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शनिवार, 20 नवंबर 2021

समीक्षा,ओ मेरी तुम, संतोष शुक्ला

कृति चर्चा
सुधियों का शब्दांकन - "ओ मेरी तुम"
चर्चाकार - डॉ. श्रीमती संतोष शुक्ला, ग्वालियर 
[कृति विवरण - ओ मेरी तुम, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०२१, आकार २२ से.मी. x  १४.५ से. मी., आवरण पेपरबैक, पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, समन्वय प्रकाशन, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४]
*
आचार्य संजीव वर्मा ' सलिल ' जी का नाम नवीन छंदों की रचना तथा उन पर गहनता से किये गए शोधकार्य के लिए प्रबुद्ध जगत में बहुतगौरव से लिया जाता है। आप झिलमिलाते ध्रुव तारे के समान तारामंडल में अपनी अलग पहचान बनाए हुए है। लोगों को सही दिशा निर्देश देना ही सलिल जी का एकमात्र लक्ष्य है। रस, अलंकार और छंद का गहन ज्ञान उनकी कृतियों में स्पष्ट दिखाई देता है। 'काल है संक्रांति का' 'तथा 'सड़क पर' के पश्चात् ओ मेरी तुम' आपका तीसरा गीत-नवगीत संग्रह है।  सलिल जी का पहला दोनों नवगीत संग्रह पुरस्कृत हुए हैं। 'ओ मेरी तुम' में गीतकार ने छोटे छोटे शब्दों में बड़ी कुशलता से गूढ़ गंभीर तथ्यों को बड़ी सुन्दरता से व्यक्त किया है।

'ओ मेरी तुम' में ५३ गीत-नवगीत तथा ५२ दोहे संग्रहित हैं। गीतकार ने वैवाहिक जीवन की मधुर स्मृतियों में विचरण करते हुए तत्कालीन अनुभूतियों का जीवंत शब्दान्कन इस तरह इन गीतों में किया है कि उसे चित्रान्कन कहना अतिशयोक्ति न होगा। आचार्य सलिल जी ने अपनी धर्म पत्नी साधना जी को उनकी सेवानिवृत्ति पर यह अमूल्य कृति 'ओ मेरी तुम ' को समर्पित कर उन्हें अनुपम उपहार दिया है। यहाँ यह इन्गित करना अनिवार्य सा है कि 'ओ मेरी तुम' गीतकार के वैयक्तिक एकान्त पलों की सुखद अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है जिसको व्यक्त कर पाना सलिल जी ऐसे शब्दों के बाजीगर के ही बस की बात है। यह कृति उन यादों का पुष्पस्तवक है जिसमें विभिन्न फूलों की सुगन्ध मन को आजीवन महकाती रहती है। यह स्वाभाविक तथ्य है कि जिस बीती हुई बात की हम याद करते हैं तो हम उसी समय में पहुँच जाते हैं, उन्ही पलों की सुखद अनुभूति में खो जाते हैं।

गीतकार सलिल जी ने जब वर्षो बाद वैवाहिक जीवन की स्मृतियों को संजीवनी प्रदान की तो उन सुखद पलों को अनुभूतियों में तैरते उतराते रहे। आप भी अनुभव कीजिए -

तुम स्वीकार सकीं मुझको
जब, सरहद पार गया मैं लेने
मैं बहुतों के साथ गया था
तुम आईं थीं निपट अकेली
किन्तु अकेली कभी नहीं थीं
संग आईं थीं यादें अनगिन

विवाह में 'कन्या दान', 'सिन्दूर दान' ऐसी परंपराओं को बड़ी ही शिष्ट और शालीन भाषा में गीतकार ने प्रस्तुत किया है-

माँग इतनी माँग भर दूँ।
आपको वरदान कर दूँ।
मिले कन्या दान मुझको
जिन्दगी को दान कर दूँ

इस कृति में गीतकार ने विवाह के बाद के प्रारंभिक दिनों का (जब बड़े बूढ़े तथा बच्चे सब नई-नई बहू के आस-पास रहना चाहते हैं और पति महोदय झुँझलाते रहते हैं पर पत्नी से मिल नहीं पाते) का जीवंत चित्रण किया है। विवाह के बाद पहले कुछ दिनों तक पत्नी, पति के सामने आने और आँखों से आँखें मिलने पर शर्मा जाती है उसका चित्रण देखिए। नायिका कलेवा देने आती है-

'चूड़ियाँ खनकीं
नजर मिलकर झुकी
कलेवा दे थमा
उठ नजरें मिलीं
बिन कहें कह शुक्रिया
ले ली बिदा'
मंजिलों को नापने

परिवार विस्तार के क्रम में बच्चों की देखरेख में व्यस्त होने के कारण तथा परिजनों की भीड़-भाड़ के कारण सजनी का सामीप्य पाने में सफल नहीं हो पाने पर बावरे सजन की व्यथा-कथा कहता यह पारिवारिक शब्द चित्र देखें- 

'लल्ली-लल्ला करते हल्ला
देवर बना हुआ दुमछल्ला
ननद सहेली बनी न छोड़े
भौजाई का पल भर पल्ला।'

नवोढ़ा पत्नी के मायके चले जाने पर पति का तो हाल बेहाल होना ही है। उस परिस्थिति का सटीक चित्रण प्रस्तुत किया है गीतकार ने-

'गंजी में दूध फटना
जल जाना उबल कर
फैल जाना'

यह जानते हुए भी कि उनकी वो यहाँ नहीं है फिर भी-

'आहट होने पर
निगाहें उठना खीझना
बेबात किसी पर गुस्सा आना
देर से घर वापस आना
पुरानी किसी बात की याद कर मुस्कुराना' आदि।

छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण बातों को यथातथ्य शब्दों में बाँधना, गजब का कौशल है गीतकार सलिल जी के पास।

कमाल की बात तो यह है कि गीतकार संजीव वर्मा 'सलिल' जी ने एक सिविल अभियंता रहते हुए भी, अपने अभियंयंत्रिकी पेशे में ईट सीमेन्ट,पत्थर ,लोहा कंकरीट आदि चीजों के मेल से  आकाशछूती इमारतों के निर्माण, बड़ी बड़ी सड़कों, पुलों-बाँधों के निर्माण में ईमानदारी से अपना दायित्व निभाते हुए भी, अपने कोमल हृदय को साहित्य सागर में  डुबकी लगाने का न केवल अवसर दिया अपितु अपने आल्हादित पलों को शब्दित कर श्रोताओं-पाठकों को आह्लादित भी किया। ।

गीतकार सलिल की आस्था रही है कि सुगढ़ नारी जब ईट गारे से बनी इमारत में अपने दायित्व को ईमानदारी से निभाती है तो मकान घर का रूप ले लेता है जिसमें दोनों मिलकर सुनहरे भविष्य के सपने सजाते हैं और अथक परिश्रम से पूरा भी करते हैं। गीतकार ने 'काल है संक्रांति का' तथा 'सड़क पर' दोनों नवगीत संग्रहों में देश और समाज में नारी की विभिन्न छवियों को प्रस्तुत किया है लेकिन 'ओ मेरी तुम' में अपनी जीवन संगिनी के साथ भिन्न-भिन्न अवसरों पर बिताए अत्यंत वैयक्तिक पलों को बहुत शालीन, संक्षिप्त एवं सामान्य शब्दों में अभिव्यक्त कर पाठकों तक पहुँचाने का काम कर, साहसिक कदम उठाया है।

जिस सामाजिक परिपेक्ष्य में हमारी पीढ़ी पली-बढ़ी और पारिवारिक दायित्व को निभाने में सक्षम हुई उस समय बड़ों व छोटे भाई-बहनों के सामने भी पति-पत्नी एक दूसरे का नाम भी नहीं लेते थे, न ही एक दूसरे के निकट ही आते थे।

ए जी!, ओ जी!, जरा सुनो!, सुनिए आदि संबोधनों से काम चलाते थे। दाम्पत्य जीवन के स्नेहिल पलों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति की परंपरा सामान्यत: देखने को नहीं मिलती। संभवतः नवगीतात्मक शैली में  श्रृंगार परक सरस् रचनाओं की प्रस्तुति का यह प्रयास अपनी मिसाल आप है। अतिरेकी तथा मिथ्या विडम्बना और विसंगति से बोझिल होकर डूब रही  रही नवगीत की नौका को सलिल के श्रृंगार परक नवगीत पतवार बनकर उबारते हैं। इन गीतों में श्रृंगार के दोनों पक्ष मिलन तथा विरह यत्र-तत्र उपस्थित हैं। देखते हैं कुछ अंश -

चिबुक निशानी लिये नेह की इठलाया है
बिखरी लट,फैला काजल भी इतराया है
कंगना खनका प्रणय राग गा मुस्काया है
ओ मृगनयनी !ओ पिक बयनी!! ओ मेरी तुम।

गीतकार सलिल जी की 'ओ मेरी तुम ' में श्रृंगार गीतों के वर्णन में प्रकृति का विशेष उल्लेख किया है। कहीं-कहीं तो भ्रम हो जाता है कि प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन है या नायिका का सौंदर्य वर्णन -

उगते सूरज जैसे बिंदी
सजा भाल सोहे
शीतल -निर्मल सलिल धार सी 
सतत प्रवाहित हो सुहासिनी

आ गयीं तुम संग लेकर 
सुनहरी ऊषा किरण शत

तुम मुसकाईं तो 
ऊषा के हुए गुलाबी गाल

संयोग और वियोग की मिश्रित पृष्ठभूमि पर सृजित इस संग्रह में सभी श्रृंगार गीतों में प्रकृति उद्दीपन रूप में दृष्टिगत हुई है। जैसे-

