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गुरुवार, 6 जनवरी 2022

कांता रॉय के गीत

कांता रॉय के गीत  


बसंत गीत 


देखिए जरा, जरा ठहरिए 
प्रकृति खड़ी करके श्रृँगार 
तान छेड़ा है घटा ने 
सुना है
प्यार के मौसम में मन बहकते हैं 

शाम सुरमई जूही महकी 
 प्रेम में उमगी कचनार 
शतदल खिलती होठों में 
सुना है 
अंग-अंग में पलास दहकते हैं 

कामदेव की तीर साधना  
ऋतुराज हैं बहके आज 
सुप्त लालसाएँ लेकर 
सुना है
अमलतास पर भँवरे मचलते है
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फाग 

बिन साजन कैसी होली हो रामा,
उड़े रंग सिनुरिया.......

कंगना मोरा चुप-चुप रोई 
माथे की बिंदिया खोई-खोई
पिया बिना चुनर दिवानी हो रामा,
उड़े रंग सिनुरिया.........

गली-गली में खिल-खिल गोरी 
गावे फागुन गावे होरी 
पिया संग नैन लड़ावे हो रामा 
उड़े रंग सिनुरिया............

प्रेम-डगर पर ऋतु ये सुहानी 
पुरवा छेड़े धुन मस्तानी 
पल-पल जिया तरसावे हो रामा 
उड़े रंग सिनुरिया............

बाँके-बिहारी चुप से अइहैं 
ले पिचकारी अंगिया भिजैहें 
रंग-गुलाल मोहे  सोइहें हो रामा 
उड़े रंग सिनुरिया........…
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 क्या फिर से नया साल आया !

बर्फ बर्फ  दिन ,सर्द सर्द  रातें 
गुनगुनी सी धुप लेकर 
कोहरे  से झाँके 
दस्तक कौन देने आया ?
क्या फिर से नया साल आया ! 

तारीखों ने तारीखों से 
मिलन के वादे निभाये 
मिलन की बातें  बनाने   
दस्तक कौन देने आया ?
क्या फिर से नया साल आया !

झील के किनारे इठलाते इतराते 
सफेद राजहँसो का जोड़ा 
 जोडों को विह्लाने 
दस्तक कौन देने आया ?
क्या फिर से नया साल आया !

उम्मीदों की डोली कजरारे नैन  
सतरंगी  सपनों के धागे 
अंधियारे पथ पर 
कहरिया कहाँ से आया ?
क्या फिर से नया साल आया !

थम गया है शोर तुफानों का 
सन्नाटा है  रथ पर सवार 
छमछम घुँघरू की कानों में  
दस्तक कौन देने आया ?
क्या फिर से नया साल आया !

आँचल है कुछ उलझी-उलझी 
सपने है गड्ड मड्ड - गड्ड मड्ड 
मुड़ी - तुडी गठियाई मुठियाई 
दस्तक कौन देने आया ?
क्या फिर से नया साल आया !
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 पुण्य काल की बेला


तिल गुड़ खाकर गुड़- गुड़ बोले 
रिश्तों को मिले आधार
मनवा डोले पतंग बनकर
है उत्तरायण त्योहार 
मकर संक्रातिss.......पुण्य काल की बेला।

सूर्य देव भ्रमण को निकले 
छोड़ धनु को मकर में पहुँचे 
राशि-चाल की अदला- बदली 
ज्यों गति उतरायन बिहुँसे
मकर संक्रातिss....... पुण्य काल की बेला।

 
संतों का है गंगासागर 
गंगा में डूबकी लगाकर
तिल-मुँगफलियाँ गुड़-रेवड़ी 
गौ-दान से बैतरणी पार 
मकर संक्रातिss.... पुण्य काल की बेला

भैया-भौजी छत पर देखें 
नील गगन में पेंचमपेंची 
चुपके-चुपके मम्मी-पापा 
थामे डोरी थामे चरखी 
मकर संक्रातिss....पुण्य काल की बेला।

सिंह साहब  लोहड़ी गाए
ओ सुंदर मुंदरिये हो जी 
दुल्ले भट्टी वाला चंगा 
दुल्ले घी व्याही हो जी 
मकर संक्रातिss..... पुण्य काल की बेला।

रमन्ना जी का पोंगल आया 
हर्ष का उल्लास का पोंगल
भोगी पोंगल भोगी कोट्टम 
सूर्य पोंगल मट्टू पोंगल 
मकर संक्रातिss......  पुण्य काल की बेला।
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 एक तुम्हारे होने से 

साक्षी है सिंधू मन मेरा एक तुम्हारे होने से
हृदय की भित्तियों में चित्तियाँ तुम्हारे होने से

ऊँची काली दीवारें थाह पता कोई ना जाने
जीने -मरने में भेद मिटा संत्रासों के ढोने से

हृदय की भित्तियों में चित्तियाँ तुम्हारे होने से .......

उलट-पुलट है यह जग सारा पुरवाई भी व्याकुल है
लहरों की उछ्वासित साँसों को क्या मलाल अब खोने से

हृदय की भित्तियों में चित्तियाँ तुम्हारे होने से ........

लय की अनंतता में अंतर्मन का रमकर रमना
नित्य-निरंतर उसके गति में अविचलता के होने से

हृदय की भित्तियों में चित्तियाँ तुम्हारे होने से .........
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 पीड़ा तू आ

पीड़ा तू आ, आ तेरा श्रृंगार करूँ ....
शब्दों के फूलों से अंतरंग सजा लूँ ....
पीड़ा तू आ, तुझे हृदय में बसा लूँ
पीड़ा तू आ, आ तेरा श्रृँगार करूँ .........

बौने मन की काठी पर
प्रीत की लम्बी बेल चढ़ाई
लतर - चतर कर उलझ गई
ये कैसी मैने खेल रचाई

पीड़ा तू आ,तुझे पलकों पर बिठा लूँ...
पीड़ा तू आ, आ तेरा श्रृँगार करूँ.....

गर्द -गर्द धूमिल- सी चाँदनी
चाँद का रूप कितना मैला
रौंद कर सपनों को
टिड्डों का दल निकला

पीड़ा तू आ,तुझे अधरों का सुख दूँ.....
पीड़ा तू आ, आ तेरा श्रृँगार करूँ.....

सागर की उन्मुक्त लहरें
बदली का यूँ ही घिरना
पत्थर जो गल कर बर्फ बने
गर्म उँसासों का जमकर जमना

पीड़ा तू आ,तुझे मन महुए का नशा करा दूँ......
पीड़ा तू आ, आ तेरा श्रृँगार करूँ.....

वह कदंब का फूल शस्त्र-सा
शूल- सा चुभता भ्रष्ट बसंत
गर्मी है अब सर्द-सर्द-सी
धुप झुलस कर हो गई पस्त

पीड़ा तू आ, तुझे इच्छाओं का माँस खिला दूँ....
पीड़ा तू आ, आ तेरा श्रृँगार करूँ.....

हड्डियों के ढाँचे में
कर्ज़ कर्ज़ डूबा स्वार्थ
अंधेरों का बढ़ता आकार
घट कर पलछिन गया उजास

पीड़ा तू आ,तुझे वाणी की आँख दूँ....
पीड़ा तू आ, आ तेरा श्रृँगार करूँ.....
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 भारत स्वच्छ बनाना है


स्वच्छता की शपथ लेकर,घर- घर अलख जगाना है 
भारत स्वच्छ बनाना है, आदर्श देश बनाना है-----------

नागरिक की भागीदारी, जन-सेवा की अब तैयारी 
स्वच्छता की जिम्मेदारी, जन-जन की हो भागीदारी 

जन-आँदोलन स्वच्छता के , नाम पर चलाना है.....
भारत स्वच्छ बनाना है ,आदर्श देश बनाना है.......

स्वच्छता ही सम्पदा है ,बात यह तुम जान लो
सड़कों ,गलियों की सफाई ,अभियान यह ठान लो 

सुव्यवस्थित शौचालय ,कचरा ठिकाने लगाना है.......
भारत स्वच्छ बनाना है ,आदर्श देश बनाना है............

स्वच्छ देश हो यह अपना, गाँधी जी का है सपना 
यह सपना सच कर जाना है ,सपनों का देश बनाना है 

मंदिर-मस्जिद -गिरजाघर से ,अबकी बिगुल बजाना है .......
भारत स्वच्छ बनाना है, आदर्श देश बनाना है.......
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गीत

रुक - रुक , ऐ दिल ,जरा थम के चलना
लम्बा सफर है, दूर है मंजिल, थम-थम के चलना

रुक - रुक ,ऐ दिल ,जरा थम के चलना

आयेंगी कई-कई बाधाएँ ,डर कर मत रहना
नदिया की धारा बनकर ,कलकल तुम बहना ,

रुक-रुक , ऐ दिल ,जरा थम के चलना

पग -पग , काँटों का चुभना , खून-खून तर लेना
आँख-मिचौनी ,हौसलों से , खेल सुख -दुख कर लेना

रुक-रुक ,ऐ दिल ,जरा थम के चलना

पीतल में सोने सी आभा,चमक-चमक ,छल का छलना
हाथ की रेखा ,कर्म सत्य है,प्यार के पथ पर ही चलना

रुक - रुक ,ऐ दिल ,जरा थम के चलना

पत्थर की बस्ती , पत्थर के दिल ,तुम पथरीली ना बनना
रात अंधेरी , रैन भयावनी , चाँद -चाँदनी बन खिलना

रुक- रुक ,ऐ दिल , जरा थम के चलना
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दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ

धूमिल होती भ्रांति सारी, गण-गणित मैं तोड़ रही हूँ
कलम डुबो कर नव दवात में, रूख समय का मोड़ रही हूँ

मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......

