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शुक्रवार, 4 मार्च 2022

सॉनेट, मुक्तिका, रेणु, मार्च, नवगीत, बंधु, जगदीश पंकज, समीक्षा

सॉनेट
क्या?
खुदी से खुद रहे छिपाते क्या?
आँख फूटी नयन मिलाते क्या?
झूठ को सच रहे बताते क्या?
आग घर में रहे लगाते क्या?

डर से डरते, कभी डराते क्या?
हाथ आकर, न हाथ आते क्या?
स्वार्थ बिन सिर कभी झुकाते क्या?
माथ माटी कभी लगाते क्या?

साथ जो जाए, वही लाते क्या?
देह को गेह कह जलाते क्या?
खो गये जो न याद आते क्या?
साथ जो दिल वही दुखाते क्या?

जो लिखा, 'सलिल' समझ पाते क्या?
बिना समझे ही लिख छपाते क्या?
४-३-२०२२
•••
मुक्तिका
जो गये, याद वही आते क्या?
दर्द पा मौन, मुस्कुराते क्या?

तालियाँ बज रहीं बिना जाने
कोयलें मौन, काग गाते क्या?

बात जन की न कोई सुनता है
बात मन की न सच, सुनाते क्या?

जो निबल लो दबोच उसको तुम
बल सबल पे भी आजमाते क्या?

