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रविवार, 15 अक्टूबर 2023

शौक बहराइची, प्रभाती, दोहा, फिटकरी, मुक्तिका, आंकिक उपमान, देवता, नेपाल, नदी,

 शायर रियासत हुसैन रिज़वी उर्फ़ शौक बहराइची

शौक बहराइची के बचपन का नाम रियासत हुसैन रिजवी था, शौक बहराइची नाम बाद में पड़ा। उन्होंने अपनी शायरी को अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध के तौर पर इस्तेमाल किया। ऊपर दिया गया उनका शेर भ्रष्ट नेताओं और भ्रष्टाचार में डूबे देश की कलई खोल देता है।
अयोध्या में पैदाइश बहराइच में शायरी
६ जून, १८८४ को अयोध्या के सैयदवाड़ा मोहल्ले में जन्मे रियासत हुसैन रिजवी बाद में बहराइच में जा बसे। यहीं पर उन्होंने ‘शौक बहराइची’ के नाम से शायरी लिखना शुरू किया। शायरी की यह यात्रा उनकी मृत्यु (१३ जनवरी, १९६४) तक जारी रही। यह दुर्भाग्य ही है इतने बड़े शायर की मृत्यु के बाद एक तरह से उनको भुला ही दिया गया। यदि उनकी मौत के ५० साल बाद बहराइच के रहने वाले एक रिटायर्ड इंजीनियर ताहिर हुसैन नकवी ने उनकी शायरी पर काम न किया होता, तो शायद यह मशहूर शाय रवक़्त की वादियों में कहीं गुम हो गया होता। नकवी ने इनकी शायरी पर करीब नौ साल तक कड़ी मेहनत की, तब कहीं जाकर वे उनकी शायरी को ‘तूफान’ की शक्ल में लोगों के सामने लाने में सफल हुए।
गुर्बत में बीती जिंदगी
इस किताब की भूमिका में ताहिर नकवी ने लिखा है, ‘जितने मशहूर अंतरराष्ट्रीय शायर शौक साहब हुआ करते थे, उतनी ही मुश्किलें उनके शेरों को खोजने में सामने आईं। उन्होंने निहायत ही गरीबी में जिन्दगी बिताई। शौक साहब की मौत के बाद उनकी पीढ़ियों ने उनके कलाम या शेरों को सहेजा नहीं। अपनी खोज के दौरान तमाम कबाड़ी की दुकानों से खुशामत करके और ढूँढ-ढूँढकर उनके लिखे शेरों को खोजना पड़ा।’ आज शौक बहराइची की एकमात्र ऑइल पेंटिग ही हमारे बीच मौजूद है। ताहिर नकवी बताते हैं,‘यह फोटो भी हमें अचानक ही एक कबाड़ी की दुकान पर मिल गई, अन्यथा इनकी कोई भी फोटो मौजूद नहीं थी।’ शौक ‘तंज ओ मजाहिया’ विधा के शायर थे, जिसे हिन्दी में व्यंग्य कहा जाता है। आज हम उनके जिस शेर से परिचित हैं, उसे उन्होंने कैसरगंज विधानसभा से विधायक और १९५७ में स्वास्थ्य मंत्री रहे हुकुम सिंह की एक सभा में पढ़ा था। बस यहीं से यह शेर मशहूर होता गया। वैसे जिस शेर को हम जानते हैं, वह काफी बदल चुका है। ताहिर नकवी के अनुसार यह शेर कुछ यूं है-
बर्बाद-ए-गुलशन की खातिर बस एक ही उल्लू काफी था/
हर शाख पर उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलशन क्या होगा।
क्यों हुए गुमनाम
इतने अच्छे शायर होने के बावजूद वे कैसे गुमनाम हो गए, इसे उनके ही एक शेर को पढ़कर समझा जा सकता है। वे लिखते हैं-
अल्लाहो गनी इस दुनिया में सरमाया परस्ती का आलम,
बेजर का कोई बहनोई नहीं, जरदार के लाखों साले हैं।
आज ऐसे साहित्यकारों की कमी नहीं है, जो चंद सिक्कों के लिए सत्ता की चाकरी करने लगते हैं। साहित्य अकादमियों की कुरसी आज ऐसे लोगों को खूब रास आती है। इसके उलट शौक ने भले ही बहुत गुर्बत में दिन काटे, लेकिन कभी समझौता नहीं किया। जब देश आजाद हुआ, तो सरकार ने उनकी पेंशन तो बाँध दी लेकिन यह नहीं पता किया कि उन्हें पेंशन मिल भी रही है कि नहीं। शौक जब बीमार थे, तो उन्हें पेंशन की सख्त दरकार थी। उन्होंने लिखा-
साँस फूलेगी खाँसी सिवा आएगी,
लब पे जान हजी बराह आएगी।
दादे फानी से जब शौक उठ जाएगा
तब मसीहा के घर से दवा आएगी।।
आज एक शौक ही नहीं हैं, जो गुमनाम हैं। ऐसे कई रचनाकार हुए जिन्होंने जनता का पक्ष चुना और उसकी कीमत भी चुकाई। जहाँ तक सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से ऐसे लोगों को सामने लाने के लिए किए जाने वाले प्रयास की बात है, तो वह भला ‘अपने पाँव पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगा?’ वैसे वह एक बात भूल जाता है कि भले ही ऐसे लोग शरीर से हमसे विदा हो जाते हैं, लेकिन उनके विचार हर समय हमारे बीच जिंदा रहेंगे। भगत सिंह को जब फाँसी होने वाली थी, तो उन्होंने एक शेर लिखा था, जो शौक जैसे लोगों के ऊपर एकदम फिट बैठता है-
हवा में रहेगी मेरे खयाल की बिजली,
ये मुश्त-ए-खाक है फानी रहे न रहे।
शौक आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी शायरी हमारे दिलों में सदा जिंदा रहेगी। दुख इस बात का नहीं कि वह ग़रीब घर में जन्में परन्तु जनवरी १९६४ में उनकी मृत्यु भी ग़रीबी में ही हुई। इतनी ख़स्ता हालत थी कि दवा दारू के पैसे भी न थे।
***
बाल रचना
बोलो कम तुम ज्यादा पढ़ना
एक-एक कर सीढ़ी चढ़ना
अपने सपने यदि सच करना
कंकर से तुम शंकर गढ़ना
पीछे रहो न धक्का देना
चलना तेज निरंतर बढ़ना
है आसान बैठना घर में
मुश्किल होता बाहर कढ़ना
कोशिश-फ्रेम बना ले पहले
चित्र सफलता का तब मढ़ना
***
तप में संसार बाधक या साधक ?
*
बाधा होता अगर विश्व यह
क्यों रचता इसको करतार?
साधन है यह साध्य नहीं है
समझ सहायक है संसार।
मन से मन की बात करो रे!
मत औरों को दो उपदेश।
मन ही पालन करे हुक्म का
मन ही दे मन को आदेश।
देख बाहरी दुनिया मन ने
चैन न पाया मूँदे नैन।
देखूँ तनिक भीतरी दुनिया
उजियाली हो मन में रैन।
अपने में डूबूँ, अपने से
आप करूँ साक्षात् तनिक।
आप प्रश्न कर उत्तर खोजूँ
सुनूँ आप की बात तनिक।
कर मस्तक में ऊर्जा केंद्रित
मन में झिलमिल दिखे प्रकाश।
ग्रह नक्षत्र सूर्य शशि भू सह
दिखे सिंधु, सारा आकाश।
हेरे मन को मन ही मन, मन
टेरे मन को मन ही मन।
शांति असीम मिले अंतर को
परम शांत हो निज चेतन।
तप तब ही जब देह-जगत हो
बिन काया-माया तप नाहिं।
छाया ईश्वर की पाना तो
रम कर, मत रम तू जग माहिं।
१५-१०-२०२२
***
कार्य शाला - छंद दोहा
प्रकार: अर्धसम मात्रिक छंद
विधान २ पद, २ विषम चरण, २ सम चरण, १३-११ पर यति, पदादि में एज शब्द में जगण निषेध, पदांत गुरु-लघु
*
दोहा में 'दो' मूल है, द्विपदी दो पग जान।
दो-दो हैं सम-विषम पद, कहता चरण जहान।।
*
गौ भाषा को दोहता, दोहा गहता अर्थ।
गागर में सागर भरे, दोहाकार समर्थ।।
*
विषम चरण दो आदि में, पहला-तीजा देख।
दूजा-चौथा सम चरण, दो इनको अवरेख।।
*
दो अक्षर गुरु-लघु रहें, पंक्ति-अंत उच्चार।
दो शब्दों में जगन का, है प्रयोग स्वीकार।।
*
मानव की करतूत लख, भुवन भास्कर लाल।
पर्यावरण बिगाड़कर, आप बुलाता काल।।
*
प्रकृति अपर्णा हो रही, ठूँठ रहे कुछ शेष।
शीघ्र समय वह आ रहा, मानव हो निश्शेष।।
*
नीर् वायु कर प्रदूषित, मचा रहा नर शोर।
प्रकृति-पुत्र होकर करे, नाश प्रकृति का घोर।।
*
हत्या करता वनों की, रौंदे खोद पहाड़।
क्रुद्ध प्रकृति आकाश भी, विपदा रही दहाड़।।
*
माटी मिट है कीच अब, बनी न तेरी कब्र।
चेताता है लाल रवि, सुधर तनिक कर सब्र।।
१५-१०-२०२१
***
प्रभाती
*
टेरे गौरैया जग जा रे!
मूँद न नैना, जाग शारदा
भुवन भास्कर लेत बलैंया
झट से मोरी कैंया आ रे!
ऊषा गुइयाँ रूठ न जाए
मैना गाकर तोय मनाए
ओढ़ रजैया मत सो जा रे!
टिट-टिट करे गिलहरी प्यारी
धौरी बछिया गैया न्यारी
भूखा चारा तो दे आ रे!
पायल बाजे बेद-रिचा सी
चूड़ी खनके बने छंद भी
मूँ धो सपर भजन तो गा रे!
बिटिया रानी! बन जा अम्मा
उठ गुड़िया का ले ले चुम्मा
रुला न आते लपक उठा रे!
अच्छर गिनती सखा-सहेली
महक मोगरा चहक चमेली
श्यामल काजल नजर उतारे
सुर-सरगम सँग खेल-खेल ले
कठिनाई कह सरल झेल ले
बाल भारती पढ़ बढ़ जा रे!
१५-१०-२०१९
***
घरेलू नुस्खे / आयुर्वेद
फिटकरी के उपयोग:
१. पिसी फिटकरी चौथाई चम्मच, एक कप कच्चे दूध में डाल,लस्सी बनाकर दो-दो घंटे बाद पिलाने से गर्भपात रुकता है
२. श्वेत प्रदर एवं रक्त प्रदर दोनों में चौथाई चम्मच पिसी फिटकरी पानी से रोजाना 3 बार फाँकें।
३.खूनी बवासीर होने पर फिटकरी को पानी में घोलकर गुदा में पिचकारी दें। साफ कपड़ा फिटकरी के पानी में भिगोकर गुदा-द्वार पर रखें ।
४. सुजाक (पेशाब करते समय जलन) हो तो ६ ग्राम पिसी हुई फिटकरी एक गिलास पानी में घोलकर कुछ दिन पिएँ।
५. सर्दियों में पानी में ज्यादा काम करने से अँगुलियों में सूजन या खाज होने पर पानी में फिटकरी उबालकर उससे धोएँ।
६. ज्यादा सुरापान के बाद ६ग्राम फिटकरी पानी में घोलकर पीने से नशा कम होता है।
७. गले में दर्द होने पर गर्म पानी में फिटकरी और नमक डालकर गरारे करने से टॉन्सिल ठीक होते हैं। मुँह, गला और दाँत भी साफ होते हैं।
८. बार-बार बुखार आने एक ग्राम फिटकरी में दो ग्राम चीनी को मिलाकर २-२ घंटे के अंतर से से दो बार दें।
९. दाँत दर्द हो तो फिटकरी को रूई में रखकर छेद में दबा दें और लार टपकाएँ। दाँत दर्द ठीक हो जाएगा।
१०. फिटकरी को पानी में घोलकर कुल्ले करने से मुँह के छाले ठीक हो जाते हैं।
११. कान में चींटी चली जाए तो फिटकरी को पानी में घोलकर कान में डालें। चींटी बाहर निकल आएगी।
१२. आधा गिलास पानी में ६ ग्राम फिटकरी घोलकर कुछ दिन पिलाने से हैजे में लाभ होता है।
१३. आंतरिक चोट लगने पर ४ ग्राम फिटकरी पीसकर आधा किलो गाय के दूध में मिलाकर पिलाने से लाभ होता है।
१४. हाथ-पाँव में पसीना आता हो तो फिटकरी को पानी में घोलकर इससे हाथ-पाँव धोएँ।
१५. फिटकरी के पानी से सिर धोने से जुएँ नष्ट हो जाती हैं।
१६. चार्म रोग से प्रभावित भाग को फिटकरी के पानी से दिन में ३-४ बार धो लें। सभी प्रकार के चर्मरोग मिट जाते हैं।
१७. आधा ग्राम पिसी हुई फिटकरी शहद में मिलाकर चाटने से दमा और खाँसी में आराम मिलता है।
१८. गाय के दूध में थोड़ी-सी फिटकरी घोलकर ३-४-बूँद नाक में डालने से नाक में खून आना बंद हो जाता है।
१९. फिटकरी के चूर्ण में शहद मिलाकर उसमें रूई लपेटकर कान में रखने से कान का घाव भर जाता है।
२०. पिसी हुई फिटकरी पानी में घोलकर दिन में २ बार कुल्ला करने से पायरिया रोग ठीक होता है।
२१. नजला-जुकाम होने पर फिटकरी को गर्म तवे पर फुलाकर महीन पीस लें,एक चुटकी गुनगुने पानी के साथ दिन में तीन बार लें।
२२. अनचाहे बाल हटाने के लिए फिटकरी को पानी के साथ जहाँ से बाल हटाना हैं, वहाँ सप्ताह में दो दिन लगाकर आधे घंटे बाद पानी से धोलें। उसके बाद वेक्स द्वारा बालों को हटा दें। कुछ समय बाद बाल आने बंद हो जाएँगे।
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कार्य शाला- छंद दोहा
प्रकार: अर्धसम मात्रिक छंद
विधान २ पद, २ विषम चरण, २ सम चरण, १३-११ पर यति, पदादि में एज शब्द में जगण निषेध, पदांत गुरु-लघु
*
मानव की करतूत लख, भुवन भास्कर लाल.
पर्यावरण बिगाड़कर, आप बुलाता काल.
*
प्रकृति अपर्णा हो रही, ठूँठ रहे कुछ शेष
शीघ्र समय वह आ रहा, मानव हो निश्शेष
*
नीर् वायु कर प्रदूषित, मचा रहा नर शोर
प्रकृति-पुत्र होकर करे, नाश प्रकृति का घोर.
*
हत्या करता वनों की, रौंदे खोद पहाड़.
क्रुद्ध प्रकृति आकाश भी, विपदा रही दहाड़
*
माटी मिट है कीच अब, बनी न तेरी कब्र.
चेताता है लाल रवि, सुधर तनिक कर सब्र.
