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बुधवार, 25 अक्टूबर 2023

दोहा दीप्त दिनेश, समन्वय प्रकाशन

विश्व वाणी हिंदी संस्थान - समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर 
***
ll हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल l 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल ll  
ll जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार l  'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ll
बंधु 
वन्दे भारत भारती. 
दोहा दुनिया का संपादन अंतिम चरण में है. 
अपना चित्र भेज दें. 
सहभागिता निधि 3000 /- देना बैंक राइट टाउन जबलपुर IFAC: BKDN 081119 ९ में लेखा क्रमांक 111910002247  नाम संजीव वर्मा (sanjiv verma) में जमा कर पावती salil.sanjiv@gmail.com पर  ईमेल कर दें. कोई अन्य साथी जुड़ना चाहे तो दोहे, चित्र, परिचय और राशि तुरंत भेजे, मार्च अंत के बाद किसी को जोड़ना संभव न होगा. 

अनुक्रम 
=०१. अखिलेश खरे 'अखिल'  
=०२. अनिल कुमार मिश्र     
=०३. अरुण अर्णव खरे         
=०४. अरुण शर्मा                 
=०५. उदयभानु तिवारी 'मधुकर'
०६. ओमप्रकाश शुक्ल      २० 
=०७. कालीपद प्रसाद 
=०८. डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल'
=०९. छगनलाल गर्ग 'विज्ञ'
=१०. छाया सक्सेना 
=११. जयप्रकाश श्रीवास्तव ७० 
=१२. त्रिभवन कौल 
=१३. प्रेमबिहारी मिश्र 
=१४. बसंत मिश्र 
=१५. मिथलेश बड़गैया 
=१६. रामेश्वर प्रसाद सारस्वत 
=१७. विनोद जैन वाग्वर 
=१८. विजय बागरी 
=१९. श्यामल सिन्हा 
=२०. शुचि भवि 
=२१. श्रीधर प्रसाद द्विवेदी 
=२२. सुनीता सिंह 
=२३. सरस्वती कुमारी
=२४. सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' 
=२५. हरि फैज़ाबादी 
२६. 

प्रतीक्षा सूची: कांति शुक्ल, लता यादव, विश्वंभर शुक्ल, सरस्वती कुमारी, सुमन श्रीवास्तव, 


​​ॐ 
दोहा शतक 
अखिलेश खरे 'अखिल'














आत्मज: स्व.श्री आनंदीलाल खरे। 
जन्म: ​३०.६.१९७१, कछारगाँव बड़ा, कटनी ४८३३३४। 
शिक्षा: परास्नातक। 
​​संप्रति: मुख्य सलाहकार जीवन बीमा निगम।

​लेखन विधा: दोहा, बालगीत, सजलकुण्डलिया। 
संपर्क:  अखिलेश खरे 'अखिल', कछारगाँव(बड़ा), द्वारा मझगवां सरौली, तहसील ढीमरखेड़ा, जिला कटनी ४८३३३४। चलभाष: ९७५२८६३३६९। ईमेल: sumitkhare2003@gmail.com 
*
ॐ 
दोहा शतक 
*
गोरी बैठी भोर में, ओढ़ पूष की धूप
मौसम कुछ बेशर्म सा, ताके सुघर स्वरूप
*
भोर भाल पर अधर जब, धरे पूष की धूप।
दरिया का मन कुनकुना, मौसम देख अनूप।।
*
पत्थर धोबी घाट का, दिखलाता औकात।                                                          
मेरे पीछे ही सदा, करता दो-दो बात।।
*
धूप करोंटा ले गई, सुन जाड़े की बात।                                                        
दिवस ठिठुरता रह गया, बनी बिछौना रात।।
*
नदिया विधवा हो गई, वन मुँडवाए बाल।                                                          
प्यास बैठकर दल रही, हर पनघट पर दाल।।
*
चूल्हा,चकिया, ओखली, छानी मकां दुकान।                                              
कस्बा-बस्ती के इन्हें, दादा-दादी जान।।
*
झाड़-फूँक की जड़ें हैं, जनगण में मजबूत।
दवा बाद में ले रहे, पहले चली भभूत।।
*
नपना बदले आदमी, देश-काल अनुसार।
पतला-मोटा देखकर, बदले नाप सुनार।।
*
आँख दिखाती जेठ में, ननद सास सी लाल।
उसी धूप के पूष में, झरे पूँछ के बाल।।
*
बूँद- बूँद जल मिल चला, पाषाणों की ओर।
राह रोक पाए नहीं, गिरि-जंगल घनघोर।।
*
राहों के कंकर चुभें, परखें मन की धीर।
सागर सा व्यवधान भी, चीर गए रघुबीर।।
*
मंजिल सीता माँ सरिस, सुरसा सी मग पीर।
पवनपुत्र सा हौसला, भरे सफलता नीर।।
*
घर की फ़ूट समझ 'अखिल', ज्यों हांडी में छेद।
खोल बिभीषण ने दिया, लंकापति का भेद।।
*
पालागी-जय राम जी, हुई नदारत आज।
मोबाइल के जाल में, उलझा सकल समाज।।
*
कर्जा ले घी पी गये, रहन हुए घर-द्वार।
बैठी विपदा आँगने, फैलाए बाजार।।
*
श्याम सलौनी निशा के, केश सितारे टाँक।
पहन नदी की पायलें, रही भोर भू झाँक।।
*
धूप-दुशाला ओढ़ कर, भोर ढाँकती अंग।
मौसम प्यासा प्यार का, रंग रँगीले ढंग।।
*
पीत चुनरिया ओढ़कर, लजती सरसों मौन।                                                        
टेसू पागल प्यार में, किसके बोले कौन?।
*
खेतों से डोली चली ,खलिहानों में शोर।
पिता गेह से ज्यों बिदा, पिया गेह की ओर।।
​*
बर्षा का सुन आगमन, खुशियों की बौछार।                                                        ​
ज्यों रूठी प्रियतमा जा, मैके से ससुरार।       

*
देख सजीला नभ विहँस, दिशा सुनाती गीत।                                                      
हरा घाघरा ले धरा, साध रही संगीत।।
*
पैसे से है बंदगी, पैसे से पहचान।
बिन पैसे के स्वजन भी, बन जाता अनजान।।
*
वर्षा लगी निकालने, छानी की सब खोट।
ज्यों विपक्ष पर कर रहे, सत्ताधारी चोट।।
*
जंगल के सिर पर उगे, पावस पाकर बाल।
सत्ताधारी दल 'अखिल', ज्यों हो मालामाल।।
*
पावस आने का नदी, बाँधे मन-विश्वास।
अस्पताल ज्यों देखकर, बढ़ जाती है आस।।
*
दस में बिकती थी कभी, दो रूपये में आज।
अरे टमाटर साठ के, हो मत जाना प्याज।।
*
ब्याह रचाने आ गई,पावस मेरे गाँव।                                                           
दादुर मंत्र उचारते, बैठ सुहानी ठाँव।।
*
व्योम,बिजुरिया,बाजने, पायल सी छनकार।
पवन बाँसुरी पावसी, मौसम है फनकार।।
*
शहर सहर सा सुघर है, उससे सुंदर गाँव।
सुदिन बाँचता भोर से, कागा कर-कर काँव।।
*
भोर खड़ी मज्जन किये,आज नदी के तीर।
बूँद बूँद नहला गई,धरनी मले शरीर।।
*
धवल धवल सी चाँदनी, धवल काँस के फूल।
पावस माया जाल ज्यों, गया कबीरा भूल।।
*
भरी तिजोरी खेत की, कहिं कुटकी कहुँ धान।
लेखा-जोखा कर रहा, बूढ़ा मेड़ मचान।।
*
हिरण चाल नदिया चली, सर, मन उठी हिलोर।
पावस पायल पहन पग, नाचे अँगने खोर।।
*
बिद्यालय खुलने लगे,मौसम की मनुहार।
फीस,किताबें,कापियाँ, गर्म हुआ बाजार।।
*
छानीवाले हैं कहाँ, अब कोई स्कूल।
बदल गए है आजकल, 'अखिल' पुराने रूल।।
*
दुल्हिन सी खेती सजी, हरी ओढ़नी तान।
अकड़ दिखाता मेड़ पर, टूटा हुआ मचान।।
*
ताँक-झाँक चंदा करे, छुपे बदरिया ओट।
सजी धरा को देख कर, मन में दिखती खोट।।
*
गाँव, शहर जबसे बना, दुआ सलामी गोल।
गलियों-गलियों पर चढ़े, कंकरीट के खोल।।
*
पावस की लगती 'अखिल', सुखदाई  सी भोर।
हरा घाघरा पहन कर, धरा सजी हर पोर।।
*
सुखदाई माँ गोद सी, पावस की बौछार।
सज-धज धरनी कर रही, अम्बर की।।
*
सारे जग में श्रेष्ठ है, अम्मा तेरा नाम।
तेरे सुखद चरण लगें, मुझको चारों धाम।।
*
रामचरित मानस अवध, तू ही सीता-राम।
तू गीता ही गीता द्वारिका, तू ही राधा-श्याम।।
*
जबसे सिर से उठ गया, पूज्य पिता का नेह।
जेठ दोपहर सी तपे, 'अखिल' झुलसती देह।।
*
बिन माँगे माँ पेट भर, बेटों को आशीष।
भूखी रखती है उसे, हर दिनांक इकतीस।।
*
आँगन-आँगन उग रहीं ,काँटों की दीवार।
अम्मा की ममता 'अखिल',द्वार खड़ी लाचार।।
*
खेत बँटे आँगन बँटे, खिड़की आँगन द्वार।
बिन बँटवारे के मिले, जग को माँ का प्यार।।
*
मंदिर, मस्जिद, चर्च सब, बाँट रहे इंसान।
पञ्च तत्व निर्मित सभी, हिंदू , मुगल, पठान।।
*
वात, पित्त ,कफ का 'अखिल', उचित रहे जब योग।
तब तक कभी शरीर को, क्या छू पाये रोग।।
*
मिले योग से आयु सुख, योग ज्ञान  का सार।
अज्ञानी का धन 'अखिल', दुःख का है आधार।।
*
जिम्मेदारी शीश पर, आँखों में है प्यार।
सीना ममता से भरा, जय भारत की नार।।
*
सच से आँखे जब मिली, दिया पसीना छोड़।
पुरुष संयमी कभी भी, चले न रस्ता तोड़।।
*
बिना समर्पण कब मिला, ज्ञान-भक्ति का दान।
हुए समर्पण से 'अखिल' तुलसी, सूर, महान।।
*
धूल पात पर उड़ जमे, ले मन में दुर्भाव।
कभी न बदला पत्र ने, अपना सहज सुभाव।।
*
मंत्री बन बैटर  रहो, बाबा जीवन बेस्ट।
साधारण के कब हुए, बाबाओं से टेस्ट?
*
आज बदलता आदमी, पल-पल कितने रंग।
गिरगिट भी हैरान है, देख अजब सा ढंग।।
*
दबे रहे जो ग्रीष्म में, छानी के कुछ होल।
वर्षा में खुलने लगे, ज्यों विपक्ष की पोल।।
*
गुल गुलशन, वन जीव सब, तब-तब हुए उदास।
खास जश्न की खबर जब, पहुँची उनके पास।।
*
पुत्र जन्म नर-नाथ घर, देख डरे पशु भीत।
बकरे से बकरी कहे, भाग चलो अब मीत।।
*
चीरहरण सा चल रहा, द्रुपदी हुआ किसान।
भीष्म पितामह मूक हैं, आ भी जा भगवान।।
*
कूटनीति की चक्कियाँ, खेती हुई पिसान।
फंदा कर्जा का गले, कैसे हँसे किसान?
*
श्रम-सीकर पी श्रमिक का, ताजमहल सी शान।                                             
बदले में दो कौड़ियाँ, जय हो हिंदुस्तान।।
*
श्रम सीकर से बन गया, कुर्ते पर जो चित्र।
भारत का नक्शा बना, कुर्ता हुआ पवित्र।।
*
पेड़ पथिक को दे रहे, मात गोद सा प्यार।
भेद-भाव बिन छाँह का, बाँट रहे उपहार।।
*                                        
कहो मोल माँगें कभी, पावक, गगन, समीर?
मातु-पिता, भाई-बहिन, धरा, समंदर, नीर।।
*
पेड़ न जाने भेद कुछ, हिंदू, मुगल, पठान।
आया जो भी पास में, दे फल-छाँह सामान।।
*
नैन पलक तरकस लगें, नजरें तीखे तीर।
प्रेम जंग रणबाँकुरी, अंग-अंग शमशीर।।
*
केश घने घन साँवरे, विमल चंद्र सम भाल।
घूँघट पट नैना छिपें, 'अखिल' चित्त बेहाल।।
*
कनक रंग सी देह है, कजरारे हैं नैन।
चाल फागुनी पवन सी, कोयल जैसे बैन।।
*
कूटनीति के घाट पर, सत्य हुआ बदनाम।
झूठ कपट के मंत्र से, गुँजित आठों याम।। 

*
भौजाई सी छाँह है, तेज ननद सी धूप।
जेठ दहाड़े द्वार पर, पिता गेह का कूप।।
*
दरिया दुल्हिन सी सहम, रही जेठ घर मौन।
पवन ननद सी चुलबुली, छेड़े उलझे कौन।।
*
नशे-नशे में हो गई, बहुत नशीली बात।
घूँसों की होने लगी, बेमौसम बरसात।।
*
थाने में दस की 'अखिल', देता थानेदार।
बीस रुपैया पैक पर, रोज बचेंगे यार।।
*
निपट नशीले मूड में, साहब लौटे गेह।
अटपट-लटपट चाल है, सनी कीच से देह।।
*
मधुशाला सी जिंदगी, पैमाने सी साँस।
कुछ हाथों तक मय गई, वरना रिक्त गिलास।।
*
हल से लिखता खेत पर, कृषक अनोखे छंद।
बरखा रानी बाँचती, लिखे हुए नव बंद।।
*
पाँसों जैसे हाथ में, हँसिया और कुदाल।
खेती-चौपड़ खेल सा, चलो सोचकर चाल।।
*
मँहगाई के सामने, खड़ा कृषक करजोर।
ज्यों कपिला है शेर के, आगे अति कमजोर।।
*
खेत बिछौना हो गया, चादर है आकाश।
पेट पकड़ कर सो गया, फिर भी नहीं निराश ।
*
चातक जैसी टकटकी, नेता जी से आस।
आश्वासन की पातियाँ, रही कुँवारी प्यास।।
*
भारत देश महान अति, हिमगिरि जिसका शीश।
कंकर-कंकर में विहँस, रमते शंकर ईश।।
*
गोरे काले का यहाँ, शेष नहीं मतभेद।
ज्यों सरिता सागर मिली, जाकर भूली भेद।।
*
दरिया जैसी जिंदगी, घाट-घाट विश्राम।
कहीं जागरण की सुबह, कहीं चैन की शाम।।
*
प्रीत, रीत के गीत भी, संस्कारी तटबंध।
मर्यादा की मूल से, भारत का अनुबंध।।
*
नेताजी की चाकरी, बरगद जैसी छाँव।
चापलूस मल्लाह की, लगी किनारे नाव।।
*
बाजी खेले जान की, खेतों बीच किसान।
जैसे सीमा पर डटा, आठों पहर जवान।।
*
उपजाता है अन्न जब, पेट भरें सब लोग।
पर किसान ही देश का, भूखा करता सोग।।
*
गिरगिट जैसी चाल है, चींटी जैसी जान।
चोरों जैसी हरकतें, पाजी पाकिस्तान।।
*
नैनों से छुरियाँ चलें, करें दिलों पर घात।
नैनों-नैनों में हुई, प्रेम भरी बरसात।।
*
नैना खुली किताब से, छुपा राज कह मौन।
महक छिपे कब इत्र की, कहो लगे कौन?
*
श्रम सीकर बोने लगे, खेतों  बीच किसान।
गीता के संदेश का, मन में करके ध्यान।।
*
खेतों की हर माँग को, पूरा करे किसान।
इम्तिहान देता रहा, बलि लेते भगवान।।
*
फागुन सरसों सज गई, गेंहूँ बदले रंग।
पी कर बैठा खेत में, चना जरा सी भंग।।
*
पवन भांग पी कर चली, मौसम देखे ख्वाब।
कलियाँ भौरों से कहें, बाँचो नेह किताब।।
*
टेसू-मन रंगीन है, महके अमुआ अंग।
सरसों पीली देखकर, महुआ का मन दंग।।
*
गोरी फागुन में सजी, विमल चंद्र सा भाल।
पग पायल नूपुर बजें, पुरवाई सी चाल।।
*
मन सावन-भादों हुआ, हरियाकर दिन दून।
प्रियतम परदेशी हुए, कर सपनों का खून।।
*
प्रेम पुजारी देश यह, पवन सुनाती तान।
तुलसी, सूर, रहीम, घन, प्रेम पगे रसखान।।
*
भादों गर्जे द्वार पर, पवन झकोरा मार।
बुँदिया नाचत आँगने, धरा करे श्रृंगार।।
*
'अखिल' अनंदी लाल सुत, फूलवती माँ जान।
ग्राम कछार सुहावना, है निवास अस्थान।। १०० 
***********


ॐ 
दोहा शतक 
अनिल कुमार मिश्र 





आत्मज: श्रीमती कलावती-स्व. रामनरेश मिश्रा। ​

जीवन संगिनी: श्रीमती रजनी मिश्रा। 
जन्म: ३१ मार्च १९५८, इलाहाबाद (उ. प्र.)
शिक्षा: एम. ए. ( समाजशास्त्र, हिंदी
लेखन विधा: नुक्ताचीनी, गीत, व्यंग, दोहे आदि 
प्रकाशन: दृष्टि (यात्रा संस्मरण), इन्द्रधनुष (काव्य संकलन)
संप्रति: विद्युत पर्यवेक्षक, उमरिया कालरी। सचिव वातायन साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था उमरिया (म.प्र.)

सचिव हिंदी साहित्य सम्मेलन म. प्र.  भोपाल (उमरिया इकाई)
​संपर्क: ​आवास क्रमांक बी ५८, ​९ वीं कालोनी उमरिया ४८४६६१।  

​चलभाष: ९४२५८९१७५६ , ९०३९०२५५१०, व्हाटस एप: ७७७३८७०७५७। ईमेल: mishraakumr@gmail.com
​*


ॐ 
दोहा शतक 
अष्टभुजी जगदंबिके, लुटा रहीं आशीष।
आदि शक्ति की अर्चना, करते हैं जगदीश।। 
मोक्षदायनी अंब हैं, महाशक्ति विख्यात।
पाप-शाप देतीं गला, शुभाशीष विख्यात।।  
*
मातु-चरण जब-जब पड़े, होते मंगल काज।
विघ्नहरण वरदायनी, चढ़ आईं मृगराज।। 
*  
रखूँ भरोसा राम का ,क्या करना कुछ और? 
राघव पद रज बन रहूँ, और न चाहूँ ठौर।। 
राम नाम महिमा बड़ी, पाहन जाते तैर। 
छोड़ जगत जंजाल तू, पाल न राग, न बैर।।  
पूरे जग में राम सा, नहीं अन्य ​आदर्श।
राम भजन-अनुकरण दे, जीवन में उत्कर्ष।। 
धन्य भूमि साकेत पा, राघव नंगे पाँव। 

निरख हँसे माता-पिता, विहँस उठे पुर-गाँव।। 
*
राम नाम शर साधिये, मिटते कष्ट समूल। 
सारे जग के मूल में, राम नाम है मूल।। 
गुणाधीश हनुमंत हैं, पंडित परम सुजान।
आर्तनाद सुन दौड़ते, महावीर हनुमान।।  
*
मर्यादामय राम है, सतत कर्ममय श्याम।
जिस ढिग ये दोनों रहे, जीवन चरित ललाम।। 
*
धन बल यश का क्या करूँ?, साथ न हों जब राम।
व्यर्थ हुईं अक्षौहिणी, सँग नहीं यदि श्याम।।  
*
मन में रखिये राम को, कर में रखिये श्याम।
मर्यादामय राम हैं, कर्मयोग घनश्याम।। 
*
देवी के मन शिव रमे, सीता के मन राम।
राधा के मन श्याम हैं, मानव के मन दाम।। 
*
कुञ्ज गली कान्हा फिरें, ग्वाल-बाल के साथ।
सच बड़भागी हैं बहुत, मोहन पकड़े हाथ।। 
*
मायापति क्रीड़ा करें, चकित हुआ ब्रज धाम। 
पञ्च तत्व भजते रहे, राधे-राधेश्याम।। 
*
पाँव डुबोये जमुन-जल, छेड़े मुरली तान।
कालिंदी पुलकित मुदित, धरकर प्रभु का ध्यान।। 
*
धेनु चराई ग्वाल बन, दधि लूटा बिन दाम। 
बने द्वारिकाधीश जब, फिरे नहीं फिर श्याम।। 
*
श्याम विरह में तरु सभी, खड़े हुए निष्पात। 
शरद पूर्णिमा भी हुई, स्याह अमावस रात।।
गोवर्धन सूना खड़ा, कुञ्ज मौन बिन वेणु। 
राह श्याम की ताकते, कालिंदी तट-रेणु।। 
*
लोभ मोह मद स्वार्थ के, ताले लगे अनेक।
ईश-कृपा सब लौटतीं ,बंद द्वार पट देख।।  
*
लोभ मोह मद हम फँसे, लो प्रभु हमें निकाल। 
जीवन में शुचिता रहे, उन्नत हो मम भाल।। 
*
महासमर तम कर रहा, लोभ-मोह ले साथ।
लड़ने में सक्षम करो, प्रभु थामा तव हाथ।। 
*
ईश कृपा जिसको मिली, उसको व्यर्थ कुबेर। 
​ शुचिता की आभा रहे, थमे अमावस फेर।। 
सहज सरल को प्रभु मिलें, करें न पल की देर। 
हेम कुण्ड में हरि नहीं, अथक थके सब हेर।। 
मन वातायन खोलिए, निर्मल मन संसार। 
प्रभु-छवि आँखों में बसा, होगा बेड़ा पार।।   
*
तुम साधन अरु साधना, मन चित भाव विचार। 
ध्यान योग प्रभु आप हो, अवगुण के उपचार।। 
*
मायापति की शरण जा, छूटे बंधन-मोह। 
मानव मन भटका हुआ, है विराट जग खोह।। 
*
मिट जाएगी दीनता, भज ले  मारुति-नाम। 
​ यश-वैभव पौरुष मिले, बिन कौड़ी बिन दाम।। 
*
सत्कर्मो से कीजिये , कलुषित मन को साफ। 
​ करते हैं प्रभु ही सदा, त्रुटियाँ सारी माफ़।। 
*
मन में प्रभु कैसे रहें, बसी मलिन यदि सोच।
जैसे गति आती नहीं, अगर पाँव में मोच।। 
*
पुष्कर में ब्रह्मा बसे, अवधपुरी में राम। 
कान्हा गोकुल में रहे, शिव जी काशी धाम।। 
*
सागर में हरि रम रहे, रमा रहें नित संग। 
देव सभी मम हिय बसें, हो निश-दिन सत्संग।। 
*
मन में रख श्रद्धा अनिल, प्रभु दिखलाते राह।  
प्रभु के द्वारे एक हैं, दीन कौन, क्या शाह।। 
*
कर्मठता कब देखती, नक्षत्रों की चाल। 
श्रम पूँजी जिसको मिली, वह है मालामाल।। 
*​ 
रहें न गृह वक्री कभी, रहें राशि शुभ वार। 
नखत सभी अनुचर बने, राम कृपा आगार।। 
*​ 
राम चषक पी लीजिये, करिए तन-मन चंग।
धर्म-ध्वजा फहराइए, नीति-सुयश की गंध।। 
*​ 
अंधकार मन में रहा, बुझा ज्ञान का दीप।
प्रभु अंतर ऐसे छिपे, ज्यों मोती में सीप ।। 
*​ 
श्वास-श्वास यह तन फुका, जली न इच्छा एक। 
राम-नाम धूनी जला, लोभ चदरिया फेंक।। 
*​ 
राम नाम तरु पर लगे, मर्यादा के फूल।
बल पौरुष दृढ़ तना हो, चरित सघन जड़-मूल।। 
*​ 
उहा-पोह में क्यों फसें?, पूछे नवल विहान। 
कर्मठता के साथ ही, सदा रहें भगवान।। 
*​ 
दीप पर्व अरि तमस का, देता जग उजियार।
पाप मिटे हरि-भक्ति से, हो शुचि-शुभ संसार।। 
*​ 
प्रेम वह्नि दहकाइए, बैर-शत्रुता फूक। 
​ माना यह पथ कठिन है, राम उपाय अचूक।।  
*​ 
जीवन में मत कीजिये, मिथ्या से गठजोड़।
क्षमा,शील, तप, सत्य का, कहीं न कोई तोड़।। 
*​ 
भक्ति-भाव से सींचिये, मन का रेगिस्तान ।
महक उठेगा हरित हो, जीवन का उद्यान।। 
*​ 
मन में शुचिता धार ले, त्याग लोभ मद काम।
स्वर्ग-नर्क हैं यहीं पर, मोक्ष यहीं सब धाम।। 
*​ 
छठ मैया जी आ गईं, बहती भक्ति बयार।
भूख-प्यास तिनका हुईं, श्रद्धा अपरम्पार।।  
*​ 
पाई-पाई में हुई, हाय! अकारथ श्वास। 
गिनते बीती जिंदगी, राम न आये पास।। 
*​ 
नींद खुली जब भोर में, खड़ा सामने पूस।
भानु महोदय हो गये, ज्यादा ही कंजूस।।
*



कौड़ा और अलाव से, रखिये अब सद्भाव। 
इनके ही बल शिशिर के, घट पाएँगे भाव।।
*
पूस बाँटने चल पड़े, पाला शीत कुहास
कूकुर चूल्हा में घुसा, साध रहा है साँस।।
*
शुभ विचार शुभ भाव हों, हो शुभ ही मन-चित्त  

शुभ आचार-विचार हों, शुभ हो जीवन-वृत्त।।
* 
नई नवेली सोचती, काश न आये भोर।
पड़ी प्रीत ले पाश में, टूट रहे हैं पोर।।
*
चादर ओढ़े धवल सी, खेत खपड़ खलिहान।
ठिठुरे-​ठिठुरे से दिखे, मचिया मेड़ मचान।।
*
स्वेटर शाल रजाइयाँ, ताप रहीं हैं धूप। 
कल तक सारे बंद थे, मंजूषा के कूप।।
*
चना-चबेना-गुड़ बहुत, पूस माँगता खोज।
बजरे की रोटी रहे, चटनी भरता रोज।।
*
हीर कनी तृण कोर पर, पूस रखे हर रात।
बिन लेतीं हैं रश्मियाँ, आकर संग प्रभात।।
*
भानु न धरणी पग रखे, देख शिशिर का जोर।
जा दुबके हैं नीड़ में, शान्त पड़ा खग शोर।।
*
खल हो सूरज जेठ में​, और समीरण यार।
माघ मास सब उलट है, मानव का व्यवहार।।  
*
कज्जल, वेणी,हार,नथ, सन हुए​ बेहाल।
दहकी प्रिय संग बाँह गह, भूली सभी मलाल।।
​ *
शिशिर यातना दे रहा, भूल सभी व्यवहार। 
पृष्ठ भरे हैं जुल्म से, बाँच सुबह अखबार।। 
*
कुछ सोए फुटपाथ पर, कुछ ऊँचे प्रासाद
सबके अपने भाग हैं, नहीं शिशिर अवसाद।।
*
रखे मृत्यु सम दृष्टि ही, करे न कोई भेद
सत्कर्मी जब भी गया, जग को होता खेद।। 
*
हत्या हिंसा से रँगी, दिखी पंक्तियाँ ढेर
डरा रहे अख़बार हैं, आकर देर सबेर।। 
*
सीता को ​सब खोजते, किंतु न बनते राम
शर्त सरल पर कठिन है, पहले हों निष्काम।।
*
रिश्ते-नाते टाँकिये, नेह​-​सूत ले हाथ
साँसें जो छिटकी रहीं, चल देंगी सब साथ।।
​ *
हम मानव अति हीन हैं, तरु हैं हमसे श्रेष्ठ
छाया ,पानी, फल दिया, माँगा नहीं अभीष्ट।।
*
साँसों का मेला लगा, पिंजर है मैदान
इच्छाएँ ग्राहक बनी, मोल करे नादान।। 
*
गिनती की साँसें मिलीं, क्यों खर्चे बेमोल?
मिट्टी में मिल जागा, अस्थि चाम का खोल।।
​ *
हाँ - हाँ , हूँ - हूँ कर रहा, करके नीचे माथ
लालच कब करने दिया, ऊपर अपना हाथ।।
*
कृषकायी सरिता हुई, शोक मग्न हैं कूल
सांस जगत की फूलती, होता सब प्रतिकूल।।
*​
बेला बिकता विवश हो,​ ​सोच रहा निज भाग। 
मंदिर या कोठा रहूँ, या दुल्हिन की माँग।।  
*
बेला कभी न सोचता, कौन लिए है हाथ
उसको ही महका रहा, जो रखता है साथ।।
​*
बेला जब गजरा बनेउपजें​ भाव अनेक
वेणी बन जूड़ा गुथे, मन न रहे फिर नेक।।
*
खोलो मन की साँकली, झाँके अन्दर भोर।
भागे तम डेरा लिए, सम्मुख देख अँजोर।।
*
भास्कर नभ पर आ कहे, उठ जाओ सब लोग। 
तन-मन नित प्रमुदित रहे , काया रहे निरोग।।
*
धमनी-धमनी में बहे, नूतन शोणित धार। 
तन-मन यदि हुलसित ​रहे, भुला बैद का द्वार।। 
*
पायल ​सहमी पाँव में, चूड़ी है बेहाल। 
सावन ​सूना हो नहीं, जैसे पिछले साल।।
​*
आएगा जब गाँव में, कागा ले संदेश। 
पल में ही कट जायगा, शाप बना परदेश।।
​*
सावन पापी ठहर तो ,मत बरसा रे!आग।
विधि ने खुशियाँ कम लिखीं, मैं ठहरी हत भाग।।
*​

