी लगातार कम हो रहा था। दोपहर में गरम लू चलती तो वनराज से लेकर भालू और लोमड़ी तक गुफाओं और बिलों में घुसकर ए.सी., पंखे आदि चलाते रहते। हाथी और बंदर जैसे पशु अपने कानों और वृक्षों की पत्तियों से हवा करते रहते फिर भी चैन न पड़ता।
जंगल के प्रमुख विद्युत् मंत्री चीते की चिंता का ठिकाना नहीं था। हर दिन बढ़ता विद्युत् भार सम्हालते-सम्हालते उसके दल को न दिन में चैन था, न रात में। लगातार चलती टरबाइनें ओवरहालिंग माँग रही थीं। विवश होकर उसने वनराज शेर से परामर्श किया। वनराज ने समस्या को समझा पर समस्या यह थी कोई भी वनवासी सुधार कार्य के लिए स्वेच्छा से बिजली कटौती के लिए तैयार नहीं था और जबरदस्ती बिजली बंद करने पर जन असंतोष भड़कने की संभावना थी।
महामंत्री गजराज ने गहन मंथन के बाद एक समाधान सुझाया। तदनुसार एक योजना बनाई गयी। वनराज ने जंगल के सभी निवासियों से अपील की कि वे एक दिन निर्धारित समय पर बिजली बंद कर सिर्फ मोमबत्ती, दिया, लालटेन, चिमनी आदि जलाकर इंद्र देवता को प्रसन्न करें ताकि आगामी वर्ष वर्षा अच्छी हो। संचार मंत्री वानर सब प्राणियों को सूचित करने के लिए अपने दल-बल के साथ जुट गए।
वनराज के साथ के साथ विद्युत् मंत्री, विद्युत सचिव, प्रमुख विद्युत् अभियंता आदि कार्य योजना को अंतिम रूप देनेके लिए बैठे। अभियंता के अनुसार गंभीर समस्या यह थी कि जंगल के भिन्न-भिन्न हिस्सों में बिजली प्रदाय ग्रिड बनाकर किया जा रहा था। एकाएक ग्रिडों में बिजली की माँग घटने के कारण फ्रीक्वेंसी संतुलन बिगड़ने, रिले , कंडक्टर आदि पर असामान्य विद्युत् भार के कारण प्रणाली जर्क और ग्रिड फेल होने की संभावना थी। ऐसा होने पर सुधार कार्य में अधिक समय लगता। मंत्री, सचिव आदि घंटों सिर खपकर भी कोई समाधान नहीं निकल सके। प्रमुख अभियंता के साथ आये एक फील्ड इंजीनियर ने सँकुचाते हुए कुछ कहने के लिए हाथ उठाया। सचिव ने उसे घूरकर देखा तो उसने झट हाथ नीचे कर लिया पर वनराज ने उसे प्रोत्साहित करते हुए कहा 'रुक क्यों गए? बेझिझक कहो, जो कहना है।"
फील्ड इंजीनियर ने कहा यदि हम लोगों को केवल बल्ब-ट्यूबलाइट आदि बंद करने के लिए कहें और पंखे, ए.सी. आदि बंद न करने के लिए कहें तो ग्रिड में फ्रीक्वेंसी संतुलन बिगड़ने की संभावना न्यूनतम हो जायेगी। विचार-विमर्श के बाद इस योजना को स्वीकार कर तदनुसार लागू किया गया। वन्य प्रजा को बिजली कम खर्च करने की प्रेरणा मिली। ग्रिड फेल नहीं हुआ। इस सफलता के लिए मंत्री और सचिव को सम्मान मिले, किसी को याद न रहा कि अभियंता की भी कोई भूमिका था। सम्मान समारोह में आया काला कौआ बोलै पड़ा 'अँधा बाँटे रेवड़ी"
***
गीत
*
रक्तबीज था हुआ कभी जो
लौट आया है।
राक्षस ने कोरोना का
नाम पाया है।
गिरेगी विष बूँद
जिस भी सतह पर
उसे छूकर मनुज जो
आगे बढ़ेगा
उसीको माध्यम बनाकर
यह चढ़ेगा
बढ़ा तन का ताप
देगा पीर थोड़ी
किन्तु लेगा रोक श्वासा
आस छोड़ी
अंतत: स्वर्गीय हो
चाहे न भाया है।
सीख दुर्गा माई से
हम भी तनिक लें