***
मुक्तिका
*
२६ मात्रिक राशि-रत्न छंद
विधान- यति १२-१४, पदांत IS
*
पंक जब दे छोड़ तब, पंकज लुटा परिमल सके
रहे लिपटा पंक में, जो वह न पूजित हो सखे!
सिर्फ कमियाँ खोजना, औरों की खुद को श्रेष्ठ कह
आत्म-अवलोकन करे, तो कमी खुद में भी दिखे
और की खूबी नहीं, होती सहन जिस दृष्टि को
मोतिया बन खामियाँ, देखीं वहीं हमने पले
क्लिष्टता आराध्य कह, जो प्रेत हैं कठिनाई के
डर उन्हीं से छंद तज, युव राह ग़ज़लों की चुने
सराहे तुलसी गए, जब जायसी से अधिक तो
विवश खेमेबाज मिल, मानस रखें नीचे लजे
मुक्तिका हिंदी गजल, पर गीतिका जो कह रहे
तेवरी उपहास कर, उनका सतत गुपचुप हँसे
[टिप्पणी- नवाविष्कृत छंद, राशि १२, रत्न १४]
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छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
*
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, बताइये।
क्या नवगीतों में इन आंकिक प्रतिमानों का उपयोग इन अर्थों में किया जाना उचित होगा?
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत, एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: ?। दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म/गर्मी।मामा:कंस, शकुनि, माहुल।
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज / त्रिकोण तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - षोडश मातृका: गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजय, जाया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, शांति, पुष्टि, धृति, तुष्टि, मातर, आत्म देवता। ब्रम्ह की सोलह कला: प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक, नाम।, चन्द्र कलाएं: अमृता, मंदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, ससिचिनी, चन्द्रिका, कांता, ज्योत्सना, श्री, प्रीती, अंगदा, पूर्ण, पूर्णामृता। १६ कलाओंवाले पुरुष के १६ गुण सुश्रुत शारीरिक से: सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्राण, अपान, उन्मेष, निमेष, बुद्धि, मन, संकल्प, विचारणा, स्मृति, विज्ञान, अध्यवसाय, विषय की उपलब्धि। विकारी तत्व: ५ ज्ञानेंद्रिय, ५ कर्मेंद्रिय तथा मन। संस्कार: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि। श्रृंगार: ।
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।
छब्बीस - राशि-रत्न (१४-१२ =२६)
सत्ताईस - नक्षत्र: अश्विन, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती।
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।
१५-१०-१०१८
***
दोहा
नेह-नर्मदा नहाकर, मन-मयूर के नाम
तन्मय तन ने लिख दिया, चिन्मय चित बेदाम
***
एक रचना: नेपाली अनुवाद :
संजीव वर्मा 'सलिल' विधि गुरुङ्ग
* *
ओ मेरी नेपाली सखी! हे मेरो नेपाली संगी!
एक सच जान लो एउटा सत्य थाहा पाऊ
समय के साथ आती-जाती है समय संग आउञ्छ जान्छ
धूप और छाँव छाया र घाम
लेकिन हम नहीं छोड़ते हैं तर हामी छोर्दैनौ है
अपना घर या गाँव। आफ्नो घर र गाम
परिस्थितियाँ बदलती हैं, परिस्थिति बद्लि रहन्छ
दूरियाँ घटती-बढ़ती हैं दुरी घटी-बढ़ी रहन्छ
लेकिन दोस्त नहीं बदलते तर मित्रता बदलिन्दैन
दिलों के रिश्ते नहीं टूटते। मनको नाता तुतिन्दैन
मुँह फुलाकर रूठ जाने से मुख फुलाएर रिसाउने बितिकै
सदियों की सभ्यताएँ सदियौंको सभ्यता
समेत नहीं होतीं। बिलिन हुँदैन।
हम-तुम एक थे, हामी तिमि एक थियौं ,
एक हैं, एक रहेंगे। एक छौं एक रही रहनेछौ
अपना सुख-दुःख आफ्नो सुख-दुःख,
अपना चलना-गिरना हिंद्नु- लड्नु
संग-संग उठना-बढ़ना संग - संग उठ्नु - अघि बढनु
कल भी था, हिजो पनि थियौं,
कल भी रहेगा। आज पनि छौं भोलिनी रहनेछौं
आज की तल्खी आजको कट्तुता
मन की कड़वाहट मनको कड़वाहट
बिन पानी के बदल की तरह पानी बिनको बादल सरी
न कल थी, न हिजो थियो
न कल रहेगी। न भोली रहन्छ
नेपाल भारत के ह्रदय में नेपाल भारतको मनमा
भारत नेपाल के मन में भारत नेपालको मनमा
था, है और रहेगा। सदा रहन्छ।
इतिहास हमारी मित्रता की इतिहांस ले हाम्रो मित्रता को
कहानियाँ कहता रहा है, कथा सुनाउंछ
कहता रहेगा। सुनाई रहनेछ
आओ, हाथ में लेकर हाथ आऊ, हाथ मा लिएर हाथ
कदम बढ़ाएँ एक साथ पाइला चालऊं एक साथ
न झुकाया है, न झुकाएँ न निहुराएको थियौं, शिर न झुकाउने छौं
हमेशा ऊँचा रखें अपना माथ। हमेसा उच्च थियो शिर उच्चनै राख्ने छौं
नेता आयेंगे-जायेंगे नेता आउँछ - जान्छ
संविधान बनेंगे-बदलेंगे संबिधान बन्छ बद्लिन्छ
लेकिन हम-तुम तर तिमि-हामी,
कोटि-कोटि जनगण करोडौं जनता
न बिछुड़ेंगे, न लड़ेंगे न छुट छौं, न लड्छौं
दूध और पानी की तरह दूध र पानी जस्तै
शिव और भवानी की तरह शिव र पार्वती जस्तै
जन्म-जन्म साथ थे, जुनी जुनी साथ थियौं
हैं और रहेंगे छौं र रही रहन्छौं
ओ मेरी नेपाली सखी! हे मेरो नेपाली संगी!
*** ***
महाकवि सूरदास का एक दुर्लभ पद-
...................................................
महराज भवानी, ब्रह्म्भुवन की रानी।
आगे शंकर तांडव करत हैं, भाव करत शूलपानी।।
सुर-नर-गन्धर्व की भीड़ भई है, आगे खड़ा दंडपानी।
‘सूरदास’ प्रभु पल-पल निरखत, भक्तवत्सल जगदानी।।
(नोट- इस पद को पं० भीमसेन जोशी ने गाया है, जिसको ‘म्यूजिक टुडे’ ने अपनी ‘भक्तिमाला’ सीरीज में रिकॉर्ड कर कैसेट संख्या डी-92005 में प्रस्तुत किया है.)
***
एक रचना:
*
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
*
खिलता हुआ पलाश सुलगता
वॅलिंटाइन पर्व याद कर
हवा बसंती, फ़िज़ां नशीली
बहक रही है लिपट-चिपटकर
घूँघट-बेंदा, पायल-झुमका
झिझक-झेंपती लाज कहाँ है?
सर की, दर की
फ़िक्र जिसे थी, बाट नहीं है
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
*
पनघट, नुक्क्ड़, चौपालों से
अपनापन हो गया पराया
खलिहानों ने अमराई को-
लूट-रौंदकर दिल बहलाया
नौ दिन-रात पूज नौ देवी
खुद, जग को छले भक्त ही
बदी बढ़ी पर
हुई न अब तक खाट खड़ी है
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
*
पूरा-पुरातन दिव्य सभ्यता
अब केवल बाजार हो गयी
रिश्ते-नाते, ममता-लोरी
राखी, बिंदिया भार हो गयी
जंगल, पर्वत, रेत, शिलाएँ
बेचीं, अब आत्मा की बारी
संसाधन हैं
तबियत मगर उचाट हुई है
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
१४- १०-२०१५
***
विमर्श
देवनागरी लिपि में लिखने वालों के लिए कुछ उपयोगी बाते...
हिन्दी लिखने वाले अक़्सर 'ई' और 'यी' में, 'ए' और 'ये' में और 'एँ' और 'यें' में जाने-अनजाने गड़बड़ करते हैं...।
कहाँ क्या इस्तेमाल होगा, इसका ठीक-ठीक ज्ञान होना चाहिए...।
जिन शब्दों के अन्त में 'ई' आता है वे संज्ञाएँ होती हैं क्रियाएँ नहीं... जैसे: मिठाई, मलाई, सिंचाई, ढिठाई, बुनाई, सिलाई, कढ़ाई, निराई, गुणाई, लुगाई, लगाई-बुझाई...।
इसलिए 'तुमने मुझे पिक्चर दिखाई' में 'दिखाई' ग़लत है... इसकी जगह 'दिखायी' का प्रयोग किया जाना चाहिए...। इसी तरह कई लोग 'नयी' को 'नई' लिखते हैं...। 'नई' ग़लत है , सही शब्द 'नयी' है... मूल शब्द 'नया' है , उससे 'नयी' बनेगा...।
क्या तुमने क्वेश्चन-पेपर से आंसरशीट मिलायी...?
( 'मिलाई' ग़लत है...।)
आज उसने मेरी मम्मी से मिलने की इच्छा जतायी...।
( 'जताई' ग़लत है...।)
उसने बर्थडे-गिफ़्ट के रूप में नयी साड़ी पायी...। ('पाई' ग़लत है...।)
अब आइए 'ए' और 'ये' के प्रयोग पर...।
बच्चों ने प्रतियोगिता के दौरान सुन्दर चित्र बनाये...। ( 'बनाए' नहीं...। )
लोगों ने नेताओं के सामने अपने-अपने दुखड़े गाये...। ( 'गाए' नहीं...। )
दीवाली के दिन लखनऊ में लोगों ने अपने-अपने घर सजाये...। ( 'सजाए' नहीं...। )
तो फिर प्रश्न उठता है कि 'ए' का प्रयोग कहाँ होगा..? 'ए' वहाँ आएगा जहाँ अनुरोध या रिक्वेस्ट की बात होगी...।
अब आप काम देखिए, मैं चलता हूँ...। ( 'देखिये' नहीं...। )
आप लोग अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी के विषय में सोचिए...। ( 'सोचिये' नहीं...। )
नवेद! ऐसा विचार मन में न लाइए...। ( 'लाइये' ग़लत है...। )
अब आख़िर (अन्त) में 'यें' और 'एँ' की बात... यहाँ भी अनुरोध का नियम ही लागू होगा... रिक्वेस्ट की जाएगी तो 'एँ' लगेगा , 'यें' नहीं...।
आप लोग कृपया यहाँ आएँ...। ( 'आयें' नहीं...। )
जी बताएँ , मैं आपके लिए क्या करूँ ? ( 'बतायें' नहीं...। )
मम्मी , आप डैडी को समझाएँ...। ( 'समझायें' नहीं...। )
अन्त में सही-ग़लत का एक लिटमस टेस्ट... एकदम आसान सा... जहाँ आपने 'एँ' या 'ए' लगाया है , वहाँ 'या' लगाकर देखें...। क्या कोई शब्द बनता है ? यदि नहीं , तो आप ग़लत लिख रहे हैं...।
आजकल लोग 'शुभकामनायें' लिखते हैं... इसे 'शुभकामनाया' कर दीजिए...। 'शुभकामनाया' तो कुछ होता नहीं , इसलिए 'शुभकामनायें' भी नहीं होगा...।
'दुआयें' भी इसलिए ग़लत हैं और 'सदायें' भी... 'देखिये' , 'बोलिये' , 'सोचिये' इसीलिए ग़लत हैं क्योंकि 'देखिया' , 'बोलिया' , 'सोचिया' कुछ नहीं होते...।
रचयिता...अज्ञात...
डॉ Anita Singh की वाल से साभार ।
Sanjiv Verma 'salil' आपके अनुसार तो 'भला हुआ' में 'हुआ' क्रिया होने के कारण स्त्रीलिंग 'हुयी' होगा जो गलत है। मूल बात यह है की 'आ' का 'स्त्रीलिंग 'ई' होगा और 'या' का 'यी' बहुवचन में क्रमश: 'ए' और 'ये' होगा। अपवाद भी हैं। जैसे' तू आ' यह स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में समान रहेगा और बहुवचन में 'तुम सब आओ' होगा। हुआ, हुई, हुए, गया, गयी, गये सही रूप हैं।
***
दोहा सलिला
भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य.
स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य..
आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ.
फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ..
मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत.
हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत..
शर निष्ठां का लीजिये, कोशिश बने कमान.
जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान..
राम वही आराम हो. जिसको सदा हराम.
जो निज-चिंता भूलकर सबके सधे काम..
दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान.
दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान..
सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प.
पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प..
हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ.
विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ..
कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान.
परम सत्य उससे नहीं, रह पता अनजान..
हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ विश्वास.
इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास..
रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार. स्वार्थ- बैर,
मद-क्रोध को, बन लछमन संहार..
१५-१०-२०१०
***

