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मंगलवार, 19 सितंबर 2023

हिंदी, साधना, नवगीत, बाल गीत, निशा तिवारी, आचार्य धर्मेंद्र,


महाप्रस्थान : आचार्य धर्मेंद्र

विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल में शामिल रहे, राम मंदिर आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभानेवाले हिंदू नेता व संत आचार्य धर्मेंद्र का आज निधन हो गया है। उन्होंने जयपुर के एसएमएस हॉस्पिटल के आईसीयू में इलाज के दौरान अंतिम सांस ली। गौरतलब है कि बीते एक माह से खराब स्वास्थ्य के कारण जयपुर के इस अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। आचार्य धर्मंद्र आंत की बीमारी से पीड़ित थे।
श्रीपंचखण्ड पीठाधीश्वर आचार्य स्वामी धर्मेंद्र महाराज सनातन धर्म के अद्वितीय व्याख्याकार, प्रखर वक्ता और ओजस्वी वाणी के रामानंदी संत थे। हुतात्मा रामचन्द्र शर्मा 'वीर' महाराज के पुत्र आचार्य धर्मेंद्र ने राम मंदिर आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई थी। आचार्य के पिता महात्मा रामचन्द्र वीर ने लगातार अनशन करके स्वयं को नरकंकाल जैसा बनाकर अनशनों के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। उन्होंने शपथ ली थी की जब तक लाहौर से ढाका तक अखंड हिन्दू राष्ट्र स्थापित नहीं होगा वे अन्न और लवण (नमक) का सेवन नहीं करेंगे और इस शपथ का आजीवन पालन किया। हिन्दू मंदिरों में गौ हत्या और पशुबलि बंद करने के लिए महात्मा वीर ने पूरे भारत में अनशन किए। वे पशुओं के स्थान पर खुद को बलि हेतु प्रस्तुत कर कहते थे कि माँ (काली) यदि संतान की बलि से प्रसन्न होती है तो पशु क्यों मेंरी बलि दो। आचार्य धर्मेंद्र अपने पिता के साथ बचपन से ऐसे आंदोलनों का हिस्सा रहे। आचार्य धर्मेंद्र ने अपनी कैशोर्यावस्था में ही वज्रांग वंदना और गौशाला जैसी उत्कृष्ट कृतियों की रचना की थी। १९५८-५९ में मेरे पिताश्री राजबहादुर वर्मा जी छिंदवाड़ा में जेलर थे। तब हुतात्मा स्वामी रामचंद्र शर्मा 'वीर' ने गौ हत्या के विरुद्ध अनशन किया था और उन्हें गिरफ्तार कर जेल में रखा गया था। उनके साथ किशोर धर्मेंद्र भी थे। स्वामी जी नैष्ठिक और दृश्य संकल्पित संत थे। उनका आहार आदि पूरी तरह सात्विक था। जेल में उन्हें पूजन सामग्री और आहार सुलभ करने का पिताश्री पूरी तरह ध्यान रखते थे। कभी-कभी घर से भी भिजवा दिया करते थे। स्वामी जी ने उन्हें अपनी पुस्तकें विकट यात्रा, विजय पताका, हिन्दू नारी तथा धर्मेंद्र जी रचित गोशाला भेंट की थी, जो मेरे पास अब तक सुरक्षित है। वज्रांग वंदना कहीं खो गई।
आचार्य धर्मेन्द्र का पहली धर्म संसद अप्रैल १९८४ में विश्व हिन्दू परिषद् की ओर से धर्म संसद में राम जन्मभूमि के द्वार से ताला खुलवाने के लिए जनजागरण यात्राएँ करने का प्रस्ताव पारित करने और राम जानकी रथ यात्रा और विश्व हिन्दू परिषद की ओर से अक्तूबर १९८४ में जनजागरण के लिए की गई सीतामढ़ी से दिल्ली तक राम जानकी रथ यात्रा में अहम योगदान रहा। आचार्य धर्मेंद्र ने जयपुर के तीर्थ विराट नगर के पार्श्व पवित्र वाणगंगा के तट पर मैड गाँव में अपना जीवन व्यतीत किया। गृहस्थ होते हुए भी उन्हें साधु-संतों के समान आदर और सम्मान प्राप्त था।
जगद्गुरु शंकराचार्य निरंजनदेव तीर्थ ने ७२ दिन,संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने ६५ दिन आचार्य धर्मेन्द्र ने ५२ दिन और जैन मुनि सुशील कुमार ने ४ दिन अनशन किया। आन्दोलन में पहली महिला सत्याग्रह का नेतृत्व प्रतिभा धर्मेन्द्र ने किया और अपने तीन शिशुओ के साथ जेल गई। साथ ही विश्व हिंदू परिषद से लंबे समय तक जुड़े रहने के दौरान चर्चा में रहे थे। वे राममंदिर मुद्दे पर बड़ी ही बेबाकी से बोलते थे। बाबरी विध्वंस मामले में जब फैसला आने वाला था तब आचार्य धर्मेंद्र ने कहा था कि मैं आरोपी नंबर वन हूं। सजा से डरना क्या? जो किया सबके सामने किया। आचार्य का जन्म ९ जनवरी १९४२ को गुजरात के मालवाडा में हुआ। बाबरी विध्वंस मामले में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती सहित आचार्य धर्मेंद्र को भी आरोपी माना गया था।
आचार्य धर्मेंद्र के परिवार में दो पुत्र सोमेन्द्र शर्मा और प्रणवेन्द्र शर्मा है। सोमेन्द्र की पत्नी और आचार्य की पुत्रवधू अर्चना शर्मा वर्तमान में गहलोत सरकार में समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष हैं। राजस्थान के विराटनगर में उनका मठ और पावनधाम आश्रम है, जहां उनका विधी-विधान पूर्वक उनके शिष्यों और अनुयायियों के बीच अंतिम संस्कार किया जाएगा।
बाल गीत
पानी दो, अब पानी दो
मौला धरती धानी दो, पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गयी
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो, पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हरषे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो, पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो, पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो, पानी दो... *
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो, पानी दो...
१९-९-२०१७ *
***
पुस्तक चर्चा -
वर्तमान युग का नया चेहरा: 'काल है संक्रांति का'
समीक्षक: डॉ. निशा तिवारी
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१२४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
*
'काल है संक्रांति का' संजीव वर्मा 'सलिल' का २०१६ में प्रकाशित नवीन काव्य संग्रह है। वे पेशे से अभियंता रहे हैं। किन्तु उनकी सर्जक प्रतिभा उर्वर रही है। सर्जना कभी किसी अनुशासन में आबद्ध नहीं रह सकती। सर्जक की अंत:प्रज्ञा (भारतीय काव्य शास्त्र में 'प्रतिभा' काव्य शास्त्र हेतु), संवेदनशीलता, भावाकुलता और कल्पना किसी विशिष्ट अनुशासन में बद्ध न होकर उन्मुक्त उड़ान भरती हुई कविता में निःसृत होती है। यही 'सलिल जी' की सर्जन-धर्मिता है। यद्यपि उनके मूल अनुशासन का प्रतिबिम्ब भी कहीं-कहीं झलककर कविता को एक नया ही रूप प्रदान करता है। भौतिकी की 'नैनो-पीको' सिद्धांतिकी जिस सूक्ष्मता से समूह-क्रिया को संपादित करती है, वह सलिल जी के गीतों में दिखाई देती है। उत्तर आधुनिक वैचारिकी के अन्तर्गत जिस झंडी-खण्ड चेतना का रूपायन सम-सामयिक साहित्य में हो रहा है वही चिन्तना सलिल जी के गीतों में सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, साहित्यिक विसंगतियों के रूप में ढलकर आई है- रचनाकार की दृष्टि में यही संक्रांति का काल है। संप्रति नवलेखन में 'काल' नहीं वरन 'स्पेस' को प्रमुखता मिली है।
शब्दों की परंपरा अथवा उसके इतिहास के बदले व्यंजकों के स्थगन की परिपाटी चल पड़ी है। सलिल जी भी कतिपय गीतों में पुराने व्यंजकों को विखण्डित कर नए व्यंजकों की तलाश करते हैं। उनका सबसे प्रिय 'व्यंजक' सूर्य है। उनहोंने सूर्य के 'आलोक' के परंपरागत अर्थ 'जागरण' को ग्रहण करते हुए भी उसे नए व्यंजक का रूप प्रदान किया है। 'उठो सूरज' गीत में उसे साँझ के लौटने के संदर्भ में 'झुको सूरज! विदा देकर / हम करें स्वागत तुम्हारा' तथा 'हँसों सूर्य भाता है / खेकर अच्छे दिन', 'आओ भी सूरज! / छँट गए हैं फुट के बदल / पतंगें एकता की मिल उड़ाओ। / गाओ भी सूरज!', 'सूरज बबुआ! / चल स्कूल। ', 'हनु हुआ घायल मगर / वरदान तुमने दिए सूरज!', 'खों-खों करते / बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी' इत्यादि व्यंजक सूरज को नव्यता प्रदान करते हैं, यद्यपि कवि का परंपरागत मन सूरज को 'तिमिर-विनाशक' के रूप में ही ग्रहण करता है।
कवि का परंपरागत मन अपने गीतों में शास्त्रीय लक्षण ग्रन्थों के मंगलाचरण के अभियोजन को भी विस्मृत नहीं कर पाता। मंगलाचरण के रूप में वह सर्वप्रथम हिंदी जाति की उपजाति 'कायसिहों' के आराध्य 'चित्रगुप्त जी' की वंदना करता है। यों भी चित्रगुप्त जी मनुष्य जाति के कर्मों का लेखा-जोखा रखनेवाले देवता हैं। ऐसा माना जाता है कि उत्तर आधुनिक युग में धर्मनिरपेक्षता का तत्व प्रबल है- कवि की इस वन्दना में चित्रगुप्त जी को शिव, ब्रम्हा, कृष्ण, पैग़ंबर, ईसा, गुरु नानक इत्यादि विभिन्न धर्मों के ईश्वर का रूप देकर सर्वधर्म समभाव का परिचय दिया गया है। चित्रगुप्त जी की वन्दना में भी कवि का प्रिय व्यंजक सूर्य उभरकर आया है - 'तिमिर मिटाने / अरुणागत हम / द्वार तिहरे आए।'
कला-साहित्य की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की अभ्यर्थना में कवि ने एक नवीन व्यंजना करते हुए ज्ञान-विज्ञान-संगीत के अतिरिक्त काव्यशास्त्र के समस्त उपादानों की याचना की है और सरस्वती माँ की कृपा प्राप्त प्राप्त करने हेतु एक नए और प्रासंगिक व्यंजक की कल्पना की है- 'हिंदी हो भावी जगवाणी / जय-जय वीणापाणी।' विश्वभाषा के रूप में हिंदी भाषा की यह कल्पना हिंदी भाषा के प्रति अपूर्व सम्मान की द्योतक है।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक मांगलिक कार्य के पूर्व अपने पुरखों का आशिर्वाद लिया जाता है। पितृ पक्ष में तो पितरों के तर्पण द्वारा उनके प्रति श्रद्धा प्रगट की जाती है। गीत-सृजन को अत्यंत शुभ एवं मांगलिक कर्म मानते हुए कवि ने पुरखों के प्रति यही श्रद्धा व्यक्त की है। इस श्रद्धा भाव में भी एक नवीन संयोजन है- 'गीत, अगीत, प्रगीत न जानें / अशुभ भुला, शुभ को पहचानें / मिटा दूरियाँ, गले लगाना / नव रचनाकारों को ठानें कलश नहीं, आधार बन सकें / भू हो हिंदी-धाम। / सुमिर लें पुरखों को हम / आओ! करें प्रणाम।' कवि अपनी सीमाओं को पहचानता है, सर्जना का दंभ उसमें नहीं है और न ही कोई दैन्य है। वह तो पुरखों का आशीर्वाद प्राप्त कर केवल हिंदी को विश्व भाषा बनाने का स्वप्न पूरा करना चाहता है। यदि चित्रगुप्त भगवान की, देवी सरस्वती की और पुरखों की कृपा रही तो हिंदी राष्ट्रभाषा तो क्या, विश्व भाषा बनकर रहेगी। सलिल जी के निज भाषा-प्रेम उनके मंगलाचरण अथवा अभ्यर्थना का चरम परिपाक है।
उनकी समर्पण कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि उनहोंने उसमें रक्षाबन्धन पर्व की एक सामान्यीकृत अभिव्यंजना की है। बहिनों के प्रत्येक नाम संज्ञा से विशेषण में परिवर्तित हो गए हैं और रक्षासूत्र बाँधने की प्रत्येक प्रक्रिया, आशाओं का मधुवन बन गयी है। मनुष्य और प्रकृति का यह एकीकरण पर्यावरणीय सौंदर्य को इंगित करता है। 'उठो पाखी' कविता में भी राखी बाँधने की प्रक्रिया प्रकृति से तदाकार हो गयी है।
कविता मात्र वैयक्तिक भावोद्गार नहीं है, उसका सामाजिक सरोकार भी होता है। कभी-कभी कवि की चेतना सामाजिक विसंगति से पीड़ित और क्षुब्ध होकर सामाजिक हस्तक्षेपभी करती है। श्री कान्त वर्मा ने आलोचना को 'सामाजिक हस्तक्षेप' कहा है। मेरी दृष्टि में कविता भी यदा-कदा सामाजिक हस्तक्षेप हुआ करती है। प्रतिबद्ध कवि में तो यह हस्तक्षेप निरन्तर बना रहता है। कवि सलिल ने राजनैतिक गुटबाजी, नेताओं अफसरों की अर्थ-लोलुपता, पेशावर के न्र पिशाचों की दहशतगर्दी, आतंकवाद का घिनौना कृत्य, पाक की नापाकी, लोकतंत्र का स्वार्थतंत्र में परिवर्तन, अत्याचार और अनाचार के प्रति जनता का मौन,नेताओं की गैर जिम्मेदारी, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी राजनीतिक कुतंत्र में वास्तविक आज़ादी प्राप्त न कर पाना इत्यादि कुचक्रों पर गीत लिखकर अपनी कृति को 'काल है संक्रांति का' नाम दिया है। वास्तव में देश की ये विसंगतियाँ संक्रमण को सार्थक बनाती हैं किन्तु उनके गीत 'संक्रांति काल है' -में संक्रांति का संकेत भर है तथा उससे निबटने के लिए कवी ने प्रेरित भी किया है। यों भी छोटे से गीत के लघु कलेवर में विसंगति के विस्तार को वाणी नहीं दी जा सकती। कवि तो विशालता में से एक चरम और मार्मिक क्षण को ही चुनता है। सलिल ने भी इस कविता में एक प्रभावी क्षण को चुना है। वह क्षण प्रभावोत्पादक है या नहीं, उसकी चिंता वे नहीं करते। वे प्रतिबद्ध कवु न होकर भी एक सजग औए सचेत कवि हैं।
सलिल जी ने काव्य की अपनी इस विधा को गीत-नवगीत कहा है। एक समय निराला ने छंदात्मक रचना के प्रति विद्रोह करते हुए मुक्त छंद की वकालत की थी लेकिन उनका मुक्त छंद लय और प्रवाह से एक मनोरम गीत-सृष्टि करता था। संप्रति कविताएँ मुक्त छंद में लिखी जा रही हैं किन्तु उनमें वह लयात्मकता नहीं है जो जो उसे संगीतात्मक बना सके। ऐसी कवितायेँ बमुश्किल कण्ठस्थ होती हैं। सलिल जी ने वर्तमान लीक से हटकर छंदात्मक गीत लिखे हैं तथा सुविधा के लिए टीप में उन छंदों के नाम भी बताए हैं। यह टीप रचनाकार की दृष्टि से भले ही औचित्यपूर्ण न हो किन्तु पाठक-समीक्षक के लिए सुगम अवश्य है। 'हरिगीतिका' उनका प्रिय छंद है।
सलिल जी ने कतिपय अभिनव प्रयोग भी किये हैं। कुछ गीत उनहोंने बुन्देली भाषा में लिखे हैं। जैसे- 'जब लौं आग' (ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज पर), मिलती कांय नें (ईसुरी की चौकड़िया फाग पर आधारित) इत्यादि तथा पंजाबी एवं सोहर लोकगीत की तर्ज पर गीत लिखकर नवीन प्रयोग किये हैं।
कवि संक्रांति-काल से भयभीत नहीं है। वह नया इतिहास लिखना चाहता है- 'कठिनाई में / संकल्पों का / नव है लिखें हम / आज नया इतिहास लिखें हम।'' साथ ही संघर्षों से घबराकर वह पलायन नहीं करता वरन संघर्ष के लिए प्रेरित करता है- 'पेशावर में जब एक विद्यालय के विद्यार्थियों को आतंकवादियों ने गोलियों से भून दिया था तो उसकी मर्मान्तक पीड़ा कवि को अंतस तक मठ गई थी किंतु इस पीड़ा से कवि जड़ीभूत नहीं हुआ। उसमें एक अद्भुत शक्ति जाग्रत हुई और कवि हुंकार उठा-
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उदा दूँगा।
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा।
मैं लिखूँगा।
मैं लड़ूँगा।।
*
संपर्क समीक्षा: डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टँकी के सामने, जबलपुर ४८२००१
चलभाष; ९४२५३८६२३४, दूरलेख: pawanknisha@gmail.com
***
नव गीत
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
लोकतंत्र का अजब तकाज़ा
दुनिया देखे ठठा तमाशा
अपना हाथ
गाल भी अपना
जमकर मारें खुदी तमाचा
आज़ादी कुछ भी कहने की?
हुए विधाता वाम जी!
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
जन का निर्णय पचा न पाते
संसद में बैठे गुर्राते
न्यायालय का
कहा न मानें
झूठे, प्रगतिशील कहलाते
'ख़ास' बुद्धिजीवी पथ भूले
इन्हें न कहना 'आम' जी
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
*
कहाँ मानते हैं बातों से
कहो, देवता जो लातों के?
जैसे प्रभु
वैसी हो पूजा
उत्तर दो सब आघातों के
अवसर एक न पाएं वे
जो करें देश बदनाम जी
बम भोले! मत बोलो भाई
मत कहना जय राम जी!!
***
गीत -
हम
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
*
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
*
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
*
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
*
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
*
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
*
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
*
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
जय हिंद
जय भारत
वन्दे मातरम्
भारत माता की जय
१९-९-२०१६
***
डॉ. साधना वर्मा की जन्म तिथि १२ सितंबर पर :
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
*
जो भी चाहे अंतर्मन,
पाने का नित करो जतन.
विनय दैव से है इतनी-
मिलें सफलताएँ अनगिन..
जीवन-पथ पर पग निर्भय हो,
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
*
अधरों पर सोहे मुस्कान.
पाओ सब जग से सम्मान.
शतजीवी हो, स्वस्थ्य रहो-
पूरा हो मन का अरमान..
श्वास-श्वास सरगम सुरमय हो
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
*
मिले कीर्ति, यश, अभिनन्दन,
मस्तक पर रोली-चन्दन.
घर-आँगन में खुशियाँ हों-
स्नेहिल नातों का वन्दन..
आस-हास की निधि अक्षय हो,
वर्षगाँठ यह मंगलमय हो...
***
नवगीत:
मेघ बजे
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे, बिजुरिया बिना लजे...
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
*
पल्लव की करताल,
बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये,
मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
टप-टप टपके टीन,
चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!,
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली अभियंता को.
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
***
बाल गीत:
लंगडी खेलें.....
**
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
***
गीत:
मनुज से...
*
न आये यहाँ हम बुलाये गये हैं.
तुम्हारे ही हाथों बनाये गये हैं.
ये सच है कि निर्मम हैं, बेजान हैं हम,
कलेजे से तुमको लगाये गये हैं.
नहीं हमने काटा कभी कोई जंगल
तुम्हीं कर रहे थे धरा का अमंगल.
तुमने ही खोदे थे पर्वत और टीले-
तुम्हीं ने किया पाट तालाब दंगल..
तुम्हीं ने बनाये ये कल-कारखाने.
तुम्हीं जुट गये थे भवन निज बनाने.
तुम्हारी हवस का न है अंत लोगों-
छोड़ा न अवसर लगे जब भुनाने..
कोयल की छोड़ो, न कागा को छोड़ा.
कलियों के संग फूल कांटा भी तोड़ा.
तुलसी को तज, कैक्टस शत उगाये-
चुभे आज काँटे हुआ दर्द थोड़ा..
मलिन नेह की नर्मदा तुमने की है.
अहम् के वहम की सुरा तुमने पी है.
न सम्हले अगर तो मिटोगे ये सुन लो-
घुटन, फ़िक्र खुद को तुम्हीं ने तो दी है..
हूँ रचना तुम्हारी, तुम्हें जानती हूँ.
बचाऊँगी तुमको ये हाथ ठानती हूँ.
हो जैसे भी मेरे हो, मेरे रहोगे-
इरादे तुम्हारे मैं पहचानती हूँ..
नियति का इशारा समझना ही होगा.
प्रकृति के मुताबिक ही चलना भी होगा.
मुझे दोष देते हो नादां हो तुम-
गिरे हो तो उठकर सम्हलना भी होगा..
ये कोंक्रीटी जंगल न ज्यादा उगाओ.
धरा-पुत्र थे, फिर धरा-सुत कहाओ..
धरती को सींचो, पुनः वन उगाओ-
'सलिल'-धार संग फिर हँसो-मुस्कुराओ..
नहीं है पराया कोई, सब हैं अपने.
अगर मान पाये, हों साकार सपने.
बिना स्वर्गवासी हुए स्वर्ग पाओ-
न मंगल पे जा, भू का मंगल मनाओ..
***
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
*क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
भू की बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
***
नवगीत:
अपना हर पल
है हिन्दीमय
*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
*
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
*
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...
१९-९-२०१०
***