नई भोर की चादर फैली, जन-जीवन झकझोर रही हूँ
धधक रही संग्राम की ज्वाला, सागर सी हिल-होर रही हूँ

मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......

टूटे हृदय के कण-कण सारे, चुन-चुन सारे जोड़ रही हूँ
उद्वेलित मन अब सम्भारी, विषय-जगत अब छोड़ रही हूँ

मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ .....

मृदंग- मृदंग सा है मन मेरा, हरकाती सी शोर रही हूँ
क्षितिज रखी है मैने अंगुली, प्रत्यक्षित हिलकोर रहीं हूँ

मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ .........

रोक सको दम गर है तुममें, प्रलय-प्रकाश जोड़ रहीं हूँ
आत्म स्वरों को रौंदने वालें नर - नारायण तोड़ रहीं हूँ

मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ........

शक्ति प्रकृति ढोना होगा, मन मृगछाल ओढ रही हूँ
पग-पग रक्तबीज राजे है, अस्त्र अक्षर बल जोर रही हूँ

मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ .........

सिंहासन डोले मनु रक्षक का, ठीकर सारे फोड़ रही हूँ
कोंपलें नई फूट रही है, निर्माण सेतु जोड़ रही हूँ

मैं दुर्गेश्वरी मै बोल रही हूँ .......
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मन अभिमानी माने न बतिया 
पिया बिनु जागू सारी रतिया

मन अभिमानी -----

जल-जल मरू मैं, प्रेम दाह में 
प्रीत की चाह में कलपत सथिया  

मन अभिमानी------ 

ला रे सखी मोरी, माहुर ला दे,
सोन सजन बिनु फाटत छतिया

मन अभिमानी ----- 

पिया कल आये मैं न बोली 
वश में ना मैं ना मोरा मतिया 

मन अभिमानी -------
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 वे दिन भी भले थे...


फूल से दिन खिले थे,साँझ गुलशन-सी रही
खुशियों का चलन था,अब विरानी भली

वे दिन भी भले थे , ये साँझ भी है भली


छूटना था छूट गये, रंग कच्चे प्रेम के
चाशनी ना थी घनी, हम तो पगे , तुम ना पगे

वे दिन भी भले थे ,ये साँझ भी है भली

हिल रहे थे मिल रहे थे ,सुख सपने सब खिल रहे थे
दुध जल से मिल रहे थे,घुलकर एक ही बने

वे दिन भी भले थे ,ये साँझ भी है भली

जुग जैसे दिन अब बीते,पाते खोते मन भी रीते
सगों ने किया  किनारा,अलग बहे नदी जल धारा

वे दिन भी भले थे ,ये साँझ भी है भली
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 बेटी अभिमान है


बेटी से हैं सृष्टि सारी,बेटी से संसार है न्यारी
बेटी घर देहरी फुलवारी,बेटी से मान और गान है
बेटी अभिमान है,देश का सम्मान है

शिक्षा, पोषण में रही अधूरी,सदियों मर-मर जीती आयी
बहुत हुआ ये भेदभाव,बहुत हुआ अब अपमान है
बेटी अभिमान है,देश का सम्मान है

धोखा धोखा है जग आशा,बेटी पर ना किया भरोसा
बेटा ही बेटा करते आये,समझा क्या बेटी शान है 
बेटी अभिमान है,देश का सम्मान है

कोख में देखो आग लगाई ,गर्भ में बेटी हुई विदाई
गड़बड़-गड़बड़, खलबल-खलबल,लिंग भेद ने किया नुकसान है
बेटी अभिमान है,देश का सम्मान है

अब कोई दुष्कर्म ना होवे,बिटिया-जननी कोई ना रोवे
बेटी की सुरक्षा जिम्मेदारी,जन - जन जारी ये फरमान है ........
बेटी अभिमान है,देश का सम्मान है


पुरूषतंत्र अब चेतो जागो ,बेटी के सब गुण पहचानों
बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ,भारत में बेटी अब वरदान है 
बेटी अभिमान है,देश का सम्मान है
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आईये पास कि, दिल आज उदास है, आपकी आस में दिल आज उदास है

याद का भँवर, उड़ा ले चला किधर, थाम लीजिए मुझे, दिल आज उदास है

हाथ में आपकी, हैं छुअन-सी लगी, घटा को देख फिर दिल आज उदास है

दिल का धड़क जाना, आपके नाम से, बदलियों को देख, दिल आज उदास है

छतरी में सिमटना, एक ठंडी शाम में, यादों में तनहा दिल आज उदास है

रूहानी तलाश, रूह की जैसी प्यास, ढुंढना आस पास दिल आज उदास है

पूछना मुझसे नाम मेरे यार का, सिसकती दास्तान, दिल आज उदास है

सपनों की मंडियाँ, बिकते हुए सपने, देख कर तमाशा दिल आज उदास है

चाँदनी की चकमक, चाँद का चमकना, खनकती चुड़ियाँ, दिल आज उदास है

ख्वाहिश तुम्हें क्यों, पर्दा नशी की, कर दे फना इश्क दिल आज उदास है

रिश्तों को तोलना, बाजार क्या है, रौंदना इस कदर दिल आज उदास है

यादों की बूंदें, गीला-सा मन मेरा, नमकीन बरसात, दिल आज उदास है

सूनी सी डगर, गाँव के चौपाल में, चुप्पी हवाओं की दिल आज उदास है

इंतजार पल पल, क्यों करें दिल मेरा, मुड़कर ना देखना दिल आज उदास है

सतरंगी सपना, पलना यूँ बार बार, ऐतबार क्यों कर दिल आज उदास है
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बदरिया कहाँ गई 

सावन की, बुनझीसी सखी है, तन में लगाए आग .......

बदरिया कहाँ गई 

गोर बदन ,कारी रे चुनरिया ,सर से सरकी आज ...... 

बदरिया कहाँ गई

सावन भादों ,रात अंहारी ,थर - थर काँपय शरीर ...... 

बदरिया कहाँ गई 

दादूर मोर ,पपीहा बोले ,कहाँ गये रणवीर ..... 

बदरिया कहाँ गई 

अमुआँ की डारी ,झूले नर- नारी, मैं दहक अंगार .... 

बदरिया कहाँ गई 

उमड़ उमड़े ,नदी जल पोखर, तन में रह गई प्यास ...... 

बदरिया कहाँ गई 

सब सखी पहिरय ,हरीयर चुड़ी ,मोरा कंगना उदास ...... 

बदरिया कहाँ गई 

सावन पिया ,आवन कह गये, कैसे नैहर जाऊँ .....

बदरिया कहाँ गई 

जलथल - जलथल ,पोखर उमड़े, मन में पड़े रे अकाल

बदरिया कहाँ गई 

सुध बिसरे मेरी ,प्रीत की प्रीतम ,सौतन घर किये वास ......... 

बदरिया कहाँ गई 

तरूण बयस मोरा, पिया तेजल ,भीजल देह लगे आग ...... 

बदरिया कहाँ गई 

जग हरीयाली ,सगरे छाई, मोरा मन सुखमास ....... 

बदरिया कहाँ गई 

बेली चमेली ,करे अठखेली, बरखा झींसी फुहार ......

बदरिया कहाँ गई 

पिया जब आये ,आस पुराये, सावन हुआ मधुमास ..... 

बदरिया आ ही गई
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 दीप-दीवाली 

पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली

रंग रंगोली द्वार सजाऊँ 
गेंदा गुलाब महकाऊँ हो रामा दीप दीवाली .... 
पिया संग दीप जलाऊँ हो राम दीप दीवाली ......

लक्ष्मी ,शारदा पूजन बेला 
संग गणपति विराजे हो रामा दीप दीवाली .... 
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली .......

खील बताशे लड्डू ओ बर्फी 
खीर में तुलसी हो रामा दीप दीवाली....... 
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली ......


झिलमिल करे दीपक बाती 
जगमग जगमग रौशन हो रामा दीप दीवाली ....... 
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली ......

