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गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

दोहा और नारी

लेख :
नारी-दोहा दूहते
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
नारी जननी है, जन्मदायिनी है। वह जीवन में हर परिस्थिति से सार ग्रहण करती है। कन्या, भगिनी, सहचरी और माँ सभी भूमिकाओं में नारी जीवन में रस संचार करती है। नारी, 'सार सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय' को मूर्तित करती है। यही विशेषताएँ हिंदी के छंदराज दोहा में भी हैं। संस्कृत में इसका नाम 'दोग्धक' है, 'दोग्धि चित्तिमित्ति दोग्धकम्' जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन कर ले।१ नारी भी हर भूमिका में अपने स्वजनों-परोजनों के चित्त में स्थान पाती है। आधुनिक हिंदी के जन्म के पूर्व इसकी जननी प्राकृत भाषा में लगभग ३००० वर्ष पूर्व से दोहा कहा जाता रहा है। दोहा ने हर युग में नारी की हर भूमिका का प्रशस्ति गान ही नहीं किया है अपितु नारी के दर्द और पीड़ा, संघर्ष और उत्कर्ष में साक्षी भी रहा है। दोहा ने नारी की अद्भुत छवियों को अभिव्यक्त कर अमर कर दिया है। बदलते समाज के साथ-साथ बदलती नारी की बदलती छवियों, दायित्वों तथा अवदान का संयुक्त मूल्यांकन दोहे ने किया है। आइए, दृष्टिपात करें-
नारी वंदना
विक्रम संवत १६७७ में रचित 'ढोला मारू दा दोहा' में नारी को समस्त सुरों तथा असुरों की स्वामिनी मानते हुए,सरस्वती कहकर वंदना करते हुए अविरल मति का वरदान माँगा गया है। यहाँ सुरासुर में श्लेष अलंकार का सुन्दर प्रयोग है। सुरासुर के दो अर्थ देव-दानव तथा स्वर-अ स्वर (संगीत संबंधी) है।
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति।
विनय करीन इ वीनवूं,मुझ तउ अविरल मत्ति।।२
उत्सर्ग
काव्य शास्त्र, योग शास्त्र तथा जैनदर्शन के अप्रतिम विद्वान आचार्य हेमचन्द्र सूरी (११४५-१२२९) रचित ग्रंथ 'शब्दानुशासन' के एक दोहे में नायिका अपने पति का देहांत होने पर संतोष व्यक्त कर कहती है 'भला हुआ'। सामान्यत: सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपने सुहाग के लिए मंगलकामना ही करती हैं किन्तु विपरीत आचरण कर रही यह स्त्री अपने सुहाग के साथ-साथ राष्ट्र के प्रति भी कर्तव्य बोध के दिव्य भाव से भी संपन्न है। दोहा उसके इस आचरण पर प्रकाश डालता है-
भल्ला हुआ जु मारिया, बहिणी म्हारा कंतु।
लज्जेजं तु बयसि अहू, जइ भग्गो घर एन्तु।।३
भला हुआ; मारा गया मेरा बहिन सुहाग।
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग।।
विदुषि
कर्णाटक के चालुक्य नरेश तैलप को ६ बार पराजित कर क्षमादान करने के बाद मालवा का परमार नरेश मुंज सातवें युद्ध में छलपूर्वक हराकर, बंदी बना लिया गया। उसकी ख्याति और व्यक्तित्व का प्रभाव यह की तैलप की विधवा बहिन मृणालिनी बंदी मुंज को दिल दे बैठी।काठियावाड़ गुजरात निवासी आचार्य मेरुतुंग रचित ऐतिहासिक कृति 'प्रबंध चिंतामणि'(१३०४ ई.) में मुंज मृणालवती प्रसंग में नीतिगत दोहों के माध्यम से ज्ञात होता है कि उस समय की नारियाँ विविध विषयों पर विद्वतापूर्ण विमर्श भी कर लेती थीं-
भुञ्ज भणइ मृणालवइ, जुब्बण गयुं न झूरि।
जइ सक्कर सय खंडथिय, तौ इस मीठी चूरि।।
जा मति पच्छइ संपजइ, सा मति पहिली होइ।
भुञ्ज भणइ मृणालवइ, बिघन न बेढ़इ कोइ।।
माया
संत शिरोमणि कबीर (सं १४५५-१५७५) के बीजक में नारी संबंधी कई दोहे प्राप्त होते हैं। कबीर नारी को 'माया' मानते हुए कहते हैं -
कबिरा माया चोरटी, मुसि मुसि लावै हाट।
एक कबीरा ना मुसै, कीन्हि बारहबाँट।।
पथ प्रदर्शक
गोस्वामी तुलसीदास (संवत १५५४-१६८०) जब अपनी पत्नी रत्नावली के रूप-पाश में अत्यधिक आसक्त होकर अपना धर्म और कर्तव्य भूल गए तब उनकी पत्नी रत्नावली ने उन्हें धिक्कारते हुए राह दिखाकर राम-भक्ति की ओर उन्मुख करते हुए कहा-
लाज न आवतु आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ।।
अस्थि-चर्ममय देह मम, तामें जैसी प्रीति।
तिसु आधी जो राम प्रति, होति न तौ भवभीति।।
जगजननी, पथप्रदर्शक तथा मर्यादाप्रिय रामचरित मानसकार तुलसीदास नारी को परखते रहने की सलाह देते हुए कहते हैं -
उरग तुरग नारी नृपति, नर नीचे हथियार।
तुलसी परखब रहब नित, इनहिं न पलटत बार।।
मंत्र तंत्र तंत्री तिया, पुरुष अश्व धन पाठ।
प्रतिगुण योग-वियोग ते, तुरत जाहिं ये आठ।।
नारि नगर भोजन सचिव, सेवक सखा अगार।
सरस परिहरे रंग रस, नीरस विषद विकार।।४
विदुषी रत्नावली (सं. १५६७-१६५१) अपने पति रामबोला को कर्तव्य का पाठ पढ़कर तुलसीदास बना देती हैं। तुलसी राम भक्ति मार्ग पर पग बढ़ाते हैं तो रत्नावली बाधक नहीं होतीं, वे अपने परित्यग हेतु तुलसी को कभी दोष नहीं देतीं, इसे प्रारब्ध मानकर संतोष करती हैं।
'रतन' देव बस अमृत बिष, बिष अमरित बनि जात।
सूधि हू उलटी परै, उलटी सूधी बात।।
'रतनावलि' औरै कछू, चहिय होइ कछू और।
भल चाहत 'रतनावली' विधि बस अनभल होइ।
रत्नावली से मिलने की चाह में तुलसी, सर्प को रस्सी समझकर उसे पकड़कर रत्नावली के कक्ष में पहुँच गए थे। रत्नावली इस प्रसंग को भूली नहीं, वे लिखती हैं -
जानि परै कहुँ रज्जु अहि, कहिं अहि रज्जु लषात।
रज्जु-रज्जु अहि-अहि कबहुँ, 'रतन' समय की बात।
तुलसी के रत्नावली से विमुख होकर राम भक्ति में लीन होने पर भी रत्नावली उनके प्रति मन कोई कटुता नहीं रखतीं और पति को नारी का सच्चा श्रृंगार कह कर अपनी उदार वृत्ति का परिचय देती हैं -
पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार।
सिब सिंगार 'रतनावली', इक पियु बिन निस्सार।।
तुलसी को कर्तव्य बोध कराने के लिए कहे गए अपने कटु वचन के प्रति खेद व्यक्त करते हुए रत्नावली लिखती हैं -
'रतनावलि' मुखबचन हूँ, इक सुख-दुःख को मूल।
सुख सरसावत वचन मधु, कटु उपजावत सूल।।
'रतनावलि' काँटो लग्यो, वैदनि दयो निकारि।
वचन लग्यो निकस्यो कहुँ, उन डारो हिय फारि।।
संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान, अप्रतिम दोहाकार अब्दुर्रहीम खानखाना (सं. १६१०-१६८२) के नीति परक दोहे समय और साहित्य की थाती हैं। रहीम नारी के संरक्षण को आवश्यक मानते हैं-
उरग तुरग नारी नृपति, नीच जाति हथियार।
रहिमन इन्हें सँभारिए, पलटत लगै न बार।।
नारी के रूप की वंदना करते हुए कहा गया रहीम का यह दोहा कालजयी है-
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन।
मीठो भावै लोन पर, अरु मीठे पर लोन।।
समाज में नारी को अभिव्यक्ति का अवसर न मिले तो अयोग्य जन आगे बढ़ जाते हैं। यह सनातन सत्य संसद में भारतीय स्त्रियों की अल्प संख्या और निरंतर बढ़ते जाते अपराधी सांसदों को देखकर भी कहा जा सकता है। तुलसी और रहीम दोनों ही इस सनातन सत्य को दोहा में कोयल के माध्यम से व्यक्त करते हैं -
'तुलसी' पावस के समय, धरी कोकिलन मौन।
अब तो दादुर बोलिहैं, हमहिं पूछिहैं कौन।। - तुलसी
पावस देखि रहीम मन, कोयल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन।। - रहीम
दोहा सम्राट बिहारी (सं. १६६०-१७७३) नारी (राधा) से भव-बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाईं परै, स्यामु हरित दुति होइ।।
बिहारी नारी के दैहिक सौंदर्य पर आत्मिक सौंदर्य को वरीयता देते हुए, सौंदर्य को समय-सापेक्ष बताते हैं-
समै समय सुंदर सबै, रूपु कुरूपु न कोइ।
मन की रुचि जेती जितै, तित तेति रुचि होइ।।
नारी अस्मिता का रक्षक दोहा
बुंदेलखंड की अतीव सुंदरी विदुषी कवयित्री-नर्तकी राय प्रवीण की कीर्ति दसों दिशों में फ़ैल गयी थी। वे ओरछा नरेश इंद्रजीत के प्रति समर्पित, उनकी प्रेयसी थीं। अकबर ने इस नारीरत्न को अपने दरबार में भेजने का संदेश भेजा। बादशाह की हुक्मउदूली करने पर राज्य संकट में पड़ जाता। राजगुरु केशवदास राज्य हित में रायप्रवीण के साथ अकबर के दरबार में गए। बादशाह द्वारा आमंत्रण दिए जाने पर राय प्रवीण ने एक दोहा कहा जिसे सुनकर अकबर पानी-पानी हो गया और अतिथियों का सम्मान कर उन्हें बिदा किया। रायप्रवीण की अस्मिता का रक्षक बन दोहा निम्न है-
बिनती राय प्रवीन की, सुनिए शाह सुजान।
जूठी पातल भाखत हैं, बारी बायस स्वान।।
दृढ़ संकल्प की धनी
नारी जो पाना चाहती है, उसे पाने की राह भी निकाल ही लेती है। दृढ़ संकल्प की धनी गोकुल की नारी कुल मर्यादा का पालन करते हुए भी, कृष्ण की मुरली के रस का पान कर ही लेती है-
किती न गोकुल कुल बधू, किहि न काहि सुख दीन।
कौनैं तजि न कुल-गली, व्है मुरली सुर लीन।।
ठाकुर पृथ्वी सिंह 'रसनिधि' (रचनाकाल सं. १६६०-१७१७) भी नारी (राधा) से बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -
राधा सब बाधा हरैं, श्याम सकल सुख देंय।
जिन उर जा जोरी बसै, निरबाधा मुख लेंय।।
मतिराम त्रिपाठी (१६०४ ई.-१७०१ई.) भूख-प्यास की परवाह न कर व्रत कर रही नारी से पूछते हैं -
नींद भूख अरु प्यास तजि, करती हो तन राख।
जलसाई बिन पूजिहैं, क्यों मन के अभिलाख।।
नारी के रूप की वंदना करते हुए मतिराम, उसकी समता का प्रयास कर रहे चंद्रमा को दोषी ठहराते हैं-
तेरी मुख समता करी, साहस करि निरसंक।
धूरि परी अरविंद मुख, चंदहि लग्यो कलंक।।
