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सोमवार, 5 जुलाई 2021

समुच्चय और आक्षेप अलंकार, घनाक्षरी छंद

रचना - प्रति रचना:
समुच्चय और आक्षेप अलंकार
घनाक्षरी छंद
*
गुरु सक्सेना नरसिंहपुर मध्य प्रदेश
*
दुर्गा गणेश ब्रह्मा विष्णु महेश
पांच देव मेरे भाग्य के सितारे चमकाइये
पांचों का भी जोर भाग्य चमकाने कम पड़े
रामकृष्ण जी को इस कार्य में लगाइए।
रामकृष्ण जी के बाद भाग्य ना चमक सके
लगे हाथ हनुमान जी को आजमाइए।
सभी मिलकर एक साथ मुझे कॉलोनी में
तीस बाई साठ का प्लाट दिलवाइए।
*
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
देव! कवि 'गुरु' प्लाट माँगते हैं आपसे
गुरु गुड, चेले को शुगर आप मानिए.
प्लाट ऐसा दे दें धाँसू कवितायें हो सकें,
चेले को भूखंड दे भवन एक तानिए.
प्रार्थना है आपसे कि खाली मन-मंदिर है,,
सिया-उमा-भोले जी के संग आ विराजिए.
सियासत हो रही अवध में न आप रुकें,
नर्मदा किनारे 'सलिल' सँग पंजीरी फांकिये.
***

'सलिल' --एक अजीम शख्सियत प्रोफेसर अनिल जैन

संजीव वर्मा 'सलिल' --एक अजीम शख्सियत
प्रोफेसर अनिल जैन
*
यूँ तो होश संभालते ही मेरा मिज़ाज अदबी था । मैंने उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी ज़ुबान के कई रिसाले पढ़ डाले थे । गाहे बगाहे क़लम भी चला लिया करता था
इसी शौक से मुब्तिला होकर कुछेक अंग्रेजी ग़ज़लें लिख डाली । बहुत समय तक तो ना मैंने खुद ने ना ही किसी और ने इन गजलों कोई तरजीह नहीं दी क्योंकि पेशतर तो मेरे क़स्बाई नुमा शहर में अंग्रेजी के जानकार न के बराबर थे दूसरा मैं खुद काफी झिझक महसूस कर रहा था कि पता नहीं लोग इस बारे में क्या सोचेंगे ।
इत्तफाकन मुझे आदरणीय संजीव वर्मा सलिल जी के बारे में पता चला । यहाँ यह भी बताते चलूं कि सलिल जी की प्राध्यापक पत्नी डॉ साधना वर्मा उन दिनों मेरी कलीग हुआ करती थीं । उनसे पता चला कि सलिल का मिज़ाज भी शायराना है ।
सलिल जी से पहली मुलाकात के अनुभव को लफ़्ज़ों में बयान करना बहुत ही मुश्किल काम है । बस इतना ही कहूँगा वे पल जीवन के चंद हमेशा याद रखे जाने वाले पल हैं । उनका गंभीर चेहरा, उनका अंदाज़े बयां, ज़ुबानों पर उनकी धाक औऱ सबसे बड़ी बात उनका हौसला अफजाई का जो शऊर मैंने देखा उस पर केवल रश्क़ किया जा सकता है ।
उन्होंने मेरी गज़लों को पढ़ा, दाद दी, और भरोसा दिया कि वे उन्हे साया करवाएंगे । औऱ ऐसा उन्होंने किया भी । इस तरह मेरी ग़ज़लें जिनका उन्वान 'ऑफ एंड ऑन' है अपने अंजाम तक पहुँची । मेरा सफ़र पूरा हुआ लेकिन सलिल जी यहीं नहीं रुके । ये उनका मेरे लिए स्नेह ही था कि वे मेरी किताब हर एक अदबी जलसों में लेकर जाते औऱ कोशिश करते कि मैं और भी बुलंदियों को छू सकूँ ।
इसी सिलसिले में उन्होंने मेरी किताब केरल के हिंदी के जाने माने एक प्रोफेसर डॉ बाबू जोसेफ को भेंट की और गज़लों की तफसील डॉ जोसेफ को बयां की । मैंने लिखा कम था लेकिन सलिल जी ने जो तफसील बताई उससे डॉ जोसेफ बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मेरे दीवान का तर्जुमा हिंदी ज़ुबान में कर डाला जिसे हिंदी में 'यदा कदा' शीर्षक से प्रकाशित किया गया । इस तरह मेरी टोपी में एक पंख और जुड़ गया ।
इसके बाद रोज़मर्रा की ज़रुरतों में मशरूफ होने के कारण सलिल जी से मुलाकातों का दौर काफ़ी कम हो गया फिर भी फोन पर अक्सर मैं सलाह मशविरा किया करता था । हर मसले पर उनका नज़रिया बहुत साफ था और यही साफगोई उनके हर मशविरे का मज़मून हुआ करती थी ।
वक़्त अपनी रफ्तार से चलता रहा । छुटपुट लेखन भी चलता रहा । और वक्त जैसे फिर उसी मोड़ पर आकर खड़ा हो गया । हुआ यूं कि छोटी छोटी तहरीरों के सफे दर सफे जमा होकर एक किताब की शक्ल अख्तियार करने लगे और साया होने को मचल उठे ।
फिर वही सलिल जी से मुलाकातों का दौर शुरू हुआ । जिस्मानी तौर पर तो उनमें कोई फर्क नज़र नहीं आया लेकिन वैचारिक स्तर वे पूरी तरह से लबरेज़ थे । सलिल जी ने फिर मुझे इनकरेज किया कि मेरी पोयम्स में काफ़ी कुछ है जिसे लोग पसंद करेंगें ।उन्होंने ने यह भी बताया कि आज के दौर में किस तरह के नये नये प्रयोग किये जा रहे हैं । सलिल जी ने खुद ही मेरी अंग्रेजी पोयम्स जिसका टाइटल 'द सेकंड थॉट' है का प्रीफेस लिखा, कवर पेज डिजाइन करवाया और पब्लिश भी करवाई । यहां तक कि किताब का विमोचन भी उन्हीं ने करवाया ।
इस सब के लिए केवल शुक्रगुजार होना कहना मुनासिब नहीं होगा पर यह सच है कि यही सारी बातें किसी इंसान को उन बुलंदियों तक ले जाती हैं जिस बुलंदी पर आज इंजीनियर संजीव वर्मा'सलिल' कायम हैं । वे वास्तव में इसके हकदार हैं ।
[बी 47, वैशाली नगर, दमोह 9630631158 aniljaindamoh@gmail.com]

गुरुवंदन


गुरुवंदन
गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरुवार.
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार..
*
विधि-हरि-हर, परब्रम्ह भी, गुरु-सम्मुख लघुकाय.
अगम अमित है गुरु कृपा, अन्य नहीं पर्याय..
*
गुरु है गंगा ज्ञान की, करे पाप का नाश.
ब्रम्हा-विष्णु-महेश सम, काटे भव का पाश..
*
गुरु भास्कर अज्ञान तम, ज्ञान सुमंगल भोर.
शिष्य पखेरू कर्म कर, गहे सफलता कोर..
*
गुरु-चरणों में बैठकर, गुर जीवन के जान.
ज्ञान गहे एकाग्र मन, चंचल चित अज्ञान..
*
गुरुता जिसमें वही गुरु, शत-शत नम्र प्रणाम.
कंकर से शंकर गढ़े, कर्म करे निष्काम..
*
गुरु पल में ले शिष्य के, गुण-अवगुण पहचान.
दोष मिटाकर बना दे, आदम से इंसान..
*
गुरु-चरणों में स्वर्ग है, गुरु-सेवा में मुक्ति.
भव सागर-उद्धार की, गुरु-पूजन ही युक्ति..
*
माटी शिष्य कुम्हार गुरु, करे न कुछ संकोच.
कूटे-साने रात-दिन, तब पैदा हो लोच..
*
कथनी-करनी एक हो, गुरु उसको ही मान.
चिन्तन चरखा पठन रुई, सूत आचरण जान..
*
शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक.
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक..
*
गुरु तो गिरिवर उच्च हो, शिष्य 'सलिल' सम दीन.
गुरु-पद-रज बिन विकल हो, जैसे जल बिन मीन..
*
ज्ञान-ज्योति गुरु दीप ही, तम का करे विनाश.
लगन-परिश्रम दीप-घृत, श्रृद्धा प्रखर प्रकाश..
*
गुरु दुनिया में कम मिलें, मिलते गुरु-घंटाल.
पाठ पढ़ाकर त्याग का, स्वयं उड़ाते माल..
*
गुरु-गरिमा-गायन करे, पाप-ताप का नाश.
गुरु-अनुकम्पा काटती, महाकाल का पाश..
*
विश्वामित्र-वशिष्ठ बिन, शिष्य न होता राम.
गुरु गुण दे, अवगुण हरे, अनथक आठों याम..
*
गुरु खुद गुड़ रह शिष्य को, शक्कर सदृश निखार.
माटी से मूरत गढ़े, पूजे सब संसार..
*
गुरु की महिमा है अगम, गाकर तरता शिष्य.
गुरु कल का अनुमान कर, गढ़ता आज भविष्य..
*
मुँह देखी कहता नहीं, गुरु बतलाता दोष.
कमियाँ दूर किये बिना, गुरु न करे संतोष..
*
शिष्य बिना गुरु अधूरा, गुरु बिन शिष्य अपूर्ण.
सिन्धु-बिंदु, रवि-किरण सम, गुरु गिरि चेला चूर्ण..
*
गुरु अनुकम्पा नर्मदा, रुके न नेह-निनाद.
अविचल श्रृद्धा रहे तो, भंग न हो संवाद..
*
गुरु की जय-जयकार कर, रसना होती धन्य.
गुरु पग-रज पाकर तरें, कामी क्रोधी वन्य..
*
गुरुवर जिस पर सदय हों, उसके जागें भाग्य.
लोभ-मोह से मुक्ति पा, शिष्य वरे वैराग्य..
*
गुरु को पारस जानिए, करे लौह को स्वर्ण.
शिष्य और गुरु जगत में, केवल दो ही वर्ण..
*
संस्कार की सान पर, गुरु धरता है धार.
नीर-क्षीर सम शिष्य के, कर आचार-विचार..
*
माटी से मूरत गढ़े, सद्गुरु फूंके प्राण.
कर अपूर्ण को पूर्ण गुरु, भव से देता त्राण..
*
गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहें न दूर.
गुरु बिन 'सलिल' मनुष्य है, आँखें रहते सूर.
*
टीचर-प्रीचर गुरु नहीं, ना मास्टर-उस्ताद.
गुरु-पूजा ही प्रथम कर, प्रभु की पूजा बाद..
५-६-२०२०
********