रविवार, 17 सितंबर 2023

महाकाव्य तुलसी - सुनीता सिंह

पुरोवाक्
महाकाव्य तुलसी - सुनीता सिंह
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
विश्ववाणी हिंदी में इस समय विपुल साहित्य सृजन प्रति दिन हो रहा है। असंख्य रचनाकार अहर्निश विविध विधाओं में निरंतर लेखन कर रहे हैं। निश्चय ही काल-प्रवाह में इसमें से ९९% शीघ्र ही विलुप्त हो जाएगा। जो १ % लेखन शेष रहने की आशा की जा सकती है वह वही होगा जो व्यष्टि पर समष्टि को वरीयता देते हुए सत-शिव-सुंदर की स्थापनाकर क्षणभंगुर जीव को सनातन सत्-चित्-आनंद की प्राप्ति में सहायक होगा। समयाभाव के इस समय में हिंदी में महाकाव्य लेखन परंपरा का न केवल जीवित रहना अपितु अनवरत संपन्न-समृद्ध होते जाना प्रमाणित करता है कि उदात्तता, श्रेष्ठता और अलौकिकता को साध्य मानकर तदनुसार हो पाने की जिजीविषा नि:शेष नहीं हुई है। मानव सभ्यता के चिरजीवी होने में आदर्श के प्रति आकर्षित होने की इस आदिम वृत्ति का योगदान अचीन्हा किंतु अप्रतिम है। इस अनुकरणीय प्रवृत्ति की युवा प्रतिनिधि हैं सुनीता सिंह जो महाकवि ही नहीं युग प्रवर्तक संत तुलसीदास पर महाकाव्य का सृजनकर अपनी असाधारण लेखन सामर्थ्य को प्रस्तुत या प्रमाणित ही नहीं प्रतिष्ठित भी कर पा रही हैं। गुरुतर प्रशासकीय दायित्व का दक्षता के साथ निर्वहन करते हुए, भारतीय परिवार की गृहलक्ष्मी की बहुआयामी भूमिका को निपुणता के साथ जीते हुए सुनीता जी रुक्षता और मृदुता के कठोर-मृदुल दायित्वों को सहजता के साथ जीकर सच्ची सारस्वत साधना को विविध विधाओं में सतत सृजन कर साकार कर पाती हैं। यह असाधारण प्रतिभा, परिश्रम, लगन और समर्पण के बिना संभव नहीं हो सकता।  

महाकाव्य - क्या और क्यों?