महाभारत कथा में अभिमन्यु द्वारा माँ के गर्भ में चक्रव्यूह वेधन कला सीखने का वर्णन है। वृन्द (१६४३-१७२३ ई.) माँ के गर्भ में पल रहे शिशु पर पड़ रहे प्रभाव को उल्लेखनीय मानते हैं-
नियमित जननी-उदर में, कुल को लेत सभाव।
उछरत सिंहनि कौ गरभ, सुनी गरजत घनराव।।
बृज की नारियों की महिमा बताते हुए वृन्द कहते हैं कि उनके आगे ठकुराई नहीं चलती, स्वयं त्रिभुवनपति उनके पीछे-पीछे जंगल-जंगल घूमते हैं-
अगम पंथ है प्रेम को, जहँ ठकुराई नाहिं।
गोपिन के पाछे फिरे, त्रिभुवन पति बन माहिं।।
वृन्द नारी की तुलना पंडित और लता से करते हैं -
पंडित बनिता अरु लता, सोभित आस्रय पाय।
अंग दर्पन तथा रसबोध जैसी कालजयी कृतियों के रचयिता सैयद गुलाम अली 'रसलीन' (सं १७७१-१८८२) भी राधा रानी से भव-बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -
राधा पद बाधा हरन, साधा करि रसलीन।
नारी सौंदर्य का शालीनतापूर्वक वर्णन करने में रसलीन का सानी नहीं है। चंद्रमुखी नायिका बालों को स्निग्ध कर इस तरह जूड़ा बाँध रही है कि नायक की पगड़ी भी लज्जित है -
यों बाँधति जूरो तिया, पटियन को चिकनाय।
पाग चिकनिया सीस की, या तें रही लजाय।।
अमी हलाहल मद भरे, स्वेत स्याम रतनार।
जियत मरत झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।।
विक्रम सतसई के रचयिता चरखारी नरेश महाराज विक्रमादित्य सिंह (राज्यकाल सं. १८३९-१८८६) के दोहे नारी-सौंदर्य के लालित्यपूर्ण वर्णन तथा अनूठी उपमाओं से संपन्न हैं-
तरुनि तिहारो देखियतु, यह तिल ललित कपोल।
मनौ मदन बिधु गोद में, रविसुत करत किलोल।।
गौने आई नवल तिय, बैठी तियन समाज।
आस-पास प्रफुलित कमल, बीच कली छवि साज।।
रामसहाय अस्थाना 'भगत' (रचनाकाल सं. १८६०-१८८०) ने 'राम सतसई में ब्रज भाषा का उपयोग करते हुए नारी के लिए 'गहन जोबन नय चातुरी, सुंदरता मृदु बोल' को आवश्यक मानते हैं। इस दोहे में रात्रि-रति से थकी नायिका भोर में आलस्य से जंभा रही है-
नैन उनींदे कच छुटे, सुखहि छुटे अंगिराय।
भोर खरी सारस मुखी, आरस भरी जँभाय।।
शुद्ध साहित्यिक खड़ी हिंदी में रची गई 'हरिऔध सतसई' के रचनाकार अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध (१५ अप्रैल १८६५-१६ मार्च १९४७) 'सारी बाधाएँ हरे, नारी नयनानंद' कहकर नारी की सामर्थ्य का आभास कराते हैं। नारी के मातृत्व को प्रणतांजलि देते हुए उसकी ममता को पय-धार का कारण बताते हैं हरिऔध जी-
जो महि में होती नहीं, माता ममता भौन।
ललक बिठाता पुत्र को, नयन-पलक पर कौन।।
छाती में कढ़ता न क्यों, तब बन पय की धार।
जब माता उर में उमग, नहीं समाता प्यार।
रामचरित उपाध्याय (सं. १९२९) ने 'बृज सतसई' में नारी सौंदर्य और प्रशंसा के अनेक दोहे रचे हैं। वे एक दोहे में धर्म विमुख नारी को भी दंडित करने की सलाह देते हैं -
नारी गुरु पितु मातु सुत, सचिव महीपति मीत।
बंधु विप्रहु डंडिए, धर्म-विमुख यह नीत।।
हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा मंगलप्रसाद पुरस्कार से पुरस्कृत कृति 'वीर सतसई' के रचनाकार हरि प्रसाद द्विवेदी 'वियोगी हरि' (१८९५-१९८८ई.) नारी में चंडिका को देखते हैं। वे नारी की उपस्थिति मात्र से 'काम' को नष्ट होता देखते हैं -
जहँ नृत्यति नित चंडिका, तांडव नृत्य प्रचंड।
कुसुम तीर तँह काम के, होत आप सत-खंड।।
नारीरत्न पद्मिनी को 'सिंहिनी' तथा रूप-लोलुप सुलतान को 'कुत्ता' कहते हुए वियोगी हरि जी प्रणतांजलि अर्पित करते हैं-
वह चित्तौर की पद्मिनी, किमि पेहो सुल्तान।
कब सिंहनि अधरान कौ, कियौ स्वयं मधु पान।।
रण जाते चूड़ावत सरदार को मोहासक्त देखकर अपने सर काट कर भेंट देनेवाली रानी, रामकुँवर को बचाने के लिए अपने पुत्र की बलि देनेवाली पन्ना धाय, गढ़ा मंडला की वीरांगना रानी दुर्गावती, मुग़ल सम्राट को चुनौती देनेवाली चाँद बीबी, १८५७ के स्वातंत्र्य संग्राम में अंग्रेजों को नाकों चने चबवानेवाली रानी लक्ष्मीबाई आदि के पराक्रम पर दोहांजलि देकर वियोगी हरि बाल विधवाओं की पीड़ा पर भी दोहा रचते हैं -
जहाँ बाल विधवा हियेँ, रहे धधकि अंगार।
सुख-सीतलता कौ तहाँ, करिहौ किमि संचार।।
सुधा संपादक दुलारेलाल भार्गव (१९५६ ई. -६-९-१९७५) नारी में दीपशिखा के दर्शन करते हैं-
दमकत दरपन-दरप दरि, दीपशिखा-दुति देह।
वह दृढ़ इकदिसि दिपत यह, मृदु दस दिसनि सनेह।।
इतना ही नहीं, यहाँ तक कहते हैं कि कामिनी की कृपा होने पर ईश्वर की ओर भी क्यों देखा जाए?
कविता कंचन कामिनी, करैं कृपा की कोर।
हाथ पसारै कौन फिर, वहि अनंत की ओर।।
गीत सम्राट बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' (८-१२-१८९७-२९-४-१९६०) की मुखरा नायिका नेत्रों में प्रिय की छवि होने का उलाहना देते हुए कहती है-
खीझहु मत; रंचक सुनहु, ओ सलज्ज सरदार।
हमरे दृग में लखि तुम्हें, विहँसि रह्यो संसार।।
राष्ट्रीय आत्मा के विशेषण से प्रसिद्ध राजाराम शुक्ल 'चितचोर' (सं. १९५५-) ने 'आँखों' पर लिखे दोहों में हर रस का समावेश किया है। कौवे अपनी निष्ठुर नायिका के नेत्रों की लाल रेखाओं को प्रेम पंथ नहीं; रसिकों के रुधिर से बनी बताते हैं-
लाल-लाल डोरे नहीं, प्रेम-पंथ की रेख।
हैं रसिकों के रुधिर से, अरुण हो रहे देख।।
'चंद्रमुखी के दृग बने. सूर्यमुखी के फूल', 'बिन बंधन अपराध बिन, बाँध लिया मजबूत', 'आँखों की ही है तुला, आँखों के ही बाँट', 'आनन आज्ञा पत्र पर, आँखें मुहर समान जैसी', 'क्यों न चलाऊँ आपकी आँखों पर अभियोग' सरस अभिव्यक्तियों के धनी चितचोर नारी की मादक मधुरता के गायक हैं-
प्रेम दृष्टि की माधुरी, अधर-माधुरी सान।
रूप माधुरी से मधुर, करा रही जलपान।।
राधावल्लभ पांडेय 'बंधु' (जन्म ऋषि पंचमी सं. १९४५) आधुनिक नारी के छलनामय आचरण पर शब्दाघात कर कहते हैं-
अनुचित उचित न सोचती, हरती है सम्मान।
भरी जवानी ताकती, काम भरी मुस्कान।।
जाल बिछाती फाँसती, करके यत्न महान।
ठगती भोले 'बंधु' को, मतलब की मुस्कान।।
दीनानाथ 'अशंक' नारी में देवियों का दिव्य दर्शन करते हैं-
नारी के प्रति आर्यजन, रखते भाव अनूप।
गिनते उसको शारदा; शक्ति रमा का रूप।।
'श्याम सतसई' के रचनाकार तुलसीराम शर्मा 'दिनेश' (जन्म सं. १५५३) नारी की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए उसे नर से श्रेष्ठ तथा प्रकृति को पतिव्रता बताते हैं -
माधव के उर में यदपि, बसते दीनानाथ। राधा उर को देखिए, बसते दीनानाथ।।
नहीं प्रकृति सी पतिव्रता, जग में नारी अन्य।
मूक-पंगु पति की सदा, करती टहल अनन्य।।
बुंदेलखंड के श्रेष्ठ उपन्यासकार, चित्रकार और राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक अंबिका प्रसाद वर्मा 'दिव्य' (१६ मार्च १९०७-५ सितंबर १९८६) ने 'दिव्या दोहावली में चित्रों पर आधारित दोहे लिखकर कीर्तिमान स्थापित किया। नारी के नयनों को चाँद कहें या सूर्य? यह प्रश्न दिव्य जी का दोहा पूछ रहा है-
का कहिए इन दृगन कौं, कै चंदा कै भानु।
सौहैं ये शीतल लगें, पीछे होंय कृशानु।।
अलंकारों, उपमाओं और बिम्बों से सज्जित और समृद्ध दिव्य जी के बुंदेली में रचित दोहों में नारी की प्रकृति और स्वाभाव को संकेतों के माध्यम से केंद्र में रखा गया है। ननद - भौजाई के मधुर संबंध पर रचित एक दोहे में दिव्य जी कहते हैं-
परभृत कारे कान्ह की, भगिनी लगे सतभाइ।
ननद हमारी कुहिलिया, कस न हमें तिनगाइ।।
रामेश्वर शुक्ल 'करुण' श्रमजीवी नारी की विपन्नता और आधुनिक की दिशाहीनता को दो दोहों के माध्यम से सामने लाते हैं -
कृषक वधूटीं की दशा, को करि सकै बखान।
जाल निवारन हेतु जो, नहिं पातीं परिधान।।
धन्य पश्चिम सुंदरी, मोहनि मूरति-रूप।
नहिं आकर्षे काहि तव, मोहक रूप अनूप।।
मध्य भारत के दीवान बहादुर चंद्रभानु सिंह 'रज' बृज-अवधी मिश्रित भाषा में लिखी गयी 'प्रेम सतसई' में नारी की महिमा का बखान कई दोहों में करते हैं। वे भी श्याम के पहले राधा की वंदना करते हैं। रज नारी का अपमान करनेवालों को चेताते हुए कहते हैं-
अरे बावरे! ध्यान दे, मति करि तिय अपमान।
सति सावित्री जानकी, 'रज' नारी धौं आन।।
संबु राम नहिं करि सके, नहिं पाई निज तीय।
'रस' सोइ नारी स्वर्ग तें, लिए फेरि निज पीय।।
६३८४ दोहों के रचयिता किशोर चंद्र 'कपूर' (जन्म सं. १९५६, कानपुर) नारी को माया मानकर उसके प्रभाव को स्वीकार करते हैं-
माया से बचता नहीं, निर्धन अरु धनवान।
साधु संत छूटत नहीं, माया बड़ी महान।।
'नावक के तीर' तथा 'उग आई फिर दूब' दोहा सतसई सहित १४ कृतियों के रचयिता हरदोई में अनंत चतुर्दशी सं. २०१३ को जन्मे, विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर दिवय नर्मदा हिंदी रत्न अलंकरण से अलंकृत डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत' वर्षा, पूनम, शरद शाम आदि को नारी से जोड़कर सामयिक संदर्भों के अर्थगर्भित दोहे कहने में सिद्धहस्त हैं। वे नारी के अवदान को संजीवनी कहते हैं -
जब-जब मैं मूर्छित हुआ, लड़कर जीवन युद्ध।
दे चुंबन संजीवनी, तुमने किया प्रबुद्ध।। ५
नारी को प्रेरणा शक्ति के रूप में देखते हैं अनंत जी-
ओठों पर मुक्तक लिखूँ, लिखूँ वक्ष पर छंद।
आँखों पर ग़ज़लें लिखूँ, गति पर मत्तगयंद।। ६
