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गुरुवार, 1 सितंबर 2022

एकाक्षरी दोहा,लघुकथा,कृष्ण जन्म,नवगीत,दोहा,सावन गीत,मुक्तिका

सितम्बर : कब-क्या???
१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली,
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर
२७. निधन: राजा राम मोहन राय, विश्व पर्यटन दिवस 
२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस
एकाक्षरी दोहा:
आनन्दित हों, अर्थ बताएँ
*
की की काकी कूक के, की को काका कूक.
काका-काकी कूक के, का के काके कूक.
*​
एक द्विपदी
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
यह द्विपदी अश्वावातारी जातीय बीर छंद में है
***
लघुकथा
रीढ़ की हड्डी
*
बात-बात में नीति और सिद्धांतों की दुहाई देने के लिए वे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। तनिक ढील या छूट देना उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता। ब्राम्हण परिवार में जन्मने के कारण वे खुद को औरों से श्रेष्ठ मानकर व्यवहार करते।
समय सदा एक सा नहीं रहता, बीमार हुए, खून दिया जाना जरूरी हो गया, नाते-रिश्तेदार पीछे हट गए तो चिकित्सकों ने रक्त समूह मिलाकर एक अनजान लड़के का खून चढ़ा दिया। उन्होंने धन्यवाद देने के लिए रक्तदाता से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो उसे बुलाया गया, देखते ही उनके पैरों तले से जमीन खिसक गयी, वह सफाई कर्मचारी का बेटा था।
आब वे पहले की तरह ब्राम्हणों की श्रेष्ठता का दावा नहीं कर पाते, झुक गयी है रीढ़ की हड्डी
***
***
लघुकथा
जन्म कुंडली
*
'आपकी गृह दशा ठीक नहीं है, महामृत्युंजय मन्त्र का सवा लाख जाप कराना होगा। आप खुद करें तो श्रेष्ठ अन्यथा मेरे आश्रम में पंडित इसे संपन्न करेंगे, आप नित्य ८ बजाए आकर देख सकते हैं। यह भी न साध सके तो आरम्भ और अंत में पूजन में अवश्य सम्मिलित हों। यह सामग्री और अन्य व्यय होगा' कहते हुए पंडित जी ने यजमान के हाथ में एक परचा थमा दिया जिस पर कुछ हजार की राशि का खर्च लिखा था। यजमान ने श्रद्धा से हाथ जोड़कर लिखी राशि में पांच सौ और जोड़कर पंडित के निकट रखी गणेश प्रतिमा के निकट रखकर चरण स्पर्श किये और प्रसाद लेकर चले गए।
वहाँ उपस्थित अन्य सज्जन आश्रम से बाहर आने पर कुंडली और ग्रहों के नाम पर जाप करने से संकट टालने के विरुद्ध बोलते हुए इसे पाखण्ड बताते रहे। कुछ दिन पश्चात् उनपुत्रय जन सड़क दुर्घटना में घायल हो गया। अब वे स्वयं आश्रम में पण्डित जी को दिखा रहे थे पुत्र की जन्मकुंडली।
***
***
एक रचना
*
आज प्रभु श्री कृष्ण के जन्म का छटवाँ दिन 'छटी पर्व' है। बुंदेलखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मालवा आदि में यह दिन लोकपर्व 'पोला' के रूप में मनाया जाता है। पशुओं को स्नान कराकर, सुसज्जित कर उनका पूजन किया जाता है। इन दिन पशुओं से काम नहीं लिया जाता अर्थात सवैतनिक राजपत्रित अवकाश स्वीकृत किया जाता है। पशुओं का प्रदर्शन और प्रतियोगिताएँ मेले आदि की विरासत क्रमश: समापन की ओर हैं। विक्रम समय चक्र के अनुसार इसी तिथि को मुझे जन्म लेने का सौभाग्य मिला। माँ आज ही के दिन हरीरा, सोंठ के लड्डू, गुलगुले आदि बनाकर भगवन श्रीकृष्ण का पूजन कर प्रसाद मुझे खिलाकर तृप्त होती रहीं। अदृश्य होकर भी उनका मातृत्व संतुष्ट होता रहे इसलिए मेरी बड़ी बहिन आशा जिज्जी और धर्मपत्नी साधना आज भी यह सब पूरी निष्ठां से करती हैं। बड़भागी, अभिभूत और नतमस्तक हूँ तीनों के दिव्य भाव के प्रति। आज बाँकेबिहारी की 'छठ' पूजना तो कलम का धर्म है कि बधावा गाकर खुद को धन्य करे-
***
नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नव छंद है
नन्द घरा नंद है
*
मेघराज आल्हा गाते
तड़ित देख नर डर जाते
कालिंदी कजरी गाये
तड़प देवकी मुस्काये
पीर-धीर-सुख का दोहा
नव शिशु प्रगट मन मोहा
चौपाई-ताला डोला
छप्पय-दरवाज़ा खोला
बंबूलिया गाये गोकुल
कूक त्रिभंगी बन कोयल
बेटा-बेटी अदल-बदल
गया-सुन सोहर सम्हल-सम्हल
जसुदा का मुख चंद है
दर पर शंकर संत है
प्रगटा आनँदकंद है
नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नाव छंद है
नन्द घरा नंद है
*
काल कंस पर मँडराया
कर्म-कुंडली बँध आया
बेटी को उछाल फेंका
लिया नाश का था ठेका
हरिगीतिका सुनाई दिया
काया कंपित, भीत हिया
सुना कबीरा गाली दें
जनगण मिलकर ताली दें
भेद न वासुदेव खोलें
राई-रास चरण तोलें
गायें बधावा, लोरी, गीत
सुना सोरठा लें मन जीत
मति पापी की मन्द है
होना जमकर द्वन्द है
कटना भव का फंद
नन्द घर आनंद है
गूँज रहा नाव छंद है
नन्द घरा नंद है