ऑनलाइन न भूख मिटती है
भुखमरी में तुम्हें खिलाते क्या?
४-३-२०२२
•••
आंचलिकता को प्रतिष्ठित करनेवाले अनूठे कथाशिल्पी रेणु
- राजेन्द्र वर्मा
हिंदी साहित्य में आंचलिकता को प्रतिष्ठित करने वाले फणीश्वरनाथ रेणु (04.04.1921 - 11.04.1977) को भला कौन नहीं जानता? क्या साहित्यप्रेमी और क्या फ़िल्मप्रेमी। साहित्य-प्रेमी उन्हें उनके विश्वप्रसिद्ध उपन्यास, 'मैला आँचल' से जानता है तो फ़िल्मप्रेमी उनकी कहानी पर बनी फ़िल्म, 'तीसरी क़सम' के ज़रिये। 'तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम, संवदिया, ठुमरी, एक आदिम रात्रि की महक, अगिनखोर, पंचलाइट जैसी कहानियाँ हिंदी साहित्य की वे कहानियाँ हैं जिन्हें हम बार-बार पढ़ना चाहते हैं। इनमें जीवन की लय है, सुगंधि है, प्रेम का रस है और सम्बंधों की निभाव है। सुख-दुख में ये कहानियाँ हमारे मन की धुन को अपने साथ प्रेमसंगिनी बनकर रहती हैं। शिल्प की बात करें तो कहानियों के पात्र घटनाओं को पीछे छोड़ देते हैं। क़िस्सागोई ऐसी कि जैसे रचनाकार ख़ुद कहानी सुना रहा हो और पाठक को सामने बैठाए हुँकारी भरवा रहा हो। लोकजीवन के तमाम पहलू कहानी के अंग लगकर उसके साथ-साथ साथी की भूमिका निभाते हैं।
'तीसरी कसम' का एक टुकड़ा मन को ऐसे मथ रहा है कि उसे आपके सामने लाए बिना मन जैसे बेचैन हुआ जाता है। तो लीजिए, उससे मुखातिब होइए—
"आज रह-रह कर उसकी गाड़ी में चंपा का फूल महक उठता है। पीठ में गुदगुदी लगने पर वह अंगोछे से पीठ झाड़ लेता है।
हिरामन को लगता है, दो वर्ष से चंपानगर मेले की भगवती मैया उस पर प्रसन्न है। पिछले साल बाघगाड़ी जुट गई। नकद एक सौ रुपए भाड़े के अलावा बुताद, चाह-बिस्कुट और रास्ते-भर बंदर-भालू और जोकर का तमाशा देखा सो फोकट में!
और, इस बार यह जनानी सवारी। औरत है या चंपा का फूल! जब से गाड़ी मह-मह महक रही है।
कच्ची सड़क के एक छोटे-से खड्ड में गाड़ी का दाहिना पहिया बेमौके हिचकोला खा गया। हिरामन की गाड़ी से एक हल्की ‘सिस’ की आवाज़ आई। हिरामन ने दाहिने बैल को दुआली से पीटते हुए कहा,‘साला! क्या समझता है, बोरे की लदनी है क्या?’
‘अहा! मारो मत!’
अनदेखी औरत की आवाज़ ने हिरामन को अचरज में डाल दिया। बच्चों की बोली जैसी महीन, फेनूगिलासी बोली!  
“ऐसे में कोई क्या गाड़ी हांके!
एक तो पीठ में गुदगुदी लग रही है। दूसरे रह-रह कर चंपा का फूल खिल जाता है उसकी गाड़ी में। बैलों को डांटो तो ‘इस-बिस’ करने लगती है उसकी सवारी।… उसकी सवारी! औरत अकेली, तंबाकू बेचनेवाली बूढ़ी नहीं! आवाज़ सुनने के बाद वह बार-बार मुड़ कर टप्पर में एक नज़र डाल देता है, अंगोछे से पीठ झाड़ता है।… भगवान जाने क्या लिखा है इस बार उसकी क़िस्मत में! गाड़ी जब पूरब की ओर मुड़ी, एक टुकड़ा चांदनी उसकी गाड़ी में समा गई। सवारी की नाक पर एक जुगनू जगमगा उठा। हिरामन को सबकुछ रहस्यमय-अजगुत-अजगुत—लग रहा है। सामने चंपानगर से सिंधिया गांव तक फैला हुआ मैदान… कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं?
हिरामन की सवारी ने करवट ली। चांदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते-चीखते रुक गया,‘अरे बाप! ई तो परी है!’
परी की आंखें खुल गईं। हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुंह कर लिया और बैलों को टिटकारी दी। वह जीभ को तालू से सटा कर टि-टि-टि-टि आवाज निकालता है। हिरामन की जीभ न जाने कब से सूख कर लकड़ी-जैसी हो गई थी! Xxx”
फ़िल्म, 'तीसरी कसम' माने, हिरामन और हीराबाई की वह जोड़ी, जिसके प्रेम को भारतीय सिनेमा में कोई फिल्मकार दुबारा नहीं उतार सका। राजकपूर और वहीदा रहमान ने कमाल किया, वह तो किया ही, लेकिन निर्माता-गीतकार शैलेंद्र ने तो अपनी ज़िंदगी ही इसके लिए स्वाहा कर दी। 'सेल्युलाइड पर कविता' जैसी फिल्म यह हिंदी में आज भी अकेली है। दुखद कसक पर ख़त्म हुआ प्रेम का काव्यात्मक आख्यान दर्शकों के सिनेमा हाल के बाहर आने पर भी काफी वक़्त तक उनके साथ-साथ चलता है।
***
मार्च : कब क्या ?
२ - सरोजनी नायडू दिवस, ब्योहार राजेंद्र सिंह निधन १९८८।
३ - फ़िराक़ गोरखपुरी निधन।
४ - सुरक्षा दिवस, रेणु जयंती।
७ - गोविन्द वल्लभ पंत दिवस, अज्ञेय जयंती।
८ - अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस।
१०. सावित्रीबाई फुले पुण्यतिथि।
११ - वैद्यनाथ जयंती, लोधेश्वर दिवस।
१२- क्रांतिकारी भगवानदास माहौर निधन।
१४ - स्वामी भारती कृष्णतीर्थ जयंती।
१५ - विश्व उपभोक्ता संरक्षण दिवस, विश्व विकलांग दिवस, रामकृष्ण परमहंस जयंती, कवि इंद्रमणि उपाध्याय निधन।
२० - रानी अवंती बाई बलिदान दिवस।
२१ - विश्व वानिकी दिवस, विश्व आनंद दिवस, विश्व गौरैया दिवस, ओशो संबोधि दिवस, दादूदयाल जयंती, बिस्मिल्लाखाँ जन्म, शिवानी निधन।
२२ - विश्व जल दिवस, राष्ट्रीय शक संवत १९४३ आरंभ। ।
२३ - भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव शहादत दिवस, शहीद हेम कालाणी जन्म, राममनोहर लोहिया जयंती।
२४ - विश्व क्षय रोग दिवस, नवल पंथ योगेश्वर दयाल जयंती।
२५ - गणेश शंकर विद्यार्थी बलिदान दिवस।
२६ - महीयसी महादेवी जयंती।
२७ - सम्राट अशोक जयंती।
२८ - चैतन्य महाप्रभु जयंती, मैक्सिम गोर्की जन्म।
२९ -
३० - तुकाराम जयंती।
*
***
शे'र
इश्क है तो जुबां से कुछ न कहें
बोले बिन भी निगाह बोलेगी।
मुक्तक:
फूल फूला तो तभी जब सलिल ने दी है नमी
न तो माटी ने, न हवाओं ने ही रखी है कमी
सारे गुलशन ने महककर सुबह अगवानी की
सदा मुस्कान मिले, पास नहीं आए गमी.
***
नवगीत
तू
*
पल-दिन,
माह-बरस बीते पर
तू न
पुरानी लगी कभी
पहली बार
लगी चिर-परिचित
अब लगती
है निपट नई
*
खुद को नहीं समझ पाया पर
लगता तुझे जानता हूँ
अपने मन की कम सुनता पर
तेरी अधिक मानता हूँ
मन को मन से
प्रीति पली जो
कम न
सुहानी हुई कभी
*
कनखी-चितवन
मुस्कानों ने
कब-कब
क्या संदेश दिए?
प्राण प्रवासी
पुलके-हरषे
स्नेह-सुरभि
विनिवेश लिये
सार्थक अर्थशास्त्र
जीवन का
सच, न
कहानी हुई कभी
***
नवगीत -
याद
*
याद आ रही
याद पुरानी
*
फेरे साथ साथ ले हमने
जीवन पथ पर कदम धरे हैं
धूप-छाँव, सुख-दुःख पा हमको
नेह नर्मदा नहा तरे हैं
मैं-तुम हम हैं
श्वास-आस सम
लेखनी-लिपि ने
लिखी कहानी
याद आ रही
याद पुरानी
*
ज्ञान-कर्म इन्द्रिय दस घोड़े
जीवन पथ पर दौड़े जुत रथ
मिल लगाम थामे हाथों में
मन्मथ भजते अंतर्मन मथ
अपनेपन की
पुरवाई सँग
पछुआ आयी
हुलस सुहानी
*
कोयल कूकी, बुरा अमुआ
चहकी चिड़िया, महका महुआ
चूल्हा-चौके, बर्तन-भाँडे
देवर-ननदी, दद्दा-बऊआ
बीत गयी
पल में ज़िंदगानी
कहते-सुनते
राम कहानी
४-३-२०१६
***
कृति चर्चा:
एक गुमसुम धूप : समय की साक्षी देते नवगीत
[कृति विवरण: एक गुमसुम धूप, राधेश्याम बंधु, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी जेकेटयुक्त, पृष्ठ ९६, मूल्य १५०/-, प्रकाशक कोणार्क प्रकाशन बी ३/१६३ यमुना विहार दिल्ली ११००५३, नवगीतकार संपर्क ९८६८४४४६६६, rsbandhu2@gmail.com]
नवगीत को ‘स्व’ से ‘सर्व’ तक पहुँचाकर समाज कल्याण का औजार बनाने के पक्षधर हस्ताक्षरों में से एक राधेश्याम बंधु की यह कृति सिर्फ पढ़ने नहीं, पढ़कर सोचने और सोचकर करनेवालों के लिये बहुत काम की है. बाबा की / अनपढ़ बखरी में / शब्दों का सूरज ला देंगे, जो अभी / तक मौन थे / वे शब्द बोलेंगे, जीवन केवल / गीत नहीं है / गीता की है प्रत्याशा, चाहे / थके पर्वतारोही / धूप शिखर पर चढ़ती रहती जैसे नवाशा से भरपूर नवगीतों से मुदों में भी प्राण फूँकने का सतत प्रयास करते बंधु जी के लिये लेखन शगल नहीं धर्म है. वे कहते हैं: ‘जो काम कबीर अपनी धारदार और मार्मिक छान्दस कविताओं से कर सके, वह जनजागरण का काम गद्य कवि कभी नहीं कर सकते..... जागे और रोवे की त्रासदी सिर्फ कबीर की नहीं है बल्कि हर युग में हर संवेदनशील ईमानदार कवि की रही है... गीत सदैव जनजीवन और जनमानस को यदि आल्हादित करने का सशक्त माध्यम रहा है तो तो वह जन जागरण के लिए आम आदमी को आंदोलित करनेवाला भी रहा है.’
‘कोलाहल हो / या सन्नाटा / कविता सदा सृजन करती है’ कहनेवाला गीतकार शब्द की शक्ति के प्रति पूरी तरह आश्वस्त है: ‘जो अभी / तक मौन थे / वे शब्द बोलेंगे’. नवगीत के बदलते कलेवर पर प्रश्नचिन्ह उपस्थित करनेवालों को उनका उत्तर है: ‘शब्दों का / कद नाप रहे जो/ वक्ता ही बौने होते हैं’.
शहर का नकली परिवेश उन्हें नहीं सुहाता: ‘शहरी शाहों / से ऊबे तो / गीतों के गाँव चले आये’ किन्तु विडम्बना यह कि गाँव भी अब गाँव से न रहे ‘ गाँवों की / चौपालों में भी / होरीवाला गाँव कहाँ?’ वातावरण बदल गया है: ‘पल-पल / सपनों को महकाती / फूलों की सेज कसौली है’, कवि चेतावनी देता है: ‘हरियाली मत / हरो गंध की / कविता रुक जाएगी.’, कवि को भरोसा है कल पर: ‘अभी परिंदों / में धड़कन है / पेड़ हरे हैं जिंदा धरती / मत उदास / हो छाले लखकर / ओ माझी! नदिया कब थकती?.’ डॉ. गंगाप्रसाद विमल ठीक ही आकलन करते हैं :’राधेश्याम बंधु ऐसे जागरूक कवि हैं जो अपने साहित्यिक सृजन द्वारा बराबर उस अँधेरे से लड़ते रहे हैं जो कवित्वहीन कूड़े को बढ़ाने में निरत रहा है.’