चाँदनी, छिटके तारे
पुरवैया के झोंके
महका मोंगरा
मन महुआ
नीड़ लौटे परिंदे
हिरनिया की तरह कुलाचें भरना 
मरुथल का हरा होना
उषा की अरुणाई
कोकिल स्वर
पनघट
कमल दल

भाव, अनुभाव, संचारीभाव से पुष्ट स्थायीभाव रति को पराकाष्ठा तक पहुँचाने में सफल दिखता है ।

गीतकार ने अपनी नायिका को सद्यस्नाता कहा है जिसका अर्थ अभी अभी नहाई नायिका। ऐसी नायिका के सौंदर्य से आकर्षित हुए नायक अनंग बाण का शिकार बन उन अत्यन्त व्यक्तिगत क्षणों की सुखद अनुभूति की स्मृति में डूबते-उतराने लगते हैं। मिलनातुर मन की यह स्थिति "ओ मेरी तुम " नवगीत संग्रह में पूर्ण शालीनता और उज्जवलता के साथ  दिखती है। प्रणयकुल मन की विविध भावस्थितियों का सटीक चित्रण होने पर भी सतहीपन और अश्लीलता किंचित भी नहीं है। 

सलिल जी की गीत सृजन साधना के विविध पहलू हैं। इन गीतों नवगीतों में जहाँ एक ओर संक्षिप्तता है, बेधकता है, स्पष्टता है, सहजता-सरलता है, वहीं दूसरी ओर मृदुल हास-परिहास है, नोक-झोंक है, रूठना-मनाना है। संग्रह के गीतो -नवगीतों की भाषा में देशज शब्द जैसे मटकी, फुनिया, सुड़की, करिया, हिरा गए आदि के प्रयोग से उत्पन्न किया गया टटकापन भी उनकी विशेषता है। मुहावरों का प्रयोग में बुन्देलखण्ड, बरेली तथा अन्य भाषाओं / बोलिओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है देखिए -

राह काट गई करिया बिल्ली
चंदा तारे हिरा गए

इन गीत-नवगीतों में अलंकारिक सौंदर्य के प्रति गीतकार की विशेष अभिरुचि दृष्टिगत होती है। यमक, पुनरुक्तिप्रकाश, पदमैत्री आदि अलंकारों की मनोहारी छटा अवश्य देखने को मिलती है'बरगद बब्बा', 'सूरज ससुरा', खन-खनक, टप-टप, झूल-झूल, तुड़ी-मुड़ी, तन-मन-धन, शारद-रमा- उमा आदि। 

दैनंदिन जीवन के सहज-स्वाभाविक शब्द-चित्र उपस्थित करते इन गीतों में 'विरोधाभासी तथा पूरक शब्द भी स्वाभिवकता के साथ प्रयुक्त हुए हैं - मिलन-विरह, धरा-गगन, सुख-दुख,
चूल्हा-चौका, नख-शिख, द्वैत-अद्वैत आदि।

अनेकों गीत-नवगीतों में गीतकार ने अपने उपनाम 'सलिल ' का प्रयोग शब्दकोशीय अर्थ में पूरी सहजता के साथ किया है। माँ नर्मदा से उनका विशेष लगाव है जो उनके गीत-नवगीतों में स्पष्ट दृष्टिगत होता है।

विविध देश-काल-परिस्थितियों में  रचे गए गीतों में कहीं-कहीं पुनरावृति दोष स्वाभाविक है किन्तु न हो तो बेहतर है। 

'सच का सूत / न समय  / कात पाया लेकिन,  सच की चादर / सलिल कबीरा तहता है' यहाँ 'सच' की दो बार आवृति कथ्य की दृष्टि से पुनरावृत्ति दोष है ।

अतिशयोक्ति अलंकार का सौंदर्य देखिए -

चने चबाते थे लोहे के
किन्तु न अब वो दाँत रहे
कहे बुढ़ापा किस से  क्या क्या
कर गुजरा तरुणाई में।

गीतकार संजीव 'सलिल' तो शब्दों के जादूगर हैं वो कुछ भी लिख सकते है।' गागर में सागर' नहीं उन्होंने 'सीपी में समुन्दर' भरा है। छोटे-छोटे शब्दों में गहन बातें लिख डाली हैं। सलिल जी  ने संयोग और वियोग दोनों ही पलों की सफल अभिव्यक्ति की है लेकिन संयोग की अपेक्षाकृत वियोग के गीत अधिक मारक बन पड़े हैं- 'बिन तुम्हारे' गीत में गीतकार ने विरह का बड़ा ही हृदयस्पर्शी वर्णन किया है क्योंकि वो आप बीते अनुभव हैं न।

'बिन तुम्हारे सूर्य उगता
पर नहीं होता सवेरा ...
...अनमने मन 
चाय की ले चाह
जग कर नहीं जगना...
... साँझ बोझल पाँव 
तन का श्रांत 
मन का क्लांत होना ...
...बिन तुम्हारे 
निशा का लगता 
अँधेरा क्यों घनेरा...

संकेतों में बिन कहे; अनकहनी कहने की कला इन गीतों - नवगीतों का वैशिष्ट्य है- बाँह में ले बाँह / पूरी चाह कर ले / दाह मेरी, थाम लूँ न फिसल जाए / हाथ से यह मन चला पल, द्वार पर आ गया बौरा / चीन्ह तो लो तनिक गौरा, प्रणय का प्रण तोड़ मत देना, बाँहों में बँध निढाल हो विदेह, द्वैत भूल अद्वैत हो जा, लूट-लुटा क्या पाया, ले - दे मत रख उधार,  खन - खन कंगन कुछ कह जाए, तुमने सपने सत्य बनाए, श्वासों में आसों को जीना /  तुमसे सीखा, पलक उठाने में भारी श्रम / किया न जाए रूपगर्विता,  श्वास और प्रश्वास / कहें चुप / अनहोनी होनी होते लख , चूड़ियाँ खनकी / नजर मिलकर झुकी / नैन नशीले दो से चार हुए, स्वर्ग उतरता तब धरती पर / जब मैं-तुम होते हैं हमदम आदि। 

नायिका के जूड़ा बनाने का चित्रण देखिए -

'बिखरे गेसू / कर एकत्र / गोल जूडा धर / सर पर आँचल लिया ढाँक

भारतीय परंपरा आत्मिक मिलान के पक्षधर है -

देना -पाना बेहिसाब है
आत्म-प्राण -मन बेनकाब है
तन का द्वैत; अद्वैत हो गया

हो अभिन्न तुम
निकट रहो या दूर

स्नेह संबंधों की विविध मनोहारी छवियाँ पाठक को कल्पना लोक में ले जाती हैं।  जब न बाँह में हृदय धड़कता / कंगन चुभे न अगर खनकता, रूठो तो लगतीं लुभावनी, ध्यान किया तो रीता मन-घट भरा हो गया / तुमको देखा तो मरुथल मन हरा हो गया,  तुम मुस्काईं सजन बावरा/  फिसला हुआ बवाल, बाँह में दे बाँह / आ गलहार बन जा / बनाकर भुजहार मुझ में तू सिमट जा, मैं खुद को ही खोकर हँसता / ख्वाब तुम्हारे में जा बसता, तुमनें जब दर्पण में देखा / निज नयनों में मुझको देखा, दूर दूर रह पास पास थे, तुम क्या जानो / कितना सुख है / दर्दों की पहुनाई में, मन का इकतारा / तुम ही तुम कहता है,  तन के प्रति मन का आकर्षण / मन में तन के लिये विकर्षण, कितना उचित कौन बतलाए ?, बाहुबंध में बँधी हुई श्लथ अलसाई  देह पर / शत-शत इन्द्र धनुष अंकित / दामिनियाँ डोलीं, खुद को नहीं समझ पाया पर लगता / तुझे जानता हूँ, कनखी- चितवन मुस्कानों से कब-कब क्या संदेश दिए ?। 

पारिवारिक संबधों में घुली मिठास आजकल के यांत्रिक हुए नगरीय जीवन में दुर्लभ हो गयी है। इन गीतों  में अनेक मीठी खट्टी छवियाँ हैं जो  स्मृति लोक में और कनिष्ठों को कल्पना लोक में ले जाते हैं-  तुम भरमाईं / सास स्नेह लख / ससुर पिता सम ढाल, याद तुम्हारी नेह नर्मदा / आकर देती है प्रसन्नता, कुण्डी बैरन ननदी सी खटके / पुरवैया सासू सी बहके बहके, सूरज ससुरा दे आसीसें, बचना जेठानी / भैंस मरखनी, रिश्तों हैं अनमोल / नन्दी तितली ताने मारे / छेड़ें भँवरे देवर / भौजी के अधरों पर सोहें / मुस्कानों के जेवर / ससुर गगन ने विहँस बहू की / की है मुँह दिखलाई आदि। 

मान और मनुहार के बिना प्रणय लीला अधूरी होती है- बेरंगी हो रही जिंदगी / रंग भरो तुम, कंगनों की खनक सुनने / आस प्यासी है लौट घर आओ,  तुम रूठी तो मन मंदिर में बजी नहीं घंटी, कविताओं की गति-यति-लय भी अनजाने बिगड़ी, ओ मब मंदिर की रहवासी / खनक-झनक सुनने के आदी / कान तुम्हारे बिन व्याकुल हैं / जीवन का हर रंग तुम्हीं हो, तुम जब से सपनों में आईं / तब से सपने रहे न अपने, बहुत हुआ अनबोला अब तो / लो पुकार ओ जी!, 