१-९-२०१६
***
नवगीत:
चाह किसकी....
*
चाह किसकी है
कि वह निर्वंश हो?....
*
ईश्वर अवतार लेता
क्रम न होता भंग
त्यगियों में मोह बसता
देख दुनिया दंग
संग-संगति हेतु करते
जानवर बन जंग
पंथ-भाषा कोई भी हो
एक ही है ढंग
चाहता कण-कण
कि बाकी अंश हो....
*
अंकुरित पल्लवित पुष्पित
फलित बीजित झाड़ हो
हरितिमा बिन सृष्टि सारी
खुद-ब-खुद निष्प्राण हो
जानता नर काटता क्यों?
जाग-रोपे पौध अब
रह सके सानंद प्रकृति
हो ख़ुशी की सौध अब
पौध रोपें, वृक्ष होकर
'सलिल' कुल अवतंश हो....
*
***
अपनी बात :
संजीव
*
सुखों की
भीख मत दो,
वे तो मेरा
सर झुकाते हैं
दुखों का
हाथ थामे,
सर उठा
जीना मुझे भाता।
*
ज़माने से
न शिकवा
गैर था
धोखा दिया
तो क्या?
गिला
अपनों से है
भोंका छुरा
मिल पीठ में
हँसकर
१-९-२०१४
***
लघु कथा:
गुरु दक्षिणा
एकलव्य का अद्वितीय धनुर्विद्या अभ्यास देखकर गुरुवार द्रोणाचार्य चकराए कि अर्जुन को पीछे छोड़कर यह श्रेष्ठ न हो जाए। उन्होंने गुरु दक्षिणा के बहाने एकलव्य का बाएँ हाथ का अंगूठा मांग लिया और यह सोचकर प्रसन्न हो गए कि काम बन गया। प्रगट में आशीष देते हुए बोले- 'धन्य हो वत्स! तुम्हारा यश युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर अमर रहेगा।'
'आपकी कृपा है गुरुवर!' एकलव्य ने बाएँ हाथ का अंगूठा गुरु दक्षिणा में देकर विकलांग होने का प्रमाणपत्र बनवाया और छात्रवृत्ति का जुगाड़ कर लिया। छात्रवृत्ति के रुपयों से प्लास्टिक सर्जरी कराकर अंगूठा जुड़वाया और द्रोणाचार्य एवं अर्जुन को ठेंगा बताते हुए 'अंगूठा' चुनाव चिन्ह लेकर चुनाव समर में कूद पड़ा।
तब से उसके वंशज आदिवासी द्रोणाचार्य से शिक्षा न लेकर अंगूठा लगाने लगे।
***
दोहा सलिला :
*
नीर-क्षीर मिल एक हैं, तुझको क्यों तकलीफ ?
एक हुए इस बात की, क्यों न करें तारीफ??
*
आदम-शिशु इंसान हो, कुछ ऐसी दें सीख
फख्र करे फिरदौस पर, 'सलिल' सदा तारीख
*
है बुलंद यह फैसला, ऊँचा करता माथ
जो खुद से करता वफ़ा, खुदा उसी के साथ
*
मैं हिन्दू तू मुसलमां, दोनों हैं इंसान
क्यों लड़ते? लड़ता नहीं, जब ईसा भगवान्
*
मेरी-तेरी भूख में, बता कहाँ है भेद?
मेहनत करते एक सी, बहा एक सा स्वेद
*
पंडित मुल्ला पादरी, नेता चूसें खून
मजहब-धर्म अफीम दे, चुप अँधा कानून
*
'सलिल' तभी सागर बने, तोड़े जब तटबंध
हैं रस्मों की कैद में, आँखें रहते अंध
*
जो हम साया हो सके, थाम उसी का हाथ
अन्धकार में अकेले, छोड़ न दे जो साथ
*
जगत भगत को पूजता, देखे जब करतूत
पूज पन्हैयों से उसे, बन जाता यमदूत
*
थूकें जो रवि-चन्द्र पर, गिरे उन्हीं पर थूक
हाथी चलता चाल निज, थकते कुत्ते भूंक
*
'सलिल' कभी भी किसी से, जा मत इतनी दूर
निकट न आ पाओ कभी, दूरी हो नासूर
*
पूछ उसी से लिख रहा, है जो अपनी बात
व्यर्थ न कुछ अनुमान कर, कर सच पर आघात
*
तम-उजास का मेल ही, है साधो संसार
लगे प्रशंसा माखनी, निंदा क्यों अंगार?
*
साधु-असाधु न किसी के, करें प्रीत-छल मौन
आँख मूँद मत जान ले, पहले कैसा-कौन?
*
हिमालयी अपराध पर, दया लगे पाखंड
दानव पर मत दया कर, दे कठोरतम दंड
*
एक द्विपदी:
कासिद न ख़त की , भेजनेवाले की फ़िक्र कर
औरों की नहीं अपनी, खताओं का ज़िक्र कर
१-९-२०१३
*
सावन गीत:
*
मन भावन सावन घर आया
रोके रुका न छली बली....
*
कोशिश के दादुर टर्राये.
मेहनत मोर झूम नाचे..
कथा सफलता-नारायण की-
बादल पंडित नित बाँचे.
ढोल मँजीरा मादल टिमकी
आल्हा-कजरी गली-गली....
*
सपनाते सावन में मिलते
अकुलाते यायावर गीत.
मिलकर गले सुनाती-सुनतीं
टप-टप बूँदें नव संगीत.
आशा के पौधे में फिर से
कुसुम खिले नव गंध मिली....
*
हलधर हल धर शहर न जाये
सूना हो चौपाल नहीं.
हल कर ले सारे सवाल मिल-
बाकी रहे बबाल नहीं.
उम्मीदों के बादल गरजे
बाधा की चमकी बिजली....
*
भौजी गुझिया-सेव बनाये,
देवर-ननद खिझा-खाएँ.
छेड़-छाड़ सुन नेह भारी
सासू जी मन-मन मुस्कायें.
छाछ-महेरी के सँग खाएँ
गुड़ की मीठी डली लली....
*
नेह निमंत्रण पा वसुधा का
झूम मिले बादल साजन.
पुण्य फल गये शत जन्मों के-
श्वास-श्वास नंदन कानन.
मिलते-मिलते आस गुजरिया
के मिलने की घड़ी टली....
*
नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडी पर सम्हल-सम्हल.
चलना रपट न जाना- मिल-जुल
पार करो पथ की फिसलन.
लड़ी झुकी उठ मिल चुप बोली
नज़र नज़र से मिली भली....
*
गले मिल गये पंचतत्व फिर
जीवन ने अंगड़ाई ली.
बाधा ने मिट अरमानों की
संकुच-संकुच पहुनाई की.
साधा अपनों को सपनों ने
बैरिन निन्दिया रूठ जली....
***
मुक्तिका
हम गले मिलते रहें.
*
ईद आये या दिवाली हम गले मिलते रहें.
फूल औ' कलियों के जैसे मुस्कुरा खिलते रहें..