शनिवार, 14 अक्टूबर 2023

सॉनेट, नयन, सरस्वती, मी टू, स्मरण अलंकार, लोकगीत, दुर्गा, नवगीत, बधाई गीत

बधाई गीत 
समधन-समधी जन्मदिवस पर शत शत बार बधाई।
कोयल झूला गीत सुनाए, लोरी शुक ने गाई।।

नज़र उतारे फूल मोगरा, रानू लिए मिठाई।
शानू लाई गुलगुले, टीना लिए हरीरा आई।।

नाच रहे अनुराग विपिन मन्वन्तर धूम मचाई।
गले मिलें संजीव-साधना, बाज रही शहनाई।।

केक कटा गीतेश झूमकर, कहे सदय हो माई।
घोड़ी चढ़ा मुझे तू झट से, कर भी दें कुड़माई।।

नव प्रभात पुष्पा गृह बगिया, स्नेह सुरभि बिखराई।
समधन-समधी जन्म दिवस पर शत-शत बार बधाई।।
१४.१०.२०२३
•••
सॉनेट
नयन
नयन अबोले सत्य बोलते
नयन असत्य देख मुँद जाते
नयन मीत पा प्रीत घोलते
नयन निकट प्रिय पा खुल जाते
नयन नयन में रच-बस जाते
नयन नयन में आग लगाते
नयन नयन में धँस-फँस जाते
नयन नयन को नहीं सुहाते
नयन नयन-छवि हृदय बसाते
नयन फेरकर नयन भुलाते
नयन नयन से नयन चुराते
नयन नयन को नयन दिखाते
नयन नयन को जगत दिखाते
नयन नयन सँग रास रचाते
१४-१०-२०२२
●●●
*सरस्वती वंदना*
*मुक्तिका*
*
विधि-शक्ति हे!
तव भक्ति दे।
लय-छंद प्रति-
अनुरक्ति दे।।
लय-दोष से
माँ! मुक्ति दे।।
बाधा मिटे
वह युक्ति दे।।
जो हो अचल
वह भक्ति दे।
*
*मुक्तक*
*
शारदे माँ!
तार दे माँ।।
छंद को नव
धार दे माँ।।
*
हे भारती! शत वंदना।
हम मिल करें नित अर्चना।।
स्वीकार लो माँ प्रार्थना-
कर सफल छांदस साधना।।
*
माता सरस्वती हो सदय।
संतान को कर दो अभय।।
हम शब्द की कर साधना-
हों अंत में तुझमें विलय।।
*
शत-शत नमन माँ शारदे!, संतान को रस-धार दे।
बन नर्मदा शुचि स्नेह की, वात्सल्य अपरंपार दे।।
आशीष दे, हम गरल का कर पान अमृत दे सकें-
हो विश्वभाषा भारती, माँ! मात्र यह उपहार दे।।
*
हे शारदे माँ! बुद्धि दे जो सत्य-शिव को वर सके।
तम पर विजय पा, वर उजाला सृष्टि सुंदर कर सके।।
सत्पथ वरें सत्कर्म कर आनंद चित् में पा सकें-
रस भाव लय भर अक्षरों में, छंद- सुमधुर गा सकें।।
१४-१०-२०१९
***
नवगीत
मी टू
*
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
दीप-ज्योति गुमसुम हुई
कोयल रही न कूक.
*
मैं माटी
रौंदा मुझे क्यों कुम्हार ने बोल?
देख तमाशा कुम्हारिन; चुप
थी क्यों; क्या झोल?
सीकर जो टपका; दिया
किसने इसका मोल
तेल-ज्योत
जल-बुझ गए
भोर हुए बिन चूक
कूकुर दौड़ें गली में
काट रहे बिन भूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
*
मैं जनता
ठगता मुझे क्यों हर नेता खोज?
मिटा जीविका; भीख दे
सेठों सँग खा भोज.
आरक्षण लड़वा रहा
जन को; जन से रोज
कोयल
क्रन्दन कर रही
काग रहे हैं कूक
रूपए की दम निकलती
डॉलर तरफ न झूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
*
मैं आईना
दिख रही है तुझको क्या गंद?
लील न ले तुझको सम्हल
कर न किरण को बंद.
'बहु' को पग-तल कुचलते
अवसरवादी 'चंद'
सीता का सत लूटती
राघव की बंदूक
लछमन-सूपनखा रहे
एक साथ मिल हूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
***
कविता दीप
*
पहला कविता-दीप है छाया तेरे नाम
हर काया के साथ तू पाकर माया नाम
पाकर माया नाम न कोई विलग रह सका
गैर न तुझको कोई किंचित कभी कह सका
दूर न कर पाया कोई भी तुझको बहला
जन्म-जन्म का बंधन यही जीव का पहला
दीप-छाया
*
छाया ले आयी दिया, शुक्ला हुआ प्रकाश
पूँछ दबा भागा तिमिर, जगह न दे आकाश
जगह न दे आकाश, धरा के हाथ जोड़ता
'मैया! जो देखे मुखड़ा क्यों कहो मोड़ता?
कहाँ बसूँ? क्या तूने भी तज दी है माया?'
मैया बोली 'दीप तले बस ले निज छाया
१४-१०-२०१७
***
दोहा
पहले खुद को परख लूँ, तब देखूँ अन्यत्र
अपना खत खोला नहीं, पा औरों का पत्र
*