हाइकु सलिला

हाइकु सलिला:
*
रेशमी बूटी
घास चादर पर
वीर बहूटी
*
मेंहदी रची
घास हथेली पर
मखमली सी.
*
घास दुलहन
माथे पर बिंदिया
बीरबहूटी
*
हाइकु पर
लगा है जी एस टी
कविता पर.
*
कहें नाकाफी
लगाए नए कर
पूछें: 'है कोफी?'
*
भाजपाई हैं
बड़े जुमलेबाज
तमाशाई हैं.
*
जीत न हार
दोनों की जय-जय
हुआ है निर्णय ..
*
कजरी नहीं
स्वच्छ करो दीवाल
केजरीवाल.
*
५-७-२०१८ 

छंद की आधार भूमि काव्य

छंद की आधार भूमि काव्य
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
छंद:
छंद की आत्मा ध्वनि और काया काव्य है। काव्य के बिना छंद की प्रतीति दुष्कर और छंद के बिना काव्य का लालित्य / चारुत्व नहीं होता। काव्य के विविध तत्व ही छंद की जड़ें ज़माने के लिए भूमि और छंद की फसल उगने के लिए उर्वरक का कार्य करते हैं। छंद-चर्चा के पूर्व काव्य और छंद के अंतर्संबंध तह काव्य के गुण-दोषों पर दृष्टिपात करना उचित होगा।
मात्रा, वर्ण, विराम/यति, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं। छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली व हृदयग्राही होती है। छंद के २ मुख्य प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है) तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं। छंद को लौकिक-वैदिक, हिंदी-अहिंदी, भारतीय-विदेशी, वाचिक आदि वर्गीकरण भी हैं। छंद के असंख्य उपप्रकार हैं जो ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं। वाचस्पतय संस्कृत शब्दकोष के अनुसार 'छदि' में 'इयसुन' प्रत्यय लगने से प्राप्त 'छन्दस' का अर्थ आच्छादित करनेवाला होता है। 'छंदोबद्ध पदं पद्यं' अर्थात छंदबद्ध पंक्ति ही अद्य है। छंद शिव से क्रमश: विष्णु, इंद्र, ब्रहस्पति, मांडव्य, सैतव, यास्क आदि के माध्यम से पिंगल को प्राप्त होना बताया गया है।
वेद को सकल विद्याओं का मूल माना गया है। वेद के ६ अंगों १. छंद, २. कल्प, ३. ज्योतिऽष , ४. निरुक्त, ५. शिक्षा तथा ६. व्याकरण में छंद का प्रमुख स्थान है।
छंदः पादौतु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते।
ज्योतिऽषामयनं नेत्रं निरुक्तं श्रोत्र मुच्यते।।
शिक्षा घ्राणंतुवेदस्य मुखंव्याकरणंस्मृतं।
तस्मात् सांगमधीत्यैव ब्रम्हलोके महीतले।।
वेद का चरण होने के कारण छंद पूज्य है। पग/चरण के बिना मनुष्य कहीं जा नहीं जा सकता, कुछ जान या देख नहीं सकता। चरण /पद के बिना काव्य व छंद को नहीं जाना जा सकता और छंद को जाने बिना वेद में गति नहीं हो सकती। इसलिए छंदशास्त्र का ज्ञान न होने पर मनुष्य पंगुवत है, वह न तो काव्य की यथार्थ गति समझ सकता है न ही शुद्ध रीति से काव्य रच सकता है। छंदशास्त्र को उसके आदिप्रणेता महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल तथा पर्यायवाची शब्दों सर्प, फणि, अहि, भुजंग आदि नामों से संबोधित कर शेषावतार कहा गया है। जटिल से जटिल विषय छंदबद्ध होने पर सहजता से कंठस्थ ही नहीं हो जाता, आनंद भी देता है। सर्प की फुंफकार में ध्वनि का आरोह-अवरोह, गति-यति की नियमितता और छंद में इन लक्षणों की व्याप्ति भी छंद को सर्प व पर्यायवाचियों से संबोधन का कारण है।
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।
अर्थात संसार में नर तन दुर्लभ है, विद्या अधिक दुर्लभ, काव्य रचना और अधिक दुर्लभ तथा सुकाव्य-सृजन की शक्ति दुर्लभतम है। काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।
काव्यशास्त्रेण विनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसने नच मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।
भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित होता है। प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम होने के कारण काव्य-सृजन केवल कवित्व शक्ति संपन्न प्रतिभावान महानुभावों द्वारा किया जाता था जो श्रवण परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर अपने सृजन में यथावत अभिव्यक्त कर पाते थे। श्रवण, स्मरण व सृजन के अंतराल में स्मृति भ्रम के कारण विधान उल्लंघन होना स्वाभाविक है। वर्तमान काल में शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने, भाषा व काव्यशास्त्र से आजीविका न मिलने तथा इन क्षेत्र में विशेष योग्यता अथवा अवदान होने पर भी राज्याश्रय या अलंकरण न होने के कारण सामान्यतः अध्ययनकाल में इनकी उपेक्षा की जाती है तथा कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण-पिंगल समझे बिना छंदहीन व दोषपूर्ण काव्य रचनाकर कवि आत्मतुष्टि पाल लेते हैं जिसका दुष्परिणाम आमजनों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में दृष्टव्य है। काव्य के तत्वों रस, छंद, अलंकार आदि से संबंधित सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित संस्कृत व अन्य भाषा/बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के वर्तमान रूप तक सीमित जन पूरी तरह समझ नहीं पाते । प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलन ने हिंदी की समझ और घटाई है। छंद रचना के भाषा आधार भूमि का कार्य करती है।
भाषा:
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या/तथा ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप।।
भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम अपने अनुभूतियाँ, भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों की अनुभूतियाँ, भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द ।।
लिपि: विविध ध्वनियों को लेखन सामग्री के माध्यम से किसी पटल पर विशिष्ट संकेतों द्वारा अंकित कर पढ़ा जा सकता है। इन संकेतों को लिपि कहते हैं। लिपि ध्वनि का अंकित रूप है। हिंदी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है।
व्याकरण (ग्रामर):
व्याकरण: (वि+आ+करण) का अर्थ भली-भाँति समझना है। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि, शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।
वर्ण /अक्षर: ध्वनि का लघुतम उच्चारित रूप वर्ण है। वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
स्वर (वोवेल्स):
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता, वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।
व्यंजन (कांसोनेंट्स):
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।
शब्द: अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है।
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
१. अर्थ की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. सार्थक शब्द : जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि एवं
आ. निरर्थक शब्द : जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि ।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. रूढ़ / स्वतंत्र शब्द: यथा भारत, युवा, आया आदि।
आ. यौगिक शब्द: दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि एवं
इ. योगरूढ़ शब्द : जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा- दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि ।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. तत्सम शब्द: तद+सम अर्थात उसके समान, मूलतः हिंदी की जननी संस्कृत के शब्द जो हिंदी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा- अंबुज, उत्कर्ष, कक्षा, अग्नि, विद्या, कवि, अनंत, अग्राज, कनिष्ठ, कृपा, क्रोध आदि।
आ. तद्भव शब्द: तत+भव अर्थात संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिंदी में प्रयोग किया जाता है यथा- निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग, अंगुष्ठिका से अंगूठी, अद्य से आज, ग्राम से गाँव, दंड से डंडा, वरयात्रा से बरात, श्यामल से सांवला, सुवरण से स्वर्ण/सोना आदि।
इ. अनुकरण वाचक शब्द: विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा- घोड़े की बोली से हिनहिनाना, बिल्ली की बोली से म्याऊँ कौव से काँव-काँव, कुत्ते से भौंकना आदि।
ई. देशज शब्द: आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिये गये शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा- खिड़की, कुल्हड़ आदि।
उ. द्रविड़ परिवार की भाषाओँ से गृहीत शब्द: तमिल के काप्पी से कोफी, शुरुट से चुरुट, तेलुगु से पिल्ला, अर्क काक, कानून, कुटिल, कुंद, कोण, चतुर, चूडा, तामरस, तूल, दंड, मयूर, माता, मीन मुकुट, लाला, शव आदि।
ऊ. विदेशी शब्द: संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिये गये शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं। यथा- फ़ारसी से कमीज़, पाजामा, देहात, शहर, सब्जी, अंगूर, हलवा, जलेबी, कुर्सी. सख्त, दावा, मरीज़, हकीम आदि लगभग ३००० शब्द। अरबी से अदालत, किताब, कलम, कागज़, शैतान मुकदमा, फैसला आदि। तुर्की से बहादुर, कैंची, बेगम, बाबा, करता, गलीचा, चाकू, गनीमत लाश, सुराग आदि। पश्तो से पठान, गुंडा, डेरा, गड़बड़, नगाड़ा, हमजोली मटरगश्ती आदि। पुर्तगाली से आलमारी, स्त्री, आया, कनस्तर, गोदाम, चाबी, गमला, तौलिया, परात, तंबाकू आदि। जापानी से हाइकु, स्नैर्यु, सायोनारा आदि। अंग्रेजी से इंजिन, मोटर, कैमरा, रेडिओ, फोन, मीटर, होस्टल, फीस, स्टेशन, कंपनी, टीम, परेड, प्रेस, अपील, टाई आदि लगभग ३००० शब्द।
४. प्रयोग के आधार पर:
अ. विकारी शब्द: वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किये जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है। यथा - लड़का, लड़के, लड़कों, लड़कपन, अच्छा, अच्छे, अच्छी, अच्छाइयाँ आदि।
आ. अविकारी शब्द: वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इन्हें अव्यय कहते हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं।
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल।
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल।।
कविता के तत्वः कविता के २ तत्व बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं।
कविता के बाह्य तत्वः
अ. लयः भाषिक ध्वनियों के उतार-चढ़ाव, शब्दों की निरंतरता व विराम आदि के योग से लय बनती है। कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके। संगीत में समय की समान गति को लय कहते हैं। लय के ३ प्रकार विलंबित, मध्य तथा द्रुत हैं। विलंबित लय अति धीमी और गंभीर होती है। मध्य लय सामान्य होती है। द्रुत लय के ३ प्रकार दुगुन, तिगुन तथा चौगुन हैं। साहित्य में लय से आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह से है। साहित्य में लय का आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह है।
ताल: संगीत में समय की माप ताल से की जाती है। ताल के हिस्सों को विभाग या 'टुकड़ा' कहा जाता है जो छोटे-बड़े हो सकते हैं। टुकड़ा के बोल भारी होने पर उसकी पहली मात्रा पर ताली और हल्के होने पर खाली होती है। ताल की पहली मात्रा को 'सम' कहते है। तबला वादन इसी स्थान से आरंभ होता है तथा गायन इसी स्थान पर समाप्त होता है।
मात्रा: काव्य में ध्वनि को उसके उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर लघु तथा दीर्घ मात्रा में विभाजित किया गया है। ध्वनि को स्वर-व्यंजन के माध्यम से व्यक्त किये जाने पर अक्षर का उच्चारण होता है। इन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा तथा दीर्घ या गुरु कहा जाता है। इनका मात्रा भार क्रमश: १ व २ होता है। संगीत में ध्वनि की उपस्थिति ताल से होती है इसलिए ताल की इकाई को मात्रा कहा जाता है। मात्रा समूह से साहित्य में छंद तथा संगीत में ताल की उत्पत्ति होती है किंतु ये एक दूसरे के पर्याय नहीं सर्वथा भिन्न है।
मात्रा गणना नियम:
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है। एकल ध्वनि जैसे चुटकी बजने में लगा समय ईकाई माना गया है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं। एक मात्रा का संकेत I, तथा २ मात्रा का संकेत S है।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- न = १, अब = १+१ = २, उधर = १+१+१ = ३, ऋषि = १+१= २, उऋण १+१+१ = ३, अनवरत = ५ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- गा = २, आम = २+१ = ३, काकी = २+२ = ४, पूर्णिमा = ५, कैकेई = २+२+२ = ६, ओजस्विनी = २+२+१+२ = ७, भोलाभाला = २+२+२+२ = ८ आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = १+१ = २, प्रिया = १+२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १+२+१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह, पूर्वाक्षर के साथ गिनें। बर्र = २+१ = ३, पर्व = २+१ = ३, बर्रैया २+२+२ = ६ आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर उच्चारण के आधार बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- तुम्हें = १+ २ = ३, कन्हैया = क+न्है+या = १+२+२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २+१ = ३. कुंभ = कुम्+भ = २+१ = ३, झं+डा = झन्+डा = झण्+डा = २+२ = ४ आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = १+१ = २आदि। हँस = १+१ =२, हंस = हं+स = २+१ = ३ आदि।
शब्द-योजनाः कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो ।