एकता की राह पर रखकर कदम डिगना नहीं.
पाँव शूलों से भले घायल हुए, छिलते रहें..

हैं सिवइयों से कभी बाज़ार में दुकां सजी.
कभी गुझियों-पपड़ियों की लोइयाँ बिलते रहें..

खूबियों से गले मिलते रहे हम अब तक 'सलिल'.
क्यों न थोड़ी खामियों के वार भी झिलते रहें..

भेदभावों के उठे तूफ़ान कितने ही 'सलिल'
रहें स्थिर यह न हो कि डगमगा हिलते रहें..
१-९-२०११

बुधवार, 31 अगस्त 2022

सॉनेट,वॉटरफॉल इम्प्लोजन,बुन्देली दोहे,एकाक्षरी द्विपदी,माहिया, हाइकु,नवगीत,मुक्तिका

सॉनेट
*
थोथा चना बाजे घना
जोर-जोर से रेंके गधा
भले रहे खूंटे से बँधा
जो न जानता रहता तना।

पहले पढ़ो-लिखो-सोचो
बिना जरूरत मत बोलो
यदि बोलो पहले तोलो
कहा न कुछ बेमतलब हो

लाखों की है बंद जुबान
पहचानो बातों का मोल
ज़हर-अमिय सकती है घोल
करो नहीं नाहक अभिमान

बिना बात कर वाद-विवाद
खुद को करों नहीं बर्बाद
२९-८-२०२२
***
विमर्श : ट्विन टॉवर ध्वंस

वॉटरफॉल = झरना जिसमें पानी बिना रुके सीधे नीचे गिरता है।
इम्पलोड = फटना, इम्प्लोजन = विस्फोट।
वॉटरफॉल इम्प्लोजन = गगनचुंबी इमारत में इस तरह विस्फोट करना की मलबा बिना बिखरे झरने की धार की तरह सीधे नीचे गिरे।
वाटरफॉल इंप्लोजन तकनीक का मतलब है कि मलबा सचमुच पानी की तरह गिरेगा. इम्प्लोजन ऐसे शहरी विस्फोट के लिए उपयोग की जाने वाली विधि है जिसे नियंत्रित विस्फोटों की आवश्यकता होती है.
नोएडा (Noida) में सुपरटेक ट्विन टावरों (Supertec twin tower) के विस्फोट की उलटी गिनती शुरू होने के साथ ही अंतिम जांच चल रही है. टावरों को सुरक्षित रूप से जमीन पर गिराने की जरूरत है. इसका मतलब है कि आसपास की इमारतों को कम से कम नुकसान सुनिश्चित करना है जिसमें 5,000 लोग रहते हैं, जो मुश्किल से 9 मीटर दूर हैं. इस अत्यंत सटीक कार्य के लिए विस्फोट विशेषज्ञों का जवाब एक तकनीक है जिसे 'वाटरफॉल इम्प्लोजन' (waterfall implosion) के रूप में जाना जाता है. वाटरफॉल तकनीक का मतलब है कि मलबा सचमुच पानी की तरह गिरेगा. इम्प्लोजन ऐसे शहरी विस्फोट के लिए उपयोग की जाने वाली विधि है जिसे नियंत्रित विस्फोटों की आवश्यकता होती है. इसके विपरीत, एक विस्फोट के परिणामस्वरूप मलबा दूर-दूर दिशाओं में बह जाएगा. एक और कहावत यह है कि 'ताश का घर' कैसे गिरता है. नियंत्रित विस्फोट कुछ ही सेकंड में 55,000 टन बड़े पैमाने पर मलबे को नीचे लाएगा. साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि टावर को ढहाते समय कोई अन्य क्षति तो नहीं हो रही है.