मिले प्रेरणा-कल्पना, तब बन पाए बात।
शेष सभी तुकबन्दियाँ, कवि-कौशल की मात।।


*
दो कवि कुंडली एक
मास दिवस ऐसे कटे, ज्यों पंछी पर-हीन ।
मैं तड़पत ऐसे रही, जैसे जल बिन मीन।। -मिथलेश
जैसे जल बिन मीन, पटकती सर पत्थर पर
भारत शांति प्रयास करे, पाकी धरती पर।।
एक बार में लें निबट, अगर न हो उपहास
चाह रहा जनगण यही, लड़िये बारह मास।।
१४-१०-२०१६
***
अलंकार सलिला
: २१ : स्मरण अलंकार
एक वस्तु को देख जब दूजी आये याद
अलंकार 'स्मरण' दे, इसमें उसका स्वाद
करें किसी की याद जब, देख किसी को आप.
अलंकार स्मरण 'सलिल', रहे काव्य में व्याप..
*
कवि को किसी वस्तु या व्यक्ति को देखने पर दूसरी वस्तु या व्यक्ति याद आये तो वहाँ स्मरण अलंकार होता है.
जब पहले देखे-सुने किसी व्यक्ति या वस्तु के समान किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु को देखने पर उसकी याद हो आये तो स्मरण अलंकार होता है.
स्मरण अलंकार समानता या सादृश्य से उत्पन्न स्मृति या याद होने पर ही होता है. किसी से संबंधित अन्य व्यक्ति या वस्तु की याद आना स्मरण अलंकार नहीं है.
'स्मृति' नाम का एक संचारी भाव भी होता है. वह सादृश्य-जनित स्मृति (समानता से उत्पन्न याद) होने पर भी होता है और और सम्बद्ध वस्तुजनित स्मृति में भी. स्मृति भाव और स्मरण अलंकार दोनों एक साथ हो भी सकते हैं और नहीं भी.
स्मरण अलंकार से कविता अपनत्व, मर्मस्पर्शिता तथा भावनात्मक संवगों से युक्त हो जाती है.
उदाहरण:
१. प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा
सिय-मुख सुरति देखि व्है आवा
यहाँ पश्चिम दिशा में उदित हो रहे सुहावने चंद्र को सीता के सुहावने मुख के समान देखकर राम को सीता याद आ रही है. अत:, स्मरण अलंकार है.
२. बीच बास कर जमुनहि आये
निरखि नीर लोचन जल छाये
यहाँ राम के समान श्याम वर्ण युक्त यमुना के जल को देखकर भरत को राम की याद आ रही है. यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.
३. सघन कुञ्ज छाया सुखद, शीतल मंद समीर
मन व्है जात वहै वा जमुना के तीर
कवि को घनी लताओं, सुख देने वाली छाँव तथा धीमी बाह रही ठंडी हवा से यमुना के तट की याद आ रही है. अत; यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.
४. देखता हूँ
जब पतला इंद्रधनुषी हलका
रेशमी घूँघट बादल का
खोलती है कुमुद कला
तुम्हारे मुख का ही तो ध्यान
तब करता अंतर्ध्यान।
यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.
५. ज्यों-ज्यों इत देखियत मूरुख विमुख लोग
त्यौं-त्यौं ब्रजवासी सुखरासी मन भावै है
सारे जल छीलर दुखारे अंध कूप देखि
कालिंदी के कूल काज मन ललचावै है
जैसी अब बीतत सो कहतै ना बने बैन
नागर ना चैन परै प्रान अकुलावै है
थूहर पलास देखि देखि के बबूर बुरे
हाथ हरे हरे तमाल सुधि आवै है
६. श्याम मेघ सँग पीत रश्मियाँ देख तुम्हारी
याद आ रही मुझको बरबस कृष्ण मुरारी.
पीताम्बर ओढे हो जैसे श्याम मनोहर.
दिव्य छटा अनुपम छवि बाँकी प्यारी-प्यारी.
७ . जो होता है उदित नभ में कौमुदीनाथ आके
प्यारा-प्यारा विकच मुखड़ा श्याम का याद आता
८. छू देता है मृदु पवन जो, पास आ गात मेरा
तो हो आती परम सुधि है, श्याम-प्यारे-करों की
९. सजी सबकी कलाई
पर मेरा ही हाथ सूना है.
बहिन तू दूर है मुझसे
हुआ यह दर्द दूना है.
१०. धेनु वत्स को जब दुलारती
माँ! मम आँख तरल हो जाती.
जब-जब ठोकर लगती मग पर
तब-तब याद पिता की आती.
११. जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराये
मुझे तुम याद आये.
स्मरण अलंकार का एक रूप ऐसा मिलता है जिसमें उपमेय के सदृश्य उपमान को देखकर उपमेय का प्रत्यक्ष दर्शन करने की लालसा तृप्त हो जाती है.
१२. नैन अनुहारि नील नीरज निहारै बैठे बैन अनुहारि बानी बीन की सुन्यौ करैं
चरण करण रदच्छन की लाली देखि ताके देखिवे का फॉल जपा के लुन्यौं करैं
रघुनाथ चाल हेत गेह बीच पालि राखे सुथरे मराल आगे मुकता चुन्यो करैं
बाल तेरे गात की गाराई सौरि ऐसी हाल प्यारे नंदलाल माल चंपै की बुन्या करैं
===
एक लोकरंगी प्रयास-
देवी को अर्पण.
*
मैया पधारी दुआरे
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
घर-घर बिराजी मतारी हैं मैंया!
माँ, भू, गौ, भाषा हमारी है मैया!
अब लौं न पैयाँ पखारे रे हमने
काहे रहा मन भुलाना
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
आसा है, श्वासा भतारी है मैया!
अँगना-रसोई, किवारी है मैया!
बिरथा पड़ोसन खों ताकत रहत ते,
भटका हुआ लौट आवा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
राखी है, बहिना दुलारी रे मैया!
ममता बिखरे गुहारी रे भैया!
कूटे ला-ला भटकटाई -
सवनवा बहुतै सुहावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
बहुतै लड़ैती पिआरी रे मैया!
बिटिया हो दुनिया उजारी रे मैया!
'बज्जी चलो' बैठ काँधे कहत रे!
चिज्जी ले ठेंगा दिखावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
तोहरे लिये भए भिखारी रे मैया!
सूनी थी बखरी, उजारी रे मैया!
तार दये दो-दो कुल तैंने
घर भर खों सुरग बनावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
१४-१०-२०१५
***
गीत
नील नभ नित धरा पर बिखेरे सतत, पूर्णिमा रात में शुभ धवल चाँदनी.
अनगिनत रश्मियाँ बन कलम रच रहीं, देख इंगित नचे काव्य की कामिनी..
चुप निशानाथ राकेश तारापति, धड़कनों की तरह रश्मियों में बसा.
भाव, रस, बिम्ब, लय, कथ्य पंचामृतों का किरण-पुंज ले कवि हृदय है हँसा..
नव चमक, नव दमक देख दुनिया कहे, नीरजा-छवि अनूठी दिखा आरसी.
बिम्ब बिम्बित सलिल-धार में हँस रहा, दीप्ति -रेखा अचल शुभ महीपाल की..
श्री, कमल, शुक्ल सँग अंजुरी में सुमन, शार्दूला विजय मानोशी ने लिये.
घूँट संतोष के पी खलिश मौन हैं, साथ सज्जन के लाये हैं आतिश दिये..
शब्द आराधना पंथ पर भुज भरे, कंठ मिलते रहे हैं अलंकार नत.
गूँजती है सृजन की अनूपा ध्वनि, सुन प्रतापी का होता है जयकार शत..
अक्षरा दीप की मालिका शाश्वती, शक्ति श्री शारदा की त्रिवेणी बने.
साथ तम के समर घोर कर भोर में, उत्सवी शामियाना उषा का तने..
चहचहा-गुनगुना नर्मदा नेह की, नाद कलकल करे तीर हों फिर हरे.
खोटे सिक्के हटें काव्य बाज़ार से, दस दिशा में चलें छंद-सिक्के खरे..
वर्मदा शर्मदा कर्मदा धर्मदा, काव्य कह लेखनी धन्यता पा सके.
श्याम घन में झलक देख घनश्याम की, रासलीला-कथा साधिका गा सके..
१८-१०-२०११
***
खबरदार कविता:
सत्ता का संकट
(एक अकल्पित राजनीतिक ड्रामा)
*
एक यथार्थ की बात
बंधुओं! तुम्हें सुनाता हूँ.
भूल-चूक के लिए न दोषी,
प्रथम बताता हूँ..
नेताओं की समझ में
आ गई है यह बात
करना है कैसे
सत्ता सुंदरी से साक्षात्?
बड़ी आसान है यह बात-
सेवा का भ्रम को छोड़ दो
स्वार्थ से नाता जोड़ लो
रिश्वत लेने में होड़ लो.
एक बार हो सत्ता-से भेंट
येन-केन-प्रकारेण बाँहों में लो समेट.
चीन्ह-चीन्हकर भीख में बाँटो विज्ञापन.
अख़बारों में छपाओ: 'आ गया सुशासन..
लक्ष्मी को छोड़ कर
व्यर्थ हैं सारे पुरुषार्थ.
सत्ताहीनों को ही
शोभा देता है परमार्थ.
धर्म और मोक्ष का
विरोधी करते रहें जाप.
अर्थ और काम से
मतलब रखें आप.
विरोधियों की हालत खस्ता हो जाए.
आपकी खरीद-फरोख्त उनमें फूट बो जाए.
मुख्यमंत्री और मंत्री हों न अब बोर.
सचिवों / विभागाध्यक्षों की किस्मत मारे जोर.
बैंक-खाते, शानदार बंगले, करोड़ों के शेयर.
जमीनें, गड्डियाँ और जेवर.
सेक्स और वहशत की कोई कमी नहीं.
लोकायुक्त की दहशत जमी नहीं.
मुख्यमंत्री ने सोचा
अगले चुनाव में क्या होगा?
छीन तो न जाएगा
सत्ता-सुख जो अब तक भोगा.
विभागाध्यक्ष का सेवा-विस्तार,
कलेक्टरों बिन कौन चलाये सत्ता -संसार?
सत्ता यों ही समाप्त कैसे हो जाएगी?
खरीदो-बेचो की नीति व्यर्थ नहीं जाएगी.
विपक्ष में बैठे दानव और असुर.
पहुँचे केंद्र में शक्तिमान और शक्ति के घर.
कुटिल दूतों को बनाया गया राज्यपाल.
मचाकर बवाल, देते रहें हाल-चाल.
प्रभु मनमोहन हैं अन्तर्यामी
चमकदार समारोह से छिपाई खामी.
कौड़ी का सामान करोड़ों के दाम.
खिलाड़ी की मेहनत, नेता का नाम.
'मन' से 'लाल' के मिलन की 'सुषमा'.
नकली मुस्कान... सूझे न उपमा.
दोनों एक-दूजे पर सदय-
यहाँ हमारी, वहाँ तुम्हारी जय-जय.
विधायकों की मनमानी बोली.
खाली न रहे किसी की झोली.
विधानसभा में दोबारा मतदान.
काटो सत्ता का खेत, भरो खलिहान.
मनाते मनौती मौन येदुरप्पा.
अचल रहे सत्ता, गाऊँ ला-रा-लप्पा.
भारत की सारी ज़मीन...
नेता रहे जनता से छीन.
जल रहा रोम, नीरो बजाता बीन.
कौन पूछे?, कौन बताये? हालत संगीन.
सनातन संस्कृति को, बनाकर बाज़ार.
कर रहे हैं रातें रंगीन.
१४-१०-२०१०
***
नवगीत
बाँटें-खायें...
*
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
करो-मरो का
चला गया युग.
समय आज
सहकार का.
महजनी के
बीत गये दिन.
आज राज
बटमार का.
इज्जत से
जीना है यदि तो,
सज्जन घर-घुस
शीश बचायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
*
आपा-धापी,
गुंडागर्दी.
हुई सभ्यता
अभिनव नंगी.
यही गनीमत
पहने चिथड़े.
ओढे है
आदर्श फिरंगी.
निज माटी में
नहीं जमीन जड़,
आसमान में
पतंग उडाएं.
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
लेना-देना
सदाचार है.
मोल-भाव
जीवनाधार है.
क्रय-विक्रय है
विश्व-संस्कृति.
लूट-लुटाये
जो-उदार है.
निज हित हित
तज नियम कायदे.
स्वार्थ-पताका
मिल फहरायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
१४-१०-२००९
***