कोरोना जी बच सकें
वह जगह मत दें
रहें घर में, घर बने घर
कोरोना से कहें: 'जा मर'
दूरियाँ मन में न हों पर
बदन रक्खें दूर ही हम
हवा में जो वायरस हैं
तोड़ पंद्रह मिनिट में दम
मर-मिटें मानव न यदि
आधार पाया है।
जलाएँ मिल दीप
आशा के नए हम
भगाएँ जीवन-धरा से
भय, न हो तम
एकता की भावधारा
हो सबल अब
स्वच्छता आधार
जीवन का बने अब
न्यून कर आवश्यकताएँ
सर तनें सब
विपद को जय कर
नया वरदान पाया है
रक्तबीज था हुआ कभी जो
लौट आया है।
राक्षस ने कोरोना का
नाम पाया है।
४.४.२०२०
***
एक गीत -एक पैरोडी
*
ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा ३१
कहा दो दिलों ने, कि मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा ३०
*
ये क्या बात है, आज की चाँदनी में २१
कि हम खो गये, प्यार की रागनी में २१
ये बाँहों में बाँहें, ये बहकी निगाहें २३
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा १९
*
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा २२
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा २१
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो २१
करे कोई दिल आरजू और क्या १९
*
कसम है तुम्हे, तुम अगर मुझ से रूठे २१
रहे सांस जब तक ये बंधन न टूटे २२
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है २१
सनम मैं तुम्हारी रहूंगी सदा १८
फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ 1958
*****
पैरोडी
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा ३०
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा ३१
*
ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा २२
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा २०
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले २१
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा १८
*
अमरनाथ हमको, हैं जां से भी प्यारा २२
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा २०
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे २१
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां २०
*
लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की २१
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की २०
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको २१
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा १७
४-४-२०१९
***
एक दोहा
परेशान होते बहुत, छोटे ग्राहक रोज
चुरा करोड़ों भागते, मोदी कैसे खोज??
*
कार्यशाला:
दोहा से कुंडली
*
ऊँची-ऊँची ख्वाहिशें, बनी पतन का द्वार।
इनके नीचे दब गया, सपनों का संसार।।
दोहा: तृप्ति अग्निहोत्री,लखीमपुर खीरी
सपनों का संसार न लेकिन तृप्ति मिल रही
अग्निहोत्र बिन हवा विषैली आस ढल रही
सलिल' लहर गिरि नद सागर तक बहती नीची
कैसे हरती प्यास अगर वह बहती ऊँची
रोला: संजीव वर्मा सलिल
४-४-२०१९
***
मुक्तक: अर्पण
मैला-चटका है, मेरा मन दर्पण
बतलाओ तो किसको कर दू अर्पण?