तुकः काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं। अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता। मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के २ प्रकार तुकांत व पदांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफि़या व रदीफ़ कहते हैं। हिंदी और उर्दू रचनाओं में ध्वन्याक्षरों की भिन्नता के कारण तुक भिन्नता होती है। हिंदी में 'ह' ध्वनि के लिए एक ही वर्ण है जबकि उर्दू में २ 'हे' तथा 'हमजा' पदांत में दो भिन्न वर्ण वाले शब्द नहीं होना चाहिए। इसलिए उर्दूवाले 'हे' तथा 'हमजा' वाले शब्दों की तुक गलत मानते हैं जबकि हिंदी में दोनों के लिए एक ही वर्ण 'ह' है। अत: हिंदीवाले ऐसी तुक सही मानते हैं।तुकांतता देखते समय केवल अंतिम अक्षर नहीं अपितु उसके पूर्व के अक्षर भी देखे जाते हैं।
एकाक्षरी तुकांत: एकांत-दिगंत, आभास-विश्वास, आनन - साजन, सजनी - अवनी, आदि।
दो अक्षरी तुकांत: दिनकर - हितकर, सफल - विफल, आदि।
तीन अक्षरी तुकांत: प्रभाकर - विभाकर आदि।
छंद मंजरी में सौरभ पाण्डेय जी ने तुकांत निर्वहन के ३ प्रकार बताये हैं:
उत्तम: खाइये - जाइये, नमन - गमन आदि।
मध्यम: सूचना - बूझना, सुमति - विपति आदि।
निकृष्ट: देखिये - रोइये, साजन - दीनन आदि।
अलंकारः अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है। अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष हैं। अलंकार के ३ मुख्य प्रकार शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा उभयालंकार के अनेक भेद-उपभेद हैं। अग्निपुराण तथा भोज कृत कंठाभरण के अनुसार: शब्दालंकार: जाति, गति, रीति, वृत्ति, छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, भणिति, गुम्फना, शैया, पथिति, यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र, वाकोन्यास, प्रहेलिका, गूढ़, प्रश्नोत्तर, अध्येय, श्रव्य, प्रेक्ष्य, अभिनय आदि अर्थालंकार जाति, विभावना, हेतु, अहेतु, सूक्ष्म, उत्तर, विरोध, संभव, अन्योन्य, निदर्शन, भेद, समाहित, भरन्ति, वितर्क, मीलित, स्मृति, भाव, प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्त वचन, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव आदि तथा उभयालंकार उपमा, रोपक, सामी, संशयोक्ति, अपन्हुति, समाध्ययुक्ति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुत प्रस्तुति, तुल्ययोगिता, उल्लेख, सहोक्ति, समुच्चय, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, विशेष परिष्कृति, दीपक, क्रम, पर्याय, अतिशय, श्लेष, भाविक तथा संसृष्टि हैं। विविध आचार्यों ने शताधिक अलंकार बताए हैं।
कविता के आंतरिक तत्वः
रस: राजशेखर कृत काव्य मीमांसा के अनुसार काव्य विधा शिव से ब्रम्हा, तथा ब्रम्हा से १८ अधिकरण भिन्न-भिन्न ऋषियों को प्राप्त हुए जिन्होंने इनका विकास तथा प्रसार किया "रूपक निरूपणीयं भरत, रसाधिकारिकं नन्दिकेश्वर:"। ये नंदिकेश्वर जबलपुर के समीप बरगी ने निकट के वासी थे।इनका गाँव बरगी बाढ़ के जलाशय में डूब गया तथा इनके द्वारा पूजित शिवलिंग समीपस्थ पहाडी पर शिवालय में स्थापित किया गया है। काव्य को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं । रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर आदि कहा गया है। यदि कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी तो वह सफल कविता कही जाती है। रस के ९ प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत तथा अद्भुत हैं। कुछ विद्वान वात्सल्य को दसवाँ रस मानते हैं।
अनुभूतिः गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृद्स्पर्शी होता है चूंकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है कविता हृदय को।
भावः रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं। हर रस के अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं। श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, शांत, निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता।
काव्य लक्षण: आचार्य भारत ने अपने ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र में ३६ काव्य लक्षण बताए हैं: भूषण, अक्षरसंघात, शोभा, उदाहरण, हेतु, संशय, दृष्टांत, प्राप्ति, अभिप्राय, निदर्शन, निरुक्त, सिद्धि, विशेषण, गुणानिपात, अतिशय, तुल्यतर्क, पदोच्चय, दृष्ट, उपद्रुष्ट, विचार, त्द्विपर्यय, भ्रंश, नौने, माला, दाक्षिण्य, गर्हण, अर्थापत्ति, प्रसिद्धि, पृच्छा, सारूप्य, मनोरथ, लेश, क्षोभ, गुणकीर्तन, अनुक्तसिद, प्रिय वचनं।
काव्य प्रयोजन / उद्देश्य: १. प्रीति: 'मुत प्रीति: प्रमदो हर्षो प्रमोदामोद संमदा:' - अमरकोश२/२४। यहाँ प्रीति से आशय काव्यकलाजनित आनंद से है।
आचार्य भरत इसे 'विनोद्जन्य आनंद' कहते हैं। डंडी इसका अर्थ 'काव्यास्वादन व काव्य-विहार कहते हैं। भामह 'कलात्मक उन्मेष व आनंद' को पर्यायवाची मानते हैं। कुंतक प्रीति को 'अन्त्श्चमत्कृति' का फल बताते हैं तो मम्मट 'परिनिवृत्ति' को प्रीति कहते हैं। आनंदवर्धन प्रीति को 'आनंद' कहते हैं। अभिनव गुप्त 'कलात्मक आनंद' को सर्वोच्च मानते हैं। जगन्नाथ इसे 'विनाशोपरांत अद्वैतानंद' कहते हैं। इस मनोदशा को रक्षेखर 'भावसमाधि' कहते है और आचार्य रामचंद्र शुक्ल 'भाव योग' कहते हैं। २. लोकहित: काव्य को लोकहित का माध्यम कहा गया है। राजशेखर के अनुसार काव्य का जन्म विविध कलाओं के योग से है। वामन के अनुसार 'कवि को रचना कर्म में प्रवृत्त होने के लिए विविध कलाओं का ज्ञान होना चाहिए'। भामह की ६४ कलाओं की सूची में 'काव्य लक्षण का ज्ञान' भी है। ३. यश / कीर्ति: कालिदास "मंद: कवि यशप्रार्थी' कहकर यश की कामना करते हैं। डंडी 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' शशि-रवि रहने तक यश की कामना करते हैं। भामह पृथ्वी तथा आकाश में कवि का यश रहने तक देव पद की प्राप्ति बताते हैं।
काव्य दोष: दोषों को गुणों का विपर्यय (एव एव विपर्यस्ता गुणा) कहते हुए १० दोष (गूढ़ार्थ, अर्थान्तर, अर्थविहीन, भिन्नार्थ, एकार्थ, अभिलुप्तार्थ, न्यायदपेत, विषम, विसंधि, शब्दहीन) बताये हैं। आचार्य मम्मट के अनुसार: मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः। / उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः।। अर्थात् मुख्यार्थ का अपकर्ष करनेवाला कारक दोष है और रस मुख्यार्थ है तथा उसका (रस का) आश्रय वाच्यार्थ का अपकर्षक भी दोष होता है। शब्द आदि (वर्ण और रचना) इन दोनों (रस और वाच्यार्थ) के सहायक होते हैं। अतएव यह दोष उनमें भी रहता है।
आचार्य विश्वनाथ कविराज अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण दोष का लक्षण करते हुए कहते हैं- रसापकर्षका दोषाः, अर्थात् रस का अपकर्ष करनेवाले कारक दोष कहलाते हैं।
काव्य प्रदीपकार के शब्दों में नीरस काव्य में वाक्यार्थ के चमत्कार को हानि पहुँचानेवाले कारक दोष हैं- 'नीरसे त्वविलम्बितचमत्कारिवाक्यार्थप्रतीतिविघातका एव दोषाः।' स्पष्ट है कि मुख्यार्थ शब्द, अर्थ और रस के आश्रय से ही निर्धारित होता है। इसलिए काव्य-दोषों के तीन भेद किए गए हैं- शब्ददोष, अर्थदोष और रसदोष। चूँकि शब्ददोष होने से काव्य में प्रयुक्त पद का कोई भाग दूषित होने से पद दूषित होता है, पद के दूषित होने से वाक्य दूषित होता है। अतएव, शब्ददोष के पुनः तीन भेद किए गए हैं- पद-दोष, पदांश-दोष और वाक्य-दोष। दूसरे शब्दों में जो पददोष हैं वे वाक्यदोष भी होते हैं और वाक्यदोष अलग से स्वतंत्र रूप से भी होते हैं। इसके अतिरिक्त एक समास-दोष होते हैं, पर संस्कृत भाषा की समासात्मक प्रवृत्ति होने के कारण ये दोष संस्कृत-काव्यों में ही देखने को मिलते हैं, हिंदी में बहुत कम पाया जाते हैं। अतएव जितने पददोष हैं वे समासदोष भी होते हैं। समास के कारण कुछ दोष स्वतंत्र रूप से समासदोष के अंतर्गत आते हैं। इन दोषों को दो भागों में बाँटा गया है: नित्य-दोष और अनित्य-दोष। नित्य-दोष वे दोष हैं जो सदा बने रहते हैं, उनका समर्थन अनुकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, जैसे च्युतसंस्कार आदि। अनित्य-दोष वे होते हैं जो एक परिस्थिति में दोष तो हैं, पर दूसरी परिस्थिति में उनका परिहार हो जाता है, जैसे श्रुतिकटुत्व आदि।श्रुतिकटुत्व दोष श्रृंगार वर्णन में दोष है, जबकि वीर, रौद्र आदि रस में गुण हो जाता है।
निम्नलिखित तेरह दोषों को पददोष कहा गया हैः श्रुतिकटु, च्युतसंस्कार, अप्रयुक्त, असमर्थ, निहतार्थ, अनुचितार्थ, निरर्थक, अवाचक, अश्लील, संदिग्ध, अप्रतीतत्व, ग्राम्य और न्यायार्थ।
इसके अतिरिक्त तीन दोष- क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकारिता केवल समासगत दोष होते हैं। काव्यप्रकाश में इन्हें दो कारिकाओं में दिया गया है-
दुष्टं पदं श्रुतिकटु च्युतसंस्कृत्यप्रयुक्तमसमर्थम्।
निहतार्थमनुचितार्थं निरर्थकमवाचकमं त्रिधाSश्लीलम्।।
सन्दिग्धमप्रतीतं ग्राम्यं नेयार्थमथ भवेत् क्लिष्टम्।
अविमृष्टविधेयांशं विरुद्थमतिकृत समासगतमेव।।
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के मुख्य अर्थ (रस) के विधात (बाधक) तत्व ही दोष हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद ने साहित्यदर्पण में "रसापकर्षका दोष:" कहकर रस का अपकर्ष करने वालो तत्वों को दोष बताया है।
काव्य दोषों का विभाजन: काव्यप्रकाश में ७० दोष बताए गये हैं जिन्हें चार वर्गो में विभाजित किया गया है:-
१-शब्ददोष। २- वाक्य दोष। ३- अर्थ दोष। ४- रस दोष।
हिंदी में रीति-काव्य का आधार संस्कृत के लक्षण-ग्रंथ हैं। संस्कृत में कवि और आचार्य, दो अलग-अलग व्यक्ति होते थे, किंतु हिंदी में यह भेद मिट गया। प्रत्येक कवि आचार्य बनने की कोशिश करने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे सफल आचार्य तो बन नहीं पाए, उनके कवित्व पर भी कहीं-कहीं दाग लग गए। इन रीति-ग्रंथकारों में मौलिकता का सर्वथा अभाव रहा। परिणामस्वरूप उनका शास्त्रीय विवेचन सुचारू रूप से नहीं हो सका। काव्यांगों का विवेचन करते हुए हिंदी के आचार्यों ने काव्य के सब अंगों का समान विवेचन नहीं किया । शब्द-शक्ति की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। रस में भी केवल श्रृंगार को ही प्रधानता दी गई। लक्षण पद्य में देने की परंपरा के कारण इन कवियों के लक्षण अस्पष्ट और कहीं-कहीं अपूर्ण रह गए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निष्कर्ष द्रष्टव्य है - "हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले सैकड़ों कवि हुए हैं, वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे।" लक्षण ग्रंथों की दृष्टि से कुछ त्रुटियाँ होते हुए भी इन ग्रंथों का कवित्व की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। अलंकारों अथवा रसों के उदाहरण के लिए जो पद्य उपस्थित किए गए हैं, वे अत्यंत सरस और रोचक हैं। श्रृंगार रस के जितने उदाहरण अकेले रीतिकाल में लिखे गए हैं, उतने सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में भी उपलब्ध नहीं होते। इनकी कविता में भावों की कोमलता, कल्पना की उड़ान और भाषा की मधुरता का सुंदर समन्वय हुआ है।
काव्य गुण: ध्वनिखंडों के संवेदनात्मक आवेग की आनुभूतिक प्रतीति (सेंसरी आस्पेक्ट ऑफ़ सिलेबल्स) ही काव्य गुण का आरंभ है। काव्य गुण की परिकल्पना काव्य में अभिव्यक्त विविध मन: स्थितियों का बोध करने हेतु ही है। आचार्य भरत के अनुसार १० काव्य गुण श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कांति तथा समाधि हैं। भामह तथा आनंदवर्धन ओज (श्लेष, उदारता, प्रसाद, समाधि), प्रसाद (कांति, सुकुमारता) तथा माधुर्य ३ काव्यगुण बताते हैं। वामन १० शब्द गुण व १० अर्थ गुण मानते हैं तो अग्निपुराणकार गुण के ३ भेद शब्द गुण (श्लेष, लालित्य, गांभीर्य, सुकुमारता, उदारता, सत्य, योगिकी), अर्थ गुण (माधुर्य, संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढ़ि, सामयिकत्व) व उभय गुण (प्रसाद, सौभाग्य, यथासंख्य, प्रशस्ति, पाक, राग) बताता है। जगन्नाथ अर्थ गुणों की संख्या अनंत मानते हैं।
आशा है काव्यात्मा छंद से परिचय के पूर्व छंद की देह काव्य का सामान्य परिचय उपयोगी होगा।
***
शब्दार्थ: पद = पंक्ति, पदादि पंक्ति के आरंभ में, पदांत = पंक्ति के अंत में, पद = पंक्ति समूह सूर के पद, पदादि = पंक्ति का आरंभ, पदांत = पंक्ति का अंत, गति = एक साथ पढ़े जाना, यति दो शब्दों के बीच विराम, चरण = पंक्ति/पद का अंश, श्लेष = संश्लिष्ट पद योजना, प्रसाद = असंश्लिष्ट पद योजना, समता = असमस्त पद योजना, ओज = समस्त पद योजना, माधुरी = रस सिक्त अनुद्वेजक शब्दावली, अर्थ व्यक्ति = अर्थ स्पष्ट करनेवाली शब्दावली, सुकमार्ता बोलने में सुलभ, उदारता कवियों का सुंदर कथन, कांति = शब्दार्थ रूप काव्य का सुंदर कथन, समाधि = वाक्य; अर्थ; भाव आदि का एकाकार हो जाना, गुण = मन को रस दशा तक पहुँचाने का भाषिक आधार।
संदर्भ: १. भारतीय काव्य शास्त्र -डॉ. कृष्णदेव शर्मा, २. आलोचना शास्त्र -मोहन बल्लभ पंत, ३. कव्य मनीषा -डॉ. भगीरथ मिश्र, ४. आधुनिक पाश्चात्य काव्य और समीक्षा के उपादान -डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, ५. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांत -डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, ६. पाश्चात्य काव्यशास्त्र: सिद्धांत और वाद -सं. राजकुमार कोहली, ७. भारतीय काव्य शास्त्र योगेन्द्र प्रताप सिंह, ८. अग्नि पुराण गीताप्रेस गोरखपुर।
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दोहा मुक्तक सलिला