सुख की कामना सुख की ज्योति 
फुलझड़ी और अनार हो रामा दीप दीवाली..... 
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली .......
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फँस गया हूँ फंद में 


जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में

काली गहरी मन कोठरियाँ
रेंग रही तन पर छिपकलियाँ
प्राण कहाँ स्पंद में ....
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में

जग की उलझन कैसा बंधन
चल रे मनवा कर गठबंधन
जोगी परमानंद में ....
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में

अभिमानी मन ये जग छूटा
दुनिया तजते भ्रम सब टूटा
चैन नहीं आनंद में .......
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में

सौ पर्दों में चेहरा छुपाये
ज्ञान रोशनी कैसे पाये
फँसा मन मकरंद में .....
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में
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दादाजी अब कब आयेंगे (बाल गीत)


सोन परी हम कथा सुनेंगे
दादाजी की छड़ी पकड़ कर
हम उनको लाढ़ दिखायेंगे
दादाजी अब कब आयेंगे

अंगूली थामें बडी अकड़ से
पार्क जायेंगे बडे़ मजे
संग हम उनके धीरे चलेंगे
गोल गोल घुम मजे करेंगे

दादाजी अब कब आयेंगे


सोनू के दादाजी आते
रोज सैर को लेकर जाते
चाॅकलेट चिक्की भी दिलाते
कब मुझको भी दिलवायेंगे

दादाजी अब कब आयेंगे


सायकिल मेरी मुझे सताये
बार बार वो मुझे गिराये
सायकिल मुझे सिखलायेंगें
सायकिल की सैर करयेंगे

दादाजी अब कब आयेंगे

बातों ही बातों में मुझको
दुनिया की सैर करायेंगें
कौन सही और कौन गलत है
प्यार से मुझे बुझायेंगे

दादाजी अब कब आयेंगे

पोता हूँ मै उनका सूद भर
उनके लिए पापा बित्ते भर
उचक गोद में दादाजी के
पेट पकड़ कर कब सोयेंगें

दादाजी अब कब आयेंगे

कह गये थे कल ही आऊँगा
चाॅकलेट ढेरों दिलवाऊँगा
वो चाॅकलेट कब लायेंगे
गोदी में बैठ खिलायेंगे
दादाजी अब कब आयेंगे

सॉनेट

सॉनेट
चक्की
*
चक्की चलती समय की, पीस रही बारीक।
अलग सभी से दीख, बच जा कीली से चिपक।
दूर ईश से आत्म, काल करे स्वागत लपक।।
पक्षपात करती नहीं, सत्य सनातन लीक।।

चक्की पीसा ग्रहणकर, चले सृष्टि व्यापार।
अन्य पिसे तो हँसा, आप पिसा सब हँस रहे।
मोह जाल मजबूत, माया मृग जा फँस रहे।।
परम शक्ति गृहणी कुशल, पाले कह आभार।।

निशि-दिन चक्की पाट हैं, कीली है भगवान।
नादां प्रभु को भज बचे, जाने जीव सुजान।
हथदंडा है पुरोहित, दाना तू यजमान।
परम ब्रह्म है कील, सज समझ मौन मतिमान।।

शेष कर रहे भूल, भज सक न, भूल भगवान।।
कर्म-दंड चुप झेल, संबल प्रभु का गुणगान।।
संवस
६-१-२०२२
***
एक रचना
काव्य और जन-वेदना
*
काव्य क्या?
कुछ कल्पना
कुछ सत्य है.
यह नहीं जड़,
चिरंतन चैतन्य है।
देख पाते वह अदेखा जो रहा,
कवि मनीषी को न कुछ अव्यक्त है।
रश्मि है
अनुभूतिमय संवेदना।
चतुर की जाग्रत सतत हो चेतना
शब्द-वेदी पर हवन मन-प्राण का।
कथ्य भाषा भाव रस संप्राणता
पंच तत्त्वों से मिले संजीवनी
साधना से सिद्धि पाते हैं गुनी।
कहा पढ़ सुन-गुन मनन करते रहे
जो नहीं वे देखकर बाधा ढहे
चतुर्दिक क्या घट रहा,
क्या जुड़ रहा?
कलम ने जो किया अनुभव
वह कहा।
पाठकों!
अब मौन व्रत को तोड़ दो।
‘तंत्र जन’ का है
सदा सच-शुभ ही कहो।
अशुभ से जब जूझ जाता ‘लोक’ तो
‘तन्त्र’ में तब व्याप जाता शोक क्यों?
‘प्रतिनिधि’ जिसका
न क्यों उस सा रहे?
करे सेवक मौज, मालिक चुप दहे?
शब्द-शर-संधान कर कवि-चेतना
चाहती जन की हरे कुछ वेदना।
२३-२-२०१७
***
नवगीत
१. अभी नहीं
*
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
कृष्ण मृगों को
मारा तुमने
जान बचाकर भागे.
सोतों को कुचला
चालक को
किया आप छिप आगे.
कर्म आसुरी करते हैं जो
सहज न दंडित होते.
बहुत समय तक कंस-दशानन
महिमामंडित होते.
लेकिन
अंत बुरा होता है
समय करे निबटारा.
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
तुमने निर्दोषों को लूटा
फैलाया आतंक.
लाज लूट नारी की
निज चेहरे पर मलते पंक.
काले कोट
बचाते तुमको
अंधा करता न्याय.
मिटा साक्ष्य-साक्षी
जीते तुम-
बन राक्षस-पर्याय.
बोलो क्या आत्मा ने तुमको
कभी नहीं फटकारा?
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
जन प्रतिनिधि बन
जनगण-मन से
कपट किया है खूब.
जन-जन को
होती है तुमसे
बेहद नफरत-ऊब.
दाँव-पेंच, छल,
उठा-पटक हर
दिखा सुनहरे ख्वाब
करे अंत में निपट अकेला
माँगे समय जवाब.
क्या जाएगा साथ
कहो,
फैलाया खूब पसारा.
***
नवगीत
२. दूर कर दे भ्रांति
*
दूर कर दे भ्रांति
आ संक्राति!
हम आव्हान करते।
तले दीपक के
अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।
*
रात में तम
हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने
उषा का
थाम कर कर नित्य टेरा।
प्रयासों की
हुलासों से
कर रहां कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर
दुपहरी संग
थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ
लायें शांति
जन अनुमान करते।
*
घाट-तट पर
नाव हो या नहीं
लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव
कंधों पर
टिका कुछ भार तो हो।
इशारों से
पुकारों से
टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की
पतंगें उड़
कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू
जन-क्रांति का
जय-गान करते।
*
ओट से ही वोट
मारें चोट
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता
न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।
पसीने के
नगीने से
हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी
जन्म ले
खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के
काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।
१२-१-२०१७
***
३. बाल नवगीत:
संजीव
*
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
***
मंगलवार, 6 जनवरी 2015
४. नवगीत:
*.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***
५. नवगीत:
आओ भी सूरज
*
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
*
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
*
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
*
रविवार, 4 जनवरी 2015
****
६. नवगीत:
उगना नित
*
उगना नित
हँस सूरज

धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत
तजना मत, अपना मग
छिपना मत, छलना मत
चलना नित
उठ सूरज

लिखना मत खत सूरज
दिखना मत बुत सूरज
हरना सब तम सूरज
करना कम गम सूरज
मलना मत
कर सूरज