अभियंता कवि चन्द्रसेन 'विराट' (३-१२-१९३६-१५-११-२०१८) अभिनव और मौलिक बिम्ब-विधान तथा नवीन उपमाओं के लिए जाने जाते रहे हैं। गीतों (१२), ग़ज़लों (१०), मुक्तक (३) तथा दोहों (३) के संकलनों के माध्यम से कालजयी साहित्य रचनेवाले विराट ने नारी को केंद्र में रखकर शताधिक दोहे कहे हैं। आधुनिकता के नाम पर सौंदर्य प्रतियोगिताओं में होते नारी शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए विराट कहते हैं-
स्पर्धाएँ सौंदर्य की, रूपाओं की हाट।
धनकुबेर को लग गयी, सुंदरता की चाट।।
नारी शोषण के विरुद्ध दोहे लिखने में विराट जी संकेतों में सत्य को इस तरह उद्घाटित करते हैं कि पाठक के मन तक बात पहुँचे -
ठकुराइन मइके गई, पकी न घर में दाल।
घर की मुर्गी रामकली, उसको किया हलाल।।७
हरियाणा के राज्य कवि उदयभानु 'हंस' (२-८-१९२६-२६-२-२०१९) नारी के जीवन में औरों के हस्तक्षेप को कठपुतली के माध्यम से इंगित करते हैं-
कठपुतली के नाच पर, सब हैं भाव विभोर।
नहीं पता नेपथ्य में, कौन हिलाता डोर।।८
स्वामी श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन' (जन्म २६-११-१९२०) नारी के दो रूपों 'बेटी' और 'बहू' को केंद्र में रखकर एक मर्मस्पर्शी और मार्गदर्शी दोहा कहते हैं-
बेटी जैसी बहू है, इसका रखें विचार।
बहू बने बेटी सरिस, सुखी बसे परिवार।।९
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा पुरस्कृत के नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य भगवत दुबे नारी उत्पीड़न के प्रमुख कारण दहेज की कुप्रथा पर आघात करते हुए लिखते हैं-
सगुणपंछीयों को रहे, उल्लू-गिद्ध खदेड़।
क्वाँरी बुलबुल हो रही, दौलत देख अधेड़।।१०
परिणय प्रसंग में नारी की भूमिका को लेकर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' अपनी बात कुछ व्यंजना और हास्य मिलाकर भिन्न दृष्टिकोण से सामने रखते हैं। यहाँ 'वरदान' में श्लेष का प्रयोग दृष्टव्य है।
नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान।
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान।।
दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन।
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन।।
दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान।
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान।।११
डॉ. किशोर काबरा, कबीर की उलटबाँसी शैली का प्रयोग करते हुए व्यंजना में कहते हैं कि नारी द्वारा तिरस्कृत नर का उद्धार संभव नहीं-
कलियुग में श्री राम का, कैसे हो परित्राण।
स्पर्श अहल्या का मिला, राम हुए पाषाण।।१२
कल्पना रामानी नारी को अन्नपूर्णा कहते हुए उसकी बचत करने की प्रवृत्ति को सामने लाती हैं -
अन्नपूर्णा है सदा, जब भी पड़े अकाल।
संचित दानों से करे, नारी सदा कमाल।।१२
सीता को प्रतीक बनाकर नारी पर दोषारोपण की सामाजिक कुप्रवृत्ति पर आघात करते हैं कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र'। सीता को मिले वनवास को न रोक पाने की आत्मग्लानि से श्री राम जलसमाधि लेकर जीवनांत कर लेते हैं -
सीताजी को त्यागकर, पछताए प्रभु खूब।
खिन्न हुए इस ग्लानि से, गए नदी में डूब।। १३
दुर्गावती, चाँदबीबी, लक्ष्मीबाई, अवंतीबाई, चेन्नमा आदि नारी आदि ने देश की स्वतंत्रता के लिए जान की बाजी लगाने में कोई संकोच नहीं किया। कस्तूरबा गाँधी, सरोजिनी नायडू, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि ने स्वतंत्रता सत्याग्रह में महती भूमिका निभाई। नागार्जुन इन नारी रत्नों को कोयल की उपमा देते हुए एक दोहा कहकर उनके अवदान को नमन करते हैं-
जली ठूंठ पर बैठकर, गयी कोकिला कूक।
बाल न बाँका कर सकी, शासन की बंदूक।।१४
नारी विवाह पश्चात् ससुराल आ जाती है तो सावन में भाई का स्मरण होना और न मिल पाने की विवशता, उसे व्यथित करती ही है। आर. सी.शर्मा 'आरसी' नारी-वेदना के इस पक्ष को सामने लाते हैं-
सावन बरसे आँख से, ब्याही कितनी दूर।
बाबुल भी मजबूर थे, मैं भी हूँ मजबूर।।
डॉ. शैल रस्तोगी (जन्म १-९-१९२७) नारी जीवन के दो पक्षों को दो दोहों के माध्यम से सामने लाती हैं -
पत्नी, माँ, बेटी, बहिन, भौजी, ननदी, सास।
एक ज़िंदगी में जिए, नारी सौ अहसास।।
बहुएँ बड़बोली हुईं, सासें दिन-दिन मौन।
उलटी गंगा बाह रही, घर को बाँधे कौन।।
डॉ. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र' (१.४.१९३४-२०१९) संतानों के अन्यत्र जा बसने से उपजी विसंगति को इंगित करते हुए कहते हैं -
बीबी-बच्चे संग ले, शहर जा बसा पूत।
बूढ़ी आँखें साँझ से, घर में देखें भूत।।
नर्मदांचल के ख्यात साहित्यकार माणिक वर्मा (जन्म २५.१२.१९३८) अत्याधुनिकता की चाह में शालीनता-त्याग की कुप्रवृत्ति को इंगित करते हुए कहते हैं -
कटि जंघा पिंडलि कमर, दिया वक्ष भी खोल।
और कहाँ तक सभ्यता, बदला लेगी बोल।।
मधुकर अष्ठाना (२७.१०.१९३९) निरंतर बढ़ते यौन अपराधों पर अपनी चिंता व्यक्त करते हैं -
नाबालिग से रेप क्यों, पतित हुआ यूँ देश।
हैवानों ने धर लिया, इंसानों का वेश।।
नारी विमर्श की बात स्थूल रूप से न कर, धूप, चाँदनी, आकाश, धुएँ और बाज चिड़िया, खेत के माध्यम से करते हैं डॉ. कुँवर बेचैन (१.७.१९४२-२९.४.२०२१) -
धूप साँवली हो गयी, हुई चाँदनी शाम।
जब से यह सारा गगन, हुआ धुएँ के नाम।।
फँस चंगुल में बाज के, चिड़िया हुई अचेत।
खड़ा देखता रह गया, हरी चरी का खेत।।
डॉ. राधेश्याम शुक्ल (२६.१०.१९४२) इस चलभाष काल में बिसराई जा चुकी चिट्ठी को नारी से जोड़ते हुए कहते हैं-
औरत चिट्ठी दर्द की, जिस पर पेट मुकाम।
फेंक गया है डाकिया, पत्थरवाले गाम।।
दिनेश शुक्ल (१-१-१९४३) तमाम बाधाओं के बावजूद आगे बढ़ते रहने के नारी के हौसले को सलाम करते हैं -
गाँठ लगी धोती फ़टी, सौ थिगड़े पैबंद।
लड़की बुनती रात दिन, मुस्कानों के छंद।।
सूर्यदेव पाठक 'पराग' (२३-७-१९४३) नारी को नर की शक्ति कहते हैं -
नारी नर की शक्ति है, वही प्रेरणापुञ्ज।
जीवन रेगिस्तान में, सुंदर कुसुमित कुञ्ज।।
डॉ. रमा सिंह (१७.१०.१९४५) नारी के स्वाभिमान की रक्षा को महत्वपूर्ण मानती हैं -
अम्मा की आँखें मुझे, सदा दिलातीं याद।
कमज़र्फों के सामने, मत करना फरियाद।।
डॉ. मिथलेश दीक्षित (१-९-१९४६) नारी के दो रूपों की दो चरित्रों के माध्यम से चर्चा करते हुए युगीन विसंगति को इंगित करती हैं-
शूर्पणखा की धूम है, रही जानकी चीख।
झूठ कार में घूमता, सत्य माँगता भीख।।
हिंदी के कालजयी छंद दोहा ने हर देश-काल में नारी की अस्मिता का सम्मान कर, उसके अधिकारों के बात की है, शौर्य का गुणगान किया है और पथ भटकी नारियों को सत्परामर्श देकर मार्ग दर्शन भी किया है। हिंदी के प्रतिष्ठित और नवोदित सभी दोहाकारों ने नारी को केंद्र में लेकर दोहे रचे हैं। आदि काल में देवी वंदना, वीरगाथा काल में वीरांगना प्रशस्ति, भक्ति काल में आत्मा-परमात्मा, रीति काल में श्रृंगार और नायिका वर्णन, आधुनिक काल में समसामयिक सामाजिक विसंगतियों के नारी पर प्रभाव को दोहे ने हमेशा ही ह्रदय में बसाया है। एक लेख में यह सब कुछ समेटा नहीं जा सकता। नारी सृष्टि का अर्धांग ही नहीं जननी भी है। नर और नारी एक-दूसरे के पूरक हैं। मैंने एक दोहे के माध्यम से नर-नारी की सहभागिता और समन्वय को इंगित किया है -
नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान.
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान.
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नारी को माँगे बिना, मिल जाता नर-दास.
कुल-वधु ले नर दान में, सहता जग-उपहास.
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दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन.
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन.
.
चीन्ह-चीन्ह आदेश दे, हक लेती है छीन.
समता कर सकता न नर, कोशिश नाहक कीन.
.
दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान.
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान.
.
यह उसका रहमान है, वह इसकी रसखान.
उसमें इसकी जान है, इसमें उसकी जान.
*
संदर्भ -
१. अनंतराम मिश्र 'अनंत', नावक के तीर।
२. दोहा-दोहा नर्मदा, संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।
३. हिंदी दोहा सार, सम्पादक बरजोर सिंह 'सरल',
४. रामचरित मानस, गोस्वामी तुलसीदास
५. नावक के तीर, डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत'
६. उग आयी फिर दूब, डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत'
७. चुटकी-चुटकी चाँदनी - चन्द्रसेन 'विराट'
८. दोहा सप्तशती - उदयभानु हंस
९. होते ही अंतर्मुखी - श्यामानंद सरस्वती 'रौशन'
१०. शब्दों के संवाद - आचार्य भगवत दुबे
११. दिव्यनर्मदा.इन / दोहा सलिला - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
१२. बाबूजी का भारत मित्र, दोहा विशेषांक - संपादक रघुविंदर यादव
१३. स्वरूप सहस्रसई - कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र'
१४. समकालीन दोहा कक्ष - संपादक हरेराम 'समीप'
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४
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बुधवार, 12 अप्रैल 2023