पावक से लिपटे हुए, अंग-अंग श्रृंगार। 


​​पावस में रजनी हुई, जैसे सौतन नार।।
*
दर्पण हैं चंचल नयन, बाहुपाश हैं हार।
प्रियतम से अनुपम भला ,कब कोई श्रृंगार।।
*
पावस बूँदें छेड़तीं, जाने किस अधिकार। 
प्रियतम!​ निज थाती गहो, यौवन बोझिल भार।।  
​*

प्रीतम बरसें मेघ बन, तन भिसके ज्यों भीत।
पोर-पोर टूटन कहे, हा! पावस की रीत।।
*

प्रियतम की आहट मिली, पायल बोली कूक। 
​​मध्य भाल टिकली हँसी, कंगन रहा न मूक।।
*
दिवा हुआ है शिशिर सा, और ग्रीष्म की रात। 
​​नयन-नयन संवाद ​सुन, अधर-अधर की बात।।

*
अंग-अंग वाचाल लख, काँधा आँचल छोड़।
आँखें प्रियतम को तके,निज मर्यादा तोड़।।
*
गोरी ने खुद को किया, प्रियतम के अनुकूल।

​आँचल में भी फूल हैं, चोटी में भी फूल।।
*
नथ अधरों से कर रही, गुपचुप कुछ संवाद। 
मैं शोभा की पात्र बस, तुम हरदम आबाद।।
*
तुम हो किस रस में पगे, पूछे नथ यह राज।
अधर कहे हम मित्र हैं,मिलें त्याग कर लाज।।
​*
पग आलक्तक से रंगे, नयन हुए अरुणाभ।
अंग-अंग हँस कह रहे, जगे हमारे भाग।।   
*

फेंक न जूता मारिए, इनका भी है मान। 
​नेता को पड़ रो रहा, आज हुआ अपमान।।
*
बेटा से माता कहे, बेटा! गारी बोल। 

​​संसद की भाषा यही, बोल बजाकर ढोल।।
*

चोर द्वार से है घुसे, लड़ते नहीं चुनाव।  
लोकतंत्र के पीठ पर, नेता ​करते घाव।।
*
हिंदी का निज देश में, हम करते अपमान।
एक दिवस के रूप में, लेते जब संज्ञान।।
​*
कैसे कुछ सौ वर्ष में,बदल गया ​है रूप। 
​​हिंदी दासी रह गई, अंगरेजी है भूप।।
*

हिंदी को अपनाइए, तनिक न करिये लाज।


इस से अपना कल रहा, इससे ही है आज।।
*
दोहा छंद कवित्त हैं, हिंदी के श्रृंगार।
​चिरगौरव से युक्त हैं, हिंदी के युग चार।।
*
सारी लज्जा छोड़ दें, हो हिंदी व्यवहार।
अगर पराई सी रही, हमको है धिक्कार।।
​​*
धीरे-धीरे झाँकती,जा सागर के पार।
​हिंदी की है छवि मृदुल, मिलता नेह-दुलार।।
*
शील क्षमा साहस दया, उन्नति के सोपान।
इसी मार्ग चल मिलेंगे, कृपासिंधु भगवान।। १०० 
***********

​दोहा शतक
अरुण अर्णव खरे
















आत्मज: स्व.शांति देवी-स्व. गयाप्रसाद खरे।
जीवन संगिनी: श्रीमती माला खरे
जन्म: २४ मई ​१९५६, इलाहाबाद (उ. प्र.)
शिक्षा: बी.ई. यांत्रिकी।
​लेखन विधा: व्यंग, दोहे, गजल आदि
​प्रकाशन: रात अभी स्याह नहीं (गजल संकलन)
सम्प्रति: सेवा निवृत्त मुख्य अभियंता, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग मध्य प्रदेश।
संपर्क: डी-१/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग, भोपाल म. प्र. ४६२०२६।
चलभाष: ९८९३००७७४४, ई मेल: arunarnaw@gmail.com
*
​ॐ
दोहा शतक ​
*
पता नहीं किस देव का, ऐसा है अभिशाप। खेल करोड़ों में रहे, नेता पैसा छाप
* असंतुष्ट हैं सब यहाँ, क्या किसान, क्या छात्र संवेदी सरकार ह​, करती वादे मात्र
* पुत्र हुआ सरपंच का, फिर दसवीं में फेल
ख़ास योग्यता खेलता, राजनीति के खेल
* टिकट उसे ही मिल गया, देखा-समझ रिज्यूम रेप, घूस का अनुभवी, खाते में दो खून * गया रामलीला किया, लछमन जी का रोल था अपात्र अब हो गया, वह नेता अनमोल | * जनमेजय के यज्ञ से, बचे रहे जो नाग अब कुर्सी पर बैठकर, उगल रहे हैं आग * बिगुल चुनावी क्या बजा, लगें नित्य आरोप मन व्याकुल है देखकर, मर्यादा का लोप * लाई है ऋतु चुनावी, आरोपों की बाढ़ झूठ बोलते ना दुखे, नेताओं की दाढ़ * नेता जी हैरान हैं, सख्त बड़ा आयोग। कम्बल, दारू सब रखे, कैसे हो उपयोग? * जनसेवा चर्चित हुई, मंत्री की श्रीमान। साले जी को मिल गईं, सारी रेत खदान
* पूस-अंत की सुबह के, अलबेले हैं ढंग। सूरज है निस्तेज सा, कुहरा हुआ दबंग।। * सूरज काँपे ठण्ड से, कुहरा ओढ़े भोर।
हवा तीर जैसी रही, अंदर तक झकझोर।।
* शरद हमेशा की तरह, लाया है सौगात। जलतरंग सी नासिका, किट-किट करते दाँत।। * आँखें मलता रवि उगा, ले अलसाई धूप। ठिठुर-ठिठुर छाया हुई, कुबड़ी और कुरूप।। * दूभर सूरज का दरस, पारा जीरो पास। हम अपने घर ही सिमट, भोग रहे ​वनवास।।
* कहो कहाँ प्रियतम खड़े, कुहरा है घनघोर। आँखें मल-मल देखते, चले नहीं कुछ जोर।। * जलती रही अलाव में, ठण्डी-ठण्डी आग। जाड़ा-जाड़ा मन जपे, तन ने लिया ​विराग।।
* प्रियतम दूर, न आ रहे, आती उनकी याद। धुआँ-धुआँ सब शब्द हैं, कैसे हो संवाद।। * पूस अंत की सुबह का, धूसर-धूसर रंग। पाखी बैठे घोंसले, कैसे हो सत्संग।। * सहमा सूरज झाँकता, नभ से कम्बल ओढ़। सर्द हवाओं से किया, उसने ज्यों गठजोड़
*
आभासी रिश्ते हुए, अपनेपन से दूर। लाइक गिन दिन कट रहे, हैं इतने मजबूर।। * जलता रावण कह रहा, सुन लो मेरा हाल। क़द मेरा दो चार फ़ुट, बढ़ जाता हर साल
* राम नाम रखकर करें, रावण जैसे काम। चाहे रामरहीम हों, चाहे आसाराम
* जलता रावण पूछता, बतलाओ हे राम! क्या कलयुग में फूँकना, पुतले केवल काम।। *
ऊँची हुईं ​अटारियाँ, फक्कड़ रहे कबीर।
लेशमात्र बदली नहीं, होरी की तक़दीर।। * काला धन आया नहीं, इसका सबको खेद। माल्या लेकर उड़ गया, सारा माल सफ़ेद
*
संत कलंकित कर रहे, हम सबका संसार।
त्याग-तपस्या ​भूलकर, करते यौनाचार।।

*
समरसता पथ-पर नहीं, हैं विकास के पाँव।
होरी की है झोपड़ी, अब तक बाहर-गाँव।।
* विनती राजन आपसे, करो निरंकुश राज। बस हमको मिलती रहे, सूखी-रोटी प्याज।। * चौंसठ खानों में छुपा, राजनीति का सार। नेताओं ने सीख लीं, चालें कई हजार
*
रँगने को लाया तुम्हें, भाँति-भाँति के रंग। बचा सको तो लो बचा, अपने अंग अनंग
* अंदर-बाहर रँग दिया, होली में इस बार। मन बस से बाहर हुआ, कौन करे उपचार
* मुट्ठी लगे गुलाल ने, जोड़े मन के तार। बाँध गया सत जन्म को, होली का त्योहार
* पाती लिखी बसंत ने, जब गुलशन के नाम। माली को करने लगे, तितली-भ्रमर प्रणाम
*
पहली-पहली फाग का, अनुपम है आकाश
नैन हुए कचनार से, अधरों खिले पला।।
*
फूलों की वेणी पहिन, पायल बाँधे पाँव। पूछे पता बसंत का, फागुन आकर गाँव
* रितु बसंत प्रिय दूर तो, मन है बड़ा उदास। हरसिंगार खिल यों लगे, उड़ा रहा उपहास।। * फूलों के घर आ गई, खुशबू लेकर डाक। लगीं तितलियाँ झूमने, बदल-बदल कर फ्रॉक।। * बाँचें गीत गोविंद जू, ढोलक देती थाप। फागुन लेकर आ गया, घर उमंग चुपचाप। * पोर-पोर खुशबू लिए, भीनी-भीनी छाँव। सिर महुए के घट धरे, फागुन आया गाँव।। *
होरी-धनिया हैं दुखी, बिटिया स्यानी ​जान।
घात लगाकर हैं खड़े, लोमड़, गीदड़, श्वान।।
* पटवारिन की छोकरी, मिर्ची तीखी-लाल। चर्चा उसकी हर तरफ, गाँव, गली, चौपाल
*
दिल में करुणा प्रेम है, अधरों पर मुस्कान
मेरी इस संसार में, बस इतनी पहिचान
*
शेर लिखे मैंने बहुत, हो मस्ती में चूर
तुम्हें देखकर जो लिखे, हुए वही मशहूर
*
वेद-पुराण पढ़े मगर, रहा अधूरा ज्ञान
तुमसे मिलकर ही मिली, दुनिया में पहिचान
*
भावहीन सब शब्द हैं, बुझे-बुझे से गीत
इसका कारण एक ही, तुमसे दूरी मीत
*
बिन बोले मनुहार का, ऐसे दिया जवाब
नजर चुराई लाज से, गालों खिले गुलाब
*
साँस-साँस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत, गजल, नव छंद
*
अधिक और भी खिल गई, पूनम की वह रात
होंठ दबा जब बोल दी, उने मन की बात
*
केन नदी के तट मिला, अनुपम उनका साथ
बिन बोले बस देखते, बीती सारी रात
*
कहो इसे दीवानगी, या सच्चा अनुराग
उनकी मृदु मुस्कान पर, हमने लिखी किताब
*
सुंदर सारा जग लगे, मन में जागे प्रीत
हारे दिल फिर भी लगे, मिली निराली जीत
*
उपवन, मौसम, चाँदनी, तुमसे मेरे छंद
तुमसे अधरों पर हँसी, तुमसे सब आनंद
*
सात समंदर पार वे, करो सखी उपचार
होरी-फागें बाँचता, फागुन आया द्वार
*
साँस-साँस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन की बात भी, लगती है गुलकंद
*
जवाकुसुम सा रूप है, वाणी घुली मिठास।
तन चंदन-तरु सुवासित, मन में हुआ उजास
*
बारिश की पहली झड़ी, हुआ विरोधाभास
धरती का ज्वर कम करे, देह तपे आभास
*
पानी लेकर आ गए, कारे-कारे मेघ
खेतों में हलधर लिखें, ले हल नव आलेख
*
सबको बारिश कर गई, इतना मालामाल
सूखी नदिया बह चली, हुए लबालब ताल
*
जेठ माह में देखिये, कैसा है अंधेर?
लगे सुबह से घूरने, सूरज आँख तरेर
*
भ्रमर, सुरभि, कोयल, कुसुम, हैं ये सभी गवाह
तुम मस्ती में जब चलीं, मौसम भटका राह
*
सूरज पानी ले उड़ा, किया नहीं संकोच​
पानी हमसे माँगती, गौरैया की चोंच
*
बिटिया स्यानी हो गई, बढ़ा हृदय पर बोझ
पीपल हर दिन पूजते, कृपा माँगते रोज
सबकी अपनी मण्डली, सबका अपना हाल
​अरसा ​बीता गाँव में, नहीं जमी चौपाल

छज्जे पर कबसे खड़ा, लेकर मन में आस
तुमको मुझसे प्यार है, कुछ तो दो आभास

रोम-रोम है धरा का​, गरमी से बेहाल
खुद भी प्यासे हो गए, नदिया, पोखर, ताल। ​

फूलों बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रृंगार के, पूजा के अनुरूप। ​
*
मन कविता करने लगा, झलक तुम्हारी देख।
गीत हजारों रच दिए, ग़ज़लें लिखी अनेक​।

नफरत-नफरत बो रहे, जहरीले हैं बोल
बाबा, साधू, मौलवी, सबके मन में झोल। ​
*
भरमाने को आ गए, फिर से मेरे ​गाँव।
आने वाले जल्द ही, लगता नए चुनाव। ​

साम्प्रदायिकता बढ़ी, बढ़ा धर्म उन्माद
फिर आ गए चुनाव क्या, हर दिन नया विवाद। ​

त्रेता रावण एक था, कलियुग में हर ओर।  
इसलिए तो फैल रहा, रक्ष-राज पुरज़ोर
महिला सशक्तिकरण की, देखी नई मिसाल
सरपंच-पति बाहुबली, बनकर करें कमाल। 
नेता जी आने लगे, घोषित हुए चुनाव
​ख़त्म कर रहे मदरसे, लाए हैं प्रस्ताव
प्रियवर इस संसार में, पढ़ना-लिखना व्यर्थ
यदि तुमने सीखा नहीं, मानवता का अर्थ
है इतिहास गलत अगर, बदलें बिन संकोच
गाँधी से नाथू बड़े, दूषित ऐसी सोच

घर में शाँति अगर नहीं, सही नहीं ​संदेश
कितनी कोशिश कीजिए, भागे दूर निवेश
*
​ आशाएँ थी आपसे, सच में बड़ी विशाल
वादों से मिटती नहीं, भूख विकट विकराल
*
दिवस सुहाना बीत​कर, होने आई शाम
सपने बहुत दिखा दिए, करिए कुछ अब काम
*
कटु निंदा ​कर ली बहुत, ​अब जगिए सरकार
दुश्मन सुधरेगा नहीं, हो निर्णायक वार। 
*
सीमा पर हो रहे हैं​, सैनिक रोज शहीद
​घर में घुस कर मारिए, लौटे फिर उम्मीद
*
अच्छे दिन आए नहीं, सभी दुखी हैं आज
कभी रुलाती दाल है, कभी रुलाती प्याज
*
मँहगाई सच हो गई, डायन सी विकराल
बनती है अब घरों में, यदा-कदा ही दाल
*
तुम बिन सब बेरंग सा, चाँद, नदी, कचनार
पेरिस लगे प्रयाग सम, होनोलुलु हरिद्वार
*
पाहुन बादल आ गए, उमड़-घुमड़ कर ठाँव
आँचल में जलनिधि लिए, बिजली बाँधे पाँव
*
पावस में ऐसे लगीं, झड़ियाँ अबकी साल
शुष्क धरा हरिताभ है, हुए लबालब ताल।
*
ऐसी मची बसंत की​​वन-उपवन में धूम
देवदार करने लगे, बातें ऊँची झूम
*
बूँदों की नव ताल पर, ताल हुए मदहोश
आतुर सागर नदी को, लेने निज आगोश। 
*
जुड़ा रहे ​जो धरा से, निर्मल संत स्वभाव
दुनिया उसको पूजती, रख आत्मीय जुड़ा।।
*
बड़े-बड़ों की सीख यह, रखना इसका मान
जीवन में भी दिन सभी, रहते नहीं समान।   
* 
पहुँचो तुम जब शिखर पर, रहें जमीं पर पाँव
अपनों को भूलो नहीं, याद ​रखो घर​-​गाँव
*
चलते रहते ​नदी के​,​ सदा किनारे साथ
पर सुख-दुख की तरह वे, नहीं मिलाते हाथ
*
शशि सा ​सुंदर रूप है, फूलों सा मृदु गात
बनकर ​ग़ज़ल ​उतर गए, कागज पर जज्बात
*
अगर ​न मन में न राग हो, सुन कोयल की कूक
सच मानिए ​बसंत से, हुई अयाचित चूक
*
नैन झुके सुन लाज से, हुए अधर भी मूक
जब रति से कहने लगे, कामदेव दो टूक।  
*
देख-देख पीड़ा बहुत, मर्यादा का लोप
आँखों में नफरत बढ़ी, चलती जिव्हा-तोप
*
सुख-सुविधाएँ ज्यों बढ़ी, घटा प्रेम-विश्वास
छूटा मेल-मिलाप भी, घटाहास-परिहास
*
है आपत्ति जिसे ​सखे, खुलकर दे वह बोल
शान यहाँ की तिरंगा​, जीवन सा अनमोल
*
​ पाना ही होता नहीं, देना परम सुभाग
परवाने भी प्यार में​, जीवन देते त्याग
*
​धर्म ​पढ़ाने में कहें​, हुई कहाँ पर चूक​?
​आए ​मजहब सिखाने, कर ​लेकर बंदूक।१०० 
*

दोहा शतक

अरुण  शर्मा ​














जन्म: १०.८.१९७५, मोकामाघाट, पटना
आत्मज: श्रीमती सुशीला देवी-श्री श्यामबिहारी शर्मा
पत्नी: प्रतिमा शर्मा

शिक्षा: इंटरमीडिएट
लेखन विधा: दोहा, गीत, मुक्तक
आजिविका: प्राइवेट जाब
प्रकाशित: साझा काव्य संग्रह
संपर्क: मानसरोवर हाउसिंग सोसायटी, फ्लैट न• ३०१,बिल्डिंग न• ए/२ वराला देवी तालाब के पास, भिवंडी, जिला ठाणे, महाराष्ट्र ४२१३०२
चलभाष ९६८९३०२५७२ / ९०२२० ९०३८७ ईमेल: arun968930@gmail.com
*
ॐ 
दोहा शतक 


मिट्टी की इस देह से, पाल रहे अनुराग।

जब तक साँसें मित्रता, टूट गई तब आग।। 

*

अगर-मगर में क्यों प्रिये, जीवन रहीं गुजार?
जब तक साँसें चल रही, तब तक यह संसार।। 
*
अब कहने को शेष क्या?, तुमसे दिल की बात।
मौन हुए अहसास सब, सुप्त हुए जज्बात।। 
*
कथनी-करनी पर मुझे, खूब मिला उपदेश।
वही हलाहल बाँटता, जो खुद है अमरेश।। 
*
शीत मौसमी भेंट है, घना कोहरा, ओस।
सर्दी के कारण हुआ, तरल जलाशय ठोस।। 
*
इस विस्तृत संसार की, सोच हुई संकीर्ण।
सिमट गये सब आज में, कल जो रहे प्रकीर्ण।। 
*
वैधानिक चेतावनी, सिर्फ कागजी काम।
धूम्र-मद्य-मद पान कर, मरता रोज अवाम।। 
*

ढूँढ़ रहा हूँ आज भी, नगमों वाली रात।
हम-तुम दोनों ठीक थे, बहके थे जज्बात।। 
*
अंतर में छल-छद्म है, बाह्य आवरण शुद्ध।
ऐसे कैसे तुम भला, बन पाओगे बुद्ध।। 
*
अति ही व्याकुलता भरे, अति करती मजबूर।
प्रेम करें अनिवार्य से, अति से रहना दूर।।
*
खौफ न है कानून का, और न है अनुराग।
इसीलिए है देश में, पाकिस्तानी राग।।
*
आशाओं के बीज से, निकले हैं कुछ खार।
हम तो भूखे रह गये, व्यंग्य करे संसार।। 
*
क्रोध कभी मत कीजिए, यह दुर्गुण की खान।
हरता बुद्धि, विवेक भी, नहीं छोड़ता ज्ञान।।
*
छप्पन इंची वक्ष में, दुनिया का परिमाप।
तब क्यों भूखी देहरी, पेट रही है नाप।। 
*
लाए वर्ष नवीनता, पाएँ हर पल हर्ष।
सुखमय हो जीवन सदा, मिले नित्य उत्कर्ष।। 
*
गत ने आगत से कहा, खुश रखना हर हाल।
हाथ तुम्हारे दे दिया, मैंने पूरा साल।।
*
अंतर के संताप ने, कलम थमा दी हाथ।
शब्द न रोटी बन सका, बस आँसू का साथ।।
*
ऐसे-कैसे तुम मुझे, कहते हो कंगाल?
अंतरघट में छुपाकर, माया का जंजाल।। 
*
आँसू तेरा मोल क्या, तुझमें ऐब हजार।
जग क्या जाने पीर को, नीर दिखे हर बार।। 
*
जिसने पाई ज़िंदगी, निश्चित है अवसान।
फिर भी  माया-मोह में, डूब रहा इंसान।। 
*
ढल जाएगी एक दिन, उम्र, समय यह देह।
नश्वर तन प्रेम क्यों, जो मिट्टी का गेह।।
*
कर्कश स्वर है काग का, करता दूर विछोह।
कोयल काली है मगर, वाणी लेती मोह।।
*
दिल को जो अच्छा लगे, कर लेना निष्काम।
कल की चिंता में कहाँ,खत्म हुआ सब काम।।
*
इस कलियुग ने आजकल, किस्से सुने तमाम।
दशरथ जैसे पिता सौ, पुत्र न पाया राम।। 
*
खुशबू बसी गुलाब में, पीर छुपाये शूल।
जैसी जिसकी कामना, मिला उसे अनुकूल।।
*
विनती करना प्रेम से, करना नहीं दहाड़।
चंद मिनट में आजकल, राई बने पहाड़।।
*
ढल जाएँगे एक दिन, उम्र, रूप, मृदु देह।
तन पर इतना प्रेम क्यों, है मिट्टी का गेह।। 
*
अगर चाहिए जिंदगी, सेहत भी भरपूर।
परामर्श मेरा यही, हों व्यसनों से दूर।। 
*
राहों में बिखरे पड़े, बैर-भाव के शूल।
सोच-समझकर पैर रख, राह नहीं माकूल।। 
*
एक पंक्ति में हैं खड़े, तुलसी, नीम बबूल।
अलग-अलग तासीर को, जाने वही रसूल।।
*
मौत सत्य है जान लें, जीवन कपट सलीब।
जीना चाहे जिंदगी, आती मौत करीब।। 
*
सुखद सुभग सानिन्ध्य को, नमन करूँ कर जोर।
चिरकालिक हो बंधुता, सहज मैत्री डोर।। 
*
रखना सदा कुटुंब में, समरसता का भाव।
नियम बने समुदाय को, अपनों में सद्भाव।। 
*
जाना सबको एक दिन, राजा रंक फकीर।
सुखद कर्म करते रहें, जब तक रहे शरीर।। 
*
रूपवती के रूप में, मैं खोया दिन-रात।
बुद्धिमती समझी नहीं, मेरे मन की बात।। 
*
पराधीन को बेड़ियाँ, कर देतीं मजबूर।
आज़ादी संग जिंदगी, जी ले मित्र जरूर।। 
*
कुछ क्यारी में पुष्प हैं, कुछ में उगे बबूल।
सोच-समझ अनुबंध कर, काँटे,खुशबू, फूल।। 
*
मौन भला कब राह दे, मार्ग न दे वाचाल।
नियत काल की उक्ति ही, करती मालामाल।। 
*
रे! मन क्यों होता रहा, जग में नित्य अधीर।
वही कर रहा कर्म तू, जो कहती तकदीर।। 
*
स्वयं सिद्धि का मंत्र जो, जपता सुबहो-शाम।
अंत समय में क्या उसे, मिल जाता सुखधाम।। 
*
कौन उजाला बाँटता, कौन घनेरी रात?
अपने-अपने कर्म ही, देते फल-सौगात।। 
*
अणुवत जन्मा जो वही, होगा आप विलीन।
कद बढ़ना निस्सार है, मानस अगर मलीन।। 
*
विषधर विष धारे सदा, कभी न करता पान।
दशन करे वह अन्य का, नहीं गँवाता जान।। 
*
चादर छोटी हो गई, या बढ़ गया शरीर।
चला सांत्वना ओढ़कर, जब से हुआ फकीर।। 
*
लेखा-जोखा कर्म का, दिया तराजू डाल।
कलयुग बैठा तौलने, सद्गुण दिया निकाल।। 
*
जीवन भर परिहास को, रहा तौलता रोज।
अंत हुआ जब सन्निकट, करे स्वयं की खोज।। 
*
चंदन घिस-घिस कर मनुज, मस्तक लेता थोप।
पाएगा क्या सत्य को, करे अकारण कोप।। 
*
हाथ जोड़कर ज्ञान पा, हाथ पसारे दान।
इज्जत मिलती प्रेम से, भक्ति-मिले भगवान।। 
*
जीवन के परिप्रेक्ष्य में, आँखें रखना चार।
दो आँखें सत्कर्म पर, दो रोकें व्यभिचार।। 
*
जीवन में प्रभु के लिए, रखें समर्पण-भाव।
भवसागर तारे यही, बनकर सुंदर नाव।। 
*
कंकर में शंकर मिले, शंकर में शमशान।
अंतरपट को स्वच्छ रख, पा जाएगा ज्ञान।। 
*
काल प्रवर्तित आज में, बदले रोज स्वरूप।
ढाई आखर छोड़कर, कुछ न रहा अनुरूप।। 
*
हमने उनसे आज तक, की केवल फरियाद।
और उन्हें लगता रहा, बातें हैं अपवाद।। 
*
हार हृदय की हार है, हार यथार्थ, अतीत।
हार मान ले हार जब, तब बेहतर हो जीत।। 
*
ठंडक इतनी बढ़ गयी, काँपे नित्य शरीर।
मौन हो गए सूर्य भी, कौन हरे अब पीर।। 
*
दिवा स्वप्न जैसी हुई, सुखद सुनहरी धूप।
आग, अँगीठी ही लगे, सुखमय दिव्य अनूप।।  
*
आभूषण निर्मित किया, स्वर्ण तपाकर आग।
स्वर्णकार गुरू तुल्य है, शिष्य विसर्जित भाग।।
*
दहन होलिका हो रहा, भेद हृदय में पाल।
समरसता को दफ्न कर, कौन यहाँ खुशहाल।।
*
उपकारक रख भावना, तरु से लें संज्ञान
खा पत्थर जिसने दिए, गैरों को उपदान।।
*
हाथों से प्रतिरूप पा, मन यह करे विचार।
मोल हमारा तब मिले, जब सुंदर आकार।।
*
हाथों के आक्षेप से, पायें सुखद स्वरूप।
गीली मिट्टी मन रहा, ज्ञान मिला बन धूप।।
*
कुंभकार के चाक का, किस्सा सुने तमाम।
पल में वह आकार दे, कल जो थे गुमनाम।।
*
नश्वर यह संसार है, नश्तर इसके ख्वाब।
चंद दिनों की जिंदगी, प्रेम सभी का आब।।
*
प्रेम हमारा तब प्रिये, हो सकता परिमेय।
जब अवगुंठन में कहीं, जाग उठा हो ध्येय।।
*
गीत, गजल है वाटिका, मन उसके हैं बंद।
आलिंगन करना सखे, तन मादक मकरंद
*
लूट रहा रस माधुरी, मधुकर चूम कपोल।
अनभिज्ञों के बाग में, करते विज्ञ किलोल।।
*
बाज़ बड़े जांबाज है, बाज़ न आते बाज।
जीते बाजी बाजकर, नहीं बहानेबाज।।
*
दिन अच्छे उनके हुए, जो हैं सदा समीप।
बाकी तो बस ढूढ़ते, फोड़-फोड़ के सीप।।
*
धीरे-धीरे हो रहा, रिश्तों में बिखराव।
दो जन का परिवार है, बाकी सिर्फ लगाव।।
*
बँटवारे के नाम से, भूल न जाना क्षेम।।
आँगन में दीवार पर, रखना दिल में प्रेम।
*
मिट्टी की इस देह से, खूब रहा अनुराग।
साँसें जब तक दोस्ती, टूट गई तब आग।।
*
अगर-मगर में क्यों प्रिये, जीवन रही गुजार।
जब तक साँसें चल रही, तब तक यह संसार।।
*
अब कहने को है कहाँ, तुमसे दिल की बात।
अहसासें शय्या पड़ी, सुप्त हुए जज्बात।।
*
हम-तुम दोनों ठीक थे,बहके थे जज्बात।
ढूँढ रहा हूँ आज भी, नगमों वाली रात।।
*
कथनी-करनी पर मुझे, खूब मिला उपदेश।
वही हलाहल धारता, जिसका नाम उमेश।।
*
शीत ऋतु ने दे दिया, घना कोहरा, ओस।
सर्दी के कारण हुआ, तरल जलाशय ठोस।।
*
सिमट गए सब आज में, कल जो रहे प्रकीर्ण।।
इस विस्तृत संसार की, सोच हुई संकीर्ण।
*
आशाओं के बीज से, निकले है कुछ खार।
हम तो भूखे रह गये, खुश होता संसार।।
*
जीवन पथ को कर्म से,सुगम करें हर राह।
माँ गंगा देती प्रिये, सबको सुखद पनाह।।
*
धीरे-धीरे सुख रहा, माँ गंगे की पाट।
मौजूदा हालात में,कूड़ा कचरा घाट।।
*
गंगा नद सा नद नहीं, ना गंगे सा नीर।
दर्जा पाया मातु का,फिर भी गंदे तीर।।
*
करते गंगा आरती, लेकर मन संताप।
मन मैला धोये नहीं, कहाँ मिटेगें पाप।।
*
ज्ञान बाँटते आजकल, माँ गंगे पर लोग।
सिर्फ दिखावा प्रेम या, करते है अनुयोग।।
*
माता माता सब कहे, सबकी सुनती बात।
कब कूड़े से आम जन,देंगे इन्हें निजात।।
*
जीवन पा निर्जीव रहे, मृत्यु मिला तब ज्ञान।
माते तेरी घाट पर, सच का सबको भान।।
*
साफ-सफाई को अगर, समझेंगे हम युद्ध।।
मिलकर कोशिश गर करें, माँ होयेंगी शुद्ध।
*
धीरे-धीरे हो रही, माँ गंगे अब दूर।
दोष समय का नहीं है, मनुज-दोष भरपूर।।
*
कर्म-कांड सह अर्चना,सब में गंगा-नीर।
पर कोई समझे नहीं, माँ गंगे की पीर।।
*
पेट भरे, झोली भरे, अगिन मिटाये रोग।
माँ गंगे की नीर से, जीते कितने लोग
*
मने दिवाली धूम से, होंठ सजे मुस्कान।
जले दीप, न हृदय जले, इसका रखना ध्यान
*
गले लगाएँ प्रेम से, भूल सभी प्रतिवाद।
झूमर, झाँझर, झाँझरी, झूम करे संवाद
*
जली हुई हर वर्तिका, देती यह संदेश।।
दीप जलाता आत्म को, रौशन करता देश
*
पूजन-अर्चन से सदा, सफल हुआ हर काम।
रौशन मन-मंदिर करे, प्रेम अगर निष्काम।।
*
अमन शांति का पाठ है, खुशियाँ मिले तमाम।
एक दीप रौशन करें, नित शहीद के नाम।।
*
अस्थि विसर्जित कर मुझे, दो माते का संग।।
करे दिवंगत लालसा, अंतिम दर्शन गंग।
*
रंग-बिरंगे रंग है, क्यों मन रखे सफेद।
कण-कण है रंगीन जब, क्यों रखता आच्छेद।।
*
पर्वत भी राई बने, अगर हृदय ले ठान।
कोशिश से इस जगत में,बनते लोग महान।।
*
तुम टेसू के फूल सम, मैं स्वाति की बूँद।
जग जाहिर है प्रेम क्यों, चलते आँखें मूँद।।
*
रिश्तों में दीवार है, पर अपनों की खोज।
यही सिलसिला चल रहा, वर्षों से हर रोज।।
*
एक-एक मत कीमती, खोले सबकी पोल।
संवैधानिक धर्म को, मत रुपये से तोल।। १००
*