जो स्वीकारे सहज भाव से इसको
होकर क्रुद्ध न कर दे मेरा तर्पण
४-४-२०१८
***
विमर्श
सात लोक और लौकिक छन्द
*
अध्यात्म शास्त्र में वर्णित सात लोक भू-लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, तपः लोक, महः लोक, जनः लोक और सत्य लोक हैं। ये किसी ग्रह, नक्षत्र में स्थित अथवा अधर में लटके हुए स्थान नहीं, स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की स्थिति मात्र हैं। पिंगल शास्त्र में सप्त लोकों के आधार पर सात मात्राओं के छंदों को 'लौकिक छंद' कहा गया है।
सामान्य दृष्टि से भूलोक में रेत, पत्थर, वृक्ष, वनस्पति, खनिज, प्राणी, जल आदि पदार्थ हैं। इसके भीतर की स्थिति है आँखों से नहीं, सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखी-समझी जा सकती है। हवा में मिली गैसें, जीवाणु आदि इस श्रेणी में हैं। इससे गहरी अणु सत्ता के विश्लेषण में उतरने पर विभिन्न अणुओं-परमाणुओं के उड़ते हुए अन्धड़ और अदलते-बदलते गुच्छक हैं। अणु सत्ता का विश्लेषण करने पर उसके सूक्ष्म घटक पदार्थ नहीं,विद्युत स्फुल्लिंग मात्र दृष्टिगोचर होते हैं। तदनुसार ऊर्जा प्रवाह ही संसार में एकमात्र विद्यमान सत्ता प्रतीत होती है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हुए हम कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं किंतु स्थान परिवर्तन नहीं होता। अपने इसी स्थान में यह स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से अति सूक्ष्म, अति सूक्ष्म से महा सूक्ष्म की स्थिति बनती जाती है।
सात लोकों का स्थान कहीं बाहर या अलग-अलग नहीं है। वे एक शरीर के भीतर अवयव, अवयवों के भीतर माँस-पेशियाँ, माँस-पेशियों के भीतर ज्ञान-तंतु, ज्ञान-तन्तुओं के भीतर मस्तिष्कीय विद्युत आदि की तरह हैं। वे एक के भीतर एक के क्रम से क्रमशः भीतर के भीतर-समाये, अनुभव किये जा सकते हैं। सात लोकों की सत्ता स्थूल लोक के भीतर ही सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम और अति सूक्ष्म होती गई है। सबका स्थान वही है जिसमें हम स्थित हैं। ब्रह्मांड के भीतर ब्रह्मांड की सत्ता परमाणु की मध्यवर्ती नाभिक के अन्तर्गत प्राप्त अति सूक्ष्म किन्तु विशाल ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करनेवाले ब्रह्म-बीज में प्राप्य है।
जीव की देह भी ब्रह्म शरीर का प्रतीक प्रतिनिधि (बीज) है। उसके भीतर भी सात लोक हैं। इन्हें सात शरीर (सप्त धातु-रस, रक्त, माँस, अस्थि, मज्जा, शुक्र, ओजस) कहा जाता है। भौतिक तन में छह धातुएँ हैं, सातवीं ओजस् तो आत्मा की ऊर्जा मात्र है। इनके स्थान अलग-अलग नहीं हैं। वे एक के भीतर एक समाये हैं। इसी तरह चेतना शरीर भी सात शरीरों का समुच्चय है। वे भी एक के भीतर एक के क्रम से अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं।
योग शास्त्र में इन्हें चक्रों का नाम दिया गया है। छह चक्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सातवाँ सहस्रार कमल। कहीं छह, कहीं सात की गणना से भ्रमित न हों। सातवाँ लोक सत्यलोक है। सत्य अर्थात् पूर्ण परमात्मा । इससे नीचे के लोक भी तथा साधना में प्रयुक्त होने वाले चक्र छ:-छ: ही हैं। सातवाँ सहस्रार कमल ब्रह्मलोक है। उस में शेष ६ लोक लय होते है। सात या छह के भेद-भाव को इस तरह समझा जा सकता है। देवालय सात मील दूर है। बीच में छह मील के पत्थर और सातवाँ मील पत्थर प्रत्यक्ष देवालय। छह गिने या सात इससे वस्तुस्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।