नवगीतों में छ्न्दमुक्ति के नाम पर छंदहीनता का जयघोष कर कहन को तराशने का श्रम करने से बचने की प्रवृत्तिवाले कलमकारों के लिये बंधु जी के छांदस अनुशासन से चुस्त-दुरुस्त नवगीत एक चुनौती की तरह हैं. बंधु जी के सृजन-कौशल का उदहारण है नवगीत ‘वेश बदल आतंक आ रहा’. सभी स्थाई तथा पहला व तीसरा अंतरा संस्कारी तथा आदित्य छंदों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं जबकि दूसरा अंतरा संस्कारी छंद में है.
‘जो रहबर
खुद ही सवाल हैं,
वे क्या उत्तर देंगे?
पल-पल चुभन बढ़ानेवाले
कैसे पीर हरेंगे?
गलियों में पसरा सन्नाटा
दहशत है स्वच्छंद,
सरेशाम ही हो जाते हैं
दरवाजे अब बंद.
वेश बदल
आतंक आ रहा
कैसे गाँव जियेंगे?
बस्ती में कुहराम मचा है
चमरौटी की लुटी चाँदनी
मुखिया के बेटे ने लूटी
अम्मा की मुँहलगी रौशनी
जब प्रधान
ही बने लुटेरे
वे क्या न्याय करेंगे?
जब डिग्री ने लाखों देकर
नहीं नौकरी पायी
छोटू कैसे कर्ज़ भरेगा
सोच रही है माई?
जब थाने
ही खुद दलाल हैं
वे क्या रपट लिखेंगे?
.
यह कैसी सिरफिरी हवाएँ शीर्षक नवगीत के स्थाई व अंतरे संस्कारी तथा मानव छंदों की पंक्तियों का क्रमिक उपयोग कर रचे गये हैं. ‘उनकी खातिर कौन लड़े?’ नवगीत में संस्कारी तथा दैशिक छन्दों का क्रमिक प्रयोग कर रचे गये स्थायी और अंतरे हैं:
उनकी खातिर
कौन लड़े जो
खुद से डरे-डरे?
बचपन को
बँधुआ कर डाला
कर्जा कौन भरे?
जिनका दिन गुजरे भट्टी में
झुग्गी में रातें,
कचरा से पलनेवालों की
कौन सुने बातें?
बिन ब्याही
माँ, बहन बन गयी
किस पर दोष धरे?
परमानन्द श्रीवास्तव के अनुसार: ‘राधेश्याम बंधु प्रगीतात्मक संवेदना के प्रगतिशील कवि हैं, जो संघर्ष का आख्यान भी लिखते हैं और राग का वृत्तान्त भी बनाते हैं. एक अर्थ में राधेश्याम बंधु ऐसे मानववादी कवि हैं कि उन्होंने अभी तक छंद का अनुशासन नहीं छोड़ा है.’
इस संग्रह के नवगीत सामयिकता, सनातनता, सार्थकता, सम्प्रेषणीयता, संक्षिप्तता, सहजता तथा सटीकता के सप्त सोपानों पर खरे हैं. बंधु जी दैनंदिन उपयोग में आने वाले आम शब्दों का प्रयोग करते हैं. वे अपना वैशिष्ट्य या विद्वता प्रदर्शन के लिये क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ अथवा न्यूनज्ञात उर्दू या ग्राम्य शब्दों को खोजकर नहीं ठूँसते... उनका हर नवगीत पढ़ते ही मन को छूता है, आम पाठक को भी न तो शब्दकोष देखना होता है, न किसी से अर्थ पूछना होता है. ‘एक गुमसुम धूप’ का कवि युगीन विसंगतियों, और विद्रूपताओं जनित विडंबनाओं से शब्द-शस्त्र साधकर निरंतर संघर्षरत है. उसकी अभिव्यक्ति जमीन से जुड़े सामान्य जन के मन की बात कहती है, इसलिए ये नवगीत समय की साक्षी देते हैं.
***
कृति चर्चा :
‘सुनो मुझे भी’ नवगीत की सामयिक टेर
[कृति विववरण: सुनो मुझे भी, नवगीत संग्रह, जगदीश पंकज, आकार डिमाई, पृष्ठ ११२, मूल्य १२०/-, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, वर्ष २०१५, निहितार्थ प्रकाशन, एम् आई जी भूतल १, ए १२९ शालीमार गार्डन एक्सटेंशन II, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, ०९८१०८३७८१४, ०९८१०८३८८३२ गीतकार संपर्क:सोम सदन ५/४१ राजेन्द्र नगर, सेक्टर २ साहिबाबाद jpjend@hyahoo.co.in]
.
बहता पानी निर्मला... सतत प्रवाहित सलिल-धार के तल में पंक होने पर भी उसकी विमलता नहीं घटती अपितु निरंतर अधिकाधिक होती हुई पंकज के प्रगटन का माध्यम बनती है. जगदीश वही जो जग के सुख-दुःख से परिचित ही नहीं उसके प्रति चिंतित भी हो. भाई जगदीश पंकज अपने अंत:करण में सतत प्रवाहित नेह नर्मदा के आलोड़न-विलोड़न में बाधक बाधाओं के पंक को साफल्य के पंकज में परिवर्तित कर उनकी नवगीत सुरभि जन गण को ‘तेरा तुझको अर्पित क्या लागे मेरा’ के मनोभाव से सौंप सके हैं.
नवगीत के शिखर हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार: ‘ जगदीश पंकज के पास भी ऐसी बहुत कुछ कथ्य सम्पदा है जिसे वे अपने पाठकों तक संप्रेषित करना चाहते हैं. ऐसा आग्रह वह व्यक्ति ही कर सकता है जिसके पास कहने के लिए कुछ विशेष हो, जो अभी तक किसी ने कहा नहीं हो- ‘अस्ति कश्चित वाग्विशेष:’ की भांति. यहाँ मुझे महाभारत की एक और उक्ति सहज ही याद आ रही है 'ऊर्ध्वबाहु: विरौम्यहम् न कश्चित्छ्रिणोतिमाम् ' मैं बाँह उठा-उठाकर चीख रहा हूँ किन्तु मुझे कोई सुन नहीं रहा.’ मुझे प्रतीत होता है कि इन नवगीतों में सर्वत्र रचनात्मक सद्भाव की परिव्याप्ति इसलिए है कि कवि अपनी बात समय और समाज को सामर्थ्य के साथ सुना ही नहीं मनवा भी सका है. शून्य से आरंभ कर निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने का संतोष जगदीश जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों में बिम्बित है. इंद्र जी ने ठीक ही कहा है: ‘प्रस्तुत संग्रह एक ऐसे गीतकार की रचना है जो आत्मसम्मोहन की भावना से ग्रस्त न होकर बृहत्तर सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध संघर्षरत है, जो मानवीय आचरण की समरसता के प्रति आस्थावान है, जो हर किस्म की गैरबराबरी के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है और जो अपने शब्दों में प्रगति की आग्नेयता छिपाए हुए है, क्रांतिधर्म होकर भी जो लोकमंगल का आकांक्षी है.’
जगदीश जी वर्तमान को समझने, बूझने और अबूझे से जूझने में विश्वास करते हैं और नवगीत उनके मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है:
गीत है वह
जो सदा आँखें उठाकर
हो जहाँ पर भी,
समय से जूझता है
अर्ध सत्यों के
निकलकर दायरों से
जिंदगी की जो
व्यथा को छू रहा है
पद्य की जिस
खुरदुरी झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस
निचुड़कर चू रहा है
गीत है वह
जो कड़ी अनुभूतियों की
आँच से टेढ़ी
पहेली बूझता है.
त्रैलोक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कथ्य की प्रवहमानता, कवि का मंतव्य, भाषा और बिम्ब सहजग्राह्य है. इसी छंद का प्रयोग निम्न नवगीत में देखिए:
चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज़
तुम तक आ रही है?
जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर-बहिष्कृत हम रहें
प्रतियोगिता से
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है
क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है
साधनसंपन्नों द्वारा साधनहीनों की राह में बाधा बनने की सामाजिक विसंगतियाँ महाभारत काल से अब तक ज्यों की त्यों हैं. कवि को यथार्थ को यथावत कहने में कोई संकोच या डर नहीं है:
जैसा सहा, वैसा कहा
कुछ भी कभी
अतिशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
आकाश के परिदृश्य में
निर्जल उगी है बादली
मेरी अधूरी कामना भी
अर्धसत्यों ने छली
सच्चा कहा, अच्छा कहा
इसमें मुझे
संशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
स्थाई में त्रैलोक और अन्तर में यौगिक छंद का सरस समायोजन करता यह संदेशवाही नवगीत सामायिक परिस्थितियों और परिदृश्य में कम शब्दों में अधिक बात कहता है.
जगदीश जी की भाषिक पकड़ की बानगी जगह-जगह मिलती है. मुखपृष्ठ पर अंकित गौरैया और यह नवगीत एक-दूसरे के लिये बने प्रतीत होते हैं. कवि की शब्द-सामर्थ्य की जय बोलता यह नवगीत अपनी मिसाल आप है:
डाल पर बैठी चिरैया
कूकती है
चंद दानों पर
नज़र है पेट की
पर गुलेलों में बहस
आखेट की
देखकर आसन्न खतरे
हूकती है
जब शिकारी कर रहे हों
दंत-नख पैने
वह समर सन्नद्ध अपने
तानकर डैने
बाज की बेशर्मियों पर
थूकती है
यहाँ कवि ने स्थाई में त्रैलोक, प्रथम अंतरे में महापौराणिक तथा दुसरे अंतरे में रौद्राक छंदों का सरस-सहज सम्मिलन किया है. नवगीतों में ऐसे छांदस प्रयोग कथ्य की कहन को स्वाभाविकता और सम्प्रेषणीयता से संपन्न करते हैं.
समाज में मरती संवेदना और बढ़ती प्रदर्शनप्रियता कवि को विचलित करती है, दो शब्दांकन देखें:
चीख चौंकाती नहीं, मुँह फेर चलते
देखकर अब बेबसों को लोग
.
घाव पर मरहम लगाना भूलकर अब
घिर रहे क्यों ढाढ़सों में लोग
नूतन प्रतिमान खोजते हुए / जीवन अनुमान में निकल गया, छोड़कर विशेषण सब / ढूँढिए विशेष को / रोने या हँसने में / खोजें क्यों श्लेष को?, आग में कुछ चिन्दियाँ जलकर / रच रहीं हैं शब्द हरकारे, मत भुनाओ / तप्त आँसू, आँख में ठहरे, कैसा मौसम है / मुट्ठी भर आँच नहीं मिलती / मिले, विकल्प मिले तो / सीली दियासलाई से, आहटें, / संदिग्ध होती जा रहीं / यह धुआँ है, / या तिमिर का आक्रमण, ओढ़ता मैं शील औ’ शालीनता / लग रहा हूँ आज / जैसे बदचलन जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक / श्रोता के मन को छूती ही नहीं बेधती भी हैं.
इन नवगीतों में आत्मालोकन, आत्मालोचन और आत्मोन्नयन के धागे-सुई-सुमनों से माला बनायी गयी है. कवि न तो अतीत के प्रति अंध श्रृद्धा रखता है न अंध विरोध, न वर्त्तमान को त्याज्य मनाता है न वरेण्य, न भविष्य के प्रति निराश है न अति आशान्वित, उसका संतुलित दृष्टिकोण अतीत की नीव पर निरर्थक के मलबे में सार्थक परिवर्तन कर वर्तमान की दीवारें बनाने का है ताकि भविष्य के ज्योतिकलश तिमिर का हरण कर सकें. वह कहता है:
बचा है जो
चलो, उसको सहेजें
मिटा है जो उसे फिर से बनाएँ
गए हैं जो
उन्हें फिर ध्यान में ले
तलाशें फिर नयी संभावनाएँ.
४-३-२०१५
***