दोहा मुक्तक सलिला:
अमरनाथ
*
अमरनाथ! रहिए सदय, करिए दैव निहाल।
करूँ विनय संकट हरें, प्रभु! तव ह्रदय विशाल।।
अमरनाथ की कृपा से, विजय-तिलक वर भाल।
करतल में करताल ले, भजन करे हर हाल।।
*
अमर नाथ; सेवक नहीं, पल में हो निर्जीव।
प्रभु संप्राणित करें तो, शव भी हो संजीव।।
भोले पल में तुष्ट हो, बनते करुणासींव।
रुष्ट हुए तो खैरियत, मन न सकता जीव।।
*
अमर नाथ जिसके न वह, रहे कभी भयभीत।
शब्द-सुमन अर्पित करे, अक्षर-अक्षर प्रीत।।
भाव-सलिल साथी बने, नव रस का हो मीत।
समर सत्य-हित कर सदा, निश्चय मिलना जीत।।
*
अमरनाथ-जयकार कर, शंका का हो अंत।
कंकर शंकर-दास हो, कोशिश कर-कर कंत।।
आनंदित हैं भू-गगन, नर्तित दिशा-दिगंत।
शून्य-सांत हैं जो वही, हैं सर्वस्व अनंत।।
*
अमर नाथ बसते वहीं, जहाँ 'सलिल' की धार।
यह पद-प्रक्षालन करे, वे रखते सिर-धार।।
गरल-अमिय सम भाव से, ईश करें स्वीकार।
निराकार हैं जो वही, हैं कण-कण साकार।।
*
अमरनाथ ही आस हो, शकुंतला सी श्वास।
प्रगति-योजना हर सके, जीवन का संत्रास।।
मन-दीपक जलता रहे, ले अधरों पर हास।
स्वेद खिले साफल्य का, सुमन बिखेर सुवास।।
*
अमरनाथ जो ठान लें, तत्क्षण करते काम।
राम मिल सकें जप 'मरा', सीधी हो विधि वाम।।
सुर-नर-असुरों से पूजें, करते काम तमाम।
दुराचार के नाश हित करते काम तमाम। ।
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५.७.२०१८; ७९९९५५९६१८

षट्पदी

आइये, सोचें-विचारें
- संजीव 'सलिल'
*
जिन्हें हमारी फ़िक्र, उन्हें हम रहे रुलाते.
रोये उनके लिए, न जिनके मन हम भाते..
करते उनकी फ़िक्र, न जिनको फ़िक्र हमारी-
है अजीब, पर सत्य समझ-स्वीकार न पाते..
'सलिल' समझ सच को, बदलें हम खुद को फ़ौरन.
कभी नहीं से देर भली, कहते विद्वज्जन..
५-७-२०१० 
***

रविवार, 4 जुलाई 2021

परिचय २०२१ संजीव वर्मा 'सलिल'