हीरा लाल राय, दमोह दीपक



शोध लेख-
रायबहादुर हीरा लाल राय की काव्य प्रतिभा और दमोह दीपक
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
​​
सनातन सलिला नर्मदा के तट पर साधकों की परंपरा चिर काल से अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होती रही है। साधना भूमि नर्मदा के तट पर महादेव, उमा, जमदग्नि, परशुराम, अगस्त्य, विश्वामित्र , दत्तात्रेय, जाबालि, नरहरिदास, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश 'ओशो', पदमश्री रामकिंकर उपाध्याय आदि ने विश्वव्यापी ख्याति अर्जित की है। प्रशासनिक और सामाजिक क्षेत्र में जिन नरनहरों ने इस क्षेत्र की कीर्ति पताका फहराई उनमें रायबहादुर हीरालाल राय अग्रगण्य हैं। डॉ. राय की ख्याति मुख्यत: प्रशासक तथा पुरातत्वविद के रूप में है किन्तु शिक्षा तथा साहित्य के विकास में भी उनहोंने महती भूमिका का निर्वहन किया है। काव्य संस्कार उन्हें विरासत में प्राप्त हुआ था। ग्राम सूपा (महोबा उ.प्र) से बिलहरी (ऐतिहासिक पुष्पावती) नगरी में आकर बसे कालूराम के पुत्र रूप में जन्में नारायण दास मुड़वारा में जा बसे। वे अपने समय के प्रसिद्ध रामायणी थे। रामचरित मानस का सुमधुर स्वर में पाठ तथा विद्वतापूर्ण व्याख्या करने में उनका दूर-दूर तक सानी न था। हैहय वंशी क्षत्रिय होने पर भी उन्हें सामान्यत: ब्राम्हणों को प्राप्त पदवी 'पाठक' प्राप्त थी। नारायणदास के पुत्र मनबोधराम में मानस की व्याख्या हेतु आवश्यक पांडित्य न होने पर भी अगाध रूचि थी। अत:, वे अपने हाथ से लिखकर मानस की प्रतियाँ तैयार कर दान किया करते थे। 'पुस्तक दान महादान' उनके जीवन का मूलमन्त्र बन गया था। अल्प शिक्षित होने पर भी उन्हें सुख-समृद्धि और सन्तोष की कमी न थी। कई सन्तानों के अल्प जीवी होने के पश्चात् प्राप्त अंतिम पुत्र को जीवनरक्षा हेतु ईश्वरार्पण कर उन्होंने उनका नाम भी ईश्वरदास ही रखा। ईश्वर ने अपने दास को दीर्घजीवी भी किया। एकमात्र संतान ईश्वरदास (संवत १९०४-१९६९) का लाड-प्यार खूब मिला फलत: वे प्राथमिक से अधिक शिक्षा न पा सके। इसकी कसक उन्होंने अपने २ पुत्रों हीरालाल और गोकुलप्रसाद को उच्च शिक्षित कर मिटाई। हीरालाल जी (जन्म आश्विन शुक्ल चतुर्थी संवत १९२४ विक्रम तदनुसार १ अक्टूबर सन १८६७ ई.) ने प्रथम काव्य-सुमन अट्ठाइस मात्रिक यौगिक जातीय छंद में लिखा पद अपनी माता-पिता को ही समर्पित किया-
सुमिरि जस मन न समाय हुलास
शुभ श्री कमला मातु हमारी, पितु श्री ईश्वरदास।।
कटनी तट सोहै अति सुंदर, मुड़वारा रह वास।
दोउन को दोऊ कर जोरे, प्रणमत दोई दास ।। १
मुरवारा एंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल में अपनी बाल-प्रतिभा से शिक्षकों और निरीक्षकों को चकित करनेवाले हीरालाल ने सन १८८१ में माध्यमिक, १८८३ में एंट्रेंस, तथा १८८८ में बी.ए. शिक्षा प्राप्त कर गवर्नमेंट कॉलिजिएट हाई स्कूल में अध्यापक पदार्थ विज्ञान के रूप में अपने व्यक्तित्व का विकास आरम्भ किया। इस काल तक हीरालाल राय का काव्य-प्रेम काव्य पढ़ने, समझने और रसानंद लेने तक सीमित था। १७ जनवरी सन १८९१ को सागर जिले में डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स नियुक्त होने पर उन्होंने ग्राम्यांचलों में शिक्षा के प्रसार हेतु अपने काव्य-प्रेम को औजार की तरह प्रयोग किया। उन्होंने स्कूल-कांफ्रेंसों में, शिक्षकों हेतु विषय-चयन में तथा विद्यार्थियों के लिए पाठ्य सामग्री के सृजन में कविताओं का प्रचुरता से प्रयोग किया। आपके संबोधनों में काव्यात्मक उद्धरणों का यथास्थान-यथोचित प्रयोग होता था। इससे वे सामान्य जनों हेतु सहज ग्राह्य हो जाते थे। विषय सामग्री को शुष्क तथा नीरस होने से बचाने के लिए प्रयुक्त काव्यांश सहज स्मरणीय भी होते थे। फलत:, शिक्षक और विद्यार्थी दोनों की जुबान पर पाठ्य सामग्री का काव्य रूप सहज ही चढ़ जाता था।
अशिक्षित व अल्प शिक्षित जन विशेषकर कन्याएँ तथा महिलाएँ जिन्हें पढ़ाने का चलन कम था, सुन कर शिक्षा सामग्री स्मरण कर पातीं तथा समझ कर अन्यों को बता पातीं। सरस पाठ्य सामग्री ने शिक्षा प्रति सामान्य जान के मन में आकर्षण उत्पन्न किया और डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स को निर्धारित से पर्याप्त अधिक संख्या में विद्यालय आरम्भ करने और विद्यालयों में अपेक्षा से अधिक विद्यार्थी भर्ती कराने में सफलता मिली। डॉ. राय ने काव्यात्मक सामग्री का सम्यक प्रयोग कर कन्या विद्यालयों की स्थापना तथा कन्या छात्राओं के प्रवेश में भी आशातीत सफलता पायी। यहाँ तक की इन छात्राओं में से अनेक काव्य-रचना कर्म में भी प्रवीण हुईं। इन परिणामों से काव्य-सामग्री की उपादेयता व प्रासंगिकता के प्रीति सशंकित रहनेवाले महानुभावों को तो सबक मिला ही, अरबी-फ़ारसी मिश्रित हिंदी का प्रचलन कम हुआ और आधुनिक हिंदी को जड़ें जमने में सहायता मिली।
सागर की असाधारण सफलता देखकर सरकार ने हीरालाल जी को सन १८९६ में एजेंसी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स के पद पर रायपुर छत्तीसगढ़ पदस्थ किया। यहाँ कुछ क्षेत्र में उड़िया तथ अन्य आदिवासी भाषाएँ चलन में थीं। आपका भाषा तथा काव्य से लगाव इतना प्रगाढ़ था की अपने एक उड़िया स्कूल का निरीक्षण करने के पूर्व एक रात में उड़िया भाषा सीखी तथा कवितायें कण्ठस्थ कर लीं ताकि निरीक्षण के समय सुनकर जाँच सकें। आ व १८९९ के अकालों व १९०१ की जनगणना के कार्यों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को समर्पण भाव से निभाकर उच्चाधिकारियों से प्रशस्ति पाने के आबाद हीरालाल जी को सुपरिंटेंडेंट इथिनॉग्राफी (मनुष्य विज्ञानं) तथा गजेटियर तैयार करने का दायित्व सौंपा गया। आपने पुरातात्विक सामग्री शिलालेखों को तलाशा और पढ़ाजिनमें से अनेक काव्य में थे। सन १९११ - १२ में आपने मध्यप्रांत और बरार के शिला और ताम्र लेखों की वर्णनात्मक सूची' तैयार कर ख्याति पाई। इसके समानातर आपने भाषाओँ पर भी काम किया और १८ भाषाएँ (हिंदी, बुन्देली, बघेली, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, छत्तीसगढ़ी, उड़िया, मुड़िया, मारिया, कोरकू, गोंडी, परजा, हल्बी, गड़वा, कोलमी, नहली, निमाड़ी) सीखीं।
दमोह जिले का गजेटियर तैयार करते समय आपने पुरातत्व और प्रशासन जैसे शुष्क और नीरस विषयों की सामग्री प्रस्तुत करते समय स्वरचित दोहे तथा अन्य काव्य रचनाओं का प्रचुरता से प्रयोग किया। डॉ. राय ने सन १९१७ में प्रकाशित 'दमोह-दीपक' का श्री गणेश और समापन ही नहीं अधिकांश अध्यायों (वर्तिकाओं) का आरम्भ भी संस्कृत ग्रन्थों की परम्परानुसार दोहा छंद से किया है। प्रथम वर्तिका के आदि में अर्ध सम मात्रिक द्विपदीय पयोधर दोहा (१२ गुरु, २४ लघु) छंद से है जिसमें १३-११ पर यति का विधान है -
बरसत को कूरा जमो, घर भीतर अँधियार।
आलस तज अब देखिए, लै दीपक उजियार।। - मुखपृष्ठ
प्रथम वर्तिका के आरंभ में दमोह जिले की सीमा-वर्णन चौबीस मात्रिक नर दोहे (गुरु, १८ लघु) में होना डॉ. राय के काव्य-रचना-कौशल का परिचायक है-
पीठ ऊँटिया पूरबै, उत्तर बघमुख मूँछ।
पच्छिम को पग शूकरी, दक्खिन बाड़ी पूँछ।। - पृष्ठ १
द्वितीय वर्तिका के आरम्भ में दमोह का इतिहास तीस मात्रिक छंद में है जिसमें १५-१५ पर यति तथा चरणान्त में गुरु-लघु का विधान है -
आदि गुप्त कलचुरि पड़िहार। चंदेला गोहिल्ल निहार।।
तुगलक खिलजी गोंड मुगल्ल। बुंदेला मरहट्ठा दल्ल।।
डेढ़ सहस बरसें किय भोग। तब फिरंगि को आयो योग ।। - पृष्ठ ४