दोहा शतक
उदयभानु तिवारी 'मधुकर'












आत्मज: स्व. गिरिजा बाई-स्व. लखनलाल तिवारी
जीवन संगिनी: स्व. वंदना तिवारी। 
जन्म१८.८.१९४६, बरही, जिला कटनी
शिक्षा​: डिप्लोमा सिविल इंजी., डी.एच.एम.एस., आयुर्वेद रत्न
​संप्रति:​ सेवानिवृत्त उपअभियंता, जल संसाधन विभाग मध्य प्रदेश।
​​विधा: दोहा, चौपाई, सवैया, सोरठा आदि छंद
प्रकाशित: गीता मानस (श्रीमद्भगवद्गीता काव्यानुवाद), महारानी दुर्गावती काव्यगाथा।   
संपर्क:  फ्लैट क्र. ५०१, दत्त एवेन्यू, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१। चलभाष: ९४२४३२३२९७ 
ईमेल: dr.u.b.tiwari1946@gmail.com।     

दोहा शतक 
महारास लीला 
बोले श्री शुकदेव जी, राजन! हरि मृदु बैन
सुन सखियाँ प्रमुदित हुईं, मन को आया चैन
*
सुंदरता निधि संग से, हुआ मनोरथ पूर्ण   
परस करें प्रिय को हुईं, सर्व सखी संपूर्ण    
*
कृष्ण सेविका गोपियाँ, और प्रेयसी संग   
गलबहियाँ डाले खड़ीं, हिय उठ रही तरंग   
*
सखिरत्नों के संग में, गोपेश्वर भगवान  
रमणा रेती पर रचा, रास नृत्य अभियान   
*
हर दो गोपी मध्य हरि, बाँह गले में डाल  
प्रगटे, रहे रहस्यमय, गोपी हुईं निहाल  
*
यद्यपि प्रगटे कृष्ण जी, सखि-संख्या अनुरूप   
सब सखियों को दिख रहा, केवल एक स्वरूप।।  
*
सखियों के मन में यही, होता था आभास  
उनके प्यारे कृष्ण हैं, केवल उनके पास।।   
*
हुए सहस्त्रों गोपियों, मध्य सुशोभित श्याम   
रासबिहारी ने किया, दिव्य रास आयाम।।   
*
सुर-यानों की लग गई, नभमंडल में भीर 
निज देवी सँग देवगण, प्रकटे दिव्य शरीर।।  
*
रासोत्सव को देखने, नैना हुए अधीर  
मन उनके वश था नहीं, बने देव कुछ कीर।।  
*
लता, हिरण, हिरणी बने, कुछ सुर पक्षी वृंद 
बजीं दुंदुभी स्वर्ग की, उमगा हिय आनंद।। 
*
देव पुष्प-वर्षा करें, छिड़ा मधुर संगीत 
भार्या सह गंधर्व मिल, गाते मंगल गीत।। 
*
लगा कृष्ण सँग नाचने, सारा गोपी वृंद
करतल ध्वनियाँ गूँजतीं, छलक रहा आनंद।। 
*
कंगन, करधन, पायलें, करतीं छुन्नक छुन्न 
मंजीरे स्वर-ताल में, करते किन्नक किन्न।। 
*
अगणित सखि आभूषणों, की ध्वनि करे विभोर 
कृष्ण मुरलिया खींचती, अंतर्मन निज ओर 
*
स्वर्णाभित मणि मध्य मणि, नीली शोभावान 
ज्यों हों ब्रज-सखि मध्य में, शोभित कृपानिधान।। 
*
मगन सृष्टि के जीव सब, सुन मुरली की  तान  
सखि फिरकी सी घूमतीं, तन का भूला भान।।     
*
कभी पैर आगे धरें, फिर पीछे हो घूम  
झूम-झूम कर नाचतीं, लट बल खा कटि चूम।।
*
कभी नचातीं नैन वे, कभी चलातीं सैन 
करके तिरछी भौंह से, बोल रही थीं बैन।। 
*
पवन लटों सँग खेलती, झुमके चूमें गाल 
जब झूमें कुच द्वय हिले, पग द्वय देते ताल।।      
*
बूँदें झलकीं स्वेद की, मुखमंडल छवि नव्य  
थकीं गोपियाँ टिकाया, सिर हरि कन्धा भव्य।।  
*
जैसे जलनिधि में उठें, रह-रह नीर तरंग 
वैसे सखियों के हृदय, उठती नृत्य उमंग।। 
*
टूट-टूट गजरे झरें, बिखरी सुमन-सुगंध 
रस लोभी भँवरे उड़ें, छूटें नीवी बंध।।    
*
श्याम घटायें चाँद पर, छाकर चमकें आप   
गालों पर छा केश लट, देतीं मद्धम थाप।।             
*
अधर मधुर मुस्कान भर, देखें हरि की ओर 
ज्यों रजनी में चाँद को, अपलक लखे चकोर।। 
*
नृत्यलीन गोपाल जी, लगते घन सम श्याम 
गोरी सखियाँ दामिनी, सोहें रजनी-याम।। 
*
गोपी जीवन प्रेम है, कान्हा परमानंद 
मोहे खग, नर, नाग सब, फैला सर्वानंद।। 
*
नृत्य गान में कृष्ण से, सट सखि पातीं हर्ष 
हुईं परम आनंदमय, पाकर कृष्ण स्पर्श।।  
*
वही राग अरु रागिनी, गान और स्वर, साज 
भक्ति-भाव रस से निकल,गूँज रहे हैं आज।। 
*
कृष्ण संग कुछ गा रहीं, ऊँचे स्वर में गीत 
उनके स्वर आलाप सुन, वाह करें मनमीत।। 
*
अन्य सखी का भी छिड़ा, ध्रुपद राग संगीत  
'वाह-वाह' श्री कृष्ण ने, कहा: 'लिया मन जीत।। 
*
एक सखी को नृत्य से, लगने लगी थकान 
कंगन, गजरे पड़ गये, ढीले रहा न भान।। 
*
वेणी से झरने लगे, बेला के मृदु फूल 
नृत्य गान में गिर गया, तन से खिसक दुकूल।। 
*
बगल खड़े श्रीकृष्ण की, सखि ने थामी बाँह 
एक अन्य को दे रखी, पहले ही निज  छाँह।। 
*
उनकी सुंदर बाँह थीं, दोनों चंदन युक्त     
वे सखियाँ भी हो गईं, प्रभु-सुगंध से सिक्त।। 
*
तन अरु मन पुलकित हुए, लपक बाँह लें चूम 
'मधुकर' जिनकी चाह में, भक्त रहे हैं झूम।। 
*
एक लीन थी नृत्य में, झूलें कुंडल लोल 
दर्शक रीझें देख छवि, सुंदर लगें कपोल।। 
*
उसने कृष्ण-कपोल से, सटा दिया निज गाल 
हरि ने मुख में पान दे, हुल्साया तत्काल।। 
*
नाच रही थी एक सखी, कर नूपुर झंकार 
थकी, बगल में थे खड़े, उसके प्राणाधार।। 
*
हरिके तन से टिक गई, फिर ले उनका हाथ 
निज कुच पर झट रख लिया, झुका लिया लज माथ।।  
*
राजन! मिला न लक्ष्मी, को वह परमानंद
जैसा सखियाँ पा रहीं, हरि के सँग स्वच्छंद।। 
*
लक्ष्मी जी से श्रेष्ठ है, सखियों का संयोग 
प्रेम तत्व रस पा रहीं, जिसका बने न योग।। 
*
हरि को प्रियतम रूप में, पाकर हो स्वच्छंद  
करने लगीं विहार सब, मुखरित होते छंद।।   
*
सारी सखियों के गले, पड़ी कृष्ण-कर-माल 
अद्भुत शोभा हो गई, उनकी हे महिपाल! 
*
सरसिज कुंडल कान में, लगते अति कमनीय 
घुँघराली लट गाल पर, झलक रहीं रमणीय।। 
*
सखि मुख मंडल पर चले, छलक स्वेद के बिंदु 
छटा निराली हो गई, हुआ मलिन ज्यों इंदु।।  
*
सब सखियाँ थीं नृत्य में, लीन कृष्ण के संग  
ध्वनि नूपुर, कंगन करें, चढ़ा रास-रस-रंग।। 
*
वेणी से बेला झरें, बिखरी सुमन सुगंध 
पुलिन मंच सुरभित हुआ, खुले केश के बंध।। 
*  
उस अदभुत स्वर-ताल में, मिला रहे निज राग 
झूम-झूम हर कली पर, मधुकर बने सुहाग।। 
*
परछाईं से खेलता, शिशु ज्यों रहित विकार 
वैसे सब सखि संग में, हरि करते खिलवार।।  
*
हृदय लगाते थे कभी, करते थे अंगस्पर्श 
तिरछी चितवन कर विहँस, उपजाते हिय हर्ष।। 
*
इस प्रकार हरि ने किया, सखियों संग विहार  
सुनो परीक्षित! देवगण, वह छवि रहे निहार।। 
*
हरि के अंगस्पर्श से, सखियाँ  हुईं निहाल 
केश खुले, तन पर नहीं, चोली सकीं सँभाल।। 
*
अस्त-व्यस्त गहने वसन, तन-सुधि जातीं भूल                 
मालाओं से गिर गए, टूट-टूटकर फूल।।
कृष्ण रास लीला निरख, भाव हुए हुए उन्मुक्त 
देवि स्वर्ग की  हो गईं, मिलन कामना युक्त।।  
*
दृश्य देख यह चंद्रमा, ग्रह, उपग्रह समुदाय 
हुए अचंभित छवि कहें, कह न सके निरुपाय।।
*
कृष्ण स्वयं में पूर्ण हैं, सुनो परीक्षित भूप 
तब भी जितनी गोपियाँ, उतने धरे स्वरूप।। 
*
श्रम कण झलके नृत्य से, बीती सारी रैन 
मनमोहन  मुख पोंछते, मूँदें सखियाँ नैन।। 
*
हरि करकमलस्पर्श से, तन की मिटी थकान 
आनंदित सखियाँ हुईं, खिली अधर मुस्कान।।  
*
सोने के कुण्डल ललित, रह-रह करें किलोल 
घुँघराली अलकावली, रहीं गाल पर डोल।। 
*
तिरछी चितवन से किया, सखियों ने सम्मान 
सब मिलकर करने लगीं, हरि-लीला गुण-गान।।  
*
थका हुआ गजराज ज्यों, सरित तीर कर भंग 
कर प्रवेश जल राशि में, खेले हथिनी संग।।   
*
वैसे वेदों से परे, गोपेश्वर अखिलेश  
सब सखियों के संग में, जल में करें प्रवेश।। 
*
सखि घर्षण से कृष्ण की, चिपट गई वन-माल 
वक्षस्थल से लग हुई, वह केशर सी लाल।। 
*
मन्नाते भौंरे उड़ें, ऐसा होता भान 
गाते हों गंधर्व ज्यों, बनवारी यश-गान।।  
*
जल-क्रीड़ा करने लगीं, सखियाँ हे भूपाल! 
हरि पर नीर उलीचतीं, हँसी न सकीं सँभाल।। 
*
चढ़े यान सुर ले रहे, हरि-लीला-आनंद 
बरसाते नभ से सुमन, गाते मनहर छंद।। 
*
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने, जल में किया विहार 
ज्यों हथिनी के वृंद सँग, गज करता खिलवार।।  
*
सखियों, भौरों से घिरे, पूर्णकाम योगेश  
फिर यमुना जल से निकल, वन में करें प्रवेश।। 
*
दृश्य बड़ा रमणीय था, जल, थल में थे फूल    
सुमन सुगंध बिखेरती, चले पवन अनुकूल।।  
*
जैसे हथिनी वृंद सँग, वन विचरे गजराज  
वैसे ही हरि शोभते, सुनो परीक्षित राज।।      
*
शरद पूर्णिमा में हुईं, बहुत रात्रियाँ एक  
जिसका वर्णन आज तक, करते काव्य अनेक।।  
*
हुई रजत सी चाँदनी, शोभा अति कमनीय 
उपमा दे-दे कवि थके, वह छवि थी रमणीय।।  
*
उस रजनी में प्रेयसी, सखियों सँग भगवान 
चिन्मय लीला से करें, पूर्णकाम सज्ञान।।  
काम भाव अरु चेष्टा, कर हरि ने आधीन 
सब सखियों को कर लिया, बंशी धुन में लीन।। 
*
                 परीक्षित उवाच 
प्रश्न परीक्षित ने किया, हे भगवन शुकदेव! 
एकमात्र श्रीकृष्ण ही, हैं त्रिभुवन के देव।। 
*
निज अंशी बलराम सँग, हरने भुवि का भार 
धर्मस्थापन के लिए, लिया पूर्ण अवतार।। 
*
कृष्ण स्वयं में पूर्ण हैं, नहीं किसी की चाह 
सर्वात्मा भी हैं वही, कोई न पाए थाह।।     
*
मर्यादा अरु धर्म के, रक्षक श्री भगवान्  
स्वयं धर्म विपरीत क्यों, कर्म किया श्रीमान?  
*
पर नारी तन छू कहें, प्रभु क्यों तोड़ें आन? 
मम संदेह मिटाइये, विप्र देव! मतिमान।।   
*
                शुकदेव उवाच 

सुन राजन के ये वचन, बोले श्री शुकदेव 
ब्रम्हा, विष्णु, महेश हैं, त्रिभुवन के त्रय देव।।   
*
सूर्य, अग्नि अरु देवता, जो सब भाँति समर्थ 
जन-हित कारण धर्म से, रखें न कोई अर्थ।। 
*
इस साँसारिक कर्म से, उन्हें न लगता दोष 
ज्यों पावक सब भस्मकर, रहता है निर्दोष।। 
*
हरि के प्रति यह सोचना, भी है राजन पाप 
सूर्य अग्नि में व्याप्त है, जिनका प्रखर प्रताप।। 
*
निज माया संयोग से, धर कर भिन्न स्वरूप 
लीला करते कृष्ण जी, सुनो परीक्षित भूप! 
*
जहर हलाहल पी गए, शिव की शक्ति महान  
हो जाएगा भस्म नर, अन्य करे यदि पान।।
*
जिसमें है सामर्थ्य वह, रहता अहम विहीन 
स्वारथ नाता विश्व से, रखता नहीं प्रवीन।। 
*
दोष उन्हें लगता नहीं, जो कर्तत्वविहीन 
वे निमित्त सब कर्म में, रहें राग से हीन।।  
*
अचर,सचर सबमें वही, सर्वेश्वर भगवान 
मानव कर्मों से परे, उसकी सत्ता जान।। 
*
वे अविकारी ब्रम्ह हैं, धरे मनुज का रूप 
वही व्यक्त-अव्यक्त हैं, वे ही विश्व-स्वरूप।।    
*
जिनकी पद रज प्राप्त कर, मिले तृप्ति आनंद 
योग क्रिया से योगि जन, काटें भव के फंद।। 
*
तत्व रूप हों ज्ञानि जन, जिनका तत्व विचार 
कर्मबंध की कल्पना, उनकी है बेकार।। 
*  
जीवों पर करने कृपा, लेते हरि अवतार 
लीलाएँ लख भक्तगण, निज को देते वार।। 
*
वे ही आत्मा रूप में, सबमें रहे विराज 
गोप-गोपियों में वही, सुनो परीक्षित राज।। 
*
गोप देखते कृष्ण को, दोषबुद्धि से हीन 
उनको दिखतीं गोपियाँ, गृह कार्यों में लीन।। 
*
हरि की माया ही  उन्हें, करा रही आभास 
उनकी प्यारी पत्नियाँ, दिखतीं उन्हें सकाश।। 
*
ब्रम्ह रात्रिे सम हो गए, उस रजनी के याम 
भोर हुआ गोपी सभी, हरि भेजें ब्रज धाम।।  
*
सुनो परीक्षित! जो करे, रास नृत्य गुणगान 
अरु हरिलीला भक्त जो, श्रवण करे धर ध्यान।। 

परा भक्ति में कृष्ण की, वह होता संयुक्त 
फिर 'मधुकर' भवसिंधु से, हो जाता है मुक्त।।९९
***

दोहा शतक
कालीपद ‘प्रसाद’  


  







जन्म: ०८/०७/१९४७, धोपादि, जिला खुलना (बांग्ला देश)
आत्मज: स्व. श्रीमती छाया रानी देवी-स्व. श्री महादेव मंडल
जीवन संगिनी: स्व. श्रीमती प्रभावती देवी   
शिक्षाबी.एससी., बी.एड, एम. एससी.(गणित); एम.ए.(अर्थशास्त्र)
संप्रति: अध्यापन राष्ट्रीय भारतीय सैन्य कालेज (आर.आई.एम.सी.) देहरादून, प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय संगठन
प्रकाशन: शैक्षणिक लेख केंद्रीय विद्यालय संगठन पत्रिका में, Value Based Education” पुस्तक, काव्य संग्रह काव्य सौरभ, मुक्तक व काव्य संग्रह अँधेरे से उजाले की ओर, उपन्यास कल्याणी माँ, साझा- ‘गीतिका है मनोरम सभी के लिए’, साझा दोहा-मुक्तक संग्रह २०१७
उपलब्धि: गीतिका प्रदीप सम्मान
संपर्क: साईं सृष्टि,बी ५०२, खराडी, पुणे, महाराष्ट्र ४११०१४, ४०३,ज्योति मीडास,(राममंदिर) कोंडापुर,हैदराबाद -५०००८४ चलभाष:०९६५७९२७९३१ ; ईमेल: kalipadprasad@gmail.com

दोहा शतक 
एक दीप ऐसा जले, मन का तम हो दूर
अंतर्मन का तम मिटे, मिले ख़ुशी भरपूर
*
सबकी इच्छा पूर्ण हो, दैव योग परिव्याप्त
हँसी-ख़ुशी आनंद हो, ऋद्धि-सिद्धि हो प्राप्त
*
घट-घट में ईश्वर बसे, जैसे तन में श्वास
दिखा नहीं भगवान पर, जीवित है विश्वास
*
करूँ प्रार्थना-अर्चना, दिन में शत-शत बार
सजदा पूजा रस्म भी, स्वीकारो सरकार
*
‘काली’, दुर्गा, शक्ति या, विधि हरि भोलानाथ
रूप कई पर एक है, घट-घट में जगनाथ
*
अपनी ही आलोचना, मुक्ति प्राप्ति की राह
गलती देखे और की, जो ण गहे वह थाह
*
अगर क्षमा ही श्रेष्ठ है, जिद्दी क्यों है संत?
सभी लड़ाई व्यर्थ है, नहीं किसी का अंत
*
ईसाई हिन्दू यवन, नहीं किसी की भूमि
देव अवतरण भूमि है, करो नहीं बध-भूमि
*
सूद सहित है भोगना, तुझको तेरा कर्म
जाँच-परख कर फल मिले, समझ कर्म का मर्म
*
वाइज़ हो या साधु हो, रखें सभी यह याद
जो झगड़े हर कौम वह, हुई नष्ट-बर्बाद
*
राम नाम की बाँसुरी, करे राम मनुहार
जनता माँगे नौकरी, हो जीवन-आधार
*
जात-पांत की नीति से, राजनीति हो दूर
जातविहीन समाज हो, दीन न हो मजबूर
*
भड़काना जन-भावना, नेता का व्यापार
लूट-लूट कर खा गए, नहीं देश से प्यार
*
राजनीति व्यापार है, आश्वासन हथियार
पार्टी सभी दलाल है, अद्वितीय बाज़ार
*
सीधी-साधी बात है, नहीं मानते यार
सच्चे की तारीफ़ कर, खुदगर्जी को मार
*
निर्वाचन का है समय, उछला तीन तलाक
पका न इसको सकेगा, होगा यह गुरु पाक
*
नहीं सत्य को बताना, जनता हो न सचेत
वोट बैंक का स्रोत है, वोटर रहे अचेत
*
केर-बेर का संग है, मिले स्वार्थ वश हाथ
हाथी चलता है अलग, जनता किसके साथ
*
एक बार फिर राम जी, नाव लगा दो पार
यू. पी. में सरकार दो, मंदिर हो तैयार
*
झूठ नहीं हम बोलते, पार्टी है मजबूर
हमें करो विजयी अगर, बाधा होगी दूर
*
रोकी सुप्रीम कोर्ट ने, जाती-धर्म की खोट
कुछ आधार कुछ बचा नहीं, कैसे माँगें वोट
*
तुम ही हो माता-पिता, भगिनी-भ्राता यार
साम दाम या भेद से, ले जाओ उस पार
*
मंदिर ज़िंदा जीत है, मृत मुद्दा है हार
राम राम जपते रहो, होगा बेड़ा पार
*
हरा-भरा यह देश है, भारत जिसका नाम
सुन्दर है मेरा वतन, अमर यही है धाम
*
अरुणाचल से कच्छ तक, फैला है यह देश
उत्तर-हिम पर्वत खड़ा, दख्खिन सिंहल देश
*
गंगा जमुना दरमियाँ, रिश्ते सालों-साल
धर्म-धर्म में एकता, सचमुच बड़ा कमाल
*
सरहद पर तैनात हैं, भारत माँ के लाल
चुटकी में कर व्यर्थ दें, सभी शत्रु की चाल
*
चीन पाक दोनों अभी, बने स्वार्थ-वश मित्र
जल्दी होंगे दूर फिर, दोनों घृणित चरित्र
*
काम, क्रोध, मद, लोभ औ, अहंकार दे त्याग
हिंसा ईर्ष्या मोह का, सदा उचित परित्याग
*
प्रीत स्नेह अनुराग हो, घर-घर में हो प्यार
कोई हो नाराज तो, करो प्रेम मनुहार
*
भ्रश्ताचत समाप्त हो, बंद पापमय कर्म
सत्य अहिंसा व्याप्त हो, सब पालें निज धर्म
*
नौ दुर्गा नौ रात्रि में, चन्दन फूल कपूर
माँ की सज्जा पूर्ण कर, माँग भरें सिंदूर
*
विजयादशमी में गमन, होता है हर वर्ष
आनेवाले साल तक, मैया देना हर्ष
*
विनती इतनी मान लो, हो मेरा उत्कर्ष
इंतज़ार पलकें बिछा, करून मातु प्रति वर्ष
*
समावेश है शक्ति का, दुर्ग सिद्धि है नाम
करें सफल हर काम में, कभी न बिगड़े काम
*
ईर्ष्या तृष्णा वृत्ति जो, उन सबका हो नाश
नष्ट न होती साधुता, रहता सत्य अनाश
*
भक्ति शक्ति माँगे सभी, माँगे आशीर्वाद
कष्ट हरो इस जन्म का, सुन माँ अंतर्नाद
*
अर्ज करो भगवान से, वे हैं कृपा निधान
सफ़ल करें हर काम को, सबको देकर ज्ञान
*
विद्यालय जाते न क्यों, आओ मेरे पास
विकसित करना बुद्धि को, छोडो मत तुम आस
*
अंक-वर्ण परिचय प्रथम, बाकी उसके बाद
याद करो गिनती सही, होगे तुम नाबाद
*
पढ़ो लिखो आगे बढ़ो, करो देश का नाम
पढ़ लिख कर सब योग्य बन, करना दुष्कर काम
*
कभी नष्ट होती नहीं, विद्या ले तू जान
अनपढ़ लोगों के लिए, दुर्लभ होता ज्ञान
*
मौन साध बातें करो, मन की गाँठें खोल
सुनता रब बातें वही, होतीं जो अनबोल
*
आत्म-तत्व का ज्ञान ही, आता सबके काम
गूढ़ तत्व सब जान के, मन होता निष्काम
*
वचन-कर्म में संतुलन, करता भय से मुक्त
मिथ्या भाषी हों सदा, खुद ही भय से युक्त
*
न्यायालय पर भी पड़ी, राजनीति की शिकार
सरकारों के स्वार्थ-हित, न्याय हुआ लाचार
*
दिखे नहीं अन्याय तो, इसे कहे जग न्याय
हुई न्याय में देर तो, हो जाता अन्याय
*
बेचो मत ईमान को, खुद का है अपकर्ष
न्यायालय सम्मान में, सबका है उत्कर्ष
जाति धर्म की शान में, बख्श बाल की जान
बच्चे तो मासूम हैं, वो क्यों बने निशान?
*
उनकी है यह घोषणा, सुनो खोलकर कान
पद्मावत गर देखना, जाओ पाकिस्तान
*
सभी देश के भक्त को, साबित करना भक्ति
पद्मावत प्रतिरोध में, तनिक ण हो आसक्ति
*
राजतंत्र चुपचाप है, सबके मुँह में बर्फ
वोट बैंक की नीति है, मुँह से गायब हर्फ
*
भाव-भक्ति की भूख है, नहीं चाहिए दान
भक्ति बिना कुछ भी नहीं, लेते हैं भगवान
*
भिक्षुक हैं सारा जगत, दाता हैं भगवान
दाता कब मुहताज से, लेता है कुछ दान
*
वृथा सभी धन-दान है, है फ़िज़ूल हर खर्च
जिसके संग श्रृद्धा न हो, मंदिर मस्जिद चर्च
*
श्रद्धा से ही रब मिले, कौरव सका न मोल
विदुर अन्न सादा सरल, शाक भात अनमोल
*
पैसा है तो मोल लो, टका सेर है न्याय
इसको मानो मत कभी, दीनों पर अन्याय
*
तू तो छूटा कालिया, तुझ पर भी इलज़ाम
मुझसे कहे वकील अब, जल्दी दे दो दाम
*
टू जी में सब मुक्त हैं, हमको भी थी आस
झूठ सभी इलज़ाम हैं, कौन चरेगा घास
*
समझौता है जिंदगी, जान मध्य यह मार्ग 
चन्दा में भी दाग है, कोई नहीं अदाग
*
समझौते में शांति है, छोड़ हठीले क्लेश
हठ से कुछ मिलता नहीं, बढ़ता केवल द्वेष
*
जीवन जैसा है मिला, उसे करो स्वीकार
दोष हुनर आधार पर, अब न करो इन्कार
*
सिंधु सदृश संसार है, गहरा पाराबार
यह जिंदगी है  नाव सम, जाना सागर पार
*
मिटटी का मानव बना, मिटटी का भगवान
कंकड़-पत्थर जोड़कर, कौन हुआ धनवान
*
क्यों है अपराधीकरण, राजनीति नासूर
रुकता अब तक क्यों नहीं, वजह प्रशासन सूर
*
टिकट दागियों को न दो, बंद करो सब द्वार
दागी को दल में न लो, मिटे भ्रष्ट आचार
*
बंद करें सब पार्टियाँ, अपराधी हित द्वार
जिस दल में दागी रहें, मतदाता दे हार
*
आँखे रख अंधा न बन, आँख खोल कर देख
कौन चोर डाकू यहाँ, सबका खता लेख
*
अपराधी अब हो गए, भारत के करतार
चौतरफ़ा कर रहे हैं, सबका बंटाधार
*
स्वार्थ कील में हैं फँसे, नेता साधू संत
सीधा-सादा मामला, किन्तु नहीं है अंत
*
राम कृष्ण दुर्गा कभी, शंकर तारणहार
जिसके दल ईश्वर नहीं, उसका बंटाधार
*
जुमले बाज़ी रात-दिन, लूट लिया सुख-चैन
कब किस पर बिजली गिरे, किस पर होगा बैन
*
उनको नहीं पसंद है, भारत का इतिहास
बात-बात आलोचना, करते हैं उपहास
*
कठिन डगर गुजरात की, नेता सब बेचैन
गली-गली मारे फिरे, चैन नहीं दिन रैन
*
ओज नहीं अब बात में, बोले कडुआ बोल
नोट बंद की नीति को, झूठ कहे अनमोल
*
हिंदीभाषी! सीखिए, दक्खिन भाषा एक
अदला-बदली सोच की, हो प्रयत्न तब नेक
*
उत्तर भारत में पढ़ें, तमिल-तेलुगु छात्र
केरल में पढ़ बिहारी, हों भारत के मात्र
*
छोडो भाषा द्वन्द को, बनो न अब अनुदार
सब भाषा की श्रेष्ठता, हिन्दी को उपहार
*
भावी पीढ़ी चाहती, आस-पास हो स्वच्छ
निर्मल हो भारत सकल, अरुणाचल से कच्छ
*
हवा नीर सब स्वच्छ हो, मिटटी हो निर्दोष
अग्नि और आकाश भी, करे आत्म आघोष
*  
नदी पेड़ गिरि वादियाँ, विचरण करते शेर
हिरण सिंह वृक तेंदुआ, जंगल भरा बटेर
*
पाखी का कलरव जहाँ, करते नृत्य मयूर
अनुपम दृश्य निहार कर, है मदहोशित ऊर
*
सागर की लहरें उठी, छूना चाहे चाँद
खूबसूरती सृष्टि की, भाव रूप आबाद
*
मानव जीवन में सदा, कोशिश अच्छा कर्म
मात-पिता सेवा यहाँ, सदा श्रेष्ठ है धर्म
*
कर्म, नहीं प्रारब्ध है, भाग्य बनाता कर्म
पाप-पुण्य होता नहीं, जान कर्म का मर्म
*
आग छुएगा हाथ से, क्या होगा अंजाम
सभी कर्म फल भोगते, पाप-पुण्य दे नाम
*
बुरे काम का जो असर, उसे जान तू पाप
नेक कर्म का पुण्य-फल, करे दूर संताप
*
जीवन का यह राज है, शांति ख़ुशी की चाह
सुखानंद की खोज में, सतत खोजते राह
*
संयम जैसा तप नहीं, शान्ति सदृश संयोग
तृष्णा से बढ़कर नहीं, जग में कोई रोग
*
सत्य अहिंसा मार्ग है, शांति-सौख्य आरंभ
निर्मल मन में शांति जब, गायब मन का दंभ
*
बसे बीच संतोष-सुख, बने वासना रोग
योगी करता त्याग है, भोगी करता भोग
*
बीत गई है जिंदगी, ख़त्म हुई जग राह
देखो परखो जाँच लो, पग होते गुमराह
*
प्रेम प्रीति है शान्ति पथ, बैरी हिंसा द्वेष
गीता, कुरान, धम्मपद, देते सीख विशेष
*
नाम, रूप, सब शास्त्र हैं, हैं विधान कुछ भिन्न
चन्द्र सूर्य भू हैं वही, देते बारिश-अन्न
*
जीवन की सब सिद्धि का, सूत्र धर्म है काम
मुँह में राम सदैव हो, हाथों में हों दाम
*
सदा सिखाती गलतियाँ, बिना फीस दें सीख
बिन माँगे चेतावनी, माँगे मिले न भीख
*
बार-बार गलती नहीं, की जाती है माफ़
सम्हाले-सुधारे यदि नहीं, गिरे भाग्य का ग्राफ
*
कुआँ खोद पानी पिए, उद्यम पर अधिकार
ऐसे नर करते नहीं, बारिष की मनुहार
*
उद्यम हिम्मत हौसला, जिसमें है भरपूर
मुश्किल क्या उसके लिए, लक्ष्य नहीं है दूर
*
करें मोक्ष हित साधना, दुनिया में सब लोग
योग कर्म देते भुला, अगर सामने भोग
*
मोहक कंचन-कामिनी, मिथ्या माया-मोह
सोच-समझ पा सत्य को, किया बुद्ध ने द्रोह। १००
***