सलिल जी के गीतों में सम्यक और मौलिक बिम्ब-प्रतीक देखते ही बनते हैं - 

याद आ रही याद पुरानी
ग्यान-कर्म इन्द्रिय दस घोड़े
जीवन रथ पर दौड़े जुत रथ
मिल लगाम थामे हाथों में
मन्मथ भजते अंतर्मन मथ

गीतकार ने नायिका के सौंदर्य का ही वर्णन नहीं,  उनके गुणों का वर्णन भी किया है

रिश्ते---
जब जब रिश्तों की बखिया उधड़ी
तब- तब सुई नेह की लेकर रिश्ते तुरप दिए। 

प्रकृति का अवलंब लेकर नायिका के मनोभावों का चित्रण अपनी मिसाल आप है - ताप धरा का बढ़ा चैत में / या तुम रूठी? / स्वप्न अकेला नहीं / नहीं है आस अकेली / रुदन रोष उल्लास, / हास,परिहास लाड़ सब  / संग तुम्हारे हुई / जिंदगी ही अठखेली। 

जीवन में धूप-छाँह, ऊँच -नीच होना स्वाभाविक है। गीतकार विपरीत परिस्थितियों में नायिका को संबल के  देखता-सराहता है।  माँ-पापा, बेटी-बेटा, मैं तकें सहारा / आपद-विपद, कष्ट-पीड़ा का / गुप-चुप करतीं फलाहार सी। 

नायिका निकट न हो तो - क्यों न फुनिया कर सुनें आवाज तेरी / भीड़ में घिर हो गया है मन अकेला / धैर्य -गुल्लक में न बाकी एक धेला, 

जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, आकर्षण  परिवर्तित होता जाता है - अनसुनी रही अब तक पुकार / मन -प्राण रहे जिसको गुहार / वह बाहर हो तब तो आए / मन बसिया भरमा पछताए / मन की ले पाया कौन थाह?, मन मीरा सा / तन राधा सा / किसने किसको कब साधा सा?,  मिट गया द्वैत अंतर न रहा आदि  परिपक्व प्रेम का शब्दांकन है। 

गीतकार की वैयक्तिक रुचियाँ, पारिवारिक संस्कार, विचार, स्वभाव आदि सब उन्मुक्त रूप से परिलक्षित होते हैं। संकीर्ण दृष्टि समीक्षक कह सकते हैं कि 'ओ मेरी तुम' के गीत नवगीतों में कथ्य, भाषाई सौंदर्य ,भाषा की अभिधा शक्ति की अपेक्षा लक्षणा और व्यंजना शक्ति का प्रयोग अधिक हुआ है। अर्थ ध्वनि नाद सौंदर्य के मोहक उदाहरण हैं जिनमें माधुर्य और चारुता लक्षित होती है। इन सबके होते हुए भी गीतकार का पहला नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' सभी के प्रति लगाव और 'सड़क पर' दूसरे नवगीत संग्रह में आम आदमी के अधिकारों के लिए उनके साथ खड़े रहने के भाव 'ओ मेरी' में दृष्टिगत नहीं होते। 

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गीतकार संजीव 'सलिल' जी ने स्वयं लिखा कि नवगीत में आम आदमी को या सामाजिक भावनाओं की अभिव्यक्ति दी जाती है जब कि गीतकार ने अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को शाब्दिक रूप प्रदान किया है। प्रश्न यह है की क्या प्रणय, समर्पण, साहचर्य और सहयोग आदि क्या सनातन और सर्वव्याप्त भावनाएँ नहीं हैं? क्या संबंधों का अपनापन, भावनाओं का प्रवाह सामाजिक सत्य नहीं है? जिन्हें हम वैयक्तिक पल कहते हैं  वह सबके जीवन का सच नहीं है? यदि है तो फिर 'ओ मेरी तुम' गीतकार के नितांत वैयक्तिक पलों में अनुभूत सार्वजनीन सत्य की अभिव्यक्ति का संग्रह है। अतः, इन्हें व्यक्तिगत प्रेम गीत  न कहकर, प्रणय परक नवगीत कहना उचित होगा। इस दृष्टि  ने नवगीत  के शुक को उबाऊ विडंबनाओं, अतिरेकी विसंगतियों के पिंजरे से आज़ाद कर प्रणयानुभूति के नीलगगन में उड़ान  भरने का अवसर उपलब्ध कराकर नवजीवन दिया है। 

सफल रचनाकार वही है जो अपने भावों को जस का तस पाठक के हृदय तक पहुँचा दे और पाठक उन्हें अपना मानकर ग्रहण कर सके।  'ओ मेरी तुम' पढ़कर पाठक काव्यानंद, रसानंद और छंदानंद के साथ प्रणयानन्द में भी गोते लगाने लगेंगे और जो इस सुख से अपरिचित हैं वे कल्पना जगत में खो जाएँगे।
***

अठसल सवैया, दण्डक मुक्तक, महासंस्कारी छंद, पंक्ति छंद

छंद कार्य शाला
नव छंद - अठसल सवैया
पद सूत्र - ८ स + ल
पच्चीस वर्णिक / तैंतीस मात्रिक
पदभार - ११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-१
*
उदाहरण
हम शक्ति वरें / तब ही कर भक्ति / हमें मिलता / प्रभु से वरदान
चुप युक्ति करें / श्रम भी तब मुक्ति / मिले करना / प्रभु का नित ध्यान
गरिमा तब ही / मत हाथ पसार / नहीं जग से / करवा अपमान
विधि ही यश या / धन दे न बिसार / न लालच या /करना अभिमान
***
कार्यशाला
दण्डक मुक्तक
छंद - दोहा, पदभार - ४८ मात्रा।
यति - १३-११-१३-११।
*
सब कुछ दिखता है जहाँ, वहाँ कहाँ सौन्दर्य?,
थोडा तो हो आवरण, थोड़ी तो हो ओट
श्वेत-श्याम का समुच्चय ही जग का आधार,
सब कुछ काला देखता, जिसकी पिटती गोट
जोड़-जोड़ बरसों रहे, हलाकान जो लोग,
देख रहे रद्दी हुए पल में सारे नोट
धौंस न माने किसी की, करे लगे जो ठीक
बेच-खरीद न पा रहे, नहीं पा रहे पोट
***
कार्य शाला छंद बहर दोउ एक हैं
संजीव 
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४) 
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४) 
गण सूत्र - र र य ग पदभार - २१२ २१२ १२२ २ 
दे भुला वायदा वही नेता दे भुला कायदा वही जेता 
जूझता जो रहा नहीं हारा है रहा जीतता सदा चेता 
नाव पानी बिना नहीं डूबी घाट नौका कभी नहीं खेता 
भाव बाजार ने नहीं बोला है चुकाता रहा खुदी क्रेता 
कौन है जो नहीं रहा यारों? क्या वही जो रहा सदा देता? 
छोड़ता जो नहीं वही पंडा जो चढ़ावा चढ़ा रहा लेता 
कोकिला ने दिए भुला अंडे काग ही तो रहा उन्हें सेता 
महासंस्कारी जातीय मात्रिक छंद (प्रकार २५८४) 
पंक्ति जातीय वार्णिक छंद (प्रकार १०२४) 
गण सूत्र - र र ज ल ग पदभार - २१२ २१२ १२१ १२ 
हाथ पे हाथ जो बढ़ा रखते प्यार के फूल भी हसीं खिलते 
जो पुकारो जरा कभी दिल से जान पे खेल के गले मिलते 
जो न देखा वही दिखा जलवा थामते तो न हौसले ढलते 
प्यार की आँच में तपे-सुलगे झूठ जो जानते; नहीं जलते 
दावते-हुस्न जो नहीं मिलती वस्ल के ख्वाब तो नहीं पलते 
जीव 'संजीव' हो नहीं सकता आँख से अश्क जो नहीं बहते 
नेह की नर्मदा बही जब भी मौन पाषाण भी कथा कहते 
टीप - फ़ारसी छंद शास्त्र के आधार पर उर्दू में कुछ बंदिशों के साथ गुरु को २ लघु या २ लघु को गुरु किया जाता है। वज़्न - २१२२ १२१२ २२/११२ अर्कान - फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन / फ़अलुन बह्र - बह्रे ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ मक़्तूअ क़ाफ़िया - ख़ूबसूरत (अत की बंदिश) रदीफ़ - है इस धुन पर गीत १. फिर छिड़ी रात बात फूलों की २. तेरे दर पे सनम चले आये ३. आप जिनके करीब होते हैं ४. बारहा दिल में इक सवाल आया ५. यूँ ही तुम मुझसे बात करती हो, ६. तुमको देखा तो ये ख़याल आया, ७. मेरी क़िस्मत में तू नहीं शायद ८. आज फिर जीने की तमन्ना है ९. ऐ मेरे दोस्त लौट के आजा। 
***

नवगीत

नवगीत:
भाग-दौड़ आपा-धापी है

नहीं किसी को फिक्र किसी की
निष्ठा रही न ख़ास इसी की
प्लेटफॉर्म जैसा समाज है
कब्जेधारी को सुराज है
अति-जाती अवसर ट्रेन
जगह दिलाये धन या ब्रेन
बेचैनी सबमें व्यापी है
भाग-दौड़ आपा-धापी है

इंजिन-कोच ग्रहों से घूमें
नहीं जमाते जड़ें जमीं में
यायावर-पथभ्रष्ट नहीं हैं
पाते-देते कष्ट नहीं हैं
संग चलो तो मंज़िल पा लो
निंदा करो या सुयश सुना लो
बाधा बाजू में चाँपी है
भाग-दौड़ आपा-धापी है