महाकाव्य किसी असाधारण व्यक्तित्व के कालजयी अवदान का ऐसा आकलन है जिसमें नायक के व्यक्तित्व-कृतित्व का नीर-क्षीर विवेचन करते हुए नवाचारी दृष्टि रही हो। महाकाव्य में पिष्टपेषण के लिए स्थान नहीं होता। महाकाव्यकार को तर्क की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी नवता का वरण करना होता है। यही दुष्कर है। महाकाव्य का नायक ख्यात, आदरेय, महाकाव्यकार की श्रद्धा का पात्र होता है तभी तो उसका चयन किया जाता है। अपने श्रद्धेय के व्यक्तित्व-कृतित्व का समालोचकीय दृष्टि से निरीक्षण-परीक्षण करना और तब नवल प्रतिमानों पर उसकी उत्तमता प्रतिपादित कर पाना गहन अध्ययन-मनन-चिंतन पश्चात ही संभव हो पाता है। 

भविष्य को प्रभावित करनेवाले किसी व्यक्तित्व या घटना का श्रेष्ठ काव्य शास्त्र के मानकों पर नवल मौलिक अवधारणा प्रतिपादित करते हुए सांगोपांग विवेचन करती कृति ही महाकाव्य है। महाकाव्य का आकार बड़ा होना आवश्यक नहीं है। महाकाव्य लेखन में अंतर्निहित दृष्टि का व्यापक होना आवश्यक है। महाकाव्य वह श्रेष्ठ काव्यकृति है जिससे असंख्य जनमानस दीर्घकाल तक गहन प्रभावित रहे। महाकाव्य में यथार्थ और कल्पना का स्वाभाविक मिश्रण होता है जो सहज ही जन सामान्य को स्वीकार्य हो सके। 

महाकाव्य लेखन का उद्देश्य 'कल' (गत) का मूल्यांकन आज करते हुए 'कल' (आगत) के लिए अनुकरणीय नायक (व्यक्ति, घटना, जीव आदि) के माध्यम से उचित-अनुचित आचरण का विश्लेषणकर आदर्श का प्रतिपादन करना है ताकि भविष्य बेहतर हो सके। 

महाकाव्य के लक्षण   

अग्नि पुराण के अनुसार 'सर्गबंधो महाकाव्यं ' अर्थात महाकाव्य सर्गबंध होता है। 

साहित्यदर्पणकार संस्कृत आचार्य विश्वनाथ के अनुसार सर्ग निबंधन, धीरोदात्त नायक, एक रस की प्रधानता, नाटक संधियाँ, ऐतिहासिक कथा, एक चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) का प्रतिपादन, अष्टाधिक सर्ग, आदि  महाकाव्य के लक्षण हैं। आरम्भ में नमस्कार, आशीर्वाद, वर्ण्यवस्तुनिर्देश, खल-निंदा या सज्जन माहात्म्य अभीष्ट है। हर सर्ग में से एक मुख्य छंद, सर्गांत में छंद-परिवर्तन व आगामी कथा-सूचना, प्रकृति, वातावरण, रस, भाव आदि  होना चाहिए (परिच्छेद 6,315-324)।

आचार्य भामह ने आलंकारिक शिष्ट नागर भाषा को महाकाव्य हेतु उपयुक्त कहा है। महाकाव्य की शैली नानावर्णन क्षमा, विस्तारगर्भा, श्रव्य वृत्तों से अलंकृत, महाप्राण होनी चाहिए।

महाकाव्य के सम्बन्ध में पश्चिमी मत

महाकाव्य के जिन लक्षणों का निरूपण भारतीय आचार्यों ने किया, शब्दभेद से उन्हीं से मिलती-जुलती विशेषताओं का उल्लेख पश्चिम के आचार्यों ने भी किया है। अरस्तू ने त्रासदी (ट्रेजेडी) से महाकाव्य की तुलना करते हुए कहा है कि "गीत एवं दृश्यविघान के अतिरिक्त (महाकाव्य और त्रासदी) दोनों के अंग भी समान ही हैं।" अर्थात् महाकाव्य के मूल तत्त्व चार हैं - कथावस्तु, चरित्र, विचारतत्व और पदावली (भाषा)।
कथावस्तु

कथावस्तु के संबंध में उनका मत है कि(1) महाकाव्य की कथावस्तु एक ओर शुद्ध ऐतिहासिक यथार्थ से भिन्न होती है ओर दूसरी ओर सर्वथा काल्पनिक भी नहीं होती। वह प्रख्यात (जातीय दंतकथाओं पर आश्रित) होनी चाहिए और उसमें यथार्थ से भव्यतर जीवन का अंकन होना चाहिए।(2) उसका आयाम विस्तृत होना चाहिए जिसके अंतर्गत विविध उपाख्यानों का समावेश हो सके। "उसमें अपनी सीमाओं का विस्तार करने की बड़ी क्षमता होती है" क्योंकि त्रासदी की भांति वह रंगमंच की देशकाल संबंधी सीमाओं में परिबद्ध नहीं होता। उसमें अनेक घटनाओं का सहज समावेश हो सकता है जिससे एक ओर काव्य को घनत्व और गरिमा प्राप्त होती है और दूसरी ओर अनेक उपाख्यानों के नियोजन के कारण रोचक वैविध्य उत्पन्न हो जाता है।(3) किंतु कथानक का यह विस्तार अनियंत्रित नहीं होना चाहिए। उसमें एक ही कार्य होना चाहिए जो आदि मध्य अवसान से युक्त एवं स्वत: पूर्ण हो। समस्त उपाख्यान इसी प्रमुख कार्य के साथ संबंद्ध और इस प्रकार से गुंफित हों कि उनका परिणाम एक ही हो।(4) इसके अतिरिक्त त्रासदी के वस्तुसंगठन के अन्य गुण -- पूर्वापरक्रम, संभाव्यता तथा कुतूहल—भी महाकाव्य में यथावत् विद्यमान रहते हैं। उसकी परिधि में अद्भुत एवं अतिप्राकृत तत्त्व के लिये अधिक अवकाश रहता है और कुतूहल की संभावना भी महाकाव्य में अपेक्षाकृत अधिक रहती है। कथानक के सभी कुतूहलवर्धक अंग, जैसे स्थितिविपर्यय, अभिज्ञान, संवृति और विवृति, महाकाव्य का भी उत्कर्ष करते हैं।
पात्र

महाकाव्य के पात्रों के सम्बंध में अरस्तू ने केवल इतना कहा है कि "महाकाव्य और त्रासदी में यह समानता है कि उसमें भी उच्चतर कोटि के पात्रों की पद्यबद्ध अनुकृति रहती है।" त्रासदी के पात्रों से समानता के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं कि महाकाव्य के पात्र भी प्राय: त्रासदी के समान - भद्र, वैभवशाली, कुलीन और यशस्वी होने चाहिए। रुद्रट के अनुसार महाकाव्य में प्रतिनायक और उसके कुल का भी वर्णन होता है।
प्रयोजन और प्रभाव

अरस्तू के अनुसार महाकाव्य का प्रभाव और प्रयोजन भी त्रासदी के समान होना चाहिए, अर्थात् मनोवेगों का विरेचन, उसका प्रयोजन और तज्जन्य मन:शांति उसका प्रभाव होना चाहिए। यह प्रभाव नैतिक अथवा रागात्मक अथवा दोनों प्रकार का हो सकता है।
भाषा, शैली और छंद

अरस्तू के शब्दों में महाकाव्य की शैली का भी "पूर्ण उत्कर्ष यह है कि वह प्रसन्न (प्रसादगुण युक्त) हो किंतु क्षुद्र न हो।" अर्थात् गरिमा तथा प्रसादगुण महाकाव्य की शैली के मूल तत्त्व हैं और गरिमा का आधार है असाधारणता। उनके मतानुसार महाकाव्य की भाषाशैली त्रासदी की करुणमधुर अलंकृत शैली से भिन्न, लोकातिक्रांत प्रयोगों से कलात्मक, उदात्त एवं गरिमावरिष्ठ होनी चाहिए।

महाकाव्य की रचना के लिये वे आदि से अंत तक एक ही छंद - वीर छंद - के प्रयोग पर बल देते हैं क्योंकि उसका रूप अन्य वृत्तों की अपेक्षा अधिक भव्य एवं गरिमामय होता है जिसमें अप्रचलित एवं लाक्षणिक शब्द बड़ी सरलता से अंतर्भुक्त हो जाते हैं। परवर्ती विद्वानों ने भी महाकाव्य के विभिन्न तत्वों के संदर्भ में उन्हीं विशेषताओं का पुनराख्यान किया है जिनका उल्लेख आचार्य अरस्तू कर चुके थे। वीरकाव्य (महाकाव्य) का आधार सभी ने जातीय गौरव की पुराकथाओं को स्वीकार किया है। जॉन हेरिंगटन वीरकाव्य के लिये ऐतिहासिक आधारभूमि की आवश्यकता पर बल देते हैं और स्पेंसर वीरकाव्य के लिये वैभव और गरिमा को आधारभूत तत्त्व मानते हैं। फ्रांस के कवि आलोचकों पैलेतिए, वोकलें और रोनसार आदि ने भी महाकाव्य की कथावस्तु को सर्वाधिक गरिमायम, भव्य और उदात्त करते हुए उसके अंतर्गत ऐसे वातावरण के निर्माण का आग्रह किया है जो क्षुद्र घटनाओं से मुक्त एवं भव्य हो।

हिंदी के महाकाव्य 

1. चंदबरदाईकृत पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य कहा जाता है।
2. मलिक मुहम्मद जायसी - पद्मावत
3. तुलसीदास - रामचरितमानस
4. आचार्य केशवदास - रामचंद्रिका
5. मैथिलीशरण गुप्त - साकेत
6. अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' - प्रियप्रवास
7. द्वारका प्रसाद मिश्र - कृष्णायन
8. जयशंकर प्रसाद - कामायनी
9. रामधारी सिंह 'दिनकर' - उर्वशी
10. रामकुमार वर्मा - एकलव्य
11. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' - उर्मिला
12. गुरुभक्त सिंह - नूरजहां, विक्रमादित्य
13. अनूप शर्मा - सिद्धार्थ, वर्द्धमान
14. रामानंद तिवारी - पार्वती
15. गिरिजा दत्त शुक्ल 'गिरीश' - तारक वध
16. नन्दलाल सिंह 'कांतिपति' - श्रीमान मानव की विकास यात्रा

हिंदी ग़ज़ल, गीत , संसद, माँ, भोजपुरी, वेणसगाई, लतानुप्रास, लाटानुप्रास, दोहा-यमक