परिचय : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'।
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपिअर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश। ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८।
जन्म: २०-८-१९५२, मंडला मध्य प्रदेश।
माता-पिता: स्व. शांति देवी - स्व. राज बहादुर वर्मा।
प्रेरणास्रोत: बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा।
शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम. आई. ई., विशारद, एम. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.।
संप्रति: पूर्व कार्यपालन यंत्री / पूर्व संभागीय परियोजना यंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र., अधिवक्ता म. प्र. उच्च न्यायालय, सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर - अभियान जबलपुर, संचालक समन्वय प्रेक्षण संस्थान, पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष / महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, संरक्षक राजकुमारी बाई बाल निकेतन जबलपुर, पर्यवेक्षक राजीव गाँधी प्रौद्यौगिकी विश्वविद्यालय भोपाल, चेयरमैन इंडियन जिओलॉजिकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर, अध्यक्ष इंजीनियर्स फोरम जबलपुर।
विशेष उपलब्धि: 
- ५०० से अधिक नए छंदों की रचना।
- हिंदी, अंग्रेजी, बुंदेली, मालवी, निमाड़ी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, अवधी, बृज, राजस्थानी, सरायकी, नेपाली आदि में काव्य रचना।
- इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी में तकनीकी लेख 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ को द्वितीय श्रेष्ठ तकनीकी प्रपत्र पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा।
- 'हे हंस वाहिनी ज्ञानदायिनी अब विमल मति दे' सरस्वती वंदना का सभी सरस्वती शिशु मंदिरों में दैनिक प्रार्थना के रूप में असंख्य बच्चों द्वारा गायन। 
- नवगीतकार कोश, व्यंग्यकार कोष, इक्कीसवीं सदी के श्रेष्ठ व्यंग्यकार आदि में विशेष उल्लेख। 
प्रकाशित कृतियाँ: १. कलम के देव (भक्ति गीत संग्रह १९९७), २. भूकंप के साथ जीना सीखें (जनोपयोगी तकनीकी १९९७), ३. लोकतंत्र का मक़बरा (कविताएँ २००१) विमोचन शायरे आज़म कृष्णबिहारी 'नूर', ४. मीत मेरे (कविताएँ २००२) विमोचन आचार्य विष्णुकांत शास्त्री तत्कालीन राज्यपाल उत्तर प्रदेश, ५. काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, २०१६, हरिशंकर श्रीवास्तव पुरस्कार २५०० रु. नगद से पुरस्कृत, विमोचन प्रवीण सक्सेना, लोकार्पण ज़हीर कुरैशी-योगराज प्रभाकर, ६. कुरुक्षेत्र गाथा प्रबंध काव्य २०१६ विमोचन रामकृष्ण कुसुमारिया मंत्री म. प्र. शासन, ७. सड़क पर, गीत-नवगीत संग्रह, अभिव्यक्ति विश्वम पुरस्कार १२,००० रु. नगद से पुरस्कृत, विमोचन पूर्णिमा बर्मन-प्रवीण सक्सेना, ८.ओ मेरी तुम,  गीत-नवगीत संग्रह, विमोचन डॉ. विनोद निगम-डॉ. साधना वर्मा।
संपादन: (क) कृतियाँ: १. निर्माण के नूपुर (अभियंता कवियों का संकलन १९८३),२. नींव के पत्थर (अभियंता कवियों का संकलन १९८५), ३. राम नाम सुखदाई १९९९ तथा २००९, ४. तिनका-तिनका नीड़ २०००, ५. सौरभः (संस्कृत श्लोकों का दोहानुवाद) २००३, ६. ऑफ़ एंड ओन (अंग्रेजी ग़ज़ल संग्रह) २००१, ७. यदा-कदा (ऑफ़ एंड ओन का हिंदी काव्यानुवाद) २००४, ८. द्वार खड़े इतिहास के २००६, ९. समयजयी साहित्यशिल्पी प्रो. भागवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' (विवेचना) २००६, १०-११. काव्य मंदाकिनी २००८ व २०१०, १२. दोहा सलिला निर्मला, २०१८, दोहा संग्रह, १३. दोहा सलिला निर्मला, २०१८, दोहा संग्रह,१४. दोहा दीप्त दिनेश, २०१८, दोहा संग्रह, १५. काव्य कालिन्दी, काव्य संग्रह डॉ. संतोष शुक्ला, १६. खुशियों की सौगात, दोहा सतसई डॉ. संतोष शुक्ला।
(ख) स्मारिकाएँ: १. शिल्पांजलि १९८३, २. लेखनी १९८४, ३. इंजीनियर्स टाइम्स १९८४, ४. शिल्पा १९८६, ५. लेखनी-२ १९८९, ६. संकल्प १९९४,७. दिव्याशीष १९९६, ८. शाकाहार की खोज १९९९, ९. वास्तुदीप २००२ (विमोचन स्व. कुप. सी. सुदर्शन सरसंघ चालक तथा भाई महावीर राज्यपाल मध्य प्रदेश), १०. इंडियन जिओलॉजिकल सोसाइटी सम्मेलन २००४, ११. दूरभाषिका लोक निर्माण विभाग २००६, (विमोचन श्री नागेन्द्र सिंह तत्कालीन मंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.) १२. निर्माण दूरभाषिका २००७, १३. विनायक दर्शन २००७, १४. मार्ग (IGS) २००९, १५. भवनांजलि (२०१३), १७. आरोहण रोटरी क्लब २०१२, १७. अभियंता बंधु (IEI) २०१३।
(ग) पत्रिकाएँ: १. चित्राशीष १९८० से १९९४, २. एम.पी. सबॉर्डिनेट इंजीनियर्स मंथली जर्नल १९८२ - १९८७, ३. यांत्रिकी समय १९८९-१९९०, ४. इंजीनियर्स टाइम्स १९९६-१९९८, ५. एफोड मंथली जर्नल १९८८-९०, ६. नर्मदा साहित्यिक पत्रिका २००२-२००४, ७. शब्द समिधा २०१९, ८-१० सृजन साधना- डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे अंक २०२०, डॉ. इला घोष अंक २०२१, भारत विशेषांक२०२१।
(घ). भूमिका लेखन: ८० पुस्तकें।
(च). तकनीकी लेख: १५।
(छ). पुस्तक समीक्षा: ३५० से अधिक।
अप्रकाशित कार्य-
मौलिक कृतियाँ:
जंगल में जनतंत्र, कुत्ते बेहतर हैं ( लघुकथाएँ), आँख के तारे (बाल गीत), दर्पण मत तोड़ो (गीत), आशा पर आकाश (मुक्तक), पुष्पा जीवन बाग़ (हाइकु), काव्य किरण (कवितायें), जनक सुषमा (जनक छंद), मौसम ख़राब है (गीतिका), गले मिले दोहा-यमक (दोहा), दोहा-दोहा श्लेष (दोहा), मूं मत मोड़ो (बुंदेली), जनवाणी हिंदी नमन (खड़ी बोली, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, सिरायकी रचनाएँ), छंद कोश, अलंकार कोश, मुहावरा कोश, दोहा गाथा सनातन, छंद बहर का मूल है, तकनीकी शब्दार्थ सलिला।
अनुवाद:
(अ) ७ संस्कृत-हिंदी काव्यानुवाद: नर्मदा स्तुति (५ नर्मदाष्टक, नर्मदा कवच आदि), शिव-साधना (शिव तांडव स्तोत्र, शिव महिम्न स्तोत्र, द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र आदि),रक्षक हैं श्री राम (रामरक्षा स्तोत्र), गजेन्द्र प्रणाम ( गजेन्द्र स्तोत्र), नृसिंह वंदना (नृसिंह स्तोत्र, कवच, गायत्री, आर्तनादाष्टक आदि), महालक्ष्मी स्तोत्र (श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र), विदुर नीति।
(आ) पूनम लाया दिव्य गृह (रोमानियन खंडकाव्य ल्यूसिआ फेरूल)।
(इ) सत्य सूक्त (दोहानुवाद)।
रचनायें प्रकाशित: मुक्तक मंजरी (४० मुक्तक), कन्टेम्परेरी हिंदी पोएट्री (८ रचनाएँ परिचय), ७५ गद्य-पद्य संकलन, लगभग ४०० पत्रिकाएँ। मेकलसुता पत्रिका में २ वर्ष तक लेखमाला 'दोहा गाथा सनातन' प्रकाशित, पत्रिका शिकार वार्ता में भूकंप पर आमुख कथा।
परिचय प्रकाशित ७ कोश।
अंतरजाल पर- १९९८ से सक्रिय, हिन्द युग्म पर छंद-शिक्षण २ वर्ष तक, साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचनाशास्त्र' ८० अलंकारों पर लेखमाला, शताधिक छंदों पर लेखमाला।
सम्मान- ११ राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरयाणा, दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, असम, बंगाल, झारखण्ड) की विविध संस्थाओं द्वारा २०० से अधिक सम्मान तथा अलंकरण। प्रमुख - संपादक रत्न २००३ श्रीनाथद्वारा, सरस्वती रत्न आसनसोल, विज्ञान रत्न, २० वीं शताब्दी रत्न हरयाणा, आचार्य हरयाणा, वाग्विदाम्बर उत्तर प्रदेश, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, वास्तु गौरव, मानस हंस, साहित्य गौरव, साहित्य श्री(३) , काव्य श्री, भाषा भूषण, कायस्थ कीर्तिध्वज, चित्रांश गौरव, कायस्थ भूषण, हरि ठाकुर स्मृति सम्मान, सारस्वत साहित्य सम्मान, कविगुरु रवीन्द्रनाथ सारस्वत सम्मान कोलकाता, युगपुरुष विवेकानंद पत्रकार रत्न सम्मान कोलकाता, साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान, भारत गौरव सारस्वत सम्मान, आदि व्याकरणाचार्य कामता प्रसाद गुरु वर्तिका अलंकरण, उत्कृष्टता प्रमाणपत्र, सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट, भवानी प्रसाद तिवारी स्मृति लोक साहित्य शिरोमणि अलंकरण गुंजन कला सदन जबलपुर २०१७, राजा धामदेव अलंकरण २०१७ गहमर, युग सुरभि २०१७, आदि। 
***

गीता ज्ञान

गीता ज्ञान
*
'मैं' से हो मन मुक्त यदि, 'तुम' को जाए भूल
कर कर 'हम' की  साधना, हो बगिया का फूल
हो बगिया का फूल, फूलकर कुप्पा मत हो
तितली भ्रमर पराग पा सकें, देने रत हो
संचय मोह व क्रोध, अहं पालक पातक हैं
इनसे हो जो मुक्त, न उसको व्याप सके मैं 
*