दोहा शतक
डॉ. गोपाल कृष्‍ण भट्ट ‘आकुल’


जन्म: १८.६.१९५५, महापुरा, जयपुर।
आत्मज: स्‍व. कृष्‍णप्रिया- स्‍व. वैद्य श्री बलभद्र शर्मा।
जीवन संगिनी: श्रीमती ब्रजप्रिया।
शिक्षा- स्‍नातकोत्‍तर, विद्या वाचस्‍पति।
प्रकाशित: प्रतिज्ञा (कर्ण पर आधारित नाटक), पत्‍थरों का शहर (हिन्‍दी गीत, ग़जल, नज्‍में), जीवन की गूँज (काव्‍य संग्रह), अब रामराज्‍य आएगा (लघुकथा संग्रह), नवभारत का स्‍वर्ग सजायें (गीत संग्रह), जब से मन की नाव चली (नवगीत संग्रह), सम्‍पादित पुस्‍तकें, १४ साझा संकलन १०।
प्रकाशनाधीन: चलो प्रेम का दूर क्षितिज तक पहुँचायें संदेश (गीतिका शतक)
उपलब्धि: शब्‍द श्री, शब्‍द भूषण, क्रॉसवर्ड विज़र्ड, साहित्‍य शिरोमणि, रवींद्रनाथ ठाकुर वांड्.मय पीठ सम्‍मान, साहित्‍य मार्तण्‍ड, छंद श्री, मुक्‍तक लोक भूषण सहित लगभग ३० पुरस्‍कार/ सम्‍मान
सम्‍प्रति- सेवा निवृत्त अनुभाग अधिकारी राजस्‍थान तकनीकी विश्‍वविद्यालय, कोटा (राजस्‍थान), व्‍यवस्‍थापक फेसबुक साहित्‍य समूह ‘’मुक्‍तक लोक’’
संपर्क: ‘सान्निध्‍य’, ८१७ महावीर नगर- २ , कोटा (राजस्‍थान)-३२४००५
दूर / चलभाष: ०७४४ २४२४८१८, ९१ ७७२८८२४८१७, ८२०९४८३४७७, ईमेल: aakulgkb@gmail.com  
*
दोहा शतक
*
वक्रतुण्‍ड प्रथमेश हैं, लम्‍बोदर गणनाथ।
श्रीगणेश आशीष दें, ऋद्धि सिद्धि के साथ।।
*
वीणापाणि नमन करूँ, धरूँ ध्‍यान निस्‍स्‍वार्थ।
बस सदैव सार्थक लिखूँ, करूँ सदा परमार्थ।।
*
मात-पिता-गुरु-राष्‍ट्र हैं, जीवन का आधार।
शिक्षा संस्‍कृति सभ्‍यता, इनसे है संसार।।
*
मात-पिता-गुरु यदि करें, जीवन मार्ग प्रशस्‍त।
राष्‍ट्र बनाता नागरिक, तब होकर आश्‍वस्‍त।।
*
मधुबन माँ की छाँव है, निधिवन माँ का ओज।
काशी,मथुरा, द्वारिका, माँ चरणों में खोज।।
*
माँ की पवन गोद है, जीवन का आह्लाद।
भोजन माँ के हाथ का, अमृत जैसा स्वाद।।
*
मात-पिता-गुरु-राष्‍ट्र से, होता बेड़ा पार।
समाधान इनसे मिले, इनको समझ न भार।।
*
कर्मनिष्‍ठ का कर्म से, होता है उत्‍थान।
अकर्मण्‍य के भाग्‍य में, लिख न अभ्‍युत्‍थान।।
*
साँस बिना जीवन नहीं, प्राण बिना बेजान।
कर्म बिना उत्‍थान कब?, मृग मरीचिका जान।।
*
धर्म-कर्म बिन जीव का, जीवन नर्क समान।
गुरु, विद्या, धन बिना ज्यों, मिले नहीं सम्मान।।
*
वंश-बेल फूले-फले, यदि हो पूत सुजान।
निकले पूत कपूत तो,पतन सुनिश्चित जान।।
*
आया था तूफान झट, बदले भारी नोट।
काले धन के फेर में, धुले हजारी नोट।।
*
पंचतत्‍व से है बना, मानव का यह रूप।
रूप,रंग घर-द्वार से, बनता रूप सुरूप।।
*
कर्मनिष्‍ठ बदलें सदा, अपना रूप कुरूप।
जीवन वे जीते सदा, इच्‍छा के अनुरूप।।
*
भिक्षा सबसे निम्‍न है, अधमाधम यह कर्म।
नहीं समझते हैं कई, अकर्मण्‍य यह मर्म।।
*
बिना मान-सम्‍मान के, धन-दौलत है धूल।
खाद, बीज, श्रम के बिना, खिलते केवल शूल।।
*
श्रम को सोना जानिए, श्रम जीवन का मूल।
माटी भीसोना बने, समय रहे अनुकूल।।
*
यह जिह्वा वाचाल है, रखना अंकुश आज।
ले आती भूचाल जब, करें निरंकुश राज।।
*
नहीं प्रशासन जागता, नहीं जगे सरकार।
जब तक जनता में नहीं, मचता हाहाकार।।
*
परेशान चाहे रहे, हो चाहे अंधेर।
सत्‍य एक दिन जीतता, होती देर-सबेर।।
*
चंद्रगुप्‍त के वंश का, है स्‍वर्णिम इतिहास।
विक्रम संवत् में निहित, अब भी जन विश्‍वास।।
*
मिले न जब तक प्रेरणा, योग न हों अनुकूल।
दुर्लभ प्रभु के दर्श हैं, ग्रंथों का भी मूल।।
*
क्‍यों ढूँढूँ संसार में, प्रभु मेरे मन-द्वार।
नैन बंद कर भज लिया, कर ली बातें चार।।
*
जो भजता है लीन हो, भूले मोह विकार।
हो जाता वह एक दिन, प्रभु से एकाकार।।
*
प्रभु तुझको कैसे मिलें, तन-माया में चूर।
अंग-अंग है विष भरा, मन में मद भरपूर।।
*
प्रभु को भजना बाद में, लें पहले आहार।
भजन न हो भूखे कभी, कहता है संसार।।
*
कहलाती नदियाँ वहाँ, संगम तीर्थ विहार।
मिल जाती नदियाँ जहाँ, होकर एकाकार।।
*
कण-कण में भगवान को, खोज गया मन हार।
प्रभु को ढूँढ़ा जब जहाँ, मौन मिले हर बार।।
*
हिंदी भाषा की बने, अब ऐसी पहचान।
ज्यों श्रम कर निर्धन बने, धनिक न खो ईमान।।
*
’आकुल’ हिंदी को मिले, ऐसी एक उड़ान।
मसजिद में हों कीरतन, मंदिर पढ़ें अजान।।
*
वाहन, घर, महँगे वसन, मोबाइल का ध्‍यान।
हिंदी का भी शौक अब, पालें सब इनसान।।
*
मान तिरंगे का करें, कर 'जन गण मन' गान।
ज्यों-त्यों हिंदी के लिए, मन में हो सम्मान।।
*
झूठ न हरदम जीतता, कर लो जतन हजार।
भले देर से ही सही, जीते सच हर बार।।
*
झूठ तभी भारी पड़ा, बढ़े अधर्मी पाप।
सत्‍य तभी निर्बल पड़ा, हुए न दृढ़ हम आप।।
*
सत्‍य सदा जो बोलता, रखना पड़े न याद।
एक झूठ करता सदा, सौ झूठी फरियाद।।
*
झूठ घटाता मुश्किलें, तो यह भ्रम मत पाल।
घर में ही क्‍या कम पलें, अब जी के जंजाल।।
*
झूठे की रहती सदा, रातों नींद हराम।
सच्‍चा सोता चैन से, निबटा सारे काम।।
*
हिंदी की संगत करें, फिर देखें परिणाम।
हिंदी से स्‍वागत करें, कर करबद्ध प्रणाम।।
*
हिंदी हित संकल्‍प ले, करें आचमन आज।
होगा अपने ह्रदय पर, बस हिंदी का राज।। *
*
करनी होगी पहल अब, धरना है यह ध्‍यान।
घर-घर में चर्चित रहे, हिंदी का अवदान।
*
पहनें अच्‍छे वसन तो, बनती है पहचान।
शब्‍दकोश में हैं छिपे, हिंदी के परिधान ।।
*
वैज्ञानिक आधार है, हिंदी का यह सिद्ध।
यह भाषा अब जगत में, कहलाती रस-सिद्ध।।*
*
हिंदी ने झेला सदा, पग-पग पर अपमान।
साख न बन पाई कभी, कैसे हो उत्‍थान ?
*
हिंदी की करता रहा, जन-जन सार सँभाल।
सत्‍ताधीश न कर सके, उन्‍नत इसका भाल।।
*
बरखा तब ही काम की, करे न बाढ़-विनाश।
बाढ़ों से सूखा भला, बनी रहे कुछ आश।।
*
वर्षा ऐसी मेघ दे, भरे रहें सर ताल।
कोइ घर उजड़े नहीं, पड़े न कभी अकाल।।
*
’आकुल’ जल संग्रह करें, वर्षा में हर बार।
वर्षा जल संचय करें, भरा रहे भंडार।। *
*
गर्मी के तेवर घटें, पावस की ऋतु देख।
मेघनाद होने लगें, चमकें चपला रेख।। *
*
आते देख पयोद नभ, पुलकित कोयल मोर।
नर नारी लेकर चले, खेतों में हल-ढोर।।
*
कौआ भी चिरजीव है, कुत्‍ता स्‍वामी भक्‍त।
चाटुकार गीदड़ रहा, सदा-सदा परित्‍यक्‍त।।
*
बिन गुरुत्‍व धरती नहीं, धुर बिन चले न चाक।
गुरुजल बिन बिजली नहीं, गुरु के बिना न धाक।।*
*
गुरु ही जग में श्रेष्‍ठ है, सच कहता इतिहास।
सुर-नर प्राणी जगत् में, करें सभी अरदास।।
*
गुरु से जग में जानिए, धर्म ज्ञान प्रभु आप।
आश्रय जो गुरु का रहे, दूर रहें संताप।।
*
गुरु का सिर पर हाथ हो, तर जाते भव-पार।
श्रद्धा, निष्‍ठा, प्रेम, यश, पाते शिष्य अपार।।
*
गुरु को जो तोले कभी, मूरख, मूढ़, कुपात्र
बड़बोला अति बोलता, खाली जैसे पात्र।।
*
दीक्षा गुरु अरु धर्म गुरु, होते हैं बेजोड़।
इनसे ही संस्‍कृति फले, इनकी कहीं न होड़।।
*
मात-पिता, गुरु, राष्‍ट्र ॠण, रहे सदैव उधार।
जब भी जैसे भी मिलें, पा हो तब उद्धार।।
*
जो गुरु बिना समर्थ है, दो दिन चाहे खास।
सदा अकेला वह रहे, खोता है विश्‍वास।।
*
’आकुल’ बड़भागी बनें, निभा सदा संबंध।
मात-पिता गुरु सिधारें, चढ़कर तेरे स्‍कंध।।
*
मौसम आता शीत का, धूप सुहाती खूब।
भाते खूब गरम वसन, लगे भूख भी खूब।।
*
होली में मस्‍ती करें, करें न बस हुड़दंग।
सूखी होली खेलिये, रंग न हो बदरंग।।
*
श्रम से मजदूरी मिले, पूँजी दे बस ब्‍याज।
मिले किराया भवन से, करता साहस राज ।।
*
मुर्गे से तू सीख ले, चुनता मल से बीज।
व्‍यापारी वह ही सफल, रखता जो खेरीज।।
*
छंदबद्ध साहित्‍य का, हुआ पराक्रम क्षीण
वैसे ही कुछ रह गए, कविवर छंद प्रवीण।।
*
टिम-टिम तारे गगन में, पथ पथ चलें प्रदीप।
दूर क्षितिज तक हो रहा, संदीपन हर दीप।।
*
कुरुक्षेत्र है यह जगत, जीवन है संग्राम।
रिश्‍ते अब फिर दाँव पर, कब आएँगे श्‍याम।।
*
मौसम कोई भी रहे, क्‍या गर्मी क्‍या ठंड।
चले अगर विपरीत तो, मौसम देता दंड।।
*
आकुल इस संसार में, तू कौए से सीख।
नहीं किसी से मित्रता, नहीं किसी से भीख।। *
*
शिक्षा दीक्षा गुरु बिना, बिना अस्‍त्र के युद्ध।
बिना रास के वृषभ से, होता पथ अवरुद्ध।।
*
बेटी होती जनक-हिय, बेटा माँ की जान।
सखा बने जब पुत्र के, भिड़ें कान से कान।।
*.
आकुल महिमा जनक की, जिससे जग अनजान।
मनु-स्‍मृति में लेख है, सौ आचार्य समान।।
*
दुख का कारण मत बनो, दुख में दो सँग-साथ।
सुख की वजह बनो सदा, सुख में भले न साथ।।
*
कभी नहीं दो मशवरा, देख दुखी इंसान।
सदा दर्द में साथ हों, दुख का करें निदान।।
*
आकुल इस संसार में, माँ का नाम महान।
माँ की जगह न ले सके, कोई भी इंसान।।
*
माँ के सिर पर चंद्र है, कुल किरीट पहचान।
माँ धरती माँ स्‍वर्ग है, गणपति लिखा विधान।।
*
पूत कपूत सपूत हो, ममता करे न भेद।
मधुर बजे मुरली सदा, तन में कितने छेद।।
*.
मात-पिता-गुरु-राष्‍ट्र ये, सर्वोपरि हैं जान ।
कभी न होगा तू उऋण, कर सेवा सम्‍मान।।
*
आकुल माँ की जगत् में, महिमा अपरंपार।
सहस्र पितु बढ़ मातु है, मनुस्‍मृति के अनुसार।।
*
अधिष्‍ठात्रि तू सृष्टि की, देवी माँ तू धन्‍य।
बुद्धि न आकुल की फिरे, दे आशीष अनन्‍य।।
*
जितना ऊपर को उठे, दिनकर बढ़े प्रकाश।
पढ़ा लिखा इंसान ही, छूता है आकाश।।
*.
वर दो ऐसा शारदे, नमन करूँ ले आस।
हटे तिमिर अज्ञान का, और बढ़े विश्‍वास।।
*
आँखों में सपने लिए, हाथों में तकदीर।
चलते हैं ले हौसले, जीवनपथ पर वीर।।
*
कब खुशबू रोके रुकी, कभी न रुका समीर।
रुकना मत ऐ जिंदगी!, सहते रहना पीर।।
*
जीवन एक जिजीविषा, रहता सदा अधीर।
होता है वह ही सफल, जो धरता है धीर।।
*
हाथ धरे बैठे रहें, जीतें कभी न दाँव।
जो उम्‍मीदें पालते, थकते कभी न पाँव।।
*
समय उसी के साथ जो, रखता होश-हवास।
नहीं रुका उसके लिए, जिसकी टूटी आस।।
*
पंचतत्‍व का संतुलन, प्रकृति रखे तू कौन?
रह आहार-विहार प्रति, सजग शेष तू मौन।।
*.
पंडित मुल्‍ला, कादरी, कहते सब यह बात।
होती नहीं ज़बान की, जग में कोई जात।।
*
भूलें करता जा रहा, मानव क्यों दिन-रात?
प्रकृति प्रदूषित हो रही, मानवता की मात।।
*
जन्‍मा यहाँ विवस्‍त्र ही, आँखें-मुट्ठी बंद।
जमा करे क्‍यों संपदा?, करें न क्‍यों आनंद?
*
वर्षा ढाती कहर पर, नहीं सँभलते लोग।
कर निसर्ग की दुर्दशा, कष्‍ट रहे हैं भोग।।
*
होते हैं ऐसी जगह, तीर्थ तपोवन झार।
दक्षिण से उत्‍तर जहाँ, बहे नदी की धार।।
*
हवामहल जो ताश के, होते जल्‍दी ढेर।
नहीं झूठ के पाँव भी, टिकते ज्‍यादा देर।।
*
तन कठोर अखरोट का, पानीफल में शूल।
’आकुल’ तनचाहे मलिन, मन रखना तुम फूल।।
*
भजन-प्रार्थना योग है, जैसे चिंतन-ध्यान।
इच्‍छा शक्ति करे प्रबल, भक्ति लीजिए मान।।
*
अनाचार करता वही, जो होता स्वच्छंद।
खुश रहता वह सर्वदा, जो रहता पाबंद।।
*
नहीं लगाएँ द्वार पर, फल-फूलों के पेड़।
आटे-जाते जन सभी, कर सकते हैं, छेड़।।
*
जीवन रुकता है कहाँ?, देखो जिस भी ओर।
कर्तव्यों का बोझ हो, पथ पर चाहे घोर।।
*
मानव जब तक स्वस्थ्य है, दूर रहेगी मौत।
बने धारा पर बोझ जब, ले जाती बन सौत।।
*
बैर न उनसे कीजिए, रहना जिनके बीच।
बनें जानवर जंगली, करें न बाहर खींच।।
***
दोहा शतक
छगनलाल गर्ग "विज्ञ"












जन्म: १३ अप्रैल १९५४, गांव जीरावल, तहसील रेवदर, जिला सिरोही (राजस्थान)।
आत्मज: -श्री विष्णुराम जी गर्ग
जीवन संगिनी:
शिक्षा: स्नातकोतर (हिंदी साहित्य)।
संप्रति: सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य।
प्रकाशित: काव्य संग्रह क्षण बोध, मदांध मन, रंजन रस, अंतिम पृष्ठ। तथाता छंद काव्य संग्रह, विज्ञ विनोद कुंडलियाँ संग्रह।
उपलब्धि: हिंदी साहित्य गौरव, तुलसी सम्मान, काव्य श्री, श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान,राष्ट्र भाषा गौरव सम्मान, साहित्य सागर सम्मान आदि।
संपर्क: २ डी ७८ राजस्थान आवासन मंडल, आकरा भट्टा, आबूरोड, - सिरोही ३०७०२६।
चलभाष: ९४६१४४९६२०। ईमेल: chhaganlaljeerawal@gmail.com
*