मनुष्य के सात शरीरों का वर्णन तत्ववेत्ताओं ने इस प्रकार किया हैं- (१) स्थूल शरीर-फिजिकल बाड़ी (२) सूक्ष्म शरीर इथरिक बॉडी (३) कारण शरीर-एस्ट्रल बॉडी (४)मानस शरीर-मेन्टल बॉडी (५) आत्मिक शरीर-स्प्रिचुअल बॉडी (६) देव शरीर -कॉस्मिक बॉडी (७) ब्रह्म शरीर-वाडीलेस बॉडी।
सप्त धातुओं का बना भौतिक शरीर प्रत्यक्ष है। इसे देखा, छुआ और इन्द्रिय सहित अनुभव किया जा सकता है। जन्मतः प्राणी इसी कलेवर को धारण किये होता है। उनमें प्रायः इन्द्रिय चेतना जागृत होती है। भूख, सर्दी-गर्मी जैसी शरीरगत अनुभूतियाँ सक्षम रहती हैं। पशु शरीर आजीवन इसी स्थिति में रहते हैं। मनुष्य के सातों शरीर क्रमशः विकसित होते हैं। भ्रूण पड़ते ही सूक्ष्म मानव शरीर जागृत होने लगता है। इच्छाओं और सम्वेदनाओं के रूप में इसका विकास होता है। मानापमान, अपना-पराया, राग-द्वेष, सन्तोष-असन्तोष, मिलन-वियोग जैसे अनुभव भाव (सूक्ष्म) शरीर को होते हैं। बीज में से पहले अंकुर निकलता है, तब उसका विकास पत्तों के रूप में होता है। स्थूल शरीर को अंकुर और सूक्ष्म शरीर पत्ता कह सकते हैं। फिजिकल बॉडी यथास्थान बनी रहती है, पर उसमें नई शाखा भाव शरीर एस्ट्रल बॉडी के रूप में विकसित होती है।सातों शरीरों का अस्तित्व आत्मा के साथ-साथ ही है, पर उनका विकास आयु और परिस्थितियों के आधार पर धीमे अथवा तीव्र गति से स्वल्प-अधिक मात्रा में होता है।
तीसरा कारण शरीर विचार, तर्क, बुद्धि से सम्बन्धित है। इसका विकास, व्यावहारिक, सभ्यता और मान्यतापरक संस्कृति के आधार पर होता है। यह किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते आरम्भ होता है और वयस्क होने तक अपने अस्तित्व का परिचय देने लगता है। बालक को मताधिकार १८ वर्ष की आयु में मिलता है। अल्प वयस्कता इसी अवधि में पहुँचने पर पूरी होती है। बारह से लेकर अठारह वर्ष की आयु में शरीर का काम चलाऊ विकास हो जाता है। यौन सम्वेदनाएँ इसी अवधि में जागृत होती हैं। सामान्य मनुष्य इतनी ही ऊँचाई तक बढ़ते हैं। फिजिकल-इथरिक और एस्ट्रल बॉडी के तीन वस्त्र पहनकर ही सामान्य लोग दरिद्रता में जीवन बिताते हैं। इसलिए सामान्यत: तीन शरीरों की ही चर्चा होती है। स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीरों की व्याख्या कर बात पूरी कर ली जाती है। प्रथम शरीर में शरीरगत अनुभूतियों का सुख-दुःख, दूसरे में भाव सम्वेदनाएँ और तीसरे में लोकाचार एवं यौनाचार की प्रौढ़ता विकसित होकर एक कामचलाऊ मनुष्य का ढाँचा खड़ा हो जाता है।
तीन शरीरों के बाद मनुष्य की विशिष्टताएँ आरम्भ होती हैं। मनस् शरीर में कलात्मक रसानुभूति होती है। कवित्व जगता है। कोमल सम्वेदनाएँ उभरती हैं। कलाकार, कवि, सम्वेदनाओं के भाव लोक में विचरण करने वाले भक्त-जन, दार्शनिक, करुणार्द्र, उदार, देश-भक्त इसी स्तर के विकसित होने से बनते हैं। यह स्तर उभरे तो पर विकृत बन चले तो व्यसन और व्याभिचार जन्य क्रीड़ा-कौतुकों में रस लेने लगता है। विकसित मनस् क्षेत्र के व्यक्ति असामान्य होते हैं। इस स्तर के लोग कामुक-रसिक हो सकते हैं। सूरदास, तुलसीदास जैसे सन्त