नोएडा ट्विन टावर गिराने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा सटीक दृष्टिकोण

इस तकनीक को भारत में उस समय प्रयोग किया गया था जब उसी कंपनी ने 2020 में कोच्चि में 4 ऊंची इमारतों को ध्वस्त कर दिया था. वही प्रयोग 15 सेकंड से भी कम समय में ट्विन टावरों को ढहा देगी. पूरी टीम 150 प्रतिशत आश्वस्त है कि ढांचा उस दिशा में और सटीक तरीके से नीचे गिरेंगी, जिस तरह से उन्होंने बड़े पैमाने पर विध्वंस की परिकल्पना की है. विस्फोट में एक ढांचा अपने आप में गिर जाती है. तकनीक गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों का उपयोग करती है. यह ढांचों के आधार को इस तरह से हटा देगा कि गुरुत्वाकर्षण का केंद्र मिलीमीटर से शिफ्ट हो जाए, जिससे ढांचा नीचे आ जाए.

दोनों टावरों को ढहाने के लिए 3700 किलो विस्फोटक

विध्वंस टीम के एक इंजीनियर के हवाले से कहा गया, "गुरुत्वाकर्षण कभी नहीं सोता है. यह पूरे दिन और पूरी रात काम करता है. यह विस्फोट का पूरा विचार है. उन्होंने कहा, "विध्वंस की इस पद्धति के लिए कोई संदर्भ पुस्तक नहीं है. इसे करने का कोई विशेष तरीका नहीं है या इसे कैसे करना है, इस पर दुनिया में कहीं भी कोई शब्द नहीं लिखा गया है. यह केवल व्यक्तियों के कौशल और इसे करने के उनके अनुभवों पर निर्भर करता है. सटीक कार्य के हिस्से के रूप में 2.634 मिलीमीटर मापने वाले 9,640 छेद जो कि अंतिम दशमलव अंक के लिए सटीक हैं, को 3,700 किलोग्राम विस्फोटक के लिए टावरों में ड्रिल किया गया है जो इसे विस्फोट कर देगा. कई स्थानों पर उच्च और निम्न गति वाले कैमरों जैसे उपकरण टीम द्वारा घटना के बाद के विश्लेषण के लिए विध्वंस को कैप्चर करेंगे. पैसे से ज्यादा टीम हाथ में बड़े पैमाने पर उपलब्धि के साथ अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगाती है.

क्या विध्वंस से आस-पास की इमारतों को कोई नुकसान होगा?

विस्फोटक टीम ने आश्वासन दिया कि कोई संरचनात्मक क्षति नहीं होगी. अधिक से अधिक पेंट और प्लास्टर या टूटी खिड़कियों में कुछ कॉस्मेटिक दरारें होंगी जहां वे पहले से ही कमजोर हो गई हैं या ढीली हो गई हैं. मलबे को हटाने के लिए ठेकेदारों की पहले से ही व्यवस्था कर ली गई है. रविवार को 2:30 बजे पुलिस की मंजूरी के बाद विस्फोट किया जाएगा. सफाई कर्मचारियों की सहायता के लिए यांत्रिक स्वीपिंग मशीन, एंटी-स्मॉग गन और पानी के छिड़काव के साथ धूल साफ करने की व्यवस्था की गई है.
३१-८-२०२२ 
***
बुन्देली दोहे
महुआ फूरन सों चढ़ो, गौर धना पे रंग।
भाग सराहें पवन के, चूम रहो अॅंग-अंग।।
मादल-थापों सॅंग परंे, जब गैला में पैर।
धड़कन बाॅंकों की बढ़े, राम राखियो खैर।।
हमें सुमिर तुम हो रईं, गोरी लाल गुलाल।
तुमें देख हम हो रए, कैसें कएॅं निहाल।।
मन म्रिदंग सम झूम रौ, सुन पायल झंकार।
रूप छटा नें छेड़ दै, दिल सितार कें तार।।
नेह नरमदा में परे, कंकर घाईं बोल।
चाह पखेरू कूक दौ, बानी-मिसरी घोल।।
सैन धनुस लै बेधते, लच्छ नैन बन बान।
निकरन चाहें पै नईं, निकर पा रए प्रान।।
तड़प रई मन मछरिया, नेह-नरमदा चाह।
तन भरमाना घाट पे, जल जल दे रौ दाह।।
अंग-अंग अलसा रओ, पोर-पोर में पीर।
बैरन ननदी बलम सें, चिपटी छूटत धीर।।
कोयल कूके चैत मा, देख बरे बैसाख।
जेठ जिठानी बिन तपे, सूरज फेंके आग।।
३१-८-२०१९
***
एकाक्षरी द्विपदी
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
***
एकाक्षरी दोहा
*
न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु|
नुन्नोअ्नुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत||
अर्थ बताएँ.
महर्षि भारवि, किरातार्जुनीयम में.
***
माहिया
फागों की तानों से
मन से मन मिलते
मधुरिम मुस्कानों से
*
ककुप
मिल पौधे लगाइए
वसुंधरा हरी-भरी बनाइये
विनाश को भगाइए
*
हाइकु
गाओ कबीर
बुरा न माने कोई
लगा अबीर
३१-८-२०१७
***
द्विपदियों में कल्पना
*
कल्पना की विरासत जिसको मिली
उस सरीखा धनी दूजा है नहीं
*
कल्पना की अल्पना गृह-द्वार पर
डाल देखो सुखों का हो सम्मिलन
*
कल्पना की तूलिका, रंग शब्द के
भाव चित्रों में झलकती ज़िन्दगी
*
कल्पना उड़ चली फैला पंख जब
सच कहूँ?, आकाश छोटा पड़ गया
*
कल्पना कंकर को शंकर कर सके
चाह ले तो कर सके विपरीत भी
*
कल्पना से प्यार करना है अगर
आप अवसर को कभी मत चूकिए
*
कल्पना की कल्पना कैसे करे?
प्रश्न का उत्तर न खोजे भी मिला
*
कल्पना सरिता बदलती रूप नित
कभी मन्थर, चपल जल प्लावित कभी
*
कल्पना साकार होकर भी विनत
'सलिल' भट नागर यही है, मान लो
*
कल्पना की शरण जा कवि धन्य है
गीत दोहे ग़ज़ल रचकर गा सका
*
कल्पना मेरी हक़ीक़त हो गयी
नर्मदा अवगाह कर सुख पा लिया
*
कल्पना को बाँह में भर, चूमकर
कोशिशों ने मंज़िलें पायीं विहँस
*
कल्पना नाचीज़ है यह सत्य है
चीज़ तो बेजान होती है 'सलिल'
*
३१-८-२०१६
वीणा की झंकार में, सच है अन्तर्व्याप्त
बहारों के संसार में, व्यर्थ वचन हैं आप्त