ऐतिहासिक जानकारियों के साथ यत्र-तत्र संस्कृत, उर्दू, बुन्देली के विविध ग्रन्थों से दिए गए पद्य-उद्धरण डॉ. राय के विषाद अध्ययन तथा गहन समझ का प्रमाण हैं। तृतीय वर्तिका के आरंभ में दमोह निवासी जातियों का परिचय देता नर दोहा दमोह जिले में दस जातियों की बहुलता बताता है -
चमरा, लोधी, गोंड़ अरु, कुर्मी, विप्र, अहीर।
काछी, ढीमर, बानिया, ठाकुर- दस की भीर।। - पृष्ठ ३१
चतुर्थ वर्तिका में दमोह जिले की कृषि, जंगल, तथा वन्य प्राणियों की जानकारी देने के लिए भी डॉ. राय ने पुनः एक पयोधर दोहा रचा है-
अर्ध माँहि कृषि, अर्ध में, है जंगल विस्तार।
नाहर, तिंदुवा, रीछ जहँ, मृग सँग करत विहार।। - पृष्ठ ४१
उद्योग-धंधे और व्यापार किसी स्थान और जन-जीवन की समृद्धि तथा विकास की रीढ़ की हड्डी होते हैं। दमोह-दीपक की पंचम वर्तिका में डॉ. राय बत्तीस मात्रिक चौपाई छंद जिसमें १६-१६ पर यति है, का प्रयोग कर इन जानकारी का संकेत करते हैं -
लाख अढ़ाइक नर अरु नारी। पालत जिव कर खेती-बारी।
लाखक करके उद्यम नाना। दौड़-धूप कर पावत खाना ।। - पृष्ठ ४७
आपद-विपदा जीवन का अभिन्न अंग हैं। षष्ठ वर्तिका में दमोहवासियों द्वारा झेली गयी प्रमुख विपदाओं का उल्लेख गयन्द दोहा (१३ गुरु, २२ लघु) छंद में है -
चार विपत व्यापी अधिक, ई दमोह के लोग।
ठग, भुमियावट, काल अरु, प्राणघातकी रोग।। - पृष्ठ ५३
शासन-प्रशासन की गतिविधियों पर केंद्रित सप्तम वर्तिका का शुभारम्भ डॉ. राय ने चौबीस मात्रिक सोरठा (११- १३ पर यति) छंद से किया है -
फौजदारि अरु माल, दीवानी सह तीन हैं।
शासन अंग विशाल, आज काल के समय में।।- पृष्ठ ६५
बत्तीस मात्रिक चौपाई छंद (१६-१६ पर यति) में अष्टम वर्तिका का आरंभ कर डॉ. राय दमोह जिले के प्रमुख कस्बों का उल्लेख करते हैं -
ज़ाहिर ठौर ज़िले बिच नाना। तिनको अब कछु सुनहु बखाना।
वर्णाक्षर के क्रम अनुसारा। कहब कथा कछु कर विस्तारा।। - पृष्ठ ७१
डॉ. राय ने दमोह दीपक का समापन बल (११ दूर, २६ लघु) दोहा छंद में किया है।
दम में निशितम देख के, अष्टवार्तिक दीप।
लेस सिरावत ताहि अब, समुझि प्रभात समीप।।
दमोह-दीपककार ने विषयवस्तु के अनुरूप काव्य पंक्तियों का प्रणयन कर जहाँ अपनी रचना-सामर्थ्य का परिचय दिया है वहीं पूर्ववर्ती तथा समकालिक कवियों की उपयुक्त काव्यपंक्तियों का उदारतापूर्वक उपयोग कर विषय को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। अन्य कवियों की कृतियों / रचनाओं से उद्धरण लेते समय उनके नामों का उल्लेख करने की सजगता और सौजन्यता डॉ. राय ने प्रदर्शित की है तथापि कहीं-कहीं अपवाद हैं जो सम्बंधित रचना के रचनाकार की जानकारी न मिल पाने के कारण हो सकती है।
द्वितीय वर्तिका के अंतर्गत जटाशंकर से प्राप्त लगभग १४ वीं सदी के राजस्थानी भाषा के लेख सारांश डॉ.राय ने प्रस्तुत किया है-
जो चित्तोड़ह जुझि (ज्झि) अउ, जिण ढिली (ल्ली) दलु जित्त।
सो सुपसंसहि रभहकइ हरिसराअ तिअ सुत्त।। - कच्छप दोहा (८ गुरु, ३२ लघु)
खेदिअ गुज (ज्ज) र गौदहइ, कीय अधि (धी) अं मार।
विजयसिंह किट संमलहु, पौरिस कह संसार।। - कच्छप दोहा (८ गुरु, ३२ लघु)
बटियागढ़ से प्राप्त संवत १३८५ (सन १३२८) के शिलालेख में तुगलकवंशीय महमूद संबंधी संस्कृत लेख के साथ डॉ. राय ने उसका हिंदी अनुवाद भी प्रस्तुत किया है -
अस्ति कलियुगे राजा शकेंद्रो वसुधाधिप:।
योगिनीपुरमास्थाय यो भुंक्ते सकलां महीम।।
सर्वसागरपर्यन्तं वशीचक्रे नराधिपान।
महमूद सुरत्राणों नाम्ना शूरोभिनन्दतु।। - पृष्ठ १३
कलियुग में पृथ्वी का मालिक शकेंद्र (मुसलमान राजा) है जो योगिनीपुर (दिल्ली) में रहकर तमाम पृथ्वी का भोग करता है और जिसने समुद्र पर्यन्त सब राजाओं को अपने वश भवन कर लिया है। उस शूरवीर दुल्तान महमूद का कल्याण हो।
इसी वर्तिका में आगे बुंदेला छत्रसाल का वर्णन करते हे डॉ. राय ने महाकवि भूषण लिखित पंक्तियाँ उद्धृत की हैं-
चाक चक चमूके अचाक चक चहूँ ओर,
चाक की फिरत धाक चम्पत के लाल की।
भूषण भनत पादसाही मारि जेर किन्ही,
काऊ उमराव ना करेरी करवाल की।।..... - पृष्ठ २४
सन १८५४ के तीसरे भीषण अकाल के वर्णन के बाद डॉ. राय ने गढ़ोला निवासी कवि भावसिंह लोधी रचित ४ पृष्ठीय कविता ज्यों की त्यों दी है जिसमें इस विपद एक दारुण वर्णन है। कुछ पंक्तियाँ देखें-
अगहन बरसे पूस में, भरी परै तुसार।
माहु दिनन में, गिरूआ करे पसार।।
गेहूं पिसी गवोटे आई। तब गिरूआ ने दइ पियराई।।
रचे पतउआ डाँड़ी लाल, पेड़ो रच गयो बच गई बाल।। ...पृष्ठ ५५ -५८
अंतिम वर्तिका में बाँसा कलाँ की जानकारी में लाल कवि कृत 'छत्रप्रकाश' से लंबा वर्णन प्रस्तुत किया गया है। कुछ पंक्तियों का आनंद लें -
दांगी केशोराइ तहां कौ। ज़ाहिर जोर मवासी बांकौ ।।
बाँचि बरात डारि उहि दीनी। तुरतै तमकि तेग कर लीन्हीं।।
फिरी बरात बुंदेला जानी। तब बाँसा पर फ़ौज पलानी ।।
ठिल्यौ बुँदेला बम्ब दै, बांसा घेरयो जाइ ।।
त्योंही सन्मुख रन पिल्यो, दांगी बड़ी बलाइ।। .... पृष्ठ ९४-९५
मोहना के लगभग ७०० वर्ष पुराने ध्वस्त प्रायः शिव मन्दिर की सुंदर मूर्तियों संबंधी लोक-प्रचलित काव्य-पंक्तियों का आनंद लें-
गणपति आठौ मातर:, ब्रम्हा शंभु रमेश।
नवगह तिनके बीच में, बाजू भैरव वेष।।
गंगा-जमुना देहरी, कीरतिमुख तल मांहिं।
मुहनामठ चौखट लिखे, इतने देव दिखाहिं।।
डॉ. राय रचित कोई स्वतन्त्र काव्य ग्रन्थ अथवा काव्य रचनाएँ न होने से उनके कवि होने में यह शंका हो सकती है अथवा यह प्रश्न किया जा सकता है कि दमोह दीपक में प्रयोग की गयी अन्य कवियों की पंक्तियों की तरह शेष पंक्तियाँ भी डॉ. राय रचित न हों। इस शंका का निराकरण सहज ही हो सकता है। दृष्टव्य है कि अपवाद छोड़कर डॉ. राय ने अन्य कवियों की पंक्तियों का उनका कृति का नाम देने की सजगता बरती है। अन्य कवियों के रचनाएँ किसी प्रसंग में उपयुक्त होने पर ही ली गयी हैं। कृति की रूपरेखा निर्धारण कर लिखी जाती समय अध्यायों की विषयवस्तु किसी अन्य को ज्ञात नहीं हो सकती, अत: किसी अन्य द्वारा अध्याय की परिचयात्मक पंक्तियाँ लिखी जाना संभव नहीं हो सकता। यदि लेखक ने विषयवस्तु की जानकारी देकर पंक्तियाँ लिखई होतीं तो वह रचनाकार के नाम का यथास्थान उल्लेख अवश्य करता। एक अन्य प्रमाण उद्धरणों की भाषा भी है। डॉ. राय द्वारा रचित पंक्तियों की भाषा उनके जीवनकाल में प्रचलित आधिनिक हिंदी का आरम्भिक रूप है और यह उनकी सभी पंक्तियों में एक सी है जबकि अन्य कवियों की पंक्तियों की भाषा डॉ. राय रचित पंक्तियों से सर्वथा भिन्न देशज या संस्कृतनिष्ठ या उर्दू मिश्रित है। डॉ. राय रचित स्वतंत्र काव्य कृति न होने का करण उनकी अतिशय व्यस्तता, बीमारी तथा प्रशासनिक दायित्व ही हो सकता है।
डॉ. राय रचित काव्य पंक्तियों से उनकी छंदशास्त्र संबंधी सामर्थ्य में किंचित भी सन्देह नहीं रहता। डॉ. राय ने दोहा, चौपाई और सोरठा छंदों का प्रयोग किया है। छंद-विधान ( संख्या, चरण संख्या, मात्रा संख्या, गति-यति, तुकांत नियम, लय, विराम चिन्ह आदि), भाषा शैली, सम्यक बिम्ब और प्रतीक आदि यह बताते हैं की डॉ. राय कुशल प्रशासक तथा ख्यात पुरातत्वविद होने के साथ-साथ कुशल तथा समर्थ कवि भी हैं. उनकी समस्त रचनाओं को एकत्र कर स्वतंत्र कृति प्रकाशित की जा सके तो डॉ. राय के व्यक्तित्व के अनछुए पहलू को सामने सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकेगी।
*****
सहायक ग्रन्थ-
१. हैहय क्षत्री मित्र, हीरालाल अंक, जनवरी-फरवरी १९३६ में प्रकाशित लेख।
२. दमोह-दीपक, - राह बहादुर हीरालाल राय, १९१७।
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गुरुवार, 12 अक्टूबर 2023