अपने आरम्भिक दिनों में कामुक थे। वही ऊर्जा जब भिन्न दिशा में प्रवाहित हो तो सम्वेदनाएँ कुछ से कुछ करके दिखाने लगीं। महत्वाकाँक्षाएँ (अहंकार) इसी क्षेत्र में जागृत होती हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति भौतिक जीवन में तरह-तरह के महत्वपूर्ण प्रयास कर असाधारण प्रतिभाशाली कहलाते हैं। प्रतिभागी लोगों का मनस् तत्व प्रबल होता है। उन्हें मनस्वी भी कहा जा सकता है। बाल्मीक, अँगुलिमाल, अशोक जैसे महत्वाकांक्षी विकृत मनःस्थिति में घोर आतंकवादी रहे, पर जब सही दिशा में मुड़ गये तो उन्हें चोटी की सफलता प्राप्त करने में देर नहीं लगी। इसे मेन्टल बॉडी की प्रखरता एवं चमत्कारिता कहा जा सकता है।
पाँचवाँ शरीर-आत्मिक शरीर स्प्रिचुअल बॉडी अतीन्द्रिय शक्तियों का आवास होता है। अचेतन मन की गहरी परतें जिनमें दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। इसी पाँचवें शरीर से सम्बन्धित हैं। मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, टेलीपैथी, क्लैरेहवाइंस जैसे प्रयोग इसी स्तर के विकसित होने पर होते हैं । कठोर तन्त्र साधनाएँ एवं उग्र तपश्चर्याएँ इसी शरीर को परिपुष्ट बनाने के लिए की जाती हैं। संक्षेप में इसे ‘दैत्य’ सत्ता कहा जा सकता है। सिद्धि और चमत्कारों की घटनाएँ- संकल्प शक्ति के बढ़े-चढ़े प्रयोग इसी स्तर के समर्थ होने पर सम्भव होते हैं। सामान्य सपने सभी देखते हैं पर जब चेतना इस पाँचवे शरीर में जमी होती है तो किसी घटना का सन्देश देने वाले सपने भी दीख सकते हैं। उनमें भूत, भविष्य की जानकारियों तथा किन्हीं रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन भी होता है। भविष्यवक्ताओं, तान्त्रिकों एवं चमत्कारी सिद्धि पुरुषों की गणना पाँचवे शरीर की जागृति से ही सम्भव होती है। ऊँची मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य जमीन पर खड़े मनुष्य की तुलना में अधिक दूर की स्थिति देख सकता है। जमीन पर खड़ा आदमी आँधी का अनुभव तब करेगा जब वह बिलकुल सामने आ जायगी। पर मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य कई मील दूर जब आँधी होंगी तभी उसकी भविष्यवाणी कर सकता है। इतने मील दूर वर्षा हो रही है। अथवा अमुक स्थान पर इतने लोग इकट्ठे हैं। इसका वर्णन वह कर सकता जो ऊँचे पर खड़ा है और आँखों पर दूरबीन चढ़ाये है, नीचे खड़े व्यक्ति के लिए यह सिद्धि चमत्कार है, पर मीनार पर बैठे व्यक्ति के लिए यह दूरदर्शन नितान्त सरल और स्वाभाविक है।
छठे शरीर को देव शरीर कहते हैं-यही कॉस्मिक बाड़ी है। ऋषि , तपस्वी, योगी इसी स्तर पर पहुँचने पर बना जा सकता है। ब्राह्मणों और सन्तों का भू-देव, भू-सुर नामकरण उनकी दैवी अन्तःस्थिति के आधार पर है। स्वर्ग और मुक्ति इस स्थिति में पहुँचने पर मिलनेवाला मधुर फल है। सामान्य मनुष्य चर्म-चक्षुओं से देखता है, पर देव शरीर में दिव्य चक्षु खुलते हैं और “सियाराम मय सब जग जानी” के विराट ब्रह्मदर्शन की मनःस्थिति बन जाती है। कण-कण में ईश्वरीय सत्ता के दर्शन होते हैं और इस दिव्य उद्यान में सर्वत्र सुगंध महकती प्रतीत होती हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण ही स्वर्ग है। स्वर्ग में देवता रहते हैं। देव शरीर में जागृत मनुष्यों के अन्दर उत्कृष्ट चिन्तन और बाहर आदर्श कर्तृत्व सक्रिय रहता है। तदनुसार भीतर शान्ति की मनःस्थिति और बाहर सुख भरी परिस्थिति भरी-पूरी दृष्टिगोचर होती है। स्वर्ग इसी स्थिति का नाम है। जो ऐसी भूमिका में निर्वाह करते हैं। उन्हें देव कहते हैं। असुर मनुष्य और देव यह आकृति से तो एक किन्तु प्रकृति से भिन्न होते हैं।