कोशिश टिकिट कटाकर चलना
बच्चों जैसे नहीं मचलना
जाँचे टिकिट घूम तक़दीर
आरक्षण पाती तदबीर
घाट उतरते हैं सब साथ
लें-दें विदा हिलाकर हाथ
यह धर्मात्मा वह पापी है
भाग-दौड़ आपा-धापी है
***

नवगीत

नवगीत:
भाग-दौड़ आपा-धापी है
नहीं किसी को फिक्र किसी की
निष्ठा रही न ख़ास इसी की
प्लेटफॉर्म जैसा समाज है
कब्जेधारी को सुराज है
अति-जाती अवसर ट्रेन
जगह दिलाये धन या ब्रेन
बेचैनी सबमें व्यापी है
इंजिन-कोच ग्रहों से घूमें
नहीं जमाते जड़ें जमीं में
यायावर-पथभ्रष्ट नहीं हैं
पाते-देते कष्ट नहीं हैं
संग चलो तो मंज़िल पा लो
निंदा करो या सुयश सुना लो
बाधा बाजू में चाँपी है
कोशिश टिकिट कटाकर चलना
बच्चों जैसे नहीं मचलना
जाँचे टिकिट घूम तक़दीर
आरक्षण पाती तदबीर
घाट उतरते हैं सब साथ
लें-दें विदा हिलाकर हाथ
यह धर्मात्मा वह पापी है
***
एक गीत:
मत ठुकराओ
संजीव 'सलिल'
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.
ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेंहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.
स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.
दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-ज्योत्सना बन झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
***
गीत सलिला:
झाँझ बजा रे...
संजीव 'सलिल'
*
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
निज कर में करताल थाम ले,
उस अनाम का नित्य नाम ले.
चित्र गुप्त हो, लुप्त न हो-यदि
हो अनाम-निष्काम काम ले..
ताज फेंककर उठा मँजीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
झूम-झूम मस्ती में गा रे!,
पस्ती में निज हस्ती पा रे!
शेष अशेष विशेष सकल बन-
दुनियादारी अकल भुला रे!!
हरि-हर पर मल लाल अबीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
गद्दा-गद्दी को ठुकरा रे!
माया-तृष्णा-मोह भुला रे!
कदम जहाँ ठोकर खाते हों-
आत्म-दीप निज 'सलिल' जला रे!!
'अनल हक' नित गुँजा फकीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
***

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

गीत

गीत
*
कन्दरा में हिमालय की 
छिपे जा भीत हो श्रद्धा,
कहो तो क्या सुरक्षित 
देश या समाज वह होगा?
*
अश्रद्धा, द्वेष; अविश्वास जब पोसे ललच सत्ता।
न छोड़े लोकमत की द्रौपदी को छीन ले लत्ता।।
न माली से सुरक्षित हों तितलियाँ, फूल अरु कलियाँ-
जहाँ हो काँपता शाखों-तनों से भीत हो पत्ता।।
मरें सौ, दो प्रशासन कह रहा उतरा रहीं लाशें।
जहाँ हो हवा जहरीली मिलें घुटती हुईं श्वासें।।  
न सरहद हो सुरक्षित 
पड़ोसी हर एक दुश्मन हो,
कहो तो क्या अरक्षित 
देश या समाज ना होगा?
कन्दरा में हिमालय की 
छिपे जा भीत हो श्रद्धा,
कहो तो क्या सुरक्षित 
देश या समाज वह होगा?
*
खड़े हो साथ सेठों के, किसानों को कुचलती हो।
लगाकर दाम सरकारें, खुली थैली बदलती हो।।
लगाता डाँट न्यायालय, न शासन तनिक भी चेते-
सहमकर लोक की पीड़ा, छिपाकर मुँह सिसकती हो।।
करें नीलाम धन-दौलत, सुरक्षित कोष लुटवाएँ।
विपक्षी को कहें गद्दार, गलती कर न शर्माएँ ।।  
बढ़ा नफरत, लड़ाकर  
लोक को; क्या सुख-अमन होगा?,
कहो तो क्या बुभुक्षित  
देश या समाज ना होगा?
कन्दरा में हिमालय की 
छिपे जा भीत हो श्रद्धा,
कहो तो क्या सुरक्षित 
देश या समाज वह होगा?
*
हुआ आज़ाद भारत देश, लेकिन भीख बतलाते।
मिटे जो देश की खातिर, उन्हीं को रोज लतियाते।।
बढ़ाकर टैक्स-मँहगाई, घटाते रोजगारों को-
न हाँ में हाँ मिलाए जो, उसी पर जाँच बैठाते।।
जरा सम्हलो; तनिक चेतो, न रौंदो देश की बगिया।
तिरंगा कह रहा तुमसे सजाने में लगी सदियाँ।।  
अगर मतभेद को मनभेद  
मानो तो अहित होगा,
कहो तो क्या परीक्षित 
देश या समाज ना होगा?
कन्दरा में हिमालय की 
छिपे जा भीत हो श्रद्धा,
कहो तो क्या सुरक्षित 
देश या समाज वह होगा?
***
१९-११-२०२१

हाड़ौती सरस्वती वंदना

हाड़ौती
सरस्वती वंदना
*
जागण दै मत सुला सरसती
अक्कल दै मत रुला सरसती
बावन आखर घणां काम का
पढ़बो-बढ़बो सिखा सरसती
ज्यूँ दीपक; त्यूँ लड़ूँ तिमिर सूं
हिम्मत बाती जला सरसती
लीक पुराणी डूँगर चढ़बो
कलम-हथौड़ी दिला सरसती
आयो हूँ मैं मनख जूण में
लख चौरासी भुला सरसती
नांव सुमरबो घणूं कठण छै
चित्त न भटका, लगा सरसती
जीवण-सलिला लांबी-चौड़ी
धीरां-धीरां तिरा सरसती
***
संजीव
१८-११-२०१९

पद, दोहा कुण्डलिया, वार्ता, दोहा मुक्तिका

एक पद-
अभी न दिन उठने के आये
चार लोग जुट पायें देनें कंधा तब ही उठना है
तब तक शब्द-सुमन शारद-पग में नित हमको धरना है
मिले प्रेरणा करूँ कल्पना ज्योति तिमिर सब हर लेगी
मन मिथिलेश कभी हो पाए, सिया सुता बन वर लेगी
कांता हो कैकेयी सरीखी रण में प्राण बचाएगी
अपयश सहकर भी माया से मुक्त प्राण करवाएगी
श्वास-श्वास जय शब्द ब्रम्ह की हिंदी में गुंजाये
अभी न दिन उठने के आये
*
एक दोहा
शब्द-सुमन शत गूंथिए, ले भावों की डोर
गीत माल तब ही बने, जब जुड़ जाएँ छोर
*
एक कुण्डलिनी
मन मनमानी करे यदि, कस संकल्प नकेल
मन को वश में कीजिए, खेल-खिलाएँ खेल
खेल-खिलाएँ खेल, मेल बेमेल न करिए
व्यर्थ न भरिए तेल, वर्तिका पहले धरिए
तभी जलेगा दीप, भरेगा तम भी पानी
कसी नकेल न अगर, करेगा मन मनमानी
*
नाम से, काम से प्यार कीजिए सदा
प्यार बिन जिंदगी-बंदगी कब हुई?
*
काव्य वार्ता
नाम से, काम से प्यार कीजै सदा
प्यार बिन जिंदगी-बंदगी कब हुई? -संजीव्
*
बन्दगी कब हुई प्यार बिन जिंदगी
दिल्लगी बन गई आज दिल की लगी
रंग तितली के जब रँग गयीं बेटियाँ
जा छुपी शर्म से आड़ में सादगी -मिथलेश
*
छोड़ घर मंडियों में गयी सादगी
भेड़िये मिल गए तो सिसकने लगी
याद कर शक्ति निज जब लगी जूझने
भीड़ तब दुम दबाकर खिसकने लगी -संजीव
*

दोहा मुक्तिका
*
सब कुछ दिखता है जहाँ, वहाँ कहाँ सौन्दर्य?,
थोडा तो हो आवरण, थोड़ी तो हो ओट
श्वेत-श्याम का समुच्चय ही जग का आधार,
सब कुछ काला देखता, जिसकी पिटती गोट
जोड़-जोड़ बरसों रहे, हलाकान जो लोग,
देख रहे रद्दी हुए पल में सारे नोट
धौंस न माने किसी की, करे लगे जो ठीक
बेच-खरीद न पा रहे, नहीं पा रहे पोट
***