प्रेरणास्रोत सलिल जी सुजीत जी महाराज

नए लेखकों तथा कवियों के लिए प्रेरणास्रोत सलिल जी
सुजीत जी महाराज
*
संजीव वर्मा सलिल जी की रचनाएं नए लेखकों तथा कवियों के लिए प्रेरणास्रोत रही हैं।आज काव्य से छन्द लुप्त होते जा रहे हैं।सलिल जी ने इस दिशा में बहुत बड़ा कार्य किया है।यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि आप किसी विषय के बड़े विद्वान हैं ,महत्वपूर्ण तो यह है कि आपके विद्वता रूपी गंगा का जलपान किसने किसने किया।आपने किसी को कुछ सिखाया या नहीं।मैं तो मैथ्स व विज्ञान के साथ ज्योतिष तथा आध्यात्म के फील्ड में कार्य करता हूं।मेरा ये सदैव प्रयास रहता है कि मैं अपने पीछे एक बड़ी संख्या में शिष्यों को अपना सर्वस्व ज्ञान दे सकूं।अभी कुछ महीने पूर्व मैं काठमांडू में था वहां एक छात्र ने सलिल जी की रचना संसार का जिक्र किया।उसने कहा मैं उनके फेसबुक वाल से ही बहुत कुछ का कविताओं की बारीकियां सीख लेता हूं।व्यंग्य,गीत,दोहा,सोरठा,आलोचना सभी विधाओं पर इनकी पकड़ इतनी जबरजस्त है कि सलिल सर अपने आप में एक चलते फिरते हिंदी के विश्वविद्यालय हैं।आप जो समय समय पर विभिन्न जानकारियां प्रदान करते हैं वह इतनी लाभप्रद होती हैं कि उसका महत्व कोई हिंदी सीखने वाला ही बता सकता है।
आपका रचना संसार बहुत वृहद है।अनुकरणीय है।संग्रहणीय है।आप इंजीनियर रहे हैं।विज्ञान क्रमबद्ध ज्ञान की बात करता है।अनुशासन की बात करता है।धर्म के नियम भी अनुशासित हैं।कर्म के प्रति समर्पण तथा ईश्वर की शरणागति ही गीता का मूल उपदेश है।ऐसे महान साहित्यकार व संत हृदय कवि के 108 वर्ष के आयु की श्री कृष्ण से प्रार्थना करता हूं।
सुजीत जी महाराज

लेख शब्द, पर्याय और अर्थ

लेख 
शब्द, पर्याय और अर्थ
साभार सामग्री स्रोत : अर्थान्तर न्यास - डॉ. सुरेश कुमार वर्मा
*
वाक् (भाषा) :
भाषा मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक शक्तियों का संघात है। मनुष्य जन्म से परिवार की शाला में भाषा के पाठ सीखता है।सीखने की भावना मनुष्य ( वअन्य जीव-जंतुओं) के रक्त में जन्मजात वृत्ति के रूप में रहती है। वह वस्तु जगत के विविध पदार्थों का ज्ञान प्राप्त और व्यक्त करता है। भाषा ज्ञेय भी है और ज्ञान भी। शैशवावस्था में भाषा ज्ञातव्य वस्तु है और जबकि विकास की परिणत अवस्थाओं में दृश्य एवं सूक्ष्म जगत के नाना स्तरों का ग्राहक ज्ञान। वस्तु जगत की क्रमशः: वर्धित जानकारी मनुष्य के मानसिक क्षेत्र में जटिल आवर्त उत्पन्न करती है जो क्रमश: भाषा के अरण्य में जटिलता उत्पन्न करते हैं। अरण्य के विरल, सघन एवं सघनतम क्षेत्रों के समान्तर भाषा के अंतर्गत अर्थों के सरल, गूढ़ एवं रहस्यात्मक स्तर निविष्ट रहते हैं। शब्दों के सजग-सतर्क नियोजन से भाषा शुद्ध, सुचारु और सहज बनती है। सतत प्रयोग से भाषा जीवन का अविभाज्य अंग बनकर लोक जीवन, दैनंदिन व्यवहार एवं आत्म-चिंतन का आधार और अंग बन जाती है। भाषा और शब्द विशेष परिस्थिति की उपज है। वह विज्ञान विशेष परिस्थिति में ही अपनी मूल भावना को व्यक्त करता है। पर्यायवाचिता उसे किसी दूसरी परिस्थिति और प्रयोग के निकट लाकर उसकी मूल भावना को आहत कर देती है। एक पर्याय सभी परिस्थितियों में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। पर्यायवाचिता एक सीमा तक ही क्रियाशील रह सकती है। हिंदी पर्यायवाचिता को विकास के कारण हैं - विविध भाषाओं-बोलिओं की एक क्षेत्र में एक ही समय में प्रचलित होना, आरोपित अर्थ, सांस्कृतिक प्रभाव, अपस्तरीय वाक् आदि। विशेषणों की पर्यायभावना, व पर्यायपद भी अर्थपरक दृष्टि से विचारणीय है। अर्थ की विलोमस्थिति सैद्धांतिक कम व्यावहारिक अधिक है। अर्थांतर की दृष्टि से विदेशी शब्दों (जिनसे हिंदी पर्याय युग्मों की रचना हुई) का अनुशीलन महत्वपूर्ण है। भाषा और संस्कृति में अनिवार्य समाश्रयता है। भाषा संस्कृति की पोषिका और उसके विकास की संवाहिनी है। यह संवहन अर्थ के माध्यम से होता है।
अर्थ
ध्वनि के सामान की भी परिवर्तन शील सत्ता है। ध्वनिशास्त्र के कठोर परीक्षण में किसी ध्वनि का यथावत (हू-ब-हू ) उच्चारण कठिन माना गया है। अभिव्यक्ति की भी यही स्थिति है। प्रत्येक प्रेषण में वक्त अर्थ को उसी आयाम और इयत्ता से व्यक्त कर रहा है, कहना कठिन है। अर्थ मन और बुद्धि की जटिल सारणियों से प्रवाहित होता है, उसे प्रवाहित करनेवाली बाह्य एवं आंतरिक शक्तियाँ असंख्य हैं। व्यक्ति के आशय को नाना प्रकार के ध्वनि संयोजनों में रूपायित होना पड़ता है। इससे अर्थ के विचलन की संभावना बढ़ जाती है। यह विचलित अर्थ फिर-फिर प्रयोगों से नवीन अर्थ के रूप में प्रतिष्ठित और लोकमान्य हो जाता है। अर्थ का इतिहास अर्थ परिवर्तन का इतिहास है। अर्थान्तर वाक् की मूलभूत संवेदनाओं में से एक है।
अर्थ वाक् का आरंभ भी है और अंत भी। वक्ता अपने आशय को व्यक्त करने के लिए धवनियों का संयोजन करता है और उसकी प्राप्ति के पश्चात् उसका लोप। अर्थ पद और वाक्य की केंद्रीय सत्ता है। अर्थ एक अभौतिक स्थिति है। उसकी प्रक्रिया जटिल और सूक्ष्म है। उसकी प्रवृत्तियों और परिस्थितियों के अध्ययन और मानकीकरण का प्रयास ध्वनिशास्त्र, ध्वनिग्रामशास्त्र, रूपग्रामशास्त्र आदि की तरह प्रचलित और प्रसिद्ध नहीं हो सका। हिंदी अर्थ विज्ञा पर केवल डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या, डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ. हरदेव बाहरी, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ, उदय नारायण तिवारी, डॉ. सुरेश कुमार वर्मा आदि ने ही कार्य किया है। डॉ. बाहरी ने ने अंग्रेजी में लिखित शोध प्रबंध 'हिंदी सेमेंटिक्स' हिंदी भाषा को अर्थविज्ञान के विविध कोणों से स्पर्श किया गया है। डॉ. केशवराम पाल का हिंदी अर्थ से सम्बद्ध शोध प्रबंध 'हिंदी में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों के अर्थ परिवर्तन' की परिधि सीमित है। अर्थान्तर की नींव वस्तु - नामांकन के समय ही पड़ जाती है। एक नामांकन दूसरे नामांकन को जन्म देता है। इससे प्रथम में अर्थान्तर की छाया उत्पन्न हो जाती है।
वाक्य और अर्थ में अर्थवैज्ञानिक एवं व्याकरणिक संबंध है। वाक्य के भेद-प्रभेद अर्थ को भिन्न-भिन्न स्तर प्रदान करते हैं। शब्द शक्तियों काव्य वैभव में वृद्धि करती हैं। हिंदी अर्थ परिवर्तन में लक्षणा और व्यंजना का अभूतपूर्व योगदान है।
हिंदी क्रियाओं के अंतर्गत अर्थ के लक्षणात्मक परिवर्तन, विशेषार्थक व्यंजनाओं, तथा संध्वनीय भिन्नार्थी रूपों का ज्ञान रचनाकार को होना आवश्यक है।
अर्थ की दृष्टि से विशेषणों की अस्पष्टता व विसंगति, उनके प्रयोग भेद, विरुद्धार्थी विशेषणों की सापेक्ष स्थिति का परिचय स्थिर अर्थ को गतिमान कर सकता है। विशेषणों के अर्थों को प्रत्यय योजना भी प्रभावित करती है। संज्ञा और विशेषण की भिन्नार्थक समध्वनीयता रचनाओं में रोचकता और लालित्य की वृद्धि करती हैं।
क्रमश:

शनिवार, 3 जुलाई 2021

संस्मरण कुँवर वीरसिंह मार्तण्ड

संजीव वर्मा सलिल मेरी दृष्टि में

एशिया का सबसे बड़ा गाँव.. उत्तर प्रदेश का गहमर..। फौजी गाँव , .. कई बार दूरदर्शन पर देखा सुना....। उपन्यासकार गोपाल राम गहमरी का गाँव....। ...अब, अखंड गहमरी ( अखंड प्रताप सिंह) का साहित्यिक कार्यक्रम। ... हॉल में फोल्डिंग चार पाइयां लगी हुई हैं। .. साहित्यकार एक-एक कर आते जा रहे हैं।
दो व्यक्ति आये। एक की दाड़ी बढ़ी हुई सी, कुछ छितरी हुई सी। पैंट शर्ट पहने। दूसरे की दाड़ी-मूँछ सफाचट, सिर के अधपके बाल कुछ बिखरे हुए से। कुर्ता-पाजामा पहने बहुत साधारण से। .... अपने बगल में पड़े खाली पलंगों पर बैठने का इशारा करता हूँ। दुआ सलाम के बाद, सामान्य सा परिचय ....। सामान रखकर ...बहुत गर्मी है... कहकर अपने कपड़े खोलकर पंखे की हवा लेने का प्रयास करते हैं दोनों। .... बातों का सिलसिला शनैः शनैः आगे बढ़ता है। परिचय की परतें खुलने लगती हैं। पता लगता है, जबलपुर से हैं, संस्मरण लेखिका एवं छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा के भतीजे...। जबलपुर के कवि आचार्य भगवत दुबे एवं गार्गीशरण मिश्र से परिचय होने की बात कहता हूँ .... बात और आगे बढ़ती है। धीरे धीरे नाम पता चलता है ... संजीव वर्मा सलिल। .. एक बार कोलकाता के श्यामलाल उपाध्याय के मुँह से सुना था उनका नाम...। उनके दो संकलनों की भूमिका लेखक यही थे। बड़ी ही विद्वता पूर्ण भूमिका थी।
आधुनिक कविता को लेकर काफी चर्चा होती रही। प्रश्न था.. आजकल के कवियों की कविताओं में छंद भंग का दोष..., छंद के व्याकरण की जानकारी का अभाव...। कविताओं में रसानुभूति की कमी...। मंच पर बढ़ती हुई लप्फाजी .... आदि आदि। उनका विचार था कि कविता पर चर्चा के लिए कार्यशाला होना अति आवश्यक है। एक समय था जब गोष्ठियों में समस्या पूर्तियाँ दी जाती थीं, सुनी जाती थीं, कविताओं की आलोचना की जाती थी, वरिष्ठ कवि कनिष्ठों को समझाते थे और कनिष्ठ बड़े अदब के साथ उनके सुझावों को सुनते, गुनते व मानते थे। मगर अब स्थिति बदल गई है। अब तो “आपै गुरु आपै चेला” वाली स्थिति आ गई है। कोई किसी की सुनता ही नहीं। दो चार लाइनें लिख कर .. महाकवि होने का भ्रम पाल लेते हैं। बहुत सारी बातें हुईं.... कार्यक्रम समाप्त हुआ। जो जहाँ से आये थे, वापस चले गये।
अखिल भारतीय साहित्य परिषद का जबलपुर अधिवेशन....। साढ़े छह सौ लोगों का जमावड़ा...। मैं भी पहुँचा हुआ था। प्रवेश द्वार पर एक सज्जन दिखे....। वही कुर्ता पाजामा वाले सज्जन ...। पुरानी यादें ताजा हो गईं। दुआ सलाम के बाद चले गये। हम लोग भी कार्यक्रम के विभिन्न सत्रों में व्यस्त हो गये।
दूसरे दिन सूचना मिली ... बसंत कुमार शर्मा जी के निवास पर एक गोष्ठी है, आप को आना है। रामेश्वर शर्मा उर्फ रामू भैया (कोटा), डॉ. राम सनेही लाल शर्मा यायावर जी (फीरोजाबाद), श्रीमती क्रान्ति कनाटे (ग्वालियर) , मैं (कोलकाता) और भी कई लोग विशेष रूप से आमंत्रित थे। गाड़ी भेज दी थी। हम लोग समय से थोड़े बाद में पहुंचे। कार्यक्रम आरंभ हुआ, सबका परिचय दिया गया। कविता पाठ हुए। कविता पर फिर कुछ चर्चा हुई। “साहित्य त्रिवेणी” के एक अंक का विमोचन भी हुआ।
मेरे मस्तिष्क में गहमर में छन्दों पर हुई चर्चा .... उमड़ घुमड़ रही थी। मैंने सलिल के सामने प्रस्ताव रखा कि “भारतीय छंद विधा” को लेकर “साहित्य त्रिवेणी” का एक विशेषांक निकाला जाय और आप उसके अतिथि संपादन का भार संभालें। उससे पहले यायावर जी के अतिथि संपादन में “साहित्य त्रिवेणी” का “नवगीत विशेषांक” भी आ चुका था। जिसमें सलिल जी का भी नवगीत छपा था। वे पत्रिका के स्तर को देख चुके थे। अतः तुरंत तैयार हो गये।
विशेषांक की तैयारी शुरू हो गई। रचनाएं मंगाई जाने लगीं। उन्होंने अथक परिश्रम किया। मैं शनैः शनैः उनके ज्ञान के अपार भंडार से परिचित होता चला गया। मुझे पता लगा वे वाट्सएप पर ‘अभियान जबलपुर’, ‘हिन्दी व्याकरण और साहित्य’, ‘सवैया सलिला’ और फेसबुक पर ‘विश्व वाणी हिन्दी संस्थान’ का संचालन-परिचालन करते हैं। इसके अलावा अंतर्जाल पर ‘हिन्द युग्म’ पर ‘छंद-शिक्षण’, ‘साहित्य शिल्पी’ पर ‘काव्य का रचना शास्त्र’ सिखाते आ रहे हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने छंद और अलंकारों पर अनेक लेख भी लिखे हैं। तात्पर्य यह है वे पूर्णरूपेण साहित्य को समर्पित हैं। उनकी एक-एक सांस साहित्य सेवा में संलग्न है।
उनका अपना रचना संसार तो है ही, संपादन आदि के लिए भी समय निकालते हैं। उनका एक-एक पल साहित्यमय बन गया है। इसमें कोई शक नहीं।
मैं उनके दीर्घ जीवन, अच्छे स्वास्थ्य, यशस्वी व कीर्तिमय जीवन की कामना करते हुए ‘ट्रू मिडिया’ एवं उसके संपादक मण्डल को भी धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने अपने विशेषांक हेतु उचित व्यक्ति को चुना है। उनका जीवन हम सबके लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगा। इन्ही शब्दों के साथ..
डॉ. कुँवर वीरसिंह मार्तण्ड
संपादक : साहित्य-त्रिवेणी ( बहुभाषिक त्रैमाषिक साहित्य-पत्रिका)
डी-1, 94/A, पश्चिम पुटखाली, मंडलपाड़ा, पो.- दौलतपुर वाया विवेकानंद पल्ली, महेशतला, कोलकाता– 700139,
मो.– 9831062362, email: sahityatriveni@gmail।.com

संस्मरण पवन जैन

संस्मरण : 
पहली मुलाकात।
मैं बैंक का सेवानिवृत्त प्रबंधक साहित्य पाठन से तो जुडा़ था, पर लेखन और साहित्यकारों से दूर था। बैंक सेवा के दौरान आपा- धापी में समय द्रुत गति से दौड़ता जा रहा था। सेवा निवृत्ति के बाद फेसबुक समूहों से जुड़ा और लघुकथाएँ लिखने लगा। फेसबुक पर 'लघुकथा के परिंदे' समूह की संचालिका सुश्री कांता राय ने बताया कि साहित्य की दुनिया में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का बड़ा नाम है और वे जबलपुर में रहते हैं, उन्होंने मुझे उनसे मिलने की सलाह दी। यह तीन वर्ष पुरानी बात है।
जबलपुर में होमसाईंस कालेज रोड़ जाना पहचाना स्थान है, बिना किसी परेशानी के पहुँच गया एक दिन उनके निवास पर।
दरवाजा खुलते ही देखा पूरा कमरा चारों तरफ से पुस्तकों से भरा हुआ है, कुर्सी पर विराजमान थे आचार्य जी सामने टेबिल, टेबिल पर कम्प्यूटर, उन्होंने गर्मजोशी से स्वागत किया। मेरे दिमाग में एक छवि थी कि गंवई तकिया लगाए तख्त पर अधलेटे विचार मुद्रा में किसी व्यक्ति से परिचय होगा। परंतु आचार्य जी तो वर्तमान युग के साहित्यकार है जिनके पास बुजुर्गों के संस्कार भी हैं और कम्प्यूटर युग की तकनीक भी। वे लगातार परिचयात्मक बात करते रहे, और अंगुलियाँ कम्प्यूटर पर चलती रही। उन्होंने कहा बस दो मिनट यह लेख पूरा कर लूँ। मेरी नजर कमरे में रखी पुस्तकों को टटोल रही थी, मेरी पसंद की पुस्तकों का खजाना देख कर मन ही मन प्रसन्न हो रहा था। नये कवर की कई पुस्तकों, लेखकों से मैं अन्जान था।
उन्होंने नजर उठाई और बातों का सिलसिला चल पड़ा, पाँच मिनिट बाद ही ऐसा महसूस होने लगा कि हम तो बरसों से एक दूसरे से परिचित हैं, जबलपुर और उसके विकास से जुडी़ बातों पर सहभागिता होना लाजिमी है। तभी मालूम हुआ कि आप पेशे से इंजीनियर हैं।
साहित्य है ही इतना विशाल उससे हर वर्ग, जाति, समुदाय और पेशे के लोग जुडे़ हैं। साहित्य पर चर्चा होने लगी, लघुकथा विधा पर इसके इतिहास और वर्तमान पर उन्होंने भरपूर जानकारी दी।
तीन घंटे कब निकल गये मालूम ही नहीं पड़ा।
तब से विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान की गोष्ठियाँ में मेरी पत्नी मधु जैन के साथ सहभागिता होने लगी। अब उनका सान्निध्य और स्नेह हम दोनों को प्राप्त है।
पवन जैन,
593 संजीवनी नगर, जबलपुर।
jainpawan9954@gmail.com

सड़गोड़ासनी

बुंदेली छंद:
सड़गोड़ासनी
शुभ प्रभात
*
सूरज नील गगन से झाँक
शुभ-प्रभात कहता है।
*
उषा-माथ सिंदूरी सूरज
दिप्-दिप्-दिप् दहता है।
*
धूप खेलती आँखमिचौली,
पवन हुलस बहता है।
*
चूँ-चूँ चहक रही गौरैया,
आँगन सुख गहता है।
*
नयनों से नयनों की बतियाँ,
बज कंगन तहता है।
*
नदी-तलैया देख सूखती
घाट विरह सहता है।
*
पत्थर की नगरी में यारों!
सलिल-ह्रदय रहता है।
***
(टीप: सड़गोड़ासनी बुंदेली बोली का छंद है. मुखड़ा १५-१२ मात्रिक, चार मात्रा पश्चात् गुरु-लघु आवश्यक, अंतरा १६-१२,तथा मुखड़ा-अंतरा समतुकांती होते हैं. इस छंद को आधुनिक हिंदी खड़ी बोली में प्रस्तुत करने के इस प्रयास पर पाठकों की राय आमंत्रित है. अन्य देशज बोलिओं के छंद रचना विधान सहित हिंदी में रचे जाएं तो उन्हें अपने 'छंद कोष' में सम्मिलित कर सकूँगा।)
२.७.२०१८, ७९९९५५९६१८

नर्मदाष्टकं शंकराचार्य

भगवत्पादश्रीमदाद्य शंकराचार्य स्वामी विरचितं नर्मदाष्टकं
*
सविंदुसिंधु-सुस्खलत्तरंगभंगरंजितं, द्विषत्सुपापजात-जातकारि-वारिसंयुतं
कृतांतदूत कालभूत-भीतिहारि वर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .१.

त्वदंबु लीनदीन मीन दिव्य संप्रदायकं, कलौमलौघभारहारि सर्वतीर्थनायकं
सुमत्स्य, कच्छ, तक्र, चक्र, चक्रवाक् शर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .२.

महागभीर नीरपूर - पापधूत भूतलं, ध्वनत समस्त पातकारि दारितापदाचलं.
जगल्लये महाभये मृकंडुसूनु - हर्म्यदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .३.