गुरुवार, 3 मार्च 2022

लेख : नारी और दोहा

लेख :
नारी दोहा दूहते 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
नारी जननी है, जन्मदायिनी है। वह जीवन में हर परिस्थिति से सार ग्रहण करती है। कन्या, भगिनी, सहचरी और माँ सभी भूमिकाओं में नारी जीवन में रस संचार करती है। नारी, सार सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय' को मूर्तित करती है। यही विशेषताएँ हिंदी के छंदराज दोहा में भी हैं। संस्कृत में इसका नाम 'दोग्धक' है, 'दोग्धि चित्तिमित्ति दोग्धकम्' जो श्रोता/पथक के चित्त का दोहन कर ले।१ नारी भी हर भूमिका में अपने स्वजनों-परोजनों के चित्त में स्थान पाती है। आधुनिक हिंदी के जन्म के पूर्व इसकी जननी प्राकृत भाषा में लगभग ३००० वर्ष पूर्व से दोहा कहा जाता रहा है। दोहा ने हर युग में नारी की हर भूमिका का प्रशस्ति गान ही नहीं किया है अपितु नारी के दर्द और पीड़ा, संघर्ष और उत्कर्ष में साक्षी भी रहा है। दोहा ने नारी की अद्भुत छवियों को अभिव्यक्त कर अमर कर दिया है। बदलते समाज के साथ-साथ बदलती नारी की बदलती छवियों, दायित्वों तथा अवदान का संयुक्त मूल्यांकन दोहे ने किया है। आइए, दृष्टिपात करें-     

नारी वंदना 
विक्रम संवत १६७७ में रचित 'ढोला मारू दा दोहा' में नारी समस्त सुरोंतथा असुरों की स्वामिनी मानते हुए,सरस्वती कहकर वंदना करते हुए अविरल मति का वरदान माँगा गया है। यहाँ सुरासुर में शेष अलंकार का सुन्दर प्रयोग है। सुरासुर के दो अर्थ देव-दानव तथा स्वर-अ स्वर (संगीत संबंधी) है। 
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति। 
विनय करीन इ वीनवूं,मुझ तउ अविरल मत्ति।।२

उत्सर्ग 
काव्य शास्त्र, योग शास्त्र तथा जैनदर्शन के अप्रतिम विद्वान आचार्य हेमचन्द्र सूरी (११४५-१२२९) रचित ग्रंथ 'शब्दानुशासन' के एक दोहे में नायिका अपने पति का देहांत होने पर संतोष व्यक्त कर कहती है 'भला हुआ'। सामान्यत: सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपने सुहाग के लिए मंगलकामना ही करती हैं किन्तु विपरीत आचरण कर रही यह स्त्री अपने सुहाग के साथ-साथ राष्ट्र के प्रति भी कर्तव्य बोध के दिव्य भाव से भी संपन्न है। दोहा उसके इस आचरण पर प्रकाश डालता है- 
भल्ला हुआ जु मारिया, बहिणी म्हारा कंतु। 
लज्जेजं तु बयसि अहू, जइ भग्गो घर एन्तु।।३   

भला हुआ; मारा गया मेरा बहिन सुहाग। 
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग।। 

विदुषि 

कर्णाटक के चालुक्य नरेश तैलप को ६ बार पराजित कर क्षमादान करने के बाद मालवा का परमार नरेश मुंज सातवें युद्ध में छलपूर्वक हराकर बंदी बना लिया गया। उसकी ख्याति और व्यक्तित्व का प्रभाव यह की तैलप की विधवा बहिन मृणालिनी बंदी मुंज को दिल दे बैठी।काठियावाड़ गुजरात निवासी आचार्य मेरुतुंग रचित ऐतिहासिक कृति 'प्रबंध चिंतामणि'(१३०४ ई.) में मुंज मृणालवती प्रसंग में नीतिगत दोहों के माध्यम से ज्ञात होता है कि उस समय की नारियाँ विविध विषयों पर विद्वतापूर्ण विमर्श भी कर लेती थीं-

भुञ्ज भणइ मृणालवइ, जुब्बण गयुं न झूरि। 
जइ सक्कर सय खंडथिय, टी इस मीठी चूरि।।

जा मति पच्छइ संपजइ, सा मति पहिली होइ। 
भुञ्ज भणइ मृणालवइ, बिघन न बेढ़इ कोइ।।

माया 

संत शिरोमणि कबीर (सं १४५५-१५७५) के बीजक में नारी संबंधी कई दोहे प्राप्त होते हैं। कबीर नारी को 'माया' मानते हुए कहते हैं -

कबिरा माया चोरटी, मुसि मुसि लावै हाट। 
एक कबीरा ना मुसै, कीन्हि बारहबाँट।।

पथ प्रदर्शक 

गोस्वामी तुलसीदास (संवत १५५४-१६८०) जब अपनी पत्नी रत्नावली के रूप-पाश में अत्यधिक आसक्त होकर अपना धर्म और कर्तव्य = भूल गए तब उनकी पत्नी रत्नावली ने उन्हें धिक्कारते हुए राह दिखाकर राम-भक्ति की और उन्मुख करते हुए कहा- 

लाज न आवतु आपको, दौरे आयहु साथ। 
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ।। 

अस्थि-चर्ममय देह मम, तामें जैसी प्रीति। 
तिसु आधी जो राम प्रति, होति न तौ भवभीति।।  

जगजननी, पथप्रदर्शक तथा मर्यादाप्रिय

रामचरित मानस में तुलसीदास नारी को जगजननी मानकर उसकी वंदना करते हैं। वे पुष्पवाटिका प्रसंग में सीता जी से पार्वती जी की वंदना कराते हुए कहते हैं- 

जय जय गिरवर राज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी। 
जय गजवदन षडानन माता, जगतजननि दामिनी दुति गाता।।  

तुलसी जगत जननी कहकर ही संतुष्ट नहीं होते, वे 'नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाव वेद नहिं जाना।। ' कहकर नारी के प्रभाव की महत्ता व्यक्त करते हैं।  इस प्रसंग में सीता जी को मर्यादाप्रिय, संस्कारी युवती के रूप में वर्णित किया गया है। वे श्री राम के प्रति आकर्षित होने पर भी यह तथ्य किसी पर प्रगट न कर पार्वती जी से ही प्रार्थना करती हैं- 