बोध कथा भाव ही भगवान, चित्रगुप्त पूजन

बोध कथा
भाव ही भगवान
संजीव 'सलिल'
*
एक वृद्ध के मन में अंतिम समय में नर्मदा-स्नान की चाह हुई. लोगों ने बता दिया कि नर्मदा जी अमुक दिशा में कोसों दूर बहती हैं, तुम नहीं जा पाओगी. वृद्धा न मानी... भगवान् का नाम लेकर चल पड़ी...कई दिनों के बाद दिखी उसे एक नदी... उसने 'नरमदा तो ऐसी मिलीं रे जैसे मिल गै मताई औ' बाप रे' गाते हुए परम संतोष से डुबकी लगाई. कुछ दिन बाद साधुओं का एक दल आया... शिष्यों ने वृद्धा की खिल्ली उड़ाते हुए बताया कि यह तो नाला है. नर्मदा जी तो दूर हैं हम वहाँ से नहाकर आ रहे हैं. वृद्धा बहुत उदास हुई... बात गुरु जी तक पहुँची. गुरु जी ने सब कुछ जानने के बाद, वृद्धा के चरण स्पर्श कर कहा : 'जिसने भाव के साथ इतने दिन नर्मदा जी में नहाया उसके लिए मैया यहाँ न आ सकें इतनी निर्बल नहीं हैं. मैया तुम्हें नर्मदा-स्नान का पुण्य है लेकिन जो नर्मदा जी तक जाकर भी भाव का अभाव मिटा नहीं पाया उसे नर्मदा-स्नान का पुण्य नहीं है. मैया! तुम कहीं मत जाओ, माँ नर्मदा वहीं हैं जहाँ तुम हो.''
'कंकर-कंकर में शंकर', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' का सत्य भी ऐसा ही है. 'भाव का भूखा है भगवान' जैसी लोकोक्ति इसी सत्य की स्वीकृति है. जिसने इस सत्य को गह लिया उसके लिये 'हर दिन होली, रात दिवाली' हो जाती है.
***
चित्रगुप्त पूजन
*
अच्छे अच्छों का दीवाला निकालकर निकल गई दीपावली और आ गयी दूज...
सकल सृष्टि के कर्म देवता, पाप-पुण्य नियामक निराकार परात्पर परमब्रम्ह चित्रगुप्त जी और कलम का पूजन कर ध्यान लगा तो मनस-चक्षुओं ने देखा अद्भुत दृश्य.
निराकार अनहद नाद... ध्वनि के वर्तुल... अनादि-अनंत-असंख्य. वर्तुलों का आकर्षण-विकर्षण... घोर नाद से कण का निर्माण... निराकार का क्रमशः सृष्टि के प्रागट्य, पालन और नाश हेतु अपनी शक्तियों को तीन अदृश्य कायाओं में स्थित करना...
महाकाल के कराल पाश में जाते-आते जीवों की अनंत असंख्य संख्या ने त्रिदेवों और त्रिदेवियों की नाम में दम कर दिया. सब निराकार के ध्यान में लीन हुए तो हर चित्त में गुप्त प्रभु की वाणी आकाश से गुंजित हुई:
__ "इस समस्या के कारण और निवारण तुम तीनों ही हो. अपनी पूजा, अर्चना, वंदना, प्रार्थना से रीझकर तुम ही वरदान देते हो औरउनका दुरूपयोग होने पर परेशान होते हो. करुणासागर बनने के चक्कर में तुम निष्पक्ष, निर्मम तथा तटस्थ होना बिसर गये हो."
-- तीनों ने सोच:' बुरे फँसे, क्या करें कि परमपिता से डांट पड़ना बंद हो?'.
एक ने प्रारंभ कर दिया परमपिता का पूजन, दूसरे ने उच्च स्वर में स्तुति गायन तथा तीसरे ने प्रसाद अर्पण करना.
विवश होकर परमपिता को धारण करना पड़ा मौन.
तीनों ने विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका पर कब्जा किया और भक्तों पर करुणा करने का दस्तूर और अधिक बढ़ा दिया.
************

नवगीत,

नवगीत:
ओ मेरी तुम!
*
ओ मेरी तुम!
बीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
हरसिँगारी छवि तुम्हारी
प्रात किरणों ने सँवारी
भुवन भास्कर का दरस कर
उषा पर छाई खुमारी
मुँडेरे से झाँकते, छवि आँकते
ओ मेरी तुम!
रीतते ही नहीं है
ये प्रतीक्षा के पल
*
अमलतासी मुस्कराहट
प्रभाती सी चहचहाहट
बजे कुण्डी घटियों सी
करे पछुआ सनसनाहट
नत नयन कुछ माँगते, अनुरागते
ओ मेरी तुम!
जीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
*
शंखध्वनिमय प्रार्थनाएँ
शुभ मनाती वन्दनाएँ
ऋचा सी मनुहार गुंजित
सफल होती साधनाएँ
पलाशों से दहकते, चुप-चहकते
ओ मेरी तुम!
सीतते ही नहीं हैं
ये प्रतीक्षा के पल
***

नवगीत:
जितने चढ़े
उतरते उतने
कौन बताये
कब, क्यों कितने?
ये समीप वे बहुत दूर से
कुछ हैं गम, कुछ लगे नूर से
चुप आँसू, मुस्कान निहारो
कुछ दूरी से, कुछ शऊर से
नज़र एकटक
पाये न टिकने
सारी दुनिया सिर्फ मुसाफिर
किसको कहिये यहाँ महाज़िर
छीन-झपट, कुछ उठा-पटक है
कुछ आते-जाते हैं फिर-फिर
हैं खुरदुरे हाथ
कुछ चिकने
चिंता-चर्चा-देश-धरम की
सोच न किंचित आप-करम की
दिशा दिखाते सब दुनिया को
बर्थ तभी जब जेब गरम की
लो खरीद सब
आया बिकने
***

गुरुवार, 18 नवंबर 2021

गीत

गीत 
*
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया। 
नेह-नर्मदा अरुणाई से 
बिन बोले ही सजा गया। 
*
सांध्य सुंदरी क्रीड़ा करती, हाथ न छोड़े दोपहरी। 
निशा निमंत्रण लिए खड़ी है, वसुधा की है प्रीत खरी। 
टेर प्रतीचि संदेसा भेजे 
मिलनातुर मन कहाँ गया? 
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
बंजर रही न; हुई उर्वरा, कृपण कल्पना विहँस उदार। 
नयन नयन से मिले झुके उठ, फिर-फिर फिरकर रहे निहार। 
फिरकी जैसे नचें पुतलियाँ
पुतली बाँका बन गया।  
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
अस्त त्रस्त सन्यस्त न पल भर, उदित मुदित फिर आएगा। 
अनकहनी कह-कहकर भरमा, स्वप्न नए दिखलाएगा। 
सहस किरण-कर में बाँधे 
भुजपाश पहन पहना गया। 
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
कलरव की शहनाई गूँजी, पर्ण नाचते ठुमक-ठुमक। 
छेड़ें लहर सालियाँ मिलकर, शिला हेरतीं हुमक-हुमक। 
सहबाला शशि सँकुच छिप रहा, 
सखियों के मन भा गया। 
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
मिलन-विरह की आँख मिचौली, खेल-खेल मन कब थकता। 
आस बने विश्वास हास तब ख़ास अधर पर आ सजता। 
जीवन जी मत नाहक भरमा 
खुद को खो खुद पा गया। 
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
***

बुधवार, 17 नवंबर 2021

दीपक अलंकार, शब्द चर्चा, सोमराजी छंद, नवगीत, दिल्लीवालो


नवगीत 
दिल्लीवालो
*
दिल्लीवालो!
भोर हुई पर
जाग न जाना
घुली हवा में प्रचुर धूल है
जंगल काटे, पर्वत खोदे
सूखे ताल, सरोवर, पोखर
नहीं बावली-कुएँ शेष हैं
हर मुश्किल का यही मूल है
बिल्लीवालो!
दूध विषैला
पी मत जाना
कल्चर है होटल में खाना
सद्विचार कह दक़ियानूसी
चीर-फाड़कर वस्त्र पहनना
नहीं लाज से नज़र झुकाना
बेशर्मों को कहो कूल है
इल्लीवालो!
पैकिंग बढ़िया
कर दे जाना
आज जुडो कल तोड़ो नाता
मनमानी करना विमर्श है
व्यापे जीवन में सन्नाटा
साध्य हुआ केवल अमर्ष है
वाक् न कोमल तीक्ष्ण शूल है
किल्लीवालो!
ठोंको ताली
बना बहाना
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं २
*
गीत
फ़साना
(छंद- दस मात्रिक दैशिक जातीय, षडाक्षरी गायत्री जातीय सोमराजी छंद)
[बहर- फऊलुन फऊलुन १२२ १२२]
*
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हें देखता हूँ
तुम्हें चाहता हूँ
तुम्हें माँगता हूँ
तुम्हें पूजता हूँ
बनाना न आया
बहाना बनाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हीं जिंदगी हो
तुम्हीं बन्दगी हो
तुम्हीं वन्दना हो
तुम्हीं प्रार्थना हो
नहीं सीख पाया
बिताया भुलाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हारा रहा है
तुम्हारा रहेगा
तुम्हारे बिना ना
हमारा रहेगा
कहाँ जान पाया
तुम्हें मैं लुभाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
***