भौतिकवादी लोक-मान्यताओं का ऐसे देव मानवों पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ता । वे निन्दा-स्तुति की, संयोग-वियोग की, हानि-लाभ की, मानापमान की लौकिक सम्वेदनाओं से बहुत ऊँचे उठ जाते हैं। लोक मान्यताओं को वे बाल-बुद्धि की दृष्टि से देखते हैं। लोभ-मोह, वासना-तृष्णा के भव-बन्धन सामान्य मनुष्यों को बेतरह जकड़कर कठपुतली की तरह नचाते हैं। छठवीं देव भूमिका में पहुँची देव आत्माएँ आदर्श और कर्त्तव्य मात्र को पर्याप्त मानती हैं। आत्मा और परमात्मा को सन्तोष देना ही उन्हें पर्याप्त लगता है। वे अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करते समय लोक मान्यताओं पर तनिक भी ध्यान नहीं देते वरन् उच्चस्तरीय चेतना से प्रकाश ग्रहण करते हैं। इन्हें भव-बन्धनों से मुक्त-जीवन मुक्त कहा जाता है। मुक्ति या मोक्ष प्राप्त कर लेना इसी स्थिति का नाम है। यह छोटे शरीर में देव स्थिति में कॉस्मिक बॉडी में विकसित आत्माओं को उपलब्ध होता है।
सातवाँ ब्रह्म शरीर है। इसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होता है। वे शरीर झड़ जाते हैं जो किसी न किसी प्रकार भौतिक जगत से सम्बन्धित थे। उनका आदान-प्रदान प्रत्यक्ष संसार से चलता है। वे उससे प्रभावित होते और प्रभावित करते हैं। ब्रह्म शरीर का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से होता है। उसकी स्थिति लगभग ब्रह्म स्तर की हो जाती है। अवतार इसी स्तर पर पहुँची हुई आत्माएँ हैं। लीला अवतरण में उनकी अपनी कोई इच्छा आकाँक्षा नहीं होती, वे ब्रह्मलोक में निवास करते हैं। ब्राह्मी चेतना किसी सृष्टि सन्तुलन के लिए भेजती है तो उस प्रयोजन को पूरा करके पुनः अपने लोक वापस लौट जाते हैं। ऐसे अवतार भारत में १० या २४ मान्य है। वस्तुतः उनकी गणना करना कठिन है। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रयोजनों के लिए वे समय-समय पर विलक्षण व्यक्तित्व सहित उतरते हैं और अपना कार्य पूरा करके वापिस चले जाते हैं। यह स्थिति ‘अहम् ब्रह्मोसि’ सच्चिदानन्दोऽहम्, शिवोऽहम् सोऽहम्, कहने की होती है। उस चरम लक्ष्य स्थल पर पहुँचने की स्थिति को चेतना क्षेत्र में बिजली की तरह कोंधाने के लिए इन वेदान्त मन्त्रों का जप, उच्चारण एवं चिन्तन, मनन किया जाता है।
पाँचवें शरीर तक स्त्री-पुरुष का भेद, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा अगले जन्म में उसी लिंग का शरीर बनने की प्रक्रिया चलती है। उससे आगे के छठे और सातवें शरीर में विकसित होने पर यह भेदभाव मिट जाता है। तब मात्र एक आत्मा की अनुभूति होती है। स्त्री-पुरुष का आकर्षण-विकर्षण समाप्त हो जाता है। सर्वत्र एक ही आत्मा की अनुभूति होती है। अपने आपकी अन्तः स्थिति लिंग भेद से ऊपर उठी होती है यद्यपि जननेंद्रिय चिन्ह शरीर में यथावत् बने रहते हैं। यही बात साँसारिक स्थिति बदलने के कारण मन पर पड़ने वाली भली-बुरी प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में भी