***
मुक्तिका:
*
ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की.
ज्यों महकती क्यारी हो किसी बागबान की..

आकाश की औकात क्या जो नाप ले कभी.
पाई खुशी परिंदे ने पहली उड़ान की..

हमको न देखा देखकर तुमने तो क्या हुआ?
दिल ले गया निशानी प्यार के निशान की..

जौहर किया या भेज दी राखी अतीत ने.
हर बार रही बात सिर्फ आन-बान की.

उससे छिपा न कुछ भी रहा कह रहे सभी.
किसने कभी करतूत कहो खुद बयान की..

रहमो-करम का आपके सौ बार शुक्रिया.
पीछे पड़े हैं आप, करूँ फ़िक्र जान की..

हम जानते हैं और कोई कुछ न जानता.
यह बात है केवल 'सलिल' वहमो-गुमान की..
३१-८-२०११
***
गीत :
स्वागत है...
*
पीर-दर्द-दुःख-कष्ट हमारे द्वार पधारो स्वागत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
दिव्य विरासत भूल गए हम, दीनबंधु बन जाने की.
रूखी-सूखी जो मिल जाए, साथ बाँटकर खाने की..
मुट्ठी भर तंदुल खाकर, त्रैलोक्य दान कर देते थे.
भार भाई, माँ-बाप हुए, क्यों सोचें गले लगाने की?..
संबंधों के अनुबंधों-प्रतिबंधों तुम पर लानत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
सात जन्म तक साथ निभाते, सप्त-पदी सोपान अमर.
ले तलाक क्यों हार रहे हैं, श्वास-आस निज स्नेह-समर?
मुँह बोले रिश्तों की महिमा 'सलिल' हो रही अनजानी-
मनमानी कलियों सँग करते, माली-काँटे, फूल-भ्रमर.
सत्य-शांति, सौन्दर्य-शील की, आयी सचमुच शामत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
वसुधा सकल कुटुंब हमारा, विश्व नीड़वत माना था.
सबके सुख, कल्याण, सुरक्षा में निज सुख अनुमाना था..
सत-शिव-सुन्दर रूप स्वयं का, आज हो रहा अनजाना-
आत्म-दीप बिन त्याग-तेल, तम निश्चय हम पर छाना था.
चेत न पाया व्हेतन मन, दर पर विनाश ही आगत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
पंचतत्व के देवों को हम दानव बनकर मार रहे.
प्रकृति मातु को भोग्या कहकर, अपनी लाज उघार रहे.
धैर्य टूटता काल-चक्र का, असगुन और अमंगल नित-
पर्यावरण प्रदूषण की हर चेतावनी बिसार रहे.
दोष किसी को दें, विनाश में अपने स्वयं 'सलिल' रत हैं.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
***
गीत
आपकी सद्भावना में
*
आपकी सद्भावना में कमल की परिमल मिली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*
उषा की ले लालिमा रवि-किरण आई है अनूप.
चीर मेघों को गगन पर है प्रतिष्टित दैव भूप..
दुपहरी के प्रयासों का करे वन्दन स्वेद-बूँद-
साँझ की झिलमिल लरजती, रूप धरता जब अरूप..
ज्योत्सना की रश्मियों पर मुग्ध रजनी मनचली.
हृदय-कलिका नवल आशा पा पुलककर फिर खिली.....
*
है अमित विस्तार श्री का, अजित है शुभकामना.
अपरिमित है स्नेह की पुष्पा-परिष्कृत भावना..
परे तन के अरे! मन ने विजन में रचना रची-
है विदेहित देह विस्मित अक्षरी कर साधना.
अर्चना भी, वंदना भी, प्रार्थना सोनल फली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*
मौन मन्वन्तर हुआ है, मुखरता तुहिना हुई.
निखरता है शौर्य-अर्णव, प्रखरता पद्मा कुई..
बिखरता है 'सलिल' पग धो मलिनता को विमल कर-
शिखरता का बन गयी आधार सुषमा अनछुई..
भारती की आरती करनी हुई सार्थक भली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
***
गीत
पुकार
*
जा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
जहाँ रहा तू वहाँ सफल था, सुन मैं गर्वित होती थी.
सबसे मिलकर मुस्काती थी, हो एकाकी रोती थी..
आज नहीं तो कल आएगा कैयां तुझे सुलाऊँगी-
मौन-शांत थी मन की दुनिया में सपने बोती थी.
कान्हा सम तू गया किन्तु मेरी यादों में यहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
*
दुनिया कहती बड़ा हुआ तू, नन्हा ही लगता मुझको .
नटखट बाल किशन में मैंने पाया है हरदम तुझको..
दुनिया कहती अचल मुझे तू चंचल-चपल सुहाता है-
आँचल-लुकते, दूर भागते, आते दिखता तू मुझको.
आ भी जा ओ! छैल-छबीले, ना होकर भी यहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
*
भारत मैया-हिन्दी मैया, दोनों रस्ता हेर रहीं.
अब पुकार सुन पाया है तू, कब से तुझको टेर रहीं.
कभी नहीं से देर भली है, बना रहे आना-जाना
सारी धरती तेरी माँ है, ममता-माया घेर रहीं?
मेरे दिल में सदा रहा तू, निकट दूर तू जहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही मैं, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
***
नवगीत
आराम चाहिए.....
*
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
प्रजातंत्र के बादशाह हम,
शाहों में भी शहंशाह हम.
दुष्कर्मों से काले चेहरे
करते खुद पर वाह-वाह हम.
सेवा तज मेवा के पीछे-
दौड़ें, ऊँचा दाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
पुरखे श्रमिक-किसान रहे हैं,
मेहनतकश इन्सान रहे हैं.
हम तिकड़मी,घोर छल-छंदी-
धन-दौलत अरमान रहे हैं.
देश भाड़ में जाये हमें क्या?
सुविधाओं संग काम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
स्वार्थ साधते सदा प्रशासक.
शांति-व्यवस्था के खुद नाशक.
अधिनायक हैं लोकतंत्र के-
हम-वे दुश्मन से भी घातक.
अवसरवादी हैं हम पक्के
लेन-देन बेनाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
सौदे करते बेच देश-हित,
घपले-घोटाले करते नित.
जो चाहो वह काम कराओ-
पट भी अपनी, अपनी ही चित.
गिरगिट जैसे रंग बदलते-
हमको ऐश तमाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
वादे करते, तुरत भुलाते.
हर अवसर को लपक भुनाते.
हो चुनाव तो जनता ईश्वर-
जीत उन्हें ठेंगा दिखलाते.
जन्म-सिद्ध अधिकार लूटना
'सलिल' स्वर्ग सुख-धाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
***
गीत:
है हवन-प्राण का.........
*
है हवन-प्राण का, तज दूरियाँ, वह एक है .
सनातन सम्बन्ध जन्मों का, सुपावन नेक है.....
*
दीप-बाती के मिलन से, जगत में मनती दिवाली.
अंशु-किरणें आ मिटातीं, अमावस की निशा काली..
पूर्णिमा सोनल परी सी, इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे.
आस का उद्यान पुष्पा, ॐ अभिमंत्रित सवेरे..
कामना रथ, भावना है अश्व, रास विवेक है.
है हवन-प्राण का..........
*
सुमन की मनहर सुरभि दे, जिन्दगी हो अर्थ प्यारे.
लक्ष्मण-रेखा गृहस्थी, परिश्रम सौरभ सँवारे..
शांति की सुषमा सुपावन, स्वर्ग ले आती धरा पर.
आशुतोष निहारिका से, नित प्रगट करता दिवाकर..
स्नेह तुहिना सा विमल, आशा अमर प्रत्येक है..
है हवन-प्राण का..........
*
नित्य मन्वंतर लिखेगा, समर्पण-अर्पण की भाषा.
साधन-आराधना से, पूर्ण होती सलिल-आशा..
गमकती पूनम शरद की, चकित नेह मयंक है.
प्रयासों की नर्मदा में, लहर-लहर प्रियंक है..
चपल पथ-पाथेय, अंश्चेतना ही टेक है.
है हवन-प्राण का..........
*
बाँसुरी की रागिनी, अभिषेक सरगम का करेगी.
स्वरों की गंगा सुपावन, भाव का वैभव भरेगी..
प्रकृति में अनुकृति है, नियंता की निधि सुपावन.
विधि प्रणय की अशोका है, ऋतु वसंती-शरद-सावन..
प्रतीक्षा प्रिय से मिलन की, पल कठिन प्रत्येक है.
है हवन-प्राण का..........
*
श्वास-सर में प्यास लहरें, तृप्ति है राजीव शतदल.
कृष्णमोहन-राधिका शुभ साधिका निशिता अचंचल..
आन है हनुमान की, प्रतिमान निष्ठा के रचेंगे.
वेदना के, प्रार्थना के, अर्चन के स्वर सजेंगे..
गँवाने-पाने में गुंजित भाव का उन्मेष है.
है हवन-प्राण का..........
३१-८-२०१०
***