कलियों पर तुहिना सम
कुसुमों पर गहना बन
सजना तुम सजना सम
फिरना तुम भँवरा बन
खिलना फिर
ढल सूरज
***
(छंदविधान: मात्रिक करुणाकर छंद, वर्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय नायक छंद)
२.१.२०१५
७. नवगीत:
संक्रांति काल है
.
संक्रांति काल है
जगो, उठो
.
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
.
खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
.
दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
.
सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
.
नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
*****
८. नवगीतकौन नहीं?
*
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
*
इसके पग में
जात-पाँत की
बेड़ी पड़ी हुई।
कर को कसकर
ऊँच-नीच जकड़े
हथकड़ी मुई।
छूत-अछूत
न मन से बिसरा
रहा अड़ाता टाँग
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
*
तिलक-तराजू
की माया ने
बाँध दई ठठरी।
लोकतंत्र के
काँध लदी
परिवारवाद गठरी।
मित्रो! कह छलते
जनगण को जब-तब
रचकर स्वांग
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
*
वैताली ममता
काँधे पर लदा
स्वार्थ वैताल।
चचा-भतीजा
आप ठोंकते
खोद अखाड़ा ताल।
सैनिक भूखा
करे सियासत
आरक्षण की माँग
कौन नहीं
दिव्यांग यहाँ है?
कौन नहीं विकलांग??
*
९. उस पर कर है.
*
जो न करे उत्पादन कुछ भी
उस अफसर को
सौ सुविधाएँ और हजारों
भत्ते मिलते.
पदोन्नति पर उसका हक है
कभी न कोई
अवसर छिनते
पाँच अँगुलियाँ
उसकी घी में और
कढ़ैया में सिर तर है.
*
प्रतिनिधि भूखे-नंगे जन का
हर दिन पाता इतना
जिसमें बरस बिताता आम आदमी.
मुफ्त यात्रा,
गाडी, बंगला,
रियायती खाना, भत्ते भी
उस पर रिश्वत और कमीशन
गिना न जाए.
माँग- और दो
शेष कसर है.
*
पूँजीपति का हाल न पूछो
धरती, खनिज, ऊर्जा, पानी
कर्जा जितना चाहे, पाए.
दरें न्यूनतम
नहीं चुकाए.
खून-पसीना चूस श्रमिक का
खूब मुटाये.
पोल खुले हल्ला हो ज्यादा
झट विदेश
हो जाता फुर्र है.
*
अभिनेता, डॉक्टर, वकील,
जज,सेठ-खिलाड़ी
कितना पाएँ?, कौन बताए?
जनप्रियता-ईनाम आदि भी
गिने न जाएँ.
जिसको चाहें मारे-कुचलें
सजा न पाएँ.
भूल गए जड़
आसमान पर
जमी नजर है .
*
गिनी कमाईवाले कर दें
बेशुमार जो कमा रहे हैं
बचे रहें वे,
हर सत्ता की यही चाह है.
किसको परवा
करदाता भर रहा आह है
चूसो, चूसो खून मगर
मरने मत देना.
बाँट-बाँट खैरात भिखारी
बना रहे कह-
'नहीं मरेगा लोक अमर है'.
*
मेहनतकश को मिले
मजूरी में गिनती के रुपये भाई
उस पर कर है.
*****
७-१-२०१६
​१०. नवगीत:*
सत्याग्रह के नाम पर.
तोडा था कानून
लगा शेर की दाढ़ में
मनमानी का खून
*
बीज बोकर हो गये हैं दूर
टीसता है रोज ही नासूर
तोड़ते नेता सतत कानून
सियासत है स्वार्थ से भरपूर
.
भगतसिंह से किया था अन्याय
कौन जाने क्या रहा अभिप्राय?
गौर तन में श्याम मन का वास
देश भक्तों को मिला संत्रास
.
कब कहाँ थे खो गये सुभाष?
बुने किसने धूर्तता के पाश??
समय कैसे कर सकेगा माफ़?
वंश का ही हो न जाए नाश.
.
तीन-पाँच पढ़ते रहे
अब तक जो दो दून
समय न छोड़े सत्य की
भट्टी में दे भून
*
नहीं सुधरे पटकनी खाई
दाँत पीसो व्यर्थ मत भाई
शास्त्री जी की हुई क्यों मौत?
अभी तक अज्ञात सच्चाई
.
क्यों दिये कश्मीरियत को घाव?
दहशतों का बढ़ गया प्रभाव
हिन्दुओं से गैरियत पाली
डूबा ही दी एकता की नाव
.
जान की बाजी लगाते वीर
जीतते हैं युद्ध सहकर पीर
वार्ता की मेज जाते हार
जमीं लौटा भोंकते हो तीर
.
क्यों बिसराते सत्य यह
बिन पानी सब सून?
अब तो बख्शो देश को
'सलिल' अदा कर नून
*
हिंदी वंदना
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
सिंधी सीखें बोल, लिखें व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
***
दोहा दुनिया
*
राजनीति है बेरहम, सगा न कोई गैर
कुर्सी जिसके हाथ में, मात्र उसी की खैर
*
कुर्सी पर काबिज़ हुए, चेन्नम्मा के खास
चारों खाने चित हुए, अम्मा जी के दास
*
दोहा देहरादून में, मिला मचाता धूम
जितने मतदाता बने, सब है अफलातून
*
वाह वाह क्या बात है?, केर-बेर का संग
खाट नहीं बाकी बची, हुई साइकिल तंग
*
आया भाषणवीर है, छाया भाषणवीर
किसी काम का है नहीं, छोड़े भाषण-तीर
*
मत मत का सौदा करो, मत हो मत नीलाम
कीमत मत की समझ लो, तभी बनेगा काम
*
एक मरा दूजा बना, तीजा था तैयार
जेल हुई चौथा बढ़ा, दो कुर्सी-गल हार
*
१८-२- २०१७
प्रेम परक नवगीत
१. तुम सोईं
*

तुम सोईं तो
मुँदे नयन-कोटर में सपने
लगे खेलने।
*
अधरों पर छा
मंद-मंद मुस्कान कह रही
भोर हो गयी,
सूरज ऊगा।
पुरवैया के झोंके के संग
श्याम लटा झुक
लगी झूलने।
*
थिर पलकों के
पीछे, चंचल चितवन सोई
गिरी यवनिका,
छिपी नायिका।
भाव, छंद, रस, कथ्य समेटे
मुग्ध शायिका
लगी झूमने।
*
करवट बदली,
काल-पृष्ठ ही बदल गया ज्यों।
मिटा इबारत,
सबक आज का
नव लिखने, ले कोरा पन्ना
तजकर आलस
लगीं पलटने।
*
ले अँगड़ाई
उठ-बैठी हो, जमुहाई को
परे ठेलकर,
दृष्टि मिली, हो
सदा सुहागन, कली मोगरा
मगरमस्त लख
लगी महकने।
*
बिखरे गेसू
कर एकत्र, गोल जूड़ा धर
सर पर, आँचल
लिया ढाँक तो
गृहस्वामिन वन में महुआ सी
खिल-फूली फिर
लगी गमकने।
*
मृगनयनी को
गजगामिनी होते देखा तो
मकां बन गया
पल भर में घर।
सारे सपने, बनकर अपने
किलकारी कर
लगे खेलने।
*****
२. अकथ प्यार
*
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
कुछ हाँ-हाँ, कुछ ना-ना
कुछ देना, कुछ पाना।
पलक झुका, चुप रहना
पलक उठा, इठलाना।
जीभ चिढ़ा, छिप जाना
मंद अगन सुलगाना
पल-पल युग सा लगना
घंटे पल हो जाना।
बासंती बह बयार
पल-पल दे नव निखार।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तुम-मैं हों दिक्-अम्बर
स्नेह-सूत्र श्वेताम्बर।
बाती मिल बाती से
हो उजास पीताम्बर।
पहन वसन रीत-नीत
तज सारे आडम्बर।
धरती को कर बिछात
आ! ओढ़ें नीलाम्बर।
प्राणों से, प्राणों को
पूजें फिर-फिर पुकार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
श्वासों की ध्रुपद-चाल
आसें नर्तित धमाल।
गालों पर इंद्रधनुष
बालों के अगिन व्याल।
मदिर मोगरा सुजान
बाँहों में बँध निढाल
कंगन-पायल मिलकर
गायें ठुमरी - ख़याल।
उमग-सँकुच बहे धार
नेह - नर्मदा अपार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तन तरु पर झूल-झूल
मन-महुआ फूल-फूल।
रूप-गंध-मद से मिल
शूलों को करे धूल।
जग की मत सुनना, दे
बातों को व्यर्थ तूल
अनहद का सुनें नाद
हो विदेह, द्वैत भूल।
गव्हर-शिखर, शिखर-गव्हर
मिल पूजें बार-बार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
प्राणों की अगरु-धूप
मनसिज का प्रगट रूप।
मदमाती रति-दासी
नदी हुए काय - कूप।
उन्मन मन, मन से मिल
कथा अकथ कह अनूप
लूट-लुटा क्या पाया?
सब खोया, हुआ भूप।
सँवर-निखर, सिहर-बिखर
ले - दे, मत रख उधार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
[ आदित्य जातीय, तोमर छन्द]
२९-५-२०१६
***
३. तुमको देखा
*
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
रूप अरूप स्वरूप लुभाये
जल में बिम्ब हाथ कब आये?
जो ललचाये, वह पछताये
जिसे न दीखा, वह भरमाये
किससे पूछें
कब अपरा,
कब परा हो गया?
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
तुममें खुद को देख रहा मन
खुदमें तुमको लेख रहा मन
चमन-अमन की चाह सुमन सम
निज में ही अवरेख रहा मन
फूला-फला
बिखर-निखरा
.निर्भरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
कहे अजर यद्यपि है जर्जर
मान अमर पल-पल जाता मर।
करे तारने का दावा पर
खुद ही अब तक नहीं सका तर।
माया-मोह
तजा ज्यों हो
अक्षरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
***
पुस्तक चर्चा -
नियति निसर्ग : दोहा दुनिया का नया रत्न
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- नियति निसर्ग, दोहा संग्रह, प्रो. श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१५, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १२६, मूल्य १३०/-, प्रकाशक भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/८ ज्योतिष राय मार्ग, नया अलीपुर कोलकाता ७०००५३]
*
विश्व वाणी हिंदी के छंद कोष के सर्वाधिक प्रखर और मूल्यवान दोहा कक्ष को अलंकृत करते हुए श्रेष्ठ-ज्येष्ठ शारदा-सुत प्रो. श्यामलाल उपाध्याय ने अपने दोहा संकलन रूपी रत्न 'नियति निसर्ग' प्रदान किया है. नियति निसर्ग एक सामान्य दोहा संग्रह नहीं है, यह सोद्देश्य, सारगर्भित,सरस, लाक्षणिक अभिव्यन्जनात्मकता से सम्पन्न दोहों की ऐसी रसधार प्रवाहित का रहा है जिसका अपनी सामर्थ्य के अनुसार पान करने पर प्रगाढ़ रसानंद की अनुभूति होती है.
प्रो. उपाध्याय विश्ववाणी हिंदी के साहित्योद्यान में ऐसे वट-वृक्ष हैं जिनकी छाँव में गणित जिज्ञासु रचनाशील अपनी शंकाओं का संधान और सृजन हेतु मार्गदर्शन पाते हैं. वे ऐसी संजीवनी हैं जिनके दर्शन मात्र से माँ भारती के प्रति प्रगाढ़ अनुराग और समर्पण का भाव उत्पन्न होता है. वे ऐसे साहित्य-ऋषि हैं जिनके दर्शन मात्र से श्नाकों का संधान होने लगता है. उनकी ओजस्वी वाणी अज्ञान-तिमिर का भेदन कर ज्ञान सूर्य की रश्मियों से साक्षात् कराती है.
नियति निसर्ग का श्री गणेश माँ शारदा की सारस्वत वन्दना से होना स्वाभाविक है. इस वन्दना में सरस्वती जी के जिस उदात्त रूप की अवधारणा ही, वह अन्यत्र दुर्लभ है. यहाँ सरस्वती मानवीय ज्ञान की अधिष्ठात्री या कला-संगीत की आदि शक्ति इला ही नहीं हैं अपितु वे सकल विश्व, अंतरिक्ष, स्वर्ग और ब्रम्ह-लोक में भी व्याप्त ब्रम्हाणी हैं. कवि उन्हें अभिव्यक्ति की देवी कहकर नमन करता है.