मुक्तिका
हिंदी ग़ज़ल
*
बाग़ क्यारी फूल है हिंदी ग़ज़ल
या कहें जड़-मूल है हिंदी ग़ज़ल
.
बात कहती है सलीके से सदा-
नहीं देती तूल है हिंदी ग़ज़ल
.
आँख में सुरमे सरीखी यह सजी
दुश्मनों को शूल है हिंदी ग़ज़ल
.
जो सुधरकर खुद पहुँचती लक्ष्य पर
सबसे पहले भूल है हिंदी ग़ज़ल
.
दबाता जब जमाना तो उड़ जमे
कलश पर वह धूल है हिंदी ग़ज़ल
.
है गरम तासीर पर गरमी नहीं
मिलो-देखो कूल है हिंदी ग़ज़ल
.
मुक्तिका है नाम इसका आजकल
कायदा है, रूल है हिंदी ग़ज़ल
१७.९.२०१८
***
गीत
*
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर आँखों में
गुस्सा है, ज्वाला है.
संसद में पग-पग पर
घपला-घोटाला है.
जनगण ने भेजे हैं
हँस बेटे सरहद पर.
संसद में.सुत भेजें
नेता जी या अफसर.
सरहद पर
आहुति है
संसद में यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर धांय-धांय
जान है हथेली पर.
संसद में कांव-कांव
स्वार्थ-सुख गदेली पर.
सरहद से देश को
मिल रही सुरक्षा है.
संसद को देश-प्रेम
की न मिली शिक्षा है.
सरहद है
जांबाजी
संसद ऐयारी है
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर ध्वज फहरे
हौसले बुलंद रहें.
संसद में सत्ता हित
नित्य दंद-फंद रहें.
सरहद ने दुश्मन को
दी कड़ी चुनौती है.
संसद को मिली
झूठ-दगा की बपौती है.
सरहद है
बलिदानी
संसद-जां प्यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
२७-२-२०१८
***
क्रमांक - वाक्यांश या शब्द-समूह - शब्द
०१.जिसका जन्म नहीं होता अजन्मा
०२. पुस्तकों की समीक्षा करने वाला समीक्षक , आलोचक
०३. जिसे गिना न जा सके अगणित
०४. जो कुछ भी नहीं जानता हो अज्ञ
०५ . जो बहुत थोड़ा जानता हो अल्पज्ञ
०६. जिसकी आशा न की गई हो अप्रत्याशित
०७. जो इन्द्रियों से परे हो अगोचर
०८. जो विधान के विपरीत हो अवैधानिक
०९. जो संविधान के प्रतिकूल हो असंवैधानिक
१०. जिसे भले -बुरे का ज्ञान न हो अविवेकी
११. जिसके समान कोई दूसरा न हो अद्वितीय
१२. जिसे वाणी व्यक्त न कर सके अनिर्वचनीय
१३. जैसा पहले कभी न हुआ हो अभूतपूर्व
१४. जो व्यर्थ का व्यय करता हो अपव्ययी
१५. बहुत कम खर्च करने वाला मितव्ययी
१६. सरकारी गजट में छपी सूचना अधिसूचना
१७. जिसके पास कुछ भी न हो अकिंचन
१८. दोपहर के बाद का समय अपराह्न
१९. जिसका निवारण न हो सके अनिवार्य
२०. देहरी पर चित्रकारी अल्पना
२१. आदि से अन्त तक
२२. जिसका परिहार सम्भव न हो अपरिहार्य
२३. जो ग्रहण करने योग्य न हो अग्राह्य
२४ जिसे प्राप्त न किया जा सके अप्राप्य
२५. जिसका उपचार सम्भव न हो असाध्य
२६. जिसे भगवान में विश्वास हो आस्तिक
२७. जिसे भगवान में विश्वास न हो नास्तिक
२८. आशा से अधिक आशातीत
२९. ऋषि की कही गई बात आर्ष
३०. पैर से मस्तक तक आपादमस्तक
३१. अत्यंत लगन एवं परिश्रम वाला अध्यवसायी
३२. आतंक फैलाने वाला आंतकवादी
३३. विदेश से कोई वस्तु मँगाना आयात
३४. जो तुरंत कविता बना सके आशुकवि
३५. नीले रंग का फूल इन्दीवर
३६. उत्तर-पूर्व का कोण ईशान
३७. जिसके हाथ में चक्र हो चक्रपाणि
३८. जिसके मस्तक पर चन्द्रमा हो चन्द्रमौलि
३९. जो दूसरों के दोष खोजे छिद्रान्वेषी
४०. जानने की इच्छा जिज्ञासा
४१. जानने को इच्छुक जिज्ञासु
४२. जीवित रहने की इच्छा जिजीविषा
४३. इन्द्रियों को जीतनेवाला जितेन्द्रिय
४४. जीतने की इच्छा वाला जिगीषु
४५. जहाँ सिक्के ढाले जाते हैं टकसाल
४६. जो त्यागने योग्य हो त्याज्य
४७. जिसे पार करना कठिन हो दुस्तर
४८. जंगल की आग दावाग्नि
४९. गोद लिया हुआ पुत्र दत्तक
५०. बिना पलक झपकाए हुए निर्निमेष
५१. जिसमें कोई विवाद ही न हो निर्विवाद
५२. जो निन्दा के योग्य हो निन्दनीय
५३. मांस रहित भोजन निरामिष
५४. रात्रि में विचरण करनेवाला निशाचर
५५. किसी विषय का पूर्ण ज्ञाता पारंगत
५६. पृथ्वी से सम्बन्धित पार्थिव
५७. रात्रि का प्रथम प्रहर प्रदोष
५८. जिसे तुरंत उचित उत्तर सूझ जाए प्रत्युत्पन्नमति
५९. मोक्ष का इच्छुक मुमुक्षु
६०. मृत्यु का इच्छुक मुमूर्षु
६१. युद्ध की इच्छा रखनेवाला युयुत्सु
६२. जो विधि के अनुकूल है वैध
६३. जो बहुत बोलता हो वाचाल
६४. शरण पाने का इच्छुक शरणार्थी
६५. सौ वर्ष का समय शताब्दी
६६. शिव का उपासक शैव
६७. देवी का उपासक शाक्त
६८. समान रूप से ठंडा और गर्म समशीतोष्ण
६९. जो सदा से चला आ रहा हो सनातन
७०. समान दृष्टि से देखने वाला समदर्शी
७१. जो क्षण भर में नष्ट हो जाए क्षणभंगुर
७२. फूलों का गुच्छा स्तवक
७३. संगीत जाननेवाला संगीतज्ञ
७४. जिसने मुकदमा किया है वादी
७५. जिसके विरुद्ध मुकदमा हो प्रतिवादी
७६. मधुर बोलने वाला मधुरभाषी
७७. धरती-आकाश के बीच का स्थान अंतरिक्ष
७८. महावत के हाथ का लोहे का हुक अंकुश
७९. जो बुलाया न गया हो अनाहूत,
८०. सीमा का अनुचित उल्लंघन अतिक्रमण
८१. जिसका पति विदेश चला गया हो प्रोषित पतिका
८२. जिसका पति विदेश से आया हो आगत पतिका
८३. जिसका पति परदेश जानेवाला हो प्रवत्स्यत्पतिका
८४. जिसका मन दूसरी ओर हो अन्यमनस्क
८५. संध्या और रात्रि के बीच की वेला गोधूलि
८६. माया करनेवाला मायावी
८७. टूटी-फूटी इमारत का अंश भग्नावशेष
८८. दोपहर से पहले का समय पूर्वाह्न
८९. कनक जैसी आभावाला कनकाभ
९०. हृदय को विदीर्ण कर देनेवाला हृदय विदारक
९१. हाथ से कार्य करने का कौशल हस्तलाघव
९२. स्त्रियों से हाव-भाववाला पुरुष स्त्रैण
९३. जो लौटकर आया है प्रत्यागत
९४. जो कार्य कठिनता से हो सके दुष्कर
९५. जो देखा न जा सके अलक्ष्य
९६. बाएँ हाथ से तीर चला सकनेवाला सव्यसाची
९७. वह स्त्री जिसे सूर्य ने भी न देखा हो असूर्यम्पश्या
९८. हाथी पर बैठने हेतु आसंदी हौदा
९९. जिसे साधना सम्भव न हो असाध्य
१००. अन्य की जगह अस्थाई नियुक्त स्थानापन्न
***
भोजपुरी भाषा की विशेषता : गागर में सागर
एक शब्द सारे मायने बदल देता है-
के मारी? = किसने मारा?
केके मारी? = किसको मारा?
के केके मारी? = किसने किसको मारा?
केके केके मारी? = किसको-किसको मारा?
के केके केके मारी? = किसने किसको किसको मारा?
केके केके के के मारी? = कॉस्को किसको किसने किसने मारा?
***
अलंकार चर्चा : ९
वैणसगाई अलंकार
जब-जब अंतिम शब्द में, प्रथमाक्षर हो मीत
वैणसगाई जानिए, काव्य शास्त्र की रीत
जब काव्य पंक्ति का पहला अक्षर अंतिम शब्द में कहीं भी उपस्थित हो वैणसगाई अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. माता भूमि मान
पूजै राण प्रतापसी
पहली पंक्ति में 'म' तथा दूसरी पंक्ति में प' की आवृत्ति दृष्टव्य है,
२. हरि! तुम बिन निस्सार है,
दुनिया दाहक दीन.
दया करो दीदार दो,
मीरा जल बिन मीन. - संजीव
३. हम तेरे साये की खातिर धूप में जलते रहे
हम खड़े राहों में अपने हाथ ही मलते रहे -देवकीनन्दन 'शांत'
४. नीरव प्रशांति का मौन बना बना - जयशंकर प्रसाद
५. सब सुर हों सजीव साकार …
.... तान-तान का हो विस्तार -मैथिली शरण गुप्त
६. पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल -निराला
७. हमने देखा सदन बने हैं
लोगों का अपनापन लेकर - बालकृष्ण शर्मा नवीन
८. जो हृदय की बात है वह आँख से जब बरस जाए - डॉ. रामकुमार वर्मा
९. चौकस खेतिहरों ने पाये ऋद्धि-सिद्धि के आकुल चुंबन -नागार्जुन
१०. तब इसी गतिशील सिंधु-यात्री हेतु -सुमित्रा कुमारी सिन्हा
***
दोहा सलिला
गणेश महिमा
*
श्री गणेश मंगल करें, ऋद्धि-सिद्धि हों संग
सत-शिव-सुंदर हो धरा, देख असुर-सुर दंग
*
जनपति, मनपति हो तुम्हीं, शत-शत नम्र प्रणाम
गणपति, गुणपति सर्वप्रिय, कर्मव्रती निष्काम
*
कर्म पूज्य सच सिखाया, बनकर पहरेदार
प्राण लुटाये फ़र्ज़ पर, प्रभु! वंदन शत-बार
*
व्यर्थ न कुछ भी सिखाने, गही मैल से देह
त्याज्य पूत-पावन वही, तनिक नहीं संदेह
*
शीश अहं का काटकर, शिव ने फेंका दूर
मोह शिवा का खिन्न था, देख सत्य भ्रम दूर
*
सबमें आत्मा एक है, नर-पशु या जड़-जीव
शीश गहा गज का पुलक, हुए पूज्य संजीव
*
कोई हीन न उच्च है, सब प्रभु की संतान
गुरु-लघु दंत बता रहे, मानव सभी समान
*
सार गहें थोथा सभी, उड़ा दूर दो फेक
कर्ण विशाल बता रहे, श्रवण करो सच नेक
*
प्रभु!भारी स्थिर सिर-बदन, रहे संतुलित आप
दहले दुश्मन देखकर, जाए भय से काँप
*
तीक्ष्ण दृष्टि सत-असत को, पल में ले पहचान
सूक्ष्म बुद्धि निर्णय करे, सम्यक दयानिधान!
*
क्या अग्राह्य है?, ग्राह्य क्या?, सूँढ सके पहचान
रस-निधि चुन रस-लीन हो, आप देव रस-खान
*
***
गणपति वंदना
वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभ
निर्विघ्नं कुरु मे देव, सर्वकार्येषु सर्वदा
*
तिरछी सूँढ़ विशाल तन, कोटि सूर्य सम आभ
देव! करें निर्बाध हर, कार्य सदा अरुणाभ -- दोहानुवाद: संजीव
*
वक्र = टेढ़ी, curved; तुण्ड =सूंढ़, trunk
महा = विशाल, large; काय =शरीर, body
सूर्य = सूरज, sun; कोटि = करोड़, 10 million
समप्रभ = के समान प्रकाशवान, with the Brilliance of
निर्विघ्नं = बाधारहित, free of obstacles
कुरु = करिए,make
मे = मेरे, my
देव = ईश्वर, lord
सर्व = सभी, all
कार्येषु = कार्य, work
सर्वदा = हमेशा, always
*
O Lord Ganesha, blessed with Curved Trunk, Large Body, and Brilliance of a Million Suns, Please, always make all my Works Free of Obstacles, .
*
***
अलंकार चर्चा : ८
लाटानुप्रास अलंकार
एक शब्द बहुबार हो, किन्तु अर्थ हो एक
अन्वय लाट अनुप्रास में, रहे भिन्न सविवेक
जब कोई शब्द दो या अधिक बार एक ही अर्थ में प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय भिन्न हो तो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है. भिन्न अन्वय से आशय भिन्न शब्द के साथ अथवा समान शब्द के साथ भिन्न प्रकार के प्रयोग से है.
किसी काव्य पद में समान शब्द एकाधिक बार प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय करने से भिन्नार्थ की प्रतीति हो तो लाटानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. राम ह्रदय, जाके नहीं विपति, सुमंगल ताहि
राम ह्रदय जाके नहीं, विपति सुमंगल ताहि
जिसके ह्रदय में राम हैं, उसे विपत्ति नहीं होती, सदा शुभ होता है.
जिसके ह्रदय में राम नहीं हैं, उसके लिए शुभ भी विपत्ति बन जाता है.
अन्वय अल्पविराम चिन्ह से इंगित किया गया है.
२. पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै??
यहाँ पूत, तो, क्यों, धन तथा संचै शब्दों की एकाधिक आवृत्ति पहली बार सपूत के साथ है तो दूसरी बार कपूत के साथ.
३. सलिल प्रवाहित हो विमल, सलिल निनादित छंद
सलिल पूर्वज चाहते, सलिल तृप्ति आनंद
यहाँ सलिल शब्द का प्रयोग चार भिन्न अन्वयों में द्रष्टव्य है.
४. मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अवतारी थी
यहाँ पहले दोनों तेज शब्दों का अन्वय मिला क्रिया के साथ है किन्तु पहला तेज करण करक में है जबकि दूसरा तेज कर्ता कारक में है. तीसरे तेज का अन्वय अधिकारी शब्द से है.
५. उत्त्तरा के धन रहो तुम उत्त्तरा के पास ही
उत्तरा शब्द का अर्थ दोनों बार समान होने पर भी उसका अन्वय धन और पास के साथ हुआ है.
६. पहनो कान्त! तुम्हीं यह मेरी जयमाला सी वरमाला
यहाँ माला शब्द दो बार समान अर्थ में है,किन्तु अन्वय जय तथा वार के साथ भिन्नार्थ में हुआ है.
७. आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ
चित्रपटीय गीत की इस पंक्ति में आदमी शब्द का दो बार समानार्थ में प्रयोग हुआ है किन्तु अन्वय हूँ तथा से के साथ होने से भिन्नार्थ की प्रतीति कराता है.
८. अदरक में बंदर इधर, ढूँढ रहे हैं स्वाद
स्वाद-स्वाद में हो रहा, उधर मुल्क बर्बाद
अभियंता देवकीनन्दन 'शांत' की दोहा ग़ज़ल के इस शे'र में स्वाद का प्रयोग भिन्न अन्वय में हुआ है.
९. सब का सब से हो भला
सब सदैव निर्भय रहें
सब का मन शतदल खिले.
मेरे इस जनक छंद (तेरह मात्रक त्रिपदी) में सब का ४ बार प्रयोग समान अर्थ तथा भिन्न अन्वय में हुआ है.
***
टिप्पणी: तुझ पे कुर्बान मेरी जान, मेरी जान!
चित्रपटीय गीत के इस अंश में मेरी जान शब्द युग्म का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु भिन्नार्थ में होने पर भी अन्वय भिन्न न होने के कारण यहाँ लाटानुप्रास अलंकार नहीं है। 'मेरी जान' के दो अर्थ मेरे प्राण, तथा मेरी प्रेमिका होने से यहाँ यमक अलंकार है.
१७-९-२०१५
***
मुक्तिका:
स्मरण
*
मोटा काँच सुनहरा चश्मा, मानस-पोथी माता जी।
पीत शिखा सी रहीं दमकती, जगती-सोतीं माताजी।।
*
पापा जी की याद दिलाता, है अखबार बिना नागा।
चश्मा लेकर रोज बाँचना, ख़बरें सुनतीं माताजी।।
*
बूढ़ा तन लेकिन जवान मन, नयी उमंगें ले हँसना।
नाती-पोतों संग हुलसते, शिशु बन पापा-माताजी।।
*
इनकी दम से उनमें दम थी, उनकी दम से इनमें दम।
काया-छाया एक-दूजे की, थे-पापाजी-माताजी।।
*
माँ का जाना- मूक देखते, टूट गए थे पापाजी।
कहते: 'मुझे न संग ले गईं, क्यों तुम सबकी माताजी।।'
*
चित्र देखते रोज एकटक, बिना कहे क्या-क्या कहते।
रहकर साथ न सँग थे पापा, बिछुड़ साथ थीं माताजी।।
*
यादों की दे गए धरोहर, श्वास-श्वास में है जिंदा।
हम भाई-बहनों में जिंदा, हैं पापाजी-माताजी।।
१७-९-२०१४
***
:दोहा सलिला :
गले मिले दोहा-यमक
*
चंद चंद तारों सहित, करे मौन गुणगान
रजनी के सौंदर्य का, जब तक हो न विहान
*
जहाँ पनाह मिले वहीं, झट बन जहाँपनाह
स्नेह-सलिल का आचमन, देता शांति अथाह
*
स्वर मधु बाला चन्द्र सा, नेह नर्मदा-हास
मधुबाला बिन चित्रपट, है श्रीहीन उदास
*
स्वर-सरगम की लता का,प्रमुदित कुसुम अमोल
खान मधुरता की लता, कौन सके यश तौल
*
भेज-पाया, खा-हँसा, है प्रियतम सन्देश
सफलकाम प्रियतमा ने, हुलस गहा सन्देश
*
गुमसुम थे परदेश में, चहक रहे आ देश
अब तक पाते ही रहे, अब देते आदेश
*
पीर पीर सह कर रहा, धीरज का विनिवेश
घटे न पूँजी क्षमा की, रखता ध्यान विशेष
*
माया-ममता रूप धर, मोह मोहता खूब
माया-ममता सियासत, करे स्वार्थ में डूब
*
जी वन में जाने तभी, तू जीवन का मोल
घर में जी लेते सभी, बोल न ऊँचे बोल
*
विक्रम जब गाने लगा, बिसरा लय बेताल
काँधे से उतरा तुरत, भाग गया बेताल
१७-९-२०१३
*