'मोर मनोरथ जानहुँ नीके। बसहु सदा उर पुर सभी के।।

तुलसी नारी को परखते रहने की सलाह देते हुए कहते हैं -

उरग तुरग नारी नृपति, नर नीचे हथियार। 
तुलसी परखब रहब नित, इनहिं न पलटत बार।।

मंत्र तंत्र तंत्री तिया, पुरुष अश्वधन पाठ। 
प्रतिगुण योग-वियोग ते, तुरत जाहिं ये आठ।।

नारि नगर भोजन सचिव, सेवक सखा अगार। 
सरस परिहरे रंग रस, नीरस विषाद विकार।।४ 

'ढोल गँवार शूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी' लिखने के लिए तुलसी को स्त्री विमर्शवादी निशाने पर रखते हैं किन्तु तुलसी नारी निंदक नहीं, नारी के उदात्त रूप के आराधक हैं। मानस में दशानन की बंदी जानकी से भेंट करते समय महाबलशाली हनुमान उन्हें प्रणाम कर (देखि मनहिं मन कीन्ह प्रनामा) 'माँ' का सम्बोधन (रामदूत मैं मातु जानकी) देते हैं। तुलसी नारी की तुलना धीरज, धर्म और मित्र के साथ करते हैं - 'धीरक धरम मित्र अरु नारी। आपत्काल परखिहहु चारी।।' 

विदुषी रत्नावली (सं. १५६७-१६५१) अपने पति रामबोला को कर्तव्य का पाठ पढ़कर तुलसीदास बना देती हैं। तुलसी राम भक्ति मार्ग पर पग बढ़ाते हैं तो रत्नावली बाधक नहीं होतीं, वे अपने परित्यग हेति तुलसी को कभी दोष नहीं देतीं, इसे प्रारब्ध मानकर संतोष करती हैं। 

'रतन' देव बस अमृत बिष, बिष अमरित बनि जात। 
सुधि हू उलटी परै, उलटी सूधी बात।। 

'रतनावलि' औरै कछू, चहिय होइ कछू और। 

भल चाहत 'रतनावली' विधि बस अनभल होइ। 

रत्नावली से मिलने की चाह में तुलसी, सर्प को रस्सी समझकर उसे पकड़कर रत्नावली के कक्ष में पहुँच गए थे। रत्नावली इस प्रसंग को भूली नहीं, वे लिखती हैं -
जानि परै कहुँ रज्जु अहि, कहिं अहि रज्जु लषात।  
रज्जु-रज्जु अहि-अहि कबहुँ, 'रतन' समय की बात। 

तुलसी के रत्नावली से विमुख होकर राम भक्ति में लीन होने पर भी रत्नावली उनके प्रति मन कोई कटुता नहीं रखतीं और पति को नारी का सच्चा श्रृंगार कह कर अपनी उदार वृत्ति का परिचय देती हैं -

पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार। 
सिब सिंगार 'रतनावली', इक पियु बिन निस्सार।।

तुलसी को कर्तव्य बोध कराने के लिए कहे गए अपने कटु वचन के प्रति खेद व्यक्त करते हुए रत्नावली लिखती हैं -

'रतनावलि' मुखबचन हूँ, इक सुख-दुःख को मूल। 
सुख सरसावत वचन मधु, कटु उपजावत सूल।। 
   
'रतनावलि' काँटो लग्यो, वैदनि दयो निकारि। 
वचन लग्यो निकस्यो कहुँ, उन डारो हिय फारि।।

संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान, अप्रतिम दोहाकार अब्दुर्रहीम खानखाना  (सं. १६१०-१६८२) के नीति परक दोहे समय और साहित्य की थाती हैं। रहीम नारी के संरक्षण को आवश्यक मानते हैं- 

उरग तुरग नारी नृपति, नीच जाति हथियार। 
रहिमन इन्हें सँभारिए, पलटत लगै न बार।। 

नारी के रूप की वंदना करते हुए कहा गया रहीम का यह दोहा कालजयी है-

नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन। 
मीठो भावै लोन पर, अरु मीठे पर लोन।। 

समाज में नारी को अभिव्यक्ति का अवसर न मिले तो अयोग्य जन आगे बढ़ जाते हैं। यह सनातन सत्य संसद में भारतीय  स्त्रियों की अल्प संख्या और निरंतर बढ़ते जाते अपराधी सांसदों को देखकर भी कहा जा सकता है। तुलसी और रहीम दोनों ही इस सनातन सत्य को दोहा में कोयल के माध्यम से व्यक्त करते हैं -

'तुलसी' पावस के समय, धरी कोकिलन मौन। 
अब तो दादुर बोलिहैं, हमहिं पूछिहैं कौन।।      - तुलसी 

पावस देखि रहीम मन, कोयल साधे मौन। 
अब दादुर वक्ता भए, महको पूछत कौन।।   - रहीम 

दोहा सम्राट बिहारी (सं. १६६०-१७७३) नारी (राधा) से भव-बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -

मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ। 
जा तन की झाईं परै, स्यामु हरित दुति होइ।।

बिहारी नारी के दैहिक सौंदर्य पर आत्मिक सौंदर्य को वरीयता देते हुए, सौंदर्य को समयसापेक्ष बताते हैं- 

समै समय सुंदर सबै, रूपु कुरूपु न कोइ। 
मन की रुचि जेती जितै, तित तेति रुचि होइ।।

नारी अस्मिता का रक्षक दोहा 

बुंदेलखंड की अतीव सुंदरी विदुषी कवयित्री-नर्तकी राय प्रवीण की कीर्ति दसों दिशों में फ़ैल गयी थी। वे ओरछा नरेश इंद्रजीत के प्रति समर्पित, उनकी प्रेयसी थीं। अकबर ने इस नारीरत्न को अपने दरबार में भेजने का संदेश भेजा। बादशाह की हुक्मउदूली करने पर राज्य संकट में पद जाता। राजगुरु केशवदास राज्य हित में रायप्रवीण के साथ अकबर के दरबार में गए। बादशाह द्वारा आमंत्रण दिए जाने पर राय प्रवीण ने एक दोहा कहा जिसे सुनकर अकबर पानी-पानी हो गया और अतिथियों का सम्मान कर उन्हें बिदा किया।  रायप्रवीण की अस्मिता का रक्षक बन दोहा निम्न है- 

बिनती राय प्रवीन की, सुनिए शाह सुजान। 
जूठी पातल भाखत हैं, बारी बायस स्वान।।   

दृढ़ संकल्प की धनी 

नारी जो पाना चाहती है, उसे पाने की राह भी निकाल ही लेती है। दृढ़ संकल्प की धनी गोकुल की नारी कुल मर्यादा का पालन करते हुए भी, कृष्ण की मुरली के रस का पान कर ही लेती है- 

किती न गोकुल कुल बधू, किहिन न काहि सुख दीन। 
कौनैं तजि न कुल-गली, व्है मुरली सुर लीन।।

ठाकुर पृथ्वी सिंह 'रसनिधि' (रचनाकाल सं. १६६०-१७१७) भी नारी (राधा) से बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -

राधा सब बाधा हरैं, श्याम सकल सुख देंय। 
जिन उर जा जोरि बसै,  निरबाधा मुख लेंय।। 

मतिराम त्रिपाठी (१६०४ ई.-१७०१ई.) भूख-प्यास की परवाह न कर व्रत कर रही नारी से पूछते हैं -

नींद भूख अरु प्यास तजि, करती हो तन राख। 
जलसाई बिन पूजिहैं, क्यों मन के अभिलाख।।

नारी के रूप की वंदना करते हुए मतिराम, उसकी समता का प्रयास कर रहे चंद्रमा को दोषी ठहराते हैं- 

तेरी मुख समता करी, साहस करि निरसंक। 
धूरि परी अरविंद मुख, चंदहि लग्यो कलंक।।

महाभारत कथा में अभिमन्यु द्वारा माँ के गर्भ में चक्रव्यूह वेधन कला सीखने का वर्णन है। वृन्द (१६४३-१७२३ ई.) माँ के गर्भ में पल रहे शिशु पर पड़ रहे प्रभाव को उल्लेखनीय मानते हैं- 