अलंकार सलिला: ३१
दीपक अलंकार
*
दीपक वर्ण्य-अवर्ण्य में, देखे धर्म समान।
धारण करता हो जिसे, उपमा संग उपमान।।
जहाँ वर्ण्य (प्रस्तुत) और अवर्ण्य (अप्रस्तुत) का एक ही धर्म स्थापित किया जाये, वहाँ दीपक अलंकार होता है।
अप्रस्तुत एक से अधिक भी हो सकते हैं।
तुल्ययोगिता और दीपक में अंतर यह है कि प्रथम में प्रस्तुत और प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत और अप्रस्तुत का धर्म
समान होता है जबकि द्वितीय में प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों का समान धर्म बताया जाता है।
जब प्रस्तुत औ' अप्रस्तुत, में समान हो धर्म।
तब दीपक जानो 'सलिल', समझ काव्य का मर्म।।
यदि प्रस्तुत वा अप्रस्तुत, गहते धर्म समान।
अलंकार दीपक कहे, वहाँ सभी मतिमान।।
दीपक वर्ण्य-अवर्ण्य के, देखे धर्म समान।
कारक माला आवृत्ति, तीन भेद लें जान।।
उदाहरण:
१. सोहत मुख कल हास सौं, अम्ल चंद्रिका चंद्र।
प्रस्तुत मुख और अप्रस्तुत चन्द्र को एक धर्म 'सोहत' से अन्वित किया गया है।
२. भूपति सोहत दान सौं, फल-फूलन-उद्यान।
भूपति और उद्यान का सामान धर्म 'सोहत' दृष्टव्य है।
३. काहू के कहूँ घटाये घटे नहिं, सागर औ' गन-सागर प्रानी।
प्रस्तुत हिंदवान और अप्रस्तुत कामिनी, यामिनी व दामिनी का एक ही धर्म 'लसै' कहा गया है।
४. डूँगर केरा वाहला, ओछाँ केरा नेह।
वहता वहै उतावला, छिटक दिखावै छेह।।
अप्रस्तुत पहाड़ी नाले, और प्रस्तुत ओछों के प्रेम का एक ही धर्म 'तेजी से आरम्भ तथा शीघ्र अंत' कहा है।
५. कामिनी कंत सों, जामिनी चंद सोन, दामिनी पावस मेघ घटा सों।
जाहिर चारहुँ ओर जहाँ लसै, हिंदवान खुमान सिवा सों।।
६. चंचल निशि उदवस रहैं, करत प्रात वसिराज।
अरविंदन में इंदिरा, सुन्दरि नैनन लाज।।
७. नृप मधु सों गजदान सों, शोभा लहत विशेष।
अ. कारक दीपक:
जहाँ अनेक क्रियाओं में एक ही कारक का योग होता है वहाँ कारक दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. हेम पुंज हेमंत काल के इस आतप पर वारूँ।
प्रियस्पर्श की पुलकावली मैं, कैसे आज बिसारूँ?
किन्तु शिशिर में ठंडी साँसें, हाय! कहाँ तक धारूँ?
तन जारूँ, मन मारूँ पर क्या मैं जीवन भी हारूँ।।
२. इंदु की छवि में, तिमिर के गर्भ में,
अनिल की ध्वनि में, सलिल की बीचि में।
एक उत्सुकता विचरती थी सरल,
सुमन की स्मृति में, लता के अधर में।।
३. सुर नर वानर असुर में, व्यापे माया-मोह।
ऋषि मुनि संत न बच सके, करें-सहें विद्रोह।।
४. जननी भाषा / धरती गौ नदी माँ / पाँच पालतीं।
५. रवि-शशि किरणों से हरें
तम, उजियारा ही वरें
भू-नभ को ज्योतित करें।
आ. माला दीपक:
जहाँ पूर्वोक्त वस्तुओं से उत्तरोक्त वस्तुओं का एकधर्मत्व स्थापित होता है वहाँ माला दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. घन में सुंदर बिजली सी, बिजली में चपल चमक सी।
आँखों में काली पुतली, पुतली में श्याम झलक सी।।
प्रतिमा में सजीवता सी, बस गर्भ सुछवि आँखों में।
थी एक लकीर ह्रदय में, जो अलग रही आँखों में।।
२. रवि से शशि, शशि से धरा, पहुँचे चंद्र किरण।
कदम-कदम चलकर करें, पग मंज़िल का वरण।।
३. ध्वनि-लिपि, अक्षर-शब्द मिल करें भाव अभिव्यक्त।
काव्य कामिनी को नहीं, अलंकार -रस त्यक्त।।
४. कूल बीच नदिया रे / नदिया में पानी रे
पानी में नाव रे / नाव में मुसाफिर रे
नाविक पतवार ले / कर नदिया पार रे!
५. माथा-बिंदिया / गगन-सूर्य सम / मन को मोहें।
इ. आवृत्ति दीपक:
जहाँ अर्थ तथा पदार्थ की आवृत्ति हो वहाँ पर आवृत्ति दीपक अलंकार होता है।इसके तीन प्रकार पदावृत्ति दीपक,
अर्थावृत्ति दीपक तथा पदार्थावृत्ति दीपक हैं।
क. पदावृत्ति दीपक:
जहाँ भिन्न अर्थोंवाले क्रिया-पदों की आवृत्ति होती है वहाँ पदावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. तब इस घर में था तम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
-भ्रम छाया।
२. दीन जान सब दीन, नहिं कछु राख्यो बीरबर।
३. आये सनम, ले नयन नम, मन में अमन,
तन ले वतन, कह जो गए, आये नहीं, फिर लौटकर।
ख. अर्थावृत्ति दीपक:
जहाँ एक ही अर्थवाले भिन्न क्रियापदों की आवृत्ति होती है, वहाँ अर्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. सर सरजा तब दान को, को कर सकत बखान?
बढ़त नदी गन दान जल उमड़त नद गजदान।।
२. तोंहि बसंत के आवत ही मिलिहै इतनी कहि राखी हितू जे।
सो अब बूझति हौं तुमसों कछू बूझे ते मेरे उदास न हूजे।।
काहे ते आई नहीं रघुनाथ ये आई कै औधि के वासर पूजे।
देखि मधुव्रत गूँजे चहुँ दिशि, कोयल बोली कपोतऊ कूजे।।
३. तरु पेड़ झाड़ न टिक सके, झुक रूख-वृक्ष न रुक सके,
तूफान में हो नष्ट शाखा-डाल पर्ण बिखर गये।
ग. पदार्थावृत्ति दीपक:
जहाँ पद और अर्थ दोनों की आवृत्ति हो वहाँ,पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण
१. संपत्ति के आखर तै पाइ में लिखे हैं, लिखे भुव भार थाम्भिबे के भुजन बिसाल में।
हिय में लिखे हैं हरि मूरति बसाइबे के, हरि नाम आखर सों रसना रसाल में।।
आँखिन में आखर लिखे हैं कहै रघुनाथ, राखिबे को द्रष्टि सबही के प्रतिपाल में।
सकल दिशान बस करिबे के आखर ते, भूप बरिबंड के विधाता लिखे भाल में।।
२.
दीपक अलंकार का प्रयोग कविता में चमत्कार उत्पन्न कर उसे अधिक हृद्ग्राही बनाता है।।
*****


शब्द चर्चा- सैलाब या शैलाब?
सही शब्द ’सैलाब’ ही है -’शैलाब ’ नहीं
’सैलाब’[ सीन,ये,लाम,अलिफ़,बे] -अरबी/फ़ारसी का लफ़्ज़ है अर्थात ’उर्दू’ का लफ़्ज़ है जो ’सैल’ और ’आब’ से बना है
’सैल’ [अरबी लफ़्ज़] मानी बहाव और ’आब’[फ़ारसी लफ़्ज़] मानी पानी
सैलाब माने पानी का बहाव ही होता है मगर हम सब इसका अर्थ अचानक आए पानी के बहाव ,जल-प्लावन.बाढ़ से ही लगाते है
सैल के साथ आब का अलिफ़ वस्ल [ मिल ] हो गया है अत: ’सैल आब ’ के बजाय ’सैलाब’ ही पढ़ते और बोलते है ।हिन्दी के हिसाब से इसे आप ’दीर्घ सन्धि’ भी कह सकते है’
चूँकि ’सैल’ मानी ’बहाव’ होता है तो इसी लफ़्ज़ से ’सैलानी’ भी बना है -वह जो निरन्तर सैर तफ़्रीह एक जगह से दूसरी जगह जाता रहता है
आँसुओं की बाढ़ को सैल-ए-अश्क भी कहते है
हिन्दी के ’शैल, शैलजा और शैलसुता' से आप सब लोग तो परिचित हैं।

कीर्ति छंद, गीत, लघुकथा

कीर्ति छंद
छंद विधान:
द्विपदिक, चतुश्चरणिक, मात्रिक कीर्ति छंद इंद्रा वज्रा तथा उपेन्द्र वज्रा के संयोग से बनता है. इसका प्रथम चरण उपेन्द्र वज्रा (जगण तगण जगण दो गुरु / १२१-२२१-१२१-२२) तथा शेष तीन दूसरे, तीसरे और चौथे चरण इंद्रा वज्रा (तगण तगण जगण दो गुरु / २२१-२२१-१२१-२२) इस छंद में ४४ वर्ण तथा ७१ मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. मिटा न क्यों दें मतभेद भाई, आओ! मिलाएं हम हाथ आओ
आओ, न जाओ, न उदास ही हो, भाई! दिलों में समभाव भी हो.
२. शराब पीना तज आज प्यारे!, होता नहीं है कुछ लाभ सोचो
माया मिटा नष्ट करे सुकाया, खोता सदा मान, सुनाम भी तो.
३. नसीहतों से दम नाक में है, पीछा छुड़ाएं हम आज कैसे?
कोई बताये कुछ तो तरीका, रोके न टोके परवाज़ ऐसे.
***
एक गीत :
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
कहता है इतिहास
एक साथ लड़ते रहे
दानव गण सायास।
.
निर्बल को दे दंड
पाते थे आनंद वे
रहे सदा उद्दंड।
.
नहीं जीतती क्रूरता
चाहे जितने जुल्म कर
संयम रखती शूरता।
.
रात नहीं कोई हुई
जिसके बाद न भोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
उठो, जाग, हो एक
भिड़ो तुरत आतंक से
रखो इरादे नेक।
.
नहीं रिलीजन, धर्म
या मजहब आतंक है
मिटा कीजिए कर्म।
.
भुला सभी मतभेद
लड़, वरना हों नष्ट सब
व्यर्थ न करिए खेद।
.
कटे पतंग न शांति की
थाम एकता डोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
***