शनिवार, 16 सितंबर 2023

मुक्तिका, हिंदी ग़ज़ल, मुक्तक, कुण्डलिया, गीता पंडित, अन्त्यानुप्रास अलंकार, मेघ-संदेश

 मुक्तिका

*
मन की बात करे अवधेश
जंगल में सिय करे प्रवेश
लखन न लख पाते हैं सत्य
करें वही जो कहें नरेश
भरत न रत सत-साधन में
राजा की जय करें हमेश
शत्रु शत्रुघन खुद अपने
बहिनें नोचें अपने केश
रजक कहे जय आरक्षण
विस्मित देखें दृश्य महेश
गुरु वशिष्ठ चुप झुका नज़र
शोकाकुल माताएँ - देश
समय हुआ विपरीत 'सलिल'
मन की बात करे अवधेश
१६-९-२०२२, ५.५७
*
हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
पाठ १
हिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका कहें क्योंकि हर द्विपदी (दो पंक्तियाँ या शे'र) शेष से मुक्त अपने आप में पूर्ण होती हैं.मुक्तिका में पदांत तथा तुकांत गज़ल की ही तरह होता है किन्तु पदभार (पंक्ति का वजन) हिंदी मात्रा गणना के अनुसार होता है. इसे हिंदी के छंदों को आधार बनाकर रचा जाता है. उर्दू ग़ज़ल बहर के आधार पर रची जाती है तथा वजन तकती'अ के मुताबिक देखा जाता है. जरूरत हो तो लघु को गुरु और गुरु को लघु पढ़ा जा सकता है, मुक्तिका में यह छूट नहीं होती.
गीतिका हिंदी छंद शास्त्र में एक स्वतंत्र छंद है जिसमें १४-१२ = २६ मात्राएँ हर पंक्ति में होती हैं तथा पंक्त्यांत में लघु-गुरु होता है.
गजल में प्रचलित बहरें और उनकी मापनी क्या है?
मुक्तिका, ग़ज़ल, तेवरी, अनुगीत, गीतिका आदि नामों से एक ही शिल्प की रचनाएँ संबोधित की जाती हैं। उनके तत्वों सम्बन्धी जानकारी-
शब्दार्थ
कवि / शायर- जानकार, जाननेवाला, ज्ञानी, वह व्यक्ति जो विधा तथा विषय को जानकर उस पर लिखता है।
द्विपदी / शे'र (बहुवचन अश'आर) - द्विपदी अर्थे दो पंक्तियाँ, शे'र = जानना, जानी हुई बात, ज्ञान।
बैत- फुटकर या अकेली दो पंक्ति तथा समान छंद व भार (वजन) की रचना।
मिसरा- पंक्ति / पद। पहली पंक्ति- अग्र पंक्ति, मिसरा ऊला। दूसरी पंक्ति- पाद पंक्ति, मिसरा सानी।
मिस्राए उला = शेर की प्रथम पंक्ति।
मिस्राए सानी = शेर की दूसरी पंक्ति।
रदीफ़ = (बहुवचन रदाइफ), पदांत, पंक्त्यांत, पंक्ति के अंत में प्रयोग हुआ शब्द या शब्द समूह। बेरदीफ = रदीफ़ रहित।
काफिया = (बहुवचन कवाफी) तुकान्त, पदांत के पहले प्रयुक्त शब्द इनके अंतिम अक्षर या मात्रा आपस में मिलते हैं।
मतला = प्रारम्भिका, उदयिका, मुखड़ा, रचना के आरंभ में प्रयुक्त पंक्ति-युग्म जिनमें तुकांत-पदांत समान हो।
मक्ता = अंतिका, समाप्तिका, अंतिम द्विपदी, इसी में रचनाकार का नाम या उपनाम रखा जाता है।
रुक्न = (बहुवचन इरकान) गण, स्तंभ, खंबा।
अज्जाये रुक्न = लय खंड।
वज्न = मात्रा भार या वर्ण संख्या।
सबब = द्विकल, दो मात्रा।
बतद= त्रिकल, तीन मात्रा।
फासला = चतुश्कल, चार मात्रा।
सदर = उदय।
अरूज़ = उत्कर्ष।
इब्तदा = प्रारंभ।
ज़रब = अंत।
तक्तीअ = शेर की कसोटी या छन्द विभाजन।
बहर = छन्द।
मुरक्कब = मिश्रित।
मजाइफ़ = परिवर्तन।
सालिम = पूर्ण।
रब्त = अन्तर्सम्बन्ध।
पदांत / रदीफ़- वह शब्द समूह, शब्द, अक्षर या मात्रा जिससे पंक्ति का अंत होता है।
तुकांत / काफ़िया- पदांत के पहले प्रयुक्त शब्द का अंतिम अक्षर या मात्रा।
उदाहरण-
१. कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
यहाँ 'लगे हैं' पदांत तथा 'आने व चिल्लाने' तुकांत हैं।
मुक्तिका / गजल में पहली दो पंक्तियों में प्रयुक्त पदांत और तुकांत का अगली हर दूसरी पंक्ति के अंत में प्रयोग किया जाना अनिवार्य होता है।
किसी मुक्तिका में तुकांत ही पदांत भी हो सकता है अर्थात तुकांत के बाद पदांत अलग से न हो तो भी कोई दोष नहीं है। इसे तुकांतहीन या बेदरीफ कहते हैं।
उदाहरण-
अपना बिम्ब निहारो दर्पण मत तोड़ो / राह भटकने से पहले पग को मोड़ो
यहाँ 'तोड़ो', 'मोड़ो' तुकांत और पदांत दोनों है, तुकांत के बाद पदांत अलग से नहीं है।
आरम्भिका / मुखड़ा / मतला- प्रथम दो पंक्तियाँ जिनमें छन्द, पदभार, तुकांत तथा पदांत समान हो।
इस अनुसार दो से अधिक पंक्ति-युग्म होने पर उन्हें क्रमश: प्रथम मुखड़ा (मतला ऊला), द्वितीय मुखड़ा (मतला सानी), तृतीय मुखड़ा (मतला सोम), चौथा मुखड़ा (मतला चहारम) आदि कहते हैं । पहले कई-कई मुखड़ों की रचना करना सम्मान की बात समझी जाती थी, अब दो से अधिक मुखड़ों का चलन नहीं है।
अंतिका / मक़ता- मुक्तिका / गजल की अंतिम दो पंक्तियाँ। इनमें रचनाकार अपना उपनाम / तखल्लुस का प्रयोग कर सकता है। उपनाम का प्रयोग न करने पर रचना को अन्तिकाहीन (बेमक्ता) कहा जाता है।
उपनाम / तखल्लुस- रचनाकार द्वारा प्रयुक्त नामंश, छद्म नाम या उपनाम। पहले रचना की आरंभ व अंत की द्विपदी में उपनाम प्रयोग किया जाता था। अब अंत में उपनाम देना या न देना भी ऐच्छिक है।
****
हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
मुक्तिका है, तेवरी है, गीतिका भी कह रहे
भाव का अनुभूति से संवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
***
[महाभागवत जातीय छन्द]
२-५-२०१६
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई
***
काव्य पत्राचार
शायरे-आज़म नूर साहेब के शागिर्दे खास जनाब देवकीनंदन 'शांत' हिंदी भूषण
उम्र भर लड़ता रहा हूँ, गम की लहरों से अशांत
धीरे-धीरे ग़म का सागर, 'शांत' होकर रह गया। - शांत
*
बिन 'सलिल' सागर पियासा, शांत कैसे हो कहो?
धरा की गोदी में हो, या हाथ में साकी के हो। -सलिल
१६-९-२०१९
***
मुक्तक-
पंचतत्व तन माटी उपजा, माटी में मिल जाना है
रूप और छवि मन को बहलाने का हसीं बहाना है
रुचा आपको धन्य हुआ, पाकर आशीष मिला संबल
है सौभाग्य आपके दिल में पाया अगर ठिकाना है
*
सलिल-लहर से रश्मि मिले तो, झिलमिल हो जीवन नदिया
रश्मि न हो तम छाये दस-दिश, बंजर हो जग की बगिया
रश्मि सूर्य को पूज्य बनाती, शशि को देती रूप छटा-
रश्मि ज्ञान की मिल जाए तो जीवात्मा होती अभया
*
आभा-प्रभा-ज्योति रश्मि की, सलिल-धार में छाया सी
करें कल्पना रवि बिम्बित, है प्रतुल अर्चना माया की
अनुश्री सुमन बिखेरे, दर्शन कर बृजनाथ हुए चंचल
शरद पवन प्रभु राम-शत्रुघन, शिव अशोक लाये शतदल
हैं राजेंद्र-सुरेंद्र बंधु रणवीर संग कमलेश विभोर
रच आदर्श सृष्टि प्रमुदित-संजीव परमप्रभु थामे डोर
***
कुंडलिया-
राधे मेरी स्वामिनी!, कृष्ण विकल कर जोर
मना रहे हैं मानिनी, विमुख हुईं चित चोर
विमुख हुईं चित चोर, हँसें लख प्रिय को कातर
नटवर नट, वर रहा वेणु को, धर अधराधर
कहे 'सलिल' प्रभु चपल मनाते 'करो न देरी
नयन नयन से विहँस मिलाओ, राधे मेरी'
१६-९-२०१६
***
कृति चर्चा:
'अब और नहीं बस' : बेबसी के शब्द चित्र
*
[कृति विवरण: अब और नहीं बस , नवगीत संग्रह, गीता पंडित, २०१३, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, १९५/-, शलभ प्रकाशन, ११९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली २०१०१० संपर्क: ०१२० ४१०१६०२]
...
सामान्यत: और विशेषकर गीत/नवगीत अनुभूतिपरक विधा है। गीत में वैयक्तिक और नवगीत में समष्टिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का विधान है। नवगीत वर्ग चेतना की चर्चा करते हुए भी उसे वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखता। नवगीत को उसके आरंभिक वर्षों के प्रतिमानों में कैद रखने के पक्षधर यह संघ पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें तो भी समय-सलिला का प्रवाह मूलकी ओर नहीं जा सकता।
वरिष्ठ नवगीतकार और समीक्षक राधेश्याम बंधु के अनुसार 'नवगीत की मूलभूत शैल्पिक अवधारणा और प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।' -नवगीत के नये प्रतिमान
डॉ. शिवकुमार मिश्र के मत में 'आज नवगीत भावुक मन की मध्यकालीन बोध की चीज नहीं है बल्कि वह समय की सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं से उसी तरह मुठभेड़ कर रहा है जिस तरह आधुनिक कही और माने जानेवाली गद्य कविता कर रही है। नवगीतों के रचना शिल्प में भाषा, अलंकार, छंद आदि समूचे रचना विधान में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। वह समय की अभिव्यक्ति के रूप में आज हमसे मुखतिब हैकृति चर्चा:
'अब और नहीं बस' : बेबसी के शब्द चित्र
चर्चाकार: आचार्य संजीव
*
[कृति विवरण: अब और नहीं बस , नवगीत संग्रह, गीता पंडित, २०१३, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, १९५/-, शलभ प्रकाशन, ११९ गंगा लेन, सेक्टर ५, वैशाली २०१०१० संपर्क: ०१२० ४१०१६०२]
...
सामान्यत: और विशेषकर गीत/नवगीत अनुभूतिपरक विधा है। गीत में वैयक्तिक और नवगीत में समष्टिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का विधान है। नवगीत वर्ग चेतना की चर्चा करते हुए भी उसे वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखता। नवगीत को उसके आरंभिक वर्षों के प्रतिमानों में कैद रखने के पक्षधर यह संघ पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें तो भी समय-सलिला का प्रवाह मूल की ओर नहीं जा सकता।
वरिष्ठ नवगीतकार और समीक्षक राधेश्याम बंधु के अनुसार 'नवगीत की मूलभूत शैल्पिक अवधारणा और प्रतिमानों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।'