गीत, मुक्तिका, लघुकथा, बाल गीत, नर्मदा नामावली, बुंदेली, जिकड़ी, सोरठा, चाँद

मुक्तिका (बुंदेली)
*
कर धरती बर्बाद चाँद पै जा रओ है
चंदा डर सें पीरो, जे बर्रा रओ है

एक दूसरे की छाती पै फेंकें बम्म
लोग मरें, नेता-अफसर गर्रा रओ है

करे अमंगल धरती को मंगल जा रओ
नव ग्रह जालम आदम सें थर्रा रओ है

छुरा पीठ में भोंखें; गले मिलें जबरन
गिरगिट हेरे; हैरां हो सरमा रओ है

मैया कह रओ लूट-लूट खें धरती खों
चंदा मम्मा लूटन खों हुर्रा रओ है
***
सोरठे
चंद्रमुखी जी रूठ, जा बैठी हैं चाँद पर।
कहा न मैंने झूठ, तुम चंदा सी लग रहीं।।
चाँद
झुकें दिखा दें चाँद, निकला है  नभ पर नहीं।
तोड़ूँ व्रत निष्पाप, कहे चाँदनी चाँद से।।
प्रज्ञानिन जा चाँद, अर्ध्य धरा को दे रहा।
भागा कक्षा फाँद, विक्रम को आई हँसी।।
रोवर पढ़ता पाठ, कक्षा में कक्षा लगी।
लैंडर का है ठाठ, गोल मारकर घूमता।
१२-१०-२०२३
मुक्तिका