मंगलवार, 30 अगस्त 2022

मुक्तक,राखी,हरिगीतिका,हरतालिका,सॉनेट,दोहा,नवगीत

अभिनव प्रयोग
(संरचना सॉनेट, छंद हरिगीतिका)
हरतालिका
*
हरतालिका व्रत जो करे, शिव की कृपा उसको मिले
मन चाहता जिसको वही, हर जन्म में मनमीत हो
खुश हों उमा गणदेव भी, तन स्वस्थ हो मन भी खिले
व्रत कीजिए शुभकामना रख, प्रीत की तब जीत हो


कर थामिए जिसका उसे, कर दें थमा रख साथ में
जल पीजिए; मत पीजिए पर याद प्रभु को कीजिए
पग साथ ही रखिए सदा, हँस हाथ भी रख हाथ में
मन में रखें शुभ भावना, नित प्रेम रस में भीजिए


मतभेद दे तज द्वैत भी; रख ऐक्य भाव सदा सखे!
कुछ ऊँच हो; कुछ नीच हो, कुछ धूप हो; कुछ छाँव हो
यह प्रार्थना प्रभु जी सुनें, नित साथ ही हमको रखे
कुछ हो; न हो; मन में सदा, शिव औ' शिवा तव ठाँव हो


जब हों बिदा; तन से जुदा, भव को तजें हम नाथ हे!
तब आइए इस आत्म को, परमात्म लें हँस साथ में
***