'विश्वपटल पर है इला, अन्तरिक्ष में वाणि
कहीं भारती स्वर्ग में, ब्रम्ह-लोक ब्रम्हाणि'

'घर की शोभा' धन से नहीं कर्म से होती है. 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत नयी पीढ़ी के लिए श्लाघ्य है-

'लक्ष्मी बसती कर्म में, कर्म बनता भाग्य
भाग्य-कर्म संयोग से, बन जाता सौभाग्य'

माता-पिता के प्रति, शिशु के प्रति, बाल विकास, अवसर की खोज, पाठ के गुण विशेष, शिक्षक के गुण, नेता के गुण, व्यक्तित्व की परख जैसे शीर्षकों के अंतर्गत वर्णित दोहे आम आदमी विशेषकर युवा, तरुण, किशोर तथा बाल पाठकों को उनकी विशिष्टता और महत्त्व का भान कराने के साथ-साथ कर्तव्य और अधिकारों की प्रतीति भी कराते हैं. दोहाकार केवल मनोरंजन को साहित्य सृजन का लक्ष्य नहीं मानता अपितु कर्तव्य बोध और कर्म प्रेरणा देते साहित्य को सार्थक मानता है.

राष्ट्रीयता को साम्प्रदायिकता मानने के वर्तमान दौर में कवि-ऋषि राष्ट्र-चिंतन, राष्ट्र-धर्म, राष्ट्र की नियति, राष्ट्र देवो भव, राष्ट्रयता अखंडता, राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व, देवनागरी लिपि आदि शीर्षकों से राष्ट्रीय की ओजस्वी भावधारा प्रवाहित कर पाठकों को अवगाहन करने का सुअवसर उपलब्ध कराते हैं. वे सकल संतापों का निवारण का एकमात्र मार्ग राष्ट्र की सुरक्षा में देखते हैं.

आदि-व्याधि विपदा बचें, रखें सुरक्षित आप
सदा सुरक्षा देश की, हरे सकल संताप

हिंदी की विशेषता को लक्षित करते हुए कवि-ऋषि कहते हैं-

हिंदी जैसे बोलते, वैसे लिखते आप
सहज रूप में जानते, मिटते मन के ताप

हिंदी के जो शब्द हैं, रखते अपने अर्थ
सहज अर्थ वे दे चलें, जिनसे हो न अनर्थ

बस हिंदी माध्यम बने, हिंदी का हो राज
हिंदी पथ-दर्शन करे, हिंदी हो अधिराज

हिंदी वैज्ञानिक सहज, लिपि वैज्ञानिक रूप
इसको सदा सहेजिए, सुंदर स्निग्ध स्वरूप

तकनीकी सम्पन्न हों, माध्यम हिंदी रंग
हिंदी पाठी कुशल हों, रंग न होए भंग

देवनागरी लिपि शीर्षक से दिए दोहे भारत के इतिहास में हिंदी के विकास को शब्दित करते हैं. इस अध्याय में हिंसी सेवियों के अवदान का स्मरण करते हुए ऐसे दोहे रचे गए हैं जो नयी पीढ़ी का विगत से साक्षात् कराते हैं. संत कबीर, महाबली कर्ण, कविवर रहीम, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मौनी बाबा तथा श्रीकृष्ण पर केन्द्रित दोहे इन महान विभूतियों को स्मरण मात्र नहीं करते अपितु उनके अवदान का उल्लेख कर प्रेरणा जगाने का काम भी करते हैं.

कबीर का गुरु एक है, राम नाम से ख्यात
निराकार निर्गुण रहा, साई से प्रख्यात

जब तक स्थापित रश्मि है, गंगा जल है शांत
रश्मिरथी का यश रहे, जग में सदा प्रशांत

ऐसा कवि पायें विभो, हो रहीम सा धीर
ज्ञानी दानी वुगी हो, युद्ध क्षेत्र का वीर

महावीर आचार्य हैं, क्या द्विवेद प्रसाद
शेर जागरण काल के, विषय रहा आल्हाद

मौनी बाबा धन्य हैं, धन्य आप वरदान
जनमानस सुख से रहे, यही बड़ा अवदान
भारत कर्म प्रधान देश है. यहाँ शक्ति की भक्ति का विधान सनातन काल से है. गीता का कर्मयोग भारत ही नहीं, सकल विश्व में हर काल में चर्चित और अर्चित रहा है. सकल कर्म प्रभु को अर्पित कर निष्काम भाव से संपादित करना ही श्लाघ्य है-
सौंपे सरे काज प्रभु, सहज हुए बस जान
सारे संकट हर लिए, रख मान तो मान

कर्म कराता धर्म है, धर्म दिलाता अर्थ
अर्थ चले बहु काम ले, यह जीवन का मर्म
जातीय छुआछूत ने देश की बहुत हानि की है. कविगुरु कर्माधारित वर्ण व्यवस्था के समर्थक हैं जिसका उद्घोष गीत में श्रीकृष्ण 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर करते हैं.
वर्ण व्यवस्था थी बनी, गुणवत्ता के काज
कुलीनता के अहं ने, अपना किया अकाज

घृणा जन्म देती घृणा, प्रेम बढ़ाता प्रेम
इसीलिए तुम प्रेम से, करो प्रेम का नेम

सर्वधर्म समभाव के विचार की विवेचना करते हुए काव्य-ऋषि धर्म और संप्रदाय को सटीकता से परिभाषित करते हैं-

होता धर्म उदार है, संप्रदाय संकीर्ण
धर्म सदा अमृत सदृश, संप्रदाय विष-जीर्ण

कृषि प्रधान देश भारत में उद्योग्व्र्धक और कृषि विरोधी प्रशासनिक नीतियों का दुष्परिणाम किसानों को फसल का समुचित मूल्य न मिलने और किसानों द्वारा आत्म हत्या के रूप में सामने आ रहा है. कवी गुरु ने कृषकों की समस्या का जिम्मेदार शासन-प्रशासन को ही माना है-
नेता खेलें भूमि से, भूमिग्रहण व्यापार
रोके इसको संहिता, चाँद लगाये चार
रोटी के लाले पड़े, कृषक भूमि से हीन
तडपे रक्षा प्राण को, जल अभाव में मीन
दोहे गोशाला के भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसान की दुर्दशा को बताते हैं. कवी गौ और गोशाला की महत्ता प्रतिपादित करते हैं-
गो में बसते प्राण हैं, आशा औ' विश्वास
जहाँ कृष्ण गोपाल हैं, करनी किसकी आस
गोवध अनुचित सर्वथा, औ संस्कृति से दूर
कर्म त्याज्य अग्राह्य है, दुर्मत कुत्सित क्रूर
राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, स्वाधीनता की नियति, मादक द्रव्यों के दुष्प्रभाव, चिंता, दुःख की निरंतरता, आत्मबोध तत्व, परमतत्व बोध, आशीर्वचन, संस्कार, रक्षाबंधन, शिवरात्रि, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आदि शीर्षकों के अंतर्गत दिए गए दोहे पाठकों का पाठ प्रदर्शन करने क साथ शासन-प्रशासन को भी दिशा दिखाते हैं. पुस्तकांत में 'प्रबुद्ध भारत का प्रारूप' शीर्षक से कविगुरु ने अपने चिंतन का सार तत्व तथा भविष्य के प्रति चिंतन-मंथन क नवनीत प्रस्तुत किया है-
सत्य सदा विजयी रहा, सदा सत्य की जीत
नहीं सत्य सम कुछ जगत, सत्य देश का गीत
सभी पन्थ हैं एक सम, आत्म सन्निकट जान
आत्म सुगंध पसरते, ईश्वर अंश समान
बड़ी सोच औ काम से, बनता व्यक्ति महान
चिंतन औ आचार हैं, बस उनके मन जान