दिनकर कुमार, हरभगवान चावला, चमन श्रीवास्तव, बुंदेली ग़ज़ल, गीत, शेर, सॉनेट, सीता, मुक्तिका, महादेवी, एकांकी

स्मरण महीयसी महादेवी जी:
संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघुनाट्य
(इसे विद्यालयों में अलप सज्जा के साथ अभिनीत भी किया जा सकता है)

राह
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मंच सज्जा - मंच पर एक कमरे का दृश्य है। दीवारें, दरवाजे सफेद रंग से पुते हैं। एक दीवार पर खिड़की के नीचे एक तख़्त बिछा है जिस पर सफ़ेद चादर, सफ़ेद तकिया है। सिरहाने सफेद रंग की कृष्ण जी की मूर्ति रखी है। समीप ही एक मेज पर कुछ पुस्तकें कलम, सफेद कागज, लोटे में पानी हुए २ गिलास रखे हैं। एक कुर्सी पर बैठी एक युवती कुछ लिख रही है। युवती सफ़ेद साड़ी-जंपर (कमर तक का ब्लाउज) पहने हैं आँखों पर चश्मा है। सर पर पल्ला लिए है। कमरे में अन्य दीवारों से लगकर ४ कुर्सियाँ है जिन पर सफ़ेद आसंदी बिछी है।
एक सुशिक्षित, सुदर्शन युवक जिसने पेंट-कमीज-कोट पहने है, गले में टाई बाँधे है, पैरों में जूते-मोज़े पहने है, दरवाजे की कुण्डी खटखटाता है। युवती उठकर दरवाजा खोलती है। दोनों एक-दूसरे को नमस्कार करते है।
युवती- 'आइए! बैठिए?
दोनों कमरे में प्रवेश कर कुर्सियों पर बैठते हैं। युवती लोटे से पानी निकाल कर देती है।
युवती - 'घर पर सब कुशल-मंगल है?'
युवक - 'हाँ सब ठीक है।'
युवती - 'कहिए, कैसे आना हुआ?'
युवक - 'चलो, मैं तुम्हें लेने आया हूँ।
युवती - 'अरे! कहाँ चलना है?'
युवक - 'और कहाँ?, अपनी गृहस्थी बसाने।'
युवती - 'लेकिन हम तो नहीं चल सकतीं, आप बसा लीजिए अपनी गृहस्थी।'
युवक - 'आपके बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? आपके साथ ही तो गृहस्थी बसाना है। मैं कई इतने वर्षों तक लखनऊ मेडिकल कॉलेज में पढ़ता रहा। अब पढ़ाई पूरी हो गई है।'
युवती - 'बधाई आपको। अब अपना विवाह कीजिए और घर बसाइए।'
युवक - विवाह? मेरा विवाह तो हो चुका है, तुम्हारेआपके साथ, बचपन में ही। तुम्हेंआपको याद न हो तो अपने माता-पिता से पूछ लीजिए।'
युवती - 'पूछना क्या है? हमें धुँधली सी याद है। तब तो हम विवाह का मतलब भी नहीं समझती थीं। कई पीढ़ी बाद कुल में कन्या का जन्म हुआ था। पुण्य-लाभ के लोभ में दादा जी ने पिताजी के विरोध को दरकिनार कर यह आयोजन कर दिया था। बारात आई तो हम, सबके बीच खड़े होकर बारात देखते रहे। हमें व्रत रखने को कहा गया था लेकिन घर में तरह-तरह की मिठाई बनी थी, सो हमने डटकर मीठी खाई और सो गए। सवेरे उठकर देखा तो कपड़ों में गाँठ बँधी थी। हमने गाँठ खोली और खेलने भाग गए। कब-क्या हुआ, कुछ नहीं पता। ऐसे संबंध का कोई अर्थ नहीं है।'
युवक - 'आप ठीक कहती हैं। मैं भी बच्चा ही था, विवाह का अर्थ क्या समझता? बड़ों ने जो कराया, करता चला गया। बड़ों ने ही बताया कि घर आकर आप बहुत रोईं, किसी प्रकार चुप ही नहीं हुईं। किसी के समझने-बहलाने का कोई असर नहीं हुआ तो आपको सवेरा होते ही वापिस आपके घर पहुँचाना पड़ा था।'
युवती - 'जो हुआ सो हुआ, हम दोनों ही इस संबंध का अर्थ नहीं समझते थे, इसलिए सहमति-असहमति या पसंद -नापसंद का तो कोई प्रश्न न था, न है। हम अपनी पढ़ाई पूरी कर साहित्य और समाज के कार्य में लगी रहीं।'
युवक - 'कुछ-कुछ जानता हूँ। हमारी सहमति न रही तो भी विवाह तो हो ही चुका है, उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। इसलिए अपना मन बनाइए और चलिए, हम बड़ों के फैसले का मान रखते हुए घर बसाएँ और उनके अरमान पूरे करें।'
युवती - 'बड़ों के अरमान पूरे करना चाहिए लेकिन हमारा मन बचपन से अब तक कभी घर-गृहस्थी में रमा ही नहीं। बच्चियाँ गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह रचाती हैं लेकिन मैंने कभी खेल में भी इस सबमें रुचि नहीं ली। बिना मन के हम कुछ नहीं कर पाती।'
युवक - (हँसते हुए) हाँ, यह तो सब जानते हैं तभी तो तो सवेरा होते ही आपको वापिस घर पहुँचाया गया था। इसीलिए मैं खुद बहुत हिम्मत कर आपके पास आया हूँ। एक बात का भरोसा दिलाता हूँ कि मेडिकल की पढ़ाई के दौरान भी मैंने कभी किसी लड़की की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा।'
युवती - यह क्या कह रहे हैं आप? हम आप पर पूरा भरोसा करती हैं। ऐसा कुछ तो हम आपके बारे में सोच भी नहीं सकतीं।'
युवक - 'फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ कि आप साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन आंदोलनों से जुड़ चुकी हैं। विश्वास रखिए, गृहस्थी के कारण आपके किसी भी काम में कभी कोई बाधा नहीं आ सकेगी। मैं खुद आपके सब कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।'
युवती - 'हमको आप पर पूरा भरोसा है, कह सकते हैं, खुद से भी अधिक, लेकिन हम गृहस्थी बसाने के लिए चल नहीं सकतीं।'
युवक - 'एक बात बता दूँ कि घर के बड़े-बूढ़े कोई भी आपको घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, आपको पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात करने के बाद ही आया हूँ।'
युवती - 'अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले हमसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि हमारा मन गृहस्थी बसाने का है ही नहीं और बिना मन के हम कुछ नहीं करतीं।'
युवक - 'ओफ्फोह! मैं भी कितना नासमझ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, अगर कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता मत कीजिए। आप जब-जैसा चाहेंगी, अच्छे से अच्छे डॉक्टर से इलाज करा लेंगे, जब तक आप पूरी तरह स्वस्थ न हो जाएँ और आपका मन न हो मैं आपको कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।'
युवती - 'हम यह भी जानती हैं। इस कलियुग में कोई आदमी इतना सज्जन और संवेदनशील भी होता है, औरत को इतना मान देता है, कौन मानेगा?'
युवक - 'कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, आपके अलावा।'
युवती - 'लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।'
युवक - 'अब आप ही बताओ, मैं ऐसा क्या करूँ जो आप मान जाएँ और गृहस्थी बसा सकें। आप जो भी कहेंगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।'
युवती - ' हम जानती हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो हम कहें और आप न करें पर ऐसा कुछ भी नहीं है जो हम करने के लिए कहें सिवाय इसके कि हम घरस्थी नहीं बसा सकतीं।
युवक - 'हो सकता है तुम्हें विवाह होने का स्मरण न हो, तब हम बच्चे ही तो थे। ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?'
युवती - 'आप भी कैसे-कैसे तर्क खोज लाते हैं लेकिन हम अब विवाह कर ही नहीं सकतीं, जब आप मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे तभी हमने ने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?'
युवक - 'लेकिन यह तो गलत हुआ, तुमआप मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।'
युवती - 'चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन हम जानती हैं कि आप हमारी हर इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमति है। अब आप हमारा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह हम अच्छे से जानती हैं।'
युवक - 'अब क्या कहूँ? क्या करूँ? आप तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।'
युवती - 'रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। हम सन्यासिनी हैं, हमारे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी नियम भंग करने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन हम आपको मना नहीं कर सकतीं? हम नियम भंग का प्रायश्चित्य गुर जी से पूछ कर कर लेंगीं।"
युवक - 'ऐसा करिए, हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे।'
युवती - 'आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?'
युवक - 'नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा आपके किसी दूसरे या दूसरी के विषय में सोचना भी नहीं है।'
युवती - 'लेकिन हम तो सोचती हैं, सबके बारे में और सब सोचते हैं हमारे बारे में क्योंकि हम समाज में रहते हैं जिसमें हर तरह की सोच के लोग हैं। हम तुम्हारे भरोसे सन्यासिनी तो हो गईं लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दें तो क्या विधाता हमें क्षमा करेंगे? विधाता की छोड़ भी दूँ तो हमारा अपना मन मुझे हमें कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न हमारा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से हमने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें, वहाँ विवाह करें। हम खुश हैं कि आपके जैसे सुलझे हुए व्यक्ति से संबंध हुआ था, इसलिए खुले मन से अपनी बात कह सकीं। आप अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।'
युवक - 'आप तो हिमालय की तरह हैं पवित्र और दृढ़। शायद मुझमें ही आपका साथी होने की पात्रता नहीं है। ठीक है, आपकी ही बात रहे। हम दोनों प्रायश्चित्य करेंगे, मैंने अनजाने में ही सही आपका नियम भंग कर आपसे अकेले में बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। आप जब जहाँ जो भी करें उसमें मेरी पूरी सहमति मानिए। जिस तरह आपने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी आपके भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी आपका या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचें तो पूर्व परिचित सामान्य स्त्री-पुरुष की तरह बात करने से या कभी आवश्यकता पर मुझसे एक सामान्य सहयोगी की तरह सहायता लेने से आप खुदको नहीं रोकेंगी, मुझे खबर करेंगी। आपसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ।'
युवक उठ खड़ा हुआ, दोनों ने एक दूसरे को नमस्ते किया और पर्दा गिरा गया।
*
उद्घोषक : दर्शकों! अभी हमने एक दिव्य विभूति के जीवन में घटी कुछ घटनाओं की झलक देखी। यह एकांकी काल्पनिक नहीं है। इसके लेखन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लेते हुए घटनाओं को विस्तार मात्र दिया गया है।
क्या आज की किशोर और युवा पीढ़ी जो परिवार और विवाह संस्थाओं को नकारते हुए सह जीवन (लिव इन) की और बढ़ रही है यह सोच भी सकेगी कि बाल विवाह में बँधे स्त्री-पुरुष भी बिना किसी कटुता के जीवन में एक-दूसरे को इतना मान दे सकते हैं। इस एकांकी में वर्णित घटनाओं को वास्तविकता में जिया महीयसी महादेवी वर्मा जी और उनके पति डॉ. स्वरूप नारायण वर्मा ने। इन दोनों का बाल विवाह हुआ था १९१६ में जब महादेवी जी ९ वर्ष की थी और स्वरूप नारायण जी लगभग १६-१७ वर्ष के। उकत घटनाक्रम के बाद भी दोनों में सामान्य स्त्री-पुरुष की तरह मित्रतापूर्ण संबंध थे, दोनों में पत्राचार होता था और यदाकदा भेंट भी हो जाती थी। इस एकांकि के लेखक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को यह घटनाक्रम उनकी बुआश्री महीयसी महादेवी जी ने स्वयं बताया था।
***
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष: ९४२५१८३२४४ ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तिका
रदीफ़- 'हो गए'