एक रचना:
*
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
*
हम नहीं हैं एक
लेकिन एक हैं हम।
जूझने को मौत से भी
हम रखें दम।
फोड़ते हो तुम
मगर हम बोलते हैं
गगन जाए थरथरा
सुन बोल 'बम-बम'।
मारते तुम निहत्थों को
क्रूर-कायर!
तुम्हारा पुरखा रहा
दनु अंधकासुर।
हम शहादत दे
मनाते हैं दिवाली।
जगमगा देते
दिया बन रात काली।
जानते हैं देह मरती
आत्मा मरती नहीं है।
शक्ल है
कितनी घिनौनी, जरा
दर्पण तो निहारो
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
*
मनोबल कमजोर इतना
डर रहे परछाईं से भी।
रौंदते कोमल कली
भूलो न सच तुम।
बो रहे जो
वही काटोगे हमेशा
तडपते पल-पल रहोगे
दर्द होगा पर नहीं कम।
नाम मत लो धर्म का
तुम हो अधर्मी!
नहीं तुमसे अधिक है
कोई कुकर्मी।
जब मरोगे
हँसेगी इंसानियत तब।
शूल से भी फूल
ऊगेंगे नए अब ।
निरा अपना, नया सपना
नित नया आकार लेगा।
किन्तु बेटा भी तुम्हारा
तुम्हें श्रृद्धांजलि न देगा
जा उसे मारो।
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
*
लघुकथा:
सहिष्णुता
*
'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।
इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।
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कार्तिक पूर्णिमा

 कार्तिक पूर्णिमा माहात्म्य

हिंदू धर्म में पूर्णिमा का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष पंद्रह पूर्णिमा होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर १६ हो जाती है। कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा कहते हैं क्योंकि आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। लोक मान्यता है कि इस दिन कृतिका में शिव- दर्शन करने से व्यक्ति सात जन्म तक ज्ञानी और धनवान होता है। जब सूर्य उदय के समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी प्रसन्न होते हैं। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फल मिलता है इसलिए इसे गंगा पूर्णिमा भी कहते हैं। इसी दिन भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था। महाभारत काल में हुए १८ दिनों के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों को देखकर जब युधिष्ठिर कुछ विचलित हुए तो भगवान श्री कृष्ण पांडवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान पर आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पांडवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ कर रात में दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीपदान कर श्रद्धांजलि अर्पित की। इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रूप से गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ नगरी में आकर स्नान करने का विशेष महत्व है। मान्यता यह भी है कि इस दिन पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में वृषदान यानी बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति इस दिन उपवास करके भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस पूर्णिमा को शैव मत में जितनी मान्यता मिली है उतनी ही वैष्णव मत में भी। यदि इस पूर्णिमा के दिन भरणी या रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है। इस दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह महापूर्णिमा कहलाती है. कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो “पद्मक योग” बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है।

गुरुनानक जयंती
सिख सम्प्रदाय में कार्तिक पूर्णिमा का दिन प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है। क्योंकि इस दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था। इस दिन सिख सम्प्रदाय के अनुयायी सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलने की सौगंध लेते हैं। इसे गुरु पर्व भी कहा जाता है।
कार्तिक पूर्णिमा विधि विधान
कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है। अन्न, धन एव वस्त्र दान का बहुत महत्व है। इस दिन किए दान का आपको कई गुणा लाभ मिलता है। मान्यता यह है कि आप जो दान इस दिन करते हैं वह मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में आपको प्राप्त होता है।
इस दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। महर्षि अंगिरा ने स्नान के प्रसंग में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें। इसी प्रकार दान देते समय में हाथ में जल लेकर दान करें। आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तो पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें।
***

मुक्तक आँख

हास्य मुक्तक
गृह लक्ष्मी से कहा 'आज है लछमी जी का राज
मुँहमाँगा वरदान मिलेगा रोक न मुझको आज'
घूर एकटक झट बोली वह-"भाव अगर है सच्चा
देती हूँ वरदान रही खुश कर प्रणाम नित बच्चा"
*
हास्य कविता
मेहरारू बोली 'ए जी! है आज पर्व दीवाली
सोना हो जब, तभी मने धनतेरस वैभवशाली'
बात सुनी मादक खवाबों में तुरत गया मन डूब
मैं बोला "री धन्नो! आ बाँहों में सोना खूब"
वो लल्ला-लल्ली से बोली "सोना बापू संग
जाती हूँ बाजार करो रे मस्ती चाहे जंग"
हुई नरक चौदस यारों ये चीखे, वो चिल्लाए
भूख इसे, हाजत उसको कोई तो जान बचाए
घंटों बाद दिखी घरवाली कई थैलों के संग
खाली बटुआ फेंका मुझ पर, उतरा अपना रंग
***
मुक्तक
नम आँख देखकर हमारी आँख नम हुई।दिल से करी तारीफ मगर वह भी कम हुई।।
हमने जलाई फुलझड़ी वह 'सलिल' खुश नहीं-
दीवाला हो गया है वो जैसे ही बम हुई।।
*
है आजकल का धर्म पटाखों को फोड़ना।
कचरे का ढेर चारों तरफ रोज छोड़ना।।
संकीर्ण स्वार्थ साध; खुद को श्रेष्ठ मानना-
औरों पे लगा दोष, खुद कानून तोड़ना।।
*
शत्रु हमारे हैं हम खुद ही, औरों से हमको कम भय।
सुविधा चाहें; नियम और कानून न मानेंगे है तय।।
पंडित-नेता बाँट रहे हैं अपने स्वार्थों की खातिर-
खड़े आम के हित में हो अब, खासों का मिटना है तय।।
*
जन की बात न कोई सुनता, मन की बात कहे सत्ता।
कथनी-करनी एक नहीं, है रखा छिपा असली पत्ता।।
नीति-नियम की तनिक न चिंता, देश गौण दल मुख्य कहें-
धनिक शौक से; दीन विवश हो, तन पर धारे कम लत्ता।।
*
दीवाली आई-गई, दीवाला है सत्य।
है उधार सर पर चढ़ा; कहता नहीं असत्य।।
चार दिनों की चाँदनी अब अँधियारा तथ्य।
सब जानें पूरीतरह मिथ्या सुख का कथ्य।।
***





मंगलवार, 16 नवंबर 2021

नीति के दोहे

नीति के दोहे
*
बैर न दुर्जन से करें, 'सलिल' न करिए स्नेह
काला करता कोयला, जले जला दे देह
*
बुरा बुराई कब तजे, रखे सदा अलगाव
भला भलाई क्यों तजे?, चाहे रहे निभाव
*
असफलता के दौर में, मत निराश हों मीत
कोशिश कलम लगाइए, लें हर मंज़िल जीत
*
रो-रो क़र्ज़ चुका रही, संबंधों का श्वास
भूल-चूक को भुला दे, ले-दे कोस न आस
*
ज्ञात मुझे मैं हूँ नहीं, यार तुम्हारा ख्वाब
मन चाहे मुस्कुरा लो, मुझसे कली गुलाब

*

नवगीत

नवगीत 
*
लगें अपरिचित
सारे परिचित
जलसा घर में
*
है अस्पृश्य आजकल अमिधा
नहीं लक्षणा रही चाह में
स्वर्णाभूषण सदृश व्यंजना
बदल रही है वाह; आह में
सुख में दुःख को पाल रही है
श्वास-श्वास सौतिया डाह में
हुए अपरिमित
अपने सपने
कर के कर में
*
सत्य नहीं है किसी काम का
नाम न लेना भूल राम का
कैद चेतना हो विचार में
दक्षिण-दक्षिण, वाम-वाम का
समरसता, सद्भाव त्याज्य है
रिश्ता रिसता स्रोत दाम का
पाल असीमित
भ्रम निज मन में
शक्कर सागर में
*
चोटी, टोपी, तिलक, मँजीरा
हँसिया थामे नचे जमूरा
ए सी में शोलों के नगमे
छोटे कपड़े, बड़ा तमूरा
चूरन-डायजीन ले लिक्खो
भूखा रहकर मरा मजूरा
है वह वन्दित
मन अभद्र जो
है तन नागर में
***
संजीव
१६-११-२०१९

मुक्तक, माँ, नारी, पत्नी, दिया, एकता

मुक्तक
माँ
माँ की महिमा जग से न्यारी, ममता की फुलवारी
संतति-रक्षा हेतु बने पल भर में ही दोधारी
माता से नाता अक्षय जो पाले सुत बडभागी-
ईश्वर ने अवतारित हो माँ की आरती उतारी
नारी
नर से दो-दो मात्रा भारी, हुई हमेशा नारी
अबला कभी न इसे समझना, नारी नहीं बिचारी
माँ, बहिना, भाभी, सजनी, सासु, साली, सरहज भी
सखी न हो तो समझ जिंदगी तेरी सूखी क्यारी
*
पत्नि
पति की किस्मत लिखनेवाली पत्नि नहीं है हीन
भिक्षुक हो बारात लिए दर गए आप हो दीन
करी कृपा आ गयी अकेली हुई स्वामिनी आज
कद्र न की तो किस्मत लेगी तुझसे सब सुख छीन
*
दीप प्रज्वलन
शुभ कार्यों के पहले घर का अँगना लेना लीप
चौक पूर, हो विनत जलाना, नन्हा माटी-दीप
तम निशिचर का अंत करेगा अंतिम दम तक मौन
आत्म-दीप प्रज्वलित बन मोती, जीवन सीप
*
परोपकार
अपना हित साधन ही माना है सबने अधिकार
परहित हेतु बनें समिधा, कब हुआ हमें स्वीकार?
स्वार्थी क्यों सुर-असुर सरीखा मानव होता आज?
नर सभ्यता सिखाती मित्रों, करना पर उपकार
*
एकता
तिनका-तिनका जोड़ बनाते चिड़वा-चिड़िया नीड़
बिना एकता मानव होता बिन अनुशासन भीड़
रहे-एकता अनुशासन तो सेना सज जाती है-
देकर निज बलिदान हरे वह, जनगण कि नित पीड़
*
असली गहना
असली गहना सत्य न भूलो
धारण कर झट नभ को छू लो
सत्य न संग तो सुख न मिलेगा
भोग भोग कर व्यर्थ न फूलो
*
चल सपने साकार करें
पग पथ पर चल लक्ष्य वरें
श्वास-श्वास रच छंद नए
पल-पल को मधुमास करें
*