किसी कृति का मूल्याङ्कन विविध आधारों पर किया जाता है. काव्यकृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उसका कथ्य होता है. विवेच्य ८६ वर्षीय कवि-चिन्तक के जीवनानुभवों का निचोड़ है. रचनाकार आरंभ में कटी के शिल्प के प्रति अत्यधिक सजग होता है क्योंकि शिल्पगत त्रुटियाँ उसे कमजोर रचनाकार सिद्ध करती हैं. जैसे-जैसे परिपक्वता आती है, भाषिक अलंकरण के प्रति मोह क्रमश: कम होता जाता है. अंतत: 'सहज पके सो मीठा होय' की उक्ति के अनुसार कवि कथ्य को सरलतम रूप में प्रस्तुत करने लगता है. शिल्प के प्रति असावधानता यत्र-तत्र दिखने पर भी कथ्य का महत्व, विचारों की मौलिकता और भाषिक प्रवाह की सरलता कविगुरु के संदेश को सीधे पाठक के मन-मस्तिष्क तक पहुँचाती है. यह कृति सामान्य पाठक, विद्वज्जनों, प्रशासकों, शासकों, नीति निर्धारकों तथा बच्चों के लिए समान रूप से उपयोगी है. यही इसका वैशिष्ट्य है.
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बुधवार, 5 जनवरी 2022

हाइकु गीत, लघुकथा, दोहा, कुण्डलिया, मुक्तिका, नवगीत

सॉनेट 
दिल हारे दिल जीत



















मेघ उमड़ते-घुमड़ते लेते रवि भी ढाँक। 
चीर कालिमा रश्मियाँ फैलतीं आलोक। 
कूद नदी में नहातीं, कोइ सके न रोक।।
कौन चितेरा मनोरम छवि छिप लेता आँक?

रूप देखकर सिहरते तीर खड़े तरु मौन।
शाखाओं चढ़ निहारें पक्षी करते वाह। 
करतल ध्वनि पत्ते करें, भरें बेहया आह।।
गगन-क्षितिज भी मुग्ध हैं, संयं साढ़े कौन?

लहर-लहर के हो रहे गाल गुलाबी-पीत। 
गव्हर-गव्हर छिप कर करे मत्स्य निरंतर प्रीत। 
भ्रमर कुमुदिनी रच रहे लिव इन की नव रीत। 

तप्त उसाँसे भर रही ठिठुरनवाली शीत।।
दादुर ढोलक-थाप दे, झींगुर गाता गीत।।
दिल जीते दिल हारकर, दिल हारे दिल जीत।।  
***
हाइकु गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
*
बहुत हुआ
अब न काम में हो
झोल रे हिंदी
*
सुने न अब
सब जग में पीटें
ढोल रे हिंदी
***
लघुकथा :
खिलौने
*
दिन भर कार्यालय में व्यस्त रहने के बाद घर पहुँचते ही पत्नी ने किराना न लाने का उलाहना दिया तो वह उलटे पैर बाज़ार भागा। किराना लेकर आया तो बिटिया रानी ने शिकायत की 'माँ पिकनिक नहीं जाने दे रही।' पिकनिक के नाम से ही भड़क रही श्रीमती जी को जैसे-तैसे समझाकर अनुमति दिलवाई तो मुँह लटकाए हुए बेटा दिखा। उसे बुलाकर पूछ तो पता चला कि खेल का सामान चाहिए। 'ठीक है' पहली तारीख के बाद ले लेना' कहते हुए उसने चैन की साँस ली ही थी कि पिताजी क खाँसने और माँ के कराहने की आवाज़ सुन उनके पास पहुँच गया। माँ के पैताने बैठ हाल-चाल पूछा तो पाता चला कि न तो शाम की चाय मिली है, न दवाई है। बिटिया को आवाज़ देकर चाय लाने और बेटे को दवाई लाने भेजा और जूते उतारने लगा कि जीवन बीमा एजेंट का फोन आ गया 'क़िस्त चुकाने की आखिरी तारीख निकल रही है, समय पर क़िस्त न दी तो पालिसी लेप्स हो जाएगी। अगले दिन चेक ले जाने के लिए बुलाकर वह हाथ-मुँह धोने चला गया।
आते समय एक अलमारी के कोने में पड़े हुए उस खिलौने पर दृष्टि पड़ी जिससे वह कभी खेलता था। अनायास ही उसने हाथ से उस छोटे से बल्ले को उठा लिया। ऐसा लगा गेंद-बल्ला कह रहे हैं 'तुझे ही तो बहुत जल्दी पड़ी थी बड़ा होने की। रोज ऊँचाई नापता था न? तब हम तुम्हारे खिलौने थे, तुम जैसा चाहते वैसा ही उपयोग करते थे। अब हम रह गए हैं दर्शक और तुम हो गए हो सबके हाथ के खिलौने।
***
दोहा सलिला
सकल सृष्टि कायस्थ है, सबसे करिए प्रेम
कंकर में शंकर बसे, करते सबकी क्षेम
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चित्र गुप्त है शौर्य का, चित्रगुप्त-वरदान
काया स्थित अंश ही, होता जीव सुजान
*
महिमा की महिमा अमित, श्री वास्तव में खूब
वर्मा संरक्षण करे, रहे वीरता डूब
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मित्र मनोहर हो अगर, अभय ज़िंदगी जान
अभय संग पा मनोहर, जीवन हो रस-खान
*
उग्र न होते प्रभु कभी, रहते सदा प्रशांत
सुमति न जिनमें हो तनिक, वे ही मिलें अशांत
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कार्यशाला:
एक कुण्डलिया : दो कवि
तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती, हवा फटकती सूप -शशि पुरवार
हवा फटकती सूप, टपकती नाक सर्द हो
हँसती ऊषा कहे, मर्द को नहीं दर्द हो
छोड़ रजाई बँधा, रहा है हिम्मत मन को
लगे चंद्र सा, सूर्य निहारे जब निज तन को - संजीव
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मुक्तिका
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नेह नर्मदा बहने दे
मन को मन की कहने दे
*
बिखरे गए रिश्ते-नाते
फ़िक्र न कर चुप तहने दे
*
अधिक जोड़ना क्यों नाहक
पीर पुरानी सहने दे
*
निज हित की चिंता जायज
कुछ सब-हित भी रहने दे
*
काला धन जिसने जोड़ा
उसको थोड़ा दहने दे
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देह सजाते उम्र कटी
'सलिल' रूह को गहने दे
५-१-२०१८
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नवगीत:
संजीव
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आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
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करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
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खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ
आओ भी सूरज!
५-१-२०१५
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मंगलवार, 4 जनवरी 2022

शिव अष्टमूर्तियाँ

  शिव की अष्टमूर्तियों के नाम   

भगवान शिव के विश्वात्मक रूप ने ही चराचर जगत को धारण किया है। यही अष्टमूर्तियाँ क्रमश: पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु,आकाश, जीवात्मा सूर्य और चन्द्रमा को अधिष्ठित किये हुए हैं। किसी एक मूर्ति की पूजा- अर्चना से सभी मूर्तियों की पूजा का फल मिल जाता है।
१. शर्व / क्षितिमूर्ति
क्षितिमूर्ति (शर्व) शिव की शर्वी मूर्ति का अर्थ है कि पूवरे जगत को धारण करने वाली पृथ्‍वीमयी प्रतिमा के स्वामी शर्व है। शर्व का अर्थ भक्तों के समस्त कष्टों को हरने वाला।
२. भव/ जलमूर्ति
जलमूर्ति (भव) शिव की जल से युक्त भावी मूर्ति पूरे जगत को प्राणशक्ति और जीवन देने वाली कही गई है। जल ही जीवन है। भव का अर्थ संपूर्ण संसार के रूप में ही प्रकट होने वाला देवता।
३. रूद्र / अग्निमूर्ति
अग्निमूर्ति (रूद्र) संपूर्ण जगत के अंदर-बाहर फैली समस्त ऊर्जा व गतिविधियों में स्थित इस मूर्ति को अत्यंत ओजस्वी मूर्ति कहा गया है जिसके स्वामी रूद्र है। यह रौद्री नाम से भी जानी जाती है। रुद्र का अर्थ भयानक भी होता है जिसके जरिये शिव तामसी व दुष्ट प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखते हैं।
४. उग्र / वायुमुर्ति
वायुमूर्ति (उग्र) वायु संपूर्ण संसार की गति और आयु है। वायु के बगैर जीवन संभव नहीं। वायुरूप में शिव जगत को गति देते हैं और पालन-पोषण भी करते हैं। इस मूर्ति के स्वामी उग्र है, इसलिए इसे औग्री कहा जाता है। शिव के तांडव नृत्य में यह उग्र शक्ति स्वरूप उजागर होता है।
५. भीम / आकाशमुर्ति
आकाशमूर्ति (भीम) तामसी गुणों का नाश कर जगत को राहत देने वाली शिव की आकाशरूपी प्रतिमा को भीम कहते हैं। आकाशमूर्ति के स्वामी भीम हैं इसलिए यह भैमी नाम से प्रसिद्ध है। भीम का अर्थ विशालकाय और भयंकर रूप वाला होता है। शिव की भस्म लिपटी देह, जटाजूटधारी, नागों के हार पहनने से लेकर बाघ की खाल धारण करने या आसन पर बैठने सहित कई तरह उनका भयंकर रूप उजागर होता है।
६. पशुपति / यजमानमूर्ति
यजमानमूर्ति (पशुपति) यह पशुवत वृत्तियों का नाश और उनसे मुक्त करने वाली होती यजमानमूर्ति है। इसलिए इसे पशुपति भी कहा जाता है। पशुपति का अर्थ पशुओं के स्वामी, जो जगत के जीवों की रक्षा व पालन करते हैं। यह सभी आंखों में बसी होकर सभी आत्माओं की नियंत्रक भी मानी गई है।
७. महादेव / चंद्रमूर्ति
चन्द्रमूर्ति (महादेव) चंद्र रूप में शिव की यह मूर्ति महादेव के रूप में प्रसिद्ध है। महादेव का अर्थ देवों के देव होता है। यानी सारे देवताओं में सबसे विलक्षण स्वरूप व शक्तियों के स्वामी शिव ही हैं। चंद्र रूप में शिव की यह साक्षात मूर्ति मानी गई है।
८. ईशान / सूर्यमूर्ति
सूर्यमूर्ति (ईशान) शिव का एक नाम ईशान भी है। यह सूर्य जगत की आत्मा है जो जगत को प्रकाशित करता है। शिव की यह मूर्ति भी दिव्य और प्रकाशित करने वाली मानी गई है। शिव की यह मूर्ति ईशान कहलाती है। ईशान रूप में शिव को ज्ञान व विवेक देने वाला बताया गया है।