नियमित जननी-उदर में, कुल को लेत सभाव। 
उछरत सिंहनि कौ गरभ, सुनी गरजत घनराव।।

बृज की नारियों की महिमा बताते हुए वृन्द कहते हैं की उनके आगे ठकुराई नहीं चलती, स्वयं त्रिभुवनपति उनके पीछे-पीछे जंगल-जंगल घूमते हैं- 

अगम पंथ है प्रेम को, जहँ ठकुराई नाहिं। 
गोपिन के पाछे फिरे, त्रिभुवन पति बन माहिं।। 

वृन्द नारी की तुलना पंडित और लता से करते हैं - 

पंडित बनिता अरु लता, सोभित आस्रय पाय। 

अंग दर्पन तथा रसबोध जैसी कालजयी कृतियों के रचयिता सैयद गुलाम अली 'रसलीन' (सं १७७१-१८८२) भी राधा रानी से भाव-बाधा हरने की प्रार्थना करते हैं -

राधा पद बाधा हरन, साधा करि रसलीन। 

नारी सौंदर्य का शालीनतापूर्वक वर्णन करने में रसलीन का सानी नहीं है। चंद्रमुखी नायिका बालों को स्निग्ध कर इस तरह जूड़ा बाँध रही है कि नायक की पगड़ी भी लज्जित है -

यों बाँधति जूरो तिया, पटियन को चिकनाय। 
पाग चिकनिया सीस की, या तें रही लजाय।। 

अमी हलाहल मद भरे, स्वेत स्याम रतनार। 
जियत मरत झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।।

विक्रम सतसई के रचयिता चरखारी नरेश महाराज विक्रमादित्य सिंह (राज्यकाल सं. १८३९-१८८६) के दोहे नारी-सौंदर्य के लालित्यपूर्ण वर्णन तथा अनूठी उपमाओं से संपन्न हैं-

तरुनि तिहारो देखियतु, यह तिल ललित कपोल। 
मनौ मदन बिधु गोद में, रविसुत करत किलोल।।

गौने आई नवल तिय, बैठी तियन समाज। 
आस-पास प्रफुलित कमल, बीच कली छवि साज।।

रामसहाय अस्थाना 'भगत' (रचनाकाल सं. १८६०-१८८०) ने 'राम सतसई में ब्रज भाषा का उपयोग करते हुए नारी के लिए 'गहन जोबन नय चातुरी, सुंदरता मृदु बोल' को आवश्यक मानते हैं। इस दोहे में रात्रि-रति से थकी नायिका भोर में आलस्य से जंभा रही है-

नैन उनींदे कच छुटे, सुखहि छुटे अंगिराय। 
भोर खरी सारस मुखी, आरस भरी जँभाय।।

शुद्ध साहित्यिक खड़ी हिंदी में रची गई 'हरिऔध सतसई' के रचनाकार अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध (१५ अप्रैल १८६५-१६ मार्च १९४७) 'सारी बाधाएँ हरे, नारी नयनानंद'  कहकर नारी की सामर्थ्य का आभास कराते हैं। नारी के मातृत्व को प्रणतांजलि देते हुए उसकी ममता को पय-धार का कारण बताते हैं हरिऔध जी-

जो महि में होती नहीं, माता ममता भौन। 
ललक बिठाता पुत्र को, नयन-पलक पर कौन।।

छाती में कढ़ता न क्यों, तब बन पाय की धार। 
जब माता उर में उमग, नहीं समाता प्यार। 

रामचरित उपाध्याय (सं. १९२९) ने 'बृज सतसई' में नारी सौंदर्य और प्रशंसा के अनेक दोहे रचे हैं। वे एक दोहे में धर्म विमुख नारी को भी दंडित करने की सलाह देते हैं -

नारी गुरु पितु मातु सुत, सचिव महीपति मीत। 
बंधु विप्रहु डंडिए, धर्म-विमुख यह नीत।।

हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा मंगलप्रसाद पुरस्कार से पुरस्कृत कृति 'वीर सतसई' के रचनाकार हरी प्रसाद द्विवेदी 'वियोगी हरि' (१८९५-१९८८ई.) नारी में चंडिका को देखते उसकी उपस्थिति मात्र से 'काम' को नष्ट को नष्ट होता देखते हैं -

जहँ नृत्यति नित चंडिका, तांडव नृत्य प्रचंड। 
कुसुम तीर तँह काम के, होत आप सत-खंड।। 

नारीरत्न पद्मिनी को 'सिंहिनी' तथा रूप-लोलुप सुलतान को 'कुत्ता' कहते हुए वियोगी हरि जी प्रणतांजलि अर्पित करते हैं- 

वह चित्तौर की पद्मिनी, किमि पेहो सुल्तान।
कब सिंहनि अधरान कौ, कियौ स्वयं मधु पान।।

रण जाते चूड़ावत सरदार को मोहासक्त देखकर अपने सर काट कर भेंट देनेवाली रानी, राककुंवर को बचने के लिए अपने पुत्र की बलि देनेवाली पन्ना धाय, गढ़ा मंडला की वीरांगना रानी दुर्गावती, मुग़ल सम्राट को चुनौती देनेवाली चाँद बीबी, १८५७ के स्वातंत्र्य संग्राम में अंग्रेजों को नाकों चने चबवानेवाली रानी लक्ष्मीबाई आदि के पराक्रम पर दोहांजलि देकर वियोगी हरि बाल विधवाओं की पीड़ा पर भी दोहा रचते हैं -

जहाँ बाल विधवा हियेँ, रहे धधकि अंगार। 
सुख-सीतलता कौ तहाँ, करिहौ किमि संचार।।

सुधा संपादक दुलारेलाल भार्गव (१९५६ ई. -६-९-१९७५) नारी में दीपशिखा के दर्शन करते हैं- 

दमकती दरपन-दरप दरि, दीपशिखा-दुति देह। 
वह दृढ़ इकदिसि दिपत यह, मृदु दस दिसनि सनेह।।

इतना ही नहीं, यहाँ तक कहते हैं कि कामिनी की कृपा होने पर ईश्वर की ओर भी क्यों देखा जाए?

कविता कंचन कामिनी, करैं कृपा की कोर। 
हाथ पसारै कौन फिर, वहि अनंत की ओर।। 

गीत सम्राट बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' (८-१२-१८९७-२९-४-१९६०) की मुखरा नायिका नेत्रों में प्रिय की छवि होने का उलाहना देते हुए कहती है-

खीझहु मत; रंचक सुनहु, ओ सलज्ज सरदार। 
हमरे दृग में लखि तुम्हें, विहँसि रह्यो संसार।।

राष्ट्रीय आत्मा के विशेषण से प्रसिद्ध राजाराम शुक्ल 'चितचोर' (सं. १९५५-) ने 'आँखों' पर लिखे दोहों में हर रस का समावेश किया है। कौवे अपनी निष्ठुर नायिका के नेत्रों की लाल रेखाओं को प्रेम पंथ नहीं; रसिकों के रुधिर से बनी बताते हैं- 

लाल-लाल डोरे नहीं, प्रेम-पंथ की रेख।
हैं रसिकों के रुधिर से, अरुण हो रहे देख।।

'चंद्रमुखी के दृग बने. सूर्यमुखी के फूल', 'बिन बंधन अपराध बिन, बाँध लिया मजबूत', 'आँखों की ही है तुला, आँखों के ही बाँट', 'आनन आज्ञा पत्र पर,  आँखें मुहर समान जैसी', 'क्यों न चलाऊँ आपकी आँखों पर अभियोग' सरस अभिव्यक्तियों के धनी चितचोर नारी की मादक मधुरता के गायक हैं- 

प्रेम दृष्टि की माधुरी, अधर-माधुरी सान। 
रूप माधुरी से मधुर, करा रही जलपान।। 

राधावल्लभ  पांडेय 'बंधु' (जन्म ऋषि पंचमी सं. १९४५) आधुनिक नारी के छलनामय आचरण पर शब्दाघात कर कहते हैं- 