डॉ. शिवकुमार मिश्र के मत में 'आज नवगीत भावुक मन की मध्यकालीन बोध की चीज नहीं है बल्कि वह समय की सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं से उसी तरह मुठभेड़ कर रहा है जिस तरह आधुनिक कही और माने जानेवाली गद्य कविता कर रही है। नवगीतों के रचना शिल्प में भाषा, अलंकार, छंद आदि समूचे रचना विधान में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। वह समय की अभिव्यक्ति के रूप में आज हमसे मुखातिब है।
डॉ. नामवर सिंह में अनुसार ' समय की चुनौती के अनुसार यदि गीत की अंतर्वस्तु बदलती है तो उसका 'सुर' और 'कहन' की बदलती है।'
उक्त तीनों अभिमतों के प्रकाश में गीता पंडित के तीसरे (पहला मौन पलों का स्पंदन १९११, दूसरा लकीरों के आर-पार १९१३) नवगीत संग्रह 'अब और नहीं बस' को पढ़ना और उस पर चर्चा करना बेहतर होगा। विवेच्य संग्रह का केंद्र नारी उत्पीड़न और नारी विमर्श है। 'पीर के हर एक समंदर / को बना नदिया / बहो तुम', 'ओ री चिड़िया! / तनिक ज़रा तुम / मुख तो खोलो', ' गांठें इतनी / लगी पलों में / मन की रस्सी टूट गयी', 'मैं जो हूँ / बस वो ही हूँ / करो ना हस्ताक्षर मुझ पर', 'अपने घर हो / गये पराये / वहशी आदम जात लगे', 'एकाकी गलियों में जाकर / मन तो / रोया करता है', 'कसकता रहा / रात भर मनवा / पीर हुई पल में गहरी', 'लेकिन जो / अंतर को छू ले / ऐसा साथी मिला कहाँ?', 'पहनाई ये / कैसी पायल / जिनमें बोल नहीं सजते', 'सब कुछ बदल / रहा है लेकिन / पीर कहाँ बदली मीते!', 'भूल गयी मैं देस पीया का / असुंवन भीगे / गाल', 'मौन हो गये / मन के पाखी / मौन हुई डाली-डाली', 'मात्र समर्पण / की हूँ दासी / बिन इसके कुछ भान नहीं', ' नीर / सिसकते गहरे / शेष अभी / क्या है तन में?' आदि-आदि अभियक्तियाँ नारी की व्यथ-कथा पर ही केंद्रित हैं।
प्रश्न यह उठता है कि नवगीत वर्ग विशेष की अनुभूतियों का वाहक हो या समग्र समाज की भावनाओं का पोषक हो? यह भी कि क्या वास्तव में नारी इतनी पीड़ित है कि उसका जीवन दूभर है? यदि ऐसा है तो घर-घर में जो शक्ति माँ, बहिन, भाभी, पत्नी, बेटी के रूप में मान, ममता, आदर, प्यार और लाड़ पा रही, अपने सपने साकार कर रही और पुरुष का सहारा ही नहीं सम्बल भी बन रही है, वह कौन है? स्त्री-पुरुष संबंध में टूटन हो तो क्या पीड़ा केवल स्त्री को होती है? पुरुष की टूटन भी क्या चिंतन का विषय नहीं होना चाहिए? क्यास्त्री प्रताड़ना का दोषी पुरुष मात्र है? क्या स्त्री का शोषण स्त्री खुद भी नहीं करती? क्या सास-बहू, नन्द भाभी, विमाता, सौतन आदि की भूमिकाओं में खलनायिकाएँ स्त्री ही नहीं होतीं? इस प्रश्नों पर विचरण का यहाँ न स्थान है न औचित्य किन्तु संकेतन इसलिए कि संग्रह की रचनाओं में यह एकांगी स्वर मुखर हो रहा है। इससे रचनाकार की तटस्थता और निष्पक्षता के साथ-साथ सृजन के उद्देश्य पर भी सवाल उठता है।
यदि वाकई यह पीड़ा इतनी घनीभूत तथा असह्य है तो फिर नारी-मन में पीड़ा के कारण पुरुष के प्रति विद्रोह के स्थान पर आकर्षण क्यों?, पुरुष के साथ की कामना क्यों? 'हरकारा संदेसा लेकर / जैसे ही आया / ढोल नगाड़े / बज उठे / लो उत्सव मन छाया', 'एक तुम्हारे बिन कैसे / आज सुन्दर है तन-मन', 'एक तुम्हारे संग में ही तो / मन के पंछी गाये थे', 'तुम बिन मीते! हँसी स्वप्न सब / सपने होकर / रह गये', 'भाव की हर भंगिमा ने / मीत! तुमको ही पुकारा', 'गेट बन जाऊँगी मीठे! / गुनगुना जो / दो मुझे तुम', 'छोड़ तुम्हें / किसको / ध्यायें', 'पाये ना कल मन ना बैठे हार कर / ओ परदेसी! / मीत मेरे जल्दी आना', 'जिन गीतों में / तुमको गाते / गीत वो ही बस मन भाये', 'जो जीवन में / रस घोले / ऐसा रसमय सार चाहिए / एक तुम्हारा प्यार चाहिए', 'अस्त होते / सूर्य सा ढलना सहा है / मीत तुम बिन', 'तुम सुधा का सार प्यासी / बूँद हूँ मैं / तुमसे ही अस्तित्व मेरा', 'इस अँधेरी रात के / लो पायताने बैठकर / फिर तुम्हें दोहरा रही हूँ / 'मीत! तुमको गा रही हूँ', 'द्वारे बैठे बात जोहती / जल्दी से आ जाओ' आदि भावभिव्यक्तियाँ नारी उत्पीड़न के स्वर को कमजोर ही नहीं करतीं, झुठ्लाती भी हैं।
श्रृंगार के मिलन-विरह दो पक्षों की तरह इन्हें एक-दूसरे का पूरक मान लेने पर भी ये अभिव्यक्तियाँ पारम्परिकता का ही निर्वहन करती प्रतीत होती हैं, इनमें जनसंवादधर्मिता अथवा भावों का सामान्यीकरण नहीं दिखता।
गीता पंडित सुशिक्षित (एम. ए. अंग्रेजी साहित्य, एम. बी. ए. विपणन), सचेतन तथा जागरूक हैं किन्तु उनके इन गीतों में नगरीय परिवेश में शोषित होते, संघर्ष करते, टूटते-गिरते, उठते-बढ़ते मानवों की जय-पराजय का संकेतन नहीं है। ये गीत दैनंदिन जीवन संघर्षों, अवसादों-उल्लासों से दूर निजी दुनिया की सैर कराते हैं।
गीता पंडित के गीतों की भाषा सहज बोधगम्य, मुहावरेदार, प्रसाद गुण संपन्न है। अंग्रेजी, उर्दू, अथवा तत्सम-तद्भव शब्द कहीं-कहीं प्रयोग हुए हैं। इन गीतों का सबलपक्ष इनकी सहजता, सरलता तथा सरसता है। मीत, मीता, मीते सम्बोधन की बारम्बार आवृत्ति खटकती है। गीता जी शिल्प पर कस्थ्य को वरीयता देती हैं। वे शब्दों, तथा क्रियाओं के प्रचलित रूपों का सहजता से प्रयोग करती हैं। ल्हाश, बस्स, क्यूँ, यूं, कन्नी, समंदर, अलस्सवेरे, झमाझम, मनवा, अगन, बत्यकार, मद्धम, जैसे देशज शब्द भाषा में मिठास घोलते हैं।
'देख आज ये कैसा मेरे / मन पर लगे / मलाल, प्रेम गली बुहरा आये, मनवा आता अँखियाँ मूँद, तनिक ज़रा तुम, नेह का मौली' जैसी अभिव्यक्तियों पर पुनर्विचार कर परिवर्तन अपेक्षित है।
सारत: अब और नहीं बस के गीत पाठक को रुचेंगे किन्तु समीक्षकों की दृष्टि से गीत-नवगीत की परिधि पर हैं। गीता जी छंद को अपनाती हैं पर उसके विधाओं के प्रति आग्रही नहीं है। वे 'सहज पके सो मीठा होय' की लोकोक्ति की पक्षधर हैं। आलोच्य संग्रह के गीत रचनाकार के मंतव्य को पाठकों-श्रोताओं तक पहुँचाने में सफल हैं। उनके पूर्व २ संकलन देखें के बाद विकास यात्रा की चर्चा हो सकेगी। आगामी संकलन में उनसे नवगीत के विधानात्मक पक्ष के प्रति अधिक सजगता की अपेक्षा की जासकती है.
***
अलंकार चर्चा : ७
अन्त्यानुप्रास अलंकार
जब दो या अधिक शब्दों, वाक्यों या छंद के चरणों के अंत में अंतिम दो स्वरों की मध्य के व्यंजन सहित आवृत्ति हो तो वहाँ अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
छंद के अंतिम चरण में स्वर या व्यंजन की समता को अन्त्यनुप्रास कहा जाता है. इसके कई प्रकार हैं. यथा सर्वान्त्य, समान्तय, विषमान्त्य, समान्त्य-विषमान्त्य तथा सम विषमान्त्य।
अ. सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार:
सभी चरणों में अंतिम वर्ण समान हो तो सर्वान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. सामान्यत सवैया में यह अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसि बनी सिर सुंदर चोटी
खेलत खात फिरैं अँगना पग पैजनिया कटि पीरी कछौटी
वा छवि को रसखान विलोकत वारत काम कलानिधि कोटी
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी (मत्तगयन्द सवैया, ७ भगण २ गुरु, २३ वर्ण)
२. खेलत फाग सुहाग भरी अनुरागहिं कौं झरी कै
मारत कुंकुम केसरि के पिचकारिन मैं रंग को भरि कै
गेरत लाल गुलाल लली मन मोहनि मौज मिटा करि कै
जाट चली रसखानि अली मदमत्त मनौ-मन कों हरि कै (मदिरा सवैया, ७ भगण १ गुरु, २२ वर्ण)
आ. समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार
सम चरणों अर्थात दूसरे, चौथे छठवें आदि चरणों में अंतिम वर्णों की समता होने पर समान्त्य अंत्यानुप्रास अलंकार होता है. दोहा में इसकी उपस्थिति अनिवार्य होती है.
उदाहरण:
१. जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दें 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
२. मेरी भव-बाधा हरो, राधा नागरि सोइ
जा तन की झांई परै, श्याम हरित दुति होइ
इ. विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
विषम अर्थात प्रथम, तृतीय, पंचम आदि चरणों के अंत में वर्णों की समता विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार दर्शाती है. यह अलंकार सोरठा, मुक्तक आदि में मिलता है.
उदाहरण:
१. लक्ष्य चूम ले पैर, एक सीध में जो बढ़े
कोई न करता बैर, बाँस अगर हो हाथ में
२. आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
ई. समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
किसी छंद की एक ही पंक्ति के सम तथा विषम दोनों चरणों में अलग-अलग समानता हो तो समान्त्य-विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है. यह अलंकार किसी-किसी दोहे, सोरठे, मुक्तक तथा चौपाई में हो सकता है.
उदाहरण :
१. कुंद इंदु सम देह, उमारमण करुणा अयन
जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन
इस सोरठे में विषम चरणों के अंत में देह-नेह तथा सम चरणों के अंत में अयन-मयन में भिन्न-भिन्न अंत्यानुप्रास हैं.
२. कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
इस दोहे में विषम चरणों के अंत में 'मूसलाधार है' व 'हाहाकार है' में तथा सम चरणों के अंत में 'बरसात' व 'रात' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
३. आँख मिलाकर आँख झुकाते
आँख झुकाकर आँख उठाते
आँख मारकर घायल करते
आँख दिखाकर मौन कराते