गतं तदैव मे भयं त्वदंबुवीक्षितं यदा, मृकंडुसूनु शौनकासुरारिसेवितं सदा.
पुनर्भवाब्धिजन्मजं भवाब्धि दु:खवर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .४.

अलक्ष्य-लक्ष किन्नरामरासुरादि पूजितं, सुलक्ष नीरतीर - धीरपक्षि लक्षकूजितं.
वशिष्ठ शिष्ट पिप्पलादि कर्ममादिशर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .५.

सनत्कुमार नाचिकेत कश्यपादि षट्पदै, घृतंस्वकीय मानसेषु नारदादि षट्पदै:,
रवींदु रन्तिदेव देवराज कर्म शर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .६.

अलक्ष्यलक्ष्य लक्ष पाप लक्ष सार सायुधं, ततस्तु जीव जंतु-तंतु भुक्ति मुक्तिदायकं.
विरंचि विष्णु शंकर स्वकीयधाम वर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .७.

अहोsमृतं स्वनं श्रुतं महेशकेशजातटे, किरात-सूत वाडवेशु पण्डिते शठे-नटे.
दुरंत पाप-तापहारि सर्वजंतु शर्मदे, त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे .८.

इदन्तु नर्मदाष्टकं त्रिकालमेव ये यदा, पठंति ते निरंतरं न यांति दुर्गतिं कदा.
सुलक्ष्य देह दुर्लभं महेशधाम गौरवं, पुनर्भवा नरा न वै विलोकयंति रौरवं. ९.

इति श्रीमदशंकराचार्य स्वामी विरचितं नर्मदाष्टकं सम्पूर्णं
***
श्रीमद आदि शंकराचार्य रचित नर्मदाष्टक : हिन्दी पद्यानुवाद द्वारा संजीव 'सलिल'

उठती-गिरती उदधि-लहर की, जलबूंदों सी मोहक-रंजक
निर्मल सलिल प्रवाहितकर, अरि-पापकर्म की नाशक-भंजक
अरि के कालरूप यमदूतों, को वरदायक मातु वर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.१.

दीन-हीन थे, मीन दिव्य हैं, लीन तुम्हारे जल में होकर.
सकल तीर्थ-नायक हैं तव तट, पाप-ताप कलियुग का धोकर.
कच्छप, मक्र, चक्र, चक्री को, सुखदायक हे मातु शर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.२.

अरिपातक को ललकार रहा, थिर-गंभीर प्रवाह नीर का.
आपद पर्वत चूर कर रहा, अन्तक भू पर पाप-पीर का.
महाप्रलय के भय से निर्भय, मारकंडे मुनि हुए हर्म्यदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.३.

मार्कंडे-शौनक ऋषि-मुनिगण, निशिचर-अरि, देवों से सेवित.
विमल सलिल-दर्शन से भागे, भय-डर सारे देवि सुपूजित.
बारम्बार जन्म के दु:ख से, रक्षा करतीं मातु वर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.४.

दृश्य-अदृश्य अनगिनत किन्नर, नर-सुर तुमको पूज रहे हैं.
नीर-तीर जो बसे धीर धर, पक्षी अगणित कूज रहे हैं.
ऋषि वशिष्ठ, पिप्पल, कर्दम को, सुखदायक हे मातु शर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.५.

सनत्कुमार अत्रि नचिकेता, कश्यप आदि संत बन मधुकर.
चरणकमल ध्याते तव निशि-दिन, मनस मंदिर में धारणकर.
शशि-रवि, रन्तिदेव इन्द्रादिक, पाते कर्म-निदेश सर्वदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.६.

दृष्ट-अदृष्ट लाख पापों के, लक्ष्य-भेद का अचूक आयुध.
तटवासी चर-अचर देखकर, भुक्ति-मुक्ति पाते खो सुध-बुध.
ब्रम्हा-विष्णु-सदा शिव को, निज धाम प्रदायक मातु वर्मदा.
चरणकमल में नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.७.

महेश-केश से निर्गत निर्मल, 'सलिल' करे यश-गान तुम्हारा.
सूत-किरात, विप्र, शठ-नट को,भेद-भाव बिन तुमने तारा.
पाप-ताप सब दुरंत हरकर, सकल जंतु भाव-पार शर्मदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.८.

श्रद्धासहित निरंतर पढ़ते, तीन समय जो नर्मद-अष्टक.
कभी न होती दुर्गति उनकी, होती सुलभ देह दुर्लभ तक.
रौरव नर्क-पुनः जीवन से, बच-पाते शिव-धाम सर्वदा.
चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा.९.

श्रीमदआदिशंकराचार्य रचित, संजीव 'सलिल' अनुवादित नर्मदाष्टक पूर्ण.

दोहा-हाइकु गीत

अभिनव प्रयोग
दोहा-हाइकु गीत
प्रतिभाओं की कमी नहीं...
संजीव 'सलिल'
**
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
धूप-छाँव का खेल है
खेल सके तो खेल.
हँसना-रोना-विवशता
मन बेमन से झेल.
दीपक जले उजास हित,
नीचे हो अंधेर.
ऊपरवाले को 'सलिल'
हाथ जोड़कर टेर.
उसके बिन तेरा नहीं
कोई कहीं अस्तित्व.
तेरे बिन उसका कहाँ
किंचित बोल प्रभुत्व?
क्षमताओं की
कमी नहीं किंचित
समताओं की.
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
पेट दिया दाना नहीं.
कैसा तू नादान?
'आ, मुझ सँग अब माँग ले-
भिक्षा तू भगवान'.
मुट्ठी भर तंदुल दिए,
भूखा सोया रात.
लड्डूवालों को मिली-
सत्ता की सौगात.
मत कहना मतदान कर,
ओ रे माखनचोर.
शीश हमारे कुछ नहीं.
तेरे सिर पर मोर.
उपमाओं की
कमी नहीं किंचित
रचनाओं की.
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
३-७-२०११ 
*

मुक्तिका :- सूरज

-: मुक्तिका :-
सूरज - १
संजीव 'सलिल'
*
उषा को नित्य पछियाता है सूरज.
न आती हाथ गरमाता है सूरज..

धरा समझा रही- 'मन शांत करले'
सखी संध्या से बतियाता है सूरज..

पवन उपहास करता, दिखा ठेंगा.
न चिढ़ता, मौन बढ़ जाता है सूरज..

अरूपा का लुभाता रूप- छलना.
सखी संध्या पे मर जाता है सूरज..

भटककर सच समझ आता है आखिर.
निशा को चाह घर लाता है सूरज..

नहीं है 'सूर', नाता नहीं 'रज' से
कभी क्या मन भी बहलाता है सूरज?.

करे निष्काम निश-दिन काम अपना.
'सलिल' तब मान-यश पाता है सूरज..
३-७-२०११ 
*

बाल गीत आन्या गुड़िया

: बाल गीत :
संजीव 'सलिल'
*
आन्या गुड़िया प्यारी,
सब बच्चों से न्यारी।
गुड्डा जो मन भाया,
उससे हाथ मिलाया।
हटा दिया मम्मी ने, 
तब दिल था भर आया।
आन्या रोई-मचली,
मम्मी थी कुछ पिघली। 
नया खिलौना ले लो,
आन्या को समझाया।
उसका संग निभाना 
जिस पर दिल हो आया। 
३-७-२०१० 
***

गीत:प्रेम कविता

गीत:प्रेम कविता...
संजीव 'सलिल'
*
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम कविता को लिखा जाता नहीं है.
प्रेम होता है किया जाता नहीं है..
जन्मते ही सुत जननि से प्रेम करता-
कहो क्या यह प्रेम का नाता नहीं है?.
कृष्ण ने जो यशोदा के साथ पाला
प्रेम की पोथी का उद्गाता वही है.
सिर्फ दैहिक मिलन को जो प्रेम कहते
प्रेममय गोपाल भी
क्या दिख सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम से हो क्षेम?, आवश्यक नहीं है.
प्रेम में हो त्याग, अंतिम सच यही है..
भगत ने, आजाद ने जो प्रेम पाला.
ज़िंदगी कुर्बान की, देकर उजाला.
कहो मीरां की करोगे याद क्या तुम
प्रेम में हो मस्त पीती गरल-प्याला.
और वह राधा सुमिरती श्याम को जो
प्रेम क्या उसका कभी
कुछ चुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
अपर्णा के प्रेम को तुम जान पाये?
सिया के प्रिय-क्षेम को अनुमान पाये?
नर्मदा ने प्रेम-वश मेकल तजा था-
प्रेम कैकेयी का कुछ पहचान पाये?.
पद्मिनी ने प्रेम-हित जौहर वरा था.
शत्रुओं ने भी वहाँ थे सिर झुकाए.
प्रेम टूटी कलम का मोहताज क्यों हो?
प्रेम कब रोके किसी के
रुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
३-७-२०१० 
*

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

छंद सलिला: दोहा गोष्ठी

छंद सलिला:
दोहा गोष्ठी:
*
सूर्य-कांता कह रही, जग!; उठ कर कुछ काम।
चंद्र-कांता हँस कहे, चल कर लें विश्राम।।
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सूर्य-कांता भोर आ, करती ध्यान अडोल।
चंद्र-कांता साँझ सँग, हँस देती रस घोल।।
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सूर्य-कांता गा रही, गौरैया सँग गीत।
चंद्र-कांता के हुए, जगमग तारे मीत।।
*
सूर्य-कांता खिलखिला, हँसी सूर्य-मुख लाल।
पवनपुत्र लग रहे हो, किसने मला गुलाल।।
*
चंद्र-कांता मुस्कुरा, रही चाँद पर रीझ।
पिता गगन को देखकर, चाँद सँकुचता खीझ।।
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सूर्य-कांता मुग्ध हो, देखे अपना रूप।
सलिल-धार दर्पण हुई, सलिल हो गया भूप।।
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चंद्र-कांता खेलती, सलिल-लहरियों संग।
मन मसोसता चाँद है, देख कुशलता दंग।।
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सूर्य-कांता ने दिया, जग को कर्म सँदेश।
चंद्र-कांता से मिला, 'शांत रहो' निर्देश।।
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टीप: उक्त द्विपदियाँ दोहा हैं या नहीं?, अगर दोहा नहीं क्या यह नया छंद है?
मात्रा गणना के अनुसार प्रथम चरण में १२ मात्राएँ है किन्तु पढ़ने पर लय-भंग नहीं है। वाचिक छंद परंपरा में ऐसे छंद दोषयुक्त नहीं कहे जाते, चूँकि वाचन करते हुए समय-साम्य स्थापित कर लिया जाता है।
कथ्य के पश्चात ध्वनिखंड, लय, मात्रा व वर्ण में से किसे कितना महत्व मिले? आपके मत की प्रतीक्षा है।