अनुचित उचित न सोचती, हरती है सम्मान। 
भरी जवानी ताकती, काम भरी मुस्कान।।

जाल बिछाती फाँसती, करके यत्न महान। 
ठगती भोले 'बंधु' को, मतलब की मुस्कान।।

दीनानाथ 'अशंक' नारी में देवियों का दिव्य दर्शन करते हैं- 

नारी के प्रति आर्यजन, रखते भाव अनूप। 
गिनते उसको शारदा; शक्ति रमा का रूप।।

'श्याम सतसई' के रचनाकार तुलसीराम शर्मा 'दिनेश' (जन्म सं. १५५३) नारी की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए उसे नर से श्रेष्ठ तथा प्रकृति को पतिव्रता बताते हैं -

माधव के उर में यदपि, बसते दीनानाथ।                                                    
राधा उर को देखिए, बसते दीनानाथ।। 

नहीं प्रकृति सी पतिव्रता, जग में नारी अन्य। 
मूक-पंगु पति की सदा, करती टहल अनन्य।।

बुंदेलखंड के श्रेष्ठ उपन्यासकार, चित्रकार और राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक अंबिका प्रसाद वर्मा 'दिव्य' (१६ मार्च १९०७-५ सितंबर १९८६) ने 'दिव्या दोहावली में चित्रों पर आधारित दोहे लिखकर कीर्तिमान स्थापित किया। नारी के नयनों को चाँद कहें या सूर्य? यह प्रश्न दिव्या जी का दोहा पूछ रहा है- 

का कहिए इन दृगन कौं, कै चंदा कै भानु। 
सौहैं ये शीतल लगें, पीछे होंय कृशानु।।

अलंकारों, उपमाओं और बिम्बों से सज्जित और समृद्ध दिव्या जी के बुंदेली में रचित दोहों में नारी की प्रकृति और स्वाभाव को संकेतों के माध्यम से केंद्र में रखा गया है। ननद - भौजाई के मधु संबंध पर रचित एक दोहे में दिव्य जी कहते हैं- 

परभृत कारे कान्ह की, भगिनी लगे सतभाइ। 
ननद हमारी कुहिलिया, कस न हमें तिनगाइ।।

रामेश्वर शुक्ल 'करुण' श्रमजीवी नारी की विपन्नता और आधुनिक की दिशाहीनता को दो दोहों के माध्यम से सामने लाते हैं -

कृषक वधूटीं की दशा, को करि सकै बखान। 
जाल निवारन हेतु जो, नहिं पातीं परिधान।।

धन्य पश्चिम सुंदरी, मोहनि मूरति-रूप। 
नहिं आकर्षे काहि तव, मोहक रूप अनूप।।

मध्य भारत के दीवान बहादुर चंद्र भानु सिंह 'रज' बृज-अवधी मिश्रित भाषा में लिखी गयी 'प्रेम सतसई' में नारी की महिमा का बखान कई दोहों में करते हैं। वे भी श्याम के पहले राधा की वंदना करते हैं। रज नारी का अपमान करनेवालों को चेताते हुए कहते हैं-

अरे बावरे! ध्यान दे, मति करि तिय अपमान। 
सति सावित्री जानकी, 'रज' नारी धौं आन।।

संबु राम नहिं करि सके, नहिं पाई निज तीय। 
'रस' सोइ नारी स्वर्ग तेन, लिए फेरि निज पीय।।

६३८४ दोहों के रचयिता किशोर चंद्र 'कपूर' (जन्म सं. १९५६, कानपुर) नारी को माया मानकर उसके प्रभाव को स्वीकार करते हैं- 

माया से बचता नहीं, निर्धन अरु धनवान। 
साधु संत छूटत नहीं, माया बड़ी महान।।  

नावक के तीर तथा उग आई फिर दूब दोहा सतसई सहित १४ कृतियों के रचयिता हरदोई में अनंत चतुर्दशी सं. २०१३ को जन्मे, विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर दिवय नर्मदा हिंदी रत्न अलंकरण से अलंकृत डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत' वर्षा, पूनम, शरद शाम आदि को नारी से जोड़कर सामयिक संदर्भों के अर्थगर्भित दोहे कहने में सिद्धहस्त हैं। वे नारी के अवदान को संजीवनी कहते हैं -

जब-जब मैं मूर्छित हुआ, लड़कर जीवन युद्ध। 
दे चुंबन संजीवनी, तुमने किया प्रबुद्ध।। ५ 
 
नारी को प्रेरणा शक्ति के रूप में देखते हैं अनंत जी-

ओठों पर मुक्तक लिखूँ, लिखूँ वक्ष पर छंद।
आँखों पर ग़ज़लें लिखूँ, गति पर मत्तगयंद।। ६  

अभियंता कवि चन्द्रसेन 'विराट'  (३-१२-१९३६-१५-११-२०१८) अभिनव और मौलिक बिम्ब-विधान तथा नवीन उपमाओं के लिए जाने जाते रहे हैं।  गीतों (१२), ग़ज़लों (१०), मुक्तक (३) तथा दोहों (३) के संकलनों के माध्यम से कालजयी साहित्य रचनेवाले विराट ने नारी को केंद्र में रखकर शताधिक दोहे कहे हैं। आधुनिकता के नाम पर सौंदर्य प्रतियोगिताओं में होते नारी शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए विराट कहते हैं- 

स्पर्धाएँ सौंदर्य की, रूपाओं की हाट। 
धनकुबेर को लग गयी, सुंदरता की चाट।।

नारी शोषण के विरुद्ध दोहे लिखने में विराट जी संकेतों में सत्य को इस तरह उद्घाटित करते हैं कि पाठक के मन तक बात पहुँचे -

ठकुराइन मइके गई, पकी न घर में दाल। 
घर की मुर्गी रामकली, उसको किया हलाल।।७ 

हरियाणा के राज्य कवि उदयभानु 'हंस' (२-८-१९२६-२६-२-२०१९) नारी के जीवन में औरों के हस्तक्षेप को कठपुतली के माध्यम से इंगित करते हैं-

कठपुतली के नाच पर, सब हैं भाव विभोर। 
नहीं पता नेपथ्य में, कौन हिलता डोर।।८

स्वामी श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन'  (जन्म २६-११-१९२०) नारी के दो रूपों 'बेटी' और 'बहू' को केंद्र में रखकर एक मर्मस्पर्शी और मार्गदर्शी दोहा कहते हैं- 

बेटी जैसी बहू है, इसका रखें विचार। 
बहू बने बेटी सरिस, सुखी बसे परिवार।।९

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा पुरस्कृत के नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य भगवत दुबे नारी उत्पीड़न के प्रमुख कारण दहेज की कुप्रथा पर आघात करते हुए लिखते हैं-

सगुणपंछीयों को रहे, उल्लू-गिद्ध खदेड़। 
क्वाँरी बुलबुल हो रही, दौलत अधेड़।।१०  

परिणय प्रसंग में नारी की भूमिका को लेकर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' अपनी बात कुछ व्यंजना और हास्य मिलाकर भिन्न दृष्टिकोण से सामने रखते हैं।  यहाँ 'वरदान' में श्लेष का प्रयोग दृष्टव्य है। 

नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान।  
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान।। 

दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन। 
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन।। 

दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान। 
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान।।११ 

डॉ. किशोर काबरा कबीर की उलटबाँसी शैली का प्रयोग करते हुए व्यंजना में कहते हैं कि नारी द्वारा तिरस्कृत नर का उद्धार संभव नहीं-

कलियुग में श्री राम का, कैसे हो परित्राण। 
स्पर्श अहल्या का मिला, राम हुए पाषाण।।१२  

कल्पना रामानी नारी को अन्नपूर्णा कहते हुए उसकी बचत करने की प्रवृत्ति को सामने लाती हैं -

अन्नपूर्णा है सदा, जब भी पड़े अकाल। 
संचित दानों से करे, नारी सदा कमाल।।१२ 

सीता को प्रतीक बनाकर नारी पर दोषारोपण की सामाजिक कुप्रवृत्ति पर आघात करते हैं कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र'। सीता को मिले वनवास को न रोक पाने की आत्मग्लानि से श्री राम जलसमाधि लेकर जीवनांत कर लेते हैं -