बावफ़ा थे, बेवफ़ा वो हो गए।
हाशिया थे, अब सफ़ा वो हो गए।।

वायदों को कह रहे जुमला मियाँ।
कायदा से फायदा वो हो गए।।

थे गए काशी, कभी काबा फिरे।
रायता से फीरनी वो हो गए।।

पाल बैठे कई चेले-चेलियाँ।
मसनवी से रुबाई वो हो गए।।

सल्तनत पाई, जुदा खुद से हुए।
हैं नहीं लेकिन खुदा वो हो गए।।

आदमी के साथ साया भी न था।
काम शैतां का, नबी वो हो गए।।

धूप-छैयाँ साथ होकर भी न हों।
साथ चंदा-सूर्य से वो हो गए।।

आदमी जो आम वो ही राम है।
बोलते जो, ख़ास वो ही हो गए।।

है सुरा सत्ता, नशा सब पे चढ़े।
क्या हुआ जो शराबी वो हो गए।।
***
सॉनेट
सीता
वसुधातनया जनकदुलारी।
रामप्रिया लंकेशबंदिनी।
अवधमहिष वनवासिन न्यारी।।
आश्रमवासी लव-कुश जननी।।
क्षमामूर्ति शुभ-मंगलकारी।
जनगण पूजे करे आरती।
संतानों की विपदाहारी।।
कीर्ति कथा भव सिंधु तारती।।
योद्धा राम न साथ तुम्हारे।
रण जीते, सत्ता अपनाई।
तुम्हें गँवा, खुद से खुद हारे।।
सरयू में शरणागति पाई।।
सियाराम हैं लोक-हृदय में।
सिर्फ राम सत्ता-अविनय में।।
१२-४-२०२२
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***
कृति समालोचना -
"भारत में १५ करोड़ कायस्थों का महापरिवार" - मानवता का सिपहसालार
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संयोजक : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, विश्व कायस्थ समाज
पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अभाकाम, पूर्व महामंत्री राकाम
चैयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर
*
[कृति विवरण: भारत में १५ करोड़ कायस्थों का महापरिवार, लेखक - सर्वेश्वर चमन श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०२२, आकार - २४ से.मी. x १८.५ से.मी., पृष्ठ १५४, मूल्य - अमूल्य, आवरण - बहुरंगी, पेपरबैक लेमिनेटेड, संदर्भ प्रकाशन भोपाल]
*
मानव सभ्यता और संस्कृति में शब्द, भाषा, पटल, कलम, स्याही और लिपि का योगदान अभूतपूर्व है। सच कहें तो इनके बिना मानव जाति जीवित तो होती पर अन्य पशु-पक्षियों की तरह। ग़ालिब कहता है -'आदमी को मयस्सर नहीं इंसां होना', मेरा मानना है कि आदमी को इंसान बनाने के महायात्रा में 'काया' में अवस्थित निराकार 'चित' जिसका चित्र गुप्त है, जो निराकार है, जो हर आकार में समाहित है, उस परमब्रह्म परमेश्वर, कर्मेश्वर, गुप्तेश्वर की ही प्रेरणा है जिसने खुदको उसका अंशज -वंशज माननेवाले ''कायस्थ'' विशेषण को अपनी पहचान बनानेवाले श्रेष्ठ मनुष्यों को उक्त षड उपहारों शब्द, भाषा, पटल, कलम, स्याही और लिपि से अलंकृत किया। 'शब्द ब्रह्म' सबका, सबके लिए है, इसलिए शब्द-साधना कर निपुणता अर्जित करनेवाले 'कायस्थ' अपना उपास्य शब्देश्वर सर्वेश्वर चित्रगुप्त तथा उनकी आदिभौतिक एवं आधिदैविक शक्तियों (नंदिनी और इरावती) को मानें, यह स्वाभाविक ही है। अपनी इष्ट देव मूर्तियों तथा अपने पूर्वजों को जानकर, उनकी विरासत को सम्हालकर, अपनी भावी पीढ़ी को प्रगतिपथ पर बढ़ने की प्रेरणा देने के पवित्र उद्देश्य से इस कृति का प्रयत्न लेखक चमन श्रीवास्तव ने पूरे मनोयोग से किया है। यह कोई साधारण पुस्तक नहीं है अपितु यह लेखा-जोखा है वेद पूर्व काल से अब तक आदमी के इंसान बनने की महायात्रा में औरों की अंगुली थामकर उन्हें आगे बढ़ानेवाली जातीय परंपरा का।
संस्कृति सेतु कायस्थ
पुस्तक में वर्णित श्री चित्रगुप्त जी निराकार परात्पर परमब्रह्म ही हैं। पुराणकार कहता है ''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहीनाम्'' अर्थात उन चित्रगुप्त को सबसे पहले प्रणाम जो सभी प्राणियों में आत्मा रूप में विराजमान हैं। लोकश्रुति है ''आत्मा सो परमात्मा'', उपनिषद ''अहं ब्रह्मास्मि'', ''शिवोsहं'' आदि कहता है। हर काया में स्थित परब्रह्म चित्रगुप्त सृष्टि का सृजन कर सके विस्तार हेतु साकार होते हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप में सृष्टि रचना-पालन और विनाश की भूमिकाएँ निभाते हैं। अंग्रेजी में कहावत है 'चाइल्ड इस द फादर ऑफ़ मैन' अर्थात ; बच्चा तो है बाप बाप का'। निराकार परब्रह्म चित्रगुप्त जी स्वयं अपने ही अंश 'ब्रह्मा' के माध्यम से साकार देहज अवतार धारण कर देव कन्या 'नंदिनी' और नाग कन्या 'इरावती' से विवाहकर विश्व का प्रथा अंतर्सांस्कृतिक विवाह कर ''वसुधैव कुटुम्बकम्'' तथा ''वसुधैव नीड़म्'' का जीवन सूत्र मनुष्य को देते हैं। काल क्रम में 'कश्यप' ऋषि, शारदा लिपि, कश्मीर प्रदेश और कैकेयी कायस्थों की कर्म कुशलता की कथा कहते हैं। आज से सहस्त्रब्दियों पूर्व कायस्थ भी कश्मीर से निष्क्रमित हुए थे। इतिहास खुद को दुहराता है, अब पंडितों का निष्क्रमण हम देख रहे हैं। चमन जी ने अतीत के म कुछ पन्नों को पलटा है, समूची महागाथा एक बार में, एक साथ कह पाना असंभव है।
गत-आगत से आज का संवाद
यह कृति गतागत का आज से संवाद का सुप्रयास है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं -''हम कौन थे?, क्या हो गए हैं?, और क्या होंगे अभी?, आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्याएँ सभी''। लेखन 'कौन थे? और 'क्या हो गए हैं?' में मध्य संवाद सेतु के रूप में इस कृति का प्रकाश कर रहे हैं। वे इसके दूसरे भाग के प्रकाशन का संकेत कर बताते हैं कि 'और क्या होंगे अभी?' की बात अगली कृति में होगी। स्पष्ट है कि यह पुस्तक 'विगत' और 'आगत' के मध्य स्थित 'वर्तमान' की करवट है। किसी ऐसे समाज जो अपनी ही नहीं अपने देश और अपने साथियों के साथ सकल सभ्यता का निर्माता, विकासकर्ता और पारिभाषिक रहा हो, के लिए निरंतर आत्मावलोकन तथा आत्मालोचन करना अपरिहार्य हो जाता है। जिला १९७६ में प्रातस्मरणीय ब्योहार राजेंद्र सिंह जी (कक्का जी) के मार्गदर्शन में जिला कायस्थ सभा से आरंभ कर प्रातस्मरणीय डॉ. रतनचन्द्र वर्मा के नेतृत्व में अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, प्रातस्मरणीय दादा लोकेश्वर नाथ जी की प्रेरणा से राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, वर्ल्ड कायस्थ कॉन्फ्रेंस आदि में सक्रिय रहकर मैंने यह जाना है कि बुद्धिजीवियों को एकत्र कर एकमत कर पाना मेंढकों को तौलने से अधिक कठिन कार्य है। ऐसा होना स्वाभाविक है 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना'। यह भी सत्य है कि कठिन होने से कार्य असंभव नहीं हो जाता, कठिन को संभव बनाने के लिए स्नेह, समानता, सद्भाव, संकल्प और साहचर्य आवश्यक होता है।
सुनहरा अवसर
विवेच्य कृति का संयोजन भारत के १५ करोड़ से अधिक कायस्थों से जुड़ने का सद्प्रयास सचमुच सुनहरा अवसर है जब हम मत-मतान्तरों के चक्रव्यूह में अभिमन्यु तरह बलि का बकरा न बनकर, चक्रव्यूह भेदनकर, एक साथ मिलकर 'योग: कर्मसु कौशलम्' के पथ पर चलें। याद रखें अकेली अँगुली झुक जाती पर सभी अँगुलियाँ एक साथ मिलकर मुट्ठी बन जाएँ तो युग बदल सकती हैं। 'साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला तक जाएगा, सब मिल बोझ उठाना' की भावना हममें से हर एक में हो तो दुनिया की कोई भी ताकत हमारी राह नहीं रोक सकती। 'कायस्थ एक नज़र में' के अंतरगत अपने प्रेरणा पुरुषों का उल्लेख, हममें सहभागिता का भाव जगाता है कि ये सब हम सबके हैं, हम सब इनके हैं।कायस्थ महापुरुषों के सूची वास्तव में इतनी लंबी है कि सहस्त्रों पृष्ठ भी कम पड़ जाएँ इसलिए बतौर बानगी कुछ नामों का उल्लेख कर दिया जाता है। यह गौरवमयी विरासत आदिकाल से अब तक अक्षुण्ण है।
'चमन' आबाद तब होगा, 'विनय' का भाव जब जागे
'कायस्थ शब्द की व्युत्पत्ति एवं चित्रगुप्त भगवान का परिवार परिचय' शीर्षक अध्याय मत-मतांतर को महत्व न देकर, नई पीढ़ी के सम्मुख सिलसिलेवार जानकारियाँ प्रस्तुत करने का प्रयास है। 'हरि अनंत हरि कथा अनंता, बहुविधि कहहिं-सुनहिं सब संता।'' चित्रगुप्त जी तो सकल सृष्टि जिसमें देव भी सम्मिलित हैं, के मूल हैं। उनकी कथाओं में विविधता होना स्वाभाविक है। प्रागट्य संबंधी अनेकता में एकता यह है कि वे कर्मेश्वर हैं, कर्म विधाता हैं, सबसे पहले पूज्य हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक असम से गुजरात तक कायस्थों की कर्मनैपुण्यता किस्सों में कही जाती है. विस्मय से सुनी जाती है पर इसके बाद भी शिखर पर कायस्थों की संख्या घटती जाती है इसका एक कारण यह है कि कायस्थ लोकतंत्र में 'लोक' की तरह एक जुट होकर 'तंत्र' को उपकरण बनाने की ओर अग्रसर नहीं हो सके।
चमन आबाद तब होगा, विनय का भाव जब जागे
सभी आगे बढ़ेंगे तब, बढ़े एक-एक जब आगे
नहीं माँगा, न माँगेंगे कभी अनुदान हम साथी -
करें खुद को बुलंद इतना, ज़माना दान आ माँगे
'कान्त सहाय' तभी होते जब होता भक्त 'सुबोध'
'भगवान् चित्रगुप्त का स्तवन' शीर्षक अध्याय में विविध ग्रंथों से सकल प्राणियों के भाग्य विधाता चित्रगुप्त जी की वंदना के उद्धरण, प्रभु की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। वास्तव में गीता में 'कृष्ण जो अपने विषय में कहते हैं, वह सब चित्रगुप्त जी के लिए भी सत्य है। त्रेता में, कुरुक्षेत्र में कृष्ण 'कर्ता' थे, नियामक थे। जहाँ कृष्ण वहीं धर्म, जहाँ धर्म वहीं विजय। सभी युगों में, सभी स्थानों पर, सभी प्राणियों के लिए चित्रगुप्त जी एकमात्र करता है, नियामक हैं, भाग्य विधाता हैं इसलिए सकल दैवीय रूप चित्रगुप्त जी के हैं। सब साधनाएँ, सब वंदनाएँ, सब प्रार्थनाएँ चित्रगुप्त जी की ही हैं। विविध देव पर्वत हैं तो चित्रगुप्त जी हिमालय हैं। विविध देव नदियाँ हैं तो चित्रगुप्त जी महासागर हैं। वे सुरों-असुरों, यक्षों-गंधर्वों, भूत-प्रेतों, नर-वानरों, पशु-पक्षियों, जड़-चेतन, जन्मे-अजन्मे के कर्मदेवता हैं। इसीलिए वे सबके पूज्य और सब उनके अनुगामी हैं। किसी भी रूप की, किसी भी भाषा में, किसी भी भाव से, किसी भी छंद में स्तुति करें वह चित्रगुप्त जी की ही स्तुति हो जाती है, हम मानें या न मानें, कोई जाने या न जाने, इस सनातन सत्य पर आँच नहीं आती किन्तु चित्रगुप्त जी की कृपा के वही कर्मफल से मुक्त होता है जो अपना हर काम निष्काम भाव से उन्हें समर्पित कर करे। सबके कान्त (स्वामी) चित्रगुप्त जी की कृपा पाने के लिए भक्त को सुबोध होना होता है।
'कान्त सहाय' तभी होते जब, होता भक्त 'सुबोध'
रावण सा विद्वान् मिट गया, हो स्वार्थी दुर्बोध
सकल सृष्टि 'कायस्थ' है