मनुष्यों के शरीर में अष्ट मूर्तियों का निवास
१ आँखों में "रूद्र" नामक मूर्ति प्रकाशरूप है जिससे प्राणी देखता है
२ "भव " ऩामक मूर्ति अन्न पान करके शरीर की वृद्धि करती है यह स्वधा कहलाती है।
३ "शर्व " नामक मूर्ति अस्थिरूप से आधारभूता है यह आधार शक्ति ही गणेश कहलाती है।
४  "ईशान" शक्ति प्राणापन - वृत्ति को प्राणियों में जीवन शक्ति है।
५ "पशुपति " मूर्ति उदर में रहकर अशित- पीत को पचाती है जिसे जठराग्नि कहा जाता है।
६ "भीमा " मूर्ति देह में छिद्रों का कारण है।
७ "उग्र " नामक मूर्ति जीवात्मा के ऐश्वर्य रूप में रहती है।
८ "महादेव " नामक मूर्ति संकल्प रूप से प्राणियों के मन में रहती है।
इस संकल्प रूप चन्द्रमा के लिए "नवो नवो भवति जायमान:" कहा गया है अर्थात संकल्पों के नये नये रूप बदलते हैं ||
अष्टमूर्तियों के तीर्थ स्थल
सूर्य दृश्यमान प्रत्यक्ष देवता हैं। सूर्य और शिव में अन्तर नही है, सभी सूर्य मन्दिर शिव मन्दिर ही हैं।  काशीस्थ "गभस्तीश्वर" लिंग सूर्य का शिव स्वरूप है।
चन्द्र सोमनाथ का मन्दिर है।
यजमान नेपाल का पशुपतिनाथ मन्दिर है।
क्षिति लिंग तमिलनाडु के शिव कांची में स्थित आम्रकेश्वर हैं।
जल लिंग तमिलनाडु के त्रिचिरापल्ली में जम्बुकेश्वर मन्दिर है।
तेजो लिंग अरूणांचल पर्वत पर है।
वायु लिंग आन्ध्रप्रदेश के अरकाट जिले में कालहस्तीश्वर वायु लिंग है।
आकाश लिंग तमिलनाडु के चिदम्बरम् मे स्थित है।
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स्वतंत्रता सत्याग्रही न्यायाधीश शिवनारायण जौहरी 

भारत की स्वतंत्रता के ७५ वे वर्ष में उन दीवानों को स्मरण करना आवश्यक है जिन्होंने जीवन का लक्ष्य ही स्वतंत्रता प्राप्ति को बना लिया तथा देश हित में जान हथेली पर लेकर संघर्ष किया। 
एक वे जो देश पर कुर्बान हो गए?
एक हम जो नाम भी लेते नहीं उनका।। 
वे हमारे पूर्वज ही थे जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए हर कुरबानी दी और हम उनकी ऐसी संतानें हैं जो उनके योगदान पर गर्व कर सर झुकाना, उनकी राह पर चलकर देश के लिए निस्वार्थ भाव से कुछ करना तो दूर उनका नाम तक नहीं लेते। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नेतृत्व में देश की स्वतंत्रता के लिए प्राण-प्राण से जूझने वाले सत्याग्रही अब बहुत कम रह गए हैं। मेरा सौभाग्य है कि मैं ऐसी ही एक विभूति को शब्द सुमन समर्पित कर पा रहा हूँ जो कैशरय से ही देश के स्वातंत्र्य सत्याग्रह में न केवल कूद पड़ा अपितु घोर विरोध और कठोर दमन से जूझता हुआ देश स्वतंत्र होने तक न झुका, न रुका और देश स्वंत्र होने के बाद लाभ न लेकर आत्म बल और परिश्रम कर न्यायिक सेवा तथा हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि में उल्लेखनीय योगदान किया। इस विभूति का नाम है शिवनारायण जौहरी। 

शिव जगत्पिता और हलाहल पी लेने वाले महादेव हैं। नारायण पृथ्वी पर पाप बढ़ने पर उसके शमन-दमन हेतु अवतार लेते हैं। यह दैवीय संयोग ही था कि लक्ष्मीगंज ग्वालियर निवासी हरनारायण जौहरी की जीवनसंगिनी ने उन्हें       
जीवन के प्रारंभिक काल में, जब मैं छटी कक्षा में था तब मैं महात्मा गांधीनगर जी के अछूत उद्धार आन्दोलन से बहुत प्रभावित हुआ था। जातिवाद, ऊंच नीच और छुआ छूत का विरोधी हो गया और लक्ष्मीगंज, लश्कर में स्वर्ण रेखा नदी के किनारे बसे हरिजनों की बस्ती में  मै काम करने लगा। मैंने वहां एक स्कूल भी खोला और उसमें मैं पढ़ाने जाने लगा। इस पर घर में विरोध हुआ। मेरे बर्तन अलग कर दिए गए और चौके में बैठ कर खाने पर रोक लग गई। 

मैने इस का विरोध किया जो कई महीनो के बाद सफल हो पाया।

उस स्कूल का पढ़ा हुआ मेरा  हरिजन विद्यार्थी  आठवीं की परीक्षा  में उत्तीर्ण हो गया और  वह बस ड्राईवर बन गया तथा कुछ वर्षों पश्चात ग्वालियर से इंदौर जाने वाली बस पर उस की नियुक्ती हो गई।
 इस तरह गांधी जी के आंदोलन से प्रभावित हो कर मैं राष्ट्रीय चेतना में शामिल  हो गया।

गांधी जी को मैंने पहली बार सन 1942 में रेलवे स्टेशन ग्वालियर  में देखा था,उस समय वे बंबई जा रहे थे। जैसे ही मुझे विदित हुआ कि वह ग्वालियर से होकर जाने वाली ट्रेन से बंबई जा रहे हैं, हम विद्यार्थी उत्सुकता वश उन्हें देखने व मिलने ग्वालियर स्टेशन पहुंचे। मेरे में नेतागिरी का जजबा कुछ ज्यादा ही था इसलिए सबसे आगे मैं ही था। मैं ट्रेन के डिब्बे का हेंडल  पकड़ कर खड़ा हो गया पर मुझे पीछे से धक्का लगा और मैं डिब्बे के अंदर  जा गिरा। गांधी जी ने मेरे से कहा मेरे पास आ कर बैठ जाओ मैं उधर बैठ गया। वे इधर उधर और लोगों से बात करने लगे, फिर ट्रेन चलने लगी  तब  उन्होने मेरे से कहा ट्रेन चल दी है उतर जाओ मैं उतर गया। उन्होंने बम्बई पहुंच कर भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा कर दी। सारे बड़े बड़े कांग्रेसी नेता गिरफ्तार हो गये उस के दूसरे दिन ग्वालियर स्टेट के नेता भी गिरफ्तार हो गये। इस कारण तीसरे दिन मेरे  घर में ताला लगा दिया गया, जिससे मैं कहीं निकल कर बाहर न जा पाऊ, पर मैं दीवार फांद कर निकल गया और विक्टोरिया कॉलेज वाली सड़क पर पहुंच गया‌। वहां दौड़ते समय  पुलिस  घुड़सवारों  का सामना करते हुए मैंनें अपनी लाठी में तिरंगा लगा कर लहराया और दूसरे विद्यार्थियों के साथ जुलूस निकाला।  जब  वह जुलूस सारा शहर पार करते हुए महाराज बाड़े में पहुचा तो पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया और हवा में फायरिंग कर दी। सब लोग समझे कि उन पर गोली चलाई गई है और सारा जुलूस तितर-बितर हो गया।  सब आस पास के घरों में छुप गये पर पुलिस ने ढूंढ निकाला एवं मुझे अन्य पचास लोगों के साथ गिरफ्तार कर लिया। मैं दो दिन तक कोतवाली में रहा। दूसरे दिन जब सत्याग्रह नहीं हुआ तो हमें छोड़ दिया गया।  मेरे भाई ने जमानत देने की कोशिश की, पर मैंने जमानत पर जाने से इंकार कर दिया। जब दो दिन तक सत्याग्रह नहीं हुआ तो केस वापस ले लिया गया। तब शासन ने हमें बिना जमानत  के ही छोड़ दिया।
  इस घटना से एक दिन पूर्व हम लोगों ने रेल पटरी उड़ाने की भी योजना बनाई थी। बंम बनाने का सारा सामान  मुरार के पास एक खंडहर में  लाकर  रख दिया और रसायन शास्त्र के ज्ञान के अनुसार बनाने का प्रयास करने लगे उसी समय वहां एक बिल्ली उस पर कूद कर आ गिरी और उसके छिछडे उड़ गए। हम लोग उधर से भाग निकले।