***
चिंतन:
कौन बेहतर नर या नारी?
*
स्त्री विमर्शवादियों का मत है कि स्त्री का हमेशा शोषण किया गया, समानाधिकार नहीं दिया गया। प्रगतिशीलता की चाह अश्लील लेखन, पारिवारिक बिखराव, अंग प्रदर्शन, सहजीवन (लिव इन) तक सीमित रह गई।
पुरुष वर्ग और न्यायालय का आकलन है कि सब कानून स्त्री हितों को दृष्टि में रखकर बनाए गए हैं, प्रताड़ित और पीड़ित पुरुष की हितरक्षा हेतु कोई कानून ही नहीं है।
विवाह को बंधन मानकर नकारने और उन्मुक्त संबंध का दुष्परिणाम बालिका वधुऔर प्रशांत अर्थात स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अहितकर रहा है।
साहित्य भ्रमित समाज को दिशा दिखाता है।
भारतीय चिंतन विद्या, धन और शक्ति की अधिष्ठात्री सरस्वती-रमा-उमा को पूजता रहा तो अप्सराओं से प्रणय-विवाह-संतान अधिकार छीननेवाली देव संस्कृति को आदर्श मानता रहा।
धरती को माता और आसमान को पिता मानने का समन्वयपरक चिंतन वेदपूर्व से मान्य रहा है।
तुलसी ने इसी समन्वयवादी दृष्टिकोण को अपनाया। "ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, सकल तोड़ना के अधिकारी" को उद्धृत कर तुलसी को नारी-निंदक कहनेवाले भूल जाते हैं कि तुलसी ने अपनी पत्नि द्वारा तिरस्कृत किए जाने के बाद भी "जगत जननि दामिनी सुख दाता / नहिं तव आदि मध्य अफसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना" कहकर नारी वंदना की, मीरा का पथ प्रदर्शन किया, रत्नावली को रामभक्ति हेतु प्रेरित किया और रत्नावली आजीवन उन्हें पूजती रहीं।
मैथिलीशरण गुप्त जी के मत में-
एक नही दो दो मात्राएँ,
नर से बढ़कर है नारी।
नर-नारी दोनों की प्रकृति अलग है, स्वभाव अलग है, कार्यशैली अलग है।
दोनों एक-दूसरे के पूरक है, विरोधी नहीं। कुहीं नारी श्रेष्ठ है, कहीं नर।
नर गगन की तरह छाना चाहता है तो नारी धरती की तरह समेटना। नर पाकर खुश होता है, नारी देकर।
रामधारी सिंह दिनकर नर-नारी के मनोवैज्ञानिक अंतर को स्पष्ट करते हैं-
पुरुष चूमते तब जब वे सुख में होते हैं,
हम चूमती उन्हें जब वे दुख में होते हैं।
नर जीतना चाहता है , नारी आत्मसात करना।
जीवन पथ पर कभी तुम जो थके
मैं शीतल जल, बन आउंगी
बुझा सकी ना प्यास तेरी
तो, थके पाँव धो जाऊँगी
नारी प्यार में खो जाना चाहती ,प्यार में , प्रीत में मिट जाने को ही श्रेष्ठ मानती है-
दिया कहे तू सागर, मैं होती तेरी नदिया ,
लहर बहर कर तू अपने, पीया चमन जाती रे ,
सुन मेरे साथी रे
नारी पुरुषार्थ हीन नहीं है, न नर ममतारहित है। नारी का पौरुष और नर की ममता उनकी सुप्त वृत्ति है जो आवश्यकतानुसार प्रगट होती है।
वत्सला से वज्र में
ढल जाऊँगी,
मैं नहीं हिमकण हूँ
जो गल जाऊँगी।
भारतीय चिंतन संघर्ष नहीं समन्वय को इष्ट मानता है। वह सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा को पूजने में हिचकता नहीं है किंतु इन्हें क्रमश: ब्रह्मा-विष्णु-महेश का अभिन्न अंग मानता है।
हमारे शास्त्रों में भी परमेश्वर अर्थात परम शक्ति की कभी नर रूप में कभी नारी रूप में कल्पना की गई है। वास्तुत: वह शक्ति न तो नर है, न नारी है। उस शक्ति को आश्रयदाता के रूप में नर और पोषक के रूप में नारी कहा है। 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' में यही भाव अंतर्निहित है।
उपनिषद में भी समान अभिव्यक्ति है-
'रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो ब्रह्म उमा वाणी तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो विष्णु उमा लक्ष्मी तस्मै तस्यै नमो नमः।'
रुद्र, सूर्य है और उमा उसकी प्रभा है, रुद्र फूल है और उमा उसकी सुगंध है, रुद्र यज्ञ है और उमा उसकी वेदी है।
सृष्टि के मूल में प्रकृति और पुरुष ये दो तत्व हैं। ऐसा सांख्यदर्शन का स्पष्ट मत है।
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं- 'प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि।'
प्रकृति और पुरुष दोनों के समन्वय-सहयोग से सृष्टि बनी है।
नर-नारी के अद्वैत को अर्धनारीश्वर (शिवा-शिव, राधा-कृष्ण) के रूप मे वर्णित किया गया है।
पुरुष के अंतःकरण में जब स्त्रीभाव का उदात्तीकरण होता है, तब वह करुणामय, प्रेमपूर्ण वात्सल्यमय बनता है, कवि और कलाकार बनता है, संवेदनाक्षम बनता है। इसी तरह स्त्री में 'पुरुष' जागृत होते ही वह धीर और दृढ़ सावित्री बनती है, उसमें से रणचंडी लक्ष्मीबाई प्रकट होती है।
इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि स्त्रीत्व और पुरुषत्व के गुण जब एक मानव में होते हैं, तब मानव मे अर्धनारीश्वर प्रकट होते हैं।
२९-८-२०२०
***
कार्यशाला:
चर्चा डॉ. शिवानी सिंह के दोहों पर
*
गागर मे सागर भरें, भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश तो, कासे कह दे पीर||
तो अनावश्यक, प्रिय के जाने के बाद प्रिया पीर कहना चाहेगी या मन में छिपाना? प्रेम की विरह भावना को गुप्त रखना जाना करुणा को जन्म देता है।
.
गागर मे सागर भरें, भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश मन, चुप रह, मत कह पीर||
*
सावन भादव तो गया गई सुहानी तीज|
कौनो जतन बताइए साजन जाए पसीज||
साजन जाए पसीज = १२
सावन-भादों तो गया, गई सुहानी तीज|
कुछ तो जतन बताइए, साजन सके पसीज||
*
प्रेम विरह की आग मे झुलस गई ये गात|
मिलन भई ना सांवरे उमर चली बलखात||
गात पुल्लिंग है., सांवरा पुल्लिंग, नारी देह की विशेषता उसकी कोमलता है, 'ये' तो कठोर भी हो सकता है.
प्रेम-विरह की आग में, झुलस गया मृदु गात|
किंतु न आया साँवरा, उमर चली बलखात||
*
प्रियतम तेरी याद में झुलस गई ये नार|
नयन बहे जो रात दिन भया समुन्दर खार||
.
प्रियतम! तेरी याद में, मुरझी मैं कचनार|
अश्रु बहे जो रात-दिन, हुआ समुन्दर खार||
कचनार में श्लेष एक पुष्प, कच्ची उम्र की नारी,
नयन नहीं अश्रु बहते हैं, जलना विरह की अंतिम अवस्था है, मुरझाना से सदी विरह की प्रतीति होती है।
*
अब तो दरस दिखाइए, क्यों है इतनी देर?
दर्पण देखूं रूप भी ढले साँझ की बेर|
क्यों है इतनी देर में दोषारोपण कर कारण पूछता है। दर्पण देखना सामान्य क्रिया है, इसमें उत्कंठा, ऊब, खीझ किसी भाव की अभिव्यक्ति नहीं है। रूप भी अर्थात रूप के साथ कुछ और भी ढल रहा है, वह क्या है?
.
अब तो दरस दिखाइए, सही न जाए देर.
रूप देख दर्पण थका, ढली साँझ की बेर
सही न जार देर - बेकली का भाव, रूप देख दर्पण थका श्लेष- रूप को बार-बार देखकर दर्पण थका, दर्पण में खुद को बार-बार देखकर रूप थका
*
टिप्पणी- १३-११ मात्रावृत्त, पदादि-चरणान्त व पदांत का लघु गुरु विधान-पालन या लय मात्र ही दोहा नहीं है. इन विधानों से दोहा की देह निर्मित होती है. उसमें प्राण संक्षिप्तता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता, मर्मबेधकता तथा चारुता के पञ्च तत्वों से पड़ते हैं। इसलिए दोहा लिखकर तत्क्षण प्रकाशन न करें, उसका शिल्प और कथ्य दोनों जाँचें, तराशें, संवारें तब प्रस्तुत करें।
३०-८-२०१७
***
नवगीत -
*
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
*
कैसा निजाम जिसमें
दो दूनी
तीन-पाँच ही होता है।
जो काट रहा है पौधों को
वह हँसिया
फसलें बोता है।
कीचड़ धोता है दाग
रगड़कर
कालिख गोर चेहरे पर।
अंधे बैठे हैं देख
सुनयना राहें रोके पहरे पर।
ठुमकी दे उठा, गिराते हो
खुद ही पतंग
दे रहे ढील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
*
कैसा मजहब जिसमें
भक्तों की
जेब देख प्रभु वर देता?
कैसा मलहम जो घायल के
ज़ख्मों पर
नमक छिड़क देता।
अधनंगी देहें कहती हैं
हम सुरुचि
पूर्ण, कपड़े पहने।
ज्यों काँटे चुभा बबूल कहे
धारण कर
लो प्रेमिल गहने।
गौरैया निकट बुलाते हो
फिर छोड़ रहे हो
कैद चील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
३०-८-२०१६
***
मुक्तक
राखी :
नहीं धागा है महज यह यह स्नेह का आधार है
आस का, विश्वास का, परिहास का संसार है
सहारा है डूबते को यही तिनके सा 'सलिल'-
विदेहित शुभ भाव पूरित देह में आगार है
*