इस मुक्तक में 'मिलाकर', 'झुकाकर', 'मारकर' व दिखाकर' में तथा 'झुकाते', उठाते', 'करते' व 'कराते' में भिन्न-भिन्न अन्त्यानुप्रास है.
उ. सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार
जब छंद के हर दो-दो चरणों के अन्त्यानुप्रास में समानता तथा पंक्तियों के अन्त्यनुप्रास में भिन्नता हो तो वहां सम विषमान्त्य अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. जय गिरिजापति दीनदयाला। सदा करात सन्ततं प्रतिपाला ।।
भाल चद्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नाग फनीके ।।
यहाँ 'दयाला' व 'प्रतिपाला' तथा 'नीके' व 'फनीके' में पंक्तिवार समानता है पर विविध पंक्तियों में भिन्नता है.
अन्त्यानुप्रास के विविध प्रकारों का प्रयोग चलचित्र 'उत्सव' के एक सरस गीत में दृष्टव्य है:
मन क्यों बहका री बहका, आधी रात को
बेला महका री महका, आधी रात को
किस ने बन्सी बजाई, आधी रात को
जिस ने पलकी चुराई, आधी रात को
झांझर झमके सुन झमके, आधी रात को
उसको टोको ना रोको, रोको ना टोको,
टोको ना रोको, आधी रात को
लाज लागे री लागे, आधी रात को
देना सिंदूर क्यों सोऊँ आधी रात को
बात कहते बने क्या, आधी रात को
आँख खोलेगी बात, आधी रात को
हम ने पी चाँदनी, आधी रात को
चाँद आँखों में आया, आधी रात को
रात गुनती रहेगी, आधी बात को
आधी बातों की पीर, आधी रात को
बात पूरी हो कैसे, आधी रात को
रात होती शुरू हैं, आधी रात को
गीतकार : वसंत देव, गायक : आशा भोसले - लता मंगेशकर, संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, चित्रपट : उत्सव (१९८४)
इस सरस गीत और उस पर हुआ जीवंत अभिनय अविस्मरणीय है.इस गीत में आनुप्रासिक छटा देखते ही बनती है. झांझर झमके सुन झमके, मन क्यों बहका री बहका, बेला महका री महका, रात गुनती रहेगी आदि में छेकानुप्रास मन मोहता है. इस गीत में अन्त्यानुप्रास का प्रयोग हर पंक्ति में हुआ है
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विमर्श :
साहित्यिक चोरी : सत्य या मुगालता
रचनाकारों द्वारा बहुधा यह कहा जाता है कि एक की रचना दूसरे ने चुरा ली. इतना कहते ही दोनों चर्चा में आ जाते हैं. क्रिया-प्रतिक्रिया का दौर चलता है. यह आरोप प्राय: कुछ पंक्तियों या शब्दों की समानता से लेकर पंक्तियों और पूरी रचना चुराने तक लगाया जाता है.
इस विषय के कुछ और भी पहलू हैं.
१. क्या दो लोगों के मन में एक जैसे विचार, एक सी शब्दावली में नहीं आ सकते?
एक समान विचार तो अनेक लोगों के हो सकते हैं. विचारों के अभिव्यक्ति के लिये प्रयोग की गयी भाषा, शब्द,भाव, वाक्य, शैली आदि में अंतर प्राय: होता है. प्रश्न यह कि क्या किन्हीं २ रचनाकारों की कलम से शत-प्रतिशत एक जैसी रचना निकल सकती है?
मुझे ज्ञात है आप झट से कह देंगे नहीं,ऐसा नहीं हो सकता.
मैं आपसे सहमत हूँ पर पूरी तरह सहमत नहीं हूँ. मेरे ५० वर्ष से अधिक के साहित्योक जीवन में एक प्रसंग ऐसा है जब २ रचनाकारों की रचना शत-प्रतिशत समान हुई. उनमें से के मैं हूँ और दूसरे लखनऊ के एक रचनाकार हैं. हम दोनों एक दूसरे से परिचित नहीं हैं. दोनों की रचनाधर्मिता इतनी प्रखर है कि उन्हें अन्य की रचना आवश्यकता नहीं है. हमारे कार्यक्षेत्र और प्रकाशन का दायरा भी भिन्न है.वर्षों पूर्व मैंने एक सरस्वती वंदना रची, स्थानीय स्टार पर प्रकाशित हुई. कुछ वर्षों बाद एक काव्य संग्रह समीक्षार्थ मिल. वह सरस्वती जी की स्तुतियों का ही संग्रह था. उसमें एक वंदना मुझे अपनी रचना की तरह लगी, पथ मिलाया तो शब्द-शब्द, पंक्ति-पंक्ति समान। आश्चर्य हुआ, रचनाकार के बारे में जानकारी ली. वे उस रचना को कई वर्षों पूर्व से यत्र-तत्र पढ़ रहे थे. उनके विपुल साहित्य को देखते हुए उनकी क्षमता में कोई संदेह नहीं किया जा सकता था. संभवत:मैंने रचना बाद में की थी. मुझे ज्ञात है कि मैंने उनकी कोई रचना पहले पढ़ी नहीं थी. नकल या चोरी का प्रश्न ही नहीं हो सकता। एक ही सम्भावना थी की दोनों के मस्तिष्क में सम्मान विचार आये और दोनों ने समान शब्दों का चयन कर उन्हें व्यक्त किया. जब भी किसी से यह चर्चा करता हूँ वह इसे स्वीकार नहीं पाता किन्तु मैं तो जानता हूँ कि ऐसा हुआ है. मैंने आज तक उन सज्जन को भी यह नहीं बताया.
यह 'रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर' प्रकरण है किन्तु है.
रचनाकार जिस वर्णमाला और शब्दावली का प्रयोग करता है, वह उसकी अपनी नहीं होती। हम सब किसी और द्वारा विकसित वर्णों और शब्दों का प्रयोग करते हैं. हमारी शैली, भाव, बिम्ब, प्रतीक, रूपक, छंद, लय, रस आदि हमसे पहले कई लोग प्रयोग में ला चुके होते हैं तो क्या इसे भी चोरी कहा जाएगा?
यदि हर रचनाकार अपनी वर्णमाला,शब्द मुहावरे, प्रतीक,बिम्ब, रूपक बनाये तो एक दूसरे को समझना कैसे संभव होगा? अत:यह स्पष्ट है की कोई भी सौ प्रतिशत मौलिक नहीं होता। हर रचनाकार पर किसी न किसी का,कहीं न कहीं से प्रभाव होता है. प्रभाव ही न हो तो साहित्य रचा ही क्यों जाए?
३. क्या आपने किसी चोर को धनपति होते देखा-सुना है?यदि कोई रचनाकार इतना असमर्थ है कि रचना लिख ही न सके तो कितनी रचनाएँ चुराएगा? आज साहित्य के श्रोता-पाठक न होने का रोना हम सब रोते हैं. किताबें न बिकने की शिकायत आम है. ऐसी स्थिति में कोई रचना चुराकर क्या कर लेगा?
४. आरम्भ में मित्र रचनाकार मुझे अंतर्जाल पर रचनाएँ लगाने से रोकते थे कि कोई चुरा लेगा. वे अपनी रचनाएँ चोरी के भय से नहीं अंतर्जाल पर नहीं लगाते थे पर समय के साथ भय मिट गया. २० वर्ष बाद आज अधिकाधिक रचनाकार यहाँ हैं. जब लोग श्रेष्ठतम रचनाएँ नहीं चुरा रहे तो मैं क्यों डरूँ? कोई रचना ही तो चुराएगा मेरा मस्तिष्क तो नहीं चुरा लेगा.
५. यदि कोई मेरी रचना अपने नाम से छाप ले तो क्या करूँ? उससे लड़ने में या उस सम्बन्ध में लिखने में जितना समसमय लगेगा उससे काम समय में मैं नयी रचना कर लूँगा. शिकायत से मन को क्लेश मिलेगा, रचना से आनंद. मन अपनी बुद्धि, समय और ऊर्जाव्ययकर क्लेशक्लेश क्यों लूँ?, आनंद लेता हूँ.
रचना कर्म के प्रतिदान में किसी लाभ (पुरस्कार,राशि या सम्मान) की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। गीता भी यही कहती है 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन'. रचना सरस्वती मैया की कृपा से की जाती है. रचनाकार केवल माध्यम होता है. शब्द ब्रम्ह मस्तिष्क को माध्यम बनाकर प्रगत होता है और उसे शब्द ब्रम्ह उपासकों तक पहुँचाने का दायित्व रचनाकार को मिलना उसका सौभाग्य है. जिस तरह डाकिया डाक पहुँचाने का माध्यम है, डाक का मालिक नहीं वैसे ही रचनाकार भी रचना का मालिक नहीं है. इसी कारण वेदों का कोई रचयिता नहीं व् अन्य ग्रंथों का कोई रचयिता नहीं है. प्रतिलिप्याधिकार (कॉपीराइट) की संकल्पना ही भारत में नहीं की गयी. यह पश्चिम से आयातित है.
सार यह कि अपना सृजन कर्म निष्काम भाव से पूजा की तरह करना चाहिए. उसे मिली प्रशंसा या आलोचना तटस्थ भाव से ग्रहण करनी चाहिए. रचना को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत करने के बाद उसकी चिंता छोड़ नयी रचना पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
१६-९-२०१५
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शरतचंद्र
कालजयी बंगला कथाकार/उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म १५ सितम्बर १८७६ को हुगली में हुआ था। १९०७ में इनका पहला उपन्यास 'बोडदीदी' प्रकाशित हुआ था। १९१४ में 'परिणीता' व 'बिराज बहू' आया। १९०१ में लिखा 'श्रीकांत' (४ भाग) प्रकाशित हुआ। 'देवदास' इन्होनें १९०१ में लिखा था पर प्रकाशन हुआ १९१७ में। कुल ३९ उपन्यासों के लेखक शरत बाबू विश्वसाहित्य की विभूति हैं। मन के अवगुंठन के चितेरे हैं शरतचंद्र। देवदास को ही देखिये। वास्तव में हर प्रेमी देवदास ही होता है। यह चरित्र आज प्रेमी का प्रतीक बन गया है। इस उपन्यास पर विभिन्न भाषाओँ में १६ बार फ़िल्में बन चुकी हैं और हर फिल्म लोकप्रिय हुई। फिल्मकारों ने इन्हें वाजिब हक़ दिया है इनके लिखे पर फ़िल्में बनाकर। परिणीता, मंझली दीदी, बिराज बहू इसके उदाहरण हैं। विष्णु प्रभाकर जी ने शरत पर आत्म चरितात्मक उपन्यास 'आवारा मसीहा' लिखा है।
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गीत
मेघ का सन्देश
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गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.
मैं न आऊँ तो बुलाते.
हजारों मन्नत मनाते.
कभी कहते बरस जाओ-
कभी मुझको ही भगाते..
सूख धरती रुदन करती.
मौत बिन, हो विवश मरती.
मैं गरजता, मैं बरसता-
तभी हो तर, धरा तरती..
देख अत्याचार भू पर.
सबल करता निबल ऊपर.
सह न पाती गिरे बिजली-
शांत हो भू-चरण छूकर.
एक उँगली उठी मुझ पर.
तीन उँगली उठीं तुझ पर..
तू सुधारे नहीं खुद को-
तम गए दे, दीप बुझकर..
तिमिर मेरे संग छाया.
आस का संदेश लाया..
मैं गरजता, मैं बरसता-
बीज ने अंकुर उगाया..
तूने लाखों वृक्ष काटे.
खोद गिरि तालाब पाटे.
उगाये कोंक्रीट-जंगल-
मनुज मुझको व्यर्थ डांटे.
नद-सरोवर फिर भरूँगा.
फिर हरे जंगल करूँगा..
लांछन चुप रह सहूँगा-
धरा का मंगल करूँगा..
१६-९-२०१०
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हिंदी के विकास में क्षेत्रीय भाषाओं/बोलिओं का योगदान