दोहा शतक
*
जीवन ऊर्जा शिखर है, परम तपस्या राम।
जाना जिसने प्रेम को, जान लिया यह धाम।।
*
गुरु -चरणों में लीन हूँ, तारे चित अनुराग
बोया अंकुर नेह का, बढ़ तरु बने विराग।।
*
गुरू-छाया उद्धार है, हो हर बाधा पार
माया धारा बह रही, खींचे करो विचार ।।
*
प्रेम समर्पण दान है, प्रेमी समझो शास्त्र।
तीर्थ तुल्य पावन यही, सीमारहित सुपात्र।।
*
प्रेम वस्तु माया रहे, गहरा धोखा जान।
निन्न्यांबे का फेर ही, जड़ता की पहचान।।
*
कार शौक धन भवन ही, चाहत की दीवार।
भ्रांति हुई वैभव जिया, आत्मा छूटी पार।।
*
आत्मा प्रेमी हैं सभी, भिक्षा भेद अजान।
भीगा नेही भीतरी, मोती डूब सुजान।।
*
देविक गंधी फैलती, भूला प्रेमी आप।
डाले बाँहें संगिनी, भोगा है निष्पाप।।
*
नार वचन संजीवनी, प्रेमी लेते तोल।
माँ नेही सी संगिनी, होती है अनमोल।।
*
यौवना काया निखारे, रस डूबे संसार।
चाहे प्राणी प्रेम हो, भूले कंटक-खार।।
*
भीग भाव तारल्य में, डूबे मन संसार।
दो प्राणों में जोश का, प्रेम घुला अंबार।।
*
डूबे प्रेम विराट में, हो भव-बाधा पार।
देखो धारा बह रही, जानो पावन सार।।
*
प्रेम ज्ञान भंडार है, काया वाणी जान।
दिव्या देही प्रकट हैं, जोड़ो चेतन भान।।
*
नैना लज्जा घेरती, देखूँ डूबी राग।
लूटा मोती भीतरी, देही माँगे भाग।।
*
ताजी गंधी फैलती, भूला प्रेमी आप।
डाले बाँहें संगिनी, झूले मद निष्पाप।।
*
संतोषी को सुख सदा, भूखा रहे अमीर।
ज्ञानी भूला नीति को, लूटे माया धीर।।
*
माया तजो विवेक से, हो लो बाधा पार।
देखो धारा बह रही, जानो पावन सार।।
*
भाषा का विस्तार हो, केवल नहीं विचार।
काया सी सम्भाल हो, जो चित भरा विकार।।
*
संसारी लेखा रखे, लिया उधार नवाब।
झूठा भी साँचा भरे, माँगे खरा जवाब।।
*
छाया माया दास की, मौज-शौक से दूर।
काया अहं अकड़ रही, आन-बान मद चूर।।
*
सीधा-सादा काम का, सब माने सच बात।
पर उपकार लगा रहे, सहता है आघात।।
*
छोड़ो नाम प्रपंच का, नहीं मिले गुण मैल।
दौड़ो वैभव आस में, धन लो साख उड़ेल।।
*
जब माया मोहित करे, सुन रस में संगीत।
पल आए घर भी जले, नेह न तजना जीत।।
*
सुन काया रसहीन है, मद-बल सोया नींद।
तन बोझा मँझधार फँस, छोड़ सभी उम्मीद।।
*
रस प्याला मत तोल तू, जड़ खोदे सच ताज।
पल थोड़ा मति भान रख,जलता तेरा आज।।
*
मत मारो मन मोह में, मित मोड़े मित मान।
चित चाहे सच सार रस, चलना सोहे शान।।
*
मद मारी मंजुल मना, मनहर माँगे मीत।
तन कोमल वैराग भर, गूँजे रस संगीत।।
*
विपदा पाई सघन से, वितरण बाँधा नाथ।
नित रोए धनहीन जन, करो मदद दो हाथ।।
*
मधु थाती तन जोश में, मन दायक मृदु आस।
पल खाता बल नाश सब, अपना टूटा पास।।
*
सुमुखी सुनैना सुंदरी, मृदु चितवन नादान।
अंतर रस मन में घुला, सजी ललित मुख शान।।
*
छल मति सी माया घनी, वैभव रस मन देह।
साँझ किरण मद शिथिलता, लगा विराम विदेह।।
*
सुरसिक भौरा पारखी, मृदु चित फूल पराग।
छोड़ विकल तन विरहिणी, जुड़ा सुधा अनुराग।।
*
विवश विकल धरती लखे, बरसे लहर अपार।।
मोह मिला मन मोद में, मति माया मन जाल।।
*
भजन भाव भावुक भगत, भव लख भ्रमित निदान।
नाथ संत सत साधना, सुख छाया अति जान।।
*
नशा नजर रस नयन में, लाज लाल मुख रेख।
झुक सजनी भयभीत मन, झिझक विहग सी लेख।।
*
करुण चित्त जल तरल सा, काज साथ दुख जान।
दुख मिटता उपकार कर, धर्म कर्म में मान।।
*
भरो सुरस तन भ्रम मिटे, नेह विरल अविराम।
तज करनी अनुराग भव, भजन पकड़ श्री राम।।
*
भूली सब कुछ विलय हो, नेह सरस मति श्याम।
धन धरती सब छोड़कर, लहर लगन भौ धाम।।
*
चित लय सुजन विराट में, छल पल सृजित विकार।
साँच छोड़ मानव कलुष, निरखे किरण प्रकार।।
*
हो विचार सत समर्पित, तन-मन विनत विशाल।
बाँध जीव पावन जगह, दुःख घन विलय उछाल।।
*
दुःख में मृदुल विलीन मन, सुपवन बहुत विषाद।
नेह मधुर मानस मुखर, विचरण विगत विवाद।।
*
चित रट भज हरि नाम रे, अनुपम जग पहचान।
देह रसिक कारण समझ, हर पल जड़वत जान।।
*
सुमधुर मन मिलने तरस, पवन हुआ चितचोर।
तरस सुखद विपदा समय, नजर दुखद लखि भोर।।
*
चले किरण अति प्रखर गति, चमक भरे चहुँ ओर।
किसलय पवन मधुर हिले, सरस रजत अति जोर।।
*
विगत विचर मन विवशता, रिमझिम नयनों नीर।
सुधिजन सहित सरल मना, निरखे झिलमिल पीर।।
*
कलरव चहक-चहक कहे, नवरस महके पास।
सुमन सुरस मधुरिम बहे, भ्रमित भ्रमर मधुमास।।
*
समय अजय गतिमय अभय, घट नित मन भर आस।
धर्म-कर्म सुधिजन करें, नित रस का अहसास।।
*
तारें सभी कर हरि भजन , सुमति सतत धन खान ।
तज पर जन छल मति सदा , भज मन हरि गुण गान।।
*
अविरल अचल अलख विरल, सघन तरल सम विषम।
परम प्रबल प्रिय हरि जपो, कलियुग किसलय कुसुम।।
*
मनहर किसलय भ्रमर मति, लखि नवरस मन चुभन।
सघन विरह तब सरस मुख, तन-मन-धन अवगहन।।
*
सरस निरख शशि मगन मन, देखो नभचर मिलन।
फिर तुम रुचि तन-मन धरो, चटक चाँदनी गमन।।
*
जीवन होगा दर्द में, जब तक संकट काल।
संगत सच्ची सार है, विपदा गहरी टाल।।
*
बढ़ी होड़ यश-नाम की, मोल मिल रहा ताज।
झूठा भी सच्चा लगे, बहुमत बिकता आज।।
*
लोग हुए बेजोड़ थे, मीरां सह रैदास।
चिंतन में थी दिव्यता, मन में था विश्वास।।
*
तेरा-मेरा बीतता, शिथिल तरंग-विचार।
राम नाम मन में भरा, अटका भीतर पार।।
*
कैसा मानव लोभ है, भरा सदा अंबार।
रात दिवा पहरा लगा, भूला रस संसार।।
*
भाषा का विस्तार हो, केवल नहीं विचार।
काया सदृश सम्हालिए, जो चित भरा विकार।।
*
संसारी लेखा रखे, कालिख भरा हिसाब।
झूठा भी साँचा करे, नागर खरा जवाब।।
*
छाया माया दास की, मौज -शौक से दूर ।
काया अहं-अकड़ रही, आन-बान, मद-चूर।।
*
मेरा भावी आसरा, आप राम करतार।
माया मोह अहं बढ़ा, चेतनता जगतार।।
*
विवेक विनाश वो मिला, घूला मूल विधान।
विदेही का भाव छुआ, भूला धूप निशान।।
*
दयासिंधु खुद ही खड़े, जाओ तो दरबार।
पाओ घने असीम फल, साधौ हैं अवतार।।
*
यात्री कंटक राह में, देख सके तो देख।
अंधेरा साथी बना, भीतर अनयन लेख।।
*
सीधा-सादा काम का, सब माने सच बात।
पर उपकार-लगा रहे, सहता चुप आघात।।
*
कैसा होगा और दो, जिज्ञासा रस विशाल।
पाया अनपाया रहा, चखकर हुआ निढाल।।
*
छोडो नाम-प्रपंच रे! ,नहीं मिले गुण मैल ।
दौड़ो वैभव आस में, लो धन साख उड़ेल।।
*
आया वही चला गया, तृष्णा मिटी न चैन।
दुखमय काली रात में, किरन ढूँढती नैन।।
*
करो वही जो चित कहे, बाकी सब बेकार।
आत्मा लतिका रस बहें ,नवल कुसुम श्रृंगार।।
*
सच खोजे हाँ दिल भरे, धन बल ही सन्यास।
घर बारी नवजात को, देखभाल की आस।।
*
पल छाया पावन पले, कर चित में उल्लास।
सच चाहा करतार से, तन में भर ले आस।।
*
जब माया मोहित करे, सुन रस में संगीत।
पल आए घर-बार जल, मन लेना हँस जीत।।
*
भज लेना अवतार सब, कर मत देना भूल।
छल जाएँ रखवाल जब, नैना भरना शूल।।
*
सुन काया रसहीन है, मद बल सोया नींद।
तन बोझा मँझधार फँस, छोड़ सभी उम्मीद।।
*
बुधिजन मत भोगी बनो, समझो सच नादान।
आशा चित धन दे रही, बढ़े चलो मतिमान।।
*
सुधिजन की सेवा करो, मिटते भ्रम भंडार।
राखें सद मति सारथी, बता रहे पथ सार ।।
*
रस प्याला मत तोल तू ,जड खोदे सच ताज।
पल थोड़ा मति भान रख,जलता तेरा आज।।
*
जड़ माया रस छोड़ तू, क्षण डूबा रस जान ।
कल बीता अबआस कर,बचता हाला ध्यान।।
*
मत मारो मन मोह में, मिट मोड़े मित मान।
चित चाहे सच सार रस, चलना शोभे शान।।
*
नियति दया भाषा मिली, रसमय मन उल्लास।
मीठी रस धुन छा रही, सुनो सीख उपवास।।
*
लतिका छाई सरस तरु, चितवन लागी डार।
तन मादक मन हार लख,चाह संग आधार।।
*
मद मारी मंजुल मना, मनहर माँगे मीत।
कर कोमल अब राग भर, मिले भाव से प्रीत।।
*
रजनी आई जतन से, विरहण चाहे साथ।
भर आँचल जल नेह रत, गले लगे हैं नाथ।।
*
विपदा पाई सघन से, वितरण बाँधा नाथ।
नित रोए धनहीन जन, करो मदद दो हाथ।।
*
मधु थाती तन जोश में, मन दायक मृदु आस।
पल खाए बल नाश सब, अपना टूटा पास।।
*
छल साथी धन कोश हो, जन चाहत जस नाथ।
जब लूटत सब साथ मिल, डरता जीता साथ।।
*
कलियों से माली कहे, अचरज तन आभास।
थोड़े पल महकी लता, किया पृथक मत वास।।
*
अँखयिन से आँसू बहें, तन अकड़े लाचार।
धोयी जल चित की दशा, हिया जलत पिय तार।।
*
नवरस नैना सुंदरी, मृदु चितवन नादान।
लज्जा रस मन में घुला, सजी ललित मुख शान।।
*
ज्ञानी! तोलो बोल को, सच पाओगे जान।
जानो पंथी राह को, तज दे माया मान।।
*
आया-पाया सोच लो, रहता कितना साथ
सुख-दुःख दोनों मान सम, लेना दोनों हाथ।।
*
छाया मायानाथ की, होती आस्था धाम।
कच्ची काया छल भरी,खोई जोत ललाम।
*
देखो इस संसार को, दौड़े तृष्णा आस।
ले लो भार खुमार का, तोड़े भीतर साँच।।
*
चले गये जो चल पड़े, बैठे रहे उदास।
पीर बवंडर चित जगे, कैसे भरे उजास।।
*
चलो वीर नवपथ रचो, कदम रखो अज्ञात।
गणना के संसार में, शून्य सार विख्यात।।
*
संगी-साथी शौक में, रहते नित दिन पास।
मंजिल मिलती मौन में,चलते रहो उजास।।
*
साधु रहो या आम जन, छोडों आशा चाह।
पाओ छाया सच-घनी, भूली-बिसरी राह।।
*
पद बढ़ते गति सहित जब, भरते भीतर जोश।
चेतन तन-मन प्राण में, बढ़ता ऊर्जा कोश।।
*
तरे सभी कर हरि भजन, समझें सत धन खान।
तज परजन छल मत करें, भज मन हरि गुणगान।।
*
यात्री कंटक राह में, जाग-जाग कर देख।
ताम को साथी मत बना, भीतर सतगुरु लेख।।
*
काया माया साथ हो, करे नेह से दूर।
भोगी नाहक अकड़ता, आन-बान-मद चूर।।
*
भाग्यहीन मोती मिले, भ्रमित भ्रमर मधुमास।
छाया रज तामस मिटे, फैले ज्योति विकास।।१००

*

ॐ 
दोहा शतक 
छाया सक्सेना 





जन्म: १५.८.१९७१, रीवा।
आत्मजा: श्रीमती शारदा-डॉ.विश्वनाथ प्रसाद सक्सेना।
जीवनसाथी: मनीष सक्सेना।
शिक्षा:बी.एससी., एम. ए. (राजनीति विज्ञानं), बी. एड., एम. फिल.।
लेखन विधा: दोहा व अन्य छंद, कहानी, लघु कथा, संपादन।
प्रकाशन: साझा संकलनों में सहभागिता।
उपलब्धि: साहित्यिक समूहों में अनेक पुरस्कार।
सम्प्रति: पूर्व शिक्षिका।
संपर्क: १२ माँ नर्मदे नगर, फेज १, बिलहरी, जबलपुर ४८२०२०। चलभाष: ०७०२४२८५७८८।
ई मेल: chhayasaxena2508@gmail.com
​*

दोहा शतक
जय प्रकाश श्रीवास्तव


दोहा शतक
त्रिभवन कौल












आत्मज: स्वर्गीय लक्ष्मी कौल-श्री बद्रीनाथ कौल।
जीवन संगिनी: श्रीमती ललिता कौल।
जन्म: १.१.१९४६, श्री नगर, जम्मू-कश्मीर।
शिक्षा: स्नातक।
लेखन विधा: दोहा, हाइकु, मुक्तछंद।
संप्रति: सेवानिवृत्त सिविलियन ग़ज़्ज़ेटेड अफसर (भारतीय वायु सेना), लेखक-कवि (हिंदी, अंग्रेजी)।
प्रकाशन:  नन्हे-मुन्नों के रूपक, सबरंग, मन की तरंग, बस एक निर्झरणी भावनाओं की। साझा संकलन  लम्हे, सफीना, काव्यशाला,  स्पंदन, कस्तूरी, सहोदरी सोपान २, उत्कर्ष काव्य संग्रह १, विहग प्रीती के, पुष्पगंधा, ढाई आखर प्रेम, अथ से इति स्तंभ वर्ण पिरामिड, शत हाइकुकार साल शताब्दी, सुरभि कंचन।
उपलब्धि: विशेषांक ट्रू मीडिया पत्रिका नवंबर २०१७, ट्रू मीडिया गौरव सम्मान, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सम्मान, जयशंकर प्रसाद सम्मान, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' सम्मान, पिरामिड भूषण, साहित्य भूषण सम्मान,कवितालोक रत्न, शब्द शिल्पी, मुक्तक लोक भूषण, काव्य सुरभि आदि।
संपर्क: एच १/ २८ तृतीय तल, लाजपत नगर १, नई दिल्ली, ११००२४।
चलभाष: 9871190256, ईमेल: kaultribhawan@gmail.com ।

दोहा शतक

गुरुवर! मुझको दीजिए, कर अनुकंपा ज्ञान।
माँग रहा कर जोड़कर, शिष्य एक अनजान।।
*
परंपरा गुरु-शिष्य की, मिले उसे ही ज्ञान।
लक्ष्य साधता बिंदु पर, करे अँगूठा दान।।
*
बच्चे पढ़-लिख कुछ बनें, मात-पिता-अरमान।
बच्चे पढ़-लिख कुछ बने, भुला जनक पहचान।।
*
आँचल में दौलत भारी, समझ न हुआ अमीर।
आह न लेना किसी की, राज या कि फ़कीर।।
*
अभी रौशनी बहुत है, भाग-निवाला छीन।
जीवन ज्योति जला सतत, सुन ले सुख की बीन।।
*
आतंकी देखे नहीं, धर्म, पंथ या जात।
काफ़िर सबको कह रहे, भूले निज औकात।।
*
पत्थरबाजी सह रहे, बैठे चुप्पी साध।
जेल भेज मत छोड़ कर, शंख-नाद निर्बाध।।
*
शह दें पत्थरबाज़ को, देशी नमकहराम।
जो बोलें जय पाक की, कर दो काम तमाम।।
*
दूध पिएँ विष उगलते, किसका कहें कसूर?
खा जाएँ माँ बेचकर , भारत के नासूर।।
*
मर्यादा श्री राम की, केवल करें बखान।
सिय मर्यादित थीं सदा, न्यून नहीं हनुमान।।
*
मनुज हुआ जब लालची, पर्यावरण विनष्ट।
पौधारोपण से करें, भू का दूर अनिष्ट।।
*
स्वास्थ्य-स्वच्छता बनी हो, कर ऐसा व्यवहार।
हों सब भागीदारी तो, निर्मल हो संसार।।
*
धरतीइनरी एक सम, पोषक-ममताशील।
झोली भर देती रहें , दोनों बहुत सुशील।।
*
कौन ज्ञानियों की सुने, भौतिक सब संसार।
बाबा आडंबर करें, नष्ट हुए आधार।।
*
दे बयान नेता रहे, जग-निंदा के योग्य।
है कटाक्ष सेनाओं पर, नहीं क्षमा के योग्य।।
*
भ्रष्टाचार पनप रहा, चक्की पिसते लोग
भोग भोगते  भार हैं, नेता कैंसर रोग।।
*
नटवरलाल सभी यहाँ, सांठ-गांठ भरपूर।
नेता अफसर सेठ हैं, धन-लोलुप मद-चूर ।।
*
पाक जीत सकता नहीं, लाख लगाए ज़ोर।
आतंकी यह जान लें, सिर्फ कब्र में ठौर।।
*
पाप गले तक आ गया, जनता है लाचार।
दुराचार अपने करें, क्यों न सुने सरकार?।।
*
हम कायर कैसे बने?, गाँधी बंदर यार।
देखो-सुनो-कहो नहीं, क्या है इसमें सार ?।।
*
छः माह की बच्ची कहे, सुन लो मेरी चीख
कल को तेरी ही सुता, माँगे तुझसे भीख।।
*
बारिश-सूखा चरम पर, दोनों देते त्रास।
कभी डूबकर मर रहे, कभी न बुझती प्यास।।
*
सूरज होता अस्त जब, भाग लालिमा संग।
अंत न होता प्रणय का, सुबह भरे नव रंग।।
*
जन्म लिया इंसान थे, फिर खो दी पहचान।
जाति-धर्म फंदे फँसे, लड़ होते हैवान।।
*
कर्म सतत करते रहो, भले न फल हर बार।
पछताने से लाभ क्या, अनुभव मिला अपार।।
*
जिनमें जीवन की समझ, हैं संवेदनशील।
प्यार निराली प्रेरणा, सके बुराई लील।।
*
पड़ा सत्य पर आवरण, कहो उतारे कौन?
पीड़ा अधिक असत्य की, घाव तीर का गौण।।
*
नारी शोषण अब नहीं , देखो रहकर मूक।
साहस कर रोको तुरत, चुप रह करें न चूक।।
*
कालजयी रचना लिखो, दुनिया को हो भान।
लेखन के सिरमौर हो, गाहे सृजन सम्मान।।
*-
बंधन क्यों हो सोच पर, मन खुलकर अब सोच।
जीत-हार मन-भावना, ख़ुशी न अधिक खरोच।। 
*
आभासी संसार में, मित्रों की भरमार।
विहँस फँसाएँ जाल में, धोखे कई हज़ार।।
*
धरती के दो रूप हैं, यह माँ वह संसार।
यह प्यारी ममतामयी, वह पोषण आधार।।
*
राजनीति दलदलमयी, दल-दल चलते चाल।
दली गई जनता विवश, जनगण-मन बेहाल।।
*
चिंतन प्रज्ञा यज्ञ है, उठे चेतना जाग।
ईंधन होती प्रेरणा, सुलगा दे मन आग।।
*
समता सदा विचार में, मिलती नहीं सुजान।
गुल गुलाब है एक पर, है हर पर मुस्कान।।
*
मिलन की आज आस है, तनों की बुझे प्यास
दिल कपाट जब भी खुलें, है प्रणय सूत्र रास।।
*
वही रात मधुमास है, जब समीपता ख़ास।
नृत्य करें धडकनें मिल, श्वास-श्वास हो रास।।
*
वाणी तेज कटार सी, बोले तो हो त्रास।
चंद प्यार के बोल में, ईश्वर करे निवास।।
*
नहीं हौसला मेघ में, बिजली फिरे उदास।
मर्माहत बेबस धरा, क्रोधित नभ तज आस।।
*
जीवन है क्रीड़ा नहीं, श्रम नही है त्रास
भटक नही अब पथिक तू, कारण तेरे पास।।
*
एक चाँद अति दूर है, एक हमारे पास।
वह बदली में है घिरा, यह है बहुत उदास ।।
*
सावन-फागुन में नहीं, पीड़ा या उल्लास।
विरह अगन जल पीर हो, हर्ष अगर प्रिय पास।।
*
यह सौंदर्य दिखावटी, उसका भीतर वास।
यह क्षणभंगुर नष्ट हो, वह शाश्वत दे हास।।
*
यह बंदा अति ख़ास है, इक उसका जीवन आम।
यह है बस शाने-ख़ुदा, वह ले हरि का नाम ।।
*
मीरा माने समर्पण, राधा माने प्यार।
दोनों हों संपूर्ण जब, कृष्ण बने आधार।।
*
दलित-दलित जपते रहे, सोच मिलेंगे वोट।
हारे- ई वी एम में, बता रहे हैं खोट।।
*
आग रूप-सौंदर्य है, साक्षी है इतिहास।
जले पतंगों की तरह, मनुज आम या ख़ास।।
*
नेता खड़े चुनाव में, अपनी बिछा बिसात।
आम जनों को बाँटकर, बता रहे औकात।।
*
चौराहे पर खड़े हो, लक्ष्य न मिलता तात।
एक राह पर चलो तो, हँसो लक्ष्य पा भ्रात।।
*
कमी नहीं कमज़ोर की, खोजो मिले करोड़।
गर्दन नीची चाहिए, तजो अकड़ या होड़।।
*
मंदिर-मस्जिद ढोंग है, फूलों का व्यापार
काँटों से कर मित्रता , ईश मिले हर बार।।
*
पुष्पों का क्या भाग्य हैं, देख ईश्वरी न्याय।
सिर पर जूती के तले, जीवन के अध्याय।।
*
जनसंख्या सीमित रहे, हो जीवन उत्कर्ष।
सन सामान सिद्धांत पर, फलता भारतवर्ष।।
*
अवसर-सीमा असीमित, उठ छू लो आकाश।
अंतहीन अवसर सुलभ, चमके युवा प्रकाश।।
*
दाँव मीन-आखेट है, मानव बगुला यार। 
एक टाँग पर खड़ा है, ज्यों साधक हरि-द्वार।।
*
अडिग पथिक चलते रहो, होगी जय जयकार।
जो ठाना कोशिश करो, होगी कभी न हार।।
*
धनुष उठे जब वीर का, करे घोर टंकार।
लड़ हँस जीवन समर में, पा जय मिले न हार।।
*
दुःख से क्यों तू डर  रहा, इतनी सी औकात?
चंद्र ग्रहण से कब डरे, बोल चॉँदनी रात।।
*
कठिनाई नगपति सदृश, मनुज न डर तू जूझ।
रहो काटते श्रमिक सम, डगर बना नव बूझ।।
*
यदि न ज्ञान मल्लाह को, कहाँ किनारा-बाट।
क्या कसूर मँझधार का, भटक न पाए घाट।।
*
ढोंग बनी कश्मीरियत, जिसे न इसका भान।
छीने औरों को डरा, जो न रहा इंसान।।
*
बहिष्कार कर चीन का, यही उचित है नीत।
चाह मत करो युद्ध की, थोपे तो लड़ जीत।।
*
भारी पड़े तटस्थता, विश्व न कहे सशक्त।
गुटबाज़ी यदि की नहीं, मानें तुझे अशक्त।।
*
जंगल-पर्वत कट रहे, नभ रोता है देख। 
जब तक हुई न त्रासदी, मनुज न करता लेख।।  
*
बीज प्रेम का बो रहा, मौन प्रेम से मीत। 
दुआ-दवा है प्रेम ही, रुचे न नफरत-नीत।।
*
तुमको पाकर सब मिला, तुम बिन खाली हाथ। 
ईश्वर आये तुम्हीं में, तुम बिन रहे न साथ।।
*
ईश-ईश कह थक गया, बहे नयन जल-धार। 
सांई फिर भी ना मिले, पा छोड़ा संसार।।
*
पूजा-समझा तुम मिले, सेवा-प्यार अपार। 
कैसा जन्म मनुष्य का, धन जीवन आधार।।
*
करिए प्यार-दुलार तो, रखें तिरंगा-मान। 
हो विपत्ति में देश यदि, करें आत्म-बलिदान।।
*
आड़े आयी हृदय में, मैं मैं की दीवार। 
शब्दों का टोटा रहा, बोल सका कब प्यार ।। 
*
संसारी शैतान भी, हम ही हैं भगवान। 
जीवन कर्मों पर टिका, जिससे हो पहचान।।
*
छोड़ दीजिये मित्र सब, जो हैं नाग समान। 
आस्तीन में झाँकिए, जाने कब लें प्राण।।
*
मात-पिता को छोड़कर, करे बसेरा और। 
पुत्र देख अनुसरण करे, मिले कहाँ तब ठौर।।
*
मीठी बोली बोल कर, नेता माँगे वोट
वादों की बौछार हो, जनता खाए चोट।।
*
माटी से माटी मिले, है कैसा फिर क्लेश। 
कर्मों से जग जानिये, क्या घर क्या परदेश ।।
*
फूलों के सँग शूल हैं, जीवन के सँग काल। 
तथ्य समझ जो आ गया, जी बिन माया जाल।।
*
भारतीय-भारत सगे, धर्म-जात निस्सार। 
भारत रहे अखंड तब, सुधिजन करेंविचार।।
*
चिंता नहीं अतीत की, मत रेखाएँ नाप। 
वर्तमान तेरा सगा, कल अनजाना ताप।।
*
सब्जी हरी रसूल है, बाकी सब भगवान। 
रंगों में मत बाँटिये, आखिर सब इंसान ।।
*
रक्षक जब भक्षक लगे, मानवता की हार। 
दुराचार की देन है, कलयुग का उपहार।।                                                                                           
*
मन-दर्पण आँसू बहे, जब भी खला अभाव। 
नर तो थोथा दर्प है, नारी है मन-भाव।।
*
मानव जन्म सफल बने, सही दिशा लो जान। 
लक्ष्य चुने फिर ना डिगे, तब ही मनुज महान।।
*
मन-अनुभूति सृजन करे, शब्द नगीने ताज। 
संयोजन ऐसा करें, रचना हो सरताज ।।
*
आशा कोई मत रखो, सकते सुख न खरीद। 
मन -दरवाजे खोल दो, सबको बना मुरीद।।
*
बिम्ब और प्रतिबिंब सम, हैं विचार आचार। 
देव-दनुज हों संग पर, कृत्य भेद आधार।।
*
वन में गुंजित गीत हो, जग-छाए उल्लास।
बहे सावनी धार जब, बुझे धरा की प्यास।।
*
करे समर पर काज जो, उसे समय का भान।   
धन से ज्यादा कीमती, समय-मूल्य तू जान।।
*
आँसू दिल का आइना, होती है बरसात। 
दर्द-क्रोध-सदमा-ख़ुशी, आँसू हैं सौगात।।
*
वंशज क्यों पुत्री नहीं, सुत ही क्यों स्वीकार?
नर को नारी जन्म दे, नर मत कर अपकार।।
*
नारी सृजक स्वरूप है, करो नहीं अपमान। 
नारी जिस घर में नहीं, बन जाता शमशान।।
*
रंग रक्त का एक है, तजो भेद का भाव। 
गाँधी जैसे हम बनें, बदलें निजी स्वभाव।। 
*
राजे-रजवाड़े मिटे, याद रखें इतिहास। 
सांसद सदा न रहेंगे, हों जनता के दास।।
*
मछली जालों में फसें, फेसबुकी पहचान। 
झूठे हैं रिश्ते यहाँ, ज्ञान नहीं आसान।।
*
हीरों सा व्यापार है, लेखन नहीं दुकान। 
जब से जरकन आ गए, गुमी कहीं पहचान।।
*
पत्थर-मन मनु बन गया, पत्थर के भगवान। 
कीमत नहीं गरीब की, प्रिय लगते धनवान।।
*
जल बिन तरस रहा मनुज, रोता सूखा देख। 
नदिया श्रापित हो गई, बोया काटे लेख।।
*
जंगल-पर्वत कट गए, बची न पानी-धार।  
जल-जल कह सब जल रहे,  जल दे कौन उधार।।  
*
मँहगाई सुरसा बनी, भूख सहो धर धीर। 
ऐश सभी नेता करें, कौन हरेगा पीर।।
*
संसद सांसद से चले, लोकतंत्र लें मान। 
देश तभी उन्नति करे, बहस करें श्रीमान।।
*
बालक बालक तब कहाँ, जब करता अपराध।   
संसद पास न बिल करें, मिटे किस तरह व्याध।।१००  

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साहित्यकार निर्देशिका, गीत प्रतिगीत मिथलेश बड़गैया - संजीव वर्मा 'सलिल'

साहित्यकार निर्देशिका 
हिंदी वर्णक्रमानुसार 
नाम, स्थान, चलभाष, ईमेल, सृजन विधा 
अ 
अखिलेश खरे 'अखिल', कटनी, ९७५२८ ६३३६९, दोहा, बालगीत, सजल, कुण्डलिया। 
अनिता रश्मि राँची, ९४३१७ ०१८९३
अरुण शर्मा, भिवंडी, ९६८९३ ०२५७२, ९०२२० ९०३८७, दोहा, गीत, मुक्तक। 
आ 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर, ९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८,  salil.sanjiv@gmail.com, गद्य-पद्य सभी विधाएँ 
आभा सक्सेना अलीगढ़, ९४१०७ ०६२०७, abhasaxena08@yahoo.com , दोहा गीत, ग़ज़ल, लघुकथा। 
इ 

ई 

उ 
उदयभानु तिवारी 'मधुकर', जबलपुर  ९४२४३ २३२९७, पद्य। 
ऊ 

ए 

ऐ 

ओमप्रकाश शुक्ल, दिल्ली, ९७१७६ ३४६३१ ९६५४४ ७७११२, गद्य-पद्य।  

औ 

अं  
अंजू खरबंदा, दिल्ली  
क 
कालीपद प्रसाद हैदराबाद, ९६५७९ २७९३१, गीत, निबंध।  
ख 
ग 
गीता चौबे 'गूँज' रांची, ८८८०९ ६५००६
गीता शुक्ला फरीदाबाद, ९८११५ ६६५६८
गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' कोटा, ७७२८८ २४८१७ / ८२०९४ ८३४७७, दोहा, नवगीत, ग़ज़ल, नाटक।  
घ 
च 
चंद्रकांता अग्निहोत्री, पंचकूला, ९८७६६ ५०२४८, लघुकथा, दोहा, छायांकन, चित्रांकन। 
छ 
छगनलाल गर्ग 'विज्ञ', सिरोही, ९४६१४ ४९६२०, गीत, छंद, लेख। 
छाया सक्सेना 'प्रभु', जबलपुर, ७७०२४२ ८५७८८, दोहा, गीत, कहानी, लघुकथा।  
ज 
झ 
ट 
ठ 
ढ 
त 
थ 
द  
ध 
न 
नीलम पारीक बीकानेर, ९७९९२ ८०३६३, लघुकथा। 
प 
पूनम झा कोटा, ९४१४८ ७५६५४, लघुकथा। 
प्रेमबिहारी मिश्र, दिल्ली, ९७११८ ६०५१९, पद्य। 
फ 
ब 
भ 
भारती नरेश पाराशर जबलपुर, ८८३९२ ६६४३४
मिथलेश बड़गैया, जबलपुर, ९४२५३ ८३६१६, दोहा, गीत, ग़ज़ल, लघुकथा।  
मनोज कर्ण, फरीदाबाद  ९५४०० ९५३४०
य 
र 
रमेश सेठी, रोपड़, ७००९२ ६७९५२
राजकुमार महोबिआ, कटनी ९८९३८ ७०१९०, गद्य-पद्य। 
रामेश्वर प्रसाद सारस्वत, सहारनपुर, ९५५७८ २८९५०, पद्य-निबंध। 
ल 
व 
विजय बागरी, कटनी, ९६६९२ ५१३१९, गीत, नवगीत, दोहा, सजल। 
विनोद जैन 'वाग्वर', सागवाड़ा, ९६४९९ ७८९८१, गद्य-पद्य। 
विभा तिवारी जौनपुर ८७०७७ ४०७५६
शशि शर्मा इंदौर, ९८२७२ ५३८६८
शिवानी खन्ना दिल्ली, ९८१०४ ३९७८९
शेख़ शहज़ाद उस्मानी, शिवपुरी ९४०६५ ८९५८९ 
श्यामल सिन्हा, गुड़गाँव, पद्य, वेणुवादन।   
श्रीधरप्रसाद द्विवेदी, पलामू, ७३५२९ १८०४४, पद्य, कहानी, दोहा, निबंध। 
स 
सदानंद कवीश्वर ९८१०४ २०८२५
सुरेंद्र कुमार अरोड़ा, साहिबाबाद ०९९१११ २७२७७, लघुकथा 
डी १८४ , श्याम पार्क एक्सटेंशन ,साहिबाबाद २०१००५ ( ऊ प्र )
सुरेश कुशवाहा 'तन्मय', जबलपुर, ९८९३२ ६६०१४, पद्य, बाल साहित्य, लघुकथा। 
ह 
क्ष 
त्र 
ज्ञ   