होती है। समुद्र में लहरें उठती-गिरती रहती हैं। नाविक उनके लिए हर्ष-शोक नहीं करता, समुद्री हलचलों का आनन्द लेता है। छठे शरीर में विकसित देवात्माएँ इस स्थिति से ऊपर उठ जाती हैं। उनका चेतना स्तर गीता में कहे गये 'स्थित प्रज्ञ ज्ञानी' की और उपनिषदों में वर्णित 'तत्वदर्शी' की बन जाती है। उसके आत्म सुख से संसार के किसी परिवर्तन में विक्षेप नहीं पड़ता। लोकाचार हेतु उपयुक्त लीला प्रदर्शन हेतु उसका व्यवहार चलता रहता है। यह छठे शरीर तक की बात है। सातवें शरीर वाले अवतारी (भगवान) संज्ञा से विभूषित होते हैं। इन्हें ब्रह्मात्मा, ब्रह्म पुरुष का सकते हैं। उन्हें ब्रह्म साक्षात्कार, ब्रह्म निर्वाण प्राप्त भी कहा जा सकता है।
छठे शरीर में स्थित देव मानव स्थितिवश शाप और वरदान देते हैं, पर सातवें शरीर वाले के पास शुभेच्छा के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। उनके लिए पराया एवं बैरी कोई रहता ही नहीं। दोष, अपराधों को वे बाल बुद्धि मानते हैं और द्वेष दण्ड के स्थान पर करुणा और सुधार की बात भर सोचते हैं।
सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार पृथ्वी के नीचे सात पाताल लोक वर्णित हैं जिनमें पाताल अंतिम है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में पाताल लोक से सम्बन्धित असंख्य कहानियाँ, घटनायें तथा पौराणिक विवरण मिलते हैं। पाताल लोक को नागलोक का मध्य भाग बताया गया है, क्योंकि जल-स्वरूप जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब वहाँ पर्याप्त रूप से गिरती हैं। पाताल लोक में दैत्य तथा दानव निवास करते हैं। जल का आहार करने वाली आसुर अग्नि सदा वहाँ उद्दीप्त रहती है। वह अपने को देवताओं से नियंत्रित मानती है, क्योंकि देवताओं ने दैत्यों का नाश कर अमृतपान कर शेष भाग वहीं रख दिया था। अत: वह अग्नि अपने स्थान के आस-पास नहीं फैलती। अमृतमय सोम की हानि और वृद्धि निरंतर दिखाई पड़ती है। सूर्य की किरणों से मृतप्राय पाताल निवासी चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से पुन: जी उठते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार पूरे भू-मण्डल का क्षेत्रफल पचास करोड़ योजन है। इसकी ऊँचाई सत्तर सहस्र योजन है। इसके नीचे सात लोक इस प्रकार हैं-१. अतल, २. वितल, ३. सुतल, ४. रसातल, ५. तलातल, ६. महातल, ७. पाताल।
पौराणिक उल्लेख
पुराणों में पाताल लोक के बारे में सबसे लोकप्रिय प्रसंग भगवान विष्णु के अवतार वामन और पाताल सम्राट बलि का है। रामायण में अहिरावण द्वारा राम-लक्ष्मण का हरण कर पाताल लोक ले जाने पर श्री हनुमान के वहाँ जाकर अहिरावण वध करने का प्रसंग आता है। इसके अलावा भी ब्रह्माण्ड के तीन लोकों में पाताल लोक का भी धार्मिक महत्व बताया गया है।
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मुक्तक: अर्पण
मैला-चटका है, मेरा मन दर्पण
बतलाओ तो किसको कर दू अर्पण?
जो स्वीकारे सहज भाव से इसको
होकर क्रुद्ध न कर दे मेरा तर्पण
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जनक छंद
हरी दूब सा मन हुआ
जब भी संकट ने छुआ
'सलिल' रहा मन अनछुआ..
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४-४-२०११
शे'र
पत्थर से हर शहर में, मिलते मकां हज़ारों।
मैं खोज-खोज हारा, घर एक नहीं मिलता..