गांधी जी से वैसे तो मैं बहुत प्रभावित था किन्तु अहिंसा मतलब जुल्म सहते रहना, और मुस्लिम लोगों के प्रति नम्र व्यवहार पसंद नहीं था। बाकी उनकी देशभक्ति और अन्य आंदोलनों से बहुत आकर्षित था।
अंग्रजों के खिलाफ कर रहे  सत्याग्रह  आंदोलन के कारण मुझे गिरफ्तार कर लिया था ‌‌, गिरफ्तार होने के फलस्वरूप  मुझे 12वीं  कक्षा की परीक्षा देने से रोक दिया और कोलेज से निकालने की कार्यवाही शुरू कर दी पर शासन द्वारा लगाया गया केस वापस ले लिया गया। इसलिए अंग्रेज़ प्रिन्सिपल अपनी कार्यवाही में सफल नहीं हो सके।
कई वर्षों बाद जब मैं डिस्ट्रिक जज बन कर मुरैना पहुंचा तब एक समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री पी सी सेठी ने औरों के साथ मुझे प्रशस्ति पत्र दिया था। मुरैना में एक स्तम्भ पर स्वतंत्रता सेनानियों के नाम लिखे गये और उस  सूची में मेरा नाम भी 7वें नंबर पर लिखा हुआ है। उसकी पेंशन मुझको अभी तक मिल रही है ।
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आपका साहित्यिक पक्ष अत्यंत सराहनीय रहा है। चार पांच वर्ष की आयु से ही  कविता ,गजल आदि सुनने का बहुत शौक रहा। धीरे धीरे स्कूल और मित्रों के बीच  छोटी छोटी कविताएं लिखना,सुनाना पसंद था। जैसे जैसे बड़े होते गए यह शौक का  रूप  परिपक्वता की ओर बढ़ता गया। अनुभव, अर्जित ज्ञान, इच्छुक प्रवृति, लगन से, कविता लेखन अनंत गहराइयों में उतर गये।जब कामायनी खंड काव्य  से प्रभावित हो कर  'रूपा' खंड काव्य की रचना कर दी। कामायनी के ही समान आपने इस खंड को ५सर्गो में बांट दिया।
सूर्य कांत त्रिपाठी निराला जी ने तो अंग्रेजी  भाषा में टिप्पणी प्रशंसा  से कवी का मनोबल बढ़ा दिया---
 किन्तु आपने कुछ अलग ही पात्रों को चयनित किया है।
मानस जीवन के संघर्षों से जूझता हुआ सफलता की ओर उन्मुख होता है।
कुछ प्रसिद्ध कविओं लेखकों की टिप्पणी रूपा खंड काव्य पर-- 
श्री शिवनारायण जौहरी विमल ने नारी को अ +बला नहीं माना बल्कि उसके सशक्त रूप से जन मानस में परिचित कराया।
अरे  रूप अबला का कैसी होती ओछी बात,
तुम्ही भरत की तात मात विश्वास।।
 कवी ने अपने व्यक्तिगत जीवन में अनेकानेक संघर्षों का सामना किया, अनेक दर्द ,पीड़ाओं को सहा । उनकी कविताओं में यत्र - तत्र सर्वत्र परिलक्षित होता है।
 कविता में विशेष रुचि होने  के कारण माह दो माह में घर पर ही काव्य गोष्ठी का आयोजन करते थे। विशेष तौर पर शरद्पूर्णिमा के दिन।
किंतु यह सब सरकारी अधिकारियों को सहन नहीं हुआ। एक बार जब वे किसी कवी सम्मेलन में भाग लेने जा रहे थे कार से तो अपनी कविताओं की डायरी कार में छोड़ दुकान में कुछ खरीदने चले गए लौट कर आते तो देखा बेग सहित कविता की डायरी भी चोरी हो गई।यह देख उनके ऊपर बिजली सी गिर गई।घर के सभी सदस्यों के जोर देने पर बची हुई रचनाओं को  उन्होंने  अंतर्मन के साथ   काव्य संग्रह में प्रकाशित करवाया। यह इतना ज्यादा साहित्यिक मतलब अलंकरणों आदि से भर पूर था कि लोगों के सिर के ऊपर से निकल जाता था। आपकी कविताओं में अनेक रसों, शब्द शक्तियों, अलंकारों ,व्यंजना,लक्षणा का प्रयोग किया गया है । अनुभूति को व्यक्त  करने का अनूठा तरीका रहा है, जो साहित्य के पारखी ही समझ पाते व टिप्पणी देते थे। जैसे----
हम सबकी सलाह से काव्य में जन मानस की भाषा में लिखना प्रारंभ किया ही था कि प्यारी सी पत्नी का देहांत हो गया तो दुखो का पहाड़  टूट गया। जीने का एक ही खास संबल रह गया।  दुख सुख ,आशा निराशा, प्रसन्नता के बीच झूलते रहे। कठिन परिस्थितियों से  उबरने के लिए अपने आपको पूर्ण रूप से काव्य लेखन में डुबो दिया।
उसके पश्चात  जीजीविषा  काव्य संग्रह लिखा। इसका विमोचन श्री सुशील कुमार शिंदे जी ने किया। आपने बुंदेलखंडी भाषा में भी अनेक कविताएं लिखी। कविओं को उनके नाम से सम्मानित किया गया।श्री जौहरी जी को भी स्मारिका भी दी गई।
जीजीविषा काव्य संग्रह पर दी गई टिप्पणियां----

जीजीविषा के पश्चात    त्रिपथगा-- काव्य संग्रह लिखा

इसका विमोचन  मध्यप्रदेश गवर्नर आनंदीबेन ने किया।
इस  त्रिपथगा  काव्यसंग्रह पर दी गई टिप्पणियां है --- 

प्रपात  काव्यसंग्रह 
इस काव्यसंग्रह का विमोचन‌अखिलभारतीय कायस्थ समाज मे में भोपाल में २००१८ में केन्द्रीय मंत्री   श्रीवास्तव जी, श्री कुलश्रेष्ठ जी, शर्मा जी द्वारा किया गया।

हाल ही में श्री शिवनारायण जौहरी विमल का एक और शब्द का श्रृंगार
आया है।

आपके कुछ भजनों को जैसे-- मैने शाम रंग ओढ़ लियो रे-----
 ज्ञान ध्यान श्रद्धा से बोलो मेरे हरि का नाम-----
 यशोदा झूम रही है----

आपने स्वयं अपनी  आवाज में कविताओं, गीतों का पाठ किया। भोपाल,रांची, मुम्बई आकाशवाणी केंद्रों से प्रसारित हुआ है।
अनेक पत्र पत्रिकाओं कविताएं लेख प्रकाशित हुए।
फेसबुक, कविता कोष,यूट्यूब,ब्लोग में आपकी कविताएं हैं लोगों ने बहुत सराहा है।
अनेक सम्मान भी मिले हैं साहित्य क्षेत्र में।
बुन्देलखण्डी कविताओं पर सम्मान
अनेक सांझा काव्य संग्रह और पत्रिकाओं में भी आपकी कविताएं हैं--
बापू कल आज और कल।
वतन के रखवाले
चांद के पार
चमकते सितारे
स्पंदन भाग १,२
प्रेरणा
चिकीर्षा
साक्षात्कार
शिखरवार्ता
शुभ्र ज्योत्स्ना
लफ्ज़
शब्द की आत्मा
वागार्थ
गगनांचल
प्रभात प्रकाशन टिगा  आदि आदि में
अनेक लेख भी प्रकाशित हुए।
दूरदर्शन पर साक्षात्कार भी प्रसारित हुए।
टिप्पणियां-
श्री रवीश जी एन डी टी वी
श्री विष्णु राजौरिया
श्री निराला जी
डा राम कुमार वर्मा
 श्री बल्देव प्रसाद मिश्र आदि अनेक महानुभावों की है।
कविता लेखन का कार्य अभी तक ९७वर्ष की आयु में भी कंप्यूटर पर सतत करते रहे। किंतु ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌दृष्टि और श्रवण शक्ति थोड़ी कम हो गई है इसलिए मन मारकर लिखना कम कर दिया है। कविता के प्रति रुचि  में कोई कमी नहीं आई है।