गीत और प्रतिगीत 
मिथलेश बड़गैया - संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
दौर अब भी है
अनय की आँधियों का,
साथ मिलकर
न्याय का
डंका बजाओ।
*
क्यों अँधेरे
डस रहे हैं रोशनी को,
रोज कल्मष
घेरते हैं चाँदनी को।
सत्य का सूरज
कुहासे में घिरा है,
बेसुरे से राग लूटें
रागिनी को।
काटकर झूठे
तिमिर-जंजाल को फिर
तुम नया सूरज-सुनहरा
जगमगाओ।
*
भीख में मिलती
नहीं है जिंदगानी,
त्याग से बनती
सफलता की कहानी
कुंडली अपनी
लिखो पुरुषार्थ श्रम से
तब मिलेगी प्रभु -
कृपा की राजधानी
हाथ पर क्यों
हाथ धर कर आज बैठे,
है धरा बंजर इसे 
फिर लहलहाओ।
*
कब तलक लाचारियाँ
हमको छलेंगी,
कब तलक मनमानियाँ
हम पर चलेंगी।
कब तलक हम
डूबने मजबूर होंगे,
कब तलक साँसें 
व्यथाओं से लड़ेंगी।
हौसलों की थामकर
पतवार कर में,
आज हर तूफान से 
आँखें मिलाओ।
***
प्रतिगीत 
*
मोह 
अनय की आँधियों का,
साथ मिलकर
न्याय का
डंका बजाओ।
*
क्यों अँधेरे
डस रहे हैं रोशनी को,
रोज कल्मष
घेरते हैं चाँदनी को।
सत्य का सूरज
कुहासे में घिरा है,
बेसुरे से राग लूटें
रागिनी को।
काटकर झूठे
तिमिर-जंजाल को फिर
तुम नया सूरज-सुनहरा
जगमगाओ।
*
भीख में मिलती
नहीं है जिंदगानी,
त्याग से बनती
सफलता की कहानी
कुंडली अपनी
लिखो पुरुषार्थ श्रम से
तब मिलेगी प्रभु -
कृपा की राजधानी
हाथ पर क्यों
हाथ धर कर आज बैठे,
है धरा बंजर इसे 
फिर लहलहाओ।
*
कब तलक लाचारियाँ
हमको छलेंगी,
कब तलक मनमानियाँ
हम पर चलेंगी।
कब तलक हम
डूबने मजबूर होंगे,
कब तलक साँसें 
व्यथाओं से लड़ेंगी।
हौसलों की थामकर
पतवार कर में,
आज हर तूफान से 
आँखें मिलाओ।
*

शिक्षा नीति, मुक्तिका, छंद रविशंकर, लघुकथा, दोहा, अलंकार, नवगीत, छंद,

विषय: राष्ट्रीय शिक्षा नीति

मान्यवर!
वंदे मातरम।
० १. प्रकृति गर्भ से ही जीव को शिक्षित करना प्रारम्भ कर देती है। माता प्रथम गुरु होती है अत:, माँ द्वारा उपयोग की जाती भाषा जातक की मातृभाषा होती जिसके शब्दों और उनके साथ जुडी संवेदना को शिशु गर्भ से ही पहचानने लगता है। विश्व के सभी शिक्षा-शास्त्री और मनोवैज्ञानिक एकमत हैं कि शिशु का शिक्षण मातृ भाषा में होना चाहिए। दुर्योगवश भारत में राजनैतिक स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद अंग्रेजभक्त नेता, दल और प्रशासनिक अधिकारी सत्ता पर आ गए और मातृभाषा तथा राजभाषा उपेक्षित होकर पूर्व संप्रभुओं की आंग्ल भाषा शिक्षा पर थोप दी गयी। वर्तमान में सबसे पहली प्राथमिकता शिक्षा के माध्यम के रूप में पहला स्थान मातृभाषा फिर राज भाषा हिंदी को देना ही हो सकता है। अंग्रेजी का भाषिक आतंक यदि अब भी बना रहा तो वह भविष्य के लिए घातक और त्रासद होगा।
०२. शिक्षा की दो प्रणालियाँ शैशव से ही समाज को विभक्त कर देती हैं। अत:, निजी शिक्षण व्यवस्था को हतोत्साहित कर क्रमश; समाप्त किया जाए। राष्ट्रीय एकात्मकता के लिये भाषा, धर्म, क्षेत्र, लिंग या अभिभावक की आर्थिक स्थिति कुछ भी हो हर शिशु को एक समान शिक्षा प्राथमिक स्तर पर दी जाना अपरिहार्य है। इस स्तर पर मातृ भाषा, राजभाषा, गणित, सामान्य विज्ञान (प्रकृति, पर्यावरण, भौतिकी, रसायन आदि), सामान्य समाज शास्त्र (संविधान प्रदत्त अधिकारों व् कर्तव्यों की जानकारी, भारत की सभ्यता, संस्कृति, सर्व धर्म समभाव, राष्ट्रीयता, मानवता, वैश्विकता आदि), मनोरंजन (साहित्य, संगीत, नृत्य, खेल, योग, व्यायाम आदि), सामाजिक सहभागिता व समानता (परिवार, विद्यालय, ग्राम, नगर, राष्ट्र, विश्व के प्रति कर्तव्य) को केंद्र में रखकर दी जाए। बच्चे में शैशव से ही उत्तरदायित्व व् लैंगिक समानता का भाव विकसित हो तो बड़े होने पर उसका आचरण अनुशासित होगा और अनेक समस्याएँ जन्म ही न लेंगीं।
०३. माध्यमिक शिक्षा का केंद्र बच्चे के प्रतिभा, रूचि, योग्यता, आवश्यकता और संसाधनों का आकलन कर उसे शिक्षा ग्रहण करने के क्षेत्र विशेष का चयन करने के लिए किया जाना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा के विषयों में कुछ अधिक ज्ञान देने के साथ-साथ शारीरिक-मानसिक सबलता बढ़े तथा अभीष्ट दिशा का निर्धारण इसी स्तर पर हो तो कैशोर्य समाप्त होने तक बच्चे में उत्तरदायित्व के प्रति जागरूकता व् उत्सुकता होगी, साथ ही सामने एक लक्ष्य भी होगा। जिस बच्चे में किसी खेल विशेष की प्रतिभा हो उसे उस खेल विशेष का नियमित तथा विशिष्ट प्रशिक्षण उपलब्ध करा सकनेवाली संस्था में प्रवेश दे कर अन्य विषय पढ़ाए जाए। इसी तरह संगीत, कला, साहित्य, समाजसेवा, विज्ञान आदि की प्रतिभा पहचान कर स्वभाषा में शिक्षण दिया जाए। हर विद्यालय में स्काउट / गाइड हो ताकि बच्चों में चारित्रिक गुणों का विकास हो।
०४. उच्चतर माध्यमिक स्तर पर हर बच्चे की प्रतिभा के अनुरूप क्षेत्र में उसे विशेष शिक्षण मिले। इस स्तर पर यह भी पहचान जाए कि किस विद्यार्थी में उच्च शिक्षा ग्रहण करने की पात्रता और चाहत है तथा कौन आजीविका अर्जन को प्राथमिकता देता है? जिन विद्यार्थियों में व्यावहारिक समझ अधिक और किताबी ज्ञान में रूचि कम हो उन्हें रोजगारपरक शिक्षा हेतु पॉलिटेक्निक और आई. आई. टी. में भेजा जाए जबकि किताबी ज्ञान में अधिक रूचि रखनेवाले विद्यार्थी स्नातक शिक्षा हेतु आगे जाएँ। हर विद्यार्थी में चारित्रिक विकास के लिए स्काउट / गाइड अनिवार्य हो।
०५. विद्यार्थी स्नातक पाठ्यक्रम हेतु खुद विषय न चुने अपितु मनोवैज्ञानिक परीक्षण कर उसकी सामर्थ्य और उसमें छिपी सम्भावना का पूर्वानुमान कर उसे दिशा-दर्शन देकर उसके लिये सर्वाधिक उपयुक्त विषय, उस विषय के योग्यतम शिक्षक जिस संस्थान में हों वहाँ उसे प्रवेश दिया जाए। हर विद्यार्थी को एन. सी. सी. लेना अनिवार्य हो ताकि उसमें आत्मरक्षण, अनुशासन तथा चारित्रिक गुण विकसित हों। आपदा अथवा संकट काल में वह अपनी और अन्यों की रक्षा करने के प्रति सजग हो।
०६. शालेय शिक्षा की अंतिम परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर ही स्नातक कक्षाओं में प्रवेश हो। सभी चयन परीक्षाएँ तत्काल बंद कर दी जाएँ तो इन के आयोजन में व्यर्थ खर्च होनेवाली विशाल धनराशि, स्टेशनरी, कार्य घंटे, इनके आयोजन में हो रहा भ्रष्टाचार (उदाहरण व्यापम, बिहार का फर्जीवाड़ा आदि) अपने आप समाप्त हो जायेगा तथा अभिभावक को पैसों की दम पर अयोग्य को बढ़ाने का अवसर न मिलेगा। इससे शालेय स्तर पर गंभीरता से पढ़ने और अनुशासित रहने की प्रवृत्ति भी होगी।
०७. स्नातक स्तर पर विषय का अद्यतन ज्ञान देने के साथ-साथ विद्यार्थी की शोध क्षमता का आकलन हो। जिनकी रुचि व्यवसाय में हों वे इसी स्तर पर संबंधित विषय के प्रबंधन, कानूनों, बाज़ार, अवसरों और सामग्रियों आदि पर केंद्रित डिप्लोमा कर व्यवसाय में आ सकेंगे। इससे उच्च शिक्षा स्तर पर अयोग्य विद्यार्थियों की भीड़ कम होगी और योग्य विद्यार्थियों पर अधिक ध्यान दिया जा सकेगा।
०८. स्नातकोत्तर कक्षाओं में वही विद्यार्थी प्रवेश पायें जिन्हें शिक्षण अथवा शोध कार्य में रूचि हो। प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक, स्तर तक अध्यापन हेतु स्नातक शिक्षा तथा अध्यापन शास्त्र में विशेष शिक्षा आवश्यक हो। स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन हेतु शोध उपाधि अपरिहार्य हो।
०९ शोध निदेशक बनने हेतु शोध उपाधि के साथ पाँच वर्षीय अध्यापन अनुभव अनिवार्य हो जिसमें ७५% विद्यार्थी उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण हुए हों।
१०. तकनीकी (अभियांत्रिकी / चिकित्सा / कृषि ) शिक्षा- इन क्षेत्रों में उच्चतर माध्यमिक परीक्षा में प्राप्तांकों के आधार पर विद्यार्थी को प्रवेश दिया जाय। प्रतियोगिता परीक्षाएँ समाप्त की जाएँ ताकि विशाल धनराशि, लेखा सामग्री एवं ऊर्जा का अपव्यय और भ्रष्टाचार समाप्त हो। विद्यार्थियों को उपलब्ध स्थान के अनुसार मनपसन्द शाखा तथा स्थान समाप्त होने पर उपलब्ध शाखा में प्रवेश लेना होगा। निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को शासन ने रियायती दर पर बहुमूल्य भूमि और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई हैं। इनके प्रबंधक प्राध्यापकों को न्यूनतम से काम पारिश्रमिक देकर उनका शोषण कर रहे हैं। कम वेतन के कारण विषय के विद्वान् शिक्षक यहाँ नहीं हैं। औसत अंक लेकर उत्तीर्ण हुआ विषय का पूरा ज्ञान नहीं रखता तो वह विद्यार्थी को पूरा विषय कैसे पढ़ा सकता है? फलत: सा; दर साल अभियांत्रिकी उपाधिधारकों का स्तर निचे गिर रहा है। माननीय प्रधानमंत्री जी इस सन्दर्भ में कई बार चिंता व्यक्त कर चुके हैं। जिन निजी शैक्षणिक संस्थाओं के विद्यालय / महाविद्यालय घाटे में बताये जा रहे हैं उनसे शासन मूल कीमत देकर भूमि तथा वर्तमान मूल्यांकन के आधार पर भवन वापिस लेकर वहाँ अभियांत्रिकी या अन्य विषयों के शिक्षण संस्थान चलाए या भवनों का कार्यालय आदि के लिए उपयोग कर ले।
१ १. तकनीकी शिक्षा का स्तर उठाने के लिये सभी परीक्षाएँ ऑन लाइन हों। प्रश्नों की संख्या अधिक रखी जाए ताकि नकल करना या प्रश्नोत्तरी किताबों से पढ़ने की प्रवृत्ति घटे और विषय की मुख्य पाठ्यपुस्तक से पूरी तरह पढ़े बिना उत्तीर्ण होना संभव न रहे। किसी विषय में शिक्षा प्राप्त युवा उसी क्षेत्र में सेवा या व्यापार कार्य करें। किसी पद के लिए निर्धारित से काम या अधिक योग्यता के उम्मीदवार विचारणीय न हों क्यों कि ऐसा न होने पर सामान योग्यताधारकों को समान अवसर के नैसर्गिक सिद्धांत का पालन नहीं हो पाता।
१२. प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारी तकनीकी क्षेत्र के कार्यों का प्रबंधन, मार्गदर्शन और नियंत्रण करते हैं इसलिए इन पदों के लिए तकनीकी शिक्षाधारी ही सुपात्र हैं। तकनीकी शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्बंधित विषय से जुड़े अथवा कार्यक्षेत्र में प्रयुक्त होनेवाले कानूनों, प्रबंधन शास्त्र, लेखा शास्त्र तथा प्रशासन कला से जुड़े प्रश्न पत्र जोड़े जाएँ ताकि तकनीकी स्नातक कार्य क्षेत्र में इनसे जुडी जिम्मेदारियों को सुचारू रूप से वहन कर सकें। तकनीकी उपाधि के समान्तर प्रबंधन और प्रशासन की उपाधि का अध्ययन कराया जा सकें तो ५ वर्ष की समयावधि में दो उपाधिधार युवक को अवसर प्राप्ति अधिक होगी।
१३. शासकीय कार्य विभागों में ठेकेदारी हेतु अभियांत्रिकी में स्नातक होना अनिवार्य हो ताकि गैर तकनीकी ठरकेदारों से कार्य की गुणवत्ता न गिरे।
१४. अभियांत्रिकी पाठ्यक्रमों में मानक संहिताओं को सम्मिलित किया जाए। नेशनल बिल्डिंग कोड आदि विद्यार्थियों को रियायती मूल्य पर अनिवार्यत: दिए जाएँ।
१५. अभियंताओं की सर्वोच्च संस्थाओं इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इन्डियन जियोटेक्निकल सोसायटी, इंडियन अर्थक्वैक सोसायटी आदि की मदद से पाठ्यक्रमों का पुनर्निर्धारण हो। पूरे देश में एक समान पाठ्यक्रम हो।
१६. इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स के केंद्रों में सदस्य अनुभवी अभियंता होते हैं उनके कौशल और ज्ञान का उपयोग शासकीय योजनाओं के प्रस्ताव बनाने, कार्यों के पर्यवेक्षण, मूल्यांकन, संधारण आदि में किया जा सकता है। सेवानिवृत्त अभियंताओं की योग्यता का लाभ देश और समाज के लिये लिया जा सकता है।
१७. प्राकृतिक आपदाओं तथा संकट काल का सामना करने विशेष प्रविधियों की आवश्यकता होती है। ऐसे समय में हर नागरिक की भूमिका महत्वपूर्ण तथा अन्यों की जीवन बचने में महत्वपूर्ण होती है। सभी पाठ्यक्रमों में आपदा प्रबंधन तथा सामान्य स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी सामग्री जोड़ी जाए।
१८. सभी पाठ्यक्रमों में शिक्षा का माध्यम हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ हों। अंग्रेजी की भूमिका क्रमश: समाप्त की जाए।
मुझे आशा ही विश्वास है की सुझावों पर विचार कर समुचित निर्णय लिए जायेंगे। इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का सहयोग कर प्रसन्नता होगी।
एक नागरिक
अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल'
अधिवक्ता उच्च न्यायालय मध्य प्रदेश
समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
salil.sanjiv@gmail.com -चलभाष ९४२५१८३२४४

मुक्तिका
आपकी मर्जी
*
आपकी मर्जी नमन लें या न लें
आपकी मर्जी नहीं तो हम चलें
*
आपकी मर्जी हुई रोका हमें
आपकी मर्जी हँसीं, दीपक जलें
*
आपकी मर्जी न फर्जी जानते
आपकी मर्जी सुबह सूरज ढलें
*
आपकी मर्जी दिया दिल तोड़ फिर
आपकी मर्जी बनें दर्जी सिलें
*
आपकी मर्जी हँसा दे हँसी को
आपकी मर्जी रुला बोले 'टलें'
*
आपकी मर्जी, बिना मर्जी बुला
आपकी मर्जी दिखा ठेंगा छ्लें
*
आपकी मर्जी पराठे बन गयी
आपकी मर्जी चलो पापड़ तलें
*
आपकी मर्जी बसा लें नैन में
आपकी मर्जी बनें सपना पलें
*
आपकी मर्जी, न मर्जी आपकी
आपकी मर्जी कहें कलियाँ खिलें
१६.१०.२०१८
***

नव छंद
गीत
*
छंद: रविशंकर
विधान:
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा
२. मात्रा क्रम लघु लघु गुरु लघु लघु
***
धन तेरस
बरसे रस...
*
मत निन्दित
बन वन्दित।
कर ले श्रम
मन चंदित।
रचना कर
बरसे रस।
मनती तब
धन तेरस ...
*
कर साहस
वर ले यश।
ठुकरा मत
प्रभु हों खुश।
मन की सुन
तन को कस।
असली तब
धन तेरस ...
*
सब की सुन
कुछ की गुन।
नित ही नव
सपने बुन।
रख चादर
जस की तस।
उजली तब
धन तेरस
***
लघुकथा:
बाल चन्द्रमा
*
वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते? त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।
'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।
'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।
ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊं?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपडी, कपडे और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।
'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे द्वारा फेंगा गया कचरा बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।
'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस। ' कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था बाल चन्द्रमा।
१७-१०-२०१७
***
दोहा सलिला
प्रभु सारे जग का रखें, बिन चूके नित ध्यान।
मैं जग से बाहर नहीं, इतना तो हैं भान।।
*
कौन किसी को कर रहा, कहें जगत में याद?
जिसने सब जग रचा है, बिसरा जग बर्बाद
*
जिसके मन में जो बसा वही रहे बस याद
उसकी ही मुस्कान से सदा रहे दिलशाद
*
दिल दिलवर दिलदार का, नाता जाने कौन?
दुनिया कब समझी इसे?, बेहतर रहिए मौन
*
स्नेह न कांता से किया, समझो फूटे भाग
सावन की बरसात भी, बुझा न पाए आग
*
होती करवा चौथ यदि, कांता हो नाराज
करे कृपा तो फाँकिये, चूरन जिस-तिस व्याज
*
जो न कहीं वह सब जगह, रचता वही भविष्य
'सलिल' न थाली में पृथक, सब में निहित अदृश्य
*