कायस्थों के इतिहास का सूक्ष्म उल्लेख 'कायस्थों के प्रकार' नामक अध्याय में है। हकीकत यह है कि सब कायाधारी कायस्थ हैं क्योंकि उनकी 'काया' में वह जो सबसे पहले पूज्य है, आत्मा रूप में स्थित है। यहाँ 'कायस्थ' शब्द से आशय मानव समाज से हैं जो इस तथ्य को जानता और मानता है। हैं तो शेष जन भी 'कायस्थ' किन्तु वे इस सत्य को या तो जानते नहीं या जानकर भी मानते नहीं। इसे इस तरह भी समझें कि कायस्थ ब्रह्म (सत्य) को जानकर पौरोहित्य, वैद्यक, शिक्षण कर्म करने के कारण ब्राह्मण, शासन-प्रशासन प्रमुख होने के नाते क्षत्रिय, विविध व्यवसाय करने में दक्ष होने के कारण वैश्य तथा सकल सृष्टि की सेवा कर दीनबंधु होने के नाते शूद्र हैं किन्तु उन्हें इन चरों में कोई समाज अपना 'अंश' या 'अंग' नहीं मान सकता क्योंकि वे 'अंश' नहीं 'पूर्ण' हैं। कायस्थ पंचम वर्ण नहीं अपितु चरों वर्णों का समन्वित समग्र विराट रूप हैं। कायस्थों के अंश ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य शूद्र ही नहीं बौद्ध, जैन, सिख, यवन आदि भी हैं इसीलिये दुनिया के किसी पूजालय, पंथ, संप्रदाय, महापुरुष को कायस्थ नकारते नहीं, वे सबके सद्गुणों को स्वीकारते हैं और असदगुणों से दूर रहते हैं।
सकल सृष्टि कायस्थ है, मान सके तो मान।
भव बंधन तब ही कटे, जब हो सच्चा इंसान।।
कण कण प्रभु का लेख है, देख सके तो देख
कायस्थों संबंधी शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि से पुरातत्व के ग्रंथ भरे पड़े हैं। उन अभिलेखों की एक झलक के माध्यम से नई पीढ़ी को गौरवमय अतीत से परिचित कराने का प्रशंसनीय प्रयास किया है चमन जी ने। समसामयिक व्यक्तित्वों के चित्र व जीवनियाँ नई पीढ़ी को अधिक विश्वसनीय तथा प्रामाणिक प्रतीत होती है क्योंकि अन्यत्र भी इसकी पुष्टि की जा सकती है। सारत:, ''भारत में १५ करोड़ से अधिक कायस्थों का महापरिवार'' ग्रंथ गागर में सागर' संहित करने का श्लाघ्य प्रयास है। ऐसे प्रयास हर जिले, हर शहर से हों तो अनगिन बिंदु मिलकर सिंधु बना सकेंगे। लंबे समय बाद कायस्थों की महत्ता प्रतपदित करने का यह गंभीर प्रयास सराहनीय है, प्रशंसनीय है। भाई चमन जी को इस सार्थक प्रस्तुति हेतु साधुवाद।
१२-४-२०२२
***
द्विपदि सलिला (अश'आर)
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकान हजारों
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है
*
जब तलक जिंदा था रोटी न मुहैया थी
मर गया तो तेरही में दावतें हुईं
*
परवाने जां निसार कर देंगे
हम चरागे-रौशनी तो बन जाएँ
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम
फूल बन महको, चली आएँगी ये
*
आँसू का क्या, आ जाते हैं
किसका इन पर जोर चला है?
*
आँसू वह दौलत है याराँ
जिसको लूट न सके जमाना
*
बन जाते हैं काम, कोशिश करने से 'सलिल'
भला करेंगे राम, अनथक करो प्रयास नित
*
मुझ बिन न तुझमें जां रहे बोला ये तन से मन
मुझ बिन न तू यहां रहे, तन मन से कह रहा
*
औरों के ऐब देखकर मन खुश बहुत हुआ
खुद पर पड़ी नज़र तो तना सर ही झुक गया
*
तुम पर उठाई एक, उठी तीन अँगुलियाँ
खुद की तरफ, ये देख कर चक्कर ही आ गया
*
हो आईने से दुश्मनी या दोस्ती 'सलिल'
क्या फर्क? जब मिलेगा, कहेगा वो सच सदा
*
देवों को पूजते हैं जो वो भोग दिखाकर
खुद खा रहे, ये सोच 'इससे कोई डर नहीं'
*
आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।
पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।
*
एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।
मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।
*
बहा है पर्वतों से सागरों तक आप 'सलिल'।
समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।
*
आ काश! कि आकाश साथ-साथ देखकर।
संजीव तनिक हो सके, 'सलिल' के साथ तू।।
*
जानेवाले लौटकर आ जाएँ तो
आनेवालों को जगह होगी कहाँ?
*
मंच से कुछ पात्र यदि जाएँ नहीं
मंच पर कुछ पात्र कैसे आयेंगे?
*
जो गया तू उनका मातम मत मना
शेष हैं जो उनकी भी कुछ फ़िक्र कर
*
मोह-माया तज गए थे तीर्थ को
मुक्त माया से हुए तो शोक क्यों?
*
है संसार असार तो छुटने का क्यों शोक?
गए सार की खोज में, मिला सार खुश हो
*
बहे आँसू मगर माशूक ने नाता नहीं जोड़ा
जलाया दिल, बनाया तिल और दिल लूट लिया
*
जब तक था दूर कोई मुझे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
ज्योति जलती तो पतंगे लगाते हैं हाजरी
टेरता है जब तिमिर तो पतंगा आता नहीं
.
हों उपस्थित या जहाँ जो वहीं रचता रहे
सृजन-शाला में रखे, चर्चा करें हम-आप मिल
.
हों अगर मतभेद तो मनभेद हम बनने न दें
कार्य सारस्वत करेंगे हम सभी सद्भाव से
.
जब मिलें सीखें-सिखायें शारदा आशीष दें
विश्व भाषा हैं सनातन हमारी हिंदी अमर
.
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
*
मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
*
उनका भगवा हाथ है, इनके पंजे में कमल
आम आदमी को ठगें दोनों का व्यवसाय है
*
'राज्य बनाया है' कहो या 'तोडा है राज्य'
साध रही है सियासत केवल अपना स्वार्थ
*
दीनदयालु न साथ दें, न ही गरीब नवाज़
नहीं आम से काम है, हैं खासों के साथ
*
चतुर्वेदी को मिला जब राह में कोई कबीर
व्यर्थ तत्क्षण पंडितों की पंडिताई देख ली
*
सुना रहा गीता पंडित जो खुद माया में फँसा हुआ
लेकिन सारी दुनिया को नित मुक्ति-राह बतलाता है
*
आह न सुनता किसी दीन की बात दीन की खूब करे
रोज टेरता खुदा न सुनता मुल्ला हुआ परेशां है
*
हो चुका अवतार, अब हम याद करते हैं मगर
अनुकरण करते नहीं, क्यों यह विरोधाभास है?
*
कल्पना इतनी मिला दी, सत्य ही दिखता नहीं
पंडितों ने धर्म का, हर दिन किया उपहास है
*
गढ़ दिया राधा-चरित, शत मूर्तियाँ कर दीं खड़ी
हिल गयी जड़ सत्य की, क्या तनिक भी अहसास है?
*
शत विभाजन मिटा, ताकतवर बनाया देश को
कृष्ण ने पर भक्त तोड़ें, रो रहा इतिहास है
*
रूढ़ियों से जूझ गढ़ दें कुछ प्रथाएँ स्वस्थ्य हम
देश हो मजबूत, कहते कृष्ण- 'हर जन खास है'
*
भ्रष्ट शासक आज भी हैं, करें उनका अंत मिल
सत्य जीतेगा न जन को हो सका आभास है
*
फ़र्ज़ पहले बाद में हक़, फल न अपना साध्य हो
चित्र जिसका गुप्त उसका देह यह आवास है.
१२-४-२०२०
***
गीत
*
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
ऐसा सोच न नयन मूँदना
खुली आँख सपने देखो
खुद को देखो, कौन कहाँ क्या
करता वह सब कम लेखो
कदम न रोको
लिखो, ठिठककर
सोचो, क्या मन में टिकता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
नहीं चिकित्सक ने बोला है
घिसना कलम जरूरी है
और न यह कानून बना है
लिखना कब मजबूरी है?
निज मन भाया
तभी कर रहीं
सोचो क्या मन को रुचता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
*
मन खुश है तो जग खुश मानो
अपना सत्य आप पहचानो
व्यर्थ न अपना मन भटकाओ
अनहद नाद झूमकर गाओ
झूठ सदा
बिकता बजार में
सत्य कभी देखा बिकता?
जितना दिखता है आँखों को
उससे अधिक नहीं दिखता
१२-४-२०१९
***
बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
१२-४-२०१७
***
पुस्तक सलिला-
इसी आकाश में- कविता की तलाश
*
[पुस्तक परिचय- इसी आकाश में, कविता संग्रह, हरभगवान चावला, ISBN ९७८-९३-८५९४२-२२-८, वर्ष २०१५, आकार २०.५ x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ १७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर, ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, चलभाष ९८२९०१८०८७, ई मेल bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क- ४०६ सेक़्टर २०, हुडा सिरसा, हरयाणा चलभाष: ०९३५४५४४०]
*
'इसी आकाश में' सिरसा निवासी हरभगवान सिंह का नव प्रकाशित काव्य संग्रह है। इसके पूर्व उनके २ काव्य संग्रह 'कोेे अच्छी खबर लिखना' व 'कुम्भ में छूटी हुई औरतें' तथा एक कहानी संग्रह ' हमकूं मिल्या जियावनहारा' प्रकाशित हो चुके हैं। कविता मेरी आत्मा का सूरज है, कविता हलुआ नहीं हो सकती, कविता को कम से कम / रोटी जैसा तो होना ही चाहिए, जब कविता नहीं थी / क्या तब भी किसी के / छू देने भर से दिल धड़कता था / होंठ कांपते थे, क्या कोई ऐसा असमय था/ जब कविता नहीं थी?, मैंने अपनी कविता को हमेश / धूप, धूल और धुएँ से बचाया...कि कहीं सिद्धार्थ की तरह विरक्त न हो जाए मेरी कविता, मेरी कविता ने नहीं धरे / किसी कँटीली पगडंडी पर पाँव..... पर इतने लाड-प्यार और ऐश्वर्य के होते हुए भी / निरन्तर पीली पड़ती जा रही है, ईंधन की मानिंद भट्टियों में/ झोंक दिए जाते हैं ज़िंदा इंसान / तुम्हारी कविता को गंध नहीं आती.... कहाँ से लाते हो तुम अपनी कविता की ज्ञानेन्द्रियाँ कवि? आदि पंक्तियाँ कवि और कविता के अंतरसंबंधों को तलाशते हुए पाठक को भी इस अभियान में सम्मिलित कर लेती हैं। कविता का आकारित होना 'कविता दो' शीर्षक कविता सामने लाती है-
'प्यास से आकुल कोई चिड़िया
चिकनी चट्टानों की ढलानों पर से फिसलते
पानियों में चोंच मार देती है
कविता यूँ भी आकार लेती है।
अर्थात कविता के लिये 'प्यास' और प्यास से 'मुक्ति का प्रयास' का प्रयास आवश्यक है। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या 'तृप्ति' और 'हताशाजनित निष्प्रयासता' की स्थिति में कविता नहीं हो सकती? 'प्रयास-जनित कविता प्रयास के परिणाम "तृप्ति" से दूर कैसे रह सकती है? विसंगति, विडम्बना, दर्द, पीड़ा और अभाव को ही साहित्य का जनक मानने और स्थापित को नष्ट करना साहित्य का उद्देश्य मानने की एकांगी दृष्टि ने अश्रित्य को विश्व में सर्वत्र ठुकराए जा चुके साम्यवाद को साँसें भले दे दी हों, समाज का भला नहीं किया। टकराव और विघटन से समनस्य और सृजन कैसे पाया जा सकता है? 'तर्क' शीर्षक कविता स्थिति का सटीक विश्लेषण ३ चरणों में करती है- १. सपनों के परिंदे को निर्मम तर्क-तीर ने धरती पर पटक दिया, २. तुम (प्रेयसी) पल भर में छलछलाती नदी से जलती रेत हो जाती है, ३. परिणाम यह की प्यार गेंद की तरह लुढ़काये जाकर लुप्त हो जाता है और शेष रह जाते हैं दो अजनबी जो एक दूसरे को लहूलुहान करने में ही साँसों को जाया कर देते हैं।
'पत्थर हुए गीत' एक अन्य मानसिकता को सामने लाती है। प्यार को अछूत की तरह ठुकराने परिणाम प्यार का पथराना ही हो सकता है। प्रेम से उपजी लगाव की बाँसुरी, बाधाओं की नदी को सौंप दी जाए तो प्रेमियों की नियति लहूलुहान होना ही रह जाती है। कवी ने सरल. सशक्त, सटीक बिम्बों के माध्यम से काम शब्दों में अधिक कहने में सफलता पायी है। वाह पाठक को विचार की अंगुली पकड़ाकर चिंतन के पगडण्डी पर खड़ा कर जाता है, आगे कितनी दूर जाना है यह पाठक पर निर्भर है -
'आँखों की नदी में / सपनों की नाव
हर समय / बारह की आशंका से
डगमगाती।
माँ की ममता समय और उम्र को चुनौती देकर भी तनिक नहीं घटती। इस अनुभूति की अभिव्यक्ति देखें-
मैं पैदा हुआ / तब माँ पच्चीस की थी
आज मैं सत्तावन का हो चला हूँ
माँ, आज भी पच्चीस की है।
व्यष्टि में समष्टि की प्रतीति का आभिनव अंदाज़ 'चूल्हा और नदी' कविता में देखिये-
चूल्हा घर का जीवन है / नदी गाँव का
अलग कहाँ हैं घर और गाँव?
गाँव से घर है / घर से गाँव
चूल्हे को पानी की दरकार है / नदी को आग की