लेख
हिंदी के विकास में क्षेत्रीय भाषाओं/बोलिओं का योगदान
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भाषा क्या है?

                   भाषा के माध्यम से मनुष्य बोलकर, लिखकर या संकेत कर परस्पर अपना विचार सरलता, स्पष्टता, निश्चितता तथा पूर्णता के साथ प्रकट करता है। अपनी अनुभूतियों या मनोभाव को व्यक्त करना भाषा है। भाषा के तीन रूप वाचिक (मौखिक), लिखित तथा सांकेतिक हैं ।

                   अन्य जीवों की तरह मनुष्य ने भी आरंभ में बोलकर तथा संकेत कर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया। चिंतन शक्ति का विकास होने पर प्रकृति में निहित ध्वनियों की नकल कर मनुष्य ने संवाद किया। वन में सिंह को देखकर वानर जिस तरह हूप-हूप की ध्वनि कर अपने साथियों को सूचित करता है, वैसे ही मनुष्य भी करता रहा होगा। क्रमश: ध्वनि विशेष तथा ध्वनियों की आवर्त्ति, ध्वनियों का योग कर मनुष्य ने अक्षर (सबसे छोटा ध्वनि खंड जिसे नष्ट न किया जा सके), शब्द, वाक्यांश, वाक्य आदि को अपनाया। कालांतर में ध्वनियों के लिए संकेत चिह्न निश्चित किए गए जिन्हें वर्ण कहा गया। चिह्नों के सरह अर्थ संश्लिष्ट किए जाने पर लिपि का जन्म हुआ। सांकेतिक भाषा के ३ अँग रंग संकेत- चौराहों पर यातायात नियंत्रण हेतु लाल-हरे संकेत, ध्वनि संकेत- विद्यालय में अवकाश की घंटी आदि तथा अँग संकेत यातायात सिपाही द्वारा हस्त संचालन कार यातायात नियंत्रण है।

                   भाषा शास्त्री डॉ. बाबूराम सक्सेना के अनुसार, “भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और एक ऐसी शक्ति है, जो मनुष्य के विचारों, अनुभवों और संदर्भों को व्यक्त करती है, जिन ध्वनि चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उनकी समष्टि को ही भाषा कहा जाता है।”

                   ग्रियर्सन के अनुसार भारत में 6 भाषा-परिवार, 179 भाषाएँ और 544 बोलियाँ हैं-

(क) भारोपीय परिवार: उत्तरी भारत में बोली जानेवाली भाषाएँ।

(ख) द्रविड़ परिवार: तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम।

(ग) आस्टिक परिवार: संताली, मुंडारी, हो, सवेरा, खड़िया, कोर्क, भूमिज, गदवा, फलौंक, वा, खासी, मोनख्मे, निकोबारी।

(घ) तिब्बती-चीनी : लुशेइ, मेइथेइ, मारो, मिश्मी, अबोर-मिरी, अक।

(ड़) अवर्गीकृत : बुरूशास्की, अडमानी

(च) करेन तथा मन: बर्मा की भाषा (जो अब स्वतंत्र है)

बोली क्या है?

                   बोली भाषा का आरंभिक रूप है। बोलि एक सीमित क्षेत्र में बोली जाती है, भाषा अपेक्षाकृत अधिक बड़े क्षेत्र में बोली जाती है। बोली में व्याकरण संबंधी बंधन लचीले होते हैं, भाषा में रूढ़। बोलियों में कहा-लिखा आगे साहित्य लोक साहित्य कहा जाता है। बोली वह नींव है जिस पर भाषा का भव्य प्रसाद निर्मित किया जाता है। भारत के विविध अंचलों में लगभग ६५० बोलियाँ बोली जाती हैं।

हिंदी की बोलियाँ

                   हिंदी के मूल में विविध अंचलों में प्रचलित बोलियाँ रही हैं, इसी कारण देश के विविध भागों में आम जनों द्वारा बोली जाती हिंदी में अंतर मिलता है। अपभ्रंश से राजस्थानी हिन्दी, शौरसेनी से पश्चिमी हिन्दी, अर्द्धमागधी से पूर्वी हिन्दी, मागधी से बिहारी हिन्दी’ तथा खस से पहाड़ी हिन्दी का विकास हुआ है राजस्थानी हिंदी की बोलियाँ मारवाड़ी, मेवाती, मेवाड़ी, हाड़ौती, शेखावाटी, झुंझाड़ी आदि, पश्चिमी हिंदी की बोलियाँ बृज, बांगर, बुन्देली, कन्नौजी आदि, पूर्वी हिंदी की बोलियाँ अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी आदि, बिहारी हिंदी की बोलियाँ अंगिका, बज़्जिका, भोजपुरी, मैथिली, मगही आदि तथा पहाड़ी हिंदी की बोलियाँ गढ़वाली आदि हैं। हिन्दी भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से नहीं, अपभ्रंश भाषाओं से और अपभ्रंश की उत्पत्ति प्राकृत से हुई है। प्राकृत भाषाओं के बाद अपभ्रंशों का जन्म हुआ और उनसे वर्तमान संस्कृतोत्पन्न भाषाओं की। हमारी वर्तमान हिन्दी, अर्द्धमागधी और शौरसेनी अपभ्रंश से निकली है।

राष्ट्र-भाषा

                   किसी राष्ट्र के अधिकांश क्षेत्र में अधिकांश जनों द्वारा समझी, बोली, पढ़ी और/या लिखी जानेवाली भाषा को राष्ट्र-भाषा कहते हैं। हिंदी इसी अर्थ में राष्ट्र-भाषा है। भारत की अन्य कोई भी भाषा हिंदी से अधिक समझी, बोली, पढ़ी और/या लिखी नहीं जाती है।

राज-भाषा

                   किसी राष्ट्र के संविधान द्वारा देश की सरकार के काम-काज हेतु निर्धारित भाषा को राज-भाषा कहा जाता है। यह शासन-प्रशासन के दैनंदिन काम-काज की भाषा होती है। भारत सरकार की राज-भाषा हिंदी है।

राज्य-भाषा

                   किसी राज्य के अधिकांश भूभाग में और/या अधिकांश लोगों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली भाषा उस राज्य की राज्य-भाषा होती है। जैसे राजस्थान में राजस्थानी, मध्य प्रदेश में हिंदी, महाराष्ट्र में मराठी, बंगाल में बांग्ला वहाँ की राज्य भाषा हैं।

भाषा के आधार

                   भाषा के दो मुख्य आधार मानसिक आधार (Mental Aspect)- वक्ता द्वारा अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त विचार या भाव तथा भौतिक आधार (Physical Aspect) वर्ण, अनुतान, स्वराघात आदि जिनके सहारे भाषा में प्रयुक्त ध्वनियाँ और इनसे निकलनेवाले विचारों या भावों को ग्रहण किया जाता है, होते हैं। उदाहरण 'नदी' शब्द के अर्थ से वक्ता और श्रोता दोनों को ज्ञात होगा। भौतिक आधार अभिव्यक्ति का साधन है और मानसिक आधार साध्य। दोनों के मिलने से ही भाषा का निर्माण होता है। इन्हें ही ‘बाह्य भाषा’ (Outer Speech) और आन्तरिक भाषा(Inner Speech) कहा जाता है।

देवनागरी लिपि

                   ‘हिन्दी’ और ‘संस्कृत’ देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। ‘देवनागरी’ लिपि का विकास ‘ब्राह्री लिपि’ से हुआ, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात नरेश जयभट्ट के एक शिलालेख में मिलता है। 8वीं एवं 9वीं सदी में क्रमशः राष्ट्रकूट नरेशों तथा बड़ौदा के ध्रुवराज ने अपने देशों में इसका प्रयोग किया था। महाराष्ट्र में इसे ‘बालबोध’ के नाम से संबोधित किया गया।देवनागरी लिपि पर तीन भाषाओं का महत्वपूर्व प्रभाव है।

(i) प्रभाव: पहले देवनागरी लिपि में जिह्वामूलीय ध्वनियों को अंकित करने के चिन्ह नहीं थें, जो बाद में फारसी से प्रभावित होकर विकसित हुए- क, ख, ग, ज, फ।

(ii) बांग्ला प्रभाव: गोल-गोल लिखने की परम्परा बांग्ला लिपि के प्रभाव के कारण शुरू हुई।

(iii) रोमन प्रभाव: इससे प्रभावित हो विभिन्न विराम चिन्हों, जैसे- अल्प विराम, अर्द्ध विराम, प्रश्नसूचक चिन्ह, विस्मयसूचक चिन्ह, उद्धरण चिन्ह एव पूर्ण विराम में ‘खड़ी पाई’ की जगह ‘बिन्दु (Point) का प्रयोग होने लगा।

देवनागरी लिपि की विशेषताएँ : 

                   वैज्ञानिक ध्वनि क्रम, प्रत्येक वर्ग में अघोष फिर सघोष वर्ण, वर्गों की अंतिम ध्ववियाँ नासिक्य, एक समान छपाई एवं लिखाई, ह्रस्व एवं दीर्घ स्वर विभाजन, निश्चित मात्राएँ, उच्चारण एवं प्रयोग में समानता तथा प्रत्येक के लिए अलग लिपि चिन्ह हैं।

हिंदी पर बोलिओं / लोक भाषाओं का प्रभाव

१. शब्द: हिंदी का शब्द भंडार समृद्ध है। इस समृद्धि का मूल बोलियाँ ही हैं। हिंदी ने भारत की सभी बोलियों से निस्संकोच शब्द ग्रहण कर अपने बना लिए हैं। कुछ शब्द ज्यों की त्यों लिए गए हैं, कुछ को हिंदी ने अपनी प्रकृति के अनुसार ढाल लिया है। देशज तथा हिंदी में प्रयुक्त कुछ शब्द: देशज अवगुन - अवगुण, बुंदेली अठवाई (आठ पूड़ी), अवधी- परपंच - प्रपंच, पहुना - अतिथि, ब्रज गोधन - गौएँ, भोजपुरी अँकवार - आलिंगन, मालवी माच - मञ्च, कौरवी इनने-उनने - इन्होंने, उन्होंने, मगही - दुल्हिन - दुल्हन, भोजपुरी गोड़ - पैर, लबरधोंधों - मंद बुद्धि, मैथली बाभन - ब्राह्मण, छत्तीसगढ़ी माई - माता, मराठी आई - माँ, गुजराती अथाणुं - अचार, काठियावाड़ी काठी - कद, मारवाड़ी चोखा - सुंदर, मेवाड़ी बखाण - बखान, हाड़ौती चुनड़ -चुनरी, ऊबटणो - उबटन, शेखावाटी बावळी - बावली, ढुंढाड़ी आंपा - आप, रांखो - रखिए, कन्नौजी बिट्टी - बेटी, बैंसवाड़ी कलसा - कलश, हरियाणवी बाळना - बालना या जलाना, पंजाबी यकदम - एकदम आदि, डोगरी जजमान - यजमान, गढ़वाली, बन/बोण - वन, असमी मोय - मैं, तोय/तुमि - तुम, बोडो राजि - राजी/सहमत, खुसि - ख़ुशी, बांग्ला जॉल - जल, ओनुग्रहो - अनुग्रह, गल्प- गप्प/कहानी, उड़िया तुमे - तुम, चालिबा - चलो, संथाली सुकरी - सुअर, कोंहडा - कुम्हड़ा, तमिल तपला - तबला, तुण्टु- टुकड़ा, तेलुगु कष्टमु - कष्ट, तक़रारु - तकरार, मलयालम मात्रं - मात्र, स्थलत्त् - जगह, कन्नड़ लवंग लौंग, सक्करे - शकर, कोंकड़ी भितरलें - भीतरी, काळोख - कालिख, अँधेरा आदि। हिंदी ने विदेशी भाषाओँ से शब्द ग्रहण में भी कोताही नहीं की है। उदाहरण- अरबी- मतलब, कीमत, फ़ारसी- आराम, दूकान, तुर्की- कनात, नाशपाती, पुर्तगाली- अनन्नास, गमला, फ़्रांसिसी- पुलिस, काजू, स्पेनी- सिगरेट, सिगार, जापानी- रिक्शा, हाइकु, रुसी- स्पुतनिक, जार, ग्रीक- सुरंग, चीनी- चाय, लीची, लैटिन - ओशो, सुपर, बोनस, डच- ड्रिल, बम, फ्रेंच- मेयर, मीनू, सूप, अंग्रजी- सर, हेलो, अंकल आदि।

२. मुहावरे एवं कहावतें: हिंदी ने देश के विविध अंचलों की बोलियों से उनमें प्रचलित मुहावरे ग्रहण किए हैं। मुहावरे व कहावतें भाषा को संकेत में कम शब्दों में गहन अर्थ व्यक्त करने में समर्थ तथा बनाते हैं। हिंदी में बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी आदि के अनगिनत मुहावरे हैं। उदाहरण: अकेलो चना भार नईं फोरत (अकेला कहना भाड़ नहीं फोड़ता), घी देत बामन नर्रात, करिया अक्षर भैंस बराबर आदि।

३. छंद : अलग-अलग बोलिओं में उनके क्षेत्र के मौसम, फसल, पर्व, लोक प्रथाओं आदि के अनुरूप छंदों का विकास हुआ है। अपभ्रंश से होते हुए ये छंद हिंदी में भी आ गए हैं। हिंदी ने केवल बोलिओं ही नहीं अन्य देशी-विदेशी भाषाओं से भी छंद ग्रहण कर खुद को समृद्ध किया है। उदाहरण पंजाबी से माहिया, बुंदेली से आल्हा, मराठी से लावड़ी, फारसी से रुबाई, गजल आदि, अंग्रेजी से सॉनेट, जापानी से हाइकु, ताँका, बाँका, स्नैर्यु आदि।

                   सारत: हिंदी विश्ववाणी है इसलिए वह आवश्यकतानुसार विश्व की किसी भी भाषा-बोली से शब्द ग्रहण करती और उसे देती है।  हमें हिंदी की उदारतावादी सहिष्णुता को अपने जीवन में भी उतरना चाहिए तभी हम विश्व मानव बनकर वसुधैव कुटुंबकं, अयमात्मा ब्रह्म और  वैश्विक नीड़म की उदात्त विरासत के पात्र हो सकेंगे। 
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com