जब-जब अमृत मिलेगा, सलिल करेगा पान
अरुण-रश्मियों से मिले ऊर्जा, हो गुणवान
*
हरि की सीमा है नहीं, हरि के सीमा साथ
गीत-ग़ज़ल सुनकर 'सलिल', आभारी नत माथ
*
कांता-सम्मति मानिए, तभी रहेगी खैर
जल में रहकर कीजिए, नहीं मगर से बैर
*
व्यग्र न पाया व्यग्र को, शांत धीर-गंभीर
हिंदी सेवा में मगन, गढ़ें गीत-प्राचीर
*
शरतचंद्र की कांति हो, शुक्ला अमृत सींच
मिला बूँद भर भी जिसे, ले प्राणों में भींच
*
जीवन मूल्य खरे-खरे, पालें रखकर प्रीति
डॉक्टर निकट न जाइये, यही उचित है रीति
*
कलाकार की कल्पना, जब होती साकार
एक नयी ही सृष्टि तब, लेती है आकार
***
अलंकार खोजिए:
धूप-छाँव से सुख-दुःख आते-जाते है
हम मुस्काकर जो मिलता सह जाते हैं
सुख को तो सबसे साझा कर लेते हैं
दुःख को अमिय समझकर चुप पी जाते हैं।
कृपया, बताइये :
मालिक दे डर राखी करदे, साबिर, भूखे, नंगे
- क्या यहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार है? (क वर्ग: क ख ग, त वर्ग: द न, प वर्ग: ब भ म)
*
बाप मरे सिर नंगा होंदा, वीर मरे गंड खाली
माँवां बाद मुहम्मद बख्शा कौन करे रखवाली
सिर नंगा होंदा = मुंडन किया जाना, आशीष का हाथ न रहना
गंड खाली = मन सूना होना, गाँठ/गुल्लक खाली होना, राखी पर भाई भरता था
- क्या यहाँ श्लेष अलंकार है?
*
लघु कथा:
" नाम गुम जायेगा"
*
' नमस्कार ! कहिए, कैसी बात करते हैं? जैसा कहेंगे वैसा ही करूँगा… क्या? पुरस्कार लौटना है? क्यों?… क्या हो गया?… हाँ, ठीक कहते हैं … चनाव में तो लुटिया ही डूब गयी. किसने सोचा था एक दम फट्टा साफ़ हो जाएगा?… अपन लोगों का असर खत्म होता जा रहा है, ऐसा ही चलता रहा तो कुछ भी कर पाना मुश्किल हो जाएगा.
अच्छा, ऐसी योजना है. ठीक है, इससे पूरे देश नही नहीं विदेशों में भी अच्छा कवरेज मिलेगा. जितने लेखन अवार्ड लौटायेंगे, उतनी बार चर्चा और आरोप लगाने का मौक़ा। इसका कोई काट भी नहीं है. एक स्थानीय आंदोलन भी एकरो तो खर्च बहुत होता है, वर्कर मिलते नहीं। अखबार और टी वी वाले भी अब नज़र फेर लेते हैं. मेहनत, समय और खर्च के बाद किसी कार्यकर्त्ता ने जरा से गड़बड़ कर दी तो थाणे के चक्कर फिर अदालत-जमानत. यह तो बहुतै नीक है. हर लगे ना फिटकरी रंग भी चोखा आये.…
बिलकुल ठीक है. कल उन्हें लौटने दीजिए दो दिन बाद मैं लौटाऊँगा।… उनकी चिता न करें उन्हें आपने ही दिलाया था मेरी सिफारिश पर वरना कौन पूछता? उनसे अच्छे १७६० पड़े हैं. वो तो लौटाएगा ही, उसे २ लोगों की जिम्मेदारी और सौंपूँगा… उनको भी तो आपने ही दिलवाया था… मैं पूरी ताकत लगाऊंगा… अब तक गजेन्द्र चौहान के ममले में नौटंकी चलती रही, अब ये पुरस्कार लौटने का ड्रामा करेंगे अगला मुद्दा हाथ में आने तक.
नहीं, चैन नहीं लेने देंगे… इन्हीं प्रपंचों में उलझे रहेंगे तो कहीं न कहीं चूक कर ही जायेंगे। भैया कोशिश तो बिहार वालों ने भी की लेकिन चूक हो गयी. पहले बम नहीं फटा फिर नेता जी अपने बेटों को बढ़ाने के चक्कर में अपनों को ही दूर कर बैठे। वो तो भला हो दिल्लीवालों का उनकी शह पर हम लोग भी कुछ नकुछ करते ही रहेंगे।
पुरस्कार लौटने में नुक्सान ही क्या है? पहले पब्लिसिटी मिली, नाम हुआ तो किताबें छपीं रॉयल्टी मिली, लाइब्रेरियों में बिकीं। कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज में सेमिनारों में गए भत्ता तो मिले ही, अपने कार्यकर्ताओं को भी जोडा.पुरस्कार लौटाने से क्या, बाकि के फायदे तो अपने हैं ही. अस्का एक और असर होगा उन्हें हम लोगों को मैंने की कोशिश में फिर अवार्ड देना पड़ेंगे नहीं तो हमारा कैम्पेन चलेगा की अपने लोगों को दे रहे हैं. ठीक है, चैन नहने लेने देंगे… हाँ, हाँ पक्का कल ही पुरस्कार लौटाने की घोषणा करता हूँ. आप राजधानी में कवरेज करा लीजियेगा। अरे नहीं, चंता न करें ऐसे कैसे नाम गुम जाएगा? अभी बहुत दमखम है. गुड नाइट… और बंद हो गया मोबाइल
****
नवाचरित नवगीत :
ज़िंदगी के मानी
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
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रसानंद है छंद नर्मदा : २ २.
छंद : उद्भव, अंग तथा प्रकार
- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
छंद का उद्भव आदिकवि महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। कथा है कि मैथुनरत क्रौंच पक्षी युग्म के एक पक्षी को बहेलिये द्वारा तीर मार दिये जाने पर उसके साथी के आर्तनाद को सुनकर महर्षि के मुख से यह पंक्ति निकल पड़ी: 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वं गम: शाश्वती समा: यत्क्रौंच मिथुनादेकम अवधि: काममोहितं'। यह प्रथम काव्य पंक्ति करुण व्युत्पन्न है जिसे कालांतर में अनुष्टुप छंद संज्ञा प्राप्त हुई। वाल्मीकि रामायण में इस छंद का प्रचुर प्रयोग हुआ है।
एक अन्य कथानुसार छंदशास्त्र के आदि आविष्कर्ता भगवान् आदि शेष हैं। एक बार पक्षिराज गरुड़ ने नागराज शेष को पकड़ लिया। शेष ने गरुड़ से कहा कि उनके पास एक दुर्लभ विद्या है।इसे सीखने के पश्चात गरुण उनका भक्षण करें तो विद्या नष्ट होने से बच जाएगी। गरुड़ के सहमत होने पर शेष ने विविध छंदों के रचनानियम बताते हुए अंत में 'भुजंगप्रयाति छंद का नियम बताया और गरुड़ द्वारा ग्रहण करते ही अतिशीघ्रता से समुद्र में प्रवेश कर गये। गरुड़ ने शेष पर छल करने का आरोप लगाया तो शेष ने उत्तर दिया कि आपने मुझसे छंद शास्त्र की वदया ग्रहण की है, गुरु अभक्ष्य और पूज्य होता है। अत:, आप मुझे भोजन नहीं बना सकते। मैंने आपको भुजङ्ग प्रयात छंद का सूत्र 'चतुर्भिमकारे भुजंगप्रयाति' अर्थात चार गणों से भुजंग प्रयात छंद बनता है, दे दिया है। स्पष्ट है कि छंदशास्त्र दैवीय दिव्य विद्या है।
किंवदंती है की मानव सभ्यता का विकास होने पर शेष ने आचार्य पिंगल के रूप में अवतार लेकर सूत्रशैली में 'छंदसूत्र' ग्रन्थ की रचना की। इसकी अनेक टीकाएँ तथा व्याख्याएँ हो चुकी हैं।छंदशास्त्र के विद्वानों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है: प्रथम आचार्य जो छंदशास्त्र का शास्त्रीय निरूपण तथा नव छंदों का अन्वेषण करते हैं और द्वितीय कवि श्रेणी जो छंदशास्त्र में वर्णित विधानानुसार छंद-रचना करते हैं। कालांतर में छंद समीक्षकों की तीसरी श्रेणी विकसित हुई जो रचे गये छंद-काव्यों का पिंगलीय विधानों के आधार पर परीक्षण करते हैं। छंदशास्त्र में मुख्य विवेच्य विषय दो हैं
१. छंदों की रचनाविधि तथा
२. छंद संबंधी गणना (प्रस्तार, पताका, उद्दिष्ट, नेष्ट) आदि। इनकी सहायता से किसी निश्चित संख्यात्मक वर्गों और मात्राओं के छंदों की पूर्ण संख्यादि का बोध सरलता से हो जाता है।
छंद को वेदों का 'पैर' कहा गया है। जिस तरह किसी विद्वान की कृपा-दृष्टि, आशीष पाने के लिये उसके चरण-स्पर्श करना होते हैं वैसे ही वेदों को पढ़ने-समझने के लिये छंदों को जानना आवश्यक है। यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो कविता की कसौटी ‘छन्दशास्त्र’ है।
छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है। छंद शब्द के दो अर्थ आल्हादित (प्रसन्न) करना तथा 'आच्छादित करना' (ढाँक लेना) हैं। यह आल्हाद वर्णों, मात्राओं अथवा ध्वनियों की नियमित आवृत्तियों (दुहराव) से उत्पन्न होता है तथा रचयिता, पाठक या श्रोता को हर्ष और सुख में निमग्न कर आच्छादित कर लेता है। छन्द का अन्य नाम वृत्त भी है। वृत्त का अर्थ है घेरना । विशिष्ट वर्ण या मात्रा कर्म की अनेक आवृत्तियाँ ध्वनियों का एक घेरा सा बनाकर पाठक / श्रोता के मस्तिष्क को घेर कर अपने रंग में रंग लेती है। छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं। आचार्य पिंगल द्वारा रचित 'छंद: सूत्रम्' प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। उन्हीं के नाम पर इस शास्त्र को पिङ्गलशास्त्र भी कहा जाता है। गद्य का नियामक व्याकरण है तो पद्य का नियंता पिंगल है।
कविता या गीत में वर्णों की संख्या, विराम के स्थान, पंक्ति परिवर्तन, लघु-गुरु मात्रा बाँट आदि से सम्बंधित नियमों को छंद-शास्त्र या पिंगल तथा इनके अनुरूप रचित लयबद्ध सरस तथा जन-मन-रंजक पद्य को छंद कहा जाता है। किन्हीं विशिष्ट मात्रा बाँट, गण नियम आदि के अनुरूप रचित पद्य को विशिष्ट नाम से पहचाना जाता है जैसे दोहा, चौपाई, आदि।विश्व की अन्य भाषाओँ में भी पद्य रचनाओं के लिए विशिष्ट नियम हैं तथा छंदमुक्त पद्य रचना भी की जाती है। संस्कृत में भरत - नाट्यशास्त्र अध्याय १४-१५, ज्योतिषाचार्य वराह मिहिर, अग्निपुराण अध्याय १, वराह मिहिर - वृहत्संहिता, कालिदास - श्रुतबोध, जयकीर्ति - छ्न्दानुशासन, आचार्य क्षेमेन्द्र - सुवृत्ततिलक, केदारभट्ट - वृत्त रत्नाकर, हेमचन्द्र - छन्दाsनुशासन, केदार भट्ट - वृत्त रत्नाकर, विरहांक - वृत्तजात समुच्चय, गंगादास - छन्दोमञ्जरी, भट्ट हलायुध - छंदशास्त्र, दामोदर मित्र - वाणीभूषण आदि ने छंदशास्त्र के विकास में महती भूमिका निभायी है।छंदोरत्न मंजूषा, कविदर्पण, वृत्तदीपका, छंदसार, छांदोग्योपनिषद आदि छंदशास्त्र के महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। हिंदी में भूषण कवि - भूषणचन्द्रिका, जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' - छंद प्रभाकर, डॉ. रत्नाकर - घनाक्षरी नियम रत्नाकर , पुत्तूलाल शुक्ल - आधुनिक हिंदी काव्य में छंद योजना, रघुनंदन शास्त्री - हिंदी छंद प्रकाश, नारायण दास - हिंदी छंदोलक्षण, रामदेवलाल विभोर - छंद विधान, बृजेश सिंह - छंद रत्नाकर, सौरभ पाण्डे छंद मंजरी - ने छंदशास्त्र पर महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की है।
प्रयोग के अनुसार छंद के २ प्रकार वैदिक (७- गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप व जगती) तथा लौकिक (सोरठा, घनाक्षरी आदि) हैं। वैदिक छंदों में ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत और स्वरित, इन चार प्रकार के स्वरों का विचार किया जाता है। वैदिक छंद अपौरुषेय माने जाते हैं। लौकिक छंदों का का प्रयोग लोक तथा साहित्य में किया जाता हैं। ये छंद ताल और लय पर आधारित रहते हैं, इसलिये इनकी रचना सामान्य अशिक्षित जन भी अभ्यास से कर लेते हैं। लौकिक छंदों की रचना निश्चित नियमों के आधार पर होती है। लौकिक छंदों के रचना-विधि-संबंधी नियम सुव्यवस्थित रूप से जिस शास्त्र में रखे गये हैं उसे 'छंदशास्त्र' 'या पिंगल' कहते हैं।
छंद शब्द बहुअर्थी है। "छंदस" वेद का पर्यायवाची नाम है। सामान्यत: वर्णों, मात्राओं तथा विरामस्थलों के पूर्व निर्धारित नियमों के अनुसार रची गयी पद्य रचना को छंद कहा जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। छंदशास्त्र अत्यंत पुष्ट शास्त्र है क्योंकि वह गणित पर आधारित है। वस्तुत: देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि छंदशास्त्र की रचना इसलिये की गई जिससे अग्रिम संतति इसके नियमों के आधार पर छंदरचना कर सके। छंदशास्त्र के ग्रंथों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि जहाँ एक ओर आचार्य प्रस्तारादि के द्वारा छंदो को विकसित करते रहे वहीं दूसरी ओर कविगण अपनी ओर से छंदों में किंचित् परिर्वन करते हुए नवीन छंदों की सृष्टि करते रहे जिनका छंदशास्त्र के ग्रथों में कालांतर में समावेश हो गया।
वर्ण या अक्षर: एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर ह्रस्व हो या दीर्घ। ह्रस्व स्वर वाला वर्ण लघु और दीर्घ स्वर वाला वर्ण गुरु कहलाता है। वह सूक्ष्म अविभाज्य ध्वनि जिससे मिलकर शब्द बनते हैं वर्ण तथा वर्णों का क्रमबद्ध समूह वर्णमाला कहलाता है। हिंदी में कुल ४९ वर्ण हैं जिनमें ११ स्वर, ३३ व्यंजन, ३ अयोगवाह वर्ण तथा ३ संयुक्ताक्षर हैं। वर्ण वह सबसे छोटी मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। वर्ण भाषा की लघुतम इकाई है।वर्ण २ प्रकार के होते हैं- १. स्वर तथा २. व्यञ्जन। हिंदी में उच्चारण के आधार पर ११+२ = १३ वर्ण तथा ३३ +३ = ३६ व्यञ्जन हैं। जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का 'न्', संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर - कृष्ण का 'ष्') उसे वर्ण नहीं माना जाता । वर्ण 2 प्रकार के होते हैं-
ह्रस्व स्वर वाले वर्ण (ह्रस्व वर्ण): अ, इ, उ, ऋ, क, कि, कु, कृ आदि ।
दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण): आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, का, की, कू, के, कै, को, कौ, कं, क: आदि ।
स्वर: स्वतंत्र रूप से उच्चारित की जा सकने वाली ध्वनियों को स्वर कहा जाता है। इन्हें बोलने में किसी अन्य ध्वनि की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। स्वर अपने आप बोले जाते हैं और उनकी मात्राएँ होती हैं। स्वरों की मात्राओं का प्रयोग व्यञ्जनों को बोलने में होता है। स्वर की मात्र को जोड़े बिना व्यंजन का उच्चारण नहीं किया जा सकता। उदहारण: क् + अ = क, क् का स्वतंत्र उच्चारण सम्भव नहीं है।
स्वर के ३ वर्ग हैं।
१. हृस्व: अ, इ, उ, ऋ।
२. दीर्घ: आ, ई, ऊ।
३. संयुक्त: ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:।
व्यञ्जन: व्यंजन स्वतंत्र ध्वनियाँ नहीं हैं। व्यञ्जन का उच्चारण स्वर के सहयोग से किया जाता है। क , ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व्, श, ष , स, ह व्यंजन हैं।अनुनासिक अर्धचंद्र बिंदु, अनुस्वार बिंदु तथा विसर्ग : की गणना व्यञ्जनों में की जाती है। व्यञ्जन के २ भेद स्वतंत्र व्यञ्जन तथा संयुक्त व्यञ्जन हैं।
१. स्वतंत्र व्यञ्जन स्वरों की सहायत से बोले जाने वाले व्यञ्जन स्वतंत्र या सामान्य व्यञ्जन कहलाते हैं। जैसे: क्, ख्, ग् , घ्, ज्, त् आदि।
२.संयुक्त व्यञ्जन: स्वर की सहायता से बोली जा सकने वाली एक से अधिक ध्वनियों या वर्णों को व्यञ्जन कहते हैं। जैसे: क् + ष = क्ष, त् + र = त्र, ज् + ञ = ज्ञ ।
मात्रा: ह्रस्व या लघु वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। उदाहरणार्थ अ, क, चि, तु, ऋ में से किसी एक को बोलने में लगा समय एक मात्रा है।
अनुस्वार: वर्ण के ऊपर लगाई जानेवाली बिंदी को अनुस्वार कहते हैं। इसका उच्चारण पश्चात्वर्ती वर्ण के वर्ग के पञ्चमाक्षर के अनुसार होता है। जैसे: अंब में ब प वर्ग का सदस्य है जिसका पञ्चमाक्षर 'म' है. अत:, अंब = अम्ब, संत = सन्त, अंग = अङ्ग, पंच = पञ्च आदि।
अनुनासिक: वर्ण के ऊपर लगाई जानेवाली अर्धचन्द्र बिंदी को अनुनासिक कहते हैं। अनुनासिक युक्त वर्ण का उच्चारण कोमल (आधा) होता है। जैसे: हँसी, अँगूठी, बाँस, काँच, साँस आदि। अर्धचंद्र-बिंदी युक्त स्वर अथवा व्यंजन १ मात्रिक माने जाते हैं। जैसे: हँस = १ + १ = २, कँप = १ + १ =२ आदि।
विसर्ग: वर्ण के बाद लगाई जाने वाली दो बिंदियाँ : विसर्ग कहलाती हैं, इसका उच्चारण आधे ह 'ह्' जैसा होता है । जैसे दुःख, पुनः, प्रातः, मनःकामना, पयःपान आदि। विसर्ग युक्त स्वर-व्यंजन दीर्घ होते है। जैसे: अंब = अम्ब = २ + १ =३, हंस = हन्स = २ + १ = ३, प्रायः = २ + २ = ४ आदि।
हलंत: उच्चारण के लिये स्वररहित वर्ण की स्थिति इंगित करने के लिए हलन्त् (हल की फाल) चिन्ह का प्रयोग किया जाता है जैसा हलन्त् के त, वाक् के क, मान्य के न साथ संयुक्त है ।
वर्ण-प्रकार और मात्रा गणना :
किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं। ह्रस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा माना जाता है। इस प्रकार मात्रा दो प्रकार की होती हैं-
एक मात्रो भवेद ह्रस्वः, द्विमात्रो दीर्घ उच्यते
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो, व्यंजनंचार्द्ध मात्रकम्
लघु (एक मात्रिक): हृस्व (लघु अक्षर) के उच्चारण में लगनेवाले समय को इकाई माना जाता है। अ, इ, उ, ऋ, सभी स्वतंत्र व्यंजन तथा अर्धचन्द्र बिन्दुवाले वर्ण जैसे जैसे हँ (हँसी) आदि। इन्हें खड़ी डंडी रेखा (।) से दर्शाया जाता है। इनका मात्रा भार १ गिना जाता है। पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पड़ने पर गुरु गिन सकते है। स्वरहीन व्यंजनों की पृथक् मात्रा नहीं गिनी जाती। मात्रा को कला भी कहा जाता है।
अ, इ, उ, ऋ, क , ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष , स, ह मात्रिक हैं। व्यंजन में इ, उ स्वर जुड़ने पर भी अक्षर १ मात्रिक ही रहते हैं। जैसे: कि, कु आदि।
गुरु या दीर्घ (दो मात्रिक): दीर्घ मात्रा युक्त वर्ण आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: तथा इनकी मात्रा युक्त व्यंजन का, ची, टू, ते, पै, यो, सौ, हं आदि गुरु हैं। क से ह तक किसी व्यंजन में आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः स्वर जुड जाये तो भी अक्षर २ मात्रिक ही रहते हैं। जैसे: ज व्यंजन में स्वर जुडने पर - जा जी जू जे जै जो जौ जं जः २ मात्रिक हैं। इन्हें वर्तुल रेखा या सर्पाकार चिन्ह (s) से इंगित किया जाता है। इनका मात्रा भार २ गिना जाता है। जब किसी वर्ण के उच्चारण में हस्व वर्ण के उच्चारण से दो गुना समय लगता है तो उसे दीर्घ या गुरु वर्ण मानते हैं तथा दो मात्रा गिनते हैं। जैसे - आ, पी, रू, से, को, जौ, वं, यः आदि।
प्लुत: यह हिंदी में मान्य नहीं है। अ, उ तथा म की त्रिध्वनियों के संयुक्त उच्चारण वाला वर्ण ॐ, ग्वं आदि इसके उदाहरण हैं। इसका मात्रा भार ३ होता है।
संयुक्ताक्षर: सामान्यत:संयुक्ताक्षरों क्ष, त्र, ज्ञ की मात्राओं का निर्णय उच्चारण के आधार पर होता है। संयुक्ताक्षर के पूर्व का अक्षर गुरु हो तो अर्धाक्षर से कोई परिवर्तन नहीं होता। जैसे: आराध्य = २+२+ १ = ५।
शब्दारंभ में संयुक्ताक्षर हो तो उसका मात्रा भार पर कोई प्रभाव नहीं होता। जैसे: क्षमा = १ + २ =३, प्रभा = ३।
शब्द: अक्षरों (वर्णों) के मेल से बनने वाले अर्थ पूर्ण समुच्चय (समूह) को शब्द कहते हैं। शब्द-निर्माण हेतु अक्षरों का योग ४ प्रकार से हो सकता ।
१. स्वर + स्वर जैसे: आई।
२. स्वर + व्यंजन जैसे: आम।
३. व्यञ्जन + स्वर जैसे: बुआ।
४. व्यञ्जन + व्यञ्जन जैसे: कम।
यदि हम स्वर तथा व्यंजन की मात्रा को जानें तो -
अर्धाक्षर: अर्धाक्षर का उच्चारण उसके पहले आये वर्ण के साथ होता है, ऐसी स्थिति में पूर्व का लघु अक्षर गुरु माना जाता है। जैसे: शिक्षा = शिक् + शा = २ + २ = ४, विज्ञ = विग् + य = २ + १ = ३।
अर्ध व्यंजन: अर्ध व्यंजन को एक मात्रिक माना जाता है परन्तु यह स्वतंत्र लघु नहीं होता यदि अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर होता है तो उसके साथ जुड कर और दोनों मिल कर दीर्घ मात्रिक हो जाते हैं।
उदाहरण - सत्य सत् - १+१ = २ य१ या सत्य = २१, कर्म - २१, हत्या - २२, मृत्यु २१, अनुचित्य - ११२१।
यदि पूर्व का अक्षर दीर्घ मात्रिक है तो लघु की मात्रा लुप्त हो जाती है
आत्मा - आत् / मा २२, महात्मा - म / हात् / मा १२२।
जब अर्ध व्यंजन शब्द के प्रारम्भ में आता है तो भी यही नियम पालन होता है अर्थात अर्ध व्यंजन की मात्रा लुप्त हो जाती हैं | उदाहरण - स्नान - २१ । एक ही शब्द में दोनों प्रकार देखें - धर्मात्मा - धर् / मात् / मा २२२।
अपवाद - जहाँ अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर हो परन्तु उस पर अर्ध व्यंजन का भार न पड़ रहा हो तो पूर्व का लघु मात्रिक वर्ण दीर्घ नहीं होता।
उदाहरण - कन्हैया - १२२ में न् के पूर्व क है फिर भी यह दीर्घ नहीं होगा क्योकि उस पर न् का भार नहीं पड़ रहा है। ऐसे शब्दों को बोल कर देखे क + न्है + या = १ + २ + २ = ५, धन्यता = धन् + य + ता = २ + १ + २ = ५।
संयुक्ताक्षर (क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि) दो व्यंजन के योग से बने हैं, अत: दीर्घ मात्रिक हैं किंतु मात्रा गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं।
उदाहरण: पत्र= २१, वक्र = २१, यक्ष = २१, कक्ष - २१, यज्ञ = २१, शुद्ध =२१ क्रुद्ध =२१, गोत्र = २१, मूत्र = २१।
शब्द संयुक्ताक्षर से प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं। जैसे: त्रिशूल = १२१, क्रमांक = १२१, क्षितिज = १२।
संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं।
उदाहरण = प्रज्ञा = २२ राजाज्ञा = २२२ आदि।
ये नियम न तो मनमाने हैं, न किताबी। आदि मानव ने पशु-पक्षियों की बोली सुनकर उसकी नकल कर बोलना सीखा। मधुर वाणी से सुख, प्रसन्नता और कर्कश ध्वनि से दुःख, पीड़ा व्यक्त करना सीखा। मात्रा गणना नियमों के मूल में भी यही पृष्ठभूमि है।
चाषश्चैकांवदेन्मात्रां द्विमात्रं वायसो वदेत
त्रिमात्रंतु शिखी ब्रूते नकुलश्चार्द्धमात्रकम्
अर्थात नीलकंठ की बोली जैसी ध्वनि हेतु एक मात्रा, कौए की बोली सदृश्य ध्वनि के लिये २ मात्रा, मोर के समान आवाज़ के लिये ३ मात्रा तथा नेवले सदृश्य ध्वनि के लिये अर्ध मात्रा निर्धारित की गयी है।
छंद: मात्रा, वर्ण की रचना, विराम गति का नियम और चरणान्त में समता युक्त कविता को छन्द कहते हैं।
छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है।
छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं।
छंद में स्थायित्व होता है।
छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं।
छंद लय बद्धता के कारण सुगमता से कण्ठस्थ हो जाते हैं।
पद : छंद की पंक्ति को पद कहते हैं । जैसे: दोहा द्विपदिक अर्थात दो पंक्तियों का छंद है। सामान्य भाषा में पद से आशय पूरी रचना से होता है। जैसे: सूर का पद अर्थात सूरदास द्वारा लिखी गयी एक रचना।
अर्धाली : पंक्ति के आधे भाग को अर्धाली कहते हैं।
चरण अथवा पाद: पाद या चरण का अर्थ है चतुर्थांश। सामान्यत: छन्द के चार चरण या पाद होते हैं । कुछ छंदों में चार चरण दो पंक्तियों में ही लिखे जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठा,चौपाई आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक पंक्ति को पद या दल कहते हैं। कुछ छंद छः- छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं, ऐसे छंद दो छंद के योग से बनते हैं, जैसे- कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + उल्लाला) आदि।
सम और विषमपाद: पहला और तीसरा चरण विषमपाद कहलाते हैं और दूसरा तथा चौथा चरण समपाद कहलाता है । सम छन्दों में सभी चरणों की मात्राएँ या वर्ण बराबर और एक क्रम में होती हैं और विषम छन्दों में विषम चरणों की मात्राओं या वर्णों की संख्या और क्रम भिन्न तथा सम चरणों की भिन्न होती हैं ।
गण: तीन वर्णों के पूर्व निश्चित समूह को गण कहा जाता है। ८ गण यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण तथा सगण हैं। गणों को स्मरण रखने सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' है। अंतिम २ वर्णों को छोड़कर सूत्र के हर वर्ण अपने पश्चातवर्ती २ वर्णों के साथ मिलकर गण में लघु-गुरु मात्राओं को इंगित करता है। अंतिम २ वर्ण लघु गुरु का संकेत करते हैं।
य = यगण = यमाता = । s s = सितारा = ५ मात्रा
मा = मगण = मातारा = s s s = श्रीदेवी = ६ मात्रा
ता = तगण = ताराज = s s । = संजीव = ५ मात्रा
रा = रगण = राजभा = s । s = साधना = ५ मात्रा
ज = जगण = जभान = । s । = महान = ४ मात्रा
भा = भगण = भानस = s । । = आनन = ४ मात्रा
न = नगण = नसल = । । । = किरण = ३ मात्रा
स = सगण = सलगा = । । s = तुहिना = ४ मात्रा
कुछ क्रृतियों में यगण, मगण, भगण, नगण को शुभ तथा तगण, रगण, जगण, सगण को अशुभ कहा गया है किन्तु इस वर्गीकरण का औचित्य संदिग्ध है।
गति: छंद पठन के प्रवाह या लय को गति कहते हैं। गति का महत्व वर्णिक छंदों की तुलना में मात्रिक छंदों में अधिक होता है। वर्णिक छंदों में लघु-गुरु का स्थान निश्चित होता है जबकि मात्रिक छंदों में अनिश्चित, इस कारण चरण अथवा पद (पंक्ति) में समान मात्राएँ होने पर भी क्रम भिन्नता से लय भिन्नता हो जाती है। अनिल अनल भू नभ सलिल में 'भू' का स्थान बदल कर भू अनिल अनल नभ सलिल, अनिल भू अनल नभ सलिल, अनिल अनल नभ भू सलिल, अनिल अनल नभ सलिल भू पढ़ें भिन्न तो हर बार भिन्न लय मिलेगी।
दोहा, सोरठा तथा रोल में २४-२४ मात्रा की पंक्तियाँ होते हुए भी उनकी लय अलग-अलग होती है। अत:, मात्रिक छंदों के निर्दोष लयबद्ध प्रयोग हेतु गति माँ समुचित ज्ञान व् अभ्यास आवश्यक है।
यति: छंद पढ़ते या गाते समय नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस लेने के लिये रूकना पड़ता है, उसे यति या विराम कहते हैं । प्रत्येक छन्द के पाद के अन्त तथा बीच-बीच में भी यति का स्थान निश्चित होता है। हर छन्द के यति-नियम भिन्न किन्तु निश्चित होते हैं। छटे छंदों में विराम पंक्ति के अंत में होता है। बड़े छंदों में पंक्ति के बीच में भी एक (दोहा रोला सोरठा आदि) या अधिक (हरिगीतिका, मालिनी, घनाक्षरी, सवैया आदि) विराम स्थल होते हैं।
मात्रा बाँट: मात्रिक छंदों में समुचित लय के लिये लघु-गुरु मंत्रों की निर्धारित संख्या के विविध समुच्चयों को मात्रा बाँट कहते हैं। किसी छंद की पूर्व परीक्षित मात्रा बाँट का अनुसरण कर की गयी छंद रचना निर्दोष होती है।
तुक: तुक का अर्थ अंतिम वर्णों की आवृत्ति है। छंद के चरणान्त की अक्षर-मैत्री (समान स्वर-व्यंजन की स्थापना) को तुक कहते हैं। चरण के अंत में तुकबन्दी के लिये समानोच्चारित शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे: राम, श्याम, दाम, काम, वाम, नाम, घाम, चाम आदि। यदि छंद में वर्णों एवं मात्राओं का सही ढंग से प्रयोग प्रत्येक चरण में हो तो उसकी ' गति ' स्वयमेव सही हो जाती है।
तुकांत / अतुकांत: जिस छंद के अंत में तुक हो उसे तुकान्त छंद और जिसके अन्त में तुक न हो उसे अतुकान्त छंद कहते हैं। अतुकान्त छंद को अंग्रेज़ी में ब्लैंक वर्स कहते हैं।
घटकों की दृष्टि से छंदों के २ प्रकार वर्णिक (वर्ण वृत्त की आवृत्तियुक्त) तथा मात्रिक (मात्रा वृत्त की आवृत्तियुक्त) हैं। मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है । वर्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या और लघु - दीर्घ का निश्चित क्रम होता है, जो मात्रिक छन्दों में अनिवार्य नहीं है ।
पंक्तियों की संख्या के आधार पर छंदों को दो पंक्तीय द्विपदिक (दोहा, सोरठा, आल्हा, शे'र आदि), तीन पंक्तीय त्रिपदिक(गायत्री, ककुप्, माहिया, हाइकु आदि), चार पंक्तीय चतुष्पदिक (मुक्तक, घनाक्षरी, हरिगीतिका, सवैया आदि), छ: पंक्तीय षटपदिक (कुण्डलिनी) आदि में वर्गीकृत किया गया है।
छंद की सभी पंक्तियों में एक सी योजना हो तो उन्हें 'सम', सभी विषम पंक्तियों में एक जैसी तथा सभी सम पंक्तियों में अन्य एक जैसी योजना हो तो अर्ध सम तथा हर पंक्ति में भिन्न योजना हो विषम छंद कहा जाता है।
मात्रिक छंद: जिन छन्दों की रचना मात्रा-गणना के अनुसार की जाती है, उन्हें 'मात्रिक' छन्द कहते हैं। मात्रा-गणना पर आधारित मात्रिक छंद गणबद्ध नहीं होते। मात्रिक छंद में लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है। मात्रिक छन्द के ३ प्रकार सम मात्रिक छन्द, अर्ध सम मात्रिक छन्द तथा विषम मात्रिक छन्द हैं। सम, विषम, अर्धसम छंदों का विभाजन मात्राओं और वर्णों की चरण-भेद-संबंधी विभिन्न संख्याओं पर आधारित है। मात्रिक छन्द के अन्तर्गत प्रत्येक चरण अथवा प्रत्येक पद में मात्रा ३२ तक होती है।
सम मात्रिक छन्द: जिस द्विपदी के चारों चरणों की वर्ण-स्वर संख्या या मात्राएँ समान हों, उन्हें सम मात्रिक छन्द कहते हैं। प्रमुख सम मात्रिक छंद अहीर (११मात्रा), तोमर (१२ मात्रा), मानव (१४ मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई (सभी १६ मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों १९ मात्रा), राधिका (२२ मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी २४ मात्रा), गीतिका (२६ मात्रा), सरसी (२७ मात्रा), सार , हरिगीतिका (२८ मात्रा), तांटक (३० मात्रा), वीर या आल्हा (३१ मात्रा) हैं।
अर्ध सम मात्रिक छन्द: जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में विषम चरणों की मात्राएँ समान तथा सम चरणों की मात्राएँ विषम चरणों से भिन्न एक समान होती हैं उसे अर्ध सम मात्रिक छंद कहा जाता है। प्रमुख अर्ध सम मात्रिक छंद बरवै (विषम चरण १२ मात्रा, सम चरण ७ मात्रा), दोहा (विषम १३, सम ११), सोरठा (दोहा का उल्टा विषम ११, सम १३), उल्लाला (विषम - १५, सम - १३) हैं ।
विषम मात्रिक छन्द: जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में चारों चरणों अथवा चतुष्पदी में चारों पदों की मात्रा असमान (अलग-अलग) होती है उसे विषम मात्रिक छन्द कहते हैं। प्रमुख विषम मात्रिक छंद कुण्डलिनी (दोहा १३-११ + रोला ११-१३), छप्पय (रोला ११-१३ + उल्लाला १५ -१३ ) हैं
दण्डक छंद: वर्णों और मात्राओं की संख्या ३२ से अधिक हो तो बहुसंख्यक वर्णों और स्वरों से युक्त छंद दण्डक कहे जाते है। इनकी संख्या बहुत अधिक है।
वर्णिक छंद: वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है। प्रमुख वर्णिक छंद : प्रमाणिका (८ वर्ण); स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक (सभी ११ वर्ण); वंशस्थ, भुजंगप्रयाग, द्रुतविलम्बित, तोटक (सभी१२ वर्ण); वसंततिलका (१४ वर्ण); मालिनी (१५ वर्ण); पंचचामर, चंचला (सभी १६ वर्ण); मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी (सभी १७ वर्ण), शार्दूल विक्रीडित (१९ वर्ण), स्त्रग्धरा (२१ वर्ण), सवैया (२२ से २६ वर्ण), घनाक्षरी (३१ वर्ण) रूपघनाक्षरी (३२ वर्ण), देवघनाक्षरी (३३वर्ण), कवित्त / मनहरण (३१-३३ वर्ण) हैं। वर्णिक छन्द वृत्तों के दो प्रकार हैं- गणात्मक और अगणात्मक।
वर्ण वृत्त: सम छंद को वृत कहते हैं। इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है। जैसे - द्रुतविलंबित, मालिनी आदि।
गणात्मक वर्णिक छंद: इन्हें वर्ण वृत्त भी कहते हैं। इनकी रचना तीन लघु-दीर्घ वर्णों से बने ८ गणों के आधार पर होती है। इनमें भ, न, म, य शुभ और ज, र, स, त अशुभ माने गए हैं। अशुभ गणों से प्रारंभ होनेवाले छंद में देवतावाची या मंगलवाची शब्द से आरंभ करने पर गणदोष दूर हो जाता है। इन गणों में परस्पर मित्र, शत्रु और उदासीन भाव माना गया है। छंद के आदि में दो गणों का मेल माना गया है।
दण्डकछंद: जिस वार्णिक छंद में २६ से अधिक वर्णों वाले चरण होते हैं उसे दण्डक कहा जाता है। दण्डक छंद के लम्बे चरण की रचना और याद रखना दण्डक वन की पगडण्डी पर चलने की तरह कठिन और सस्वर वाचन करना दण्ड की तरह प्रतीत होने के कारण इसे दण्डक नाम दिया गया है। उदाहरण: घनाक्षरी ३१ वर्ण।
अगणात्मक वर्णिक वृत्त: वे छंद हैं जिनमें गणों का विचार नहीं रखा जाता, केवल वर्णों की निश्चित संख्या का विचार रहता है विशेष मात्रिक छंदों में केवल मात्राओं का ही निश्चित विचार रहता है और यह एक विशेष लय अथवा गति (पाठप्रवाह अथवा पाठपद्धति) पर आधारित रहते हैं। इसलिये ये छंद लयप्रधान होते हैं।
स्वतंत्र छंद और मिश्रित छंद: यह छंद के वर्गीकरण का एक अन्य आधार है।
स्वतंत्र छंद: जो छंद किन्हीं विशेष नियमों के आधार पर रचे जाते हैं उन्हें स्वतंत्र छंद कहा जाता है।
मिश्रित छंद: मिश्रित छंद दो प्रकार के होते है:
(१) जिनमें दो छंदों के चरण एक दूसरे से मिला दिये जाते हैं। प्राय: ये अलग-अलग जान पड़ते हैं किंतु कभी-कभी नहीं भी जान पड़ते।
(२) जिनमें दो स्वतंत्र छंद स्थान-स्थान पर रखे जाते है और कभी उनके मिलाने का प्रयत्न किया जाता है, जैसे कुंडलिया छंद एक दोहा और चार पद रोला के मिलाने से बनता है।
दोहा और रोला के मिलाने से दोहे के चतुर्थ चरण की आवृत्ति रोला के प्रथम चरण के आदि में की जाती है और दोहे के प्रारंभिक कुछ शब्द रोला के अंत में रखे जाते हैं। दूसरे प्रकार का मिश्रित छंद है "छप्पय" जिसमें चार चरण रोला के देकर दो उल्लाला के दिए जाते हैं। इसीलिये इसे षट्पदी अथवा छप्पय (छप्पद) कहा जाता है।
इनके देखने से यह ज्ञात होता है कि छंदों का विकास न केवल प्रस्तार के आधार पर ही हुआ है वरन् कवियों के द्वारा छंद-मिश्रण-विधि के आधार पर भी हुआ है। इसी प्रकार कुछ छंद किसी एक छंद के विलोम रूप के भाव से आए हैं जैसे दोहे का विलोम सोरठा है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवियों ने बहुधा इसी एक छंद में दो एक वर्ण अथवा मात्रा बढ़ा घटाकर भी छंद में रूपांतर कर नया छंद बनाया है। यह छंद प्रस्तार के अंतर्गत आ सकता है।
यति के विचार से छन्द- वर्गीकरण
बड़े छंदों का एक चरण जब एक बार में पूरा नहीं पढ़ा जा सकता, तब यति (रुकने का स्थान) निर्धारित किया जाता है। यति के विचार से छंद दो प्रकार के होते हैं-
(१) यत्यात्मक: जिनमें कुछ निश्चित वर्णों या मात्राओं पर यति रखी जाती है। यह छंद प्राय: दीर्घाकारी होते हैं जैसे दोहा, कवित्त, सवैया, घनाक्षरी आदि।
(२) अयत्यात्मक: इन छंदों में चौपाई, द्रुत, विलंबित जैसे छंद आते हैं। यति का विचार करते हुए गणात्मक वृत्तों में गणों के बीच में भी यति रखी गई है जैसे मालिनी
छंद में संगीत तत्व द्वारा लालित्य का पूरा विचार रखा गया है। प्राय: सभी छंद किसी न किसी रूप में गेय हो जाते हैं। राग और रागिनी वाले सभी पद छंदों में नहीं कहे जा सकते। इसी लिये "गीति" नाम से कतिपय पद रचे जाते हैं। प्राय: संगीतात्मक पदों में स्वर के आरोह तथा अवरोह में बहुधा लघु वर्ण को दीर्घ, दीर्घ को लघु और अल्प लघु भी कर लिया जाता है। कभी-कभी हिंदी के छंदों में दीर्घ ए और ओ जैसे स्वरों के लघु रूपों का प्रयोग किया जाता है।
पदाधार पर छंद-वर्गीकरण:
छंदों को पद (पंक्ति) बद्ध कर रचा जाता है। पंक्ति संख्या के आधार पर भी छंदों को वर्गीकृत किया जाता है।
द्विपदिक छंद: ऐसे छंद दो पंक्तियों में पूर्ण हो जाते हैं। अपने आप में पूर्ण तथा अन्य से मुक्त (असम्बद्ध) होने के कारण इन्हें मुक्तक छंद भी कहा जाता है। दोहा, सोरठा, चौपाई, आदि द्विपदिक छंद हैं जिनमें मात्रा बंधन तथा यति स्थान निर्धारित हैं जबकि उर्दू का शे'र तथा अंग्रेजी का कप्लेट ऐसे द्विपदिक छंद हैं जिसमें मात्रा या यति का बंधन नहीं है।
त्रिपदिक छंद: ३ पंक्तियों में पूर्ण होने वाले छंदों की संस्कृत काव्य में चिरकालिक परंपरा है। हिंदी ने विदेशी भाषाओँ से भीरिक हैं।
चतुष्पदिक छंद: ४ पंक्तियों के छंदों को हिंदी में मुक्तक, चौपदे आदि कहा जाता है। इनमें मात्रा भार तथा यति का बंधन नहीं होता किन्तु सभी पदों में समान मात्रा होना आवश्यक होता है। उर्दू छंद रुबाई भी चतुष्पदिक छंद है जिसे निर्धारित २४ औज़ान (मानक लयखण्ड) में से किसी एक में लिखा जाता है।
पंचपदिक छंद: जापानी छंद ताँका हिंदी में प्रचार पा रहा है। ताँका संकलन भी प्रकाशित हुए हैं। ताँका मूलत: जापानी छंद है जिसमें ५ पंक्तियाँ होती है।
षटपदिक छंद: ६ पंक्तियों के पदों में कुण्डलिनी सर्वाधिक लोकप्रिय है। कुण्डलिनी की प्रथम २ पंक्तियाँ शेष ४ पंक्तियाँ रोला छंद में होती हैं।
चौदह पदिक छंद: अंग्रेजी छंद सोनेट की हिंदी में व्यापक पृष्ठभूमि अथवा गहराई नहीं है किन्तु नागार्जुन, भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' आदि कई कवियों ने सॉनेट लिखे हैं। कुछ सॉनेट मैंने भी लिखे हैं।
अनिश्चित पदिक छंद: अनेक छंद ऐसे हैं जिनका पदभार तथा यति निर्धारित है किन्तु पंक्ति संख्या अनिश्चित है। कवि अपनी सुविधानुसार पद के २ चरणों में, अथवा हर २ पंक्तियों में या कथ्य अपनी सुविधानुसार पदांत में टूक बदलता रहता है। चौपाई, आल्हा, मराठी छंद लावणी आदि में कवियों ने छूट बहुधा ली है। उर्दू की ग़ज़ल में भी ३ शे'रों से लेकर सहस्त्रधिक शे'रों का प्रयोग किया गया है। गीतों कजरी, राई, बम्बुलिया आदि में भी पद या पंक्ति बंधन नहीं होता है।
मुक्त छंद: जिस छंद में वर्णित या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या और क्रम समान हो, न मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है । मुक्त छंद तुकांत भी हो सकते हैं और अतुकांत भी। इसके प्रणेता सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' माने जाते हैं।
अगले लेख से छंद रचना और द्विपदिक छंद दोहा की रचना प्रक्रिया की चर्चा करेंगे।
मुक्तिका:
*
मापनी: २१ २२२ १ २२२ १ २२
*
दर्द की चाही दवा, दुत्कार पाई
प्यार को बेचो, बड़ा बाजार भाई
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वायदों की मण्डियाँ, हैं ढेर सारी
बचाओ गर्दन, इसी में है भलाई
.
आ गया, सेवा करेगा बोलता है
चाहता सारी उड़ा ले वो मलाई
.
चोर का ईमान, डाकू है सिपाही
डॉक्टर लूटे नहीं, कोई सुनाई
.
कौन है बोलो सगा?, कोई नहीं है
दे रहा नेता दगा, बोले भलाई
१७-१०-२०१५
***