गम के बादल अंबर पर छाते जब भी
प्रियदर्शी को देख हवा हो जाते हैं
हुए गमजदा गम तो पाने छुटकारा
आँखों से झर मन का ताप मिटाते हैं
रखो हौसला होता है जब तिमिर घना
तब ही दिनकर-उषा सवेरा लाते हैं
तूफानों से नीड़ उजड़ जाए चाहे
पंछी आकर सरस प्रभाती गाते हैं
दिया शारदा ने वर गीतों का अनुपम
गम हरने वे मन-कुंडी खटकाते हैं
अमरकंटकी विष पीने की परंपरा
शब्दामृत पी विष को अमिय बनाते हैं
बे-गम हुई जिंदगी तो क्या जीतें हम
गम आ मिल मिट हमको जयी बनाते हैं
अंबर का विस्तार नहीं गम नाप सके
बारिश बन बह, भू को हरा बनाते हैं
१२-१०-२०१९
***
अभिनव प्रयोग:
प्रस्तुत है पहली बार खड़ी हिंदी में बृजांचल का लोक काव्य भजन जिकड़ी
जय हिंद लगा जयकारा
(इस छंद का रचना विधान बताइए)
*
भारत माँ की ध्वजा, तिरंगी कर ले तानी।
ब्रिटिश राज झुक गया, नियति अपनी पहचानी।। ​​​​​​​​​​​​​​
​अधरों पर मुस्कान।
गाँधी बैठे दूर पोंछते, जनता के आँसू हर प्रात।
गायब वीर सुभाष हो गए, कोई न माने नहीं रहे।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
रास बिहारी; चरण भगवती; अमर रहें दुर्गा भाभी।
बिन आजाद न पूर्ण लग रही, थी जनता को आज़ादी।।
नहरू, राजिंदर, पटेल को, जनगण हुआ सहारा
जय हिंद लगा जयकारा।।
हुआ विभाजन मातृभूमि का।
मार-काट होती थी भारी, लूट-पाट को कौन गिने।
पंजाबी, सिंधी, बंगाली, मर-मिट सपने नए बुने।।
संविधान ने नव आशा दी, सूरज नया निहारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
बनी योजना पाँच साल की।
हुई हिंद की भाषा हिंदी, बाँध बन रहे थे भारी।
उद्योगों की फसल उग रही, पञ्चशील की तैयारी।।
पाकी-चीनी छुरा पीठ में, भोंकें; सोचें: मारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
पल-पल जगती रहती सेना।
बना बांग्ला देश, कारगिल, कहता शौर्य-कहानी।
है न शेष बासठ का भारत, उलझ न कर नादानी।।
शशि-मंगल जा पहुँचा इसरो, गर्वित हिंद हमारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
सर्व धर्म समभाव न भूले।
जग-कुटुंब हमने माना पर, हर आतंकी मारेंगे।
जयचंदों की खैर न होगी, गाड़-गाड़कर तारेंगे।।
आर्यावर्त बने फिर भारत, 'सलिल' मंत्र उच्चारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
६.७.२०१८
***
बाल गीत:
लंगडी खेलें.....
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************
मुक्तक:
शीत है तो प्रीत भी है.
हार है तो जीत भी है.
पुरातन पाखंड हैं तो-
सनातन शुभ रीत भी है
***
छंद में ही सवाल करते हो
छंद का क्यों बवाल करते हो?
है जगत दन्द-फन्द में उलझा
छंद देकर निहाल करते हो
१२-१०-२०१७
***
दोहा सलिला
*
हर सिक्के में हैं सलिल, चित-पट दोनों साथ
बिना पैर के मंज़िलें, कैसे पाए हाथ
*
पुत्र जन्म हित कर दिया, पुत्री को ही दान
फिर कैसे हम कह रहे?, है रघुवंश महान?
*
सत्ता के टकराव से, जुड़ा धर्म का नाम
गलत न पूरा दशानन, सही न पूरे राम
*
मार रहे जो दशानन , खुद करते अपराध
सीता को वन भेजते, सत्ता के हित साध
*
कैसी मर्यादा? कहें, कैसा यह आदर्श?
बेबस को वन भेजकर, चाहा निज उत्कर्ष
*
मार दिया शम्बूक को, अगर पढ़ लिया वेद
कैसा है दैवत्व यह, नहीं गलत का खेद
१२-१०-२०१६
***
लघुकथा
स्वजन तन्त्र
*
राजनीति विज्ञान के शिक्षक ने जनतंत्र की परिभाषा तथा विशेषताएँ बताने के बाद भारत को विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र बताया तो एक छात्र से रहा नहीं गया। उसने अपनी असहमति दर्ज करते हुए कहा- ' गुरु जी! भारत में जनतंत्र नहीं स्वजन तंत्र है।
"किताब में ऐसे किसी तंत्र का नाम नहीं है" - गुरु जी बोले।
"कैसे होगा? यह हमारी अपनी खोज है और भारत में की गयी खोज को किताबों में इतनी जल्दी जगह मिल ही नहीं सकती। यह हमारे शिक्षा के पाठ्य क्रम में भी नहीं है लेकिन हमारी ज़िन्दगी के पाठ्य क्रम का पहला अध्याय यही है जिसे पढ़े बिना आगे का कोई पाठ नहीं पढ़ा जा सकता।" छात्र ने कहा।
"यह स्वजन तंत्र होता क्या है? यह तो बताओ" - सहपाठियों ने पूछा।
"स्वजन तंत्र एसा तंत्र है जहाँ चंद चमचे इकट्ठे होकर कुर्सी पर लदे नेता के हर सही-ग़लत फैसले को ठीक बताने के साथ-साथ उसके वंशजों को कुर्सी का वारिस बताने और बनाने की होड़ में जी-जान लगा देते हैं। जहाँ नेता अपने चमचों को वफादारी का ईनाम और सुख-सुविधा देने के लिए विशेष प्राधिकरणों का गठन कर भारी धन राशि, कार्यालय, वाहन आदि उपलब्ध कराते हैं जिनका वेतन, भत्ता, स्थापना व्यय तथा भ्रष्टाचार का बोझ झेलने के लिये आम आदमी को कानून की आड़ में मजबूर कर दिया जाता है। इन प्राधिकरणों में मनोनीत किये गये चमचों को आम आदमी के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं होता पर वे जन प्रतिनिधि कहलाते हैं। वे हर काम का ऊँचे से ऊँचा दाम वसूलना अपना हक मानते हैं और प्रशासनिक अधिकारी उन्हें यह सब कराने के उपाय बताते हैं।"
"लेकिन यह तो बहुत बड़ी परिभाषा है, याद कैसे रहेगी?" छात्र नेता के चमचे ने परेशानी बताई।
"चिंता मत कर। सिर्फ़ इतना याद रख जहाँ नेता अपने स्वजनों और स्वजन अपने नेता का हित साधन उचित-अनुचित का विचार किए बिना करते हैं और जनमत, जनहित, देशहित जैसी भ्रामक बातों की परवाह नहीं करते वही स्वजन तंत्र है लेकिन किताबों में इसे जनतंत्र लिखकर आम आदमी को ठगा जाता है ताकि वह बदलाव की माँग न करे।"
गुरु जी अवाक् होकर राजनीति के व्यावहारिक स्वरूप का ज्ञान पाकर धन्य हो रहे थे।
१२-१०-२०१५
***
नर्मदा नामावली
*
पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा.
शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा.
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला.
अमरकंटी शांकरी शुभ शर्मदा.
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी.
जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा.
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी.
कमलनयनी जगज्जननि हर्म्यदा.
शाशिसुता रौद्रा विनोदिनी नीरजा.
मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौंदर्यदा.
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा.
नेत्रवर्धिनि पापहारिणी धर्मदा.
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा.
रूपदा सौदामिनी सुख-सौख्यदा.
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला.
नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा.
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना.
विपाशा मन्दाकिनी चित्रोंत्पला.
रुद्रदेहा अनुसूया पय-अंबुजा.
सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा.
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा.
शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा.
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया.
वायुवाहिनी कामिनी आनंददा.
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना.
नंदना नाम्माडिअस भव मुक्तिदा.
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा.
विपथगा विदशा सुकन्या भूषिता.
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता.
मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा.
रतिमयी उन्मादिनी वैराग्यदा.
यतिमयी भवत्यागिनी शिववीर्यदा.
दिव्यरूपा तारिणी भयहांरिणी.
महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा.
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा.
कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा.
तारिणी वरदायिनी नीलोत्पला.
क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा.
साधना संजीवनी सुख-शांतिदा.
सलिल-इष्ट माँ भवानी नरमदा.
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मुक्तिका
मुस्कान
*
जिस चहरे पर हो मुस्कान १५
वह लगता मितवा रस-खान..
अधर हँसें तो लगता है- १४
हैं रस-लीन किशन भगवान..
आँखें हँसती तो दिखते -
उनमें छिपे राम गुणवान..
उमा, रमा, शारदा लगें
रस-निधि रही नहीं अनजान..
'सलिल' रस कलश जन जीवन
सुख देकर बन जा इंसान..
***
लघु कथा
समय का फेर
गुरु जी शिष्य को पढ़ना-लिखना सिखाते परेशां हो गए तो खीझकर मारते हुए बोले- ' तेरी तकदीर में तालीम है ही नहीं तो क्या करुँ? तू मेरा और अपना दोनों का समय बरबाद कार रहा है. जा भाग जा, इतने समय में कुछ और सीखेगा तो कमा खायेगा.'
गुरु जी नाराज तो रोज ही होते थे लेकिन उस दिन चेले के मन को चोट लग गयी. उसने विद्यालय आना बंद कर दिया, सोचा: 'आज भगा रहे हैं. ठीक है भगा दीजिये, लेकिन मैं एक दिन फ़िर आऊंगा... जरूर आऊंगा.'
गुरु जी कुछ दिन दुखी रहे कि व्यर्थ ही नाराज हुए, न होते तो वह आता ही रहता और कुछ न कुछ सीखता भी. धीरे-धीरे गुरु जी वह घटना भूल गए.
कुछ साल बाद गुरूजी एक अवसर पर विद्यालय में पधारे अतिथि का स्वागत कर रहे थे. तभी अतिथि ने पूछा- 'आपने पहचाना मुझे?'
गुरु जी ने दिमाग पर जोर डाला तो चेहरा और घटना दोनों याद आ गयी किंतु कुछ न कहकर चुप ही रहे.
गुरु जी को चुप देखकर अतिथि ही बोला- 'आपने ठीक पहचाना. मैं वही हूँ. सच ही मेरे भाग्य में विद्या पाना नहीं है, आपने ठीक कहा था किंतु विद्या देनेवालों का भाग्य बनाना मेरे भाग्य में है यह आपने नहीं बताया था.'
गुरु जी अवाक् होकर देख रहे थे समय का फेर.
१२-१०-२०१४
***
मुक्तक
मत कहो घर में महज मेहमान हैं ये बेटियाँ
मान-मर्यादा मृदुल मुस्कान हैं ये बेटियाँ
मोह, ममता, नाज़-नखरे, अदा भी, अंदाज़ भी-
मौन की आवाज़ हैं, अरमान हैं ये बेटियाँ
१२-१०-२०१३
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बालगीत
(लोस एंजिल्स अमेरिका से अपनी मम्मी रानी विशाल सहित ददिहाल-ननिहाल भारत आई नन्हीं अनुष्का के लिए २०१० में रचा गया था यह गीत)
*
लो भारत में आई अनुष्का.
सबके दिल पर छाई अनुष्का.
यह परियों की शहजादी है.
खुशियाँ अनगिन लाई अनुष्का..
है नन्हीं, हौसले बड़े हैं.
कलियों सी मुस्काई अनुष्का..
दादा-दादी, नाना-नानी,
मामा के मन भाई अनुष्का..
सबसे मिल मम्मी क्यों रोती?
सोचे, समझ न पाई अनुष्का..
सात समंदर दूरी कितनी?
कर फैला मुस्काई अनुष्का..
जो मन भाये वही करेगी.
रोको, हुई रुलाई अनुष्का..
मम्मी दौड़ी, पकड़- चुपाऊँ.
हाथ न लेकिन आई अनुष्का..
ठेंगा दिखा दूर से हँस दी .
मन भरमा भरमाई अनुष्का..
***


गीत:

सहज हो ले रे अरे मन !

*

मत विगत को सच समझ रे.

फिर न आगत से उलझ रे.

झूमकर ले आज को जी-

स्वप्न सच करले सुलझ रे.

प्रश्न मत कर, कौन बूझे?

उत्तरों से कौन जूझे?

भुलाकर संदेह, कर-

विश्वास का नित आचमन.

सहज हो ले रे अरे मन !

*

उत्तरों का क्या करेगा?

अनुत्तर पथ तू वरेगा?

फूल-फलकर जब झुकेगा-

धरा से मिलने झरेगा.

बने मिटकर, मिटे बनकर.

तने झुककर, झुके तनकर.

तितलियाँ-कलियाँ हँसे,

ऋतुराज का हो आगमन.

सहज हो ले रे अरे मन !

*

स्वेद-सीकर से नहा ले.

सरलता सलिला बहा ले.

दिखावे के वसन मैले-

धो-सुखा, फैला-तहा ले.

जो पराया वही अपना.

सच दिखे जो वही सपना.

फेंक नपना जड़ जगत का-

चित करे सत आकलन.

सहज हो ले रे अरे मन !

*

सारिका-शुक श्वास-आसें.

देह पिंजरा घेर-फांसे.

गेह है यह नहीं तेरा-

नेह-नाते मधुर झाँसे.

भग्न मंदिर का पुजारी

आरती-पूजा बिसारी.

भारती के चरण धो, कर

निज नियति का आसवन.

सहज हो ले रे अरे मन !

*

कैक्टस सी मान्यताएँ.

शूल कलियों को चुभाएँ.

फूल भरते मौन आहें-

तितलियाँ नाचें-लुभाएँ.

चेतना तेरी न हुलसी.

क्यों न कर ले माल-तुलसी?

व्याल मस्तक पर तिलक है-

काल का है आ-गमन.

सहज हो ले रे अरे मन !

१२-१०-२०१०

***

बुधवार, 11 अक्टूबर 2023

हाइकु

 हाइकु

*
चंद्र विजय
वामन से विराट
होने की कथा।
*
भारत बना
प्रगति का पर्याय
चंद्र पर जा।
*
इसरो लिखे
नवल इतिहास
पुरुषार्थ का।
*
त्रुटिविहीन
तकनीक व शिल्प
अनुकरणीय।
*
हुईं निराश
चंद्र मुख निरख
चंद्रमुखियाँ।
*
चढ़ाया जल
चंद्र पर सदियों
खोजे प्रज्ञान।
*
मून पर जा
मनाएँ हनीमून
रईसजादे।
*
चंद्र बिसार
भू का कर मंगल
छोड़ दंगल।
*
बन सकते
कंकर से शंकर
प्रयास कर।
*
बिंदु मिलते
बन रेखा गढ़ते
शत आकार।
*
सुमन गंध
करती सुवासित
सारा जगत
*
वीणा के तार
चोट खाकर भी
गुनगुनाते।
*
गले लगाओ
विपदा के मारों को
पीड़ा कम हो।
*
११.१०.२०२३