हरतालिका

अभिनव प्रयोग 
(संरचना सॉनेट, छंद हरिगीतिका)
हरतालिका
*
हरतालिका व्रत जो करे, शिव की कृपा उसको मिले 
मन चाहता जिसको वही, हर जन्म में मनमीत हो
खुश हों उमा गणदेव भी, तन स्वस्थ हो मन भी खिले 
व्रत कीजिए शुभकामना रख, प्रीत की तब जीत हो 

कर थामिए जिसका उसे, कर दें थमा रख साथ में 
जल पीजिए; मत पीजिए पर याद प्रभु को कीजिए
पग साथ ही रखिए सदा, हँस हाथ भी रख हाथ में 
मन में रखें शुभ भावना, नित प्रेम रस में भीजिए 

मतभेद दे तज द्वैत भी; रख ऐक्य भाव सदा सखे!
कुछ ऊँच हो; कुछ नीच हो, कुछ धूप हो; कुछ छाँव हो
यह प्रार्थना प्रभु जी सुनें, नित साथ ही हमको रखे 
कुछ हो; न हो; मन में सदा, शिव औ' शिवा तव ठाँव हो 

जब हों बिदा; तन से जुदा, भव को तजें हम नाथ हे!
तब आइए इस आत्म को, परमात्म लें हँस साथ में 
***