पत्ता-पत्ता झूम रहा है
पवन झकोरे चूम रहा है
तुहिन-बिंदु नव छंद सुनाते
शुभ प्रभात कह विहँस जगाते
*

छंद-बहर, गीत

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं
*
गीत
करेंगे वही
(छंद- अष्ट मात्रिक वासव जातीय, पंचाक्षरी)
[बहर- फऊलुन फ़अल १२२ १२]
*
करेंगे वही
सदा जो सही
*
न पाया कभी
न खोया कभी
न जागा हुआ
न सोया अभी
वरेंगे वही
लगे जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
सुहाया वही
लुभाया वही
न खोया जिसे
न पाया कभी
तरेंगे वही
बढ़े जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
गिराया हुआ
उठाया नहीं
न नाता कभी
भुनाया, सही
डरेंगे वही
नहीं जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
इस लय पर रचनाओं (मुक्तक, हाइकु, ग़ज़ल, जनक छंद आदि) का स्वागत है।

समीक्षा, गिरिमोहन गुरु

कृति चर्चा:
समीक्षा के अभिनव सोपान : नवगीत का महिमा गान
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: समीक्षा के अभिनव सोपान, संपादक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, वर्ष २०१४, पृष्ठ १२४, २००/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, प्रकाशक शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण मंडल कोलोनी, होशंगाबाद, चलभाष ९४२५० ४०९२१, संपादक संपर्क- ८/२९ ए शिवपुरी, अलीगढ २०२००१ ]
*
किसी विधा पर केंद्रित कृति का प्रकाशन और उस पर चर्चा होना सामान्य बात है किन्तु किसी कृति पर केन्द्रित समीक्षापरक आलेखों का संकलन कम ही देखने में आता है. विवेच्य कृति सनातन सलिला नर्मदा माँ के भक्त, हिंदी मैया के प्रति समर्पित ज्येष्ठ और श्रेष्ठ रचनाकार श्री गुरुमोहन गुरु की प्रथम नवगीत कृति 'मुझे नर्मदा कहो' पर लिखित समालोचनात्मक लेखों का संकलन है. इसके संपादक डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय स्वयं हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं. युगबोधवाही कृतिकार, सजग समीक्षक और विद्वान संपादक का ऐसा मणिकांचन संयोग कृति को शोध छात्रों के लिये उपयोगी बना सका है.
कृत्यारम्भ में संपादकीय के अंतर्गत डॉ. उपाध्याय ने नवगीत के उद्भव, विकास तथा श्री गुरु के अवदान की चर्चा कर, नवगीत की नव्य परंपरा का संकेत करते हुए छंद, लय, यति, गति, आरोह-अवरोह, ध्वनि आदि के प्रयोगों, चैतन्यता, स्फूर्ति, जागृति आदि भावों तथा जनाकांक्षा व जनभावनाओं के समावेशन को महत्वपूर्ण माना है. नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह ने उद्योगप्रधान नागरिक जीवन की गद्यात्मकता के भीतर जीवित कोमलतम मानवीय अनुभूतियों के छिपे कारणों को गीत के माध्यम से उद्घाटित कर नवगीत आन्दोलन को गति दी. डॉ. किशोर काबरा नवगीत में बढ़ते नगरबोध का संकेतन करते हुए वर्तमान में नवगीतकारों की चार पीढ़ियों को सक्रिय मानते हैं. उनके अनुसार पुरानी पीढ़ी छ्न्दाश्रित, बीच की पीढ़ी लयाश्रित, नई पीढ़ी लोकगीताश्रित तथा नवागत पीढ़ी लयविहीन नवगीत लिख रही है. इस प्रसंग में उल्लेखनीय है की मैंने लोकगीतों तथा विविध छंदों की लय तथा नवागत पीढ़ी द्वारा सामान्यत: प्रयोग की जा रही भाषा में नवगीत रचे तो डॉ. शंभुनाथ सिंह द्वारा इंगित तत्वों को अंतिम कहते हुए कतिपय रचनाकारों ने न केवल उन्हें नवगीत मानने से असहमति जताई अपितु यहाँ तक कह दिया कि नवगीत किसी की खाला का घर नहीं है जिसमें कोई भी घुस आये. इस संकीर्णतावादियों द्वारा हतोत्साहित करने के बावजूद यदि नवागत पीढ़ी नवगीत रच रही है तो उसका कारण श्री गिरिमोहन गुरु, श्री भगवत दुबे, श्री मधुकर अष्ठाना, श्री किशोर काबरा, श्री राधेश्याम बंधु, कुमार रवीन्द्र, डॉ. रामसनेही लाल यायावर, श्री ब्रजेश श्रीवास्तव जैसे परिवर्तनप्रेमी नवगीतकारों का प्रोत्साहन है.
'मुझे नर्मदा कहो' (५१ नवगीतों का संकलन) पर समीक्षात्मक आलेख लेखकों में सर्व श्री / श्रीमती डॉ. राधेश्याम 'बन्धु', डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, डॉ. विनोद निगम, डॉ. किशोर काबरा, डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय, डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. सूर्यप्रकाश शुक्ल, डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी, विजयलक्ष्मी 'विभा', मोहन भारतीय, छबील कुमार मैहर, महेंद्र नेह, डॉ. हर्षनारायण 'नीरव', गोपीनाथ कालभोर, अशोक गीते, डॉ. मधुबाला, डॉ. जगदीश व्योम, डॉ. कुमार रविन्द्र, डॉ. गिरिजाशंकर शर्मा, डॉ. शरद नारायण खरे, कृष्णस्वरूप शर्मा, डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र, डॉ. विजयमहादेव गाडे, भगवती प्रसाद द्विवेदी, जगदीश श्रीवास्तव, सरिता सुराणा जैन, श्रीकृष्ण शर्मा, राजेंद्र सिंह गहलोत, डॉ. दिवाकर दिनेश गौड़, नर्मदा प्रसाद मालवीय, डॉ. नीलम मेहतो, डॉ. उमेश चमोला, डॉ. रानी कमलेश अग्रवाल, प्रो. भगवानदास जैन, डॉ. हरेराम पाठक 'शब्दर्षि', रामस्वरूप मूंदड़ा, यतीन्द्रनाथ 'राही', डॉ. अमरनाथ 'अमर', डॉ. ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', डॉ. तिलक सिंह, डॉ. जयनाथ मणि त्रिपाठी, मधुकर गौड़, डॉ. मुचकुंद शर्मा, समीर श्रीवास्तव जैसे सुपरिचित हस्ताक्षर हैं.
डॉ. नामवर सिंह के अनुसार 'नवगीत ने जनभावना और जनसंवादधर्मिता को अपनी अंतर्वस्तु के रूप में स्वीकार किया है, इसलिए वह जनसंवाद धर्मिता की कसौटी पर खरा उतर सका है.' यह खारापन गुरु जी के नवगीतों में राधेश्याम 'बन्धु' जी ने देखा है. डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय ने गुरु जी के मंगीतों में जीवन की विडंबनाओं को देखा है:
सभा थाल ने लिया हमेशा / मुझे जली रोटी सा
शतरंजी जीवन का अभिनय / पिटी हुई गोटी सा
सदा रहा लहरों के दृग में / हो न सका तट का
गुरु जी समसामयिकता के फलक पर युगीन ज्वलंत सामाजिक-राजनैतिक विषमताओं, विसंगतियों एवं विडम्बनाओं का यथार्थवादी अंकन करने में समर्थ हैं-
सूरज की आँखों में अन्धकार छाया है
बुरा वक्त आया है
सिर्फ भरे जेब रहे प्रजातंत्र भोग
बाकी मँहगाई के मारे हैं लोग
सड़कों को छोड़ देश पटरी पर आया है.
डॉ. किशोर काबरा गुरु जी के नवगीतों में ग्रामीण परिवेश एवं आंचलिक संस्पर्श दोनों की उपस्थिति पूर्ण वैभव सहित पाते हैं-
ढोल की धुन / पाँव की थिरकन / मंजीरे मौन / चुप रहने लगा चौपाल / टेलीविजन पर / देखता / भोपाल
.
डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी इन नवगीतों में सामाजिक विसंगतियों का प्रभावी चित्रण पाती हैं-
बाहर है नकली बहार / भीतर है खालीपन
निर्धनता की भेंट चढ़ गया / बेटी का यौवन
तेल कहाँ उपलब्ध / सब्जी पानी से छौंक रहे
विजयलक्ष्मी 'विभा' को गुरु जी के नवगीतों में अफसरशाही पर प्रहार संवेदनशील मानव के लिए एक चुनौती के रूप में दीखता है-
आओ! प्रकाश पियें / अन्धकार उगलें / साथ-साथ चलें
कुर्सी के पैर बनें / भार वहन करें
अफसर के जूतों की / कील सहन करें
तमतमाये चेहरों को झुकें / विजन झलें
लेखकों ने नीर-क्षीर विवेकपूर्ण दृष्टि से गुरु जी के नवगीतों के विविध पक्षों का आकलन किया है. नवगीत के विविध तत्वों, उद्भव, विकास, प्रभाव, समीक्षा के तत्वों आदि का सोदाहरण उल्लेख कर विद्वान लेखनों और संपादक ने इस कृति को नवगीत लेखन में प्रवेशार्थियों और शोधछात्रों के लिए सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह उपयोगी बना दिया है.
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