नरेंद्र कोहली, समीक्षा, भाषा गीत, व्यंग्य गीत, फलित विद्या, मुक्तिका, मुक्तक, क्षणिका

कृति चर्चा :

'शरणम' - निष्काम कर्मयोग आमरणं
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण - शरणं, उपन्यास, नरेंद्र कोहली, प्रथम संस्करण, २०१५, पृष्ठ २२४, मूल्य ३९५/-, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, प[रक्षक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली]
उपन्यास शब्द में ‘अस’ धातु है जो ‘नि’ उपसर्ग से मिलकर 'न्यास' शब्द बनाती है। 'न्यास' शब्द का अर्थ है 'धरोहर'। उपन्यास शब्द दो शब्दों उप+न्यास से मिलकर बना है। ‘उप’ अधिक समीप वाची उपसर्ग है। संस्कृत के व्याकरण सिद्ध शब्दों, न्यास व उपन्यास का पारिभाषिक अर्थ कुछ और ही होता है। एक विशेष प्रकार की टीका पद्धति को 'न्यास' कहते हैं। हिन्दी में उपन्यास शब्द कथा साहित्य के रूप में प्रयोग होता है। बांग्ला भाषा में आख्यायिका, गुजराती में नवल कथा, मराठी में कादम्बरी तथा अंग्रेजी में 'नावेल' पर्याय के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। वे सभी ग्रंथ उपन्यास हैं जो कथा सिद्धान्त के नियमों का पालन करते हुए मानव की सतत्, संगिनी, कुतूहल, वृत्ति को पात्रों तथा घटनाओं को काल्पनिक तथा ऐतिहासिक संयोजन द्वारा शान्त करते हैं। इस विधा में मनुष्य के आसपास के वातावरण दृश्य और नायक आदि सभी सम्मिलित होते हैं। इसमें मानव चित्र का बिंब निकट रखकर जीवन का चित्र एक कागज पर उतारा जाता है। प्राचीन काल में उपन्यास अविर्भाव के समय इसे आख्यायिका नाम मिला था। ‘‘कभी इसे अभिनव की अलौकिक कल्पना, आश्चर्य वृत्तान्त कथा, कल्पित प्रबन्ध कथा, सांस्कृतिक वार्ता, नवन्यास, गद्य काव्य आदि नामों से प्रसिद्धि मिली। उपन्यास को मध्यमवर्गीय जीवन का महाकाव्य भी कहा गया है वह वस्तु या कृति जिसे पढ़कर पाठक को लगे कि यह उसी की है, उसी के जीवन की कथा, उसी की भाषा में कही गई है। सारत: उपन्यास मानव जीवन की काल्पनिक कथा है।
आधुनिक युग में उपन्यास शब्द अंग्रेजी के 'नावेल' अर्थ में प्रयुक्त होता है जिसका अर्थ एक दीर्घ कथात्मक गद्य रचना है। उपन्यास के मुख्य सात तत्व कथावस्तु, पात्र या चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, देशकाल, शैली, उपदेश तथा तत्व भाव या रस हैं। उपन्यास की कथावस्तु में प्रमुख कथानक के साथ-साथ कुछ अन्य प्रासंगिक कथाएँ भी चल सकती है।उपन्यास की कथावस्तु के तीन आवश्यक गुण रोचकता स्वाभाविकता और गतिशीलता हैं। सफल उपन्यास वही है जो उपन्यास पाठक के हृदय में कौतूहल जागृत कर दे कि वह पूरी रचना को पढ़ने के लिए विवश हो जाए। पात्रों के चरित्र चित्रण में स्वभाविकता, सजीवता एवं मार्मिक विकास आवश्यक है। कथोपकथन देशकाल और शैली पर भी स्वभाविकता और सजीवता की बात लागू होती है। विचार, समस्या और उद्देश्य की व्यंजना रचना की स्वभाविकता और रोचकता में बाधक न हो। नरेंद्र कोहली के 'शरणम्' उपन्यास में तत्वों की संतुलित प्रस्तुति दृष्टव्य है। श्रीमद्भगवद्गीता जैसे अध्यात्म-दर्शन प्रधान ग्रंथ पर आधृत इस कृति में स्वाभाविकता, निरन्तरता, उपदेशपरकता, सरलता और रोचकता का पंचतत्वी सम्मिश्रण 'शरणम्' को सहज ग्राह्य बनाता है।
डॉ. श्याम सुंदर दास के अनुसार 'उपन्यास मनुष्य जीवन की काल्पनिक कथा है। 'प्रेमचंद ने उपन्यास को 'मानव चरित्र का चित्र कहा है।' तदनुसार मानव चरित्र पर प्रकाश डालना तथा उसके रहस्य को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है। सुधी समीक्षक आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी के शब्दो में ‘‘उपन्यास से आजकल गद्यात्मक कृति का अर्थ लिया जाता है, पद्यबद्ध कृतियाँ उपन्यास नहीं हुआ करते हैं।’’ डा. भगीरथ मिश्र के शब्दों में : ‘‘युग की गतिशील पृष्ठभूमि पर सहज शैली मे स्वाभाविक जीवन की पूर्ण झाँकी को प्रस्तुत करने वाला गद्य ही उपन्यास कहलाता है।’’ बाबू गुलाबराय लिखते हैं : ‘‘उपन्यास कार्य कारण श्रृंखला मे बँधा हुआ वह गद्य कथानक है जिसमें वास्तविक व काल्पनिक घटनाओं द्वारा जीवन के सत्यों का उद्घाटन किया है।’’ उक्त में से किसी भी परिभाषा के निकष पर 'शरणम्' को परखा जाए, वह सौ टंच खरा सिद्ध होता है।
हिंदी के आरंभिक उपन्यास केवल विचारों को ही उत्तेजित करते थे, भावों का उद्रेक नहीं करते थे। दूसरी पीढ़ी के उपन्यासकार अपने कर्तव्य व दायित्व के प्रति सजग थे। वे कलावादी होने के साथ-साथ सुधारवादी तथा नीतिवादी भी रहे। विचार तत्व उपन्यास को सार्थक व सुन्दर बनाता है। भाषा शैली में सरलता के साथ-साथ सौष्ठव पाठक को बाँधता है। घटनाओं की निरंतरता आगे क्या घटा यह जानने की उत्सुकता पैदा करती है। 'शरणम्' का कथानक से सामान्य पाठक सुपरिचियत है, इसलिए जिज्ञासा और उत्सुकता बनाए रखने की चुनौती स्वाभाविक है। इस संदर्भ में कोहली जी लिखते हैं- 'मैं उपन्यास ही लिख सकता हूँ और पाठक उपन्यास को पढ़ता भी है और समझता भी है। मैं जनता था कि यह कार्य सरल नहीं था। गीता में न कथा है, न अधिक पात्र। घटना के नाम पर विराट रूप के दर्शन हैं, घटनाएँ नहीं हैं, न कथा का प्रवाह है। संवाद हैं, वह भी इन्हीं, प्रश्नोत्तर हैं, सिद्धांत हैं, चिंतन है, दर्शन है, अध्यात्म है। उसे कथा कैसा बनाया जाए? किन्तु उपन्यासकार का मन हो तो उपन्यास ही बनता है। जैसे मनवाई के गर्भ में मानव संतान ही आकार ग्रहण करती है। टुकड़ों-टुकड़ों में उपन्यास बनता रहा। पात्रों के रूप में संजय और धृतराष्ट्र तो थे ही, हस्तिनापुर में उपस्थित कुंती भी आ गई, विदुर और उनकी पत्नी भी आ गए, गांधारी हुए उसकी बहुएँ भी आ गईं। द्वारका में बैठे वासुदेव, देवकी, रुक्मिणी और उद्धव भी आ गए। उपन्यासकार जितनी छूट ले सकता है, मैंने ली किन्तु गीता के मूल से छेड़छाड़ नहीं की।' सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यही है कि उपन्यासकार सत्य में कल्पना कितनी मिलना है, यह समझ सके और अपनी वैचारिक उड़ान की दिशा और गति पर नियंत्रण रख सके। नरेंद्र जी 'शरणम्' लिखते समय यह आत्मनियंत्रण रख सके हैं। न तो यथार्थ के कारण उपन्यास बोझिल हुआ है, न अतिरेकी कल्पना के कारण अविश्वनीय हुआ है।
'शरणम्' के पूर्व नरेंद्र कोहली ने उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, कहानी के अलावा संस्मरण, निबंध आदि विधाओं में लगभग सौ पुस्तकें लिखीं हैं। उन्होंने महाभारत की कथा को अपने उपन्यास महासमर के आठ खंडों में समाहित किया। अपने विचारों में बेहद स्पष्ट, भाषा में शुद्धतावादी और स्वभाव से सरल लेकिन सिद्धांतों में बेहद कठोर थे। उनके चर्चित उपन्यासों में पुनरारंभ, आतंक, आश्रितों का विद्रोह, साथ सहा गया दुख, मेरा अपना संसार, दीक्षा, अवसर, जंगल की कहानी, संघर्ष की ओर, युद्ध, अभिज्ञान, आत्मदान, प्रीतिकथा, कैदी, निचले फ्लैट में, संचित भूख आदि हैं। संपूर्ण रामकथा को उन्होंने चार खंडों में १८०० पन्नों के वृहद उपन्यास में प्रस्तुत किया। उन्होंने पाठकों को भारतीयता की जड़ों तक खींचने की कामयाब कोशिश की और पौराणिक कथाओं को प्रयोगशीलता, विविधता और प्रखरता के साथ नए कलेवर में लिखा। संपूर्ण रामकथा के जरिये उन्होंने भारत की सांस्कृतिक परंपरा, समकालीन मूल्यों और आधुनिक संस्कारों की अनुभूति कराई।
हिन्दी साहित्य में 'महाकाव्यात्मक उपन्यास' की विधा को प्रारम्भ करने का श्रेय नरेंद्र जी को ही जाता है। पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक सामाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली की अन्यतम विशेषता है। कोहलीजी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक् परिचय करवाया है।
उपन्यासों के मुख्य प्रकार सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, लोक कथात्मक, आंचलिक उपन्यास, रोमानी उपन्यास, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान, प्राकृतिक, विज्ञानपरक, आध्यात्मिक, प्रयोगात्मक आदि हैं। इस कसौटी पर 'शरणम्' को किसी एक खाँचे में नहीं रखा जा सकता। 'शरणम्' के कथानक और घटनाक्रम उसे उक्त लगभग सभी श्रेणियों की प्रतिनिधि रचना बनाते हैं। यह नरेंद्र जी के लेखकीय कौशल और भाषिक नैपुण्य की अद्भुत मिसाल है। स्मृति श्रेष्ठ उपन्यास सम्राट नरेंद्र कोहली के उपन्यास 'शरणं' का अध्ययन एवं अनुशीलन पाठकों-समीक्षकों के लिए कसौटी पर कसा जाना है। यह उपन्यास एक साथ सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, लोक कथात्मक, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान, प्राकृतिक, विज्ञानपरक, प्रयोगात्मक, आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न उपन्यास कहा जा सकता है। इस एक उपन्यास की कथा सुपरिचित है किन्तु 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और' के अनुरूप कहना होगा कि 'निश्चय ही नरेंद्र जी का है उपन्यास हरेक और'।
हिंदी में सांस्कृतिक विरासत पर उपन्यास लेखन की नींव आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बाण भट्ट की आत्मकथा (१९४६), चारुचंद्र लेख (१९६३) तथा पुनर्नवा (१९७३) जैसी औपन्यासिक कृतियों का प्रणयन कर रखी थी। आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य में एक ऐसे द्वार को खोला जिससे गुज़र कर नरेन्द्र कोहली ने एक सम्पूर्ण युग की प्रतिष्ठा कर डाली। यह हिन्दी साहित्य के इतिहास का सबसे उज्जवल पृष्ठ है और इस नवीन प्रभात के प्रमुख ज्योतिपुंज होने का श्रेय अवश्य ही आचार्य द्विवेदी का है जिसने युवा नरेन्द्र कोहली को प्रभावित किया। परम्परागत विचारधारा एवं चरित्रचित्रण से प्रभावित हुए बगैर स्पष्ट एवं सुचिंतित तर्क के आग्रह पर मौलिक दृष्ट से सोच सकना साहित्यिक तथ्यों, विशेषतः ऐतिहासिक-पौराणिक तथ्यों का मौलिक वैज्ञानिक विश्लेषण यह वह विशेषता है जिसकी नींव आचार्य द्विवेदी ने डाली थी और उसपर रामकथा, महाभारत कथा एवं कृष्ण-कथाओं आदि के भव्य प्रासाद खड़े करने का श्रेय नरेंद्र कोहली जी का है। संक्षेप में कहा जाए तो भारतीय संस्कृति के मूल स्वर आचार्य द्विवेदी के साहित्य में प्रतिध्वनित हुए और उनकी अनुगूंज ही नरेन्द्र कोहली रूपी पाञ्चजन्य में समा कर संस्कृति के कृष्णोद्घोष में परिवर्तित हुई जिसने हिन्दी साहित्य को हिला कर रख दिया।
आधुनिक युग में नरेन्द्र कोहली ने साहित्य में आस्थावादी मूल्यों को स्वर दिया था। सन् १९७५ में उनके रामकथा पर आधारित उपन्यास 'दीक्षा' के प्रकाशन से हिंदी साहित्य में 'सांस्कृतिक पुनर्जागरण का युग' प्रारंभ हुआ जिसे हिन्दी साहित्य में 'नरेन्द्र कोहली युग' का नाम देने का प्रस्ताव भी जोर पकड़ता जा रहा है। तात्कालिक अन्धकार, निराशा, भ्रष्टाचार एवं मूल्यहीनता के युग में नरेन्द्र कोहली ने ऐसा कालजयी पात्र चुना जो भारतीय मनीषा के रोम-रोम में स्पंदित था। महाकाव्य का ज़माना बीत चुका था, साहित्य के 'कथा' तत्त्व का संवाहक अब पद्य नहीं, गद्य बन चुका था। अत्याधिक रूढ़ हो चुकी रामकथा को युवा कोहली ने अपनी कालजयी प्रतिभा के बल पर जिस प्रकार उपन्यास के रूप में अवतरित किया, वह तो अब हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ बन चुका है। युगों युगों के अन्धकार को चीरकर उन्होंने भगवान राम की कथा को भक्तिकाल की भावुकता से निकाल कर आधुनिक यथार्थ की जमीन पर खड़ा कर दिया. साहित्यिक एवम पाठक वर्ग चमत्कृत ही नहीं, अभिभूत हो गया। किस प्रकार एक उपेक्षित और निर्वासित राजकुमार अपने आत्मबल से शोषित, पीड़ित एवं त्रस्त जनता में नए प्राण फूँक देता है, 'अभ्युदय' में यह देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। युग-युगांतर से रूढ़ हो चुकी रामकथा जब आधुनिक पाठक के रुचि-संस्कार के अनुसार बिलकुल नए कलेवर में ढलकर जब सामने आयी, तो यह देखकर मन रीझे बिना नहीं रहता कि उसमें रामकथा की गरिमा एवं रामायण के जीवन-मूल्यों का लेखक ने सम्यक् निर्वाह किया है। यह पुस्तक धर्म का ग्रंथ नहीं है। ऐसा स्वयं लेखक का कहना है। यह गीता की टीका या भाष्य भी नहीं है। यह एक उपन्यास है, शुद्ध उपन्यास, जो गीता में चर्चित सिद्धांतों को उपन्यास के रूप में पाठक के सामने रखता है। यह उपन्यास लेखक के मन में उठने वाले प्रश्नों का नतीजा है। 'शरणम्' में सामाजिक मानदंड की एक सीमा तय की गयी है जो पाठक को आकर्षित करने में सक्षम है।
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एक शेर -
मुहब्बत भी सिमट कर रह गयी है चंद घंटों की
कि जिस दिन याद करते हैं , उसी दिन भूल जाते हैं.. -सुरेंद्र श्रीवास्तव
तुड़ा उपवास करवाचौथ का नेता सियासत में
तुरंत बांहों में किसी और की झट झूल जाते हैं - संजीव
१८-१०-२०१६
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हिंदी वंदना
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
सिंधी सीखें बोल, लिखें व्यवहार करें हम
​​हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
​हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
​कन्नौजी, ​​​​मागधी, ​​​खोंड​,​ ​सादरी, निमाड़ी​,
​सरायकी​, डिंगल​, ​खासी, ​​​​अंगिका,​ ​बज्जिका,
​जटकी, हरयाणवी,​ बैंसवाड़ी,​ ​​मारवाड़ी,​
मीज़ो​,​ मुंडा​री​​,​​ ​गारो​ ​​ ​​मनुहार करें हम ​
​​​​​​हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
कुई​,​ मिशिंग​,​​​ ​तुलु​, ​हो​, ​भीली, खाड़ो में गाएँ
कुरूख, खानदेशी​, नागा, शेमा पढ़ पाएँ
कोकबराक, म्हार, आओ, निशि, मिकिर, सावरा
कोया, खडिया, मालतो, कोन्याक गुंजाएँ
जौनसारी, कच्छी, मुंडा, उच्चार करें हम
​हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
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व्यंग्य गीत :
मेरी आतुर आँखों में हैं
*
मेरी आतुर आँखों में हैं
सपना मैं भी लौटा पाऊँ
कभी कहीं तो एक इनाम।
*
पहला सुख सूचना मिलेगी
कोई मुझे सराह रहा.
मुझे पुरस्कृत करना कोई
इस दुनिया में चाह रहा.
अपने करते रहे तिरस्कृत
सदा छिपाया कड़वा सच-
समाचार छपवा सुख पाऊँ
खुद से खुद कह वाह रहा.
मेरी आतुर आँखों में हैं
नपना, छपता अख़बारों में
मैं भी देख सकूँ निज नाम।
*
दूजा सुख मैं लेने जाऊँ
पुरस्कार, फूले छाती.
महसूसूं बिन-दूल्हा-घोड़ा
मैं बन पाया बाराती.
फोटू खिंचे-छपे, चर्चा हो
बिके किताब हजारों में
भाषण - इंटरव्यू से गर्वित
हों मेरे पोते-नाती।
मेरी आतुर आँखों में हैं
समारोह करतल ध्वनि
सभागार की दिलकश शाम।
*
तीजा सुख मैं दोष किसी को
दे, सिर ऊँचा कर पाऊँ.
अपनी करनी रहूँ छिपाये
दोष अन्य के गिनवाऊँ.
चुनती जिसे करोड़ों जनता
मैं उसको ही कोसूँगा-
अहा! विधाता सारी गड़बड़
मैं उसके सर थोपूँगा.
मेरी आतुर आँखों में हैं
गर्वित निज छवि, देखूँ
उसका मिटता नाम।
१८-१०-२०१५
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अंध श्रद्धा और अंध आलोचना के शिकंजे में भारतीय फलित विद्याएँ
भारतीय फलित विद्याओं (ज्योतषशास्त्र, सामुद्रिकी, हस्तरेखा विज्ञान, अंक ज्योतिष आदि) तथा धार्मिक अनुष्ठानों (व्रत, कथा, हवन, जाप, यज्ञ आदि) के औचित्य, उपादेयता तथा प्रामाणिकता पर प्रायः प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं. इनपर अंधश्रद्धा रखनेवाले और इनकी अंध आलोचना रखनेवाले दोनों हीं विषयों के व्यवस्थित अध्ययन, अन्वेषणों तथा उन्नयन में बाधक हैं. शासन और प्रशासन में भी इन दो वर्गों के ही लोग हैं. फलतः इन विषयों के प्रति तटस्थ-संतुलित दृष्टि रखकर शोध को प्रोत्साहित न किये जाने के कारण इनका भविष्य खतरे में है.
हमारे साथ दुहरी विडम्बना है
१. हमारे ग्रंथागार और विद्वान सदियों तक नष्ट किये गए. बचे हुए कभी एक साथ मिल कर खोये को दुबारा पाने की कोशिश न कर सके. बचे ग्रंथों को जन्मना ब्राम्हण होने के कारण जिन्होंने पढ़ा वे विद्वान न होने के कारण वर्णित के वैज्ञानिक आधार नहीं समझ सके और उसे ईश्वरीय चमत्कार बताकर पेट पालते रहे. उन्होंने ग्रन्थ तो बचाये पर विद्या के प्रति अन्धविश्वास को बढ़ाया। फलतः अंधविरोध पैदा हुआ जो अब भी विषयों के व्यवस्थित अध्ययन में बाधक है.
२. हमारे ग्रंथों को विदेशों में ले जाकर उनके अनुवाद कर उन्हें समझ गया और उस आधार पर लगातार प्रयोग कर विज्ञान का विकास कर पूरा श्रेय विदेशी ले गये. अब पश्चिमी शिक्षा प्रणाली से पढ़े और उस का अनुसरण कर रहे हमारे देशवासियों को पश्चिम का सब सही और पूर्व का सब गलत लगता है. लार्ड मैकाले ने ब्रिटेन की संसद में भारतीय शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन पर हुई बहस में जो अपन लक्ष्य बताया था, वह पूर्ण हुआ है.
इन दोनों विडम्बनाओं के बीच भारतीय पद्धति से किसी भी विषय का अध्ययन, उसमें परिवर्तन, परिणामों की जाँच और परिवर्धन असीम धैर्य, समय, धन लगाने से ही संभव है.
अब आवश्यक है दृष्टि सिर्फ अपने विषय पर केंद्रित रहे, न प्रशंसा से फूलकर कुप्पा हों, न अंध आलोचना से घबरा या क्रुद्ध होकर उत्तर दें. इनमें शक्ति का अपव्यय करने के स्थान पर सिर्फ और सिर्फ विषय पर केंद्रित हों.
संभव हो तो राष्ट्रीय महत्व के बिन्दुओं जैसे घुसपैठ, सुरक्षा, प्राकृतिक आपदा (भूकंप, तूफान. अकाल, महत्वपूर्ण प्रयोगों की सफलता-असफलता) आदि पर पर्याप्त समयपूर्व अनुमान दें तो उनके सत्य प्रमाणित होने पर आशंकाओं का समाधान होगा। ऐसे अनुमान और उनकी सत्यता पर शीर्ष नेताओं, अधिकारियों-वैज्ञानिकों-विद्वानों को व्यक्तिगत रूप से अवगत करायें तो इस विद्या के विधिवत अध्ययन हेतु व्यवस्था की मांग की जा सकेगी।
***
मुक्तिका:
मुक्त कह रहे मगर गुलाम
तन से मन हो बैठा वाम
कर मेहनत बन जायेंगे
तेरे सारे बिगड़े काम
बद को अच्छा कह-करता
जो वह हो जाता बदनाम
सदा न रहता कोई यहाँ
किसका रहा हमेशा नाम?
भले-बुरे की फ़िक्र नहीं
करे कबीरा अपना काम
बन संजीव, न हो निर्जीव
सुबह, दुपहरी या हो शाम
खिला पंक से भी पंकज
सलिल निरंतर रह निष्काम
*
बाल गीत:
अहा! दिवाली आ गयी
आओ! साफ़-सफाई करें
मेहनत से हम नहीं डरें
करना शेष लिपाई यहाँ
वहाँ पुताई आज करें
हर घर खूब सजा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
कचरा मत फेंको बाहर
कचराघर डालो जाकर
सड़क-गली सब साफ़ रहे
खुश हों लछमी जी आकर
श्री गणेश-मन भा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
स्नान-ध्यान कर, मिले प्रसाद
पंचामृत का भाता स्वाद
दिया जला उजियारा कर
फोड़ फटाके हो आल्हाद
शुभ आशीष दिला गयी
अहा! दिवाली आ गयी
*
मुक्तक:
मँहगा न मँहगा सस्ता न सस्ता
सस्ता विदेशी करे हाल खस्ता
लेना स्वदेशी कुटियों से सामां-
उसका भी बच्चा मिले ले के बस्ता
उद्योगपतियों! मुनाफा घटाओ
मजदूरी थोड़ी कभी तो बढ़ाओ
सरकारों कर में रियायत करो अब
मरा जा रहा जन उसे मिल जिलाओ
कुटियों का दीपक महल आ जलेगा
तभी स्वप्न कोई कुटी में पलेगा
शहरों! की किस्मत गाँवों से चमके
गाँवों का अपना शहर में पलेगा
*
क्षणिका :
तुम्हारा हर सच
गलत है
हमारा
हर सच गलत है
यही है
अब की सियासत
दोस्त ही
करते अदावत
१८-१०-२०१४
*