चूल्हा नदी के पास / हर रोज पानी लेने आता है
नदी आती है / चूल्हे के पास आग लेने।
हरभगवान जी की इन ७९ कविताओं की ताकत सच को देखना और बिना पूर्वाग्रह के कह देना है। भाषा की सादगी और बयान में साफगोई उनकी ताकत है। चिट्ठियाँ, मुल्तान की औरतें, गाँव से लौटते हुए, रानियाँ आदि कवितायेँ उनकी संवेदनशील दृष्टि की परिचायक हैं। शिक्षा जगत से जुड़ा कवि समस्या के मूल तक जाने और जड़ को तलाशकर समाधान पाने में समर्थ है। वह उपदेश नहीं देता किन्तु सोचने के दिशा दिखाता है- 'पाप' और 'पाप का घड़ा' शीर्षक दो रचनाओं कवि का शिक्षक प्रश्न उठता है, उसका उत्तर नहीं देता किन्तु वह तर्क प्रस्तुत कर देता है जिससे पाठकरूपी विद्यार्थ उठता देने की मनस्थिति में आ सके-
पाप
अपने पापों को
आटे में गूँथकर पेड़ा बनाइये
अपने हाथों पेड़ा गाय को खिलाइये
और फिर पाप करने में जुट जाइये।
पाप का घड़ा
अंजुरी भर-भर / घड़े में उड़ेल दो
अपने सारे पाप
पाप का घड़ा / अभी बहुत खाली है
घड़ा जब तक भरेगा नहीं
ईश्वर कुछ करेगा नहीं।
इसी आकाश में की कवितायें मन की जड़ता को तोड़कर स्वस्थ चिंतन की और प्रेरित करती हैं। कवि साधुवाद का पात्र है। ज़िंदगी में हताशा के लिये कोई जगह नहीं है, मिट्टी है तो अंकुर निकलेंगे ही-
युगों से तपते रेगिस्तान में / कभी फूट आती है घास
दुखों से भरे मन के होठों पर / अनायास फूट पड़ती है हँसी
धरती है तो बाँझ कैसे रहेगी सदा
ज़िंदगी है तो दुखों की कोख में से भी
पैदा होती रहेगी हँसी।
समाज में विघटनहनित आँसू का सैलाब लाती सियासत के खिलाफ कविता हँसी लाने का अभियान चलती रहे यही कामना है।
***
पुस्तक चर्चा:
'वैशाख प्रिय वैशाख' कविताओं के पल्लव प्रेम की शाख
*
[पुस्तक विवरण- वैशाख प्रिय वैशाख, बिहू गीत आधृत कवितायेँ, दिनकर कुमार, प्रथम संस्करण जनवरी २०१६, आकार २०.५ सेंटीमीटर x १३.५ सेंटीमीटर, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ ११६, मूल्य ८०/-, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाइस गोदाम जयपुर ३०२००६ दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, ९८२९० १८०८७, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क- गृह क्रमांक ६६, मुख्या पथ, तरुण नगर, एबीसी गुवाहाटी ७८१००५ असम, चलभाष ०९४३५१०३७५५, ईमेल dinkar.mail@gmail.com ]
*
आचार्य रामचंद्र शुक्ल कविता के शब्दों में - 'मनुष्य अपने भावों, विचारों और व्यापारों को लिये 'दूसरे के भावों', विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलाता और कहीं लड़ाता हुआ अंत तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जिस अनंत-रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत। जब तक कोई अपनी पृथक सत्ता की भावना को ऊपर किये इस क्षेत्र के नाना रूपों और व्यापारों को अपने योग-क्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि से सम्बद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपनी पृथक सत्ता की धारणा से छुटकर, अपने आप को बिल्कुल भूलकर विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त-हृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। यहाँ शुक्ल जी का कविता से आशय गीति रचना से हैं।
प्रतिमाह १५-२० पुस्तकें पढ़ने पर भी एक लम्बे अरसे बाद कविता की ऐसी पुस्तक से साक्षात् हुआ जो शुक्ल जी उक्त अवधारणा को मूर्त करती है। यह कृति है श्री दिनकर कुमार रचित काव्य संग्रह 'वैशाख प्रिय वैशाख'। कृति की सभी ७९ कवितायेँ असम के लोकपर्व 'बिहू' पर आधारित हैं। अधिकांश रचनाओं में कवि 'स्व' में 'सर्व' को तथा 'सर्व' में 'स्व' को विलीन करता प्रतीत होता है. 'मैं' और 'प्रेमिका' के दो पात्रों के इर्द-गिर्द कही गयी कविताओं में प्रकृति सम्पर्क सेतु की भूमिका में है। प्रकृति और जीवन की हर भाव-भंगिमा में 'प्रिया' को देखना-पाना 'द्वैत में अद्वैत' का संधान कर 'स्व' में 'सर्व' के साक्षात् की प्रक्रिया है। भावप्रवणता से संपन्न कवितायेँ गीति रचनाओं के सन्निकट हैं। मुखड़ा-अन्तर के विधान का पालन न करने पर भी भाव, रस, बिम्ब, प्रतीक, कोमल-कान्त पदावली और यत्र-तत्र बिखरे लय-खंड मन को आनंदानुभूति से रस प्लावित कर पाते हैं।
सात कविता संग्रह, दो उपन्यास, दो जीवनियाँ, ५० से अधिक असमिया पुस्तकों के अनुवाद का कार्य कर चुके और सोमदत्त सम्मान, भाषा सेतु सम्मान, पत्रकारिता सम्मान, अनुवाद श्री सम्मान से सम्मानित कवि का रचनाविधान परिपक्व होना स्वाभाविक है। उल्लेख्य यह है कि दीर्घ और निरंतर सृजन यात्रा में वह नगरवासी होते हुए भी नगरीय आकर्षण से मुक्त रहकर प्रकृति से अभिन्न होकर रचनाओं में प्रकृति को उसकी अम्लानता में देख और दिखा सका है। विडंबना, विद्वेष, विसंगति और विखंडन के अतिरेकी-एकांगी चित्रण से समाज और देश को नारकीय रूप में चित्रित करते तथाकथित प्रगतिवादी साहित्य की अलोकप्रियता और क्षणभंगुरता की प्रतिक्रिया सनातन शुभत्वपरक साहित्य के सृजन के रूप में प्रतिफलित हुआ है। वैशाख प्रिय वैशाख उसी श्रंखला की एक कड़ी है।
यह कृति पूरी तरह प्रकृति से जुडी है। कपौ, केतकी, तगर, भाटौ, गेजेंट, जूति, मालती, मन्दार, इन्द्रमालती, चंपा, हरसिंगार, अशोक, नागेश्वर, शिरीष, पलाश, गुलमोहर, बांस, सेमल, पीपल, लक, सरसों, बरगद, थुपूकी, गूलर, केला आदि पेड़ पौधों के संग पान-सुपारी, तांबूल, कास, घास, धान, कद्दू, तरोई, गन्ना, कमल, तुलसी अर्थात परिवेश की सकल वनस्पतियाँ ऋतु परिवर्तन की साक्षी होकर नाचती-गाति-झूमती आनंद पा और लुटा रही हैं।आत्मानंद पाने में सहभागी हैं कोयल, पिपहरी, दहिकतरा, सखियती, मैना, कबूतर, हेतुलूका, बगुले, तेलोया, सारंग, बुलबुल, गौरैया और तितलियाँ ही नहीं, झींगुर, काबै मछली, पूठी मछली, शाल मछली, हिरसी, घडियाल. मकड़ी, चीटी, मक्खी,हिरन, कुत्ता, हाथी और घोड़ा भी। ताल-तलैया, नद, नदी, झरना, दरिया, धरती, पृथ्वी और आसमान के साथ-साथ उत्सवधर्मिता को आशीषित करती देवशक्तियों कलीमती, रहिमला, बिसंदे, हेरेपी आदि की उपस्थिति की अनुभूति ही करते ढोल, मृदंग, टोका, ढोलक आदि वाद्य पाठक को भाव विभोर कर देते है। प्रकृति और देवों की शोभावृद्धि करने सोना, मोती, मूँगा आदि भी तत्पर हैं।
दिनकर जी की गीति कवितायें साहित्य के नाम पर नकारात्मकता परोस रहे कृत्रिम भाव, झूठे वैषम्य, मिथ्या विसंगतियों और अतिरेकी टकराव के अँधेरे में साहचर्य, सद्भाव, सहकार, सहयोग, सहानुभूति और सहस्तित्व का दीप प्रज्वलित करती दीपशिखा की तरह स्वागतेय हैं। सुदूर पूर्वांचल की सभ्यता-संस्कृति, जनजीवन, लोक भावनाएँ प्रेमी-प्रेमिका के रूप में लगभग हर रचना में पूरे उल्लास के साथ शब्दित हुआ है। पृष्ठ-पृष्ठ पर पंक्ति-पंक्ति में सात्विक श्रृंगार रस में अवगाहन कराती यह कृति कहीं अतिरेकी वर्णन नहीं करती।
प्रकृति की यह समृद्धि मन में जिस उत्साह और आनंद का संचार करती है वह जन-जीवन के क्रिया-कलापों में बिम्बित होता है-
वैशाख तुम जगाते हो युवक-युवती
बच्चे-बूढ़े-स्त्रियों के मन-प्राण में
स्नेह-प्रेम, आनंद-उत्साह और यौवन की अनुभूतियाँ
आम आदमी का तन-मन झूम उठता है
मातृभूमि की प्रकृति की समृद्धि को देखकर।
आबादी अपने लोकाचारों में, खेल-कूद और नृत्य-गीत के जरिए
व्यक्त करती है पुलक, श्रुद्ध, प्रेम, यौवन का आवेदन
वस्त्र बुनती बहू-बेटी के कदम
अनजाने में ही थिरकने लगते हैं
वे रोमांचित होकर वस्त्र पर रचती है फूलों को
बुनती हैं 'फूलाम बिहूवान'-सेलिंग चादर-महीन पोशाक
जब मौसम का नशा चढ़ता है
प्रेमी जोड़े पेड़ों की छाँव में जाकर
बिहू नृत्य करने लगते हैं
टका-गगना वाद्यों को बजाकर
धरती-आकाश को मुखरित करते है
जमीन से जुड़े जन बुन्देलखंड में हों या बस्तर में, मालवा में हों या बिहार में, बृज में हों या बंगाल में उल्लास-उत्साह, प्रकृति और ऋतुओं के साथ सहजीवन, अह्बवों को जीतकर जिजीविषा की जय गुंजाता हौसला सर्वत्र समान है। यहाँ निर्भया, कन्हैया और प्रत्यूषा नहीं हैं। प्रेम की विविध भाव-भंगिमाएँ मोहक और चित्ताकर्षक हैं। प्रेमिका को न पा सके प्रेमी की उदात भावनाएँ अपनी मिसाल आप हैं-
तुम रमी रहती हो अपनी दुनिया में
कभी मुस्कुराती हो और
कभी उदास ही जाती हो
कभी छलछला उठते हैं तुम्हारे नयन
किसी ख़याल में तुम डूबी रहती हो
सूनापन मुझे बर्धष्ट नहीं होता
तुम्हें देखे बगैर कैसे रह सकता हूँ
तुम अपनी मूरत बनाकर क्यों नहीं दे देतीं?
कम से कम उसमें तुम्हें देखकर
तसल्ली तो मिल सकती है
न तो भूख लगती है, न प्यास
न तो नींद आती है, न करार
अपने आपका आजकल नहीं रहता है ख़याल
मेरा चाहे कुछ हो
तुम सदा खुश रहो, आबाद रहो
प्रेम कभी चुकता नहीं, वह आदिम काल से अनंत तक प्रतीक्षा से भी थकता नहीं
हम मिले थे घास वन में
तब हम आदम संगीत को सुन रहे थे
उत्सव का ढोल बज रहा था
प्रेम की यह उदात्तता उन युवाओं को जानना आवश्यक है जो 'लिव इन' के नाम पर संबंधों को वस्त्रों की तरह बदलते और टूटकर बिखर जाते हैं। प्रेम को पाने का पर्याय माननेवाले उसके उत्कट-व्यापक रूप को जानें-
गगन में चंद्रमा जब तक रहेगा
पृथ्वी पर पड़ेगी उसकी छाया
तुम्हारा प्यार पाने की हसरत रहेगी
मौसम की मदिरा, नींद की सुरंग, वैशाख की पगडंडी, लाल गूलर का पान है प्रियतमा जैसी अभिव्यक्तियाँ मन मोहती हैं। अंग्रेजी शब्दों के मोहजाल से मुक्त दिनकर जी ने दोनों ओर लगी प्रेमाग्नि से साक्षात् कराया है। प्रेमिका की व्यथा देखें-
तुम्हेरे और मेरे बीच है समाज की नदी
जिसे तैर कर पार करती हूँ
तुम्हें पाने के लिए
क्या तुम समाज के डर से
नहीं आओगे / मेरे जुड़े में कपौ फूल खोंसने के लिए
.
तुम्हारे संग-संग जान भले ही दे दूं
प्रेम को मैं नहीं छोड़ पाऊँगी
प्रेमी की पीर और समर्पण भी कम नहीं है-
चलो उड़ चलें बगुलों के संग
बिना खाए ही कई दिनों तक गुजार सकता हूँ
अगर तुम रहोगी मेरे संग
.
अगर ईश्वर दक्षिणा देने से संतुष्ट होते
मैं उनसे कहता
मेरी किस्मत में लिख देते तुम्हारा ही नाम
.
प्रेमिका साथ न दे तो भग्नह्रदय प्रेमी के दिल पर बिजली गिरना स्वाभाविक है-
तुमने रंगीन पोशाक पहनी है
पिता के पास है दौलत
मेरे सामने बार-बार आकार
बना रही हो दीवाना
.
मैंने तुमसे एक ताम्बूल माँगा
और तुमने मेरी तरफ कटारी उछाल दी
.
हम दोनों में इतना गहरा प्यार था
किसने घोला है अविश्वास का ज़हर?
.
रंगपुर में मैंने ख़रीदा लौंग-दालचीनी
लखीमपुर में खरीदा पान
खेत में भटककर ढूँढता रहा तुम्हें
कहाँ काट रही हो धान?
.
कभी कालिदास ने मेघदूत को प्रेमी-प्रेमिका के मध्य सेतु बनाया था, अब दिनकर ने वैशाख-पर्व बिहू से प्रेम-पुल का काम लिया है, यह सनातन परंपरा बनी रहे और भावनाओं-कामनाओं-संभावनाओं को पल्लवित-पुष्पित करती रहे।
१२-४-२०१६
________

मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

सॉनेट, मुक्तक, क्षणिका, दोहा, यमक, हिमकर श्याम, नवगीत,

सॉनेट 
सुधि
सुधि ली प्रभु ने सुख पाया है।
सुधि सुगंध सुरभित मन बगिया।
प्रभु-सुधि बिन जग भरमाया है।।
सुधि स्वजनों की अपनी दुनिया।।
सुधि बिन मन बेसुध मत होना।
सुधि सलिला में कर अवगाहन। 
सुध-बुध खोकर शूल न बोना।।
सुधि अमृत नित करो आचमन।।
सुधि सत-शिव-सुंदर उपासना।
सुधि बाँहों में, सुधि चाहों में।
सुधि मनभावन भव्य भावना।।
सुधि साथी, साक्षी राहों में।।
सुधि संगी है हर आत्मा की।
सुधि संगति है परमात्मा की।।
११-४-२०२३
•••
कृति चर्चा:
युद्धरत हूँ मैं : जिजीविषा गुंजाती कविताएँ
*
(कृति विवरण: युद्घरत हूँ मैं, हिंदी गजल-काव्य-दोहा संग्रह, हिमकर श्याम, प्रथम संस्करण, २०१८, आईएसबीएन ९७८८१९३७१९०७७, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ २१२, मूल्य २७५रु., नवजागरण प्रकाशन, नई दिल्ली, कवि संपर्क बीच शांति एंक्लेव, मार्ग ४ ए, कुसुम विहार, मोराबादी, राँची ८३४००८, चलभाष ८६०३१७१७१०)
*
आदिकवि वाल्मीकि द्वारा मिथुनरत क्रौंच युगल के नर का व्याध द्वारा वध किए जाने पर क्रौंच के चीत्कार को सुनकर प्रथम काव्य रचना हो, नवजात शावक शिकारी द्वारा मारे जाने पर हिरणी के क्रंदन को सुनकर लिखी गई गजल हो, शैली की काव्य पंक्ति 'अवर स्वीटैस्ट सौंग्स आर दोस विच टैल अॉफ सैडेस्ट थॉट' या साहिर का गीत 'हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं' यह सुनिश्चित है कि करुणा और कविता का साथ चोली-दामन का सा है। दुनिया की कोई भी भाषा हो, कोई भी भू भाग हो आदमी की अनुभूति और अभिव्यक्ति समान होती है। पीड़ा, पीड़ा से मुक्ति की चेतना, प्रयास, संघर्ष करते मन को जब यह प्रतीति हो कि हर चुनौती, हर लड़ाई, हर कोशिश करते हुए अपने आप से 'युद्धरत हूँ मैं' तब कवि कविता ही नहीं करता, कविता को जीता है। तब उसकी कविता पिंगल और व्याकरण के मानक पर नहीं, जिंदगी के उतार-चढ़ाव पर बहती हुई नदी की उछलती-गिरती लहरों में निहित कलकल ध्वनि पर परखी जाती है।
हिमकर श्याम की कविता दिमाग से नहीं, दिल से निकलती है। जीवन के षट् राग (खटराग) में अंतर्निहित पंचतत्वों की तरह इस कृति की रचनाएँ कहनी हैं कुछ बातें मन की, युद्धरत हूँ मैं, आखिर कब तक?, झड़ता पारिजात तथा सबकी अपनी पीर पाँच अध्यायों में व्यवस्थित की गई हैं। शारदा वंदन की सनातन परंपरा के साथ बहुशिल्पीय गीति रचनाएँ अंतरंग भावनाओं से सराबोर है।
आरंभ में ३ से लेकर ६ पदीय अंतरों के गीत मन को बाँधते हैं-
सुख तो पल भर ही रहा, दुख से लंबी बात
खुशियाँ हैं खैरात सी, अनेकों की सौग़ात
उलझी-उलझी ज़िंदगी, जीना है दुश्वार
साँसों के धन पर चले जीवन का व्यापार
चादर जितनी हो बड़ी, उतनी ही औक़ात
व्यक्तिगत जीवन में कर्क रोग का आगमन और पुनरागमन झेल रहे हिमकर श्याम होते हुए भी शिव की तरह हलाहल का पान करते हुए भी शुभ की जयकार गुँजाते हैं-
दुखिया मन में मधु रस घोलो
शुभ-मंगल सब मिलकर बोलो
छंद नया है, राग नया है
होंठों पर फिर फाग नया है
सरगम के नव सुर पर डोलो
शूलों की सेज पर भी श्याम का कवि-पत्रकार देश और समाज की फ़िक्र जी रहा है।
मँहगा अब एतबार हो गया
घर-घर ही बाजार हो गया
मेरी तो पहचान मिट गई
कल का मैं अखबार हो गया
विरासत में अरबी-फारसी मिश्रित हिंदी की शब्द संपदा मसिजीवी कायस्थ परिवारों की वैशिष्ट्य है। हिमकर ने इस विरासत को बखूबी तराशा-सँभाला है। वे नुक़्तों, विराम चिन्हों और संयोजक चिन्ह का प्रयोग करते हैं।
'युद्धरत हूँ मैं' में उनके जिजीविषाजयी जीवन संघर्ष की झलक है किंतु तब भी कातरता, भय या शिकायत के स्थान पर परिचर्चा में जुटी माँ, पिता और मामा की चिंता कवि के फौलादी मनोबल की परिचायक है। जिद्दी सी धुन, काला सूरज, उपचारिकाएँ, किस्तों की ज़िंदगी, युद्धरत हूँ मैं, विष पुरुष, शेष है स्वप्न, दर्द जब लहराए आदि कविताएँ दर्द से मर्द के संघर्ष की महागाथाएँ हैं। तन-मन के संघर्ष को धनाभाव जितना हो सकता है, बढ़ाता है तथापि हिमकर के संकल्प को डिगा नहीं पाता। हिमकर का लोकहितैषी पत्रकार ईसा की तरह व्यक्तिगत पीड़ा को जीते हुए भी देश की चिंता को जीता है। सत्ता, सुख और समृद्धि के लिए लड़े-मरे जा रहे नेताओं, अफसरों और सेठों के हिमकर की कविताओं के पढ़कर मनुष्य होना सीखना चाहिए।
दम तोड़ती इस लोकतांत्रिक
व्यवस्था के असंख्य
कलियुगी रावणों का हम
दहन करना भी चाहें तो
आखिर कब तक
*
तोड़ेंगे हम चुप्पी
और उठा सकेंगे
आवाज़
सर्वव्यापी अन्याय के ख़िलाफ़
लड़ सकेंगे तमाम
खौफ़नाक वारदातों से
और अपने इस
निरर्थक अस्तित्व को
कोई अर्थ दे सकेंगे हम।
*
खूब शोर है विकास का
जंगल, नदी, पहाड़ की
कौन सुन रहा चीत्कार
अनसुनी आराधना
कैसी विडंबना
बिखरी सामूहिक चेतना
*
यह गाथा है अंतहीन संघर्षों की
घायल उम्मीदों की
अधिकारों की है लड़ाई
वजूद की है जद्दोजहद
समय के सत्य को जीते हुए, जिंदगी का हलाहल पीते हुए हिमकर श्याम की युगीन चिंताओं का साक्षी दोहा बना है।
सरकारें चलती रहीं, मैकाले की चाल
हिंदी अपने देश में, अवहेलित बदहाल
कैसा यह उन्माद है, सर पर चढ़ा जुनून
खुद ही मुंसिफ तोड़ते, बना-बना कानून
चाक घुमाकर हाथ से, गढ़े रूप आकार
समय चक्र धीमा हुआ, है कुम्हार लाचार
मूर्ख बनाकर लोक को, मौज करे ये तंत्र
धोखा झूठ फरेब छल, नेताओं के मंत्र
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा प्रकाशित सहयोगाधारित दोहा शतक मंजूषा के भाग २ 'दोहा सलिला निर्मला' में सम्मिलित होने के लिए मुझसे दोहा लेखन सीखकर श्याम ने मुझे गत ५ दशकों की शब्द साधना का पुरस्कार दिया है। सामान्यतः लोग सुख को एकाकी भोगते और दुख को बाँटते हैं किंतु श्याम अपवाद है। उसने नैकट्य के बावजूद अपने दर्द और संघर्ष को छिपाए रखा।इस कृति को पढ़ने पर ही मुझे विद्यार्थी श्याम में छिपे महामानव के जीवट की अनुभूति हुई।
इस एक संकलन में वस्तुत: तीन संकलनों की सामग्री समाविष्ट है। अशोक प्रियदर्शी ने ठीक ही कहा है कि श्याम की रचनाओं में विचार की एकतानता तथा कसावट है और कथन भंगिमा भी प्रवाही है। कोयलांचल ही नहीं देश के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार हरेराम त्रिपाठी 'चेतन' के अनुसार 'रचनाकार अपनी सशक्त रचनाओं से अपने पूर्व की रचनाओं के मापदंडों को झाड़ता और उससे आगे की यात्रा को अधिक जिग्यासा पूर्ण बनाकर तने हुए सामाजिक तंतुओं में अधिक लचीलापन लाता है। मानव-मन की जटिलताओं के गझिन धागों को एक नया आकार देता है।'
इन रचनाओं से गुजरने हुए बार-बार यह अनुभूति होना कि किसी और को नहीं अपने आपको पढ़ रहा हूँ, अपने ही अनजाने मैं को पहचानने की दिशा में बढ़ रहा हूँ और शब्दों की माटी से समय की इबारत गढ़ रहा हूँ। मैं श्याम की जिजीविषा, जीवट, हिंदी प्रेम और रचनाधर्मिता को नमन करता हूँ।
हर हिंदी प्रेमी और सहृदय इंसान श्याम को जीवन संघर्ष का सहभागी और जीवट का साक्षी बन सकता है इस कृति को खरीद-पढ़कर। मैं श्याम के स्वस्थ्य शतायु जीवन की कामना करता हुए आगामी कृतियों की प्रतीक्षा करता हूँ।
११-४-२०१९
***
नवगीत
*
हवा महल हो रही
हमारे पैर तले की धरती।
*
सपने देखे धूल हो गए
फूल सुखकर शूल हो गए
नव आशा की फसलोंवाली
धरा हो गई परती।
*
वादे बता थमाए जुमले
फिसले पैर, न तन्नक सँभले
गुब्बारों में हवा न ठहरी
कट पतंग है गिरती।
*
जिजीविषा को रौंद रहे जो
लगा स्वार्थ की पौध रहे वो।
जन-नेता की बखरी में ही
जन-अभिलाषा मरती।
***
नवगीत
जोड़-तोड़ है
मुई सियासत
*
मेरा गलत
सही है मानो।
अपना सही
गलत अनुमानो।
सत्ता पाकर,
कर लफ्फाजी-
काम न हो तो
मत पहचानो।
मैं शत गुना
खर्च कर पाऊँ
इसीलिए तुम
करो किफायत
*
मैं दो दूनी
तीन कहूँ तो
तुम दो दूनी
पाँच बताना।
मैं तुमको
झूठा बोलूँगा
तुम मुझको
झूठा बतलाना।
लोकतंत्र में
लगा पलीता
संविधान से
करें बगावत
*
यह ले उछली
तेरी पगड़ी।
झट उछाल तू
मेरी पगड़ी।
भत्ता बढ़वा,
टैक्स बढ़ा दें
लड़ें जातियाँ
अगड़ी-पिछड़ी।
पा न सके सुख
आम आदमी,
लात लगाकर
कहें इनायत।
*
***
मुक्तक
कीर्ति-अपकीर्ति
क्या करेंगे कीर्ति लेकर यदि न सत्ता मिल सकी।
दुश्मनों की कील भी हमसे नहीं यदि हिल सकी।।
पेट भर दे याकि तन ही ढँक सकेगी कीर्ति क्या?
कीर्ति पाकर हौसले की कली ही कब खिल सकी?
*
लाख दो अपकीर्ति मुझको, मैं न जुमला छोड़ता।
वक्ष छप्पन इंच का ले, दुम दबा मुँह मोड़ता।।
चीन पकिस्तान क्या नेपाल भी देता झुका-
निज प्रशंसा में 'सलिल' नभ से सितारे तोड़ता।।
१०-४-२०१८
***

दोहा सलिला
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गौड़-तुच्छ कोई नहीं, कहीं न नीचा-हीन
निम्न-निकृष्ट किसे कहें, प्रभु-कृति कैसे दीन?
*
मिले 'मरा' में 'राम' भी, डाकू में भी संत
ऊँच-नीच माया-भरम, तज दे तनिक न तंत
*
अधमाधम भी तर गए, कर प्रयास है सत्य
'सलिल' हताशा पाल मात, अपना नहीं असत्य
*
जिसको हरि से प्रेम है, उससे हरि को प्रेम,
हरिजन नहीं अछूत है, करे सफाई-क्षेम
*
दीपक के नीचे नहीं, अगर अँधेरा मीत
उजियारा ऊपर नहीं, यही जगत की रीत
*
रात न श्यामा हो अगर, उषा न हो रतनार
वाम रहे वामा तभी, रुचे मिलन-तकरार
*
विरह बिना कैसे मिले, मिलने का आनंद
छन्दहीन रचना बिना, कैसे भाये छंद?
*
बसे अशुभ में शुभ सदा, शुभ में अशुभ विलीन
अशरण शरण मिले 'सलिल', हो अदीन जब दीन
*
मृग-तृष्णा निज श्रेष्ठता, भ्रम है पर का दैन्य
नत पांडव होते जयी, कुरु मरते खो सैन्य
*
नर-वानर को हीन कह, असुरों को कह श्रेष्ठ
मिटा दशानन आप ही, अहं हमेशा नेष्ट
*
दुर्योधन को श्रेष्ठता-भाव हुआ अभिशाप
धर्मराज की दीनता, कौन सकेगा नाप?


***
यमकीय दोहे
*
भाया छाया जो न क्यों, छाया उसकी साथ?
माया माया ताज गयी, मायापति के साथ।।
*
शुक्ला-श्यामा एक हैं, मात्र दृष्टि है भिन्न।
जो अभिन्नता जानता, तनिक न होता खिन्न।।
*
​संगसार वे कर रहे, होकर निष्ठुर क्रूर।
संग सार हम गह रहे, बरस रहा है नूर।।
११-४-२०१७
***
क्षणिका :
नेता
*
नेता!
तुम सभ्य तो हुए नहीं,
मनुज बनना तुम्हें नहीं भाया।
एक बात पूछूँ?, उत्तर दोगे??
जुमला कहाँ से सीखा?
लड़ना कहाँ से आया??
***
गीध
*
जब स्वार्थसाधन और
उदरपोषण तक
रह जाए
नाक की सीध
तब समझ लो
आदमी
नहीं रह गया है आदमी
बन गया है
गीध।
***
११-४-२०१४
***
मुक्तक
दोस्तों की आजमाइश क्यों करें?
मौत से पहले ही बोलो क्यों मरें..
नाम के ही हैं. मगर हैं साथ जो-
'सलिल' उनके बिन अकेले क्यों रहें?.
७-४-२०१०