सीताजी को त्यागकर, पछताए प्रभु खूब। 
खिन्न हुए इस ग्लानि से, गए नदी में डूब।। १३  

दुर्गावती, चाँदबीबी, लक्ष्मीबाई, अवंतीबाई, चेन्नमा आदि नारी आदि ने देश की स्वतंत्रता के लिए जान की बाजी लगाने में कोई संकोच नहीं किया। कस्तूरबा गाँधी, सरोजिनी नायडू, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि ने स्वतंत्रता सत्याग्रह में महती भूमिका निभाई। नागार्जुन इन नारी रत्नों को कायल की उपमा देते हुए एक दोहा कहकर नूके अवदान को नमन करते हैं- 

जली ठूंठ पर बैठकर, गयी कोकिला कूक। 
बाल न बाँका कर सकी, शासन की बंदूक।।१४ 

नारी विवाह पश्चात् ससुराल आ जाती है तो सावन में भाई का स्मरण होना और न मिल पाने की विवशता, उसे व्यथित करती ही है। आर. सी.शर्मा 'आरसी' नारी-वेदना के इस पक्ष को सामने लाते हैं- 

सावन बरसे आँख से, ब्याही कितनी दूर। 
बाबुल भी मजबूर थे, मैं भी हूँ मजबूर।। 

डॉ. शैल रस्तोगी (जन्म १-९-१९२७) नारी जीवन के दो पक्षों को दो दोहों के माध्यम से सामने लाती हैं -

पत्नी, माँ, बेटी, बहिन, भौजी, ननदी, सास। 
एक ज़िंदगी में जिए, नारी सौ अहसास।।

बहुएँ बड़बोली हुईं, सासें दिन-दिन मौन। 
उलटी गंगा बाह रही, घर को बाँधे कौन।।  

डॉ. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र' (१.४.१९३४-२०१९) संतानों के अन्यत्र जा बसने से उपजी विसंगति को इंगित करते हुए कहते हैं - 

बीबी-बच्चे संग ले, शहर जा बसा पूत। 
बूढ़ी आँखें सांझ से, घर में देखें भूत।। 

नर्मदांचल के ख्यात साहित्यकार माणिक वर्मा (जन्म २५.१२.१९३८) अत्याधुनिकता की चाह में शालीनता-त्याग की कुप्रवृत्ति को इंगित करते हुए कहते हैं -

कटि जंघा पिंडलि कमर, दिया वक्ष भी खोल। 
और कहाँ तक सभ्यता, बदला लेगी बोल।।

मधुकर अष्ठाना (२७.१०.१९३९) निरंतर बढ़ते यौन अपराधों पर अपनी चिंता व्यक्त करते हैं -

नाबालिग से रेप क्यों, पतित हुआ यूँ देश। 
हैवानों ने धार लिया, इंसानों का वेश।।

नारी विमर्श की बात स्थूल रूप से न कर, धूप, चाँदनी, आकाश, धुएँ और बाज चिड़िया, खेत के माध्यम से करते हैं डॉ. कुँवर बेचैन (१.७.१९४२-२९.४.२०२१) -

धूप साँवली हो गयी, हुई चाँदनी शाम। 
जब से यह सारा गगन, हुआ धुएँ के नाम।।

फँस चंगुल में बाज के, चिड़िया हुई अचेत। 
खड़ा देखता रह गया, हरी चरी का खेत।।  

डॉ. राधेश्याम शुक्ल (२६.१०.१९४२) इस चलभाष काल में बिसराई जा चुकी चिट्ठी को नारी से जोड़ते हुए कहते हैं-

औरत चिट्ठी दर्द की, जिस पर पैट मुकाम। 
फेंक गया है डाकिया, पत्थरवाले गाम।।

दिनेश शुक्ल (१-१-१९४३) तमाम बाधाओं के बावजूद आगे बढ़ते रहने के नारी के हौसले को सलाम करते हैं -

गाँठ लगी धोती फ़टी, सौ थिगड़े पैबंद।  
लड़की बुनती रात दिन, मुस्कानों के छंद।।

सूर्यदेव पाठक 'पराग' (२३-७-१९४३) नारी को नर की शक्ति कहते हैं - 

नारी नर की शक्ति है, वही प्रेरणापुंज। 
जीवन रेगिस्तान में, सुंदर कुसुमित कुञ्ज।। 
 
डॉ. रमा सिंह (१७.१०.१९४५) नारी के स्वाभिमान की रक्षा को महत्वपूर्ण मानती हैं -

अम्मा की आँखें मुझे, सदा दिलातीं याद। 
कमज़र्फों के सामने, मत करना फरियाद।। 

डॉ. मिथलेश दीक्षित (१-९-१९४६) नारी के दो रूपों की दो चरित्रों के माध्यम से चर्चा करते हुए युगीन विसंगति को इंगित करती हैं-

शूर्पणखा की धूम है, रही जानकी चीख। 
झूठ कार में घूमता, सत्य माँगता भीख।। 

हिंदी के कालजयी छंद दोहा ने हर देश-काल में नारी की अस्मिता का सम्मान कर, उसके अधिकारों के बात की है, शौर्य का गुणगान किया है और पथ भटकी नारियों को सत्परामर्श देकर मार्ग दर्शन भी किया है। हिंदी के प्रतिष्ठित और नवोदित सभी दोहाकारों ने नारी को केंद्र में लेकर दोहे रचे हैं। आदि काल में देवी वंदना, वीरगाथा काल में वीरांगना प्रशस्ति, भक्ति काल में आत्मा-परमात्मा, रीति काल में श्रृंगार और नायिका वर्णन, आधुनिक काल में समसामयिक सामाजिक विसंगतियों के नारी पर प्रभाव को दोहे ने हमेशा ही ह्रदय में बसाया है। एक लेख में यह सब कुछ समेटा नहीं जा सकता। नारी सृष्टि का अर्धांग ही नहीं जननी भी है। नर और नारी एक-दूसरे के पूरक हैं। मैंने एक दोहे के माध्यम से नर-नारी की सहभागिता और समन्वय को इंगित किया है -

यह उसका रहमान है, वह इसकी रसखान। 
उसमें इसकी जान है, इसमें उसकी जान।।
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संदर्भ -           
१. अनंतराम मिश्र 'अनंत', नावक के तीर। 
२. दोहा-दोहा नर्मदा, संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
३. हिंदी दोहा सार, सम्पादक बरजोर सिंह 'सरल', 
४. रामचरित मानस, गोस्वामी तुलसीदास
५. नावक के तीर, डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत'
६. उग आयी फिर दूब, डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत'
७. चुटकी-चुटकी चाँदनी - चन्द्रसेन 'विराट' 
८. दोहा सप्तशती - उदयभानु हंस 
९. होते ही अंतर्मुखी - श्यामानंद सरस्वती 'रौशन'
१०. शब्दों के संवाद - आचार्य भगवत दुबे
११. दिव्यनर्मदा.इन / दोहा सलिला - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
१२. बाबूजी का भारत मित्र, दोहा विशेषांक - संपादक रघुविंदर यादव 
१३. स्वरूप सहस्रसई - कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र'
१४. समकालीन दोहा कक्ष - संपादक हरेराम 'समीप'
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४   


नारी के दो-दो जगत, वह दोनों की शान. 
पाती है वरदान वह, जब हो कन्यादान.
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नारी को माँगे बिना, मिल जाता नर-दास.
कुल-वधु ले नर दान में, सहता जग-उपहास.
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दल-बल सह जा दान ले, भिक्षुक नर हो दीन.
नारी बनती स्वामिनी, बजा चैन से बीन.
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चीन्ह-चीन्ह आदेश दे, हक लेती है छीन. 
समता कर सकता न नर, कोशिश नाहक कीन.
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दो-दो मात्रा अधिक है, नारी नर से जान.
कुशल चाहता तो कभी, बैर न उससे ठान.
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यह उसका रहमान है, वह इसकी रसखान.
उसमें इसकी जान है, इसमें उसकी जान.